प्राक्कथन
भाई गुरतेज सिंह गुरुद्वारा सिंग सभा, महालक्ष्मी के प्रधान थे। प्रधान जी लंबे ऊंचे, कद्दावर सिख थे, उम्र में पिचहत्तर साल के करीब थे और उनकी झक सफेद दाढ़ी उनके पेट तक लहराती थी। उस उम्र में भी निगाह का चश्मा नहीं लगाते थे अलबत्ता पढ़ने के लिए रीडिंग ग्लासिज़ के मोहताज बराबर थे।
उस घड़ी वो बहुत गंभीर मुद्रा में थे, आँखें बंद कर लेते थे तो लगता था कुर्सी पर बैठे-बैठे सो गए थे ।
लेकिन ऐसी कोई बात नहीं थी। एकाएक वो सचेत हुए, कुर्सी पर सीधे हो के बैठे, फिर घंटी बजा कर एक सेवादार को तलब किया।
सेवादार का नाम चानन सिंह था, वो प्रधान जी का मुँहलगा था, जब तक प्रधान जी ऑफ़िस में होते थे, वो उनके दरवाज़े पर हाजिरी भरता था, बाकी वक्त परिक्रमा पर, लंगर में, कहीं भी मौजूद पाया जाता था।
“ओ नवां बंदा” – प्रधान जी बोले – “जो कारसेवा के लिए चार महीने से गुरुद्वारे में है . . .”
“आहो, जी! बहुत मेहनती जी है, जी।”
“समझ गया मैं किस की बात कर रहा हूँ?”
“आहो, जी।”
“बुला के ला।”
“हुने।”
पाँच मिनट बाद सेवादार के साथ नया कारसेवक बन्दा प्रधान जी के रूबरू पेश हुआ।
प्रधान जी के इशारे पर सेवादार वहाँ से रुख़सत हो गया।
प्रधान जी ने आँख भर कर उसे देखा तो पाया कि वो छत्तीस-सैंतीस साल का दीन-हीन बन्दा था, चेहरे पर ऐसी मुर्दनी थी, आँखों में ऐसी वीरानी थी कि सिर्फ उसकी वजह से ही अपनी उम्र से दस साल बड़ा लगता था।
प्रधान जी ने हाथ के इशारे से उसे करीब आने को कहा।
वो हिचकिचाता हुआ दो कदम आगे बढ़ा।
“पास आ।” – प्रधान जी बोले – “मेज के पास।”
वो पूर्ववत् हिचकिचाता प्रधान जी की विशाल ऑफ़िस टेबल तक पहुँचा।
प्रधान जी ने फिर आँख भर कर उसे देखा।
यूँ देखा जाने पर वो विचलित लगने लगा और बेचैनी से पहलू बदलने लगा।
“चैन नाल खलो।”
आदेशानुसार उसने चैन से खड़ा होने की कोशिश की।
“और मेरी एक बात का जवाब दे!”
उसकी भवें उठीं।
“कौन ऐं तू, काका?”
“जी! जी . . . मैं . . .”
“मैं मैं न कर। मैंने तेरे से एक सवाल पूछा है, उसका जवाब दे।”
“क्यों जानना चाहते हैं?” – अब वो तनिक सम्भला और तनिक सुसंयत स्वर में बोला।
“क्योंकि तू मुझे कोई मामूली बन्दा नहीं जान पड़ता। शक्ल-सूरत, हाव-भाव, कपड़ा-पौना सब मामूली होते हुए तू मुझे कोई मामूली बन्दा नहीं जान पड़ता। चार महीने से मैं तुझे यहाँ गुरुद्वारे में देख रहा हूँ। तू किसी से बात नहीं करता, किसी के करीब नहीं ठहरता। कोई तेरे करीब आए तो तू बहाना बना कर परे चला जाता है। कोई बात करे तो टालू जवाब देता है या देता ही नहीं। पन्द्रह-सोलह घंटे तू बिना किसी हुज्जत के, बिना किसी शिकवा-शिकायत के मशीन की तरह काम करता है। इतना काम तो कोई तनखैया नहीं करता। गुरुद्वारे की परिक्रमा का फ़र्श धोता है, लंगर में लोगों को प्रशादे छकाता है, थालियाँ धोता है, बाटियाँ माँजता है, जूताघर में जूते उठाता है। फिर भी भोर की आरती में नहाया-धोया, तैयार सबसे पहले पहुँचता है। कोई इतना काम कैसे कर सकता है!”
“मैं करता हूँ न!” – वो होंठों में बुदबदाया – “यानी कर सकता हूँ।”
“लेकिन क्यों? क्यों? क्यों अकेला तू तीन जनों का काम करता है? और भी तो हैं यहाँ काम करने वाले! सेवादार भी! कारसेवक भी!”
“मुझे औरों से क्या!” – वो फिर भी होंठों में बुदबुदाया।
“क्यों नहीं औरों से? इंसान है, इंसानों के बीच रहता है तो आम इंसानों जैसा बर्ताव क्यों नहीं है तेरा?”
“मैंने क्या गलत किया है?”
“गलत नहीं किया, काका, अति की है। अति की वर्जना तो गुरु महाराज भी करते हैं!”
वो ख़ामोश रहा।
“मैं अंधा नहीं हूँ। मैंने दुनिया देखी है। तेरी हर हरकत से ज़ाहिर होता है कि तू कोई मामूली मानस नहीं है। इसीलिए सवाल है। कौन है तू?”
“आपको मेरे से कोई शिकायत है तो मैं यहाँ से चला जाता हूँ।”
“कमला न बन। कमलियां गल्लां न कर। ये गुरुद्वारा है, गुरु का द्वारा है, ये सब की पनाहगाह है, फिर तेरे चले जाने का क्या मतलब? जवाब दे।”
“आप . . . ठीक कह रहे हैं।”
“मैं ठीक कह रहा हूँ तो मुझे आगे भी ठीक कहने, बोलने दे। तू मेरी बात का सीधा और सच्चा जवाब दे। शिनाख़्त बिना कोई नहीं होता। हर किसी का कोई तआरूफ होता है। इसीलिए जवाब दे।”
“मैं वाहेगुरु का एक गुनहगार बन्दा हूँ, अपने गुनाह बख्शवाने का तमन्नाई हूँ, इसलिए वाहेगुरु की शरण में हूँ।”
“वो तो तू ठीक जगह है। पश्चाताप से बड़ा साधन मन की शुद्धि का दूसरा कोई नहीं होता। क्या किया था?”
