1. चुड़ैल लीला  


16 दिसम्बर 1987 ई०, रात के 12:00 बजे;

मैं ट्रेन के रुकने के बाद अब हर्रावाला गांव के छोटे-से स्टेशन पर खड़ा था। ट्रेन के अगली स्टेशन की तरफ रवानगी के पश्चात भी वहां के वातावरण में कोई अन्तर नहीं आया। दिसम्बर माह की कड़कदार ठंड और रात के कोहरे से लिपटा हुआ छोटा-सा प्लेटफॉर्म यूँ ही बेजान पड़ा दिख रहा था। मैंने अपनी नजर इधर उधर दौड़ाई परंतु मुझे अपने अतिरिक्त वहाँ कोई भी नजर नहीं आया। स्टेशन छोटे होने की वजह से शायद वहाँ का दो सदस्यीय विभाग घोड़े बेचकर सो रहा होगा। सदा की भांति उस स्टेशन पर किसी पैसेंजर के उतरने की उन्हें कोई उम्मीद नहीं थी। मैं अभी थोड़ी दूर बढ़ा ही था की मुझे कोई साया अपनी ओर बढ़ते हुए दिखाई दिया। थोड़े पास आने पर उसकी वेशभूषा और हाथ में जलता लालटेन देख के यह ज्ञात हुआ की वह बूढ़ा स्टेशन मास्टर था। उसने मुझे इस प्लेटफॉर्म पर अकेला देखा तो वह धड़धड़ाता हुआ मेरे करीब आया था। स्टेशन मास्टर ने अपनी ऐनक साफ की शायद वह मुझसे कुछ कहना चाहता था परंतु मुझे उससे बात करने में कोई रुचि नहीं थी इसलिए मैं तेजी के साथ बाहर निकलने वाले दरवाजे की ओर बढ़ गया।

तभी अचानक मेरा पैर अंधेरे में किसी वस्तु से जा टकराई और मैं नीचे गिर पड़ा।

‘आह्ह! कैसे कैसे बेवकूफ हैं जो आने-जाने वाले रास्ते से पत्थर भी नहीं हटाने का समय नहीं।’ यह कहते हुए मैं अपने घुटने को पकड़ कराहते हुए सहलाने लगा। हालांकि मैंने भी उस पत्थर को रास्ते हटाने के लिए कटाक्ष मारने के सिवा कुछ नहीं किया।

तभी उस स्टेशन मास्टर को अपने सामने खड़े पाया। उसके हाथ में लालटेन के मद्धिम प्रकाश में उसे मेरा खूबसूरत गोल चेहरा दिखाई दिया।

मैंने झट से अपना एक हाथ आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘हैलो जेन्टलमेन! मेरा नाम प्रफुल्ल पटेल है।’ उसने मेरी हथेली को मजबूती के साथ पकड़ और बिना कुछ जवाब देते हुए उसने मुझे खड़े होने में मदद की। उसका ध्यान मेरी चमड़े की काली जैकेट पर टिकी हुई थी।

मेरे सिर पर एक गोल कैप थी। हाथों में चमड़े के दस्ताने थे। शायद मेरे अत्यधिक मॉडर्न होने की वजह से वह अब भी मुझे घूर रहा था। मैं उस उजाड़ पड़े प्लेटफॉर्म से जल्द से जल्द निकल जाना चाहता था इस वजह से मैं भागते हुए गिर गया था।
बूढ़े स्टेशन मास्टर को देखकर मुझे कुछ ढाढस-सी मिली थी। मेरे होंठ सीटी बजाने की मुद्रा में आ गए थे। मैंने इस बार उस स्टेशन मास्टर को टिकट थमाते हुए कहा- ‘शायद आप मेरी टिकट जाँचना चाहते हैं, यह लीजिए। अब मुझे राजपुर गांव जाना है। यहां से कितनी दूर है?’
"तेरह मील।" स्टेशन मास्टर ने उसे अजीब निगाहों से देखते हुए कहा— ‘बैलगाड़ी से जाएंगे तो भी सुबह से पहले नहीं पहुंच सकेंगे।"
"अब जो भी होगा, भुगता जायेगा।" मैंने बड़बड़ाते हुए कहा और जेब से सिगरेट निकालकर सुलगा ली।

बूढ़ा स्टेशन मास्टर मुझको जाते हुए तब तक देखता रहा, जब तक मैं उसकी आंखों से ओझल नहीं हो गया। मेरी सुन्दर भूरी आंखें अभी तक उसके मानस पटल पर अटकी हुई थीं। जाने क्यों उन भूरी आखों को देख कर मैं आतंकित हो उठा था। मेरे शरीर में भय की सिहरन-सी दौड़ गई थी।

उस स्टेशन मास्टर की बूढ़ी आंखों का अनुभव चीख-चीखकर कह रहा था कि इस रहस्यमयी पैसेंजर का इस गांव में आना, आने वाले भयानक तूफान का सूचक है। जरूर कोई अप्रिय घटना होने वाली है। कुछ पल बाद मैंने अपने सिर को झटका दिया मानो इस बार वहम को बाहर निकाल देना चाहता था, और फिर मैं उस रेल्वे स्टेशन के बाहर की ओर बढ़ गया।

स्टेशन से बाहर खड़े होकर मैंने दूर-दूर तक अपनी निगाह दौड़ाई-वाहन की तलाश में। चारों ओर भयानक सन्नाटा-ही-सन्नाटा। कोई भी तो नजर नहीं आता था। मैंने अपने कंधे में लटके प्लास्टिक के बैग को खोल कर एक बोतल बाहर निकाल ली। एक सांस में आधी से अधिक पानी मेरे हलक में पहुंच गई। उल्टे हाथ से मैंने अपने मुंह को पोंछा। कंपकंपाती ठंड से कुछ राहत मिलती एहसास दी मुझे। 

तभी बैलों के बोलने की आवाज मुझे सुनाई दी। मैं तेजी के साथ आवाज की ओर लपका। एक बैलगाड़ी में एक आदमी खर्राटे भरता हुआ सो रहा था। उसके जगाने पर वह आंखों को हाथ से मलता हुआ खड़ा हो गया।
‘क्या हुआ बाबू क्यों परेशान करते हो?’ उस शख्स ने अंगड़ाई लेते हुए कहा।
‘अरे राजपुर चलोगे? मुझे वहाँ जाना है?’ मैंने उससे चलने के लिए कहा।
‘नहीं सरकार! मैं जिसको लेने आया हूँ वो सुबह की गाड़ी से आएंगे। इसलिए मैं यहाँ से हिल भी नहीं सकता।’ उसने दो टूक में जवाब देते हुआ कहा।

स्टेशन के बाहर स्याह कालिमा फैल अपनी पूरी आगोश में ले चुकी थी। आकाश में काले, भूरे बादल घिरे हुए थे। हवा में ठण्डक थी। निस्तेज वातावरण सायं-सायं कर रहा था। ऐसी स्थिति में 13 मील का पहाड़ी रास्ता अकेले पूरा करना इतना आसान नहीं था। अतः मैंने रात स्टेशन पर ही बिताने का निश्चय कर लिया। वहाँ पास में ही विशाल बरगद का पेड़ था जिसके नीचे एक जर्जर स्थिति में एक झोपड़ी अपनी उपस्थिति दर्ज करवा रही थी। मेरे कदम उस दिशा में बढ़ चले। तभी किसी ने पोछे से पुकारा- ‘बाबूजी ओ पटेल बाबूजी!’

