सुनील उस समय बाथरूम में था और गला फाड़, फाड़कर ‘कम सैप्टम्बर’ टाइटल ट्यून की टांग तोड़ रहा था ।
“सोनू !” - प्रमिला बाथरूम का द्वार खटखटाती हुई बोली ।
पहले पानी गिरने की आवाज बन्द हुई और फिर कम सैप्टम्बर की स्वर लहरियां ।
“क्या है ?” - सुनील झल्लाये स्वर में बोला ।
“कोई तुम से मिलने आया है ।”
“किस सिलसिले में ?”
“बिजनेस ।”
“उसे कह दो फिर आये । आज मैं बिजी हूं ।”
“आज कौनसा भाड़ झोंकने वाले हो ?”
“आज मैं शहर की सबसे खूबसूरत लड़की के साथ तफरीह के लिए जाने वाला हूं ।”
“लेकिन यह जरूरी थोड़े ही कि सबसे खूबसूरत लड़की माडर्न भी हो । हो सकता है तुम्हारी पसन्द सैक्स के नाम पर तुम्हें घास भी न डाले ।”
“क्या मतलब ?” - सुनील उलझ कर बोला ।
“मतलब यह कि इस समय तुम्हारे ड्राइंगरूम में जो महिला बैठी है, वह अब से भी एक सदी आगे की चीज मालूम होती है और बेचारी बड़ी हसरत से तुम्हारा इन्तजार कर रही है । अगर आज तुमने उससे मिलने से इन्कार कर दिया तो भगवान ही जानता है उसके दिल पर क्या गुजरेगी ।”
“ये बात है ?”
“बिल्कुल सुनील साहब ! सौ फीसदी यही बात है ।”
“तुम जलोगी तो नहीं ?”
“मेरी जूती जलती है । अगर ऐसी बात होती तो मैं उसे दरवाजे से ही विदा न कर देती !”
“ओ के ।” - सुनील बोला - “तुम मेरा सबसे शानदार सूट निकालकर रखो, मैं आ रहा हूं ।”
“अच्छा !”
और प्रमिला वार्डरोब की ओर बढ गई ।
सुनील तौलिया लपेटे हुए ही बाहर निकल आया ।
“क्या नाम है उसका ?” - वह जल्दी-जल्दी कपड़े पहनते हुए बोला ।
“कला... कलावती । किसी स्टेट की महारानी मालूम होती है ।”
“तुम भी चलो ।” - सुनील टाई की गांठ ठीक करता हुआ बोला ।
“मैं यहां ठीक हूं । मेरे सामने वह तुमसे खुलकर बात नहीं कर सकेगी ।”
सुनील प्रतिवाद किये बिना बाहर चला गया । ड्राइंग रूम में कदम रखते ही वह ठिठककर खड़ा हो गया ।
सोफे पर सफेद बालों वाली बेहद रोबदार वृद्धा बैठी हुई थी उसने बहुमूल्य वस्त्र पहने हुए थे, चेहरे पर कठोरता थी और चमकदार भूरी आंखों में दूसरे को गूंगा बना देने वाला रौब था ।
वृद्धा का ध्यान अपनी ओर आकर्षित देखकर सुनील आगे बढा ।
“वह आपकी पोती कहां गई ?” - वह समीप आकर बोला ।
“कौन ?” - वृद्धा हैरान होकर बोली ।
“आपकी पोती या जो कुछ भी वह आपकी लगती है ? मेरा मतलब कलावती से है ।”
“मजाक मत करो बेटे ।” - वृद्धा बोली - “मैं ही कलावती हूं । और अगर तुम सुनील हो तो मास्टर की मार से डरने वाले प्राईमरी स्कूल के बच्चे की तरह वहां खड़े मत रहो, मेरे सामने आकर बैठो । मुझे तुम्हारी जरूरत है ।”
सुनील किसी आज्ञाकारी बच्चे की तरह सोफे के सामने की कुर्सी पर जा बैठा ।
“मेरी एक पोती है दीपा ।” - कलावती बिना भूमिका बांधे बोली - “मैंने उसे पाल-पोसकर बड़ा किया है । मर्जी के लड़के से उसकी शादी की है और मेरे स्वतन्त्र विचारों की भरपूर छाप उस पर भी है । इस समय दीपा एक छः वर्ष की बच्ची की मां है लेकिन उसकी लापरवाही और गैरजिम्मेदार आदतें अब भी वैसी ही हैं जैसी कालेज के समय थीं । अपनी इन्हीं आदतों के कारण अब वह एक भारी मुसीबत में फंसने वाली है ।”
“यानी मुसीबत अभी आई नहीं ?” - सुनील वृद्धा के अन्तिम शब्दों पर गौर करता हुआ बोला ।
“नहीं ।”
“मामला क्या है ?” - सुनील दिलचस्पी लेता हुआ बोला । उसका रिपोर्टर दिमाग जाग उठा था । अब वह अखबार के लिए मैटर की नजर से परख रहा था ।
“तुमने कभी ‘धरती का स्वर्ग’ नाम की किसी चीज के बारे में सुना है ?”
“अधिक तो नहीं ।” - सुनील बोला - “केवल इतना कि यह एक पानी के जहाज का नाम है जो मैरीना बीच से तीन मील दूर पानी में खड़ा है । जहाज पर बड़े ऊंचे पैमाने पर जुआ होता है लेकिन क्योंकि समुद्र में तीन मील के बाद किसी एक राष्ट्र का हक नहीं होता इसलिए हमारी पुलिस उस जुए के अड्डे पर कोई नियन्त्रण नहीं रख सकती । जुएघर के संचालकों ने लोगों को मैरीना बीच से जहाज तक ले जाने के लिए स्टीमरों का इन्तजाम किया हुआ और जुआरी...”
“इतना ही काफी है ।” - कलावती हाथ उठाकर लोली - “इतना और जान लो कि इस ‘धरती के स्वर्ग’ के मुरलीधर और दीनानाथ नाम के दो साझीदार हैं । इन्हीं दोनों के कारण दीपा मुसीबत में फंसने वाली है ।”
“क्यों ?”
“दीपा को जुआ खेलने की चस्का है । वह कई बार उस जुआघर में जा चुकी है । पिछली बार वह बहुत रुपया हार गई । फिर उसने मुरलीधर से सात हजार रुपये उधार लिए और उन्हें भी गवां दिया । मुरली ने दीपा से सात हजार रुपये का प्रोनोट लिखवा लिया है ।”
“और आप यह चाहती हैं कि वह कागज, वह प्रनोट, आपको एक पैसा भी खर्च किए बिना वापिस मिल जाए ।”
“हरगिज नहीं । अगर दीपा ने सात हजार रुपये लिये हैं तो चाहे उसने रुपये जुए में खोए या कुंए में डाले, मैं मुरली को सात हजार अदा करूंगी लेकिन ब्लैकमेल के नाम पर धेला नहीं दूंगी ।”
“आप कहना क्या चाहती हैं ?” - सुनील हैरान होकर बोला - “अगर प्रोनोट सात हजार रुपये का है तो मुरलीधर इस से अधिक रकम की मांग कर ही कैसे सकता है ? ब्लैकमेलिंग का तो सवाल ही नहीं...”
“तुम सुनो तो सही, बरखुदार ।” - कलावती उसे टोककर बोली - “बात इतनी सीधी नहीं है जितनी तुम समझ रहे हो, होती तो मैं तुम्हारी सहायता मांगने न आई होती । मुरलीधर के कान में कहीं से भनक पड़ गई है कि दीपा का पति रवीन्द्र दीपा के लिखे कागज को सात हजार रुपये से अधिक में भी खरीदने के लिए तैयार है ।”
“क्यों ?”
“क्योंकि रवीन्द्र दीपा से तलाक लेना चाहता है । उस प्रोनोट की सहायता से वह यह सिद्ध करने में सफल हो जाएगा कि दीपा को जुए की लत है इसलिए रुपये-पैसे के मामले में उसका भरोसा नहीं किया जा सकता । साथ ही मां की यह गन्दी आदतें उनकी लड़की पर बुरा प्रभाव डाल सकती हैं । बबली का बाबा यानी कि मेरा बेटा उसके लिए लाखों रुपये को वसीयत कर गया है । रवीन्द्र चाहता है कि वह दीपा से तलाक ले ले और उसकी जुए की आदतों के आधार पर उसे कोर्ट द्वारा बबली की सरपस्ती के लिए अयोग्य सिद्ध कर दे । इस प्रकार बबली पर उसका अधिकार हो जाएगा और वह उसको मिलने वाले रुपयों का एकमात्र ट्रस्टी बन जाएगा ।”
“इसमें मैं किस प्रकार सहायक सिद्ध हो सकता हूं ?”
“बताती हूं । मैं तुम्हें वह कागज वापिस लाने के लिए रुपये दूंगी । शायद मुरलीधर सात हजार से ज्यादा मांगे । मैं चार-पांच हजार रुपये अधिक भी देने के लिए तैयार हूं क्योंकि यदि रवीन्द्र उन्हें सात के आठ हजार देने के लिए तैयार हो जाए तो निश्चय ही वे दीपा से नौ की आशा करेंगे ।”
“लेकिन आप यह काम मेरे से क्यों करवाना चाहती हैं ? दीपा को रुपया दे दीजिए । वह अपना लिखा हुआ कागज मुरलीधर से वापिस ले आयेगी ।”
“नहीं ।” - वृद्धा नकारात्मक ढंग से सिर हिलाकर बोली - “मैं दीपा को भी तो सबक देना चाहती हूं । इस कागज के मारे आजकल उसकी जान सूली पर टंगी रहती है । अगर मैंने सीधे उसके हाथ में रुपये देकर उसे चिन्तामुक्त कर दिया तो उसकी यह बुरी आदत कभी भी नहीं जायेगी ।”
“बड़ा अजीब-सा काम दे रही हैं आप मुझे ।” - सुनील धीमे स्वर में बोला । यह कलावती के प्रभावशाली व्यक्तित्व की ही करामात थी कि सुनील अपने स्तर से कहीं नीचे के इस कार्य को स्वीकार कर रहा था । अगर यहीं ऑफर किसी पुरुष की ओर से आई होती तो वह कब का सुनील के फ्लैट से बाहर होता ।
“लेकिन तुम्हें इसमें किसी प्रकार का घाटा नहीं होगा । इतने से काम के लिए ही तुम्हें एक हजार रुपये अभी दूंगी और इतने ही काम की समाप्ति पर ।”
“बेहतर ।”
कलावती ने गिनकर पन्द्रह हजार रुपये मेज पर रख दिये ।
“क्या वे लोग रवीन्द्र तक पहुंच चुके हैं ?”
“अभी नहीं । लेकिन अगर उन्हें दीपा की ओर से कोई ऊंची ऑफर नहीं मिली तो वे रविन्द्र से सौदा पटाने में देर नहीं लगायेंगे ।”
सुनील चुप रहा ।
कलावती उठ खड़ी हुई - “सुनील, मुझे पूरा भरोसा है कि अगर कोई उन बदमाशों से निपट सकता है तो वह तुम ही हो ।”
“थैंक्स फार दी कम्पलीमेन्ट ।” - सुनील शिष्टता से बोला ।
“ओ के, विश यू गुड लक ।” - वृद्धा बोली और सुनील के फ्लैट से बाहर निकल गई ।
“ओ, प्रमिला की बच्ची ।” - वृद्धा के दृष्टि से ओझल होते ही सुनील चिल्लाया ।
“धीरे बोलो, मैं बहरी नहीं हूं ।” - प्रमिला, जो द्वार के पीछे खड़ी सब कुछ सुन रही थी, सामने आकर बोली ।
“तो यह थी अब से एक सदी आगे की चीज ।” - सुनील दांत पीसकर बोला ।
“तो इसमें गलत क्या कहा था मैंने ! देखा नहीं, कैसी ठाठदार औरत थी ?”
“मेरे सारे प्रोग्राम का सत्यानाश करवा दिया तुमने ।”
“ओह ! घर बैठे-बिठाये इतने रुपये मिल गये, ऊपर से झुंझलाहट दिखा रहे हो ।”
“लेकिन लड़की तो हाथ से निकल गई ।”
“सुनील साहब !” - प्रमिला दार्शनिक भाव से बोली - “लड़की और बस के हाथ से निकल जाने पर पछताने से भारी मूर्खता कोई नहीं होती । जिस तरह कुछ देर प्रतीक्षा करने से दूसरी बस मिल जाती है, उसी तरह दूसरी लड़की भी...”
“खैर गोली मारो ।” - सुनील गम्भीर होता हुआ बोला - “तुम जरा रमाकांत को फोन करो ।”
“क्या इरादा है ?”
“पम्मी, मुरलीधर को फंसाने की एक तरकीब है मेरे दिमाग में । देखें वह हत्थे चढता है या नहीं ।”
“और अगर वह न फंसा ?”
“तो दूसरा जाल बिछायेंगे ।”
“ऐज यू लाइक ।” - प्रमिला बोली । उसने रमाकांत की यूथ क्लब के नम्बर डायल किये और रमाकांत के फोन पर आते ही फोन सुनील के हाथ में दे दिया ।
“रमाकांत !” - सुनील रिसीवर लेकर बोला ।
“बोलो प्यारयो !” - रमाकांत की आवाज आयी ।
“रमाकांत, मुरलीधर नाम के किसी जुआरी के विषय में कुछ जानते हो ?”
“वह ‘धरती का स्वर्ग’ वाला ?”
“हां ।”
“कभी सूरत तो नहीं देखी । वैसे सुना बहुत है उसके विषय में ।”
“कैसा आदमी है ?”
“बेहद हरामजादा ! पत्थर की तरह कठोर आदमी है । पहले शहर में जुआघर चलाया करता था लेकिन हर बार पकड़कर जेल में ठूंस दिया जाता था, फिर न जाने किसने उसे यह सुझाव दिया कि धरती से तीन मील दूर का समुद्र फ्री टैरीटरी होता है जहां पुलिस उसका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती । नतीजा धरती के स्वर्ग की सूरत में तुम्हारे सामने है । धड़ल्ले में जुआघर चला रहा है वह । लेकिन तुम्हारी क्या दिलचस्पी है उसमें ?”
“सुनो ।” - सुनील माउथपीस के बिल्कुल समीप मुंह लाकर स्पष्ट स्वर में बोला - “दीपा नाम की एक विवाहित महिला मुरलीधर को सात हजार रुपये का प्रोनोट लिखकर दे आई है । उसके पास इस समय अपना लिखा कागज वापिस लेने के लिए रुपये नहीं हैं जबकि उसका पति उस कागज को हथियाने के लिए सात हजार से अधिक भी देने के लिये तैयार है । इसमें मेरी दिलचस्पी यह है कि वह कागज पति के हाथ नहीं पहुंचना चाहिए ।”
“लेकिन हम मुरलीधर को मुनाफे में वह कागज पति को बेचने से रोक ही कैसे सकते हैं ?”
“मेरे दिमाग में एक स्कीम है ।” - सुनील धीरे से बोला ।
“तुम्हारे दिमाग में एक स्कीम है ?” - रमाकांत व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोला - “जो या तो हमें जेल में पहुंचा देगी या फिर मुरलीधर के हाथों कत्ल होने के बाद हमारी लाशें समुद्र में तैर रही होंगी ।”
“भई, सुनो तो सही ।”
“मैं कोई गैरकानूनी काम नहीं करूंगा ।” - रमाकांत सचेत स्वर में बोला ।
“तुम्हें कहता कौन है गैरकानूनी काम करने को । तुम किसी भी बैंक में जाकर रवीन्द्र कुमार के नाम से एक हजार रुपये का नया एकाउंट खुलवा लो । बैंक के रिकार्ड में अपने साइन के स्थान पर रवीन्द्र कुमार लिख दो ।”
“रविन्द्र कुमार कौन है ?”
“दीपा का पति ।”
“लेकिन यह तो जालसाजी है ।”
“तुम्हारा तो सिर फिर गया है । किसी भी व्यक्ति को कोई भी नाम धारण कर लेने का पूरा अधिकार होता है बशर्ते कि वह किसी को धोखा न दे रहा हो और विश्वास करो कि हम किसी को धोखा नहीं दे रहे हैं ।”
“अच्छा, एकाउन्ट खुल जाएगा । फिर ?”
“फिर हम धरती के स्वर्ग पर चलेंगे । वहां तुम जानबूझ कर जुए में दो-तीन सौ रुपये हार जाओगे । तुम पांच सौ रुपये का एक चैक लिखोगे, उस पर रवीन्द्रकुमार के साइन करोगे और इन्चार्ज से पूछोगे कि क्या वह उस चैक को स्वीकार कर लेगा ? इन्चार्ज चैक को मुरलीधर के पास ले जाएगा । मुरलीधर समझेगा कि दीपा का पति जहाज पर आ गया है । वह इसे दीपा का प्रोनोट महंगे दामों में पति के हाथ बेचने का अच्छा संयोग समझेगा । वह तुम्हें आफिस में बुलाकर पूछताछ करनी शुरू कर देगा । तुम बहाना बनाओगे कि तुम वह रवीन्द्रकुमार नहीं जो वह तुम्हें समझ रहा है लेकिन कहने का तरीका ऐसा होगा कि मुरलीधर को पूरा विश्वास हो जायेगा कि तुम झूठ बोल रहे हो, यानी कि तुम ही वास्तव में दीपा के पति हो, फिर वह तुम्हें दीपा का डिमान्ड नोट बेचने की चेष्टा करेगा । समझे ?”