वो ख़ामोश रहा।
“नहीं बताना चाहता, कोई बात नहीं। अभी इतनी श्रद्धा से वाहेगुरु को याद किया, सिख है?”
उसने सहमति में सिर हिलाया।
“सिर पर पीला पटका बांधता है लेकिन मैंने देखा है, केश नहीं हैं सिर पर। कलाई में कड़ा भी नहीं है। तेरे में सिखी का कोई निशान नहीं दिखाई देता। आरती आती है?”
उसने फिर सहमति से सिर हिलाया।
“उचर।”
उसने वैसी कोई कोशिश न की।
“आरती सुना मैनूं, काका।” – प्रधान जी ने आग्रह किया।
“मैं न सुनाऊँ” – वो धीरे से बोला – “या कहता मुझे नहीं आती तो आपका क्या हुक्म होता? ये कि मैं गुरुद्वारे में कारसेवा के काबिल नहीं?”
प्रधान जी ने अपलक उसे देखा।
“आप पसंद करेंगे मैं चर्च में कम्यूनिटी सर्विस करूँ या मस्जिद में झाड़ू फेरूँ?”
प्रधान जी का सिर स्वयंमेव इंकार में हिला।
“क्यों? सब ख़ुदा के घर हैं।”
“वो तो हैं, काका, लेकिन . . .”
प्रधान जी ने जानबूझकर वाक्य अधूरा छोड़ दिया।
“मन में श्रद्धाभाव सच्चा हो, मज़बूत हो, न हिलाया जा सकने वाला हो तो ज़रूरत की घड़ी में या मुसीबत की घड़ी में भौतिक, सांसारिक मान्यताओं, पाबंदियों, ज़रूरतों का त्याग भी किया जा सकता है।”
प्रधान जी हैरानी से उसका मुँह देखने लगे।
“तू सिख है।” – फिर बोले।
“आप मान कहा रहे हैं? जिद के साथ आरती सुनाने का हुक्म दे रहे हैं – ये जानते हुए भी ऐसा कर रहे हैं कि श्रद्धावश कितने ही ऐसे भक्तों को आरती आती है जो सिख नहीं हैं। और कितने ही सिख हैं जिनको आरती नहीं आती।”
“हूँ।”
“आप गुरुद्वारे में हैं, प्रधान हैं गुरुद्वारे के। जाकर गेट पर खड़े होइए और मत्था टेकने आए दस सिख श्रद्धालुओं से दरयाफ्त कीजिए कि क्या उनको आरती आती है? दस में से छ: जवाब देंगे कि नहीं आती। बाकी चार में से शायद कोई पहली एक या दो लाइनें दोहराने में कामयाब हो जाए। शुद्ध रूप से, मुकम्मल आरती दोहरा पाने वाला आपको शायद ही कोई मिले। ”
“खामख़याली है तेरी।” – प्रधान जी अप्रसन्न भाव से बोले।
विमल ख़ामोश रहा।
प्रधान जी ने कुछ क्षण उसको निहारा।
“वैसे” – फिर नम्र स्वर में बोले – “मोटे तौर पर तेरी बात ठीक है। अब राज़ी?”
“आप मालिक हैं, प्रधान जी, आप राज़ी तो मैं राज़ी।”
प्रधान जी का सिर सहमति में हिला, उन्होंने फिर पूर्ववत् कुछ क्षण उसको निहारा।
“काका” – फिर बोले – “ऐसी सुलझी हुई, नफीस बातें कह के तूने मेरी सोच को मज़बूत किया है कि तू कोई मामूली मानस नहीं। अपनी लियाकतभरी बातों से मुझे लाजवाब कर तूने मेरे ख़याल को पुख़्ता किया है कि तू कोई मामूली मानस नहीं। ऐसी ग़ैरमामूली बातें, जो तूने उचरीं, कोई मामूली मानस कर ही नहीं सकता। तू अपने बारे में कुछ नहीं कहना चाहता तो तेरी मर्ज़ी, लेकिन मुझे ख़ुशी होती, अपने तआरुफ के तौर पर अगर तू कुछ कहता।”
“क्या कहूँ? कुछ कहने लायक हो तो कहूँ?”
“फिर भी कह। मेरा कहा मान के कह।”
“मैं अधम हूँ, पापी हूँ, गोली मार देने के काबिल हूँ।”
“नहीं, तू सही नहीं कह रहा। जिस वाहेगुरु के बन्दे को पश्चाताप सूझ सकता है, वो इतना बुरा नहीं हो सकता। तेरे निर्मल, सरल मन में पश्चाताप की भावना ज़्यादा है इसलिए मुझे तू अपनी बुराइयों को, अपने कुकर्मों को बढ़ा-चढ़ा के कहता जान पड़ता है।”
“मेरे गुनाह ऐसे हैं, इतने हैं कि उन्हें बढ़ा-चढ़ा के कहा ही नहीं जा सकता, अलबत्ता कम करके कहा जा सकता है।”
“कैसे हैं, कह!”
वो फिर ख़ामोश हो गया।
“ख़ैर!” – प्रधान जी ने गहरी साँस ली – “तेरे मन में क्या है, वो तू ही जानता है लेकिन एक कहना मेरा मान।”
“हुक्म करो, जी।”
“तू लंगर के हाल में फ़र्श पर सोता है, वहाँ सोना बन्द कर दे, मैं तुझे कमरा देता हूँ।”
“मुझे वहाँ कोई तकलीफ़ नहीं।”
“समझ, मुझे तकलीफ़ है।”
उसने हैरानी से सिर उठा कर प्रधान जी तरफ देखा।
“फिर मैंने ये भी तो कहा कि कहना मान।” – प्रधान जी बोले – “इंकार करेगा?”
“मेरी मजाल नहीं हो सकती।”
“कमरे में बैड है, पंखा है, कूलर है . . .”
