सुनील ने अपनी मोटर साइकिल होटल नेपोली की पार्किंग में खड़ी कर दी ।
उसने एक सतर्क दृष्टि होटल के कम्पाउण्ड से बाहर सड़क पर डाली।
टैक्सी सड़क के किनारे खड़ी हो चुकी थी लेकिन अभी तक उसमें से कोई बाहर नहीं निकला था ।
सुनील का सन्देह विश्वास में बदल गया । वह टैक्सी वाकई उसका पीछा कर रही थी ।
उसने इग्नीशन में से चाबी निकाली और लापरवाही से सीटी में ‘बेबी ऐलिफैंट वाक’ की धुन बजाता हुआ होटल के मुख्य द्वार की ओर बढ गया ।
गेट पर खड़े वर्दीधारी गेटकीपर ने उसे बड़ी तत्परता से सलाम किया और फिर उसने आदरपूर्ण ढंग से गेट खोल दिया ।
सुनील ने न तो मुड़कर टैक्सी की ओर देखा और न ही भीतर घुसने का उपक्रम किया । उसने जेब में से लक्की स्ट्राईक का पैकेट निकाला, उसमें से एक सिगरेट निकालकर होठों से लगाई और पैकेट की जेब में ठूंसता हुआ बोला - “लाइटर ।”
गेटकीपर ने एक बार हैरानी से सुनील का मुंह देखा और फिर उसने फुर्ती से जेब में से सिगरेट लाइटर निकाला । उसने गेट छोड़ दिया और स्वयं लाइटर जलाने का उपक्रम करने लगा लेकिन सुनील ने उसके हाथ से लाइटर झपट लिया ।
सुनील ने सिगरेट सुलगाया और फिर लाइटर बन्द करके जेब में डालता हुआ बोला - “थैंक्यू सन ।”
और उसने मुख्य द्वार की ओर कदम बढा दिये ।
“सर !” - सुनील को लाइटर को यूं जेब में डालते देखकर गेटकीपर व्यग्र स्वर में बोला ।
सुनील एकदम घूम पड़ा ।
“यस ?” - वह गेटकीपर से बोला लेकिन वास्तव में वह बाहर सड़क पर खड़ी टैक्सी को देख रहा था ।
“सर” - गेटर कीपर हिचकिचाया - “वह सिगरेट लाइटर...”
उसने जान बूझकर वाक्य अधूरा छोड़ दिया ।
“ओह !” - सुनील एकदम चौंक पड़ा - “आई एम रियली सारी । मैं समझा था, यह लाइटर मेरा है ।”
और उसने जल्दी से लाइटर निकालकर गेटकीपर की हथेली पर रख दिया ।
बाहर सड़क पर खड़ी टैक्सी में से एक बेहद आकर्षक युवती बाहर निकली और टैक्सी ड्राइवर को बिल चुकाने लगी ।
“आई एम सारी मैन ।” - सुनील फिर बोला ।
“इट्स आल राइट सर ।” - गेटकीपर दांत निकालकर बोला ।
सुनील ने एक अन्तिम दृष्ट‍ि उस युवती पर डाली और भीतर घुस गया ।
बार काउन्टर हाल के एक कोने में था और उसकी पोजीशन ऐसी थी, कि वहां से हाल का हर भाग दिखाई देता था ।
सुनील बार काउन्टर की ओर बढ गया ।
वह लम्बे काउन्टर के सामने रखे एक ऊंचे स्टूल पर बैठ गया । उसके दांई ओर तीन पक्की उम्र के व्यक्ति बैठे विस्की पी रहे थे । उसके बांई ओर तीन चार स्टूल खाली थे । उसने जान-बूझकर वह सीट चुनी थी क्योंकि वहां से काउन्टर के सामने लगे शीशे में से होटल का मुख्य द्वार स्पष्ट रूप से प्रतिबिम्ब‍ित हो रहा था ।
“वाट इज यूअर्स सर ?” - बार टेन्डर उसके सामने आकर बोला ।
“बियर ।” - सुनील बोला लेकिन उसकी दृष्टि शीशे पर ही टिकी हुई थी ।
बार टेंडर ने एक बड़े से शीशे के मग में उसे बियर सर्व कर दी ।
सुनील धीरे-धीरे बियर की चुस्कियां लेने लगा ।
उसी क्षण वह युवती मुख्य द्वार पर दिखाई दी ।
वह उसी क्षण सतर्क दृष्टि से हाल के एक कोने का निरीक्षण करती रही और फिर वह नपे तुले कदमों से बार की ओर बढी ।
उसने एक उड़ती सी दृष्टि सुनील पर डाली और सुनील के बांई ओर वाले तीसरे स्टूल पर बैठ गई ।
वह वाकई बेहद सुन्दर थी ।
सुनील ने फिर उसकी ओर देखने का उपक्रम नहीं किया । वह लापरवाही से बियर की चुस्कियां लेता रहा ।
“गिव मी बियर ।” - वह बार टेन्डर से बोली ।
“आई एम सारी, मैडम ।” - बार टेंडर खेदपूर्ण स्वर में बोला ।
“वाट फार ?” - वह विचित्र स्वर में बोली ।
“बार में हम किसी युवती को तब तक सर्व नहीं करते हैं तब तक उसके साथ कोई पुरुष न हो ।”
“लेकिन क्यों ?” - वह झुंझलाकर बोली - “मैं कोई बच्ची थोड़े ही हूं । मैं एक स्वतन्त्र देश की नागरिक हूं । मेरी आयु इक्कीस वर्ष से अधिक है और राजनगर में शराब पीने पर प्रतिबन्ध नहीं लगा हुआ है ।”
“यह ठीक है, मैडम, लेकिन हम मजबूर हैं ।”
“क्यों ?”
“कापोरेशन का ऐसा ही नियम है । वी आर नाट अलाउड टू सर्व अनएस्कोर्टिड वूमैन (हमें ऐसी महिलाओं को बार में सर्व करने की इजाजत नहीं है जिनके साथ कोई पुरुष न हो) ।”
काउन्टर पर बैठे अन्य लोगों का ध्यान भी उन लोगों की ओर आकर्षित हो चुका था ।
सुनील अब उसे सन्देह के स्थान पर आश्चर्य भरे नेत्रों से देख रहा था ।
“यह क्या नियम हुआ ?” - युवती अकड़ कर बोली ।
“नियम तो बहरहाल नियम ही है, मैडम !” - बार टेन्डर शिष्ट स्वर में बोला ।
युवती कुछ क्षण चुप रही और फिर बोली - “पुरुष मित्र से क्या मतलब है तुम्हारा ? क्या मेरे साथ मेरा बाप होना चाहिये ? मेरा पति होना चाहिये या कोई ब्वाय फ्रेंड होना चाहिये ?”
“हमें इससे कोई मतलब नहीं है, मैडम ।” - बार टेन्डर बोला - “आपके साथ एक बालिग साथी होना चाहिये, चाहे वह काला चोर हो ।”
“चाहे वह काला चोर हो ?” - युवती ने दोहराया ।
“जी हां ।”
युवती चुप रही ।
फिर वह अपने स्थान से उठी और सुनील के बगल वाले स्टूल पर आ बैठी ।
सुनील ने एक उड़ती हुई दृष्टि उस पर डाली ।
“हल्लो, काले चोर !” - वह सहज स्वर में बोली ।
“ह.. हल्ल.. हल्लो ।” - सुनील एकदम बौखलाकर बोला । उसे युवती से ऐसे आक्रमण की आशा नहीं थी ।
“हाउ आर यू ?”
“फाइन ।”
“मुझे बियर नहीं पिलाओगे ?”
“क्यों नहीं ? क्यों नहीं ?” - सुनील बोला - “जरूर पिलाऊंगा ।”
“तो फिर आर्डर दो न ?”
“यहीं ?”
“क्या हर्ज है ?”
“अगर किसी टेबल पर चलकर बैठें तो ?”
“यह और भी अच्छा है ।”
सुनील ने अपना मग वहीं छोड़ दिया और स्टूल से उठ खड़ा हुआ ।
युवती भी उठ गई ।
“मिस्टर !” - वह व्यंगपूर्ण स्वर में बार टेन्डर से बोली - “अब तो मुझे बियर सर्व करने में कोई एतराज नहीं है न तुम्हें ? अब तो काला चोर मेरे साथ है न ?”
“कतई कोई एतराज नहीं है, मैडम ।” - बार टेन्डर आदरपूर्ण ढंग से सिर नवाकर बोला - “आई एम आलवेज ऐट यूअर सर्विस ।”
“शाबास !” अब उसके स्वर में पहले से भी अधिक तीव्र व्यंग का पुट था ।
“बियर के अतिरिक्त और कुछ ?” - सुनील ने युवती से पूछा ।
“भुने हुये आलू ।” - युवती यूं बोली जैसे सुनील को वर्षों से जानती हो ।
सुनील ने आर्डर दे दिया । फिर उसने अपने दांये हाथ से लड़की की कोहनी पकड़ी और उसे एक कोने की मेज पर ले चला ।
दोनों मेज पर आमने-सामने जा बैठे ।
सुनील ने अपनी जेब से लक्की स्ट्राइक का पैकेट निकाला और उसे खोलकर पैकेट उसकी ओर बढाता हुआ बोला - “सिगरेट ।”
“नो थैंक्यू !” - वह बोली - “मैं सिगरेट नहीं पीती ।”
“कमाल है ।” सुनील बोला - “आप बियर तो पी लेती हैं लेकिन सिनेरेट से परहेज करती है ।”
“यह कौन सी किताब में लिखा है कि जो लड़की बियर पी लेती हो उसे सिगरेट जरूर पीनी चाहिये ।” - वह मुस्कराती हुई बोली ।
“आई एम सारी ।” - सुनील पैकेट बन्द करता हुआ बोला ।
लड़की सुन्दर ही नहीं तेज भी थी ।
“लेकिन आप तो पीजिये ।” - वह बोली ।
“आपको एतराज नहीं होगा ?”
“सवाल ही पैदा नहीं होता ।”
सुनील ने एक सिगरेट सुलगा ली ।
वेटर बियर और भुने हुये आलू ले आया ।
“चीयर्स ।” - सुनील अपना मग ऊंचा उठाते हुये बोला ।
“चीयर्स ।” - वह भी बोली ।
दोनों ने एक-एक घूंट हलक से नीचे उतारा और मग रख दिये ।
“क्या ख्याल है ?” - सुनील बोला - “हम दोनों एक दूसरे से परिचित☐ तो हो लें ?”
“बड़ा नेक ख्याल है ।” - वह बोली - “मेरा नाम कृति है, कृति मजूमदार ।”
“कृति !” - सुनील ने धीरे से नाम दोहराया - “बड़ा आधुनिक नाम है लगता है आपने अपने लिये यह नाम खुद ही चुना है ।”
“क्या मतलब ?”
“मतलब यह कि आपकी उम्र पच्चीस छब्बीस साल तो होगी ही । पच्चीस-छब्बीस साल पहले आपके माता-पिता को कृति जैसा ठेठ हिन्दी का नाम कहां सूझा होगा । उन दिनों तो लड़कियो के चालू नाम कमला, बिमला, शांता, कांता, कौशल्या, सुचि☐त्रा, सीता, गीता वगैरह होते थे । कृति नाम तो मुझे आपके अपने मस्तिष्क की उपज मालूम होता है ।”
“आपका ख्याल गलत है । मुझे यह नाम मेरे मां-बाप ने ही दिया है ।”
“अच्छी बात है ।” - सुनील बड़ी उदारता दिखाता हुआ बोला - “मान लेते हैं ।”
“और आप ।”
“मैं क्या ?”
“मेरा मतलब है, आपका शुभ नाम ?”
“यह भी मुझे ही बताना पड़ेगा ?”
“और क्या कोई दूसरे शहर से आयेगा ?” - कृति उपहासपूर्ण स्वर में बोली ।
“मेरा मतलब है, आप ऐसी बात क्यों पूछती हैं, जो आपको पहले से ही मालूम है ?”
“जी !” - वह एकदम चौंक पड़ी ।
“मेरा नाम तो आप जानती ही हैं ।” - सुनील सहज स्वर में बोला ।
“आपके बताये बिना भला आपका नाम कैसे जानूंगी ?” - वह बोली ।
“है न कमाल की बात ।”
“आप तो मजाक कर रहे हैं ।”
“मजाक तो आप कर रही हैं, देवी जी ।” - सुनील एकदम कठोर स्वर में बोला - “मेरा नाम तो क्या मेरा दावा है, आप यह भी जानती हैं कि मैं कौन हूं, क्या करता हूं, कहां रहता हूं...”
“आपको कोई गलतफहमी हो गई है ।” - वह घबराहट पूर्ण स्वर में बोली ।
“क्या यह भी मेरी गलतफहमी है कि मेरे ‘ब्लास्ट’ के आफिस से बाहर निकलने से लेकर यहां ‘नेपोली’ में आने तक आधे घण्टे तक आप एक टैक्सी में मेरा पीछा करती रही हैं ?”
“हां, यह गलतफहमी है आपकी ।” - वह बोली - “यह केवल संयोग ही है कि हम दोनों की मंजिल एक ही थी । ब्लास्ट के दफ्तर के नीचे वाली कपड़ों की दुकान में गई थी । वहां से आप भी ‘नेपोली’ में आ रहे थे और मैं भी ।”
“शहर के एक ही रास्तों से गुजर कर ?” - सुनील व्यंगपूर्ण स्वर में बोला ।
“हां !”
“आप झूठ बोल रही हैं ।”
“मैं सच बोल रही हूं ।” - वह धीरे से बोली ।
“आप शराब पीती हैं ?” - सुनील उसे घूरता हुआ बोला ।
“केवल बियर ।” - उसने उत्तर दिया ।
“अब से पहले भी आप कई बार बियर पी चुकी होंगी ?” - सुनील उसे घूरता हुआ बोला ।
“हां ।”
“बार में ?”
“बार में भी, क्लब में भी, प्राइवेट पार्टियों में भी ।”
“और फिर भी आपको यह नहीं मालूम है कि अकेली औरत को बार में सर्व नहीं किया जाता है ।”
“नहीं, मुझे यह नहीं मालूम था ।”
“आपने पहले कभी अकेले बीयर पी है ?”
“नहीं यह पहला अवसर था ।”
“तो इस बार ही आपको एकाएक यह जोश क्यों आया ?”
“बस आ गया ।” - वह लापरवाही का प्रदर्शन करती हुई बोली ।
“आर यू ए काल गर्ल ?” (आप क्या कोई पेशेवर लड़की हैं )
“मिस्टर !” - वह एकदम भड़ककर बोली ।
“बुरी लगी न आपको यह बात ?”
“तुम तो गाली दे रहे हो ।”
“मैंने जान-बूझकर तुम्हें काल गर्ल कहा है क्योंकि मैं जानता है कि तुम काल गर्ल नहीं हो । ऐसी मान-मर्यादा वाली महिला होने के बावजूद भी तुमने ऐसी हास्यप्रद हरकत क्यों की ?”
“तुम मुझसे यूं जिरह कर रहे हो जैसे तुम कोई सरकारी वकील हो और मैं अदलत के कटघरे में खड़ा कोई पेशेवर अपराधी ।” - इस बार कृति बड़े सरल स्वर में बोली ।
“अच्छा, मान भी लिया जाये कि तुम्हें यह मालूम नहीं था कि बार में अकेली औरत को सर्व नहीं किया जाता और तुम बियर पीने के लिये बुरी तरह फड़फड़ा रही थी, तो फिर साथी के तौर पर तुमने मुझे ही क्यों चुना ?”
“और किसे चुनती ?”
“युक्ति संगत बात तो यही लगती थी कि तुम मेरे साथ बैठे तीन बूढों में से किसी एक को चुनती ।”
“क्यों ?”
