सोफिया का दारूखाना ।
देसी बाटली-
मसाले वाला पाऊच-
अंग्रेजी बाटली-
सस्ते दाम पर साथ में मुफ्त मिर्च-मसाले वाले चने ।
विजय बेदी के कदम ठिठक गये, उस छोटे से बोर्ड को देखकर। जो कि मजबूत सी नजर आने वाली, दो मंजिला पुरानी बिल्डिंग के बाहर लगा था। बोर्ड के साथ ही दो फीट चौड़ी सीढ़ियां ऊपर जा रही थीं।
शाम के सात बज रहे थे। कुछ ही देर में अंधेरा घिरने वाला था।
बोर्ड पर निगाहें टिकाये, बेदी के मस्तिष्क में सोचें तेजी से दौड़ रही थीं। डाक्टर वधावन के बताये दो महीने बीत चुके थे, परन्तु वो अभी भी जिन्दा था। दिमाग में फंसी गोली ने अपना जहर अभी नहीं फैलाया था, परन्तु गोली अपना काम कभी भी कर सकती थी। वो कभी भी मर सकता था। जबकि बेदी लम्बी जिन्दगी जीना चाहता था। इसके लिये जरूरत थी दिमाग में फंसी गोली निकल जाये और वो वधावन से ऑपरेशन कराकर मस्तिष्क में फंसी गोली निकलवाना चाहता था, जो कि सफल ऑपरेशन की गारण्टी देता था, परन्तु फीस के तौर पर सनकी बूढ़ा डाक्टर वधावन बारह लाख एडवांस मांगता था। और अब तक छः लाख का इन्तजाम हो चुका था, जोकि उदयवीर के पास मौजूद थे बाकी के छः लाख का इन्तजाम करने के फेर में शुक्रा जेल में जा पहुंचा था। और अब बेदी छः लाख का इन्तजाम करने के फेर में अपनी भागदौड़ शुरू कर चुका था।
उस बोर्ड को देखते हुए बेदी सोच रहा था कि छः लाख जैसी बड़ी रकम का इन्तजाम शराफत से तो हो नहीं सकता। ऐसे में लम्बा वक्त लग जायेगा और शायद तब तक दिमाग में फंसी गोली अपना जहर फैला दे और वो जिन्दा ही न रहे। जाहिर था कि छः लाख का इन्तजाम करने के लिए उसे कोई गलत रास्ता ही अपनाना पड़ेगा और इस गलत रास्ते की जानकारी ऐसे ही किसी घटिया बार से मिल सकती है, जहां अधिकतर गैर-कानूनी काम करने वाले लोग ही आते हों।
छः लाख का इन्तजाम करना निहायत ही जरूरी था।
वरना उदयवीर के पास रखा बाकी का छः लाख भी उसके लिए बेकार है।
और वो अपनी जान गंवा बैठेगा।
इस सोच के पश्चात ही बेदी आगे बढ़ा और बोर्ड के पास मौजूद सीढ़ियों के पास पहुंचकर ठिठका और एक निगाह ऊपर मारी । सीढ़ियों पर अंधेरा था। ऊपर जीरो वॉट का रोशन बल्ब नजर आया। तभी एक आदमी ने उसे बांह से पकड़कर पीछे किया और उखड़े स्वर में बोला ।
“देखता क्या है।" उसकी आवाज में नशा था। वो पिए हुए था--- “ऊपर खिसक या बाजू को हट। तेरे पास वक्त होगा, दूसरों के पास वक्त नहीं है तांक-झांक करने का।" कहने के साथ ही वो सीढ़ियां चढ़ने लगा--- “रास्ते में खड़े होकर खामखाह वक्त खराब कर दिया। अब तक तो मसाले वाली एक थैली पेट में पहुंच चुकी होती।"
बिना देर लगाये बेदी उसके पीछे-पीछे सीढ़ियां चढ़ने लगा। सीढ़ियां समाप्त होने पर आठ फीट लम्बी-चौड़ी खाली जगह थी। जिसमें तीन तरफ दरवाजे लगे हुए थे। वो व्यक्ति सामने वाला दरवाजा धकेलकर भीतर चला गया। दरवाजा बंद हो गया। बेदी ने देखा, दरवाजे पर “सोफिया का दारूखाना" लिखी छोटी-सी पट्टी लगी है।
बेदी आगे बढ़ा और दरवाजा धकेलकर भीतर प्रवेश कर गया।
सामने ही बहुत बड़ा हॉल नजर आया। वहां लकड़ी की टेबलें और बेंचें लगे नज़र आ रहे थे। एक कोने में चार बढियां टेबलें थीं। हर टेबल के पीछे चार कुर्सियां मौजूद थीं। टेबलों पर ताजे फूल, फूलदानों में लगा रखे थे। टेबलों पर कपड़ा बिछा रखा था।
इस वक्त वहां पच्चीस-तीस लोग मौजूद थे। जो लकड़ी की टेबलों और बैंचों पर थे। वो चार टेबलें खाली थीं। उन पर कोई व्यक्ति नहीं बैठा था। जरूरत के मुताबिक ही शोर उठ रहा था। पीने के दौरान बातों का दौर जारी था। एक तरफ बॉर बना हुआ था। करीब बीस फीट लम्बा बार काऊन्टर था। जिसके पीछे तीन व्यक्ति मौजूद थे। एक गिलास और बोतलों को साफ करके रख रहा था। वहाँ देसी और अंग्रेजी बोतलें रैक में रखी नजर आ रही थीं। दूसरा भी अपने काम में व्यस्त था। तीसरा वॉर काऊन्टर से टेक लगाये, हॉल में नजरें दौड़ा रहा था।
दो-तीन लोग पीने वालों को सामान सर्व करने में व्यस्त थे ।
बेदी की निगाहें, ये सब देखकर हटी ही थीं कि एक व्यक्ति उसके सामने पहुंचा। बेदी ने उसे देखा। वो पैंतालिस-पचास बरस का बदमाश टाईप व्यक्ति था ।
"पहली बार आया है तू यहां ?" उसने दादाई लहजे में पूछा !
