आगंतुक पंचानन मेहता था ।
वह एक लगभग चालीस वर्ष का बड़े ही साफ-सुथरे नयन नक्श वाला व्यक्ति था । इतनी कम उम्र में भी वह सिर से एकदम गंजा था । उसकी खोपड़ी हमेशा यूं लगती थी जैसे ताजी-ताजी पोलिश घिस कर चमकाई गई हो ।
उम्मीद तो नहीं कि आप अपने खादिम को भूले होंगे लेकिन फिर भी मैं आपको फिर से अपना परिचय दे देता हूं । बंदे को सुधीर कोहली कहते हैं और बंदा प्राइवेट डिटेक्टिव के उस दुर्लभ धंधे से ताल्लुक रखता है जो हिंदोस्तान में अभी ढंग से जाना पहचाना नहीं जाता । तंबाकू और आलू के पौधे की तरह प्राइवेट डिटेक्टिव की कलम को भी आप विलायत की देन समझिए । बस यूं जानिए कि प्राइवेट डिटेक्टिव की फसल हिंदोस्तान में बस अभी शुरू ही हुई है । एकाध अधपका काट लिया गया था तो वह फेल हो गया । फल-फूल कर मुकम्मल पेड़ फिलहाल यूयर्स ट्रूली ही बना है । कहने का मतलब यह है कि इसे आप कुदरत का करिश्मा कहें या बंदे का, पूछ है आपके खादिम की दिल्ली शहर में ।
“आजकल क्या फीस लेते हो ?” - पंचानन मेहता ने पूछा ।
“यह तो” - मैं बोला - “फीस देने वाले को बताई जाने वाली बात है ।”
“समझ लो कि मैं ही फीस देने वाला हूं ।”
“सीरियस हो ?”
“हां ।”
“क्या माजरा है ?”
“तुम्हें मेरे पार्टनर की याद है ?”
“कल्याण खरबन्दा की ?”
“हां ।”
“वही न जिससे तुमने कोई आठ महीने पहले उत्कल प्रकाशन में अपनी पार्टनरशिप तोड़ ली थी और पार्टनरशिप तोड़ते ही जिसके हाथ कोख का कलंक की स्क्रिप्ट लगी थी जो कि उसके लिए हीरे की खान साबित हुई थी ।”
“तुम्हारी बात में दो नुक्स हैं ।”
“क्या ?”
“एक तो यह कि पार्टनरशिप मैंने नहीं कल्याण खरबन्दा ने तोड़ी थी और दूसरे कोख का कलंक की स्क्रिप्ट उसके हाथ पार्टनरशिप टूटने के बाद नहीं, पहले लगी थी ।”
“मतलब ?” - मैं सकपकाया ।
“मतलब यह कि कोख का कलंक की स्क्रिप्ट ऑफिस में तब पहुंची थी जब मैं और खरबन्दा अभी पार्टनर थे लेकिन तब स्क्रिप्ट मुझे न दिखाकर, मेरे से स्क्रिप्ट का जिक्र तक न करके, उसने मेरे साथ धोखा किया था ।”
“अच्छा !”
“हां । जरूर उसने चुपचाप स्क्रिप्ट पढ़ी थी और उसे उसमें अंतहीन संभावनाएं दिखाई दी थीं । उसने तब स्क्रिप्ट छुपा ली थी और मेरे से पार्टनरशिप तोड़ चुकने के बाद खुद उसे छापा था । तुम जानते ही हो कि वह नॉवल न सिर्फ बिक्री के आज तक के तमाम रिकॉर्ड तोड़ चुका है बल्कि उस नॉवल के दम पर वह देश के सबसे बड़े प्रोड्यूसर की उस पर बनने वाली फिल्म में बीस प्रतिशत का पार्टनर बन गया है । उस इकलौते नॉवल से खरबन्दा लाखों कमा चुका है और अभी आगे लाखों कमाएगा । उस स्क्रिप्ट के मामले में खरबन्दा ने मुझे बहुत बड़ा धोखा दिया । उसने उस फर्म की प्रॉपर्टी को, जिसका मैं कभी आधे का पार्टनर था, अपनी अकेले की प्रॉपर्टी बना लिया ।”
“लेकिन तुम यह बात साबित तो नहीं कर सकते !”
“कर सकता हूं ।”
“कैसे ?”
“मानव शर्मा की मदद से । मानव शर्मा को तो जानते हो न तुम ?”
