अभिस्वीकृति
मूलतः यह उपन्यास अंग्रेजी में लिखा गया है और इसके अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद में मेरे पिता श्री राजकुमार भाटिया एवं डॉक्टर हरिमोहन बुधोलिया का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। इसे लिखना मेरे लिए एक रोमाँचकारी, चुनौती भरा और भावनापूर्ण अनुभव था। मैं खुद को सौभाग्यशाली मानता हूँ कि इस धूप – छाँव भरी यात्रा में अपनी कल्पना और सच्चाई को व्यक्त करने में, मैं सक्षम हो पाया हूँ। मैं इस पुस्तक को मेरे स्वप्न में विश्वास करने वाले लोगों के प्यार के बिना पूर्ण नहीं कर सकता था। हृदय की गहराईयों से, मैं निम्नलिखित का धन्यवाद-ज्ञापन करना चाहूँगा:
इस कड़ी में सर्वप्रथम मेरे माता-पिता, राजकुमारी-राजकुमार और मेरे भाई आदित्य राज आते हैं। उनके विश्वास और अथाह सहयोग के बिना, शांति का यह धर्मयुद्ध संभव नहीं था। मैं अपने परिवार का आभारी हूँ।
इनके पश्चात श्री अमित शुक्ला और उनकी जीवन-संगिनी अनुमेहा रौतेला आते हैं, जिनके शब्द ज्ञान, अनुभव एवं मुझे अवसर देने में दोनों की भूमिका इतनी विशाल रही है, जिनके लिए कृतज्ञता-ज्ञापन और आभार जैसे शब्द पर्याप्त नहीं हैं। आपकी गर्मजोशी और हिम्मत ने मुझे ना केवल लेखन के समय प्रेरित किया अपितु जीवन भर आप दोनों मेरे प्रेरणा स्त्रोत बने रहेंगे।
इस पुस्तक की लेखन-यात्रा का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होने के लिए – स्मृति, शोभित, अमित, शिवानी, निशा बानो सिद्दीकी और वेदांत को विशेष रूप से धन्यवाद।
मेरे सभी दोस्तों: अनुज, अभिषेक, आयुष, हिमाँशु, प्रवीण, बलजीत, रितु, सीमांत, सौम्यदीप, और सिद्धार्थ आप सभी ने मेरा साथ निभाते हुए मुझे साहस, हास्य और बेशुमार यादों के साथ जो शुभकामनाएँ दी हैं, वे सदा मेरी जीवन-यात्रा का एक अमिट हिस्सा रहेंगी।
इस उपन्यास के प्रकाशक ‘Notion Press’ एवं उनकी टीम, जिन्होंने इस पुस्तक को अंतिम रूप एवं आकार देने में नैतिकता सहित ठोस आधार प्रदान किया है; उनका भी हृदय से आभार प्रकट करता हूँ।
और अंतिम लेकिन आख़री नहीं, गाज़ा के मासूम बच्चों और वहाँ के निवासियों के प्रति कहना चाहूँगा कि विश्वास एक खूबसूरत भाव है; इसे सदैव मन में बनाये रखें और जब इसके टूटने का एहसास हो, तब भी हमें इसे नहीं खोना चाहिए अन्यथा अंधकार जीत जायेगा। मैं गाज़ा के बच्चों के शांतिपूर्ण और उज्ज्वल भविष्य के लिए प्रार्थना करता हूँ। “अवर डेज़” का लेखन मेरे लिए एक सम्मान और विशेषाधिकार का विषय रहा है; मुझे उम्मीद है कि मैंने आपकी गाथाओं को कलमबद्ध करके न्यायोचित कार्य किया है।
शुभाशंसा
नवोदित उपन्यासकार श्री स्वराज भाटिया द्वारा अंग्रेजी भाषा में रचित उपन्यास अवर डेज़ (Our Days) लेखक की सचमुच में प्रथम एवं नवीनतम कृति के रूप में आई है जिसका हूबहू अनुदित रूप (भाषानुवाद ही नहीं अपितु भावानुवाद) आपके समक्ष प्रस्तुत है। इस उपन्यास में लेखक द्वारा ‘अनुभूत सत्य’ उद्घाटित हुआ है परन्तु एक पाठक और अनुवादक के रूप में मेरे लिए यह सत्य का साक्षात्कार है। प्रस्तुत कृति लेखक की अनुपमेय प्रतिभा का प्रतिफलन है और यह कृति उसकी अनेक संभावनाओं को जन्म देती है।
