शुक्रवार : तेरह दिसम्बर
शाम को विमल घर लौटा तो उसने नीलम को बैडरूम में लेटी होने की जगह ड्राइंगरूम में एक सोफा चेयर पर ढेर पाया ।
उसके चेहरे की रंगत उड़ी हुई थी और वह हांफ रही थी ।
“क्या हुआ ?” - विमल घबराकर बोला ।
“कुछ नहीं ।” - नीलम बोली - “मुझे कुछ नहीं हुआ ।”
विमल ने अपना ब्रीफकेस एक सोफे पर उछाला और लपककर उसके करीब पहुंचा । उसने एक हाथ से नीलम की कलाई थामी और दूसरे से उसकी पेशानी को छुआ ।
“नब्ज घुड़दौड़ कर रही है ।” - वह व्यग्र भाव से बोला - “माथा ठण्डा है । रंग बदरंग हुआ है और कहती है कुछ नहीं हुआ ।”
“कुछ नहीं हुआ, सरदार जी ।” - वो बड़े प्यार से बोली ।
“कुछ तो जरूर हुआ है । अन्धा तो नहीं हूं मैं ।”
“मेरा मतलब है, मुझे कुछ नहीं हुआ ।”
“तुझे कुछ नहीं हुआ !” - बड़े हतप्रभ भाव से विमल ने दोहराया - “तुझे.. और तू यहां क्यों पड़ी है ? तुझे तो बैडरूम में...”
“वहीं जा रही थी ।” - वो तनिक मुस्कराई - “कस-बल निकल गये । पैट्रोल खत्म हो गया । यहीं ढेर हो गयी ।”
“लेकिन...”
“अच्छा हुआ तुम आ गए । अब...”
“लेकिन हुआ क्या है जो तुम...”
“गुलाम !” - नीलम अधिकारपूर्ण स्वर में बोली - “हमें अपनी गोद में उठाओ ।”
“जो हुक्म मलिकाआलिया ।” - विमल बोला । उसने नीलम को अपनी गोद में उठा लिया । नीलम ने अपनी बांहें उसकी गर्दन में पिरो दीं और कसकर उसके सीने से लग गयी ।
“भारी हो गयी हो ।” - विमल बोला । 
“सिर्फ मेरा ही भार थोड़े ही उठाए हो ! मेरे भार में छोटे सरदार जी का भार भी तो शामिल है ।”
“या सरदारनी जी का !”
“एक ही बात है ।”
“फिर भी भारी हो गयी हो ।”
“इन दिनों में ऐसा ही होता है ।”
“तुझे क्या मालूम ! तू क्या पहले भी चार-छ: बच्चे पैदा कर चुकी है ?”
“छि: ! शर्म करो ।”
विमल हंसा ।
नीलम गर्भवती थी, तब आठवां महीना चल रहा था ।
“कहां चलूं, मलिकाआलिया !” - विमल बोला ।
“कहीं भी ।” - नीलम मुदित मन से बोली - “कहीं भी चलो । बेशक न भी चलो । लेकिन जो खिदमत इस वक्त तुम हमारी कर रहे हो, वो जारी रहनी चाहिए ।”
विमल हंसा, उसने हौले ने नीलम के होंठों पर एक चुम्बन अंकित किया और फिर बड़े अनुरागपूर्ण स्वर में उसके कान में फुसफुसाया - “बीवी ?”
“हां ।” - नीलम स्वप्निल स्वर में बोली ।
“मेरी ?”
“हां ।”
“हमेशा ?”
“हां ।” - नीलम और कसकर उससे लिपट गई - “जन्म-जन्मांतर तक ।”
उसके होंठों पर, उसके कपोलों पर, उसके नेत्रों पर चुम्बन अंकित करता हुआ विमल उसे बैडरूम में ले आया । वहां उसने उसे यूं पलंग पर लिटाया जैसे गुलाब की पंखुड़ी को अपनी गोद में से स्थानान्तरित कर रहा हो । नीलम ने फिर भी उसकी गर्दन में से अपनी बांहें न निकली तो मजबूरन विमल को पलंग पर उसके पहलू में बैठ जाना पड़ा ।
“विमल !” - नीलम इतना धीरे से बोली कि विमल को बड़ी कठिनाई से उसकी आवाज सुनाई दे पाई ।
“हां ।” - विमल बोला ।
“आज मुझे बहुत डर लगा ।”
“क्यों ?”
“बहुत... बहुत डर लगा मुझे आज ।”
“अब तो नहीं लग रहा ?”
“नहीं, अब तो नहीं लग रहा । अब तो तुम मेरे पास हो !” - उसने विमल को जबरन अपने ऊपर खींच लिया तो विमल ने महसूस किया कि उसका बदन तब भी कांप रहा था - “सरदार जी, मेरे से दूर न जाया करो । मुझे अकेली न छोड़ा करो ।”
“अरे, आज क्या हो गया है तुझे ? क्या बहकी-बहकी बातें कर रही है ?”
“वादा करो ।”
“क्या ?”
“मुझे छोड़ के नहीं जाओगे ।”
“नीलम जब से वैष्णोदेवी के दरबार में हमारी शादी हुई है, कम से कम नहीं तो एक हजार बार वादा तू मेरे से ले चुकी है ।”
“अभी एक हजार बार और लूंगी, दस हजार बार और लूंगी, करोड़ों बार और लूंगी ये वादा ।”
“अरे, क्या हुआ है ? कुछ कहेगी भी ?”
उसने कुछ कहने का उमक्रम न किया । वो एक शिशु की तरह विमल का सिर अपने सीने के साथ दबोचे रही ।
कुछ क्षण विमल भी खामोश रहा ।
चार महीने से वो दिल्ली में था । चण्डीगढ से दिल्ली आने में निमित बना था वहां नीलम का प्रेगनेन्सी का केस बिगड़ जाना जिसकी वजह से विमल उसे खड़े पैर दिल्ली लेकर आया था । केस काबू में आ गया था तो लौटने का वक्त आने पर उसने महसूस किया था कि चण्डीगढ में उन दोनों का रहना सुरक्षित नहीं था । नीलम का आवास चण्डीगढ में था, यह बात बम्बई में ‘कम्पनी’ में खूब प्रचारित हो चुकी थी । ‘कम्पनी’ के बादशाह इकबाल सिंह को न केवल ये मालूम था कि विमल नीलम की तलाश में चण्डीगढ गया था बल्कि वो तो विमल, तुकाराम और वागले के साथ दिल्ली तक आया था । बम्बई में विमल ने जब इकबाल सिंह की जानबख्शी की थी तो भले ही उसने ये कहां था कि वो ‘कम्पनी’ के कारोबार से हमेशा के लिए किनारा कर रहा था और अपनी खूबसूरत पारसी बीवी लवलीन को साथ लेकर वो किसी दूर-दराज, अज्ञात जगह पर जा बसने का इरादा रखता था लेकिन हकीकतन विमल को नहीं मालूम था कि उसने ऐसा ही किया था या उसके पीठ फेरते ही वो वापिस बम्बई जाकर फिर अपनी अन्डरवर्ल्ड की बादशाही की गद्दी पर जा बैठा था । तब विमल ने नीलम के सामने दिल्ली में ही बस जाने का प्रस्ताव रखा था जो उसने क्षणिक हिचकिचाहट के बाद स्वीकार कर लिया था ।
ये फैसला हो जाने के बाद कि अब उन्होंने दिल्ली में ही बसना था, विमल ने सबसे पहले योगेश पाण्डेय को तलाश किया था जिसका कि दिल्ली का पता उसके पास था, चोर-सिपाही की दोस्ती की मिसाल कायम करते हुए जिसने बम्बई में उसे अपना यार तसलीम किया था । जो सी बी आई के ऐन्टीटेरेरिस्ट स्क्वायड का उच्चाधिकारी था - बकौल उसके, उसका दर्जा पुलिस के डिप्टी कमिश्नर के बराबर था - और जिसने बम्बई और दिल्ली दोनों जगहों के पुलिस रिकार्ड में से उसके - मशहूर इश्तिहारी मुजरिम सुरेन्द्रसिंह सोहल उर्फ विमल खन्ना उर्फ गिरीश माथुर उर्फ बनवारीलाल तांगे वाला उर्फ कैलाश मल्होत्रा उर्फ बसन्तकुमार मोटर मैकेनिक उर्फ नितिन मेहता उर्फ कालीचरण उर्फ आत्माराम उर्फ पेस्टनजी नौशेरवानजी घड़ीवाला के - उंगलियों के निशान गायब किए थे । पाण्डेय की सिफारिश पर ही उन्हें गोल मार्केट के इलाके में कोविल मल्टी स्टोरी हाउसिंग कम्पलैक्स की सातवीं मंजिल पर स्थित दो बैडरूम का वो फ्लैट किराए पर मिला था जिसमें कि वो आजकल रह रहे थे । अब दिल्ली में विमल का नाम अरविन्द कौल था और योगेश पाण्डेय की ही मेहरबानी से उसके पास उस नाम का ड्राइविंग लाइसेंस और राशन कार्ड भी था ।
और जो बेशकीमती खिदमत योगेश पाण्डेय ने विमल की की थी, वो ये थी कि उसने कनाट प्लेस में स्थित एक एक्सपोर्ट हाउस में उसकी एकाउन्ट आफिसर की नौकरी लगवाई थी । उसकी नौकरी टेढी खीर थी । वो फर्स्ट डिवीजन में बी काम एल एल बी पास था लेकिन अपनी कोई डिग्री वो पेश नहीं कर सकता था । ऐसे अलंकरणों से उनका नाता तो तभी टूट गया था जब कि इलाहाबाद में उसे दो साल की कैद की सजा हुई थी । ऊपर से उसकी तमाम डिग्रियां वगैरह सुरेन्द्रसिंह सोहल के नाम की थीं जो कि अब उसके पास होती भी तो किसी काम की न होतीं । योगेश पाण्डेय ने उसके एम्पलायर्स को यही कहा था कि वो कश्मीर से विस्थापित व्यक्ति था जिसका सब कुछ पीछे सोपोर में रह गया था और जो बड़ी मुश्किल से अपनी गर्भवती बीवी के साथ खाली हाथ कश्मीर से जान बचाकर भाग पाया था । उसके एम्पलायर्स को वो कहानी कदरन हज्म हो गयी थी लेकिन उस के प्रति उनको पूर्णतया आश्वस्त इस बात ने किया था कि उसको एकाउन्टैन्सी का पूरा तजुर्बा था जिसमें कि कोई खोट नहीं था - आखिर इलाहाबाद में एरिक जानसन में वो एकाउन्टैन्ट की ही नौकरी तो करता था - और अपने काम में उसकी निष्ठा और लगन तो बेमिसाल थी ।
यूं एकाउन्टैन्ट से अपराधी बना सात राज्यों में घोषित इश्तिहारी मुजरिम, कई हत्याओं, कई डकैतियों के लिए जिम्मेदार सरदार सुरेन्द्रसिंह सोहल फिर एकाउन्टैन्ट बन गया ।
वो गृहस्थ बन गया, उसको औलाद का मुंह दिखाने की दिशा में अग्रसर गर्भवती बीवी का पति बन गया, दस से पांच की नौकरी बजाने वाला महानगर का वाइट कालर एम्पलाई बन गया ।
योगेश पाण्डेय ने साबित कर दिखाया कि उसने बम्बई में विमल की तरफ दोस्ती का फर्जी हाथ नहीं बढाया था, उसने दोस्ती का न सिर्फ हक अदा करके दिखाया था । बल्कि दोस्ती की एक मिसाल कायम करके दिखाई थी । चोर-सिपाही की एक बेमेल दोस्ती को बेमिसाल बनकार दिखाया था । गुनाह के अन्धड़ में खूंटे से उखड़े सोहल को उसने पुनर्स्थापित करके दिखाया था ।
नीलम खुश थी कि भगवती के आशीर्वाद से विमल अब एक नेक शहरी बन गया था ।
लेकिन वो नहीं जानती थी - विमल भी नहीं जानता था - कि उसकी तकदीर लिखने वाले ने नेक शहरी बनना उसकी तकदीर में नहीं लिखा था । दिल्ली शहर में उसकी इत्मीनान की रिहायश दो तूफानों के बीच के शान्ति के वक्फे की तरह थी । वन्स ए थीफ, आलेवज ए थीफ वाली कहावत अगर किसी पर मुकम्मल तौर से चरितार्थ होती थी तो वो तकदीर का मारा अभागा, सरदार सुरेन्द्रसिंह सोहल था ।
नौकरी करना उसकी जरूरत नहीं था, तनख्वाह कमाने के लिए काम करना उसके लिए जरूरी नहीं था लेकिन उसने महसूस किया था कि जैसे उसे तब कई बहुरूपों की जरूरत होती थी जब कि वो एक गैंगस्टर था, इश्तिहारी मुजरिम था, वैसे ही एक शरीफ गृहस्थ और नेक शहरी बनने के लिए भी उसे शराफत और सदाचार के बहुरूप की जरूरत थी ।
अब वर्तमान स्थिति ये थी कि प्लास्टिक सर्जरी के सदके उसकी इश्तिहारी मुजरिम के तौर पर सारे हिन्दोस्तान में मशहूर सूरत तब्दील हो चुकी थी । प्लास्टिक सर्जरी के ही सदके उसकी आवाज तब्दील हो चुकी थी । एकाउन्टैन्ट की जिम्मेदार नौकरी से हासिल सफेदपोशी और संभ्रान्तता की नकाब के नोच उसका गुनाहगार चेहरा हमेशा के लिए नहीं, मुकम्मल तौर से नहीं तो वक्ती तौर से तो छुप ही गया था ।
विमल ने हौले से स्वयं को नीलम के बन्धन से मुक्त किया और अपना मूल प्रश्न फिर दोहराया - “क्या हुआ ?”
नीलम ने शरीर ने एक प्रत्यक्ष झुरझुरी फिर ली लेकिन इस बार वो बड़ी संजीदगी से बोली - “बहुत बुरा हुआ, विमल ।”
“क्या ?”
“वो आठवीं मंजिल पर हमारे से ऊपर वाले फ्लैट में एक विधवा औरत नहीं रहती ?”
“जिसकी दो जवान बेटियां हैं ?”
“वही । स्कूल टीचर है । स्वर्णलता वर्मा नाम है । छोटी बेटी राधा सत्तरह साल की है, बारहवीं में पढती है, अपनी मां वाले ही स्कूल में । बड़ी बेटी सुमन बाईस साल की है, टेलीफोन के महकमे में ट्रंक आपरेटर है ।”
“फैमिली को मैं जानता हूं लेकिन हुआ क्या ?”
“आज मां-बेटी के स्कूल में छूट्टी थी, वो दोनों घर पर थीं, सिर्फ सुमन ड्यूटी पर गयी हुई थी । चार बजे वो घर लौटी तो उसने पाया कि फ्लैट में गुण्डे घुसे हुए थे, मां फ्लैट में परी पड़ी थी और छोटी बहन ने, जिसके साथ उन राक्षसों ने कई बार बलात्कार किया था, उसके सामने दम तोड़ दिया था ।”
“दाता !” - विमल आतंकित भाव से बोला ।
“विमल, जब सुमन घर लौटी थी तो उस वक्त गुण्डे अभी फ्लैट के भीतर ही थे । दीदादिलेरी देखो कमीनों की कि सुमन के कालबैल बजाने पर उन्होंने वहां से भाग निकलने की कोई कोशिश नहीं की, बल्कि बाकायदा दरवाजा खोलकर बड़े इत्मीनान से उसको भी भीतर घसीट लिया ।”
“यानी कि उसके साथ भी...”
“नहीं, वो बच गयी । थोड़ी नोचा-खसोटी, थोड़ी बदसलूकी तो कि उन्होंने सुमन के साथ भी लेकिन बेचारी उस अंजाम से बच गयी जो छोटी बहन का हुआ । कई घन्टे तो वो राक्षस छोटी से मुंह काला करते रहे थे, अब और कुछ... और कुछ सुमन के साथ भी ।”
“ओह ! ओह !”
“बेचारी की हालत नहीं देखी जाती थी । पछाड़ खा-खाकर अपनी मां और बहन की लाशों पर गिर रही थी । दो बार तो मेरे ही सामने बेहोश हुई । मर भी गई होती तो कोई बड़ी बात नहीं थी ।”
“पुलिस आई होगी ?”
“आना ही था उन लोगों ने तो । सुमन ने शोर मचाया तो लोग इकट्ठे हुए । फिर किसी ने पुलिस को फोन किया । लेकिन पुलिस के आने तक वो बदमाश सारे के सारे कहीं के कहीं पहुंच चुके होंगे ।”
“कितने थे ?”
“कई थे । सुमन ही बता सकती थी उनकी बाबत लेकिन उस पर तो जैसे दीवानगी तारी हो गयी थी । कभी दस बताती थी तो कभी चार ।”
“सूरतें तो देखी होगी उसने बलात्कारियों की ?”
“देखी होंगी लेकिन मेरे सामने तो वो पुलिस की कुछ बता नहीं पा रही थी ।”
“अब कहां है वो ?”
“हस्पताल में ।”
“हस्पताल में ?”
“हां । जैसी उसकी हालत थी, उसे देखते हुए अगर उसे हस्पताल ने ले जाया जाता तो वो जरूर यहीं मर जाती ।”
“सदमे में ऐसी हालत हो जाती है लेकिन मामूली देखभाल से ही, थोड़ी-सी हमदर्दी से ही...”
“कौन करता यहां उसकी ऐसी देखभाल और कौन देता उसे यहां हमदर्दी ? बेचारी की एक मां थी, एक बहन थी जो मर गयी । और कौन है उसका ?”
“अड़ोसी-पड़ोसी...”
“सब गोली मार देने के काबिल । सब तमाशाई । किसी औरत के चेहरे पर सच्ची हमदर्दी की कोई झलक नहीं थी । और मर्द इतने कमीने कि हमदर्दी दिखाने की जगह राधा के क्षत-विक्षत जिस्म की झलक पाने को ज्यादा लालायित थे । अड़ोसियों-पड़ोंसियों से मैं सबसे बाद वहां पहुंची थी । अपनी इस हालत में मेरे से ज्यादा चला-फिरा जो नहीं जाता...”
“तुझे कोशिश भी नहीं करनी चाहिए थी । ज्यादा चलना-फिरना तुझे मना है ।”
“अब मैं क्या करती ? इतनी बड़ी ट्रैजेडी की खबर सुनकर मुंह लपेटे यहीं पड़ी रहती ?”
“तू खुद ट्रैजेडी की शिकार हो सकती थी । तुझे मिसकैरेज हो सकता था । तू मर सकती थी ।”
“लेकिन मरी नहीं । कुछ नहीं हुआ मुझे ।”
“बाबे दी मेहर होई ।”
“मैं ऊपर पहुंची तो मैंने जाकर राधा के नंगे जिस्म एक चादर से ढका था । तब तक अड़ोस-पड़ोस के क्या मर्द और क्या औरतें सब बितर-बितर लाशों को - खासतौर से राधा की लाश को - देख रहे थे । मेरे लाश को ढंकने पर एक पड़ोसी जानते हो क्या बोला ?”
“क्या बोला ?”
“बोला, पुलिस के आने से पहले मौकायवारदात पर कोई हेरा फेरी या छेड़ाखानी नहीं की जानी चाहिए थी । कमीना जिन्दों के साथ तो पेश आना जानता ही नहीं था, मुर्दो की भी दुर्गत का तमन्नाई था । नौजवान मुर्दा जिस्म भी नंगा ताड़ने से उसे गुरेज नहीं था ।”
“दाता ! तेरे रंग न्यारे ।”
नीलम कुछ क्षण खामोश रही ।
“फिर ?” - विमल ने पूछा ।
“फिर पुलिस आयी । पंचनामा वगैरह करने के बाद उन्होंने लाशें उठवाई । तब तक सुमन की हालत ऐसी हो गई थी कि अभी मरी की अभी मरी । अपना बयान तक दे पाने की हालत में वो नहीं थी । बस, विक्षिप्तों की तरह ही प्रलाप कर रही थी काश वो लड़की न होती, काश वो लड़का होती, काश वो लड़का होती ।”
“लड़का होती !” - विमल अचरजभरे स्वर में बोला ।
“हां ।”
“तो क्या होता ?”
“तो वो अपनी मां और बहन की हत्तक और मौत का बदला लेती उन वहशी दरिन्दों से ।”
“ओह !”
“दर्जनों बार दोहराई उसने ये बात कि काश वो मर्द होती और फिर वो ये कुकर्म करने वालों में से एक-एक को पताल से भी खोद निकालती और उन्हें उनकी करतूतों का मजा चखाती ।”
“सिर्फ लड़का होने से, मर्द होने से, वो इस काम को अंजाम दे पाती ?”
“वो तो ऐसा ही समझती थी ।”
“कहां तलाश करती वो उन बदमाशों को ?”
“क्या पता ?”
“फिर ?”
“फिर क्या ? फिर पुलिस को पता लगा कि मां और छोटी बहन की मौत के बाद सुमन का आगे-पीछे कोई नहीं था तो वो किसी अड़ोसी-पड़ोसी से उम्मीद करने लगे कि वो सुमन को सम्भालें । पुलिस की ये मंशा जाहिर होने की देर थी कि अड़ोसी-पड़ोसी यूं एक-एक करके वहां से खिसकने लगे जैसे वहां प्लेग फैलने वाली हो ।”
“तू ले आती उसे अपने साथ ?”
“मैं जरूर ले आती । मैंने ऐसा कहा थी था लेकिन तब तक सुमन की हालत ऐसी नाजुक हो गयी थी कि पुलिस वालों ने उसे हस्पताल भेजना ही मुनासिब समझा ।”
“कौन से हस्पताल में भेजा उसे उन्होंने ?”
“विलिंगडन में । यहां से सबसे करीब वही जो है ।”
“विलिंगडन में कहां ?”
“ये तो पता नहीं मुझे, लेकिन वहां से मालूम कर लेना क्या मुश्किल काम होगा !”