मैंने सहमति में सिर हिलाया । मानव शर्मा थियेटर की दुनिया का एक मशहूर नाम था और कई बेहद सफल ड्रामे स्टेज कर चुका था ।
“कल मेरी मानव शर्मा से मुलाकात हुई थी ।” - पंचानन मेहता बोला ।
“किस सिलसिले में ?”
“मैंने एक नए लेखक का ड्रामा छापा है । वह ड्रामा अगर स्टेज हो जाता तो काफी प्रसिद्धि पा सकता था । इसी सिलसिले में मैं मानव शर्मा से मिलने गया था । मानव शर्मा ने वह ड्रामा पढ़ा था । अपने जवाब के तौर पर वह बोला कि मैं इतना नासमझ था कि बढ़िया स्क्रिप्ट कोख का कलंक तो मैंने अपने हाथ से निकल जाने दी थी और ऊटपटांग रचनाओं के पीछे पड़ा हुआ था । मैंने उसे कहा कि जो चीज कभी मेरे हाथ में थी ही नहीं, उसके हाथ से निकल जाने का क्या सवाल हुआ ! उसे मेरी बात पर विश्वास न हुआ । वह समझा कि मैं झेंप मिटाने के लिए ऐसा कह रहा था ।”
“वो कैसे समझ रहा था कि कोख का कलंक पर कभी तुम्हारा भी अधिकार था ?”
“कल्याण खरबन्दा की वजह से । उसने बताया कि कोई नौ महीने पहले खरबन्दा उसे एक पार्टी में मिला था जहां नशे में उसने उसे कोख का कलंक की कहानी सुनाई थी । नौ महीने पहले ! कुछ समझे, कोहली ! नौ महीने पहले अभी मेरी और खरबन्दा की पार्टनरशिप टूटी नहीं थी । तब अगर खरबन्दा कोख का कलंक की कहानी सुनाने की स्थिति में था तो वह उसका अपना नहीं, फर्म का माल हुआ और तब मैं फर्म का बराबर का पार्टनर था । इस लिहाज से कोख का कलंक पर मेरा भी खरबन्दा जितना ही हक हुआ । खरबन्दा कोख का कलंक से लाखों रुपए कमा चुका है । कोहली, उस कमाई के आधे हिस्से पर मेरा हक बनता है ।”
“बशर्ते कि तुम साबित कर सको कि स्क्रिप्ट फर्म के बंटवारे से पहले फर्म में पहुंची थी ।”
“यह तो मानव शर्मा की बात ही साबित करती है ।”
“बशर्ते कि वह अपनी बात को बातरतीब बयान की सूरत में दोहराने को तैयार हो ।”
“वह क्यों नहीं होगा बात को दोहराने को तैयार !”
“मुझे क्या पता क्यों नहीं होगा !”
“मेरा मतलब है होगा, जरूर होगा ।”
“फिर क्या बात है ! फिर तो समझ लो कि तुमने लाखों रुपए पीट लिए ।”
“मेरा केस बनता है ?”
“केस का कानूनी पहलू तो तुम्हें कोई वकील ही समझा सकता है ।”
“मैं चाहता हूं कि कोर्ट कचहरी के पचड़े में पड़े बिना खरबन्दा से कोई वसूली हो जाए ।”
“यह भी हो सकता है । तुम उससे बात कर देखो । वो इस हकीकत से इंकार नहीं कर पाएगा कि फर्म के माल को कोई एक पार्टनर खुद ही हजम नहीं कर सकता ।”
“मैं उससे बात करूं ?” - वह संदिग्ध भाव से बोला ।
“हां । तुम मानव शर्मा के बयान का हवाला दोगे तो वह आसानी से हकीकत से मुकर नहीं सकेगा ।”
“अगर मानव शर्मा मुकर गया तो ?”
“अभी तो तुम कह रहे थे कि वह अपनी बात जरूर दोहराएगा ।”
“अगर खरबन्दा ने उसे बरगला लिया तो ?”
“वो ऐसा कर सकता है ?”
“आज वो बहुत सम्पन्न और समर्थ आदमी बन गया हुआ है । उसके मुकाबले में मेरी आज की हैसियत निहायत मामूली है । शायद वह मानव शर्मा को बरगला ले और अपनी तरफ कर ले ।”
“हकीकत एक और तरीके से भी उजागर की जा सकती है ।”
“वो कैसे ?”
“तुम कोख का कलंक के लेखक को भूल रहे हो । उस लेखक से भी तो पूछा जा सकता है कि उसने कब अपनी स्क्रिप्ट फर्म में दी थी ? बंटवारे से पहले या बाद में ?”
