अफगानिस्तान का शहर, काबुल।

चाकानेर नाम की पच्चीस-मंजिला खूबसूरत रिहायशी इमारत ।

पच्चीसवीं मंजिल पर अपार्टमेंट की खिड़की पर खड़ा हैदर खान बाहर नजर दौड़ा रहा था। पूरा काबुल शहर दिखता था पच्चीसवीं मंजिल से। सांप की रेखाओं की तरह सड़कें, उन पर कीड़े-मकोड़ों की तरह दौड़ते वाहन।

हैदर खान ने शरीर पर इस समय अण्डरवियर और खुला गाउन डाल रखा था। वो खूबसूरत था। आकर्षक था लम्बा था गोरा था। लड़कियां उस पर मरती थीं। वो लड़कियां जो उसकी असलियत से वाकिफ नहीं थीं। जो उसकी हकीकत जानती थीं, वो पास आने में कतराती थीं। क्योंकि वो खतरनाक था। अफगानिस्तान के ऐसे परिवार से था, जो परिवार दुनिया भर में ड्रग्स सप्लाई करता था। उनके खेतों में ड्रग्स उगाई जाती थी। जिसे तरह-तरह के नशे में बदलकर, पैकिटों में बंद करने के बाद, पैकिटों को बोरों में बंद करके, सड़क के रास्ते, समन्दर के रास्ते, हवाई जहाज के रास्ते, उन्हें उनकी मंजिल तक पहुंचाया जाता था। ड्रग्स पकड़ी भी जाती थी, नहीं भी पकड़ी जाती थी। जो पकड़ी जाती थी, ये परिवार उसकी परवाह नहीं करता था। क्योंकि सौदा हर हाल में मुनाफे का ही रहता। जो ड्रग्स नहीं पकड़ी जाती थी, उसके इतने मोटे दाम मिलते थे कि किसी भी तरफ से नुकसान होने का सवाल ही नहीं उठता था।

इस परिवार के तीन सदस्य ही अब तक बचे थे।

लाली खान ।

गुलजीरा खान ।

हैदर खान।

लाली खान बड़ी बहन थी। उससे छोटी बहन गुलजीरा खान थी। फिर छोटा भाई पच्चीस बरस का हैदर खान।

लाली खान ने सारे धंधे को अपने कंट्रोल में ले रखा था। गुलजीरा खान और हैदर खान उसके सामने संभले से रहते थे। धंधे के प्रति वे कभी लापरवाह नहीं होते थे। गुलजीरा खान और हैदर खान ही सब काम संभालते थे। परन्तु कोई नया इन्सान उनके धंधे से जुड़ता तो लाली खान उससे अवश्य मिलती। अपने तौर पर उसे देखती ।

इस परिवार का नेटवर्क तगड़ा था।

खबरें पाने के लिए अपना खुफिया दल था।

पैसा बहुत था और धंधा चलाने में माहिर था ये परिवार।

हैदर खान खिड़की से हटने की सोच ही रहा था कि पीछे से आकर एक युवती उससे लिपट गई।

"बस।" हैदर खान ने गहरी सांस ली--- "बहुत हो गया। तुमने अपनी कीमत चुका दी।"

"कभी तो प्यार से बात किया करो। तुम्हारे पास पैसों के लिए नहीं आती मैं।"

“लेकिन मैं हर बार कीमत चुकाता हूँ। तुम नहीं लेतीं, परन्तु मैं दे देता हूं।"

"तुम्हारे व्यवहार पर मुझे अफसोस होता है कभी-कभी। मैं तुम्हें दिल से समर्पित होती हूं। परन्तु तुम मुझसे इस तरह बात करते हो। जैसे कि मैं वेश्या होऊं!" वो हैदर खान को छोड़कर पीछे हटती कह उठी।

हैदर खान मुस्कराकर पलटा और उसे देखा।

वो 22-24 बरस की बेहद खूबसूरत युवती थी। सांवला रंग, आकर्षक नैन-नक्श, संवरे बाल, चेहरे पर झूलती लटें। वो बनी-सजी हुई थी। पैंट और स्कीवी में थी वो। लैला नाम था उसका।

“तुम वेश्या हो नहीं क्या?” हैदर खान मुस्कराकर कह उठा।

"तुम जानते हो हैदर कि मैं हर एक के सामने नहीं बिछती...।"

"लेकिन बिछती हो...।"

लैला ने शिकायती नजरों से हैदर खान को देखा।

“ठीक है। वेश्या हूं तो वेश्या सही!” लैला ने मुंह बनाकर कहा--- "लेकिन तुम्हारे पास मैं वेश्या बनकर नहीं, औरत बनकर आती हूं। ये बात तुम्हें महसूस कर लेनी चाहिए थी अब तक।"

हैदर खान ने आगे बढ़कर एक टेबल की ड्रॉज से कुछ डॉलर निकाले और लैला को दिए।

“मुझसे सिर्फ काम की बात किया करो। अपने को मेरे हवाले करो और बाद में डॉलर लेकर चली जाओ।"

लैला ने डॉलर थामे और नाराजगी से बोली---

"अब मैं तेरे पास नहीं आऊंगी हैदर... ।"

"तुम आओगी...।" हैदर खान मुस्कराया।

"देख लेना...।" लैला ने कहा और पलटकर दरवाजे की तरफ बढ़ गई।

हैदर खान उसे देखता रहा।

लैला ने दरवाजा खोला और ठिठककर सिर घुमाया और कह उठी---

"मैं अब तुम्हारे पास नहीं आऊंगी और साबित कर दूंगी कि मैं तुम्हारे लिए वेश्या नहीं हूं...।"

"तुम आओगी।" हैदर खान का स्वर विश्वास से भरा था।

“भाड़ में जाओ!" लैला ने कहा और बाहर निकलती चली गई।

हैदर खान मुस्कराया और आगे बढ़कर दरवाजा बंद कर दिया।

तभी हैदर खान का मोबाइल बजने लगा।

हैदर खान ने बेड के साइड टेबल पर रखा फोन उठाया और स्क्रीन पर आया नम्बर देखा।

"हां गुल...।" हैदर खान ने फोन कान से लगाया।

"कैसा है मेरे भाई?” गुलजीरा खान की आवाज आई।

“दो दिन की छुट्टी पर हूं...।" हैदर खान ने शांत स्वर में कहा।

“हमारे धंधे में छुट्टी नहीं होती। तेरे को अभी मेहतरियम (काबुल के पास का शहर मेहतरियम) जाना है। वहां माल पैक पड़ा है। उस माल को अपनी निगरानी में हिन्दुस्तान के श्रीनगर ले जाना है।" गुलजीरा खान की आवाज कानों में पड़ी।

"क्या अब मैं इन बेकार के कामों के लिए रह गया हूं?” हैदर खान ने तीखे स्वर में कहा।

"माल को ले जाने वाले हमारे चार आदमी बीते दो महीनों में अलग-अलग हादसों में मारे जा चुके...।"

"जानता हूं...।"

"श्रीनगर का ये आर्डर पूरा करना है। हिन्दुस्तान के बार्डर पर सख्ती है। मैं किसी आदमी पर भरोसा नहीं कर सकती। इस रास्ते का माल जो पहुंचाते थे, उनका टकराव पिछली बार हिन्दुस्तानी सैनिकों से हुआ और वे मारे गए थे। अभी तो ये काम तुम करो। वहां से पिछली दो बार की पेमेंट लानी है। अब की बार मिलाकर तीन बार का पैसा हो गया। मैंने सोचा तुम्हें ही भेजूं...।"

"मैं ये काम बार-बार नहीं करूंगा। इन कामों के लिए तुम किसी को तैयार करो।"

"मैं ढूंढ रही हूं उसे जो हमारे माल को बढ़िया ढंग से, मंजिल तक पहुंचा सके। कई लोगों को मैंने इस बारे में कह रखा है। कुछ लोगों को आजमाया भी, परन्तु वो ठीक नहीं लगे मुझे ।" उधर से गुलजीरा खान ने कहा--- "अभी तो तुम ही इस काम को निपटाओ। मेहतरियम के गोदाम से माल उठाओ और श्रीनगर पहुंचाओ। धंधे में धीमापन नहीं आना चाहिए। पार्टियों को वक्त पर माल नहीं पहुंचा तो वो दूसरों से माल खरीदने लगेंगी।"

"हमारी ड्रग्स शुद्ध होती है, मिलावटी नहीं।"

“ये बात हम पार्टियों को नहीं समझा सकते। अब जल्दी करो। मेहतरियम पहुंचो।" इसके साथ फोन बंद हो गया।

हैदर खान ने मोबाइल को कान से हटाया और नम्बर डायल करके, कान से लगाया ।

तुरन्त ही दूसरी तरफ बात हो गई।

"अब्दुल...।" हैदर खान बोला--- "श्रीनगर ले जाने वाले माल की क्या पोजीशन है?"

“पैक कर दिया है सब कुछ।" अब्दुल की आवाज आई।

"एक वैन में आ जाएगा माल?"

"हां, आ जाएगा।"

"तो माल से भरी वैन को जलालकोट तक पहुंचाओ। मैं वहीं मिलूंगा।”

“आप जलालकोट से पाकिस्तान में प्रवेश करोगे?”

"हां... क्यों?"

“वहां पर कुछ स्थानीय गुट ऐसे हैं जो हमारा माल लूट लेते हैं। पिछली बार काजी माल ले जा रहा था। उसे मार भी दिया।"

"हमने अपने आदमी वहां भेजकर उन लोगों का सफाया कर दिया था।"

“वहां आपको खतरा हो सकता है।"

“मेरी परवाह मत करो। मैं अकेला तो होऊंगा नहीं। वैन में और लोग भी होंगे। संभाल लेंगे हम। अगर इस बार भी वो हमारे रास्ते में आए तो ये उनकी आखिरी बार होगी।" हैदर खान ने कठोर स्वर में कहा--- "तुम माल को फौरन जलालकोट के लिए रवाना करो।"

"जलालकोट से सीमा में प्रवेश करके मलाकंद, मर्दान् से गुजरकर मुजफ्फराबाद से हिन्दुस्तान की सीमा में प्रवेश करेंगे।"

"ऐसा ही सोचा है मैंने।"

"मैं एक कार को आपकी वैन के आगे-आगे रवाना कर देता हूं। कोई खतरा हुआ तो वो खबर दे देंगे।"

"हूं... ठीक है। ऐसा ही करो...।" हैदर खान ने कहा और फोन बंद कर दिया।

फोन को बेड की तरफ उछालकर उसी खिड़की पर जा खड़ा हुआ।

कुछ देर खिड़की पर ही खड़ा रहा। चेहरे पर सोचें नाचती रहीं। फिर वहां से हटा और तैयार होकर, रिवाल्वर पैंट में छिपाई और बाहर निकल गया। दरवाजा लॉक किया और लिफ्ट की तरफ बढ़ गया। उसके खूबसूरत चेहरे पर शांत से भाव थे।

लिफ्ट वहां नहीं थी। हैदर खान ने लिफ्ट ऊपर बुलाने के लिए बटन दबा दिया और इंतजार करने लगा।

मिनट भर लगा। लिफ्ट ऊपर आ गई। उसके दरवाजे खुले ।

भीतर दो आदमी पहले से ही मौजूद थे। वे भीतर ही रहे। हैदर ख़ान ने भीतर प्रवेश किया और एक निगाह उन पर मारकर ग्राउंड फ्लोर का बटन दबा दिया। अगले ही पल लिफ्ट के दरवाजे बंद हुए और वो नीचे सरकने लगी।

तभी वहां खड़े दोनों आदमियों में से एक ने फुर्ती से जेब से लम्बा चाकू निकाला और दूसरे ने झपट्टा मारकर हैदर खान को पकड़ लिया। हैदर खान चौंका। परन्तु तब तक उसे जकड़ा जा चुका था।

दूसरा आदमी उस पर चाकू का वार करने जा रहा था।

हैदर खान ने दांत भींचकर जूते की ठोकर चाकू वाले के पेट पर मारी ।

चाकू वाला चीखकर लिफ्ट की दीवार से जा टकराया।

दूसरे आदमी ने हैदर खान को जकड़ा हुआ था। हैदर खान ने पुनः जूते की ठोकर का वार सामने वाले पर किया। उसका सिर लिफ्ट की दीवार से टकराया। वो कुछ बेदम सा हो गया। तभी हैदर खान ने खुद को पीछे की दीवार पर दे मारा। जिसने उसे जकड़ा हुआ था, वो दीवार से टकराते ही थोड़ा कराहा।

हैदर खान ने पुनः ऐसा किया।

जकड़ने वाले के बंधन कुछ ढीले से पड़े।

चाकू वाला आदमी पुनः खड़े होने का प्रयत्न कर रहा था ।

हैदर खान ने दांत भींचे पुनः पूरी ताकत से खुद को दीवार पर दे मारा। इस बार उसे जकड़ने वाले की पकड़ हल्की सी कराह के साथ ढीली हुई तो हैदर खान ने तीव्र झटका देकर खुद को आजाद किया और उसे चाकू वाले आदमी की तरफ धकेलकर फुर्ती से रिवाल्वर निकाल ली। दरिन्दगी छा गई थी चेहरे पर।

रिवाल्वर सामने पाकर दोनों ठिठक से गए।

हैदर खान ने उसी पल ट्रेगर दबाया। गोली, उसे जकड़ने वाले की गर्दन में जा लगी। उसे तीव्र झटका लगा और लिफ्ट की दीवार से टकराकर नीचे गिरता चला गया।

ये देखकर चाकू वाला दहशत से भर उठा और उस पर झपटना चाहा।

"मैं गोली चला दूंगा, अगर अपनी जगह से जरा भी आगे बढ़ा।" हैदर खान गुर्राया ।

वो हड़बड़ाकर ठिठक गया।

"जानता है मुझे...।" हैदर खान गुर्राया ।

"हां... हां...।" उसने दांत भींचकर कहा।

"तो मेरे पास तक आने में तुझे डर नहीं लगा?" हैदर खान के चेहरे पर मौत नाच रही थी।

वो व्यक्ति दांत भींचे खड़ा रहा। एक निगाह उसने अपने साथी की लाश पर मारी ।

"मैंने तुझे कभी भी पहले नहीं देखा। तेरी-मेरी कोई दुश्मनी नहीं।"

वो चुप रहा।

“बोल...।" हैदर खान गुर्राया ।

"हां, हमारी कोई दुश्मनी नहीं... ।" उसने कठोर स्वर में कहा।

"तो क्यों मारने आया है मुझे? किसने भेजा ?"