“हूं ।”
“सुनो ।” - एकाएक नीलम व्याकुल भाव से बोली - “तुम्हें उस लड़की को वहां देखने जाना चाहिए । क्या पता बेचारी को किसी मदद की जरूरत हो ।”
“वो लोग मुझे उससे मिलने देंगे ?” - विमल संदिग्ध भाव से बोला ।
“क्यों नहीं मिलने देंगे ? वो कोई गिरफ्तार थोड़े ही है !”
“हूं ।”
“ऊपर से पुलिस तो ख्वाहिशमन्द थी इस बात की कि कोई वालंटियर सामने आये और उस यूं बेआसरा हो गयी लड़की की जिम्मेदारी अपने सिर ले ।”
“वो वालन्टियर मैं ?”
“हम ।”
“तू चाहती है मैं उस लड़की के पीछे हस्पताल जाऊं ?”
“हां ।”
“जबकि अभी तू कह रही थी कि मैं तेरे से दूर न जाऊं, तुझे अकेली न छोडूं ।”
“वो जज्बाती बातें थी । ऐसा कहीं होता है ? ऐसा कहीं हो सकता है ?”
विमल हंसा ।
“तुम सच में कभी मुझे छोड़ जाने को आमादा हो गये तो क्या मैं तुम्हें रोक सकूंगी ?”
“क्यों नहीं रोक सकेगा ! तू तो कहती थी कि तू मुझे निगाहों से भी ओझल नहीं होने देगी । भूल गयी क्या कहा था तूने माता वैष्णो देवी के दरबार में !”
“नहीं भूली ।” - नीलम जैसे ख्यालों में खो गयी - “याद है । मैंने कहा था मैं तुम्हें कजरा बना के आंखों में लगा लूंगी, गजरा बनाकर जूड़े में गूंथ लूंगी, नगीना बना के अंगूठी में जड़ लूंगी, मेहन्दी बना के हाथों में रचा लूंगी लेकिन कहीं जाने नहीं दूंगी ।”
“मैं चला गया तो ?” - विमल विनोदपूर्ण स्वर में बोला ।
“कहां चले जाओगे ? कैसे चले जाओगे ? मेरे ऊपर इतना बड़ा जुल्म ढा सकोगे ?”
“नहीं ।”
“अपनी बीवी पर शायद ढा सको लेकिन अपने होने वाले बच्चे की मां पर नहीं ढा सकोगे ।”
“बीवी पर भी नहीं ढा सकूंगा ।”
“मुझे मालूम है ।”
“मैं हस्पताल जाता हूं ।”
“हां । और अगर वो घर आने लायक ठीक हो तो उसे साथ लेकर आना ।”
“ठीक है ।”
***
विमल विलिंगडन पहुंचा । वहां कैजुअल्टी के रिसैप्शन पर मामूली पूछताछ से ही उसे मालूम हो गया कि सुमन वर्मा वार्ड नम्बर पांच के सेमी-प्राइवेट रूम नम्बर दो में थी ।
वो वहां पहुंचा ।
वो कमरा भी एक मिनी वार्ड जैसा ही निकला । उस आयताकार कमरे में एक-दूसरे के समानान्तर चार बैड लगे हुए थे जिनके बीच में मोटे पर्दों का इन्तजाम था ताकि अगर जरूरत हो तो पर्दा खीचकर कदरन प्राइवेसी का माहौल पैदा किया जा सके । उस घड़ी संयोगवश वहां केवल एक ही पेशेन्ट था इसलिये पर्दा खींचकर प्राइवेसी का माहौल बनाना जरूरी न था ।
वो पेशेन्ट - सुमन वर्मा - बायें कोने से दूसरी बैड पर पड़ी थी और उस घड़ी उसके करीब खड़ी एक नर्स उसे एक इंजेक्शन देने की तैयारी कर रही थी ।
उसके ध्यानाकर्षण हेतु विमल हौले से खांसा ।
नर्स ने सिर उठाकर उसकी तरफ देखा ।
“मेरा नाम कौल है ।” - विमल बोला - “मैं...”
“इसके रिश्तेदार हैं आप ?”
“रिश्तेदार नहीं, पडोसी हूं । पड़ोसी के नाते, इन्सानियत के नाते यहां आया हूं ।”
“अच्छा किया आपने । पुलिस वाले भी ये ही चाहते थे कि इसक जिम्मेदारी लेने के निए किसी को सामने आना चाहिए था । ये सरकारी हस्पताल है लेकिन यहां इस वार्ड में, इस कमरे में, बैड के चार्जिज हैं...”
“वो मैं दूंगा । नो प्राब्लम ।”
“फिर तो” - नर्स की भवें तनिक उठी - “बड़े अच्छे पड़ोसी हैं आप ।”
“जो ट्रेजेडी इसके साथ हुई है, वो किसी के साथ भी हो सकती है । मेरे साथ भी । मेरी बीवी या बहन भी यूं ही किन्हीं दरिन्दों की वहशत का शिकार बन सकती हैं । आपके साथ भी हो सकती है, बहन जी ।”
“आप ठीक कह रहे हैं ।”
“आपके शहर के रस्मों-रिवाज से मैं वाकिफ नहीं हूं क्योंकि मैं यहां नया हूं लेकिन जहां का मैं रहने वाला हूं, वहां ऐसी बातों से निर्लिप्त नहीं रहा जा सकता । मेरी तहजीब, मेरे संस्कार ऐसे नहीं है कि मैं एक पड़ोसी की दुश्वारी की तरफ से आंख बन्द करके पीठ फरे लूं ।”
“आई एम सारी मिस्टर...”
“कौल ।”
“आप कश्मीरी हैं ?”
“मैं हिन्दोस्तानी हूं ।”
“आप क्या चाहते हैं ?”
“लड़की बात करने की स्थिति में है ?”
“अभी तो है । लेकिन मैं इसे सिडेटिव का इन्जेक्शन देने जा रही थी । इन्जेक्शन के बाद न रहती ।”
“इन्जेक्शन थोड़ी देर इन्तजार कर सकता है ?”
“कर तो सकता है लकिन ये इतनी ज्यादा इमोशनली डिस्टर्ब्ड है कि डाक्टर की हिदायत के मुताबिक इसे सिडेटिव में रखा जाना जरूरी है ।”
“मैं बहुत थोड़ी देर इससे बात करना चाहता हूं । अपने करीब अपना कोई हमदर्द पाकर ये शान्त भी हो सकती है ।”
“वो तो है । ठीक है, मैं इन्जेक्शन फिलहाल पोस्टपोन कर देती हूं लेकिन आप ज्यादा देर न लगाइयेगा ।”
“मैं सिर्फ पांच मिनट...”
“ओके ।”
वो इंजेक्शन के सामान वहीं एक ट्रे में रखकर वहां से विदा हो गयी ।
विमल ने आंख भरकर आंखें बन्द किेये पलंग पर चित पड़ी सुमन वर्मा को देखा ।
सुमन का निचला होंठ कट गया था और काफी हद तक सूज आया था । उसके दोनों गालों पर नाखूनों से बनी लम्बी खरोंचे थी और एक आंख सूजकर काली पड़ गयी हुई थी । वैसी दरिन्दगी के पता नहीं कितने निशान उसके जिस्म पर भी वे जिन्हें कि वो देख न सका ।
“सुमन !” - विमल अपेक्षाकृत उच्च स्वर में बोला और उसने उसकी बांह पकड़कर उसे तनिक झिंझोड़ा ।
सुमन ने आंख खोली उसने विमल की तरफ देखा । तत्काल उसके चेहरे पर पहचान के भाव आये जो कि अच्छी बात थी ।
“कौल साहब !” - वह कम्पित स्वर में बोली ।
“हां ।” - विमल मीठे स्वर में बोला - “कैसी हो सुमन ?”
“कौल साहब” - वो हिचकियां लेकर रोने लगी - “मेरी मां मर गयी । मेरी फूल जैसी बहन ने मेरी आंखों के सामने दम तोड़ दिया । उन वहशी दरिन्दों ने क्या-क्या जुल्म नहीं ढाये होंगें मेरी मां-बहन पर ! कौल साहब, इतने जुल्मों के बाद मैं क्यों जिन्दा हूं ? मैं क्यों जिन्दा हूं ?”
“क्योंकि ऊपर वाले की ये ही मर्जी है । जो तुम भावे नानका, सोई भली कार । तुम पुलिस की मदद कर सकती हो उन वहशी दरिन्दों को पकड़वाने में । तुम पुलिस का काम आसान कर सकती हो, उनके हाथ मजबूत कर सकती हो । तुम उन जानवरों को उनकी करतूतों की सजा दिला सकती हो ।”
“मैं” - एकाएक उसकी आंखों से शोले बरसने लगे - “उन्हें सजा दिलाना नहीं, सजा देना चाहती हूं । मैं अपने हाथों से उन वहशी दरिन्दों की हड्डी-बोटी अलग करना चाहती हूं । मैं उनकी लाशों को अपने पैरों से रौंदना चाहती हूं ।”
“जुल्म के खिलाफ जेहाद की ऐसी ही ख्वाहिश पैदा होती है हर गैरतमन्द शख्स के दिल में ।”
“लेकिन में लड़की हूं । मैं लड़की हूं, कौल साहब । मेरी बदकिस्मती है कि मैं लड़की हूं । काश मैं लड़का होती । काश मैं...”
वो फिर फूट-फूटकर रोने लगी ।
“हौसला रखो, सुमन ।”
बड़ी कठिनाई से उसके आंसू थमे ।
“जब” - विमल बोला - “अन्तर में प्रतिकार की ज्वाला धधकती है तो सबसे पहले उसमें अपना आपा भस्म होता है । फिर लड़का-लड़की का फर्क बेमानी बन जाता है ।”
“भाई साहब । मैं कमजोर, बेसहारा...”
“कोई कमजोर नहीं । कोई बेसहारा नहीं । ऊपर वाले के घर में ऐसी नाइंसाफी नहीं होती । वो नाइंसाफी नहीं करता । वो सिर्फ अपने गुनहगार बन्दों को इम्तहान लेता है, अपने गुनाहों की तलाफी के लिये जिनमें उन्हें पास होकर दिखाना पड़ता है । सुमन, मेरी बहन, तुम ये समझो कि तुम एक इम्तहान के दौर से गुजर रही हो । मां-बहन की सूरत में जिसने तुम्हारे से तुम्हारे दो हाथ छीने हैं, वो तुम्हें हजार हाथों की छतरछाया प्रदान करेगा । वो तुम्हें ऐसी हमलावर बांह मुहैया कराएगा - समझ लो करा चुका है - कि तुम्हारे जेहन में फिर कभी ये खयाल आएगा ही नहीं कि लड़का-लड़की में कोई फर्क होता है । मेरा विश्वास जानो, सुमन ।”
विमल की बातों पर सुमन पर जादुई असर हुआ । हालांकि मुकम्मल तौर पर वो उन्हें समझ ही नहीं पा रही थी ।
“उन वहशी दरिन्दों को उनकी करतूतों की सजा मिलेगी । जरूर सजा मिलेगी । सबसे सख्त सजा मिलेगी । ऐसा जुल्म करके कोई जालिम सलामत नहीं बचा रहना चाहिए । न ही बचा रहेगा । खुदा के कहर की बिजली उन पर यूं एकाएक टूटेगी कि वो सोचते ही रह जायेंगे कि ऐसा क्योंकर हो गया !”
“ऐसा होगा ?” - वो मन्त्रमुग्ध स्वर में बोली ।
“होगा । जरूर होगा । न सिर्फ होगा बल्कि तुम ही निमित बनोगी ऐसा होने में ।”
“मैं ?”
“हां, तुम ! तुम, जो अपने आपको कमजोर, बेसहारा समझ रही हो ।”
“क-कैसे ?”
“ये तो अभी मुझे मालूम नहीं । लेकिन होगा ऐसा ही । बहरहाल जो होगा, सामने आ जायेगा । अब तुम मेरी एक बात का जवाब दो ।”
“पूछिए, क्या पूछना चाहते हैं ?”
“एक मिनट के लिए अपनी कल्पना एक बेसहारा, कमजोर लड़की के तौर पर नहीं, रणचण्डिका दुर्गा की तरह करो । लेकिन दुर्गा को भी अत्याचारी का संहार करने के लिए उसकी शिनाख्त की जरूरत होती है । दुश्मन पहचाने बिना उसको सजा भला कैसे दी जा सकती है ? तुम पहचानती हो अपने दुश्मन को ?”
“हां । ...नहीं ।”
“मतलब ?”
वो खामोश रही । तब उसके चेहरे पर से गहन पीड़ा और संताप के भाव फिर परिलक्षित होने लगे । विमल को चिन्ता होने लगी । उस हौलनाक वारदात की बाबत सोचना प्रत्यक्षतः उस पर बहुत भारी गुजर रहा था । यूं उसे फिर विक्षिप्तता का दौरा पड़ सकता था और नर्स आकर तत्काल उस वार्तालाप का पटाक्षेप कर सकती थी ।
“मैंने सबकी सूरतें नहीं देखी थीं ।” - आखिरकार एक कराह की तरह सुमन के मुंह से आवाज निकली - “लेकिन उस आदमी की सूरत मैं जिन्दगी-भर नहीं भूल सकती जिसने कि मुझे दरवाजा खोला था ।”
“हूं ।” - विमल सहानुभूतिपूर्ण स्वर में बोला ।
“तब मुझे क्या मालूम था कि भीतर कयामत आयी हुई थी ।”
“तभी तो तुम उस शख्त की सूरत ठीक से देख पायी ।”
“जी हां । ये ही बात थी । एक अजनबी सूरत को अपने फ्लैट के भीतर पाकर, कॉलबैल के जवाब में उसे अपने फ्लैट का दरवाजा खोलता पाकर मैं सकपकाई जरूर थी, हैरान भी हुई थी, आतंकित भी हुई थी... आप समझ रहे हैं न, भाई साहब ।”
“हां । हालात को समझकर अगर तुम आतंकित हो उठी होती तो जरूर तुमने चीखना-चिल्लाना शुरू कर दिया होता, या भाग तो खड़ी होती ही वहां से ।”
“ऐसी नौबत तो आयी ही नहीं थी । उस कमीने ने तो मेरे पर एक निगाह डाली थी और फिर बिजली की सी फुर्ती से मेरा गिरहबान पकड़कर मुझे फ्लैट के भीतर घसीट लिया था । कि मेरे मुंह खोल पाने से भी पहले मेरे मुंह पर एक घूंसा पड़ा था जिसकी वजह से मुझे अपने दांत टूटते महसूस हुए थे । फिर आनन-फानन मैं कई हाथों की गिरफ्त में थी । वैसे तो किसी ने मेरा मुंह भी जकड़ा हुआ था लेकिन ऐसा न भी होता तो भी मैं शायद ही चिल्ला पाती । खौफ से मेरी घिग्घी बन्धी हुई थी । उन लोगों की बेतहाशा नोच-खसोट से मुझे अपने प्राण निकलते मालूम हो रहे थे । ये ही हैरानी है कि प्राण सच में ही न निकल गये ।”
“सुमन” - विमल तनिक बेसब्रेपन से बोला – “मेरा सवाल ये था कि क्या तुम उनमें से किसी को पहचान सकती हो ? क्या तुमने उनमें से किसी की अच्छी तरह से सूरत देखी थी ?”
“उसकी देखी थी, जिसने मुझे दरवाजा खोला था । उसकी सूरत मैंने अच्छी तरह से देखी थी ।”
“बाकियों की ?”
“नहीं देखी थी । क्योंकि बाकियों से आमना-सामना होने तक तो आतंक से मेरी आंखें धुंधलाई जा रही थीं । मैं देखते हुए भी कुछ नहीं देख पा रही थी ।”
“कितने आदमी थे वो ?”
“पांच ।”
“पक्की बात ?”
“हां ।”
“सुना है पहले तो तुम ठीक से नहीं बता पा रही थीं कि वो कितने आदमी थे ।”
“वो पांच थे ।”
“हूं । सुमन, उनकी सूरतों का अन्दाजा न सही, उनकी उम्रों का अन्दाजा तो होगा तुम्हें ?”
“वो इतना ही है कि उनमें बूढा कोई नहीं था, बच्चा भी कोई नहीं था ।”
“तो जिसकी तुमने सूरत देखी थी, वो भी नौजवान था ?”
“हां ।”
“उसका हुलिया बयान करो ।”
“वो बहुत लम्बा था । जब उसने मुझे दरवाजा खोला था तो चौखट के ऊपरले हिस्से से उसका सिर लग रहा था और मैं उसके सामने खड़ी बौनी लग रही थी ।”
“आम चौखट छः फुट ऊंची होती है । यानी कि उसका कद छः फुट से भी निकलता हुआ था ?”
“हां । और वो बहुत दुबला-पतला था और धनुष की तरह लचकता था । उसकी होंठों की कोरों से बाहर तक निकली हुई मूंछें थीं । गाल और आंखें अन्दर को धंसी हुई थीं ।”
“जरूर ड्रग एडिक्ट होगा ।”
“हां । बाल लम्बे रखता था । कन्धों तक आने वाले । और सिर पर मांग बालों के ऐन बीच में निकालता था ।”
“और ?”
वो खामोश हो गयी ।
विमल उसके दोबारा बोलने की प्रतीक्षा करता रहा ।
“कौल साहब” - आखिरकार वो बोली - “उन दरिन्दों में से किसी एक के दोनों हाथों में छः उंगलियां थी ।”
“किसके ? उस लम्बू के ही ?”
“ये मुझे नहीं मालूम । लेकिन इतना मुझे अच्छी तरह से याद पड़ रहा है कि मुझे भंभोड़ते हुए हाथों में से दो हाथों में छः उंगलियां थीं ।”
“ये कैसे जानती हो कि छः उंगलियों वाले दोनों हाथ एक ही जने के थे ?”
“नहीं जानती । अन्दाजा है ।”
“हूं । ये बातें तुमने पुलिस को बताई ?”
उसने इनकार में सिर हिलाया ।
“पुलिस के पास नोन क्रिमिनल्स का रिकार्ड होता है । बताती तो अभी तक उनकी शिनाख्त भी हो चुकी होती और वो पकड़े भी गये होते । इतना तो समझती हो न कि उनमें से एक के भी पकड़े जाने से बाकी जने पकड़े जा सकते हैं ?”
“जरूरी नहीं कि वो नोन क्रिमिनल्स हों ?”
“हां । जरूरी तो नहीं ये । लेकिन पुलिस को इस बाबत कुछ न बताने का इरादा करते वक्त ये बात तुम्हारे जेहन में नहीं थी । इस बाबत खामोशी अख्तियार करने के पीछे तुम्हारी कोई और मंशा थी ।”
“क-कोई और मंशा ?”
“हां । तुम्हारी मंशा थी इस शहर की अस्सी लाख आबादी में से उस एक शख्स को खुद खोज निकालने की जिसकी कि सूरत तुम पहचानती हो । और फिर उसे खुद सजा देने की । ठीक ?”
वो खामोश रही ।
“कोई हर्ज नहीं ऐसी मंशा रखने में ।” - विमल तनिक मुस्कराया और बड़े सांत्वनापूर्ण स्वर में बोला - “मजलूम की ख्वाहिश होती ही है जुल्म करने वाले के साथ यूं पेश आने की ।”
सुमन के चेहरे पर हैरानी के भाव आये । उसने अपलक विमल की ओर देखा ।
“अगली बार जब पुलिस के साथ आमना-सामना हो” - विमल बोला - “तो उन्हें इस बाबत सब कुछ बता देना ।”
वो और भी हैरान हुई ।
“मैंने अभी कहा था” – विमल बोला - “कि ऊपर वाला तुम्हें एक हमलावर बांह मुहैया करायेगा । तुम यूं समझो कि जो काम तुम करना चाहती हो, वो तुम्हारी हमलावर बांह करेगी ।”
“पुलिस ?”
“मुमकिन है ।”
“लेकिन पुलिस !”
“क्यों नहीं ? आखिर पुलिस होती किसलिए है ! उन्हीं का तो काम है मुजरिम को पकड़ना । पकड़े जायेंगे वो सारे बदमाश । तुम्हें इंसाफ जरूर मिलेगा ।”
“मुझे इंसाफ नहीं” - उसके मुंह से सांप जैसी फुफकार निकली - “बदला चाहिए । बदला !”
“एक ही बात है । इंसाफ ही बदला है । बदला ही इंसाफ है । पुलिस...”
“पुलिस से मुझे कोई उम्मीद नहीं ।” - सुमन की आंखें एकाएक फिर चिन्गारियां बरसाने लगी - “अव्वल तो पुलिस उन्हें पकड़ ही नहीं पायेगी, पकड़ पाएगी तो सजा नहीं दिलवा पाएगी, सजा दिलवा पाएगी तो वो सजा नहीं दिलवा पाएगी जो कि मैं चाहती हूं कि उन कुत्तों को मिले ।”
“सुमन, मैंने कहा था कि ‘मुमकिन’ है कि हमलावर बांह पुलिस हो ।”
“यानी कि वो कोई और भी हो सकती है ?”
“हां ।”
“कौन ?”
“ये तो वक्त बतायेगा ।”
“ऐसा होगा भी या ये महज एक नेक ख्वाहिश है ? विशफुल थिंकिंग है ?”
“ये भी वक्त बतायेगा ।”
“आप मुझे झूठी तसल्ली दे रहे हैं ।”
“ये भी” - विमल जबरन मुस्कराया - “वक्त बतायेगा कि मैं तुम्हें कैसी तसल्ली दे रहा हूं ।”
तभी नर्स वहां लौटी । उसने बड़े अर्थपूर्ण भाव से विमल को देखा ।
विमल उठ खड़ा हुआ । उसने बड़े आश्वासनपूर्ण ढंग से सुमन का कन्धा थपथपाया और सिर पर हाथ फेरा । फिर वह नर्स की ओर घूमा - “इसे कब तक यहां रहना होगा ?”
नर्स ने अनभिज्ञता से कन्धे झटकाये ।
“लग तो ये ठीक रही है ।”
“ठीक नहीं है ।” - नर्स बोली - “बड़ा डाक्टर कहता है इसे एकाएक कुछ हो सकता है । कुछ भी हो सकता है । वो कहता है कि ये इलाज से ज्यादा ऑबजर्वेशन का केस है ।”
“इसकी मां मर गयी है । इसकी बहन मर गई है । इसके अलावा उनका कोई है नहीं । अगर ये यहां पड़ी रही तो उनका अन्तिम संस्कार कौन करायेगा ?”
