"कल... ।" कहते हुए देवराज चौहान ने कलाई पर बंधी घड़ी पर निगाह मारी--- "इस वक्त हम डकैती करने में व्यस्त होंगे ।" इसके साथ ही देवराज चौहान ने सामने मौजूद चारों पर निगाह मारी ।
चारों नये रंगरूट थे।
इस काम के लिये देवराज चौहान ने खासतौर से नये रंगरूटों का इंतजाम किया था। इन्हें इकट्ठा करने में बसन्त ने देवराज चौहान की सहायता की थी और बदले में दस लाख नकद लिया था।
ये चारों थे --- टिड्डा, प्रतापी, शेख और पव्वा ।
देवराज चौहान के साथ इस डकैती में अवश्य ये नये थे, परन्तु चारों इतने घिसे हुए थे, हर काम को चुटकियों में करना जानते थे। अपने काम में पूरे माहिर थे। देवराज चौहान इनके लिये किसी हीरो जैसा था, क्योंकि आज से पहले इन्होंने कोई बड़ा काम नहीं किया था और डकैती मास्टर देवराज चौहान का नाम अक्सर सुनते रहते थे। चारों भी उत्साह से भरे हुए थे कि देवराज चौहान जैसे इन्सान के साथ इन्हें काम करने का मौका मिल रहा है
इस वक्त सब सस्ते से होटल के कमरे में थे। आज सुबह ही इन्होंने ये कमरा लिया था और कल काम पर जाते वक्त ये कमरा इन्होंने खाली कर देना था।
जगमोहन कमरे में एक तरफ खामोशी से टहल रहा था। उसके हाथ में माचिस की तीली थी, जिससे वो कभी-कभार दाँत कुरेदने लगता तो कभी कमरे की खुली खिड़की पर खड़ा होकर बाहर देखने लगता। सामने ही सड़क थी और वहाँ से निकलने वाले ट्रैफिक का मध्यम सा शोर कमरे के भीतर तक आ रहा था। जगमोहन सब सुन रहा था परन्तु बातों में दखल नहीं दे रहा था। क्योंकि ये सब उसका काम नहीं था। डकैती की योजना को देवराज चौहान संभालता था। और इस वक्त देवराज चौहान की योजना सुनकर उसे इस बात की तसल्ली थी कि काम हो जायेगा। वो सफल रहेंगे।
देवराज चौहान पुनः कह उठा ---
"पिछले पन्द्रह दिनों से मैं तुम चारों को इस काम के लिए समझा रहा हूँ। हर एक पॉइंट पर मैंने दस-दस बार बात की है। सिर्फ इसलिए कि मौके पर किसी से कोई चूक न हो। अगर अभी भी किसी को शक-शुबहा हो तो वह कह सकता है, बात कर सकता है। काम के वक्त, तुम सबने अपने हिस्से का काम पूरा करके रहना है। किसी एक से हुई छोटी सी चूक सारा काम बिगाड़ देगी, जबकि ऐसा नहीं होना चाहिए।"
चारों ने एक-दूसरे को देखा।
जगमोहन खुली खिड़की से टेक लगाए इधर ही देख रहा था।
"मुझे कुछ नहीं कहना।" प्रतापी कह उठा--- "मैं अपने हिस्से का काम पूरा करूँगा।"
"किसी को घबराहट जैसी बात हो तो कह सकता है।" देवराज चौहान ने कहा।
"घबराहट कैसी?" टिड्डा मुस्कुराया--- "मुझे तो कल का इंतजार है।"
"मुझे भी...।" शेख के चेहरे पर दृढ़ता थी।
देवराज चौहान ने पव्वे को देखा।
पव्वा मुस्कुराया देवराज चौहान को देखकर।
"क्या कहना चाहता है तू?" देवराज चौहान का स्वर शांत था।
"काम वैसा ही होगा, जैसा तुम चाहते हो।" पव्वा बोला।
"समस्या कहाँ है तुझे...।"
"मैं अपने काम की बात तेरे से एक बार फिर करना चाहता हूँ।" पव्वे ने कहा।
"बोल...।"
"तुमने बताया कि ये मामला साठ करोड़ की दौलत का है ।"
"हाँ ।"
"उस बैंक से साठ करोड़ की दौलत को दूसरे बैंक में पहुँचाया जाना है और वो सारी दौलत 1000-1000 की गड्डियों में होगी और वो कुल 6000 गड्डियां होंगी, साठ करोड़ के रूप में...।"
देवराज चौहान ने सहमति से सिर हिलाया।
"तुम्हारा प्लान जानदार है। इस काम के लिए इससे बढ़िया प्लान नहीं बन सकता। हम आसानी से 60 करोड़ से भरी बैंक वैन को झपट लेंगे। तुम्हारा प्लान ही ऐसा है। मान गया मैं तुम्हें। आज मुझे समझ आ गई कि काम करने से पहले प्लानिंग कितना महत्व रखती है। लोग असफल ही इसलिए होते हैं कि वे ठीक से प्लानिंग नहीं करते।"
"तुम जो कहना चाहते हो, वो कहो।" खामोश खड़ा जगमोहन कह उठा।
पव्वे ने जगमोहन को देखकर कहा---"जो बात तारीफ करने लायक हो, उसकी तारीफ अवश्य करनी चाहिए।"
"आगे बोल...।" जगमोहन पुनः बोला।
पव्वे ने देवराज चौहान को देखकर कहा---
"हमें कितना मिलेगा?"