वो खामोश रहा।

हैदर खान ने रिवाल्वर वाला हाथ सीधा किया।

"मुझे जवाब चाहिए वर्ना...।" हैदर खान वहशी स्वर में कह उठा।

"तुम्हें मारने के लिए वकील अली ने मुझे काफी पैसा दिया है।" उसके होंठों से निकला।

"वकील अली?" हैदर खान के चेहरे पर कड़वे भाव आ गए--- "तुम्हारे द्वारा ये उसकी चौथी कोशिश है।"

वो चाकू थामे हैदर खान को देखता रहा ।

तभी हैदर खान की उंगली हिली। ट्रेगर दब गया।

तेज धमाका हुआ और गोली उसके माथे पर जा लगी।

वो नीचे जा गिरा। चाकू अभी भी उसके हाथ में दबा था।

"हैदर खान के रास्ते में जो आएगा...उसका ये ही हाल होगा।"

हैदर खान खतरनाक स्वर में गुर्राया---फिर लिफ्ट के इंडीकेटर की तरफ देखा।

लिफ्ट ग्राउंड फ्लोर पर पहुंचने वाली थी।

हैदर खान ने वापस, ऊपर जाने का बटन दबा दिया।

लिफ्ट ऊपर जाने लगी।

कुछ पलों बाद उसने एक फ्लोर पर लिफ्ट रोकी। दरवाजे खुले । बाहर कोई भी नहीं था। हैदर खान ने रिवाल्वर अपनी पैंट में छिपाई और लिफ्ट का बटन दबाकर बाहर आ गया। लिफ्ट के दरवाजे बंद होते चले गए और दो लाशों को लेकर वो किसी अन्य फ्लोर के लिए चल दी थी।

हैदर खान शांत भाव से सीढ़ियों की तरफ बढ़ता हुआ बड़बड़ा उठा---

“एक बार तू मेरे हाथ लग जा वकील अली! बहुत बुरी मौत मारूंगा तुझे...।"

■■■

लम्बी विदेशी कार की पीछे वाली सीट पर लैला बैठी थी। कार के काले शीशे थे। ए.सी. की ठंडक कार में फैली थी। बाहर शरीर को झुलसा देने वाली गर्मी पड़ रही थी। एक आदमी कार को ड्राइव कर रहा था। लैला काले शीशे के बाहर देख रही थी। चेहरे पर सोचों के भाव थे। तभी उसने पास रखा काला चश्मा उठाया और आंखों पर लगा लिया।

“हमारे पीछे तो कोई नहीं है?" लैला ने कार चलाने वाले से पूछा।

“नहीं, मैडम। मैं इस बारे में सतर्क हूं...किसी ने भी हमारा पीछा नहीं किया।"

लैला ने तसल्ली भरे ढंग में सिर हिलाया, फिर बोली---

"मरीन इमारत में चलो...।"

“यस मैडम....।"

लैला ने मोबाइल निकाला और नम्बर मिलाने लगी।

बात हो गई।

"क्या खबर है?" लैला बोली।

"इस बार माल के साथ हैदर खान खुद जा रहा है।" उधर से कहा गया।

लैला के होंठ सिकुड़े। चेहरे पर सोचें आ ठहरीं।

"हैलो...।"

"सुन रही हूं मैं...तो हैदर खान को माल के साथ भेजा जा रहा है।"

"जी हां...।"

"मेरी बात ध्यान से सुनो। हैदर खान के रास्ते में रुकावट न डाली जाए। कोई पंगा नहीं। उसे खुला रास्ता दे दिया जाए।"

"लेकिन मैडम, हैदर खान श्रीनगर तक माल पहुंचा देगा, जबकि उस पार्टी को हम अपना माल देना चाहते हैं...।"

"तुम समझदार हो या मैं...?"

"अ...आप मैडम...।"

“तो जैसा मैंने कहा है, वैसा ही करो। वैसा ही होना चाहिए।" लैला का लहजा आदेश भरा था।

"ठीक है मैडम।"

लैला ने फोन बंद कर दिया।

दस मिनट बाद ही कार मरीन इमारत की पार्किंग में जा रुकी।

लैला कार से बाहर निकली और इमारत में प्रवेश कर गई।

लिफ्ट से दूसरी मंजिल पर पहुंचकर एक आफिस में उसने प्रवेश किया। काफी बड़े हॉल में लोग अपने कामों में व्यस्त कुर्सियों पर बैठे थे। दिखावे के तौर पर यहां सिक्योरिटी एजेन्सी और विदेशियों की नौकरियां लगवाने का काम होता था।

लैला एक बंद दरवाजे के सामने पहुंची और दरवाजा धकेल कर भीतर प्रवेश कर गई।

सामने ही टेबल के पीछे 40 बरस का आदमी बैठा हुआ था। उसे देखकर उसने मुंह बनाया।

लैला मुस्कराई और कुर्सी पर आ बैठी।

"मुझे पसन्द नहीं कि तुम हैदर खान के पास जाओ।"

"ये बात तुम हर बार, तब कहते हो जब मैं उसके पास से वापस आती हूं।" लैला ने गहरी सांस ली।

"क्योंकि तुम्हारे वापस आने पर मुझे तुम्हारे पास से हैदर खान की बदबू आती है।" वो कड़वे स्वर में बोला।

"तुम इतना जलते क्यों हो?"

"मुझे अच्छा नहीं लगता।"

"अपना धंधा जमाना है तो जरूरी है कि मैं....।”

"तुम जब भी उसके पास जाती हो तो मुझे डर लगा रहता है कि कहीं वो तुम्हारी असलियत जानकर, तुम्हें मार न दे।"

"इतना मत डरा करो... वो मुझे वेश्या समझता है। ऐसे में वो मुझ पर शक नहीं कर सकता।"

उस आदमी ने गहरी सांस लेकर मुंह फेर लिया।

"सैयद ! तुम्हें ये बात दिल को नहीं लगानी चाहिए।"

"आखिर तुम्हें उसके पास जाने की जरूरत ही क्या है? तुम....।"

"ये क्यों भूलते हो कि आज हम तीन ऐसी पार्टियों को ड्रग्स दे रहे हैं, जो पहले लाली खान से ड्रग्स लेती रही हैं। उन पार्टियों के बारे में मैंने हैदर खान के पास जाकर ही जाना है। हमारा धंधा बढ़ रहा है सैयद... ।"

“तुम खतरों से खेल रही हो... ।”

"बेकार की बात मत करो। सब ठीक है। लाली खान का परिवार अब तक यही समझ रहा है कि उनके माल पहुंचाने वाले चार आदमियों की मौत इत्तफाक है। वो ये नहीं सोच सके कि ये काम किसी ने, यानि कि हमने किया हो सकता है। उनके दो लोगों को हमारे आदमियों ने झगड़ा करके मारा। दो को हिन्दुस्तान की सीमा पर तब शूट कर दिया गया, जब वो माल के साथ सीमा पार करने जा रहे थे। ऐसे में उन्होंने यही सोचा कि सीमा सुरक्षा बलों से मुठभेड़ में वे मारे गए।"

सैयद सीधा होकर बैठ गया।

"अब लाली खान के परिवार के पास, माल पहुंचाने वाले आदमियों की कमी हो गई है। ये काम एक्सपर्ट ही कर सकते हैं, हर कोई नहीं कर सकता, क्योंकि हर तरफ लाली खान के परिवार के दुश्मन भरे पड़े हैं। वक्त-वक्त पर वो परिवार को नुकसान पहुंचाते रहते हैं। सुरक्षा बलों से खतरा, पानी के रास्ते पर खतरा, कदम-कदम पर खतरा ही तो है।"

"लाली खान का परिवार ऐसे एक्सपर्ट्स को अपने लिए ढूंढ लेगा।" सैयद ने कहा।

"हां, उनका परिवार माल ठीक जगह पहुंचाने के लिए, काम के आदमियों की तलाश में है।" लैला ने कहा।

"तब तक वो कैसे काम करेंगे?"

"हैदर खान खुद इस बार माल लेकर श्रीनगर जा रहा है।"

"वो खुद...।" सैयद के माथे पर बल पड़े--- "ये छोटा काम वो क्यों करेगा...?"

"मजबूरी है। जब तक उन्हें काम का आदमी नहीं मिलता, ये काम खुद करना पड़ेगा। वरना धंधा बैठ जाएगा।"

"तो अब हैदर खान खुद श्रीनगर जा रहा है...।"

लैला ने सिर हिलाया।

"मौका अच्छा है उसे खत्म करने का।"

"बेवकूफी वाली बात मत करो।" लैला ने तीखे स्वर में कहा--- "वो हैदर खान है। हैदर खान! शेर से ज्यादा घातक, चीते से भी फुर्तीला और लोमड़ी से चालाक। अगर उसे मारना आसान होता तो मैं उसे बिस्तर पर कब की मार चुकी होती।"

"लेकिन हमारे आदमी...।"

"बचपना मत करो सैयद। हैदर खान को इस तरह नहीं मारा जा सकता। जब वक्त आएगा, बता दूंगी। ये ही बहुत बड़ी बात है कि उसे आज तक मुझ पर शक नहीं हुआ। उसका मेरा मिलने का सिलसिला चल रहा है। जब भी उसके पास जाती हूँ तो कुछ नया जान लेती हूँ। कभी मेरे सामने किसी का फोन आ जाता है तो बातें सुन लेती हूँ। लेकिन ये तो पक्का है कि देर-सवेर वो मेरी असलियत जान ही लेगा कि मैं वेश्या नहीं, बल्कि उसके परिवार के खिलाफ, अपना ड्रग्स का धंधा खड़ा कर रही हूँ। ये बात वो कभी भी जान सकता है।"

"तुम्हें उसके पास जाना छोड़ देना चाहिए।"

"पता नहीं। सोचूंगी।"

"कहीं तुम्हें उससे प्यार तो नहीं हो गया?"

"बकवास मत करो। मेरी असलियत जानकर वो फौरन मेरे टुकड़े कर देगा।"

सैयद हंसकर रह गया।

"मैंने अपने आदमियों को बोल दिया है कि हैदर खान के रास्ते में रुकावट न डाली जाए।"

“मैं तुम्हारा पार्टनर हूँ...।" सैयद बोला।

"तो?"

"कोई फैसला लेने से पहले तुम्हें मेरे से सलाह तो लेनी चाहिए...।"

"जब मुझे पता हो कि मेरा फैसला सही है तो सलाह लेने की मैं जरूरत नहीं समझती।"

"मुझे तुम पर विश्वास है लैला।"

"एक बात मैंने और सोची है।"

"क्या...?"

"अगर लाली खान के परिवार को माल पहुंचाने वाला न मिले तो उनका धंधा हलका हो जाएगा।"

सैयद की निगाह लैला पर थी।

"लाली खान के लोगों में हमारे मुखबिर हैं। उन्हें हम यह कह देते हैं कि जब भी परिवार को ऐसा कोई काम का आदमी मिलता दिखे, तुरन्त हमें खबर करो। हम फौरन उस काम के आदमी को खत्म कर देंगे।" लैला गम्भीर स्वर में बोली।

"इस तरह हम कब तक काम चला सकते हैं।"

"देर तक।" लैला ने गंभीर स्वर में कहा--- "ड्रग्स के व्यापारी के लिए इससे बड़ी और क्या समस्या होगी कि आर्डर उसके पास है और माल पहुंचाने वाला कोई न हो। हैदर खान कितनी बार कितनी जगह पर खुद जाएगा। उसे और भी काम देखने होते हैं, वो जल्दी ही इस काम से तंग आ जाएगा।"

"ऐसा हुआ तो लाली खान का परिवार कुछ आदमियों को इस काम पर लगा देगा। हाथ पर हाथ रखकर तो वो बैठने से रहे।"

"हम ऐसे लोगों को मंजिल पर नहीं पहुंचने देंगे। उनका धंधा बिगड़ता चला जाएगा।"

"ये खतरनाक बात है। लाली खान का परिवार हमें तलाश कर लेगा। वो हमें ढूंढ लेगे कि हम उनका काम बिगाड़ रहे हैं।"

"डरो मत सैयद। लाली खान के परिवार के लिए आसान नहीं है हमें छूना ... !” लैला कड़वे स्वर में कह उठी--- "आखिर हम भी दम रखते हैं। दौलत है हमारे पास...आदमियों की फौज है। ताकत है, हम लाली खान के परिवार से कमजोर हैं, परन्तु इतने भी कमजोर नहीं कि उनके हाथ लग जाएं।"

"तेरी बातों से कभी-कभी मुझे डर लगने लगता है।" सैयद ने गहरी सांस लेकर कहा।

जवाब में लैला मुस्करा पड़ी।

"धंधे में आगे बढ़ना है तो खतरा उठाना जरूरी है। ये धंधा ही खतरे वाला है। 100 रुपये की ड्रग्स को हम एक लाख रुपये में बेचते हैं। यानि कि पूरा का पूरा लाभ है। मुफ्त के धंधे में, यूं समझ लो कि हम खतरा बेचकर नोट इकट्ठे कर रहे हैं।"

■■■

इंडिया !

