सीक्रेट एजेंट

सुबह‍ ग्‍यारह बजे का वक्‍त

उन अफसरान में महात्रे की औकात सबसे छोटी थी - हैडक्‍वार्टर के उच्‍चाधिकारियों के सामने वो हमेशा अपना दर्जा चपरासी जैसा पता था - लेकिन अपने डीसीपी के हुक्‍म पर उसको वहां हाजिरी भरनी पड़ रही थी और वो वहां जायंट कमिश्‍नर के रूबरू यूं बैठा हुआ था जैसे कुर्सी की सीट पर कांटे उगे हों । ये अभी उसे मालूम होना बाकी था कि क्‍यों उसकी वहां हाजिरी जरूरी समझी गयी थी ।

कांफ्रेंस में डिसकस होने वाले सब्‍जेक्ट की बाबत अलबत्ता उसे मालूम था ।

सब्‍जेक्‍ट था : कोनाकोना आइलैंड और उसका मौजूदा करप्‍ट निजाम 

कोनाकोना आइलैंड अरब सागर में स्‍थापित था और प्राकृतिक सौंदर्य के लिहाज से कुदरत का करिश्‍मा था । वो बहुत शांत टूरिस्‍ट टाउन था जिसकी स्‍थायी लोकल आबादी मुश्किल से दो हजार थी । आइलैंड पर एक मनोरम झील थी जिसके दायें बाजू एक पहाड़ी इलाका था जो एस्‍टोरिया हिल के नाम से जाना जाता था और जिस पर सारे महाराष्‍ट्र के साधन सम्‍पन्‍न महानुभावों के लग्‍जरी कॉटेज थे जिनमें से कोई ही कभी सारा साल आबाद दिखाई देता था । बड़े, रईस लोग परिवार के साथ, फ्रेंड्स के साथ, कीप्‍स के साथ पिकनिक के लिये, तफरीह के लिये, मौजमस्‍ती के लिये, रिलैक्‍सेशन के लिये आते थे, जी भर जाता था तो वापिस चले जाते थे, फिर आ जाते थे । रईसों का ऐसा आवागमन कोनाकोना आइलैंड पर राउंड-दि-इयर चलता था । सारा साल ही वहां सैलानियों की आवाजाही रहती थी क्‍योंकि उनके लिये वहां मनोरंजन के ऐसे इंतजाम भी मौजूद थे जिनकी इजाजत राज्‍य का कायदा कानून नहीं देता था । कायदे कानून के नाम पर वहां अराजकता का राज था । बहुत ऊपर तक इस बात की हाजिरी थी कि एक अरसे से आइलैंड पर महज दो जनों का कब्‍जा था जिनमें से एक वहां के थाने का थानेदार था ।

यही बात उस कांफ्रेंस का मुद्दा थी जो कि मूलरूप से कमिश्‍नर की मौजूदगी में होने वाली थी ।

“...ये काम” - जायंट कमिश्‍नर बोमन मोरावाला कह रहा था - “मुम्‍बई पुलिस के स्‍कोप में नहीं आता । कोनाकोना आइलैंड हमारी ज्‍यूरिसडिक्‍शन नहीं । उसका निजाम उस डिस्ट्रिक्‍ट के डीसीपी के अंडर आता है जिसके अंदर कि मुरुड आता है जबकि कोनाकोना आइलैंड मुम्‍बई से करीब है, पिच्‍चासी किलोमीटर पर है । मुरुड से - जो कि कोस्‍टल टूरिस्‍ट टाउन है - वो एक सौ पचपन किलोमीटर से फासले पर है । ये विसं‍गति, व्‍यवस्‍था अंग्रेज के टाइम से चली आ रही है जिस पर पुनर्विचार करने की, जिसको रिवाइज करने की कभी कोई कोशिश नहीं हुई । बहरहाल इस सिलसिले में जो है सो है । नो ?”

सबके सिर सहमति में हिले 

“मुरुड - जैसा कि मैंने कहा - यहां से एक सौ पैंसठ किलोमीटर पर है । बहरहाल हमें ऊपर से आर्डर इशु हुआ है कि इस प्रोजेक्‍ट को हम हैंडल करें, इस तरीके से हैंडल करें कि जिनका असल में ये काम है, उनको भी कानोंकान खबर न हो कि आइलैंड पर खास, नया, कुछ हो रहा है ।” - जायंट कमिश्‍नर एक क्षण ठिठका और फिर बोला - “मुरुड से और इधर मुम्‍बई से कोनाकोना आइलैंड के लिये स्‍टीमर चलते हैं जिनकी सर्विस इतनी बढ़िया है कि पर्यटकों को वहां पहुंचने में कोई दिक्‍कत नहीं होती । आइलैंड पर हैलीपैड है इसलिये जिसकी समर्थ हो वो हैलीकाप्‍टर से भी वहां पहुंच सकता है । इट गोज विदाउट सेईंग दैट ऐसी समर्थ उन वीआईपीज की ही है जिनके कि वहां लग्‍जरी कॉटेजिज हैं ।”

कोई कुछ न बोला ।

“टुरिस्‍ट्स के लिये वहां मनोरंजन का हर साधन उपलब्ध बताया जाता है । शराब और शबाब का खुला दरबार तो वहां है ही, कहते हैं कि एक जुआघर भी वहां बड़े सुचारुरूप से, बिना किसी खास छुपाव के, शरेआम चलता है । इस वजह से औरतों के रसिया और जुए के शौकीन लोग भारी तादाद में वहां पहुंचते हैं । यहां तक सुना गया है कि कुछ टूरिस्‍ट एजेंसियां तो कोनाकोना आईलैंड के बैंकाक स्‍टाइल सैक्‍स टूर्स आर्गेनाइज करने लगी हैं ।” - जायंट कमिश्‍नर अपने शब्‍दों का प्रभाव अपने मातहतों पर देखने के लिये एक क्षण को रुका और फिर आगे बढ़ा - “लेकिन ये सब-प्रास्‍टीच्‍यूशन, गेम्‍बलिंग - भी हायर अप्‍स की चिंता का विषय नहीं हैं, क्‍योंकि ये दोनों काम यहां मुम्‍बई में भी बहुताहत में होते हैं और उन पर रोक लगाने की पुलिस की भरपूर कोशिशों के बावजूद नहीं रुकते । पुलिस रेड करके ये कारोबार एक जगह से उखाड़ती है तो वो दूसरी जगह शिफ्ट हो जाता है, तीसरी जगह शिफ्ट हो जाता है । जंटलमैन, होम मिनिस्ट्री का चिंता का विषय ये है कि उनके पास कुछ ऐसी - अनकनफर्म्‍ड - रिपोर्ट्स पहुंची हैं कि कोनाकोना आइलैंड ड्रग समगलिंग का और आर्म्‍स सम‍गलिंग का अड्‍डा बना जा रहा है । हम नहीं जानते कि इस बात में कितनी सच्‍चाई है लेकिन ये हम बराबर जानते समझते हैं कि हम नहीं चाहते - राज्‍य का निजाम नहीं चाहता - कि कोनाकोना का कैरेक्‍टर स्‍वैननैक प्‍वायंट वाला बन जाये । हम नहीं चाहते कि पाकिस्‍तान की शह पाये बादशाह अब्‍दुल मजीद दलवई की सरपरस्‍ती में फूला फला स्‍वैननैक प्‍वायंट तबाह हुआ तो उसकी जगह अब कोनाकोना ले ले ।”

“ऐसा कैसे होगा, सर !” - डीसीपी नितिन पाटिल बोला - “क्‍यों होने देंगे हम ? क्या प्राब्‍लम है ?”

“प्राब्‍लम हमारी ये लाचारी, ये बेचारगी है कि हकीकत को भांपने के लिये, कनफर्म करने के लिये हमारा जो कोई भी अंडरकवर एजेंट कोनाकोना आइलैंड पर कदम रखता है, फौरन पहचान लिया जाता है । नतीजतन वहां चलता कैसीनो यूं गायब हो जाता है जैसे कि कभी था ही नहीं । वहां की ईंट उखाड़े मिलने वाली प्रास्‍टीच्यूट्स ओवरनाइट में गायब हो जाती हैं या सम्भ्रांत टूरिस्‍ट महिलायें लगने लगती हैं । बार वहां लीगल हैं, स्‍काच विस्‍की आम मिलती है लेकिन वो समगलिंग की होती है, एक्‍साइज अनपेड होती है लेकिन हमारे अंडरकवर एजेंट की आइलैंड पर मौजूदगी की भनक लगते ही बारों पर स्‍काच की बोतलें लीगल, एक्‍साइज पेड दिखाई देने लगती हैं । कोई कहीं ड्रग्‍स का हिंट दे तो उसे गिरफ्तार करा दिये जाने की धमकी मिलती है । हमारा सीक्रेट एजेंट अभी वहां पहुंचा नहीं होता कि समझो कि वहां रामराज स्‍थापित हो जाता है ।”

“कमाल है !”

“कमाल ही है । और ये कमाल एक बार नहीं, पिछले दो साल में कई बार हो चुका है ।”

“कैसे हो पाता है ?”

“रक्षक, ही भक्षक हैं, ऐसे हो पाता है ।”

“जी !”

“हमारी इंटेलीजेंस रिपोर्ट ये कहती है कि वहां के थाने का थानेदार - एसएचओ, स्‍टेशन हाउस आफिसर, अनिल महाबोले नाम है - ही मेन विलेन है । उसी ने आपना ऐसा खुफिया तंत्र उधर स्‍थापित किया हुआ है कि जब भी कोई सरकारी आदमी उधर का रुख करता है, उसे एडवांस में खबर लग जाती है । मुझे कहते अफसोस होता है लेकिन कहना पड़ता है कि इस सिलसिले में उसकी सलाहियात काबिलेरश्‍क हैं । हिज रिसोर्सफुलनैस इस एनवियेबल ।”

“दैट्स टू बैड !”

“आफकोर्स इट्स टू बैड । कोई बड़ी बात नहीं कि इस सिलसिले में मुरुड से भी उसे मदद मिलती हो ।”

“मुरुड से ?” - एडीशनल कमिश्‍नर दीक्षित सकपकाये लहजे से बोला ।

“हां ।”

“लेकिन मुरुड से...”

“समझो, भई । मामूली इंस्‍पेक्‍टर, यहां से पिच्‍चासी किलोमीटर दूर के एक थाने का थानेदार यहां हैडक्‍वार्टर में घात नहीं लगा सकता लेकिन मुरुड के डीसीपी तक पहुंच बना सकता है जिसके अंडर कि उसका थाना आता है । खुदा न करे डीसीपी गलत हो लेकिन अगर हो तो सोचो, अपने ऊंचे रुतबे के जेरेसाया वो क्‍या नहीं कर सकता !”

“ओह ! ओह ! तो इसलिये ऊपर से हुक्‍म हुआ है कि हमारे प्रेजेंट प्रोजेक्‍ट की किसी को भी कानोकान खबर न लगे ?”

“नाओ यू अंडरस्टैंड ।”

“एक्‍सक्‍यूज मी, सर ।” - डीसीपी नितिन पाटिल बोला - “ऐसे थानेदार पर अंकुश लगाने के और भी तो तरीके हैं !”

“उसे वहां से ट्रांसफर किया जा सकता है । यही कहना चाहते हो न ?”

“ज..जी हां ।”

“किया जा सकता है । सस्‍पेंड करके उसके खिलाफ डिपार्टमेंटल इंक्‍वायरी भी बिठाई जा सकती है लेकिन ये कदम इस वक्‍त नहीं उठाया जा सकता, मौजूदा हालात मैं नहीं उठाया जा सकता ।”

“गुस्‍ताखी माफ, सर, वजह ?”

“सुनने में आया है कि गुजरे वक्‍त के साथ उसने उधर अपनी ऐसी ताकत बना ली है कि वहां से हटाया जाने पर भी वो रिमोट कंट्रोल से आइलैंड का निजाम कंट्रोल कर सकता है ।”

“नये एसएचओ को अपनी कठपुतली की तरह नचा सकता है ?”

“हां ।”

“ओह, नो ।”

“ऐसा ही सुनने में आया है । ऊपर से लोकल म्‍युनिसपैलिटी के प्रेसीडेंट बाबूराव मोकाशी से उसका हाथ और दस्‍ताने जैसा गंठजोड़ है । और ऊपर से खुद कमिश्‍नर साहब का खयाल है कि अपनी नयी स्‍ट्रेटेजी के तहत अगर हम उसे थोड़ी और ढ़ील दें तो उसका ओवरकंफीडेंस ही उसके पतन को कारण बन जायेगा । वो खुद अपना वाटरलू बनेगा । इस सिलसिले में उसकी एक करतूत बुनियाद बन भी चुकी है ।”

“वो कैसे, सर ?”

“वो ताकत के मद में इतना ऐंठ चुका है कि अपने आपको आइलैंड का बादशाह समझता है । समझता है कि जो कोई भी आइलैंड पर बसा है और बाहर से आकर कदम रखता है, वो उसका सबजैक्‍ट है और वो जैसे चाहे उसके साथ पेश आ सकता है । इसी ऐंठ में हाल में ऐसी करतूत की कि जिन पर एक्‍सपोज्‍ड नहीं भी था, उन पर भी एक्‍सपोज हो गया ।”

“क्‍या किया ?”

“मुम्‍बई से वहां पहुंची मीनाक्षी कदम नाम की एक टूरिस्‍ट महिला को सरेराह रोक लिया । महिला फिल्‍म स्‍टार्स जैसी नौजवान और जगमग बताई जाती है । नार्थ पायर रोड पर अपनी कार ड्राइव करती आ रही थी कि महाबोले की - जो कि तब वर्दी और दारू के दोहरे नशे के हवाले था - उस पर निगाह पड़ी, उसने घुटनों तक लार टपकाई और अपनी जीप उसके रास्‍ते में अड़ा कर उसे रोक लिया, बोला, जिगजैग चला रही थी, चालान होगा । साथ में हिंट देने लगा कि वो उस पर मेहरबान होती तो चालान माफ हो सकता था । महिला ने हिंट न लिया तो बोला हेरोइन की बरामदी दिखा दूंगा, ले जा के हवालात में बंद कर दूंगा, ऐसी दुरगत होगी कि तमाम पालिश उतर जायेगी । उस धमकी से वो महिला घबरा गयी, तलाशी के लिये अपना हैण्‍डबैग पेश करने लग गयी कि उसके पास ड्रग्‍स जैसी कोई चीज नहीं थी । महाबोले ने हैण्‍डबैग खोला और उसमें मौजूद सौ सौ डालर के दो नोट अपने काबू में कर लिये और महिला को चला जाने दिया । ...जंटलमैन, आप सोच रहे होंगे कि ये वाकया हमारे - मुम्‍बई पुलिस के - नोटिस में कैसे आया !”

सबके सिर सहमति में हिले 

“वो महिला इधर एनसीपी के एक एमपी की करीबी थी, मुम्‍बई पहुंच कर उसने तमाम किस्‍सा एमपी को सुनाया तो एमपी आगबगूला हो उठा, उसे लेकर मंत्रालय में होम मिनिस्‍टर के पास पहुंच गया जो कि कोलीशन सरकार में उसी की पार्टी का है । मिनिस्‍टर ने उसी वक्‍त खड़े पैर हमारे कमिश्‍नर को मंत्रालय में तलब किया जहां कि उस स्‍ट्रेटेजी की बुनियाद बनी जो कि इस वक्‍त अंडर डिसकशन है । होम मिनिस्‍टर की सहमति के अंतर्गत ये फैसला हुआ कि आइलैंड के करप्ट निजाम को थोड़ा अरसा और छूट दी जाये और इस बार कोई ऐसा अंडरकवर एजेंट तलाश किया जाये जो महकमे का हो भी और न भी हो । यानी कि पड़ताल पर जिसका कोई रिश्‍ता महकमे से न जोड़ा जा सकता हो । जिस पर किसी सूरत में पुलिस का भेदिया होने का शक न किया जा सके । यूं हम निर्विवाद रूप से इस बात की तसदीक होने की उम्‍मीद कर रहे हैं कि आइलैंड का निजाम सिर्फ पुलिस और लोकल सिविल एडमिनिट्रेशन की करप्‍शन के हवाले है या वो उन्‍हीं लोगों की मदद से एस्पियानेज का, नॉरकॉटिक्‍स और आर्म्‍स समगलिंग का गढ़ भी बना हुआ है ।”

सबने गम्‍भीरता से सहमति में सिर हिलाये ।

“आइलैंड की बाबत” - जायंट कमिश्‍नर आगे बढ़ा - “हाल ही में एक और बात भी उजागर हुई है कि गोवा का एक बड़ा रैकेटियर वहां मुकाम पाये है । गोवा में उसके कानूनी गैरकानूनी कई जुए के अड्‍डे हैं । अब उसकी नजरेइनायत कोनाकोना आइलैंड पर हुई है तो कोई बड़ी बात नहीं कि वो वहां कोई स्‍वैननैक प्‍वायंट जैसा बड़ा कैसीनो खड़ा करने के ख्‍वाब देख रहा हो ।”

“सर” - डीसीपी पाटिल तनिक प्रतिवादपूर्ण स्‍वर में बोला - “स्‍वैननैक प्‍वायंट पाकिस्‍तान की मिल्कियत था, उस पर हमारा कोई जोर नहीं था, भारत सरकार वहां चलते किन्‍हीं कार्यकलापों की बाबत कोई कदम उठाती थी तो पाकिस्‍तान हल्‍ला करने लगता था और उसे पाकिस्‍तानी टैरीटैरी पर हमला करार देने लगता था । नतीजतन, मजबूरन, भारत सरकार को अपना कदम वापिस लेना पड़ता था । लेकिन कोनोकोना आइलैंड तो भारत है; क्रॉस आइलैंड, बूचर आइलैंड, एलिफेंटा आइलैंड जैसे कई आइलैंड्स की तरह भारत है, वहां किसी गोवानी रैकेटियर की, किसी गेम्‍बलिंग जायंट्स आपरेटर की वैसी पेश कैसे चलेगी जैसी पाकिस्‍तान की सपरपरस्‍ती में बादशाह अब्‍दुल मजीद दलवई की स्‍वैननैक प्‍वायंट आइलैंड पर चली !”