“मैं इन नियामतों से परे हूँ।”
“. . . अब रात को कमरे में सोया कर।”
“प्रधान जी” – वो विनीत भाव से बोला – “मैं ऐसी नवाजि़शों के काबिल नहीं।”
“नहीं है ताे अब बन।”
“लेकिन . . .”
“ये मेरा हुक्म है।”
“अच्छा, जी।”
“पढ़ा-लिखा है थोड़ा बहुत?”
“हाँ, जी।”
“कितना?”
“ज़रूरत लायक काफी।”
“ज़रूरत लायक काफी! फिर मैट्रिक तो होगा!”
“हाँ, जी।”
“या ज़्यादा?”
“हाँ, जी।”
“हम्म! ग्रैजुएट?”
“हाँ, जी।”
“या और भी ज़्यादा?”
“हाँ जी।”
“शावाशे! हर सवाल का जवाब हाँ, जी। पीएचडी तक हाँ, जी। ठीक?”
“नहीं, जी।”
“लेकिन ग्रैजुएशन से ऊपर तो हाँ, जी?”
“हाँ, जी।”
“इतना पढ़ा-लिखा है तो फ़र्श धोना, बाटियाँ माँजना, जूते साफ करना बन्द कर और ऑफ़िस में बैठा कर, वहाँ एकाउन्ट्स का बहुत काम होता है।”
“मैं जो काम कर रहा हूँ” –वो होंठों में बुदबुदाया – “वो मुझे पसंद है।”
“कमाल है! यानी वही करेगा?”
“हाँ, जी।”
“लेकिन कमरा तो . . .”
“आप मुझे दे भी देंगे तो मैं जाकर लंगर के हाल में फ़र्श पर ही सोऊंगा।”
प्रधान जी ने फिर हैरानी से उसकी तरफ देखा।
उसके चेहरे पर प्रधान जी के लिए आदर के अलावा कोई भाव नहीं था।
“तू कोई बड़ी घुंडी है, काका” – प्रधान जी गहरी साँस लेते हुए बोले – “जिसे तू ही खोल सकता है। जा, जो तुझे भाता है, कर। सज़ा के तौर पर या पश्चाताप के तौर पर कर। लगता है तू किसी बेरहम ज़िन्दगी की ऐसी कैद में है जिसकी कोई मियाद नहीं। और तेरे लिए ज़्यादा कठिन काम ये है कि वो कैद तू अपनी मर्ज़ी से भुगत रहा है – ख़ुद को गुरु के द्वारे बांध कर। मैं तेरे लिए वाहेगुरु से रहम की अरज करूँगा, जा।”
उसने ख़ामोशी से हाथ जोड़े, घूमा और आगे निकास द्वार की ओर बढ़ चला।
वो चौखट पर था जब एकाएक पीछे से आवाज़ आई – “ठहर जरा।”
वो ठिठका, वापिस घूमा, अदब से उसकी सवालिया निगाह प्रधान जी की तरफ उठी।
“अपना मोबाइल नंबर दे के जा।”
“मेरे पास” – उसने जैसे खेदप्रकाश किया – “मोबाइल नहीं है।”
“क्या! मोबाइल नहीं है!”
“हाँ, जी।”
“अरे, आजकल तो हर किसी के पास मोबाइल है।”
“मैं आजकल हर किसी जितना भी ख़ुशकिस्मत नहीं।”
“मोबाइल बिना परिवार से सम्पर्क कैसे करता है?”
“मेरे परिवार में कोई नहीं। मैं अकेला हूँ।”
“इतना अकेला तो कोई नहीं होता, काका! कोई भाई बहन, माँ बाप . . .”
“कोई नहीं।”
“अच्छा, भई, तू कहता है तो . . .”
वो ऑफ़िस से बाहर निकल गया।
विमल जूता घर में फ़र्श पर बैठा हुआ था।
वहाँ एक सिख सेवादार और था जो काउन्टर पर पहुँचते जूते उठा कर पीछे की सारी दीवार के साथ बने चौकोर खानों में रख रहा था और वहाँ से उठा कर दर्शनार्थियों को टोकन जारी कर रहा था।
वो दोपहरबाद तीन बजे का वक्त था, गर्मियों के उन दिनों में उस वक्त गुरुद्वारे में आवाजाही कमज़ोर थी।
फ़र्श पर बैठा विमल वहाँ पहुँचे जिस जूते-चप्पल को बद्हाल देखता था, उसको पॉलिश मार देता था।
“ओये!” – फुरसत के क्षणों में सेवादार बोला – “ऐ की करना एं?”
“देख तो रहे हो?” – विमल सहज, सरल भाव से बोला।
“प्रधान जी ने बोला?”
विमल ने इंकार में सिर हिलाया।
“पाॅलिश, बुरुश कहाँ से लाया? प्रधान जी ने पैसे दिलवाए?”
विमल ने फिर इंकार में सिर हिलाया।
“मुहों बोलन नाल कोई खेचल तेनूं? उत्तर-दक्खन, पूरब-पच्छम गर्दन हिलदी तेरी। क्यों भला?”
विमल ने जवाब न दिया।
तभी लोगों का एक ग्रुप काउन्टर पर पहुँच गया और सेवादार उनमें व्यस्त हो गया।
विमल बदस्तूर फ़र्श पर बैठा जूतों की धज संवारता था।
प्रधान जी के कहने पर उसने आरती नहीं सुनाई थी लेकिन अब वो अपना काम करता बड़ी श्रद्धा से धीरे-धीरे आरती गुनगुना रहा था :
गगन में थालु रवि चंदू दीपक बने तरिका मंडल
जनक मोती, धूपु मल आनलो पवणु चवरो करे
सगल बनराइ फूलंत जोती कैसी आरती होइ
भवखंडना तेरी आरती–
–अनहता सबद वाजंत भेरी सहस तवनैन
नन नैन है तोहि कउ सहस मूरति
नना एक तोहि सहस पद विमल नन
एक पद गंध बिनु सहस तव गन्ध इव
चलत मोही, सब महि जोति जोति है सोइ . . .
“आरती बहुत सोहनी गौंदा, भई, तू।” – सेवादार ने उसे बीच में टोक दिया।
“तुम सुन रहे थे?” – विमल ने पूछा – “मेरी आवाज़ तुम तक पहुँच रही थी?”
