श्रीगणेश एक पहेली से करता हूं।


' एक लड़की के मोबाइल पर एस. एम. एस. आया ----तुम्हारे बचाव का रास्ता पीले रंग के एक ऐसे घर में बंद है जहां काले रंग के मोती रहते हैं ।'


इस वाक्य का अर्थ हमारी समझ में नहीं आ रहा था ।


जिस लड़की को यह मैसेज मिला था, वह बहुत बड़े जंजाल में फंसी हुई थी, इसलिए उसके लिए इसका अर्थ समझना जीवन-मरण का प्रश्न बना हुआ था ।


बल्कि है।


अगर यह कहा जाए तो ज्यादा मुनासिब होगा कि अभी तक उसे इस जंजाल से मुक्त करा देने वाला 'बिरला' नहीं मिला है ।


जिनसे उसने मदद मांगी उनमें मैं भी शामिल हूं।


मैं... यानी आपका प्रिय लेखक ---- वेदप्रकाश शर्मा |


मैंने भी उपरोक्त वाक्य का अर्थ समझने की भरपूर कोशिश में अपने जेहन का काफी 'मलूदा' निकाला परंतु नतीजा निल बटा निल ।


सिर में दर्द होने लगा था, सो अलग।


हो सकता है मेरी तरह आपको भी यह मुगालता हो कि आपके पास एक 'आल्हा' दिमाग है ! अगर हां, तो आप भी उपरोक्त वाक्य का अर्थ समझने की कोशिश में उसका 'चूरमा' बनाएं ।


अर्थ तो खैर इस वाक्य का समझ में आएगा ही, हमारी समझ में नहीं आया तो विभा जिंदल की समझ में आएगा।


लेकिन जब तक विभा इस वाक्य का 'कचूमर' निकाले तब तक लगे रहिए, मुमकिन है आप विभा जितने ब्रिलिएंट साबित हों !


अब मैं आपको बताता हूं कि वह लड़की कौन है और पहेली जैसा यह वाक्य हमारे जीवन में कैसे और कहां से टपका ?


उपन्यास तो मैंने बहुत लिखे हैं।


मगर वैसा कभी नहीं लिखा जैसा इस बार लिख रहा हूं ।


आप जानते हैं कि 'शंखनाद' तक मेरे द्वारा लिखे गए उपन्यासों की संख्या एक सौ पचपन है ।


उनमें से तीन में 'विभा जिंदल' का जिक्र किया है ।


साढ़े तीन घंटे, बीवी का नशा और मि. चैलेंज |


एक सौ पचपन उपन्यासों में से अगर मैंने केवल तीन में विभा जिंदल का जिक्र किया है तो इसी से जाहिर है कि उस अजीमुश्शान हस्ती का जिक्र मैं करता ही तब हूं जब मेरे हाथ कोई बेहद अनोखा, अनूठा, रोमांचकारी, पेचीदा और इस कदर उलझा हुआ कथानक लग जाए जो मेरे दिमाग की नसों को झकझोरकर रख दे।


ऐसा ही हुआ है इस बार ।


ऐसा कि एक बार फिर मुझे विभा जिंदल पर कलम उठानी पड़ी ।


एक बार फिर मेरा दावा वही है जो विभा के पिछले तीन उपन्यासों में किया था ---- यह कि आप उपन्यास की अंतिम पंक्ति पढ़ने से पहले चाहे जितना दिमाग घोट लें लेकिन किसी हालत में हत्यारे का नाम नहीं जान सकेंगे। और... यह बात मैं दावे के साथ कहता हूं कि मेरा यह दावा पिछले तीन दावों के कई-कई गुना ज्यादा ठोस है। मुकाबले


यानी हो सकता है आपने साढ़े तीन घंटे, बीवी का नशा और मिचैलेंज के हत्यारे को विभा से पहले पकड़ लिया हो परंतु इस उपन्यास के हत्यारे को नहीं पकड़ सकेंगे ।


इस कथानक का अंत पढ़कर आपके सामने विभा जिंदल का एक ऐसा रूप आएगा जिसे जानने के बाद मेरी तरह आपके दिमाग के भी सारे फ्यूज एक ही झटके में ठीक इस तरह उड़ जाएंगे जैसे घातक किस्म का शॉर्ट सर्किट हुआ हो ।


विभा के उस रूप को देखने के बाद मेरी हालत ऐसी है कि हालांकि मैं उपन्यास लिखना शुरु कर चुका हूं लेकिन अभी भी डबल- माइंड हूं कि वह सब लिखना भी चाहिए या नहीं?


मुझे नहीं पता कि विभा जिंदल के उस रूप को देखने के बाद आप क्या सोचेंगे जिसकी कल्पना न मैंने पहले कभी की थी, न ही आप कर पाए होंगे ! ऐसी मानसिक अवस्था में मैं इसलिए हूं क्योंकि अभी तक भी फैसला नहीं कर पाया हूं कि अब मैं विभा को क्या कहूं?