“कहते चलो ।”
“अब पोजीशन यह होगी रमाकांत । अगर दीपा का पति सात हजार के उस कागज के सात हजार से अधिक नहीं देगा तो कोई भी नहीं देगा । उन्हें झक मारकर सात हजार में ही वह कागज दीपा को लौटाना पड़ेगा । तुम ऐसे जाहिर करोगे जैसे वह कागज खरीदने से तुम्हें कोई भारी फर्क तो पड़ता नहीं है लेकिन फिर भी तुम उसके लिए एक डेढ हजार रुपया अधिक देना स्वीकार कर सकते हो । दीपा से तो उसे सात हजार से अधिक मिलेंगे नहीं इसलिए मुरलीधर तुम्हारी लगाई कीमत स्वीकार करने पर मजबूर हो जायेगा ।”
“कहीं फंस न जायें, करमावालयो ।”
“प्रश्न ही नहीं उठता फंसने का । तुम तो हर मिनट बाद यह कहोगे कि तुम वह रवीन्द्र नहीं जो वह तुम्हें समझ रहा है । वह यही समझेगा कि तुम झूठ बोल रहे हो ।”
“भई, मुझे तो घपला नजर आता है इस स्कीम में ।”
“आखिर तुम चाहते क्या हो ?” - सुनील तंग आकर बोला ।
रमाकांत चुप रहा ।
“अगर मैं तुम्हारे साथ रहूं और तुम्हारे स्थान पर मैं बात करूं मुरलीधर से तो चलेगा ?”
रमाकान्त फिर भी चुप रहा ।
“रमाकान्त ।” - सुनील बोला - “दो घन्टे में पांच सौ रुपये कमाना चाहते हो ?”
“हां !” - वह धीरे से बोला । रमाकान्त के लिये रुपये का लालच छोड़ना बहुत मुश्किल काम था ।
“तो जो मैं कहता हूं करो, तुम्हारी सुरक्षा की जिम्मेदारी मैं लेता हूं । बोलो मन्जूर ?”
“मन्जूर ।”
“तो आज रात को हम धरती का स्वर्ग देखेंगे । ओ के !”
“ओ के !” - रमाकान्त बोला ।
***
सुनील और रमाकांत ऊंचे कालरों के लम्बे ओवरकोटों में ढंके हुए मैरीना बीच पर खड़े थे । रमाकांत बुरी तरह चार मीनार फूंक रहा था ।
“यार मेरा तो दिल धड़क रहा है ।” - रमाकांत नर्वस स्वर में बोला ।
“तो इसमें हैरानी की कौन-सी बात है ? दिल तो धड़कना ही चाहिए । अगर दिल धड़कना बन्द हो गया तो तुम मर नहीं जाओगे ?” - सुनील बोला ।
उसी समय मोटरबोट आ गई । जुए के शौकीन कुछ और लोगों के साथ वे भी मोटरबोट में जा बैठे ।
लगभग दस मिनट बाद वे धरती के स्वर्ग में थे ।
हाल में बड़े ऊंचे पैमाने पर जुए का इन्तजाम था । देशी-विदेशी हर प्रकार के खेलों का इन्तजाम वहां था लेकिन सबसे अधिक भीड़ फ्लैश और रोलेट की मेजों पर थी ।
“अब ?” - रमाकांत ने पूछा ।
“अब क्या ? किसी एक मेज पर जाकर जुआ खेलना शुरू कर दो । छोटे-मोटे दांव लगाओ । सबका ध्यान अपनी ओर आकर्षित करो और जब तीन सौ रुपये हार जाओ तो चैक लिख देना ।”
“और तुम ?”
“मैं भी तुम्हारे आसपास ही रहूंगा ।”
“ओ के ।”
सुनील भीड़ में मिल गया । रमाकान्त रौलेट की एक टेबल पर जम गया ।
लगभग आधे घन्टे बाद सुनील रमाकान्त के पीछे आ खड़ा हुआ ।
“क्या पोजीशन है ?” - उसने धीमे स्वर में पूछा ।
“यार, मैं तो जीते ही जा रहा हूं । इस समय लगभग पन्द्रह सौ रुपये अप हूं ।” - रमाकान्त की आंखें लालच से चमक रही थीं ।
“लानत ।” - सुनील दांत पीसकर बोला - “उठो यहां से ।”
“लेकिन...”
उत्तर में सुनील ने रमाकांत के मेज के नीचे छुपे घुटनों में इतनी जोर से ठोकर मारी कि वह बिलबिलाकर खड़ा हो गया । सुनील उस हाल के एक कोने में ले गया ।
“तुम्हारा दिमाग तो खराब नहीं हो गया है रमाकान्त ?” - सुनील झल्लाकर बोला - “प्यारेलाल, तुम्हें जीतना नहीं, हारना है ताकि तुम चैक लिखो और हम उसके जरिए मुरलीधर के पास पहुंच सकें ।”
“तुम्हें तगदाऊं आता बुरा लगता है क्या ?” - रमाकान्त ने प्रतिवाद किया ।
“नहीं, लेकिन इस बार मैं नगदऊ जाता हुआ ही देखना पसन्द करूंगा और अगर तुम्हें जुए का इतना ही शौक है तो कभी फिर आकर अपने रुपए से खेलना ताकि ये तुम्हारे कपड़े तक उतरवाकर घर भेजें तुम्हें ।”
रमाकान्त चुप रहा ।
“अब किसी दूसरी मेज पर जाकर खेलो और याद रखो तुमने अपनी जेब की पाई-वाई हार देनी है । लोग जानते हैं तुमने रुपया जीता है इसीलिए अगर काफी बड़ी रकम हार देने से पहले ही तुमने चैक लिख मारा तो सबको शक हो जाएगा । ओ के ?”
“ओ के !” - रमाकान्त बड़ी शराफत से बोला ।
“और अगर इस बार कोई घपला किया तो, रमाकान्त, सच कहता हूं, समुद्र में धक्का दे दूंगा ।”
रमाकान्त वहां से हटकर फ्लैश की मेज पर आ जमा ।
पहले कुछ मिनट तो रमाकान्त वहां भी जीतता रहा लेकिन फिर धीरे-धीरे उसकी जेबें खाली होने लगीं । वह हार की घबराहट का प्रदर्शन करता हुआ ‘ब्लाइन्ड’ में लम्बे-लम्बे दांव लगाने लगा । कई लोगों का ध्यान उसकी ओर आकर्षित हो गया । रमाकान्त के पीछे लोगों की भीड़ जमने लगी ।
एक बार रमाकान्त ने ऐसा भाव दर्शाया जैसे उसके पास बहुत बड़े पत्ते आ गए हों । उसने बड़ी-बड़ी चालें चलनी आरम्भ कर दीं । फिर एक व्यक्ति को छोड़कर बाकी सारे खिलाड़ियों ने खेल से हाथ खींच लिया ।
चालें होती रही ।
एक चाल में रमाकांत ने अपनी पैन्ट और कोट की सारी जेबें उलट दीं लेकिन चाल की रकम जितने रुपये नहीं निकले । उसके मुंह से पेशेवर खिलाडियों की तरह एक भद्दी गाली निकाली और उसने कोट की भीतरी जेब से चैक बुक निकाल ली । उसने तेजी से चैक में पांच सौ रुपये की रकम भरी, नीचे रवीन्द्रकुमार के हस्ताक्षर किए और चैक इंचार्ज की ओर बढा दिया ।
“मुझे इसके बदले में पांच सौ रुपये दे दो ।” - वह स्वाभाविक स्वर में बोला ।
इन्चार्ज ने चैक लेकर एक दृष्टि हस्ताक्षरों और बैंक के नाम पर डाली फिर चैक एक वेटर के हाथों में थमा दिया । वेटर चैक लेकर दृष्टि से ओझल हो गया ।
“कितनी देर लगेगी ?” - रमाकान्त बेसब्री से मेज पर उंगलियां बजाता हुआ बोला ।
“कुछ ही मिनट, मिस्टर रवीन्द्र कुमार !” - इन्चार्ज चेहरे पर एक व्यावसायिक मुस्कान लाता हुआ बोला ।
सुनील भी सरककर रमाकान्त के पीछे आ खड़ा हुआ ।
रमाकान्त बेचैनी से कुर्सी में करवटें बदलता रहा ।
कुछ मिनटों बाद वेटर लौट आया और रमाकान्त से बोला - “रवीन्द्रकुमार साहब, क्या आप जरा मेरे साथ चलने का कष्ट करेंगे ?”
“लेकिन यहां खेल का क्या होगा ?” - रमाकान्त झल्लाकर बोला ।
“आप शो करा लीजिए, जितने पैसे कम हैं मैं दिये देता हूं ।” - सुनील जल्दी से बोला ।
रमाकान्त ने शो करा ली और एक बार फिर हार गया ।
रमाकान्त क्रोध में बड़बड़ाता हुआ उठा और वेटर के साथ हो लिया । सुनील भी उसके पीछे चलने लगा ।
“आप ?” - वेटर तनिक अवज्ञापूर्ण ढंग से सुनील से सम्बोधित हुआ ।
“मैं इन साहब के साथ हूं ।” - सुनील बोला ।
वेटर फिर नहीं बोला । वह उन्हें हाल में से निकालकर एक गलियारे में ले आया जिसके मुख्यद्वार पर नीली वर्दी पहने और होलस्टर में रिवाल्वर लगाये एक आदमी खड़ा था । उसके कन्धे पर लगे बैज पर लिखा था - स्पेशल गार्ड ।
वेटर कुछ कदम चलकर गलियारे में स्थित एक द्वार के सामने आ खड़ा हुआ । रमाकान्त और सुनील भी उसके पीछे थे ।
द्वार में एक छोटा-सा छेद उत्पन्न हुआ । शायद उसमें से आंख लगाकर किसी ने बाहर झांका, फिर ताले में चाबी लगने के साथ-साथ एक भारी स्वर सुनाई दिया - “कम इन ।”
वेटर द्वार खोलकर एक ओर खड़ा हो गया । रमाकान्त और सुनील भीतर घुस गये । भीतर एक बहुत बड़ी आबनूस की मेज के पीछे एक बुलडॉग के जैसे चेहरे वाला आदमी बैठा था ।
“मिस्टर मुरलीधर !” - वेटर बोला और उसने बाहर से द्वार बन्द कर दिया । द्वार बन्द होते ही स्प्रिंग वाला ताला अपने आप लग गया । मुरलीधर ने उठकर द्वार के आगे लोहे की दो छड़े लगा दीं । अब द्वार किसी भी प्रकार बाहर से खोला नहीं जा सकता था ।
मुरलीधार वापिस आकर अपने स्थान पर बैठ गया । उसके सामने मेज पर रमाकान्त का लिखा हुआ चैक पड़ा था ।
“आप में से रवीन्द्र कुमार कौन है ?” - मुरलीधर ने सख्त स्वर में पूछा ।
रमाकान्त निसहाय भाव से सुनील की ओर देखने लगा ।
“मेरा नाम सुनील है ।” - सुनील एक कदम आगे बढकर बोला ।
सुनील की ओर तनिक भी ध्यान दिये बिना मुरलीधर ने अपना ध्यान रमाकान्त की ओर केन्द्रित कर दिया क्योंकि सुनील ने अपना परिचय देकर रमाकांत को सहज की रवीन्द्रकुमार सिद्ध कर दिया था । सुनील नहीं चाहता था कि रमाकान्त को एक भी बार अपने मुंह से कहना पड़ता कि वह रवीन्द्र कुमार था ।
“मिस्टर रवीन्द्र कुमार ।” - मुरलीधर बोला - “आपके चैक के बदले में रुपया देने से पहले मैं आपके विषय में तसल्ली कर लेना चाहता हूं और इसी सिलसिले में मैं आपसे एक-दो सवाल पूछना चाहता हूं ।”
“फरमाइये !” - रमाकान्त हिचकिचाये स्वर में बोला ।
“आप यहां पहली बार आये हैं ?”
“हां ।”
“यहां किसी को जानते हैं ?”
“नहीं ।”
“आपको अपना घर का और आफिस का पता, टेलीफोन नम्बर वगैरह बताने से कोई ऐतराज ?”
“सख्त ऐतराज है ।” - रमाकान्त ने बोलने से पहले सुनील बोला ।
मुरलीधर के चेहरे पर बल पड़ गये ।
“मेरा ख्याल है, मैं तुम्हें इस बेकार की पूछताछ के झंझट से बचा सकता हूं ।” - सुनील बोला ।
“आप इस तस्वीर मैं कैसे फिट हो रहे हैं, मिस्टर सुनील ?”
“मैं इन साहब का दोस्त हूं और इनका हितचिन्तक भी ।” - सुनील ने मेज के एकदम पास पहुंचकर कहा ।
मुरलीधर कुछ क्षण अपना मोटा हाथ अपने बढे हुए पेट पर फिराता रहा और फिर बोला - “और आप मुझे इस बेकार की पूछताछ के झंझट से कैसे बचा सकते हैं ?”
सुनील मुस्कराया फिर एकाएक उसने एक विशाल मेज के दूसरी ओर पहुंचकर मुरलीधर के सामने से चैक उठा लिया - “अब तुम्हें इस चैक के बदले में पैसा देना की जरूरत नहीं पड़ेगी ।”
मुरलीधर एकदम तनकर बैठ गया । क्षण-भर के लिये उसके नेत्रों में खून उतर आया फिर वह स्वयं को सुसंयत करके बोला - “क्या मतलब ?”
“मेरा दोस्त जुए के मामले में एकदम अनाड़ी है । पहले ही वह काफी रुपया उजाड़ चुका है । अब तक इसका दिमाग भी ठिकाने लग चुका होगा । अब इसे और रुपये की जरूरत नहीं है । वह काफी खेल चुका है ।”
“लेकिन तुम्हें रवीन्द्र की पैरवी करने की क्या जरूरत है ?” - मुरलीधर जले स्वर से बोला - “मैं तुमसे नहीं, रवीन्द्र से बात कर रहा हूं ।”
“तो फिर इसका जवाब भी तुम्हें यह ही देगा ।”
सुनील ने चैक रमाकान्त को थमाकर उससे कहा - “इस चैक के टुकड़े-टुकड़े कर दो ।”
रमाकान्त ने चैक को फाड़कर उसके टुकड़े जेब में डाल लिए ।
मुरलीधर एक झन्नाटे से अपनी कुर्सी सरकाता हुआ उठ खड़ा हुआ ।
सुनील आगे बढकर रमाकान्त और मुरलीधर के बीच तनकर खड़ा हो गया । मुरलीधर क्षण-भर यूं ही खड़ा रहा और शांत हो गया ।
“बैठो, दोस्तो !” - वह स्वयं भी बैठता हुआ बोला ।
“वो चैक ठीक था ?” - रमाकान्त और सुनील के बैठ जाने पर मुरली बोला ।
“वो तो पांच सौ रुपये का चैक था, मुरलीधर, मैं तो इस आदमी के पांच लाख रुपये के चैक के भी कैश होने की गारण्टी कर सकता हूं ।”
“अच्छा, अब अगर हम मतलब की बातें करें तो ?” - मुरलीधर बोला ।
“कौन से मतलब की बात ?”
“जिसके कारण मिस्टर रवीन्द्र यहां आये हैं ।”
“किसी गलतफहमी में पड़ने की जरूरत नहीं है, बड़े भाई ।” - सुनील बोला - “तुम इस आदमी को जानते नहीं हो । इस आदमी ने तुम्हें एक चैक दिया था जिस पर रवीन्द्रकुमार के हस्ताक्षर थे लेकिन इसका यह मतलब हरगिज भी नहीं है कि यह आदमी वाकई रवीन्द्रकुमार है । चैक से तो केवल यही सिद्ध हो सकता है कि इसका रवीन्द्रकुमार के नाम से बैंक में एकाउन्ट है और अब के बाद कभी तुमने यह कहने की चेष्टा की कि इस जहाज पर रवीन्द्रकुमार जुआ खेलने आया था तो तुम मुश्किल में पड़ जाओगे ।”
“तो तुम यह कहना चाहते हो कि यह आदमी रवीन्द्रकुमार नहीं है ?”
“मैंने यह कब कहा है ?” - सुनील मुस्कराकर बोला ।
“तो फिर यह रवीन्द्रकुमार है ?”
“यह भी मैंने नहीं कहा ।”
“अगर यह आदमी रवीन्द्रकुमार है तो मैं इससे बिजनेस की बात करना चाहता हूं ।”
“यह कोई बात नहीं करेगा । अब से तुम इसे अन्धा, गूंगा और बहरा समझो ।”
“देखिए रवीन्द्र साहब ।” - मुरलीधर रमाकान्त की ओर देखकर बोला ।
“मुझे कुछ दिखाई नहीं दे रहा है ।” - रमाकान्त भावहीन स्वर से बोला ।
“आप बात नहीं करेंगे ?”
“मुझे कुछ सुनाई नहीं दे रहा है ।”
“मिस्टर...”