“ओह !”
“कौन है कोख का कलंक का लेखक ?”
“हर्षवर्धन ।”
“कहां पाया जाता है ?”
“पता नहीं ।”
“उसे तलाश किया जा सकता है ।”
“करो ।”
“मैं करूं ?”
“हां । तभी मैं तुम्हारे पास आया हूं । मैं चाहता हूं कि इस सिलसिले में जो कुछ हो सकता है तुम करो । मैं तुम्हारी हर मुनासिब फीस भरने को तैयार हूं ।”
“मेरी फीस जानते हो ?”
“जो भी हो मुझे मंजूर है । चाहो तो खरबन्दा से वसूल होने वाली रकम में हिस्सेदारी कर लो ।”
“हूं ।” - मैं कुछ क्षण सोचता रहा, फिर मैंने अपना डनहिल का पैकेट निकाल कर पंचानन मेहता को सिगरेट पेश किया । उसके इंकार करने पर मैंने एक सिगरेट सुलगा लिया, उसका एक लंबा कश लगाया और बोला - “मुझे अपने भूतपूर्व पार्टनर के बारे में और कुछ बताओ ।”
“और क्या बताऊं ?” - वह बोला ।
“कुछ भी । उसके कैरेक्टर के बारे में । उसकी सोशल लाइफ के बारे में । उसकी पर्सनल लाइफ के बारे में ।”
“कैरेक्टर के बारे में तो यह समझ लो कि निहायत ही चालू आदमी है । काईयां । बेमुरब्बत । एय्याश । पब्लिकेशन में मेरे साथ पार्टनरशिप के दौरान यूं भी चलती उसी की थी । लेखक लोगों से भी अधिकतर संपर्क उसी का रहता था । इसीलिए तो ऐसा हुआ कि कोख का कलंक की स्क्रिप्ट फर्म में पहुंची और मुझे पता तक न लगा ।”
“बंटवारा उस स्क्रिप्ट की वजह से हुआ ?”
“नहीं, ऐसा तो नहीं कहा जा सकता । ऐसी कुछ बातचीत हम दोनों में चल तो पहले से रही थी लेकिन हो सकता है कि, स्क्रिप्ट की वजह से खरबन्दा ने जरा जल्दी बंटवारे का फैसला कर लिया हो ।”
“हूं । एय्याशी वाली क्या बात हुई ?”
“वो औरतों का बहुत रसिया है । कई नवोदित लेखिकाओं को कलम पकड़ना सिखाते-सिखाते खराब कर चुका है ।”
“शादी नहीं की ?”
“की । मधुमिता अग्रवाल नामक एक कवियत्री से की । मधुमिता की पुस्तकें हम छापा करते थे । खरबन्दा उसके बहुत पीछे पड़ा था लेकिन उसके साथ कलम पकड़ना सिखाने वाले हालात नहीं पैदा कर सका था । लड़की उसे ऐसी भाई थी कि उसे हासिल करने के लिए उसने टॉप की कुर्बानी दी थी ।”
“शादी ?”
“हां । लड़की बहुर शानदार थी । मुझे आज तक हैरानी है की वह खरबन्दा जैसे हरामी से शादी करने को कैसे तैयार हो गयी थी !”
मुझे यूं लगा जैसे उसके मुंह से एक हल्की सी आह निकली हो ।
“मेहता” - मैंने कश लगाकर ढेर सारा धुआं उगला और धुएं के गुबार में से उसे अपलक देखता हुआ बोला - “कहीं तुम भी तो उस पर दिल नहीं रखते थे ?”
वह परे देखने लगा ।
“मेहता, मैंने एक सवाल पूछा है ।”
“अरे” - वह झुंझलाया - “मैं गंजा, उम्रदराज आदमी । कोई खूबसूरत नौजवान लड़की मेरे में भला क्यों दिलचस्पी लेगी !”
“उम्र का हवाला बेकार है । तुम्हारा वो भूतपूर्व पार्टनर भी उम्र में तुमसे कम नहीं । और फिर चालीस साल कोई उम्र होती है ! अंग्रेजों में तो कहते हैं कि जिंदगी शुरू ही चालीस से होती है । लाइफ बिगिन्स एट फोर्टी । बाकी रहे गंजेपन की बात बात ! तुम क्यों सोचते हो कि तुम गंजे हो ?”
“और क्या हूं ?”
