दोपहर का एक बज रहा था।
मोना चौधरी तैयार होकर बाहर निकली और डोर लॉक किया। जैसे ही पलटी कि ठिठक गई। सामने के फ्लैट का थोड़ा-सा दरवाजा खोले, थोड़ी-सी मुंडी निकाले नंदराम दांत फाड़े उसे देख रहा था। मोना चौधरी से जब नजरें मिलीं तो पूरा दरवाजा खोलकर बाहर आ गया। बार-बार वो मोना चौधरी को सिर से पांव तक देख रहा था।
मोना चौधरी ने टाइट टॉप और घुटनों से लम्बी स्कर्ट डाली हुई थी। पांवों में शूज थे। वो किसी खूबसूरत गुड़िया की तरह लग रही थी। कानों में छोटी-सी लड़ी जैसे झुमके लटक रहे थे।
“साईं, मोन्ना डार्लिंग!” नंदराम दोनों हाथ मलता, पास आकर और भी दांत फाड़ उठा- “तू किधर थी नी? बोत दिनों से देखने को नेई मिली।,बाहर चली गई थी नी...।”
“मैं तो यहीं थी...।” मोना चौधरी के होंठों पर मुस्कान उभरी।
“तो फिर दिखी क्यों नेई वड़ी। मैं तो तेरे को देखने को बोत तरसता हूं नी...।” नंदराम ने गहरी सांस ली।
मोना चौधरी खुलकर मुस्कराई।
“नंदराम...।” मोना चौधरी ने प्यार से कहा।
“साथ में डार्लिंग कहो नी। बोत अच्छा लगेगा।” नंदराम के बाजे बज उठे।
“तुम्हारी बीवी नहीं दिखी। अन्दर है।”
“साईं, वो तो अपने बॉस के साथ टूर पर गई है नी। पूरे बीस दिन का टूर है। अभी तो आठ दिन ही बीता है। इस बार तो मोन्ना डार्लिंग, वो हवाई जहाज पर गई है। मजा कर रही होगी।”
“मजा तो करेगी ही। बॉस के साथ है। दिन-रात...।”
“रात नहीं वड़ी, दिन में बॉस के साथ रहती है।”
“तुमने देखा है।” मोना चौधरी के होंठों पर छाई मुस्कान गहरी हो गई।
“क्या...?”
“कि वो दिन में बॉस के साथ रहती है। रात को नहीं।”
“वो मुझे पता है नी। होटल में बॉस के और उसके कमरे अलग-अलग हैं मोन्ना डार्लिंग।”
“अलग-अलग हैं।” मोना चौधरी ने व्यंग्य से कहा- “लेकिन वो दोनों तो अलग-अलग नहीं हैं। कमरा अपनी जगह है। वो तो एक कमरे में, एक ही...।”
“छी-छी, कैसी बातें करता है नी। मेरा बीवी बोत समझदार है। तुम...।”
“समझदार है, तभी तो महीने में अट्ठाइस दिन बॉस के साथ टूर पर रहती है और सिर्फ दो दिन के लिये घर आती है। बेवकूफ होती तो उसके बॉस ने अब तक दूसरी सेक्रेटरी रख लेनी थी।”
“वो तो है नी। बॉस बहुत अच्छा है। मेरी बीवी का बोत ख्याल रखता है नी।”
“जो ख्याल तुम्हें रखना चाहिये, वो ख्याल, वो रखता है।” मोना चौधरी हौले से हंसी।
“मैं समझा नहीं वड़ी।”
“सोचते रहो।”
“फिर क्या होगा?”
“समझ में आ जायेगी बात...।” कहकर मोना चौधरी आगे बढ़ती चली गई।
अपार्टमेंट के पार्किंग में खड़ी कार मोना चौधरी ने स्टार्ट की और सड़क पर आ गई।
दो दिन से मोना चौधरी फुर्सत में थी।
जो काम हाथ में था। उसे डेढ़ महीना लगाकर निपटाया था और अब दो दिन आराम करने के बाद कुछ दिन के लिये मौज-मस्ती के इरादे से बाहर निकली थी कि घूमना-खाना और नींद लेना। इसके अलावा और कोई काम नहीं करना।
लंच के लिये कुछ देर बाद उसने महंगे और मशहूर रेस्टोरेंट के पार्किंग में कार रोकी। इंजन बंद किया और बाहर निकली कि ठिठक गई। पास ही पार्क हुई कार में से बच्चे के रोने की आवाज आ रही थी।
दो कदम उठाकर मोना चौधरी उस कार के पास पहुंची।
कार के पीछे वाली सीट पर आठ-नौ बरस का बच्चा, अकेला बैठा रो रहा था। मोना चौधरी ने इधर-उधर निगाह दौड़ाई, कहीं कोई भी नजर नहीं आया।
“क्या बात है बेटे...?” मोना चौधरी ने प्यार से पूछा- “आप रो क्यों रहे हो?”