"साठ में तीस हमारा।" जगमोहन कह उठा--- "बाकी का तीस तुम चारों का।"
"तीस क्यों? हम छः हैं, सब को दस-दस मिलना चाहिए।" पव्वे ने कहा।
"तुम अभी देवराज चौहान के प्लान की तारीफ कर रहे थे।" जगमोहन ने व्यंग्य से कहा।
"हाँ...तो...?"
"प्लान हमारा, डकैती कहाँ करनी है, ये हमने तय किया। भाग दौड़ हमने की। सबकुछ हमारा लगा। तुम्हें तो शुक्र करना चाहिए कि हमने तुम्हें इस काम में लिया।" जगमोहन ने तीखे स्वर में कहा।
"मैं सच में शुक्रगुजार हूँ कि...।"
"ये सारी हम में पहले हो चुकी हैं।" देवराज चौहान कह उठा--- "अब ये बात नहीं होनी चाहिए।"
"वो तो मैं यूँ ही, एक बार फिर तुम्हें ये बात याद दिलाना चाहता था कि तुमने हम चारों को तीस करोड़ देने को कहा है। तुम हम चारों को साढ़े सात-साढ़े सात करोड़ दोगे। ये बात भूलना मत।"
"क्या तुम्हें शक है कि ऐसा नहीं होगा?"
"मैं पहले कई बार धोखा खा चुका हूँ। इसलिये...।"
"मेरे काम में, मेरी तरफ से धोखा नहीं होता।" देवराज चौहान बोला--- "निश्चिन्त होकर काम करो।"
"बलवन्त ने ये ही कहा था कि तुम पर पूरी तरह भरोसा किया जा सकता है।" पव्वे ने सिर हिलाकर कहा--- "मैं इस बात को लेकर बहुत खुश हूँ कि कल काम के बाद मुझे साढ़े सात करोड़ मिल जायेंगे।"
देवराज चौहान ने जगमोहन से कहा---
"तुम यहाँ रहकर वक्त बरबाद मत करो। जो काम तुम्हारे हवाले हैं, उन्हें पूरे कर दो।"
"जाता हूँ।" जगमोहन ने कहा और दरवाजे की तरफ बढ़ गया--- "वहाँ से मैं बंगले पर जाऊँगा।"
"दो घण्टे बाद तुम्हें वहीं मिलूँगा। वहाँ न मिला तो फोन पर बात कर लेना।"
जगमोहन दरवाजा खोलकर बाहर निकल गया।
देवराज चौहान ने चारों पर निगाह मार कर कहा---
"तो अब तुम चारों काम के लिये तैयार हो?"