"हां।" कहने के साथ ही बेदी ने सिर हिलाया।
“ठीक है। ठीक है। आराम से बैठ। पी। कोई लफड़ा नहीं करने का। अगर किया तो सीढ़ियों से नीचे लुढ़काना, मेरी नौकरी का हिस्सा है। याद हैं वो सीढ़ियां, जिन्हें चढ़कर तू यहां तक पहुंचा है।"
बेदी ने पुनः बेहद शांत भाव में सिर हिलाया ।
“और सुन।" बदमाश ने पुनः कहा--- “देसी पीनी हो तो बैंच पर बैठकर पीना। अंग्रेजी पीने वालों के लिए वो टेबलें हैं। समझा क्या, कुर्सी पर वही बैठेगा जो अंग्रेजी पिएगा।"
" समझ गया।” बेदी ने शांत स्वर में कहा।
"जा। मजे ले ।" कहने के साथ ही वो, वहां से हट गया।
बेदी आगे बढ़ा और कोने में मौजूद कुर्सी पर जा बैठा। सिग्रेट सुलगाने के बाद उसने बैंच पर बैठे लोगों को देखा। तभी एक आदमी उसके पास पहुंचा।
“दो सौ रुपये।” वो बोला।
“दो सौ रुपये?” बेदी के होंठों से अजीब-सा स्वर निकला--- “किस बात के ?"
"दारू के।" वो मुस्करा पड़ा--- "जो बैंच पर बैठते हैं, उनसे एडवान्स में पचास रुपये लिए जाते हैं। जो यहां बैठकर अंग्रेजी पीते हैं, उनसे एडवान्स में दो सौ रुपये लिए जाते हैं।"
“वो क्यों ?" बेदी के होंठ सिकुड़ गये।
"ताकि पीने वालों को मालूम होता रहे कि कितना माल उसके अन्दर जा चुका है। जब दिए रुपयों की दारू पी ली जाती है तो उसके बाद तभी दारू दी जाती है, जब वो और नोट दें।" वो मुस्करा रहा था--- "पीने के बाद बंदा भूल जाता है कि अन्दर कितनी गई। पहले पैसे ले लें तो हमें सिर नहीं खपाना पड़ता।”
"ऐसा करना बुरा नहीं ।" बेदी के चेहरे पर हल्की-सी मुस्कान उभरी--- "लेकिन हिसाब कौन रखेगा?"
"मैं रखूंगा।"
"तुम तो सौ की पिलाकर, ये भी कह सकते हो कि दो सौ की पिला दी।"
"ऐसा करने लगे तो दूसरे ही दिन धंधा बंद हो जायेगा। हम पूरी ईमानदारी इस्तेमाल करते हैं।"
बेदी ने जेब से दो सौ रुपये निकाले और उसे थमा दिए ।
"क्या लाऊं ?"
“व्हिस्की। स्माल पैग।”
"कौन से ब्रांड की व्हिस्की ? यहां हर तरह का माल मिलता है। "
"ऐसा ब्रांड जो न ज्यादा महंगा हो और न सस्ता ।"
"समझ गया। बीच के रेट वाला ।" उसने तुरन्त सिर हिलाकर कहा--- “ये जो दो सौ रुपये दिए हैं, ये तो व्हिस्की के हैं। बाद में अगर आप 'टिप' वगैरह देना चाहें तो और नोट निकालकर बेशक दे सकते हैं।"
बेदी ने मुस्करा कर सिर हिलाया। वो व्यक्ति चला गया।
बेदी की निगाहें पुनः बैंच पर बैठे लोगों पर फिरने लगीं कि कौन उसके काम का व्यक्ति हो सकता है। मिनट भर में ही वो व्यक्ति स्माल पैग और छोटी सी कटोरी में चने रख गया। बेदी ने गिलास उठाकर, छोटा सा घूंट भरा और वापस टेबल पर रख दिया। वो यहां सिर्फ अपने काम का आदमी ढूंढने आया था। जो कि उसे छः लाख का इन्तजाम करने का रास्ता दिखा सके।
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आठ बजे का वक्त रहा होगा, जब उस व्यक्ति ने भीतर प्रवेश किया।
पचपन बरस की उम्र होगी उसकी। दो-तीन दिन की शेव बढ़ी हुई थी। काले-सफेद बाल भी कुछ उलझे-उलझे लग रहे थे। वो कमीज-पैंट पहने था, जो कि मैली सी हो रही थी। उसकी हालत बता रही थी कि तमाम उम्र उसने यूँ ही भागदौड़ और तनाव में बिताई है।
बेदी ने सरसरी निगाह उस पर मारी फिर एक घूंट भरने के बाद, वहां बैठे अन्य लोगों पर नजर दौड़ाने लगा। अभी तक उसने पहला स्माल पैग भी समाप्त नहीं किया था।
वो व्यक्ति बैंच पर जा बैठा। सिग्रेट निकालकर सुलगाई। अभी दो कश ही लिए होंगे कि सर्व करने वाले व्यक्ति ने देसी दारू से भरा एक गिलास उसके सामने लकड़ी के टेबल पर ला रखा। साथ में चने की कटोरी रखकर वो जाने लगा तो, उसने टोका ।
"रुक।" कहने के साथ ही उसने गिलास उठाया और एक ही सांस में खाली कर दिया--- "एक और ला।"
"सोफिया मेम साहब का आर्डर है हरबंस कि आज तुम्हें एक ही गिलास दिया जाये और कल वो भी नहीं।"
हरबंस के चेहरे पर तीखे भाव उभरे। उसने गर्दन उठाकर उसे घूरा।
"सोफिया बोली ये बात।" उसने शब्दों को चबाकर कहा।
"हां।"
"क्यों?"