“अरे यह तो तुम्हारा आला दिमाग है जो यूं नुमायां हो रहा है । इतने शानदार दिमाग को कहीं बालों में छुपा रहने दिया जा सकता है ।”
“बको मत, कोहली ।”
“तो कबूल करो कि तुम मधुमिता पर दिल रखते थे ?”
“था क्या, आज भी रखता हूं । वो आज भी मेरे से शादी कर ले तो मैं अपने आपको खुशकिस्मत समझूं ।”
“दो खसम करना कानूनन जुर्म है ।”
“अरे मैं उसके खरबन्दा से तलाक के बाद शादी की बात कर रहा हूं ।”
“ऐसी कोई संभावना है ?”
“मुझे नहीं पता ।”
“वैसे मधुमिता से तुम्हारी मेल मुलाकात है ?”
“है थोड़ी बहुत ।”
“खरबन्दा की जानकारी में ?”
“नहीं । अब वह कैसा छोड़ो और कोई और बात करो ।”
“खरबन्दा के पास” - मैंने और बात की - “अपनी फर्म अलग से चला सकने लायक पैसा था ?”
“नहीं था लेकिन वह हासिल करने में कामयाब हो गया था ।”
“कहां से ?”
“रूद्रनारायण गुप्ता से ।”
“यह कौन हुआ ?”
“रूद्रनारायण गुप्ता मधुमिता का अंकल है । उसकी मौसी का हसबैन्ड । उसने खरबन्दा की बहुत माली इमदाद की थी ।”
“क्यों ?”
“क्या पता क्यों ? खरबन्दा ने उसे कोई सब्ज बाग दिखाये होंगे । ऐसे कामों में तो माहिर तो वो है ही ।”
“आज की तारीख में वो काफी पैसे वाला आदमी है ?”
“हां ।”
“यानी कि अगर उसे यह जंच जाए कि उसके खिलाफ केस बनता है तो कोर्ट कचहरियों के चक्कर काटने की जगह वह औने पौने में आउट ऑफ कोर्ट सेटलमेंट के लिए तैयार किया जा सकता है ?”
“अगर तुम कोशिश करो तो । मुझे तो वह बेवकूफ बनाकर भगा देगा ।”
“लेकिन उससे बात करने से पहले हमें अपने हाथ मजबूत करने होंगे ।”
“कैसे ?”
“एक तो मेरी मानव शर्मा से बात करवाओ । मैं उससे स्क्रिप्ट की बाबत एक हलफिया बयान हासिल करने की कोशिश करूंगा ।”
“मैं कल मानव शर्मा से तुम्हारी बात करवाने की कोशिश करूंगा ।”
“वैरी गुड ! दूसरे मैं कोख का कलंक के लेखक को तलाश करने की कोशिश करूंगा ।” - मैं एक क्षण ठिठका और फिर बोला - “एक बात बताओ ।”
“क्या ?”
“इतना मशहूर लेखक गायब क्यों कर है ?”
“कुछ लोग लाइम लाइट में आना नापसंद करते हैं । कुछ लोग गुमनाम ही रहना चाहते हैं ।”
“कोख का कलंक के बाद से उसने कुछ नहीं लिखा ?”
“लिखा है तो कम से कम छपा नहीं है ।”
“नहीं ही लिखा होगा । इतने मशहूर लेखक की रचना तो लिखते ही छप जानी चाहिए ।”
“हां ।”
“बहरहाल मैं इस लेखक के घोड़े को तलाश करने की कोशिश करूंगा ।”
उसने सहमति में सिर इलाया ।
“इस तलाश पर आदमी लगाने पड़ेंगे । खर्चा करना पड़ेगा ।”
“तो ?”
“वाह मेरे भोले बलम ।”
“मेरा मतलब है हम तो वसूली में पार्टनर हैं ।”
“वो बाद की बात है । अभी तो कुछ खर्चा पानी झाड़ो ।”
“बड़े बेमुरब्बत हो !”
“बाउ जी, यह तो दस्तूर की बात है । घोड़ा घास से यारी करेगा तो खाएगा क्या ?”
उसने एक आह भरी और तीव्र अनिच्छापूर्ण भाव से अपनी जेब में हाथ डाला ।
बड़ी मुश्किल से मैं उससे एक हजार रुपए झटक पाया ।
***
पंचानन मेहता चला गया तो मैंने बाहरले केबिन में बैठी अपनी सैक्रेट्री रजनी को भीतर बुलाया और उसे सौ सौ के दस नोट पंखे की तरह फैलाकर दिखाए ।
“चलो अच्छा हुआ” - वह बड़ी सादगी से बोली ।
“क्या अच्छा हुआ ?”