“आहो! पर कोई जूताघर च बै के आरती गौंदा ए?”
विमल ने जवाब न दिया।
“ओये गूंगेपन दा दौरा पैंदा तेनू?”
विमल ख़ामोश रहा।
“कमला सौरी दा।” – सेवादार असंतोष से बड़बड़ाया – “पता नहीं सिख वी है के नहीं!”
विमल ख़ामोश रहा। उसकी आँखें काउन्टर की तरफ उठीं।
सेवादार ने विमल की निगाह का अनुसरण किया तो वो घबरा गया।
काउन्टर पर प्रधान जी खड़े थे।
“सत श्री अकाल जी!” – वो हकलाती आवाज़ से बोला।
“टोका-टाकी नहीं करनी।” – सेवादार की ‘सत श्री अकाल’ को नजरअंदाज़ करते प्रधान जी सख़्ती से बोले – “कोई वाहेगुरु दा नाम जपदा होवे तां ओहनू परेशान नहीं करना। “वाहेगुरु दा नाम लैन लई कोई टाइम, कोई जगह मुकर्रर नहीं। समझ्या कुछ?”
“आहो, जी।” – वो पूर्ववत् बौखलाता बोला – “आहो, जी!”
“ऐथे अपना कम्म करना ए। नाल दे बन्दे दे गल नहीं पैना।”
“आहो, जी।”
“मंदा बोल नहीं बोलना। जबान ते काबू रखना ए।”
“आहो, जी।”
प्रधान जी ने एक मुग्ध निगाह विमल पर डाली और लम्बी दाढ़ी पर हाथ फेरते वहाँ से विदा हो गए।
साफ़ ज़ाहिर हो रहा था कि उन्होंने आरती सुनी थी।
और सेवादार का विमल को कोसना भी सुना था।
तभी एक श्रद्धालु वहाँ पहुँचा, उसने टोकन काउन्टर पर रखा।
सेवादार ने टोकन नंबर के मुताबिक पीछे से जूते निकाल कर काउन्टर पर रखे।
श्रद्धालु ने एक निगाह जूतों पर डाली तो ऐतराज़ जताता बोला – “मेरे जूते दो, भई।”
“तुहाडे ही ने।” – सेवादार बोला – “टोकन नंबर वेख के दिए।”
श्रद्धालु के चेहरे पर ऐतबार के भाव न आए, उसने जूतों को उठाकर उलटा-पलटा, फिर हैरान-सा होता जूते लेकर चला गया।
“बल्ले, भई।” – सेवादार विमल को देखता बोला – “वदिया कम्म फड़या तू!”
“प्रधान जी ख़ुश होके गए!” – विमल बोला।
“हाँ, यार। ठीक है। लग्गा रह।”
विमल लगा रहा।
और अपने हालिया अतीत को याद करता रहा।
आगे पता नहीं मुकद्दर में क्या लिखा था लेकिन अपनी तरफ से वो दिल्ली को हमेशा के लिए अलविदा बोल के मुम्बई आया था।
मुम्बई क्यों आया था?
और कहाँ जाता! दिल्ली का तो ख़याल भी उसे काटने को दौड़ता था, और मुम्बई के सिवाय दूसरा कोई ठिकाना उसने बनाया ही नहीं था।
इसलिए मुम्बई।
जैसे काग जहाज को, सूझे और न ठौर।
मुम्बई पहुँचते ही उसने सीधे विखरौली का रुख किया था जहाँ कोमल का बुटीक शोरूम था और जहाँ उसके हवाले नन्हा सूरज था।
‘सूरजसिंह सोहल!’
उसके ज़ेहन में नीलम की अरमानभरी आवाज़ गूंजी–
‘सन ऑफ़ सरदार सुरेन्द्रसिंह सोहल!’
बुटीक शोरूम ग्राउंड फ्लोर पर था और उसके ऊपर ही कोमल का आवास था। विमल जब वहाँ पहुँचा था, तब अभी शोरूम नहीं खुला था। वो सीधा पहली मंजिल पर पहुँचा।
कोमल उसे एकाएक आया देखकर हैरान हुई, फिर आगे बढ़कर उसने विमल का स्वागत किया।
सूरज की बाबत विमल को न पूछना पड़ा। वो विशाल ड्राई ं गरूम के कार्पेट पर बैठा खिलौनों से खेल रहा था। विमल पर निगाह पड़ते ही वो दौड़कर उसके करीब आया और उसकी टांगों से लिपट गया।
विमल ने हाथ में थमा बैग जमीन पर गिर जाने दिया और झुक कर उसे गोद में उठा लिया।
“ममी!” – सूरज बोला – “ममी नहाँ?”
“ममी नहीं आई, बेटा।” – विमल अपने स्वर को भरसक संतुलित रखता बोला।
बच्चे के चेहरे पर मायूसी नमूदार हुई।
“तोमल!” – वो कोमल से शिकायत करता बोला – “ममी नहीं आई!”
“आ जाएगी।” – कोमल उसे अपनी गोद में लेती बोली – “ममी को दिल्ली में काम है न!”
“पापा को नहीं है?”
“पापा को भी था। पर पापा का काम खतम हो गया।”
“ममी का काम ख़त्म हो जाएगा तो ममी आ जाएगी?”
“हाँ।”
“जैसे पापा आ गए?”
“हाँ।”
बच्चे के मासूम चेहरे पर रौनक आई।
“पर पापा को इधर भी काम है।” – विमल जल्दी से बोला।
“इधर भी काम है?” – सूरज बोला।
“हाँ। इसलिए पापा को जाना होगा।”
“तोमल!” – सूरज फिर रुआँसा हुआ – “पापा को जाना होगा!”
“लौट आएँगे।” – कोमल ने आश्वासन दिया – “जल्दी लौट आएँगे।”
“ठीक?”
“ठीक।”
“पापा, बोलो।”
“ठीक!” – विमल बोला।
बच्चा बहल गया।
सूरज की लिव-इन नैनी फ्लैट में ही कहीं थी, कोमल ने उसे आवाज़ देकर बुलाया और सूरज को उसके हवाले किया।
“मैं किचन में।” – कोमल बोली – “चाय बनाती हूँ।”
विमल ने सहमति में सिर हिलाया।
“कुछ खाया?”