पलटकर देखा तो एक व्यक्ति लपकता हुआ मेरी और बढा आ रहा था। उसकी शारीरिक और चेहरे की बनावट से वह कोई नेपाली जान पड़ रहा था। उसके शरीर पर खाकी वर्दी थी। उसका चेहरा मंकी कैप से बाहर झांक रहा था। पास आकर उसने पूछा- ‘आप प्रफुल्ल पटेल जी हैं न? बनारस से आना हुआ है न?’

मैंने सिर हिलाकर हाँ कहा तो उसने बतलाया कि उसका नाम राम बहादुर सिंह था और वह विभा चटर्जी का ड्राइवर है। उन्होंने ही मुझे लेने को कार भेजी है। सुनकर आश्चर्य हुआ मुझे। मैंने खुद से बड़बड़ाते हुए कहा- ‘विभा चटर्जी को कैसे मालूम हुआ कि मैं आज ही आने वाला हूँ? ओह्ह! कहीं ये उस खत की वजह से तो नहीं जो उसने मुझे भेजे थे।’
उसके ऐसा कहते ही मुझे उसकी जिंदगी की पिछली कहानी मेरे मानसिक पटल पर दौड़ गई।
यह तो यह तो जगजाहिर है कि जीवन का आगाज जितना शानदार होता उसका अंत उतना शानदार नहीं होता। अन्त हमेशा अकल्पनीय है।

एक वक्त था जब मैं अपनी जीवन से पूरी तरह संतुष्ट था और मुझे कुछ इच्छा करने की आवश्यकता नहीं थी। मैंने भी अपने जीवन के शुरुआती दौर में न जाने कितनी कल्पनाएं की थीं और न जाने कितने हसीन सपने देखे थे। उस वक्त मैंने जिसको लेकर इतनी कल्पनाएं की थीं और इतने सपने देखे थे, वह थी मेरी सहपाठिनी विभा चटर्जी।

उत्कृष्ट यौवन, गोरा रंग, काले घने बाल, झील जैसी गहरी नीली आँखें, गुलाब के फूल जैसे रक्ताभ होंठ और दिव्य आभा से युक्त मुखमंडल। जो कोई भी देखता तो देखता ही रह जाता विभा चटर्जी को विभा चटर्जी बी.ए. की छात्रा थी। हम दोनों में कब परिचय हुआ और वह परिचय कब किस क्षण प्रेम में बदल गया यह तो ठीक-ठीक बतलाया नहीं जा सकता किन्तु हम दोनों के प्रेम का एक मात्र मूक दर्शक और मूक साक्षी गूलर का वह पेड़ आज भी विश्वविद्यालय में मौजूद है जिसकी शीतल छाया तले घण्टों बैठे हम दोनों एक दूसरे में खोए रहते थे। दोनों ने शादी करने के निश्चय किया था। मगर विभा चटर्जी के सामने कई प्रकार को रुकावटें आई थीं। आखिर एक दिन उन्हीं रुकावटों ने हम दोनों को हमेशा-हमेशा के लिए एक दूसरे से अलग कर दिया। उसी गूलर के तले विभा चटर्जी के आँसुओं को पोंछते हुए मैंने कहा था- ‘दुनिया बड़ी विचित्र है विभा। वह न मेरी भावनाओं को समझेगी और न तेरी। उसकी अपनी दृष्टि है जो हमेशा दोष ही खोजती है। दोषी मत बनो विभा चटर्जी। जैसे सब लड़कियाँ रहती हैं, दम साधे, सब दबाए, छिपाए उसी तरह तुम भी जिन्दा रहो। मेरे प्रति सारा आकर्षण, प्रेम और सारी भावुकता कहीं मिट्टी में दफना दो और हमेशा-हमेशा के लिए मुझे भूल जाओ।"

विभा चटर्जी ने आँसुओं में डूबी आँखें ऊपर उठाकर मेरी ओर देखा मानो मूक भाषा में कह रही हो- ‘कोई भी सुनने-समझने वाला नहीं है। अगर तुम भी नहीं सुनोगे तो मैं घुट-घुट कर मर जाऊँगी। क्या तुम इतने निष्ठुर हो? इतने आत्मलीन हो कि किसी के मन का दर्द भी न सुन सको? ऐसे निर्दयी न होओ। मेरी पुकार सुन लो।’

इतनी पावन प्रीति और नेह भरी पुकार का तिरस्कार करने की सामर्थ्य मैं अपने में पैदा न कर सका। मन विगलित हो उठा, किन्तु विवश था। समाज के बन्धन को भला कैसे तोड़ सकता था। मेरे कष्ट और मेरी व्यथा को उस वक्त अन्तर्यामी के सिवाय भला और कौन समझ सकता था। असीम पीड़ा और अश्रुपूरित दृष्टि से मैंने एक बार विभा चटर्जी को और देखा, फिर उसके रास्ते से हमेशा के लिए हट गया।
फिर यह जिन्दगी कैसे कटी, किसी ने न जाना। कभी मैंने किसी से न कोई सहायता मांगी और न तो दया करुणा ही चाही। किसी ने भी न देखा मेरे जीवन का सफर।
बीच में एक लम्बा अरसा और फिर आज का दिन। विभा चटर्जी, उसकी पावन प्रीति और उन सबके साक्षी उस गूलर के पेड़ को एकदम भूल चुका था मैं। मगर तीस वर्षों के दीर्घ अन्तराल के बाद जब सहसा विभा चटर्जी का पत्र मिला तो एकबारगी चौंक पड़ा मैं।

सारी स्मृतियाँ सजीव हो उठीं मानस-पलट पर। पत्र डाक से आया था और उसे भेजा गया था देहरादून से। कई बार उलट-पलट कर मैंने पत्र को देखा। भ्रम या सन्देह की कहीं कोई गुंजाइश नहीं थी। विभा चटर्जी की ही लिखावट थी। हे भगवान! इस उम्र में इस अवस्था में... जबकि मैं पके हुए फल की तरह लटक रहा हूँ और मौत की पगध्वनि साफ सुनाई दे रही है ऐसे वक्त में न जाने कब का दफन-छुपा यह प्रेम-प्रसंग फिर कहाँ से उभर आया। पाती के एक-एक शब्द ने मेरे कलेजे को छू लिया। वह पाती मानो किसी अनन्त मरुभूमि के बीच कल-कल बहती निर्झरिणी का संवाद लेकर आयी थी। वह पाती मानो सकुचाकर बोली- ‘कुछ कहना चाहती हूँ! सुनोगे? और थका-हारा मैं बोला जरूर सुनूँगा। कहो क्या कहना चाहती हो?’