नई दिल्ली।

“हमारा पीछा हो रहा है।" मोना चौधरी ने कहा।

महाजन के होंठ सिकुड़े। उसने फौरन गर्दन घुमाकर पीछे देखा।

पीछे वाहनों की कतार थी।

"हरे रंग की कार।" मोना चौधरी ने आगे लगे शीशे पर निगाह मारते हुए कहा--- "पीछे से दूसरी...।"

महाजन ने सिर घुमाया और सीधा होकर बैठ गया।

मोना चौधरी सामान्य रफ्तार से कार ड्राइव कर रही थी।

"कब से है वो पीछे ?" महाजन ने पूछा।

"पंद्रह मिनट से। मैंने रास्ते से हटकर दो-तीन मोड़ काटे। परन्तु वो कार पीछे ही रही हमारे। ये प्रीतमलाल के आदमियों की कार हो सकती है। वो जान चुका होगा कि हम उसे ढूंढ रहे हैं।" मोना चौधरी ने शांत स्वर कहा।

"मेरा भी यही ख्याल है। क्या करना है अब?"

“हमें झगड़ा नहीं करना है। पीछे लगी कार से पीछा छुड़ाकर, हमें अपना काम करते रहना चाहिए।" मोना चौधरी ने कहा और एकाएक कार की स्पीड बढ़ा दी। कार आगे जा रहे ट्रैफिक को ओवरटेक करती, आगे बढ़ने लगी।

महाजन ने गर्दन घुमाकर पीछे देखा।

पीछे लगी वो ही हरी कार, भी आगे आने की चेष्टा कर रही थी।

मोना चौधरी जैसे-तैसे रास्ता बनाती आगे बढ़ी जा रही थी।

"वो कार हमारा पीछा नहीं छोड़ने वाली।" महाजन ने कहा।

मोना चौधरी होंठ भींचे कार दौड़ाने में रही।

कुछ मिनट बाद ही एक चौराहे पर लाल बत्ती हो गई।

वाहन रुकने लगे।

मोना चौधरी की कार, लाल बत्ती से एक कार पीछे थी। उसने तुरन्त रास्ता बनाया और लाल बत्ती पार करती कार दौड़ाती चली गई। पीछे रुके ट्रेफिक में हरी कार फंसी रह गई थी।

“अब ठीक है।" महाजन सीधा होता कह उठा--- "हमने उससे पीछा छुड़ा लिया।"

मोना चौधरी ने कार की रफ्तार तेज ही रखी थी।

“प्रीतमलाल को कैसे पता चला होगा, हमारे बारे में?" महाजन बोला ।

"हम उसके बारे में पूछते फिर रहे हैं। किसी ने भी ये बात उसके कानों तक पहुंचा दी होगी। उसके बाद प्रीतमलाल के आदमियों ने हमें ढूंढ लिया होगा। इस तरह हमारा पीछा किया जाने लगा कि हम अब क्या कर रहे...।"

इसी पल मोना चौधरी का फोन बजा।

मोना चौधरी ने फोन निकालकर स्क्रीन पर आया नम्बर देखा और महाजन की तरफ फोन बढ़ाकर कहा---

"बात करो, ओम चोपड़ा का फोन है।"

महाजन ने कालिंग स्विच दबाकर कान से लगाकर कहा---

"कहो...।"

"चार दिन हो गए। तुम लोगों ने कुछ किया नहीं? मेरी बेटी को...।"

"तुम्हारा ही काम हो रहा है। हमने पता लगा लिया है कि तुम्हारी बेटी किसके पास है ।"

"किसके पास है?"

"तुम्हारे लिए ये जानना जरूरी नहीं। तुम्हें बेटी चाहिए, वो जल्दी मिल जाएगी।” महाजन ने कहा।

"चार दिनों में उन लोगों ने मेरी बेटी को खराब कर दिया...।"

"इस बात की गारण्टी तो हम नहीं लेते। हमने तुम्हारी बेटी को सलामत जिन्दा वापस लाने की बात कही थी।"

ओम चोपड़ा के गहरी सांस लेने की आवाज आई। फिर उसने कहा---

“मोना चौधरी से मेरी बात कराओ...।"

“वो कार चलाने में व्यस्त है। थोड़ा सब्र रखो। हम तुम्हारी बेटी को ही वापस लाने का काम कर रहे हैं।" महाजन ने कहा और फोन बंद कर दिया।

मोना चौधरी कार चलाने में व्यस्त थी।

महाजन ने उसका फोन उसकी कमीज की जेब में डाल दिया।

इस वक्त शाम के साढ़े सात बज रहे थे। कुछ ही देर में शाम का अंधेरा छा जाने वाला था।

"हम पहुंचने वाले हैं।" महाजन बोला।

मोना चौधरी खामोश रही।

तभी महाजन का फोन बजा। उसने बात की।

"नीलू।” उधर से आवाज आई--- "मैं दया बोल...।"

"काम की बात बोल...।" महाजन ने टोका।

“प्रीतमलाल के पास एक लड़की है। पता चला है कि वो अच्छे घर की है। उसके बेटे का दिल उस पर आ गया है। वो उससे शादी करना चाहता है। उन्होंने किसी जगह पर लड़की को कैद कर रखा है।" उधर से दया नाम के आदमी ने कहा।

"ये खबर तो हमने भी पा ली है। ये बता कि लड़की को कहां रखा है?"

"नहीं जान पाया। परन्तु प्रीतमलाल इस वक्त अपने होटल में मौजूद है।"

"ये भी पता चल चुका है मुझे। लगता है तेरे पास और कुछ नहीं है बताने को।" महाजन ने कहा।

"मैं नहीं जानता कि लड़की को कहां कैद कर रखा है ।"

महाजन ने फोन बंद किया और उसे जेब में रखते सतर्क हो उठा।

सामने ही 'आकाश होटल' का नियोन साइन चमकता नजर आने लगा था।

मोना चौधरी ने कार धीमी की और दायीं तरफ मोड़ दी। सामने ही चौड़ी गली थी। जिसके कोने पर ही आकाश होटल बना हुआ था। पांच सौ गज घेरे में वो इमारत थी। ऊपर की तीन मंजिलों पर होटल के कमरे थे और नीचे की जगह पर बार एंड रेस्टोरेंट के अलावा, नाच के लिए फ्लोर भी था। एक तरफ ढेरों टेबल-कुर्सियां लगी थीं।

मोना चौधरी ने दीवार के साथ ही कार को रोका और इंजन बन्द किया।

अब तक शाम का अंधेरा हो चुका था।

मोना चौधरी और महाजन की नजरें मिलीं।

महाजन ने अपनी रिवाल्वर निकालकर मैग्जीन चैक की। उसे वापस जेब में डाला।

"पहले मैं जाता हूं बेबी।" महाजन दरवाजा खोलते हुए बोला--- "तुम पांच मिनट बाद आना।"

मोना चौधरी ने सिर हिलाया।

"प्रीतमलाल सफेदपोश गुण्डा है। होटल के अलावा कई धंधे करता है। उसे हल्के से मत लेना।" महाजन कार से बाहर निकलता बोला। फिर दीवार के साथ चक्कर काटता महाजन होटल के प्रवेश गेट की तरफ बढ़ गया।

मोना चौधरी ने रिवाल्वर निकाली और उसे चैक करने लगी।

■■■

नीलू महाजन ने शीशे का दरवाजा धकेलकर भीतर प्रवेश किया। सामने ही जाती एक गैलरी के पास 'बार एंड रेस्टोरेंट' का बोर्ड खड़ा था

महाजन उसी गैलरी की तरफ बढ़ गया। मात्र बारह फीट की वो गैलरी पार की तो महाजन ने खुद को शानदार हॉल में पाया। फर्श कारपेट से ढका हुआ था। छत पर पी.ओ.पी. का बढ़िया डिजाइनदार काम किया हुआ था। दीवारें रंग-बिरंगी थीं। एक तरफ डिजाइनदार बार था। जिसके पार काले कोटों में दो कर्मचारी खड़े थे। एक कोने में फ्लोर था और वहीं पर बैंड वाले भी बैठे थे। जो कि मीठी सी धुन बजा रहे थे। आधे हॉल में टेबलें लगी हुई थीं।

अभी तो शाम शुरू हुई थी। इसलिए ग्राहक कम थे वहां। पंद्रह के करीब लोग होंगे और उनके बीच सफेद कमीज पर काला कोट पहने वेटर आर्डर सर्व करने में व्यस्त थे।

तीन लोग बार काउंटर के पास मौजूद स्टूलों पर बैठे थे। हाथों में गिलास थे।

महाजन ने पचपन बरस के एक आदमी को देखा जिसने कीमती सूट पहन रखा था और बैंड वालों की तरफ से इस तरफ आ रहा था। वो क्लीन शेव्ड था। कनपटियों के बाल काले-सफेद थे और उसके व्यक्तित्व को आकर्षक बना रहे थे। अपनी चाल-ढाल से वो कोई कस्टमर नहीं लग रहा था। वो सीधा बार काउंटर पर पहुंचा। वहां दोनों कर्मचारियों से कुछ कहा फिर टेबल पर बैठे लोगों के पास पहुंचकर, उनसे हंस-हंसकर बातें करने लगा।

ये प्रीतमलाल हो सकता है! महाजन ने सोचा और बार की तरफ बढ़ गया। रास्ते में एक वेटर मिला ।

“सुनो...।" महाजन ने उसे रोका और उस व्यक्ति की तरफ इशारा करते बोला--- "वो साहब कौन हैं?"

“प्रीतम साहब हैं। होटल के मालिक। हर शुक्रवार के शुक्रवार यहां आते हैं।"

महाजन बार काउंटर पर पहुंचा और पेमेंट देकर एक पैग लिया और वहीं खड़े होकर घूंट भरा । नजरें प्रीतमलाल पर थीं, जो कि बेहद शांत भाव से खाली टेबल के साथ रखी कुर्सी पर बैठकर हर तरफ नजरें घुमा रहा था।

तभी दो-तीन ग्राहकों ने और वहां प्रवेश किया।

महाजन गिलास थामे टहलने के अंदाज में आगे बढ़ा और प्रीतमलाल की बगल वाली टेबल पर जा बैठा। साथ ही गहरी निगाहों से प्रीतमलाल को देखा। प्रीतमलाल ने भी उसे देखा और मुस्कराकर बोला--

"मैं इस होटल का मालिक हूं। इस जगह को बेहतर बनाने का आपके पास कोई सुझाव हो तो, बारमैन के पास मौजूद रजिस्टर में आप वो सुझाव लिख सकते हैं। मैं आपका मेहरबान रहूंगा।"

"क्यों नहीं, जरूर...।" महाजन ने मुस्कराकर कहा।

प्रीतमलाल की नजरें पुनः इधर-उधर जाने लगीं।

तभी महाजन ने, गैलरी से मोना चौधरी को वहां पहुंचते देखा।

मोना चौधरी की निगाह महाजन से मिली।

महाजन ने गर्दन से हल्का सा इशारा, बगल की टेबल पर बैठे प्रीतमलाल की तरफ किया।

मोना चौधरी की निगाह प्रीतमलाल पर गई और वो उसकी ही तरफ बढ़ने लगी।

प्रीतमलाल पहले ही मोना चौधरी को देख रहा था। जब उसे अपनी तरफ आते देखा तो हल्के से आंखें सिकुड़ीं।

हाथ जेब में गया और मोबाइल निकालकर नम्बर मिलाने लगा। मोना चौधरी शांत भाव से उसकी तरफ बढ़ रही थी।

नम्बर लगा। प्रीतमलाल ने फोन कान से लगाए कहा।

"वो शायद आ गई लगती है।" कहकर उसने फोन जेब में रखा।

तब तक मोना चौधरी पास आ ठिठकी थी।

“मुझे देखते ही तुमने किसी को फोन किया।” मोना चौधरी बोली--- "जाहिर है कि मुझे पहचानते हो।"

"मैं तुम्हें नहीं पहचानता।” प्रीतमलाल ने इनकार में सिर हिलाया ।

“पक्का...?" मोना चौधरी मुस्कराई।

"हां, मैं तुम्हें नहीं जानता।"

"तुम प्रीतमलाल हो?" मोना चौधरी बोली।

"मैं यहां का मालिक हूं और मुझे जान लेना कोई बड़ी बात नहीं।” प्रीतमलाल ने मुस्कराकर कहा--- "अपने होटल में, बार में मैं आपका स्वागत करता हूं, मैडम। आपकी शाम यादगार रहे।” कहकर प्रीतमलाल ने उठना चाहा।

"बैठे रहो।"

प्रीतमलाल ठिठका। होंठ सिकुड़े। नजरें मोना चौधरी पर ही रहीं।

"मैं समझा नहीं मैडम...?"

"रीटा चोपड़ा कहां है?" मोना चौधरी का स्वर कुछ सख्त हुआ।

"कौन रीटा चोपड़ा? तुम कौन हो जो...?"