"तेरे पर पन्द्रह सौ रुपये की दारू चढ़ चुकी है। पन्द्रह सौ चुकता कर, फिर माल मिलेगा।"
"मैं बात करूंगा सोफिया से तू गिलास भर के ला।" हरबंस ने कड़वी आवाज में कहा।
“सोफिया ने जो बोला है, मैं वो ही करूंगा।"
“मतलब कि नहीं देगा।"
"नहीं। सोफिया का माल है। सोफिया बोलेगी तो सारा माल दे दूंगा। मेरे बाप का क्या जाता है।"
“कहां है साली सोफिया।" हरबंस की आवाज कुछ ऊंची हुई--- "बुला उसे।"
बेदी की नजर हरबंस पर जा टिकी।
वो व्यक्ति हरबंस के पास हटा और एक तरफ बढ़ता हुआ, दीवार से लगे बंद दरवाजे को धकेलकर भीतर चला गया।
बेदी ने उसे भी जाते देखा फिर निगाह हरबंस पर ही जा टिकी। टेबल पर पड़े गिलास में मौजूद जरा सी व्हिस्की गले में डालकर गिलास टेबल पर रख दिया।
मिनट भर बाद ही उस दरवाजे से वो व्यक्ति और चालीस वर्षीया औरत बाहर निकली। उस व्यक्ति ने इशारे से हरबंस के वहां बैठे होने की जगह के बारे में बताया तो वो उसी तरफ बढ़ने लगी। वो सोफिया ही थी। लम्बी स्कर्ट और गले तक बंद ब्लाऊज डाल रखा था। वो ज्यादा आकर्षक नहीं थी, परन्तु देखने में अच्छी थी।
वो हरबंस के पास पहुंचकर ठिठकी । हरबंस की तीखी निगाह, पहले से ही उस पर टिक चुकी थी।
“क्या तकलीफ है तेरे को?" सोफिया ने शांत स्वर में कहा।
"तूने मना क्यों किया मुझे शराब देने से।" हरबंस उखड़े स्वर में बोला ।
"आज एक गिलास मिला है कल वो भी नहीं मिलेगा। सोफिया ने पहले वाले स्वर में ही कहा--- "मैं यहां पैसा कमाने के लिए बैठी हूं। मुफ्तियों को शराब पिलाने के लिए नहीं। पन्द्रह सौ चुकता कर और आगे से नकद माल ले।"
"बहुत घटिया औरत है तू। एहसान फरामोश भी।" हरबंस क स्वर ऊंचा हो गया-- "भूल गई महीना पहले मैंने तेरी जान बचाई। वरना उसने चाकू से तेरा पेट फाड़ ही देना था। अब तक तो लोग तेरा नाम भी भूल चुके होते। मेरे कारण ही जिन्दा है तू आज। कुछ भी याद नहीं तेरे को। मेरे को शराब देने से मना करती है।"
“तेरे एहसान के बदले मैंने बीस दिन तेरे को मुफ्त में, भरपेट पिलाई। उसके बाद दस दिन तेरे को उधार पीने की छूट दे दी। उतार दिया तेरा एहसान । वरना तू अच्छी तरह जानता है कि सोफिया के दारूखाने में एक बूंद का भी उधार नहीं चलता।"
"मतलब कि तेरी जिन्दगी की कीमत सिर्फ इतनी ही है कि बीस दिन की मुफ्त शराब और दस दिन की उधारी।" हरबंस के स्वर में जहरीलापन आ गया--- "मान गया। बहुत घटिया औरत है तू ।”
"तो क्या अपनी जायजाद तेरे नाम लिख दूं।” सोफिया की आवाज सख्त हो गई।
"ऐसा कर देने में भी क्या बुराई है।" हरबंस ने दांत पीसकर व्यंग्य से कहा।
तब तक दो दादा टाईप बदमाश पास आ पहुंचे थे।
"तेरी बातें अब तक मैं सिर्फ इसलिए बर्दाश्त कर रही थी कि तूने मेरी जान बचाई थी। अब तुझे और नहीं सह सकती। पन्द्रह सौ का उधार चुकता करने के बाद, जब नकद पीने का इरादा हो तो तभी यहां आना।" कहने के साथ ही सोफिया ने खा जाने वाले स्वर में पास खड़े दोनों आदमियों से कहा--- “इसे यहां से दफा करो और दोबारा जब नोट दिखाये तो तभी भीतर आने देना ।"
दोनों तुरन्त झपटे और हरबंस को पकड़ लिया।
"मैंने तेरी जान बचाई और तू मुझे धक्के देकर, यहां से बाहर निकलवा रही है।" हरबंस गुस्से से कह उठा ।
परन्तु वो दोनों आदमी जबर्दस्ती हरबंस को खींचते हुए उस दरवाजे की तरफ ले जाने लगे, जोकि बाहर जाने का रास्ता था। सोफिया कठोर निगाहों से उसे देख रही थी।
कईयों की निगाहें उधर थीं।
सभी बेदी उठा और ऊंचे स्वर में कह उठा।
"ठहरो---।"
एकाएक वहां के माहौल की हर हरकत रुक गई। नजरें बेदी की तरफ गई।
"इसे छोड़ दो। ये मेरे साथ बैठकर पी लेगा। इसकी पेमेंट मैं दूंगा।" बेदी ने सोफिया को देखा।
सोफिया की नजरें पूरी तरह बेदी पर टिक चुकी थीं।
"पन्द्रह सौ का उधार भी चुकाना होगा। तभी ये बॉर में पी सकेगा।" सोफिया बोली।
"दूंगा। अभी दूंगा।"
सोफिया ने हौले से सिर हिलाया। वो पास आ पहुंची।
"तुम्हें पहले कभी नहीं देखा।" वो बोली।
"पहली बार यहां आया हूँ।"
"हरबंस तुम्हारा क्या लगता है?" सोफिया ने होंठ सिकोड़े।
"कुछ भी नहीं।"
"यहाँ ये सब रोज होता रहता है। हर कोई मुफ्त की पीना चाहता है। तुम क्यों बीच में आ रहे हो?"
"खास बात नहीं।" बेदी शांत भाव में मुस्कराया--- "आज कुछ पैसे थे जेब में।"
सोफिया ने बेदी को घूरा फिर पलटते हुए अपने आदमियों को इशारा किया और उसी दरवाजे की तरफ बढ़ गई। जहां से निकलकर वो हॉल में आई थी।
दोनों बदमाशों ने हरबंस को छोड़ दिया।
बार में अब लोगों की भीड़ बढ़नी शुरू होने लगी थी।
हरबंस गालों पर बढ़ी शेव को खुजलाता बेदी के पास पहुंचा और उसे देखने लगा।
"बैठ जाओ।" बेदी ने हौले से मुस्कराकर कहा।
हरबंस सिर हिलाकर बैठा और कह उठा।
"मुझे जानते हो?"