“तफ्तीश का मुद्दा है । जो कि हमारी आइंदा स्‍ट्रेटेजी रंग लाई तो बहुत मुस्‍तैदी से होगी, बहुत बारीकी से होगी ।”

“है कौन वो गोवानी रैकेटियर ?” - एडीशनल कमिश्‍नर दीक्षित ने पूछा ।

“उसका नाम फ्रांसिस मैग्‍नोरो है । कनफर्म हुआ है कि आजकल स्‍थायी रूप से आइलैंड पर मुकाम पाये है और म्‍यूनीसिपल प्रेसिडेंट मोकाशी और एसएचओ महाबोले से उसकी खूब गाढ़ी छनती है । वो तीनों वहां ट्रिपल एम और त्रिमुर्ति जैसे नामों से मशहूर हैं ।”

“चोर चोर मौसेरे भाई ।” - डीसीपी पाटिल के मुंह से निकला ।

“यू सैड इट, पाटिल । ऐन मेरे मुंह की बात छीनी । ब्रावो !”

डीसीपी पाटिल शिष्‍ट भाव से मुस्‍कराया ।

“बहरहाल अब सुरतअहवाल ये है कि हमें एक ऐसा आदमी दरकार है जो किसी पुलिस या एडमिनिस्‍ट्रेटिव बैकिंग की उम्‍मीद न करे, जिसे अपने लोन प्‍लेयर के रोल से गुरेज न हो और जो शेर की मांद में कदम रखने का हौसला कर सके । ऐसा एक आदमी इंस्‍पेक्‍टर महात्रे ने अपने डीसीपी को - नितिन पाटिल को - सुझाया है और पाटिल ने उसका जिक्र आगे कमिश्‍नर साहब से और मेरे से किया है । बेहतर होगा कि उसकी बाबत आगे जो कहना है, वो महात्रे खुद कहे । महात्रे !”

“यस, सर ।” - महात्रे हड़बड़ाया और फिर तत्‍पर स्‍वर में बोला । साथ ही उसने उठकर खड़ा होने की कोशिश की ।

“नो, नो” - तत्‍काल जायंट कमिश्‍नर बोला - “कीप सिटिंग । यू डोंट हैव टु स्‍टैण्‍ड टु बी हर्ड ।”

“यस, सर ! थैंक्‍यू, सर !” - महात्रे बोला, फिर झिझकता, सकुचाता आगे बढ़ा - “वो क्‍या है कि वो भीङू -आदमी - अभी एक साल पहले तक पुलिस के महकमे में ही था - मेरे थाने में, बोले तो ग्रांट रोड थाने में, मेरे साथ एएसएचओ था - करप्‍ट कॉप था, भाई लोगों के हाथों पूरी तरह से बिका हुआ था । लेकिन हालात कुछ ऐसे बने कि जब कि डीसीपी साहब” - उसने अदब से पाटिल की तरफ इशारा किया - “जो कि डीसीपी देशपाण्‍डे साहब के एकाएक रिजाइन कर जाने की वजह से उनकी जगह तब नये नये आये थे - बतौर करप्‍ट कॉप उसकी शिनाख्‍त भी कर चुके थे और उसका सस्‍पेंशन आर्डर तक तैयार हो चुका था, उसने साहब को उन्‍हीं लोगों के खिलाफ खड़ा होने का, जिनका कि वो चमचा बना हुआ था, ऐसा मजबूत इरादा दिखाया कि उसका सस्‍पेंशन आर्डर थोड़े अरसे के लिये रोक लिया गया । हालात कुछ ऐसे बने कि जिन भाई लोगों के हाथों वो पूरी तरह से बिका हुआ था, उन्‍हीं ने उसके छोटे भाई का - जो कि उससे ग्‍यारह साल छोटा था, दादर थाने मे सब-इंस्‍पेक्‍टर था - एक बाहर से बुलाये कांट्रैक्‍ट किलर से कत्‍ल करा दिया । डीसीपी साहब से वादे के तहत और भाई का बदला लेने के इरादे के तहत उसने भाई लोगों के खिलाफ अकेले ही जिहाद छेड़ दिया और उनके साथ एक फेस टु फेस शूट आउट में कंधे मे गोली खा कर गम्‍भीर रूप से घायल हुआ । उसने पकड़े गये भाई लोगों के खिलाफ गवाह बनना कबूल कर दिया इसलिये वादामाफ गवाह का दर्जा पाकर सस्‍ते में छूट गया - खाली नौकरी से बर्खास्‍त किया गया - वर्ना पांच की तो कम से कम लगती ।”

“करैक्‍ट !” - जायंट कमिश्‍नर बोला - “वो आदमी हमारे काम का साबित हो सकता है... होगा ।”

“इंस्‍पेक्‍टर बोला” - एडीशनल कमिश्‍नर की भवें उठीं - “उसके कंधे में गोली लगी थी, वो गम्‍भीर रूप से घायल हुआ था !”

“एक साल पहले ! परसों नहीं !”

“जी !”

“सर” - इंस्‍पेक्‍टर महात्रे जल्‍दी से बोला - “वो पूरी तरह से तंदरुस्‍त हो चुका है । रिकवरी में पूरे पांच महीने लगे थे लेकिन अब वो पर्फेक्‍ट हैल्‍थ में है !”

“गुड !” - जायंट कमिश्‍नर बोला - “पुलिस की नौकरी से गया । अब क्‍या करता है ? दैट इज, अगर कुछ करता है तो !”

“करता है । आज कल वो बांद्रा के एक फैंसी बार का सिक्‍योरिटी इंचार्ज है ।”

“फैंसी नाम ! सिक्‍योरिटी इंचार्ज ! असल में बाउंसर होगा !”

महात्रे खामोश रहा ।

“वो असाइनमेंट को फौरन हाथ में लेने की स्थिति में होगा ?”

“सर, मेरे खयाल से तो होगा !”

“तुम्‍हारे खायाल से ?”

“वो मामूली नौकरी है, छोड़ देने से वैसी कभी भी फिर मिल जायेगी ।”

“लेकिन तुम्‍हारे खयाल से ?”

“मैं...मैं मालूम करूंगा ।”

“कौन है वो ? क्‍या नाम है ? कहां पाया जाता है ?”

महात्रे ने बताया ।

***

नीलेश गोखले बस पर सवार हो कर खार पहुंचा और आगे उस सड़क पर बढ़ा जिस पर आचार्य अत्रे का धर्मार्थ सेवा आश्रम था ।

आचार्य जी नीलेश के पिता

खुद नीलेश उन्‍हीं भाई लोगों के हाथों बिका करप्‍ट पुलिसिया था जिसको भाई लोगो का हुक्‍म हुआ था कि वो अपने भाई को गवाही से रोके वर्ना ‘वो जान से जायेगा और तू भाई से जायेगा’।

उस तमाम हाई टेंशन ड्रामे का अंत ये हुआ था कि कोर्ट में गवाही दे पाने से पहले ही उसका भाई मारा गया था, फाइनल एनकाउंटर में टॉप भाई अन्‍ना रघु शेट्‍टी मारा गया था, उसका नैक्‍स्‍ट इन कमांड सायाजी घोसालकर फरार होता गिरफ्‍तार हो गया था, गैंग के कई नामलेवा मवाली भी गिरफ्तार हो गये थे, और खुद वो अन्‍ना रघु शेट्‍टी की गोली खाकर मरता मरता बचा था । गोली उसके कंधे में लगी थी, छाती में लगती तो वो ठौर मारा गया होता । गोली की वजह से कंधे की हड्‍डी बुरी तरह से टूटी थी, नतीजतन एक ही जगह पर तीन बार हुई सर्जरी की वजह से उसे पूरे पांच महीने हस्‍पताल में काटने पड़े थे, और अभी दो महीने और घर पर पूर्ण स्‍वास्‍थ्‍य लाभ करने में लगे थे ।

सारे वाकये के बाद मीडिया

बकौल महात्रे, वो उसका ऐन सही कदम था, पांच साल जेल में काटने के मुकाबले में बर्खास्‍तगी की जिल्‍लत और बेरोजगारी की लानत मामूली सजायें थीं ।

खुद आचार्य अत्रे ने भी उसके उस कदम को सही ठहराया था और साधुवाद से नवाजा था कि वो अपनी शुद्धि की, अपने प्रायश्चित की, गुड सन बनने की राह पर था । आचार्य जी ने उसे ‘सुबह का भूला’ करार दिया था जो कि ‘शाम को घर लौटा था’, उसको बीती बिसार के आगे की सुध लेने की राय दी थी और आश्‍वासन दिया था कि ‘आज से तुम्‍हारा नया जीवन शुरु होता है’ 

लेकिन वो तमाम आशाजनक, उत्‍साहवर्धक बातें मनोबल ऊंचा करने के ही काम की थीं, लोकाचार में उनकी कोई अहमियत नहीं थी, कोई कीमत नहीं थी, वो उसे किसी सम्‍मानजनक नौकरी में पुनर्स्थापित करने में सर्वदा अक्षम थीं । वक्‍त के साथ लोगबाग भूल जाते तो भूल जाते कि वो पुलिस के महकमे से ‘डिसग्रेसफुली डिसमिस्‍ड’ इंस्‍पेक्‍टर था, फिलहाल तो मुम्‍बई शहर में उससे और उसकी जात औकात से हर कोई वाकिफ था । लिहाजा हर ढ़ण्‍ग की नौकरी की जगह से उसको एक ही जवाब मिलता था:

अभी कोई वेकेंसी नहीं है, एप्‍लीकेशन छोड़ के जाने का, बोलेंगे ।

बोलता कोई नहीं था ।

उसकी मौजूदा - समथिंग इज बैटर दैन नथिंग जैसी - नौकरी बांद्रा के ‘पिकाडली’ नाम के एक बार में थी जिसकी कहने को वो सिक्‍योरिटी आफिसर था लेकिन असल में लेट नाइट आवर्स में अतिरिक्‍त चुस्‍त, चाकचौबंद और चौकस रहने वाला बाउंसर था क्‍योंकि खूबसूरत बारबालाओं के लिये मशहूर उस बार में कोई गलाटा होता था तो रात दस और एक बजे कि बीच ही होता था । ऊपर से और डाउनग्रेडिंग बात ये थी कि वो दिहाड़ी मजदूर था - महीना तनखाह पर नहीं, हजार रुपये रोजाना पर वहां ड्‍यूटी करता था ।

‘सब दिन जात न एक समान ।’ - होंठों में बुदबुदाते हुए उसने आश्रम में कदम रखा ।

और ‘संचालक’ का पट लगे आफिस में आचार्य जी के रूबरू हुआ ।

उसने करबद्ध अभिवादन किया ।

“आओ” - आचार्य जी स्‍वभाववगत मीठे स्‍वर में बोले - “बिराजो ।”

“धन्‍यवाद ।” - नीलेश उनके सामने एक कुर्सी पर बैठा 

आचार्य अत्रे आयु में पैंसठ वर्ष के चौकस तंदुरुस्‍ती वाले व्‍यक्ति थे; लम्‍बी दाढ़ी, मूंछ और कन्धों तक आने वाले बाल रखते थे, भगवा वस्‍त्र पहनते थे और गले में रुद्राक्ष की डबल माला पहनते थे । उनके व्‍यक्तित्‍व का प्रताप ऐसा था कि सामने पड़ने वाला स्‍वयं ही नतमस्‍तक हो जाता था ।

“कैसे आये  ?” - वो मुस्‍कराते हुए बोले - “बल्कि पहले बोलो, अब तंदुरुस्‍ती कैसी है ?”

“ठीक है ।”

“कंधा प्राब्‍लम नहीं करता ?”

“अब नहीं करता ।”

“ये शुभ समाचार है । अब बोलो, कैसे आये ?”

“स्‍वार्थ लाया ।”

आचार्य जी की भवें उठीं 

“दिशाज्ञान की जरुरत लायी ।”

“हम समझे नहीं ।”

“मेरे सामने एक पेशकश है जिसकी बाबत कोई तुरंत, तत्‍पर फैसला कर पाने में मैं खुद को अक्षम पाता हूं इसलिये अपकी शरण में आया हूं।”

“क्‍या पेशकश है ?”

“पेशकश पुलिस के महकमे से है....”

“जिसका कि तुम कभी हिस्‍सा थे !”

“जी हां ।”

“आगे बढ़ो ।”

“पुलिस के टॉप ब्रास की, होम मिनिस्ट्रिी तक की, सहमति प्राप्‍त उनका एक बड़ा, जानजोखम वाला, प्रोजेक्‍ट है जिसके लिये उनकी दरकार एक ऐसा शख्‍स है जो पुलिस का अपना हो, पूरेभरोसे का हो, पूरी तरह से उनके कंट्रोल में हो फिर भी जिसका किसी भी तरीके से पुलिस के महकमे से कोई रिश्‍ता न जोड़ा जा सके । जिसकी पड़ताल हो तो किसी दूरदराज के तरीके से भी उसकी कोई कड़ी पुलिस से - या पुलिस जैसे किसी महकमे से, जैसे सीआईडी, इंटेलीजेंस ब्‍यूरो, स्‍पेशल टास्क फोर्स - से जुड़ती न पायी जाये, जो किसी पुलिस या एडमिनिस्‍ट्रेटिव बैकिंग की उम्‍मीद न करे, जो जो कुछ भी करे अपने, अकेले के बलबूते पर करे; लगन से, मेहनत से, मशक्‍कत से, मुकम्‍मल जिम्‍मेदारी से करे और कामयाब होकर दिखाई । मेरे को साफ बोला गया है कि ये शेर की मांद में कदम रखने जैसा काम होगा।”

“जो खुद शेर हो, उसको शेर की मांद में कदम रखने में भला क्‍या खतरा होगा ? हासिल क्‍या है ?”

“जी !”

“जो तुमसे उम्‍मीद की जाती है, वो कर गुजरो तो तुम्‍हें क्‍या मिलेगा ?”

“मुझे क्‍या मिलेगा ?”

“भई, सोशल सर्विस तो नहीं चाहते होंगे वो लोग तुम से ! तुम उनका इतना बड़ा काम करना कबूल करोगे, करने में कामयाब हो जाओगे तो बदले में वो भी तो कुछ करेंगे या नहीं ! सहजबुद्धि में यही आता है कि बड़े काम का कोई बड़ा ईनाम भी तो पहले से मुकर्रर होना चाहिये ! है ?”

“जी हां, है ।”

“क्‍या ?”

“मुझे मेरी नौकरी पर बाइज्‍जत बहाल कर दिया जायेगा ।”

“ऐसा ?”

“जी हां ।”

“ये फर्म आफर है ?”

“जी हां । खुद कमिश्‍नर की । होम मिनिस्‍टर की एनडोर्समेंट के साथ।”

“तुम फिर नीलेश गोखले, इंस्‍पेक्‍टर मुम्‍बई पुलिस !”

“कामयाब हुआ तो !’’

“फौरन हां बोलो, बेटा । ये सोच कर फौरन से पेश्‍तर हां बोलो कि जिस नौकरी ने तुम्‍हें कलंकित किया, वही अब तुम्‍हारे पाप धोयेगी । उनकी पेशकश कबूल करो और अपनी हिम्‍मत और मेहनत से उनकी उम्‍मीदों पर खरा उतर कर दिखाओ, ऐसा करतब करके दिखाओ कि खुद तुम्‍हें अपने आप पर अभिमान हो कि ये काम तुमने, सिर्फ तुमने किया ।”

“जी ।”

“बाकी रही जान जोखम की बात तो जोखम कहां नहीं है, बेटा ! जो शख्‍स जोखम से खौफ खाता है, उसके लिये तो हर कदम पर जोखम है। वो दरख्‍त परवान नहीं चढ़ सकता जिसे हर वक्‍त अपने पर बिजली गिरने का खतरा सताता हो । बेटा, जीवन का परमानंद उसी काम को अंजाम देने में है जो लोगों को लगे - खुद आपको लगे - कि आप नहीं कर सकते । नहीं ?

“जी.. जी हां ।”

“फिर मौत से क्‍या डरना ! मौत तो जिंदगी का आखिरी अंजाम है । अन्‍ना रघु शेट्‍टी नाम के उस बड़े मवाली से मुठभेड़ में जो गोली तुम्‍हारे कंधे पर लगी, वो माथे पर भी तो लग सकती थी ! मौत किस को बख्‍शती है ! सबको आनी है...सबको आती है ! राजा और रंक में फर्क किये बिना आती है ।  लंकापति रावण गया, बीस भुजा दस शीष; तो एक शीष का मानव किस बूते पर मौत के सामने इतरा सकता है !”

“नहीं इतरा सकता ।”

“मौत और जिंदगी एक ही सिक्‍के के दो पहलू हैं, बेटा । मौत से डरना जिंदगी से डरने के समान है । जो लोग मौत से डरते हैं, समझो वो पहले ही तीन चौथाई मर चुके हैं । तुम अपना शुमार ऐसे लोगों में चाहते हो ?”