“क्योंकि वे तुम्हारे संसर्ग का कोई अनुचित लाभ नहीं उठाते ।”
“कोई गारन्टी है क्या ?”
“एक नवयुवक के मुकाबले में तो गारन्टी ही है ।”
“अच्छा बाबा !” - कृति दोनों हाथ जोड़ती हुई बड़े नाटकीय स्वर में बोली - “तुम्हारी यह बातें मानी मैंने । मुझे माफ करो, मुझसे गलती हो गई ।”
“नहीं, तुमसे गलती नहीं हुई ।” - सुनील एक-एक शब्द पर जोर देता हुआ बोला - “मुझे बहलाने की कोशिश मत करो । तुमने जो किया, जान-बूझकर किया और मैं यही जानना चाहता हूं कि ऐसा क्यों किया तुमने ?”
“और अगर मैं न बताऊं ?”
इस बार चुप होने की बारी सुनील की थी । कृति के शब्द हथौड़े की तरह उसकी चेतना से टकराये । वह हतप्रभ सा उसका मुंह देखने लगा । इस सम्भावना के विषय में तो उसने सोचा ही नहीं था । अगर कृति अपने विचित्र व्यवहार की कोई सफाई नहीं देना चाहती थी तो वह उसके साथ जबरदस्ती कैसे कर सकता था ।
“आल राइट ।” - सुनील यूं गहरी सांस लेकर बोला जैसे गुब्बारे में से हवा निकल गई हो - “मत बताओ ।”
कृति ने एक भरपूर दृष्टि सुनील पर डाली और फिर सिर झुकाये बियर पीने लगी ।
सुनील ने मग में बची हुई बियर हलक में उड़ेली और मग मेज पर रख दिया । उसने सिगरेट का आखिरी कश लगाया और बचा हुआ टुकड़ा एश-ट्रे में डाल दिया । उसके चेहरे के भाव ऐसे बदल रहे थे जैसे वह पटाक्षेप की प्रतीक्षा कर रहा हो ।
“अब तो तुम्हें अफसोस हो रहा होगा ?” - कई क्षण चुप रहने के बाद कृति बोली ।
“किस बात का ?” - सुनील बोला ।
“कि तुमने मुझे लिफ्ट दी ?”
“ऐसी बात तो नहीं है ।”
“लेकिन तुम्हारे चेहरे पर तो यही लिखा दिखाई दे रहा है कि ऐसी ही बात है ।”
सुनील चुप रहा ।
“देखो सुनील...”
“शुक्र है ।” - सुनील गहरी सांस लेकर बोला ।
“किस बात का ?”
“तुमने यह तो माना कि तुम मेरा नाम जानती हो ।”
“हां !” - कृति गम्भीरता से बोली - “बेतकल्लुफी के लिये माफी चाहते हुये मैं स्वीकार करती हूं कि मैं तुम्हारा नाम जानती हूं, तुम्हें भी जानती हूं और इसके अतिरिक्त भी जो कुछ तुमने कहा, मैं स्वीकार करती हूं, वह सब सच है । मैं वास्तव में तुम्हीं से सम्पर्क स्थापित करना चाहती थी ।”
“लेकिन उसके लिये इतना पेचीदा रास्ता अपनाने की क्या जरूरत थी ? और फिर तुम मुझे जानती कैसे हो जबकि मैंने आज तक तुम्हारी सूरत भी नहीं देखी ?”
“सब कुछ बताऊंगी । एक ही सांस में कई-कई सवाल मत पूछो मुझसे । मैं तुम्हारे जितनी तेज तो नहीं हूं न ।”
“पहले यह बताओ, तुम मुझे जानती कैसे हो ?”
“तुम्हारे आफिस की रिसैप्शनिस्ट कम-टेलीफोन आपरेटर रेणु मेरी सहेली है । अब तो लम्बे अर्से से मैं रेणु से नहीं मिल पाई हूं लेकिन मेरी शादी से पहले मेरी रेणु की मुलाकातें अक्सर हुआ करती थीं । शादी से पहले मैं कभी-कभी रेणु से मिलने दफ्तर में भी आया करती थी । वहीं रेणु ने मुझे तुम्हारे बारे में बताया था और तुम्हारी सूरत भी दिखाई थी ।”
“तुम विवाहित हो ?”
“हां !”
“लगती तो नहीं हो ।”
“धन्यवाद !”
“काहे के लिये ?” - सुनील हैरानी से बोला ।
“मुझे यह बताने के लिये कि मैं विवाहित नहीं लगती हूं । शायद तुम नहीं जानते हो कि आजकल विवाहित औरतों को विवाहित न लगने के लिये कितनी मेहनत करनी पड़ती है । अगर मैं तुम्हें विवाहित नहीं लगती हूं तो इसका मतलब है कि मेकअप और कपड़ों के चुनाव के मामले में मेरी मेहनत सफल रही है ।”
सुनील के चेहरे पर हैरानी के साथ-साथ उलझन के भाव दिखाई देने लगे ।
“मिस्टर, विवाहित औरतों में अविवाहित लगना ही आजकल का फैशन है ।”
“ओह !”
“यस ।”
“रेणु ने मेरे बारे में क्या बताया था ?”
“बहुत कुछ ।”
“जैसे ।”
“जैसे यह कि वह तुम पर हजार जान से मर मिटी है लेकिन तुम ऐसे पत्थर दिल हो कि उसकी ओर ध्यान नहीं देते हो ।”
सुनील हड़बड़ा गया । उसने जल्दी से एक सिगरेट सुलगा ली ।
“ऐसा क्यों ?” - कृति ने प्रश्न किया ।
“तुम अपनी बात करो ।” - सुनील भावहीन स्वर में बोला - “मुझसे सवाल मत पूछो ।”
“ओके ।” - कृति बोली - “रेणु ने मुझे बताया था कि तुम बहुत रिसोर्सफुल और एडवेंचर प्रिय आदमी हो । तुमने कई मुसीबतजदा लोगों को बड़ी भयंकर मुसीबतों से उबारा है और दूसरे लोगों की खातिर कई बार बड़े-बड़े असम्भव काम किये है ।”
“फिर ?”
“फिर पिछले दिनों कुछ ऐसी घटनायें घटीं, कुछ ऐसे तथ्य सामने आये, जिनसे मुझे अपना और अपने पति का भविष्य खतरे में दिखाई देने लगा ।”
“क्या हुआ था ?”
“कुछ दिनों पहले एकाएक मुझे मालूम हुआ कि मेरा पति वह नहीं है जो वह स्वयं को प्रकट करता है । मेरा पति जमीन जायदाद की दलाली करता है । लोगों को मकान, दुकानें, गोदाम वगैरह किराये पर दिलवाने या लोगों की प्रोपर्टी की खरीद फरोख्त का कमीशन पर धन्धा करता है । लेकिन वास्तव में मेरा पति एक स्मगलर है ।”
सुनील के कान खड़े हो गये । मामला दिलचस्प मालूम होता था ।
“तुम्हें इस बात की जानकारी कैसे हुई ?”
“संयोगवश एक दो बार अपने पति के कुछ टेलीफोन वार्तालाप मेरे कानों में पड़ गये थे, जिनसे मुझे यह मालूम हुआ था कि मेरा पति स्मगलरों के एक गैंग का सदस्य था । मैंने एक बार अपने पति को अपने बॉस से बात करते सुना था । वार्तालाप से मुझे मालूम हुआ था कि मेरे पति को दस किलो अफीम राजनगर से ले जाने का आदेश मिला था और वापसी में उसे बम्बई से लगभग इतना ही सोना लेकर आना था ।”
“यह वार्तालाप भी तुमने टेलीफोन सुना था ?”
“नहीं यह वार्तालाप हमारे घर पर हुआ था । मैं बाहर गई हुई थी और संयोगवश जल्दी लौट आई थी । मेरे पति को मेरे आगमन की जानकारी नहीं हुई थी । मुझे अपने पति के कार्यकलापों पर संदेह तो था ही । उस दिन मैंने जान-बूझकर छुपकर अपने पति और दूसरे व्यक्ति का वार्तालाप सुना और फिर मेरा संदेह विश्वास में बदल गया ।”
“तुम्हें अपने पति पर संदेह कैसे हुआ ?”
“उसके रहन-सहन से, उसके रुपया खर्च करने के ढंग और अन्य कार्य-कलापों से ! नाम को वह प्रोपर्टी डीलर था लेकिन मैंने अपनी शादी के बाद से कभी भी उसे अपने धन्धे की ओर ज्यादा ध्यान देते नहीं देखा था । दलाली का जितना काम वह करता था उससे मेरे ख्याल से वह अधिक से अधिक पांच-छ: सौ रुपये कमा पाता था लेकिन फिर भी उसके पास हर समय ढेर सारा पैसा होता था । हम बढिया मकान में रहते हैं । घर में सुख-सुविधा और ऐश्वर्य के तमाम साधन मौजूद हैं । मेरा पति मुझे हमेशा ऐसे महंगे होटलों और क्लबों में ले जाया करता हैं जहां एक रात में चार-पांच सौ रुपये खर्च हो जाते हैं, मेरा संदिग्ध होना स्वभाविक ही था ।”
“तुमने इस बारे में अपने पति से बात नहीं की ?”
“की थी । लेकिन उसने मुझे यही बताया कि वह एजेन्टी से ही सारा रुपया कमा रहा है और यह कि जमीन जायदाद के धन्धे के बारे में क्योंकि मुझे कोई विशेष जानकारी नहीं है इस लिये मुझे यह गलतफहमी हो गई है कि इस धन्धे में कोई खास कमाई नहीं है । तीन-चार दिन बाद इस धन्धे की तगड़ी सी कमाई का उसने मुझे प्रमाण भी दे दिया । उसने एक मकान नब्बे हजार रुपये में बिकवाया जिस पर उसने लगभग चार हजार रुपया कमीशन बटोरी । वक्ती तौर पर तो मुझे लगा कि मेरा सन्देह बेबुनियाद है और मेरा पति सच बोल रहा है । लेकिन फिर भी मेरे दिमाग में यह कीड़ा कुलबुलाता ही रहा कि कहीं जरूर कोई गड़बड़ है ।”
कृति एक क्षण रुकी और फिर बोली - “सन्देहास्पद बातें और भी कई थी । जैसे मेरा पति महीने में एक दो बार, तीन चार दिन के लिये कहीं बाहर जरूर जाता था । बहाना यही होता था कि वह अपने किसी ग्राहक के साथ प्रोपर्टी के मूल्यांकन या सौदे के लिये जा रहा है । कई बार जब वह टेलीफोन पर बात कर रहा होता था और ऊपर से मैं आ जाती थी तो वह बौखलाकर टेलीफोन बन्द कर देता था । घर में एक सेफ है जिसका ताला चाबी से नहीं खुलता । सेफ पर एक डायल लगा हुआ है जिस पर कोई विशेष नम्बर डायल करने पर ही सेफ का ताला खुलता है । वह सेफ आज तक मेरे पति ने मेरी मौजूदगी में नहीं खोली । और न ही, अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद भी मैं कोड नम्बर जान पाई ।”
“मतलब यह कि अब तुम यह बात दावे से कह सकती हो कि तुम्हारा पति स्मगलरों के गैंग का सदस्य है ।”
“हां !” - कृति रुआंसे स्वर में बोली - “और जबसे मुझे इस बात का विश्वास हुआ है, मेरी रातों की नींद हराम हो गई है । मेरा पति एक बहुत ही खतरनाक राह पर चल रहा है । उसको कभी भी कुछ भी हो सकता है । वह पुलिस की गोली का शिकार होकर मारा जा सकता है । गिरफ्तार होकर जेल जा सकता है । सुनील, मेरा नन्हा सा बच्चा है । मेरा और मेरे बच्चे का भविष्य मेरे पति की सलामती पर निर्भर करता है । जो काम वह कर रहा है, उसमें एक न एक दिन ऐसा कुछ होकर रहेगा जो एकाएक मेरी और मेरे बच्चे की जिन्दगी में अन्धेरा कर देगा ।”
“तुमने अपने पति को कभी यह संकेत नहीं दिया कि तुम जानती हो कि वह स्मगलर है ?”
“स्पष्ट शब्दों में ऐसी कोई बात कहने की मेरी हिम्मत नहीं होती लेकिन बात को घुमा फिराकर मैंने कई बार कहा है । संकेत में मैंने यह बात कई बार कही है कि अगर उसे कुछ हो गया तो मेरा और मेरे बच्चे का जीवन तबाह हो जायेगा । सुनील, यह बात मेरा पति भी महसूस करता है और जब भी किसी बात का जिक्र आता है तो वह बेहद गम्भीर हो जाता है । उसके चेहरे से चिन्ता टपकने लगती है । फिर एकाएक उसके होंठ भिंच जाते हैं और मुझे ऐसा लगता है जैसे वह मन ही मन कोई भारी निश्चय कर रहा है । लेकिन बाद में फिर वही ढाक के तीन पात । नतीजा कुछ भी नहीं निकला ।”
कृति एकाएक चुप हो गई ।
सुनील चुपचाप विचारपूर्ण मुद्रा बनाये सिगरेट के कश लगाता रहा ।
“दरअसल मुझे ऐसा लगता है कि मेरा पति तो अपने अपराधी जीवन से किनारा करना चाहता है लेकिन उसकी कुछ मजबूरियां हैं जिसकी वजह से वह ऐसा नहीं कर पाता । शायद वह अपने बॉस से भयभीत हो और उसे ऐसा लगता हो कि अगर उसने यह धन्धा छोड़ने की कोशिश की तो उसका ज्यादा अहित कर सकता है । भगवान जाने हकीकत क्या है ।”
कृति फिर चुप हो गई ।
“मैं इस तस्वीर में कहां फिट होता हूं ?” - सुनील ने पूछा ।
“तुम मेरी समस्या हल कर सकते हो । तुम मेरे पति को उसके अपराधी जीवन से छुटकारा दिला सकते हो ।”
“मैं यह काम कैसे कर सकता हूं ?” - सुनील बोला - “नहीं, ठहरो । यह सवाल मैं तुमसे बाद में पूछूंगा, वह बताओ कि मुझसे सम्पर्क स्थापित करने का तुमने ऐसा पेचीदा तरीका क्यों अपनाया ? तुम रेणु के माध्यम से सीधे भी तो मेरे पास आ सकती थीं ।”
“उस तरीके से मुझे रेणु को भी बहुत कुछ बताना पड़ता जो मैं नहीं चाहती थी ।”
“तो फिर रेणु के बिना मेरे पास चली आतीं ।”
“मुझे भय था कि अगर मैं बिना किसी भूमिका के सीधे तुम्हारी पास चली आयी तो शायद तुम मेरी बात में दिलचस्पी न लेते । तुम्हारी मुझसे जान न पहचान । तुम्हें क्या जरूरत पड़ी थी मेरे फटे में टांग अड़ाने की ।”
“लेकिन तुमने यह तरीका क्यों अपनाया ?”
“मुझे कोई विशेष जल्दी तो थी नहीं । जहां इतने महीने गुजर गये थे, वहां कुछ दिन और सही । मैंने सोचा था आज बार में इस ढंग से तुम्हारे सम्पर्क में आने के बाद हमारा परिचय हो जायेगा । उसके बाद मैं मुलाकात के तीन-चार अवसर और निकाल लूंगी । तब तक थोड़ी बहुत औपचारिकता भी खत्म हो जायेगी । उसके बाद अगर मैं तुम्हें अपनी समस्या बताती तो सम्भव था थोड़ी बहुत सहानुभूति के कारण और कुछ हद तक ताजी हुई दोस्ती के कारण तुम मेरी सहायता करने के लिये तैयार हो जाते लेकिन तुमने सब घपला कर दिया ।”
“मैंने घपला कर दिया ?” - सुनील हैरानी से बोला ।
“और क्या ?” - वह रुंआसे स्वर में बोली - “तुमने तो मशीनगन की गोलियों की तरह मुझ पर सवाल बरसाने शुरु कर दिये । मैं घबरा गई और झूठ पर झूठ बोलती चली गई और अब स्थिति यह है कि तुम न जाने क्या समझ रहे हो मुझे ?”