"एकदम।" शेख मुस्कुराया--- "तुमने हमें काम के लिये बढ़िया ढंग से ट्रेंड किया। हर बात बढ़िया ढंग से कही। कहीं पर भी चूक होने का सवाल ही नहीं पैदा होता।"
देवराज चौहान ने सिर हिलाते हुए सिग्रेट सुलगा ली।
टिड्डा चालीस बरस का सांवले रंग और लम्बे बालों वाला व्यक्ति था। गाल धंसे हुए थे, परन्तु आँखों में अजीब सी चमक रहती थी। चाकूबाजी में माहिर था। दो बार जेल जा चुका था। वो चोर था। चूँकि पाइपों के सहारे फुर्ती से पांचवीं-आठवीं-दसवीं मंजिल तक पहुँच जाता था तो उसे जानने वाले उसे टिड्डा के नाम से बुलाने लगे। परन्तु वो कोई बड़ा काम करना चाहता था और अब उसे मौका मिला था।
शेख ड्रग सप्लायर था।
लेकिन इन दिनों उसका धंधा ठप्प हो चुका था। उसे तो इस बात में चैन था कि जेल जाते-जाते बचा है। पुलिस ने उसका बुरा हाल कर दिया था। पैसे की सख्त जरूरत थी उसे। साढ़े सात करोड़ मिलने पर उसके बिगड़े सारे काम संवर सकते थे। वो ये काम हर हाल में करना चाहता था।
प्रतापी चार साल की जेल काटकर महीना भर पहले ही बाहर निकला था। एक बार लूट के वक्त जब सामने वाले ने विरोध किया तो प्रतापी ने उसकी टाँग पर चाकू मार दिया। लेकिन उसने प्रतापी का चाकू ही छीनकर उसे पकड़ लिया और तब तक न छोड़ा, जब तक कि पुलिस न आ गई। तब चार साल की जेल हो गई थी उसे। अब वो चाहता था कि ये काम करके साढ़े सात करोड़ हाथ में आ जायें तो वो चैन से बाकी की जिन्दगी बितायेगा।
पव्वा खतरनाक इन्सान था।
चोरी । लूट । छीना-झपटी । हर तरह का काम कर चुका था वो। लेकिन कभी भी पेट भर कर पैसा उसके हाथ न लगा था। अब वो साढ़े सात करोड़ हर हाल में पा लेना चाहता था। इस वक्त पैसे की उसे जरूरत भी थी। उसका सात साल का भतीजा गम्भीर बीमारी से पीड़ित था। उसे ठीक करने के लिए पन्द्रह लाख रूपये की जरूरत थी। पव्वे के मन में था कि पैसे आते ही सबसे पहले भतीजे का इलाज़ करायेगा।
चारों खतरनाक थे।
देवराज चौहान ने कश लिया और सबको देखकर कहा---"अगर तुम लोग चाहो तो मैं सारी योजना एक बार फिर दोहरा सकता हूँ...।"
"रहने दो।" शेख बोला--- "सबकुछ इतनी बार सुन चुके हैं कि इसके अलावा दिमाग में कुछ और है ही नहीं...।"
"हाँ।" पव्वा मुस्कुराया--- "तुमने ठीक कहा।"
ये चारों नये रंगरूट इस सिलसिले में थे कि बड़ा काम ये पहली बार करने जा रहे थे। यही वजह थी कि इनमें उत्साह कूट-कूट कर भरा पड़ा था। साढ़े सात करोड़ कम नहीं होता,ये जानते थे।
"तुम्हारी एक बात मुझे पसन्द नहीं आई।" टिड्डा कह उठा।
"क्या?" देवराज चौहान ने उसे देखा।
"खाली रिवाल्वरों को लेकर, काम करना...।"
"मैं अपने काम में किसी तरह का खून-खराबा नहीं चाहता। आज तक मेरे द्वारा की गई डकैती में कोई निर्दोष नहीं मारा गया। मैं पैसा पाने के लिये किसी की जान नहीं लेता। खाली रिवाल्वर से डरा कर तुम उन लोगों पर कब्जा करोगे।"
"लेकिन हम मुसीबत में पड़ सकते हैं। बाजी पलट गई तो वो अपने हथियार हम पर तान देंगे।"
"ऐसा कुछ हुआ तो, हालातों को संभालना तुम लोगों का काम होगा।"
"देवराज चौहान!" प्रतापी कह उठा--- "तुम हमें भरी रिवाल्वर दो। हम वादा करते हैं कि गोली नहीं चलायेंगे...।"
"नहीं चलाओगे?" देवराज चौहान मुस्कुराया।
"नहीं...।"
"पक्का...।"
"प्रामिस...।"
"जब गोली चलानी ही नहीं है तो रिवाल्वर भरी हो या खाली, क्या फर्क पड़ता है?" देवराज चौहान ने कहा।
"ये क्या कह रहे हो? रिवाल्वर लोडेड हमारे हाथ में होगी तो हमें हौसला होगा कि...।"
"तुम ये क्यों सोचते हो कि खाली रिवाल्वर तुम्हारे हाथ में है? ये सोचो ही मत...।"
"क्यों ना सोचें। जब खाली रिवाल्वर हाथ में होगी तो...।"
"खाली रिवाल्वर लेकर ही ये काम किया जायेगा।" देवराज चौहान ने पक्के स्वर में कहा।
"तुमने पहले कभी इस तरह काम किया है?" टिड्डा ने पूछा।
"नहीं...।"
"तो इस बार क्यों?"