खैर, जब भी मैं विभा के बारे में लिखने बैठता हूं तभी अपने अंदर एक कमी महसूस करता हूं ---- यह कि बहुत सारी बातें एक ही झटके में, एक ही बार में कह देने की कोशिश कर रहा हूं।


इसी कारण सबकुछ अटपटा हो जाता है।


उसी से बचने के लिए अगले चेप्टर से बात को सिलसिलेवार कहने की कोशिश करता हूं


चौदह दिसंबर की सर्द रात के दो बजे। किसी ने हमारे बैडरूम का दरवाजा खटखटाया । मेरी और मधु ( मेरी पत्नी ) की नींद उचट गई। मैंने हड़बड़ाकर ऊंची आवाज में पूछा----“कौन?” 


“मैं हूं भाई साहब, विनोद ।” 


“क्या हुआ ?” 


“कोई लड़की आई है।” 


“लड़की?” मैंने अपनी कलाई पर बंधी रेडियम डायल रिस्टवॉच


पर नजर डालने के साथ हैरान स्वर में पूछा ---- “रात के इस वक्त ?” 


“दिल्ली से आई है।” 


“हमें जानती है?” मैंने अब भी लिहाफ में से ही पूछा क्योंकि सर्दी इतनी थी कि उससे निकलने की हिम्मत नहीं पड़ रही थी । 


“शगुन ( मेरा बेटा) की फ्रेंड है ।” 


“शगुन की फ्रेंड!” हमारे कान खरगोश के कानों में बदल गए । नाइट बल्ब की रोशनी में एक-दूसरे की तरफ देखा। दोनों की आंखों में एक ही सवाल- कर क्या रहा है ये जवान  लड़का ? रात के दो बजे दिल्ली से उसकी फ्रेंड आई है! कहीं कोई लफड़ा तो नहीं? देखना और जानना जरूरी हो गया था । सो, लगभग एक ही साथ दोनों लिहाफ से निकले। मैंने तन पर गर्म नाइट-गाऊन डाला । मधु पहले ही गाऊन में थी।


आगे बढ़कर बैडरूम का दरवाजा खोला ।


विनोद बेचारा जिस्म को कंबल में लपेटे होने के बावजूद लॉबी में खड़ा कांप रहा था। मैंने उसी से पूछा ---- “तूने पूछा नहीं कि शगुन से उसे ऐसा क्या काम है जो दिल्ली से यहां चली आई ?”


“वह भी रात के दो बजे ।” मधु ने बात आगे बढ़ाई |


“सबकुछ पूछा । बार-बार जानने की कोशिश की । यह भी कहा कि इस वक्त न मैं शगुन को जगा सकता हूं, न ही आपको । मगर वह नहीं टल रही । एक ही रट लगाए हुए है। शगुन से मिलना है।"


“आओ ।” कहने के साथ मैंने लॉबी का वह हिस्सा पार किया जहां विनोद का फोल्डिंग पलंग पड़ा हुआ था। के. 1264 का मुख्यद्वार पार करके हम आयरन गेट पर पहुंचे। गेट के पार काले रंग की एक होंडा सिटी मौजूद थी। हमें यह समझते देर नहीं लगी कि वह उसी से आई है। वह, जो गेट के नजदीक खड़ी थरथर कांप रही थी । गेट के दोनों तरफ लगी लाइटों की रोशनी में हम उसे और उसके हुलिए को साफ देख सकते थे । वह करीब बाईस वर्षीय बेहद खूबसूरत लड़की थी। मगर, पता नहीं ऐसी क्या घटना पेश आई थी जिसने उसकी सारी खूबसूरती को डस रखा था । कीमती साड़ी पहन रखी थी उसने मगर पूरी तरह अस्त-व्यस्त। पैरों में कीमती सेंडिल्स | सोने के बिछुवे । बाल लंबे, रेशमी और मुलायम परंतु उलझे हुए । मस्तक पर लगी सुर्ख बिंदी का बस निशान भर रह गया था | पूरी तरह पुंछ चुकी थी वह । यही हाल मांग में भरे सिंदूर का था । गले में लटक रहा था ----कई डयमंड्स जड़ा मंगल-सूत्र | कम से कम हमारी नजर में आई शगुन की वह पहली शादीशुदा फ्रेंड थी । पहली ही नजर में दो बातें स्पष्ट हो रही थीं। एक---- वह किसी धनाढ्य घराने से थी । दो---- किसी घोर मुसीबत में थी ।


“क्या बात है बेटी ?” मैंने पूछा ।


“मेरा नाम चांदनी है अंकल ।” उसकी आवाज मीठी परंतु दर्द में डूबी हुई थी----“चांदनी बजाज | दिल्ली से आई हूं। बहुत परेशान हूं। इस मुसीबत में आप ही मेरी मदद कर सकते हैं मगर आप मुझे नहीं जानते । शगुन को बुला दीजिए । वह मुझे पहचान लेगा । "


“शगुन को कैसे जानती हो ?”


“हमने ‘ईग्नू’ में एकसाथ पायलट की ट्रेनिंग ली थी ।”


“ओह! लेकिन..


“सारी बातें यहीं खड़े-खड़े पूछ लेंगे क्या ?" मधु ने मेरी बात काटी ---- “देख नहीं रहे? कैसी कांप रही है बेचारी ?”