“हरगिज नहीं ।”

“नया सूरज निकलता है तो हर कोई कहता है कि मेरी बाकी जिंदगी का पहला दिन है, इसलिये मैंने कुछ नया, कुछ रचनात्‍मक करके दिखाना है । क्‍या कोई कहता है कि वो उसकी गुजरी जिंदगी का आखिरी दिन है इसलिये बस, अब कुछ करने की जरूरत नहीं ! नहीं कहता । क्‍यों नहीं कहता ? क्‍योंकि इस मामले में हर कोई प्रबल आशावादी है, हर किसी को यकीन है कि वो सौ साल जियेगा । कोई उन बंधुबांधवों से भी सबक नहीं लेता जो सौ के स्कोर के करीब भी न फटक सके, उलटे ये कह के खुद को तसल्‍ली देता है कि वो तकदीर के हेठे थे, मेरी बात जुदा है, । वास्‍तव में किसी की बात जुदा नहीं, कोई नहीं जानता कि जिंदगी की डोर कहां जा के टूटने वाली है । पानी केरा बुदबुदा, उस मानुष की जात; देखत ही छिप जायेगा, ज्‍यों तारा प्रभात । ऐसे क्षणभंगुर जीवन को एक आशा, एक आत्‍मश्‍लाघा के सहारे निष्क्रिय हो कर जीना अच्‍छा है या कुछ नया, कुछ अनोखा, कुछ चमत्‍कारी कर गुजरते जीना अच्‍छा है ? सिकंदर ने दुनिया फतह की, उसको मौत का अंदेशा सताता होता तो उसने मकदूनिया से बाहर भी कदम न रखा होता । तमाम नामुमकिन कामों को ऐसे लोगों ने अंजाम दिया है जिनको खबर ही नहीं थी कि वो काम नामुमकिन थे, नहीं किये जा सकते थे । तुम अपना नाम ऐसे लोगों में शुमार देखना चाहते हो तो एक जोश, एक जुनून, एक तड़प के साथ, उस मुहाज पर निकलो जिसमें कामयाबी तुम्‍हारे आने वाली जिंदगी में आमूलचूल परिवर्तन ला देगी, उसके ऐसा संवार देगी कि गुजरी जिंदगी से गिला करना भूल जाओगे । बेटा, वो जिंदगी का सफर हो या जंग का मैदांन मुहाज कोई भी हो, हौसला जरुरी है । क्‍या पोजीशन है तुम्‍हारी इस मद में ?”

“हौसले की कोई कमी नहीं, आचार्य जी, विचलित मन को एक आसरे की जरूरत थी जो हासिल हो गया । दिशाज्ञान की जरूरत थी जो अर्जित कर लिया, आप जैसे प्रतापी पुरुष के आशीर्वाद की जरूरत थी जो प्राप्‍त हो गया । मैं अभी दादर का रुख करता हूं और डीसीपी नितिन पाटिल के आफिस में जाकर अपनी स्‍वीकृति दर्ज कराता हूं ।”

“हम दिन प्रतिदिन तुम्‍हारी सफलता के लिये प्रार्थना करेंगे ।”

“अहोभाग्‍य, आचार्य जी । प्रणाम !”

“जीते रहो, बेटा ! सफलता तुम्‍हारे चरण चूमे ।”

***

नीलेश गोखले को कोनाकोना आइलैंड पर बारह दिन हो चुके थे ।

उसकी मुलाजमत - जो कि बिना दिक्‍कत उसे पहले ही दिन हासिल हो गयी थी - उस बार में थी जो कि कोंसिका क्‍लब के नाम से जाना जाता था । बार की सारी रौनक शाम को ही होती थी अलबत्ता खुल वो ग्‍यारह बजे जाता था जबकि इक्‍का दुक्‍का टूरिस्‍ट की आवाजाही वहां चल पड़ती थी ।

उस वक्‍त दोपहरबाद के चार बजे थे जबकि बार में बियर चुसकने मुश्किल से चार पांच लोग मौजूद  थे ।

उसको वहां बतौर बाउंसर रखा गया था लेकिन वहां वो उसका इकलौता काम नहीं था, बारमैन गोपाल पुजारा - जो कि बार का मालिक भी था - की गैरहाजिरी में - या रश आवर्स में उसकीमौजूदगी में - उसे बारमैन का रोल अदा करना पड़ता था जिसमें बार सर्विस के अलावा भीतर से धुल कर आये गीले गिलास सुखाने, चमकाने की ड्‍यूटी भी शामिल थी; पढ़ा लिखा था, इसलिये कभी चिट क्‍लर्क को रिलीफ की जरूरत हो तो उसकी जगह भी बैठना पड़ता था ।

मुम्‍बई के पिकाडली बार की अपनी डेली वेजिज वाली जिस एम्‍पालायमेंट को वो निरंतर कोसता था, वो ही अब उसके काम आयी थी और उसकी मौजूदा मुलाजमत की बुनियाद बनी थी । दूसरे, पुजारा ने उसे खुद बताया था कि उसकी ‘पिकाडली’ से बहुत व्‍यापक पड़ताल करवाई भी जा चुकी थी ।

अपना घर का पता वहां उसने खार का आचार्य अत्रे के सेवा आश्रम का बताया था जहां कि आचार्य जी के उसके पिता के जीवन में पिता से दोस्‍ती के मुलाहजे में उसे रहने को एक कमरा स्‍थायी रूप से मिला हुआ था जिसके बदले में वो आश्रम के कई छिटपुट काम बतौर वालंटियर करता था । उसने पहले से सुनिश्‍चित किया हुआ था कि वहां से उसकी बाबत कोई पड़ताल होती तो माकूल जवाब मिलता ।

खामोशी और शांति की बार की उस घड़ी के माहौल में तब वो शीशे के प्रवेश द्वार के पीछे खड़ा था और बाहर सड़क पर झांक रहा था जहां कि उसे बावर्दी हवलदार जगन खत्री अलसाये भाव से कभी एक कभी दूसरा हाथ हिलाता सड़क पर ट्रैफिक को डायरेक्‍ट करता दिखाई दे रहा था । उसकी अपनी ड्‍यूटी में कितनी तवज्‍जो थी, कितनी जिम्‍मेदारी थी वो इसी से जाहिर था कि उसके होंठों में सुलगता सिग्रेट लगा हुआ था ।

अपनी आइलैंड की बाहर दिन की संक्षिप्‍त हाजिरी में ही नीलेश इस हकीकत से वाकिफ हो चुका था कि पुलिस को वो बावर्दी हवलदार एक छोटे लैवल का बुकी भी था - मटके और सट्‌टे के दांव भी कलैक्‍ट करता था, नीलेश को मालूम हुआ था कि पांच साल में दो बार सस्‍पेंड हो चुका था लेकिन विभागीय कार्यवाही में दोनों बार उसके खिलाफ कुछ साबित नहीं हुआ था - दोनों बार खुद एसएचओ अनिल महाबोले उसकी कर्मठता और कर्तव्‍यपरायणता का जामिन बना था, नतीजतन हवलदार जगन खत्री का सस्‍पेंशन वापिस हो गया था और वो उसी ड्‌यूटी पर बहाल कर दिया गया था जो उसके बुकी वाले साइड रोल के लिये बहुत सुविधाजनक थी 

उसके द्वारा तब तक जमा की जानकारी मुम्‍बई पुलिस हैडक्‍वार्टर के टॉप ब्रास तक पहुंच भी चुकी थी लेकिन - वो खुद ही जानता था कि - वो अभी किसी एक्‍शन के लिये काफी नहीं थी । बहरहाल बॉल का लुढ़कना शुरू हो चुका था और जाहिर था कि देर सबेर उसने रफ्तार भी पकड़नी थी ।

उसकी निगाह हवलदार जगन खत्री पर से उचटी तो पैन होती जाकर सड़क के पार की विशाल, भव्य, विक्‍टोरियन स्‍टाइल में अंग्रेज के जमाने की बनी - आखिर वो आइलैंड भी तो एक ब्रिटिश गवर्नर की खोज था - एक विशाल दोमंजिला इमारत पर पड़ी जो कि आइलैंड का सबसे बड़ा और इकलौता स्‍टार रेटिंग वाला होटल था । स्‍थापना के वक्‍त से होटल का नाम ड्‌यूक्स था लेकिन हाल ही में उसे पणजी की इम्‍पीरियल रिजार्ट्स नाम की एक कम्‍पनी ने खरीदा था और सौ साल पुराने उस नाम को बदलकर ‘इम्‍पीरियल रिट्रीट’ रख दिया था ।

फ्रांसिस मैग्‍नारो इम्‍पीरियल रिजार्ट्स नामक

ये सब वहां राज्‍य के कायदे काननू की धज्जियां उड़ाते शरेआम, बेखौफ होता था ।

वजह का नाम अनिल महाबोले था जो कि आइलैंड के इकलौते थाने का थानेदार था और ‘ब्‍लू डायमंड’ के प्राफिट में शेयरहोल्‍डर था ।

गोवानी रैकेटियर के लिये उसका दर्जा ‘सैय्यां भये कोतवाल’ का था ।

कैब्रे जायंट के स्ट्रिप जायंट बन जाने के बाद वहां सर्विस का स्‍टाइल ये था कि मेहमान का गिलास खाली दिखते ही उसको नया जाम सर्व हो जाता था, भले ही वो उसने आर्डर किया हो या न किया हो शराब के साथ साथ शबाब के नशे में झूमते मेहमान को तब वो जाम वैलकम जान पड़ता था, ये बात दीगर थी कि जब बिल आता था तो कितने ही मेहमानों के दोनों नशे हवा हो जाते थे ।

‘वांदा नहीं’ - तब उनका फिलासोफिकल कमैंट होता था - ‘एनजाय तो फुल किया न !’

दूसरे, वहां मुम्‍बई स्‍टाइल में नोट उड़ाने के लिये भी मेहमानों को प्रोत्‍साहित किया जाता और जैसे नोट मेहमान उड़ाना चाहे, वैसे उसे सप्‍लाई भी मैनेजमेंट करता था जो कि बाद में उसके बिल में चार्ज हो जाते थे । उस प्रोत्‍साहन में सारे मेहमान तो नहीं फंसते थे लेकिन आधे भी फंस जाते थे, एक चौथाई भी फंस जाते थे तो मैनेजमेंट की चांदी थी।

मैनेजमेंट की डांसर बालाओं की नहीं ।

मेहमान को यही बताया जाता था कि उसके डांसरों पर उड़ाये नोट डांसरों के ही हिस्‍से में आते थे लेकिन हकीकत ऐसा नहीं था । डांसर बालायें वहां फिक्‍स्‍ड सैलेरी पर काम करती थीं, स्‍टेज पर बरसे नोटों को हाथ लगाने की भी उनको इजाजत नहीं थी । अगर वो एक्स्ट्रा इंकम चाहती थीं तो उसके लिये एक जुदा जरिया था । किसी खास कद्रदान, शौकीन मेहमान के लिये होटल के एक प्राइवेट रूम में उसकी स्ट्रिपटीज की प्राइवेट परफारमेंस का - और भी जैसी परफारमेंस मेहमान चाहे - इंतजाम किया जाता था जिसका इकलौता दर्शक वो मेहमान होता था । नशे और अमीरी के मद में ऐसा कोई कोई मेहमान तो लड़की पर इतनी बड़ी रकम न्‍योछावर कर जाता था कि खुद उसकी आंखें फट पड़ती थीं ।

वो तमाम जानकारी गुजश्‍ता बारह

बावजूद अपनी इस नाकामी के नीलेश इतना भांपने में कामयाब हो गया था कि उस विशाल होटल की दूसरी मंजिल की बहुत खास अ‍हमियत थी । वहां एक बिलियर्ड रूम था जो कि असल में एक मिनी कैसीनो था । वैसे दिखावे को वहां दो बिलियर्ड टेबल्‍स थीं लेकिन वहां का प्रमुख आकर्षण ब्‍लैकजैक नाम के जुए की कुछ टेबल थीं, एक रॉलेट व्‍हील था और कई स्‍लॉट मशीन थीं 

कथित बिलियर्ड रूम की बाजू में एक कदरन छोटा कमरा और था जो कि खास तौर से रम्‍मी और तीन पत्ती के शौकीनों के लिये था । अमूमन वीकएण्‍ड्स पर या छुट्‌टी वाले दिनों में ही कोई नामलेवा रौनक हो पाती थी लेकिन बिलियर्ड रूम की रौनक छुट्‌टी या वीकएण्‍ड की मोहताज नहीं थी ।

उन दो कमरों की सुरक्षा और अमनचैन को सुनिश्‍चित करने के लिये वहां होटल के मसलमैन तो होते ही थे, सादे कपड़ों में थाने के स्‍टाफ के चंद लोग भी वहां कोई बद्इंतजामी, कोई गलाटा न होने देने के लिये तैनात होते थे ।

ये एक बहुत चौंकाने वाली जानकारी थी जो नीलेश के हाथ लगी थी और हैडक्‍वार्टर को भेजी अपनी रिपोर्ट में जिसे उसने खासतौर से हाईलाइट किया था ।

वहां के मसलमैन के इंजार्ज, सिक्‍योरिटी चीफ कहलाने वाले, शख्‍स का नाम रोनी डिसूजा था 

आइलैंड की इकलौती झील वहां से करीब ही थी । उस झील के उस ओर के वैस्‍टएण्‍ड कहलाने वाले किनारे के करीब खुश्‍की का एक विशाल खण्‍ड पानी में से सिर उठाये था जिस पर शीशे के खिड़की दरवाजों वाली एक इमारत स्‍थापित थी जिसके चारों तरफ रंग बिरंगे फूलों और मखमली घास से सजे लान थे । वो जगह मनोरंजन पार्क कहलाती थी और खुश्‍की से उस तक पहुंचने के लिये एक लोहे का संकरा पुल उपलब्‍ध था जो संकरा होने के कारण पैदल पारपथ के रूप में उपयोग में लाये जाने के ही काबिल था ।

“है न टांग देने के काबिल, साला हलकट !”

नीलेश हड़बड़ाकर वापिस घूमा ।

मेन डोर से शुरू होने वाली केबिनों की कतार के पहले केबिन के साथ पीठ टिकाये रोमिला सावंत खड़ी थी और मुस्‍कराती हुई उसकी तरफ देख रही थी । वो खुले खुले हाथ पांव वाली, कटे बालों वाली, लम्‍बी ऊंची, गोरी, खूबसूरत लड़की थी, उस घड़ी वो घुटनों तक आने वाली टाइट स्‍कर्ट और मैचिंग स्‍कीवी पहने थी जिसमें वो खूब जंच रही थी । उसका वक्ष उन्‍नत था, कमर पतली थी और कूल्हे भारी थे । नीलेश का उसकी उम्र का अंदाजा पच्‍चीस-छब्‍बीस का था । कहने को वो वहां की होस्‍टेस थी लेकिन हकीकत में उस जैसी और कई नौजवान लड़कियों की तरह बारबाला, एंटरटेनर, पार्ट टाइम प्रास्‍टीच्यूट, कालगर्ल, सब कुछ थी । बार की ऐसी लड़कियों का प्रमुख काम मेहमानों की जेब हल्‍की करना था - जैसे भी वो कर पायें ।

“हल्‍लो !” - नीलेश बोला 

वो और मुस्‍कराई ।

“किसकी बात कर रही हो ?”

“तुम्‍हें मालूम है ।”

“फिर भी !”

“जो अभी तुम्‍हारी निगाह में था ।”

“कौन ?”

“मेरे से ही कहलवाओगे ! वो घोड़े की दुम हवलदार !” - उसने बाहर की तरफ उंगली उठाई - “जगन  खत्री !”

“ओह !”

“इतनी देर से नोट कर रही हूं, क्‍यों ताड़ रहे थे उसे ? क्‍या भा गया उसमें ?”

“कुछ नहीं ।”

“खामखाह कुछ नहीं ! कोई दो हफ्ते यहां हो, मैंने पहले भी दो तीन बार तुम्‍हें उसको ताड़ते देखा है ।”

“माई डियर, क्‍योंकर तुम्‍हें ये बात मालूम है ? क्‍योंकि तुम मुझे ताड़ती हो !”

“मैं क्‍या अकेली ? यहां की सारी लड़किया तुम्‍हें ताड़ती हैं । जादू कर दिया हुआ है तुमने सब पर । जिसको बोलोगे - इशारा भी करोगे - तुम्‍हारी खाट बनने को तैयार हो जायेगी ।”

“क्या बात करती हो !”

“आजमा के देखो ।”

“भले ही तुम्‍हें आजमा के देखूं ?”

“मेरे को मंजूर !”

नीलेश हंसा ।

वो उनतालीस साल का था, विधुर था, सात साल पहले, शादी के दो साल बाद उसकी बीवी उसे औलाद का मुंह दिखाने वाली थी तो चाइल्‍डबर्थ की कम्‍पलीकेशंस में जच्‍चा बच्‍चा दोनों मर गये थे । तब से आज तक उसने घर बसाने की कोई कोशिश नहीं की थी, फीमेल अटेंशन से, फीमेल कम्‍पेनियनशिप से कोई परहेज अलबत्ता उसे नहीं था ।

“पास आ ।” - वो बोला ।

“क्‍या इरादा है ?” - रोमिला ने नकली हड़बड़ाहट जताई - “क्‍या यहीं...”

“स्‍टूपिड !”

कुटिल भाव से मुस्‍कराती वो उसके करीब आकर खड़ी हुई 

“इस आदमी का किरदार अनोखा है” - नीलेश दबे स्‍वर में बोला - “मेरे जेहन से निकलता ही नहीं । पुलिस का मुलाजिम ! बावर्दी, तीन फीतियों वाला हवलदार ! साथ में मटका कलैक्‍टर ! सट्‌टा आपरेटर ! सोचने भर से दिमाग घूम जाता है ।”

“अभी तो तुमने कुछ भी नहीं देखा । ये लंका है, यहां सारे बावन गज के हैं ।”

“हैरानी है !”

“हो लो हैरान ! हैरान होने की कौन सी फीस लगती है !”