"क्योंकि तुम लोग पहली बार मेरे साथ मिलकर बड़ा काम करने जा रहे हो। कभी भी, जरा सी गड़बड़ होने पर कोई भी घबरा कर गोली चला सकता है। जहाँ गोली चल जाये, वहाँ काम हो पाना सम्भव नहीं होता। ये तुम लोगों का वहम है कि खाली रिवाल्वर लेकर काम नहीं किया जा सकता। तुम जानते हो कि रिवाल्वर खाली है, परन्तु सामने वाला तो नहीं जानता कि रिवाल्वर खाली है। उसे तो अपनी जान प्यारी होगी।"
"ठीक कहा।"शेख ने सिर हिलाया ।
"अपने में विश्वास हो तो खाली रिवाल्वर से ही दुनियाँ को जीता जा सकता है।"
टिड्डा ने गहरी साँस ली।
"ये नहीं मानेगा...।" प्रतापी ने टिड्डा को देखा।
"मुझे पहले ही पता था।"
"तो फिर तुमने बात शुरू क्यों की?" प्रतापी मुस्कुराया।
"कोशिश की थी मैंने तो। नहीं सफल हुई तो ना सही!"
तभी देवराज चौहान का मोबाइल बजा।
"हैलो।" देवराज चौहान ने बात की।
"मैं बसन्त...।"
"कहो...।"
"मेरे दिलवाये आदमी कैसे हैं? कोई आदमी बदलना चाहते हो तो कहो...।"
"सब ठीक है।" देवराज चौहान ने कहते हुए कश लिया।
"काम हो गया?"
"हो जायेगा।"
"मुझे नहीं बताओगे कि तुम क्या करने जा रहे...।"
"तुम्हें दस लाख, तुम्हारी मेहनत के मिल गये हैं। इसके बाद तुम्हें सब बातें भूल जानी चाहिये।" देवराज चौहान बोला।
"मैंने तो यूँ ही कहा था। बुरा मत मानना। दोबारा नहीं पूछूँगा।"
"इस तरह खामखाह मुझे फोन भी मत करना। तुम्हारा काम खत्म तो मेरे से बात खत्म।" कहने के साथ देवराज चौहान ने फोन बंद करके जेब में रखा और बोला--- "किसी को काम के बारे में कोई बात नहीं करनी?"
चारों ने एक-दूसरे को देखा।
"नहीं...।" पव्वा कह उठा।
"तो मैं अब जाऊँगा। जरूरत पड़ने पर मुझे फोन कर लेना। कोई भी खामखाह कमरे से बाहर न निकले और सिर्फ काम के बारे में सोचो, जो हम कल करने जा रहे हैं। तुम लोगों के लिए सबसे महत्वपूर्ण वो ही काम है। जिसमें हर हाल में सफल होना है। साढ़े सात करोड़ कम नहीं होते,जो तुम में से हर एक को मिलेंगे।"
कोई कुछ नहीं बोला।
"मैं शाम को तुम लोगों के पास आऊँगा।" कहने के साथ ही देवराज चौहान कमरे से बाहर निकल गया।
◆◆◆
जगमोहन होटल से बाहर निकला और सामने सड़क के किनारे खड़ी अपनी कार के पास पहुँचा। वहाँ आगे-पीछे दो चार कारें और भी खड़ी थीं। सड़क पर ट्रैफिक दौड़ रहा था। चूँकि वो छोटा सा ढाई मंजिला होटल था। आस-पास दुकानें थीं। इसलिये उसकी अपनी प्राइवेट पार्किंग कोई नहीं थी।
जगमोहन का मस्तिष्क बैंक वैन पर ही लगा था, जिस पर कल वे डकैती डालने जा रहे थे। उसे पूरा भरोसा था कि बिना खून-खराबे के, अपने काम में हमेशा की तरह सफल हो जायेंगे। जगमोहन ने कार के पास पहुँच कर जेब से चाबी निकाली और रिमोट से कार का सैंट्रल लॉक खोलने के बाद दरवाजा खोला और स्टेयरिंग सीट पर जा बैठा। कल बैंक वैन पर हाथ डालने से वास्ता रखते दो-तीन काम कहे थे देवराज चौहान ने उसे। उन कामों में एक-डेढ़ घण्टे का ही वक्त लगना था। जगमोहन अब उन कामों को पूरा कर देना चाहता था।
इससे पहले कि जगमोहन कार स्टार्ट करता---पीछे का दरवाजा खुला और कोई भीतर आ बैठा।
जगमोहन बुरी तरह चौंका। फौरन पलटकर पीछे देखा।
वो पचास बरस का आदमी था। किसी अच्छे खानदान का लगता था। कमीज-पैंट पहन रखी थी उसने। उसने शांत भाव से जगमोहन को देखा और रिवाल्वर निकालकर हाथ में पकड़ ली।
उसे ऐसा करते पाकर जगमोहन एक बार पुनः चौंका।
"कौन हो तुम?" जगमोहन का स्वर कठोर हो गया--- "क्या चाहते हो?"