मैं चुप रह गया।


मधु ने कहा----“विनोद, दरवाजा खोल ।”


विनोद ने दरवाजे पर लगा ताला खोल दिया ।


“थैंक्यू ।” रोने को तैयार - सी वह अंदर आ गई ।


विनोद वापस ताला बंद करता वहीं रह गया जबकि हम उसे अपने बैडरूम में ले आए । सोफे पर बैठाने के बाद सबसे पहले मधु ने उसके जिस्म पर एक शॉल डाला।


तब तक विनोद वापस आ गया था ।


मधु ने उससे कहा- - “इसके लिए चाय बना दे।”


“चाय तो मेरे लिए भी बना देना ।” मैंने एक सिगरेट सुलगाते हुए कहा ---- “बल्कि सभी के लिए बना ले | तुझे खुद भी तो जरूरत होगी। अभी तक दांतों से 'पियानो' का काम ले रहा है । "


विनोद किचन की तरफ चला गया ।


“अब बताओ बेटी ।” मधु ने पूछा ---- “क्या बात है ? "


“मैं बहुत बुरी तरह फंस गई हूं आंटी ।” कहते-कहते उसके आंसू निकल आए। उसने मेरी तरफ देखते हुए कहा ---- “मुझे सिर्फ आप... आप भी नहीं, आपकी फ्रेंड बचा सकती है अंकल ।”


“मेरी फ्रेंड ?” मैं चौंका ---- “मेरी कौनसी फ्रेंड ?”


“व... विभा जिंदल ।”


“व... विभा!” यह नाम जुबान पर आते ही, बल्कि चांदनी द्वारा कहने पर कानों में पड़ते ही मेरा दिल ‘धक्कू' से रह गया था ।


जैसे धड़कना ही बंद हो गया हो ।


आप जानते हैं ---- हमेशा ऐसा ही होता है ।


क्योंकि विभा मेरा पहला प्यार है ।


वह हस्ती जिसकी वजह से मैं लेखक हूं ।


हकबकाकर मैंने मधु की तरफ देखा ।


वह भी मेरी ही तरफ देख रही थी । शायद यह जानने के लिए कि विभा का नाम आने पर मुझ पर क्या प्रतिक्रिया हुई है !


मेरे और विभा के बारे में वह एक - एक बात जानती है और वह भी विभा के प्रति बहुत श्रद्धा रखती है।


सिगरेट में एक कश लगाने के साथ मैंने अपनी भावनाओं को काबू में करने की कोशिश की। मधु से नजरें हटाकर चांदनी की तरफ देखा और बोला- - - - “तुम विभा के बारे में कैसे जानती हो ?”


“शगुन ने बताया था । ”


“शगुन ने!” मैं उलझा


“उसने क्या बताया तुम्हें ?”


“अंकल प्लीज।” उसने विनती-सी की ---- “यदि शगुन भी हमारे बीच होगा तो मैं कंफर्ट महसूस करूंगी।"


अपनी जिंदगी का एक क्षण मैंने यह सोचने में गंवाया कि शगुन को जगाया जाए या नहीं, फिर मधु से कहा ---- “उसे बता दो ।”


मधु 'मास्टर बैडरूम' से निकलकर शगुन के बैडरूम की तरफ बढ़ गई । मैंने सामने वाले सोफे पर बैठते हुए चांदनी को सांत्वना देने की मंशा से कहा---- “बेटी, घबराओ मत । दिमाग को शांत रखो। यूं समझो कि अपने ही घर में हो । ”


वह खामोश रही ।


“दिल्ली में कहां रहती हो?” मैंने बात शुरू की।


“गुलमोहर पार्क ।”


“पति क्या करते हैं?"


“बिजनेस | उनका नाम अशोक बजाज है । "


“अशोक बजाज!” मैं चौंका ---- “कहीं तुम उसकी बात तो नहीं कर रही हो जो प्रसिद्ध उद्योगपति मणिशंकर बजाज का बेटा है?”


“जी।” उसने आहिस्ता से कहा----“मैं उन्हीं की बहू हूं।”


“अरे !” मुझे सचमुच आश्चर्य हुआ ---- “तुम इतने बड़े घराने की बहू हो और रात के इस वक्त इस तरह आई हो ! बात क्या है ?”


“व... वो बात ये है अंकल कि..


मैंने महसूस किया कि वह कोशिश के बावजूद अपना वाक्य पूरा नहीं कर सकी थी । जैसे अचानक जुबान पर अंगारे बरस पड़े हों।


“हां... हां, बताओ बेटी ।" मैंने हौसला देने की कोशिश की ।


चांदनी ने कुछ कहने के लिए मुंह खोला ही था कि ----- “अरे!”


दरवाजे से शगुन की आवाज आई ---- “चांदनी! तू यहां? मेरठ में ! वो भी रात के इस वक्त ?”


चांदनी एक झटके से खड़ी हो गई । जिन हिचकियों को वह रोके हुए थी, शगुन को देखकर तो वे जैसे फूट ही पड़ीं। ‘अरे! क्या हुआ ?' कहता शगुन उसकी तरफ लपका और उसके कंधे पर हाथ रखकर बोला- - - - “ बात क्या है चांदनी ?”