“ठीक ।”

“लोग जुआ खेलना चाहते हैं उन्‍हें कौन रोक सकता है ! प्रास्‍टीच्‍यूशन की तरह जुए को भी कोई मुल्‍क, कोई सरकार, कोई निजाम नहीं रोक सकता । सदियों से ये लानत हैं, सदियों से इनको रोकने की ग्‍लोबल कोशिशें हैं । न इन लानतों पर अंकुश लगता है, न कोशिशों में कमी आती है । बड़ी हद हुआ है तो ये हुआ है कि कोशिशों की मुतवातर नाकामी से आजिज आकर कई मुल्‍कों ने प्रास्‍टीच्‍यूशन और गेम्‍बलिंग दोनों पर से रोक हटा दी है । लास वेगास को देखो, पूरा एक शहर ही गेम्‍बलिंग को समर्पित है । कोलम्बो और काठमांडू को देखो जहां कैसीनो न हों तो टूरिस्‍ट ट्रेड की कमर ही टूट जाये । मोंटे कार्लो में दुनिया भर से धनकुबेर बोरों में नोट लेकर पहुंचते हैं जुआ खेलने के लिये । स्‍वीडन में वेश्‍यायें डाक्‍टरों, वकीलों की तरह रजिस्‍टर्ड हैं और धंधे की कमाई पर बाकायदा इंकम टैक्‍स भरती हैं । बैंकाक सैक्‍स टूर्स के लिये सारे योरोप में मशहूर है, ऐसा लगता है जैसे वहां की हर नौजवान लड़की को प्रास्‍टीच्‍यूशन के अलावा कोई काम ही नहीं  है । यहां इंडिया में ही प्रास्‍टीच्‍यूशन इतना प्राफीटेबल धंधा बन गया है कि रूस से नौजवान लड़कियां धंधा करने के लिये, पैसा कमाने के लिये टूरिस्‍ट वीसा पर यहां आती हैं, सूटकेस भर नोट कमा के लौट जाती हैं, फिर आ जाती हैं । कभी किसी ने सोचा था कि सैक्‍स भी इम्‍पोर्ट की आइटम बन जायेगी...”

“तुम तो लैक्‍चर देने लगी !”

“सारी ! मैं दरअसल कहना ये चाहती थी कि लोगबाग मटका या सट्टा यहां खेलते हैं तो एजेंट की कमीशन की कमाई यहां होती है, कहीं और जाके खेलेंगे तो इधर से तो वो कमाई गयी न !”

“इसलिये पुलिस का हवलदार पार्ट टाइम मटका कलैक्‍टर ! सट्टा एजेंट!”

“अरे भई, जब उसके अफसर को, थानाध्‍यक्ष को, उसकी करतूतों से ऐतराज नहीं तो तुम्‍हें भला क्‍यों होना चाहिये !”

“लेकिन शरेआम...”

“तो भी तुम्‍हें क्‍या !’

“तुम्‍हारा भी यही रवैया है ! मुझे क्‍या ?”

“मोटे तौर पर । लेकिन फिर है भी !”

“मतलब ?”

“जो रेवड़िया यहां बंट रही हैं, जिनका यहां खुल्‍ला दरबार हे, उसमें मेरे हिस्‍से का साइज चिडि़या की बीट जैसा है ।”

“अगर तुम्‍हारे हिस्‍से के साइज में इजाफा हो जाये तो तुम्‍हें किसी बात से कोई ऐतराज नहीं ?”

“फिर काहे को होगा, भई !”

“कमाल है ! तुम मेरी समझ से बाहर हो ।”

“शुक्र मनाओ कि पकड़ से, पहुंच से बाहर नहीं हूं । खुद तसदीक करना चाहो तो आज लेट नाइट में टाइम है मेरे पास । बोलो, क्‍या ....”

“गोखले !”

नीलेश ने हड़बड़ाकर सिर उठाया तो पाया बार पर से पुजारा उसे बुला रहा था 

“बॉस बुलाता है । जाता हूं ।”

“हिज मास्‍टर्स काल !” - रोमिला व्‍यंग्‍यपूर्ण स्‍वर में बोली 

“आफ कोर्स !”

वो लपकता हुआ बार के पीछे पहुंचा और पुजारा के निर्देश पर एप्रन पहन कर गिलास चमकाने में जुट गया 

बार में तक कुछ और ग्राहकों के कदम पड़ चुके थे, मेल कस्‍टमर्स से अब कदरन ज्‍यादा मेजें आबाद दिखाई देने लगी थीं इसलिये जलवे लुटाती रोमिला उनमें विचरने लगी थी ।

फिर धीरे धीरे रौनक बढ़ने लगी ।

नौ बजने तक वहां की भीड़ और शोर शराबे में बेतहाशा इजाफा हो गया - इतना कि बार पर हर घड़ी दो बारमैन - एक पुजारा दूसरा नीलेश - जरूरी हो गए । हाल में अब रोमिला जैसी और भी सजीधजी बारबालायें दिखाई देने लगी थीं लेकिन बार पर बिजी होते हुए भी नीलेश की निगाह खामखाह सिर्फ रोमिला का अनुसरण कर रही थी जो कि हंसी के फूल बिखेरती, जलवे लुटाती टेबल-टु-टेबल विचर रही थी, चुहलबाजी में किसी मेहमान की गोद में खुद जा बैठती थी तो कोई उसे खींचकर खुद अपनी गोद में बिठा लेता था । लेकिन वो सब क्षण भर को होता था, मेहमान अभी अपना अगला कदम निर्धारित ही कर रहा होता था कि वो पारे की तरह फिसलती थी और मेहमान को अपने नुकसान का अहसास होने से पहले किसी और टेबल पर किसी और मेहमान के साथ चुहलबाजी कर रही होती थी ।

बहरहाल तब तक ऐसा कोई वाक्‍या पेश नहीं आया था, नशे के हवाले कोई महेमान ऐसा आपे से बाहर नहीं हुआ था, कि नीलेश को अपने बाउंसर के रोल में आना पड़ता ।

बारबालाओं में एक दूसरी लड़की यासमीन मिर्जा थी जो कि रोमिला जैसी ही हसीन थी और बढि़या बनी हुई थी लेकिन जो जलवे लुटाने में ज्‍यादा दिलेर थी । कोई मेहमान उसे गोद में खींचकर उसके गिरहबान में या स्‍कर्ट में हाथ डाल देता था तो एतराज करने की जगह, छिटक कर अलग होने की जगह उसका दिल रखने को यूं जाहिर करती थी जैसे मेहमान की मनमानी से वो मेहमान से ज्‍यादा आनंदित हुई थी । असल में वो सब ड्रामा वो एक मिशन के तहत करती थी । वो एक्‍सपर्ट जेबकतरी थी, जब मेहमान उसके गिरहबान में हाथ डालकर उसकी छातियां भींच रहा होता था तब वो बड़ी सफाई से उसका बटुवा पार कर रही होती थी ।

नीलेश बार पर बहुत बिजी था फिर भी यासमीन का पेटेंट कारनामा उस घड़ी उसकी निगाह में था ।

उसका तब का शिकार एक अधेड़ व्‍यक्ति था जो उसकी छातियां मसल रहा था, उसको किस करने की कोशिश कर रहा था और समझ रहा था कि उसी में कोई खूबी थी जो वो फुल पटाखा बारबाला उस पर ढ़ेर थी और उसे ‘सब कुछ’ नहीं तो ‘इतना कुछ’ करने दे रही थी ।

उसकी खुशफहमी उतनी ही देर टिकी जितनी कि यासमीन को उसका बटुवा सरकाने में लगी । फिर वो मछली की तरह फिसलकर उस व्‍यक्ति की गिरफ्त से निकली और उसने सीधे लेडीज टायलेट का रुख किया जहां - नीलेश जानता था कि - वो हाथ आये बटुवे के तमाम बड़े नोट निकाल लेती थी ।

कुछ क्षण बाद यासमीन फिर हाल में प्रकट हुई, सीधे बटुवे के मालिक के पास पहुंची और जा कर उसकी गोद में बैठ गयी । उसने एक हाथ उसकी गर्दन के पीछे डाला और जबरन उसका मुंह अपने उन्‍नत वक्ष की घाटियों में धंसा दिया।

अधेड़ व्‍यक्‍ति का चश्‍मा टूटते टूटते बचा, उसकी सांस घुटने को हो गयी लेकिन फिर भी वो बाग बाग था और पहले से ज्‍यादा जोशोखरोश के हवाले था ।

हाथापाई के उस सैकण्‍ड राउंड के दौरान - नीलेश को मालूम था - यासमीन बटुवा वापिस अपने शिकार की जेब में सरका देती थी और मेहमान की मनमानी का पटाक्षेप कर देती थी ।

ऐन ऐसा ही हुआ ।

एकाएक एसने बेचारे चश्‍मे वाले अधेड़ व्‍यक्ति को आने से धक्‍का देकर अलग किया और ये जा वो जा ।

वेटर ने जाकर उसको रिपीट के लिये पूछा ।

अपनी मायूसी से उबरने की कोशिश करते चश्मे वाले ने अनमने भाव से इनकार किया तो वेटर ने बिल पेश कर दिया ।

सहमति में सिर हिलाते उसने जेब से बटुवा बरामद किया, उसे खोला तो पाया कि उसमें तो वेटर को टिप देने लायक भी पैसे नहीं थे ।

फासले से भी नीलेश ने उसके चेहरे पर हाहाकारी भाव आते साफ देखे।

फिर मेहमान शोर मचाने लगा, दुहाई देने लगा कि कोंसिका क्‍लब में उसको लूट लिया गया था ।

वो वक्‍त बाउंसर के दखलअंदाज होने को होता था ।

किसी को ऐसी दुहाई देकर क्‍लब को बदनाम करने की इजाजत भला कैसे दी जा सकती थी !

पुजारा ने नीलेश को इशारा किया ।

बार के पीछे से निकल कर लम्‍बे डग भरता नीलेश हालदुहाई मचाते मेहमान के करीब पहुंचा, खून जमा देने वाली घुड़की से उसने उसे चुप कराया और फिर उसको जबरन चलाता बाहर को ले चला । बाहर फुटपाथ पर पहुंच कर उसने अब भयभीत मेहमान को एक बाजू धकेल दिया 

सहमा हुआ मे‍हमान नशे में घूमता अपना माथा दोनों हाथों में थाम कर वहीं फुटपाथ के किनारे सड़क पर टांगे फैला कर बैठ गया और राह‍गीरों के लिये तमाशा बन गया ।

ऐसी थी महिमा कोंसिका क्‍लब नाम के सैलानियों के उस बार की ।

नीलेश वा‍पिस भीतर कदम रखने ही लगा था कि उसने देखा डण्‍डा हिलाता एक सिपाही चश्‍मे वाले के सिर पर आ खड़ा हुआ था ।

नीलेश उस सिपाही को पहचानता था और उसके नाम से - अनंतराम महाले - वाकि‍फ था । वो ठिठका और घूम कर उधर देखने लगा 

महाले ने चश्‍मे वाले को जबरन उठा कर उसके पैंरो पर खड़ा किया ।

“अंदर से आया ।” - महाले नीलेश को घूरता बोला - “टुन्‍न है । मुंडी थामे फुटपाथ पर बैठेला है । बोले तो झाड़ दिया ! क्‍लीन कर दिया फुल !”

“मेरे को कैसे मालूम होगा, भई ।” - नीलेश भुनभुनाता सा बोला - “मैंने क्‍या इसकी जेबें टटोलीं !”

“जरुरत किधर थी ! साला मुंडी पकड़ के बाहर फेंका कि नहीं फेंका कचरा का माफिक ! बिल चुकता करने को कोई रोकड़ा पॉकेट में होता तो साला कौन इससे इधर ऐसे पेश आया होता ! इसके माथे पर लिख रयेला है कि लूट लिया, रोकड़ा पार कर दिया, बिल चुकता करने के लायक न छोड़ा । मैं शर्त लगाता है सबसे बडे़ वाले गांधी का कि इसका पॉकेट खाली ! रोकड़ा खल्‍लास !”

“पब्लिक प्‍लेस में, रश वाली पब्लिक प्‍लेस में खबरदार रहना मांगता है न !”

“साला बेवड़ा ! कैसे होयेंगा खबरदार ! खबरदार रहने पर जोर देगा तो साला नशा नहीं होगा ।”

“मेरे को नशे का इतना ज्ञान नहीं । अब क्‍या करोगे इसका ?”

“थाने लेकर जाऊंगा । जो करना होगा, ऊपर वाला कोई करेगा !’’

“क्‍या ?”

“हल्‍ला करेगा लुट गया, कम्‍पलेंट दर्ज कराना चाहेगा तो…तो देखेंगे ।”

“ऐसा नहीं करेगा तो ?”

“तो नार्मल होने पर खुद ही उठेगा और नक्‍की करेगा ।”

“ये कम्‍पलेंट नहीं लिखायेगा ।”

“बहुत कंफीडेंस से बोलता है, गोखले !”

“लिखायेगा तो कोई लिखेगा नहीं ।”

“बहुत कंफीडेंस से…”

“देखना ।”

वो घूमा और वापिस बार में दाखिल हो गया ।

बार के आधे रास्‍ते में उसे रोमिला मिली । दोनों एक दूसरे के सामने ठिठके । नीलेश ने नोट किया वो बद्हवास लग रही थी और उसके कपडे़ भी अस्‍तव्‍यस्‍त थे ।

“बेवडे़ को बढ़िया हैंडल किया ।” - वो बोली ।

नीलेश ने लापरवाही से कंधे उचकाये ।

“नाइंसाफी करते इधर में” - रोमिला ने एक उंगली से अपने बायें वक्ष को छुआ - “कुछ होता नहीं ?”

“बोले तो‍ ?”

“या‍समीन ने जो किया, तुमने अपनी आंखो से देखा, साफ देखा । फिर भी कचरा उस भीङू का ही हुआ । निकाल बाहार फेंका ।”

“अपनी ड्यूटी की ।”

“क्‍यो नहीं ! क्‍यों नही !”

“जो मैंने किया, जो उस भीङू के साथ हुआ, उससे तेरे को क्‍या प्राब्‍लम है ? तेरे इधर में” - नीलेश ने ठि‍ठक कर उसके उन्‍नत वक्ष पर निगाह डाली - “क्‍यों कुछ होता है ? होता है तो साला ये टेम ही क्‍यों होता है ?”

“मेरे को वांदा नहीं । मेरे को सब चलता है इधर । बहुत टेम हो गया न ! पर तुम्‍हें तो अभी टू वीक्‍स भी नहीं हुआ इधर ! इसी वास्‍ते सोचती थी कितनी जल्‍दी इधर के रंग में रंगा । साला तेरे जैसा डीसेंट भीङू...”

“कौन बोला मैं डीसेंट भीङू ?”

“क्‍या ! नहीं है ?”

“नहीं है । अब नक्‍की कर ।”

उसका कंधा थाम के उसको एक बाजू करता वो वापिस बार के पीछे पहुंचा गया 

जो नाइंसफी उस बेवडे़ के साथ हुई थी, वो उसका दिल तो कचोटती थी लेकिन जिम्‍मेदार, वो खुद भी तो था ! क्‍यों वो बारबाला को ‘ईजी ले’ समझता था जो उसके एक लम्‍पट इशारे पर बिछने को तैयार हो सकती थी ! मुफ्त में‍ कहीं कुछ मिलता था ! हर चीज की कीमत होती थी जो कि अदा करनी ही पड़ती थी । उसने अदा न की, यासमीन ने खुद वसूल ली । बस इतनी सी बात थी ।

खुद को बहलाना भरमाना कितना आसान था !

और दो घंटे बाद कोंसिका क्‍लब में भीड़ का ये आलम था कि वहां‍ तिल धरने को जगह नहीं थी । अधिकतर मेहमान नशे की एडवांस स्‍टेज में पहुंच चुके हुए थे और उनके अट्टहासों का और कानफाङू म्‍यूजिक का ऐसा असर था कि आप‍स में वार्तालाप करने के लिये एक दूसरे के कान के पास मुंह ले जाकर ऊंचा बोलना पड़ता था । बार के सारे बूथ फुल थे और उनकी सैमी-प्राइवेसी में रंगरेलियों का और भी ज्‍यादा बोलबाला था । तरंग में लोग बाग खुश थे, आपे से बाहर हो रहे थे तो गमगीन भी थे जो जज्‍बाती हो कर अपने जाम में आंसू टपका रहे थे । एक झांकी जैसी जेवरों से लकदक किटी पार्टी मार्का महिला अपने पति के साथ थी, पति जब उठ कर टायलेट में गया था तो वो बाकायदा नीलेश पर डोरे डालने लगी थी । लेकिन वो शो थोड़ी देर ही चला था, पति लौट आया था तो उसने तुरंत अपनी सैक्‍स अपील का स्विच आफ कर दिया था और सम्‍भ्रांत ‘बहनजी’ बन गयी थी ।

आधी रात होने तक वहां तीन बार झगड़े फसाद का माहौल बना था । एक में दो मर्द, एक ही औरत के पीछे थे और के उस पर अपना अपना एक्‍सक्‍लूसिव दावा ठोकने की कोशिश में आपस में लड़ पडे़ थे । दूसरे में एक बारबाला ने नशे की एडवांस्‍ड स्‍टेज पर पहुंचे एक मेहमान को धुन दिया था जो कि उसको वहीं, मेज पर लिटाने कि कोशिश करने लगा था । तीसरा मामला गम्‍भीर था जिसमें चार जनों बियर की बोतलों से एक दूसरे के सिर फोड़ने में कसर नहीं छोड़ी थी ।

तीनों बार नीलेश ने स्थिति को बड़ी दक्षता से हैंडल किया था और बाकायदा अपने एम्‍पलायर गोपाल पुजारा की तारीफी निगाहों का हकदार बना था 

वैसे जो कुछ भी हुआ था, वो रोजमर्रा का वाकया था, नया उसमें कुछ नहीं था ।

ऐसी ही रौनक जगह थी कोंसिका क्‍लब ।

बारह बजे के बाद भीड़ छंटने लगी थी और एक बजने तक कोई इक्‍का दुक्‍का बेवड़ा ही किसी टेबल पर बैठा रह गया था । रोमिला, यासमीन और बाकी बारबालायें वहां से जा चुकी थीं । बाहर का विशाल नियोन साइन आफ कर दिया गया था और भीतर की भी अधिकतर बत्तियां बुझा दी गयी थीं ।

एक बजने के पांच मिनट बाद एकाएक मेन डोर खुला और छ: जनों की एक पार्टी ने एक साथ भीतर कदम रखा । ग्रुप में तीन खूबसूरत नौजवान, माडर्न लड़कियां थीं जिनमे से कोई भी उम्र में बीस-बाइस साल से ज्‍यादा की नहीं जान पड़ती थी । साथ मे उनकी उम्र को मैच करते तीन लड़के थे ।

पुजारा ने खुद आगे बढ़ कर उनका स्‍वागत किया और एक वेटर को एक बड़े बूथ की टे‍बल को नये मेजपोश, नये नैपकिन, नयी क्रॉकरी, कटलरी से संवारने का हुक्‍म दिया ।

स्‍टाफ का हर कोई उनसे अदब से पेश आ रहा था, यहां तक कि कुक भी भीतर से निकल आया, उस ग्रुप के करीब पहुंचा और ग्रुप की एक लड़की का - जिसके बाल लाली लिये हुए भूरे थे और जो सबसे अधिक खूबसूरत थी - उसने बहुत खास, बहुत स्‍पेशल अभिवादन किया ।

नीलेश ने पुजारा को उस लड़की को श्‍यामला के नाम से पुकारते सुना। कुक अभिवादन करते वक्‍त उसको मिस मोकाशी कह कर पुकारा था 

श्‍यामला मोकाशी !