उसी दिन से उद्विग्न रहने लगा मैं रात को श्रान्त-क्लान्त होकर लेटता तो लगता जैसे विभा सिरहाने आकर खड़ी हो गई है और मेरे ऊपर झुककर मोहभरे स्वर में कह रही है- 'काफी थक गए हो लाओ सिर दबा दूँ। कितना काम करते हो तुम? देखकर कलेजा फट जाता है मेरा। इतना श्रम मत किया करो। लाओ तुम्हारा पैर दबा दूँ...! उस वक्त अस्फुट स्वर में भावाविष्ट होकर मैं भी उस अदृश्य छाया से कह बैठता- ‘तुम आ गई हो तो जिन्दगी का सारा क्लेश, सारी व्यथा, सारी पीड़ा और सारी थकान भूल गया। कितना संतुष्ट हूँ? कितना सुखी हूँ मैं तुम्हारे सानिध्य में। तुम मेरे साथ रहोगी न?’
छाया भी मानों अस्फुट स्वर में कहती- ‘मैं तुम्हारी हूँ। हमेशा तुम्हारी ही रहूँगी।’

एक दिन दूसरा पत्र आया। लिखा था- ‘मैं एक भटकती हुई आत्मा हूँ। मुझे तुम्हारी सहायता चाहिए। तुम्हारे अलावा संसार में और कोई मेरा उद्धार करने वाला नहीं है। एक बार देहरादून चले आओ। मुझसे मिलो। मैं अब तुम्हारे साथ रहना चाहती हूँ? मेरे लिए सारे बन्धन टूट चुके हैं अब मैं रोज तुम्हारी राह देखूँगी। आओगे न? मुझे अपने साथ ले चलोगे न?’
 

दीर्घ अन्तराल के बाद मिलने वाले इस विश्वास और प्रीति का भला कैसे तिरस्कार कर पाता मैं। देहरादून का पता तो था ही मेरे पास। पहले मैंने बनारस में गंगा स्नान किया उसके पश्चात बाबा विश्वनाथ के दर्शन किए। शाम को बनारस से ही देहरादून एक्सप्रेस से रवाना हुआ। रास्ते में अनेक प्रश्न उभरते रहे मन में। सोचने लगा हम एक दूसरे को कैसे पहचानेंगे? अब तो वह बूढ़ी हो गई होगी। बाल सफेद हो गए होंगे। आँखें भी कमजोर हो गई होंगी। मुझसे दो-तीन वर्ष हो तो छोटी थी विभा चटर्जी।

इन्हीं बातों के साथ मन में एक विचार यह भी आया कि वह अब विधवा होगी तभी तो मुझे याद किया है उसने।
तभी मेरी विचारों की शृंखला टूटी और मेरी नजर राम बहादुर पर पड़ी जो बड़ी तन्मयता से कार चला रहा था। थोड़ी देर बाद कार एक विशाल फाटक के भीतर घुसी। दूज का चाँद निकल आया था। उसकी पीली रोशनी में चारों ओर आँखें घुमाकर देखा, हवेली काफी पुरानी मगर बहुत बड़ी थी। वह ऐसी जगह पर बना था जिसके चारों ओर सुनसान घाटी थी। आसपास कोई दूसरा मकान भी नहीं था। सबसे नजदीक का गाँव भी तीन-चार मील पर था।

वातावरण में न जाने कैसी घुटन थी। एक विशेष प्रकार को निस्तब्धता भी छाई हुई थी। ऐसा लगा कि मैं अनजाने ही किसी प्रेतपुरी में पहुँच गया हूँ।
राम बहादूर सिंह मेरा सामान बरामदे में रखकर न जाने कहाँ गायब हो गया था। मकान के भीतर गहरी खामोशी छाई हुई थी। सहसा बगल वाले कमरे में रोशनी हुई। फिर धीरे-धीरे दरवाजा खुला। मेरे सामने एक युवती खड़ी मुस्करा रही थी। उसके शरीर पर कीमती साड़ी और जेवर थे। ऐसा लगा जैसे वह अभी-अभी श्रृंगार करके चली आ रही है।
अचानक मेरे मुँह से निकल गया- ‘विभा चटर्जी।’

कमरा काफी आलीशान था। मैं पलंग पर बैठकर सोचने लगा बंगाल की रहने वाली साधारण परिवार की विभा चटर्जी बंगाल से देहरादून कैसे पहुँच गई? मैं यह सब विचार ही कर रहा था की तभी चाँदी के गिलास में दूध और तश्तरी में नमकीन और मिठाई लेकर विभा चटर्जी आ गई।

ऐश्वर्य की स्वामिनी टेबल पर नाश्ता रखती हुई बोली- ‘कितने साल बाद हम दोनों मिले हैं... तुमने शादी नहीं की न?’
बर्फी का टुकड़ा मुंह में रखते हुए मैंने धीरे से कहा- ‘नहीं, प्यार तुमसे किया और शादी किसी दूसरे से करूँ, यह कैसे हो सकता है?’
‘मैंने भी शादी नहीं की।' एक दीर्घ निःश्वास लेकर विभा चटर्जी ने कहा।
‘तुमने भी नहीं की? क्यों?’ मैं चौंकते हुए उससे बोला।
‘यदि यही प्रश्न मैं तुमसे करूँ तो।’ विभा चटर्जी ने हाजिरजवाबी करने की कोशिश की।
मैं मौन साध गया। मुझसे कुछ बोला ही नहीं गया। थोड़ी देर बाद विभा चटर्जी स्वयं कहने लगी- ‘हिन्दू नारी एक बार जिसे अपना देवता मान लेती है, जिसे एक अपना सर्वस्व मान लेती है तो भला उसके जीवन में दूसरा व्यक्ति कैसे आ सकता है? मैंने शादी के लिए साफ इनकार कर दिया। मैं अपने पैरों पर खड़ी होना चाहती थी। संयोग से मुझे एक स्कूल में नौकरी मिल गई। अकेली जिन्दगी गुजारने के लिए यह नौकरी मेरे लिए काफी थी। मगर अचानक एक दिन मेरी शान्त और सरल जिन्दगी में जहर घुल गया। जिस मकान में मैं रहती थी, वह मेरे पिताजी के दोस्त के किसी रिश्तेदार के बेटे जयंत का था। उसी जयंत ने मुझे नौकरी दिलवाई थी।

एक रात जयंत शराब के नशे में मेरे साथ उसने जबर्दस्ती मुँह काला कर लिया। मैं बहुत रोई, गिड़गिड़ाई पर वह नराधम मेरा सर्वस्व लूटकर ही माना। मैं लाचार थी, विवश थी। भला क्या कर सकती थी। उसने मेरी लाचारी और विवशता का नाजायज फायदा उठाया। फिर तो वह रोज ही मेरे साथ वासना का खेल खेलने लगा। पाप के परिणाम को सामने आते देर न लगी। मैं गर्भवती हो गई। मेरे सामने अन्धकार छा गया। समाज और परिवार के सामने मुँह दिखाने लायक भी नहीं रह गई थी मैं। आखिर में आत्महत्या करने का निश्चय किया और एक रात मैं अपनी पाप की गठरी लिए यमुना नदी की ओर चल पड़ी। मगर मौत ने भी मुझे सहारा नहीं दिया। पाप से तो छुटकारा मिल गया मगर जिन्दगी से मुक्ति नहीं मिली।' इतना कहते-कहते विभा चटर्जी का गला भर आया और उसने दोनों हाथों से अपना मुँह ढँक लिया। मेरा भी मन न जाने कैसा हो गया उस वक्त।

थोड़ी देर बाद स्वस्थ होने पर विगलित स्वर में विभा चटर्जी ने आगे कहना शुरू किया- 'मुझे मिथिलेश नाम के एक सज्जन ने बचा लिया था। वही अपने साथ मुझे यहाँ ले आए। परिवार में उनके अलावा और कोई नहीं था। चायबागान और इस मकान के अलावा भी उनके पास सम्पत्ति थी। वे मुझे अपनी पुत्री के समान मानते थे और मैं भी उन्हें अपने पिता तुल्य समझती थी। मेरे लिए वही सब कुछ थे माता, पिता, भाई, बन्धु, हितैषी। मगर शीतल छत्रछाया अधिक दिनों तक न रह सकी मुझ पर। दो वर्ष बाद उनका हार्ट फेल हो गया। मिथिलेश की मृत्यु के बाद पता चला कि वे अपनी सारी सम्पत्ति मेरे नाम लिख गए हैं। मगर सम्पति मृत्यु से मेरा एकाकीपन भला कहाँ जा सकता था?