"नहीं।"
"तुम मेरा पन्द्रह सौ का उधार चुकता करोगे और यहां बिठाकर मुझे अंग्रेजी पिलाओगे?"
"अगर तुम्हें मेरा किया पसन्द न हो तो, बेशक जा सकते हो।" बेदी बराबर मुस्करा रहा था।
"मेरा क्या दिमाग खराब है, जो इतना बढ़िया मौका छोडूंगा।" हरबंस मुस्कराया--- "मुझे तो तुम जैसे रहम दिल इन्सानों की तलाश रहती है, जो मुझ जैसे बुरे हाल वाले को खिला-पिला सके। एक बात तो बताओ।"
"क्या?"
"ये सब करने के पीछे तुम्हारा मतलब क्या है? मैं तो किसी काम का भी नहीं हूं।"
“मेरा कोई मतलब नहीं है। "
“जनता सेवा कर रहे हो, नोट लगाकर ।" हरबंस हौले से हंसा--- "बढ़िया आदमी लगते हो। अब बातें ही करते रहोगें या गला गीला भी कराओगे। खुश्की सी हो रही है, गले में।"
तभी सर्व करने वाला व्यक्ति आ पहुंचा।
“इसके पन्द्रह सौ उधार के और दो सौ अंग्रेजी शुरू करने के।" वो बोला।
बेदी ने बिना कुछ कहे सत्रह सौ उसे थमा दिए ।
“आप तो बहुत अच्छे इन्सान हैं। टिप भी बढ़िया ही देंगे। क्या लाऊं !"
"दो लार्ज व्हिस्की ।" बेदी ने कहा।
वो चला गया।
“मालदार आदमी लगते हो।" हरबंस ने उसे देखा।
“इस गलती में मत रहना।" बेदी ने कहा।
"नाम क्या है तुम्हारा ?"
"विजय। विजय बेदी।"
“ये नाम तो कभी नहीं सुना। क्या करते हो?"
"कुछ नहीं करता।"
"कुछ नहीं करते तो नोट कहां से आते हैं?" हरबंस की मुस्कान अर्थपूर्ण हो गई।
"पहले के बचे पड़े हैं।" बेदी ने लापरवाही से कहा।
"पहले के--हूं तो पहले क्या करते थे?"
"कुछ भी नहीं।"
“खूब।" हरबंस खुलकर मुस्कराया--- "तोप चीज लगते हो।"
"मैं न तो तोप हूं और न ही चीज।" बेदी ने उसे देखा--- "विजय बेदी नाम का मामूली सा आदमी हूँ।"
“वो तो मैं देख ही रहा हूँ।" हरबंस हौले से हंसा।
"मेरे ख्याल में तुम्हारा इरादा अपना गला गीला करने का नहीं है और मैं अपना पन्द्रह सौ भी वापस ले लूंगा।"
"ऐसी बुरी बात क्यों करते हो। मैं तो ये सब बात करने के लहजे से कह रहा था।"
तभी सर्व करने वाला दो लार्ज पैग और कटोरी में चने रखकर जाने लगा तो हरबंस बोला ।
"रुक जा जाने की जल्दी पड़ी है क्या।" कहने के साथ ही उसने गिलास उठाकर एक ही सांस में खाली करके टेबल पर वापस रखकर कहा--- "अब ले जा गिलास को और बढ़िया सा लार्ज पैग लेकर आ।"
सर्व करने वाले ने बेदी को देखा।
"उधर क्या देखता है। लार्ज पैग लेकर आ ।"
वो चला गया तो हरबंस कटोरी में से चने निकालता हुआ बोला।
"गिलास खाली कर विजय भाई।"
"मैं जरा धीरे-धीरे पीता हूं।" बेदी मुस्करा पड़ा।
"अपनी-अपनी आदत है।" हरबंस चनों को मुंह में ठूंसता हुआ बोला--- "मैं बहुत तेज-तेज पीता हूं। अब इतना बता दो कि मैं कितने पैग पी सकता हूं? वैसे दो-चार पैग के बाद तो मुझे नशा चढ़ना शुरू होता है।"
"खुद को होश में रखकर, जितने पैग ले सकते हो, ले लेना।"
"तुम जैसा बढ़िया इन्सान मैंने पहले कभी नहीं देखा।" हरबंस गहरी सांस लेकर कह उठा--- "लेकिन इस दुनिया में जिसका भला करो, वही गला काट देता है। फिक्र मत करो। मेरा इरादा तुम्हारा गला काटने का नहीं है। "
माल मुफ्त का हो तो दिल बेरहम हो ही जाता है। कुछ ऐसा ही हरबंस के साथ हुआ। बेदी महसूस कर रहा था कि हरबंस को ज्यादा हो रही है, लेकिन उसने उसे रोका नहीं। वैसे अब हरबंस के पीने की रफ्तार कम हो गई थी।
बेदी के पहले वाले लार्ज पैग में अभी व्हिस्की बाकी थी। सर्व करने वाला हरबंस के खाते में तीसरी बार दो सौ रुपये लेकर गया था।
"मजा आ रहा है?" हरबंस पर नजरें टिकाये बेदी ने पूछा ।
"मजा? विजय गुरु बहुत ही मजा आ रहा है।" हरबंस की आवाज नशे में भरभरा रही थी--- “तुम जैसा फ्री की पिलाने वाला पहले कभी नहीं मिला। कहां थे तुम?"
बेदी के चेहरे पर मुस्कान उभरी।
"क्या काम करते हो तुम?" बेदी ने पूछा।
"छोड़ो यार, क्यों नशा खराब करते हो।” कहने के साथ ही हरबंस ने गिलास उठाया और खाली कर दिया।
बेदी ने इशारा करके, सर्व करने वाले को नया पैग लाने को कहा।
"बताने में क्या हर्ज है?"