नर्स ने फिर अनभिज्ञता से कन्धे झटकाये ।
“दिल्ली में ।” - विमल सुमन से सम्बोधित हुआ - “तुम्हारा कोई रिश्तेदार है ? नजदीकी न हो, दूरदराज का ही हो ?”
सुमन ने इनकार में गर्दन हिलाई ।
“दिल्ली से बाहर ?”
“हैं लेकिन बहुत दूर । उन तक खबर पहुंचने में ही दो दिन लग जायेंगे । खबर लगने पर उनके यहां आने की भी कोई गारन्टी नहीं । गरीब लोग हैं । सफर और सफर के खर्चे दोनों से घबराते हैं ।”
“ओह !”
“ऊपर से मांजाये जितना करीबी तो कोई भी नहीं ।”
“कल तक पोस्टमार्टम हो जाएगा और पुलिस लाशें रिलीज कर देगी । तुम जानती हो न कल तक तुम्हारा अपने पैरों पर खड़ा हो जाना कितना जरूरी है !”
वो खामोश रही ।
“सोचना इस बाबत और अपना फर्ज पहचानने की कोशिश करना । इस घड़ी अपनी मां-बहन के खून का बदला लेने के मुकाबले में उनकी मिट्टी ठिकाने लगाना ज्यादा अहम काम है तुम्हारे सामने । पहला काम तुमने और सिर्फ तुमने करना है, दूसरा काम वो करेगा” - विमल ने आसमान की तरफ उंगली उठाई - “जिसके हजार हाथ हैं ।”
वो कुछ न बोली ।
“घर की क्या हालत है ?” - विमल ने नया सवाल किया ।
“घर की ?”
“तुम्हारे फ्लैट की । पीछे तो कोई होगा नहीं । वो क्या यूं ही खुला पड़ा है ?”
“ओह ! मैं अब समझी आपका सवाल । नहीं, फ्लैट अब बन्द है और चाबी मेरे पास है ।”
“तुम्हारे पास ?”
“अभी थोड़ी देर पहले पुलिस का एक सिपाही लौटाकर गया है । पहले चाबी पुलिस के पास थी । मौकायवारदात की छानबीन करने के लिए ।”
“उन्होंने चाबी तुम्हें लौटा दी, इसका मतलब है कि वो अपनी छानबीन मुकम्मल कर चुके हैं ।”
“जाहिर है ।”
“वो चाबी तुम मुझे दे सकती हो ?”
“आपको ?”
“हां । बशर्ते कि तुम्हें मेरे पर एतबार हो ।”
“आप पर एतबार क्यों नहीं होगा मुझे ? आप तो इतने भले आदमी हैं । मैं तो ये पूछ रही थी कि आप करेंगे क्या चाबी का ?”
“थोड़ा सा मुआयना मैं भी करूंगा मौकायवारदात का ।”
“आप ! आप करेंगे ?”
विमल केवल मुस्कराया ।
सुमन ने तकिये के नीचे से अपना पर्स निकाला और फिर उसमें से एक चाबी निकालकर उसे सौंप दी ।
“थैंक्यू ।” - विमल बोला - “अब मैं चलता हूं ।”
सुमन ने सहमति में सिर हिलाया ।
वो वहां से बाहर निकल आया ।
दाता ! - गलियारे में पहुंचकर वो होंठों में बुदबुदाया - तेरी कुदरति तू है जाणहि अऊर न दूजा जाणै ।
***
हस्पताल के बाहर से विमल एक आटोरिक्शा पर सवार हुआ और वापिस गोल मार्केट जाने की जगह उसने दरियागंज का रुख किया ।
उसकी जेब में तिराहा बैरम खां का एक पता था और वो जगह दरियागंज से करीब थी । वहां वो जिस शख्स की तलाश में जा रहा था, वो उसे कोई एक महीना पहले राह चलते मिल गया था । तिराहा बैरम खां का जो पता उस शख्स ने विमल को बताया था, उसे अब ठीक से याद भी नहीं था कि वो उसके दोस्त का था या रिश्तेदार का था । विमल की मौजूदा सफेदपोश जिन्दगी में वो फिट नहीं बैठता था इसलिए उस शख्स से दोबारा कभी मुलाकात होने की विमल को कतई उम्मीद नहीं थी ।
कोई एक महीना पहले वो अपने आफिस के काम से सुजानसिंह पार्क मे स्थित एम्बैसेडर होटल में गया था । वहां से वापिसी के वक्त जब वह टैक्सी स्टैण्ड पर पहुंचा था तो वहां अपनी टैक्सियों के साथ मौजूद टैक्सी ड्राइवरों में उसे वो शख्स भी दिखाई दिया था जिसकी दिल्ली में मौजूदगी की वो सपने में भी कल्पना नहीं कर सकता था ।
वो लपककर उसके करीब पहुंचा था ।
“मुबारक अली !”
मुबारक अली अचकचाकर घूमा । उसने विमल पर निगाह डाली । क्योंकि बादशाह अब्दुल मजीद दलवई का टापू तबाह करने के काम में वो भी विमल के साथ शरीक था इसलिए बावजूद उसके नये चेहरे के उसने विमल को तत्काल पहचाना ।
“अरे, बाप !” – वो हर्षित स्वर में बोला - “तू इदर !”
“श श । धीरे ! इधर आ !”
विमल बांह पकड़कर उसे टैक्सी स्टैण्ड से परे ले चला ।
मुबारक अली बम्बई का एक खतरनाक मवाली था जिसने विमल के साथ वहां के जौहरी बाजार का वाल्ट लूटा था, जो गिरफ्तार हो गया था लेकिन फिर बम्बई पुलिस के हैडक्वार्टर से, ऐन पुलिस कमिश्नर की नाक के नीचे से फरार हो गया था । बहुत ही दिलेर आदमी था । पिछली बार बम्बई में स्वैन नैक आइलैंड पर अगर वो न होता तो बादशाह अब्दुल मजीद दलवई कभी विमल की पकड़ में न आया होता और फिर उसे योगेश पाण्डेय जैसा यार भी न मिला होता ।
बम्बई में अमूमन तहमद-कुर्ती में दिखाई देने वाला मुबारक अली उस घड़ी खाकी टेरीकोट की कमीज-बुश्शर्ट पहने था । उसने दाढी मूंछ बढा ली थीं लेकिन खोपड़ी उसकी तब भी घुटी हुई थी ।
“मुबारक अली !” – विमल हैरानी से बोला - “तू दिल्ली में !”
“हां, बाप ।” - मुबारक अली खीसें निपोरता हुआ बोला ।
“तू तो कहता था तेरा बम्बई में ही मरना-जीना था ! उधर ही जी लगता था तेरा !”
“बाप, उदर - वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में - खतरा बहुत ज्यादा ही बढेला था । पता नेई कैसे उदर बात पुलिस पर खुल गयी कि बादशाह के टापू की तबाही के दौरान तुम्हेरा मोटर बोट अपुन ही चलायेला था । साली पुलिस की तमाम आंखें अक्खी बम्बई में मुबारक अली को ही टोहने लगीं । मजबूरन उदर से भागना पड़ा । अब किदर तो जाना मांगता ही था, इदर आ गया । पण टैम्परेरी । पीछू उदर ही जाना मांगता है ।”
“दाढी-मूंछ बढा ली !”
“बाप, थोड़ा हुलिया बदल के रखेंगा तो बचेंगा न !”
“जैसे हुलिया बदला है, वैसे ये बम्बइया जुबान भी बदला अपना तकियाकलाम ‘वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में’ भी छोड़ । वर्ना सिर्फ दाढी-मूंछ बढा लेने से और सिर घुटवा लेने से तेरा कुछ नहीं बनने वाला ।”
“कोशिश करेंगा, बाप । कर ही रहा है, बाप ।”
“कब से है दिल्ली में ?”
“सात-आठ महीना हो गया, बाप ।”
“बाप बोलना भी छोड़ । दिल्ली में बाप कोई नहीं बोलता ।”
“बस, तेरे कू ही बोला, बाप । क्योंकि तू है ही हमेरा बाप ।”
विमल हंसा ।
मुबारक अली ने भी दांत निकाले ।
“यानी कि” - विमल बोला - “तूने भी मेरे पीछे-पीछे ही बम्बई छोड़ दी थी ?”
“ऐसा ही होयेंगा, बाप । बाप, तू भी तब से दिल्ली में है ?”
“नहीं । मैं पहले कुछ महीने चण्डीगढ रहा था ।” - विमल एक क्षण ठिठका और फिर बोला - “मैंने शादी कर ली है ।”
“अच्छा ! फिर तो मुबारक हो, बाप ।”
“बाप बनने वाला हूं ।”
“और भी मुबारक हो ।”
“शुक्रिया ।”
“अब इदर क्या करेला है ?”
“नौकरी ।”
“नौकरी !” - मुबारक अली यूं बोला जैसे कोई असम्भव बात सुन ली हो ।
“कोई हर्ज है ?”
“नहीं, नहीं । हर्ज क्या है । कोई काम करने में हर्ज नहीं, चाहे वो नौकरी ही हो । तो अपना सरदार इदर पूरा ही...”
“सरदार नहीं बोल ! कोई सुन लेगा ।”
“गलती हुई, बाप । तो इदर तू पक्का हो, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, गृहस्थी वाला बना बैठेला है ?”
“हां ।”
“लेकिन नौकरी ! बाप, ये तेरी नौकरी नहीं हज्म हो रही अपने को । तू साला इतना बड़ा आदमी और नौकरी !”
“रिजक कमाने के लिए नहीं ।”
“ओह ! वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, ओट के वास्ते । जैसे अपुन इदर टैक्सी डिरेवर बैठेला बना है ।”
“ये ही समझ ले । तो तूने भी कवर के लिए टैक्सी पकड़ी हुई है ?”
“कबर के लिए ।”
“कबर में तो मुर्दे दफ्न होते हैं । कवर के लिए । ओट के लिए । वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में ।”
“हां । ऐसा ही है, बाप । पैसे का कोई वान्दा नहीं । बहुत है अपुन के पास । जब लाकअप से भागा तो तुका ने दिया । फिर जब तेरा बोटमैन बना तो तू भी तो दिया, बाप ।”
“रहता कहां है ?”
“पुरानी दिल्ली में । उदर अपना बहुत जात भाई है ।”
“पुरानी दिल्ली में कहां ?”
तब उसने विमल को तिराहा बैरम खां का एक पता नोट कराया ।
बदले में विमल ने उसे अपना पता-ठिकाना बताने की न कोई कोशिश की और न ही मुबारक अली ने उस बाबत कोई सवाल किया ।
“मुबारक अली” - फिर विमल बोला - “मेरे लायक यहां दिल्ली में कोई सेवा हो तो निसंकोच बोल ।”
“सेवा” - मुबारक अली बोला - “वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, खिदमत तू बोल, बाप । तू तो राजा आदमी है । सेवा करना तो अनुप का काम है ।”
“तू ऐसा सोचता है तो ये तेरी मेहरबानी है, मुबारक अली वर्ना मैं कहां का राजा...”
“अपुन उदर बम्बई में उस मलाड वाली फैंसी बाई के फिलेट में तेरे कू क्या बोला, बाप ! अपुन बोला, अपुन तेरा मुरीद है । तू जो बोलेंगा, करेंगा । तू जहन्नूम में जाने को बोलेंगा तो जायेंगा । अपुन की तो ये ही बहुत खुशकिस्मती है कि लाखों लोगों को छोड़कर तू अपुन को अपनी सोहबत के लिए, अपनी खिदमत के लिए चुना । अभी भी अपुन क्या है ? एक मामूली टैक्सी डिरेवर ! और तू फाइव स्टार होटल से निकला बड़ा साब । तू अपुन को ऐसे मुहब्बत से बुलाया, अपुन का दिल झूम गया । ऐसा लगा जैसे परदेस में कोई सगेवाला मिल गया ।”
विमल भी जज्बाती हुए बिना न रह सका ।
“मुबारक अली !” - वो उसे खींचकर गले लगाता हुआ बोला - “क्या गलत लगा तुझे ? मैं ही हूं तेरा सगेवाला ! तू मेरा भाई, मुबारक अली ।”
मुबारक अली की आंखें नम हो गयीं । उसके गले की घन्टी जोर से उछली ।
“खिदमत तू बोल, बाप ।” - वो रुंधे कंठ बोला - “तू बोल ।”
“ठीक है । होगी तो बोलूंगा ।”
“वादा ?”
“पक्का ।”
मुबारक अली विमल से अलग हुआ ।
फिर वो जबरन उसे अपनी टैक्सी पर कनाट प्लेस में स्थित उसके आफिस में छोड़कर आया । 
अब विमल खुश था कि कभी उसका सहयोगी रह चुका पाप की नगरी का एक पुराना पापी दिल्ली में था और विमल का उससे सम्पर्क सम्भव था ।
तिराहा बैरम खां के इलाके में पहुंचकर वो बड़ी कठिनाई से मुबारक अली का दिया पता तलाश कर पाया ।
तब शाम के अभी सिर्फ आठ बजे थे और उसे उस घड़ी मुबारक अली के वहां होने की कतई उम्मीद नहीं थी - अपनी तरफ से वो वहां सिर्फ मुबारक अली के लिए एक सन्देशा छोड़ने की नीयत से आया था - लेकिन, ये उसकी खुशकिस्मती थी कि, मुबारक अली घर पर मौजूद था । घर क्या था एक छोटी-मोटी हवेली थी जहां बच्चों और बड़ों की बराबर मची चिल्ल पौं वहां दर्जनों लोगों की सामूहिक रिहायश की चुगली कर रही थी ।
मुबारक अली उसे देखकर बहुत ही खुश हुआ ।
“ये तो कमाल ही हो गया, बाप ।” - वो बोला - “ये तो चींटी के घर, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, खुदा के कदम पड़ गये ।”
“घर में कैसे है ?”
“मतलब ?”
“इस वक्त होता ही है घर में या इत्तफाक से है ?”
“अच्छा वो ! इत्तफाक से हूं घर में टैक्सी का एक्सीडेंट हो गया । एक हफ्ते से वर्कशाप में है । कल मिलेगी । तू इदर कैसे आयेला है, बाप ?”
“यहां से चल । बताता हूं ।”
बिना हुज्जत किये मुबारक अली तत्काल उसके साथ हो लिया । विमल ने इच्छा व्यक्त की तो वो उसे गोलचा सिनेमा के पहलू में बने एक रेस्टोरेन्ट में ले आया जहां कि वो दोनों एक कदरन तनहा कोने में बैठ गये ।
मुबारक अली ने काफी मंगाई ।
काफी आने तक दोनों खामोश रहे ।
“कश लगाना छोड़ दिया, बाप !” - फिर मुबारक अली बोला ।
विमल अमूमन पाइप पीता था लेकिन उस घड़ी उसकी जब में सिगरेट का पैकेट था । उसने पैकेट निकाला, एक सिगरेट मुबारक अली को दिया, एक खुद लिया और बारी- बारी दोनों सिगरेट सुलगाये । फिर सिगरेट और काफी की चुस्कियों के बीच उसने मुबारक अली को बताया कि वो क्या चाहता था । 
सुमन से मालूम हुआ लम्बू का हुलिया उसने बहुत बारीकी से मुबारक अली को समझाया । उसने उसे छ:-छ: उंगलियों वाले के बारे में भी बताया ।
“इतने बड़े शहर में” - मुबारक अली सन्दिग्ध भाव से बोला - “सिर्फ इतनी जानकारी की बिना पर इन्हें तलाश करना मुमकिन होयेंगा, बाप !”
“होगा ।” - विमल उतावले स्वर में बोला - “जरूर होगा लम्बू के ड्रग एडिक्ट होने की सम्भावना है । दूसरा भी ऐसा ही हो सकता है । जैसी उन्होंने करतूत की है, उससे ये मुमकिन नहीं लगता कि वो कुछ कामकाज करते होंगे । तू टैक्सी चलाता है । ट्रकों, टैक्सियों, स्कूटरों वगैरह के अड्डों पर डोप पैडलरों की नशे की पुड़िया बेचने वालों की, खास नजर होती है, खास पहुंच होती है । ऐसा डोप पैडलर एक नहीं तो दूसरा जरूर उन दोनों में से किसी को जानता होगा । वो नहीं जानता होगा तो उसका कोई जानने वाला जानता होगा । यूं बात न बने तो इधर-उधर बात चलाकर ऐसे बेरोजगार, जरायमपेशा स्मैकियों के, चरसियों के अड्डे पता कर । पुरानी दिल्ली में ऐसे बहुत अड्डे हैं । जिन लोगों के साथ रहता है उनसे पूछ । डोप पैडलर्स से बात न बने तो यूजर्स का पता कर । स्मैकिये आपस में एक-दूसरे को जानते होते हैं । मुबारक अली, तू कोशिश तो कर ।”
“करेंगा, बाप । जरूर करेंगा ।”
“मैं भी ठाली नहीं बैठने वाला । खुद मैं भी इस बाबत खूब हाथ-पांव मारने का इरादा रखता हूं ।”
“तू भी, बाप ?”
“हां । मेरी सफेदपोशी पर जा रहा है ! भूल गया असल में मैं कौन हूं !”
उस घड़ी एकाएक विमल का स्वर ऐसा हिंसक हो उठा कि मुबारक अली के जिस्म में सिहरन दौड़ गयी ।
“ठीक है, बाप ।” - वो बोला - “काम हो जायेंगा ।”
“गुड ।” - विमल ने जेब से एक कागज निकालकर उस पर कुछ अंक और अक्षर घसीटे और कागज उसे थमाया - “फोन नम्बर । घर का और आफिस का । रख ले काम आयेगा ।”
“बरोबर, बाप ।” - मुबारक अली बोला ।
“एक बात और ।”
“वो भी बोल, बाप ।”
“कोई हथियार रखता है ?”
“एक कमानीदार चाकू...” 
“वो तुझे ही मुबारक । मैं किसी पिस्तौल, रिवाल्वर की बात कर रहा हूं ।”
मुबारक अली ने इनकार में सिर हिलाया ।
“ये भी एक काम कर । किसी गैरकानूनी तौर से हथियार बेचने वाले का पता करने की कोशिश कर ।”
“बम्बई में तो अपुन ऐसे एक...”
“बम्बई रह गयी बम्बई में । वहां हथियारों का क्या घाटा था ! वहां तो ‘कम्पनी’ के आदमियों से ही छीने बहुत हथियार थे मेरे पास । वो सब कुछ पीछे रह गया । मुझे यहां हथियार चाहिए । ”
“इरादे खतरनाक मालूम होते हैं, बाप ।”
“खतरनाक ही हैं ।”
“कोई चिड़िया-बटेर मारने का इरादा तो होयेंगा नहीं ?”
“जाहिर है ।”
“यानी कि, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, इस लम्बू की, छंगू की खैर नहीं ।”
“तू पता कर किसी ब्लैक में हथियार बेचने वाले का ।”
“करेंगा, बाप । बरोबर करेंगा ।”
“अब मैं चलता हूं ।” - विमल ने उठने का उपक्रम किया ।
“एक मिनट । एक मिनट बैठ, बाप ।”
विमल फिर कुर्सी पर बैठ गया ।
“एक बात बोलने का है ।” - मुबारक अली बड़े संजीदा लहजे में बोला - “तू, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, इजाजत दे तो बोलूं ?”
“बोल, क्या बात है ?”
“बेखौफ बोलू, बाप ?”
“हां ।”
“बाप तू इदर फैमिली वाला, रिजक कमाने वाला सफेदपोश बनके बैठेला है । शादी बनायेला है । माशाअल्ला औलाद का मुंह देखने वाला है । ऐसे, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, हालात में जो तू करना चाहता है, वो करना ठीक होयेंगा ?”
“क्या मतलब ?”
“तेरी सैलाब जैसी जिन्दगी में ठहराव आयेला है तो अब तू खुद ठहरे हुए पानी में पत्थर फेंकने जा रहा है ?”
“ये जरूरी है ।”
“क्यों जरूरी है ?”
“वो लड़की...”
“हफ्ता-दस दिन रो-धो के चुप हो जायेगी । ऐसा ही होता है । हमेशा ।”
“वो मजलूम लड़की...”
“ये जुल्म की नगरी है, बाप । यहां हर कोई मजलूम है । तू किस-किसका मुहाफिज बनेगा, बाप ?”
“हर किसी का ।” - विमल दृढ स्वर में बोला ।
“बन पायेगा ?”
“नहीं ।”
“लेकिन कोशिश जरूर करेगा ?”
“हां । अब जब निमित्त बन ही गया है तो हां ।”
“लेकिन बाप...”
“तू नहीं समझेगा, मुबारक अली ।” - विमल उठ खड़ा हुआ - “मेरे संस्कार, मेरा धर्म मुझे इस बात की इजाजत नहीं देता कि मुझे अपनी आंखों के आगे जुल्म होता दिखाई दे और मैं आंखे मीच लूं । दीन के हित में लड़ना मेरा फर्ज है, मेरा धर्म है मेरे गुरूओं की शिक्षा है । मैं अपने फर्ज से नहीं हट सकता । मैं अपने धर्म से विमुख नहीं हो सकता, मैं अपनी शिक्षा को नहीं भुला सकता, भले ही मेरा पुर्जा-पुर्जा कट जाये ।”
मुबारक अली खामोश रहा ।
“तू मेरा साथ देने को बाध्य नहीं, मियां । मैं अकेला ही...”
“क्या बोलता है, बाप । अब क्यों मेरी दाढी पेशाब से बोयेला है ! बाप, मैं तेरा खतावार । मैं जो बोला मेरे कू नेईं बोलना मांगता था । अब बोल, माफ किया ?”
“किया ।” - विमल तनिक हंसता हुआ बोला ।
“अपुन तेरे साथ ?”
“साथ ?”