"मिस्टर जगमोहन।" वो आराम से बोला--- "मैं आपका दोस्त हूँ।"
जगमोहन की आँखें सिकुड़ी।
"तुम मेरा नाम भी जानते हो?"
"मैं सबकुछ जानता हूँ...।" वो पुनः बोला।
"क्या सबकुछ?" जगमोहन सतर्क हो चुका था।
उसने कार से बाहर देखते हुए कहा---
"मेरे आदमी इस कार को घेरे खड़े हैं।"
जगमोहन ने फौरन बाहर देखा।
वो दो थे, जो कार के पास खड़े दिखे।
"तुम्हारे आदमी?" जगमोहन ने पुनः उसे देखा।
"हथियारबंद हैं वो। निशाना भी अच्छा है उनका। रिवाल्वरें उनकी जेब में हैं, जो कि पलों में उनके हाथ में आ जायेंगी।"
जगमोहन के माथे पर बल नजर आने लगे।
"तुम हो कौन?"
"मैं तुम्हारी कार में बैठकर बात नहीं करना चाहता। देवराज चौहान कभी भी बाहर आ सकता है।"
जगमोहन ने मन-ही-मन गहरी साँस ली।
तो ये सच में सबकुछ जानता है।
इसे पता है कि देवराज चौहान भी होटल के भीतर है। तो क्या इसे ये भी पता है कि उनके चार लोग भी भीतर हैं... और वे सब उनके साथ कल बैंक वैन डकैती करने जा रहे हैं।
"मैं नहीं समझ पाया कि तुम आखिर...।"
"कार से निकलो...।" वो शांत स्वर में कह उठा।
"क्या मतलब?"
"कार से निकलो और अगली कार से आगे मारुति वैन खड़ी है। सफेद रंग की। काले शीशे हैं उसके। उसमें बैठकर बातें करेंगे। उस तक पहुँचने तक, अगर तुमने कोई शरारत की तो मार दिए जाओगे मिस्टर जगमोहन...।"
जगमोहन के होंठ भिंच गये। वो सीट पर सीधा हुआ। फिर कार का दरवाजा खोला और बाहर निकल कर कार का दरवाजा बंद किया। उसी क्षण बाहर मौजूद दोनों व्यक्तियों ने उसे अपने घेरे में ले लिया।
जगमोहन ने दोनों को गहरी निगाहों से देखा।
"चलो...।" एक बोला--- "वो सामने सफेद वैन...।"
जगमोहन चल पड़ा। सबकुछ अजीब सा लग रहा था उसे। वो समझ नहीं पा रहा था कि आखिर ये लोग कौन हैं और उन्हें, उनके यहाँ होने की खबर कैसे लग गई?