"कुछ बताने को हो तो हर्ज हो।" नशे में डूबे हरबंस ने मुंह बनाकर कहा--- "सारी जिन्दगी लोगों की जेबें काटने या चोरी करने में बीत गई। अब कहां उम्र रही इन कामों की। तब तो खासी ऐश की, जब हाथ-पांव बढ़िया चलते थे। दस-दस को खिला-पिला देता था।"
"कुछ नहीं करते तो खर्चा कहां से चलता है?" बेदी की निगाह उसके नशे से भरे चेहरे पर थी।
"वो साली-हरामजादी कुतिया इतना दे देती है कि महीने के दस दिन निकल जाते हैं। दिल तो करता है उसकी जान ही ले लूं। लेकिन मन मारकर रह जाता हूं कि जो दस दिन बढ़िया निकलते हैं, तब वो भी नहीं निकलेंगे।” नशे में गुस्से से कहते हुए नया पैग थाम लिया फिर उसे एक ही सांस में आधा खाली किया और आधा पकड़े रहा--- “बाकी के बीस दिन इसी तरह खींच-खांचकर, तुम जैसे मेहरबानों के सहारे निकल जाते हैं। जो बची है, इसी तरह कट जायेगी।" बात खत्म करते ही, बाकी का आधा भी खत्म कर दिया।
"कौन है वो, जो तुम्हें दस दिन का खर्चा देती है ?" बेदी ने पूछा।
अब हरबंस पूरी तरह नशे में आ चुका था।
"उस साली का नाम लेकर मेरा नशा खराब मत कर। पैग और मंगवा।"
"तुम पहले ही एक-दो पैग ज्यादा ले चुके हो।" बेदी ने टोका।
"तो मैं तुम्हें नशे में लगता हूँ। अभी मैं दस पैग और ले सकता हू।" नशे में हरबंस का स्वर लहरा रहा था।
बेदी समझ गया कि इसका काम हो चुका है।
"मालूम है हरबंस । तुम अभी बीस पैग और ले सकते---।"
"हां।" नशे में झूमते हरबंस कह उठा--- “अब की तुमने सही बात। तो मैं क्या कह रहा था?"
"यही कि तुम्हें भूख लगी है। बाहर चलकर खाना खाते हैं । तुम ये भी कह रहे थे कि तुम्हें नींद आ रही है।" बेदी ने कहा।
“भूख तो बहुत लग रही है"
"तुम्हे मालूम है खाना कहां मिलता है?" बेदी ने जल्दी से कहा ।
"हां-हां, यहा से कुछ आगे ढाबा है। उसका मालिक जानता है मुझे। लेकिन मुझे वो उधार खाना नहीं खिलाता। पहले तो उधार कर लेता था।" हरबंस का नशा अब बढ़ने लगा था--- "लेकिन अब तो मुझे देखते ही मना कर देता है।"
"वहीं खाना खाते हैं।” बेदी का लहजा चलने वाला था।
"वो मुझे पकड़ लेगा। पैंतीस रुपये देने हैं उसे।"
"मैं दे दूंगा। चलो खाना खाते हैं।"
"ठीक है। चलो।" कहकर हरबंस उठने को हुआ तो लड़खड़ा गया।
बेदी ने फौरन उठकर उसे सहारा दिया।
तभी सर्व करने वाला पास आ पहुंचा।
“चल पड़े।" वो मुस्कराया।
बेदी ने उसे देखा ।
“मेरा कितना बैलेंस बचा है?"
“आपके दो सौ में से साठ रुपये और इसके पैसों में से तीस रुपये।"
"वो तुम रख लो।"
उसने सिर हिला दिया।
बेदी हरबंस को सहारा दिए बाहर की तरफ बढ़ने लगा ।
हरबंस को नशा इस हद तक चढ़ा हुआ था कि ढंग से बात करने के वो काबिल नहीं रहा था। उसके लड़खड़ाते शब्द, अस्पष्ट से थे। खाना भी उसने कठिनता से आधा-अधूरा खाया था। बेदी कोई खास बात नहीं कर पाया था उससे। लेकिन हरबंस के इतने होश अवश्य कायम थे, कि वो अपने घर पहुंच गया। बेदी बराबर उसे सहारा दे रहा था कि वो कहीं लुढ़ककर, चोट न खा जाये।
दो कमरों का हरबंस का घर था।
दोनों कमरों में पड़ा सामान अस्त-व्यस्त हॉल में था। कपड़े इधर-उधर बिखरे हुए थे। ऐसा लगता था जैसे महीनों से सफाई न हुई हो।
एक कमरे में डबल बैड था। वहां पहुंचते ही हरबंस जूतों सहित, बैड पर लुढ़क गया।
बेदी कई पलों तक सोच भरी निगाहों से हरबंस को देखता रहा, जिसे शायद सांस लेने की भी होश नहीं थी। वो खुद ये तय करने की चेष्टा कर रहा था कि रुके या जाये। आखिरकार उसने रात यहीं बिताने का फैसला किया। उसके पास नींद लेने का ठौर-ठिकाना भी तो नहीं था।
हरबंस की पैंट-कमीज तलाश करके उसने कपड़े चेंज किए और घर का दरवाजा भीतर से बंद करके, अपने हिस्से के बैड को साफ करके, हरबंस की बगल में ही जा लेटा।
■■■
अगले दिन हरबंस की आंख सुबह दस बजे खुली।
किचन में चाय का सामान रखा था। बेदी तब चाय बनाने के बाद दूसरे कमरे में कुर्सी पर बैठा चाय के घूंट ले रहा था कि हरबंस वहां पहुंचा। वो अभी भी जूते पहने हुए था।
"तुमने अभी तक जूते पहने हुए हैं।" बेदी ने मुस्कराकर कहा।
“हाँ।" हरबंस हौले से हंसते हुए कुर्सी पर बैठा और जूते उतारते हुए कह उठा--- "ऐसी खुशनसीब रातें बहुत कम ही मिलती हैं जब जूते पहनकर नींद लेता हूं और अगले दिन आंख खुलने पर जूते खोलता हूँ।"
बेदी ने मुस्कराकर घूंट भरा।
“कल तुम्हारी मेहरबानी से शाम रंगीन हो गई। उधार चुकता हो गया। तुमने खाना भी खिला दिया। और---।"
"सब याद है तुम्हें।" बेदी हौले से हंसा।
"तो तुम क्या मुझे शराबी समझते हो।” हरबंस और भी जोर से हंसा--- "चिन्ता मत करो। सब याद रहता है मुझे कि क्या कहा और क्या सुना। आंख खुलने पर मैंने सोचा तुम, रात को ही चले गये हो।"
"मैं तो चला जाता, लेकिन तुमने अपनी कसम देकर कहा कि यहीं नींद ले लूं तो रुक गया।" बेदी कह उठा।
"तुमने मेरे लिए इतना किया और मैं तुम्हें अपने यहां रहने को नहीं कह सकता क्या?" हरबंस ने तुरन्त कहा।
बेदी मुस्कराकर रह गया। उसकी झूठी बात पर, फौरन हां का ठप्पा लगा दिया था। ये दिखाने के लिए पीने के बाद कहा-सुना उसे याद रहता है।
"मजा ही मजा रहा, रात को नहाने के बाद नाश्ता वगैरह करते हैं।" हरबंस बोला।
नाश्ता क्या कराओगे?" बेदी मुस्कराया।
"चिन्ता मत करो। आटा पड़ा है। परांठे बनाकर खिलाऊंगा। भूखे नहीं रहोगे।"
बेदी ने चाय का घूंट भरा। कहा कुछ नहीं।
दिन के बारह बज रहे थे, जब वो नाश्ते से फारिग हुआ।
हरबंस ने परांठे वास्तव में बढ़िया बनाये थे। उसके बाद पहला मौका मिलते ही बेदी बोला।
"तुम रात को किसी के बारे में बता रहे थे कि वो तुम्हारा खर्चा देती है।"
हरबंस की निगाह, बेदी पर जा टिकी।
"मैंने ऐसा कुछ कहा था ?"