इजराइल-फिलिस्तीनी युद्ध की वास्तविक घटनाओं पर आधारित यह रचना, युद्ध की विभीषिका एवं जय-पराजय का ही सन्देश नहीं देती बल्कि उससे उत्पन्न परिणामों की ओर भी पाठकों का ध्यान आकर्षित करती है। इस उपन्यास की कथा-वस्तु कभी-कभी ‘महाभारत’ की कथा की याद दिलाती है साथ ही भगवान श्रीकृष्ण व उनके सखा अर्जुन के संवाद भी इसके विभिन्न पात्रों के माध्यम से प्रकट होते हैं।
आदर्शोंन्मुख-यथार्थवादी उपन्यासकार प्रेमचंद ने उनकी रचना ‘गोदान’ में जिस प्रकार आदर्श और यथार्थ का समन्वय प्रस्तुत किया है। ‘अवर डेज़’ में भी हमें उसी ‘गोदान’ के आदर्शोंन्मुख यथार्थवाद के दर्शन होते हैं।
इस उपन्यास के अंत में एमा के भीतर से फूटी हुई कविता किसी महाकाव्य से कम नहीं है। इस अर्थ में इसे महाकाव्यात्मक उपन्यास (Epic-Novel) कहा जाना अतिश्योक्ति नहीं होगी। ‘अवर डेज़’ को महाकाव्यात्मक उपन्यासों की श्रेणी में रखा जा सकता है – जैसे टालस्टॉय का ‘वार एंड पीस’ मेक्सिम गोर्की का ‘द मदर’ या अर्नेस्ट हेमिंग्वे का ‘द ओल्ड मेन एंड द सी’ (बूढ़ा मछेरा) इत्यादि। ‘अवर डेज़’ मेरी दृष्टि में उपर्युक्त उपन्यासों से किसी भी स्तर पर कम नहीं है।
इस नवोदित, नवांकुर उपन्यासकार स्वराज भाटिया में अभी बहुत संभावनाएं हैं – बहुत कुछ उसके भीतर पक रहा है जो शीघ्र ही उसके अन्य नवीन उपन्यासों को जन्म देगा। इस रचनाकार को मेरी बहुत-बहुत हृदयस्थ और आत्मा की गहराइयों से मंगल कामनायें।
प्रो० हरिमोहन बुधोलिया
पूर्व-आचार्य एवं अध्यक्ष एवं संकायाध्यक्ष,
विक्रम विश्व विद्यालय, उज्जैन (म0प्र0)
गाज़ापट्टी के बारे में
गाज़ापट्टी, भूमध्य सागर के पूर्वी तट पर फ़िलिस्तीन का एक समुद्र-तटीय क्षेत्र है। यह मिस्र के साथ ११ किलोमीटर तक दक्षिण-पश्चिम तथा पूर्व और उत्तर में इज़राइल के साथ ५१ किलोमीटर तक की सीमा साझा करता है। सुन्नी मुसलमान इस क्षेत्र की प्रमुख आबादी है। उपलब्ध भूमि का क्षेत्रफल कम होने के कारण, गाज़ा में अधिक संरचनाओं के निर्माण की क्षमता सीमित है और इसी कारण यहाँ की आबादी बहुत घनी एवं इलाके बहुत भीड़भाड़ भरे हैं। यह क्षेत्र हमारे ग्रह पर तीसरा सबसे घनी आबादी वाला क्षेत्र है।
संयुक्त राष्ट्रसंघ गाज़ा की देखरेख करता है, लेकिन इज़राइल का गाज़ा के लोगों के जीवन पर प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष नियंत्रण है। गाज़ापट्टी को, इज़राइल और मिस्र द्वारा अपनी घेराबंदी में रखा गया है। यहाँ के बासिन्दे-व्यापार, पानी, बिजली, मुद्रा, संचार नेटवर्क, पहचान इत्यादि के लिए इज़राइल पर निर्भर हैं।
२००७ के बाद से, गाज़ापट्टी को एक राजनीतिक दल ‘हमास’ द्वारा शासित किया जा रहा है। ‘हमास’ को उसके कट्टरपंथी तरीकों और यहूदी विरोधी घोषणापत्र के कारण कई देशों द्वारा आतंकवादी संगठन घोषित किया गया है। संयुक्त राष्ट्रसंघ द्वारा स्थापित शरणार्थी-शिविरों में शरण लेने के लिए मजबूर, गाज़ा के अधिकांश नागरिक अब नज़रबंद नागरिकों सरीखा जीवन जीने को मजबूर हैं। यहाँ अधिकांश बच्चे, हमलों से मची तबाही के बाद मलबे के ढेरों और खंडहरों के बीच पल और बढ़ रहे हैं।