विमल का सिर इंकार में हिला।
“ओह! क्या खाएंगे? कोई परांठा? आमलेट?”
“अंडा परांठा।”
कोमल के चेहरे पर फीकी मुस्कराहट आई और लुप्त हुई।
“याद रहा आपको!” – वो बोली।
“कई बार खा चुका हूँ। कैसे भूल जाता?”
“आईसी। ओके, अंडा परांठा।”
“चाय पहले। परांठे के साथ फिर। दोबारा।”
“ओके।”
वो किचन में चली गई।
विमल कुछ क्षण ठिठका रहा, फिर उसके पीछे किचन में पहुँच गया।
वो गैस पर पतीली को पानी उबलने को रख रही थी।
उसने सिर उठाकर विमल की तरफ देखा।
“बाहर बैठते!” – वो बोली – “चाय पाँच मिनट में बन जाएगी।”
“कैसे मालूम पड़ा?” – विमल संजीदगी से बोला।
“क्या कैसे मालूम पड़ा?”
“जो तुम्हारी सूरत से ज़ाहिर है! जो बताने मैं यहाँ आया था!”
“गि़ला है आपसे। बहुत गि़ला है आपसे। सूरज के सिर से माँ का साया उठ गया, आपने ख़ुद ख़बर न की! फौरन ख़बर न की!”
उसकी आवाज़ भर्रा गई, आँखों में आँसू तैर आए।
विमल ख़ामोश रहा।
“सात दिसम्बर का वाक़या।” – कोमल कातर भाव से बोली – “अब सत्ताइस दिसम्बर है। बीस दिन बाद आए। कहते हैं बताने आया!”
“एयरपोर्ट से सीधा यहाँ आया हूँ।”
“बीस दिन बाद।”
“ऐसे ही हालात बन गए थे दिल्ली में। क्रिसमस तक मसरूफ़़़ रहा था।”
“इतने कि बीस दिन फोन करने की फ़ुर्सत न मिली?”
“हौसला न हुआ। हौसला यहाँ पहुँच जाने के बाद भी कहाँ हुआ है!”
“कब तक ये कह के बच्चे को बहलाएंगे कि ममी को दिल्ली में काम है?”
“पता नहीं। अभी तो आया हूँ।”
“कब वापिस जाएंगे?”
“कभी नहीं।”
“कहाँ ठिकाना करेंगे?”
“बोलूँगा।”
“यहीं रुक जाइए।”
विमल ने सिर उठाकर उसे देखा।
“मुझे कोई परेशानी नहीं होगी। बच्चा ख़ुश होगा।”
कोमल ने देखा, विमल पहले ही इंकार में सिर हिला रहा था।
कोमल ने असहाय भाव से गहरी साँस ली।
“तूने कैसे जाना?” – विमल ने सवाल किया।
“इधर के अख़बार में छोटी-सी ख़बर थी कि नयी दिल्ली के मॉडल टाउन के इलाके में एक नौजवान औरत का ख़ून हो गया था। मेड के मुताबिक चार आतताइयों ने घर में घुसकर उस औरत को मारा था। ये भी दर्ज था कि कत्ल का उद्देश्य चोरी नहीं था क्योंकि घर से कुछ चोरी नहीं गया था। उस ख़बर ने मुझे बहुत दहलाया, बार-बार मेरी तवज्जो आपकी तरफ जाने लगी। ख़ामख़ाह जाने लगी, बेवजह जाने लगी। वारदात मॉडल टाउन में हुई थी, इतने से ही नहीं सोचा जा सकता था कि आप शिकार थे लेकिन क्या करूँ, बात ज़ेहन से निकलती ही नहीं थी। आपको फोन लगाती थी तो जवाब नहीं मिलता था।”
“फिर?”
“मैंने मॉडल टाउन थाने फोन किया और लोकल अख़बार में छपी ख़बर के हवाले से वारदात की बाबत दरयाफ़्त किया तो वहाँ के लूथरा नाम के किसी एएसएचओ ने जवाब दिया और तसदीक की कि वारदात डी-9 में हुई थी और उस कोठी के मौजूदा ऑकूपेंट कश्मीरी विस्थापित अरविंद कौल नामक नौकरी- पेशा व्यक्ति थे जो अपनी पत्नी के साथ वहाँ अकेले रहते थे। और कुछ कहने की ज़रूरत नहीं थी। फौरन आपको फोन लगाया तो जवाब न मिला। देर रात तक फोन लगाते रहने पर भी जवाब न मिला। फिर इसी उम्मीद में कोशिश छोड़ी कि आप कालबैक करेंगे। लेकिन . . . नाउम्मीदी ही हाथ लगी।”
“हम्म!”
“सस्पेंस में तीन दिन गुज़र गए। उस दौरान न आपने मेरी कोई भी काल रिसीव की, न मुझे कालबैक किया जिसकी कि मुझे बहुत उम्मीद थी। आखिर दिल्ली जाने का फैसला किया। आपके मोबाइल से तो नाउम्मीदी तब भी बरकरार थी इसलिए आखिर लैंडलाइन बजाने का ख़याल आया जो कि मुझे पहले आना चाहिए था। लैंडलाइन बजाई तो देवा जाने कौन अनजानी, रूखी आवाज़ में उधर से बोला। जब भी लैंडलाइन बजाई किसी नई मर्दाना आवाज़ में जवाब मिला। मैं बौखलाकर फोन बंद कर देती थी। आख़िर एक बार बंद न किया तो मालूम पड़ा कि कौल साहब अब वहाँ नहीं रहते थे; जबसे उनकी बेगम का इन्तकाल हुआ था, वो ये घर हमेशा के लिए छोड़ गए थे। तब इस इंतजार के अलावा कोई चारा नहीं था कि आपकी काल आएगी। आपकी काल फिर भी न आई, बीस दिन बाद आप आ गए।” – उसने अवसादभरी गहरी साँस ली, फिर बोली – “आखिर।”
“मैं शर्मिंदा हूँ। मैं गहरे सदमे की हालत में था। दीवानगी तारी थी। अपने आपकी सुध नहीं थी, औरों की क्या सुध लेता! वाहेगुरु ने बड़ा इम्तिहान लिया था; बस, संभलते न बन पाया। सात तारीख को वो वाकया हुआ, कोई छोटा-मोटा होश आया तो पच्चीस को आया, तभी मन ने थोड़ा चैन महसूस किया जब नीलम पर क़हर ढाने वालों में से कोई न बचा। फिर दिल्ली को हमेशा के लिए अलविदा कहा और मुम्बई कूच करने की ठानी। दिल्ली के तो ख़याल से दिल हिलता था। वहाँ रहते रहना तो ऐसी नर्क की ज्वाला में जलना था जो कभी शांत होनी तो क्या, मद्धम भी नहीं पड़ने वाली थी। जिस पहली फ्लाइट का मुम्बई का टिकट मिला, ले लिया और आज अर्ली मार्निंग फ्लाइट पर यहाँ पहुँच गया।”
“अकेले!” – एक लफ़्ज़ कहते उसका गला रुँध गया।
“सूरज को कुछ न बोला?”