“ठैक्यू । अंग्रेजी में बोला, बाप ।”
“मैं अब चलता हूं ।”
विमल उसको वहीं बैठा छोड़कर वहां से विदा हो गया ।
***
विमल गोल मार्केट लौटा ।
वो लिफ्ट में सवार हुआ और आठवीं मंजिल पर पहुंचा जहां कि ऐन उसके अपने फ्लैट के ऊपर सुमन का फ्लैट था ।
वो सुमन की दी हुई चाबी से उसके फ्लैट का ताला खोलकर भीतर दाखिल हुआ । उसने भीतर की तमाम बत्तियां जला दी और वहां का बड़ी बारीकी से मुआयना करना आरम्भ किया ।
यूं कुछ हासिल होने की उसे कोई खास उम्मीद नहीं थी लेकिन वो कोशिश वो इसलिए कर रहा था क्योंकि वो कोई कोशिश उठा नहीं रखना चाहता था ।
एक बैडरूम जिसमें कि सुमन की मां-बहन के साथ बद्फेली हुई थी, अभी भी वैसी ही अस्त-व्यस्त हालत में था जैसी में वो मवाली उसे छोड़ के गये थे ।
विमल ने यूं वहां का मुआयना आरम्भ किया जैसे सुई तलाश कर रहा हो ।
नतीजा निकला ।
पलंग के एक पाये के पीछे दीवार और पलंग बीच बनी झिरी में उसे कोई सफेद-सी चीज चमकती दिखाई दी । उसने उसे वहां से बाहर खींचा तो पाया कि वो काले धागे में बन्धी एक चान्दी की ताबीज थी जिस पर अल्लाह गुदा हुआ था । धागे की गांठ अपनी जगह बरकरार थी, वो गांठ से परे कहीं और से टूटा था । जरूर छीना-झपटी में वो ताबीज किसी के गले से टूटी थी और छिटककर वहां जाके गिरी थी ।
ताबीज बरामद हो जाने के बाद भी विमल कितनी ही देर वहां का हर कोना-खुदरा टटोलता रहा ।
और कोई नतीजा सामने न आया ।
***
शनिवार : चौदह दिसम्बर
दोपहर बाद विमल के पास उसके आफिस में मुबारक अली का फोन आया ।
“एक काम तो, बाप” - वो बोला - “सरपट हो गया ।”
“अच्छा !” - विमल आशापूर्ण स्वर में बोला - “पता लग गया उस लम्बू स्मैकिये का ?”
“हथियार बेचने वाले का पता लग गया । ऐन विलायती हथियार । हर तरह के । चाहे तो तोप ले लो ।”
“मजाक न कर ।”
“मजाक नहीं करेला है, बाप । अपुन एकदम सही बोला है ।”
“पता बोल ।”
“बोलता है ।” 
मुबारक अली ने उसे एक नाम, पता और फोन नम्वर लिखवाया और ये भी बताया कि फोन कैसे करना था और क्या कहना था ।
“लाइन छोड़ ।”
मुबारक अली ने लाइन छोड़ी तो विमल ने उस नम्बर पर फोन किया ।
“हल्लो !” - तत्काल उत्तर मिला ।
“मिस्टर तनवीर अहमद, प्लीज !”
“बोल रहा हूं ।”
“जनाब, सदर वाले हुसैन साहब ने मुझे आपका नम्बर दिया था ।”
“तो ?”
“आपसे मुलाकात का तमन्नाई हूं ।”
“वजह ?”
“कुछ कानूनी मशवरा हासिल करना चाहता हूं ।”
“किस बावत ?”
“जमीन-जायदाद का मामला है, जनाब ।”
“हूं ।”
“सोमवार शाम को मेरा आपकी तरफ आना होने वाला है । अगर आप इजाजत दें तो...”
“सोमवार शाम को ?”
“या कहें तो आज ही शाम को । मैं स्पेशल...”
“नहीं नहीं । आज नहीं । सोमवार ही ठीक है । छ: बजे आ जाइयेगा ।”
“शुक्रिया । मेरा नाम कौल है ।”
“छ: बजे आइयेगा, कौल साहब । मालूम है वहां आना है ?”
“जी हां । हुसैन साहब ने बताया है ।”
“गुड ।”
सम्बन्धविच्छेद हो गया ।
***
चार बजे विमल पंचकुइयां रोड पर स्थित श्मशान घाट पर पहुंचा । नीलम ने फोन पर उसे बताया था कि सुमन की मां और बहन के अन्तिम संस्कार का वही वक्त मुकर्रर हुआ था । उनकी चिताओं को अग्नि देने के लिए पुलिस वाले ही सुमन को हस्पताल से वहां लेकर आये थे । मन्दिर मार्ग थाने के थानाध्यक्ष की मौजूदगी में हत्प्राणों के अन्तिम संस्कार का इन्तजाम हुआ था ।
सुमन पहले तो गुमसुम चिताओं के पास खड़ी रही थी लेकिन जब चिताओं को अग्नि देने का समया आया था तो जैसे उसके धीरज का बांध टूट गया था । वो दहाड़े मार-मारकर रोने लगी थी । बड़ी कठिनाई से वो चिताओं को आग दे पायी थी और फिर वहीं दोनों चिताओं के बीच बेहोश होकर गिर पड़ी थी ।
उसे तत्काल एम्बुलेंस में लिटाकर वापिस हस्पताल रवाना कर दिया गया था ।
थानाध्यक्ष जब वहां से रवाना होने लगा तो विमल उसके करीब पहुंचा ।
“मुजरिम पकड़े जायेंगे, जनाब ?” - विमल बोला ।
थानाध्यक्ष जिसका नाम रतनसिंह था, एक कोई पचास साल की आयु का लाल भभूका चेहरे और वर्दी की बैल्ट के ऊपर से बहती बेकाबू तोंद वाला टिपिकल पुलसिया था । उसने एक बार आदतन घूरकर विमल को देखा और फिर बोला - “आपकी तारीफ ?”
“मैं सुमन का पड़ोसी हूं । कौल नाम मेरा ।”
“कौल ! एक कौल साहब कल शाम हस्पताल भी पहुंचे थे, सुमन के पीछे हस्पताल गए थे और उसका हस्पताल का बिल भरने की घोषणा करके आये थे ।”
“कोई एतराज ?”
“नहीं । हमें क्या एतराज होगा ! आप पड़ोसी हैं । अच्छे पड़ोसी हैं । नेक शहरी हैं । अपना फर्ज निभा रहे हैं । खुशी की बात है ।”
“तो मुजरिम...”
“पकड़े जायेंगे । क्यों नहीं पकड़े जायेंगे । जरूर पकड़े जायेंगे । वो पकड़े भी जायेंगे और अपने कुकर्मो को सजा भी पायेंगे ।”
“ऐसे मुजरिमों की तो यूं तलाश होनी चाहिए जैसे पगलाये हुए कुत्तों की तलाश होती है और उन्हें देखते ही गोली मार दी जानी चाहिए ।”
“ऐसा नहीं हो सकता ।” - थानाध्यक्ष अप्रसन्न स्वर में बोला - “आखिर मुजरिमों के भी हकूक होते हैं ।”
“यूं कहिए कि उनके हकूक ज्यादा होते हैं । अमनपसन्द नागरिकों का क्या है, वे तो आप लोगों की भेड़े हैं । ला-अबाइडिंग सिटिजंस को तो आप जिधर चाहें, जैसे चाहें हांक सकते हैं ।”
“ऐसी कोई बात नहीं है, मिस्टर कौल । सजा देना पुलिस का काम नहीं, अदालत का काम होता है ।”
“लेकिन मुजरिम को तलाश करना और उसे मुजरिम साबित करके दिखाना आपका काम होता है ।”
“जो कि हम बखूबी करते हैं । खूब आता है हमें अपना काम ।”
“मसलन क्या कर रहे हैं आप ?”
“तफ्तीश कर रहे हैं, भई । पूछताछ कर रहे हैं । ये दिन-दहाड़े हुआ अपराध है । वो पांच जने थे । ग्रुप में विचरते ऐसे लोगों को बहुत जनों ने देखा हो सकता है । अभी आस-पड़ोस से इस बाबत पूछताछ जारी है । दो जनों का कुछ टूटा-फूटा हुलिया आज सुबह सुमन ने भी बयान किया है । कुछ नोन क्रिमिनल्स की तस्वीरें हमने उसे दिखाई हैं लेकिन उसने किसी की शिनाख्त नहीं की है । अभी और भी दिखायेंगे । आये दिन ऐसे ही क्राइम्स के लिए गुंडे-बदमाश गिरफ्तार होते हैं । उनकी भी सुमन के सामने आइडेन्टिटी परेड कराई जायेगी । वो किसी को पहचान पाएगी तो आगे बढेंगे ।”
“यानी कि सब कुछ सुमन के किसी को पहचानने पर निर्भर करता है ?”
“इस पर ‘भी’ निर्भर करता है ।”
“कब तक उम्मीद करते हैं आप मुजरिमों को गिरफ्तार कर लेने की ?”
“ऐसे मामलों में” - वो शुष्क स्वर में बोला - “कोई टाइम लिमिट मुकर्रर नहीं जा सकती ।”
“आप कोई बहुत एन्थुजियास्टिक नहीं दिखाई देते इस केस की तफ्तीश मामले में !”
“क्या बात है, भई ? अखबारवालों वाली जुबान बोल रहे हो ।”
“आप भी ।”
“मैं भी क्या ?”
“पुलिसवालों वाली जुबान बोल रहे हैं ।”
“जब मैं हूं ही कि पुलिसवाला तो...”
“पुलिस वालों वाली वो जुबान बोल रहे हैं जो आप लोग तब बोलते हैं जब कुछ करना-धरना आप लोगों को अपने बस की बात न दिखाई दे रहा हो ।”
“क्या मतलब है भई तुम्हारा ?”
“कुछ नहीं । नमस्ते ।”
***
ठीक छः बजे विमल तेलीवाड़े में स्थित तनवीर अहमद के घर पहुंचा ।
जो वार्तालाप उसका तनवीर अहमद से फोन पर हुआ था, बकौल मुबारक अली, उसमें तीन बातें अहम थीं । सदर वाले हुसैन साहब का जिक्र ये साबित करता था कि ग्राहक उसके किसी पुराने ग्राहक का जाना-पहचाना शख्स था और भरोसे के काबिल था । कानूनी मशवरा जमीन-जायदाद की बाबत दरकार था, इससे ये स्थापित होता था कि ग्राहक को आटोमैटिक पिस्टल या रिवाल्वर की जरूरत थी । और तीसरी बात ये थी कि जिस वक्त की मुलाकात से तनवीर अहमद ने इनकार करना था, वही असल में मुलाकात का वक्त था । यूं अगर कभी पुलिस को उस पर इललीगल फायर आर्म्स डीलर होने का शक होता और वो उसकी लाइन टेप किए होते तो वो वार्तालाप सुनकर अव्वल तो उनके पल्ले कुछ भी न पड़ता और अगर कुछ पड़ता तो सरासर गलत पड़ता ।
जरूर कोई बहुत ही चालाक और चौकस आदमी था वो तनवीर अहमद ।
लेकिन तनवीर अहमद की जब उसे सूरत दिखाई दी तो उसे कबूल करना पड़ा कि सूरत से वो न चालाक लगता था न चौकस । वो कोई पचास साल का बहुत ही झोलझाल तन्दुरुस्ती वाला, ढीला-ढाला, दुबला-पतला आदमी निकला । वकील शायद वो सच में था क्योंकि जहां उसने उसे बैठाया वो एक आफिसनुमा कमरा था जो कानून के सन्दर्भ ग्रन्थों से भरा पड़ा था ।
वो एक विशाल आफिस टेबल पर आमने-सामने बैठ गए ।
तनवीर अहमद ने अपने बाईफोकल्स में से अपलक उसे निहारा ।
वैसे ही अपलक विमल ने उसकी तरफ देखा ।
“किसका खून करना है ?” - वो बड़ी क्षीण-सी, कांपती सी आवाज बोला ।
“बताना जरूरी है ?” - विमल पूर्ववत् उसे देखता हुआ भावहीन स्वर में बोला ।
“नहीं । जरूरी तो नहीं है । लेकिन बताने में तुम्हें फायदा हो सकता है ।”
“क्या फायदा हो सकता है ?”
“तुम्हें कानूनी मशवरा मुफ्त हासिल हो सकता है ।”
“किस बाबत ?”
“इसी बाबत कि कत्ल करके बच पाओगे या नहीं ।”
“काफी मजाकपसन्द आदमी मालूम होते हैं आप ।”
“तनहा आदमी हूं । बोर हो जाता हूं । इसलिए थोड़ी चुहलबाजी कर लेता हूं ।”
“गलत आदमी से की गयी, गलत किस्म की चुहलबाजी जानलेवा भी साबित हो सकती है, हजरत ।”
“वो तो है । जल्दी भड़कते हो । कोई बड़े गैंगस्टर मालूम होते हो ।”
“गलत । मैं छोटा गैंगस्टर भी नहीं हूं ।”
“तो तुम्हें रिवाल्वर क्यों चाहिए ?”
“आत्महत्या करने के लिए ।”
“उसके तो कई आसान और मुफ्त के तरीके भी हैं ।”
“मैं स्टाइल से मरना चाहता हूं । मुफ्त के तरीकों से हासिल मौत मेरी शौकीनमिजाजी को रास नहीं आएगी ।”
“रकम लाए हो ?”
“हां ।”
“कितनी ?”
विमल ने जवाब न दिया ।
“यहां जो कोई भी आता है, मेरे किसी परखे हुए आदमी की रिकमैन्डेशन से आता है । लेकिन यहां आने के बाद, मेरी सूरत पर एक निगाह डाल लेने के बाद बाज ग्राहक की नीयत बद् हो जाती है और अपने मतलब का हथियार बिना उसकी कीमत चुकाए यहां से ले जाना उसे हंसी-खेल लगने लगता है । अभी पिछले महीने ही एक तुम्हारे जैसा ही जन्टलमैन छोकरा यहां पिस्तौल खरीदने आया था । पिस्तौल पसन्द कर लेने के बाद जब उसकी कीमत चुकाने का वक्त आया था तो उसने मेरी ही पिस्तौल मेरी तरफ तान दी थी । यानी कि पिस्तौल की कीमत तो वो अदा करना ही नहीं चाहता था, मुझे लूटना भी चाहता था ।”
“कामयाब हुआ ?”
“नहीं ।”
“क्यों ?”
“मैंने भी पिस्तौल निकाल ली थी । मुझे गोली चलाने से रोकने के लिए उसने पहले गोली चला दी थी । गोली चली थी लेकिन उसे ही लगी थी ।”
“वो कैसे ?”
“उस पिस्तौल में गोली उलटी चलती थी । अपना ही कन्धा जख्मी कर लिया अभागे ने ।”
“मुझे क्यों सुनाई ये कहानी ?”
“इसलिए कि तुम्हें ये गलत हमी न हो जाए कि तुम यहां से कुछ मुफ्त हासिल कर सकते हो या मुझे लूट सकते हो ।”
विमल ने एक गहरी सांस ली और फिर बोला - “लगता है कि अभी भी आपकी चुहलबाजी ही जारी है ।”
“मैंने हकीकत बयान की है ।”
“यानी कि आप मुझे भी उलटी चलने वाली पिस्तौल देंगे ?”
“वो कहानी तो मैंने अब तुम पर जाहिर कर दी ।”
“तो ?”
“मेरे पास और भी फन्दे हैं । फन्दे-ही-फन्दे हैं यहां ।”
“बहुत फन्देबाज आदमी हैं आप !”
वो हंसा ।
“खुशफहम भी !”
उसकी हंसी को ब्रेक लगा ।
“और किस्सागो भी ।”
“उसने घूरकर विमल को देखा ।”
विमल ने लापरवाही से कन्धे झटकाए ।
“कौन हो तुम ?” - वो बोला ।
“मेरा नाम कौल है । फोन पर बताया था मैंने ।”
“असल में कौन हो तुम ?”
“मेरी असलियत बहुत खतरनाक है, बुजुर्गवार । उसे सुनकर आप यकीनन बेहोश हो जायेंगे । मर भी जायें तो कोई बड़ा बात नहीं ।”
तब विमल की आंखों में ऐसे हिंसक भाव आए कि तनवीर अहमद उससे निगाहें मिलाने की ताब न ला सका । वो हड़बड़ा कर परे देखने लगा ।
“तुम तो” - वो बोला - “यूं फुनफुनाकर दिखा रहे हो जैसे तुम सोहल होवो ।”
“कौन सोहल ?”
“सोहल को नहीं जानते तुम ?”
“नहीं ।”
“यानी कि अभी गली-मौहल्ले के दादा हो !”
विमल खामोश रहा ।
“सोहल एक खतरनाक इश्तिहारी मुजरिम है । कई डाके डाल चुका है । कई कत्ल कर चुका है । सारे हिन्दोस्तान की पुलिस को उसकी तलाश है । लाखों रुपए का इनाम है उसके सिर पर । वो भी” - उसके स्वर में गर्व का पुट आ गया - “मेरे से ही हथियार खरीदता है ।”
“अच्छा, जी ।”
“हां । अभी पिछले महीने एक स्टेनगन और दो पिस्तौल ले के गया है ।”
विमल ने पूरा मुंह खोलकर एक जोर की जमहाई ली ।
“मैं माल दिखाता हूं ।” - एकाएक वो बदले स्वर में बोला ।
“गुड न्यूज ।” - विमल बोला - “कान तरस गए थे ये फिकरा सुनने को ।”
वो अपनी कुर्सी से उठा और पिछवाड़े का एक बन्द दरवाजा खोलकर उसके पीछे ओझल हो गया । थोड़ी देर बाद वो एक पिस्तौल के साथ वापिस लौटा जिसको हाथ में लेते ही विमल ने रिजैक्ट कर दिया । उसकी नाल के भीतर से जंग झलक रहा था, चैम्बर फंसता था और थोड़ा अटकता था ।
तनवीर अहमद उस पिस्तौल के साथ फिर बन्द दरवाजे के पीछे ओझल हुआ और एक और पिस्तौल के साथ वापिस लौटा ।
पहली और उस पिस्तौल को हालत में उन्नीस-बीस का ही फर्क निकला ।
तीसरे फेरे में वो एक पिस्तौल और एक रिवाल्वर लेकर आया ।
दोनों रिजैक्ट ।
तब विमल का धीरज छूटा ।
“हजरत !” - वो तिक्त स्वर में बोला - “आप हम दोनों का वक्त जाया कर रहे हैं । अगर आपके पास यही कुछ है तो साफ कहिए ताकि मैं यहां से रुख्सत होऊं । अगर आप ये समझते हैं कि मैं हथियारों की बाबत कुछ जानता-बूझता नहीं, इसलिए आप मुझे कोई घटिया हथियार भेड़ सकते हैं तो खुदा के वास्ते ये कोशिश बन्द कीजिए । मुझे ये सोचने पर मजबूर न कीजिए कि हुसैन साहब ने मेरे साथ कोई बदमजा मजाक किया है और मुझे किसी गलत आदमी के पास भेज दिया है ।”
तनवीर अहमद ने एक आह-सी भरी ।
“मेरे पास एक रीयल ब्यूटी है ।” - फिर वो बोला - “अफोर्ड कर सकोगे ?”
“मुझे रीयल ब्यूटी ही चाहिए । ले के आइए ।”
“मैंने पूछा है, अफोर्ड कर सकोगे ?”
“बुजुर्गवार ! मझे आपकी उम्र का लिहाज आ रहा है । मैं आपके साथ कोई गुस्ताखी या बदतमीजी नहीं करना चाहता लेकिन इतना कहे बिना फिर भी नहीं रह सकता कि बहुत वाहियात आदमी हैं आप । बहुत ही वाहियात आदमी हैं आप । पता नहीं आप मेरे से ही यूं पेश आ रहे हैं या हर किसी से ऐसे ही पेश आते हैं । लेकिन एक बात यकीन जानिए, आपने अपने तौर-तरीके तब्दील न किए तो अपनी तमाम होशियारियों और फन्देबाजियों के बावजूद एक दिन आप यहीं मरे पड़े पाए जायेंगे अपना तमाम उलटे, आड़े, तिरछे चलने वाले हथियारों के बीच । जैसा सब्र का मादा मेरे में है, वैसा जरूरी नहीं हर किसी में हो अक्लमन्द को इशारा काफी होता है । अहमक को...”
विमल ने जानबूझकर वाक्य अधूरा छोड़ दिया ।
तनवीर अहमद तिलमिलाया, उसके जबड़े भिंचे, नथुने फूले और भी बहुत कुछ हुआ लेकिन अपने किसी भी तेवर का असर विमल पर न होती पाकर वो उठा खड़ा हुआ और वापिस बन्द दरवाजे के पीछे चला गया ।
इस बार जब वो वापिस लौटा तो उसके हाथ में लाल चमड़े से मंढा एक निहायत खूबसूरत ब्रीफकेस था । वो अपनी कूर्सी पर आकर बैठ गया और उसने ब्रीफकेस को अपने और विमल के बीच रखकर खोला ।
विमल ने उचककर भीतर झांका ।
ब्रीफकेस खाली थी ।
विमल का चेहरा लाल होने लगा । वो उछलकर खड़ा हो गया ।
“आप” - वो बोला - “बाज नहीं आयेंगे । आप...”
“बैठो, बैठो ।” - इस बार तनवीर अहमद बोला तो उसके स्वर में ऐसी संजीदगी थी कि विमल बिना कोई हुज्जत किए वापिस अपनी जगह बैठ गया ।
तनवीर अहमद की कांपती-सी उंगलियां ब्रीफकेस का तला टटोलने लगीं ।
फिर तला ब्रीफकेस में से उखड़कर उसके हाथ में आ गया ।
“अब देखो ।” - वो बोला ।
विमल ने इस बार व्रीफकेस के भीतर झांका तो उनकी तबीयत बाग-बाग हो गयी ।
ब्रीफकेस के असली तले में तो खांचे बने हुए थे जिनमें दो नई-नकोर रिवाल्वरें फिट थीं ।
उसने एक खांचे में से एक रिवाल्वर निकालकर हाथ में ली ।
“चौवालीस कैलीबर की एफ-14 माडल की रिवाल्वर है ।” - तनवीर अहमद बड़ी गम्भीरता से कह रहा था - “दस फायर करती हैं । दोनों में से कोई भी कभी इस्तेमाल नहीं हुई । कीमत चालीस हजार रुपये । ब्रीफकेस पन्द्रह सौ रुपये । गोलियां हजार रुपये की सौ । जल्दी फैसला करो । सौदा नामंजूर हो तो चलते बनो ! क्योंकि इससे बेहतर कुछ नहीं है मेरे पास ।”
“ये” - विमल बोला - “आटोमैटिक नहीं हैं ।”
“दुरुस्त ।”
“चला के देखने का मौका...”