“मैं गूंगा हो गया हूं ।” - और उसके दोनों होंठ एक चटकारे की आवाज के साथ एक-दूसरे से चिपक गए ।
“सुनो ।” - मुरलीधर कड़वे स्वर में सुनील से बोला - “यह ड्रामा करने की जरूरत नहीं है । मैं खूब जानता हूं । रवीन्द्र यहां अपनी पत्नी का लिखा हुआ प्रोनोट हासिल करने के लिए आया है और इसे उसकी खातिर मेरे सामने झुकना है पड़ेगा । बात रवीन्द्र नहीं करेगा तो तुम करोगे लेकिन अब मैं भी चाहता हूं कि बातचीत मेरे पार्टनर दीनानाथ की उपस्थिति में हो ।”
मुरलीधर धीरे से अपनी कुर्सी से हिला और उसने अपने शरीर का भार अपने दायें पांव पर डाल दिया ।
कुछ क्षण बाद कमरे में बिजली की घन्टी का स्वर गूंज गया ।
उसने उठकर द्वार की छड़ें हटाईं, चाबी लगाकर ताला खोला और द्वार खोल दिया ।
द्वार पर स्पेशल गार्ड खड़ा था जिसे सुनील ने बाहर गलियारे के सिरे पर देखा था ।
“जौहर ।” - मुरलीधर बोला - “दीनानाथ जहां भी हो उसे फौरन भेजो ।”
“दीनानाथ साहब किनारे गए हैं, आते ही भेज दूंगा ।” - वह बोला ।
मुरलीधर द्वार पूर्ववत् बन्द करके वापिस आ गया ।
“थोड़ा इन्तजार करना पड़ेगा । दीनानाथ किनारे गया है ।” - वह बोला ।
“आप लोगों को मालूम होना चाहिए कि किनारे पर जाने के लिए आप मोटरबोट के मोहताज हैं और जब तक मैं नहीं चाहूंगा आपको मोटरबोट नहीं मिलेगी ।”
“तुम्हें ऐसा करने का अधिकार है ?”
“कौन रोकेगा मुझे ? मेरा जहाज इस देश की सीमा से बाहर अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में खड़ा है । मैं तो यहां तुम्हें कत्ल भी कर डालूं तो भी मेरा कुछ बिगड़ नहीं सकता ।”
“हमें कितनी देर प्रतीक्षा करनी पड़ेगी ?” - सुनील ऐसा प्रकट करता हुआ बोला जैसे वह मुरलीधर के कथन से बेहद प्रभावित हुआ हो ।
“लगभग पन्द्रह मिनट ।”
“बेहतर !”
सुनील चुपचाप बैठ रहा । रमाकान्त ने अपना चारमीनार का पैकेट निकाल लिया और सिगरेट फूंकना आरम्भ कर दिया ।
सुनील की दृष्टि कमरे में चारों ओर फिरने लगी ।
“वह क्या है ?” - सुनील ने एक लोहे के द्वार की ओर संकेत करते हुए पूछा ।
“हमारा स्ट्रांग रूम ।” - मुरलीधर गर्व से बोला - “यह इसी कमरे जितना बड़ा एक लोहे का कमरा है जहां हम अपना कैश और लोगों द्वारा लिखवाए हुए प्रोनोट रखते हैं और इनमें एक प्रोनोट तुम्हारे दोस्त की बीवी का लिखा हुआ भी है ।”
“बड़ा इन्तजाम है ।”
“क्या करें ? तीन मील से बाहर होने के कारण हम पुलिस का संरक्षण तो प्राप्त कर नहीं सकते ।”
“लेकिन अगर कोई गुन्डों का दूसरा ग्रुप जुआ खेलने के बहाने जहाज पर चढ आए और तुम्हें मारकर सारा ताम-झाम स्वयं हथिया ले तो ?”
“असम्भव ।”
“क्यों ?”
“क्योंकि इस आफिस में आने के लिए बाहर के लम्बे गलियारे में से गुजरना आवश्यक है ज्योंही कोई गलियारे में कदम रखता है यहां, इस कमरे में घन्टी बजने लगती है । इस कमरे का दरवाजा तो तुमने देखा ही है, कितनी मजबूती से बन्द रखा जाता है ! फिर दरवाजा भी लोहे का है जिसके दोनों ओर लकड़ी मंढी हुई है । इसको तोड़ना कोई मिनटों का काम नहीं । और फिर तुमने स्पेशल गार्ड जौहर को भी देखा है । उसके पास ए-वन आटोमेटिक रिवाल्वर है और उसे रिवाल्वर प्रयोग में लाने की पूरी स्वतन्त्रता है ।”
“लेकिन बड़े भाई, बैकों में सुरक्षा का यहां से दस गुना अधिक इन्तजाम होता है लेकिन फिर भी डाका पड़ जाता है ।”
“यहां कुछ नहीं हो सकता ।” - मुरलीधर पूरे विश्वास से बोला ।
उसी समय कमरे में घन्टी बजी ।
“शायद दीनानाथ आ रहा है ।” - मुरलीधर बोला ।
मुरलीधर ने पहले एक छिद्र में से बाहर झांका और फिर द्वार खोल दिया ।
एक लगभग पैंतालीस साल के सिर से गंजे व्यक्ति ने भीतर प्रवेश किया ।
“यह मेरा पार्टनर दीनानाथ है ।” - मुरलीधर बोला - “और दीनानाथ, यह साहब सुनील कुमार हैं और यह...”
“इनका कोई नाम नहीं है ।” - सुनील जल्दी से बोला ।
“बेहतर ।”
“मामला क्या है ?” - दीनानाथ ने पूछा ।
“दीनानाथ, ये गुमनाम साहब ।” - मुरलीधर रमाकान्त की ओर संकेत करता करता हुआ बोला - “जुए में अपना सारा रुपया हार गये थे और रुपया हासिल करने के लिए अपना चैक कैश कराना चाहते थे । चैक पर रवीन्द्र कुमार के हस्ताक्षर थे । मैंने इन साहब को बुलाया । सुनील इनके मित्र की हैसियत से उनके साथ चला आया । कुछ बात हुई फिर सुनील ने मेरी मेज पर से चैक झपट लिया और अपने मित्र को दे दिया । मित्र ने चैक के टुकड़े-टुकड़े कर दिये ।”
“यह बात ।” - दीनानाथ का चेहरा लाल हो गया ।
“उबलने वाली बात नहीं है, दीनानाथ, दरअसल सुनील हमें यह नहीं जानने देना चाहता था कि यहां रवीन्द्रकुमार यहां जुआ खेलने आया हुआ है । वह नहीं चाहता था कि लोगों को पता चले कि रवीन्द्रकुमार ऐसी बदनाम जगहों पर घूमता है । अगर वह चैक हमारे पास पहुंच जाता तो रवीन्द्र की प्रतिष्ठा को हानि पहुंच सकती थी क्योंकि जब हम चैक कैश करने जाते तो यह बात छुपी न रहती कि रवीन्द्र धरती के स्वर्ग के चक्कर लगाता है ।”
“व्याख्या छोड़ो, मतलब की बात करो ।” - सुनील बोर होकर बोला ।
“मैं बात करूं या तुम करोगे ?” - मुरलीधर ने दीनानाथ से पूछा ।
“तुम्हीं करो, मैं सुन रहा हूं ।”
“हमें विश्वस्त सूत्रों से पता चला है ।” - मुरलीधार सुनील की ओर मुड़कर बोला - “कि रवीन्द्रकुमार अपनी पत्नी दीपा को तलाक देना चाहता है जिससे वह यह सिद्ध कर सके कि दीपा उनकी बेटी बबली के संरक्षण के योग्य नहीं और सुनील साहब, हम आपके मित्र को वह प्रमाण दे सकते हैं ?”
“कैसा प्रमाण ?”
“हमारे पास दीपा का लिखा हुआ सात हजार रुपये का प्रोनोट है । वह रुपया उसने हमसे जुआ खेलने के लिए उधार लिया था ।”
“झूठ ।” - सुनील जोश से बोला ।
“दीनानाथ, इन्हें कागज दिखा दो ।”
दीनानाथ लोहे का द्वार खोलकर स्ट्रांगरूम में घुस गया ।
सुनील ने देखा लोहे के द्वार पर ताला नहीं था । वहां एक छोटा-सा लोहे का पहिया लगा हुआ था जिसको एक विशेष ढंग से घुमाने से द्वार खुलता था ।
दीनानाथ एक लम्बा-सा कागज लेकर लौट आया ।
मुरली ने कागज दूर से ही सुनील की आंखों के सामने कर दिया ।
“मुझे देना जरा इसे ।” - सुनील हाथ बढाकर बोला ।
“नहीं ।” - मुरलीधर सख्ती से बोला - “वहीं से देखो ।”
“इतनी दूर से मैं कुछ नहीं देख सकता । क्या पता यह कागज जाली हो ?”
“मुरली !” - दीनानाथ बोला - “क्या हर्ज है ?”
“हर्ज है ।” - मुरलीधर गरजा - “अभी कुछ देर पहले मेरी मेज पर एक चैक पड़ा था जिसे इस आदमी ने ‘देखने’ के लिए उठाया था और अब वह चैक सत्तर टुकड़ों की शक्ल में इसके दोस्त की जेब में पड़ा है ।”
“चैक की बात और थी ।” - सुनील बोला ।
“मुझे तुम्हरा भरोसा नहीं है ।” - मुरली जलकर बोला ।
सुनील चुप रहा ।
“मुरली !” - स्थिति बिगड़ती देखकर दीनानाथ बोला - “कागज मुझे दो ।”
मुरलीधर ने झिझकते हुए कागज अपने पार्टनर को थमा दिया ।
दीनानाथ ने जेब से एक छोटा-सा रिवॉल्वर निकालकर हाथ में ले लिया और कागज सुनील के सामने फेंक दिया ।
“अगर इसकी हालत भी चैक जैसी हुई ।” - दीनानाथ, बोला - “तो तुम दोनों के माथे में झरोखे दिखाई देने लगेंगे ।”
सुनील ने कागज उठा लिया । उस पर एक महीने पहले की तारीख थी, नीची दीपा के हस्ताक्षर थे और सारी स्टेटमैंट का सार ये था । कि उसे इन लोगों के सात हजार रुपये देने है ।
सुनील ने कागज रमाकान्त को थमा दिया । रमाकान्त ने गौर से उसे पढा और फिर वह वापिस मुरलीधर के हाथ में पहुंच गया ।
दीनानाथ ने रिवॉल्वर जेब में रख ली ।
“कागज तुमने देख लिया है ?” - दीनानाथ बोला - “और तुम जानते हो रवीन्द्र के लिए यह बेहद काम की चीज है । अब बताओ इसे खरीदने के लिए तम्हारी क्या ऑफर है ?”
“यह क्या आफर करेंगे ?” - मुरलीधर चिंघाड़ा - “हम इसकी जो कमत लगायेंगे इन्हें देनी पड़ेगी । रवीन्द्र के लिए तो यह खुदाई मदद से कम नहीं है । इनका तो बाप भी...”
सुनील उठ खड़ा हुआ ।
“बैठो, बैठो ।” - दीनानाथ जल्दी से बोला - “मेरा पार्टनर जरा जल्दी गर्म हो जाता है...”
“मुझे परवाह नहीं ।” - सुनील बोला - “लेकिन अपनी जानकारी के लिए इतना सुन लो कि दीपा के पास इस समय अपना कागज वापिस लेने के लिए एक पैसा भी नहीं है और अगर रवीन्द्र इसे खरीदने से इन्कार कर दे तो कोई तीसरा आदमी इसका एक धेला नहीं देगा । तुझे झक मारकर दीपा के सात हजार रुपयों का इन्तजार करना पड़ेगा जो न जाने कब मिलेंगे ।”
“कागज वापिस सेफ में रख दो, दीनानाथ ।” - मुरलीधर खुर्राया - “मुझे ऐसे लोगों से बिजनेस करना पसन्द नहीं ।”
“और मुझे भी दो कौड़ी के लोगों से बिजनेस करने का शौक नहीं है ।” - सुनील स्थिर स्वर में बोला ।
मुरलीधार इतनी तेजी से कुर्सी से उठा कि कुर्सी पीछे दीवार से जा टकराई । उसकी आंखों से कहर बरसने लगा ।
सुनील उसके सामने जाकर तनकर खड़ा हो गया ।
मुरलीधर का दायां हाथ बिजली की तेजी से सुनील की ओर घूमा लेकिन सुनील तक पहुंचने से पहले ही दीनानाथ ने उसे थाम लिया ।
“मुरली, मूर्ख मत बनो ।” - दीनानाथ उसे झिड़क कर बोला ।
मुरलीधर का जोश तनिक ठण्डा पड़ा ।
“आप लोग हमें कितना अधिक देने के लिए तैयार हैं ?” - दीनानाथ ने पूछा ।
“एक हजार रुपये ।” - सुनील क्षणभर सोचकर बोला - अगर आधे मिनट में मुझे हां या न में जवाब नहीं मिला तो इतना भी नहीं दूंगा ।
“भाड़ में जाओ ।” - मुरलीधर चीखा ।
“मुरली, चुप रहो ।” - दीनानाथ बोला - “सुनील साहब...”
“इन्हें उठाकर जहाज के नीचे फेंक दो ।” - मुरलीधर गर्जा ।
“मुरली, बकवास बन्द करो ।”
“तुम बकवास बन्द करो । तुम कौन होते हो मुझे धौंस देने वाले ? मैं कागज की असली कीमत से कम से कम दस हजार रुपये ज्यादा चाहता हूं ।”
“आपने देखा, सुनील साहब, मेरा पार्टनर क्या चाहता है ?” - दीनानाथ बोला - “अब बताइए, क्या आप पांच हजार पर फैसला करने को तैयार हैं ?”
“मुझे परवाह नहीं तुम्हारा पार्टनर क्या चाहता है ? मैं एक हजार से ज्यादा फालतू रुपया नहीं दे सकता और दीपा तो शायद इसकी असली कीमत भी नहीं दे सकेगी ।”
“बकवास...” - मुरली ने होंठ सिकोड़कर कहना शुरू किया ।
“चुपचाप बैठ, बेवकूफ के बच्चे और बकवास बन्द कर ।” - दीनानाथ पहली बार चिल्लाया - “गधे, रवीन्द्रकुमार के सिवाय इसे कौन खरीदेगा ?”
“इसकी बीवी खरीदेगी ।”
“कब ?”
“कभी भी ।”
“कितने में ?”
मुरली चुप हो गया । दीपा भला सात हजार से अधिक क्यों देगी - उसने सोचा ।
“मैं अपने पार्टनर से बात करना चाहता हूं ।” - दीनानाथ बोला - “आप लोग जरा पांच मिनट के लिए दूसरे कमरे में बैठिए ।”
“हम पांच मिनट से अधिक एक सैकिन्ड भी इन्तजार नहीं करेंगे ।”
“बेहतर ।” - दीनानाथ बोला ।
“जहन्नुम में जाओ ।” - मुरलीधर बड़बड़ाया ।
सुनील और रमाकान्त उठकर दूसरे कमरे में आ गए । उनके पीछे दीनानाथ ने द्वार बन्द कर लिया ।
“तुम दो हजार में तैयार क्यों नहीं हो जाते ?” - रमाकान्त बोला - “इससे मुरली की भी बात रह जाएगी...”
“ऐसी की तैसी मुरली की । मुझे उस हरामजादे की सूरत से नफरत है ।”
“मुझे तो शक है कि तुम्हें वह कागज मिले ।”
“कागज मिलेगा और मेरी ही कीमत पर मिलेगा । रमाकांत तुमने गौर नहीं किया दोनों हिस्सेदारों में बनती नहीं है और बिना पूरी अन्डरस्टेडिंग के पार्टनरशिप चलती नहीं है । मान तो, कल ये पार्टनरशिप खत्म करके माल का बटवारा करने लगे तो दीपा के प्रोनोट का क्या होगा ? वे इसे फाड़कर आधा-आधा तो कर नहीं देगे ऐसी सूरत में क्या मेरे आफर किए आठ हजार रुपये स्वीकार कर लेना अधिक अच्छा नहीं है ? दीपा तो न जाने कब उन्हें रुपया देने की स्थिति में होगी ।”
“मैंने यह बात नहीं सोची थी ।” - रमाकान्त बोला ।
“लेकिन दीनानाथ के दिमाग में यही बात है । वह मुरलीधर से ज्यादा अक्लमन्द आदमी है । वह तुम्हें रवीन्द्रकुमार समझता है । उसकी नजर में तुम ही एक आदमी हो जो उन्हें सात हजार से ज्यादा दे सकता है इसलिए वे तुम्हारी आफर ठुकरा नहीं सकते । हमसे तो उसे जितना अधिक मिल जाए वही हराम का है ।”
मुरलीधर की ओर का द्वार खुला । और दीनानाथ उनके सामने आ खड़ा हुआ । उसके हाथ में वह कागज भी था ।
“मुझे तुम्हारी कीमत मन्जूर है ।” - दीनानाथ बोला - “आठ हजार रुपये निकालो ।”
“और तुम्हारा पार्टनर ?”
“उसकी तुम्हें फिक्र करने की जरूरत नहीं । कागज मेरे हाथ में हैं और यह...”