“उसे क्या बोलती? ढाई साल के बच्चे को माँ की मौत की बाबत क्या कहती? कैसे समझाती उसे कि मौत क्या होती थी! कैसे इतने छोटे बच्चे को कहती कि मौत एक बला होती थी जो जिसे चाहती थी, बाँह पकड़ कर साथ ले जाती थी।”
“हूँ।”
“इतना छोटा बच्चा कोई बात देर तक याद नहीं रख पाता। फिर मेरे से बहुत ज़्यादा हिलमिल गया है . . .”
“क्योंकि माँ से ज़्यादा तेरे पास रहा है। तेरी पनाह में। महफूज़। हमेशा।”
“आपकी बात ठीक है लेकिन बच्चे को कब तक बहला पाएंगे कि माँ को दिल्ली में काम है?”
“पता नहीं।”
“बच्चे को बाप से ज़्यादा माँ की ज़रूरत होती है।”
“माँ जैसी है न उसके पास!”
“पर माँ नहीं।”
विमल ख़ामोश रहा।
“मैं आपसे एक गंभीर बात कहना चाहती हूँ। सुनेंगे?”
“हाँ। बोलो।”
“शायद आपको याद हो कि बहुत पहले कभी मैंने आपको कहा था कि मेरी ज़िन्दगी का एक बड़ा अरमान था कि मैं कभी आपके किसी काम आऊँ?”
“हाँ, याद है।”
“आप चाहें तो आज मेरा वो अरमान पूरा हो सकता है। जो ख्वाहिश एक मुद्दत से मेरे ज़ेहन में थी, आप चाहें तो मैं अब . . . अब उसको अमली जामा पहना सकती हूँ।”
“कैसे?”
“मैं सूरज की माँ बनने को तैयार हूँ।”
“क्या!” – विमल चौंका – “क्या बोला?”
“मैं आपसे शादी करने को तैयार हूँ।”
“सूरज की ख़ातिर?”
“हाँ।”
“लिहाज़ा मेरी कोई वुकत नहीं!”
“आपकी कोई वुकत नहीं तो मेरी निगाह में किसी की कोई वुकत नहीं। भगवान के बाद मेरे लिए कोई पूज्यनीय है तो वो आप हैं।”
“मैं तेरे जज़्बात की कद्र करता हूँ और अपने को ख़ुशकिस्मत मानता हूँ कि किसी को मेरी इतनी कद्र है। लेकिन वो जुदा मसला है। तू मुझे अपनी बात को समझने दे। तू कह रही है तू इसलिए मेरे से शादी करने को तैयार है ताकि सूरज को माँ मिल सके?”
“हाँ।”
“कुर्बानी! कुर्बानी है तेरे ज़ेहन में?”
“नहीं। वक्त की ज़रूरत है, फ़र्ज की पुकार है मेरे ज़ेहन में। आपके अहसानों का यूँ छोटा-सा बदला चुकाने का अरमान है मेरे ज़ेहन में।”
“बदला चुका नहीं चुकी! इतने काम आई! आ रही है!”
“मामूली काम किए।”
“बच्चे को पाल रही है, उसके सिर से हर बला टाल रही है – जो . . . जो माँ के सिर से न टल सकी।”
“इतने से आपके अहसान का बदला नहीं चुक सकता।”
“बदला चुक सके इसलिए सूरज की माँ बनने का ख़याल आया?”
“बात यही है लेकिन आप . . . आप . . . किसी और ही ढब से उसे कह रहे हैं।”
“इधर आ।”
“क्या?”
“इधर आ, भई। पतीली का ख़याल छोड़ अभी।”
वो सकुचाती हुई विमल के करीब पहुँची।
विमल ने बड़े प्यार से खींचकर उसे अपने अंक में भर लिया और अपलक उसे देखा।
वो निगाह चुराने लगी लेकिन उसके होंठ मुस्कुरा रहे थे।
“मेरा एक सवाल है तेरे से।” – पूर्ववत् उसे अपने अंक में भरे विमल संजीदा लहज़े से बोला – “जिसका जवाब देने के लिए वक्त में थोड़ा पीछे जाना पड़ेगा – जबकि किस्मत ने थोड़े अरसे के लिए हमारे अलग-अलग रास्तों को एक कर दिया था। मेरा सवाल ये है, कोमल, कि तब जब मैंने तुझे बहन कहा था तो क्या फ़र्जी रिश्ता कायम किया था? मेरी किसी ख़ुदगर्ज़ी ने मुझे बढ़ावा दिया था कि फ़र्जी बहन बनाकर मैं तेरे से अपना कोई मतलब हल करूँ, या किसी और वजह से तुझे गुमराह करूँ?”
उसके होंठों की मुस्कुराहट बल्ब की तरह बुझ गई।
“ऐसा नहीं था न!”
मशीनी अंदाज से उसका सिर इंकार में हिला।
“अब तू मुझे ये बता, जब मैंने तुझे बहन कहा – कहा ही नहीं; मन, वचन, कर्म से बहन माना – तो बहन के अलावा, सिर्फ बहन के अलावा, कोई दूसरा रिश्ता तेरे-मेरे बीच कैसे मुमकिन है? मेरे पापों का तो पहले ही कोई ओर-छोर नहीं, कैसे मैं अब इतना बड़ा पाप कर सकूँगा! मैंने वाहेगुरु को मुँह दिखाना है, मैंने नीलम को मुँह दिखाना है, कैसे होगा?”