“नहीं मिलेगा ।”
“न चली तो... ”
“तुम्हारी बदकिस्मती ।”
“गोलियां कहां हैं ?”
“रिवाल्वरों के साथ यहां से रुख्सत होवोगे तो बाहर दरवाजे पर मिल जायेंगी ।”
“सौ ?”
“जितनी तुम चाहो ।”
“मैंने ये ही बताया है । कितनी मैं चाहता हूं ।”
“ठीक है । सौ ।”
“दोनों लेना जरूरी है ?”
“नहीं ।”
विमल ने हाथ में थमा रिवाल्वर ब्रीफकेस के बाहर मेज पर रख दी । फिर उसने अपने कोट की भीतरी जेब से सौ-सौ के नोटों की तीन गड्डियां बरामद की । उसने दो गड्डियां तनवीर अहमद के सामने डाल दीं और तीसरी को अमेठकर उसकी स्टिचिंग तोड़ी । उसने उसमें से पच्चीस नोट अलग करके दो बन्द गड्डियों के पहलू में रख दिये, बाकी के नोट वापिस जेब में रखे और ब्रीफकेस अपनी ओर घसीट लिया ।
“जो खांचा ।” - वो बोला - “दूसरी रिवाल्वर हटाने से खाली हुआ है, गोलियां मैं उसमें रखना चाहता हूं ।”
“घर जाकर रखना ।”
“ठीक है । ऐसे ही सही ।”
उसने ब्रीफकेस का फाल्स बाटम (नकली-तला) मेज पर से उठाया और उसे पूर्ववत ब्रीफकेस में फिट किया ।
कमाल को कारीगरी थी ब्रीफकेस बनाने वाले की कि फाल्स बाटम ब्रीफकेस में पता ही नहीं लगना था कहां गायब हो गया था ।
उसने ब्रीफकेस बन्द किया और उठ खड़ा हुआ ।
“बाहर जाकर गली में खड़े होवो ।” - तनवीर अहमद बोला ।
विमल ने सहमति में सिर हिलाया । उसने तनवीर अहमद का अभिवादन किया जिसकी तरफ उसने ध्यान तक न दिया ।
फिर वो घूमा और वहां से बाहर निकल गया ।
थोड़ी देर बाद एक बन्द डिब्बे के साथ तनवीर अहमद गली में पहुंचा । उसने डिब्बा विमल को थमाया और बोला - “सौ ।”
“शुक्रिया ।” - विमल बोला ।
“ये खास गोलियां हैं ।”
“क्या खासियत हैं इनमें ?”
“इन्हें हालो प्वायन्ट बुलेट्स कहते हैं । चलाये जाने के बाद इनका खोल टूट जाता है इसलिए बुलेट की बरामदगी के बावजूद वैपन आफ डिसचार्स की शिनाख्त नामुमकिन होती है ।”
“नामुमकिन होती है ?”
“नामुमकिन नहीं तो समझ लो कि बहुत ही मुश्किल होती है । जो कि इन्हें इस्तेमाल करने वाले के लिए बहुत ही फायदे की बात होती है ।”
“गुड । और आप इन बुलेट्स से मुझे इसलिए नवाज रहे हैं क्योंकि आपको मेरी नाक पसन्द आ गयी है !”
“इस वक्त” - तनवीर अहमद भुनभुनाया - “मेरे पास ये ही बुलेट्स अवेलेबल हैं ।”
“ओह । तो मजबूरी को भी कसीदेकारी से पेश कर रहे हैं, जनाब ।”
“तुम्हारा काम हो जाये” - तनवीर अहमद उखड़कर बोला - “तो रिवाल्वर मेरे पास वापिस ले आना । दस हजार रुपये मिल जायेंगे ।”
“जनाब” - विमल बोला - “आत्महत्या के बाद कहीं कोई वापिस... ”
उसने विमल की बात सुनने की तरफ तवज्जो न दी । वो तुरन्त वापिस अपने घर में घुस गया ।
उस रात के विमल की ये रुटीन शुरू हो गयी कि रात के भोजन के बाद नीलम को सुलाकर - जबरदस्ती की नींद सुलाकर जो कि उसे धोखे से नींद की गोली खिलाने से आती थी - वो घर से निकल पड़ता था और लम्बू और छंगू की तलाश में शहर के जाने-अनजाने जरायमपेशा इलाकों में चक्कर लगाता था ।
चौथे दिन रात को ग्यारह बजे के करीब मजनू का टीला के नाम से जानेजाने वाले इलाके में वहां के तिब्बतियों के ढाबों में से एक में उसे वो वार्तालाप सुनने को मिला जो उसकी पीछे छूट गयी गुनाहों से पिरोई जिन्दगी की नयी शुरुआत का पहला अध्याय बना ।
***
मंगलवार : सत्तरह दिसम्बर
वो एक हनीफ नाम का छब्बीस-सत्ताइस साल का दरम्याने कद का दुबला-पतला नौजवान था जो कि इतनी उम्र में ही दो बार जेल की हवा खा चुका था । वो एक शातिर जेबकतरा था, जो जेब कतरते पकड़ा तो कई बार गया था लेकिन सजा उसे सिर्फ दो बार हुई थी । उस घड़ी वो गोविन्द नाम के जिस दूसरे शख्स के साथ बैठा था, वो भी उसी की तरह जेबकतरा था और उसका पुराना यार था । जेबें काटने का अपना कारोबार अमूमन वो मिलकर चलाते थे ।
वो तिब्बती ढाबा इतनी रात गये भी लगभग भरा हुआ था और वहां हर आयु और हर वर्ग के लोग मौजूद थे । उस इलाके में ऐसे कई ढाबे थे जिनकी ये खूबी थी कि वहां कारों वाले भी आते थे और बाइसिकल वाले भी आते थे ।
वो दोनों उस वक्त लस्सी की शक्ल-सूरत जैसी चावल की बनी शराब पी रहे थे आमलेट खा रहे थे ।
उनसे थोड़ा ही परे विमल स्वीटकार्न सूप लिए बैठा था ।
“लानत !” - हनीफ कह रहा था - “जब से मेरी ताबीज खोई है, लगता है अल्लामारी तकदीर ही रूठ गयी है ।”
विमल के कान खड़े हो गये ।
“अब छोड़ पीछा यार उसका” - गोविन्द भुनभुनाया - “मेरे तो कान पक गए चार दिनों से ताबीज, ताबीज, ताबीज, ताबीज सुनते । अब ले तो आया है नयी ताबीज ।”
“यार, वो पीर बाबा की दरगाह की फूंक मारी हुई ताबीज थी । किस्मत चमका दी थी मेरी उस ताबीज ने । तीन साल में एक बार भी छोटी-मोटी भी उलटी नहीं पड़ी थी । वो ताबीज खोते ही, देख ले, चार दिन में ही क्या दुर्गत हो गयी है ! चार दिन में सिर्फ दो बार जेब काटने का दांव लगा । पहली बार जो बटुवा हाथ लगा उसमें केवल ढाई रुपये निकले, दूसरी बार रंगे हाथ पकड़ा गया । जिसकी जेब काट रहा था, उसी ने ऐसी पिटाई की कि अभी तक जिस्म दुख रहा है । शुक्र है अल्लाताला का कि मार-पीट से ही खलासी हो गयी वर्ना फिर बैठा होता तिहाड़ में ।”
“ऐसी बात थी तो सम्भाल के रखनी थी ताबीज । नहीं खोना था उसे ।”
“अबे टेसू, तू तो यूं कह रहा है जैसे मैंने उसे जानबूझ के खोया हो ।”
“अपनी लापरवाही से तो खोया उसे ! नहीं दिखानी थी ऐसी लापरवाही !”
“अब अनजाने में ही गयी लापरवाही ।”
“तो भुगत ।”
“भुगत तो रहा हूं ।”
“हां, भुगत तो रहा है ।” - गोविन्द एकाएक बड़े उदास भाव से बोला - “रो तो रहा है अपने करमों को । साथ में मुझे भी रुलायेगा ।”
“क्या बकता है ?”
“मियां, तेरी वो करामाती ताबीज अगर पुलिस के हाथ पड़ गयी हुई तो जानता है क्या होगा ? तू पकड़ा जायेगा । तू पकड़ा जायेगा तो मैं पकड़ा जाऊंगा । फिर हम पांचों-के-पांचों पकड़े जायेंगे । और फिर वो दिन दूर नहीं होगा जबकि ये लम्बा-लम्बा झूल रहे होंगे फांसी के तख्ते पर हम सब-के-सब ।”
“अबे, डरा रहा है मुझे ?”
“डरा नहीं रहा हकीकत बयान कर रहा हूं । बहुत चौड़े में मरवाया हमारे समैकिये उस्ताद ने । सिर्फ जबरजिना की बात होती तो चार-पांच साल की सजा पाकर छूट जाते । अब तो फांसी ही होगी ।”
“ऐसी अन्धी नहीं लग रही । पुलिस को सात जन्म में हमारी खबर नहीं लग सकती ।”
“इसी जन्म में लगेगी । तेरी उस सिद्ध ताबीज की वजह से जो जरूर तू वहीं गिरा के आया है ।”
“पागल हुआ है । अब टेसू, अगर ताबीज वहां गिरी होती तो अब तक कब की पुलिस के हाथ में लग चुकी होती । फिर पलक झपकते ही पुलिस मेरी गर्दन पर सवार होती । कोई साला पुलसिया अभी तक पास नहीं फटका, इसी से साबित होता है कि ताबीज वहां नहीं गिरी ।”
“अभी चार दिन तो हुए हैं । क्या पता पुलिस तलाश कर रही हो तुझे अभी ।”
“मैं नहीं मानता । इतने मुखबिर होते हैं पुलिस वालों के कोई-न-कोई अभी तक भौंक न चुका होता कि वैसी ताबीज मोहम्मद हनीफ पहनता था ?”
गोविन्द खामोश रहा । उसके चेहरे से उदासी के भाव न गये ।
“तू खामखाह फिक्र करता है, यार ।” - हनीफ उसके कन्धे पर एक धौल जमाता हुआ बोला - “अरे, उस ताबीज पर क्या मेरा नाम लिखा है ? कोई पूछेगा तो कह दूंगा कि मेरी ताबीज तो मेरे गले में है । ये रही ।”
“पुलिस सब कुबुलवा लेती है । पुलिस की डण्डा परेड को तू नहीं जानता, या मैं नहीं जानता !”
“फिर भी तू क्यों घबराता है ! कर ले जितनी मर्जी डण्डा परेड पुलिस, मैं तेरा नाम अपनी जुबान पर नहीं लाऊंगा । जो होगा मैं भुगतूंगा । मरता मर जाऊंगा लेकिन यार की मुखबिरी नहीं करूंगा । कसम है मुझे पाक परवरदिगार का !”
तब गोविन्द भी जज्बाती हुए बिना न रह सका ।
“नहीं, नहीं ।” - वो हनीफ का हाथ दबाता हुआ बोला - “ऐसी नौबत नहीं आयेगी ।”
“यही तो मैं बोल रहा हूं ।” - हनीफ बोला - “ऐसी नौबत नहीं आयेगी । वो ताबीज वहां नहीं गिरी, यार । वो कहीं और गिरी ।”
“हनीफ भाई, तू एक मेरा कहना मान भगवान के लिए । तू उस ताबीज को भजना बन्द कर । तेरी ताबीज तेरे गले में है । थी और रहेगी । क्या समझा ?”
“ठीक है ।” - हनीफ बोला और अपने खाली गिलास का पेन्दा अपनी मेज पर ठकठकाने लगा ।
एक तिब्बती वेटर ने चावल की शराब से भरा नया जग उनके सामने रख दिया । दोनों ने फिर गिलास भर लिए ।
विमल चुपचाप दोनों का मुआयना कर रहा था । उसने नोट किया था कि दोनों में से किसी के भी किसी हाथ में छः उंगलियां नहीं थी और न ही दोनों में से कोई साढे पांच फुट से ज्यादा लम्बा था ।
यानी कि उन दोनों में से कोई न लम्बू था, न छंगू था और अगर लम्बू के हाथों में छः-छः उंगलियां थीं तो न लम्बू-छंगू था ।
सूप अभी उसके सामने तीन-चौथाई बाकी था ।
वो एकाएक अपने स्थान से उठा, उसने अपना लाल चमड़े से मंढा ब्रीफकेस सम्भाला और समीप से गुजरते एक वेटर से टायलेट की बाबत सवाल किया । फिर वेटर के बताये रास्ते पर चलता हुआ वो टायलेट में पहुंचा । वहां उसने ब्रीफकेस में से भरी हुई रिवाल्वर बरामद की, उसके फाल्स बाटम को यथास्थान सरकाकर उसे बन्द किया, रिवाल्वर अपने ओवरकोट की दाई जेब में डाली और फिर ब्रीफकेस सम्भाले टायलेट से बाहर निकल आया ।
वो वापिस अपनी मेज पर पहुंचा और फिर सूप पीने लगा ।
सूप समाप्त करके उसने इतनी ऊंची आवाज में वेटर को पुकारा कि हनीफ और गोविन्द की निगाह स्वयंमेव ही उसकी तरफ उठ गयी ।
“कितना पैसा ?” - वो वेटर से बोला ।
“आठ रुपया ।” - वेटर बोला ।
विमल ने अपनी जेब से अपना पर्स निकाला । पर्स सौ-सौ के नोटों से इस कदर ठूंसा हुआ था कि वो बड़ी मुश्किल से दोहरा हो पा रहा था ।
हनीफ के नेत्र फैले । तत्काल वो गोविन्द को कोहनियां मारने लगा ।
गोविन्द ने सहमति में सिर हिलाया ।
“अकेला मालूम होता है ।” - वो बोला ।
“मालूम क्या होता है ! है ही अकेला । हो जाए ?”
“इसके पास अपनी सवारी हुई तो बाहर निकलते ही चढकर चलता बनेगा ।”
“देखते हैं । तू बिल के पैसे मार वेटर के मत्थे और चल । देर न कर ।”
“ठीक है ।”
विमल यूं पर्स में नोट टटोल रहा था जैसे उसे कोई छोटा नोट बरामद करने में दिक्कत महसूस हो रही हो । फिर उसने पर्स में से एक दस का नोट निकालकर वेटर के हवाले किया और पर्स को ओवरकोट की दाईं, उसी जेब में डाल लिया जिसमें कि रिवाल्वर मौजूद थी ।
विमल ने ब्रीफकेस सम्भाला और बाहर को चल दया ।
बाहर सन्नाटा था । उस ढाबे के सामने और वैसे ही अन्य ढाबों के सामने रोशनी थी लेकिन और आगे रास्ता सुनसान भी था और अन्धेरा भी था । वहां से निकलकर रोशनियों से जगमग मेन रोड की ओर बढने के स्थान पर वो आगे सुनसान और अन्धेरे रास्ते की ओर चल दिया । उसने कान खड़े थे और वो पूरी तरह से चौकन्ना था । उसको अपने पीछे से आती दो जोड़ी कदमों की हल्की-हल्की आहट मिल रही थी लेकिन उसने घूमकर पीछे देखने का उपक्रम न किया ।
वो ढाबों की कतार से आगे निकल आया तो एकाएक कोई कूदकर उसके सामने आ गया ।
विमल ठिठक गया । उसने देखा कि वो ताबीज वाला छोकरा था ।
“खबरदार !” - हनीफ हाथ में थमा चाकू उसकी ओर तानता हुआ गुर्राया ।
विमल स्थिर खड़ा रहा । उसने गर्दन घुमाकर पीछे निगाह डाली ।
पीछे गोविन्द खड़ा था । उसके हाथ में भी चाकू था ।
“क्या चाहते हो ?” - विमल सहज भाव से बोला ।
“माल निकाल ।” - हनीफ बोला ।
“माल !”
“बहरा है !” - सुनता नहीं ! यहां से जिन्दा बच के जाना चाहता है तो अन्टी का नावां ढीला कर ।
“अन्टी का नावा !”
“कौन-सी जुबान समझता है, साले । जल्दी नावां निकाल नहीं तो पेट फाड़ दूंगा ।”
“ऐसा न करना ।”
“तो जल्दी कर । माल ढीला कर ।”
विमल ने ब्रीफकेस उसकी तरफ बढाया ।
“अबे, इसका क्या करूं मैं ? जेब से बटुवा निकाल ।”
“शायद” - गोविन्द बोला - “इसमें भी माल हो ।”
“बाद में देखेंगे” - हनीफ बोला - “पहले वो माल हाथ आने दे जिसकी हमें पक्की खबर है । चल बे, बाबू साहब, बटुवा निकाल ।”
“निकालता हूं ।” - विमल मरे स्वर में बोला । उसने ब्रीफकेस को नीचे जमीन पर रखा और अपने ओवरकोट की दाईं जेब में हाथ डाला । उसकी उंगलियां रिवाल्वर के दस्ते के गिर्द लिपट गयीं । फिर उसने अपना रिवाल्वर वाला हाथ जेब से बाहर खींचा और साथ ही बिजली की फुर्ती से उन दोनों के बीच में से छलांग लगा दी ।
“हिलना नहीं, हरामजादो ।” - वो अपना रिवाल्वर वाला हाथ दायें-बायें लहराता हुआ बड़े हिंसक स्वर में बोला ।
रिवाल्वर पर निगाह पड़ते ही दोनों के छक्के छूट गये ।
“चाकू फेंको ।”
दोनों ने चाकू अपनी उंगलियों में से फिसल जाने दिये । भय से स्तब्ध दोनों अपने एकाएक सूख आये गलों का थूक से तर करने की कोशिश करने लगे ।
“कौन है भाई तू ?” - फिर हनीफ हिम्मत करके बोला ।
“अगर अपनी ही जात-बिरादरी का है” - गोविन्द बोला - “तो माफ कर दे, उस्ताद । गलती हो ही जाती है ।”
विमल ने एक सतर्क निगाह दायें-बायें डाली । फिलहाल रास्ता सुनसान था ।
उसने जेब से टूटे धागे वाली ताबीज निकाली और उसे हनीफ की ओर उछाला ।
हनीफ ने हड़बड़ाते हुए उसे हवा में लपका । फिर जब उसने ताबीज पर निगाह डाली तो उसका चेहरा कागज की तरह सफेद हो गया ।
“ये... ये” - वो हकलाया - “ये... ताबीज... ”
“तेरी है ।” - विमल बोला - “फौरन हां बोल ।”
“पु-पुलिस ! पुलसिये हो क्या ?”
“नाम क्या है तेरा ?”
“ह-हनीफ ।”
“तेरा ?”
“गोविन्द ।”
“शुक्रवार के दिन गोल मार्केट के एक फ्लैट में पांच जनों ने एक औरत और उसकी नाबालिग बेटी के साथ घन्टों बलात्कार किया था । उन बलात्कारयों में से वो तुम हो । अपने बाकी तीन साथियों के नाम बोलो ।”
दोनों के मुंह से बोल न फूटा ।
विमल ने रिवाल्वर का कुत्ता खींचा । स्तब्ध वातावरण में यूं हुई क्लिक की आवाज बड़े जोर से गूंजी ।
“त... तुम” - हनीफ बदहवास भाव से बोला - “आप क्यों जानना चाहते हैं ?”
“सवाल मैंने किया है, हरामजादे !”
हनीफ का जिस्म सिर से पांव तक कांप गया ।
“नाम-पते बोल अपने तीनों साथियों के । बोल, छंगू कौन है ? लम्बू कौन है ? तीसरा जना कौन है ?”
“हम बता दें तो हमारी जानबख्शी हो जायेगी ?”
“मेरा हाथों हो जायेगी ।”
“मतलब ?”
“फिर जो करना होगा पुलिस करेगी ।”
“फिर क्या फायदा हुआ ? फिर तो यूं हुआ कि आसमान से गिरे, खजूर में अटके । फिर...”
“हरामजादे ! तू नफा-नुकसान जांचने की, सौदेबाजी करने की हालत में है ?”
हनीफ ने जोर से थूक निगली ।
“लगता है तुझे सोचने के लिए वक्त चाहिए । ठीक है । मैं तुझे वक्त देता हूं । मैं तेरे जोड़ीदार को शूट कर देता हूं । अपनी बारी आने तक तू सोच ले जितना सोचना है ।”
विमल ने रिवाल्वर का रुख गोविन्द की ओर किया ।
गोविन्द के प्राण कांप गये । भय के अतिरेक से उसके नेत्र अपनी कटोरियों में फट पड़ने लगे ।
“बचाओ !” - एकाएक वो गला फाड़कर चिल्लाया और घूम के भागा !
विमल ने तत्काल फायर किया ।
रफ्तार पकड़ने को तत्पर गोविन्द का जिस्म हवा में धनुष की तरह मुड़ा और फिर वो पछाड़ खाकर जमीन पर गिरा ।
हनीफ अपेक्षाकृत ज्यादा दिलेर निकला । भाग खड़ा होने की जगह उसने फुर्ती से नीचे झुककर अपना चाकू उठाया, उसे विमल पर फेंक मारने के लिए वो सीधा हुआ ही था कि एक गोली उसके सीने में ऐन दिल के ऊपर धंस गयी ।
“अल्लाह !” - उसके मुंह से निकला । चाकू उसके हाथ में ही थमा रहा और वो वहीं ढेर होकर मर गया ।
विमल ने देखा कि कुछ लोग ढाबों से बाहर निकल आये थे और इधर-उधर देख रहे थे । प्रत्यक्षतः गोविन्द की बचाव की गुहार भीतर ढाबों में सुनी जा चुकी थी ।
विमल ने जेब से तह किया हुआ एक पर्चा निकाला और उसे हनीफ की लाश पर उछाल दिया । फिर उसने रिवाल्वर जेब के हवाले की, झुककर अपना ब्रीफकेस उठाया और झुका-झुका ही निशब्द विपरीत दिशा में दौड़ चला ।
***
बुधवार : अट्ठारह दिसम्बर
नीलम ने विमल को सोते से जगाया । वो उठकर सीधा हुआ तो उसने विमल को चाय का गिलास थमा दिया ।
“क्यों खामखाह जहमत करती है !” - विमल ने मीठी झिड़की दी - “अभी मैं बना लेता ।”
“जरूर ही बना लेते ।” - नीलम बोली - “सोये हुए यूं लग रहे थे जैसे दोपहर तक नहीं उठने वाले थे ।”
“फिर भी... ”
“क्या फिर भी ? पिछले तीन-चार दिनों से कुछ ज्यादा ही नींद आने लगी है तुम्हें ।”
विमल उसे क्या बताता कि पिछले कुछ दिनों से रात के एक बजे से पहले उसे बिस्तर के हवाले होना कभी नसीब नहीं हुआ था ।
“और तुझे कम ।” - प्रत्यक्षतः वो बोला - “सुबह-सवेरे जाग जाती है ।”
“ये सुबह-सवेरा है ? सरदार जी, साढे सात बजे हुए हैं ।”
“सर्दियों में साढे सात बजे सुबह-सवेरा ही होता है । और तुझे मैंने कितनी बार कहा है मुझे सरदार जी मत बुलाया कर । किसी ने सुन लिया तो खामखाह मुसीबत गले पड़ जायेगी ।”
“यहां कौन सुन रहा है ? यहां कौन है तुम्हारे और मेरे अलावा ?”