“अब तो मेरा ख्याल है, मैं तुम्हें ठीक समझ रहा हूं ।” - सुनील बोला - “पहले मैं जरूर तुम्हें गलत समझ रहा था । तुम्हारे ख्याल से मैं तुम्हारे पति को उसके अपराधी जीवन से छुटकारा दिला सकता हूं ।”
“हां !”
“कैसे ?”
“मेरी सहायता करके ।”
“सुनील ।” - कृति उसकी ओर झुकी और धीमे स्वर में बोली - “मैं, स्मगलरों के जिस गैंग का मेरा पति सदस्य है, उसके बॉस को भी जानती हूं ।”
“उससे क्या होता है ? जाहिर है कि तुम उसकी रिपोर्ट पुलिस में तो करना पसन्द करोगी नहीं, क्योंकि उससे तुम्हारा पति भी पुलिस के चंगुल में फंस जायेगा । और फिर पता नहीं बिना पर्याप्त प्रमाणों के तुम्हारी शिकायत पर पुलिस कोई एक्शन भी लेगी या नहीं ।”
“पुलिस को बीच में लाने की जरूरत नहीं पड़ेगी ।” - कृति विश्वासपूर्ण स्वर में बोली ।
“बाबा, पहेलियां ना बुझाओ ।” सुनील बोला - “तुम जो कहना चाहती हो, साफ-साफ कहो ।”
“मैं यह कहना चाहती हूं कि...”
कृति एकाएक बोलते-बोलते रुक गई । उसके विस्फारित नेत्र सुनील के पीछे कहीं देख रहे थे । कृति के चेहरे पर एकाएक भय और घबराहट के लक्षण उभर आये थे ।
“ओह ! ओह !” - वह भयभीत स्वर में बोली ।
“क्या हुआ ?” - सुनील ने हैरानी से पूछा ।
कृति ने उत्तर नहीं दिया ।
सुनील ने उसकी दृष्टि का अनुसरण किया ।
होटल के मुख्य द्वार पर एक लगभग चालीस वर्ष का स्वस्थ पुरुष खड़ा था । वह बड़ा कीमती काला सूट पहने हुये था और बड़े अनिश्चयपूर्ण ढंग से हाल में दांये-बांये दृष्टि दौड़ा रहा था ।
एकाएक कृति अपने स्थान से उठ खड़ी हुई और बोलो - “मैं अभी आई ।”
“क्या बात हो गई ?”
कृति ने उत्तर नहीं दिया । वह सिर झुकाये तेजी से मुख्य द्वार की विपरीत दिशा में हाल के पिछवाड़े की ओर बढ गई । अगले ही क्षण वह सर्विस द्वार से गुजर कर दृष्टि से ओझल हो गई ।
सुनील अपने स्थान पर बैठा हुआ उल्लूओं की तरह पलकें झपकाता रहा ।
सुनील ने फिर मुख्य द्वार की ओर देखा ।
काले सूट वाला एक वेटर से बात कर रहा था ।
फिर काले सूट वाला हाल के एक कोने में बनी लकड़ी की सीढियों के रास्ते ऊपर की ओर चल दिया ।
सुनील ने वेटर को संकेत किया ।
उसने बिल चुका दिया ।
उसने सिगरेट को ऐश ट्रे में झोंका और उठ खड़ा हुआ । वह भी सर्विस द्वार की ओर बढा ।
पीछे पैन्ट्री थी और उसके पीछे किचन थी । किचन का पिछला दरवाजा पिछवाड़े की एक पतली सी गली में खुलता था ।
सुनील किचन में पहुंचा ।
कुक ने प्रश्नसूचक नेत्रों से उसकी ओर देखा ।
“अभी-अभी यहां एक लड़की आई थी ।” - सुनील ने अधिकारपूर्ण स्वर में पूछा ।
“जी हां ।” - कुक ने उत्तर दिया ।
“कहां गई वह ?”
“वह तो फौरन ही इस दरवाजे से पिछली गली में निकल गई थी ।” - कुक पिछले दरवाजे की ओर संकेत करता हुआ बोला ।
“तुमने उसे टोका नहीं ?”
“टोकने की नौबत ही नहीं आई, साहब । वह तो आंधी की तरह यहां आई और तूफान की तरह गुजर गई । वह तो इतनी तेजी से मेरी बगल में से गुजरी थी कि मैं ठीक से उसकी सूरत तक नहीं देख पाया ।”
सुनील ने आगे बढकर पिछला द्वारा खोला और बाहर झांका ।
एक धुंधले से बल्ब से अर्द्धप्रकाशित गली सुनसान पड़ी थी ।
सुनील वापिस हाल में लौट आया ।
काले सूट वाला शायद कृति का पति हो - सुनील ने मन ही मन सोचा या फिर शायद यह स्मगलरों के गैंग का बॉस हो । कृति ने कहा था कि वह बॉस को जानती है लेकिन यह जरूरी नहीं था कि बॉस भी उसे जानता हो । सुनील को काले सूट वाले को कृति का पति होने की अधिक सम्भावना दिखाई दी । काले सूट वाला प्रत्याशित रूप से नेपोली में आ धमका था और कृति नहीं चाहती थी कि वह सुनील के साथ देखी जाये इसलिये उसकी सूरत देखते ही वह भाग खड़ी हुई थी ।
सुनील भी ऊपर की ओर जाने वाली सीढियों की ओर बढा ।
सीढियां बालकनी में खत्म होती थीं । वहां भी मेजें बिछी हुई थीं और उन पर लोग बैठे हुये थे ।
काले सूट वाला वहां नहीं था ।
सुनील वापस लौटने ही वाला था कि उसे बालकनी के पिछले सिरे पर कोने में एक द्वार दिखाई दिया, जिसके शीशे की पैनल पर मैनेजर लिखा था ।
सुनील उस द्वार के समीप पहुंचा ।
उसने सावधानी से शीशे में से भीतर झांका ।
काले सूट वाला द्वार की ओर पीठ किये हुए भीतर बैठा हुआ था और एक विशाल मेज के बीच बैठे हुये एक अन्य व्यक्ति के साथ बातें कर रहा था ।
सुनील फौरन वहां से हट गया ।
वह सीढियां उतरकर नीचे हाल में आया और फिर हाल से भी बाहर निकल गया ।
बाहर आकर उसने पार्किंग में से अपनी मोटर साईकिल निकाली और फिर उसे ड्राइव करता हुआ होटल के कम्पाउन्ड में से बाहर निकल गया ।
उसने मोटर साईकिल को सड़क के पार ले जाकर रोक दिया । होटल के कम्पाउन्ड की बाहरी दीवार बहुत नीची थी और जहां सुनील खड़ा था वहां से होटल का मुख्य द्वार साफ दिखाई दे रहा था ।
सुनील ने एक सिगरेट सुलगा लिया और प्रतीक्षा करने लगा ।
लगभग दस मिनट बाद उसे काले सूट वाला मुख्य द्वार से बाहर निकलता दिखाई दिया ।
सुनील ने सिगरेट फेंक दी ।
काले सूट वाला बाहर आकर पार्किंग में खड़ी एक क्रीम रंग की फियेट गाड़ी में आ बैठा । फिर फियेट नेपोली के कम्पाउन्ड से बाहर निकल आई और मुख्य सड़क पर आकर तेजी से एक ओर दौड़ने लगी ।
सुनील ने तत्काल अपनी मोटर साईकिल स्टार्ट की और उसे फियेट के पीछे डाल दिया ।
सुनील सावधानी से पीछा करता रहा ।
फियेट नगर की विभिन्न सड़कों से होती हुई अलीबाबा के सामने आकर रुक गई ।
अलीबाबा राजनगर का सबसे नया और ऊंचे स्तर का रेस्टोरेन्ट था । अलीबाबा को शुरू हुये अभी कुछ ही महीने हुये थे लेकिन उस थोड़े समय में ही अपने कैबरे नृत्यों और स्वादिष्ट भोजन पदार्थों की वजह से वह राजनगर के किसी भी अपनी प्रकार के पुराने रेस्टोरेन्ट से अधिक प्रसिद्ध हो चुका था ।
काले सूट वाला कार से बाहर निकल आया और रेस्टोरेन्ट के मुख्य द्वार की ओर बढा ।
द्वार पर खड़े डोरमैन ने उसे ठोककर सलाम किया और फिर झपटकर उसके लिये द्वार खोल दिया ।
काले सूट वाला रेस्टोरेन्ट में प्रविष्ट हो गया ।
तत्काल ही सुनील भी मुख्य द्वार पर पहुंचा ।
डोरमैन ने उसे भी सलाम किया लेकिन इस बार उससे उस एक्शन में वह तत्परता और गर्मी नहीं थी जो उसने पहली बार दिखाई थी । उसने मशीन की तरफ हाथ बढाकर सुनील के लिये द्वार खोल दिया ।
सुनील ने भीतर जाने का उपक्रम नहीं किया । उसने अपनी जेब से एक रुपये का नोट निकाला और उसे अपनी बांये हाथ की उंगली के इर्द-गिर्द लपेटता हुआ बोला - “अभी काला सूट पहने हुये जो साहब भीतर गये थे, वे मजूमदार साहब थे न जो प्रोपर्टी डीलर हैं ?”
“नहीं, साहब ।” - डोरमैन ने उत्तर दिया । उसकी निगाहें नोट पर अटकी हुई थीं - “ये तो अलीबाबा के मैनेजर देसाई साहब हैं ।”
“ओह ! अच्छा... मुझसे पहचानने में गलती हुई होगी ।” - सुनील बोला और उसने नोट डोरमैन की बोर बढा दिया ।
एक क्षण के लिये डोरमैन की उंगलियां नोट को छूती दिखाई दीं और फिर नोट डोरमैन की यूनीफार्म में न जाने कहां गायब हो गया ।
सुनील रेस्टोरेन्ट के भीतर प्रविष्ट होने का प्रयत्न किये बना वापिस अपनी मोटर साईकिल के समीप पहुंच गया ।
तो काले सूट वाला कृति का पति मजूमदार नहीं था - सुनील ने मन ही मन सोचा ।
तो क्या अलीबाबा का मैनेजर देसाई ही स्मगलरों के गैंग का बॉस है ।
एक नई सम्भावाना भी सुनील के मन में पनपी ।
शायद एक गलतफहमी के अन्तर्गत ही वह देसाई का पीछा करता हुआ यहां आ पहुंचा था । शायद देसाई वह व्यक्ति नहीं था जिसे नेपोली में देखकर कृति एकाएक वहां से भाग निकली थी । कृति जिसे देखकर घबराई थी, शायद वह हाल में मौजूद कोई और व्यक्ति था जो सुनील की नजर में नहीं आ सका था । कृति को द्वार की दिशा में झांकते देखकर ही शायद वह इस गलत नतीजे पर पहुंच गया था कि कृति संयोगवश उसी क्षण द्वार पर प्रकट हुये देसाई को देखकर घबराई थी ।
देसाई उसे इज्जतदार और मान-मर्यादा वाला आदमी लगा था और अलीबाबा भी कोई बदमाशों के हैडक्वार्टर मार्का फिल्मी रेस्टोरेन्ट नहीं था । वह एक प्रतिष्ठित रेस्टोरेन्ट था जहां केवल ऊंची सोसायटी के ही लोग आते थे ।
लेकिन इसके विपरीत सम्भव यह भी था कि कानून की संदिग्ध निगाहों से बचने के लिये ही अलीबाबा के रूप में ऊंची सोसायटी की चमक दमक की आड़ ली जा रही हो ।
देसाई को चैक करने में क्या हर्ज है - सुनील मन ही मन बड़बड़ाया - सम्भव है जो प्रत्यक्ष में रस्सी मालूम हो रही है वही सांप हो ।
वह अपनी मोटर साइकिल पर सवार हो गया ।
उसने मोटर साइकिल को एक पब्लिक टेलीफोन बूथ के समीप लाकर रोक दिया ।
बूथ में से उसने यूथ क्लब का नम्बर मिलाया ।
यूथ क्लब की आपरेटर ने तत्काल ही उसे रमाकांत से मिला दिया ।
“हल्लो ।” - दूसरी ओर से रमाकांत की आवाज सुनाई दी - “रमाकांत स्पीकिंग...”
“नमस्ते भाई साहब ।” - सुनील बड़ी शराफत से बोला ।
“कौन साहब बोल रहे हैं ?” - रमाकांत का रुष्ट स्वर सुनाई दिया । शायद उसने सुनील की आवाज पहचानी नहीं थी और या फिर वह जान-बूझकर ऐसा जाहिर कर रहा था ।
“भाई साहब, मैं आपका बच्चा सुनील बोल रहा हूं ।” - सुनील पूर्ववत विनय पूर्ण स्वर में बोला ।
“अच्छा ।” - रमाकांत के स्वर में कोई परिवर्तन नहीं हुआ - “कैसे फोन किया है ?”
“यूं ही ।” - सुनील बोला - “एकाएक आपकी मोहनी सूरत आंखों के सामने घूम गई । सोचा, फोन करके पूछ लूं आपकी तबियत कैसी है ?”
“तबियत ठीक है और कुछ पूछना है ?”
“जी हां, एक बात और पूछनी है ।”
“जल्दी पूछो ।”
“अबे रमाकांत के घोड़े ।” - सुनील एकाएक बदले स्वर में बोला - “साले इतना उखड़ क्यों रहा है ?”
“क्योंकि मेरी ऐसी तैसी हो रही है ।” - रमाकांत का गम्भीर स्वर सुनाई दिया - “मेरा प्लास्टर उड़ा जा रहा है ।”
“क्या हो गया है ?”
“किसी हिन्दी फिल्म में काम कराने के लिये रूस के बोलशाई थियेटर की एक बैलेरिना भारत में आई हुई है । मैंने उसके एक शो का यूथ क्लब में इन्तजाम किया था । उससे ट्रंककाल पर बात हो गई थी । उसने एक परफारमेंस के लिये अगले सप्ताह यूथ क्लब आने का वादा भी कर लिया था । मैंने शो की घोषणा कर दी और टिकटें भी बचे दी हैं । लेकिन न जाने मेरी अक्ल पर क्या पत्थर पड़ गये थे कि मैंने बैलेरिना से रुपये के बारे में बात ही नहीं की । मुझे किसी ने हिन्ट दिया था कि हवाई जहाज के किराये के अलावा पांचेक हजार रुपया लेगी और यही बात मेरे दिमाग में कील की तरह घुसी हुई थी । लेकिन वास्तव में जब मैंने उससे पैसे की बात की तो उसने मेरे होश उड़ा दिये । जितने रुपये की मैंने टिकटें बेची हैं, उसका दुगना रुपया वह अपना पारिश्रमिक मांग रही है । अगर मुझे यह बात मालूम होती तो मैं टिकटों की कीमत बढा देता । अब हालत यह है कि शो तो करना ही पड़ेगा, अगर वह कम पैसों के लिये न मानी तो चार-पांच हजार रुपया मुझे अपनी जेब से देना पड़ जायेगा । उसके नाम ट्रंक काल बुक करके बैठा हुआ था, कि तुम आ टपके ।”
“मरे क्यों जा रहे हो ? चार-पांच हजार रुपया तुम्हारे लिये कौन सी बड़ी रकम है ।”
“क्यों ? बड़ी रकम क्यों नहीं है ? मैंने नोट छापने की मशीन लगाई हुई है क्या ?”