“ मैं बहुत बड़ी मुसीबत में फंस गई हूं सैग।" उसने शगुन को ‘सैग’ कहा----“इस मुसीबत में तुम्हारे पापा ... बल्कि इनकी फ्रेंड विभा जिंदल ही मेरी मदद कर सकती है। तुमने एक बार बताया था न कि वे तुम्हारे पापा की फ्रेंड हैं और उलझे से उलझे मर्डर केस को चुटकियों में हल कर देती हैं।”


शगुन ने बौखलाकर मेरी और मधु की तरफ देखा । हम तीनों में से किसी की समझ में कुछ नहीं आ रहा था। तभी विनोद चाय ले आया। मैंने माहौल को हल्का और सामान्य करने की गर्ज से कहा ---- “बातें बाद में करेंगे। पहले चाय पीते हैं । ”


वही हुआ। शगुन ने चांदनी को समझा-बुझाकर वापस सोफे पर बैठाया । इतना तो समझ ही चुका था कि मेरे संज्ञान में कोई बहुत ही टेढ़ा मामला आने वाला है मगर वह इतना ज्यादा सनसनीखेज, रहस्यपूर्ण, पेचीदा, और उलझा हुआ होगा, इसकी तो कल्पना भी नहीं की थी। मैं एक लेखक हूं। कल्पनाएं करना मेरा स्वभाव है और अब तो पेशा भी बन चुका है। अपने सारे उपन्यास उन्हीं कल्पनाओं के बेस पर लिखा करता हूं और यह भी कहा जाता है कि कल्पनाओं के रथ पर सवार होकर लेखक और कवि वहां पहुंच जाते हैं जहां रवि अर्थात् सूरज भी नहीं पहुंच पाता लेकिन इस मामले में घुसने के बाद मुझे लगा कि 'जहां न पहुंचे रवि, वहां पहुंचे कवि' वाली इस कहावत में कोई दम नहीं रहा।


समाज का पतन हम लेखकों की कल्पनाओं से आगे निकल चुका है। दूसरों के बारे में तो मैं नहीं कह सकता परंतु अपने बारे में पूरे विश्वास के साथ कह सकता हूं कि अगर उस रात चांदनी हमारे घर न आई होती तो मैं 'क्योंकि वो बीवियां बदलते थे' जैसा कथानक कभी न लिख पाता क्योंकि कल्पनाओं के रथ पर सवार होकर मैं वह सब किसी हालत में नहीं सोच सकता था ।


इस केस के अंत तक पहुंचते-पहुंचते मुझे किसी विद्वान का एक जुमला याद आ गया ।


उसने कहा था ---- 'हकीकत कल्पनाओं से आगे होती है।'


वास्तव में, इस केस की हकीकत मेरी सभी कल्पनाओं से बहुत आगे थीं और अगले चेप्टर से उसी हकीकत को लिख रहा हूं।


चांदनी की छोटी-सी कहानी को उसी तरह सांस रोककर पढ़िए जिस तरह हमने सुना था । मुझे पूरा यकीन है कि उस वक्त आपका दिमाग सनसना उठेगा जिस वक्त घटनाएं वे मोड़ लेंगी जिनके बाद चांदनी को लगा कि अब उसे विभा जिंदल की जरूरत है।


चांदनी ने बताया ---- रात को भले ही मैं चाहे जितने बजे सोऊं लेकिन सुबह के छः बजे 'ऐटोमेटिक' तरीके से आंखें खुल जाती हैं। 


लेकिन पांच दिसंबर की सुबह, छः भी नहीं बज पाए थे कि मेरे जीवन की रात शुरू हो गई । अमावस्या से भी काली रात थी वह जिसका सवेरा आज तक भी नहीं हो सका है।


साढ़े पांच बजे हमारे बैडरूम का दरवाजा खटखटाया गया।


आंखें खुलने पर मैंने बैड के दूसरे कोने पर सो रहे अपने पति यानी अशोक बजाज की तरफ देखा ।


दस्तक से उनकी नींद में खलल नहीं पड़ा था ।


उन्हें जगाना मुनासिब भी नहीं समझा ।


उठी ।


नाइटी दुरुस्त की ।


उस पर नाइट-गाऊन डाला और पैरों में स्लीपर पहनने के बाद आगे बढ़कर दरवाजा खोल दिया ।


सामने खड़े अपने सास-ससुर को देखकर मैं चौंक पड़ी।


चौंकने का कारण यह था कि दरवाजे पर उनके होने की तो मैं कल्पना भी नहीं कर सकती थी ।


किसी कारण से अगर उन्हें मुझे इतनी सुबह जगाना भी था तो घर में नौकरों की फौज थी । किसी से भी यह काम करवा सकते थे । वे खुद जगाने आए थे। दोनों एकसाथ | इतनी सुबह । यह मेरे लिए अस्वाभाविक ही नहीं बल्कि चौंका देने वाला था। उन्हें देखकर एक पल को तो मैं बौखला- सी गई। फिर हड़बड़ाकर झुकी । चरणस्पर्श किए। ऐसा मैं हर सुबह, उनके सामने पड़ते ही करती थी। मगर ऐसा अक्सर डायनिंग हाल में, ब्रेकफास्ट पर मिलते वक्त ही होता था । वे मुझे 'जीती रहो' ---- 'सुहाग बना रहे' जैसे आशीर्वादों से नवाजते थे मगर उस सुबह वैसा कुछ भी नहीं हुआ। दोनों में से किसी ने भी कुछ नहीं कहा।