“अरी साली मिडल फेल... ”
“पास ।”
... किसी ने तुझे पढ़ाया नहीं कि दीवारों के भी कान होते हैं ।”
“अच्छा-अच्छा ।”
“क्या अच्छा-अच्छा !”
“अच्छा-अच्छा नहीं मंजूर तो बुरा-बुरा । खराब-खराब अब राजी ?”
विमल की बेसाख्ता हंसी निकल गयी ।
“आज अखबार में बड़ी भयानक खबर छपी है ।” - नीलम बोली ।
“क्या ?”
“कल रात मजनू का टीला में तिब्बती ढाबों के पास किसी ने दो आदमियों को शूट कर दिया ।”
“इसमें क्या भयानक है ? ये तो दिल्ली शहर की रोजमर्रा की खबर है ।”
“अखबार में छपा है कि लाशों के करीब एक पर्चा पड़ा पाया गया था, जिस पर लिखा था कि वो दोनों आदमी बलात्कारी थे और शुक्रवार को गेल मार्केट में यानी कि यहां, हमारे ऊपर हुई गैंग रेप में शामिल थे ।”
“ओह ! ये भी छपा है कि असल में थे कौन वो ?”
“हां । दोनों हिस्ट्री शीटर थे । नोन क्रमिनल थे । जेल की हवा भी खाये हुए थे । तब भी कोई गुल ही खिलाने वाले थे जबकि मारे गये । एक के हाथ में तो तब भी चाकू था जबकि उसकी लाश बरामद हुई थी । दूसरे का चाकू उसको लाश से थोड़ा परे गिरा पड़ा था ।”
“यानी कि किसी पर हमला करने की फिराक में थे जबकि उन पर खुद हमला हो गया और वो मारे गये ।”
“जाहिर है । ये तो हालात ही बता रहे हैं कि उन दोनों ने किसी को लूटने को कोशिश की थी लेकिन जिसे वो लूटने वाले थे, वो हथियारबन्द निकल आया था और उसने अपने जान-माल की हिफाजत की कोशिश में उन दोनों को शूट कर दिया था ।”
“तो ?”
“सरदा... विमल, अखबार वालों ने जो पुलिस से निहायत अहम सवाल किया है, वो ये है कि उस शख्स को ये कैसे मालूम था कि जो दो जने उसे लूटने की कोशिश कर रहे थे, वो बलात्कारी थे और यहां हुई बलात्कार की वारदात में शरीक थे ?”
“इत्तफाक की बात है ।”
“इत्तफाक की बात नहीं, इसमें कोई भेद है । अखबार वालों ने भी इस ओर उंगली उठाई है । सम्पादकीय में भी लिखा है कि ऐसा क्योंकर हुआ कि पुलिस अभी इस केस में अन्धेरे में ही टक्करें मार रही है जबकि एक अनजान आदमी ने उन पांच बलात्कारियों में से दो को तलाश भी कर लिया और उन्हें उनकी करतूत को सजा भी मिल गयी ।”
“इत्तफाक से । उसने तो उन पर अपनी जान बचाने के लिए ही गोली चलाई होगी न ?”
“तो फिर वो पीछे एक पर्चे पर ये लिखकर क्यों छोड़ गया कि वो दोनों बलात्कारी थे ?”
“जरूर कोई पुलिस का हितचिन्तक होगा । यूं पुलिस को बाकी तीन बलात्कारयों तक पहुंचने का जरिया हासिल हो सकता है । मरने वालों के यार-दोस्तों को छानबीन से और उनसे पूछताछ से बाकी तीन बलात्कारियों का अता-पता मालूम हो सकता है ।”
“अगर वो ऐसा ही पुलिस का हितचिन्तक था तो उसने उन दोनों बदमाशों की जिन्दगी में ही क्यों न पुलिस को उनके बलात्कारी होने की खबर कर दी ! वो जिन्दा पकड़े जाते तो सब कुछ बकते । मुर्दे कहीं बोलते हैं ।”
“कमाल है !” - विमल प्रशंसात्मक स्वर में बोला - “तू तो बहुत सयानी हो गयी है ।”
“सोहबत का” - वो बड़े प्यार से बोली - “सोहबत का असर है, सरदार जी ।”
“फिर सरदार जी?” - विमल आंखे निकालकर बोला ।
“अब मैं क्या करूं ?” - उसने मुंह बिसूरा - “मुझे अच्छा लगता है ।”
“विमल नहीं कह सकती ?”
“कह सकती हूं । लेकिन सरदार जो अपने आप मुंह से निकल जाता है ।”
“ठीक है । जो मर्जी कहो ।” - विमल एक क्षण ठिठका और फिर मीठे स्वर में बोला - “सरदारनी जी ।”
नीलम उससे लिपट गयी ।
“अरे, अरे ! चाय बिखर जायेगी ।”
नीलम उससे अलग हुई ।
“तो” - विमल बोला - “मेरी सोहबत के असर से सयानी हो गयी है तू ?”
“और नहीं तो क्या ? पहले जहां थी मेरे में इतनी अक्ल ?”
“अच्छा, अच्छा । अखबार दे और ये चाय पकड़ अपना ।”
“क्या हुआ चाय को ?”
“ठण्डी हो गयी । गर्म कर ला ।”
“काहे को ? मैं और बना के लाती हूं ।”
“शाबाश ।”
नीलम ने विमल को उस रोज का अखबार थमाया और स्वयं किचन में चली गयी ।
विमल अखबार में छपा अपने ही कल के कारनामे का विवरण पढने लगा ।
***
हमेशा को तरह शाम की आफिस से घर लौटने से पहले विमल हस्पताल में सुमन के पास पहुंचा ।
सुमन तब भी हस्पताल में थी । नोन क्रिमिनल्स की तस्वीरें उसे दिखाने पुलिस वाले रोज हस्पताल में उसके पास पहुंच जाते थे और यूं शायद ये साबित करके दिखाते थे कि वो जी-जान से केस पर काम कर रहे थे । नतीजा सिर्फ ये निकलता था कि लड़की बेचारी और आन्दोलित हो जाती थी और बड़े डाक्टर को ये फैसला करना पड़ता था कि लड़की की हालत अभी घर भेजे जाने लायक नहीं थी ।
“कौल साहब” - उसे देखते ही वो बोली - “आज का अखबार पढा ?”
“हां पढा ।” - विमल सहज भाव से बोला ।
“मेरे कलेजे को ठण्डक पड़ गयी । खुदा करे दोनों मरने वाले जहन्नुम की आग में झुलसें ।”
“वो तो होगा ही ।” - विमल तनिक हंसा - “ऐसे बदकारों की और क्या जन्नत नसीब होगी ?”
“लेकिन ऐसा किसने किया ? कौन होगा वो शख्स जिसने उन दोनों बलात्कारियों के प्राण लिये ?”
“क्या पता कौन था ?”
“मुझे मिल जाये तो मैं आरती उतारूं उसकी ।”
“समझ लो कि वो खुदा का कोई गण था जिसने उन बदमाशों का इनसाफ किया । समझ लो कि वो सार्वभौम, सर्वशक्तिमान, सहस्त्रबाहु की एक बांह था जिसने उन दोनों बदमाशों को इस फानी दुनिया से उठा लिया और झुलसने के लिए जहन्नुम की आग में डाल दिया ।”
“अभी तीन और बाकी हैं ।” - वो धीरे से बोली ।
“जरूर उनका भी ये ही अंजाम होगा । जरूर इस घड़ी वो अपने दो जोड़ीदारी की यूं हुई मौत की बाबत जानकर थर-थर कांप रहे होंगे और अपनी जान की खैर मना रहे होंगे ।”
“लेकिन वो होगा कौन ?” - सुमन मन्त्रमुग्ध स्वर में बोली ।
“होगा कोई ।” - विमल लापरवाही से बोला - “ये सब लीला है ऊपर वाले की । तेरी मां-बहन पर अत्याचार हुआ : वो भी उसकी लीला थी । उन बलात्कारियों को सजा मिली ये भी उसकी लीला है । ऊपर वाले की करनी पर सवाल करने वाले हम कौन होते हैं । कोई उसको हुक्म दे सकता है ! तभी तो लिखने वाले ने लिखा है कि जो तिसु भावे सोई करसी, हुक्म न करना जाई । परमात्मा जैसा चाहता है, जो उसे अच्छा लगता है, वही वो करता है ।”
“कौल साहब, आप तो बड़े विद्वान हैं । कश्मीरी होते हुए गुरुवाणी जानते-समझते हैं ।”
“पुलिस यहां आयी ?” - विषय बदलने की नीयत से विमल ने पूछा ।
“जी हां, आई । रोज ही आती है ।”
“मेरा मतलब है अखबार में छपी खबर के सिलसिले में उनका भी कोई खास फेरा पड़ा यहां ?”
“वो भी पड़ा । दोनों मरने वालों की अखबार में छपी तसवीरें दिखाकर वो लोग मेरे से बलात्कारियों के रूप में उनकी शिनाख्त कराना चाहते थे । मैंने ये ही कहा कि मैं उन्हें नहीं पहचानती थी । वो बलात्कारी हो भी सकते थे और नहीं भी हो सकते थे । फिर वो मुझ पर इलजाम लगाने लगे कि मैंने जानबूझकर उनका हुलिया छुपाकर रखा था और जिस किसी ने भी उनका खून किया था । वो कोई मेरा सगेवाला था और मेरी शै पर उसने ऐसा किया था ।”
“तौबा !”
“शायद ये ही तरीका है आजकल बड़े शहरों की पुलिस के काम करने का । जालिम पर पेश न चले तो मजलूम पर पिल पड़ो ।”
विमल ने बड़ी संजीदगी से सहमति में सिर हिलाया ।
“वो गुण्डे-बदमाशों जैसी शक्ल वाला इंस्पेक्टर रतनसिंह कह रहा था कि जैसे पहले मैंने छंगू और लम्बू की बाबत छुपाया था, वैसे ही मैंने जानबूझकर उन बदमाशों की बाबत भी छुपाया था जिनके मरने की आज के अखबार में खबर है । बड़े डाक्टर साहब ने मेरा उससे पीछा न छुड़ाया होता तो अभी पता नहीं वो क्या-क्या बकता और कौन-कौन से इलजाम मेरे ऊपर लगाता ।”
“डाक्टर ने यहां से तुम्हारी छुट्टी की बाबत कुछ कहा ?”
“हां । कहता है कि अभी एक-दो दिन और रुकना होगा ।”
“मेरे लायक कोई काम हो तो बताओ ।”
“जी नहीं । मेहरबानी ।”
“तो मैं चलूं ?”
सुमन ने सहमति में सिर हिलाया और फिर एकाएक बोली - “कौल साहब, आप क्यों जहमत उठाते हैं रोज यहां आने की ? आप... ”
“अरे, जहमत कैसी ? मेरे आफिस और घर के रास्ते में तो है ये हस्पताल ।”
“फिर भी... ”
“फिर भी क्या ? तुमने क्या यहां हमेशा रहना है ?”
“आपके सिवा एक भी पड़ोसी मुझे यहां देखने नहीं आया ।”
“बाज लोग दुनियादारी में ज्यादा मसरूफ रहते हैं । वक्त की कमी रहती है उन्हें । चाहकर भी कई काम नहीं कर पाते ।”
“ये आपकी शराफत है जो आप ऐसा सोचते हैं वर्ना मैं क्या जानती नहीं कि लोग-बाग ऐसा जानबूझकर करते हैं । खून सफेद हो गया है दुनिया का । ऊपर से हमदर्दी दिखाते हैं, अफसोस जाहिर करते हैं, दिल में सोचते हैं अच्छा हुआ ।”
“अरे नहीं । ऐसा कहीं होता है !”
“होता है । आज की दुनिया में ऐसा ही होता है । कौल साहब, आप ही मेरे सच्चे हमदर्द हैं । जिन्दगी रही तो मैं कभी आपके किसी काम आकर दिखाऊंगी ।”
“जरूर । ऐसा कुछ कर दिखाने का मौका आने भी वाला है ।”
“जी !”
“तुम्हारी भाभी के बच्चा होने वाला है । तब मुझे दो रोटी पका के खिला दिया करना । खाने के लिए होटलों के धक्के खाने से बच जाऊंगा ।”
“वो तो मामूली बात है । वो तो आपके कहे बिना करूंगी । मैं तो कोई बड़ा काम... ”
“देखेंगे । देखेंगे । पहले घर तो पहुंच लो ।”
फिर विमल वहां से विदा हो गया ।
***
बृहस्पतिवार : उन्नीस दिसम्बर
उस रोज रात को विमल अपनी रात की गश्त पर घर से निकलने ही लगा था कि फोन की घन्टी बज उठी । नीलम घन्टी की आवाज सुनकर नींद से जाग सकती थी इसलिए उसने झपटकर रिसीवर उठाकर कान से लगाया ।
“हल्लो” - वह दबे स्वर में बोला - “कौन ?”
“मुबारक अली ।” - आवाज आयी - “सुजानसिंह पार्क पहुंच, बाप ।”
“वहां कहां ?”
“जिदर तू पहली बार मेरे कू टैक्सी स्टैण्ड पर मिला था, उसके ऐन पीछू जाने का है । उदर एक मोटर गैराज है जो इस वक्त बन्द है । उसके बाजू में एक रेस्टोरेन्ट है जिसके पीछू में बम्बई स्टाइल बेवड़े का अड्डा चलता है और ताश-पत्ती की फड़ लगती है । उदर आने का है । फौरन ।”
“कौन मिला ?”
“मेरे खयाल से छंगू ।”
“खयाल से ?”
“बाप, उसके दोनों हाथों में छः-छः उंगलियां तो हैं पण पता नहीं वो वो छंगू है या नहीं जो तेरे कू मांगता है ।”
“लम्बू ही छंगू है ?”
“नक्को । ये इदर वाला छंगू तो कोई ठिगना, मोटा, गैंडा है ।”
“जहां तू मुझे बुला रहा है, वहां हर कोई आ-जा सकता है ?”
“लगता तो ऐसा ही है । मेरे कू तो कोई नहीं रोका ।”
“मैं आता हूं ।”
विमल ने सम्बन्धविच्छेद कर दिया ।
***
छंगू का नाम मनसुखलाल था लेकिन उसकी जानकारी के दायरे में शायद ही कोई उसे मनसुखलाल के नाम से पुकारता था । हर कोई उसे छंगू या छंगा या कोई कोई उसका बहुत ही आदरमान करना चाहता हो तो, छंगू बादशाह कहकर पुकारता था ।
रात के नौ बजे थे और वो इस घड़ी एक फ्लैश की फड़ में बैठा हुआ था । उसके साथ उसके दो साथी और थे लेकिन वो पहले ही अपनी जेबें खाली करा चुके थे और उस घड़ी छंगू वाली टेबल पर उनकी हैसियत महज तमाशाइयों वाली थी । वैसे मेज पर पांच और खिलाड़ी मौजूद थे जिनमें से दो से उसकी दुआ-सलाम थी, एक को वो बखूबी जानता था और बाकी दो जने उसके लिए नितान्त अजनबी थे ।
जिस खिलाड़ी को वो बखूबी जानता था, उसका नाम दौलत था और दो अजनबी खिलाड़ियों में से एक मुबारक अली था ।
वातावरण में रम, विस्की, ठर्रा, सिगरेट, बीड़ी की मिलीजुली गन्ध फैली हुई थी, वस्तुतः वहां सांस लेना दूभर था लेकिन किसी को कोई एतराज नहीं मालूम होता था । एतराज क्या अहसास भी नहीं मालूम होता था ।
वहां वैसी ही नौ-दस टेबल और थीं, लेकिन उस घड़ी ताश वहां के अलावा सिर्फ दो और टेबलों पर चल रही थी ।
उस वक्त छंगू और दौलत में करारी चाल फंसी हुई थी । बाकी के चार खिलाड़ी, मुबारक अली भी, अपने पत्ते फेंक चुके थे ।
“शो कर ।” - छंगू नशे में थरथराती आवाज में बोला ।
“फोकट में ?” - दौलत बोला ।
“अबे, कर न ! नावां क्या भागा जा रहा है !”
“हां, भागा जा रहा है ।”
“स्साले, इतनी बेएतबारी ।”
“इस साले को जुए में ऐतबार मंजूर नहीं । वैसे चाहे जो ले ले ।”
“ऐसी ही हेंकड़ी दखायेगा तो ले भी लूंगा ।”
“छंगू बादशाह ! खामखाह गले न पड़ । जुए में उधार नहीं । नावां डाल के शो करा नहीं तो पत्ते फेंक और घर जा ।”
“कैसे घर जाऊं । मेरे पत्ते बहुत भारी हैं ।”
“भले ही तीन इक्के हों तेरे पास । लेकिन नावें बिना शो नहीं ।”
छंगू ने अपने जफर और लालू नामक दो जोड़ीदारों की तरफ देखा ।
दोनों ने अंगूठे दिखा दिये ।
छंगू ने तब तक दर्जन बार देखे हुए अपने पत्तों का फिर मुआयना किया । उसने दिल ने गवाही न दी कि वो शो कराये बिना पत्ते फेंक दे । एकाएक उसने अपने पते अपने सामने उलटे करके रखे और अपनी कलाई पर बन्धी घड़ी उतारकर सामने मेज पर पड़े नोटों के ढेर पर डाल दी ।
“शो कर ।” - वो फुफकारा ।”
दौलत ने सन्दिग्ध भाव से घड़ी की ओर देखा ।
“सिटीजन की घड़ी है । पूरे नौ सौ की । आधे में भी माने तो शो की रकम से ज्यादा है । बोल, क्या बोलता है ?”
“ठीक है ।”
दौलत ने शो की ।
छंगू के चेहरे पर जैसे राख पुत गयी ।
उसकी ट्रेल पिट गयी थी । उसकी तीन चौकियों के मुकाबले में दौलत के पास तीन गुलाम थे ।
छंगू ने अपने पत्ते उठाकर उनके टुकड़े-टुकड़े कर दिये ।
गेम वैसे ही खत्म था, तब तो यकीनन खत्म हो गया ।
दौलत ने नोट समेटे, उनमें पड़ी घड़ी भी अपने काबू में की और फिर बड़ी दयानतदारी से एक पचास का नोट छंगू की तरफ सरका दिया ।
“साले !” - छंगू कहरभरे स्वर में बोला - “खैरात देता है ?”
“खैरात काहे को, छंगू बादशाह !” - जवाब मिला - “ये तो तेरा ही नावां है । तूने घड़ी की कीमत साढे चार सौ लगाई थी । शो चार सौ की थी । पचास रुपये तेरे हुए कि नहीं हुए ?”
“चल बे साले । यूं घड़ी तेरे बाप की हो गयी ! मैं कल चार सौ रुपये देकर ये घड़ी तेरे से वापिस लूंगा ।”
“साढे चार सौ दे के ले लेना । खाये-पिये का बिल भी तो भरना होगा ।”
तब छंगू को नया झटका लगा ।
“तब सौ दे ।” - फिर वो बोला - “कल तेरे को पांच सौ दे के घड़ी वापिस लूंगा ।”
“ठीक है ।” - पचास की जगह दौलत सौ का नोट छंगू की तरफ सरका दिया और वहां से उठ खड़ा हुआ ।
“बाकी जने भी मेज खाली करो ।” - नकली रोब झाड़ता छंगू बोला ।
सब जने उठ खड़े हुए । दौलत तो फौरन ही रुख्सत हो गया, बाकी के तीन खिलाड़ी एक अलग-थलग मेज पर जा बैठे और विस्की लाने के लिए किसी को नाम ले-लेकर आवाजें देने लगे ।
पीछे केवल मुबारक अली रह गया ।
“अब तू क्या बेचता है ?” - छंगू गुर्राया ।
“कुछ नहीं ।” - मुबारक अली हड़बड़ाकर बोला ।
“तो चलता-फिरता नजर आ ।”
“ठीक है । लो ।”
मुबारक अली वहां से उठा और बगल की एक खाली मेज पर जा बैठा । पीछे खाली मेज पर छंगू अपने जफर और लालू नाम के दो जोड़ीदारों के साथ जम गया ।
“अबे, सालो !” - छंगू एक वेटर पर खामखाह बरसा - “इधर भी कोई ध्यान करो । विस्की लाओ अपने बापों के लिये ।”
तत्काल एक वेटर उसकी मेज पर तीन पैग विस्की और एक पानी से भरा जग ले आया ।
“अब कोई नमकीन क्या तेरा बाप लायेगा ?”
“क्या लाऊं ?”