“अब मेरी तनखाह अदा करने के लिए आपको किसी से उधार नहीं मांगना पड़ेगा ।”
“यह तुम्हें अपनी तनखाह दिखाई दे रही है ?” - मैं उसे घूरता हुआ बोला ।
“सौ पचास कम भी होंगे तो चलेगा । इतने का मुझे आप पर एतबार है ।”
“हर वक्त तुम्हें अपनी तनखाह की ही क्यों पड़ी रहती है ?”
“आप ही ने तो सीख दी है कि घोड़ा घास से यारी करेगा तो खाएगा क्या ?”
“यार को खा ले !”
“मैं वैजीटेरियन हूं ।”
“कभी ऐसा हुआ है कि किसी पहली को मैंने तुम्हें तनखाह न दी हो ?”
“हुआ है । कई बार हुआ है ।”
“मेरा मतलब है किसी महीने तुझे तनखाह न मिली हो ?”
“ऐसा तो नहीं हुआ ।”
“फिर भी अपनी तनखाह का रोना रोती रहती है ।”
“तभी तो नहीं हुआ ।”
“खामखाह तनखाह को रोना लेकर बैठ गयी । मैंने इसलिए ये नोट दिखाए थे ?”
“और किसलिए दिखाए थे ?”
“इसलिए दिखाए थे कि खर्चा पानी हाथ में आ गया है, कहीं पिकनिक को चलते हैं । कहीं तफरीह मार कर आते हैं ।”
“पहले इस रकम को खर्च करने का हकदार तो बन कर दिखा लीजिये । पहले इसकी एवज में कोई हाथ-पांव तो हिला लीजिये ।”
“मुझे सीख देती है ?”
“हां ।”
“अपने एम्प्लायर को ?”
“और तो कोई मुझे यहां दिखाई नहीं दे रहा ।”
“शर्म कर । इतना तो होता नहीं कि अपने एम्प्लायर को खुश देख कर उसकी खुशी में कोई इजाफा करे ।”
“वो कैसे ?”
“जैसे और सैक्रेट्रीज करती हैं ।”
“कैसे करती हैं ?”
“वो ऐसे मौके पर आकर अपने एम्प्लायर की गोद में बैठती हैं । और उसे उसकी कामयाबी पर बतौर मुबारकबाद पप्पी देती हैं ।”
“मैं और सैक्रेट्रीज के मुकाबले में जरा ज्यादा वजनदार हूं, मेरा बोझ नहीं उठेगा आपसे ।”
“अरे कैसे नहीं उठेगा ? उठा सकता हूं मैं तुम्हारा बोझ । आजमा कर तो देखो ।”
“तो फिर मैं शहनाई बजाने वालों को बुलाऊं । किसी पुरोहित को तलब करूं ?”
“वो किसलिए ?”
“ताकि मेरा बोझ - उम्र भर - उठाने का आपको लाइसेंस हासिल हो सके ।”
“लानत ! लानत ! फिर पहुंच गई अपनी पुरानी जगह पर ।”
वह हंसी ।
“हंसती बहुत बढ़िया हो । सारा गुस्सा भुला देती हो ।”
वह फिर हंसी ।
कुछ औरतों का अस्तित्व ताजमहल की तरह होता है । आप ताजमहल को देख सकते हैं, उसकी खूबसूरती से प्रभावित हो सकते हैं, उसके रूमानी वातावरण से आनंदित हो सकते हैं । लेकिन आप उसको अपने कब्जे में नहीं कर सकते, उसको खरीद नहीं सकते, उस पर अपना हक नहीं जता सकते ।
मेरी सैक्रेट्री कुछ ऐसी ही थी ।
“तो फिर नहीं इरादा कहीं पिकनिक पर जाने का ?” - मैं बोला ।
“काम कीजिये काम ।”
“ठीक है । तो फिर दफा हो ।”
“हो गई ।”
वह तत्काल मेरे केबिन से बाहर निकल गई ।
***
कल्याण खरबन्दा से रूबरू मुलाकात की मेरी तमाम कोशिशें बेकार गई ।
सबसे पहले मैं साउथ एक्सटेंशन में स्थित उसके ऑफिस में पहुंचा जहां कि पहले मुझे उसकी सैक्रेट्री  के पास पेश होना पड़ा और उसे बताना पड़ा कि मैं साहब से किस सिलसिले में मिलना चाहता था । सिलसिला सुनते ही साहब ने मिलने से इंकार कर दिया और मुझे ठंडे ठंडे वहां से लौट आना पड़ा ।
शाम को मैंने उसे किसी पब्लिक प्लेस में घेरने का इरादा किया लेकिन मुझे यह तक पता न लग सका कि वह कब ऑफिस से निकला और निकल कर कहां गया ?