“प्रीतमलाल, तुम अच्छी तरह जानते हो कि मैं कौन हूं।" मोना चौधरी बोली।

"मैं तुम्हें नहीं जानता...।"

“ठीक है। मैं मोना चौधरी हूं। अब बोलो, कहां है रीटा चोपड़ा और...।"

"मैं किसी मोना चौधरी को नहीं जानता और न ही रीटा... ।”

मोना चौधरी ने रिवाल्वर निकाली और उसकी तरफ कर दी।

प्रीतमलाल की आंखें सिकुड़ीं।

"तुम्हारे आदमी मेरा पीछा कर रहे थे और तुम कहते हो मुझे जानते नहीं । तुम कहते हो कि रीटा चोपड़ा को भी नहीं जानते...।"

प्रीतमलाल के होंठ भिंचने लगे।

"ये रिवाल्वर मैंने दिखाने के लिए नहीं...चलाने के लिए निकाली है। अगर तुमने रीटा चोपड़ा को मेरे हवाले नहीं किया तो...। मेरे पास पक्की खबर है कि रीटा चोपड़ा तुम्हारे पास ही है। मैंने चार दिन लगाए हैं, सब बातों को जानने में अगर तुमने इन्कार किया तो मरोगे।" मोना चौधरी का स्वर सख्त था।

“मोना चौधरी हो तुम?" प्रीतमलाल भिंचे स्वर में बोला ।

"हां।"

"इश्तिहारी मुजरिम मोना चौधरी...।”

“मेरे बारे में काफी जानकारी है तुम्हारे पास।” मोना चौधरी ने कड़वे स्वर में कहा।

"मेरा-तुम्हारा कोई मतलब नहीं है। हम दोनों के रास्ते जुदा-जुदा हैं। चली जाओ यहां से।"

"रीटा चोपड़ा को तलाश करने के लिए मैंने उसके पिता ओम चोपड़ा से ढाई करोड़ लिया है। अब तुम समझ गए होगे कि रीटा चोपड़ा को वापस लिए बिना मैं वापस जाने वाली नहीं। मैं जान चुकी हूं कि रीटा तुम्हारे ही पास...।"

मोना चौधरी के शब्द होंठों में रह गए।

उसकी कमर से रिवाल्वर की नाल आ लगी थी।

प्रीतमलाल को उसने मुस्कराते देखा।

मोना चौधरी ने आसपास नजरें घुमाईं। एक ने उसके साथ रिवाल्वर सटा रखी थी। तीन अन्य आदमी जेबों में हाथ डाले पास ही खड़े थे। उनमें से एक आदमी आगे बढ़ा और मोना चौधरी के हाथ से रिवाल्वर ले ली।

ये होते देख, दांत भिंच गए थे मोना चौधरी के ।

"तो तुमने मुझे देखते ही, इन लोगों को फोन किया था।"

"हां।" कुर्सी पर बैठा प्रीतमलाल शांत और कड़वे स्वर में बोला--- "मुझे खबर लग चुकी थी कि तुम रीटा को ढूंढ रही...।"

"तो ये जानकर तुम्हें डर नहीं लगा कि....।"

"मैं डरने वालों में से नहीं हूं। ये सब मामूली बात है मेरे लिए । बेशक तुम अण्डरवर्ल्ड की नामी हस्ती हो, लेकिन मैं भी कम नहीं...।"

तभी महाजन उठा और बिजली की सी तेजी से आगे बढ़कर प्रीतमलाल की कनपटी पर रिवाल्वर रख दी।

प्रीतमलाल बुरी तरह चौंका।

वहां खड़े आदमी भी सतर्क हुए।

महाजन झुकते हुए प्रीतमलाल के कान में फुसफुसाया---

"रिवाल्वर वापस उसे दे दो और अपने आदमियों को यहां से भेज दो।"

प्रीतमलाल ने खा जाने वाली निगाहों से मोना चौधरी को देखा।

मोना चौधरी दांत भींचे उसे ही देख रही थी।

"जल्दी करो।" महाजन फुसफुसाया--- "वरना ट्रेगर दबते ही गोली इधर से अन्दर जाएगी और सिर के उधर से बाहर निकलेगी।"

"इसे रिवाल्वर वापस दो।" प्रीतमलाल ने फंसे स्वर में कहा।

मोना चौधरी की रिवाल्वर वापस दे दी गई।

"अपने आदमियों को वापस भेज दो।" महाजन पुनः फुसफुसाया।

"तुम सब लोग जाओ।" प्रीतमलाल ने कहा।

मोना चौधरी की कमर से रिवाल्वर हट गई।

वो चारों व्यक्ति वहां से चले गए।

महाजन ने उसके सिर से रिवाल्वर हटाई और वहीं, प्रीतमलाल के पास कुर्सी पर बैठ गया। रिवाल्वर हाथ में रही।

मोना चौधरी ने रिवाल्वर जेब में रखी और कुर्सी खींचकर बैठती कह उठी---

“तुमने गलत सोचा कि मेरा मुकाबला कर लोगे।" मोना चौधरी ने खतरनाक स्वर में कहा।

प्रीतमलाल ने होंठ भींचे महाजन को देखा, फिर बोला---

"तुम नीलू महाजन हो?"

"हां! और बारमेन के पास मौजूद सुझाव पुस्तिका में ये बात अवश्य लिखूंगा कि जो आदमी रिवाल्वर जेब में रखकर अपने होटल की सजावट में व्यस्त होगा, वहां ग्राहक नहीं, हम जैसे लोग ही आते रहेंगे। मुझे हैरानी है कि तुम्हारा होटल अब तक बंद क्यों नहीं हो गया...।"

प्रीतमलाल जला-भुना बैठा रहा। कभी मोना चौधरी को देखता तो कभी महाजन को।

"रीटा कहां है?" मोना चौधरी ने कठोर स्वर में पूछा।

प्रीतमलाल होंठ भींचे मोना चौधरी को देखने लगा।

"बेटे!" महाजन कड़वे स्वर में कह उठा--- "मेरा रिवाल्वर वाला हाथ टेबल के नीचे हैं। किसी भ्रम में मत रहना। अभी गोली निकलेगी और तेरे आगे से घुसकर पीछे से, बाहर निकलेगी। उसके बाद... !"

"ये रीटा का और मेरे बेटे गोपाल का मामला है।" प्रीतमलाल बोला ।

"वो कैसे?"

"दोनों एक-दूसरे को प्यार करते हैं। शादी करना चाहते हैं।"

"तो तूने जबरन रीटा को नहीं रखा हुआ...।”

"नहीं...।"

“चल दिखा मुझे। अगर तेरी बात सच है तो मैं इस मामले से निकल जाऊंगी।"

"दिखाना क्या हैं, मैंने कहा तो...।"

"रीटा से बात करूंगी। तेरी बात का मुझे कोई भरोसा नहीं।" मोना चौधरी कह उठी--- "कहां है रीटा?"

प्रीतमलाल के होंठ भिंच गए।

"ये आगे से गोली खाएगा। हरामी है... मारूं बेबी ?" महाजन गुर्राया।

"रीटा यहां नहीं है। मेरे बेटे गोपाल के साथ है कहीं पर... ।"  प्रीतमलाल कह उठा ।

"तो वहीं चल। उठ... खड़ा हो।" महाजन ने दांत भींचकर कहा।

प्रीतमलाल अनिच्छा से खड़ा हो गया।

■■■

महाजन कार चला रहा था।

मोना चौधरी और प्रीतमलाल पीछे वाली सीट पर बैठे थे। पौन घंटे के सफर के बीच प्रीतमलाल से कोई बात नहीं हुई थी। वो बार-बार बेचैनी से पहलू बदलता रहा था।

प्रीतमलाल के कहने पर एक बंगले के बाहर ही महाजन ने कार रोकी।

तीनों कार से बाहर निकले।

"इसी बंगले में हैं रीटा और गोपाल ।” प्रीतमलाल ने उखड़े स्वर में कहा--- "तुम इस मामले में मत आओ मोना चौधरी...।"

"रीटा के पास चल... ।" मोना चौधरी ने कठोर स्वर में कहा।

तीनों बंगले के गेट के पास पहुंचे। दरबान ने प्रीतमलाल को देखते ही गेट खोल दिया।

वे बंगले के भीतर पहुंचे।

मोना चौधरी और महाजन, प्रीतमलाल से सतर्क थे कि वो कोई गड़बड़ न करे। बंगले में नौकर वगैरह ही दिखे।

"कहां है?" मोना चौधरी गुर्राई ।

"ऊपर।"

तीनों सीढ़ियां चढ़कर पहली मंजिल पर पहुंचे और फिर एक कमरे में प्रवेश कर गए। महाजन का हाथ जेब में, रिवाल्वर पर था। कमरे में अट्ठाइस बरस का एक युवक और 21-22 की एक युवती थी। ।

युवती का चेहरा उतरा हुआ था। वो सहमी और डरी लग रही थी।

“ये कौन हैं पापा ?" युवक ने प्रीतमलाल से पूछा। नजरें मोना चौधरी और महाजन पर थीं।

प्रीतमलाल के होंठ भिंचे रहे।

“तुम।” मोना चौधरी युवती की तरफ बढ़ी--- “रीटा हो, रीटा चोपड़ा? मैंने तुम्हारी फोटो देखी थी...।”

युवती ने भयभीत नजरों से मोना चौधरी को देखा।

“मुझसे डरो मत। तुम्हारे पापा के कहने पर मैं तुम्हें तलाश कर रही थी। तुम्हें लेने आई हूं...।" मोना चौधरी ने प्यार से कहा।

रीटा फफक पड़ी।

मोना चौधरी के होंठ भिंच गए। वो उसके सिर पर हाथ फेरकर बोली---

“तुम यहां अपनी मर्जी से हो?" मोना चौधरी ने कहा।

"नहीं...।" रीटा रोते हुए बोली--- “गोपाल ने मुझे कैद कर रखा...।"

"क्या कह रही हो रीटा ?" गोपाल कह उठा, फिर प्रीतमलाल से बोला--- “ये क्या हो रहा है पापा, ये दोनों...।"

"तुम चुप रहो।" महाजन ने कठोर स्वर में कहा और रिवाल्वर निकाल ली।

गोपाल समझ गया कि मामला गड़बड़ है।

"ये दोनों एक-दूसरे से प्यार करते थे मोना चौधरी...।" प्रीतमलाल बोला--- "ये इनका आपसी मामला...।"

"पहले मुझे नहीं पता था कि गोपाल बदमाश है।" रीटा ने सुबकते हुए कहा--- "बाद में पता चला कि इस पर दो बलात्कार के केस चल रहे हैं...तो मैंने इसे छोड़ देना चाहा। परन्तु इसने मुझे यहां कैद कर लिया। ये चाहता है मैं इससे शादी कर लूं...।"

"चिन्ता मत करो।” मोना चौधरी ने प्यार से कहा--- “अब तुम आजाद हो और...।"

तभी गोपाल महाजन पर झपट पड़ा। उससे रिवाल्वर छीनने की चेष्टा करने लगा।

महाजन और गोपाल आपस में भिड़ गए।

“पापा! मैं रीटा को नहीं जाने दूंगा। शादी करूंगा इससे...।" गोपाल चीखा।

मोना चौधरी के माथे पर बल आ गए।

प्रीतमलाल ने तेजी से अपना हाथ जेब में डाला था।

"रुक जाओ प्रीतमलाल... ।" मोना चौधरी का हाथ बेहद तेजी से अपनी जेब में पड़ी रिवाल्वर की तरफ बढ़ा।

"तुमने इस मामले में दखल देकर, बहुत बड़ी गलती की है मोना चौधरी...।" प्रीतमलाल ने गुर्राकर कहते हुए रिवाल्वर निकाली।

तब तक रिवाल्वर निकालकर आनन-फानन मोना चौधरी ने ट्रेगर दबा दिया।

गोली प्रीतमलाल के कंधे पर जा लगी।

प्रीतमलाल गला फाड़कर चीखा। रिवाल्वर उसके हाथ से छूट गई। कंधा थामकर वो नीचे बैठता चला गया।

“पापा... ।” गोपाल, महाजन को छोड़कर प्रीतमलाल की तरफ लपका--- “ये क्या हुआ पापा ?"

रीटा सहमकर मोना चौधरी के पीछे जा छिपी थी।

पीड़ा से प्रीतमलाल का चेहरा लाल हो चुका था।

"तुझे जिन्दा छोड़ के जा रही हूं प्रीतमलाल !” मोना चौधरी ख़तरनाक स्वर में बोली--- "समझदार होगा तो फिर कभी मेरे रास्ते में नहीं आएगा... और रीटा को तेरा बेटा भूल जाएगा। अगर रीटा को फिर कभी कुछ हुआ तो ये मेरा व्यक्तिगत मामला बन जाएगा और मैं तुझे और तेरे बेटे, दोनों को कुत्ते की मौत मारूंगी।" मोना चौधरी ने रिवाल्वर जेब में रखी और रीटा का हाथ थाम लिया।

महाजन दांत भींचे गोपाल को देख रहा था।

"ये सब क्या हो रहा है पापा।" गोपाल चीखा--- "ये लोग कौन हैं जो...।"

तभी महाजन की ठोकर गोपाल की पीठ पर पड़ी तो वो चीखकर फर्श पर लुढ़कता चला गया।

मोना चौधरी, रीटा का हाथ थामे दरवाजे से बाहर निकल गई।

"रीटा....।" गोपाल तड़पकर चीखा।

"थोबड़ा बंद कर ले हराम के...।" महाजन गुर्राया--- "अगली बार तेरी खोपड़ी खोलूंगा।" इसके साथ ही वो भी बाहर निकल गया।

■■■

अगले दिन मोना चौधरी गहरी नींद के पश्चात फोन बजने पर उठी।

"हैलो...।"

"तुमने मेरी बेटी को वापिस ला दिया मोना चौधरी।” ओम चोपड़ा की आवाज कानों में पड़ी--- "मैं दिल से तुम्हारा शुक्रिया...।"

"ढाई करोड़ लिया है इस काम का मैंने। शुक्रिया अदा करने की जरूरत नहीं।" कहने के साथ ही मोना चौधरी ने फोन बंद करके एक तरफ रखा और किचन में पहुंचकर कॉफी बनाई और घूंट भरते हुए वापस कमरे में, कुर्सी पर आ बैठी।

चेहरे पर सोचें दौड़ रही थीं।

एक घंटे बाद मोना चौधरी तैयार हुई और बाहर जाने के लिए, तैयार थी। कार्टराई की पैंट, ऊपर नीली जींस की कमीज। खुले, संवरे बाल। पांवों में 'मोडे' के सफेद जूते और सदाबहार खूबसूरत चेहरा तो उसके पास था ही।

उसी पल मोबाइल बजने लगा।

"हैलो...।"

“मोना चौधरी।” मर्दाना आवाज उसके कानों में पड़ी--- "हमारी 'डील' का क्या हुआ?"