म्‍युनीसिपैलिटी के प्रेसीडेंट बाबूराव मो‍काशी की इकलौती बेटी !

मुम्‍बई के टॉप के कालेज में शिक्षा प्राप्‍त !

नीलेश ने उसका चर्चा बराबर सुना था । लेकिन सूरत पहली बार देख रहा था 

पुजारा परे खड़े नीलेश के करीब पहुंचा ।

“जाना नहीं अभी ।” - वो दबे स्‍वर में बोला 

नीलेश की भवें उठीं ।

“भाव मत खा । ओवरटाइम मिलेगा ।”

“मैं कुछ बोला ?”

“अच्‍छा किया नहीं बोला ।”

“सबको ?”

“क्‍या सबको ?”

“जो अभी रुकेंगे, सबको ओवरटाइम !”

“नहीं । खाली तेरे को । स्‍पेशल करके तेरे को । अब खुश !”

“हां ।”

“मालिक की बेटी है । स्‍पेशल करके ट्रीट करने का कि नहीं करने का?”

नीलेश के होंठ भिंचे । बेध्‍यानी में पुजारा के मुंह से एक बड़ा सच उजागर हो गया था ।

तो असल में कोंसिका क्‍लब का मालिक बाबूराव मोकाशी था, गोपाल पुजारा खाली उसका फ्रंट था ।

“जा के बार का आर्डर ले !” - पुजारा बोला 

नीलेश ने सहमति में सिर हिलाया और उनके केबिन पर लौट कर आर्डर लिया ।

लडकियों के लिये वाइन, लड़कों के लिये वोदका विद टॉनिक वाटर । नीलेश बार पर गया, आर्डर के मुताबिक छ: ड्रिंक्‍स तैयार किये और उनको एक ट्रे पर सजा कर केबिन पर वापिस लौटा । उसने ड्रिंक्‍स सर्व किये ।

थैंक्‍युज की बुदबुदाहट हुई ।

उन लोगों को चियर्स बोलता छोड़कर नीलेश वहां से परे हट गया ।

श्‍यामला की खूबसूरती का नीलेश को ऐसा धड़का लगा था कि वो किसी न किसी बहाने उन‍के केबिन के गिर्द ही मंडराता रहा था और चोरी छुपे श्यामला को निहारता रहा था ।

क्‍या लड़की थी !

कॉनमैन की बेटी !

जो नीलेश के प्रयत्‍नों से निकट भविष्‍य में जेल जाने वाला था ।

एक बार श्‍यामला की निगाह नीलेश से मिली तो नीलेश को ऐसा लगा जैसे उसकी चोरी पकड़ी गयी हो । वो बौखलाया और तत्‍काल परे देखने लगा ।

श्‍यामला के चेहरे पर उलझन के भाव आये, भवें सिकोडे़ वो कुछ क्षण उसकी तरफ देखती रही, फिर एकाएक उठी, केबिन से निकली और नीलेश के सामने आ खड़ी हुई 

नीलेश और बौखला गया । वो पहलू बदलने लगा और उससे निगाहें चुराने लगा ।

“हल्‍लो !” - वो मुस्‍कराती हुई बोली - “मैं श्‍यामला मो‍काशी ! यहां नये हो ?”

नीलेश ने जल्‍दी से सहमति में सिर हिलाया ।

“नाम भी इशारे से ही बता सकते हो ?”

“नी-नीलेश ! नीलेश गोखले !”

“हल्‍लो, नीलेश !”

“ह-हल्लो मिस मोकाशी !”

“श्‍यामला ।”

“हल्‍लो, श्‍यामला !”

“दैट्स मोर लाइक इट । कहां से हो ?”

“मुम्‍बई से ।”

“इधर आल दि वे जॉब करने आये ?”

“हां ।”

“वहां कोई जॉब न मिली ?”

“मिली । लेकीन मै मुम्‍बई से आजिज था । कहीं बाहर निकलना चाहता था । चांस लगा, इधर आ गया ।”

“आई सी ! कब से हो यहां ?”

“कल टू वीक्‍स हो जायेगा ।”

“कैसा लगा हमारा आइलैंड ?”

हमारा आइलैंड !

साली के बाप का आइलैंड !

“बढिया !” - प्रत्‍यक्षत: वो बोला ।

“गुड ! आई एम ग्‍लैड ।” - वो एक क्षण ठि‍ठकी फिर बोली - “हम लोगों की वजह से तुम्‍हें रुकना पड़ा, उसके लिये सारी । हमें इतना लेट नहीं आना चाहिये था ।”

“वांदा नहीं । बोले तो मेरे को खुशी कि तुम लोगों के आने के टेम मैं इधर था, छुट्टी करके चला नहीं गया हुआ था ।”

श्‍यामला की‍ भवें उठीं ।

“फिर तुम्‍हारे से मुलाकात कैसे होती ?”

“ओह ! पसंद आयी मुलाकात ?”

“अब...आयी तो सही !”

“गुड ! वैल, दि फीलिंग इज म्‍यूचुअल !”

“थैंक्यू ।”

“यहां के मालिक मिस्‍टर पुजारा बहुत अच्‍छे आदमी हैं जिन्‍होंने हमारी लाज रखी, हमें सम्‍मान दिया और एक्‍स्‍ट्रा लेट आवर्स में हमारे लिये अपने क्‍लब को चालू रखना कबूल किया । मिस्‍टर पुजारा मेरे डैडी के फास्‍ट फ्रेंड हैं इसलिये उन्‍होंने हमारा इतना लिहाज किया ।”

स्‍टोरी बना रही थी या सच में ही नहीं जानती थी कि असल मे कोंसिका क्‍लब का मालिक उसका बाप था , पुजारा उसका फ्रंट था !

“वैसे” - वो कह रही थी - “मेन पायर पर दो आल नाइट डाइनर भी हैं लेकिन यहां के खाने की - खास तौर से मस्‍टर्ड आयल फ्राइड हिलसा की - बात ही कुछ और है ।”

“हिलसा ब्रॉट यू हेयर ?”

“बट आफ कोर्स । वो क्‍या है कि...”

तभी ग्रुप का एक युवक - जींस-जैकेट - गोल्‍फकैपधारी - उनके करीब पहुंचा । उसने नीलेश को खुश्‍क ‘एक्‍सक्‍यूज मी’ बोला, श्‍यामला की बांह थामी और उसे डांस फ्लोर की ओर ले चला । व‍हां खुद ही उसने म्‍यूजिक सिस्‍टम चालू किया, किसी वैस्‍टर्न डांस ट्यून की डिस्‍क उसमें फीड की और श्‍यामला की कमर में हाथ डाल कर जबरन उसके साथ डांस करने लगा 

फासले से भी नीलेश ने लड़की के चेहरे पर गहन अनिच्‍छा के भाव साफ देखे 

वो खामोशी से बार काउंटर के साथ टे‍क लगाये डांस फ्लोर का नजारा करता रहा 

तभी कुक की देखरेख में दो वेटर उनके केबिन की टेबल पर खाना लगाने लगे 

वो अपने काम से फारिग हुए तो एक युवक ने आवाज लगाई - “आओ, भई, खाना सर्व हो गया है ।”

श्‍यामला के पांव ठिठके, उसने अपनी कमर से गोल्‍फ कैप वाले का हाथ जबरन हटाया और बोली - “खाना !”

“उन लोगों को खाने दो ।” - युवक ने फिर उसको दबोच लिया - “हम बाद में खायेंगे ।”

“लेकिन...”

“बोला न ! कीप डांसिंग ।”

“बट...”

“ब्‍लडी पे अटेंशन टु वाट आई एम सेईंग ।”

साथ ही युवक ने उसे अपनी छाती से भींच लिया और उसका चुम्‍बन लेने की कोशिश करने लगा ।

“छोड़ो ! छोड़ो !” - वो छटपटाई ।

“हाथ पांव झटकने बंद कर, साली, और...एनजाय कर ।”

तत्‍काल बूथ में मौजूद दो युवक उठ कर खड़े हुए । लेकिन नीलेश डांस फ्लोर के करीब था इसलिये वो फ्लक झपकते वहां पहुंच गया । उसने युवक को उसकी गर्दन से थामा और दूसरा हाथ उसकी कमर में डाल कर उसको जबरन युवती से अलग किया ।

“वाट दि हैल !” - वो तड़प कर बोला ।

“नन आफ दैट, मिस्‍टर ।” - नीलेश सख्‍ती से बोला 

“यु ब्‍लडी हायर्ड हैल्‍प...ब्‍लडी टू बिट बार स्‍कम...”

उसकी गर्दन तब भी नीलेश की पकड़ में थी, उसने पकड़ मजबूत की तो‍ उसकी आखें बाहर निकलने को हो गयीं ।

“नन आफ दैट टू ।” - नीलेश जब्‍त से बोला - “नो फाउल लैंग्‍वेज इन प्रेजेंस आफ दि लेडी !”

“साला टू बिट बारमैन मेरे को इंगलिश बोल के बताता है ! मैं अपनी फ्रेंड के साथ डांस करता है, साला तेरे को प्राब्‍लम !”

“मैडम को प्राब्‍लम ।”

“मैडम मेरे साथ है ।”

“साथ यहां है । कोंसिका क्‍लब में । इधर गलाटा नहीं मांगता ।”

“अच्‍छा !”

“हां ।”

“अभी रोक के बता ।”

उसने जबरन गर्दन छुड़ाई, दो कदम पीछे हटा और जेब से चाकू निकाल लिया । खटका दबाये जाने से कमानी खुलने की आवाज हुई तो नीलेश की तवज्‍जो चाकू की तरफ गयी ।

श्‍यामला की भी ।

उसके मुंह से चीख निकल गयी ।

चाकू वाला हाथ सामने फैलाये युवक नीलेश पर झपटा l नीलेश ने बड़ी दक्षता से उस हाथ की कलाई थाम ली और उसे फिरकी की तरह घुमा कर उसकी वो बांह उसकी पीठ पीछे लगा दी l उसने बांह और उमेठी तो चाकू उसकी पकड़ से निकल कर डांस फ्लोर के फर्श पर जा गिरा । नीलेश ने पांव की ठोकर से उसे वहां से परे उछाल दिया ।

तब तक उनके बाकी के साथ भी केबिन से उठकर वहां पहुंच चुके थे ।

दोनों लड़कियां सुबकती श्‍यामला के आजूबाजू पहुंची और उन्‍होंने उसे अपनी हिफाजत में ले लिया 

नीलेश ने गोल्फ कैप वाले को बंधनमुक्‍त किया और उसे अपने से परे धकेल दिया 

दोनों युवक गोल्‍फ कैप वाले के करीब पहुंचे ।

“जैकी !” - एक युवक गुस्से से उसे झिड़कता बोला - “माथा फिरेला है!”

“मैने क्‍या किया ?” - जैकी - गोल्‍फ कैपधारी - बोला ।

“तेरे को नहीं मालूम ?”

“जो किया, ये साला हरामी किया...”

“नो फाउल लैंग्‍वेज, जैकी !” - दूसरे युवक ने चेताया 

“इसी ने बीच में आ के पंगा डाला...”

“चाकू भी इसी ने चमकाया !” - पहला युवक बोला 

“ये साला मेरे को फोर्स किया…”

“फिर !” - दूसरा युवक बोला - “आई सैड नो फाउल लैंग्‍वेज !”

“हाथ मरोड़ दिया, गर्दन तोड़ने में कसर न छोड़ी...”

“जैकी, तू श्‍यामला के साथ मिसबिहेव करता था...”

“मैं जानूं श्‍यामला जाने ! ये साला किस वास्‍ते बीच में आन टपका ?”

“क्‍या बोलता है, जैकी ! तेरा म‍तलब है श्‍यामला को तेरा रफ, रॉटन, मिसबिहेवियर मंजूर ?”

श्‍यामला तत्‍काल जोर जोर से इंकार में सिर हिलाने लगी 

“तू साला टुन्‍न है । इतना कि फीमेल कम्‍पनी के काबिल नहीं ।”

जैकी परे देखने लगा ।

“अभी क्‍या बोलता है ?”

जैकी ने जवाब न दिया 

“मैं बोलता हूं ।” - नीलेश बोला - “ये इधर रामपुरी लेकर आया । ऐसा घातक हथियार पास रखना अपराध है, उसको इस्‍तेमाल में लाने की कोशिश गम्‍भीर अपराध है । ये मेरे को स्‍टैब करने लगा था । इरादायकत्‍ल की दफा लगेगी । मैं पुलिस को फोन करता हूं ।”

जैकी भयभीत दिखाई देने लगा, उसका नशा पहले ही हिरण हो चुका था, उसने पनाह मांगती निगाहों से अपने साथियों की तरफ देखा ।

“नो !” - श्‍यामला मजबूती से इंकार में सिर हिलाती बोली - “नो पुलि‍स बिजनेस !”

“बट हनी...” - पहले युवक ने कहना चाहा ।

“नो !” - श्‍यामला दृढ़ता से बोली ।

तभी पुजारा वहां पहुंचा ।

“बेबी इज राइट !” - वो बोला - “ नो पुलिस !”

कोई कुछ न बोला ।

“मैं सोने की तैयारी करता था । मेरे को कुक बुला के लाया । बेबी, ऐसे वायलेंट भीङू के साथ तेरे को लेट नाइट में बाहर नहीं होने का ।”

“मैं अकेली तो इसके साथ नहीं थी” - श्‍यामला रुआंसे स्‍वर में बोली - “चार जने और भी तो थे !”

“फिर भी...”

“अभी क्‍या बोलूं ! मैंने सपने में नहीं सोचा था कि ये मेरे साथ ऐसे पेश आयेगा, जबरदस्‍ती करने लगेगा, चाकू चमकाने लगेगा…”

“नशे में माथा घूम गया !” - पहला युवक बोला 

“हम सब जैकी के व्यवाहार से शर्मिंदा हैं ।” - दूसरा युवक बोला ।

“सब !” - नीलेश बोला - “सिवाय इस‍के ! दि नाइफ वील्डिंग जैकी दादा के !”

“जैकी ! सारी बोल, ईडियट !”

“दि बैस्‍ट !” - पुजारा बोला - “सारी बोल, भीङू समझ सस्‍ता छूटा, और निेकल ले ।”

“क्-क्या !” - जैकी के मुंह से निकला, उसकी निगाह स्‍वयंमेव ही बड़े केबिन की टेबल पर लगे खाने की ओर उठ गयी ।

“दाने दाने पर खाने वाले का नाम होता है । तेरा नहीं है । था तो समझ मिट गया । क्‍या !”

उसने बेचैनी से पहलू बदला 

“अभी क्‍या सोचता है ? अकेले निकल लेना मुश्किल तेरे वास्‍ते ? पुलिस एस्‍कार्ट के साथ ही जायेगा ?”

वो अपनी जगह से हिला, उसकी निगाह पैन होती अपने साथियों पर फिरी । कहीं उसे हमदर्दी के दर्शन न हुए ।

उसने एक गहरी सांस ली, कदम आगे बढ़ाया और परे लुढ़के पड़े अपने चाकू की तरफ देखा ।

“कांटी इधरीच छोड़ के जाने का ।” - पुजारा सख्‍ती से बोला - “पोजेशन भी क्राइम । मालूम !”

फर्श पर लुढ़के पड़े चाकू की तरफ बढ़ता वो ठिठका 

नीलेश ने आगे बढ़ कर चाकू उठाया और उसे अपनी जेब के हवाले किया जैकी मेन डोर की तरफ बढ़ा 

तभी मेन डोर खुला और दो वर्दीधारी पुलिसियों ने भीतर कदम रखा ।

पुजारा सकपकाया ।

“ये कैसे आ गये ?” - उसके मुंह से निकला 

नीलेश ने अनभिज्ञता से कंधे उचकाये ।

आगंतुकों में एक हवलदार था और दूसरा तीन सितारों वाला इंस्‍पेक्‍टर था । हवलदार नीलेश का जाना पहचाना जगन खत्री था, इंस्‍पेक्‍टर के बारे में उसका अंदाजा था कि वो एसएचओ था, अलबत्ता एसएचओ से रूबरू मुलाकात का उसका कोई इत्तफाक पहले नहीं हुआ था 

एसएचओ अनिल महाबोले उम्र में कोई चालीस साल का, उम्‍दा तंदुरुस्‍ती वाला सख्‍‍तमिजाज व्‍यक्ति था । उसकी निगाह पैन होती दायें से बायें, बायें से दायें फिरी ।

“क्‍या हो रहा है ?” - वो दबंग लहजे से बोला ।

तत्‍काल श्‍यामला के अलावा सारा ग्रुप एक साथ बोलने लग गया ।

वो खामोश हुए तो महाबोले ने एक लम्‍बी हुंकार भरी और फिर सख्‍त निगाह से फसाद की जड़ जैकी की तरह देखा ।

जैकी की सारी दिलेरी, सारा अक्‍खड़पन कब का हवा हो चुका था, वो अपने आप में सिकुड़ कर रह गया 

महाबोले की निगाह उस पर से छिटकी तो श्‍यामला पर पड़ी ।

श्‍यामला बेचैनी से पहलू बदलने लगी और निगाहें चुराने लगी 

“तेरे को इधर आने का नहीं था ।” - महाबोले बोला ।

“स-सारी ! ” - श्‍यामला दबे स्‍वर में बोली ।

“वाट सारी ! पहले भी बोल के रखा ! नहीं ?”