उसी समय गलियारे की ओर का द्वार खुला और बहुमूल्य साड़ी में लिपटी एक अद्वित्तीय सुन्दरी ने कमरे में प्रवेश किया । उसने एक बार रमाकान्त और सुनील की ओर देखा । और फिर दीनानाथ को सम्बोधित करती हुई बोली - “मुरली कहां है ?”
दीनानाथ की दृष्टि उस युवती से फिसलती हुई रमाकान्त के चेहरे पर टिक गई । उसका चेहरा पत्थर की तरह भावहीन था ।
“तो यह बात है ।” - वह बड़बड़ाया । उसने कागज लपेटकर जेब में रख लिया और बोला - “मुरली अन्दर है ।”
युवती की दृष्टि एक बार फिर रमाकान्त और सुनील पर पड़ी और वह द्वार की ओर बढ गई ।
दीनानाथ बड़ी कड़वी निगाहों से रमाकांत को घूर रहा था । युवती की उचटती हुई दृष्टि फिर रमाकान्त पर पड़ी और वह मुरलीधर वाले कमरे में चली गई ।
“और मित्रो ।” - दीनानाथ विषभरे स्वर में बोला - “अब तुम्हारे लिए इस कागज की कीमत पचास हजार रुपये है कभी कीमत मंजूर हो तो दुबारा इस जहाज पर जरूर लौटाना । और अगली बार उल्लू बनाने के लिए तुम्हें मुरली नहीं मिलेगा ।”
दीनानाथ द्वार खोलकर खड़ा हो गया ।
“तशरीफ लाइए ।” - वह बोला ।
दोनों गलियारे में से निकलकर डैक कर आ गए ।
“क्या वही वह लड़की दीपा थी ?” - रमाकान्त ने पूछा ।
“और कौन हो सकती है ?” - सुनील बोला - “तुम तो दीनानाथ की दृष्टि में रवीन्द्रकुमार थे । जब दीपा तुम्हें, अपने पति को पहचान नहीं पाई तो दीनानाथ सारा प्लॉट समझ गया । अगर तुम उसके पति होते तो अपने चेहरे पर यूं उल्लू का-सा नक्सा ताने थोड़े ही खड़े रहते ।”
“अब मुझे क्या मालूम था वह रवीन्द्र कुमार की बीवी थी ?” - रमाकान्त झल्ला कर बोला ।
“सब किया-किराया मिट्टी में मिल गया ।”
“तुमने तो मुझे जबरदस्ती उस संभ्रांत महिला का पति बना दिया । सारी बात मालूम होने पर कहीं वह हमें जेल ही ना भिजवा दे ।”
“कुछ नहीं होता, यार !” - सुनील लापरवाही से बोला ।
रमाकान्त चुप रहा ।
***
कलावती सुनील की मेज के दूसरी ओर रखी कुर्सी पर बैठ गई । वह हांफ रही थी और अपनी सांसों पर कन्ट्रोल करने की चेष्टा कर रही थी । सुनील ने कुछ कहने के लिए मुंह खोला ही था कि वृद्धा ने हाथ उठाकर उसे रोक दिया । सुनील चुपचाप उसकी गतिविधि का निरीक्षण करने लगा ।
वृद्धा ने अन्त में सुसंयत स्वर में सुनील ने पूछा - “काम हुआ ?”
“नहीं ।”
“क्यों ?”
“वह कागज हाथ में आने ही वाला था कि बाजी उलट गई ।”
“अच्छा वो कैसे ?”
सुनील ने बताया ।
“अब क्या इरादा है ?” - वृद्धा ने पूछा ।
“अब दूसरा प्रयत्न करेंगे ।” - सुनील बोला ।
“लेकिन, बेटे ।” - वृद्धा भावनापूर्ण स्वर में बोली - “दीपा की भलाई के लिए वह कागज फौरन हासिल होना ही चाहिए । अगर उन लोगों को उसका महत्व महसूस हो गया तो वे बहुत रुपया मांगेंगे ।”
“महत्व उन्हें मालूम हो चुका है ।”
“फिर तो हम पिट गये ।” - वृद्धा गहरी सांस छोड़कर कुर्सी पर ढेर होती हुई बोली ।
“ऐसी हौसला हारने वाली बात नहीं है । मैं आपको वह कागज सात हजार में ही दिलाऊंगा ।”
“मुझे तुम्हारी प्रतिभा पर विश्वास है ।”
“मैं आपसे एक बात पूछना चाहता हूं ।” - सुनील बातचीत का रुख बदलना हुआ बोला - “क्या रवीन्द्र के पास बहुत रुपया है ?”
“नहीं !”
“तो फिर वह उस कागज को खरीदने के लिए दस-पन्द्रह हजार रुपया कहां से लायेगा ?”
“वह एक छोटा-सा बिजनेस करता है । उसमें रुपया लगाने के लए कभी-कभी उसके अमीर मित्र उसे रुपया उधार दे देते हैं ।”
“लेकिन बिजनेस के लिए रुपया देने में और एक, उनकी नजर में महत्वहीन, कागज खरीदने में तो बड़ा अन्तर होता है । हो सकता है इस काम के लिये उसे रुपया न मिले ।”
“लेकिन अगर रुपया मिल गया तो रिस्क तो होगा ही ।”
“ठीक है ।” - सुनील बोला - “मेरे दिमाग में एक आइडिया है । मुझे पूरा भरोसा है, काम कर जायेगा ।”
“क्या ?”
“कल रात जहाज पर जो मैंने देखा है, उससे ऐसा लगता है कि मुरली और दीनानाथ में भारी अनबन चल रही है और मुझे लग रहा है कि वह अनबन उनकी साझेदारी तोड़कर ही रहेगी । अब अगर मैं उन दोनों में लड़ाई करवा दूं ताकि एक साझीदार बंटवारे के लिये दूसरे को कोर्ट में घसीट ले तो उनकी प्रॉपर्टी का बंटवारा तब तक नहीं करवा सकता जब तक उसके बदले में रुपये वसूल न किये जाए । और जब उसे यह पता लगेगा कि वह कागज जुआ खेलने के लिए प्राप्त किए गये रुपये के बदले में लिया गया है तो वह उसे बंटवारे के लिए अयोग्य घोषित करके एक ओर फेंक देगा ।”
“देखो बरखुरदर, मैं रिस्क नहीं लेना चाहती । अगर ऐसा हो सकता है तो मुझे कोई एतराज नहीं है ।”
“यह होकर रहेगा । उनमें लड़ाई कराना मेरे लिए कोई मुश्किल काम नहीं है । मैं...”
उसी समय प्रमिला बाहर का द्वार खोलकर भीतर घुसी ।
“सोनू ।” - वह बोला - “कोई दीनानाथ तुमसे मिलने आये हैं ।”
“वह कहां है इस समय ?”
“मेरे फ्लैट में बैठे हैं । मैंने सोचा शायद तुम इनके सामने उससे न मिलना चाहो ।”
“कही दीनानाथ रवीन्द्र तक पहुंच तो नहीं गया ?” - वृद्धा तनिक विचलित स्वर में बोली ।
“असम्भव ।” - सुनील पूर्ण विश्वास से बोला - “मेरे आदमी मुरली, दीनानाथ और रवीन्द्र तीनों की निगरानी कर रहे हैं । अगर ऐसा हुआ होता तो मेरे पास रिपोर्ट पहुंच गई होती ।”
“आप” - वह क्षण भर रुककर वृद्धा से बोला - “जरा पिछले कमरे में जाइये । आप दीनानाथ को पहचानती हैं ?”
“नहीं ।” - कलावती उठती हुई बोली ।
“उसे भेजो ।” - सुनील प्रमिला से बोला ।
वृद्धा के उस कमरे में से जाने के दो मिनट बाद दीनानाथ कमरे में प्रविष्ट हुआ ।
दीनानाथ मुस्कराता हुआ कुर्सी पर आ बैठा जिसे कलावती खाली करके गई थी ।
“कल जहाज पर जो हुआ” - वह बोला - “उसके मारे कोई झगड़े वाली बात तो नहीं होगी ?”
“नहीं ।” - सुनील ने आश्वासन दिया ।
“कल तो हम लगभग तुम्हारे झांसे में फंस ही गए थे ।”
सुनील चुप रहा ।
दीनानाथ ने जेब से सिगार केस निकाल कर सुनील की ओर बढा दिया ।
“थैंक्यू ।” - सुनील बोला - “मैं सिगरेट पीता हूं ।”
“तो सुनील साहब, दादी-अम्मा की ओर से काम कर रहे हैं ।” - दीनानाथ बोला ।
सुनील चुप रहा ।
“सुनील साहब, जितने गधे हम कल रात सिद्ध हुए थे, उतने गधे हम हैं नहीं । हम भी दिन-भर आपकी बैकग्राउण्ड के बारे में जानकारी हासिल करते रहे हैं । मुझे मालूम है आप दीपा के दादी के लिए काम कर रहे हैं । ठीक कहा न मैंने ?”
“फिर ?” - सुनील ने भावहीन स्वर से पूछा ।
“फिर क्या ?”
“तुम यहां कैसे आये ?”
“दीपा के प्रोनोट के बारे में ।” - दीनानाथ बोला - “मैं तुम्हें उस कागज को हासिल करने का बड़ा आसान तरीका बता सकता हूं ।”
“कहो, मैं सुन रहा हूं ।”
“लेकिन मेरी एक शर्त है ।”
“कहो ।”
“तुम्हें मेरी खातिर एक काम करना होगा ।”
“मैं कोई ऐसा काम करने के लिए स्वतन्त्र नहीं हूं जो कलावती और दीपा के हित के विरुद्ध हो ।”
“मेरे काम से इन लोगों का कोई सम्बन्ध नहीं ।”
“काम बताओ । मैं सारी पोजीशन जाने बिना कोई उत्तर नहीं दे सकता ।”
“मैं मुरलीधर से पीछा छुड़ाना चाहता हूं ।” - दीनानाथ क्षण-भर रुककर बोला - “मैं उसके साथ साझेदारी खत्म करना चाहता हूं । हम दोनों में यह तय हुआ था कि हममें से कोई भी जब भी चाहे पार्टनरशिप खत्म कर सकता है । जूए के इस धन्धे में रुपया सारा मुरली का लगा हुआ है लेकिन इसे स्थापित मेरे प्रयत्नों ने किया है । ‘धरती का स्वर्ग’ चलाने का आइडिया भी मेरा था । इस जहाज का मालिक मेरा मित्र है । वह मुरली को जानता भी नहीं है । हमने यह जहाज उससे एकमुश्त रकम देकर बीस साल के समझौते पर लिया था लेकिन उस समझौते की एक शर्त यह भी थी कि अगर बीस साल के अर्से में कभी भी साझेदारी टूट गई तो समझौता भी खत्म समझा जायेगा ।
“फिर ?”
“फिर यह कि मैं साझेदारी तोड़ दूंगा । इससे जहाज के मालिक का समझौता खत्म हो जाएगा और जहाज फिर उसका हो जायेगा । बंटवारे के लिये सब कुछ नीलाम करना पड़ेगा और उस नीलामी में रुपये के दस पैसे भी नहीं मिलेंगे । मैं चाहता हूं नीलामी में सारा सासान मेरी ओर से तुम खरीद लो । रुपये मैं दूंगा, फिर मैं जहाज के मालिक से मैं नया समझौता कर लूंगा और ‘धरती के स्वर्ग’ को अकेला । चलाऊंगा । मुरली सर पीटता रहा जाएगा और तुम्हारी मेहरबानी के बदले में मैं तुम्हें दीपा का लिखा कागज मुफ्त में दे दूंगा । इस तरह तुम्हारे क्लायन्ट को सात हजार रुपये भी नहीं खर्च करने पड़ेंगे । बोलो, मन्जूर है ?”
“नहीं ।” - सुनील सहज स्वर से बोला ।
“क्या !” - दीनानाथ हैरान होकर चिल्लाया ।
“मुझे तुम्हारी ऑफर मन्जूर नहीं ।” - सुनील ने दोहराया ।
“क्यों ?”
“क्योंकि मुझे तुम जैसे लोगों के साथ बिजनेस करना पसन्द नहीं है ।”
“तुम्हारा मतलब मुरली जैसे लोगों से है या मेरे जैसे ?”
“एक ही बात है । जैसे नागनाथ, वैसे सांपनाथ ।”
“नतीजा जानते हो, क्या होगा ?”
सुनील चुप रहा ।
“मैं दीपा और रवीन्द्र में होड़ लगवा दूंगा । जो ज्यादा रुपया देगा मैं प्रोनोट उसे सौंप दूंगा और दोनों ही चाहेंगे कि उनकी आफर आखिरी हो ताकि प्रोनोट उन्हें ही मिले ।”
सुनील ने अपने दोनों पांव मेज के कोने पर टिका दिये और कुर्सी की पीठ से टिककर लापरवाही से सीटी बजाने लगा ।
“मैं समझता था तुम अक्लमन्द आदमी हो ।” - दीनानाथ क्रोध से उबलता हुआ उठ खड़ा हुआ - “मैं ही मूर्ख था जो तुम्हारे पास दौड़ा चला आया ।”
फिर वो सुनील से हाथ मिलाये बिना लम्बे डग भरता हुआ फ्लैट से बाहर निकल गया । जाती बार उसने द्वार इतनी जोर से बन्द किया कि कमरे की खिड़कियां थरथरा गई ।
सुनील ने फोन उठाया और रमाकान्त का नम्बर डायल कर दिया ।
“रमाकान्त !” - उसके लाइन पर आते ही सुनील बोला - “दीनानाथ की निगरानी कौन कर रहा है ?”
“जौहरी ।”
“तुम राकेश को भी जौहरी के साथ लगा दो । दीनानाथ इस केस में बहुत महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त करने वाला है ।”
“ओ के ।”
सुनील ने रिसीवर यथास्थान रख दिया । तब तक कलावती वापिस उस कमरे में आ चुकी थी ।
“अगर तुम दीनानाथ की बात मान जाते तो क्या वह वाकई तुम्हें दीपा की कागज दे देता ?” - वृद्वा ने पूछा ।
“शायद ।”
“तो फिर तुम माने क्यों नहीं ?”
“क्योंकि वह कागज में हमें उसका अहसान उठाए बिना भी हासिल हो जाने वाला है । अगर मैंने दीनानाथ का काम करने से इन्कार कर दिया है तो इसका यह मतलब नहीं है कि कोई और उसे स्वीकार नहीं करेगा । उनकी पार्टनशिप तो समाप्त हुई ही समझो । दीनानाथ तो शायद आज ही रिसीवर की नियुक्ति के लिए कोर्ट में प्रार्थना-पत्र दे देगा । कोर्ट से मुरलीधर के लिए भी आर्डर इशू हो जाएंगे । अगर दीनानाथ ने आज अर्जी दे दी तो आज रात तक मुरलीधर को नोटिस मिल जाएगा और मैं यह तमाशा देखने के लए उस समय जहाज पर ही होऊंगा । वहां सारी कार्यवाही के दरम्यान हजार बखेड़े होंगे और मैं उन दोनों के झगड़े का पूरा लाभ उठाऊंगा ।”
“जो ठीक समझो, करो ।” - वृद्धा बोली और उठ खड़ी हुई ।
***
जिस समय सुनील मैरीना बीच पर पहुंचा, अन्धेरा छा चुका था । वह कुछ क्षण हैट का अगला कोना माथे पर झुकाये और ओवरकोट की जेबों में हाथ डाले बीच पर घूमता रहा और फिर मैरीना क्लब की इमारत की ओर बढ गया ।
वहां उसने यूथ क्लब में टेलीफोन किया ।
“पुट मी टू रमाकांत प्लीज !” - दूसरी ओर से उत्तर मिलते ही वह बोला ।
क्षण-भर बाद उसे आपरेटर का मधुर स्वर सुनाई दिया - “मिस्टर रमाकान्त आन दि लाइन, प्लीज स्पीक आन ।”
“रमाकान्त !” - सुनील बोला - “मैं सुनील हूं ।”
“हल्लो, सुनील ।”
“क्या पोजीशन है ?”
“दीनानाथ ने दोपहर के बाद ही प्रापर्टी पर रिसीवर बैठाने के लिए प्रार्थना-पत्र दे दिया था और इस समय वह एक इन्स्पेक्टर के साथ मुरलीधर को नोटिस इशु करवाने के लिए जहाज की ओर जा रहा है ।”
“आल राइट । और कुछ ?”
“लगभग एक घन्टे पहले दिनकर का फोन आया था कि दीपा का पति रवीन्द्र भी मैरीना बीच की ओर जा रहा है ।”
“अब तक तो वह जहाज पर पहुंच गया होगा ।”
“सम्भव है ।”
“यह तो गड़बड़ हो जाएगी ।” - सुनील चिन्तित भाव से बोला - “अगर दीनानाथ के हस्तक्षेप से पहले ही मुरली ने उसके साथ सौदा पटा लिया तो हमें चोट हो जाएगी ।”
“मेरा एक आदमी दीपा पर निगरानी कर रहा है । उसने लगभग चालीस मिनट पहले फोन किया था कि दीपा भी एक भारी फर का कोट पहने हुए मैरीना बीच की ओर गई है । सुनील, यह आदमी मुरली और दीनानाथ दोनों से परिचित है । क्या इससे कोई फर्क पड़ता है ?”