वो ख़ामोश रही।
“तू मेरी बहन है और रहती ज़िन्दगी तक मेरी बहन ही रहेगी। मैं तेरा भाई हूँ, तेरा रक्षक हूँ, हमेशा तू मुझे इस रोल में पाएगी। कभी भी आज़माना।”
“आप तो” – कोमल ने उसके अंक से स्वतंत्र होने की कोशिश की – “आप तो मुझे शर्मिंदा कर रहे हैं!”
“नहीं।” – विमल ख़ुद उसे स्वतंत्र करता बोला – “थोड़ी देर के लिए कनफ्यूज़ हो गई बहन को – बल्कि गुमराह हो गई बहन को – सही राह पर ला रहा हूँ। कोमल, दुनिया इधर से उधर हो जाए, तेरे-मेरे बीच जो रिश्ता कायम है; जो रिश्ता शुरू से, पहले दिन से कायम है, वो नहीं बदल सकता। वाहेगुरु मेरी मति हर लें तो भी नहीं बदल सकता।”
“सूरज का क्या होगा?”
“ये बड़ा सवाल है लेकिन सवाल हल किया न मेरी छोटी बहन ने!”
“हमेशा न कर पाई तो?”
“कल किसने देखा है, मेरी बहना! हमेशा की तो बात ही क्या, कौन माई का लाल है जो अपने भविष्य के अगले एक पल का प्रोग्राम भी फाइनल करके रख सके?”
“आप इतना पैसा भिजवाते हैं!”
“सूरज के लिए। बच्चों का बड़ों से ज़्यादा खर्चा होता है।”
“इतना ज़्यादा पैसा भिजवाते हैं कि उसमें दस सूरज ऐश के साथ पल सकते हैं।”
“अब नहीं भिजवा पाऊँगा।”
कोमल की भवें उठीं।
“मेरे पास कुछ नहीं है।” – विमल का स्वर धीमा पड़ा – “नीलम की मौत के बाद मैंने तमाम सांसारिक मोहमाया त्याग दी है। इसलिए अब मुझे ये चिंता नहीं सताती कि सूरज का क्या होगा! वही होगा जो मंज़ूरेख़ुदा होगा।”
कोमल के चेहरे पर हैरानी के भाव आए।
“सरदार बच्चा है। शेर बच्चा है। वाहेगुरु भली करेंगे। वर्ना ताज़िन्दगी ठोकरें खाएगा अपने बाप की तरह।”
विमल की आवाज़ भर्रा गई।
कोमल कुछ क्षण ख़ामोश रही।
“ऐसा नहीं होगा।” – कोमल का दृढ़ स्वर विमल के ज़ेहन से टकराया – “ऐसा हरगिज़ नहीं होगा। मैंने एक हल सोचा था लेकिन वो मेरी जल्दबाज़ी का नतीजा था और उसके लिए बाकायदा मुझे शर्मिंदा होना पड़ा। लेकिन अब जो मैं कहने जा रही हूँ उसे आप ‘भीष्म प्रतिज्ञा’ समझिये।”
विमल ने तमक कर सिर उठाया।
“मैं शादी नहीं करूँगी।”
“क्या!”
“मैं शादी नहीं करूँगी।”
“शादी नहीं करेगी तो जानती है क्या होगा?”
“क्या होगा?”
“सूरज जब बड़ा होगा तो अपने जन्म को तोमल के लिए बद् दुआ समझेगा। तू चाहती है ऐसा हो?”
“जब तक सूरज बालिग, ख़ुदमुख़्तार नहीं हो जाएगा, अपनी माँ के सपने के मुताबिक, अपने बाप के अरमान के मुताबिक सूरज सिंह सोहल, सन् ऑफ़ सरदार सुरेन्द्र सिंह सोहल नहीं बन जाएगा, मैं शादी नहीं करूँगी।”
“पागल हुई है!” – विमल घबरा कर बोला – “अरे, क्या बुढ़ापे में शादी करेगी!”
“करूँगी ही नहीं। आपके अहसान का बदला . . .”
“कैसा अहसान! कैसे बदला! अव्वल तो मैंने कोई अहसान किया नहीं – अहसान तो तूने किया है जो सूरज को पनाह दी है – अहसान किया भी है तो उसका इतना बड़ा बदला चुकाएगी! बेर के बदले तरबूज़ देगी! सूरज के लिए अपनी जवानी बर्बाद कर लेगी! अपनी ज़िन्दगी बर्बाद कर लेगी!”
“पता नहीं क्या करूँगी! लेकिन अपनी प्रतिज्ञा से नहीं हिलूंगी।”
“तू नादान है। ग़ैरज़रूरी जज़्बात के हवाले है . . .”
“मैं अपने पूरे होशोहवास में हूँ – बल्कि अभी आई हूँ – पहले भटक गई थी।”
“कमाल है!”
“आपने मेरी ज़िन्दगी बनाई है। आप मेरे लिए भगवान हैं। आप न होते तो मैं आज भी कालगर्ल होती – जैसी कि तब थी जब गजविलास फ़ोर्ट वाली वारदात के दौरान आपसे मिली थी। और लड़कियों की तरह मैं भी कालगर्ल थी जिन्हें आपने एक मिशन के तहत ऐंगेज किया था। मिशन की कामयाबी के बाद आपने तमाम लड़कियों की मुँहमाँगी फ़ीस तो भरी थी, उन्हें – मुझे भी – अपनी ज़िन्दगी संवारने के लिए अलग से ढेर पैसा दिया था। आपसे इतनी माली इमदाद के बाद भी किसी ने अपनी पुरानी राह न छोड़ी – सिवाय मेरे। आपसे मिले पैसे से मैंने यहाँ लेडीज़ की रेडीमेड ड्रैसिज़ की एक छोटी-सी दुकान खोली जो वक्त के साथ-साथ इतना बड़ा बुटीक शोरूम बन गई। ये सब कैसे मुमकिन हुआ? एक पुन्यात्मा के पुन्य को शेयर करने का मुबारक मौका मुझे भी मिला, ऐसे मुमकिन हुआ।”
“पुन्यात्मा कौन?”