आज तीस वर्षों से उसी शून्य में मेरी आत्मा भटक रही है। मगर अब मुझे ऐसा लग रहा है कि मैं किसी कोमल शीतल छाया में खड़ी हूँ। अब अपनी कोई चिन्ता न रही। अब तुम आ गए हो तो मेरे सारे क्लेश दूर हो जाएंगे और दूर हो जाएगी सारी व्यथा और पीड़ा भी।'

बोलते-बोलते विभा चटर्जी ने मेरे हाथों को अपने हाथों में ले लिया। और आंखों में आंखें डालकर बोली- 'अब तो कोई व्यवधान नहीं है। किसी तरह की रुकावट भी नहीं है। आज इस सूनी कलाईयों में सुहाग की चूड़ियाँ पहना दो मेरे देवता। मैं तुम्हारी हूँ और हमेशा तुम्हारी ही रहूँगी मेरे आराध्य।'

अन्तिम शब्द के साथ विभा चटर्जी मुझसे लिपट गई और फफक-फफक रोने लगो किसी प्रकार विभा चटर्जी को अपने से अलग करके मैं धीरे-धीरे चलकर खिड़की के सामने खड़ा हो गया। सारी सृष्टि जैसे गहन अंधकार में ड़ूबी हुई थी। बादलों से ढँके आकाश में जब-तब बिजली चमक उठती थी। सहसा कमरे का बन्द दरवाजा फटाक से खुला और कन्धे पर बन्दूक रखे और कमर से तलवार लटकाए कई आदमी कमरे में घुस आए। मैं कुछ समझ, इसके पहले ही एक लम्बा तगड़ा आदमी लपककर विभा चटर्जी के नजदीक पहुंचा और बन्दूक की नली उसको छाती पर सोता हुआ कर्कश स्वर में बोला- ‘अब तुम नहीं बच सकती। बतला माल कहाँ है?'

उसी वक्त राम बहादुर सिंह न जाने कहाँ से आ गया। वह हाथ में लोहे का मोटा सा रॉड लिए हुए था। मगर अकेला बेचारा क्या कर सकता था? अपनी मालकिन की कोई सहायता करता, इसके पहले ही धाँय को आवाज हुई और एक गोली सनसनाती हुई उसके सोने को चीरकर उस पार निकल गई। दूसरे ही क्षण उसका निर्जीव शरीर लड़खड़ा कर गिर पड़ा। विभा चटर्जी के सामने यमराज जैसा वह व्यक्ति अभी भी बन्दूक ताने खड़ा था। विभा चटर्जी भय और आतंक से बुरी तरह काँप रही थी। अन्य आतताई पूरे मकान में घूम रहे थे। समझते देर न लगी, वे सब पहाड़ी डाकू थे। मगर आश्चर्य की बात यह थी कि मुझपर किसी की नजर नहीं पड़ी में खिड़की के पास दुबका खड़ा काँप रहा था।

अचानक फिर गोली छूटने को आवाज हुई और वातावरण में एक मर्मभेदी चीत्कार गूज उठी। मैंने देखा विभा चटर्जी दोनों हाथों से छाती दबाए जमीन पर छटपटा रही थी। उसका सारा शरीर खून से लथपथ था। कुछ क्षण बाद उसने भी दम तोड़ दिया।

हत्या और लूटपाट करके डाकू चले गए तब मेरी चेतना लौटी। मेरे सामने जमीन पर दो-दो लाशें पड़ी थीं, खून से लथपथ! हे भगवान! यह सब क्या है? कहाँ आकर फँस गया मैं? इसके बाद मैं अपने आप पर नियन्त्रण न रख सका। आप ही अनुमान लगाइए, उस वक्त आप यदि होते तो कैसी होती आपकी मानसिक स्थिति? इतनी दूर से क्या सोच-समझकर आया था और हो क्या गया?

मैं बेहताशा भागता हुआ सड़क पर आया। धीरे-धीरे वह अन्धेरी कालरात्रि सिमटने लगी थी और पूरब का आसमान सफेद हो चला था। सबेरा होने वाला था। 
भागता हुआ पूछता पूछता पुलिस स्टेशन पर पहुँचा और मैंने एक ही साँस में रात की सारी घटना इन्स्पेक्टर को सुना दी। मगर उस पर इसकी कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। वह बस अपलक मेरी ओर निहारता रहा। मैंने सोचा, शायद मेरी बातों पर उसे यकीन नहीं हो रहा है।
मैंने दृढ़ स्वर पूछा- 'जो कुछ मैंने बताया है इन्स्पेक्टर क्या आपको उसपर विश्वास नहीं हो रहा है?"
'पूरा विश्वास है' इन्स्पेक्टर बोला- 'लेकिन जिस घटना को आप सुना रहे हैं, वह कल नहीं बल्कि इसी महीने में और इसी तारीख को आज से लगभग तीस वर्ष पहले घटी थी।'

'आप क्या कह रहे हैं?' मैं व्यग्र होकर बोला- 'अपनी आँखों से मैंने सब कुछ देखा है।'
'मैं कब कह रहा हूँ कि आपने नहीं देखा। पर जो कुछ देखा वह सब भयंकर चुड़ैल-लीला थी।'
'चुड़ैल-लीला?"

'जी हाँ! चुड़ैल-लीला! काफी अरसे से यह मकान वीरान पड़ा हुआ है। आज भी कभी-कभी काली अन्धेरी रात में लोगों को विभा चटर्जी देवी की करुण कातर चीख सुनाई पड़ जाती है। राम बहादुर सिंह और विभा चटर्जी देवी की आत्मा न जाने कब तक भटकती रहेगी, बताया नहीं जा सकता।'

मेरी अटैची उसी कमरे में थी। मगर अब वहाँ अकेले जाने का साहस नहीं हुआ। मुझे। अतः मैंने इन्स्पेक्टर को भी साथ ले लिया। जब मैं मकान के भीतर घुसा तो एक अजीब सो दुर्गन्ध भर गई नाक में। पूरे मकान में कब्रिस्तान जैसी खामोशी छाई हुई थी। मेरी अटैची एक टूटी हुई मेज पर पड़ी थी।

पास ही एक टूटा हुआ पुराना पलंग पड़ा था। जब मैं अटैची उठाकर चलने लगा तो अचानक मेरी नजर एक पैकट पर पड़ी। लाल रेशमी कपड़े में लिपटा हुआ था वह। जब मैंने उसे खोलकर देखा तो एकबारगी दंग रह गया। पैकेट में सिन्दूर की डिबिया और काँच की लाल चूड़ियाँ थीं।
मुझे याद आया, रात में मैंने उसी पैकेट को विभा चटर्जी के हाथों में देखा था। उसी को लिए हुए वह मुझसे विगलित स्वर में कह रही थी- 'आज इस सुनी माँग में तुम सिन्दूर भर दो ..... इन सूनी कलाइयों में सुहाग की चूड़ियाँ पहना दो.....।'
कुछ क्षण तक किंकर्तव्यविमूढ़-सा खड़ा न जाने क्या सोचता रहा। फिर मैं भारी कदमों से बाहर निकल आया।