“क्या नाम है उसका ?”
“गोपाल ।”
“रमाकान्त, इस आदमी को दीपा के पीछे जहाज पर न जाने देना । तुम मोहन को बीच पर भेज दो । अगर दीपा जहाज की ओर अग्रसर होगी तो मोहन गोपाल की छुट्टी कर देगा और स्वयं उसका पीछा करेगा । ओ के !”
“ओ के । वैसे प्यारयो” - रमाकान्त चिन्ता व्यक्त करता हुआ बोला - “इस बार तुम भिड़ के छत्ते में हाथ दे रहे हो ।”
“फिक्र मत करो ।”
“खैर, अगर दीपा जहाज पर गई तो मोहन उसके पीछे जायेगा । अगर कोई गड़बड़ हो तो वह उससे सम्बन्ध स्थापित कर लेगा । उसके पास रिवॉल्वर है । वह तुम्हारा अन्धा भक्त है, हर हाल में तुम्हारी रक्षा करेगा ।”
“तुम तो यार, एक वफादार बीवी की तरह मेरी फिक्र कर रहे हो ।”
“नो फन, सुनील । प्लीज टेक गुड केयर आफ यूअर सैल्फ ।”
“ओ के !”
सुनील ने रिसीवर क्रेडिल पर रखा और वापिस बीच पर आ गया ।
कोहरा घना होता जा रहा था ।
सुनील मोटरबोट में जा बैठा । उसके बाद दो और आदमी बोट पर सवार हुए, फिर कन्डक्टर का स्वर सुनाई दिया - “ये बोट भर गई है, बाकी लोग दूसरी बोट का इन्तजार करें ।”
धरती के स्वर्ग पर पहुंचते-पहुंचते सुनील के दांत बजने लगे । उसने अपना हैट और कोट क्लाक रूम में जमा कराया और मेन हाल में आ गया । उसके एक कोने में बार भी था ।
उसने एक बड़ा पैग ब्रांडी का लिया और उसे एक हीं सांस में हलक में उंडेल लिया ।
हाल में लोगों की भीड़ बढती जा रही थी ।
सुनील उस गलियारे की ओर बढ गया जिसमें मुरली का आफिस था ।
गलियारे के दहाने पर उसे स्पेशल गार्ड जौहर दिखाई नहीं दिया । सुनील ने पहले उसकी प्रतीक्षा करने का विचार किया लेकिन फिर वह सिर को एक झटका देकर गलियारे में घुस गया ।
मुरली के दफ्तर के सामने पहुंच कर उसने द्वार धकेला और भीतर घुस गया ।
कमरे में एक सोफे पर एक युवती बैठी थी । वह बड़ी तन्मयता से कोई पत्रिका पढ रही थी । वह पढने में इतनी लीन थी कि उसे सुनील के आगमन का पता ही नहीं लगा ।
सुनील भीतर के कमरे के द्वार के सामने जा पहुंचा । वह उस कमरे के द्वार था जो भीतर से मजबूती से बन्द रखा जाता था और जिसमें मुरलीधर बैठता था । उसने द्वार खटखटाया ।
कोई उत्तर नहीं मिला ।
युवती ने सिर उठाया और सुनील को द्वार खटखटाता देखकर बोली - “मेरे ख्याल से भीतर कोई नहीं है । मैंने कई बार द्वार खटखटाया था लेकिन कोई उत्तर नहीं मिला था ।”
सुनील को भीतर से एक प्रकाश की रेखा आती हुई दिखाई दी ।
“द्वार तो खुला है ।” - सुनील बोला - “ये लोग तो इसे लोहे की छड़ों से बन्द करके रखा करते थे ।”
युवती चुप रही ।
सुनील भी वापिस आकर एक कुर्सी पर बैठ गया । उसने पहली बार उस युवती का चेहरा देखा ।
वह दीपा थी ।
“क्षमा कीजिए क्या मुरली से आप से भी इसी समय मिलने के लिए कहा था ?”
“नहीं तो ।” - वह बोली ।
“देखिए, मेरा मुरली से मिलने का यही समय निश्चित हुआ था । मेरा काम बेहद जरूरी है । उसके आते ही मैं फौरन उसमें बात करना चाहता हूं लेकिन अगर आप भी यहीं रहीं तो वह शायद आपसे ही पहले बात करना चाहेगा इसलिए अगर आप बुरा न मानें तो कुछ देर बाहर घूम आएं । मैं पांच-सात मिनट से अधिक नहीं लूंगा ।”
“बेहतर ।” - वह उठती हुई बोली । सुनील का ऐसा लगा जैसे उसने छुटकारे की सांस ली हो ।
“बहुत-बहुत धन्यवाद ।” - सुनील भी दुबारा उठ कर मुरली के प्राइवेट आफिस की ओर बढता हुआ बोला - “मैं उसका भीतर इन्तजार करता हूं ।”
जिस समय सुनील ने लोहे का भारी द्वार ठेला, उस समय दीपा बाहर की ओर जा रही थी ।
सुनील ने भीतर झांका ।
मुरली अपनी कुर्सी पर मरा पड़ा था । उसका शरीर मेज के सहारे टिका हुआ था । उसकी बाई कनपटी में गोली का सूराख दिखाई दे रहा था ।
सुनील अपनी एडियों पर घूमा और बाहर की ओर लपका ।
दीपा ने अभी आधा गलियारा ही पार किया था ।
“दीपा !” - उसने तेज स्वर में पुकारा ।
वह रुक गई ।
“वापिस आओ ।” - सुनील का स्वर एकदम तीखा हो उठा ।
सुनील को यूं लगा कि दीपा वापिस नहीं आयेगी । वह झपटता हुआ उसके पास पहुंचा और उसकी बांह पकड़कर उसे लगभग घसीटता हुआ वापिस ले आया ।
“छोड़ो-छोड़ो ।” - दीपा बिलबिलाई ।
सुनील ने उसके चिल्लाने की परवाह किए बिना उसे भीतरी कमरे के द्वार पर ला खड़ा किया ।
“भीतर झांको ।” - सुनील कठोर स्वर में बोला ।
दीपा ने सहमते हुए भीतर देखा । मुरली की लाश देखकर उसके मुंह से चीख निकलने ही वाली थी कि सुनील ने उसका मुंह दबा दिया ।
“बस-बस ।” - वह बोला ।
“मेरे आने से कितनी देर पहले से तुम यहां बैठी थीं ?” - दीपा को तनिक व्यवस्थित पाकर उसने पूछा ।
“एक या दो मिनट ।” - वह बेहद धीमे स्वर में बोली ।
“उस दौरान तुमने किसी को भीतर आते देखा था ?”
“मुझे ख्याल नहीं... लेकिन... तुम कौन हो... मुझे कैसे जानते हो ? मैंने शायद तुम्हें कल भी यहां देखा था ।”
“मेरा नाम सुनील है । फिलहाल इतनी ही जानकारी तुम्हारे लिए काफी है । अब सुनो, या तो तुमने इसकी हत्या की है या फिर...”
वह रुक गया । उसे मेज पर एक फुल-स्केप कागज पड़ा दिखाई दिया । सुनील ने आगे बढकर उसे उठा लिया ।
“मेरा प्रोनोट ।” - दीपा जल्दी से बोली - “मैं ये ही वापिस लेने आई थी ।”
“कैसे ! सात हजार रुपये देकर ?”
“हां ।”
“जरा अपना पर्स दिखाना ।”
“क्यों ?”
“देखूं, उसमें सात हजार रुपये हैं ?”
“तुम्हें क्या, रुपये हों या ना हों ?” - दीपा प्रतिवाद करती हुई बोली ।
सुनील ने उसके हाथ से पर्स छीन लिया । पर्स में सात-आठ सौ रुपए से अधिक धन नहीं था । फिर इससे पहले कि सुनील पर्स में कुछ देख पाता, दीपा ने पर्स छीन लिया ।
उसके नेत्र दीपा के चेहरे पर गड़ गए ।
दीपा नर्वस होकर नीचे देखने लगी ।
“तुमने मुरली की हत्या की है ?” - सुनील ने सीधा प्रश्न किया ।
“नहीं... मुझे मालूम नहीं था कि यह यहां मरा पड़ा था ।”
“तुम्हें मालूम है इसे किसने मारा है ?”
दीपा ने नकारात्मक ढंग से गर्दन हिला दी ।
“सच कह रही हो ?”
“हां ।”
“तो सुनो । यहां से फौरन बाहर निकल जाओ और कोशिश करो कि कोई तुम्हें गलियारे में न देखे । मेन हाल में जाकर जुए में यूं शामिल हो जाओ जैसे कुछ हुआ ही न हो । मैं तुम्हें वहीं मिलूंगा । और याद रखो, दीपा, मैं तुम्हारी जुबान पर विश्वास करके ही तुम्हें बचाने की चेष्टा कर रहा हूं । अगर तुम झूठ बोल रही हो तो खुद तो फांसी कर लटकोगी ही, साथ में मेरी भी पुलन्दा बन्धवाओगी ।”
“लेकिन मेरा प्रोनोट ?” - दीपा बोली - “इसका क्या होगा । अगर यह मेरे पति के हाथ लग गया तो मैं...”
“इसकी चिन्ता मत करो । मेरे पर भरोसा रखो ।”
“लेकिन आप हैं कौन ?”
“मैं तुम्हारी दादी का परिचित हूं ।” - सुनील बोला - “अब भागो यहां से ।”
दीपा चुपचाप बाहर निकल गई ।
सुनील क्षण भर ठिठका खड़ा रहा, फिर उसने अपना बटुआ निकाला, उस में से सात हजार रुपये निकाले । अपने जूते की नोक से मेज का एक दराज खोला और रुपये उसमें डाल दिये । उसने दरवाजे को ठोकर मारकर बन्द कर दिया, फिर उसने अपना सिगरेट लाइटर जलाया और दीपा के डिमान्ड नोट में आग लगा दी । सारा कागज जल जाने के बाद सुनील ने राख मसल दी ।
उसी समय कमरे में घन्टी बज उठी । सुनील को मुरलीधर की बात याद आ गई । अगर कोई भी गलियारे से उसके ऑफिस की ओर आता था तो ऑफिस में घन्टी बज उठती थी ।
तो इसका अर्थ यह हुआ कि इधर दो आदमी आ रहे थे, सुनील ने सोचा ।
सुनील ने राख से काले हुए हाथ अपनी पैंट की साइड के साथ पोंछ डाले । उसने कोहनी से द्वार खोला और बाहर निकल कर द्वार को पहले की तरह भिड़का दिया । वह लम्बे डग भरता हुआ एक कुर्सी के पास पहुंचा और उसमें ढेर हो गया ।
उसने मेज से एक पत्रिका उठाई और लापरवाही का प्रदर्शन करता हुआ उसके पृष्ठ पलटने लगा ।
उसी समय दीनानाथ ने एक सब-इन्स्पेक्टर के साथ कमरे में प्रवेश किया । सुनील पर दृष्टि पड़ते ही वह थमककर खड़ा हो गया ।
“तुम यहां क्या कर रहो हो ?” - वह हैरानी से चिल्लाया ।
“मैं मुरली की प्रतीक्षा कर रहा हूं ।” - सुनील शांत स्वर से बोला ।
“मुरली कहां है ?”
“मुझे क्या मालूम ? मैंने उसके प्राइवेट ऑफिस का” - सुनील भीतर वाले कमरे की ओर संकेत करता हुआ बोला - “द्वार खटखटाया था लेकिन भीतर से कोई उत्तर नहीं मिला । मैंने सोचा वह बाहर गया हुआ होगा इसलिए बाहर बैठकर उसकी प्रतीक्षा करने लगा ।
“मुरली अन्दर ही होगा ।” - दीनानाथ कड़वे स्वर में बोला - “उसे भीतर होना ही चाहिए । जब भी मेन हाल में जुआ हो रहा होता है, हम दोनों में से एक आदमी जरूर इस दफ्तर में बैठता है ।”
“यहां से निकलने का कोई और रास्ता भी है ?” - सुनील ने पूछा ।
“नहीं ।”
“तो फिर मुरली भीतर नहीं है । अगर वह भीतर होता तो मेरे द्वार खटखटाने पर वह उत्तर जरूर देता । तुमने पार्टनरशिप कैंसिल करने के लिए कोर्ट से आर्डर ईशू करवा लिया है ?”
“हां ।” - दीनानाथ बोला - “तुम क्या समझते थे कि मुर्गा बांग नहीं देता तो सवेरा ही नहीं होगा ! यह सब इन्स्पेक्टर मुरली को नोटिस ईशू करने के लिए आया है ।”
“ठीक ।”
“क्या ठीक ?”
“यही कि दीपा के प्रोनाट की कीमत अब एक रद्दी कागज से ज्यादा नहीं है ।”
“क्यों ?” - दीनानाथ के माथे पर बल पड़ गए ।
“क्योंकि अब तुम लोगों की प्रापर्टी का बंटवारा कोर्ट के जरिए होगा और कोर्ट जुआ खेलने के लिए दिए गए रुपये के बदले लिखवाये गए कागज को तनिक भी मान्यता प्रदान नहीं करेगा ।”
“लेकिन दीपा को क्या मालूम कि स्थिति क्या हो गई है ?”
“मैं जो हूं उसे बताने के लिए ।”
“तो इसलिए तुमने मेरी आफर अस्वीकार की थी ।” - दीनानाथ जलकर बोला ।
सुनील उत्तर में मुस्करा दिया ।
दीनानाथ ने अपनी जेब से चाबियों का एक गुच्छा निकाला और भीतर कमरे के द्वार की ओर बढा । उसने गुच्छे में से एक चाबी छांटी और उसे लगाने के लिए द्वार की ओर बढाया ।
“अरे दरवाजा तो खुला है !” - दीनानाथ द्वार की स्थिति देखकर तनिक हड़बड़ाया-सा बोला ।
उसने चाबियां जेब के हवाले की और धकेलकर द्वार खोल दिया ।
भीतर दृष्टि पड़ते ही वह बौखला गया ।
“यह... यह !” - वह बदहवास स्वर में बोला ।
स्थिति से अवगत होने के लिए सब-इन्स्पेक्टर भी द्वार की तरफ लपका । सुनील भी उसके साथ हो लिया ।
लाश पर दृष्टि पड़ते ही वह बोला - “दीनानाथ, किसी चीज को हाथ मत लगाना तुम्हारे पार्टनर को गोली मारी गई है ।”
दीनानाथ ने संदिग्ध दृष्टि से सुनील की ओर देखा ।
“भीतर मुरली की लाश पड़ी हुई थी और तुम बाहर बैठे हुए थे ।” - दीनानाथ बोला ।
“तो फिर क्या हुआ ? मुझे ख्वाब आया था कि भीतर मुरली की लाश पड़ी थी ?”
“तुमने नहीं मारा इसे ?”
“पागल हुए हो !” - सुनील कुद्ध स्वर में बोला ।
“यह हत्या का मामला है ।” - सब-इन्स्पेक्टर लाश का निरीक्षण करता हुआ बोला ।
“क्या पता उसने आत्महत्या की हो ?” - सुनील ने सुझाया ।
“गोली उसकी बाईं कनपटी में लगी है ।” - सब-इन्स्पेक्टर बोला - “दीनानाथ, क्या मुरली बायें हाथ से काम करता था ?”