“तो फिर ऐसा करो ।” - सुनील विनोद पूर्ण स्वर में बोला - “रूसी बैलेरिना को मारो झाडू । उसकी जगह तुम अपना बैले नृत्य प्रस्तुत कर दो । तुम्हारे रुपये बच जायेंगे और लोगों को बैले के साथ-साथ कामेडी का भी मजा आ जायेगा ।”
“लानत है ।” - रमाकांत बोला - “तुम बको, क्यों फोन किया था ?”
“एक छोटा सा काम है ।”
“वह तो होगा ही । काम न होता तो क्या तुम वार्तालाप की शुरुआत ‘नमस्ते भाई साहब’ से करते ? लेकिन इस बार कुछ नगदऊ एडवांस दिलाओगे तो काम होगा ।”
“यह कहां की शराफत है ? तुम अपनी बैलेरिना वाला घाटा मुझ गरीब से पूरा करना चाहते हो ?”
“क्या हर्ज है ? कुछ तो फर्क पड़ेगा ही ।”
“लानत है और फिर तुम अपने आपको यार कहते हो ?”
“घोड़ा घास से यारी करेगा तो खायेगा क्या ?”
“यार को खायेगा ।”
“अब बकवास बन्द करो । नगदऊ एडवांस में भेजने का इरादा हो तो काम बताओ ।”
“रमाकांत के बच्चे यह बहुत मामूली काम है ।”
“क्या काम है ?” - रमाकांत संदिग्ध स्वर में बोला ।
“एक आदमी को चैक करना है ।”
“कौन आदमी ?”
“अलीबाबा रेस्टोरेन्ट का मालिक देसाई ।”
“उसके बारे में क्या जानना चाहते हो ?”
“उसकी बैकग्राउण्ड के बारे में जो कुछ मालूम हो सके । विशेष रूप से यह कि क्या उसका जरायमपेशा लोगों से कोई सम्पर्क है और यह कि क्या वह स्मगलर हो सकता है ?”
“इसे तुम मामूली काम कहते हो ?”
“मामूली तो है ही ।”
“बहस छोड़ो । तुम्हारा काम हो जायेगा । तुम फौरन पांच सौ रुपये भिजवा दो ।”
“कोई लूट मच रही है क्या ?”
“ज्यादा है ? चलो यार सौ अट्ठानवे रुपये दे दो ।”
“रमाकांत मजाक छोड़ो । मैंने जो काम बताया है, उसे जल्दी-जल्दी करवाने की कोशिश करो और जहां तक नगदऊ का सवाल है, वह मैं तुम्हें उस सूरत में दूंगा, जब मुझे कहीं से नगदऊ हासिल होगा ।”
“मतलब यह है कि इस बार फिर सब कुछ धर्म खाते होने वाला है ।”
“फिलहाल ।”
“जिस आसामी की वजह से देसाई को चैक करवा रहे हो उसने कुछ नहीं दिया तुम्हें ?”
“नहीं ।”
“क्यों ?”
सुनील ने संक्षेप में उसे सारी घटना सुना दी ।
“तुम पागल हो ।” - सारी बात सुन चुकने के बाद रमाकांत भड़क कर बोला - “अभी बात का सिर पैर तक तुम्हारी समझ में आया नहीं है । लड़की के नाम के सिवाय तुम्हें कुछ भी मालूम नहीं है । तुम्हें यह तक मालूम नहीं है कि वह तुमसे करवाना क्या चाहती है और तुमने पहले ही एक्शन शुरु कर दिया है, रमाकांत पर आर्डर शूट करने शुरु कर दिये हैं । भला कोई तरीका है यह ?”
“कृति मजूमदार जल्दी ही मुझसे सम्पर्क स्थापित करेगी ।”
“तब तक इन्तजार कर लो । अगर देसाई का इस मामले में कोई सम्बन्ध हुआ तो शायद कृति ही तुम्हें देसाई के बारे में बहुत कुछ बता दे ।”
“मैं इन्तजार नहीं कर सकता । मेरे दिमाग में कीड़ा कुलबुला रहा है । मुझे सारे मामले से भारी एडवेन्चर की बू आ रही है ।”
“सुनील, मैं सच्चे दिल से प्रार्थना कर रहा हूं कि वह तुम्हारा जल्दी से जल्दी सत्यानाश करे ।”
“मैं भी भगवान से प्रार्थना करता हूं कि वह तुम्हारी प्रार्थना स्वीकार कर ले ।”
“बाई गॉड, यूथ क्लब के तुम्हारे जैसे दो चार मेम्बर और हो जायें तो फौरन जाकर रेल की पटरी पर सिर रख दूंगा ।”
“तो फिर करवा रहे हो मेरा काम ?”
“वह तो हो ही जायेगा लेकिन सुनील, मेरी एक नेक राय मानो ।”
“क्या ?”
“छोकरियों की रुंआसी सूरतों से प्रभावित होना बन्द कर दो, वरना किसी दिन तुम्हारा पटड़ा हो जायेगा ।”
सुनीच चुप रहा ।
“और जब तक नगदऊ न हाथ में आ जाये तब तक अपने अक्ल के घोड़ों की लगामें खींचकर रखा करो, संवेदना और सहानुभूति का नलका बन्द रखा करो और अपने दिमाग के फाटक पर सबसे बड़ा ताला लगाकर रखा करो और फिर उसके आगे वे पत्थर भी अड़ा दिया करो जो कभी-कभी तुम्हारी अक्ल पर पड़ जाते हैं ।”
“भविष्य में मैं ऐसा ही करुंगा ।” - सुनील बड़ी शराफत से बोला ।
“तुम्हारा इतनी शराफत से मेरी बात मान जाना ही इस बात का प्रमाण है कि भविष्य में तुम हरगिज भी ऐसा नहीं करोगे ।”
“मैं पैसे के पीछे नहीं भागता हूं ।”
“यही तो मुसीबत है, तुम पैसे के पीछे नहीं भागते हो लेकिन पैसा तुम्हारे पीछे भागता है और तुम उससे यूं बचते फिरते हो जैसे वह तुम्हारा दुश्मन हो । और एक हम हैं । साला, कमाई का धन्धा सोचते हैं और नावां अन्टी से निकल जाना है । आस्तीन के सांप वाले केस में तुम्हें वह बूढा आसामी एम्बेसेडर कार दे गया था जबकि हमें किसी शुतरमुर्ग की औलाद ने आज तक एक झुनझुना नहीं दिया कि उसी को बजा-बजाकर दिल बहला लें । और फिर...”
“रमाकांत भाई साहब ।” - सुनील बड़ी नम्रता से बोला - “अगर इजाजत हो तो मैं टेलीफोन हुक पर लटका दूं । मेरा हाथ दुखने लगा ।”
उत्तर में एक भड़ाक की आवाज आई । रमाकांत ने रिसीवर क्रेडिल पर पटक दिया था ।
सुनील ने भी रिसीवर केबिन बाक्स के हुक पर टांगा और बूथ से बाहर निकल आया ।
***
उस घटना को लगभग एक सप्ताह गुजर गया ।
कृति मजूमदार ने सुनील से सम्पर्क नहीं किया ।
सुनील हैरान था ।
उसे हैरानी थी कि ऐसी कौन सी मजबूरी थी जो कृति को सुनील के सम्पर्क में आने से रोक रही थी । कहां तो वह उससे सम्पर्क बढाने के लिये पिछले सप्ताह उसका पीछा करती हुई नेपोली में पहुंच गई थी और फिर सुनील की सहायता प्राप्त करने के लिये मरी जा रही थी और अब वह उसे टेलीफोन तक नहीं कर रही थी । स्वयं सुनील उससे सम्पर्क स्थापित कर नहीं सकता था । वह कृति के नाम के अतिरिक्त उसके विषय में कुछ भी तो नहीं जानता था । नेपोली में कृति यूं एकाएक उठकर भाग गई थी कि वह अपनी ओर से तो उससे कुछ भी नहीं पूछ पाया था और उसका यह ख्याल तो एकदम गलत निकला था कि कृति अगले ही दिन उससे मिलेगी ।
ज्यों-ज्यों दिन गुजरते जा रहे थे, उसे सारी स्थिति और अधिक रहस्यपूर्ण लगती जा रही थी ।
रमाकांत ने देसाई को चैक करवाया था लेकिन नतीजा कुछ भी नहीं निकला था । देसाई सूरत का रहने वाला था । अलीबाबा के खुलने के बाद ही वह राजनगर में आया था । राजनगर में उसका मेल-जोल का दायरा इतना सीमित था कि उसके बारे में रमाकांत के आदमी कुछ भी नहीं जान पाये थे । प्रत्यक्ष में वह शराफत की जिन्दगी गुजारने वाला रईस आदमी था । जरायमपेशा लोगों से उसका सम्पर्क नहीं मालूम होता था और अगर ऐसा कोई सम्पर्क था तो वह रमाकांत के आदमियों की नजर में नहीं आ पाया था और उसके स्मगलर होने की सम्भावना तो कतई दिखाई नहीं देती थी ।
देसाई का राजनगर में आने से पहले का जीवन चैक करने का रमाकांत के पास कोई साधन नहीं था ।
देसाई बेहद रिजर्व आदमी था । छोटे लोगों को वह कतई मुंह नहीं लगाता था और उससे मिलने वे जुलने वाले भी बेहद कम थे इसलिये यह तक मालूम न हो सका था कि देसाई का कोई मजूमदार नाम का मित्र है या नहीं ।
सुनील को विश्वास सा हो चला कि एक गलतफहमी के अन्तर्गत वह देसाई के पीछे पड़ गया था । शायद देसाई वह आदमी नहीं था जिसे नेपोली में देखकर कृति वहां से एकाएक भाग खड़ी हुई थी ।
सुनील ने बहुत बार सारे किस्से को अपने दिमाग से झटक देने का प्रयत्न किया लेकिन कृति की रहस्यपूर्ण बातों को वह भूल नहीं पाता था । रह रहकर यह प्रश्न हथौड़े की तरह उसके दिमाग में बज उठता था कि कृति स्मगलरों के गैंग के बास के बारे में क्या जानती थी ? वह क्यों पुलिस को बीच में लाने की जरूरत नहीं समझती थी । वह ऐसा क्या कर सकती थी जिससे उसके पति पर आंच भी न आये और स्मगलरों के गैंग से उसका सम्पर्क भी टूट जाये ? क्या वह बास को अपने पति को गैंग से रिहाई के लिये ब्लैकमेल कर सकते थी ? अगर हां तो कैसे ?
और सबसे बड़ा सवाल यह था कि वह सुनील से क्या चाहती थी ?
अन्त में सुनील को विश्वास सा हो चला कि कृति मजूमदार न खुद आयेगी, न पत्र लिखेगी और न टेलीफोन करेगी ।
उसने खुद कृति को तलाश करने का फैसला कर लिया । राजनगर की चालीस लाख की आबादी में इन जानकारी के आधार पर कृति को तलाश कर पाना कि उसका पति प्रापर्टी डीलर है, असम्भव था ।
एक ही सूत्र था जिसके द्वारा कृति के बारे में कुछ मालूम हो सकता था ।
और वह थी ब्लास्ट की रिसैप्शनिस्ट-कम टेलीफोन आपरेटर रेणु ।
कृति ने बताया था कि रेणु उसकी सहेली थी और कृति की शादी से पहले दोनों में अक्सर मुलाकात हुआ करती थी ।
रेणु उस कृति के बारे में बहुत कुछ बता सकती थी ।
सुनील ब्लास्ट के आफिस में स्थित अपने केबिन में से बाहर निकला और बाहर एक तरफ रेलिंग लगे गलियारे में चलता हुआ रिसेप्शन पर पहुंच गया ।
रेणु उसे देखकर मुस्काकई और स्विच बोर्ड आपरेट करती रही ।
सुनील रिसेप्शन डेस्क से टिक कर खड़ा हो गया और उसके फ्री होने की प्रतीक्षा करने लगा ।
कुछ क्षण बाद रेणु उसकी ओर आकर्षित हुई और अपने चेहरे पर एक सिल्वर जुबली मुस्कुराहट लाती हुई बोली - “आओ राजा ।”
“रेणु” - सुनील गम्भीर स्वर में बोला - “मुझे तुमसे एक बड़ी महत्वपूर्ण बात पूछनी है ।”
एक क्षण के लिये रेणु गम्भीर हुई और फिर उसके नेत्र शरारत से चमकने लगे ।
“मैं समझ गई तुम क्या पूछना चाहते हो” - रेणु शरमाने का अभिनय करती हुई बोली - “मैं तैयार हूं ।”
“क्या मतलब ?” - सुनील हैरानी से उसका मुंह देखता हुआ बोला ।
“मुझे कोई एतराज नहीं है ।”
“क्या कह रही हो ?”
“तुम तो उल्टे पहेलियां बुझाने लगे । तुम यही महत्वपूर्ण बात मुझसे पूछना चाहते हो न कि मैं तुमसे शादी करने को तैयार हूं, मेरे राजकुमार ।”
“ओफ ! डैम यू कैट !” - सुनील झुंझलाकर बोला - “बात को कहां से कहां ले जाती हो तुम ?”
“तो क्या तुम मुझे अभी प्रपोज नहीं करने वाले थे...”
“तुम्हारा तो दिमाग खराब हो गया है ।”
“हाय !” - रेणु रुआंसे स्वर में बोली - “हाय-हाय ! तुमने मेरा दिल तोड़ दिया ।”
“रेणु, भगवान के लिये ड्रामा बन्द करो और मेरी बात सुनो ।” - सुनील प्रार्थनापूर्ण स्वर में बोला - “मैं वाकई तुमसे एक बहुत महत्वपूर्ण बात पूछना चाहता हूं ।”
“शादी की बात के अलावा मेरी नजर में कोई बात महत्वपूर्ण नहीं है ।”
“अरे बाबा, तुम सुनो तो सही ।”
“अरे बाबा, तुम कुछ कहो तो सही ।” - रेणु उसके स्वर की नकल करती हुई बोली ।
“तुम्हारी कृति नाम की कोई सहेली है ?”
“कृति !”
“हां । कृति मजूमदार ?”
“बात क्या है ?”
“बात तुम्हारी समझ में नहीं आयेगी ! तुम, भगवान के लिये, जो मैं पूछ रहा हूं, उसका जवाब दो ।”
रेणु ने उसे घूरकर देखा ।
“रेणु प्लीज । बाई गाड दिस इज इम्पोर्टेन्ट ।”
रेणु कुछ क्षण सोचती रही और फिर बोली - “कृति मजूमदार नाम की तो मेरी कोई सहेली नहीं है ।”
“अब नहीं है तो शायद कभी रही हो ।” - सुनील ने फिर पूछा ।
“मुझे याद नहीं आ रहा है ।”
“तुम्हारी ऐसी कोई सहेली नहीं जिससे उसकी शादी के बाद तुम्हारी मुलाकातें घट गई हों या बन्द हो गई हों, लेकिन शादी से पहले तुम्हारा उससे काफी मिलना जुलना रहा हो ?”
“ऐसी मेरी एक सहेली थी तो सही” - रेणु सोचती हुई बोली - “जो शादी के बाद अपने विवाहित जीवन में इतनी उलझ गई थी कि मेरा उससे सम्पर्क लगभग बिल्कुल ही समाप्त हो गया था । उसका किसी रईस आदमी से ब्याह हो गया था और वह अपने पति के साथ बड़े ऊंचे सर्कल में घूमने फिरने लगी थी । ऐसी लड़की का मेरे जैसी साढे तीन सौ रुपये कमाने वाली काम काजी लड़की से सम्पर्क टूट जाना स्वाभाविक ही है । लेकिन उसका नाम कृति मजूमदार तो नहीं था ।”
“उसका क्या नाम था ?” - सुनील ने तनिक हताशपूर्ण स्वर से पूछा ।
“उसका नाम तो कृति घोष था ।”
“कृति घोष !” - सुनील उसे घूरता हुआ बोला - “रेणु वाकई सच कहा है किसी ने कि औरतों का अक्ल से कोई रिश्ता नहीं होता ।”
“मुझे कह रहे हो ?” - रेणु आंखें निकालकर बोली ।
“और क्या स्विच बोर्ड को कह रहा हूं ?”