मेरी वापीसी की ट्रेन दो दिन बाद की थी इसलिए मैंने देहरादून राजपुर नामक जगह पर ही शिवालिक लॉज में रुकने का ही निर्णय लिया। मैंने दीवार की खूंटी से लटके अपने प्लास्टिक के बैग को खोल कर एक बोतल बाहर निकाल ली। एक सांस में आधी से अधिक शराब मेरे हलक में पहुंच गई। दिमाग में चल रहे उथल पुथल को केवल यही एकमात्र औषधि कुछ देर के लिए विश्राम दे सकता था। हुआ भी यही की कुछ देर बाद खाने पीने के बाद ही कंपकंपाती ठंड और विभा की यादों से कुछ राहत मिलती महसूस हुई और मैं बिस्तर पर आ कर पसर गया।

रात के किसी समय मुझे ऐसा एहसास हुआ जैसे कोई मेरे सिरहाने आ कर खड़ी है। विभा चटर्जी सिरहाने आकर खड़ी हो गई है। कमरे का तापमान अनायास ही बदलने लगा और किसी हिम की भांति तापमान गिरता चला गया। विभा झुककर मेरे ऊपर मोहभरे स्वर में कहती है- 'प्रफुल्ल काफी थक गए हो लाओ सिर दबा दूँ। कितना काम करते हो तुम? देखकर कलेजा फट जाता है मेरा।’
मैं झटके से उठकर बैठ गया और उसकी कलाई थामते हुए बोला, ‘अरे नहीं विभा! इसकी कोई जरूरत नहीं, तुम आ गई हो तो मात्र तुम्हारे रूप के दर्शन ने मेरी सारी थकान ही मिटा डाली है, सच!’

उसने मेरे पैर पर अपनी पकड़ जमाती हुई बोली, ‘इतना श्रम मत किया करो। लाओ तुम्हारा पैर ही दबा दूँ...!’
मैंने उसके चेहरे के भाव को पढ़ते हुए उसे कहा, 'तुम आ गई हो तो जिन्दगी का सारा क्लेश, सारी व्यथा, सारी पीड़ा और सारी थकान भूल गया। कितना सन्तुष्ट हूँ? कितना सुखी हूँ मैं तुम्हारे सान्निध्य में। तुम मेरे साथ रहोगी न?'

उसकी आँखों में पानी भर आया और मुझे आलिंगन करती हुई बोली, 'प्रफुल्ल! मैं तुम्हारी थी, तुम्हारी हूँ और हमेशा तुम्हारी ही रहूँगी परंतु...!' यह कहती हुई उसकी जुबान पर विराम लग गए थे। उसके ऐसा कहते ही मैंने महसूस किया की उसकी धड़कने में एकदम से स्थिर हो गए थे और उसके शरीर का तापमान भी किसी बर्फ की सिली की तरह महसूस हो रही थी।

मैंने झटके से उसको अपने जिस्म से अलग किया और उसकी आँखों में झाँकते हुए पूछा, ‘परंतु क्या विभा... बोलो ना परंतु क्या?’

यह कहते के साथ मैं नख से शीर्ष तक सिहर गया था। विभा की आँखों में कोई पुतलियाँ मौजूद ही नहीं थी। आँखों में ऐसी गहराई जैसे किसी ने उसकी दोनों आँखें किसी नुकीली और धारदार हथियार से निकाल ली गई हों।

अगले ही पल वह गुरुत्व के खिलाफ हवा में लहराने लगी और हवा में दो फुट ऊपर उठ गई और बोली, 'मेरे प्रफुल्ल! मैं एक भटकती हुई आत्मा हूँ। मुझे तुम्हारी सहायता चाहिए। तुम्हारे अलावा संसार में और कोई मेरा उद्धार करने वाला नहीं है। मैं तुम्हारा पिछले 30 सालों से लगातार राह देख रही हूँ। एक बार फिर से मेरी हवेली चले आओ, मुझसे मिलो। मैं अब तुम्हारे साथ कुछ वक्त गुजारना चाहती हूँ? मैं तुम्हारे हाथों से अपनी मांग में सिंदूर और हाथ में लाल चूड़ियाँ सजी देखना चाहती हूँ। मेरे लिए सारे बन्धन टूट चुके हैं। अब मैं रोज तुम्हारी राह देखूँगी। आओगे न? मुझे अपना बना के हमेशा के लिए अपने साथ ले चलोगे न?'
यह कहते के साथ विभा एक धुएं में परिवर्तित हो गई और झस्स करती हुई खिड़की से बाहर निकल के कहीं अदृश्य हो गई।

‘धम्म! धड़ाम!!’ इस आवाज के साथ में फर्श पर गिर चुका था। मैं झटके से उठकर खड़ा हो गया और उस खिड़की की तरफ देखने लगा जिस तरफ विभा के साये को जाते हुए थोड़ी देर पहले देखा था।
‘ओह्ह! यह सब क्या था? क्या मैं नींद में था और बिस्तर से नीचे गिर गया था। या विभा से साक्षात्कार होना वास्तव में एक सत्य घटना थी जिसको मैंने स्वयं महसूस किया था।’

कुछ क्षण तक मैं निर्जीव सा खड़ा रहा और उस घटना को वास्तविकता और स्वप्न से तुलना करता रहा।

मैं बिस्तर पर आ के बैठा और दुबारा से काफी देर से शांत पड़ी बोतल को खत्म किया और कब नींद लग गई पता ही नहीं चला। जैसे लग रहा था की मैं नींद में नहीं हूँ एक गहरी बेहोशी की दशा में चला जा रहा हूँ और डूबता चला जा रहा हूँ।

पता नहीं कब तक मैं निद्रा की आगोश में समाया रहा, जब मेरी आँखें खुली तो खिड़की से धूप मेरे चेहरे पर पड़ रही थी। शिवालिक लॉज के सामने एक विशालकाय प्रकाशेवर महदेव (शिव जी) का मंदिर था जहां से मंत्र और घंटे की आवाज से मेरी तंद्रा टूटी थी। इतने विलंब से उठने की वजह शायद कल रात अत्यधिक मदिरापान इसकी सबसे बड़ी वजह थी। मेरा सिर भयंकर दर्द से फट रहा था।

मेरा दिमाग इस घटना को मानने को बिल्कुल भी तैयार नहीं था परंतु दिल के किसी कोने में वहाँ सामने मेज पर पड़े सिंदूर की डिबिया और कांच की लाल चूड़ियाँ चीख चीख के गवाही दे रही थीं की प्रफुल्ल जो तूने कल रात का खौफनाक मंजर देखा उसे इतनी आसानी से झुठलाया नहीं जा सकता। वह सिंदूर की डिब्बी और लाल चूड़ियाँ वहीं मेज पर रखी हुई थीं।