“नहीं ।” - दीनानाथ बोला ।
“नहीं, यह आत्महत्या का केस नहीं है ।” - सब इन्स्पेक्टर निर्णयात्मक स्वर से बोला - “अगर आत्महत्या होती तो रिवाल्वर भी यहीं होनी चाहिए थी ।”
“तुम अच्छी तरह तलाश तो करो ।”
“कोई जरूरत नहीं है !” - दीनानाथ चिल्लाया - “सब-इन्स्पेक्टर, यह आदमी तुम्हें बरगलाने की कोशिश कर रहा है । क्या पता, हत्या इसी ने की हो ? तुम इसकी बातों में मत आओ ।”
“दीनानाथ, सोच-समझकर जुबान से बात निकालो ।” - सब-इन्स्पेक्टर बोला ।
“मैं जो कह रहा हूं, ठीक कह रहा हूं । मुरली के पास एक सात हजार रुपये की प्रोनोट था जिसकी इस आदमी को जरूरत थी । अगर मुरली का हत्या करके इसने वह कागज हथिया नहीं लिया है तो कागज यही कहीं होना चाहिए । ...मैं स्ट्रांगरूम मे देखता हूं, तुम इस पर नजर रखो ।”
दीनानाथ लम्बे डग भरता हुआ स्ट्रांगरूम के लोहे के द्वार के सामने पहुंच गया । उसने द्वार पर लगे पहिए को एक विशेष ढंग से घुमाना शुरू कर दिया ।
“दीनानाथ !” - सब-इन्स्पेक्टर बोला - “इस कमरे में हत्या हुई है, तुम्हें किसी चीज को हाथ नहीं लगाना चाहिए ।”
“लेकिन ये मेरी सम्पत्ति है ।” - उसने प्रतिवाद किया ।
“फिर भी तुम्हारे लिए यही अच्छा है कि तुम किसी चीज पर अपनी अंगुली के निशान मत छोड़ो ।”
दीनानाथ की पकड़ पहिए पर से ढीली पड़ गई ।
“लेकिन मैं देखना चाहता हूं कि दीपा का प्रोनोट सुरक्षित है या नहीं ।”
“बाद में देखना ।”
“सब-इन्स्पेक्टर साहब ।” - दीनानाथ समीप आकर बोला - “तुम सुनील की तलाशी लो । क्या पता वह कागज इसने पहले ही जेब के हवाले कर लिया हो । और हो सकता है जिस रिवाल्वर से मुरली की हत्या हुई है, वह भी इसी के पास हो ।”
“मुझे यह सब पसन्द नहीं ।” - सुनील ने प्रतिवाद किया ।
“तुम्हें तलाशी देनी पड़ेगी ।” - दीनानाथ गरजा - “क्या पता यहां से तुमने क्या चुरा लिया है ? तुम यहां दीपा के प्रोनोट की खातिर ही आये थे ।”
“और तुम्हारे ख्याल से उस कागज को हथियाने के लिए मैंने मुरली की हत्या कर दी ?” - सुनील ने पूछा ।
“दीनानाथ !” - दीनानाथ के बोलने से पहले सब-इन्स्पेक्टर बोला - “उलटी सीधी बकवास मत करो । तुम्हारा इल्जाम अगर गलत निकाल तो तुम मुश्किल में फंस जाओगे ।”
दीनानाथ क्षण भर के लिए चुप हो गया ।
“आपको तलाशी देने से कोई एतराज है ?” - सब इन्स्पेक्टर ने सुनील से पूछा ।
“बिल्कुल भी नहीं ।” - सुनील ड्रामा-सा करता हुआ बोला - “एक कर्तव्यपरायण होने के नाते मैं कानून की हर सहायता के लिए तैयार हूं लेकिन जनाब मैं तलाशी देने के लिए ‘हां’ कानून के नाम पर कर रहा हूं न कि इस चूहे की खातिर ।”
दीनानाथ का चेहरा कानों तक लाल हो गया लेकिन सुनील ने उसकी ओर तनिक ध्यान दिए बिना जेबें उलटनी शुरू कर दीं ।
“इस मेरे कमरे में ले जाओ तलाशी के लिए ।” - दीनानाथ बोला ।
“तुम्हारा कमरा कहां है ?”
“गलियारे के भीतरी कोने पर । मैं भी वहीं आता हूं ।”
“तुम यहां क्या करोगे ?” - सब-इन्स्पेक्टर ने संदिग्ध स्वर से पूछा ।
“मैं जौहर को निगरानी के लिए यहां नियुक्त करना चाहता हूं । अगर तुम्हें वह जहाज पर कहीं दिखाई दे तो उसे यहां भेज देना । वह नीली यूनीफार्म में है और उसके कन्धे पर स्पेशल गार्ड का बैज लगा हुआ है ।”
“तुम्हारा मतलब है कि मैं जौहर की तलाश में सुनील को साथ लिए-लिए सारे जहाज पर परेड करता फिरूं ।” - सब-इन्स्पेक्टर कड़वे स्वर में बोला ।
“अच्छा, जाने दो । मैं उसे यहीं से सिग्नल कर देता हूं ।”
दीनानाथ ने मुरलीधर की लाश के पास जाकर मेज में लगा एक बटन दबा दिया ।
“अगर तलाश में सुनील के पास कुछ भी न निकला तो परिणाम के जिम्मेदार तुम होगे ।” - सब-इन्स्पेक्टर बोला ।
“मैं कम से कम पचास हजार रुपये का मानहानि को दावा ठोकूंगा इस पर ।” - सुनील बोला ।
“जो जी में आए करना ।” - दीनानाथ उखड़े स्वर से बोला - “सब-इन्स्पेक्टर साहब, इसके हर एक्शन पर नजर रखना । कहीं यह जेब में से निकालकर कुछ समद्र में न फेंक दे ।”
“अगर ऐसी बात है तो सब-इन्स्पेक्टर साहब, अपने भले के लिए तुम तुमसे मांग करता हूं कि तुम मेरे हाथों में हथकड़ियां डाल दो ।”
“तुम अपने हाथों में हथकड़ी डलवाना चाहते हो ?” - सब-इन्स्पेक्टर हैरान होकर बोला ।
“ओफ्फोह !” - दीनानाथ झन्नाया - “इसमें तकल्लुफ की क्या बात है ? अगर यह कहता है तो लगा दो हथकड़ी ।”
सब-इन्स्पेक्टर ने हिचकते हुए सुनील की हथकड़ी लगा दी ।
सब-इन्स्पेक्टर और सुनील मुरली के आफिस से निकलकर दीनानाथ के कमरे में आ गये ।
“तुमने भारी गलती कर दी सब-इन्स्पेक्टर साहब ।” - सुनील बोला ।
“कब ?” - सब-इन्स्पेक्टर चौंकता हुआ बोला ।
“तुम्हें दीनानाथ को वहां अकेले नहीं छोड़ना चाहिए था ।”
“किसी को तो वहां रहना ही था ।” - सब-इन्स्पेक्टर दबे स्वर में बोला ।
“खैर !” - सुनील बोला - “तुम तलाशी शुरू करो । पहले तुम मेरी जेबें देख लो, फिर हथकड़ियां खोल देना ताकि मैं कपड़े उतार सकूं ।”
सब-इन्स्पेक्टर ने सारी जेबें देख डालीं । उसमें रूमाल, पैन लक्की स्ट्राइक का पैकेट लाइटर कुछ विजिटिंग कार्ड, पर्स और एक आइडैन्टिटी कार्ड के अतिरिक्त कुछ नहीं निकला । उसने सारा सामान एक मेज पर रख दिया और फिर सुनील की हथकड़ियां खोल दीं ।
“सुनील साहब !” - सब इन्स्पेक्टर विनयपूर्ण स्वर में बोला - “मुझे नहीं मालूम था आप ‘ब्लास्ट’ के स्पेशल-कारेस्पान्डेन्ट है । देखिए आपके साथ जो व्यवहार मैं कर रहा हूं इसमें जिम्मेदारी मेरी नहीं है, यह सब दीनानाथ के कारण हो रहा है । कहीं ऐसा न हो कि आप कल के अखबार में मेरी धज्जियां उड़ा दें ।”
“चिन्ता मत करो प्यारेलाल !” - सुनील टाई की गांठ खोलता हुआ बोला ।
सुनील-इन्स्पेक्टर को एक-एक कपड़ा उतार कर देता रहा और सब-इंस्पेक्टर उनको अच्छी तरह टटोलकर एक और रखता गया ।
जिस समय दीनानाथ कमरे में घुसा, सुनील अपनी पैंट की पेटी खोल रहा था ।
“यह क्या हो रहा है ?” - दीनानाथ हैरान होकर बोला ।
“तलाशी ।”
“मेरा मतलब ऐसी तलाशी से थोड़े ही था ?”
“मेरा मतलब ऐसी ही तलाशी से था ।” - सुनील पैंट उतारकर सब-इन्स्पेक्टर की तरफ उछालता हुआ बोला ।
“यह तो पागलपन है ।” - दीनानाथ बोला - “तलाशी से मेरा मतलब केवल यह भर देखने से था कि तुम्हारे पास रिवाल्वर या प्रोनोट है या नहीं उसके लिए यह तमाशा करने की क्या जरूरत थी ?”
“दीनानाथ !” - सब-इन्स्पेक्टर, जो सुनील से पर्याप्त प्रभावित हो चुका था क्रोधित स्वर से बोला - “अभी कुछ मिनट पहले तो तुम चाह रहे थे कि मैं तलाशी में इनकी खाल भी उतार लूं और अब तुम...”
“सब-इन्स्पेक्टर !” - सुनील शरीर से अन्डरवियर भी अलग करता हुआ बोला - “दरअसल दीनानाथ को अब महसूस हो रहा है कि अगर मेरी तलाशी न हुई होती तो मुझ पर यह इल्जाम लगने की अधिक सम्भावना थी कि मैं यहां से कुछ चुराकर ले गया था इसलिए अब यह चाह रहा है कि मेरी भरपूर तलाशी न हो ताकि बाद में यह कह सके कि मेरे पास जरूर कुछ था जो तुम्हारी नजर में नहीं आ सका था ।”
दीनानाथ चुप रहा ।
हर चीच की भरपूर तलाशी हो चुकने के बाद सुनील ने अपने कपड़े पहन लिए ।
“मैंने पुलिस को टेलीफोन करने के लिए एक आदमी किनारे भेज दिया है ।” - दीनानाथ ने सब इंस्पेक्टर को सूचित किया - “मुरली के आफिस पर जौहर तैनात है । वह किसी को भीतर नहीं जाने देगा ।”
“पुलिस के आने तक किसी भी आदमी को जहाज छोड़कर मत जाने दो ।” - सब-इन्स्पेक्टर बोला ।
“पर मैं किसी की कैसे रोक सकता हूं ? क्या मैं उन्हें बता दूं कि जहाज कर हत्या हो गई हौ और पुलिस के आने तक जहाज से कोई नहीं जा सकेगा ?”
“नहीं ।”
“तो फिर ?”
“लोग जहाज से मोटर बोट पर कैसे उतरते हैं ?”
“सीढ़ी द्वारा ।”
“सीढी वहां से हटा दो । कोई पूछे तो कह देना सीढी टूट गई है, मरम्मत होने से देर लगेगी ।”
दीनानाथ ने एक वेटर को बुलाकर उसे आवश्यक निर्देश दे दिए ।
“दीनानाथ !” - सुनील ने गम्भीर स्वर से पूछा - “मुरली के प्राइवेट आफिस में घुसने का कोई और रास्ता है ?”
“नहीं ।”
“कोई खिड़की या रोशनदान भी नहीं ?”
“नहीं । प्राइवेट आफिस में घुसने का एक ही रास्ता है, वह है बाहर वाले कमरे में से होकर, जहां बैठे तुम मैगजीन पढ़ रहे थे और बाहर वाले कमरे में पहुंचने के लिए गलियारे में से गुजरना जरूरी है । जो भी आदमी उस गलियारे में कदम रखता है, जौहर की नजर उस पर जरूर पड़ती है । अगर वह जौहर की नजर से भी बच जाये तो मुरली उसे प्राइवेट आफिस का द्वार तब तक नहीं खोलता जब तक कि वह एक छेद में से झांककर देख न ले कि वह कौन था और क्या चाहता था ।”
“इसका मतलब यह हुआ कि हत्यारा मुरली के लिए कोई अपरिचित व्यक्ति नहीं था । मुरली ने अपनी इच्छा से ही उसे भीतर आने दिया होगा ।”
“तुम भी तो मुरली के लिए कोई अपरिचित व्यक्ति नहीं थे !” - दीनानाथ विषभरे स्वर में बोला ।
“क्या मतलब ?”
“मतलब है कि हत्यारा मुरली से परिचित होगा और किसी काम के बहाने यहां आया होगा, मुरली ने उसे प्राइवेट आफिस का द्वार खोलकर भीतर बुला लिया होगा । बातचीत के दौरान में मुरली की जरा-सी सावधानी से फायदा उठाकर उसने मुरली को शूट कर दिया होगा, फिर हत्यारा या तो कमरे से बाहर निकल गया होगा और रिवाल्वर को समुद्र में फेंककर मेनहाल की भीड़ में जा मिला होगा या फिर बाहर के कमरे में बैठकर पत्रिकाएं पढने लगा होगा ।”
“ताकि दूसरा साझीदार वापिस आये और वह लगे हाथ उसका भी कत्ल कर दे ।” - सुनील व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोला ।
“भगवान जाने हत्यारे के मन में क्या था ?” - दीनानाथ बोला ।
“सब-इन्स्पेक्टर !” - सुनील बोला - “मैं बाहर मेन हाल में जा रहा हूं । लेकिन इस बात को भूलना मत कि हत्या के बाद दीनानाथ मुरली के आफिस में कम से कम पांच मिनट अकेला रहा था और उतने समय में कोई भी आदमी हजार तरह का हेरफेर कर सकता है । अगर इसकी नीयत साफ होती तो यह भी हमारे साथ बाहर आ जाता, वहां अकेला न रह जाता ।”
दीनानाथ ने खा जाने वाली नजरों से एक बार सुनील को देखा और फिर सब-इन्स्पेक्टर से पूछा - “तुमने इसका पर्स भी देखा था ?”
“हां, लेकिन उसमें कोई प्रोनोट नहीं था, केवल रुपये थे ।”
“कितने ?”
“तीन हजार रुपये सौ-सौ के नोटों में, पौने दो सौ रुपये दस, पांच और एक के नोटों में और सवा रुपये की चेंज ।”
“तीन हजार रुपये सौ-सौ के नोटों में !” - दीनानाथ सोचता हुआ बोला ।
“क्या सौ-सौ की नोटों में तीन हजार रुपये होना भारी हैरानी की बात है ?” - सुनील ने फब्ती कसी ।
“नहीं ! मैं सोच रहा था कि दीपा ने सात हजार रुपये का कागज लिखा था और दस हजार रुपये में सात हजार घटाएं तो बाकी तीन हजार बचते हैं ।”
“ठीक !” - सुनील मुस्कराकर बोला - “और पन्द्रह हजार में से बारह हजार घटाएं तो भी तीन हजार की बचते हैं और नब्बे हजार में से सत्तासी हजार घटाएं तो भी यही उत्तर आता है । है न कमाल की बात ?”
दीनानाथ फिर हत्थे से उखड़ गया । वह सब-इन्स्पेक्टर से बोला - “मैं कहता हूं इसने जरूर कहीं वह कागज छुपाया है । इसके पास वह कागज होना ही चाहिए ।”
“तुम्हारा दिमाग तो नहीं खराब हो गया है, दीनानाथ !” - सब-इन्स्पेक्टर झल्लाकार बोला - “मैंने मिस्टर सुनील की एड़ियां तक बजाकर देख ली हैं कि कहीं उनमें कुछ छिपाया हुआ तो नहीं । इनका मुंह तक खुलवाकर देखा और तुम अब भी यहां राग अलापे जा रहे हो कि इन्होंने कोई कागज छिपाया हुआ है । मैं दावा कर सकता हूं, कि इनके पास कोई आपत्तिजनक वस्तु नहीं है ।”
दीनानाथ ने कुछ कहने के लिए मुंह खोला लेकिन फिर एक एकदम पलटा और लम्बे डग भरता हुआ कमरे से बाहर निकल गया ।
“तुम्हें दीनानाथ पर नजर रखनी चाहिए ।” - सुनील ने सब-इन्स्पेक्टर को बुझाया - “पुलिस को जहाज पर पहुंचने में अभी काफी देर लगेगी । उतने समय में तो दीनानाथ कुछ भी कर सकता है ।”
“क्या कर सकता है ? मुरली के आफिस पर तो जौहर तैनात है ।”
“पर जौहर तो इन्हीं लोगों का रखा हुआ आदमी है । वह दीनानाथ को भीतर जाने से थोड़े ही रोकेगा । मेरे ख्याल से तो तुम्हें उसी कमरे मे जाकर निगरानी करनी चाहिए । इस प्रकार तुम जौहर पर भी नजर रख सकोगे ।”
“बहुत अच्छा ।” - सब-इन्स्पेक्टर द्वार की ओर बढता हुआ बोला - “और सहयोग के लिए धन्यवाद, सुनील साहब ! तलाशी के मामले में आपने बड़ी दयानतदारी दिखाई, नहीं तो बड़ी मुश्किल हो जाती क्योंकि बिना तलाशी दिए मैं भी पसन्द नहीं करता कि आप उस कमरे में से निकलते और बिना वारंट तलाशी लेने का मेरा साहस नहीं होता । आपने मेरी बहुत बड़ी मुश्किल आसान कर दी । बहुत ही शुक्रिया ।”
“कोई बात नहीं ।” - सुनील उसका कन्धा थपथपाकर बोला । उत्तर में सब-इन्स्पेक्टर ने दांत निकाल दिये ।
सुनील ने जहाज की वे सारी जगहें देख डालीं जहां लोगों का घूमना वर्जित नहीं था लेकिन उसे न तो कहीं दीपा दिखाई दी और न मोहन जो दीपा का पीछा कर रहा था ।
कुछ लोग डैक पर खड़े वर्तमान परिस्थिति के प्रति रोष प्रकट कर रहे थे । जहाज के कर्मचारी उन्हें विश्वास दिलाने की चेष्टा कर रहे थे कि सीढी की मरम्मत में अधिक देर नहीं लगेगी । सुनील ने पानी में झांककर देखा । जहाज से कुछ ही दूर पानी में तीन चार मोटरबोट खड़ी थी ।
वह वापिस रोशनी से जगमगाते हुए मेनहाल में आ गया और बार की ओर बढा ।
“हाऊ डू यू डू, मिस्टर सुनील !” - अपने पीछे से उसे एक स्त्री स्वर सुनाई दिया ।
उसने मुड़कर पीछे देखा । कलावती की हीरे जैसी कठोर भूरी आंखें उस पर टिकी हुई थीं । वृद्धा अपने पूरे फार्म में थी और सिर से पांव तक बहुमूल्य वस्त्रों और रत्नजड़ित आभूषणों से जगमगा रही थी ।
सुनील ने उसकी बांह पकड़ी और उसे एक जरा कम भीड़ वाले कोने में ले गया । वे दोनों एक मेज पर आमने-सामने बैठ गये ।
“आप कितना देर से यहां हैं ?” - सुनील ने धीमे स्वर में पूछा ।
“काफी देर हो गई ।” - वृद्धा बोली - “तुम मेरे बाद में आयें थे । मैंने तुम्हें जहाज पर चढते देखा था ।”
“लेकिन आप आई क्यों ?”