“मैंने कौन सी बेअक्ली की बात कर दी है ?”
“अरी मूर्खानन्द । तुम्हारे भेजे में क्या इतनी सी बात नहीं घूमती ? अगर तुम्हारी सहेली कृति घोष ने किसी मजूमदार साहब से शादी की होगी तो शादी के बाद उसका नाम कृति मजूमदार हो जायेगा ?”
“ओह !” - रेणु बोली - “आई एम सॉरी, वाकई मुझे यह बात नहीं सूझी । जैसे जब तुम मुझसे शादी कर लोगे तो मैं रेणु चोपड़ा से रेणु चक्रवर्ती हो जाऊंगी । है न ?”
“तुम मुझसे कृति मजूमदार की बात करो ।”
“अब क्या शादीशुदा औरतों के चक्कर में फिरने लगे हो ?”
“रेणु... प्लीज । बी सीरियस ।”
“सीरियस तो यह लो... हो गई मैं । लेकिन मेरी एक चेतावनी सुन लो । पति नाम का जानवर बड़ा खतरनाक होता है । अंग्रेजी की एक कहावत है कि पति खुद अपनी पत्नी का चाहे दस साल में एक बार चुम्बन न ले लेकिन किसी दूसरे आदमी को अपनी पत्नी का चुम्बन लेते देखकर वह खून करने की सोचने लगता है । इसलिये चक्रवर्ती साहब, शादीशुदा औरतों का चक्कर छोड़ दो बर्ना किसी दिन हाथ पांव तुड़वाये हुये किसी अस्पताल में पड़े होवोगे या मुमकिन है सीधे कब्र में ही पहुंच जाओ ।”
“कर चुकी बकवास या अभी और कुछ कहना है ?”
“अभी तो बहुत कुछ कहना है ।”
“वह भी कह लो ताकि मैं अपनी बात शुरू करूं ।”
“कृति मजूमदार तुम्हें बहुत खूबसूरत लगी क्या ?”
“हां ।”
“शादी के बाद खूबसूरत हो गई होगी । पहले तो बड़ी मामूली लड़की मालूम हुआ करती थी । लेकिन शादीशुदा औरत से इश्क लड़ाना और मगरमच्छ के जबड़े में सिर रख देना एक ही बात है ।”
“तुम्हें मालूम है वह कहां रहती है ?”
“नहीं ।”
“अपनी शादी से पहले तो वह यहां भी तुमसे मिलने आया करती थी ?”
“हां ।”
“फिर भी तुम्हें उसके घर का पता मालूम नहीं है ।”
“कैसे मालूम हो ? शादी से पहले तो वह लारेंस रोड पर स्थित वर्किंग गर्ल्स होस्टल में रहती थी । अब वह अपने पति के साथ पता नहीं कहां रहती है ?”
“तुम पता नहीं लगा सकतीं ?”
“होस्टल के अधिकारियों और उनकी जानकार लड़कियों से पूछताछ कर सकती हूं । शायद किसी को उसका वर्तमान पता मालूम हो ।”
“शादी से पहले वह नौकरी करती थी ?”
“हां ।”
“कहां ?”
“नैशनल बैंक में ।”
“शायद वहां किसी को मालूम हो ?”
“मैं वहां भी फोन कर लूंगी ।”
“हां प्लीज ।”
“वह सब तो हुआ लेकिन अगर तुम्हारा काम हो गया तो बदले में मुझे क्या मिलेगा ?”
“बदले में तुम क्या चाहती हो ?” - सुनील ने पूछा - “लेकिन भगवान के लिये, यह मत कह देना कि मुझसे शादी कर लो ।”
“नहीं कहूंगी, क्योंकि तुम तो... शायद कृति मजूमदार को लेकर भागने वाले हो ।”
सुनील चुप रहा ।
“मुझे किसी बहुत बड़े होटल में डिनर के लिये लेकर चलना, जहां नंगी मेम साहबों का नाच होता हो और जहां डिनर कम से कम सौ रुपये पर हैड में मिलता हो ।”
“मेरी कोई लाटरी निकलने वाली है क्या ?”
“मरे क्यों जा रहे हो ? इतना पैसा कमाते हो । इतना पैसा बरबाद करते हो । एक बार मुझे कहीं साथ ले जाओगे तो कंगाल तो नहीं हो जाओगे ।”
“अच्छी बात है । चलेंगे ।”
“और अगर बिल चुकाते समय तुम्हें ऐसा लेगे कि तुम्हारा हार्ट फेल हो जायेगा तो रुपये मैं दे दूंगी । फिर तो तुम्हें कोई तकलीफ नहीं होगी ।”
“मुझे कैसे भी कोई तकलीफ नहीं होगी । तुम कृति मजूमदार का वर्तमान पता मालूम करो, तुम्हारा डिनर पक्का ।”
“और अगर मैं पता मालूम न कर सकी तो डिनर कैंसल ?”
“नहीं । फिर भी चलेंगे ।”
“थैंक्यू वैरी मच राजा । अब मैं तुम्हें सुनील क जगह खलीफा हारू-अल रशीद कहा करूंगी । तुमने वाकई ‘ब्लास्ट’ की रोटरी मशीन जितना बड़ा दिल पाला है ।”
सुनील वहां से हट गया ।
रेणु फिर स्विच बोर्ड आपरेट करने में बिजी हो गई ।
***
भरपूर कोशिशों के बावजूद भी कृति मजूमदार का पता नहीं मालूम हो पाया ।
रेणु ने नैशनल बैंक के कर्मचारियों से और लारेंस रोड पर स्थित वर्किंग गर्ल्स होस्टल के अधिकारियों से और वहां पुरानी रहने वाली कई लड़कियों से भरपूर पूछताछ की लेकिन किसी को भी मालूम नहीं था कि कृति मजूमदार शादी के बाद अब अपने पति के साथ कहां रह रही है या वह राजनगर में रह भी रही है या नहीं ।
टेलीफोन डायरेक्ट्री में प्रापर्टी डीलर के क्लासीफाईड कालम में किसी मजूमदार का नाम नहीं था ।
जनरल लिस्ट में इतने मजूमदार लिखे हुये थे कि वह जान पाना कठिन था कि इनमें से कृति का पति कौन है । वैसे भी डायरेक्ट्री में केवल उन्हीं मजूमदारों के नाम थे जिनके पास टेलीफोन था । सम्भव था कृति के पति के पास टेलीफोन ही न हो ।
स्वयं कृति ने अभी भी सुनील से सम्पर्क स्थापित करने का प्रयत्न नहीं किया था ।
रेणु तो मजूमदार का पता नहीं जान पाई थी लेकिन सुनील ने अपना वादा पूरा किया था ।
उस समय वह रेणु के साथ अलीबाबा में बैठा हुआ था ।
वे दोनों डांस फ्लोर से थोड़ा हटकर एक ऐसी टेबल पर बैठे हुये थे जहां प्रकाश कम था और जहां से सारा डांस फ्लोर दिखाई देता था ।
रेणु प्रसन्न थी । अलीबाबा के आर्केस्ट्रा में से तेज पाश्चात्य धुनें फूट रही थीं और उस संगीत की धुन पर स्पाट लाइट के चमकीले दायरे में डांस फ्लौर पर रेणु की कथित नंगी मेम साहब अपना उत्तेजक नृत्य प्रस्तुत कर रही थी । रेणु आंखें फैलाये विदेशी नर्तकी का नृत्य देख रही थी । इसकी सूरत से ऐसा लगता था जैसे उसके नृत्य से कम और उसके अर्धनग्न शरीर और उत्तेजक भाव भंगिमाओं से अधिक प्रभावित थी । और नृत्य था भी ऐसा ही । उस नृत्य में कला और रिदम महत्वपूर्ण नहीं थे । नृत्य तो एक माध्यम था शरीर प्रदर्शन का और अश्लीलता और भौंडेपन को कला के रूप में प्रस्तुत करने का नर्तकी ने आखिरी बार अपने अपने वक्ष को एक जोर का झटका दिया, ड्रम पर आखिरी चोट पड़ी और फिर संगीत और नृत्य दोनों बन्द हो गये । स्पाट लाइट बन्द हो गई और हाल तेज रोशनियों से जगमगा उठा ।
हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा ।
नर्तकी ने चारों ओर झुककर लोगों का अभिवादन किया और फिर मदमाती चाल से चलती हुई हॉल के मध्य में से निकलकर पिछले भाग में बने कमरों में कहीं गायब हो गई ।
कुछ क्षण बाद बैंडस्टैंड पर विदेशी परिधान पहने एक युवती प्रकट हुई । उसने अपने हाथ में माइक थाम लिये । बैंड फिर बजने लगा और वह बैंड की धुन पर कोई विलायती गीत गाने लगी ।
उसी क्षण सुनील को रेस्टोरेन्ट के मुख्य द्वार पर रमाकांत दिखाई दिया ।
“रेणु” - सुनील रेणु की ओर झुकता हुआ बोला - “मुझे हाल में अपना एक दोस्त दिखाई दे रहा है । अगर मैं उसे भी यहीं बुला लू तो तुम्हें कोई एतराज तो नहीं होगा ।”
“जरूर बुलाओ ।” - रेणु बोली - “मुझे भला क्या ऐतराज होगा ?”
इस समय वह ब्लास्ट के आफिस की चुलबुली और शरारती रिसैप्शनिस्ट नहीं बल्कि एक गम्भीर और जिम्मेदार युवती लग रही थी ।
“थैंक्यू ।” - सुनील बोला और उसने संकेत से वेटर को बुलाया ।
वेटर समीप आ गया ।
रमाकांत स्टीवर्ट से बात कर रहा था ।
“सुनो ।” - सुनील वेटर से बोला - “गेट के समीप खड़े जो साहब स्टीवर्ट से बात कर रहे हैं, वे मेरे मित्र हैं । उन्हें यहां बुला लाओ और फिर उनके लिये एक कुर्सी लगा दो ।”
“अच्छा साब ।” - वेटर आदरपूर्ण स्वर से बोला और फौरन रमाकांत की ओर बढा ।
दो मिनट बाद रमाकांत उनके साथ बैठा हुआ था । वह अच्छे मूड में नहीं था ।
“यह रेणु है ।” - सुनील बोला - “और रेणु यह मेरा दोस्त रमाकांत है ।”
“यूथ क्लब ?” - रेणु बोली ।
सुनील ने स्वीकारात्मक सिर हिलाया ।
“हैलो ।” - रमाकांत बोला - “मैं भी आपको जानता हूं । बल्कि यूं कहना चाहिए कि पहचानता हूं क्योंकि आपसे कभी बाकायद मुलाकात नहीं हुई है ।”
“अब तो बाकायदा मुलाकात हो गई है ।” - रेणु मुस्कराती हुई बोली ।
“जी हां ।” - रमाकांत बोला - “अब तो बाकायदा मुलाकात हो गई है ।”
“तुम यहां कैसे आये ?” - सुनील ने रमाकांत से पूछा ।
“जैसे तुम आये हो ?” - रमाकांत बोला ।”
“मनोरंजन के लिये ! यूथ क्लब में आग लग गई है क्या ?”
“आग ही लग गई समझो ।” - रमाकांत बुरा सा मुंह बना बोला ।
“क्या हो गया है । तुम्हारा फ्यूज क्यों उड़ा हुआ है ?”
“उसी रूसी बैलेरिना का सताया हुआ बैठा हूं । वो पटखनी दी है हरामजादी ने कि... ओह...” - वह रेणु को देखता हुआ खेदपूर्ण स्वर से बोला - “आई एक सारी ।”
“कोई बात नहीं ।” - रेणु मुस्कराकर बोली ।
“दरअसल इतना बखेड़ा हो गया है और मैं इतना तंग आ गया हूं कि जुबान पर अपने आप गाली आ जाती है ।”
“डोंट बोदर ।”
“उस रूसी बैलेरिना ने तो मेरा ऐसा मुर्गा बनाया है कि अगले दस साल तो भूलूंगा नहीं । साली...”
रमाकांत फिर चुप हो गया ।
“हुआ क्या है ?” - सुनील ने पूछा ।
“आज उसका यूथ क्लब में शो था ।” - रमाकांत ने बताया - “मैं चाहता था कि वह सुबह ही राजनगर आ आये । इस सिलसिले में उससे बम्बई ट्रंक काल पर बात भी की थी । पट्ठी बोली कि वह सुबह नहीं आ सकती । आठ बजे शो था । बोली, वह शाम को हवाई जहाज द्वारा बम्बई से चलेगी । साढे सात बजे उसका प्लेन राजनगर हवाई अड्डे पर पहुंचेगा । पौने आठ बजे तक वह सीधी यूथ क्लब में आयेगी और आठ बजे वह स्टेज पर होगी ।”
“फिर ?”
“फिर क्या ? साढे सात बजे न प्लेन आया और न बैलेरिना आई । पूछताछ करने पर मालूम हुआ कि कल-पुर्जों की किसी मामूली खराबी की वजह से जहाज दो घन्टे लेट आयेगा । मैं यूथ क्लब आया और लोगों से खचाखच भरे हाल में यह घोषणा की कि शो दो घन्टे लेट होगा । लोग बेहद असन्तुष्ट हो उठे । बड़ी मुश्किल से मैंने लोगों को दो घन्टे इन्तजार करने के लिये तैयार किया । फिर साढे नौ बजे बैलेरिना के सेक्रेट्री का फोन आ गया कि मैडम की तबियत एकाएक बेहद खराब हो गई है । वह हवाई जहाज के सफर के काबिल नहीं रही है, इसलिये उसके राजनगर आकर शो करने का सवाल ही नहीं पैदा होता । मेरे तो हाथ पांव फूल गये । लेकिन कुछ किया तो जा नहीं सकता । मैंने कलेजा कड़ा करके स्टेज पर जाकर घोषणा कर दी कि अपनी अस्वस्थता की वजह से बैलेरिना यूथ क्लब में नहीं आ सकतीं, इसलिये शो नहीं होगा और उनकी टिकटों की कीमत वापिस कर दी जायेगी । भाई साहब, एक बार तो यूथ क्लब में ऐसा माहौल पैदा हो गया जैसे गदर मच गया हो । अच्छे खासे पढे लिखे सभ्य लोगों ने हुड़दंग मचाने में रेहड़े तांगे वालों को मात कर दिया ।”
“लेकिन तुमने यह क्यों कहा कि शो नहीं होगा । शो के लिये कोई और तारीख नियत कर देते ?”
“सम्भव नहीं था । कल बैलेरिना वापिस रूस जा रही है ।”
“तुम यहां क्यों भाग आये ?”