"मैं तुम्हारे ही पास आ रही थी तलधार...।" मोना चौधरी कह उठी

"मैंने सोचा, तुम मुझे भूल गई...।"

"ऐसा कैसे हो सकता है। हमारी 'डील' फाइनल हो चुकी है। काम तो अब निपटाना ही होगा।"

"मैं इंतजार कर रहा हूँ...!"

मोना चौधरी ने फोन बंद किया और उसे जेब में रखकर, टेबल का नीचे वाला ड्राअर खोला और रिवाल्वर निकालकर जेब में रखी और फिर दरवाजे की तरफ बढ़ गई।

बाहर निकली। दरवाजा लॉक किया और सीढ़ियों की तरफ बढ़ गई।

कुछ ही मिनटों बाद कार पर अपनी सोसायटी के गेट से बाहर निकल रही थी।

दिन के ग्यारह बज रहे थे।

अभी दो-तीन किलोमीटर ही आगे गई होगी कि एकाएक वातावरण तड़... तड़... तड़... की आवाजों से गूंज उठा। कई गोलियां उसकी कार की बॉडी में आ धंसीं । दो गोलियां कार के भीतर, मोना चौधरी के पैरों के पास पहुंची।

मोना चौधरी चौंकी।

गन से उस पर गोलियां चलाई गई थीं।

मोना चौधरी ने उसी पल स्टेयरिंग मोड़ दिया। साथ ही उस काली वैन को देखा। जिसका शीशा खुला था और एक चेहरे के साथ गन की नाल चमकती दिखाई दे रही थी।

मोना चौधरी की कार फुटपाथ से टकराकर रुक गई थी।

मोना चौधरी को तीव्र झटका लगा।

मोना चौधरी के हाथ में रिवाल्वर नजर आने लगी।

तभी तड़... तड़... तड... की आवाज पुनः गूंज उठी।

मोना चौधरी फुर्ती के साथ स्टेयरिंग और सीट के बीच जा दुबकी। दांत भिंच चुके थे उसके। खूबसूरत चेहरा दरिन्दगी भरे भावों की वजह से लाल हो चुका था। चंद पल बीत गए। शान्ति रही।

मोना चौधरी जानती थी कि इस वक्त उसकी हालत पिंजरे में कैद पंछी की तरह हो चुकी है। कार में देर तक रहना मौत को दावत देना है। इसी पल मोना चौधरी ने सिर ऊपर किया और बाहर देखा।

बाहर एक-दो वाहन खड़े दिखाई दिए। वो हैरानी से मोना चौधरी की कार की तरफ देख रहे थे।

तभी मोना चौधरी की निगाह कुछ आगे सड़क पर पड़ी। वो काली वैन वापस आने के लिए बैक हो रही थी।

मोना चौधरी ने मौके का फायदा उठाया और कार का दरवाजा खोलकर बाहर आ गई। काली वैन बैक हो चुकी थी और अब वापस आ रही थी। उसके पास रिवाल्वर थी। वैन वालों के पास गन थी। मुकाबला बराबर का न था। एकाएक मोना चौधरी फुटपाथ के साथ लगी, कच्ची-पक्की दीवार की तरफ दौड़ी। वो किसी खाली पड़े प्लॉट की दीवार थी। कुछ सलामत कुछ टूटी हुई।

तब तक वैन पास आ चुकी थी।

तड़... तड़... तड़! एक बार फिर गोलियों की बौछार उस पर की गई।

परन्तु तब तक मोना चौधरी रिवाल्वर थामे, प्लॉट के भीतर, दीवार फलांगती छलांग लगा चुकी थी।

नीचे गिरते ही लुढ़कती चली गई मोना चौधरी। अगले ही पल तुरंत संभली और घुटनों के बल बैठते हुए, दोनों हाथों में रिवाल्वर उठाए, दबाये, दीवार की तरफ ताने, वैसे ही बैठी रही। चेहरे पर खतरनाक भाव आ चुके थे। आंखों में दरिन्दगी नाच रही थी। दांत भिंचे हुए थे। ये मौत और जिन्दगी का सवाल था ।

उसी मुद्रा में रही मोना चौधरी। घुटनों के बल बैठी। दोनों हाथों में दबी रिवाल्वर का रुख, दीवार की तरफ।

ज्यादा इंतजार न करना पड़ा।

दो आदमी भागते हुए दीवार के पास आ पहुंचे।

एक के हाथ में गन थी, दूसरे के पास रिवाल्वर । उन्होंने दीवार के भीतर प्लॉट में झांकना चाहा।

तभी उनकी निगाह ठीक सामने पोजीशन लिए मौजूद मोना चौधरी पर पड़ी।

उन्होंने मोना चौधरी पर गोलियां चलानी चाहीं, परन्तु मोना चौधरी ने उन्हें मौका न दिया ।

'धांय... धांय... ।'

दो बार ट्रेगर दबाया मोना चौधरी ने।

एक के चेहरे पर गोली लगती देखी। दूसरे के गले पर। वे नीचे जा गिरे थे।

मोना चौधरी फुर्ती से उठी और दीवार के पास जा पहुंची। दीवार से सटकर बैठ गई। रिवाल्वर हाथ में थी। वो जानती थी कि तीसरा भी होगा। शायद चौथा भी हो।

वहीं दीवार के साथ लगी सिमटी सी उसी प्रकार बैठी रही।

कई पल, फिर दो मिनट बीते।

दीवार के उस पार होती हलकी सी आहट मोना चौधरी ने सुनी।

सतर्क हो गई मोना चौधरी। आंखों में वहशी चमक आ ठहरी।

कुछ पल और बीते कि गन की नाल की झलक दीवार के पास मिली। गन वाला उस प्लॉट में उसे देखने का प्रयत्न कर रहा था। परन्तु न नजर आने पर उसका कुछ हौसला बढ़ा। मोना चौधरी ने गन की नाल थोड़ा और आगे होते और फिर उस व्यक्ति को सिर आगे करके प्लॉट में झांकते देखा।

उसी पल दीवार के साथ लगी मोना चौधरी झपटी और उसकी गन को नाल से पकड़कर नीचे किया और हाथ में दबी रिवाल्वर उसकी छाती पर रख दी।

वो हक्का-बक्का रह गया।

“हिलना मत...।” मोना चौधरी गुर्राई ।

उसने सूखे होठों पर जीभ फेरी।

"बोल, मामला क्या है?" मोना चौधरी ने भिंचे स्वर में कहा।

उसका चेहरा फक्क पड़ गया।

"किसने भेजा है?"

"म... मुझे मत मारना...।" वो कांपते स्वर में कह उठा।

"भेजा किसने है तुम्हें, मुझे मारने के लिए?" मोना चौधरी के होठों से मौत भरा स्वर निकला।

"प्री... प्रीतमलाल ने...।"

'धांय...।' उसी पल मोना चौधरी के ट्रेगर दबाते ही नाल से गोली निकली और उसकी छाती में प्रवेश कर गई।

वो किसी कटे पेड़ की तरह पीछे की तरफ जा गिरा।

मोना चौधरी ने सामने खड़ी काली वैन पर नजर मारी। वो खाली सी खड़ी लग रही थी। मोना चौधरी दीवार फलांगकर बाहर आई और हाथ में रिवाल्वर थामे वैन की तरफ बढ़ गई।

ये सब देखने वाले लोग सहमे से खड़े देख रहे थे।

मोना चौधरी ने वैन के पास पहुंचकर सावधानी से भीतर झांका।

वो खाली थी।

मोना चौधरी ने रिवाल्वर जेब में रखी और तेजी से आगे बढ़ती चली गई। कार वहीं छोड़ दी थी उसने। वो उसके नाम से रजिस्टर्ड नहीं थी और गोलियों ने कार में ऐसे छेद बना दिए थे कि बुरा हाल हो चुका था उसका।

■■■

शाम 4 बजे ।

मोना चौधरी के होठों पर छोटी सी मूंछें नजर आ रही थीं। वो पैंट, कमीज और जैकिट में थी। छातियों को कसकर बांध रखा था। उभार न के बराबर दिख रहे थे। बाकी जैकिट ने मामला छिपा लिया था और सर पर कैप डाल रखी थी। जिसमें सिर के लम्बे बाल छिपे थे। इस वक्त वो कम उम्र का नवयुवक लग रही थी। पर साईकिल पर थी और एक थैला हैंडिल पर लटका रखा था। कैरियर पर दो पैकिट फंसे थे ।

इसी तरह वो साइकिल पर एक बंगले के सामने पहुंची। साइकिल को स्टैंड पर लगाया और थैले से रिसीविंग स्लिप, पैन और फिर कैरियर से एक पैकिट निकालकर बंगले के गेट पर जा पहुंची। वहां पर पहले से ही खड़े दो गनमैन, उसे ही देख रहे थे। मोना चौधरी पैकिट पर लिखे एड्रेस पर नजर मारती कह उठी---

"प्रीतमलाल कौन है?" आवाज में मर्दानापन भर लिया था।

"हमारे सेठ जी हैं। लाओ... क्या है?"

"कोरियर से पैकिट आया है।" मोना चौधरी ने कहा--- “दुबई से। वो पैकिट सेठ जी को ही देना है।"

"हमें दे दो। हम ही लेते हैं कोरियर...।" एक दरबान ने कहा।

"भेजने वाले ने इस पर नोट लिखा है कि ये प्रीतमलाल के हाथों में दिया जाए।"

"सेठ जी बीमार हैं। हमें दे दो...।"

“ठीक है। पैकिट मैं वापस भेज देता हूं।" कहकर मोना चौधरी पलटी।

"ठहरो...।" दूसरे गनमैन ने कहा।

मोना चौधरी घूमी और दोनों गनमैनों को देखा।

"तुम रुको, मैं सेठ जी से इन्टरकॉम पर बात करता हूं।" कहकर उसने गेट का विकेट गेट खोला और भीतर चला गया।

गेट के भीतरी तरफ लकड़ी का केबिन बना नजर आ रहा था।

तभी मोना चौधरी का फोन बजने लगा।

मोना चौधरी वहां से चार कदम दूर हटी और धीमे स्वर में कॉल रिसीव की।

"हैलो...।"

“मोना चौधरी, मैं ओम चोपड़ा... ।”

"बात बोलो... क्यों फोन किया?"

"अभी, गोपाल का फोन आया था। वो धमकी दे रहा था कि अगर मैंने रीटा की शादी उससे न की तो वो हम दोनों को मार देगा।"

मोना चौधरी के चेहरे पर खतरनाक मुस्कान नाची ।

"कुछ करो मोना चौधरी, वरना वो...।"

"निश्चिंत हो जाओ।" मोना चौधरी ने कहा--- “अब उसका फोन नहीं आएगा।"

"लेकिन...।" उधर से ओम चोपड़ा ने कहना चाहा।

“अब वो तुम्हें फोन नहीं करेगा।" मोना चौधरी ने कहा और फोन बंद करके वापस रखा और गेट के पास आ गई।

तब तक भीतर गया गनमैन बाहर आ गया था।

"चलो सेठ जी के पास...।" उसने मोना चौधरी से कहा।

“चलो जी...।" मोना चौधरी कहकर आगे बढ़ी।

वो गनमैन, मोना चौधरी को साथ लिए बंगले में प्रवेश कर गया।

आगे बढ़ते हुए मोना चौधरी की निगाह हर तरफ जा रही थी।

बंगले के भीतर कोई गनमैन नहीं दिखा। नौकर अवश्य थे।

गनमैन उसे अपने साथ बंगले की बैकसाइड में बने एक कमरे में ले गया। बंद दरवाजे के सामने पहुंचकर ठिठका।

उसने दरवाजा खटखटाया तो भीतर से एक औरत की आवाज आई।

"आ जाओ...।"

दरबान ने दरवाजा खोला और मोना चौधरी से बोला--- “जाओ भीतर...।"

मोना चौधरी पैकिट और रिसीविंग स्लिप पकड़े भीतर प्रवेश कर गई।

बाहर से गनमैन ने दरवाजा बंद कर दिया।

भीतर प्रवेश करते ही मोना चौधरी ठिठकी। ये शानदार बेडरूम था। बेडरूम को सजाने में भरपूर मेहनत की गई थी।

कमरे में मध्यम रोशनी । दीवारों पर पेंटिंग्स। फर्श पर नर्म गद्देदार कालीन। छत पर पी.ओ.पी. और छोटा सा फानूस ।