रात को मैंने डिफेंस कॉलोनी में स्थित उसके फ्लैट की खूब घंटी बजाई । लेकिन यही न जान सका कि फ्लैट पर कोई था नहीं या जानबूझकर घंटी की आवाज को नजरअंदाज किया जा रहा था ।
अगले रोज मैंने नई तरकीब सोची ।
मैंने टेलीफोन निगम की मिस्त्रियों वाली एक खाकी वर्दी और एक टूल बैग मुहैया किया और मिस्त्री बनकर उसके फ्लैट पर पहुंच गया ।
उसके फ्लैट पर होने की कोई गारंटी नहीं थी लेकिन बहरहाल मुझे कुछ तो करना ही था । इसलिए मैं वहां आ गया था ।
मैंने कॉल बैल बजाई ।
पिछली रात के विपरीत उस बार दरवाजा खुला, फौरन तो न खुला लेकिन खुला ।
दरवाजे पर जो कटे बालों वाली रूपवती युवती प्रकट हुई, मेरे पर निगाह पड़ते ही उसने बड़े आतंकित भाव से दरवाजा बंद कर लेने की कोशिश की लेकिन वक्त रहते मैंने दरवाजे और चौखट के बीच अपना पांव अटका कर उसकी वह कोशिश नाकाम कर दी । उसने एक बार दरवाजे पर फिर जोर आजमायाश की लेकिन दरवाजा बंद न होता पाकर वह उसे छोड़ कर एकदम पीछे हट गई और तितर बितर मुझे ताकने लगी ।
“टेलीफोन वाले हैं, जी” - मैं बोला - “फोन चैक करना है ।”
“फ..फोन !” - वह बोली, फिर जैसे पहली बार उसकी निगाह मेरे जिस्म पर मौजूद वर्दी और हाथ में थमे टूल बैग पर पड़ी ।
“हां जी” - मैं बोला ।
“फ...फोन तो ठीक है ।”
“फिर भी चैक करना होता है, जी । हमें ऐसा ही हुक्म है ।”
वह अनिश्चित सी दरवाजे पर खड़ी रही ।
उसके खूबसूरत चेहरे से मेरी निगाह फिसली तो उसकी पोशाक पर पड़ी । उसकी पोशाक देखकर पहले मुझे नाव के पाल का ख्याल आया, फिर गेंहू के बोरे का, फिर मिलिट्री के तम्बू का और आखिर में मुझे शक सा हुआ कि वह कोई मोड पोशाक थी और युवती के अत्याधुनिक होने की अपने आप में दस्तावेज थी ।
“फिर कभी आना” - वह फंसे स्वर में बोली ।
“मैडम, फोन इसी वक्त देखना जरूरी है । मेरी नौकरी का सवाल है ।”
दरवाजा खुद खरबन्दा ने खोला होता ने खोला होता तो मेरा काम आसान हो जाता । अब अगर खरबन्दा फ्लैट में मौजूद था तो मैं उसके सिर पर जा धमकना चाहता था ताकि वो मुझे टरका न सके ।
“ओके” - असहाय भाव से गर्दन हिलाती हुई युवती दरवाजे से हटी - “वो उधर कोने में पड़ा है टेलीफोन ।”
मैंने विशाल ड्राइंगरूम में कदम रखा । खरबन्दा कम से कम वहां नहीं था । लेकिन अभी मैं नाउम्मीद न हुआ । फ्लैट बहुत बड़ा था । वह भीतर कहीं हो सकता था । टेलीफोन कोने में एक स्टूल पर पड़ा था । मैं उसके करीब पहुंचा और उसे चैक करने का बहाना करने लगा ।
थोड़ा परे खड़ी युवती मुझे अपलक देख रही थी ।
“यह फोन आपके पति के नाम है ?” - मैंने खामखाह सवाल कर दिया ।
“पति ?” - वह सकपकाई ।
“मिस्टर खरबन्दा । मेरा मतलब है जो नाम डायरैक्टरी में है ।”
“ओह, हां ! हां ! हां ।”
“कोई गलत नंबर लगने की शिकायत तो नहीं ?”
“नहीं, नहीं ।”
“या यहां गलत कॉल आती हों ?”