“मैंने सोचा शायद तुम्हें रिजर्व फोर्स की जरूरत हो । बरखुरदार, मैंने तुम्हें पहले भी बताया था कि मैं एक्शन में विश्वास करती हूं, कछुए की चाल से घिसटती हुई जिन्दगी मुझे पसन्द नहीं । तुम इन बदमाशों के बीच में अकेले आ रहे थे इसलिए मैंने तुम्हारे हित के लिए यहां अपनी मौजूदगी आवश्यक समझी ।”
“आप मुरलीधर से मिली हैं ?” - सुनील उस पर दृष्टि गड़ाता हुआ बोला । सुनील को वृद्धा के चरित्र की पर्याप्त जानकारी हो चुकी थी । उसे भय था कि कहीं पोती की खातिर वृद्धा ने ही मुरली की हत्या न कर दी हो ।
“नहीं ।” - वृद्धा ने छोटा-सा उत्तर दिया ।
“आपको जहाज पर अपना कोई परिचित दिखाई नहीं दिया ?”
वृद्धा क्षण भर सोचकर बोली - “मैंने यहां रवीन्द्र को देखा था ।”
“आपके जहाज पर पहुंचने में कितनी देर बाद रवीन्द्र यहां आया था ?”
“लगभग डेढ घण्टे बाद ।”
“और किसी को नहीं देखा आपने ?”
वृद्धा तनिक विचलित हो उठी लेकिन सुसंयत स्वर से बोली - “नहीं ।”
“आपने मुझे जहाज पर आते देखा था ?”
“हां उस समय में डैक पर थी ।”
“आप डैक पर क्या करने गई थीं ?”
“मैं मेन हॉल की गहमागहमी से घबरा गयी थी इसलिए डैक पर जरा टहलने चली आयी थी ।”
“आप डैक पर कितनी देर ठहरी थीं ?”
“तीन-चार मिनट ही । दरअसल बात यह थी कि डैक पर रेलिंग के सहारे एक कॉलेज का छोकरा सा लगने वाला युवक एक लड़की को लिपटाए खड़ा था । मैं उनकी चूमाचाटी में बाधक नहीं बनना चाहती थी इसलिए लौट आई थी ।”
“आपको, मालूम है, मुरलीधर की हत्या हो गई है ?” - सुनील अपनी खोजपूर्ण दृष्टि वृद्धा पर गड़ाकर बोला ।
“नहीं ।” - वृद्धा उत्तेजनारहित स्वर से बोली ।
“तो फिर आप खामखां झूठ क्यों बोल रही हैं ?”
“क्या मतलब ?” - वृद्धा ने माथे पर बल पड़ गए ।
“आप मुझसे यह तथ्य क्यों छिपाना चाहती हैं कि आपने यहां दीपा को भी देखा है ?”
वृद्धा कुछ क्षण चुप रही ।
“मैं उत्तर की प्रतीक्षा कर रहा हूं ।” - सुनील बोला ।
“मैंने दीपा को यहां देखा था ।” - वृद्धा ने कहा ।
“आप यह बात मुझसे छुपा क्यों रही थीं ?”
वृद्धा फिर चुप हो गई ।
“भगवान के लिए जल्दी-जल्दी बोलिए ?” - सुनील बेसब्री से बोला - “अधिक सोच विचार का समय नहीं है ।”
“दीपा जहाज पर चढती ही सीधी उस गलियारे की ओर गई थी जिसमें मुरली का आफिस है इसीलिए मैं डैक पर आ गई थी ताकि लौटती बार दीपा की दृष्टि मुझ पर न पड़ जाए । डैक के धुन्ध भरे अन्धकार में वह मुझे पहचान सके, ऐसी सम्भावना नहीं थी ।”
“दीपा जहाज पर मेरे से पहले आई थी न ?”
“हां ।”
“और रवीन्द्र ?”
“रवीन्द्र कब आया, मुझे मालूम नहीं । मैंने उसे तब देखा था जब वह वापिस लौट रहा था । तुम्हारे आने के एक आध-मिनट बाद ही रवीन्द्र गया था । शायद तुमने उसे सीढियों में देखा भी हो ।”
“क्या मालूम देखा हो ? मैं रवीन्द्र को पहचानता नहीं हूं क्या कोई आदमी उसका पीछा कर रहा था ?”
“सम्भव है । एक आदमी रवीन्द्र के पीछे-पीछे सीढियां उतरा तो था और वह सवार भी रवीन्द्र वाली मोटरबोट पर ही हुआ था ।”
“खैर, आप दीपा की बात कीजिए ।”
“कुछ मिनट बाद वह तेजी से गलियारे में से बाहर निकली । उसी समय एक आदमी लपकता हुआ उसके पास आया और ऊंचे स्वर से बोला - दीपा, भागो, रवीन्द्र भी यहीं है । आदमी यह शब्द कहकर भीड़ में मिल गया, मैं उसका चेहरा नहीं देख सकी और दीपा...”
वृद्धा ने होंठ काट लिए ।
“दीपा क्या ?” - सुनील उत्सुक भाव से बोला ।
“दीपा वापिस चली गई ।”
“आप कहने तो कुछ और ही लगी थीं ?”
“नहीं तो ।”
“देखिए कलावती जी !” - सुनील खीझकर बोला - “मैं अपनी गरदन फंसवाकर दीपा को बचाने की चेष्टा कर रहा हूं । अगर आप इसी प्रकार मुझे भुलावा देने की चेष्टा करती रही तो दीपा तो मरेगी ही साथ में मुझे भी ले मरेगी । अब बताइए, दीपा गलियारे में से निकल कर कहां गई थी ?”
“डैक की रेलिग पर !” - वृद्धा बोली ।
“क्यों ?”
“मैंने उसे वहां खड़े-खड़े अपना बैग टटोलते देखा था और फिर मुझे किसी भारी चीज के पानी में गिरने की आवाज आई थी ।”
“आपको दिखाई नहीं दिया कि वह भारी चीज क्या थी ?”
“नहीं ।”
“क्या वह रिवाल्वर था ?”
“मुझे नहीं मालूम ।”
“आप फिर झूठ बोल रही हैं ?”
“सुनील, वाकई मैं नहीं देख पाई थी कि दीपा ने क्या फेंका है ?”
“उसे पानी में वह भारी चीज फेंकते किसी और ने देखा था ?”
“हां ।” - वृद्धा कठिनता से बोली ।
“किसने ?”
“वे युवक और युवती जो डैक के अन्धकार में एक-दूसरे से लिपटे खड़े थे, उन्होंने । दीपा तो आंख चौंधियां देने वाली रोशनी से अन्धकार में आई थी । इसलिये उन दोनों को देख नहीं सकी थी । लेकिन क्योंकि मेरे नेत्र अन्धकार के आदी हो चुके थे इसलिए मैं तीनों को देख रही थी । पानी में छपक की आवाज होते ही युवक और युवती एक-दूसरे से अगल हो गए थे । दीपा ने फिर भी न उन्हें देखा था, न मुझे । पानी में कुछ फेंककर वह उलटे वापिस हो गई थी और सीढियां उतरकर मोटरबोट में जा बैठी थी ।”
“उस समय यात्रियों की प्रतीक्षा में कोई मोटरबोट नीचे खड़ी थी ?”
“हां, उसी में दीपा गई थी ।”
“फिर तो सम्भव है मोटरबोट में बैठे लोगों ने भी में कुछ गिरते देखा हो ?”
“सम्भव है ।” - वृद्धा स्वीकृतिसूचक ढंग से सिर हिलाकर बोली ।
“जहाज छोड़ते समय दीपा क्या पहने हुई थी ?”
“सलवार, कमीज और जाकेट ।”
“कोट नहीं ?”
“नहीं ।”
“लेकिन मुझे जो रिपोर्ट मिली है, उसके अनुसार दीपा यहां फर का कोट पहनकर आई थी । अगर वह कोट पहने हुए जहाज से वापिस नहीं गई तो इसका अर्थ यह हुआ कि उसका कोट जहाज के क्लॉकरूम में छूट गया है । दीपा का कोट यहां रह जाना, उसके लिए मुश्किल का कारण बन सकता है ।”
“दीपा के कोट की चिन्ता मत करो, वह मैं ले आऊंगी ।”
“लेकिन आपके अपने कोट का क्या होगा ?”
“मैं कोट नहीं पहनती हूं ।”
सुनील ने विचित्र दृष्टि से कलावती की ओर देखा । कलावती दीपा से लगभग दोगुनी मोटी थी कलावती सुनील की दृष्टि का अर्थ समझ गई ।
“बरखुरदार !” - वह बोली - “मेरे आकार की चिन्ता मत करो । अगर मैं बटन बंद नहीं करूंगी तो किसी को भी यह महसूस नहीं होगा कि कोट मेरा नहीं है ।”
“अच्छा !” - सुनील उठता हुआ वोला - “पुलिस के आने से पहले तो आप जा नहीं सकेंगी लेकिन आप कोशिश यही कीजियेगा कि आप पुलिस की पूछताछ से बची रहें ।”
“ओ के ।”
“ओ के !” - सुनील बोला - “विश यू हैपी लैंडिंग ।”
सुनील वापिस डैक पर आ गया । पुलिस जहाज पर पहुंच चुकी थी । एक अधिकारी ऊंचे स्वर से घोषणा कर रहा था - “अटैन्शन एवरीबाडी । जहाज पर एक हत्या हो गई है । पूरी तफ्तीश हो चुकने के पहले कोई जहाज छोड़ने का उपक्रम न करे । अगर आप सहयोग देंगे तो हमारा काम जल्दी निपट जाएगा, नहीं तो सम्मव है आपको सारी रात यहीं गुजारनी पड़े ।”
***
सुनील लगभग एक घण्टा बार में बैठा रहा । किसी ने उसे टोकने की चेष्टा नहीं की । पुलिस के सिपाही सारे जहाज पर फैले हुए थे और लोगों में व्यवस्था और शान्ति उत्पन्न करने का भरपूर प्रयत्न कर रहे थे ।
सुनील बोर होकर बाहर उठ गया और लोगों की भीड़ में मिल गया ।
कलावती उसे कहीं दिखाई नहीं दी ।
एक सब-इन्स्पेक्टर गलियारे मे से निकला और मेन हाल में लगी भीड़ के सामने आकर बोला - “मिस्टर सुनील कुमार चक्रवती कौन हैं ?”
“मैं हूं ।” - सुनील भीड़ में से निकलकर बोला ।
“मेरे साथ आइए ।”
सब-इन्स्पेक्टर सुनील को फिर मुरलीधर के आफिस में ले आया ।
बाहर वाले कमरे में दो कान्स्टेबलों के साथ इन्स्पेक्टर प्रभूदयाल खड़ा था । साथ में दीनानाथ भी था ।
“अच्छा तो आप हैं !” - प्रभूदयाल व्यग्यपूर्ण स्वर में बोला ।
“आपको क्या दिखाई दे रहा है ?” - सुनील सरल स्वर मैं बोला ।
“सुनील, तुम जहां जाते हो वहीं मुसीबत खड़ी हो जाती है ।”
“तो इसमें मेरा क्या कसूर है ? क्या जिन जगहों पर मैं नहीं जाता वहां घपले नहीं होते ?”
“जहां भी मैं किसी हत्या के केस के सिलसिले में जाता हूं, वहीं तुम पहले ही मौजूद होते हो ।”
“मेरा धन्धा ही यह है, इन्स्पेक्टर साहब ? हमारा अखबार समाचार को उसके मूल रूप छापने में विश्वास रखता है जबकि पुलिस का हस्तक्षेप होते ही हजारों तथ्य दबकर रह जाते हैं ।”
“तुम पुलिस वालों को इतना निकम्मा समझते हो ?”
“नहीं, पुलिस वाले निकम्मे नहीं, मक्कार होते हैं ।”
प्रभूदयाल क्रोधित हो उठा - “सुनील, मैं उस दिन के इन्तजार में हूं जब मैं तुम्हें हथकड़ियां लगाकर सारे शहर की परेड कराता हुआ जेलखाने ले जाऊंगा ।”
“कम-से-कम इस जन्म में तो तुम्हारी यह इच्छा पूरी होगी नहीं ।”
प्रभूदयाल खून का घूंट पीकर रह गया । कई क्षण चुप रहने के बाद बोला - “जिस समय मुरली की लाश का पता चला था, तुम इस कमरे में बैठे हुए थे ?”
“हां ।”
“क्यों ?”
“मुझे मुरली से मिलना था ।”
“किस सिलसिल में ?”
“मुरली से मुझे निजी काम था ?”
“क्या निजी काम था ?”
सुनील चुप रहा ।
उसी समय कमरे में स्पेशल गार्ड जौहर प्रविष्ठ हुआ । उसके साथ कालेज का छोकरा-सा लगने वाला एक युवक और एक अल्ट्रामाडर्न लड़की थी ।
“ये दोनों...”
प्रभूदयाल ने हाथ उठाकर जौहर को बोलने से रोक दिया ।
“तुम नहीं बताओगे कि तुम मुरली से किस सिलसिले में मिलने आये थे ।” - प्रभूदयाल सुनील से बोला ।
“मैं उसे यह बताने आया था कि फ्लैश में दो गुलाम दो बेगमों से छोटे होते हैं ।”
प्रभूदयाल ने खा जाने वाली दृष्टि से सुनील को देखा और फिर दीनानाथ से सम्बोधित होता हुआ बोला - “जिस समय तुम इस कमरे में आये थे, उस समय सुनील क्या कर रहा था ?”
“इस कुर्सी पर बैठा एक पत्रिका पढ रहा था ।” - दीनानाथ बोला ।
“भीतरी कमरे की चाबी किस किसके पास होती है ?”
“मेरे और मुरली के पास ।”
“तुमने अपनी चाबी से द्वार खोला था ?”
“नहीं, द्वार तो पहले से ही खुला हुआ था ।”
“तो इसका अर्थ यह हुआ कि मुरली ने अपनी चाबी से दरवाजा खोला था ।”
“ऐसा ही हुआ होगा ।”
“कमरे में घुसने का कोई और रास्ता है ?”
“नहीं ।”
“इस पोर्टहोल के बारे में क्या ख्याल है ?” - सुनील दीवार में बने एक दो फुट व्यास के गोल छेद की ओर इशारा करता हुआ बोला - “यहां से मुरली की मेज बिल्कुल सामने पड़ती है । बाहर से इस छेद में झुककर मुरली को बड़ी आसानी से गोली का निशाना बनाया जा सकता था ।”
“तुम बीच में टांग मत अड़ाओ ।” - प्रभूदयाल चिढकर बोला - “मैंने पूरी तफ्तीश कर ली है । मुरली 38 कैलीबर की रिवाल्वर से मारा गया और गोली बहुत करीब से चलाई गई । मुरली की मेज और पोर्ट होल में बहुत फासला है ।”
सुनील चुप रहा ।
“मुरली की लाश को सबसे पहले तुमने देखा था ?” - प्रभूदयाल ने दीनानाथ से पूछा ।
“हां, लेकिन सुनील मेरे आने से पहले से वहां बैठा था । क्या पता इसने लाश को देखा हो लेकिन बताया न हो । सुनील के पहले से ही मौजूद होने के कारण मैं इसके प्रति बहुत संदिग्ध हो उठा था । कहीं इसने यहां से कुछ गोल न कर दिया हो इसलिए मैंने इसकी तलाशी भी करवाई थी ।”
“मैं तो कुछ ही क्षण इस कमरे में रहा था” - सुनील बोला - “और इसके लिए तलाशी में मेरी एक-एक चीज उधेड़ कर रख दी गई थी जब कि मुझे यह मालूम भी नहीं था कि भीतर मुरली मरा पड़ा है । लेकिन दीनानाथ तो मुरली की हत्या की पूरी जानकारी के बावजूद भी यहां पर कई मिनट अकेला रहा था ।”
“मैं अधिक से अधिक बीस सैकेन्ड में यहां पहुंच गया था ।” - जौहर बोला ।
“उतने समय में तुमने किसी को दफ्तर से बाहर निकलते देखा था ?” - प्रभूदयाल ने पूछा ।
“हां, मैंने सुनील और एक सब-इन्स्पेक्टर को दीनानाथ के कमरे की ओर जाते देखा था । सुनील के हाथ में हथकड़ी लगी हुई थी । मैं इन लोगों से अधिक दूर नहीं था । अगर ये घूमकर देखते तो मुझे अपने एकदम पीछे ही पाते ।”
“जब तुम कमरे में घुसे थे उस समय दीनानाथ क्या कर रहा था ?”