प्रीतमलाल सामने ही बेड पर अधलेटा सा था। कंधे पर बैंडेज थी और गले में पट्टी बांधकर बांह उसमें फँसाई हुई थी। टांगों पर चादर ले रखी थी। कमरा ठंडा था और ए.सी. चल रहा था। पास ही कुर्सी पर पचास बरस की औरत बैठी थी। वो यकीनन प्रीतमलाल की पत्नी थी।

"कोरियर तुम गेट पर भी दे सकते थे...।" प्रीतमलाल ने नाराजगी से कहा।

मोना चौधरी ने आगे बढ़कर पैकिट बेड पर रखा और रिवाल्वर निकाल ली।

प्रीतमलाल चौंका।

वो औरत भी हड़बड़ाई ।

"कैसे हो प्रीतमलाल ?" मोना चौधरी अपनी आवाज में बोली।

"त... तुम... मोना चौधरी...।" प्रीतमलाल हक्का-बक्का रह गया।

"तो तुमने क्या सोचा कि तुम्हारे आदमियों ने मुझे मार दिया?" मोना चौधरी दरिन्दगी से कह उठी।

प्रीतमलाल का मुंह खुला का खुला रह गया। आंखों में खौफ उछालें मारने लगा।

"मैंने तुम्हें कल कहा था कि दोबारा कभी मेरे रास्ते में न आना, परन्तु आज तुमने मेरी जान लेने... ।”

"मेरी बात तो सुनो, मैं...मैं...।"

तभी ट्रेगर पर रखी मोना चौधरी की उंगली हिली।

तेज धमाका हुआ और गोली प्रीतमलाल के खुले मुंह में जा धंसी ।

ये देखते ही वो औरत गला फाड़कर चीख उठी।

"पति की मौत पर इतना ज्यादा दुख होना था तो इसे अच्छे रास्ते पर डालती।" मोना चौधरी गुर्रा उठी।

तभी दरवाजा खोलते हुए गनमैन ने हड़बड़ाये अंदाज में भीतर प्रवेश किया।

मोना चौधरी घूमी और उसकी टांग पर गोली मारी। वो चीख उठा। गन हाथ से छूट गई और वो नीचे जा गिरा। मोना चौधरी उस औरत की तरफ पलटी और दरिन्दगी से कह उठी---

"तूने तो अपने बेटे को भी गलत रास्ते पर डाल रखा है।”

"ये तुमने क्या कर दिया... मेरे पति को मार... ।”

मोना चौधरी आगे बढ़ी और उसके सिर पर रिवाल्वर की नाल रख दी।

औरत एकाएक दहशत में घिर गई और चुप हो गई।

“गोली मारूं?" मोना चौधरी ने दांत किटकिटाये।

“न... हीं...।" औरत का पूरा शरीर कांप रहा था।

"गोपाल का मोबाइल नम्बर बता।"

औरत ने जल्दी से बताया।

उसके बाद मोना चौधरी ने उसकी कनपटी पर रिवाल्वर की नाल से चोट की।

वो बेहोश होकर, कुर्सी से नीचे जा लुढ़की।

दांत भींचे मोना चौधरी फर्श पर पड़े, कराहते गनमैन की तरफ पलटी और जेब से फोन निकालते बोली---

"नई नौकरी ढूंढ लेना...।"

"तुम... तुम कौन हो। लड़का या लड़की?" पीड़ा में तड़पता वो हैरानी से कह उठा।

"चुपचाप पड़ा रह... ।” मोना चौधरी गोपाल का नम्बर मिलाते कह उठी।

गनमैन की हिम्मत कहां थी कुछ कहने की! जिसकी नौकरी करता था, वो तो सामने मरा पड़ा था।

फोन लग गया। गोपाल की आवाज कानों में पड़ी।

"हैलो...।"

"गोपाल...।" मोना चौधरी ने मीठे किन्तु धीमे स्वर में कहा।

"कौन ?”

"रीटा... ।” फुसफुसाये स्वर में आवाज पहचाने जाने का खतरा नहीं था।

“री... रीटा।" उधर से गोपाल हड़बड़ाया सा कह उठा--- "ओह मेरी जान... तुम...।"

"मैं तुमसे शादी कर लूंगी। परन्तु उससे पहले तुमसे कुछ बात करना चाहती...।”

“हां... हां कहो। तुम्हारे बिना मेरा मन नहीं...।"

“मुझसे मिलो। बोलो, कहां मिलोगे?"

खुशी में डूबे गोपाल ने बताया कि वो कहां मिलेगा।

“मैं आ रही हूं। वहीं पर रहना और मेरा इंतजार करना।" मोना चौधरी ने कहा और फोन बंद करके जेब में रखा।

घायल गनमैन हैरानी से मोना चौधरी को देखे जा रहा था।

"तू क्या देख रहा है भूतनी के? आंखें बंद कर...।" मोना चौधरी ने कड़वे स्वर में कहा और दरवाजे की तरफ बढ़ गई।

■■■

मोना चौधरी टाऊन हॉल की पार्किंग में पहुंची। वहां पार्क किये गये वाहनों की लम्बी कतारें लगी थीं। गोपाल को तलाश करने में उसे कोई परेशानी नहीं हुई। वो एक कार से टेक लगाए खड़ा था। जब मोना चौधरी पीछे से उसके पास पहुंची।

"हैलो...।" मोना चौधरी ने कड़वे स्वर में कहा।

गोपाल चिहुंककर पलटा ।

मोना चौधरी को सामने पाकर वो हक्का-बक्का रह गया।

“तुम?”

“रीटा ने मुझे भेजा है। तुम्हारी कार किधर है? उसमें बैठकर बातें करते हैं।" मोना चौधरी का लहजा तीखा था।

"लेकिन रीटा... ।"

"वो फोन रीटा ने नहीं, मैंने किया था। कार में बैठो। बात करनी है।" मोना चौधरी ने सपाट स्वर में कहा। 

गोपाल, मोना चौधरी को उलझन भरी निगाहों से देखता, दरवाजा खोलकर कार के भीतर जा बैठा।

मोना चौधरी खुली खिड़की के पास पहुंची और रिवाल्वर निकालकर हाथ में ले ली ।

गोपाल, रिवाल्वर को देखते ही घबरा उठा।

“ये तुम क्या कर रही...।"

“कल मैंने तेरे को समझाया था कि रीटा के रास्ते से हट जाना ?" मोना चौधरी गुर्राई ।

"मैंने क्या किया है? तुमने ही तो फोन करके मुझे यहां.... ।"

“तूने रीटा के बाप को फोन करके धमकी दी कि वो रीटा की शादी तेरे से कर दे, दी कि नहीं?"

"वो... वो मैंने यूं ही...।"

तभी ट्रेगर पर टिकी, मोना चौधरी की उंगली हिली।

तेज धमाका हुआ और गोली उसके सिर में प्रवेश करती चली गई। वो एक तरफ लुढ़क गया।

"उल्लू का पट्ठा... ।” मोना चौधरी बड़बड़ाई और रिवाल्वर जेब में डालकर पलटी और बाहर की तरफ बढ़ गई ।

तभी सामने से हड़बड़ाया सा पार्किंग अटेंडेंट आता दिखा।

"सुनो।" वो तेज स्वर में मोना चौधरी से बोला--- “ये धमाका कहां हुआ ?"

"पता नहीं।" मोना चौधरी रुकी नहीं। आगे बढ़ती रही।

“यहीं, पार्किंग में हुआ है। मैं देखता हूं...।” कहता हुआ वो आगे बढ़ता चला गया।

मोना चौधरी पार्किंग से बाहर निकलती चली गई।

■■■

रात का डेढ़ बज रहा था।

पारसनाथ सामान्य गति से कार ड्राइव करता अपने घर की तरफ जा रहा था। आज एक पुराने दोस्त की बर्थ-डे पार्टी में जाना पड़ गया था। अब वहीं से लौट रहा था। चूंकि पार्टी मर्दों की थी, इसलिए सितारा को साथ नहीं ले गया था। सितारा का छः बार फोन आ गया था कि वो घर कब आ रहा है। ऐसे में पारसनाथ जल्द ही सितारा के पास पहुंच जाना चाहता था। इस वक्त सड़कों पर बहुत कम ट्रेफिक था। इक्का-दुक्का वाहन ही नजर आ रहे थे।

एक मोड़ पर पारसनाथ ने गाड़ी मोड़ी।

अगले ही पल हड़बड़ा सा उठा। होंठ भिंच गए।

सामने से, तेज रफ्तार रांग साइड एक कार आ रही थी। जो कि सिर पर आ चुकी थी। बचने का भी रास्ता न बचा था।

फिर भी पारसनाथ ने बचने की खातिर कार को फुर्ती से मोड़ा कि उस कार के रास्ते से हट जाए।

परन्तु तभी 'धड़ाम' से कार, उसकी कार से आ टकराई।

पारसनाथ को तीव्र झटका लगा। उसकी कार उलटते-उलटते बची।

वो कार डेढ़ फीट तक, साइड से पारसनाथ की कार में आ धंसी थी। पारसनाथ की किस्मत अच्छी थी कि जो सलामत बचा रह गया। कार में वो दब सा गया था। वो बाहर निकलने का प्रयत्न करने लगा। दूसरी कार से आवाजें आनी शुरू हो गई थीं।

जैसे-तैसे कार के दूसरे दरवाजे से पारसनाथ बाहर निकला। इस कोशिश में पूरा सूट खराब हो गया था। उसे गुस्सा आ रहा था दूसरी कार वालों पर। पारसनाथ ने दूसरी कार की तरफ देखा। उसके दरवाजे खुलने शुरू हो गए थे। देखते ही देखते चार युवक बाहर निकले। चारों तगड़े नशे में लग रहे थे। दो ने अभी भी बोतल थाम रखी थी।

“साला कौन है?" एक युवक ने नशे में लरजती आवाज में कहा।

“साले ने गाड़ी ठोक दी !” दूसरा बोला।

तीसरे ने रिवाल्वर निकाली और पारसनाथ की कार पर दो फायर कर दिए।

पारसनाथ के माथे पर बल पड़े। युवक नशे में ही नहीं थे, हथियार का भी इस्तेमाल कर रहे थे।

पारसनाथ कार के साथ घूमा और सामने आ गया।

“यही है साला, जो कार चला रहा था।" चौथा चीखा--- "मैंने देखा था।"

"तुम लोग तगड़े नशे में हो और रांग साइड पर कार चला रहे थे...।" पारसनाथ ने कहा।

हाथ कोट की बाहरी जेब में डाला।

"देखा!" रिवाल्वर वाला गुर्रा उठा--- "एक तो टक्कर मारता है, दूसरा हमें नशे में कहता है।"

"हम नशे में नहीं हैं।"

"मारो हरामी को... चला गोली।"

रिवाल्वर वाले ने हाथ को सीधा किया। गोली चलाने के लिए। तभी पारसनाथ के कोट की बाहरी जेब से, कोट में छेद बनाती गोली निकली और रिवाल्वर वाले की छाती में जा लगी। उसे तीव्र झटका लगा और कार से टकराता नीचे जा गिरा। रिवाल्वर दूर जा गिरी ।

“तुमने इसे मार दिया।" दूसरा युवक चीखा।

“इसके पास भी रिवाल्वर है।"

“भाग जाओ यहां से, वरना...।" पारसनाथ ने दांत भींचकर कहा।

"तुम... तुमने मेरे भाई को मारा।" एक युवक गुस्से में कहता पारसनाथ पर झपटा--- “मेरे भाई को... ।"

तभी पारसनाथ का हाथ कोट की जेब से निकला और घूंसा उस युवक के चेहरे पर पड़ा।

वो चीखता हुआ, नीचे जा गिरा।

"वो अभी जिन्दा है।" पारसनाथ बोला--- “वक्त बरबाद मत करो। उसे डॉक्टर के पास ले चलो।"

“तुम... तुमने...।" वो युवक नशे में चीखता पुनः उठा--- "मेरे भाई को मार दिया। तुम नहीं जानते कि मैं कौन हूं... मैं तुम्हें मार दूंगा। मैं...मैं तुम्हें तुम्हें मार... ।”

"अपने भाई को डॉक्टर के पास ले जाओ। वो बच जाएगा।" पारसनाथ ने कठोर स्वर में कहा--- “मैं उसे न मारता तो वो मुझे मार देता। तुम लोग नशे में हो और जरा भी सोचने-समझने की शक्ति नहीं बची है।"

तभी गुस्से में पागल हुआ वो युवक पारसनाथ पर झपट पड़ा।

बाकी दोनों भी पारसनाथ की तरफ झपटे।

वो पारसनाथ से चिपट गए और उसे मारने लगे।

तभी एक युवक पारसनाथ से अलग हुआ और उसकी कार की नम्बर प्लेट खींचकर तोड़कर उतारने लगा। बाकी दो को घूंसे मारकर और धक्का देकर पारसनाथ ने पीछे किया और रिवाल्वर निकाल ली।

"अगर तुम लोग नहीं माने तो मैं गोली चला दूंगा...।" पारसनाथ ने दांत भींचकर कहा।

अब तक युवकों को कुछ होश आ गया था।

एक युवक अभी भी उसकी कार की नम्बर प्लेट को तोड़-तोड़ कर उतारने में व्यस्त था।

"तुम्हें नहीं पता कि तुमने किसको गोली मारी है....।" एक युवक चीखा।

"मैं जानना भी नहीं चाहता। मैंने अपने को बचाने के लिए गोली चलाई है। मैं गोली न चलाता तो इसकी जगह मैं पड़ा होता।" पारसनाथ ने कठोर स्वर में कहा--- "अपने साथी को डॉक्टर के पास ले जाओ। वक्त बरबाद मत करो।"