“लोगों ने दिमाग खराब कर दिया था मेरा । शो न हो पाने के बारे में वे सिरे के बेहूदे सवाल तो पूछते ही थे, साथ ही लगे हाथों मुझे परले सिरे का अहमक भी साबित करते जाते थे, उनके ख्याल से उन्हें जो असुविधा हो रही थी, वह शत-प्रतिशत मेरी जहालत का नतीजा था ।”
“वह तो था ही ।” - सुनील शरारत भरे स्वर में बोला ।
रमाकांत ने कहर भरी निगाहों से उसकी ओर देखा ।
“तुम्हें फौरन अपना बैले प्रस्तुत कर देना चाहिये था, रूसी बैलेरिना क्या खाकर तुम्हारा मुकाबला करती । लोग वाह-वाह कर उठते ।”
रमाकांत चुप रहा ।
“सिगरेट पियो ।” - सुनील उसकी ओर लक्की स्ट्राइक का पैकेट बढाता हुआ बोला ।
रमाकांत ने पैकेट में से निकालकर एक सिगरेट सुलगाया । उसने सिगरेट के एक दो लम्बे-लम्बे कश लगाये और फिर बुरा सा मुंह बनाकर सिगरेट को ऐश-ट्रे में झोंक दिया । फिर उसने अपनी जेब में से चार मीनार का पैकैट निकालकर एक सिगरेट सुलगाया और उसके कश लगाने लगा । दो-तीन कशों के बाद ही एक बड़े सन्तुष्टिपूर्ण ढंग से सर हिला रहा था ।
सुनील ने वेटर को बुलाकर डिनर का आर्डर दे दिया ।
“तुम आज ‘अलीबाबा’ में कैसे आ गये ?” - रमाकांत ने एक उड़ती हुई दृष्टि रेणु पर डालते हुए सुनील से प्रश्न किया ।
“यही सवाल तो मैं तुमसे पूछना चाहता हूं ।” - सुनील बोला ।
“मैं तो यही इसलिये आया हूं क्योंकि मैं आज तक कभी भी यहां नहीं आया । सोचा था कि उस शो के झमेले के चक्कर में अगर कोई मुझे तलाश भी करेगा तो वह ऐसी जगह ही देखेगा जहां मैं अक्सर जाता हूं । ‘अलीबाबा’ का ख्याल किसी को नहीं आयेगा और मैं शांति से खाना तो खा सकूंगा ।”
“हम भी इसलिये आये हैं क्योंकि यहां पहले कभी नहीं आये थे ।” - सुनील बोला - “और फिर मैंने रेणु से वादा किया था कि हम डिनर के लिये ऐसी जगह जायेंगे जहां नंगी मेम साहबों का नाच होता हो और डिनर पर कम से कम सौ रुपये पर हैड खर्च आता हो ।”
रमाकांत ने रेणु की ओर देखा रेणु ने लजाकर सिर झुका लिया ।
“तुम्हारे ‘अलीबाबा’ के आगमन से ‘अलीबाबा’ के मैनेजर देसाई का तो कोई सम्बन्ध नहीं है न ?” रमाकांत ने पूछा ।
“नहीं ।” - सुनील बोला ।
दो वेटरों ने उन्हें सर्व किया ।
वे खाना खाने लगे ।
बाद में वेटरों ने खाली प्लेटें हटा दीं और उन्हें कॉफी सर्व कर दी ।
वे कॉफी पीने लगे ।
वह बड़ी शांति से अपनी प्रिय सिगरेट चारमीनार के कश लगाता हुआ कॉफी पी रहा रहा ।
उसी समय स्टीवर्ड उनके पास पहुंचा और व्यवसायिक ढंग से मुस्कराता हुआ आदरपूर्ण स्वर में बोला - “आप में से मिस्टर सुनील कुमर चक्रवर्ती कौन साहब हैं ?”
“मेरा नाम सुनील कुमार चक्रवर्ती है ।” - सुनील ने बताया ।
“आपके लिये यह पत्र है ।” - स्टीवर्ड अपनी जेब में से एक लिफाफा निकालकर सुनील की ओर बढाता हुआ बोला ।
“मेरे लिये पत्र !” - सुनील हैरानी से बोला ।
“जी हां !”
सुनील ने हाथ बढाकर लिफाफा ले लिया ।
स्टीवर्ड वहां से हट गया ।
“बड़े पापुलर होते जा रहे हो उस्ताद ।” - रमाकांत बोला - “हर कोई जानता मालूम है तुम्हें । इतनी तत्परता से तो प्रधानमन्त्री की चिट्ठी भी डिलीवर नहीं की जाती ।”
सुनील ने उत्तर नहीं दिया । उसने लिफाफे को उलट-पलट कर देखा । लिफाफा सील किया हुआ था और उस पर केवल उसका नाम लिखा हुआ था । उसने सावधानी से लिफाफा खोला ।
लिफाफे में जो पहली चीज उसे दिखाई दी, वे सौ-सौ के नोट थे ।
नोटों की सूरत देखते ही रमाकांत के मुंह से सीटी निकल गई ।
रेणु भी हैरानी से कभी नोटों की और कभी सुनील को देख रही थी ।
सुनील ने नोट गिने ।
“कितने ?” - रमाकांत ने पूछा ।
“दस ।” - सुनील बोला - “एक हजार रुपया ।”
“लिफाफे में कुछ और भी तो है ?”
“हां ! देखता हूं ।”
सुनील ने देखा भीतर दो कागज और थे ।
एक किसी अखबार की कटिंग थी कागज की रंगत पीली पड़ गई थी जिससे मालूम होता था कि कटिंग कई साल पुराने अखबार की थी । उस पर एक बड़े स्वस्थ व्यक्ति की तस्वीर छपी हुई थी । तस्वीर में उस व्यक्ति का मुख्यत: चेहरा ही दिखाई दे रहा था । साथ में एक लैटर पैड के कागज के आकार का सफेद कागज था जिस पर किसी अनाड़ी ने फांसी पर लटके हुये एक आदमी का चित्र बनाने का प्रयत्न किया था । आदमी के गले में फांसी का मोटा फंदा था, उसकी जुबान मुंह से बाहर लटकी हुई थी और आंखें फटी पड़ रही थीं । ड्राइंग के नीचे मोटे अक्षरों में लिखा हुआ था - अक्लमन्द के लिये इशारा ही काफी होता है । भूल जाओ कि तुम किसी मजूमदार को जानते थे । मजूमदार की सलामती में ही तुम्हारी सलामती है ।
सुनील ने अखबार की कटिंग और फांसी की तस्वीर वाला कागज दोनों रमाकांत के सामने रख दिये ।
रमाकांत ने दोनों चीजों को देखा, सिगरेट के कुछ लम्बे कश लगाकर फिर देखा और फिर उलझनपूर्ण स्वर में बोला - “क्या मतलब हुआ इसका ?”
सुनील ने अन‍भिज्ञतापूर्ण ढंग से सिर हिला दिया ।
“किसी ने तुम्हें जान से मार डालने की धमकी तो नहीं दी है ?”
“धमकी दी है तो साथ में हजार रुपये किस खुशी में भेजे हैं और फिर न तो मेरी सूरत अखबार की कटिंग वाले आदमी से मिलती है और न फांसी पर लटके हुये आदमी से ।”
“तो फिर किस्सा क्या है ?”
“साथ में हजार रुपये के नोट न होते तो मैं समझता कि किसी ने मजाक किया है ।”
“प्यारे इसका मतलब तो कुछ जरूर है । अखबार की कटिंग सात-आठ साल पुराने अखबार में से निकाली मालूम होती है । और फिर फांसी वाली तस्वीर के नीचे जो कुछ लिखा है, वह तो किसी प्रकार की धमकी मालूम होती है ।”
“बीच में मजूमदार का भी नाम है ।” - सुनील धीरे से बोला ।
“इस रहस्य का कृति से सम्बन्ध जरूर होना चाहिये ।” - रमाकांत बोला ।
“एक बात पर तुम गौर नहीं कर रहे हो ।”
“क्या ?”
“लिफाफे पर मेरा नाम लिखा हुआ है । लिफाफा मेरे लिये ही भेजा गया है, इसमें किसी प्रकार के सन्देह की गुंजाइश नहीं है ।”
“राइट ।”
“भेजने वाले को यह कैसे मालूम था कि मैं ‘अलीबाबा’ में मौजूद हूं ।”
“क्या मतलब ?”
“मैं यहां आज तक नहीं आया । आज भी मैं संयोगवश ही यहां आ गया हूं । मैं डिनर के लिये यहां आ रहा हूं, यह बात किसी को भी मालूम नहीं थी, यहां तक कि यहां पहुंच जाने से पहले रेणु तक को मालूम नहीं थी । ‘अलीबाबा’ में कोई भी मुझे जानता नहीं है । फिर चिट्ठी भेजने वाले को यह कैसे मालूम हो गया कि मैं ‘अलीबाबा’ में हूं ?”
रमाकांत सोचने लगा ।
“और फिर स्टीवर्ड सीधा हमारी मेज पर आया था । उसने सुनील कुमार चक्रवर्ती को दांये-बांये कहीं पूछा नहीं था ।”
“मतलब यह कि उसे मालूम था कि तुम यहां बैठे हो ?”
“ऐसा ही मालूम होता है ।”
“स्टीवर्ड से बात करें ?”
“वह इधर ही आ रहा है ।” - रेणु बोली ।
स्टीवर्ड फिर उनकी टेबिल के समीप आ खड़ा हुआ । उसने विचित्र नेत्रों से सुनील की ओर देखा और फिर प्रत्यक्षत: भावहीन स्वर में बोला - “आपका टेलीफोन है, सर ।”
“मेरा ?” - सुनील बोला ।
“जी हां ।”
सुनील ने हैरानी से रमाकांत की ओर देखा ।
रमाकांत के चेहरे पर भी यही प्रतिक्रिया अंकित थी ।
“कहां ?” - सुनील ने स्टीवर्ड से पूछा ।
“रिसैप्शन पर ।” - स्टीवर्ड बोला ।
सुनील उठा और स्टीवर्ड के साथ हो लिया ।
“जो चिट्ठी थोड़ी देर पहले तुम मुझे देकर गये थे ।” - सुनील ने स्टीवर्ड से पूछा - “वह तुम्हें किसने दी थी ?”
“मुझे डोरमैन ने दी थी ।” - स्टीवर्ड बोला - “डोरमैन को कोई टैक्सी वाला देकर गया था ।”
“तुम्हें या डोरमैन को यह कैसे मालूम था कि मेरा नाम सुनील कुमार चक्रवर्ती है और मैं हाल में कहां बैठा हूं ?”
“हमें नहीं मालूम था । दरअसल टैक्सी वाला ही डोरमैन भी बताकर गया था कि चिट्ठी सुनील कुमार चक्रवर्ती के लिये है और आगे बैड स्टेन्ड के दांई ओर की तीसरी टेबल पर बैठे हैं । यही बात डोरमैन ने मुझे बता दी ।”
“टैक्सी वाला रेस्टोरेन्ट के भीतर आया था ?”
“जी नहीं । मैंने कहा न, वह डोरमैन को ही चिट्ठी देकर चला गया था ।”
फिर इसे कैसे मालूम था कि मैं भीतर हाल में कहां बैठा हूं - सुनील ने मन ही मन सोचा । स्टीवर्ड से ऐसा कोई सवाल पूछना बेकार था ।
सुनील हाल में बिछी मेजों के बीच में से गुजरता हुआ स्टीवर्ड के साथ रिसैप्शन पर पहुंच गया ।
रिसैप्शन रेस्टोरेन्ट के मुख्य द्वार से भीतर प्रविष्ट होते ही दांई ओर दीवार के साथ एक छोटा सा डेस्क था ।
स्टीवर्ड ने टेलीफोन के क्रेडिल से अलग डेस्क पर पड़ा रिसीवर उठाकर सुनील को दे दिया और स्वयं वहां से हट गया ।
सुनील ने रिसीवर उठाकर कान से लगा लिया ।
उसी क्षण उसकी दृष्टि डेस्क से थोड़ा हटकर खड़े एक पाइप पीते हुये आदमी पर पड़ी ।
वह ‘अलीबाबा’ का मैनेजर देसाई था ।
केवल एक क्षण के लिये दोनों की दृष्टि मिली और फिर देसाई बैंड स्टैन्ड की ओर देखने लगा ।
“हल्लो ।” - सुनील माउथपीस में बोला - “मैं सुनील बोल रहा हूं ।”
“ओह सुनील ।” - दूसरी ओर से एक घबराया हुआ स्त्री स्वर सुनाई दिया - “तुम मेरी आवाज पहचान सकते हो ?”
“मैं नहीं पहचान पाया ।” - सुनील उलझनपूर्ण स्वर में बोला ।
“मैं पिछले सप्ताह तुमसे नेपोली के बार में मिली थी ।”
“ओह तुम !” - सुनील बोला । दूसरी ओर से कृति बोल रही थी - “इतने दिनों कहां गायब रही तुम ? उस दिन नेपोली में तुम मैं अभी आई कहकर दोबारा लौटी हीं नहीं । मैंने सारे राजनगर में...”
“सुनील ।” - कृति उसकी बात काटकर बोली - “मेरी बात सुनो, भगवान के लिये, मेरी बात सुनो । मैं तुम्हारे सवालों का फिर जवाब दूंगी । पहले जो मैं कहना चाती हूं वह सुनो ।”
सुनील ने प्रतिवाद करना चाहा लेकिन फिर अपना इरादा बदल दिया ।
“कहो ।” - वह बोला ।
उसी क्षण सुनील की दृष्टि उस ओर उठ गई जहां उसने देसाई के देखा था । देसाई अपने स्थान पर नहीं था और हाल में भी कहीं दिखाई नहीं दे रहा था ।
“तुम्हें मेरी चिट्ठी मिल गई होगी ?” - कृति ने व्यग्र स्वर में पूछा ।
“चिट्ठी ! तुम उस चिट्ठी का जिक्र कर रही हो, जिसमें सौ-सौ के नोट और...”
“हां... हां वही ।”
“तो वह चिट्ठी तुमने भेजी थी ?”
“हां सुनील मुझे बीच में टोको नहीं और जल्दी से मेरी बात सुनो ।”
“कहो ।”
“उस लिफाफे में मौजूद रुपये तुम्हारे लिये हैं और बाकी के कागज तुम्हें रासबिहारी नाम के एक साहब के पास जितनी जल्दी हो सके पहुंचाने हैं ।”
“रासबिहारी ?”
“हां । उनका पता है, 112 - गोखले मार्ग । तुम रासबिहारी को वे कागज देते समय मेरा नाम हरगिज मत बताना । तुम केवल यही कहना कि तुम अपने किसी मित्र के कहने पर ये कागजात उस तक पहुंचाने आये हो और अपना परिचय देते समय तुम उसे यह बताना मत भूतलना कि तुम ब्लास्ट के क्राइम रिपोर्टर हो ।”
“लेकिन इन तमाम बातों का मतलब क्या है ?”
“मतलब समझाने का समय नहीं है । मैं फिर कभी सब कुछ बताऊंगी तुम्हें ।”
“जिस मामले में तुम मेरी मदद लेना चाहती थी, क्या रासबिहारी का उससे कोई सम्बन्ध है ?”
“हां ।”
“क्या ?”
“मैं तुम्हें फिर बताऊंगी ।”
“कम से कम यह तो बता दो कि उस रोज नैपोली से तुम काले सूट वाले को देखकर भागी थीं न ।”
“हां ।”
“तुम बोल कहां से रह हो ? और तुम्हें यह कैसे मालूम हुआ कि इस समय मैं अलीबाबा में हूं ।”
“सुनील मैं भी... ओह... ओह...”
फिर एकाएक दूसरी ओर से आवाज आनी बन्द हो गई ।
“हैलो... हैलो ।” - सुनील व्यग्र स्वर से बोला - “हैलो ।”
दूसरी ओर से उत्तर नहीं मिला लेकिन उसे ओपन लाइन की सांय-सांय सुनाई देती रही । अभी तक सम्बन्ध विच्छेद नहीं हुआ ।
“हैलो... हैलो... हैलो...”
अन्त में सुनील ने रिसीवर को क्रेडिल पर रख दिया ।
“इस टेलीफोन का नम्बर क्या है ?” - उसने डेस्क के पीछे खड़े क्लर्क से पूछा ।
“42427” - क्लर्क ने बताया ।
“यह डायरेक्ट लाइन है ?”