"हां।" बेदी ने उसकी आंखों में देखा--- "तुमने उसका कोई नाम भी बताया था। शायद-शायद.... ।"
"कल्पना।" हरबंस कह उठा।
"हां-हां, शायद यही नाम था।" बेदी ने फौरन कहा।
"और क्या बताया था?" हरबंस गम्भीर सा नजर आने लगा था।
"कोई खास बात नहीं हो पाई थी। तुम उसे गालियां दे रहे थे।" बेदी ने उसे देखा।
"वो है ही इसी लायक।" हरबंस मुंह बिचकाकर कह उठा।
"क्यों, ऐसा क्या कह दिया उसने। तुम्हारी तो खास ही लगती होगी जो तुम्हें हर महीने पैसा देती है। वरना इस तरह कौन किसको पैसा देता है।" बेदी ने उसका मुंह खुलवाने वाले ढंग में कहा ।
"साली एहसान करती है क्या मुझे पैसे देकर।" हरबंस के चेहरे पर उखड़ेपन के भाव उभरे--- "मेरी वो कुछ भी नहीं लगती। कल्पना आज जो भी हैं, मेरी बदौलत ही है। वरना बैठी होती किसी कोठे पर। मैंने उस पर एहसान किया। सोचा था उसके दम पर बुढ़ापा काट लूंगा। लेकिन जब वक्त आया तो अपनी जात दिखा दी।"
बेदी समझ गया कि हरबंस अब धीरे-धीरे उससे खुल रहा है।
"क्या किया कल्पना ने?"
“पूछो क्या नहीं किया?" भड़कने वाले ढंग में हरबंस कह उठा--- "पन्द्रह साल की थी। आधी रात को सड़क पर रोती मिली थी। दस साल हो गये इस बात को । पूछने पर उसने बताया कि कुछ लोगों ने उसके घर में घुसकर उसके मां-बाप को मार दिया। वो मौका पाकर घर से भाग निकली। पूछने पर उसने बताया कि दुनियां में उसका कोई रिश्तेदार नहीं है और किराये के घर में रहते थे वो। जाने क्या सोचकर उसे मैं अपने साथ यहां ले आया। शायद यही सोचा कि गलत हाथों में पड़ गई तो कोठे पर बैठकर अपना जिस्म बेचने को मजबूर हो जायेगी। लेकिन मैंने भी अपने मतलब की खातिर ही उसे अपने पास रखा कि किसी तरह इसे अपने बुढ़ापे का सहारा बना लूंगा। ये कमायेगी। मैं खाऊंगा। मैंने कल्पना को पढ़ाया। बड़ा किया। बुरी नजरों से बचाया। जो भी पूछता तो उसे यही बताता कि मेरी बेटी है। इतनी इज्जत दी मैंने उसे।"
बेदी की निगाह उसके गुस्से से भरे चेहरे पर थी।
"तो कल्पना ने क्या किया?"
"माना खूबसूरती में वो बड़े-बड़ों को पीछे छोड़ देती है। जो बात तारीफ करने के लायक है, उस बात से मुझे परहेज नहीं। लेकिन शैतान का दिमाग है उसका।" हरबंस दांत पीसकर कह उठा--- "जब कल्पना बड़ी हो गई। तैयार हो गई। बीस बरस की हो गई तो मैंने उसे समझाया कि तेरी खूबसूरती के दम पर, मैं तेरी शादी बढ़िया, अमीर घर में करूंगा। वहां महीना-पन्द्रह दिन रहना और उसके बाद गहने-रुपया समेटकर झगड़ा करके मेरे पास आ जाना। माल तो वो ले ही आयेगी, तो लड़के वालों के खिलाफ रिपोर्ट कराने की धमकी देकर उनसे मोटा पैसा ऐंठ लिया जायेगा। फिर तलाक देने की एवज में भी मोटी रकम वसूली जायेगी। इस तरह जल्दी ही शादियां करके बहुत ज्यादा रकम इकट्ठी कर लेंगे कि जिन्दगी आराम से बिताई जा सके। उसके बाद तू शादी करके घर बसा लेना। अब तू ही बता विजय कि मैंने क्या गलत बोला। ये धंधा बुरा है क्या ?"
“बिल्कुल नहीं।" बेदी मुस्करा पड़ा--- “बहुत बढ़िया काम है।"
"वो ही तो मैं कह रहा हूं। लेकिन मानी नहीं। समझाते-समझाते कई साल बीत गये। कई बार हाथ-पांव भी जोड़े। लेकिन इतनी ढीठ है कि नहीं मानी। पच्चीस की उम्र पूरी कर ली और फिर एक दिन अपने दो-चार कपड़े समेटकर निकल गई। मालूम है कहां? सुखवंत राय के यहां।"
"सुखवंत राय?”
"अरे वो ही, तेल का बिजनेस करता है। दो मिल हैं। मालूम है, वहां क्या नौकरी कर रही है?"
"क्या?"