मैं बड़ी ही मुश्किल से बिस्तर से उठा काफी कमजोरी महसूस हो रही थी ऐसा लगा रहा था जैसे किसी ने मेरे सारे शरीर का एक-एक बूंद रक्त सोख लिया हो। असीम कमजोरी का एहसास हो रहा था। सारे शरीर में जैसे हजारों सुइयां चुभ रही हों। असीम वेदना से मेरा शरीर और मेरी आत्मा फट रही थी। किसी तरह मैंने बचीखुची शक्तियों को एकत्रित किया और बड़ी ही मुश्किल से बिस्तर से उठा था और अपनी अटैची से उस खत को बाहर निकाला। मैंने दुबारा उसे बारीकी से निहारता हुआ बोला, ‘नहीं, यह झूठ नहीं हो सकता। उसकी लिखावट और मेरे प्रति उसके हृदय में पनपने वाला स्नेह झूठा नहीं हो सकता। मैं उसको यूं ही तड़पते हुए बिल्कुल नहीं छोड़ सकता। उसने मुझे बुलाया और मुझे वहाँ जाना ही चाहिए।’

मैं पूरे दिन शिवालिक लॉज में ही रहा और सूर्यास्त के बाद विभा से होने वाली मुलाकात के विषय में मंथन करता रहा। 
रात्रि भोजन के पश्चात मैंने उस हवेली में जाने का निर्णय किया। चूंकि शिवालिक लॉज देहरादून के राजपुर नामक जगह पर ही था। मुझे लॉज में साफ सफाई का काम करने वाले छोटू ने बताया था की उस लॉज से पीछे से एक पैदल मार्ग है जो उस हवेली तक जाने का काफी शॉर्टकट मार्ग था। जहां से वह हवेली पैदल से जाते हुए मात्र एक मील ही दूर थी। मैं सबसे नजरें बचाता हुआ उस दिशा में निकल पड़ा। मुझे आज सच्चाई जाननी थी और इस सिर दर्द से हमेशा के लिए मुक्ति चाहिए थी।
अभी मुश्किल से आधी दूरी ही चला था की तभी अचानक वहाँ पीपल का विशाल पेड़ नजर आया जहां कोई प्रेत उस पेड़ के एक शाखा पर उल्टा लटका हुआ था। यह दृश्य देखते ही मैं एकबारगी शीर्ष से नख तक सिहर उठा।
‘हे भगवान अब क्या होगा? म... मैं इस शैतान से सामना कैसे करूंगा?’ मैंने इतना कहा ही था की तभी अगले पल वह प्रेत हवाई गुलाटी मारता हुआ उस मार्ग को रोकते हुए मेरे सम्मुख खड़ा हो गया।

मैंने मन ही मन बजरंगबली का स्मरण किया और उससे ना डरने का अभिनय करते हुए दृढ़ता से बोला, ‘कौन हो तुम और मेरा इस तरह से मार्ग क्यों रोका हुआ है?’

वह काफी जोर से हंसा और बोला, ‘मैं श्मशान पिशाच हूँ और यह पीपल का पेड़ मेरा निवास स्थान है।’

‘जब तुम श्मशान पिशाच हो तो तुम्हें श्मशान में होना चाहिए था। यहाँ क्या कर रहे हो?’ मैंने तपाक से उससे प्रश्न कर दिए।
वह फिर से जोर से हंसा और बोला, ‘हाँ मैं वहीं जा रहा था परंतु तुमको इस ओर आता देखा तो मेरी जिज्ञासा बढ़ गई।’
मैंने उससे कहा, ‘ठीक है अब मुझे जाने दो, मैं बहुत जरूरी काम से जा रहा हूँ।’ उस प्रेत ने मुझे डरते हुए कहा, ‘पता है मेरी बहुत बड़ी मंडली है, यहाँ जो भी आता-जाता है उसका पहले मुझसे सामना होता है। यदि उसने मेरी बात नहीं मानी तो यमलोक पहुंचा देता हूँ मैं।’
मैंने झुँझलाते हुए कहा, ‘आखिर तुम क्या चाहते हो?’
उस प्रेत ने कहा, ‘खैर यह सब छोड़ो! तुम यह सब जानकार क्या करोगे। यह सब प्रेतों की गतिमती है, मैं किसी भी स्थान पर जा सकता हूँ। इससे तुमको क्या लेना देना? यदि तुम इस मार्ग में आगे बढ़ना चाहते हो तो बदले में तुम्हें अपने शरीर का पूरा रक्त अथवा मदिरा देनी होगी।’
तभी मुझे ध्यान आया की मेरे बैग में एक मदिरा की बोतल शेष बची हुई थी। मैं इससे माथापच्ची नहीं करना चाहता था इसलिए मैंने झट से उस मदिरा की बोतल को उसके सामने रख दी।
‘बड़े ही समझदार मालूम पड़ते हो। लेकिन तुमको इतनी आसानी से कैसे जाने दे सकता हूँ।’
‘यह धोखा है। तुम ऐसा नहीं कर सकते। मैंने तुम्हारी मांग पूरी कर दी है इसलिए मुझे जाने दो।’

मेरी यह बात सुनते ही वह प्रेत मेरे समीप आया और मेरे गले के पास अपनी जिह्वा लपलपाते हुए बोला, ‘यदि थोड़ा सा रक्त भी मिल जाता तो मजा ही आ जाए। तुम्हारा रक्त पूर्णतया सात्विक और शुद्ध है जो की काफी ऊर्जावान है। अब तो इसे चखना ही पड़ेगा।’

मन में पता नहीं कैसे कैसे विचार आ रहे थे। मैं मन ही मन बड़बड़ाने लगा, ‘क्या करूँ, क्या न करूँ? पता नहीं किस मुसीबत में फंस गया। आया था विभा के भावनाओं में वशीभूत हो कर और फंस गया श्मशान पिशाच के चक्कर में।’ तभी खट खट की आहट हुई और कोई साया मेरी तरफ आता हुआ दिखा। अगले ही क्षण काले वस्त्र धरण किए हुए कोई शख्स था। जब वह समीप आया तो देखा वह कोई तांत्रिक था।
उस तांत्रिक ने उस श्मशान पिशाच की तरफ देखा और जोर से चीखा, ‘तू फिर जीवित लोगों को परेशान करने लगा। तेरा श्मशान में स्थान है तो यहाँ क्या कर रहा है। रुक तुझे अभी बताता हूँ।’

यह कहते के साथ उस तांत्रिक ने अपने झोले में हाथ डाला और भभूत हाथ में निकाल लिया और अपनी आँखें बंदकर के कोई मंत्र बुदबुदाने लगा। अगले ही पल उस भभूत को श्मशान पिशाच की तरफ फेंक दिया। अगले ही पल वह श्मशान पिशाच किसी धुएं में परिवर्तित हो गया। यह देखते उस तांत्रिक ने एक कांच की छोटी शीशी निकाली और उसका ढक्कन खोल दिया। अगले ही पल वह श्मशान पिशाच उस शीशी के अंदर समा गया। तांत्रिक ने फट से ढक्कन लगाकर अपने काले थैले में सुरक्षित रख लिया।

इससे पहले मैं कुछ कहता वो तांत्रिक मेरी तरफ देखने लगा और फिर जैसे उसने मेरी आँखों से सारे भाव पढ़ लिए हो। वह बोला, ‘वह श्मशान पिशाच है और यहाँ से 2 मील दूर एक श्मशान है वो अपनी टोली के साथ वहीं रहता है। मैं उसी श्मशान जा रहा हूँ, इसको ठिकाने लगा दूंगा। तुम जिस कार्य को करने आए हो उसे जल्द पूर्ण करो और कल सूर्योदय के पश्चात इस शहर को छोड़ दो, इसमें ही तुम्हारा भला है।’