“मम्मी...।” रोते-रोते बच्चा कह उठा।
मोना चौधरी समझ गई कि इसकी मां किसी कारणवश इसे यहीं छोड़कर रेस्टोरेंट में चली गई होगी।
“चुप हो जाओ बेटे। अभी मम्मी आ जायेगी।” मुस्कराकर मोना चौधरी ने कहते हुए, भीतर हाथ डाला और उसका गाल थपथपाकर पलटते हुए, रेस्टारेंट के मुख्य द्वार की तरफ बढ़ गई।
☐☐☐
करीब एक घंटे बाद, लंच के पश्चात मोना चौधरी रेस्टोरेंट से बाहर निकली और पार्किंग में खड़ी अपनी कार के पास पहुंची तो बरबस ही उसकी निगाह पास वाली कार पर पड़ी। बच्चा अभी भी कार की पीछे वाली सीट पर बैठा था। रो-रो कर उसकी आंखें लाल और आंसुओं से भीगी हुई थीं। चेहरा भी गीला और लाल जैसा हो रहा था। वो भीगी आंखों से मोना चौधरी को ही देख रहा था।
मोना चौधरी को अजीब-सा लगा कि उसकी मां अभी तक नहीं आई है।
वो पास पहुंची।
“तुम्हारी मम्मी नहीं आई बेटे?” मोना चौधरी ने प्यार से पूछा।
“नहीं।” उसके चेहरे से लग रहा था कि जैसे वो अभी रो देगा।
“कहां गई है, तुम्हारी मम्मी?”
“कोई मम्मी को जबरदस्ती अपने साथ ले गया है, बन्दूक दिखाकर।” वो पुनः सुबक उठा।
मोना चौधरी चौंकी। माथे पर बल नजर आने लगे। नजरें बच्चे पर ही रहीं।
“तुम्हारी मम्मी को बन्दूक दिखाकर कोई ले गया है।” मोना चौधरी के होंठों से निकला।
“हां...।” उस बच्चे ने अपना आंसुओं से भरा चेहरा हिलाया।
“कौन ले गया है तुम्हारी मम्मी को?”
“मैं नहीं जानता...।” वो पुनः रो पड़ा।
मोना चौधरी होंठ सिकोड़े उसे देखती रही।
बच्चा रोये जा रहा था।
मोना चौधरी ने आस-पास देखा। पार्किंग में कोई भी नहीं था।
नजरें पुनः बच्चे पर जा टिकीं।
“क्या हुआ था बेटे? कैसे ले गया कोई तुम्हारी मम्मी को?”
जवाब में उसका रोना जारी रहा।
मोना चौधी सोच भरी निगाहों से उसे देखती रही। इस तरह अकेले बच्चे को रोते छोड़कर जाना ठीक नहीं था। वो भी उस स्थिति में जबकि कोई उसकी मां को जबर्दस्ती उठाकर ले गया हो।
“मेरे साथ चलोगे बेटे...।” मोना चौधरी ने प्यार से कहा।
उसका रोना रुक गया। वो मोना चौधरी को देखने लगा।
“मेरे साथ चलो बेटे। मैं तुम्हारी मम्मी को ढूंढ लूंगी।” मोना चौधरी ने हाथ आगे बढ़ाकर उसका गाल थपथपाया।
वो आंसुओं भरी निगाहों से मोना चौधरी को देखता रहा।
मोना चौधरी ने कार का दरवाजा खोला और मुस्कराकर हाथ बढ़ाया।
“आओ बेटे...। तुम्हारी मम्मी को ढूंढेंगे।”
आठ-नौ बरस का बच्चा बिना किसी एतराज के फौरन बाहर आ गया। अच्छे कपड़े पहन रखे थे उसने। सूरत-चेहरे से भी वो किसी अच्छे घर का लग रहा था।
मोना चौधरी ने उसका हाथ पकड़ा और कार में झांककर पीछे वाली सीट पर निगाह मारी। फिर आगे वाली सीटों को देखा।
फिर मोना चौधरी बच्चे को लिए कार में जा बैठी।
कुछ ही पलों में कार सड़क पर दौड़ रही थी।
“फिक्र मत करो। बहुत जल्दी तुम्हारी मम्मी को ढूंढ निकालेंगे।” मोना चौधरी ने मुस्कराकर उसे हौसला दिया- “तुम कहां रहते हो? घर कहां है तुम्हारा?”
बच्चे ने घर का पता बताया। फिर बोला।
“आंटी, मुझे भूख लगी है।”
“अभी खाना मिलेगा। नाम क्या है तुम्हारा?”
“अंशुल लाम्बा।”
☐☐☐
मोना चौधरी अंशुल को लेकर उसके घर पहुंची।
तीन कमरों का छोटा-सा, किन्तु सुन्दर-सा घर था। घर की चाबी पायदान के नीचे थी। जिसे कि अंशुल ने निकालकर दरवाजा खोला। घर में कोई भी नहीं था। रास्ते में मोना चौधरी ने उसे खाना खिला दिया था। मोना चौधरी ने सरसरी निगाह से घर के कमरों को देखा फिर उसे लेकर ड्राइंगरूम की सोफा चेयर पर बैठती हुई बोली।
“तुम्हारे पापा कहां हैं बेटे?”