“ये इस कुर्सी की गद्दी टटोल रहे ।” - जौहर एक कुर्सी की ओर संकेत करता हुआ बोला ।
“वहां क्या देख रहे थे तुम ?” - प्रभू ने दीनानाथ से पूछा ।
“इन्स्पेक्टर साहब, इसी कुर्सी पर सुनील बैठा हुआ था, जब मैं पहली बार इस कमरे में घुसा था । मैं देख रहा था कि कहीं इसने इसमें कुछ छुपाया तो नहीं था ।”
“तुम्हारे ख्याल से सुनील यहां क्या छुपा सकता था ?”
“कुछ भी, जैसे... जैसे रिवाल्वर ।”
“शायद जिस समय जौहर ने तुम्हें उस कुर्सी की गद्दी उलटते-पलटते देखा था, तब तुम ही मुझे फंसाने के लिए उसमें कुछ रख रहे ये ।” - सुनील बोला ।
“यह झूठ है ।” - दीनानाथ चिल्लाया - “अगर मुझे ऐसा ही कुछ करना होता तो मैंने जौहर को बुलाने के लिए घंटी न बजाई होती ।”
“सुनील और सब-इन्स्पेक्टर के बाहर निकलने और तुम्हारे इस कमरे में घुसने में कितने समय का अन्तर था ?” - सुनील ने जौहर से पूछा ।
“तीन या चार सैकेण्ड ।”
“तीन या चार सैकिंड में भी बहुत कुछ किया जा सकता है ।” - सुनील बोला ।
“तुम अपनी चोंच बन्द रखो ।” - प्रभू सुनील पर बरसा और फिर जौहर की ओर मुड़कर बोला - “तुम्हारे यहां आने के बाद फिर क्या हुआ ?”
“कुछ भी नहीं दीनानाथ जी मुझे यहां निगरानी करने के लिए छोकड़र चले गये ।”
प्रभूदयाल चुप हो गया ।
“इन्स्पेक्टर साहब !” - जौहर उस युवक और युवती की ओर संकेत करता हुआ बोला, जो चुपचाप एक ओर खड़े थे - “मैं इन्हें आपके पास लाया था । इन्होंने एक महिला को समुद्र में रिवाल्वर फेंकते देखा था ।”
“क्या ?” - प्रभूदयाल चिल्लाया ।
जौहर ने स्वीकृतिसूचक ढंग से हिला दिया ।
“तुमने पहले क्यों नहीं बताया ?”
“मैंने कोशिश तो की थी लेकिन आपने रोक दिया था ।”
“क्या नाम है तुम्हारा ?” - प्रभूदयाल ने युवक से पूछा ।
“प्रहलाद ।” - युवक बोला !
“क्या काम करते हो ?”
पढता हूं, एम ए में ।”
“यह लड़की कौन है ?”
“मेरी क्लास फैलो है ।”
“यहां जहाज पर क्या करने आये थे ?”
प्रहलाद चुप रहा ।
“जुआ खेलने ?” - प्रभूदलाल ने फिर पूछा ।
लड़की जो इतनी देर से चुप खड़ी थी एकदम तेज स्वर में बोली - “हम कुछ भी करने आये हों आपसे मतलब ?”
“आप दोनों डैक के अन्धेरे में खड़े क्या कर रहे थे ?” - प्रभूदयाल उन पर यूं इल्जाम-सा लगाता हुआ बोला जैसे वह प्रश्न का उत्तर पहले से ही जानता हो ।
“कुछ भी नहीं ।” - प्रहलाद दबे स्वर से बोला - “बस, बातें कर रहे थे ।”
“अच्छा, बस बातें ही ?” - प्रभूदयाल ने व्यंग्य कसा ।
“नहीं ।” - लड़की बोली - “हम डैक पर खड़े एक-दूसरे को प्यार कर रहे थे और आपकी जानकारी के लिए हम इस जहाज पर आये भी यही कुछ करने के लिए थे । अब बताइए, आप क्या कर सकते हैं हमारा ?”
“गर्म होने की जरूरत नहीं है, देवी जी ।”
“है कैसे नहीं ? यह जहाज हमारे देश की सीमा से बाहर खड़ा है । यहां आप हमें खामख्वाह अपने आफिसर होने की धौंस नहीं दे सकते ।”
प्रभूदयाल क्षण भर कसमसाया फिर उसने लड़की की ओर से मुंह फेर लिया ।
“तुमने डैक पर क्या देखा था ?” - वह प्रहलाद की ओर मुड़कर बोला ।
“पहले डैक पर एक वृद्धा आई थी ।” - प्रहलाद बोला - “उसके हाव-भाव से ऐसा लगता था जैसे वह छुपने की चेष्टा कर रही थी । उस समय वृद्धा जरा और अन्धेरे में सरक गई थी । युवती अन्धेरे में कुछ देख नहीं पाई इसलिए वृद्धा और हमारे एकदम समीप पहुंच गई थी । उसी समय रीता ने मेरा ध्यान उस ओर आकर्षित किया तो मैंने देखा कि वृद्धा ने एक रिवाल्वर समुद्र में उछाल दी थी ।”
“वृद्धा ने ?” - सुनील अपना आश्चर्य छुपा न सका ।
“शट अप, सुनील ।” - “प्रभूदयाल बोला - “अच्छा मिस्टर प्रहलाद, फिर ?”
“फिर पहले वह युवती डैक से गई और उसके बाद वृद्धा भी वापिस हाल में चली गई ।” - प्रहलाद बोला ।
“क्या यह नहीं हो सकता ?” - सुनील ने पूछा - “कि तुम्हें धोखा हुआ हो और वास्तव में रिवाल्वर युवती ने पानी में फेंका हो ?”
“सुनील !” - प्रभूदयाल गर्जा ।
“हो सकता है !” - युवती ने प्रश्न का उत्तर दे दिया ।
“नहीं ।” - प्रहलाद बोला - “रिवाल्वर वृद्धा ने ही फेंकी थी ।”
“लेकिन तुमने अभी खुद कहा है ।” - सुनील बोला - “कि तुमने उसे और तभी देख था जब रीता ने तुम्हारा ध्यान उधर आकर्षित किया था, नहीं तो तुम बिल्कुल बेखबर थे कि तुम्हारी पीठ पीछे क्या हो रहा था !”
“सुनील ।” - प्रभूदयाल फिर बोला - “अगर इस बार दखल दिया तो मैं तुम्हें जहाज के नीचे फिंकवा दूंगा । आखिर उस वृद्धा में तुम्हारी क्या दिलचस्पी है ?”
“उसी से पूछना ।” - सुनील बोला ।
प्रभूदयाल एक कांस्टेबल की ओर घूमकर बोला - “जाओ, उस बूढी औरत को पकड़कर लाओ । तब तक मैं स्ट्रांगरूम की तलाशी लेता हूं । दीनानाथ, तुम्हारे पास चाबी है इसकी ?”
“यह चाबी से नहीं खुलता है ।” - दीनानाथ बोला - “इसे खोलने के लिए द्वार पर लगे पहिए को एक विशेष ढंग से घुमाना पड़ता है । मैं खोले देता हूं इसे ।”
दीनानाथ ने स्ट्रांगरूम खोल दिया ।
प्रभूदयाल, एक कांस्टेबल और दीनानाथ भीतर चले गए ।
“क्या तुम दावा कर सकते हो ?” - सुनील प्रहलाद से बोल - “कि वृद्धा ने ही रिवाल्वर पानी में फेंका था ?”
“यह कुछ भी दावा नहीं कर सकता ।” - लड़की जल्दी से बोली - “पूरी घटना की ओर मैंने ही इसका ध्यान आकर्षित किया था । रिवाल्वर को हमने समुद्र में गिरते जरूर देखा था लेकिन अब दूसरी बार सोचने पर ऐसा लगता है कि हो सकता है रिवाल्वर वृद्धा ने नहीं, युवती ने फेंकी हो ।”
“नहीं ।” - प्रहलाद बोला - “मैंने अच्छी तरह देखा था, रिवाल्वर वृद्धा ने ही...”
“खाक देखा था तुमने !” - लड़की झल्लाकर बोली - “उस समय तुम्हारा ध्यान मुझे छोड़कर कहीं और था ही कहां ? उस समय तो तुम मुझे अपने आलिंगन में लिए मेरी आंखों में झांक रहे थे और मेरे होंठों को...”
लड़की चुप हो गई ।
प्रहलाद ने दुबारा दावा न किया कि जो वह कह रहा है वही ठीक है ।
सुनील का काम हो चुका था । प्रहलाद अब इतना गड़बड़ा गया था कि अब इस मामले में कोई ठोस गवाही नहीं दे सकता था कि रिवाल्वर पानी में कलावती ने फेंका था या दीपा ने ।
“जौहर ।” - वह स्पेशल गार्ड जौहर की ओर घूमा - “मुरली के मर जाने से तुम्हारी नौकरी पर कुछ अन्तर पड़ता है क्या ?”
“बहुत अन्तर पड़ता है, सुनील साहब ।” - जौहर गहरी सांस छोड़कर बोला - “मुझे मुरली ने नौकरी दी थी । दीनानाथ ने मुझे कभी पसन्द नहीं किया था । मैं तो केवल मुरली की शह पर ही यहां टिका हुआ था । अगर दीनानाथ के बस की बात होती तो वह कब का मुझे निकाल चुका होता । मुरली के मर जाने के कारण अब दीनानाथ यहां का अकेला स्वामी हो गया है । अब भगवान ही जानता है, मेरा क्या होगा !”
“तुम्हारी नौकरी को भी कुछ खतरा है क्या ?”
“खतरा ? सुनील साहब, दीनानाथ यहां से निपटते ही सबसे पहले मुझे निकाल कर बाहर करेगा ।”
“जौहर !” - सुनील सहानुभूतिपूर्ण स्वर से बोला - “अगर तुम चाहते तो मैं तुम्हें नौकरी दिला सकता हूं ।”
“यह तो साहब, आपका मुझ पर भारी अहसान होगा ।”
“ठीक है, तुम मेरे दफ्तर आ जाना । अगर मैं न मिलूं तो मिस प्रमिला से बात कर लेना ।”
“बहुत मेहरबानी, सुनील साहब ।” - जौहर कृतज्ञता प्रकट करता हुआ बोला ।
उसी समय प्रभूदयाल और दीनानाथ वगैरह स्ट्रांगरूम से बाहर निकल आए । प्रभूदयाल ने द्वार को सील लगा दी ।
“भीतर एक सात हजार रूपए का प्रोनोट होना चाहिए था ।” - दीनानाथ बोला - “वह नहीं है । अगर मुरली ने उसे रुपये लेकर उसके स्वामी को लौटा दिया था तो सात हजार रुपये उसी कमरे में मिलने चाहिए थे ।”
“सात हजार रुपये स्ट्रांगरूम में नहीं मिले ?” - सुनील ने पूछा ।
“नहीं ।”
“तो फिर वे इस कमरे में होंगे ।”
“मैं मेज के दराज देखता हूं ।” - दीनानाथ बोला ।
“तुम किसी चीज को हाथ मत लगाओ ।” - प्रभूदयाल जल्दी से बोला - “मैं देखता हूं ।”
प्रभूदयाल दराज देखने लगा । एक दराज में उसे सुनील द्वारा रखे गए सात हजार रुपये मिल गए ।
“आम तौर पर तुम लोग रुपया कहां रखते हो ?” - प्रभूदयाल ने दीनानाथ से पूछा ।
“स्ट्रांगरूम में । जब भी कोई पेमेन्ट होती है, रुपया फौरन स्ट्रांगरूम में पहुंचा दिया जाता है ।”
“तो फिर यह सात हजार रुपये दराज में क्यों पड़े हैं ?”
“शायद रुपया मिलने के बाद मुरली को उठकर स्ट्रांगरूम तक ले जाने का मौका ही नहीं मिला ।”
“तो इसका मतलब यह हुआ कि जिस व्यक्ति ने मुरली को सात हजार रुपये दिये थे, वही आखिरी आदमी था जिसने मुरली को जीवित देखा था... तुम्हें मालूम नहीं है मुरली को सात हजार रुपये देने कौन आने वाला था ?”
दीनानाथ ने एक उड़ती हुई नजर सुनील पर डालकर सिर झुका लिया ।
“तुम्हें बताना पड़ेगा ।” - प्रभूदयाल उसे चुप देखकर बोला ।
दीनानाथ फिर भी कुछ नहीं बोला ।
“दीनानाथ !” - प्रभूदयाल कठोर स्वर से बोला - “मैं तुम्हें आर्डर करता हूं...”
“ऐसी की तैसी तुम्हारी और तुम्हारे आर्डर की ।” - दीनानाथ आपे से बाहर होकर बोला - “इस जहाज का मालिक मैं हूं और यह जहाज अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में खड़ा है । समझे ?”
प्रभू का चेहरा अपमान से लाल हो गया लेकिन वह खून का घूंट पीकर रह गया ।
“इन्स्पेक्टर साहब ।” - जिस सब-इन्स्पेक्टर ने सुनील की तलाशी ली थी वह बोला - “मैंने दीनानाथ और सुनील को सात हजार रुपये की कमीत के एक प्रोनोट के बारे में बात करते सुना था ।”
“मुरली को सात हजार रुपये की पेमेन्ट तुमने की थी ?” - प्रभूदयाल सुनील की ओर घूमकर बोला ।
सुनील ने उत्तर नहीं दिया ।
“जिस समय मुरली की लाश मिली थी, तुम इसी कमरे में थे ?” - प्रभूदयाल बोला ।
“इससे क्या होता है इन्स्पेक्टर साहब ? अगर मैं मुरली को सात हजार रुपये देने के इरादे से ही आया था तो फिर रुपये दे देने के बाद मुझे यहां ठहरने की क्या जरूरत थी । अपना काम खत्म हो जाने के बाद तो मुझे यहां से चला जाना चाहिए था । और अगर आपके ख्याल से मुरली की हत्या मैंने की है तो फिर मुझे सात हजार रुपये खोने की क्या जरूरत थी ? मैं सात हजार रुपये अपनी जेब में न रखता !”
प्रभूदयाल परेशान हो उठा । केस का कोई भी सूत्र उसकी पकड़ में नहीं आ रहा था ।
उसी समय वह कांस्टेबल वापिस आ गया जो वृद्धा को खोजकर लाने गया था ।
“इन्स्पेक्टर साहब ।” - वह बोला - “वह बुढिया तो लगता है जहाज पर कहीं छुपी हुई है ।”
“क्या” - प्रभूदयाल हैरान होकर बोला - “तुम्हारा दिमाग तो खराब नहीं हो गया है !”
“मैं ठीक कह रहा हूं । वह बाहर कहीं भी दिखाई नहीं दे रही है और तो आदमी डैक की निगरानी कर रहा है वह कमस खाकर कहता है कि कोई भी आदमी जहाज छोड़कर नहीं गया है । लोग कहते हैं कि हमारे जहाज पर पहुंचने के बाद तक वह यहीं थी और उसके बाद आप जानते ही हैं कोई किनारे नहीं पहुंचा है । लेकिन...”
“लेकिन क्या ?”
“कई लोगों ने उस वृद्धा को इस आदमी के साथ बात करते देखा था ।”
और उसने बड़े ड्रामेटिक अन्दाज से सुनील की ओर उंगली उठा दी ।
सबकी नजरें सुनील की ओर उठ गईं ।
क्षण-भर के लिए तो सुनील भी गड़बड़ा गया लेकिन फिर वह लापरवाही का प्रदर्शन करता हुआ बोला - “हां, हाल में शायद मैं किसी वृद्धा से बात कर तो रहा था ।”
“कौन थी वह ?” - प्रभूदयाल ने उसे घूरते हुए पूछा ।
“भगवान जाने कौन थी ?” - सुनील बोला - “कोई जवान लड़की होती तो शायद मैं नाम के साथ-साथ घर का पता भी पूछ लेता ।”
“मजाक मत करो ।” - प्रभूदयाल झल्लाया ।
“इन्स्पेक्टर साहब, आपसे मजाक का क्या काम ? भला आप से मेरा मजाक का कौन-सा रिश्ता है ?”
“सुनील, तुम्हें मालूम होना चाहिए कि मैं सन्देह के आधार पर तुम्हें बन्द कर सकता हूं ।”
“जैसे तुम्हारे घर का राज है ।” - सुनील ऊंचे स्वर से बोला - “इन्स्पेक्टर साहब, मैं मुरली की लाश के समीप पाया गया था, इस बात से इस तथ्य पर कतई कोई फर्क नहीं पड़ता है कि मैं ‘ब्लास्ट’ का रिपोर्टर हूं और हमारे देश में सबको समान रूप से अपने विचार व्यक्त करने का अधिकार है । बन्द करना तो दूर की बात है, आप एक बार अपनी पुलिस की धौंस में मुझे हाथ भी लगाकर देखिए, ‘ब्लास्ट’ ने आपकी धज्जियां न उड़ाकर रख दीं तो कहना ।”
प्रभूदयाल कितनी ही देर ताव पेंच खाता रहा फिर एक सिपाही से बोला - “एक मोटरबोट में इसे किनारे पर फेंक कर आओ । लेकिन सुनील, इस केस में अगर तुम्हारी नाक न रगड़वाई तो मेरा भी नाम प्रभूदयाल नहीं ।”
सुनील उसकी बकवास की तनिक भी परवाह किए बिना गलियारे में आ गया ।
लगभग आधे घन्टे बाद वह मैरीना बीच पर था ।