एक कट्टरपंथी सरकार और एक ताकतवर दुश्मन पड़ोसी मुल्क के बीच सदियों से चले आ रहे घमासान संघर्ष से घिरी ज़िंदगियाँ, नफ़रत से भरे दुश्मनों के बीच फंसी हुई है। गाज़ा में लोगों ने इसे ही अपना भाग्य मानकर इस स्थिति को, यथावत स्वीकार कर लिया है…। वे उज्ज्वल भविष्य, शांति और अस्तित्व के लिए प्रार्थना करते रहते हैं।
तथ्य: इस उपन्यास में वर्णित सभी स्थान, संगठनों के नाम और खोजें वास्तविक हैं।
प्रस्तावना
“मैं लोकों का नाश करने वाला बढ़ा हुआ काल हूँ और इस समय सृष्टि के नाश के लिए प्रवृत्त हुआ हूँ।”
– भगवान श्री कृष्ण
गाज़ा, ८ जुलाई १९१४
“रिंगा, रिंगो रोजिस…।
धूल भरी हवा ऐसे उड़ी जैसे धुंध छा गयी हो। पाँच छोटे-छोटे मासूम बच्चे, एक-दूसरे का हाथ पकड़कर, गोल-गोल घूमते हुए ख़ुशी से किल्कारियाँ मारते हुए; खान युनिस शहर की एक पुराने तीन मंजिला अपार्टमेंट बिल्डिंग की खाली पार्किंग में खेल रहे थे। वे सभी एक ही परिवार के थे। हालाँकि उनकी ऊँचाई असमान थी लेकिन उन्होंने आपस में हाथों को मज़बूती से पकड़ रखा था। उनके नाम – मोहम्मद, अब्बास, अली, फ़ातिमा और हिना थे।
कभी न ख़त्म होने वाले संघर्ष के कारण हुए विध्वंस के बाद, संयुक्त राष्ट्रसंघ ने वहाँ स्कूलों और राहत-शिविरों की स्थापना करके गाज़ापट्टी क्षेत्र में अपनी ज़िम्मेदारी निभाई थी। ये बच्चे, ऐसे ही एक स्कूल में पढ़ते थे। यहाँ नरक के द्वार के समान गर्मी थी, लेकिन इन मासूम बच्चों ने मौसम के प्रति बेपरवाही बरतते हुए खेलना जारी रखा। वे सिर्फ़ हँसना और खेलना चाहते थे। उनकी एक बात समान थी उन सभी के पिता हमास के लड़ाके थे। इमारतों के बीच जगह खाली होने के कारण वहाँ उनकी खिलखिलाहट गूंज रही थी।
“‘इद्हाब ‘असरा’ (तेजी से), हिना ने कहा। बच्चों ने वैसा ही किया।
फ़ातिमा छोटी होने के कारण तेजी से उनके साथ कदम नहीं मिला सकी और उसने उनका हाथ छोड़ दिया और नंगे पैर ही कम्पाउंड के बाहर चली गई। वह मुस्कुराते हुए दूर से अपने साथियों को देखने लगी। ऊपर से आते भयावह शोर ने उसका ध्यान आकर्षित किया। अपनी आँखों को हाथों से ढकते हुए उसने ऊपर देखा – उसका जबड़ा खुला का खुला रह गया।
“…एशेज-एशेज, वी ऑल फॉल डाउन।”
एक मिसाइल बादल रहित आकाश से गिरती हुई, अपार्टमेंट की इमारत की छत से टकराई। विस्फोट के हिंसात्मक और बहुत तेज झटके के कारण ज़मीन इतनी ज़ोर से हिली कि जो हुआ उससे बेख़बर बच्चे, नीचे ज़मीन पर गिर पड़े। जैसे ही तीख़े कोण वाली मिसाइल छत को भेदती हुई नीचे टकराई, विस्फोट के कारण ईमारत दो हिस्सों में बंट गई और भरभराकर पलक झपकते ही जमींदोज हो गई। आस-पास के सौ फीट के दायरे की सभी इमारतों की खिड़कियाँ चकनाचूर हो गई। मलबे से निकला धूल और धुआँ सैकड़ों फीट ऊपर उठता चला गया। विस्फोट का बल इतना भारी था कि इसने फ़ातिमा को दूर फेंक दिया। उछलकर पास की एक अन्य इमारत की बाउंड्री वॉल से पहले उसका सर टकराया फिर गर्दन टूटने से बेचारी बच्ची की मौके पर ही मौत हो गई। जो कुछ सेकंड पहले, जीते-जागते इंसानों के घर थे, कुछ ही क्षणों के अंतराल में ईंटों और लाशों के ढेर में तब्दील हो गए। कोई नहीं बचा। जो बच्चे एक पल पहले अपने चेहरे पर मुस्कान लिए मज़े से खेल रहे थे, वे अब ईंट-ग़ारे के मलबे के अंदर बेजान हो, दबे पड़े थे। युद्ध शुरू हो चुका था।
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