“पता नहीं।” अंशुल का चेहरा उतरा हुआ था।
“पता नहीं?” मोना चौधरी की निगाह उसके चेहरे पर जा टिकी- “मैं समझी नहीं बेटे...।”
“मुझे नहीं पता, पापा कहां है?” अंशुल का स्वर उदास हो गया- “जब मैं छ: बरस का था, तब पापा जाने कहां चले गये। मम्मी ने बहुत ढूंढा, लेकिन पापा मिले ही नहीं।”
मोना चौधरी का चेहरा सोच के भावों से भर उठा।
“आंटी, मम्मी को ढूंढो ना...।”
“हां।” मोना चौधरी ने उसके मासूम चेहरे को देखते हुए सिर हिलाया- “जरूर बेटे। मैं तुम्हारी मम्मी को बहुत जल्दी ढूंढ लूंगी। ये तो बताओ, कोई कैसे ले गया तुम्हारी मम्मी को...?”
“आंटी, वो लम्बा-सा आदमी था। छोटे-छोटे उसके बाल थे। मम्मी रेस्टोरेंट में चाय पीने गई थी। मैं भी साथ था। जब हम बाहर आकर कार में बैठे तो तभी एक आदमी कार के भीतर आ बैठा और मम्मी की बांह पकड़कर साथ चलने को कहने लगा। मम्मी अपनी बांह छुड़ाने के लिये, उससे झगड़ पड़ी। तब उसने जेब से बन्दूक निकाल ली, जैसे फिल्मों में अमरीश पुरी निकालता है। मम्मी बन्दूक से डर गई और वो आदमी मम्मी को पास खड़ी कार में बिठाकर ले गया।”
“तुमने कभी उस आदमी को पहले देखा है?” मोना चौधरी ने पूछा।
“नहीं।”
“वो क्या कह रहा था तुम्हारी मम्मी को?”
“वही जो अमरीश पुरी कहता है फिल्मों में। चुपचाप मेरे साथ चलो। नहीं तो गोली मार दूंगा।” अंशुल ने मायूस स्वर में कहा।
“तुम्हारी मम्मी ने क्या कहा?”
“मम्मी उसके साथ जाने को मना कर रही थी। लेकिन जब उसने बन्दूक निकाली तो मम्मी ने उसकी बात मान ली।”
“तुमने कभी मम्मी को उस आदमी से पहले मिलते देखा है?”
“नहीं।”
मोना चौधरी के चेहरे पर सोच के भाव नजर आ रहे थे।
“तुम्हारी मम्मी का नाम क्या है?”
“दीपा...।”
“और पापा का नाम क्या था?”
“सुन्दर...।”
“तुम्हारी मम्मी की कोई तस्वीर है?”
“हां आंटी।” अंशुल उठकर दूसरे कमरे में चला गया और फ्रेम में जड़ी तस्वीर लाकर मोना चौधरी को दी।
वो पैंतीस बरस की महिला की तस्वीर थी। साड़ी पहन रखी थी। चेहरा आकर्षक था। उसकी आंखों से ये बात स्पष्ट जाहिर हो रही थी कि वो एक चुस्त औरत है। अच्छी तरह देखने के बाद मोना चौधरी ने तस्वीर को फ्रेम में से निकाला और जेब में रख ली। तो अंशुल कह उठा।
“आंटी आपने मम्मी की तस्वीर क्यों ले ली?”
“बेटे! तुम्हारी मम्मी को ढूंढने के लिये, तस्वीर को पास रखना बहुत जरूरी है।” मोना चौधरी ने कहा।
अंशुल ने तुरन्त सहमति से इस तरह सिर हिलाया जैसे बहुत समझदार हो। बात समझ गया हो।
“तुम स्कूल पढ़ते हो?”
“हां।”
“स्कूल से घर कैसे आते हो? तुम्हारी मम्मी तुम्हें लाती है?” मोना चौधरी ने पूछा।
“नहीं। स्कूल-बस बाहर सड़क पर छोड़ देती है। मैं घर आ जाता हूं। चाबी मम्मी पायदान के नीचे रख जाती है।”
“मम्मी कहां नौकरी करती है?”
“ये तो मुझे नहीं मालूम। ऑफिस में काम करती है।”
“तुम्हारी मम्मी किस-किस से मिलती है?”
“एक आंटी है। जो कि मम्मी की सहेली है। कभी आंटी घर आ जाती है तो कभी मम्मी आंटी के घर चली जाती है।” अंशुल ने कहा।
“क्या नाम है आंटी का?”
“सीमा...।”
“कहां रहती है तुम्हारी आंटी?”
“घर का पता तो मुझे नहीं मालूम। घर पर कई बार गया हूं।”
“मुझे यहां ले जा सकते हो?”
“हाँ आंटी, मुझे सीमा आंटी के घर का रास्ता अच्छी तरह आता है।”
“चलो। तुम्हारी सीमा आंटी के घर चलते हैं।”
अंशुल फौरन उठ खड़ा हुआ।
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