वे वैन के पास जा पहुँचे।
तभी वैन का साइड का दरवाजा खुला। जगमोहन ने भीतर देखा।एक आदमी वैन की ड्राइविंग सीट पर बैठा था। वो सतर्क नजर आया। तभी उसके कानों में कठोर आवाज पड़ी---
"अन्दर चलो...।"
जगमोहन ने वैन में प्रवेश किया और सीट पर बैठ गया। उसे टैलिस्कोप लगी गन वहाँ पड़ी दिखी।
वो दोनों भीतर आये तो पीछे से वो व्यक्ति भी भीतर आ गया जो उसकी कार में आ बैठा था। वैन का दरवाजा बंद हो गया। एक अन्य भी कार में आ बैठा था। जगमोहन ने अपनी कार की तरफ नजर घुमाई। सड़क पर दौड़ते ट्रैफिक को देखा। फिर उस छोटे से होटल की तरफ देखा, जिसके भीतर अभी भी देवराज चौहान था। अपनी हालत को लेकर वो भारी उलझन में था ।
फिर जगमोहन की निगाह वैन में मौजूद उन चारों के चेहरों पर दौड़ने लगी।
"तुम्हारे पास कौन-कौन सा हथियार है मिस्टर जगमोहन?"
उसी व्यक्ति ने पूछा।
"रिवाल्वर।"
"और...।"
"बस...।"
तभी एक व्यक्ति उसकी तलाशी लेने लगा।
सिर्फ रिवाल्वर ही मिली।
वैन के पीछे वाली जगह में वो चारों बैठे थे। तंग जगह पूरी-पूरी ही थी। एक खामोशी से वैन की ड्राइविंग सीट पर बैठा था। जो कि अभी तक कुछ नहीं बोला था।
"आखिर तुम लोग चाहते क्या हो मेरे से?" जगमोहन चुभते से स्वर में बोला।
"हम पहले कभी मिले हैं?" वो बोला।
"नहीं...।"
"मैं जानता हूँ कि नहीं मिले हैं हम।" वो बोला--- "लेकिन अब हमें साथ ही रहना है इसलिये सब के नाम जान लो। मुझे तुम मलिक कह...।"
"साथ ही रहना है, क्या मतलब?"
"सुनते रहो। पता चल जायेगा। मुझे मलिक कह सकते हो। ये अम्बा है। ये जगदीश और ये सुदेश। जो ड्राइविंग सीट पर बैठा है, वो मल्होत्रा है। हम सब तुम्हारे पक्के दोस्त बनने वाले हैं।" कहकर मलिक मुस्कुरा पड़ा।
"तुम कहना क्या चाहते हो? अपने बारे में तुमने कुछ भी नहीं...।"
"मेरे बारे में जानने की जरूरत ही क्या...।"
"मुझे पकड़ा क्यों है?"
"क्योंकि...।"
तभी ड्राइविंग सीट पर बैठा मल्होत्रा बोला---
"देवराज चौहान बाहर आ गया है।"
उसी पल सुदेश ने रिवाल्वर निकाली और जगमोहन के पेट से लगा दी।
"ये क्या कर रहे...।"
"खामोश रहो...।" सुदेश गुर्रा उठा।
मलिक ने टैलिस्कोप वाली गन उठाई। उस पर साइलेंसर भी लगा था।
जगमोहन बेचैन दिखा।
"तुम लोग क्या करना चाहते हो?" जगमोहन ने उसके हाथ में थमी गन देखकर व्याकुलता से पूछा।
तब तक मलिक दो इंच भर कार का शीशा एक तरफ सरका चुका था। गन की नाल उसने खिड़की पर रख दी और पोजिशन लेकर टैलिस्कोप में देखने लगा।
जगमोहन ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी। वो तेज स्वर में बोला---
"ये तुम क्या करने जा रहे हो?"
"आवाज नीची रख...।" सुदेश दाँत भींचकर गुर्राया।
"लेकिन ये क्या...।"
"चुप साले!"
जगमोहन ने होंठ भींच लिए। बाहर देखा। उसे देवराज चौहान दिखा जो कि होटल से बाहर निकल कर सीधा इसी तरफ आ रहा था। जगमोहन जानता था कि वो अपनी कार के पास आ रहा है। परन्तु जब उसकी कार को वो वहीं खड़े देखेगा तो उसे उलझन हो जायेगी कि मैं कहाँ गया?