मैं बोला, ‘ल... लेकिन क्या मेरा ऐसा करना प्रकृति के नियम के खिलाफ नहीं होगा? क्या मेरा ऐसा करना सही होगा?’
उस तांत्रिक ने मुस्कुराते हुए मेरी ओर देखा और कहा, ‘प्रकृति के प्रांगण में किसी घटना को चमत्कार अथवा अलौकिक नहीं कहा जा सकता। प्रकृति के नियम के विरुद्ध कुछ भी नहीं है। तुमने जो कुछ भी देखा वह सब नियम के अंतर्गत है। कोई भी व्यक्ति प्रकृति के नियम की उपेक्षा नहीं कर सकता। नियम का पालन करना उसका धर्म और कर्तव्य है, उसके विरुद्ध जाने पर उस व्यक्ति की हानि निश्चित है। इसलिए तुम जो करने जा रहे हो उसमें कोई भी अनुचित कार्य नहीं है। किसी अशरीरी शक्ति की यदि मुक्ति का मार्ग तुम्हारे हाथों से ही होना लिखित है तो इसमें भय और संकोच कैसा?’

यह कहने के पश्चात वह अपने मार्ग में आगे बढ़ चले। मैं कुछ देर तक मौन उन्हें ताकता रहा फिर उस हवेली की दिशा में बढ़ चला।
अब साँझ की स्याह कालिमा अब तक निविड़ रात्री के घोर अंधकार में बदल चुकी थी। कुत्तों का विलाप और सियारों का रुदन अब अधिक बढ़ गया था। मैं उस हवेली के सामने था। एकाएक उस गहने निविड़ रात्री के अंधकार में निस्तब्धता को चीरती हुई कोमल और स्निग्ध आवाज सुनाई दी, ‘प्रफुल्ल! मेरे प्रफुल्ल आखिर तुम आ ही गए!’

निश्चय ही वह किसी नारी कंठ से निकली हुई आवाज विभा चटर्जी की थी इसमें कोई संदेह नहीं। मैंने आँखों की पुतलियाँ फैलाकर चारों दिशा में सूक्ष्म अवलोकन किया परंतु सिवाय जुगनुओं के वहाँ कोई भी नहीं था।

मैंने उस आवाज का पीछा करना शुरू किया और उस हवेली के और अंदर प्रवेश कर गया। मैं अब हवेली की गहराई में आ चुका था जहां से चारों दिशाओं में जो कमरे थे उनकी तरफ रास्ते जा रहे थे।

तभी सहसा एक रोशनी मेरी आँखों से चौंधिया गई। मैंने आँखों को खोलकर पुनः देखा तो पाया कि मेरे सामने विभा खड़ी मुस्करा रही थी। उसके शरीर पर लाल रंग का जोड़ा जो विवाह के वक्त पहना जाता है वो मौजूद था और बेशकीमिति जेवर थे। ऐसा लगा जैसे वह अभी-अभी श्रृंगार करके चली आ रही है।

विभा आज बेहद खूबसूरत लग रही थी जैसे मानों कोई अप्सरा स्वर्ग से धरती पर उतर आई हो। उसका यह मोहिनी रूप मैंने आज से पहले कभी नहीं देखा था। मैं उसके इस सौन्दर्य के प्रति सम्मोहित हो गया था।
वह मेरे करीब आई और बोली, ‘मेरे प्रफुल्ल! मुझे पता था की तुम अवश्य आओगे। मुझे निराश नहीं करोगे। मैंने 30 सालों का एक लंबा अरसा तुम्हारी यादों में गुजार दिया है। मुझे मुक्ति सिर्फ तुम्हारी हाथों से ही मिल सकती है, आओ आगे बढ़ो मेरे प्रियतम और इस सूनी मांग को सिंदूर से भर दो। यह सुनी कलाई तुम्हें सुहाग के रूप में पाने को बेताब हैं।’

मैंने जवाब में कहा, ‘हाँ विभा! मैं आ गया हूँ। मुझे दुख है की तुमने इतने सालों तक यातनाएं झेलीं लेकिन मुझे इस बात की खुशी है की अब भी तुम मुझे उतना ही प्यार करती हो जितना तीन दशक पहले किया करती थी।’

मैंने यह कहते के साथ अपने बैग से चूड़ी का डिब्बा निकाला और उनमें से कुछ चूड़ियाँ उसकी दोनों कलाई में पहना डाली। मैंने सिंदूर का डिब्बा निकाला और उसको सुहागन होने का अधिकार दिया।

वह अपनी बाहों का हार मेरे कंधों पर रखती हुई बोली, ‘सच में आज बहुत खुश हूँ प्रफुल्ल। तुमने मेरी दिल की इच्छा पूरी की अब मैं खुशी खुशी यहाँ से जा सकती हूँ। शुक्रिया मेरे प्रियतम जो तुमने अपनी प्रेयसी के लिए इतना किया। तुम्हारा नाम आशिकों की फेहरिस्त में शुमार हो गया। अब मेरे जाने का वक्त आ गया है। अलविदा मेरे प्रियतम।’

उसने इतना कहा ही था की तभी मैंने उसकी हथेली को थाम लिया और बोला, ‘नहीं विभा ऐसे नहीं। मैं भी तुम्हारे साथ चलना चाहता हूँ। यहाँ कोई भी नहीं मेरा जो मुझ पर इतना प्रेम लूटा सके। यदि तुमने मुझसे जरा सा भी प्रेम किया है तो मुझे भी अपने संग ले चलो।’
विभा के होंठों पर रहस्यमयी मुस्कान फैल गई और वह बोली, ‘ठीक है मेरे प्रियतम यदि तुम ऐसा ही चाहते हो तो चलो मेरे संग।’

उसके ऐसा कहते ही मेरे शरीर में जोरदार झटका लगा और अब उसके साथ हवा में तैर रहा था। मेरा पार्थिव शरीर धरती पर पड़ा हुआ था। मुझे उस शरीर को देखने के बाद भी उसे पाने की कोई चाह नहीं थी नया ही कोई लालसा किसी तरह के मन में था। मुझे मेरा सच्चा प्रेम मिल गया था तो भला अब उस शरीर की क्या आवश्यकता? अब इसके प्रति क्यों मोह रखूं? मैं इसके बिना भी जीवंत महसूस कर रहा था जहां कोई बंधन या आशक्ति नहीं थी जिसकी अनुभूति बेहद सुखी कर रही थी। इतना ही नहीं भौतिक जगत और जीवन से संबंधित सारी स्मृति भी लुप्त हो गई थी। अब मेरे चारों ओर कोहरा जैसा छाया हुआ था। ऐसा लग रहा था जैसे मैं कोहरे के गहने बादलों के बीच तैर रहा हूँ। मुझे किसी तरह से कोई बल लगाने की आवश्यकता नहीं हो रही थी। पता नहीं मैं किस जगत मैं आ पहुचा था जहां चारों तरफ विभिन्न रंगों और विभिन्न प्रकारों के फूल ही फूल खिले थें। जिनकी सुगंध से वातावरण सुगंधित हो उठा था। चारों तरफ बिखराय हुआ प्रकाश हर क्षण अपना रंग बदल रहा था। कभी गुलाबी, कभी हरा, कभी नीला, तो कभी लाल रंग का प्रकाश हो जाता था।