हैरान-सी मैं सीधी हुई और उनकी तरफ देखा तो ---- दंग रह गई । जेहन में सैंकड़ों सवाल चकरा उठे । उनके चेहरों पर उड़ती हवाईयां मैं साफ देख सकती थी । हालत ऐसी थी जैसे जिस्मों से खून निचोड़ लिया गया हो ।


“क्या हुआ बाबू जी?” ये शब्द मेरे मुंह से स्वतः निकले ।


“बेटी । ” मेरी सास ने मुझे 'बहू' कभी नहीं कहा, हमेशा बेटी ही कहती हैं और बेटी की तरह ही रखती हैं, कांपती- सी आवाज में कहा था उन्होंने----“जल्दी से कोई साड़ी डालकर नीचे आ जा।" तरदुत में फंसी मैंने पूछा----“लेकिन हुआ क्या है मांजी ?”


“बस तू आ-जा बेटी, हमारी बुद्धि तो खुद हैरान है।" कहने के बाद एक पल के लिए भी मेरे ससुर वहां रुके नहीं थे, इस तरह घूमे जैसे अपने चेहरे के भाव छुपाना चाहते हों और तेज कदमों के साथ विपरीत दिशा में बढ़ते चले गए।


“ और अपना ए. टी. एम. कार्ड भी लेती आना ।” मांजी ने कहा ।


“ए. टी. एम. कार्ड ?” मेरी बुद्धि आऊट ।


" उन्होंने ऐसा ही कहा है ।” कहने के बाद वे भी चली गईं।


मैं कई पल तक अपने स्थान पर ठगी - सी खड़ी रही ।


सास-ससुर को उस वक्त तक देखती रही जब तक नजर आते रहे । उनके ओझल होते ही आहिस्ता से दरवाजा भिड़ाया ।


घूमी।


अशोक की तरफ देखा।


वे अभी-भी खर्राटे ले रहे थे ।


मैंने तब भी उन्हें जगाना मुनासिब नहीं समझा।


दिमाग में जबरदस्त उथल-पुथल थी I


वे मुझे बुला गए हैं, वह भी ए. टी. एम. कार्ड के साथ!


यह बात उनसे किसी और ने कही है कि मैं अपना ए. टी. एमकार्ड लेकर नीचे पहुंचूं।


किसने कहा है ऐसा ?


और क्यों ?


माजरा क्या है ?


क्या घर में किसी वजह से पैसों की सख्त जरूरत है और पैसे नहीं हैं? हालांकि ऐसा सोचना भी बेवकूफी थी क्योंकि करोड़ों का कैश तो मेरी ही जानकारी के मुताबिक घर में पड़ा रहता था मगर फिर भी सोचना पड़ा, क्योंकि ए. टी. एम. कार्ड से भला पैसे निकालने के अलावा और किया ही क्या जा सकता था ?


मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था और समझने के लिए बेचैन थी। सो, जल्दी से साड़ी पहनी और नीचे पहुंच गई ।


ए. टी. एम. कार्ड मेरी मुट्ठी में था ।


एक नौकर ने बताया कि मांजी और बाबूजी ड्राइंगरूम में हैं।


वहां कदम रखते ही पैर जैसे जाम हो गए । ड्राइंगरूम में मांजी और बाबूजी के अलावा दो व्यक्ति और थे। दोनों ही पुलिस की वर्दी में । उनमें से एक करीब साढ़े पांच फुटा था । मोटा । अदरक की गांठ जैसा । बाल सुनहरे । कुल मिलाकर वह एक चालाक - सा नौजवान था।


था तो दूसरा भी युवा ही लेकिन उतना चालाक नहीं लगता था। सांवले रंग का वह एक लंबा और पतला युवक था। उसके जिस्म पर सब-इंस्पेक्टर की वर्दी थी जबकि अदरक की गांठ जैसे युवक के कंधे पर तीन स्टार चमचमा रहे थे । मुझे देखते ही वे सब सोफों से खड़े हो गए थे। जबकि उन्हें देखकर मेरे होश फाख्ता थे । यह बात मेरी समझ में आकर नहीं दे रही थी कि हमारे बंगले में भला पुलिस का क्या काम ? वह भी इतनी सुबह ।


“मुझे जमील कहते हैं ।”


साढ़े पांच फुटे वर्दीधारी युवक ने मेरी तरफ बढ़ते हुए कहा था-- -“इंस्पेक्टर जमील अंजुम ।" एक बार फिर मेरे मुंह से निकला----“बात क्या है बाबूजी?"