“नहीं आती । अब...अब अगर तुमने फोन चैक कर लिया हो तो, प्लीज....”
मुझे एकाएक एक बात सूझी ।
“इस का कहीं पैरेलल कनैक्शन भी है ?” - मैंने पूछा ।
“भीतर बैडरूम में है लेकिन वो भी ठीक चल रहा है । वो क्या है कि मेरे यहां कुछ मेहमान आने वाले हैं इसलिए तुम जरा जल्दी...”
“बस अभी एक मिनट में मैं बैडरूम का फोन चैक कर के फारिग होता हूं । बैडरूम किधर है ?”
उसने पिछले एक दरवाजे की तरफ इशारा कर दिया ।
मैं बैडरूम के दरवाजे पर पहुंचा । दरवाजा ठेल कर मैं भीतर दाखिल होने ही लगा था कि चौखट पर ही ठिठक गया ।
बैडरूम में बेतरतीबी का बोलबाला था । कपड़े बिखरे हुए थे, दराज खुले हुए थे । वार्डरोब के दरवाजे खुले हुए थे । फर्श पर कुछ कपड़े, कुछ हैंगर और दो खुले सूटकेस लुढ़के हुए थे ।
खरबन्दा वहां भी नहीं था ।
मेरी तवज्जो बाथरूम के बंद दरवाजे की तरफ गई ।
क्या वो बाथरूम में था ?
मैं टेलीफोन की तरफ बढ़ा जो कि पहलू में लगी एक साइड टेबल पर पड़ा था ।
मैं अभी उससे थोड़ा परे ही था कि एकाएक टेलीफोन की घंटी बजने लगी । वही घंटी बाहर ड्राइंगरूम वाले फोन पर भी बज रही थी लेकिन प्रत्यक्षत: बाहर मौजूद युवती फोन उठाने में रुचि रखती नहीं मालूम होती थी ।
मैं बाथरूम के बंद दरवाजे पर पहुंचा । मैंने दरवाजे पर दस्तक दी और उच्च स्वर में बोला - “साहब, फोन है ।”
कोई उत्तर न मिला ।
“फोन है साहब ।” - मैं फिर बोला । साथ ही मैंने दरवाजे को धक्का दिया ।
दरवाजा खुल गया ।
भीतर निगाह पड़ते ही मैं सन्नाटे में आ गया ।
बाथरूम में परली दीवार के साथ लगे विशाल खाली बाथटब में एक आदमी पड़ा था । वह कोट पतलून पहने था । उसकी आंखें पथराई हुई थीं । मैंने थोड़ा और आगे आकर उसे देखा तो मुझे उसकी छाती में गोली का सुराख दिखाई दिया ।
मैंने हिम्मत कर के गौर से उसकी सूरत देखी ।
खरबन्दा का जो हुलिया मुझे बताया गया था उसके मुताबिक हतप्राण कम से कम खरबन्दा नहीं था ।
फिर मुझे बाहर मौजूद युवती का ख्याल आया ।
क्या वही उस शख्स को शूट कर के हटी थी जबकि एकाएक मैं ऊपर से वहां पहुंच गया था ?
जरूर यही बात थी ।
मैं बाहर को भागा । बैडरूम में एक घुड़सवार की पीतल की प्रतिमा पड़ी थी जिसे मैंने बतौर हथियार इस्तेमाल करने की नीयत से उठा लिया और दौड़ कर ड्राइंगरूम में पहुंचा ।
युवती वहां नहीं थी ।
मैं बगूले की तरह सारे फ्लैट में फिर गया ।
युवती कहीं भी नहीं थी ।
मैं वापिस ड्राइंगरूम में पहुंचा ।
फोन अभी भी बज रहा था । मैंने कुछ सोच कर फोन की तरफ कदम बढ़ाया तो एकाएक वह खामोश हो गया ।
अब मुझे वहां से फौरन निकल भागने में ही अपनी खैरियत दिखाई देने लगी ।
लेकिन इससे पहले की मैं उस मुबारक ख्याल पर अमल कर पाता, फ्लैट का प्रवेशद्वार एकाएक खुला और दो सूटबूटधारी व्यक्तियों ने भीतर कदम रखा ।
“रूद्रनारायण जी” - एक व्यक्ति कह रहा था - “यह मसला आसान नहीं....”