वो युवक खड़े रहे।

तीसरा नम्बर प्लेट तोड़-तोड़कर उतारकर, एक तरफ खड़ा हो गया था।

दोनों युवक सुलगते हुए, पारसनाथ को देखते रहे।

पारसनाथ दूसरे दरवाजे से अन्दर घुसकर अपनी स्टेयरिंग सीट पर पहुंचा। रिवाल्वर थामे युवकों के प्रति वो सतर्क था। युवक भी शायद उसके हाथ में दबी रिवाल्वर की वजह से बेबस थे।

पारसनाथ ने कार स्टार्ट की और आगे बढ़ा दी।

“साला ये जो भी है, मैं इसे ढूंढकर कुत्ते की मौत मारूंगा !" एक युवक गुर्रा उठा ।

"ये देख।" टुकड़ों में, हाथ में दबी नम्बर प्लेट आगे करके बोला--- "उसकी कार की नम्बर प्लेट मेरे पास है। हम उसे ढूंढ लेंगे।"

तभी दूसरा युवक बोला ।

"तेरा भाई अभी जिन्दा है। इसे डॉक्टर के पास ले चलते हैं।"

तीनों ने आनन-फानन गोली लगे युवक को कार में डाला और कार दौड़ा ली।

"मैं भैया से बात करता हूं...।" कहकर एक युवक ने फोन निकाला और नम्बर मिलाकर बात की--- “भैया, मैं मदन... हां, एक आदमी ने राजू को गोली मार दी है... हां... उसकी कार की नम्बर प्लेट हमारे पास है... राजू को हम डॉक्टर के पास ले जा रहे हैं। ठीक है भैया...उसे छोड़ना मत। हां... हां, राजू को हम डॉक्टर के पास ले जा रहे हैं।"

■■■

श्रीनगर।

रविवार, शाम चार बजे ।

आज भीगा और ठण्डा मौसम ही था। दो दिन से होती बर्फवारी आज सुबह ही रुकी थी और सूर्य भी नहीं निकला था। सुबह से ही वातावरण में गहरा कोहरा था। ओस बराबर गिर रही थी। सर्दी ऐसी कि हाथ की उंगलियां अकड़ी जा रही थीं। नाक और चेहरा तीव्र सर्दी की वजह से लाल सा हो रहा था। गर्म कपड़े पहनने के बाद भी रह-रह कर कांपना पड़ रहा था।

वो कार सड़क के बीचो-बीच पड़ी बर्फ पर मध्यम गति से और सावधानी से आगे बढ़ रही थी। सड़क के दोनों तरफ के पेड़ बर्फ के बोझ से झुके-झुके से लग रहे थे। हर तरफ बर्फ की सफेदी ही छाई नजर आ रही थी। कार में दो व्यक्ति बैठे थे। एक पचास बरस का, दूसरा बत्तीस-चौंतीस का होगा।

"वो हमें पहचान सकते हैं।" 32-34 वाला धीमें स्वर में कह उठा।

"हां।" कार चलाते 50 की उम्र वाले ने वाईपर ऑन कर दिए। शीशे पर गिरने वाली ओस साफ होने लगी--- “मैं भी यही सोच रहा हूं कि हमें खतरा है। वो हमें पहचान भी सकते हैं। उनका खुफिया तंत्र हम से तेज लगता है।"

"ऐसा होता तो हैदर खान आज हमसे नहीं मिल रहा होता।" 32-34 उम्र वाले ने कहा--- "उनका खुफिया तंत्र बेहतरीन होता तो अब तक उन्होंने हमें पहचान लिया होता कि हम 'रॉ' के एजेन्ट हैं।"

“तुम्हारा मतलब कि वो बेवकूफ हैं?"

"मेरा ये मतलब नहीं है कि...।"

“वो आजाद लोग हैं और हमसे तेज हैं। हम भारत की खुफिया एजेन्सी 'रॉ' के घोड़े हैं। हमें कुछ करने से पहले हर बात की इजाजत लेनी पड़ती है। इस तरह हम कोई फैसला नहीं ले...।"

“परन्तु इस मिशन में तो ऐसा नहीं है। ये मिशन हमारे हवाले करते हुए कहा गया था कि हम पूरी तरह आजाद हैं कि इस मिशन के सम्बन्ध में, जब भी कोई फैसला लेना हो, ले सकते हैं।"

पचास की उम्र वाला मुस्कराया। कार चलाते अपने साथी को देखा ।

“ये मौत का मिशन है। ऊपर वालों की मजबूरी है हमें छूट देना।"

32-34 उम्र वाले ने गहरी सांस ली और खिड़की के बाहर देखने लगा। खिड़की पर ओस गिरी पड़ी थी। बाहर देखना कठिन हो रहा था। कुछ पलों बाद कार में छाई खामोशी को तोड़ते हुए उसने कहा---

"आज सर्दी ज्यादा है।"

"बहुत ज्यादा। मुझे तो अपने शरीर का खून जमता महसूस हो रहा है।"

"आगे से बायीं तरफ ले लेना।"

बर्फ गिरी होने और सर्दी ज्यादा होने की वजह से अभी तक कोई और वाहन आता-जाता नहीं दिखा था। वैसे भी वे लोग इस वक्त श्रीनगर के वीरान जैसे रास्ते से निकल रहे थे।

तभी 32-34 वाले का मोबाइल फोन बजने लगा।

उसने स्क्रीन पर आया नम्बर देखा और कालिंग स्विच दबाकर पचास वाले की तरफ फोन बढ़ा दिया।

"तुम बात करो। ऊपर से है।"

"तुम्हें बात करने में क्या होता है?" उसने फोन पकड़ते हुए कहा।

"मुझे चीफ की आवाज पसन्द नहीं... ।”

"उसने तुम्हारी बात सुन ली होगी...।" पचास वाला कान से फोन लगाते हुए बोला--- “हैलो... ।”

"आज तुम दोनों हैदर खान से मिलने वाले थे।" उधर से शांत गम्भीर आवाज कानों में पड़ी।

“जा रहे हैं, रास्ते में हैं। दस मिनट में उस जगह पर पहुंच जाएंगे, जहां हैदर खान ने हमें बुलाया है।"

"सावधान रहना, वो वहशी दरिन्दा है। पूरे एशिया के ड्रग्स किंग का एक हिस्सा है वो।"

“लाली खान का ... ।” वो बोला।

“हां, लाली खान का भाई है वो। एशिया के हर देश में ड्रग्स, हथियार और आतंकवादी वो ही सप्लाई करता है।"

“मुझे मालूम है।"

"वो तुम लोगों को पहचान सकता है। उसे कम मत समझना।"

"आपने ये बात किसी को बताई कि हम...।"

“सरकारी विभाग में थोड़ी बहुत बात तो इधर-उधर हो ही जाती... ।”

“ये गलती की चीफ।" पचास की उम्र वाले का स्वर तेज हो गया--- "हमने आपको इस विश्वास पर ये बात बताई कि आप मुलाकात से पहले किसी को नहीं बताएंगे कि हम हैदर खान से मिलने वाले हैं...।"

“ये गलती मुझसे हो चुकी...।"

"किसे बताया आपने?"

“किशोर चंद को। वो ठीक आदमी है। लाली खान के हाथों नहीं बिका वो।"

"अगर हमें कुछ हो जाए तो समझ लेना कि वो बिका हुआ है।" तीखे स्वर में बोला वो--- "आपको अच्छी तरह पता है कि हम अपने मिशन में कितनी मेहनत और सतर्कता बरत रहे हैं। यहां कदम-कदम पर मौत है...और आप बातें बाहर कर रहे हैं।"

“अब ध्यान रखूंगा। हैदर खान से मिलने के बाद मुझे खबर करना।"

पचास की उम्र वाले ने फोन बंद करके अपने साथी की तरफ बढ़ाया।

32-34 वाला फोन थामते कड़वे स्वर में कह उठा---

"चीफ के पेट में बात पचती नहीं। इसीलिए मुझे इसकी आवाज अच्छी नहीं लगती।”

दस मिनट बाद ही 32-34 वाले के कहने पर 50 वाले ने कार को एक जगह रोक दिया।

ये पहाड़ पर बने खुले मैदान जैसी जगह थी। यहां मौसम और भी सर्द था। बीस फीट के बाद कोहरे की वजह से स्पष्ट कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था। तेज ठण्डी हवा का अहसास ज्यादा हो रहा था। कार के भीतर भी तेज ठंडक थी।

“यहां तो कोई भी नजर नहीं आ रहा।" पचास की उम्र वाले ने कहा।

“यहीं मिलना है हमने हैदर खान से।" दूसरे ने कहा और कार का दरवाजा खोलकर बाहर आ गया।

बाहर आते ही तेज ठण्डी हवा ने उसे कंपा दिया। उसने सिर पर डाल रखी गर्म टोपी ठीक की। जैकिट के कॉलर खड़े किए कि हवा से बचा जा सके। फिर रिवाल्वर निकालकर उसे जैकिट की बाहरी जेब में डाल लिया। इस दौरान नजरें हर तरफ जा रही थीं। जमीन को छूते फैले कोहरे की वजह से वातावरण स्पष्ट नजर नहीं आ रहा था।

पचास की उम्र वाला भीतर ही बैठा रहा।

पांच मिनट ही बीते थे कि एक काली लम्बी कार उन्होंने कुछ दूर रुकती देखी। ओस से भीगी उस कार के भीतर देख पाना सम्भव नहीं हो पाया। 32-34 की उम्र वाला उस कार को देखते ही सतर्क हो गया। दिल धड़क उठा। ये उसके इम्तिहान के क्षण थे। उसने हाथ से कार का दरवाजा थपथपाया तो पचास की उम्र वाला भी बाहर आ गया। वो उसके पास पहुंचा। दोनों की निगाह एकटक उस काली कार पर थी, जो कि वहां पहुंचने के बाद शांत सी थी। कोई हलचल नहीं। कोई बाहर नहीं निकला।

दोनों की नजरें मिलीं।

"शांत रहो।" पचास की उम्र वाला धीमें स्वर में बोला--- “वो हमें देख रहे होंगे।"

"तुम्हारी रिवाल्वर कहां है?"

"कोट की बाहरी जेब में...।"

"जरूरत पड़े तो रिवाल्वर का इस्तेमाल फौरन करना।"

दोनों की निगाह काली कार पर थी।

तभी काली कार के आगे के दोनों दरवाजे खुले। दो व्यक्ति बाहर निकले। पठानी सूट और मोटी जैकिटों के अलावा उन्होंने टोपियां पहन रखी थीं। एक के हाथ में ए.के.-47 राइफल थी। वो इन दोनों को ही देख रहे थे। उसी पल पीछे वाला दरवाजा खुला और चालीस बरस का एक व्यक्ति बाहर निकला।

उसने ओवरकोट और सिर पर फर वाली गर्म टोपी पहन रखी थी। उसके हाथों पर फर वाले ही गर्म दस्ताने थे। उसकी ठोड़ी पर छोटी सी दाढ़ी थी। वो सीधे-सीधे इन दोनों की तरफ बढ़ आया। पास पहुंचकर ठिठका। दोनों को देखकर मुस्कराया।

दोनों भी उसे देखकर मुस्कराए।

"हमने मुलाकात के लिए गलत दिन चुना। आज ठण्ड बहुत ज्यादा है।" 32-34 की उम्र वाला उससे बोला ।

"काम तो करने ही हैं दोस्तो।” वो बोला--- "इधर...सर्दी गर्मी का असर नहीं पड़ता।"

"कौन हो तुम?" पचास की उम्र वाला बोला।

"हैदर खान...।"

“नहीं।" पचास वाले ने दृढ़ता से इनकार में सिर हिलाया--- "तुम हैदर खान नहीं हो...।"

वो जोरों से हंस पड़ा। फिर हंसी रोकता कह उठा---

"बहुत पहचान रखते हो हैदर खान की। जबकि वो ज्यादा लोगों से मिलता भी नहीं है। देखा है कभी उसे?"

"तुम हैदर खान नहीं हो।"

"कब देखा था तुमने हैदर खान को?" वो बोला।

"तस्वीर देखी थी।"

"कहां?"

"तुम सवाल-जवाब बहुत करते हो।" पचास की उम्र वाला कह उठा--- "हैदर खान को ड्रग्स... हथियार दूसरे देशों में पहुंचाने के लिए तेज लोग चाहिए। हम तेज हैं और हमारा काम देखकर उसे खुशी होगी।"

"तुमसे किसने कहा कि हैदर खान कश्मीर में मिलता है?"

"वो अफगानिस्तान में मिलता है, पर हमने पता लगाया कि वो कश्मीर आया होता है। किसी के द्वारा उस तक पहुंचने की कोशिश की तो हैदर खान ने मैसेज भेजा कि वो चार बजे यहां मिलेगा।"

उसने दोनों को गहरी निगाहों से देखते हुए सिर हिलाया।

“तुमने कैसे सोच लिया कि हैदर खान से इतनी आसानी से मुलाकात हो जाएगी?"

“क्या मतलब?” पचास की उम्र वाले की आंखें सिकुड़ीं।

"हमें यहां हैदर ने बुलाया है। तुम कौन हो ?" 32-34 उम्र वाले ने कहा--- "अगर उसे नहीं मिलना था तो इनकार कर देता। अपनी जगह किसी और को भेजकर हमारा वक्त खराब करने का क्या फायदा?"