“ब... बेटी ।” बाबूजी बड़ी मुश्किल से कह पाए----“इन लोगों को एक लाश मिली है।”


“त... तो ?” वह जमील ही था जिसने कहा ---- “लाश रतन की है।"


“रतन कौन?” मेरे मुंह से निकला । जमील अंजुम के खुश्क होठों पर ऐसी मुस्कान रेंगती नजर आई जैसे उसने कोई बचकाना सवाल सुना हो । बोला ---- “ऐसे मौकों पर मैंने अनेक लोगों को ओवर- एक्टिंग करते देखा है । "


“ज... जी?”


“ मैं रतन बिड़ला की बात कर रहा हूं।"


“र... रतन बिड़ला?” मेरे दिमाग में विस्फोट-सा हुआ । होश उड़ गए थे मेरे । मेरी भावभंगिमा देखकर उसके होठों पर नाचने वाली मुस्कान गहरी हो गई । वह अपनी भूरी आंखों से सीधा मेरी आंखों में खलबली मचाता हुआ बोला ---- “अब शायद तुम समझ गई हो कि हम किसकी बात कर रहे हैं, किसकी लाश मिली है हमें!”


“ हां | यह तो समझ गई हूं लेकिन.. “तब तो यह भी समझ गई होंगी कि हम यहां क्यों आए हैं!” उसने मेरी बात काटते हुए कहा। “म... मेरे लिए यह हैरत की बात है कि रतन..


“कोई नाटक करने की जरूरत नहीं है मिसेज चांदनी बजाज | " एक बार फिर उसने मुझे नहीं बोलने दिया ---- “कोई भी नाटक करने की जरूरत इसलिए नहीं है क्योंकि उसकी कोई गुंजाइश ही नहीं है । "


“ज... जी?” मैं भन्ना उठी - - - - “क... क्या मतलब ?”


“जहां इस वक्त हम खड़े हैं, वह दिल्ली के ही नहीं बल्कि देश के गिने-चुने अमीर घरानों में से एक, बजाज घराने का बंगला है । " कहने के साथ उसने बाबूजी की तरफ देखा था ----“मणीशंकर बजाज के बंगले में कदम रखने की हिम्मत यूं ही किसी में नहीं हो सकती। मगर मैं इंस्पेक्टर जरा दूसरी किस्म का हूं। ऐसी किसी जगह पर मैं दाखिल ही तब होता हूं जब मेरे पास पुख्ता सबूत होते हैं। तुम्हारे खिलाफ भी मेरे पास ऐसे ही सबूत हैं ।”


मेरे मुंह से चीख-सी निकल गई थी -- -- “किस बात के सबूत ?”


“कि रतन बिड़ला की हत्या तुमने कराई है ।”


“क... क्या ?” मेरे पैरों तले से धरती सरक गई ।


“अगर पुख्ता सबूत न होते तो मणीशंकर बजाज तुम्हें इतनी सुबह जगाकर मेरे सामने पेश नहीं करते बल्कि अपने ससुर की एप्रोच और हैसियत से तुम भी नावाकिफ नहीं होगी! ये सीधे चीफ मिनिस्टर को फोन करते और वे तुरंत मेरा ट्रांसफर कर देते।"


“य... ये क्या बक रहे हैं आप?” मारे हैरत के मैं पागलों की मानिंद चीख पड़ी थी ---- “भला मेरा रतन की हत्या से क्या मतलब?”


इस बार जमील अंजुम ने एकदम से कुछ नहीं कहा।


अपनी कड़ी नजरें मुझी पर टिकाए वह आहिस्ता-आहिस्ता चलता करीब आया और फिर मेरी आंखों में आंखें डालकर धमकी देने के-से अंदाज में बोला ---- “उस मतलब को क्या तुम यहीं सुनना चाहोगी? अपने सास-ससुर के सामने !”


मुझे काटो तो खून नहीं ।


विरोध करने के लिए मुंह खुला जरूर लेकिन मेरी कोशिश के बावजूद उससे आवाज नहीं निकल सकी।


लगा ---- वह उस बात को जानता है जिसे कम से कम मेरे संज्ञान के मुताबिक मेरे, अशोक के और रतन बिड़ला के अलावा और कोई नहीं जानता था और... उस बात का जिक्र मैं अभी-भी, उन हालात में भी सास-ससुर के सामने नहीं आने देना चाहती थी |


सो, अवाक् अवस्था में खामोश खड़ी रही ।


जबकि सास-ससुर मेरे मुंह से निकलने वाली किसी ऐसी बात का इंतजार कर रहे थे जो जमील अंजुम द्वारा मुझ पर लगाए गए इल्जाम को झूठा साबित कर सके ।


मगर उस वक्त मैं वैसा कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं थी।


सो, हकबकाई - सी उसकी तरफ देखती रही ।


“गजराजसिंह, हथकड़ी पहनाओ इसे ।” कहते वक्त भी वह घूर मुझी को रहा था, फिर मेरे ससुर से बोला ---- “सॉरी बजाज साहब ।”


उनकी जुबान को जैसे लकवा मार गया था और उन्हीं की क्यों, मेरी हालत भी तो वैसी ही थी ।


मैं तो उस वक्त भी कुछ नहीं कह सकी जब सब-इंस्पेक्टर गजराजसिंह मेरी कलाईयों में हथकड़ी डाल रहा था और जमील अंजुम ने मेरे हाथ से ए. टी. एम. कार्ड सरका लिया ।


“अरे!” हवालात में बंद शक्ल से ही गुंडे - से नजर आने वाले दो लड़कों को देखकर मैं चीख पड़ी ---- "मैं इन्हें नहीं जानती ।”


“मगर ये तुम्हें अच्छी तरह जानते हैं।" जमील अंजुम ने मुझसे कहने के बाद उन्हें हड़काया ---- “बताओ बे, कौन है ये और इससे तुम्हारा क्या संबंध है ?”