मलिक की निगाह टैलिस्कोप पर थी और ऊँगली ट्रेगर पर।
"देवराज चौहान को मारना मत...।" जगमोहन का स्वर काँप उठा।
"मिस्टर जगमोहन!" मलिक उसी मुद्रा में बोला--- "टैलिस्कोप भी क्या कमाल की चीज है! इतने दूर इन्सान को इस तरह पास दिखाने लगती है कि लगता है जैसे हाथ बढ़ाकर उसे छुआ जा सकता है। मुझे देवराज चौहान का दिल भी साफ नजर आ रहा है। खोपड़ी भी और...।"
"भगवान के लिये।" जगमोहन का स्वर भय से सूखा था--- "उस पर गोली मत चलाना।"
"डकैती मास्टर देवराज चौहान! इसका नाम सुनते ही लोग सतर्क हो जाते हैं। अण्डरवर्ल्ड में नाम है देवराज चौहान का। पुलिस इसे कब से पकड़ना चाहती है। मैं जानता हूँ कि देवराज चौहान को पकड़ने का जिम्मा इंस्पेक्टर वानखेड़े का है। वो तो खुश हो जायेगा, जब उसे पता चलेगा कि देवराज चौहान की छुट्टी हो गई है।"
"प्लीज...।" जगमोहन ने कहते हुए मलिक पर झपटना चाहा। इसी पल अम्बा का जोरदार घूंसा उसके चेहरे पर पड़ा।
जगमोहन के होंठों से चीख निकल गई। वो पीड़ा से छटपटा उठा।
वैन में जगह न होने के कारण वो फंसा बैठा था। हिलने की स्थिति में जरा भी नहीं था।
"साले तू मरेगा क्या?" सुदेश गुर्राया--- "गोलियां सारी तेरे पेट में उतार दूँ?"
जगमोहन का गाल घूंसा लगने की वजह से भीतर से फट गया था। होंठों के कोने से खून की पतली सी रेखा बहकर बाहर निकलने लगी।
"मत मारना देवराज चौहान को...।"
"वैसे मौका अच्छा है देवराज चौहान को खत्म...।"
"भगवान के लिए!" जगमोहन का स्वर काँपा--- "ऐसा मत करना...।"
"वो तेरा क्या लगता है?" मलिक टैलिस्कोप पर आँख लगाए बोला।
"भाई, दोस्त। सबकुछ तो वही है मेरा। उसके अलावा मेरा कोई भी नहीं।" जगमोहन का स्वर भर्रा उठा।
"तेरा परिवार?"
"नहीं है।"
"माँ-बाप?"
"नहीं हैं।"
"तेरे भाई-बहन?"
"नहीं हैं।"
"तभी देवराज चौहान है तेरा सबकुछ?"
"हाँ...।"
"वो मर गया तो तेरे को बहुत दुःख होगा?" मलिक शांत स्वर में बोला।
"ऐसी बातें मत करो। मेरा दिल काँप उठता है। तुम ये गन हटा लो।" जगमोहन की आवाज में कम्पन था।
मलिक सीधा हुआ।
गन की जरा सी बाहर निकली नाल खिड़की से भीतर की।
शीशा बंद किया, फिर जगमोहन को देखकर बोला---
"खुश?"
जगमोहन की जैसे साँस में साँस आई।
मलिक का चेहरा गम्भीर और शांत था। वो जगमोहन को देख रहा था।
जगमोहन भी मलिक को देख रहा था। दाँव पर देवराज चौहान की जिन्दगी लगी थी। इसलिए अब वो ऐसा कोई काम नहीं करना चाहता था कि ये लोग भड़कें। इतनी तो उसे समझ आ गई थी कि वो इस वक्त खतरनाक हाथों में है। जो कि कभी भी, कुछ भी कर सकते थे।
"तुम...तुम आखिर चाहते...।" जगमोहन ने कहना चाहा।
तभी मल्होत्रा का स्वर गूंजा---
"देवराज चौहान ने जगमोहन की कार देख ली है। वो जगमोहन की कार के पास आ गया है और भीतर-बाहर देख रहा है। वो सोच रहा है कि जगमोहन कहाँ चला गया।"
"उसने फोन निकाला है।" मल्होत्रा पुनः बोला--- "शायद वो जगमोहन को फोन करेगा।"
"इससे फोन लो और स्विच ऑफ कर दो।" मलिक बोला।
जगदीश ने उसी पल जगमोहन की जेबें टटोलीं और फोन निकाला।
तभी फोन बज उठा।
व्याकुल सा जगमोहन फोन को देखने लगा।
अगले ही पल जगदीश ने फोन को ऑफ किया और अपनी जेब में रख लिया।
"तुम लोग कौन हो--- चाहते क्या हो?" जगमोहन बेबसी भरे स्वर में कह उठा।
"अभी खामोश रहो।" मलिक ने सपाट स्वर में कहा।
सुदेश ने उसके पेट से रिवाल्वर की नाल सटा रखी थी।
0 Comments