तभी अचानक उसी अवस्था में दो दिव्य पुरुष आए और मेरे अगल-बगल चुपचाप खड़े हो गए। वे दोनों मानवाकृति में थे तो अवश्य, लेकिन उनमें विलक्षणता भी थी। उनके कान काफी बड़े थे। आँखे लम्बी और पलके स्थिर थीं। माथा काफी चौड़ा था। सिर मुड़ा हुआ था। शरीर इकहरा और रंग नीला था। लम्बाई आठ फुट से कम न रही होगी। मैं उनके सामने बौना सा लग रहा था। और उनके शरीर पर पीतवर्ण का रेशमी वस्त्र था। उनके नीलवर्ण शरीर पर पीतवर्ण का रेशमी वस्त्र था। और उनके शरीर से दिव्य गन्ध निकल रही थी।

वे दोनों दिव्य पुरुष मुझे अपने साथ लेकर आकाश में चलने लगे। उनके चलने की गति तीव्र थी। मैं भी उसी गति से चल रहा था। मेरा शरीर कैसा था यह तो बतला नहीं सकता लेकिन मैं अपने आप में काफी हल्कापन और अत्यधिक स्फूर्ति का अनुभव कर रहा था। कुछ ही देर में मैं उन दोनों व्यक्तियों के साथ काफी दूर निकल गया। चारों तरफ नजर घुमाकर मैंने देखा सर्वत्र गहरी नीलिमा फैली हुई थी। दिशाएँ मौन और उदास लग रहीं थी। अब मैं जहाँ था वहाँ सामने विशाल सागर फैला हुआ था। जिसका पानी सुनहरा था। वातावरण में गहरी निस्तब्धता और अपूर्व शान्ति थी। मैंने देखा उस विशाल सागर के ऊपर कई पाषाण खण्ड तैर रहे थे। वे कितने लम्बे चौड़े और विशाल थे, यह मैं नहीं बतला सकता। सभी पाषाण खण्डों पर काफी ऊँचे लम्बे चौड़े महल बने हुए थे। सभी महल पारदर्शक और प्रकाशवान थे। उनके सामने सुन्दर पुष्पों और फलों के बाग थे। असीम शान्ति और प्रसन्नता का अनुभव हो रहा था मुझे उसी समय मैंने देखा कि एक जगमगाता हुआ प्रकाश पुंज मेरे समीप आ रहा है। मेरी आँखे चकाचौंध हो गई।

बाद में स्पष्ट हुआ विविध प्रकार के रत्नों से जड़ित बहुत ही सुन्दर और आकर्षक विमान था वह उस विमान का आकार-प्रकार इतना अद्भुत था कि उसका वर्णन करना मेरे लिए असम्भव सा है। मेरे पास वर्णन के लिए शब्द ही नहीं हैं, विमान के भीतर सुनहला प्रकाश फैल रहा था। मैंने देखा विमान के भीतर रत्न मण्डित सोने का एक सिंहासन था। जिस पर एक लावण्यमयी सुन्दर युवती पद्मासन की मुद्रा में बैठी हुई थी। उस युवती के बगल पाँच छ सुन्दर षोडशी कन्याएँ खड़ी पुष्पमाला गूंध रही थीं। वह सम्पूर्ण दृश्य देखकर भाव विभोर हो गया मैं। मेरे साथ वाले एक व्यक्ति ने बतलाया कि यह दिव्यलोक है और सिहांसन पर बैठी देवी इस दिव्यलोक की स्वामिनी है।

सहसा उस देवी ने मेरी ओर देखकर मेरे साथ के व्यक्तियों को कोई संकेत किया और उनका संकेत पाते ही उन दोनों व्यक्तियों ने मुझे कस कर पकड़ लिया और वे मुझसे बोले, ‘तुम्हारी यहाँ आने की जुर्रत कैसे हुई?’
विभा ने फौरन उन दिव्य पुरुष के पास आई और बोली, ‘क्षमा करें दिव्य पुरुष’! इसे मैं यहाँ ले कर आई हूँ। यह स्वयं अपनी मर्जी से मेरे साथ आने की अभिलाषा रखता है।’

दिव्य पुरुष ने मेरी तरफ देखा और कहा, ‘इसकी आयु अभी 13 वर्ष 3 माह और 3 दिन शेष है। उसे पूर्ण किए बिना ये हमारे संग नहीं आ सकता। चूंकि तुम्हें मुक्ति मिली है इसलिए हम केवल तुम्हें लेने आए हैं।’

यह कहते हुए उस दिव्य पुरुष में से एक ने मेरे गले में एक फूलों का हार डाल कर अपने साथ उस दिव्य रथ में ले जाने के लिए सत्कार किया।

विभा का चेहरा निर्विकार हो गया। वह मेरे समीप आई और बोली, ‘मेरे प्रफुल्ल! इनका कहना बिल्कुल सत्य है। तुम्हें जाना ही होगा।
मैंने अपना वादा पूरा नहीं किया इसका मुझे दुख है, मैं तुम्हारी प्रेयसी बनी परंतु  तुम्हारी अर्धांगिनी बनकर पत्नी रूप में नहीं भोगा। मेरे प्रियतम क्षमा करना मुझे। मैं जानती हूँ तुम मेरे बिना नहीं रह सकोगे। तोड़ दोगे तुम अपने आपको! मेरे अभाव में तुम संसार मे कैसे रहोगे इसकी कल्पना कर के मेरी आत्मा सिहर उठती हूँ। लेकिन मैं विधि के विधान के सम्मुख कर ही क्या सकती हूँ। लाचार हूँ, विवश हूँ। नियति के सामने हार रही हूँ मैं। मृत्यु हम दोनों को अलग अवश्य कर रही है, मगर हम दोनों का आत्मा के स्तर पर हमेशा-हमेशा संबंध बना रहेगा। मैं पूरे यकीन से कह सकती हूँ की हम लोग कभी किसी काल में अवश्य ही मिलेंगे। मैं तुम्हारा तब तक इंतजार करूंगी।'

'ऐसा मत कहो विभा। ऐसा मत बोलो। विभा का दोनों हाथ अपने हाथों में लेते हुये करुण और विचलित स्वर में मैंने कहा- ‘तुम तो अच्छी तरह समझती हो कि तुम्हारे बिना मैं रह नही सकता इस संसार में। तुम्हारे अभाव में मेरा जीवन शून्य हो जाएगा। कब्रिस्तान की सारी खामोशी और श्मशान की सारी नीरवता भर जाएगी मेरे जीवन में। सारा भविष्य गहन अन्धकार में डूब जाएगा!’ बोलो विभा तुम मुझे अपने साथ अभी इसी वक्त ले चलोगी नया?’ मगर मेरे इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए निशा थी कहाँ? उसकी आत्मा शरीर का बंधन तोड़ कर महायात्रा पर निकल गई थी।

इस घटना को घटित हुए एक दशक गुजर गया है। उस दिव्य पुरुष के अनुसार अभी मेरे पास 3 वर्ष एवं 3 मास का समय और शेष है। क्या सच में इस कार्यकाल को पूर्ण करने के पश्चात मेरी मुलाकात फिर से मेरी प्यारी विभा से होगी और फिर हम दोनों शरीर का बंधन से हमेशा के लिए आजाद हो जाएंगे। मगर सिन्दूर की वह डिबिया और कांच को वे लाल चूड़ियाँ आज भी मेरे पास सुरक्षित पड़ी हुई हैं।

***समाप्त***