“हं-हां ।”

“कोई गलत बोला मैं इधर न आने को बोल कर ! अभी गलाटा हुआ न !”

“होने को था । गोखले ने सेव किया, प्रापर्ली हैंडल किया, इस वास्‍ते...”

“गोखले ?”

“नीलेश गोखले ।” - श्‍यामला ने नीलेश की तरफ इशारा किया - “इसने टाइम पर एक्‍ट किया इस वास्‍ते...सब ठीक हो गया ।”

“हूं ।” - महाबोले नीलेश की तरफ घूमा - “तो तुम हो गोखले !”

नीलेश ने अदब से सहमति में सिर हिलाया ।

“मेरे को जानते हो ?”

“बोले तो आप अनिल महाबोले हैं - आइलैंड के थाने के थानाध्‍यक्ष । एसएचओ ।”

“हूं ।” - महाबोले बोला, फिर उसने हवलदार को आदेश दिया - “थाम !”

जगन खत्री ने आगे बढ़ के जैकी को अपनी गिरफ्त में ले लिया ।

“तुम भी चलो ।” - महाबोले श्‍यामला से बोला ।

“मैं !” - श्‍यामला हड़बड़ाई - “कहां ?”

“थाने । वहां से मैं खुद तुम्‍हें घर छोड़ के आऊंगा ।”

“मैं...मैं फ्रेंड्स के साथ जाऊंगी ।”

“फ्रेंड्स कहां रखे हैं साथ जाने को ? ये सब तो अभी डिसमिस हो रहे हैं। सुना सबने !”

सब एक एक करके वहां से खिसकने लगे ।

“ख-खाना !” - श्‍यामला के मुंह से निकला ।

“इनको भूख नहीं हैं । तुम्‍हारे लिये पैक हो जायेगा ।”

“मु-मुझे भी भूख नहीं है ।”

“फिर क्‍या वांदा है ! पुजारा, खाने का बिल...”

“नो बिल, बॉस ।” - पुजारा तत्‍पर स्‍वर में बोला - “ऐवरीथिंग आन दि हाउस ।”

“गुड ! चलो !”

सब वहां से रुखसत हो गये ।

“फोन किसने किया ?” - पीछे पुजारा बड़बड़ाया ।

“स्‍टाफ में से किसी ने ?” - नीलेश ने सुझाया 

“नहीं । अव्‍वल तो मेरे से पूछे बिना कोई ऐसा कर नहीं सकता, फिर भी जोश में कोई ऐसा कर बैठा हो तो तब भी मेरे को न बोले, ये नहीं हो सकता ।”

“फिर तो उस ग्रुप में से ही किसी ने...”

“ऐसा ही जान पड़ता है ।”

“पूछा होता ।”

“तब न सूझा । भले ही महाबोले कोई जवाब न देता लेकिन...पूछना ही न सूझा ।”

“इन्स्पेक्टर लड़की का ऐसा सगा बनके क्‍यों दिखा रहा था ?”

पुजारा हंसा ।

“कोई खास बात है ?” - नीलेश उत्‍सुक भाव से बोला ।

“है तो सही ?”

“क्‍या ?”

“तेरे को बोलना ठीक होगा ?”

“मैं किसी को नहीं बोलूंगा । कसम गण‍पति‍ की ।”

“लड़की पर लट्टू है ।”

“कौन ? एसएचओ ! महाबोले ।”

“और किसका जिक्र है इस वक्‍त ?”

“ओह !”

“शादी बनाना मांगता है ।”

“कमाल है ! शादीशुदा नहीं है ।”

“नहीं है इत्तफाक से ।”

“की ही नहीं या...कुछ और हुआ ?”

“हुई ही नहीं ।”

“लेकिन वो तो उम्र में लड़की से बहुत बड़ा है !”

“कम से कम नहीं तो सोलह सत्‍तरह साल बड़ा है ।”

“लड़की को मंजूर होगी शादी ?”

“बाप को मंजूर होगी तो होगी ।”

“क्‍या बात करते हो !”

“आज्ञाकारी बच्‍ची है ।”

“बच्‍ची कहां है ? अपना भला बुरा खुद विचारने की क्षमता रखने वाली नौजवान वाली लड़की है ।”

“तू समझता नहीं है ।”

“क्‍या ? क्‍या नहीं समझता ?”

“शादी - अगर हुई तो - के पीछे की वजह । खास वजह ।”

“मैं समझा नहीं कुछ ।”

“अरे, पुराने जमाने में राज रजवाडे़ आपस में बहन बेटियां ब्‍याहते थे कि नहीं । राणा साहब जवान बालबच्‍चेदार बुजुर्गवार, होने वाली रानी षोड़षी बाला । ताकत बनाने, ताकत बढ़ाने के लिये ऐसे गठबंधन किये जाते थे, एक और एक ग्‍यारह हों इसलीये ऐसे गठबंधन किये जाते थे । ताकत बनाने, बढ़ाने का जो रिवाज गुजरे जमाने में था, उस पर अमल आज नहीं हो सकता ?”

“ओह !”

“लगता है अभी समझा कुछ !”

नीलेश ने संजीदगी से सहमति में सिर हिलाया ।

“दो ही तो पावरफुल भीङू हैं यहां जिनका कि आइलैंड पर कब्जा है । जब वो दो भीङू करीबी रिश्‍तेदारी में बंध कर एक हो जायेंगे तो सोचो, क्‍या कहर ढ़ायेंगे !”

“जब त‍क वो नौबत नहीं आती, वो दोनों एक नहीं होते, तब तक इधर भारी कौन पड़ता है ?”

“महाबोले बिलाशक ।”

“हूं । उस लड़के का क्‍या होगा जिसे पकड़ के ले गये ?”

“बुरा ही होगा ।”

“काहे को ? चाकू की - हथियार की - बरामदी तो हुई नहीं ।”

“वो बरामदी हो गयी होती - तूने भले वक्‍त चाकू उठा लिया - फिर तो बला का बुरा होता । लेकिन बुरा तो अब भी होगा बराबर ।”

“अब किसलिये ?”

“समझ, भई । मगज से काम ले । उस छोकरे ने थानेदार के माल पर हाथ डाला था । थानेदार बख्‍श देगा ?”

“माल !”

“बराबर । अपना माल ही समझता है वो श्‍यामला को । देखा नहीं, कैसे रौब से, कैसी धौंसपट्टी से इधर से ले के गया ! लड़की की मजाल हुई न बोलने की ? इतने चाव से इधर खाना खाने आयी थी, उसकी तरफ झांकने भी न दिया ? हिलसा रो रही है केबिन में पड़ी बेचारी ।”

“ठीक ।”

“बिल के बारे में पूछने का ढ़ण्‍ग देखा था ! जैसे चेता रहा हो ‘पुजारा, मजाल न हो तेरी बिल का नाम भी लेने की’ ।”

“कमाल है ! बॉस, ताकत के नशे में चूर किसी शख्‍स का किसी शै पर अपना नाजायज, नापाक दावा ठोकना समझ में आता है लेकिन उस दावे की आगे से बाकायदा एनडोर्समेंट भी हो, ये समझ में नही आता । श्‍यामला एक पढ़ी लिखी, बालिग, खुदमुख्‍तार लड़की है, कैसे कोई बाप ऐसी किसी लड़की से बकरी की तरह पेश आ सकता है, उसके गले में बंधी रस्‍सी किसी को भी थमा सकता है ।”

“मुश्किल सवाल है, भई, किसी मेरे से ज्‍यादा काबिल भीङू से जवाब का पता कर ।”

“आप जवाब को टाल रहे हैं । खैर, अब मैं जा सकता हूं ?”

“हां, जा । बहुत रात खोटी हुई तेरी आज इधर !”

“वांदा नहीं ।”

“जाने से पहले एक बात और सुन के जा ।”

“क्‍या ?”

“जब तक आइलैंड पर है, महाबोले की परछाईं से भी बच के रहना, हमेशा वो कहावत याद रखना जो कहती है समंदर में रहने का तो मगर से बैर नक्‍को । क्‍या ।”

“बरोबर, बॉस ।”

***

हकीकतन नीलेश पुजारा की सलाह को-वार्निंन जैसी सलाह को-थोड़ी देर के लिये भी लिये गांठ बांध कर न रखा सका । वापिसी में उसके कदम अपने आप ही उस सड़क पर मुड़ गये जिस पर कि थाना था ।

थाना एक ऐसी सैमीखण्‍डहर एकमंजिला इमारत में था जो लगता था कि इकठ्ठी बनने की जगह जैसे जैसे जरुरत पड़ती गयी थी, वैसे वैसे कमरा कमरा करके बनाई गयी थी और जब से बनी थी, रखरखाव से ताल्‍लुक रखती कोई तवज्जो उसे नसीब नहीं हुई थी ।

थाने की इमारत के फ्रंट में एक कम्‍पाउंड था जिसका लकड़ी का टूटा फूटा फाटक उस घडी़ पूरा खुला था 

कम्‍पाउंड में दायीं ओर एक सायबान था जिसके नीचे वो जीप खड़ी थी जिस पर एसएचओ महाबोले कोंसिका क्‍लब पहुंचा था । दाईं ओर एक बडे़ से कमरे की दो सींखचों वाली रौशन खिड़कियां थीं जो उस घड़ी खुली थीं । उस कमरे का प्रवेश द्वार जरुर भीतर कहीं से था । उसने कुछ क्षण उन खिड़कियों की तरफ देखा तो पाया कि उनके पीछे कमरे में कोई था । उसने गौर से उन पर निगाह गड़ाई तो उसे उस ‘कोई’ की एक स्‍पष्‍ट झलक मिली ।

जैकी !

वो भीतर पिंजर में बंद जानवर की तरह बेचैनी से चहलकदमी कर रहा था । लगता था कि अभी कोई खास पुलिसिया खिदमत उसकी नहीं हुई थी ले‍किन बाकी की रात यकीनन उसकी वहीं कटने वाली थी।

उसकी फौजदारी जैसी मिल्कियत कमानीदार चाकू उसने रास्‍ते में एक गटर में फेंक दिया था 

कम्‍पाउंड के सामने एक मेहराबदार ड्योढ़ी थी जिसमें एक आफिस टेबल लगी हुई थी जिस पर एक फोन पड़ा था और एक लकड़ी का तिकोना नामपट पड़ा था जिस पर लिखा था: ड्‍यूटी आफिसर । मेज के पीछे एक‍ और सामने तीन लकड़ी की कुर्सियां पड़ी थीं लेकिन ड्यूटी आफिसर के नाम को सार्थक करने वाला वहां कोई नहीं था । पीछे एक खुला दरवाजा था जिसके आगे आजूबाजू जाता एक गलियारा था ।

वो उस गलियारे में पहुंचा तो उसे वहां चार बंद दरवाजे दिखाई दिये । उनमें से दायीं ओर के एक दरवाजे के रोशनदान से रोशनी बाहर फूट रही थी और पार की दीवार पर पड़ रही थी ।

दबे पांव वो उस दरवाजे पर पहुंचा और कान लगा कर कोई आहट लेने की कोशि‍श करने लगा । कोई आहट तो उसे न मिली लेकिन ऐसा अहसास उसे बराबर हुआ कि वो कमरा खाली नहीं था । उसने दरवाजे पर हथेली टिका कर उसे हल्का सा धकेला तो पाया वो भीतर से बंद नहीं था । हिम्‍मत करके उसने दरवाजे को खोला और भीतर कदम डाला ।

भीतर, दरवाजे के बाजू में, उसे हवलदार जगन खत्री खड़ा मिला । आगे, कमरे के बीचोंबीच, एसएचओ महाबोले और श्‍यामला आमने सामने खडे़ थे । श्‍यामला का चेहारा फक था, नेत्र दहशत में फैले हुए थे और वो पत्‍ते की तरह कांप रही थी । उसके सामने सकते की सी हालत में खड़ा महाबोले अपना दायां गला सहला रहा था । नीलेश की आहट पाकर उसने गाल से हाथ हटाया तो वो सेंका गया होने की चुगली करते उंगलियों के निशान नीलेश को गाल पर साफ दिखाई दिये ।

“क्‍या है ?” - महाबोले कड़क कर बोला - “कहां घुसे चले आ रहे हो ?”

“जनाब” - नीलेश अतिरिक्‍त सम्‍मान से बोला - “मैं श्‍यामला को घर लिवा ले चलने के लिये आया था ।”

“क्‍या !” - महाबोले के मुंह से निकला ।

“यस, प्‍लीज ।” - नीलेश के फिर बोलने से पहले अतिव्‍यग्र, अतिआंदोलित श्‍यामला बोल पड़ी - “प्‍लीज, मेरे को घर ले के चलो ।”

“ये क्‍या हो रहा ? क्‍या बकवास है ये ?”

“जनाब, कोई बकवास नहीं है” - नीलेश विनयशील स्‍वर में बोला - “जो कुछ हो रहा है, आप के सामने हो रहा है, आपकी इजाजत से हो रहा है ।”

“मेरी इजाजत से हो रहा है ।”

“जो आप अभी देंगे न ! आइये, मैडम ।”

श्‍यामला उसकी तरफ बढ़ी ।

हवलदार झपट कर दरवाजे के आगे तन कर खड़ा हो गया ।

“रास्‍ता छोड़, भई ।” - नीलेश पूर्ववत् विनयशील स्‍वर में बोला - “गुजरना है ।”

हवलदार के चेहरे पर स्‍पष्‍ट उलझन के भाव आये ।

“साहब, ये क्‍या ...”

“जाने दे ।” - महाबोले बोला ।

एसएचओ का जवाब इतना अप्रत्‍याशित था कि पहले से हकबकाया हवलदार और ह‍कबका गया । उसके चेहरे पर ऐसे भाव आये जैसे कोई असम्‍भव बात सुनी हो ।

“जाने दूं ?” - उसके मुंह से निकला ।

“हां, जाने दे ।”

तीव्र अनिच्‍छापूर्ण भाव से हवलदार ने रास्‍ता छोड़ा तो पहले उस के पहलू से गुजरती श्‍यामला बाहर निकली फिर उसके पीछे नीलेश ने यूं बाहर कदम रखा जैसे किसी भी क्षण पीछे से हमला होने की उम्‍मीद कर रहा हो 

निर्विघ्न वो थाने की इमारत से बाहर निकल कर फुटपाथ पर पहुंचे ।

“आगे कैसे जायेंगे ?” - नीलेश बोला - “मेरे पास तो कोई सवारी...”

“अभी चुप रहो” - वो जल्‍दी से बोली - “यहां से दूर निकल चलो, जो कहना हो, फिर कहना ।”

“मैं तो खाली ये कह...”

“नो ! महाबोले का इरादा बदल सकता है, पता नहीं किस सेंटीमेंट के हवाले अभी पीछे उसने जो फैसला किया, वो उसे पलट सकता है । मेरा तो फिर भी कुछ नहीं बिगड़ेगा, तुम्‍हारी वाट लग जायेगी ।”

“ओह !”

“चलो । जल्‍दी । तेज ।”

कोई आधा किलोमीटर वो दोनों दौड़ने से जरा ही कम तेज पैदल चले ।

एकाएक वो एक संकरी गली के दहाने पर रुकी ।

“थैंक्‍यू !” - वो तनिक हांफती सी बोली - “आगे मैं खुद चली जाऊंगी ।”

उसने नीमअंधेरी गली में कदम डाला और तेजी से उसमें आगे बढ़ चली।”

पीछे नीलेश ठगा सा खड़ा हुआ । फिर उसने जेब से सिग्रेट का पैकट निकाल कर एक सिग्रेट सुलगाया और उसके कश लगाता भारी कदमों से उस दिशा में बढ़ा जिधर उसका छोटा सा किराये का कॅाटेज था ।

पीछे थाने में वक्‍ती जोशोजुनून के हवाले होकर जो उसने किया था, उसको याद कर के अब वो बहुत असहज महसूस कर रहा था । श्यामला की खतिर उसने नाहक थानाध्‍यक्ष का फोकस खुद पर बना लिया था । हैडक्‍वार्टर में बैठा टॉप ब्रास जरुर उसके उस कदम को बहुत गलत करार देता क्‍योंकि वो उसके आइंदा अभियान में आडे़ आ सकता था ।

पीछे थाने में महाबोले हवलदार जगन खत्री से मुखातिब था 

“है कौन ये नीलेश गोखले ?” - वो बोला ।

“सर जी, कोंसिका क्‍लब का बाउंसर-कम-बारमैन-कम जनरल हैण्डीमैन है ।”

“वो तो हुआ लोकिन असल में कौन है ?”

“ये तो मालूम नहीं, सर जी । नवां भीङू है, अभी मु‍श्किल से दो हफ्ता हुआ है आईलैंड पर पहुंचे ।”

“और कुछ नहीं मालुम उसकी बाबत ?”

“और तो कुछ नहीं मालूम उसकी बाबत?”

और तो कुछ नहीं मालूम, सर जी ।”

“हूं ।”

“सर जी, आपने उसे जाने क्‍यों दिया ?”

“वांदा नहीं । तब लड़की की वजह से वहीच कदम ठीक था ।”

“पण...”

“अरे, क्‍या पण ! आईलैंड पर ही है न ! जब चाहेंगे फिर थाम लेंगे ।”

“बरोबर बोला, सर जी ।”

“अभी उसको खामोशी से चैक करने का, जानकारी निकालने का कि असल में वो है कौन ! किधर से आया ! जिधर से आया, उधर क्‍या करता था ! कोंसिका क्‍लब में एम्‍पलायमेंट के लिये उसको कौन रिकमेंड किया !”

“वो तो मैं करेगा, सर जी, पण ये सब करना काहे को !”