“इस वक्त तो डायरेक्ट लाइन है लेकिन आपरेटर की ड्यूटी खत्म होने से पहले तक बोर्ड से एक्सटेंशन रहती है ।”
“आई सी ।” - सुनील बोला । उसने टेलीफोन का रिसीवर फिर उठाकर कान से लगाया । लाइन अभी भी नहीं काटी थी ।
सुनील वापिस अपनी टेबल पर लौट आया ।
“किसका फोन था ?” - रमाकांत ने उत्सुक स्वर से पूछा ।
“कृति मजूमदार का ।” - सुनील बोला - “बाकी बातें बाद में बताऊंगा । पहले तुम फौरन एक काम करो ।”
“क्या ?”
“जिस फोन पर कृति ने मुझे फोन किया था । उसका नम्बर है 42427 लाईन अभी तक कटी नहीं । तुम्हारा टेलीफोन एक्सचेन्ज में एक सुपरवाइजर दोस्त है न वह एक्सचेन्ज से यह पता लगा सकता है कि 42427 पर काल कहां से की गई थी ।”
“रात के दस बजे हैं भाई ।” - रमाकांत बोला - “इस वक्त क्या वह एक्सचेन्ज में बैठा होगा ।”
“तो उसके घर फोन करो... कुछ करो... फौरन कुछ करो ।”
“लेकिन अगर मेरे कुछ करने से पहले ही लाइन कट गई तो । आटो एक्सचेन्ज में बाद में कुछ पता नहीं लगता है ।”
“फिर हमारी किस्मत । तुम यहां से हिलो तो ।”
“अच्छा ।” - रमाकांत अनिच्छापूर्ण स्वर से बोला और उठ खड़ा हुआ ।
कैब्रे नर्तकी फिर डांस फ्लोर पर पहुंच गई थी और शीघ्र ही उसका अगला नृत्य आरम्भ होने वाला था ।
रमाकांत एक लालसा पूर्ण दृष्ट‍ि कैब्रे नर्तकी के अर्धनग्न शरीर पर डालता हुआ रेस्टोरेन्ट के मुख्य द्वार की ओर बढ गया ।
रमाकांत एक क्षण के लिये रिसैप्शन डेस्क पर रुका और फिर रेस्टोरेन्ट से बाहर निकल गया ।
नृत्य फिर आरम्भ हो गया ।
रेणु और सुनील फिर नृत्य देखने लगे लेकिन सुनील का दिमाग नृत्य में नहीं था । वह सोच रहा था - कृति ने एकाएक बात करनी क्यों बंद कर दी थी ?
लगभग पांच मिनट बाद रमाकांत वापिस लौटा ।
“टेलीफोन शंकर रोड पर स्थित नैय्यर एण्ड कम्पनी की अंग्रेजी दवाईयों की दुकान में लगे पब्लिक टेलीफोन बूथ में से किया गया था ।”
“श्योर ?”
“शत-प्रतिशत । टेलीफोन अभी तक भी कटा नहीं है ।”
सुनील ने वेटर को संकेत करके बिल लाने के लिये कहा ।
“रेणु !” - सुनील खेदपूर्ण स्वर से बोला - “मुझे अफसोस है कि प्रोग्राम एकाएक कट करना पड़ रहा है । दरअसल...”
“इट्स आल राइट ।” - रेणु मीठे स्वर से बोली - “आई अन्डरस्टेण्ड ।”
“हम यहां फिर आयेंगे ।”
“क्या जरूरत है । मैं आज भी पूरी संतुष्ट हूं ।”
“फिर भी ।”
“फिर की फिर देखी जायेगी । आज की ट्रीट के लिये धन्यवाद ।”
“शर्मिन्दा कर रही हो ।”
उसी क्षण वेटर बिल ले आया ।
सुनील ने बिल चुकाया ।
तीनों उठ खड़े हुये और बाहर की ओर चल दिये ।
रिसैप्शन पर सुनील एक क्षण के लिये रुका ।
उसने डेस्क के पीछे खड़े क्लर्क से एक लिफाफा मांगा ।
क्लर्क ने फौरन उसे लिफाफा दे दिया ।
तीनों बाहर निकल आये ।
“तुम कार पर आये हो न ?” - सुनील ने रमाकांत से पूछा ।
“हां ।”
“गुड ।” - सुनील बोला - “तुम मेरे साथ शंकर रोड चल रहे हो ?”
“और तुम्हारी फटफटिया का क्या होगा ?”
“मैं टैक्सी पर आया था और भगवान के लिये मेरी साढे सात हार्स पावर की मोटर साईकिल को फटफटिया मत कहा करो ।”
“रेणु हमारे साथ चलेगी ?”
“मैं घर जाऊंगी ।” - रेणु फौरन बोली ।
“ओके ।” - सुनील बोला ।
सुनील ने एक टैक्सी बुलवाई और उस पर रेणु को बिठा दिया ।
रेणु विदा हो गई ।
रमाकांत और सुनील रमाकांत की शानदार इम्पाला गाड़ी में बैठे ।
रमाकांत गाड़ी शंकर रोड की ओर ड्राइव करने लगा ।
“कृति से क्या बात हुई ?” - रमाकांत ने पूछा ।
सुनील ने उसे सारा वार्तालाप सुना दिया ।
“अब तो बात का कुछ सिर, पैर समझ आ रहा है ।” - रमाकांत बोला ।
“क्या समझ आ रहा है तुम्हें ?” - सुनील ने पूछा ।
“स्मगलरों के गैंग का बास रासबिहारी है ।” - रमाकांत बोला - “और कृति तुम्हारे माध्यम से उसे धमकी दे रही है कि अगर उसने उसके पति का पीछा नहीं छोड़ा तो रासबिहारी फांसी पर लटक जायेगा ।”
“कैसे लटक जायेगा ?” - सुनील बोला - “कृति के कह भर देने से तो ऐसा नहीं हो जायेगा और फिर मजूमदार की सलामती का रासबिहारी की सलामती से क्या सम्बन्ध है ? अगर रासबिहारी वाकई मजूमदार का बॉस है तो इस चिट्ठी से कृति के पति मजूमदार पर उल्टा संकट आ सकता है ।”
“पता नहीं क्या बखेड़ा है ?” - रमाकांत झुंझलाकर बोला ।
सुनील ने अखबार की कटिंग और फांसी की तस्वीर वाला कागज अलीबाबा के रिसैप्शन क्लर्क से लिये लिफाफे में बन्द किया और लिफाफे के गोंद लगे फ्लैप को गीला करके लिफाफा सील कर दिया । उसने लिफाफा फिर अपनी जेब में रख लिया ।
“मेरी खोपड़ी में बार-बार यह सवाल हथौड़े की तरह बज उठता है ।” - रमाकांत बोला - “कि कृति को यह कैसे मालूम हुआ कि तुम अलीबाबा में मौजूद हो और यही नहीं उसे यह भी मालूम था कि तुम कौन सी टेबल पर बैठे हो ।”
“सोचो ।” - सुनील बोला ।
“सोच तो रहा ही हूं लेकिन इस समस्या का कोई हल समझ में नहीं आ रहा है ।”
“अच्छी तरह सोचो ।”
“तुम कह तो ऐसे रहे हो जैसे बात तुम्हारी समझ में आ गई है ।”
सुनील ने मुस्कराते हुए स्वीकृतिसूचक ढंग से सिर हिला दिया ।
“क्या किस्सा है ?” रमाकांत ने पूछा ।
“कृति अलिबाबा में मौजूद थी ।” - सुनील शांति से बोला ।
“क्या ?”
“कृति अलिबाबा में मौजूद थी और उसने खुद मुझे बैंड स्टैंड से तीसरी टेबल पर बैठे देखा था ।”
“तुमने अलीबाबा में देखा था उसे ?”
“नहीं ।”
“तो फिर ?”
“रमाकांत तुम्हारे सवाल का यही सम्भावित उत्तर मालूम होता है कि कृति अलीबाबा में थी और उसने खुद मुझे वहां देखा था । उसके साथ जरूर कोई ऐसा आदमी था जिसकी मौजूदगी में वह मुझसे सम्पर्क नहीं स्थापित करना चाहती थी । अलीबाबा में वह अकेली तो आई नहीं होगी । अगर वह अकेली होती या उसे अपने साथी का डर नहीं होता तो वह सीधी मेरी टेबल पहुंच जाती ।”
“उसका साथी कौन हो सकता है ?”
“उसका पति ?”
“स्मगलरों के गैंग का बॉस क्यों नहीं ?”
“क्योंकि जब कृति मुझसे पहली बार मिली थी तो उसकी बातों से ऐसा मालूम होता था कि स्मगलरों के गैंग के बॉस से उसका किसी प्रकार भी मिलना जुलना है और वह भी इस हद तक कि वह अपने पति को छोड़कर बॉस के साथ अलीबाबा में आये ।”
“सम्भव है, बॉस भी कृति और उसके पति के साथ हो ?”
“सम्भव है ।” - सुनील बोला ।
“फिर ?”
“फिर कृति हमसे पहले अलीबाबा से चली गई । उसने अपनी जान-पहचान के किसी टैक्सी ड्राइवर को यह बताकर कि मैं अलीबाबा में बैठा हूं, वह लिफाफा भिजवा दिया और पब्लिक टेलीफोन से मुझे अलीबाबा में फोन कर लिया ।”
“बात तो तुम्हारी युक्तिसंगत मालूम होती है ।”
“अब सवाल यह पैदा होता है कि उसे अपने घर से टेलीफोन क्यों नहीं किया ?”
“बशर्ते कि उनके घर में टेलीफोन हो ।”
“शंकर रोड बहुत रईस लोगों की आबादी है । वहां हर घर में टेलीफोन है ।”
“उनके घर में टेलीफोन नहीं होगा या टेलीफोन खराब होगा और या फिर वह अपने पति के सामने तुम्हें टेलीफोन नहीं करना चाहती होगी ।”
“आखिरी बात ज्यादा सम्भावित मालूम होती है । उसके नैय्यर एण्ड कम्पनी से टेलीफोन करने से यह भी सिद्ध हो जाता है कि नैय्यर एण्ड कम्पनी के आस-पास ही कहीं रहती है । जब कोई आदमी घर से टेलीफोन करने निकलता है तो सबसे समीप के ही टेलीफोन पर ही जाता है ।”
“प्यारे आज तो तुम शरलाक होम्ज के भी झण्डे उखाड़ने पर तुले हुये हो ।”
“उन लोगों के घर में टेलीफोन हो या न हो इस बात की तो गारन्टी है कि कृति शंकर रोड पर ही रहती है और नैय्यर एण्ड कम्पनी के आस पास ही कहीं रहती है ।” - सुनील यूं बोला जैसे अपने आपसे कह रहा हो ।
कार के शंकर रोड पर प्रवेश करते ही रमाकांत ने कार की रफ्तार कम कर दी और आस-पास की दुकानों पर लगे बोर्डों पर दृष्टि दौड़ाने लगा ।
नैय्यर एण्ड कम्पनी का चालीस फुट लम्बा बोर्ड किसी की दृष्टि से छुपा रह पाना कठिन था । आस-पास की दुकानें बन्द हो चुकी होने की वजह से वैसे भी उस दुकान पर फौरन नजर पड़ती थी ।
रमाकांत ने नैय्यर एण्ड कम्पनी के सामने लाकर कार रोक दी ।
दोनों कार से बाहर निकल आये ।
दुकान पर डाक तार विभाग का नीला बोर्ड लगा हुआ था, जिस पर लिखा था - आप यहां से स्थानीय टेलीफोन कर सकते हैं ।
दोनों दुकान के भीतर प्रविष्ट हो गये ।
टेलीफोन बूथ एक कोने की दीवार के साथ बना हुआ था ।
दुकान के लम्बे काउन्टर के पीछे बैठे एक आदमी ने उनकी ओर देखा और फिर उन्हें टेलीफोन बूथ की ओर बढते देखकर दृष्टि झुका ली ।
दोनों बूथ में घुस गये ।
टेलीफोन का रिसीवर हुक पर लटक रहा था ।
सुनील एक क्षण चुपचाप बूथ में खड़ा रहा । फिर उसने रिसीवर पकड़ा और उसे वापिस हुक पर टांग दिया ।
वह बूथ से बाहर आ गया और काउन्टर के पीछे बैठे क्लर्क के पास पहुंचा ।
“सुनीये ।” - सुनील नम्र स्वर से बोला ।
“फरमाइये ।”
“अभी लगभग पन्द्रह मिनट पहले यहां कोई महिला टेलीफोन करने आई थी ।”
क्लर्क ने एक क्षण संदिग्ध नेत्रों से सुनील की ओर देखा और फिर बोला - “जी हां आई थी ।”
“वह महिला मेरी परिचित थी ।” - सुनील बड़े मित्रतापूर्ण स्वर से बोला - “फोन पर मुझसे बातचीत कर रही थी कि एकाएक बिना किसी पूर्वाभास के बातचीत का सिलसिला समाप्त हो गया था, जबकि लाइन भी नहीं कटी थी । मैंने सोचा कोई गड़बड़ न हो गई हो ।”
“आपको कैसे मालूम हुआ था कि वे महिला यहां से फोन कर रही थी ?” - क्लर्क ने पूछा ।
“उन्होंने मुझे बताया था ।”
क्लर्क कुछ क्षण चुप रहा और फिर बोला - “यहां फोन करने समय तो कोई गड़बड़ नहीं हुई थी लेकिन वे बहुत हड़बड़ाई हुई दुकान में घुसी थीं । उतावली में उन्होंने मुझे अठन्नी देकर दस-दस पैसे के सिक्के मांगे थे । फिर वे बूथ में घुस गई थीं और फिर एकाएक ही बूथ से बाहर निकल आई थीं और मुझे सैरीडोन की चार गोलियां देने के लिये कहा था । उसी क्षण दुकान में एक आदमी प्रविष्ट हुआ था और फिर वे दोनों बातें करने लगे थे ।”
“क्या बातें ?”
“उस आदमी ने महिला को देखते ही कड़े स्वर में कहा था - तुम यहां क्या कर रही हो - । उत्तर में महिला ने कहा था कि एकाएक उसके सिर में दर्द होने लगा था इसलिये वह सैरीडोन खरीदने आई थी । मैं महिला के इस उत्तर से बड़ा हैरान हुआ था क्योंकि मुझे ऐसा लग रहा था कि कि वास्तव में वे टेलीफोन करने आई थीं लेकिन उन्होंने उस आदमी के सामने टेलीफोन का जिक्र नहीं किया था ।”
“फिर ?”
“फिर वे दोनों इकट्ठे से बाहर चले गये थे ।”
“आदमी ने महिला को टेलीफोन करते नहीं देखा था ?”
“मेरे ख्याल से नहीं देखा था । दरअसल मुझे तो ऐसा लगा था कि उस आदमी की वजह से ही वह महिला फौरन टेलीफोन बूथ से बाहर निकल आई थी और मुझसे सैरीडोन खरीदने का बहाना करने लगी थी । टेलीफोन बूथ की शीशे की खिड़की में से दुकान से बार सड़क दिखाई देती है । शायद उस महिला ने दूर से ही उस आदमी को आते देख लिया ही और वे पहले ही फौरन टेलीफोन बूथ से बाहर निकलकर काउन्टर पर आ खड़ी हुई हो ताकि उस आदमी को यह मालूम हो सके कि वह टेलीफोन कर रही थी ।”
सुनील ने अर्थपूर्ण नेत्रों से रमाकांत की ओर देखा ।
रमाकांत के चेहरे पर कोई भाव प्रकट नहीं हुये ।
“आप उस महिला को पहचानते हैं ?” - सुनील ने फिर क्लर्क से पूछा ।
“मार्केट में कभी कभार देखा तो है लेकिन मैं यह नहीं जानता हूं कि वे कौन हैं ।” - उत्तर मिला ।
“और वह आदमी ?”