उसने होंठ सिकोड़कर दोनों को देखा, फिर कार की तरफ देखा । वो दोनों व्यक्ति कार के पास ही खड़े थे। ए.के.-47 थामे वो व्यक्ति बेहद सतर्क निगाहों से इधर ही देख रहा था।

"भेजता हूं हैदर खान को। वो कार में है।" कहकर वो पलटा और कार की तरफ आने लगा।

दोनों उसे कार की तरफ जाते देखते रहे।

कार के पास पहुंचकर वो ठिठका, फिर पिछला दरवाजा खोलकर उन दोनों को देखा।

कुछ पल खामोशी से बीते। फिर वो ऊंचे स्वर में उन दोनों से कह उठा---

"बेवकूफों, रॉ तुम्हें क्या तनख्वाह देती है?"

दोनों चौंके। उन्होंने फुर्ती से अपनी जगह छोड़ी और कार की ओट लेनी चाही।

तभी ए.के.-47 से ढेरों गोलियां निकलीं और उनके शरीरों में प्रवेश कर गई। देखते ही देखते वो ठण्डी, गीली जमीन पर जा गिरे। उनके शरीरों में कोई हरकत न हुई। जहां-जहां से उनके शरीरों में गोलियां धंसी थीं, वहां खून के लाल धब्बे उभरने शुरू हो गए थे।

वो तीनों वापस काली कार में जा बैठे। कार स्टार्ट हुई। उसके बाद उसे घुमाकर मोड़ा और मध्यम सी रफ्तार से कार दूर होती, निगाहों से ओझल हो गई।

इधर कार के पास 50 और 32-34 उम्र वाले की लाशें पड़ी थीं।

■■■

इसी शाम दिल्ली में।

सरकार की जासूसी संस्था 'रॉ' का आफिस ।

पचपन वर्षीय किशोर चंद ने घड़ी में वक्त देखा। आठ बजने जा रहे थे। उसके पास इस वक्त कोई काम नहीं था। अन्य कई लोग अभी भी कामों में जुटे हुए थे। यहां रात-दिन काम चलता था। आफिस कभी भी बंद नहीं होता था।

किशोर चंद ने अपना ब्रीफकेस तैयार किया और उसे टेबल पर रखकर सामने दिखाई दे रही गैलरी में बढ़ गया। रास्ते में मिलने वाले कर्मचारी उसे 'सर' कहकर गुड ईवनिंग कह रहे थे।

किशोर चंद आगे बढ़ता सिर हिलाता जा रहा था।

फिर वो चौथे बंद दरवाजे के सामने पहुंचकर ठिठका और उस पर लगा स्विच दबाया।

"यस... ।” दरवाजे के पास दीवार में लगे स्पीकर से आवाज उभरी।

"सर मैं... किशोर चंद... ।" किशोर चंद ने कहा।

अगले ही पल दरवाजा एक तरफ सरकता चला गया।

किशोर चंद के भीतर प्रवेश होने पर दरवाजा बंद होना शुरू हो गया।

ये रॉ के चीफ गोपालदास जी का आफिस था। सादे ढंग से सजा हुआ आफिस । एक टेबल के पीछे गोपालदास जी मौजूद थे। कुछ दूरी पर दो लेडी ऑपरेटर कम्प्यूटर पर व्यस्त थीं।

"गुड ईवनिंग सर।" किशोर चंद टेबल के पास पहुंचता कह उठा।

"बैठो किशोर चंद।” गोपालदास ने शांत स्वर में कहा।

"मैंने आज का काम खत्म कर दिया। इजाजत हो तो जाऊं?"

"सिंगापुर सारी इन्फार्मेशन भेज दी?"

"यस सर।" किशोर चंद ने मुस्कराकर कहा।

"हूं, ठीक है।" सुन्दरलाल मुस्कराए--- "आज जल्दी में लग रहे हो। कहीं जाना है क्या?"

"नहीं सर। घर ही जाना है। अकेला रहता हूँ। दो-चार अपने काम भी करने हैं घर पर...।"

"ठीक है। कल मेरे पास कुछ खास है तुम्हें देने को ।"

"जी। मैं कल आते ही आपसे बात करूंगा।"

गोपालदास जी के सिर हिलाने पर किशोर चंद पलटा और दरवाजे की तरफ बढ़ गया।

गोपालदास जी ने टेबल के नीचे का बटन दबाया तो दरवाजा खुलता चला गया। किशोर चंद के बाहर निकल जाने पर उसने पुनः बटन दबाया तो दरवाजा बंद होता चला गया।

गोपालदास जी कुछ क्षणों तक आंखें बंद करके बैठे रहे, फिर टेबल पर रखे फोन का रिसीवर उठाया और नम्बर मिलाने लगा। लाइन मिली, बात हो गई।

“किशोर चंद आफिस से बाहर निकलने वाला है।"

“मेरा आदमी वहां पहुंच चुका है और मैं उसके पीछे रहूंगा।" आवाज कानों में पड़ी।

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किशोर चंद अपने फ्लैट पर पहुंचा।

रात के साढ़े नौ बज रहे थे। दरवाजा बंद किया और ब्रीफकेस टेबल पर रख दिया। लाइट ऑन की कमरों की और कुर्सी पर बैठ गया।

जेब से मोबाइल निकाला और नम्बर मिलाने लगा। बात हुई।

“हैलो... हां... मैं किशोर चंद बोल रहा हूं।" उसने कहा।

"होल्ड करो...।"

किशोर चंद फोन कान से लगाये आराम से बैठा रहा।

फिर कानों में आवाज पड़ी--- "कहो किशोर चंद?”

"मेरी खबर काम आई कि श्रीनगर में वो दोनों धंधे वाले बनकर हैदर खान से मिलने की चेष्टा कर रहे हैं?"

"बढ़िया खबर थी तेरी। दोनों को ऊपर पहुंचा दिया।” उधर से हंसी भरी आवाज आई।

"मार दिया?" किशोर चंद के होठों से निकला।

"ताकि वो दोबारा खतरा न बनें हमारे लिए।"

"रॉ के एजेन्टों को जान से मारकर तुम खुश हो रहे हो? रॉ चुप नहीं बैठेगी।"

"ऐसी बातों की हम परवाह करने लगे तो कर लिया धंधा...।"

"महीना भर पहले भी मैंने तुम लोगों को एक खबर दी थी। वो खबर भी तुम्हारे काम की थी।"

"हां...।"

"दो खबर हो गईं। मुझे नोट कब मिलेंगे?"

"कल वहीं से ले लेना, जहां से हर बार लेते हो।"

"ठीक है।" किशोर चंद ने कहा और फोन बंद करके टेबल पर रख दिया।

तभी किशोर चंद के कानों में कदमों की आहटें पड़ीं।

किशोर चंद चौंक कर उठ खड़ा हुआ। हड़बड़ाया सा इधर-उधर देखते कह उठा---

"कौन है?"

तभी दूसरे कमरे से निकलकर एक आदमी दरवाजे के बीचो-बीच आ खड़ा हुआ। उसके हाथ में रिवाल्वर दबी हुई थी। जिसका रुख किशोर चंद की तरफ था और होंठ भिंचे हुए थे।

उसे देखते ही किशोर चंद के पांवों तले से जमीन निकलने लगी।

किशोर चंद उसे पहचानता था। वो रॉ के चंद खास हत्यारों में से एक, जयन्त था।

किशोर चंद हक्का-बक्का सा जयन्त को देखता रह गया।

"कैसे हो किशोर चंद ?"

"त... तुम?” किशोर चंद का शरीर कांपा। चेहरा फक्क पड़ गया।

“आज दोपहर में श्रीनगर में हमारे वो दोनों एजेन्ट मारे गए, जो कि किसी बहाने से हैदर खान से मिलने जा रहे थे।" जयन्त ने सपाट स्वर में कहा--- "चीफ को शक था कि कहीं तुमने ही उनके बारे में खबर आगे न भेजी हो। क्योंकि चीफ ने गलती से तुम्हें उन दोनों के मिशन के बारे में बता दिया था। अब ये बात स्पष्ट हो गई कि गद्दार तुम ही हो।"

किशोर चंद का शरीर इस बार पूरा कांप उठा।

"म...मैंने कुछ नहीं किया... मैं... मैं गद्दार नहीं हूं...।"

जयन्त ने जेब से साइलेंसर निकाला और नाल पर चढ़ाते कह उठा--

"अभी किससे बात कर रहे थे?"

किशोर चंद को काटो तो खून नहीं।

"मैंने वो सारी बातें सुनीं और उनका मतलब भी समझ लिया है। अब तुम सफाई में कुछ कहना चाहते हो तो कहो...।"

"म... मैंने तो यूं ही फोन...।"

"किसे किया ?" जयन्त ने सर्द स्वर में पूछा।

किशोर चंद ने सूखे होठों पर जीभ फेरी और रो देने वाले ढंग से जयन्त को देखने लगा।

जयन्त ने साइलेंसर लगे रिवाल्वर वाला हाथ सीधा किया। दांत भिंच गए थे।

"नहीं, मुझे मत मारो। माफ कर...।"

"गद्दार... ।" कहने के साथ ही जयन्त ने एक के बाद एक दो बार ट्रेगर दबाया।

पिट-पिट! की दो आवाजें हुईं और दोनों गोलियां किशोर चंद की छाती पर जा लगीं। वो टेबल से टकराता इस तरह नीचे गिरा जैसे किसी ने धक्का दिया हो और उसके बाद वो हिला भी नहीं।

जयन्त ने आगे बढ़कर किशोर चंद की मौत को चैक किया। फिर रिवाल्वर जेब में रखकर आगे बढ़ा और दरवाजा खोलकर बाहर निकलता चला गया। सीढ़ियां उतरकर नीचे पहुंचा और सामने ही खड़ी कार में जा बैठा। कार की ड्राइविंग सीट पर पहले से ही एक आदमी मौजूद था। उसने कार स्टार्ट करते हुए कहा---

"क्या रहा?"

"चीफ का ख्याल ठीक था। किशोर चंद गद्दार था। मार दिया हरामी को!" जयन्त ने नफरत भरे स्वर में कहा।

उसने कार आगे बढ़ा दी।

■■■

रॉ का आफिस ।

रात ग्यारह बजे ।

चीफ गोपालदास जी थके से कॉफी के घूंट भर रहे थे। एक तरफ कम्प्यूटरों पर दोनों युवतियां बैठी अपने काम में व्यस्त थीं कि टेबल पर पड़े फोन की बेल बज उठी। गोपाल दास जी ने रिसीवर उठाया।

"हैलो...।"

“सर! एक नई खबर है।" किसी आदमी की आवाज कानों में पड़ी।

"कहो...।"

"शाह जी के आदमियों ने आधा घंटा पहले ही मोना चौधरी के खास साथी पारसनाथ को, उसके रेस्टोरेंट के ऊपरी हिस्से से, जो कि पारसनाथ का घर है, उठवा लिया है। हमारा आदमी उनके पीछे है।"

"मोना चौधरी कौन है?"

"अण्डरवर्ल्ड की इश्तिहारी मुजरिम मोना चौधरी सर ।"

"हूं। ड्रग्स का काम करते-करते शाह जी क्या अपहरण का काम भी करने लगा है?" गोपाल दास जी ने कड़वे स्वर में कहा।

“पता चला है पारसनाथ ने कल रात शाह जी के भाई को गोली मारी थी। सड़क पर कुछ झगड़ा हो गया था।"

"हूं... ।" गोपालदास जी के चेहरे पर सोच के भाव नजर आने लगे।

"कुछ करना है सर?"

"ये मोना चौधरी हमारे किस काम की? ये हमारे किसी काम की नहीं। इस मामले से हमें दूर रहना चाहिए।"

"जी सर...।"

“मोना चौधरी ... इश्तिहारी मुजरिम।" गोपालदास जी बड़बड़ाए । चेहरे पर सोचें थीं--- "इश्तिहारी मुजरिम! अशोक... ।”

“सर...!"

“मोना चौधरी का बहुत खास है क्या पारसनाथ ?"

"यस सर।"

“होल्ड करो... ।” गोपालदास जी ने कहा और रिसीवर टेबल पर रखकर युवतियों की तरफ बढ़ते कह उठे--- “मोना चौधरी की फाइल खोलो।"

"यस सर।" एक युवती ने कहा और तेजी से कम्प्यूटर के बटनों में व्यस्त हो गई।

चंद पलों के बाद ही कम्प्यूटर स्क्रीन पर मोना चौधरी की तस्वीर दिखी।

“आगे करो। मैं एक मिनट में इसके बारे में सब कुछ जान लेना चाहता हूं। डिटेल निकालो इसकी।"

उसके बाद स्क्रीन पर मोना चौधरी का ब्यौरा आता रहा। गोपालदास जी पढ़ते रहे। समझते रहे। फिर वो पलटकर वापस टेबल के पास पहुंचे और रिसीवर उठाकर बोले---

"पारसनाथ को शाह जी के हाथों से वापस लेना है। पारसनाथ को जहां भी रखा जाए, अपने आदमी वहां भेज दो। ये काम हर हाल में होना चाहिए और गुप्त तौर पर हो। किसी को पता न चले कि ये काम हमने किया है।"

"राइट सर

गोपालदास जी ने रिसीवर रख दिया। होंठ भिंचे हुए, आँखें सिकुड़ी हुई। माथे पर बल। चेहरे से ही स्पष्ट जाहिर हो रहा था कि उनके मस्तिष्क में ऐसा कुछ चल रहा है, जो हर कोई नहीं सोच सकता।

“इश्तिहारी मुजरिम...।” गोपालदास जी बड़बड़ा उठे।

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