“कुछ भी ला, भीड़ू । चाहे नमक ला ।”
वेटर उसे एक प्लेट में भुनी हुई मूंगफली दे गया ।
तीनों विस्की पीने लगे ।
“फुल ऐसी-तैसी फेर दी आज तो तकदीर ने ।” - छंगू भुनभुनाया ।
“छंगू बादशाह !” - जफर बोला - “तेरी क्या अनोखी फिरी है । इधर हम दोनों का भी ये ही हाल हुआ है ।”
“सालो, तुम नंगे तो नहीं हुए । यहां तो कपड़े उतरने लगे थे ।”
“लेकिन उतरे नहीं ।”
“उतर ही गये । घड़ी उतर गयी । वो भी तो लिबास का ही हिस्सा होती है ।”
“जरूर वो पत्ते लगाता था ।” - लालू बोला ।
“बकवास !” - छंगू बोला - “ऐसा होता तो साले का पेट फाड़ के आंते बाहर निकाल देता ।”
“सितारा ही बुलन्द था आज उसका ।” - जफर बोला - “सबको झाड़-पोंछ गया ।”
“और अपना सितारा तेल लेने गया हुआ था । साला शुक्रवार से ये ही कुछ हो रहा है ।”
“शुक्रवार क्या हुआ था ?”
“ऐसी-तैसी फिरी थी अपनी अपने उस लम्बू उस्ताद के चक्कर में और क्या हुआ था !”
लम्बू के जिक्र से मुबारक अली के कान खड़े हो गये । उसके कान वैसे भी उन लोगों के वार्तालाप की ओर ही लगे हुए थे ।
“लम्बू उस्ताद ! वो कौन हुआ ?”
“अरे वही साला अपना बड़े खलीफा का सगेवाला । अपना सुन्दरलाल स्मैकिया । साला जब से स्मैकिया हुआ है, औरत औरत औरत ही भजता रहता है । यहां साली नावें-पत्ते की कमजोरी चल रही है वो है कि औरत से ही खुश हो जाता है । उल्लू बना दिया मेरे को । बोला, बहुत रोकड़ा हाथ आयेगा, साली खोटी चवन्नी भी हाथ न आयी ।”
“अच्छा !”
“और क्या ? जैसा वो है, वैसे ही उसके यार थे । साले सब स्मैकिये । मैं ही एक उल्लू का पट्ठा जा फंसा खामखाह उनमें । दिन-दहाड़े इतना रिस्क लेकर गोल मार्केट के एक फ्लैट में घुसे । वहां जवान छोकरी दिखाई दे गयी तो चारों के चारों पागल हो गये । कोई नावां-पत्ता पीटने की सुध ही नहीं सालों को । पूरे तीन घन्टे पिले रहे मां-बेटी पर ।”
“और अपना बादशाह नजारा करता रहा ।”
“क्यों बे ? मैं छक्का हूं ?”
“यानी कि तू भी ?”
“क्यों नहीं मैं भी ! साले बहती गंगा में हाथ धोने ही पड़ते हैं । डुबकी लगानी ही पड़ती है ।”
“कैसी थी ?”
“कौन ? अम्मा ?”
“अरे अम्मा को गोली मार, छंगू बादशाह । छोकरी ! छोकरी की बोल ।”
“वो तो बस वाह-वाह, वाह-वाह थी । कड़क । अनछुई । अनछिदी । मैंने चार बार डुबकी लगाई ।”
“वाह ! क्या कहने ?”
“लेकिन अंटी तो खाली ही रही न । नावें के नाम पर तो ताम्बे का काला पैसा हाथ न आया । अब कौन समझाता अपने सुन्दरलाल को कि नावां हो तो नाव भी मिल जाती है ।”
“वैसी शायद न मिलती ।” - लालू बोला ।
“वो तो है ।”
“लेकिन बादशाह !” - जफर बोला - “क्या वो बिल्कुल ही कंगलों का घर था ?”
“क्या पता ? घर खंगालने की तो नौबत ही नहीं आयी । अभी नाव की सैर से निपटें ही थे कि कोई आ गया ।”
“कौन ?”
“तब नहीं मालूम था लेकिन अगले दिन अखबार पढके मालूम हुआ कि वो कड़क छोकरी की बड़ी बहन थी ।”
“उस पर भी सवारी गांठी ?”
“कहां ! दिल तो बहुत था लेकिन क्या करते ! सबके कसबल तो छोटी ने ही निकाल लिए थे । ऊपर से कई घन्टे तो हमें वहां हो गये थे । निकल भागने की भी जल्दी थी इसलिए बस छूट ही गयी अछूती वो बड़ी वाली ।”
“ओह !”
“मेरे बाप की तौबा । दोबारा कभी उस स्मैकिये सुन्दरलाल के साथ काम नहीं करना ।”
“वो तो बाद की बातें हैं लेकिन अब क्या इरादा है ?”
“क्या मतलब ?”
“खुद समझ मतलब, बादशाह ! तीनों की जेबें खाली हैं ।”
“तो क्या किया जाये ?”
“ये भी कोई पूछने की बात है ?”
“यानी कि चल के कोई शिकार फांसा जाये ?”
“और नहीं तो क्या !”
छंगू ने आदतन अपनी कलाई पर वहां निगाह डाली जहां कि उसकी घड़ी बंधी रहती थी । घड़ी की यूं याद आने पर उसके मुंह से एक भद्दी-सी गाली निकली और फिर वो लालू से बोला - “टाइम बोल बे, पिजन कबूतर ।”
“नौ ।” - लालू अपनी घड़ी देखता हुआ बोला ।
“अभी टाइम है । पार्क में चलते हैं । कोई चिड़िया-कबूतर वहां जरूर फंसेगा ।”
“चिड़िया ही फंसे तो मजा है ।” - जफर अपने होंठों पर जुबान फेरता हुआ बड़े कुत्सित भाव से बोला - “तूने तो मौज कर ली बादशाह गोल मार्केट में । यहां तो तीन महीने हो गये, बस अपना हाथ जगन्नाथ हो रहा है ।”
“स्साला ! झूठा ।”
“कसम उठा ले ।”
“बंडलबाज !”
“यहां से तो हिलो ।” - लालू बोला - “कबूतर मिला तो चार पैसे हाथ लग जायेंगे । चिड़िया मिलने पर हो सकता है दोनों ही काम हो जायें । कोई-कोई चिड़िया सोने की भी तो होती है ।”
“पते की बात कह रहा है अपना पिजन कबूतर ।” - छंगू बोला ।
“तो फिर हो जाये प्रोग्राम !” - जफर बोला - “लग जाये मेला काली कमली वाले का ?”
“लग जाये ।” - लालू जोश से बोला ।
“गिलास खाली करो ।” - छंगू ने आदेश दिया ।
“अपना तो पहले से खाली है ।” - जफर बोला ।
“तू भी खाली कर ओये, पिजन कबूतर” - छंगू बोला - “और उड़न फ्लाई होने की तैयारी कर ।”
“अभी लो ।” - लालू बोला ।
तभी विमल ने वहां कदम रखा ।
***
“बाप” - मुबारक अली दबे स्वर में बोला - “ये ही है वो छः-छः उंगलियों वाला आदमी जिसकी तेरे कू तलाश है ।”
“सिर्फ ये !” - विमल भी वैसे ही दबे स्वर में बोला - “साथ बैठे दोनों नहीं ?”
“नहीं । इसकी बातों से लगता है कि जबरजिना करने वाली टोली में ये एक तरह से बाहर का आदमी था जो कि सर्फ टोली के सरगना को, उस लम्बू स्मैकिये को जिसका नाम सुन्दरलाल जान पड़ता है और जो इस शहर के किसी बड़े बाप को कोई होता-सोता मालूम होता है, जानेला था । बाकी के तीन आदमी उसी स्मैकिये के थे । उसी की तरह स्मैकिये ।”
“हूं ।”
“बाकी तीनों में से तो अब एक ही रह गया होगा न, बाप ।”
“क्या !” - विमल हड़बड़ाया ।
“कल छापे में जो छपा, वो मेरे कू मालूम ।”
“ओह !”
“कैसे ढूंढा, बाप ।”
“भटककर । धक्के खाकर । लेकिन फिर भी इत्तफाक से । मेहनत से नहीं ।”
“कैसे ?”
विमल ने संक्षेप में बताया ।
“बाप” - मुबारक अली बोला - “मेरे कू बोलना था !”
“एक ही बात है । बात उस स्मैकिये सुन्दरलाल की हो रही थी । बड़ा बाप तू अपनी बम्बइया जुबान में बोला न ? कोई बड़ा दादा ? कोई बड़ा मवाली ? कोई बड़ा गैंगस्टर ?”
“बरोबर ।”
“बड़े बाप से तेरी ये मुराद तो नहीं कि वो किसी दौलतमंद, रसूख वाले आदमी का बेटा है ।”
“नक्को ।”
“तेरे को क्या मालूम ?”
“मालूम मेरे कू । मैं उनकी बातें सुना । वो जरूर किसी बड़े मवाली का होता सोता है । खलीफा बोल रहा था छंगू उसे इज्जत, दौलत और रसूख वाले आदमी को कोई खलीफा बोलता है ।”
“हूं । जिनके साथ ये बैठा है, वो गोल मार्केट वाली वारदात में शामिल नहीं थे ?”
“नक्को ।”
“यहां ये इन दो के साथ ही था ?”
“नक्को । चार जने और थे । उनमें से एक यहां से चला गया है, बाकी के तीनों वो उदर कोने में बैठले हैं ।”
विमल ने उधर निगाह दौड़ाई ।
“बाप, जो चला गया है” - मुबारक अली बोला - “वो छंगू का ज्यादा वाकिफ लगता था । जान पेश करेला था अपनी छंगू को ।”
“वो तो काम का आदमी साबित हो सकता था ।”
“तो हो जायेंगा साबित । इदर की पक्का पंछी मालूम होता था । अब्बी चला गया है, फिर आ जायेंगे ।”
“कल कोशिश करना मालूम करे की कि वो क्या चीज है !”
“करेंगा, बाप ।”
तभी छंगू जफर और लालू, के साथ बगल की मेज से उठकर बाहर को चल दिया ।
“ये तो जा रहे हैं ।” - विमल हड़बड़ाकर बोला ।
“कड़के हो गये हैं ताश में सब साले ।” - मुबारक अली बोला - “किसी बकरे की तलाश में जाने कू हैं जिससे कि कोई रोकड़ा हाथ आ सके ।”
“कहां जा रहे हैं ?”
“किसी पार्क का जिक्र कर रहे थे ।”
“सुजानसिंह पार्क ?”
“इतनी रौनक वाले इलाके में राहजनी कैसे मुमकिन होयेंगा, बाप ।”
“तो फिर ?”
“आसपास कोई असली वाला पार्क होयेंगा ।”
“लोदी । लोदी गार्डन ।”
“जरूर वो लोग वहीं जाने कू मांगता है ।”
“मुबारक अली, मैं उनके पीछे जाता हूं । तू... ”
“मैं भी साथ चलता हूं ।”
“जरूरत नहीं ।”
“बाप, तू अकेला वो तीन ।”
“वो तीन मैं सवा लाख । तू मेरी फिक्र न कर । तू छंगू के उन तीन साथियों पर निगाह रख । हो सकता है वो चौथा भी वापिस लौट आये । अगर छंगू और उसके जोड़ीदारों से मुझे मेरे मतलब का कुछ मालूम न हुआ तो हो सकता है इन लोगों से कुछ मालूम हो सके ।”
मुबारक अली ने संदिग्ध भाव से उसकी तरफ देखा ।
“वहम न कर, मियां । तू यहीं ठहर । मैं जाता हूं ।”
मुबारक अली ने हिचकिचाते हुए सहमति में सिर हिला दिया ।
विमल तत्काल बाहर को लपका ।
***
सोनिया शर्मा ने पूरी तरह से प्रकाशित लेकिन उस घड़ी सुनसान पड़ी सड़क पार की और पार्क की और बढी ।
वो एक कोई चौबीस साल की पढी-लिखी खूबसूरत लड़की थी जो कि करोलबाग में स्थित एक प्राइवेट कम्पनी में नौकरी करती थी और नौकरी से छुट्टी हो जाने के बाद सात से साढे नौ के बीच खान मार्केट में स्थित एक प्राइवेट इन्स्टीच्यूशन में कम्पयूटर प्रोग्रामिंग सीखने आती थी । वो एक बहुत जिम्मेदार और महत्वाकांक्षी लड़की थी जो कि समझती थी कि कम्प्यूटर प्रोग्रामर बन जाने से उसे बेहतर नौकरी मिल सकती थी और यूं हासिल होने वाली बेहतर नौकरी मिल सकती थी और यूं हासिल होने वाली बेहतर तनखाह से वो अपने अपाहिज बाप, लगभग अपाहिज मां और अपने से आठ साल छोटे भाई को बेहतर तरीके से पाल सकती थी । इसीलिए पूरे टाइम की नौकरी करने के बाद भी वो कम्प्यूटर प्रोग्रामिंग कोर्स कर रही थी जहां से कि वो साढे नौ बजे फारिंग होती थी और भूखी-प्यासी पैदल चलकर पौने दस तक अपने घर पहुंच पाती थी जहां कि मां की तबीयत ज्यादा खराब हो जाने की सूरत में कई बार उसे खाना भी अभी घर पहुंचकर बनाना पड़ता था ।
पार्क ने ऐन बीच में से एक रास्ता गुजरता था जो कि इतना शार्ट कट था कि वो आनन-फानन परली तरफ हवा-पानी के दफ्तर का विशाल इमारत के सामने पहुंच जाती थी जिसके पीछे के क्वार्टरों में से एक में वो रहती थी । उस शार्टकट के ही सदके वो पैदल घर पहुंच सकती थी अन्यथा उसे खान मार्केट से लोदी कालोनी की बस करनी पड़ती जो कि कभी-कभी तो दस बज जाते थे तो नहीं आती थी ।
रात के वक्त उसे उस रास्ते पर डर तो लगता था लेकिन वो रास्ता पैदल पार करके घर पहुंचने में उसे फायदा था इसलिए वो उसकी मजबूरी थी । वैसे बाइसिकल वाले बहुत रात गये तक भी उस रास्ते पर आते-आते रहते थे लेकिन सर्दियों को रातों में अक्सर ऐसा हो जाता था कि पार पहुंच जाने तक उसे न कोई साइकिल सवार मिलता था और न कोई उस जैसा पैदल ।
वो जगमग सड़क से अन्धेरी-सी राहदारी पर कदम रखती थी और उसे पार करके फिर जगमग सड़क पर पहुंच जाती थी । पहले उसे पिछली सड़क की रोशनी आश्वस्त करती रहती थी, फिर और थोड़ी देर बाद उसे सामने सड़क की रोशनियां दिखाई देने लगती थीं तो वो अपने आपको ये ही समझाती थी कि वो नाहक डरती थी ।
वो साड़ी पहने थी और सर्दी के मुकाबले के लिए पूरी बांह का पुलोवर पहने थी । अलबत्ता उस रोज वो महसूस कर रही थी कि अब ठण्ड बढने लगी थी और अब आइन्दा उसे गर्म शाल भी साथ लेकर आना चाहिए था ।
पार्क में दाखिल होते ही वहां की हरियाली और पेड़ों की वजह से उसे हवा और भी ठण्डी लगने लगी । उसने पुलोवर को और अच्छी तरह अपने जिस्म पर व्यवस्थित किया और लम्बे डग भरती हुई आगे बढती रही ।
ठण्ड में वाक का कितना मजा आता था ? - उसने मन-ही-मन सोचा - लेकिन अगर पेट खाली हो और घर जाकर अभी खाना भी बनाने की जिम्मेदारी मुंह बाये सामने खड़ी दिखाई दे रही हो तो वो मजा भी सजा मालूम होता था । जरूर वो मजा उन नौजवान लड़कियों के लिए था जिनके सामने अपनी कम उम्र में भी घर के कर्ता का रोल निभाने की जिम्मेदारी नहीं थी, जिन्हें नौकरी नहीं करनी पड़ती थी, करनी पड़ती थी तो जिन्हें नाइट कालेजों में अपना कैरियर सुधारने के लिए अतिरिक्त पढाई नहीं करनी पड़ती थी, जिनके साधन-सम्पन्न ब्वाय फ्रेंड होते थे जो उन्हें अपने वाहन या टैक्सी पर बड़े स्टाइल से घर छोड़ के आते थे ।
कितनी समाजी विषमतायें थीं इनसानी जिन्दगी में ! - उसने बड़े वितृष्णापूर्ण भाव से सोचा - फिर भी कहा जाता था कि खुदा ने अपने तमाम बन्दे एक समान बनाये थे ।
कहां थी समानता !
एक ठण्डी हवा का झोंका उसके जिस्म से टकराया तो उसने चाल और तेज कर दी ।
***
पार्क के मध्य के करीब घनी झाड़ियों के पीछे वो तीनों छुपे बैठे थे । वो ठण्ड में ठिठुर रहे थे और उनके चेहरों पर कुढन और झुंझलाहट के भाव थे ।
“पौने दस बजने को हैं ।” - लालू धीरे से बोला ।
“अबे साले पिजन कबूतर ।” - छंगू भड़का - “टाइम पूछा तेरे से किसी ने ? साले, मेरी घड़ी चली गई तो अब हर घड़ी तू मुझे टाइम का ही रोब दिखाता रहेगा ?”
“छंगू बादशाह, तू खामखाह खफा हो रहा है । मैंने इसलिए टाइम का जिक्र नहीं किया था ।”
“तो किसलिए किया था ?”
“ये याद दिलाने के लिए कि यहां ठण्ड में ऐसी-तैसी फिराते हमें आधे घन्टे से ज्यादा हो गया है और अभी तक कोई चिड़िया की बीट भी यहां राहदारी पर नहीं फटका है ।”
“आज ठण्ड भी तो कुछ ज्यादा ही है ।” - जफर बोला, उसके बोलने के अन्दाज से ही लग रहा था कि उसका भी मन अब उस इन्तजार से उखड़ रहा था ।
“यहां कुछ नहीं रखा ।” - लालू बोला ।”
“यहां कुछ नहीं रखा !” - छंगू ने मुंह बिचक कर उसके स्वर की नकल की - “तो साले, क्यों दिया था यहां आने का आइडिया ।”
“मैने कब कहा था यहां आने को ?” - लालू हड़बड़ाकर बोला ।
“और किसने कहा था ?”
“लालू ने जफर की ओर देखा ।”
“वो तो खुद तूने ही कहा था, बादशाह !” - जफर बोला - “तेरा खुद का आइडिया था ये । तूने ही तो कहा था कि पार्क में चलते हैं, कोई चिड़िया-कबूतर यहां जरूर फंसेगा ।”
“तब, सालो, ये तो बोलना था कि आजकल सर्दियों का मौसम है, चिड़िया-कबूतर कदरन जल्दी अपने दड़बों में घुस जाते हैं । ये है कि नहीं गलती तुम दोनों की । बोलो ।”
“वो तो है ।” - लालू बोला ।
“अबे मियां मौलाना काली कमली, तू भी तो बोल कुछ ।”
“थोबड़े बन्द ।” - जफर एकाएक बड़े उत्तेजित भाव से फुसफुसाया - “कोई आ रहा है ।”
वो खामोश हो गये । उनके कान खड़े हो गये ।
“मुझे तो कुछ सुनाई नहीं दे रहा ।” - फिर एकाएक छंगू बोला - “तू साला... ”
“अबे चुप कर ।” - जफर बोला - “सवेरे कहीं जाकर कान से मैल निकलवाना ।”
“लेकिन... ”
“लड़की है ।” - लालू बोला - “ठक-ठक सैंडिलों जैसी है ।”
“न निकली तो मैं तेरी ही... ”
“बादशाह !” - जफर घुड़ककर बोला - “बाज आ जा ।”
छंगू ने कोई सख्त बात कहने के लिए मुंह खोला लेकिन फिर होंठ भींच लिये क्योंकि अब उसे भी ऊंची एड़ी की करीब आती ठक-ठक सुनाई देने लगी थी ।
“लड़की है ।” - लालू फुसफुसाया ।
“नौजवान है ।” - जफर अपने होंठों पर जुबान फेरता हुआ बड़े कुत्सित भाव से बोला - “चाहे कंगली निकले । मेरा तो काम बन गया ।”
“तैयार हो जाओ ।” - छंगू, जो अभी तक शिकार के अस्तित्व को नहीं कबूल रहा था, यूं अधिकारपूर्ण स्वर में बोला जैसे कमान अपने हाथ में रखने का हकदार हर हाल में सिर्फ वो था ।
कोई कुछ न बोला ।
फिर वो झाड़ियों के सिरे पर सरक आये और लड़की के करीब पहुंचने की प्रतीक्षा करने लगे ।
सोनिया शर्मा को यूं लगा जैसे उस पर पहाड़ टूटा हो । जैसे उस पर बिजली गिरी हो । अभी वह अच्छी-भली लम्बे डग भरती राहदारी पर चली जा रही थी और अभी वह कई हाथों की मजबूत पकड़ में फंसी मछली की तरह तड़प रही थी । उसने चिल्लाने की कोशिश की तो एक भारी बदबूदार हाथ यूं उसके मुंह पर पड़ा कि उसका दम घुटने लगा । फिर उसके पांव जमीन से उखड़ गये । उसके जिस्म से लिपटे कई हाथों ने उसे जबरन उठा लिया और उसके आक्रमणकारी वो लोग आनन-फानन वापिस घनी झाड़ियों में घुस गये, जहां कि उसे जमीन पर पटक दिया गया । कुछ सूखी शाखायें उसकी पीठ के नीचे आकर टूटीं, पीड़ा से उसने चिल्लाना चाहा लेकिन आवाज उसके गले में ही घुटकर रह गयी । वो मजबूत हाथ अभी भी उसका मुंह जो दबोचे था ।
वो बन्धनमुक्त होने के लिये हाथ-पांव पटकने लगी ।
तभी एक घूंसा उसकी कनपटी से टकराया और उसकी आंखों के सामने लाल-पीले सितारे नाच गये ।
एक हाथ उसके वक्ष पर पड़ा ।
एक और हाथ उसे अपनी साड़ी के भीतर रेंगता महसूस हुआ ।
उसने तड़पकर बन्धनमुक्त होने की फिर कोशिश की तो उसके मुंह पर पड़ा हाथ क्षण भर को उसके मुंह पर से हट गया । वो जोर से चीखी लेकिन तभी उसके मुंह पर एक करारा झापड़ पड़ा और आवाज फिर उसके गले में ही घुट गयी । फिर किसी ने उसके मुंह में हलक तक कपड़ा ठूंस दिया ।
क्षण भर को ही हल्की-सी चीख की आवाज विमल के कानों में पड़ी और फिर सन्नाटा छा गया ।
उसके कान खड़े हो गये ।
पिछले आधे घण्टे में वो पूरे पार्क के दो चक्कर लगा चुका था लेकिन छंगू और उसके दो साथी उसे कहीं दिखाई नहीं दिए थे । वो ये तक फैसला नहीं कर सका था कि वो लोग वहां थे ही नहीं या उसे ढूंढे नहीं मिल रहे थे । आखिरकार जब ये फैसला करके, कि वो वहां या तो आये ही नहीं थे, आये थे तो टिके नहीं थे, वो वहां से रुख्सत होने ही वाला था तो उसे वो घुटी-सी चीख सुनाई दी थी ।
दबे पांव वो चीख की दिशा में बढा ।
आगे झाड़ियों का घना झुंड था ।
उसने उकड़ होकर उन झाड़ियों के जड़ में से आगे झांका तो उसे वो हौलनाक नजारा दिखाई दिया ।
वो तीनों आगे मौजूद थे और उन तीनों की गिरफ्त में बुरी तरह से तड़पती, छटपटाती एक नौजवान लड़की दिखाई दे रही थी ।
जाहिर था कि उन दरिन्दों के हाथों लड़की का बहुत बुरा हश्र होने वाला था ।
एक क्षण को विमल के मानसपटल पर राधा की नोची-खसोटी लाश उभरी, प्रतिकार की गुहार करती सुमन की बिलखती सूरत उभरी ।
वो जैसे दबे पांव वहां पहुंचा था वैसे ही दबे पांव वहां से हटा और थोड़ी दूर स्थित एक अन्य झाड़ियों के झुंड में घुस गया । वहां फर्श पर रखकर उसने अपना ब्रीफकेस खोला और उसके भीतर मौजूद फाइलें वगैरह निकालकर एक ओर रखीं ।
फिर उसने ब्रीफकेस का फाल्स बाटम अलग किया ।
फिर रिवाल्वर उसके हाथ में थी ।
लालू ने सोनिया का हैण्डबैग नोटकर उसके कन्धे से अलग किया और उसे खोला । उसने हैण्डबैग को भीतर से टटोला तो उसके मुंह से एक भद्दी गाली निकली ।
छंगू ने सिर उठाकर उसकी तरफ देखा ।
“अट्ठासी रुपये ।” - लालू भुनभुनाया ।
“बस ?”