“ढ़क्‍कन ! क्योंकि मैं बोला करने को ।”

“सारी बोलता है, बॉस ।”

***

दस बजे के करीब नीलेश सो कर उठा ।

सूरज सिर पर चढ़ आया हुआ था । शीशे की खिड़कियों पर पडे़ पर्दों में से छन कर धूप की तीखी रोशनी आ रही थी, बाहर सड़क पर व्‍यस्‍त यातायात की आवाजाही का शोर था । सड़क से पार झील में बसे मनोरंजन पार्क से अभी से संगीत की स्‍वर ल‍हरियां उठनी शुरु हो भी चुकी थीं ।

वो हड़बड़ाकर उठा और टायलेट में दाखिल हुआ ।

आधे घंटे में वो नहा धो कर, एक प्‍याली चाय पी कर, नये कपडे़ पहन कर काटेज से निकाला और पैदल चलता मेन पायर पर पहुंचा जहां के एक रेस्‍टोरेंट में उम्‍दा ब्रेकफास्‍ट सर्व होता था ।

शीशे की एक विशाल खिड़की के करीब की एक टेबल पर वो ब्रेकफास्‍ट के लिये बैठा । ब्रेकफास्‍ट के दौरान अनायास ही उसकी निगाह बाहर की ओर उठी तो उसे मेन रोड से पायर की ओर बढ़ता एक सिपाही दिखाई दिया जो कि इतनी मोटी तोंद वाला था कि अपनी वर्दी में फंसा जान पड़ता था और जिसकी बाबत नीलेश जानता था कि उसका नाम दयाराम भाटे था । नीलेश की उसकी तरफ तवज्‍जो जाने की वजह से थी कि उस घड़ी उसके साथ पिछली रात वाला जैकी नाम का नौजवान था । पिछली रात का माडर्न, सजाधजा, स्‍टाइलिश नौजवान उस वक्‍त उजड़ा चमन लग रहा था । उसकी शर्ट और जींस का बुरा हाल था, जैकेट मैले तौलिये की तरह बायी बांह पर झूल रही थी और सिर पर से फैंसी गोल्‍फ कैप नदारद थी जिसकी वजह से उसके बेतरतीब बाल नुमायां थे । सूरत बताती थी कि थाने में किसी वजह से छोटी मोटी ठुकाई भी हुई थी 

सिपाही दयाराम भाटे ने अपनी देखरेख में उसे एक स्‍टीमर पर सवार कराया और स्‍टीमर के एक कर्मचारी को उसकी बाबत कुछ समझाया।

जरुर सुनि‍श्‍चि‍त कर रहा था कि टूरिस्‍ट की तफरीह एक्‍सटेंड न होने पाये ।

‘बुरी हुई बेचारे के साथ’ - नीलेश होंठों से बुदबुदाया - ‘नशे ने नाश कर दिया ।’

ब्रेकफास्‍ट से फारिग होकर नीलेश रेस्‍टोरेंट से बाहर निकला लेकिन अभी उसने कोंसिका क्‍लब का रुख न किया । उसने एक सिग्रेट सुलगाया और लापरवाही से टहलता हुआ आईलैंड के बीच पर पहुंचा ।

अभी तब ग्‍यारह ही बजे थे लेकिन बीच पर पर्यटकों की, सैलनियों की पूरी पूरी भरमार हो भी चुकी थी । लोग बाग किनारे की रेत में पसरे सुस्‍ता रहे थे, समुद्र में स्‍व‍िमिंग का आनंद ले रहे थे, पिकनिक मना रहे थे ।

तभी बीच पर उसे रोमिला दिखाई दी ।

उसने रेत पर एक टॉवल बिछाया हुआ था और बिकि‍नी स्विमसूट पहने उस पर चित्‍त लेटी हुई थी । उसने आंखों पर काले गागल्स चढ़ाये हुए थे जिनके पीछे जरुर उसकी आंखें बंद थीं वर्ना उसे मालूम होता कि करीब से गुजरते हर उम्र के सुंदरता के पुजारी बाकायदा ठिठक कर, रु‍क कर उसकी सैक्‍सी बॉडी का खुला नजारा करके आनंदित हो रहे थे, रोमचिंत हो रहे थे और कल्‍पना के घोडे़ दौड़ा रहे थे कि अगर वो उस हूर के पहलू में होते तो आनंद का अतिरेक उनका क्‍या, किस हद तक, बुरा हाल करता ।

या शायद गागल्‍स के पीछे उसकी आंखें बंद नहीं थीं और वो मेल अटेंशन को एनजाय कर रही थी, उसे अपने लिये कम्‍पलीमेंट समझ रही थी ।

नीलेश निशब्‍द उसके करीब जाकर खड़ा हुआ तो अपने आप ही साबित हो गया कि गागल्स की ओट में उसकी आंखें बंद नहीं थीं ।

उसने चश्‍मा अपने माथे पर सरकाया और नटखट निगाह उस पर डाली ।

“हल्‍लो, रोमिला !” - नीलेश मीठे स्‍वर में बोला ।

रोमिला मुस्‍काई, उसने अपना एक हाथ उसकी तरफ बढ़ाया । नीलेश ने हाथ थामा तो उसने ए‍क झटके से उसे अपने करीब ढे़र कर लिया 

“आज तफरीह के मूड में हो !” - नीलेश बोला 

“मैं हमेशा ही तफरीह के मूड में होती हूं” - वो बोली - “खाली दांव कभी कभी लगता है ।”

“आज लगा ?”

“जा‍हिर है । तुम कैसे आये ? तरफरीहन !”

“नहीं । लेट सो के उठा । ब्रेकफास्‍ट के बाद दिल किया थोड़ा हिलने डुलने का । सो इधर चला आया । आया तो तुम दिखाई दे गयीं ।”

“लिहाजा समुद्र में डुबकी लगाने का कोई इरादा नहीं ?”

“न । अपना बोलो ?”

“एक बार गयी समुद्र में । अभी दूसरी बार के बारे में सोच रही हूं ।”

“इसी वजह से अभी बि...स्विम सूट में ही हो ।”

“अरे, बेखौफ बिकिनी बोलो ! जब है तो है ।”

“ये भी ठीक है ।”

“कैसी लग रही हूं ?”

“बढ़िया”

“बस ?”

“कमाल ! तौबाशिकन !”

“और ?”

“और और दिखाओ तो बोलू ?”

वो हंसी । मादक हंसी 

“बिकिनी में” - फिर बोली - “कुछ रह जाता है दिखने से ?”

“नहीं । फिर भी कुछ तो रह ही जाता है ।”

वो‍ फिर हंसी ।

“बिकिनी के बारे में ये कैसी अजीब बात है कि नब्‍बे फीसदी नंगा जिस्म तो वैसे ही दिख रहा होता है फिर भी मर्द की निगाह उस दस फीसदी पर ही जा कर टिकती है जो कि नहीं दिखा रहा होता ।”

वो और जोर से हंसी

“क्‍यों ? गलत कहा मैंने ?”

“नहीं । ठीक कहा एकदम । ढ़की, अनढ़की लड़कियों का काफी तजुर्बा जान पड़ता है तुम्‍हें ।”

“ऐसी कोई बात नहीं । बाई दि वे तुम लोकल तो नहीं हो !”

“नहीं । रिजक की तलाश इधर ले के आयी ।”

“ये जगह कैसे सूझी ?”

“कोई वाकिफ था, उसने सुझाई । बल्कि साथ लेकर आया ।”

“वो भी इधर ही है ?”

“हां ।”

“कौन ?”

“सुनोगे तो भाव खा जाओगे ।”

“देखते हैं । बोला कौन?”

“रोनी डिसूजा ?”

“वो कोन है ?”

“फ्रांसिस मैग्‍नारो का बॉडीगार्ड !”

“वो...वो तुम्‍हारा फ्रेंड है ?”

“वाकिफकार ।”

“जिसकी राय तुमने मानी और इधर चली आयीं ?”

“हां ।”

“जहां से आईं, वहां रिजक का तोड़ा था ?”

“ऐसा तो नहीं था लेकिन वो क्‍या है कि उधर एक लो‍कल मवाली से बड़ा पंगा पड़ गया था, तब कुछ अरसा उधर से नक्‍की करने में ही भलाई दिखाई दी थी ।”

“गोवा से ?”

“कैसे जाना ?”

“अरे, जब वो रैकेटियर मैग्‍नारो गोवा से है, उसका बॉडीगार्ड तुम्‍हारा करीबी है...”

“वाकिफकार ।”

“...तो क्‍या मुश्किल था गैस करना ।”

“ठीक ।”

“मैग्‍नारो तो सुना है पणजी से है, क्‍या तुम भी...”

“नहीं । वो पणजी का पापी है, मैं पोंडा से हूं ।”

“पोंडा की पापिन !”

“शट अप !”

“सारी !”

“वैसे उस रैकेटियर जैसी औकात बना पाऊं तो पापिन क्‍या, महापापिन कहलाने से भी कोई ऐतराज नहीं ।”

नीलेश हंसा ।

“मैग्‍नारो जैसा भीङू जिधर जा के सैटल होता है, जिधर से आपरेट करता हूं उधर बिग बिजनेस ।”

“मैग्‍नारो के लिये ।” - नीलेश बोला ।

“वो तो है ही । लेकिन मैग्‍नारो के फायदे में आईलैंड का फायदा है । मैग्‍नारो की प्रास्‍परिटी में आइलैंड की प्रास्‍परिटी है ।”

“क्‍या बात है ? रैकेटियर के पीआरओ की तरह बोल रही हो !”

“ऐसी कोई बात नहीं । मैंने कल भी बोला था, उसके आपरेशंस की वजह से पैसा इधर आता है जो कि आईलैंड की खुशहाली की वजह बनता है ।”

“इस वास्‍ते इधर गैरकानूनी जुआघर चले तो वांदा नहीं ।”

“जुआघर कानूनी हो या गैरकानूनी, आने वाले तो छिलते ही हैं न, लुटते ही हैं न !”

“वो जुदा मसला है । लेकिन जुआघर कानूनी हो तो टैक्‍स के तौर पर, आपरेशनल फीज के तौर पर गौरमेंट को कमाई में हिस्‍सा मिलता है ?”

“गौरमेंट जुए की कमाई खाना क्‍यों चाहती है ?”

“अच्‍छा सवाल है। किसी नेता से करना ।”

“क्‍यों जुआघर आबाद हैं ?

“तुम फिर उसके पीआरओ की तरह बोल रही हो !”

“और तुम क्‍या बला हो ! जाने अनजाने तुम भी उसी करप्ट सिस्‍टम का हिस्‍सा नहीं बने हुए जो तुम्‍हारी निेगाह में नाजायज है ?”

“मैं कोंसिका क्लब का एक मामूली मुलाजिम हूं ।”

“दिल को बहलाने के लिये गोखले, खयाल अच्छा है ।”

“इधर फिट हो ? कोई शि‍कायत नहीं कोई प्राब्लम नहीं ?”

“अरे, रिजक की तालिब लड़की को हर जगह प्राब्लम है, हर जगह शिकायत है । लेकिन क्या करें ! प्राब्लम से छुप कर तो नहीं बैठा जाता न ! मेरे जैसी नो स्पोर्ट, नो असैट्स लड़की का हाथ पांव हिलाये बिना पेट तो नहीं भरता न !”

“रोकडे़ के लिहाज से इधर ठीक है या पीछे पोंडा में ठीक था ?”

“मोटे तौर पर एक ही जैसा है । जिसने मेरे को ये जगह रिकमैंड की थी-जो अब मैंने बोल ही दिया कि रोनी डिसूजा था-उसने प्रास्पेक्ट्स के जो सब्ज बाग दिखाये थे, वो इधर नहीं देखने को मिले । उस लोकल मवाली से पंगा न पड़ता तो मैं पोंडा में ही टिकना प्रेफर करती ।”

“इधर कब तक का प्रोजेक्‍ट है ?”

“एक साल तो जैसे तैसे काटना ही है मेरे को इधर । बाद में...देखेंगे !”

“पैसा उड़ता तो खूब है इधर !”

“लेकिन पकड़ में खूब नहीं आता । ऐसा ही निजाम है इधर का । तुम भी निजाम का हिस्‍सा हो, तुम्‍हें मालूम होना चाहिए ।”

“हो रहा है धीरे धीरे । वैसे बाकी लड़कियां तो खुश हैं !”

“क्‍योंकि हुनरमंद हैं ।”

“बोले तो ?

“यासमीन को भूल गए ! पिकपॉकेटिंग हुनर ही तो है !”

“ओह ! लेकिन सभी तो यासमीन जैसी दक्ष जेबकतरी नहीं !”

“हैं एक दो और भी । लेकिन अपने हुनर में यासमीन जैसी परफेक्‍ट कोई नहीं । पकड़े जाने पर बहुत इंसल्‍ट होती है । तब पुजारा भी साथ नहीं देता ।”

“यासमीन कभी नहीं पकड़ी गयी ?”

“न ! अभी तक तो नहीं !”

“मैंने सुना है कमाई में इजाफा करने का इधर एक और भी जरिया आम है !”

“मैं तुम्‍हारा इशारा समझ रही हूं ।”

“क्‍या समझ रही हो ?”

“हारीजंटल कमाओ, वर्टीकल खाओ ।”

“ओह, नो ।”

“चलता है । लेकिन ‘इम्‍पीरियल रिट्रीट’ में, ‘कोंसिका क्‍लब’ में नहीं ।”

“बिल्‍कुल भी नहीं ?”

उसने जवाब न दिया ।

नीलेश ने भी जिद न की ।

“एक बात बोलूं ?” - एकाएक वो बोली ।

“बोलो ।”

“तुम सवाल बहुत पूछते हो । कुछ ज्‍यादा ही । बोले तो खोद खोद कर ।”

“माई डियर, आई एम क्‍यूरियस बाई हैबिट । आदत ही ऐसी बन गयी है ।”

“खामखाह !”

“खामखाह की समझो ।”

“कैसे समझूं ? मुझे तो तुम बाई हैबिट नहीं, बाई प्रोफेशन क्‍यूरियस लगते हो ।”

नीलेश के दिल ने डुबकी मारी ।

“अरे, खामखाह !” - वो खोखली हंसी हंसा ।

उसके चेहरे पर एक रहस्‍यमयी मुस्‍कराहट उभरी ।

“मेरी निगाह” - फिर वो अपलक उसे देखती बोली - “बहुत दूर तक मार करती है, वो बातें भी मार्क करती है जो मेरे जैसी किसी दूसरी के खयाल में भी नहीं आतीं ।”

“बोले तो ?”

“तुम्‍हारे पास एक फैंसी कैमरा है जो मूवी मोड पर भी चलता है और जिसको तुम बहुत कुछ रिकार्ड करने के लिये इस्‍तेमाल करते हो । जैसे ‘कोंसिका क्‍लब’ । ‘इम्‍पीरियल रिट्रीट’ । शरेआम मटका कलैक्‍ट करता हवलदार जगन खत्री...”

नीलेश का दिल जोर से लरजा ।

“खूबसूरत आइलैंड है” - फिर जबरन मुस्‍कराता बोला - “ग्रैंड टूरिस्‍ट रिजार्ट है । यादगार के तौर पर फोटुयें खींचने में कोई हर्ज है ?”

“फोटो क्लिक करके खींची जाती है, मूवी बनाने के लिये कैमरे को पैन करना पड़ता है । क्‍या !”

नीलेश को तत्‍काल जवाब न सूझा ।

“मैंने बोला न, मेरी निगाह बहुत दूर तक मार करती है !”

“अरे, भई, यादगार के तौर पर किसी मनोरम स्‍थल की मूवी बनाने में भी क्‍या हर्ज है ?”

“चोरी छुपे बनाने में शायद कोई हर्ज हो !”

“चोरी छुपे ?”

“बराबर ।”

“तुम्‍हें मुगालता है मेरे बारे में । मैंने ब्‍यूटीफुल प्‍लेस की ब्‍यूटी रिकार्ड करने की कोशिश की, बस । ऐसा मैं तुम्‍हे चोरी छुपे करता लगा तो गलत लगा ।”

“चलो, ऐसे ही सही ।”

“अपनी दूर तक मार करने वाली निगाह का रोब सखियों पर भी तो नहीं डाला ?”

“मैं समझी नहीं ।”

“जो मेरे को बोला, वो किसी और को भी बोला ?”

“नहीं । नहीं ।”

“पक्‍की बात ?”

“नीलेश, यू आर ए नाइस गाय । यू आलवेज बिहेव डीसेंटली विद मी । यू नो आई एम ए बार फ्लाई, यू स्टिल ट्रीट मी लाइक एक लेडी । मुझे इस बात का बड़ा मान है इसलिये यकीन जानो ये कैमरे वाली बात सिर्फ मेरे और तुम्‍हारे बीच में है ।”

“थैंक्‍यू । आई एप्रिशियेट दैट ।”

“फिर तुम कहते हो कुछ बात ही नहीं है तो समझो बात खत्‍म है ।”

नीलेश खामोश रहा ।

“एक बात फिर भी बोलने का ।”

नीलेश की भवें उठीं ।

“तुम्‍हारा अच्‍छा बर्ताव इस बात की साफ चुगली करता है कि तुम्‍हारे संस्‍कार अच्‍छे हैं, तुम किसी अच्‍छे घर के हो । क्‍लब में क्या भीतर के क्‍या बाहर के, बारबालाओं पर सब लार टपकाते हैं लेकिन अकेले तुम हो जो कभी किसी के साथ-खासतौर से मेरे साथ-बेअदबी से, गैरअखलाकी ढण्‍ग से पेश नहीं आये, कभी किसी की बगलों में हाथ डालने की कोशिश नहीं की, कभी किसी को कूल्‍हे पर चिकोटी नहीं काटी, कभी किसी को साथ भींचने की कोशिश नहीं की । ये वो काम हैं जो क्लब में बारबालाओं के साथ हर कोई करता है । इन और कई बातों के मद्‌देनजर मैं तुम्‍हारा तसव्‍वुर बार के गिलास चमकाते शख्‍स के तौर पर करने में दिक्‍कत महसूस करती हूं ।”

“भई, जो प्रत्‍यक्ष है...”