“उसे भी ऐसे ही देखा है ।”
“दोनों को पहले कभी इकट्ठे देखा है ?”
“ख्याल नहीं ।”
“वैसे कोई गड़बड़ वाली बात तो, ऐसा तो नहीं मालूम होता था जैसे वह आदमी महिला को जबरदस्ती यहां से ले जा रहा हो ?”
“सवाल ही नहीं पैदा होता । मुझे तो वे दोनों पति-पत्नी लग रहे थे ।”
“फिर ठीक है ।” - सुनील शान्ति का बनावटी सांस लेता हुआ बोला - “वर्ना मुझे पुलिस में रिपोर्ट करनी पड़ती ।”
क्लर्क कुछ नहीं बोला ।
“अब एक बात और बताइये ।”
“पूछिये !”
“आपके आस-पास कोई मजूमदार साहब रहते हैं ?”
“इस इलाके में तो कई बंगाली रहते हैं और उनमें मजूमदार भी कई हैं । आप किन मजूमदार साहब को पूछ रहे हो ?”
“जो प्रापर्टी डीलर हैं ।”
“मुझे ऐसे किसी मजूमदार साहब की जानकारी नहीं है ।”
“या आप किसी कृति मजूमदार नाम भी महिला को जानते हों ।”
“मैं नहीं जानता ।”
सुनील कुछ क्षण चुप रहा और फिर मुस्कराता हुआ बोला - “ऐनी वे, थैंक्यू वेरी मच ।”
“डोंट मेंशन ।” - क्लर्क शिष्ट स्वर में बोला ।
सुनील और रमाकांत स्टोर से बाहर निकल आये ।
“तुम्हे यह बताने की जरूरत तो नहीं है न ?” - सुनील बोला - “कि क्या करना है ?”
रमाकांत ने बुरा सा मुंह बनाया और फिर बोला - “मैं सुबह होते ही यह पता लगवाने की कोशिश करूंगा कि नैय्यर एण्ड कम्पनी के एकदम पास ऐसा कौन सा मजूमदार रहता है जो प्रापर्टी डीलर है और जिसकी पत्नी का नाम कृति मजूमदार है ।”
“और जिनका एक छोटा सा बच्चा भी है ।”
“वह तो हुआ लेकिन अब तुम पांच सौ रुपये निकालो ।”
“क्या ?”
“मुंह मत फाड़ो । तुम्हें जो बैठे बिठाये एक हजार रुपया मिल गया है उसमें से पांच सौ रुपये मुझे दो ।”
“दूंगा लेकिन अभी नहीं ।”
“अभी क्यों नहीं ?”
“शायद वे रुपये कृति को वापिस करने पड़ें ।”
“क्यों वापस करने पड़े ? वह क्या तुम्हारी अम्मा लगती है ?”
“अगर उसका काम न हुआ तो रुपये तो उसे वापिस करने ही पड़ेंगे ।”
“क्यों करनी पड़ेंगे और काम क्यों न होगा ? रासबिहारी को चिट्ठी ही तो पहुंचानी है तुमने । उसमें किसी कौन-सी अड़चन आ जायेगी ?”
“फिर भी...”
“अब टालमटोल बन्द करो और पांच सौ रुपये निकालो । अगर कृति को रुपये वापिस करने पड़े तो मैं भी तुम्हें पांच सौ रुपये लौटा दूंगा ।”
“रमाकांत, प्लीज ।”
“सुनील कुमार, प्लीज ।” - रमाकांत उसके स्वर की नकल करता हुआ बोला ।
“लानत है तुम पर ।”
“नगदऊ निकालो फिर चाहे दस गालियां और दे लेना ।”
“इतना रुपया क्या तुम अपने साथ छाती पर रख कर ले जाओगे ।” - सुनील जेब में से कृति के भेजे हुये सौ-सौ के नोट निकालता हुआ बोला ।
“यही बात तुम पर लागू होती है ।”
“मैं गरीब आदमी हूं ।”
“तुम गरीब आदमी हो...” - रमाकांत आंखें निकालता हुआ बोला ।
“और क्या ? मुशकिल से चार पैसे कमा पाता हूं उससे से भी कितना सारा रुपया तो धर्मार्थ खर्च हो जाता है ।”
“क्या ?” - रमाकांत चिल्लाया - “तुम धर्मार्थ रुपया खर्च करते हो ?”
“और नहीं तो क्या ? अभी कल ही मैंने एक प्यासे को स्काच विस्की पिलाई थी । बेचारे ने बहुत दुआयें दी मुझे । आखिर अपना परलोक भी तो सुधारना है मैंने ।”
“लोगों को विस्की पिलाना धर्म कार्य है ?”
“मुझे क्या मालूम !” - सुनील बड़ी नफरत से बोला - “वही कह रहा था कि है कोई दानी धर्मात्मा जो इस प्यासे को दो पैग विस्की पिला दे । कह रहा था जो इस लोक में किसी प्यासे को एक पैग विस्की पिलायेगा तो स्वर्ग के सबसे बड़ी बाजार में उसे विलायती शराब का ठेका अलाट हो जायेगा ।”
“लानत है तुम पर ।” - रमाकांत मुंह बिगाड़ कर बोला ।
“रमाकांत” - सुनील ने बुरा-सा मुंह बनाया - “यह बहुत खराब बात है तुम्हारी । तुम मेरी ही गाली मुझे मत दिया करो । आखिर पढे लिखे आदमी हो । सौ पचास नई गालियां भी नहीं सीख सकते तुम ।”
“अब सीखूंगा और वे सारी गालियां मैं सबसे पहले तुम्हें ही दूंगा । तुम्हारे फरिश्ते त्राहि-त्राहि न कर उठें तो मुझे कहना ।”
“वादा ।”
“पक्का वादा । अब तुम नावां दो ।”
सुनील ने सौ-सौ के चार नोट उसे दे दिये और बाकी नोट जेब में रख लिये ।
रमाकांत ने नोट गिने और फिर बोला - “अबे ये तो चार हैं ।”
“मुझे मालूम है ।”
“एक नोट और निकालो ।”
“तुम यही समझो कि तुम्हें पांच सौ रुपये मिले हैं । सौ रुपये मैंने तुम्हें फौरन नगद भुगतान करने का बीस परसेन्ट डिस्काउन्ट काटा है ।”
“यह क्या डाकाजनी है ?”
“अगर तुम्हें यह डाकाजनी मालूम होती है तो चार सौ रुपये भी लौटा दो । अगले महीने पूरे पांच सौ रुपये ले लेना । एक महीने का क्रेडिट तो सारी दुनिया में चलता है ।”
“अच्छी बात है” - रमाकांत चार सौ रुपये जेब में रखता हुआ बोला - “भगवान करे तेरी टांग टूट जाये और यही सौ रुपये तुम पलस्तर चढवाने के लिये डाक्टर को दो ।”
“वाह-वाह क्या दुआ दी है । तुम्हारे जैसे आधी दर्जन दोस्त और हो जायें तो मेरी बाकी जिन्दगी अस्पताल की ही मोहताज हो जाये ।”
रमाकांत ने बुरा सा मुंह बनाया और कार की ड्राइविंग सीट पर जा बैठा ।
सुनील भी कार के सामने से घूमकर दूसरी ओर से उसकी बगल में आ बैठा ।
रमाकांत ने गाड़ी स्टार्ट कर दी ।
“रमाकांत !” - एकाएक सुनील ने हाथ बढाकर इग्नीशन बन्द कर दिया ।
“क्या हुआ ?” - रमाकांत हैरानी से बोला ।
“क्यों न रासबिहारी से अभी मिला जाये ?”
“अभी ?”
“हां कृति ने कहा था कि मुझे जल्दी से जल्दी रासबिहारी को यह चिट्ठी पहुंचानी चाहिये ।”
“वह तो ठीक है लेकिन ग्यारह बज गये हैं । यह कोई वक्त है किसी के घर जाने का । अब तो वह सो भी गया होगा ।”
“शायद न सोया हो । बहुत से लोग देर से सोने के आदि होते हैं ।”
“लेकिन फिर भी किसी शरीफ आदमी के घर इस समय जाना मुझे तो ठीक नहीं मालूम होता ।”
“यह तुमने कैसे सोच लिया कि रासबिहारी कोई शरीफ आदमी होगा । हम तो उसके स्मगलरों के गैंग का बास होने की अपेक्षा कर रहे हैं ।”
“फिर भी...”
“ऐसा करते हैं । पहले उसे फोन कर लेते हैं । अगर वह कहेगा अभी आ जाओ तो चलेंगे ।”
“बशर्ते की उसके घर में फोन हो ।” - रमाकांत ने सन्देह प्रकट किया ।
“डायरेक्ट्री में देख लेते हैं ।”
“ओके ।” - रमाकांत अनिच्छापूर्ण स्वर से बोला ।
दोनों फिर कार से बाहर निकल आये और नैय्यर एण्ड कम्पनी में घुस गये ।
क्लर्क ने विचित्र नेत्रों से उनकी ओर देखा ।
“जरा टेलीफोन करना है ।” - सुनील ने बताया ।
“जरूर ।” - क्लर्क बोला ।
सुनील और रमाकांत दोनों टेलीफोन बूथ में घुस गये ।
रमाकांत डायरेक्ट्री देखने लगा ।
“रासबिहारी, 112, गोखले मार्ग ।” - रमाकान्त डायरेक्ट्री में पढता हुआ बोला - “टेलीफोन है तो सही ।”
“क्या नम्बर है ?”
रमाकान्त ने नम्बर डायल कर दिया ।
कुछ देर घण्टी बजती रही और फिर दूसरी ओर से किसी ने रिसीवर उठा लिया ।
“हल्लो !” - सुनील कायन बाक्स में सिक्के डालता हुआ बोला ।
“फरमाइये ।” - दूसरी ओर से एक धैर्यपूर्ण पुरुष स्वर सुनाई दिया ।
“कौन साहब बोल रहे हैं ?”
“रासबिहारी ।”
“नमस्कार साहब” - सुनील शिष्ट स्वर से बोला - “मेरा नाम सुनील है । आप मुझे जानते नहीं । मैं भी आपसे पहले कभी मिला नहीं हूं । एकाएक एक ऐसी आवश्यकता आ पड़ी है कि मेरा आपसे फौरन मिलना बहुत जरूरी हो गया है । अगर आप इजाजत दें तो मैं अब आपके पास हाजिर हो जाऊं ?”
“आप मुझसे किस विषय में मिलना चाहते हैं ?”
“मैंने आपके पास एक चिट्ठी पहुंचानी है ।”
“चिट्ठी !”
“जी हां ।”
“कैसी चिट्ठी ?”
“मैंने चिट्ठी खोलकर तो देखी नहीं है । इसलिये चिट्ठी कैसी है, यह तो...”
“मेरा मतलब है कि वह चिट्ठी किसने भेजी है आपके माध्यम से क्यों भेजी है, आप या चिट्ठी भेजने वाला मुझे कैसे जानता है आप उस चिट्ठी को इतना महत्वपूर्ण क्यों समझ रहे हैं ।”
“यह सब कुछ तो मैं नहीं जानता हूं ।”
“आपको विश्वास है कि वह चिट्ठी मेरे ही लिये है ।”
“जी हां, बशर्ते कि 112 गोखले मार्ग पर कोई और रासबिहारी साहब न रहते हों ।”
“112 गोखले मार्ग का अकेला निवासी मैं ही हूं, इसलिये वहां किसी और रासबिहारी के होने का सवाल ही नहीं पैदा होता ।”
“तो फिर वह चिट्ठी आप ही के लिये है ।”
“आप इस विषय में मुझे और कुछ नहीं बता सकते ।”
“अधिक कुछ तो मैं जानता नहीं हूं और टेलीफोन पर आपको चिट्ठी दे पाना सम्भव नहीं है । अगर आप मुनासिब समझते तो मैं आपके घर आ जाता हूं, फिर आप मुझसे जो पूछना चाहें पूछ लीजियेगा ।”
“जरा मुझे सोचने दीजिये ।”
“ओके ।”
सुनील रिसीवर कान में लगाये चुपचाप खड़ा रहा ।
पूरे एक मिनट बाद रासबिहारी का स्वर उसके कानों में पड़ा - “आपने तो मुझे बड़ी दुविधा में डाल दिया है ।”
“आई एम सॉरी ।”
“नो, यू नीड नाट बी । दरअसल उस चिट्ठी ने मेरी उत्सुकता जगा दी है । उस चिट्ठी के लिये अब मैं इन्तजार नहीं करना चाहता और मैं आपको फौरन यहां बुला पाने की स्थ‍िति में नहीं हूं ।”
“मैं वजह जान सकता हूं ?”
“वजह यह है कि मैं पहले ही किसी और को अपनी कोठी पर आने के लिये कह बैठा हूं । इसलिये सुनिये, आप एक घन्टा प्रतीक्षा कर सकते हैं ?”
“क्या मतलब ?”
“मतलब यह है कि मेरे मित्र सवा ग्यारह बजे मेरे पास पहुंच जायेंगे । आधे घन्टे से अधिक वे मेरे पास नहीं ठहरेंगे । अगर आप उसके बाद तशरीफ ला सकें तो...” - रासबिहारी ने जान-बूझकर वाक्य अधूरा छोड़ दिया ।
“मुझे कोई ऐतराज नहीं है ।” - सुनील बोला - “मैं बारह बजे के करीब आपके पास पहुंचा जाऊंगा ।”
“आपको कोई असुविधा तो नहीं होगी ?”
“असुविधा कैसी ? आधे पौने घन्टे में क्या फर्क पड़ता है और फिर काम तो मेरा है । सवाल तो आपकी असुविधा का है अगर आपको असुविधा नहीं होगी तो मुझे असुविधा होने का सवाल ही पैदा नहीं होता ।”
“ओके मिस्टर सुनील । बारह बजे के करीब आप यहां आ जाइये । मैं आपका इन्तजार करूंगा ।”
“ओके ।” - सुनील बोला - “थैंक्यू वैरी मच ।”
सुनील ने रिसीवर हुक पर लटका दिया ।
दोनों फिर दुकान से बाहर निकल आये ।
“क्या हुआ ?” - रमाकान्त ने पूछा ।
“बारह बजे आने को कह रहा है ।”
“एक घन्टा क्या भुट्टे भुनेंगे ।”
“एक घन्टा गुजारने के लिये भुट्टे भूनने से कोई बेहतर तरीका नहीं सोच सकते तुम ?”
“सोच सकता हूं । सोच लिया है ।”
“क्या ?”
“यहां से गोखले मार्ग पैदल चल दो । जब तक रासबिहारी के घर के आगे पहुंचेंगे, बारह बज चुके होंगे ।”
“गोखले मार्ग यहां से कम से कम आठ मील दूर है । इतना फासला पैदल चल सकते हो ?”
“नहीं चल सकता ।”
“तो फिर ऐसी वाहियात राय क्यों देते हो ?”
“राय तो मैंने तुम्हारे लिये दी है । वक्त गुजारना तो तुम्हारे लिये समस्या है । पैदल तो तुम चलोगे । मैं तो कार पर जाऊंगा ।”
“बकवास मत करो, यार ।”
“ओके बास ।”
दोनों कार में जा बैठे ।
“कहां चलूं ?” - रमाकान्त कार स्टार्ट करता हुआ बोला ।
“किसी रेस्टोरेन्ट में चलो ।” - सुनील बोला ।
“वहां क्या होगा ?”
“वहां एक-एक काफी पियेंगे । आठ-आठ सिगरेट पियेंगे । तब तक बारह बज जायेंगे । फिर गोखले मार्ग चलेंगे ।”
रमाकान्त ने उत्तर दिये बिना कार को गियर में डाल दिया ।