“मेरे से पूछ रहे हैं?”
“मैं पुन्यात्मा! मेरे से बड़ा पापी दुनिया में पैदा नहीं हुआ।”
“दुनिया में न! आप समझिए विखरौली इस दुनिया में नहीं है।”
फिर ख़ामोशी छा गई।
“आपने मेरी ज़िन्दगी संवारी।” – फिर कोमल का धीमा स्वर किचन में गूँजा – “आपने मुझे – जिस-तिस की गोद में उठाई जाने वाली एक कालगर्ल को – मोटिवेट किया सही राह पकड़ने के लिए और ऐसा कर पाने के लिए साधन मुहैया कराए। आज मैं जो कुछ हूँ, आपकी वजह से हूँ। इसीलिए आपको याद करती हूँ या सामने पाती हूँ तो मन में जज़्बात जागते हैं, अरमान करवटें बदलते हैं कि मैं आपके लिए कुछ करूँ, मैं आपके किसी काम आऊँ। इसी अरमान ने मेरे मुँह से वो बात कहलवाई जो मुझे नहीं कहनी चाहिए थी, जो भाई-बहन के पवित्र रिश्ते को दूषित करने वाली थी, लेकिन आपने मुझे चेता दिया। मैं चेत गई। लेकिन ये बात पुरज़ोर अलफाज़ में दोहरा के कहती हूँ – मेरी ज़िन्दगी पर आपका हक है, ये आपके किसी काम आए, ये मेरा परम सौभाग्य होगा।
“लेकिन शादी नहीं करेगी . . .”
“मामूली बात है। मैं सूरज के लिए, सूरज के बाप के लिए जान दे सकती हूँ।”
“इस वक्त तेरे चेहरे पर जो तेज झलक आया है, उसे देख कर मेरे को यकीन है कि तू ऐसा कर सकती है लेकिन मैं वाहेगुरु से दुआ माँगूँगा कि ऐसी नौबत कभी न आए।”
कोमल ख़ामोश रही।
“अब एक दुआ मुझे और माँगने दे।”
उसकी भवें उठीं।
“मेरे से ऐसी नालायकी कभी न हो, मैं ख़ुद को इतना मजबूर कभी न पाऊँ कि मैं तेरे जज़्बात की कद्र करता न रह सकूँ।”
“ऐसी नौबत कभी नहीं आएगी।”
“लेकिन एक नौबत बराबर आएगी।”
“कौन-सी?”
“अब चाय नहीं बनेगी।”
“क्या?”
“बातों के दौरान पीछे गैैस पर चढ़ी पतीली का पानी उबल-उबलकर आधे से भी कम रह गया है, और थोड़ी देर में गायब ही हो जाएगा, मैं नहीं समझता कि अब उससे दो जनों के लिए चाय बन पाएगी।”
“देवा रे!” – वो तत्काल गैस की तरफ घूमी।
“अब चाय न बनाना।” – विमल बोला – “परांठे के साथ बनाना। और जो करना है, जल्दी करना, हमने मुम्बई भ्रमण के लिए निकलना है।”
जिस टैक्सी पर विमल एयरपोर्ट से विखरौली पहुँचा था, वो मुम्बई की ट्रेडीशनल काली-पीली टैक्सी नहीं थी, एयरकंडीशंड आल इंडिया परमिट वाली टूरिस्ट टैक्सी थी जिसे विमल ने एडवांस भाड़ा भरकर पूरे दिन के लिए ऐंगेज किया था। उस टैक्सी पर विमल, सूरज, उसकी नैनी और कोमल सारा दिन मुम्बई घूमे।
सूरज बहुत ख़ुश हुआ।
रात आठ बजे विमल के निर्देश पर टैक्सी महालक्ष्मी पहुँची। विमल महालक्ष्मी के पुल के पास उतर गया और उनको ये समझा कर विखरौली रवाना कर दिया कि टैक्सी पेड अप थी।
सूरज तब अपनी नैनी की गोद में सोया पड़ा था जो कि विमल के लिए सहूलियत की बात थी।
लेकिन वो सहूलियत क्षणिक निकली।
ज्यों ही विमल ने टैक्सी से बाहर निकलने के लिए दरवाज़ा खोला, वो जाग गया।
“पापा!” – वो जैसे विमल के प्रस्थान की कोशिश पर ऐतराज़ जताता बोला।
“मैं आऊँगा, बेटा।” – विमल ने उसे झूठा आश्वासन दिया।
“तोमल, पापा आएगा।”
“हाँ, बेटा।” – कोमल बोली।
“ममी?” – सूरज ने नया सवाल किया।
“वो भी आएगी।” – विमल बोला।
“तोमल, ममी आएगी।”
“हाँ, बेटा।” – कोमल बोली – “पापा ने बोला न!”
“हाँ।” – नींद से भारी हुई बच्चे की आँखें मुँदने लगीं।
हर फै़सले को ‘तोमल’ की मंज़ूरी ज़रूरी थी।
ऐसा ही हिलमिल चुका था वो कोमल से।
टैक्सी रवाना हो गई।
चार महीने गुज़र चुके थे।
दिसम्बर से अप्रैल आ गया था – और दो दिन बाद मई का महीना शुरू हो जाना था – विमल तभी से गुरुद्वारा सिंग सभा, महालक्ष्मी की शरण में था और उसी गुरुद्वारे के बाहर उसके जूताघर में कारसेवा में मसरूफ़ था।
प्रधान भाई गुरतेज सिंह जी ने कभी उसे दोबारा तलब नहीं किया था लेकिन गाहे-बगाहे वो गुरुद्वारे में उसे तलाश करके एकाएक उसके सामने आन खड़े होते थे और उसका हालचाल पूछते थे।
उसका एक ही जवाब होता था।
“सब सुक्ख है, जी। गुराँ दी मेहर है, जी।”
प्रधान जी कुछ क्षण अपलक उसकी हमेशा जैसी बेहिस सूरत को देखते थे, फिर चले जाते थे।
दोबारा कभी कमरे की बात नहीं उठी थी, न ही ऑफ़िस में बैठ के वहाँ का काम करने का हुक्म हुआ था।
फिर तीन दिन बाद। एक मई को। दोपहर के करीब:
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