“वो निगाह का धोखा है । किसी खास मकसद की पर्दादारी है, पुजारा बहुत सयाना है, बहुत घिसा हुआ है, उड़ते पंछी के पर पहचानता है लेकिन जो उसकी निगाह में नहीं आती ।”

“तुम्‍हारी में आती है” - नीलेश ने बात को हंसी में उडाने की कोशिश की - “क्‍योंकि तुम्‍हारी निगाह बहुत दूर तक मार करती है ! हा हा ।”

वो खामोश रही ।

“माई डियर, तुम्‍हारी सारी बातें ठीक हैं लेकिन उनकी तुम्‍हारी जो तर्जुमानी है, वो ठीक नहीं है । मैं कैमरे से तसवीरें खींचता हूं-चलो, मूवी बनाता हूं-लेकिन उसमें मेरा कोई खास, खुफिया, काबिलेऐतराज मकसद नहीं है । और जहां तक क्‍लब की नौकरी का सवाल है तो बुरा वक्‍त किसी का भी आ सकता है । राजा रामचंद्र को वन भटकना पड़ा था, राजा हरीश्‍चंद्र को मरघट का रखवाला बनना पड़ा था, पांण्‍डवों को अज्ञातवास में विप्र बनकर मुंह छुपाये फिरना पड़ा था, रिजक की तलाश गांधी जी को साउथ अफ्रीका लेकर गयी थी । विषम परिस्थितियों में कोई कर्म से मुंह तो नहीं मोड़ लेता ! और फिर कोई काम छोटा बड़ा नहीं होता, सिर्फ करने वाले की सोच उसे छोटा बड़ा बनाती है...”

“आई अंडरस्‍टैण्‍ड । प्‍लीज डोंट पुश इट ।”

“बाकी रही कैमरे की बात तो इस वक्‍त तो वो मेरे पास नहीं है लेकिन पहली फुर्सत में मैं वो तुम्‍हारे सुपुर्द कर दूंगा । तब खुद तसल्‍ली कर लेना कि क्‍या स्टिल, क्‍या मूवी, उसमें काबिलेऐतराज, काबिलेशुबह कुछ नहीं है ।”

“जरुरत नहीं । मुझे तुम्‍हारे पर विश्‍वास है...”

“थैंक्‍यू ।”

“…लेकिन अपने पर भी विश्‍वास है ।

“फिर वापिस वहीं पहुंच गयीं !”

“छोड़ो वो किस्‍सा ।” - वो उठ खड़ी हुई - “मैं डुबकी लगाने जा रही हूं । तुम्‍हारा क्‍या इरादा है ?”

“इरादा तो नेक है लेकिन मेरी इस एडवेंचर के लिये कोई तैयारी नहीं है । मैं इस इरादे से बीच पर नहीं आया था । मैं तो यूं ही टहलता हुआ इधर निकल पड़ा था...”

“आई अंडरस्‍टैण्‍ड । तो फिर...”

“यस । यू प्‍लीज गो अहेड ।”

वो समुद्र की ओर बढ़ गयी ।

नीलेश ने उससे विपरीत दिशा में उधर कदम उठाया जिधर बीच का बार-कम-रेस्‍टोरेंट सी-गल था 

‘सी-गल’ ग्‍लास हाउस की तरह बना हुआ था इसलिये वहां कहीं भी बैठने से बाहर का दिलकश नजारा होता था 

वो बीच की दिशा की एक टेबल की तरफ बढ़ा और दो कदम उठाते ही थमक पर खड़ा हुआ ।

कोने की एक टेबल पर श्‍यामला मोकाशी अकेली बैठी काफी चुसक रही थी ।

वो उसके करीब पहुंचा ।

“हल्‍लो !” - वो मधुर स्‍वर में बोला - “गुड मार्निंग !”

श्‍यामला ने सिर उठाया, उसे देख तत्‍काल उसके चेहरे पर शिनाख्‍त की मुस्‍कराहट आयी ।

“हल्‍लो युअरसैल्‍फ !” - वो बोली - “यहां कैसे ?”

“यही सवाल मैं तुमसे पूछूं तो ?”

“जरुर । जरुर । लेकिन पहले बैठ जाओ ।”

“थैंक्‍यू ।” - वो उसके सामने एक कुर्सी पर बैठा - “कल घर ठीक से पहुंच गयी थीं ?”

“हां ।” - वो लापरवाही से बोली - “क्‍या पियोगे ?”

वही जो तुम पी रही हो ?”

श्‍यामला ने उसके लिये काफी मंगवाई ।

नीलेश ने काफी चुसकी ।

“नाइस ।” - वो बोला 

श्‍यामला ने सहमति में सिर हिलाया ।

“सो, हाउ इज ऐव‍रीथिंग ?”

“फाइन । आल वैल ।”

नीलेश को उम्‍मीद थी कि वो पिछली रात की बाबत कुछ उचरेगी लेकिन ऐसा न हुआ । शायद उस जिक्र से वो बचना चाहती थी 

“इधर कैसे ?” - उसने पूछा ।

“यूं ही । कोई खास वजह नहीं । समझो, बीच की रौनक देखने निकल आयी ।”

“देखने ! रौनक मैं शामिल होने नहीं ?”

“क्‍या मतलब ?”

“स्विमिंग ।”

उसने इंकार में सिर हिलाया 

“क्‍यों ? पसंद नहीं ?”

“पसंद है - ये जगह ही ऐसी है कि स्विमिंग नापसंद होने का सवाल ही नहीं पैदा होता - आज मूड नहीं ।”

“आई सी ।”

“तुम इधर कैसे ?”

“तुम्‍हारे वाली ही वजह है ।”

“हूं । और सुनाओ ।”

“क्‍या ?”

“अरे, अपने बारे में बताओ कुछ ?”

“क्‍या बताऊं ? कुछ है ही नहीं बताने लायक । तनहा आदमी हूं । तकदीर ने इधर धकेल दिया ।”

“पहले क्‍या करते थे ?”

“वही करता था जो इधर करता हूं ।”

“कहां ?”

“मुम्‍बई में । बांद्रा के एक बार में । नाम पिकाडली ।”

“आई सी ।”

“मैं कल का कोई जिक्र नहीं छेड़ना चाहता, फिर भी एक सवाल है मेरे जेहन में ।”

“क्‍या ?”

“तुम्‍हारा पिता आइलैंड का मालिक है, कैसे इंस्‍पेक्‍टर महाबोले की वो सब करने की मजाल हुई जो रात उसने किया ?”

“सुनो । पहले तो ये ही बात गलत है कि मेरा पिता आइलैंड का मालिक है । पता नहीं क्‍यों लोगों ने ये बेपर की उड़ाई हुई है । पापा बिजनेसमैन हैं, यहां छोटा मोटा बिजनेस करते हैं । पब्लिक स्पिरिटिड हैं, इसलिये साथ में सोशल सर्विस करते हैं ।”

“म्‍यूनीसिपैलिटी के प्रेसीडेंट की हैसियत में ?”

“श्‍योर ! वाई नाट !”

“और ?”

“दूसरे, रात महाबोले ने जो किया, उसमें मजाल वाली कोई बात नहीं थी अपनी एसएचओ की हैसियत में वो आईलैंड के कायदे कानून को रखवाला है और मेरे पापा का दोस्‍त है । रात उसने जो किया, मेरे वैलफेयर के मद्‌देनजर किया ।”

“पर्दादारी है । उसकी लाज रख रही हो ।”

“ऐसी कोई बात नहीं ।”

“गाल क्‍यों सेंक दिया ?”

“क्‍या !”

“ऐसा हवलदार के सामने किया या तब वो उस कमरे में नहीं था ?”

“अरे, क्‍या कह रहे हो ?”

“तुम्‍हें मालूम है क्‍या कह रहा हूं । जवाब नहीं देना चाहती हो तो...ठीक है ।”

“जो तुम सोच रहे हो, वो गलत है, निगाह का धोखा है, ऐसा कुछ नहीं हुआ था ।”

“तुम कहती हो तो ...”

“मैं कहती हूं ।”

“अगर वहां सब कुछ नार्मल था तो घर ले चलने को मेरे को क्‍यों बोला ?”

“क्‍योंकि महाबोले को स्‍टेशन हाउस में काम था । वो अभी टाइम लगाता ।”

“मुझे घर ले जाने भी तो नहीं दिया !”

“घर का रास्‍ता तो पकड़ाने दिया ! बाकी समझो कि जहमत से बचाया ।”

“तुम्‍हारे पास हर बात का जवाब है ।”

“छोड़ो वो किस्‍सा । और कोई बात करो ।”

“और क्‍या बात ?”

“कल की सोशल सर्विस की कोई शाबाशी चाहते हो तो बोलो ।”

“दोगी ?”

“क्‍यों नहीं ? तभी तो पूछा !”

“शाम को क्‍या कर रही हो ?”

“क्‍यों पूछ रहे हो ?”

“आज मेरी शार्ट शिफ्ट है । कोई मेजर इमरजेंसी न आन खड़ी हुई तो नौ बजे छुट्‌टी हो जायेगी । एक शाम खाकसार के नाम कर सको तो समझना शाबाशी से बडे़ हासिल से नवाजा ।”

वो हंसी ।

“फंदेबाज हो ।” - फिर बोली - “एक नम्‍बर के ।”

“तो फिर क्‍या जवाब है ?”

“ओके ।”

“कहां मिलेगी ?”

“घर पर आना । फाइव, नेलसन एवेन्‍यू । मालूम, किधर है ?”

“मालूम । तुम्‍हारे पापा ऐतराज नहीं करेंगे ?”

“देखना ।”

“देखना बोला ?”

“हां, भई । मिलवाऊंगी न उनसे, फिर देखना ऐतराज करते हैं या नहीं!”

“ओह !”

“माई फादर इज ए ग्रैंड गाय ।”

हर बेटी समझती है कि उसका बाप महान है, उस जैसा कोई नहीं ।

“मेरे से बहुत प्‍यार करते हैं - मां नहीं है इसलिये मां की कमी भी उन्‍होंने ही पूरी करनी होती है-मेरी आजादी में, मेरे लाइफ स्‍टाइल में कभी दखलअंदाज नहीं होते । एक ही हिदायत देते हैं । बी रिस्‍पांसिबल । एण्‍ड आई डू ऐग्‍जैक्‍टली दैट ।”

“ठीक है । आता हूं ।”

“वैलकम ।”

तभी नीलेश को ‘सी-गल’ में रोमिला कदम रखती दिखाई दी 

उस घड़ी वो जींस और स्‍कीवी पहने थी और एक बड़ा सा बीच बैग सम्‍भाले थी । अपने बाल उसने पोनीटेल की सूरत में सिर के पीछे बांध लिये हुए थे ।

उसकी नीलेश से आंख मिली तो वो दृढ़ कदमों से उधर बढ़ी ।

“हल्‍लो, रोमिला !” - नीलेश जबरन मुस्‍कराता और लहजे में मिठास घोलता बोला - “श्‍यामला से मिलो ।”

“दोनों में औपचारिक ‘हाय’ आदान प्रदान हुआ ।

“श्‍यामला मोकाशी ।” - नीलेश आगे बढ़ा - “म्‍यूनीसिपैलिटी के...”

“मालूम ।”

“गुड । श्‍यामला, रोमिला कोंसिका क्‍लब में मेरी फैलो वर्कर है । कलीग है ।”

“फेस इज फैमिलियर ।” - श्‍यामला शुष्‍क स्‍वर में बोली और एकाएक उठ खड़ी हुई, जल्‍दी से उसने काफी के मग के नीचे एक सौ का नोट दबाया और नीलेश की तरफ घूमकर बोली - “आई एम सारी अबाउट दि ईवनिंग...”

“बोले तो ?” - नीलेश सकपकाया ।

“मुझे अभी याद आया कि शाम की मेरी कहीं और प्रीशिड्‌यूल्‍ड अप्‍वायंटमेंट है । बातों में बिल्‍कुल भूल गयी थी लेकिन अच्‍छा हुआ वक्‍त पर याद आ गयी । सो, बैटर लक नैक्‍स्‍ट टाइम । नो ?”

“यस ।”

लम्‍बे डग भरती वो वहां से रुखसत हो गयी ।

“चलता हूं थोड़ी देर हर इक राहरौ के साथ” - श्‍यामला भावहीन स्‍वर में बोली - “पहचानता नहीं हूं अपनी राहबर को मैं ।”

“मेरे से कह रही हो ?”

“नहीं बेध्‍यानी में बड़बड़ा रही थी ।”

“बैठो ।”

“क्‍योंकि सीट खाली हो गयी है ।”

“जली कटी भी सुनानी हैं तो बैठ के ये काम बेहतर तरीके से कर सकोगी ।”

वो धम्‍म से उसके सामने बैठी ।

“काफी ?” - नीलेश बोला 

“उसी के लिये आयी थी, अब मूड नहीं है ।”

“क्‍यों ? क्‍या हुआ मूड को ?”

“हुआ कुछ । अपनी बोलो !”

“क्‍या ?”

“चिड़िया को चुग्‍गा डाल रहे थे ?”

“चिड़िया ?”

“जो उड़ गयी फुर्र करके । जो मेरे से भाव खा गयी । पहचान गयी मैं कोंसिका क्‍लब की बारबाला थी । बेचारी को बिलो स्टेटस ‘हल्‍लो’ बोलना पड़ गया । अप्‍वायंटमेंट ब्रेक कर दी । बारबाला को फ्रेंड बताने वाले के साथ काहे को अप्‍वायंटमेंट...”

“कलीग ! फैलो वर्कर !”

“तुम्‍हारे कहने से क्‍या होता है ? खुद वो क्‍या अंधी है ? रोटी को चोची कहती है ?”

“हम फ्रेंड कब हुए ?”

“नहीं हुए । लेकिन जैसी बेबाकी से तुमने उससे मेरा तआरुफ कराया, उससे उसने तो यही समझा !”

“औरतों की अक्‍ल !”

“सारी, नीलेश । मेरी वजह से तुम्‍हारा नुकसान हो गया । नोट गिनना शुरु करने से पहले ही गड्‌डी हाथ से निकल गयी ।”

“वाट द हैल !”

“यू टैल मी वाट द हैल ?”

“अरे, जो मेरे फ्रेंड को फ्रेंड न समझे, उसकी फ्रेंडशिप नहीं मांगता मेरे को ।”

“बढ़ि‍या ! मेल ट्रेन निकल गयी तो अब पैसेंजर ट्रेन को भाव दे रहे हो ।”

“तू पैसेंजर ट्रेन है ?”

“हूं तो नहीं ! लेकिन अभी के वाकये ने अहसास ऐसा ही दिलाया ।”

“अब छोड़ वो किस्‍सा ।”

“सब साले रंगे सियार हैं । मेरा इन एण्‍ड आउट एक तो है ! इन लोगों का एक तो हो ही नहीं सकता । साले भीतर से कुछ, बाहर से कुछ !”

“किन की बात कर रही है ?”

“जो आइलैंड पर कब्‍जा किये बैठे हैं । बारबाला को प्रास्टीच्‍यूट समझते हैं तो क्‍यों है बार वालों को बारबाला ऐंगेज करने की इजाजत ? काबिल एडमिनिस्‍ट्रेटर बने इस उंची नाक का बाप ! अंकुश लगाये इस लानत पर ! कैसे करेगा ? कैसे होगा ? उसको भी कभी तनहाई सताती है या रंगीनी लुभाती है तो किधर छोकरी वास्‍ते बोलता है ? कोंसिका क्‍लब ! इम्‍पीरियल रिट्रीट ! मनोरंजन पार्क !”

“वहां भी ?”

“बरोबर ! उधर भी ड्रग्‍स का कारोबर चलता है । चकला चलता है । सब त्रिमूर्ति के कंट्रोल में है ।”

“त्रिमूर्ति !”

“अभी जो भुनभुनाती यहां से गयी, उसका बाप-बाबूराव मोकाशी । इम्‍पीरियल रिट्रीट का बिग बॉस फ्रांसिस मैग्‍नारो । लोकल थाने का महाकरप्‍ट थानेदार अनिल महाबोले ।”

“ओह !”

“क्‍या ओह ! तुम्‍हें सब मालूम है । कौन सा गैरकानूनी काम है जो इन लोगों की प्रोटेक्‍शन में आइलैंड पर नहीं होता ? गेम्‍बलिंग, प्रास्‍टीच्‍यूशन, एक्‍साइज अनपेड लिकर, ड्रग्‍स । हर चीज बेट है जो टूरिस्‍ट्स को फंसाती है, उनकी जेबें हल्‍की-बल्कि खाली-कराती है और त्रिमूर्ति चांदी काटती है । मैग्‍नारो की छोड़ो, वो मवाली है, रैकेटियर है, महाबोले या मोकाशी में से एक भी कमर कस ले तो कैसे ये अराजकता चलती रह सकती है ? लेकिन कौन कस ले ? क्‍यों कस ले? सब एक ही थैली के चट्‌टे बट्‌टे तो हैं !”

“ठीक !” - नीलेश एक क्षण ठिठका, फिर बोला - “मुझे एसएचओ अनिल महाबोले के बारे में कुछ और बताओ !”

“क्‍यों ? किताब लिखनी है ? उसकी बायोग्राफी तैयार करनी है ?”

“शायद ।”

“बोला शायद !”

नीलेश हंसा ।

“तुम मुंह पर पट्‌टी बांध के रखो, नीलेश गोखले, मैं भी जान के रहूंगी तुम यहां किस फिराक में हो !”

“उसी फिराक में हूं जिस में तुम हो ।”

“बोले तो ?”

“रिजक की फिराक में हूं । रोजगार की फिराक में हूं ।”

“बंडल !”

“तो और क्‍या मुझे बार के गिलास चमकाने का शौक है ?”

“कोई मिशन सामने हो तो उसकी खातिर इससे भी ज्‍यादा हेठे काम करने पड़ते हैं ।”

“मिशन कैसा ?”

“तुम बोलो ।”

“कोई नहीं ।”

“तो खास महाबोले की बाबत सवाल क्‍यों ?”

“कोई खास वजह नहीं । तुम न दो जवाब ।”

“सलाह का शुक्रिया । कबूल की मैंने ।”

एक झटके से वो कुर्सी पर से उठी और बिना नीलेश पर निगाह डाले लम्‍बे डग भरती वहां से रुखसत हो गयी ।