"उसके यहां हाऊस कीपर की नौकरी कर रही है। सुखवंत राय के घर की देखभाल करती है। उसके नौकरों से काम लेती है । उसके परिवार के लोगों के खाने-पीने का ध्यान रखती है। मिट्टी पोत दी मेरे मुंह पर ये काम करके। मैंने क्या सोचा था और वो क्या करने लगी।" गुस्से से उबल रहा था हरबंस--- "बीस हजार रुपया महीना तनख्वाह लेती है। पांच हजार मुझे भिजवा देती है। पांच हजार में क्या होता है मेरा। ग्यारहवें दिन इधर-उधर देखना पड़ता है कि अब पीने-खाने का इन्तज़ाम कहां से करूं। बहुत कहा कि कम से कम दस हजार तो दे दिया कर। लेकिन पांच हजार से, एक पैसा भी ज्यादा देने को राजी नहीं।"
बेदी, हरबंस को देखता रहा।
“विजय भाई!" एकाएक हरबंस कह उठा--- "ये अमीर लोग इतने पैसे का करते क्या हैं?"
"क्या मतलब?"
"इन अमीर लोगों को ढेरों बीमारियां होती हैं। ठीक से खाना तो खा नहीं सकते। डाक्टरों के कहने पर परहेज करते हैं। फिर पैसे का क्या करते हैं ये ?" हरबंस ने सिर हिलाकर कहा--- “सुखवंत राय को ही लो। उबाली हुई सब्जी और फीके सूप के अलावा, दिन में सिर्फ एक पतली सी चपाती ही खाता है। बीमारियां लगी हुई हैं कि ये नहीं खाना तो ये नहीं खाना। ऐसे में अरबों रुपयों का क्या करेगा?"
बेदी के मस्तिष्क में ठहरी सोचों ने रफ्तार पकड़नी शुरू कर दी।
“मैंने कल्पना से ये भी कहा कि मौका ढूंढ और सुखवंत राय का माल लेकर, मेरे साथ कहीं खिसक ले। लेकिन नहीं मानी। कहती है, शराफत से जिन्दगी बिताऊंगी। गलत काम नहीं करूंगी।" हरबंस ने मुंह बनाकर बेदी को देखा--- "ये बातें सुनकर क्या तेरे को नहीं लगता कि कल्पना के दिमाग में खराबी है?"
“जिन्दगी जीने का उसका अपना नजरिया है और तुम्हारा अपना।" बेदी ने सोच भरे स्वर में कहा--- “तुम्हें पैसे की जरूरत है। और अभी उसे पैसे की जरूरत नहीं है।"
हरबंस, बेदी का चेहरा देखने लगा ।
“पैसे की जरूरत न हो तो क्या तब भी, पैसा आना बुरा लगता है?" हरबंस बोला ।
"अब इस बात का जवाब मैं क्या दे सकता हूं।" बेदी ने गहरी सांस ली।
"तुम अपनी कहो। अगर तुम्हें पैसा आता दिखाई दे तो क्या तुम मुंह फेर लोगे कि नहीं चाहिये?"
“मुझे छः लाख रुपये की सख्त जरूरत है हरबंस ।" बेदी के होंठों से निकला।
"क्या--छः लाख ?" हरबंस के चेहरे पर अजीब-से भाव उभरे।
"हां। अभी चाहिये मुझे छः लाख।" कहते हुए बेदी की आवाज में कम्पन और भारीपन आ गया था।
हरबंस आंखें सिकोड़े, बेदी को देखता रहा।
बेदी ने खुद को संभाला। गहरी सांस ली।
"विजय!" एकाएक हरबंस सिर हिलाकर कह उठा--- "तूने अपने बारे में कुछ नहीं बताया। कल पूछा तो टाल गया। मैंने अपना दुःख-दर्द तेरे को बांटा तो क्या तू मेरे को कुछ नहीं बोलेगा। इन्सान ही तो इन्सान के काम आता है। कल तू बिना कहे मेरे काम आया। हो सकता है मैं तेरे काम आ जाऊं---।"
"तू मेरे क्या काम आयेगा!” बेदी ने धीमे स्वर में कहा--- “तेरे तो अपने दाने ही बिके पड़े हैं।"
"छः लाख किसी का उधार देना है क्या?” हरबंस की निगाह बेदी के चेहरे पर थी।
"नहीं।"
"कोई मकान-जायदाद, प्रोपर्टी फंस गई है क्या?"
बेदी ने इन्कार में सिर हिलाया।
"नहीं। ऐसा कुछ भी नहीं है।"
"तो---?"
"आप्रेशन कराना है।” बेदी भारी स्वर में कह उठा--- “मेरे दिमाग के बीच में गोली फंसी पड़ी है। उसका जहर कभी भी मेरे दिमाग में फैल सकता है। मैं मर जाऊंगा और मैं मरना नहीं चाहता। उसे निकलवाने के लिए आप्रेशन करवाना जरूरी है। यानि कि इस काम के लिए कुल मिलाकर इस वक्त मुझे छः लाख की सख्त जरूरत है।”
हरबंस के चेहरे पर अजीब-से भाव आ ठहरे।
"दिमाग में कैसे फंसी गोली ?" हरबंस के होंठों से निकला।
बेदी ने कम शब्दों में इस बारे में बताया।
हरबंस बहुत देर तक चुप रहा। वो गम्भीर सा नजर आने लगा था।
बेदी ने सिग्रेट सुलगाकर कश लिया। चेहरे पर बेचैनी आ ठहरी थी।
“सच में विजय!" हरबंस बोला--- “सुनकर मन खराब हुआ।"
"कोई बात नहीं।" बेदी के होंठों पर फीकी-सी मुस्कान उभरी--- "सब का ही मन खराब होता है।"
"मैं कुछ कर सकता, तो तुम्हारे लिए अवश्य कुछ कर देता। लेकिन---।"
"ऐसे शब्दों की जरूरत नहीं हरबंस । ये सब बहुतों से, बहुत बार सुन चुका हूँ।" बेदी ने गहरी सांस ली।
"माना।" हरबंस ने अपना गम्भीर चेहरा हिलाया--- “तू गलत नहीं कह रहा होगा।"
बेदी ने कुर्सी की पुश्त से सिर टिकाकर आंखें बंद कीं और कश लेने लगा।
हरबंस, बेदी को ही देखे जा रहा था। फिर धीरे से कह उठा।
"छः लाख के इन्तजाम के लिए तूने कहीं कोशिश नहीं की?"