एकाएक वह ठिठक गया और हकबकाया सा हाथ में घुड़सवार की प्रतिमा थामे मुझे देखने लगा ।
उस व्यक्ति को मैंने फौरन पहचाना ।
वह कल्याण खरबन्दा था ।
दूसरा, रूद्रनारायण के नाम से पुकारा जाने वाला शख्स, एक लंबा, ऊंचा, उम्रदराज लेकिन निहायत तंदरुस्त व्यक्ति था और अपने सफेद बालों, फ्रेंचकट दाढ़ी और सोने के फ्रेम वाले चश्मे में बड़ा गरिमाशाली लग रहा था ।
खरबन्दा अपनी हकबकाहट की हालत से उबरा तो हौले से दीवार के साथ लगी एक मेज की तरफ बढ़ा ।
मैं सशंक भाव से उसे देखता रहा । मेरे सिर से ऊपर आक्रमण की मुद्रा में तना मेरा प्रतिमा वाला हाथ अब अपने आप ही धीरे-धीरे नीचे झुकने लगा था ।
खरबन्दा मेज के करीब पहुंचा । मेरी ओर पीठ करके उसने उसका एक दराज खोलकर भीतर हाथ डाला । जब वह वापिस घूमा तो मैंने देखा उसके हाथ में एक रिवाल्वर थी और उसका निशाना मैं था ।
“खबरदार !” - वह क्रूर स्वर में बोला - “हिले तो गोली ।”
“आप जरा मेरी बात सुनिए” - मैं व्याकुल भाव से बोला - आप मुझे गलत समझ रहे हैं । आप...”
“खामोश !” - वह गुर्राया - “रूद्रनारायण जी, मैं इसे कवर करके रखता हूं, आप पुलिस को फोन कीजिये और उन्हें बताइये कि हमने एक चोर को रंगे हाथों पकड़ लिया है ।”
“मैं चोर नहीं हूं” - मैं तीखे स्वर में बोला ।
“अच्छा !” - खरबन्दा व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोला - “तो भीतर कैसे घुस आए ?”
“आपकी बीवी ने मुझे भीतर आने दिया था ।”
वह हंसा ।
“यह चालाकी नहीं चलने की, बेटा” - वह बोला - “मूर्ति नीचे रख दे । यह बहुत कीमती है ।”
मैंने मूर्ति एक ओर रख दी ।
“रूद्रनारायण जी, जरा बैडरूम में भी झांकना । कहीं इसका कोई जोड़ीदार वहां भी न मौजूद हो ।”
वह झिझकता हुआ आगे बढ़ा । कुछ क्षण बाद वह वापिस लौटा और बोला - “भीतर हर चीज उथली पुथली पड़ी है । एक बैग भी पड़ा है जिसमें ताले खोलने वाले औजार भरे मालूम होते हैं ।”
“ऐन वक्त पर पहुंचे हम । रंगे हाथों पकड़ा गया पट्ठा । आप पुलिस को फोन कीजिये ।”
“आप मेरी बात तो सुनिए” - मैं हड़बड़ाया सा बोला ।
“क्या सुनें तुम्हारी बात ?” - खरबन्दा कठोर स्वर में बोला ।
“मैं चोर नहीं हूं । भीतर जो टूल बैग पड़ा है उसमें टेलीफोन ठीक करने के औजार हैं । मैं यहां टेलीफोन ठीक करने आया था । खुद आपकी बीवी ने मेरे लिए दरवाजा खोला था और मुझे अंदर आने दिया था ।”
“मेरी बीवी ने !” - वह बोला । उसके स्वर में उपहास का पुट था - “यानी कि वो तुम से पहले यहां थी ?”
“हां ।”
“बुलाओ तो उसे ।”
“वो तो चली गई ।”
“लेकिन वो पहले यहां थी ?”
“हां ।”
“कैसी थी वो देखने में ? जरा हुलिया तो बयान करो उसका ।”
“वो एक खूबसूरत युवती थी । बड़ी मोड ड्रेस पहने थी । उसके बाल कटे हुए थे ।”
“बाल कटे हुए थे । साले, मेरी बीवी के तो कमर तक लंबे बाल हैं ।”
मैं मुंह बाए उसे देखने लगा ।
वृद्ध तब तक पुलिस को फोन लगा चुका था और कह रहा था था - “आप फौरन यहां पहुंचिए । हमने एक चोर पकड़ा है ।”
“और बाथरूम में से एक लाश बरामद की है” - मैं गहरी सांस लेकर बोला - “यह भी बता दीजिये । खूनी घटना का जिक्र सुनकर पुलिस हवा से बातें करती यहां पहुंचेगी ।”
अब वे दोनों मुंह बाए मुझे देखने लगे ।