“ इनका नाम चांदनी बजाज है साब जी।” एक ने कहा ---- “हमें इन्होंने ही रतन बिड़ला के मर्डर की सुपारी दी थी । ”


“क... क्या बक रहे हो ?” मैं दंग - --- “मैंने तो कभी तुम्हें देखा तक नहीं । तुम्हारे नाम तक नहीं जानती ।”


“अब झूठ बोलने से कुछ नहीं होगा मैडम । कोशिश हमने भी की थी ।” दूसरे ने अपने और अपने साथी के जिस्मों पर मौजूद टार्चर के निशानों की तरफ इशारा करके कहा-- - “आप देख ही रही हैं ।”


“और फिर।” पुनः पहला बोला ---- “इनके पास तो सबूत ही ऐसा है कि कहने-सुनने की कोई गुंजाइश ही नहीं रही।"


“ये झूठ बोल रहे हैं इंस्पेक्टर ।"


“झूठ तुम बोल रही हो ।” जमील अंजुम ने सख्त लहजे में कहा ।


“ज... जी?”


“सच्चाई को जितनी जल्दी कबूल कर लोगी मिसेज बजाज, जेहन को उतनी ही जल्दी सकून मिल जाएगा ।” जमील अंजुम जैसे मुझे समझा रहा था ---- "कबूल कर लो कि तुम इन्हें जानती हो । नाम छंगा और भूरा हैं । साऊथ एक्सटेंशन के बाहर पड़ी खोलियों में से एक में रहते हैं। तुम वहीं गई थीं। वहीं रतन के मर्डर की सुपारी दी। ”


“इन्होंने यह सब कहा और आपने मान लिया ?”


“ पुलिस को बेवकूफ समझती हो?” जमील ने आंखें तरेरीं।


“म... मतलब?”


“रात तुमने ए.टी.एम. से पचास हजार रुपए निकाले थे!” “नहीं।"


“उफ्फ् ।" जमील अंजुम ने इस तरह कहा जैसे परेशान हो गया हो----“ऐसा झूठ क्यों बोल रही हो जो चल ही नहीं सकता ।


“झूठ तो आप कह रहे हैं। वह भी ऐसा, जो हो ही नहीं सकता ।"


“कैसा नहीं हो सकता?”


“आपको जानकारी होनी चाहिए, ए. टी. एम. से एक दिन में पच्चीस हजार से ज्यादा नहीं निकाले जा सकते । ”


“रात के बारह बजे दिन बदल जाता है मैडम, पच्चीस हजार ग्यारह पचपन पर निकाले और दूसरे पच्चीस बारह बजकर पांच मिनट पर। दोनों रकमें एक ही बूथ से निकाली गईं ।”


“ उस वक्त तो मैं अपने पति के साथ बैडरूम में सो रही थी ।”


“अब मैं कैसे समझाऊं कि तुम एक ऐसी बात कह रही हो जो पलक झपकते ही गलत साबित हो जाएगी... बल्कि हो चुकी है ।” जमील अंजुम कहता चला गया-- “मैं पूरा रिकार्ड निकलवा चुका हूं। उसके मुताबिक कल शाम ही पांच-पांच सौ के नए नोटों की गड्डियां उस ए.टी.एम. मशीन में लगाई गई थीं जिससे तुमने रुपए निकाले और वे सब के सब छंगा - भूरा के पास से बरामद हुए हैं।"


“मेरी समझ में नहीं आ रहा कि जब मैंने अपने कार्ड से पैसे निकाले ही नहीं तो रिकार्ड में भला...।" इतना कहकर मैं रुकी और फिर बोली----“वैसे भी, अगर कोई किसी को किसी के मर्डर की सुपारी देता है तो उन्हें क्या अपना नाम बताता है ? मेरे दिमाग में क्या फोड़ा निकला था जो सुपारी देते वक्त इन्हें अपना नाम बताती?”


“नाम आपने नहीं बताया मैडम जी मगर हम जानते थे ।” उसने कहा जिसके एक हाथ में छः उंगलियां थीं।


“कैसे जानते थे ?”