“दो-ढाई रुपये की खरीज ।”
“बस ?”
“हां ।”
“गले में जंजीर है ।”
लालू ने हैण्ड बैग एक ओर उछाल दिया और नीचे झुककर सोनिया के गले से उसकी सोने की जंजीर झटक ली ।
“कोई अंगूठी-वंगूठी देख ।” - जफर ने राय दी ।
एक अंगूठी वो पहने थी जो उसने उसकी उंगली में से नोचकर उतारी । साथ ही उसने उसकी नन्ही-सी घड़ी उतार ली ।
“कुछ भी हाथ नहीं लगा, छंगू बादशाह ।” - लालू निराश स्वर में बोला ।
“कोई बात नहीं ।” - छंगू बोला - “नावें की कसर नाव से निकालते हैं । तू इधर आके इसकी बांहें पकड़ और मैं जरा नाव की सवारी... ”
“बादशाह !” - एकाएक सोनिया की टांगें दबोचे बैठा जफर बोला - “पहले मैं । तू तो अभी शुक्रवार को ही इतना मेला करके हटा है, अपने को तो तीन महीने हो गये हैं ।”
“ठीक है । पहले तू ।” - छंगू बड़ी दयानतदारी से बोला - “तू भी क्या याद करेगा !”
“जीता रह, बादशाह !”
“चल बे पिजन कबूतर, टांगे थाम इसकी नहीं तो ये उड़न फ्लाई हो जायेगी । इसकी लुक देखो, असमान स्काई करा ताकि अपने यार का मेला लगे ।”
लालू ने आगे बढकर सोनिया की दोनों टांगे टखनों के पास से थामीं और दूर तक दायें-बायें फैला दीं ।
छंगू ने उसकी बांहें उसके सिर के ऊपर तक उमेठी हुई थीं और वो उन्हें अपने घुटनों के नीचे दबाये हुए था । यूं खाली हुए अपने दोनों हाथों से उसने लड़की की कमर को यूं दबोचा हुआ था कि उसके भरपूर तड़पने के बावजूद वो जमीन से हट नहीं पा रही थी ।
जफर ने दोनों हाथों से सोनिया की साड़ी थामी और उसे उसकी कमर तक उठा दिया । यूं वो कमर तक अनावृत हो गयी तो उसे उसकी सफेद पैंटी दिखाई दी । उसने पैंटी में अपने एक हाथ की उंगलियां सरकाकर उसे नीचे खींचा तो वो घुटनों तक ही पहुंच पायी । टांगे फैली होने की वजह से पैंटी और आगे न सरक सकी ।
“टांगे छोड़ू ?” - लालू बोला ।
“खबरदार !” - जफर तत्काल बोला - “यूं ही दबोच के रख ।”
जफर ने जेब से एक चाकू निकाला और उसके एक ही झटके से पैंटी के दो टुकड़े कर दिये जो कि सोनिया के जिस्म से अलग होकर जमीन पर गिर पड़े । फिर वो सोनिया के दायें-बायें अपने घुटने डालकर उसकी जांघों पर सवार हो गया और अपनी पतलून के बटन खोलने लगा ।
हे भगवान - सोनिया मन-ही-मन बिलख रही थी - मुझे मौत आ जाये । मुझे उठा ले, भगवान ।
जफर ने पाया कि तीन जनों की गिरफ्त में फंसी होने के बावजूद लड़की काबू में नहीं आ रही थी । अपनी हर कोशिश बेकार होती पाकर वो क्रोध से आगबबूला हो उठा । उसने हाथ बढाकर उसका पुलोवर उसकी गर्दन तक खींच दिया, उसका ब्लाउज फाड़ डाला और चाकू फिर निकाल लिया ।
“चुपचाप पड़ी रह ।” - वह सांप की तरह फुफकारा - “वर्ना छाती काट दूंगा ।”
लेकिन लड़की ने तड़पना बन्द न किया ।
“अबे जल्दी कर ।” - छंगू बेसब्रेपन से बोला ।
“ये कुछ करने तो दे ।” - जफर बोला ।
“अबे, साले ! ये तेरी जोर है या माशूक जो तुझे राजी से कुछ करने देगी !”
“तो क्या करूं ?”
“सच में ही छाती काट दे । तभी बाज आयेगी ।”
“बादशाह !” - लालू बोला - “माल बिगड़ जायेगा । काट पीट मेरी बारी के बाद... ”
“चुप बे, पिजन कबूतर ।”
“आखिरी बार कह रहा हूं ।” - जफर बड़े हिंसक भाव । सोनिया से बोला - “हांथ-पांव पटकने बन्द कर वर्ना... ”
उसने चाकू की नोक सोनिया के एक निपल में यूं चुभोई कि उसमें से खून छलक आया ।
दहशत से वो जड़ हो गयी । उसके हाथ-पांव खुद ही ढीले पढ गये ।
“अब आयी अक्ल साली को ।” - जफर बोला - “बस, समझ ले तेरी जान बच गयी । हम तीन यारों को खुश कर दे और फिर ठण्डे-ठण्डे घर जा । समझी । अब अड़ी बन्द ही रखना । अब मैं... ”
जफर ने अपने शरीर का भार उसके ऊपर डाल दिया ।
तभी एक धांय की आवाज हुई जो रात के सन्नाटे में बहुत जोर से गूंजी । सोनिया ने, जिसने कि वक्ष में चाकू चुभते ही आंखें बन्द कर ली थीं, घबरा के आंखे खोलीं तो उसने अपने ऊपर चढे बलात्कार को तत्पर बदमाश की खोपड़ी से खून का फव्वारा छूटता पाया ।
फिर एक फायर हुआ ।
दूसरी गोली जफर के थोबड़े से टकराई और वो एकाएक खून आलूदा गोश्त का लोथड़ा लगने लगा ।
फिर वो सोनिया के जिस्म पर से परे लुढक गया ।
तब लालू पहले चेता । उसे पहले अहसास हुआ कि एकाएक क्या हो गया था । उसने सिर उठाकर सामने देखा तो उसे उकड़ूं बैठे छंगू की पीठ के पीछे एक ओवरकोटधारी व्यक्त‍ि दिखाई दिया जिसके हाथ में थमी रिवाल्वर की नाल से धुआं निकल रहा था ।
आतंक से लालू की आंखें फट पड़ीं । उसने एकाएक लड़की की टांगें छोड़ दीं और उठकर एक और भागा । लेकिन वह लड़की से दो कदम ही परे भाग पाया था कि उसकी पीठ में गोली लगी । वो त्योराकर जमीन पर गिरा तो एक और गोली उसकी गर्दन में धंस गयी ।
तीसरी गोली ने उसका भेजा उड़ा दिया ।
तब विमल छंगू की ओर घूमा ।
छंगू कुछ क्षण अपलक उसे देखता रहा, फिर वो एकाएक करीब ही जमीन पर गिरे पड़े जफर के चाकू की ओर झपटा ।
विमल ने फायर किया ।
निशाना चूक गया ।
***
सब-इंस्पेक्टर अजीत लूथरा एम्बैसेडर होटल के सामने सड़क से पार अपनी जिप्सी वैन में बैठा अपनी ड्यूटी भुगता रहा था ।
उसे टिप मिली थी कि हेरोइन का एक नोन स्मगलर एम्बैसेडर होटल पहुंचने वाला था । उस स्मगलर की तसवीर, जिसका कि नाम लेखराज मूंदड़ा था, उसकी जेब में थी और उसके साथ मौजूद चार सिपाही भी उस तसवीर को बेशुमार बार देखकर तसवीर में अंकित सूरत को अपने जेहन में बिठा चुके थे ।
एक घण्टा उन लोगों को वहां बैठे हो चुका था और अभी पता नहीं वो उबाऊ इन्तजार कब तक चलने वाली थी ।
एकाएक जीप की छत में लगे एक हुक के साथ लगा वायरलैस रेडियो रिसीवर खड़खड़ाने लगा ।
लूथरा ने हाथ बढाकर रिसीवर हुक पर से उतारा और उसे कान से लगाकर बोला - “हल्लो ! हल्लो !”
“रोमियो टू टू फोर ।” - उसे कन्ट्रोल रूम के आपरेटर की आवाज सुनाई दी - “रोमियो टू टू फोर ! किसी ने कन्ट्रोल रूम में फोन करके खबर दी है कि लोधी गार्डन में गोलियां चल रही हैं । फौरन मौके पर पहुंचकर तफ्तीश करें ।”
“मैसेज रिसीव्ड ।” - लूथरा बोला - “ओवर ।”
उसने रिसीवर वापिस हुक पर टांग दिया और पीछे बैठे एक हवलदार और दो सिपाहियों से बोला - “उतरो ।”
तत्काल तीनों जीप से उतर गये ।
“यहां चौकसी रखो ।” - वो बोला - “मैं और कर्मचन्द लोधी का चक्कर लगाकर आते हैं ।”
हवलदार ने सहमति में सिर हिलाया ।
“लोधी चल ।” - लूथरा ड्राइविंग सीठ पर बैठे सिपाही से बोला ।
तत्काल ड्राइवर कर्मचन्द ने जीप स्टार्ट की और उसे करीब ही स्थ‍ित लोधी गार्डन की दिशा में दौड़ा दिया ।
***
छंगू की आंखों में खून उतर आया हुआ था । उसने चाकू अपने सामने ताना हुआ था और वह आंखों में कहर लिए विमल को घूर रहा था ।
“पेट फाड़ दूंगा” - वो गुर्राया - “आंतें निकालकर गले में डाल दूंगा । पुर्जा-पुर्जा कर दूंगा जिस्म का, हरामजादे ।”
विमल ने रिवाल्वर उसकी ओर तानी ।
“साले । खाली रिवाल्वर से डराता है । छ: की छ: गोलियां तो चला चुका है, साले ।”
चाकू ताने उसने विमल की ओर एक कदम बढाया ।
“वहीं ठहरा रह ।” - विमल शान्त‍ि से बोला ।
“है कौन बे तू ?” - छंगू बोला - “कौन है बे तू ?”
“उन दो जनों के नाम-पते बोल जो शुक्रवार को बलात्कार की करतूत में तेरे जोड़ीदार थे । अपने दोस्त सुन्दरलाल स्मैकिये का ता खासतौर से बोल ।”
छंगू को जैसे सांप सूंघ गया ।
“क-कैसे जानता है ?” - उसके मुंह से निकला ।
“क्या ?” - विमल बोला ।
“वही जिस बाबत सवाल कर रहा है ।”
“क्यों ? गलत है ये बात ?”
“पिजन कबूतर ! तू कोई भी है । अब मैं तुझे जिन्दा नहीं छोड़ सकता ।”
और वह विमल पर झपटा ।
रिवाल्वर ने आग उगली । गोली छंगू की छाती में धंस गयी । वो त्योराकर जमीन पर गिरा । विमल ने फिर फायर किया । दूसरी गोली उसके माथे में धंस गयी ।
तभी दूर कहीं फ्लाइंग स्क्वायड के सायरन की आवाज गूंजी ।
विमल घूमकर वहां से भागा ।
सोनिया शर्मा ने तब तक अपने मुंह में ठुंसा रूमाल निकाल कर परे फेंक दिया था लेकिन अपने भय से जड़ शरीर में हरकत की ताकत वो अभी भी महसूस नहीं कर रही थी । उसके एक पांव में एकाएक भयानक दर्द होने लगा था जिसकी वजह वो अपनी मौजूदा हालत में नहीं समझ पा रही थी ।
आतंक की प्रतिमूर्ति बनी वो उस शख्स को वहां से भाग निकलते देख रही थी खुदाई मददगार की तरह जिसने वहां प्रकट होकर उसकी अस्मत बचायी थी, उसकी जान बचायी थी ।
कर्मचन्द ने लोधी गार्डन के उस दिशा के प्रवेश द्वार के सामने जीप रोकी । वो जीप की हैडलाइट्स बन्द करने ही लगा था कि लूथरा ने उसका कन्धा दबाकर उसे ऐसा करने से रोका ।
पार्क के भीतर की ओर से प्रवेश द्वार की तरफ एक इकलौता आदमी आ रहा था । वो ओवरकोट पहने था और दायें हाथ में ब्रीफकेस थामे था ।
हैडलाइट्स की रोशनी अपने पर पड़ती पाकर विमल ठिठका ।
लूथरा जीप से बाहर निकला और प्रवेश द्वार की ओर बढा । उसने अपनी बैल्ट में लगे रिवाल्वर के होलस्टर के कवर को खोल लिया और भीतर मौजूद रिवाल्वर के तनिक बाहर को खींचकर तसल्ली कर ली कि वो पलक झपकते ही उसके हाथ में आ सकती थी ।
फिर वो आगे बढा । उसने प्रवेश द्वार को पार किया । वो विमल के करीब पहुंचा ।
“क्या बात है, जनाब ?” - विमल जबरन मुस्कराता हुआ बोला ।
“कहां से आ रहे हैं ?” - लूथरा कठोर स्वर में बोला - “इतनी रात गये पार्क में क्या कर रहे हैं आप ?”
“शार्ट कट इस्तेमाल कर रहा हूं, जनाब । पार्क से तो मैंने कुछ लेना-देना नहीं है ।”
“जा कहां रहे हैं ?”
“एम्बैसेडर होटल । उसके लिए ये शार्ट कट है न जो कि...”
“वहां किसलिए ?”
“अप्वायन्टमैंट है ।”
“आ कहां से रहे हैं ?”
“लोधी रोड से ।”
“यहां कहां से ?”
“कहीं से नहीं । लोधी रोड से ही ।”
“मतलब ?”
“असल में मैं ग्रीन पार्क से आ रहा था । टैक्सी पर । टैक्सी लोधी रोड पहुंची तो बिगड़ गयी । मेरी अप्वायन्टमैंट में अभी टाइम है इसलिये दूसरी टैक्सी करने की जगह मैंने सोचा पैदल ही चलता हूं ।”
“पार्क के बीच में से गुजरते शार्ट कट से ?”
“जी हां ।”
“लेकिन आप तो उधर उन झाडि़यों के झुरमुट में से निकल कर ओ रहे थे ।”
“वो क्या है कि” - विमल खोखली-सी हंसी हंसा - “वो...”
उसने अपने बायें हाथ की कनकी उंगली उठाकर लूथरा दिखाई ।
“पेशाब करने गये थे आप झाड़ियों में ?” - लूथरा रूखाई से बोला ।
“जी हां ।”
“नाम क्या है आपका ?”
“कौल ! अरविन्द कौल !”
“शिनाख्त का कोई जरिया है आपके पास ?”
“ड्राइविंग लाइसेंस है ।”
“दिखाइये ।”
विमल का हाथ ओवरकोट के भीतर को सरका । लूथरा का हाथ स्वयंमेव की रिवाल्वर की मूठ पर जाकर पड़ा । एक पर्स के साथ विमल का हाथ उसे फिर दिखाई दिया तो उसने मूठ पर से हाथ हटाया ।
विमल ने ब्रीफकेस अपने घुटनों में दबाकर पर्स खालने का उपक्रम किया तो लूथरा ने बड़ी सफाई से पर्स उसकी उंगलियों से निकाल लिया । उसने पर्स स्वयं खोला और उसमें से विमल का ड्राइविंग बरामद किया । उसने गौर से ड्राइविंग लाइसेंस का मुआयना किया ।
फिर उसने पर्स में मौजूद विमल के विजिटिंग कार्ड्स में से एक कार्ड बरामद किया ।
“नौकरी करते हैं आप ?” - लूथरा बोला ।
“जी हां ।”
“गैलेक्सी ट्रेडिंग कारपोरेशन में ?”
“जी हां ।”
“एकाउन्ट्स आफिसर हैं आप वहां ?”
“जी हां । कार्ड पर सब कुछ लिखा तो है ।”
“मैं कार्ड से ही पढ रहा हूं ।” - लूथरा ने पर्स बन्द करके उसे वापिस विमल को थमा दिया और बोला - “आप जरा हाथ ऊपर उठाइये ।”
“वो किसलिए ?”
“सुना नहीं !”
“अजीब धान्धली है ये । मैं क्या कोई...”
“हाथ ऊपर उठाइये ।”
विमल ने हाथ ऊपर उठाये । लूथरा ने बड़े दक्ष अन्दाज से उसके जिस्म का हर अंग थपथपाकर उसकी तलाशी ली ।
“हाथ गिरा लीजिये ।” - आखिरकार वो बोला ।
“शुक्रिया ।” - विमल शुष्क स्वर में बोला ।
“ब्रीफकेस में क्या है ?”
“वही जो होता है । फाइलें । कागजात ।”
“आप की एम्पालयमैंट से ताल्लुक रखते ?”
“जी हां ।”
“दिखाइये ।”
“लेकिन...”
“ब्रीफकेस खोलिए ।”
विमल ने बहुत दिखावा करते हुए असहाय भाव से कन्धे झटकाया उसने जीप के हुड पर रखकर ब्रीफकेस खोला और उसे सब-इंस्पेक्टर के सामने रख दिया ।
लूथरा ने बड़ी बेरहमी से कागजात और फाइलों को खंगाला ।
“आप तो” - विमल अप्रसन्न स्वर में बोला - “कागजात का आटा गूंधे दे रहे हैं । ये इम्पॉर्टेंट पेपर्स हैं, जनाब।”
लूथरा ने उसकी बात की ओर ध्यान नहीं दिया ।
“माजरा क्या है, जनाब ? आप क्यों यूं...”
लूथरा ने एकाएक ब्रीफकेस बन्द किया और उसे विमल की और सरका दिया ।
“इतनी रात गये” - वह शुष्क स्वर में बोला - “तनहा रास्तों पर न भटका कीजिये । आपके साथ वरदात हो सकती है ।”
“आई एम सारी ।” - अपना ब्रीफकेस सम्भालता विमल खेदपूर्ण स्वर में बोला - “मुझे नहीं मालूम था...”
“तभी तो बताया ।”
“मैं आइन्दा खयाल रखूंगा ।”
“जाइये ।”
“शुक्रिया, जनाब । नमस्ते ।”
विमल लम्बे ढग भरता हुआ आगे बढ गया ।
लूथरा कुछ क्षण उसे जाता देखता रहा, फिर उसने कर्मचंद को इशारा किया ।
कर्मचन्द ने हैडलाइट्स बन्द कीं और जीप से उतरा ।
दोनों पार्क में दाखिल हुए और राहदारी पर आगे बढे ।
“उधर झाड़ियों में कोई है ।” - एकाएक कर्मचन्द बोला ।
लूथरा ने सहमति में सिर हिलाया । उसने रिवाल्वर निकालकर अपने हाथ में ले ली ।
“टार्च लाया है ?” - वो कर्मचन्द से बोला ।
“हां, साहब ।”
“हाथ में रख । जब कहूं तब लाना ।”
“ठीक है ।”
वो झाड़ियों में पहुंचे ।
वहां एक साया-सा हिल रहा था ।
लूथरा ने कर्मचन्द को कोहनी मारी और रिवाल्वर सामने तानता हुआ बोला - “खबरदार !”
साथ ही टार्च की रोशनी सामने पड़ी ।
एक नौजवान लड़की फर्श पर पड़ी कराह रही थी । उसके कपड़े फटे पड़े थे और उसके जिस्म से कई जगह से कई जगह से खून बह रहा था ।
और उसके इर्द-गिर्द खून से लथपथ तीन लाशें पड़ी थीं ।
“बड़ी वारदात हो गयी है ।” - लूथरा बोला - “टार्च मुझे दे । दौड़ के जा । जीप से कन्ट्रोल रूम में खबर कर ।”
कर्मचन्द टार्च उसे थमाकर वहां से सरपट भागा ।
लूथरा लड़की के करीब उकड़ूं बैठ गया ।
“क्या हुआ ?” - उसने पूछा ।
कराहती हुई सोनिया शर्मा बताने लगी ।