“ अखबार चाटने की बीमारी जो है मुझे ।" भूरा बोला ---- “और आप शहर के गिने-चुने अमीरों में से एक के बेटे की बीवी जो हैं। अपने पतिदेव के साथ मैंने आपका फोटो अखबार में देखा था।"


हकबकाई-सी मैं उसे देखती रह गई ।


“सारा किस्सा आईने की तरह साफ है मिसेज बजाज |" जमील  अंजुम ने कहा----- -“तुम अपने खुले चेहरे के साथ इनसे इसलिए मिलीं क्योंकि समझती थीं कि ये तुम्हें जानते नहीं होंगे मगर ये जानते थे। फिर भी, अगर ये पकड़े न जाते तो किसी को कुछ भी बताने वाले नहीं थे। पेशेवर जो हैं | मगर तुम्हारा दुर्भाग्य, कि पकड़े गए और पकड़े जाने के बाद तो इन्हें सबकुछ उगलना ही था।"


- कहना तो अब भी यही चाहती थी कि मैंने अपने कार्ड से कोई पैसा नहीं निकाला और न ही छंगा- भूरा को जानती हूं लेकिन यह बात बार-बार कहने का कोई फायदा नजर नहीं आ रहा था क्योंकि समझ चुकी थी ---- जो सबूत जमील अंजुम के पास था उसकी रोशनी में मेरी बात की कोई अहमियत नहीं रह गई थी ।


समझ चुकी थी कि यह कोई षड़यंत्र है जिसमें मुझे फंसाया जा रहा है। मगर षड़यंत्र क्या है? कौन कर रहा है ऐसा ?


यह जानना जरूरी हो गया था ।


साथ ही यह जानना भी जरूरी था कि पुलिस कितना जानती है ?


सो, वह सवाल पूछा जिसे पूछते वक्त ही मेरा दिल बहुत जोर जोर से कांप रहा था । ऐसा इसलिए था क्योंकि यह बात मेरे मुकम्मल अस्तित्व को हिला डालने के लिए काफी थी कि पुलिस उस बात को जानती हो जो मेरे संज्ञान के मुताबिक केवल मुझ, अशोक और रतन तक सीमित थी । धड़कते दिल से अंततः मैंने कह ही दिया ---- “कोई यूं ही किसी की हत्या नहीं कर देता इंस्पेक्टर साहब, उसके पीछे कोई पुख्ता वजह होती है। क्या आप बता सकते हैं कि मैं रतन बिड़ला के मर्डर की सुपारी क्यों दूंगी?"


उसने बगैर जरा-भी हिचके, फटाक्-से कह दिया ----“क्योंकि करीब एक महीने पहले रतन बिड़ला ने तुम्हें रेप किया था ।”


उसके ये शब्द मेरे जेहन से ‘धड़ाम् धुम्म्' की आवाज के साथ टकराए थे । आखिर वही हुआ जिसका डर था । पुलिस को वह बात मालूम थी जो मेरी जानकारी के मुताबिक मालूम नहीं होनी चाहिए थी। जमील अंजुम के लफ्जों से डरकर मेरी जुबान जैसे तालू से जा चिपकी थी और बोलने का काम तो जुबान को ही करना था ! जुबान तो उस वक्त कैंची की तरह जमील की चल रही थी। उसने कहा---- “यह है वह बात जिसे तुम अपने सास-ससुर के सामने सुनने से डर गई थीं। इसलिए वहां चुप रह गईं और यहां यह परखने के लिए सवाल किया कि पुलिस को उस बारे में मालूम है या हम हवा में ही लट्ठ घुमा रहे हैं !”


मेरी जुबान ने तब भी अंगड़ाई नहीं ली ।


“वह दो और तीन नवंबर के बीच की रात थी ।" जमील कहता चला गया----“होटल 'राज पैलेस' का डिस्कोथ । अन्य सैकड़ों पेयर्स के साथ वहां तुम, तुम्हारा पति अशोक बजाज, रतन बिड़ला और उसकी बीवी अवंतिका बिड़ला भी थे । यह बात किसी से छुपी नहीं है कि तुम चारों पूर्वपरिचित थे । डिस्कोथ में दोस्तों की तरह मिले। साथ पी। डांस किया | वैसा ही हुआ जैसा डिस्कोथ जैसी जगहों पर अक्सर होता है। लोग एक-दूसरे के साथ डांस करने में मस्त हो जाते हैं। अपने पति या पत्नी का ध्यान किसी को नहीं रहता । अशोक फ्लोर पर किसी और के साथ डांस कर रहा था । तुम रतन के साथ | इसी का अनुचित फायदा उठाकर वह तुम्हें खींचता हुआ डिस्कोथ से बाहर ले गया । होटल के उस कमरे में जो उस रात के लिए रतन और उसकी बीवी के नाम से बुक था । वह भी नशे में था | तुम भी | मगर तुम इतने नशे में नहीं थीं कि उस वक्त यह न समझ पातीं कि वह तुम्हें अपने कमरे में क्यों लाया है, लिहाजा ---- जब उसने वह चाहा जिसलिए ले गया था तो तुमने विरोध किया मगर कामयाब न हो सकीं। कामयाब रतन बिड़ला हुआ था । नशे की झोंक में उसने वह सब किया जो उसे नहीं करना चाहिए था | तुम शॉक्ड थीं। इतनी ज्यादा कि इस बात का जिक्र अशोक तक से नहीं किया । शायद तुम्हें यह डर सता रहा था कि कहीं अशोक यह न समझ बैठे कि नशे की झोंक में खुद ही रतन के साथ उसके रूम में गई थीं और अब यह सब हो गया है तो उसे रेप का नाम दे रही हो। सो, चुपचाप अशोक के साथ बंगले पर लौट गईं।”