“की। मैंने की। मेरे दोस्तों ने की। मैं कठिनता से बचा और देवली सिटी से खिसक आया।" बेदी ने धीमे स्वर में कहा--- “एक दोस्त छः लाख का इन्तजाम कर रहा था मेरे लिए। एक आदमी बैंक से लाखों लेकर निकला, तो उन रुपयों को छीनकर भागने की कोशिश में पकड़ा गया। जेल पहुंच गया। उसका हाल देखकर, मैं नहीं चाहता था कि दूसरा दोस्त भी जेल पहुंचे। ऐसे में मैं अकेला ही निकल पड़ा छः लाख का इन्तजाम करने के लिए।"
"समझा।" हरबंस ने सिर हिलाया--- “छः लाख की रकम बड़ी है। लेकिन तेरी जरूरत तो रकम से भी बड़ी है।"
बेदी ने आंखें खोलकर हरबंस को देखा।
"जब तेरे को पता हो कि तू कभी भी मर सकता है तो तू क्या करेगा?"
"मैं सब कुछ करूंगा। खुद को बचाने की कोशिश में, मैं जो कर सकूंगा, वो कर जाऊंगा।" हरबंस पक्के स्वर में बोला।
बेदी के चेहरे पर मुस्कान उभरी।
"मैं भी सब कुछ कर जाना चाहता हूं।"
"लेकिन करेगा क्या?" हरबंस ने उसकी आंखों में देखा।
"नहीं मालूम।" बेदी ने गम्भीर स्वर में कहा--- “तेरे पास छः लाख पाने का कोई रास्ता हो तो बता दे।"
"मेरे पास तो कोई रास्ता नहीं।" हरबंस ने गहरी सांस ली--- "सोचूंगा। कहां ठहरा है तू?"
"कहीं भी नहीं ठहरा। कोई भी ठिकाना नहीं।" बेदी के चेहरे पर फीकी सी मुस्कान उभरी।
"विजय। तू यहीं रह। अपना ही घर समझ इसे।" हरबंस ने उसे हौसला देने वाले स्वर में कहा--- "मैं कहीं देखता हूं शायद ऐसा कोई काम मिले कि दस लाख का इन्तजाम हो सके।"
"दस?" बेदी ने उसे देखा--- "मैं छः लाख की बात कर रहा था।"
"मालूम है। बाकी का चार मेरे लिए।" हरबंस मुस्कराया।
बेदी गहरी सांस लेकर रह गया।
■■■
सोफिया छोटे से सजे-सजाये कमरे में कुर्सी पर बैठी थी। दिन के बारह बज रहे थे। इस वक्त उसके दारूखाने में कोई पीने वाला नहीं था। दो आदमी वहां की सफाई कर रहे थे। सोफिया कमीज-सलवार में थी और नहाकर हटी थी। तभी एक आदमी ने भीतर प्रवेश किया।
“कहो।" सोफिया ने उसे देखा ।
“वो आदमी, जिसने हरबंस को कल शाम पिलाई, उसका नाम विजय बेदी है। इस शहर में वो नया आया है।"
"काम क्या करता है?"
“अभी मालूम नहीं हो पाया?”
"हरबंस के साथ उसका क्या रिश्ता है?" सोफिया का स्वर शांत था।
"कोई रिश्ता नहीं। कल उन दोनों की पहली मुलाकात थी।"
सोफिया के होंठ सिकुड़ गये। चेहरे पर सोच नजर आने लगीं।
"कल उसने हरबंस पर कितना खर्च किया ?"
“पन्द्रह सौ उधार के दिए और तीन बार दो सौ दिए। यानि कि इक्कीस सौ रुपया ।" वो बोला।
“हरबंस के साथ विजय बेदी का कोई रिश्ता नहीं और उसने पहली मुलाकात में ही उस पर इक्कीस सौ रुपया खर्च कर दिया।" सोफिया मुस्कराई--- “क्या तुम्हें ये बात अजीब-सी नहीं लगती ?”
"बात ही अजीब है।"
“अब कहां है विजय बेदी ?"
"हरबंस के घर पर, रात से ही है।"
सोफिया ने अपने गीले बालों को झटका दिया फिर कुर्सी से उठकर टहलते हुए सैंटर टेबल के पास पहुंची और वहां पड़े पैकिट में से सिग्रेट निकालकर सुलगाई।
"हरबंस की वो लड़की कल्पना, सुखवंत राय के यहां ही है अभी?" सोफिया ने पूछा।
“हाँ। वो वहां नौकरी कर रही है।"
"सुना है कल्पना बहुत तेज और समझदार लड़की है।"
“तभी तो सुखवंत राय जैसे इन्सान के यहां फिट हो गई मैडम।" वो मुस्करा पड़ा--- "वरना उस करोड़पति के यहां तो दरबान की नौकरी पाना भी असम्भव सी बात है।"
सोफिया ने कश लेकर उसे देखा ।
"गोपाल!" सोफिया बोली--- "कहीं हरबंस ने ही पढ़ा-लिखाकर उसे सुखवंत राय के यहां अपने किसी मतलब की खातिर 'फिट' तो नहीं किया। कोई लम्बी योजना हो हरबंस के दिमाग में।"
"इस बारे में कुछ पक्का नहीं कह सकता।" गोपाल ने इन्कार में सिर हिलाया।
"ये भी हो सकता है कि हरबंस ने अपनी इसी योजना के तहत अब किसी काम के लिए विजय बेदी को बुलाया हो और दिखावा ये कर रहे हों कि वे एक-दूसरे को नहीं जानते। यहां पर उनकी पहली मुलाकात हुई।"
"इस बारे में भी मैं कुछ नहीं कह सकता।" गोपाल बोला--- "शायद अब कुछ पता चले, विजय बेदी के आने पर। अगर हरबंस और कल्पना कोई योजना बनाकर चल रहे हैं तो, ये विजय बेदी भी अब कुछ न कुछ अवश्य करेगा।"
"तुम्हारी बात ठीक हो सकती है।" सोफिया ने कश लिया--- "हरबंस और विजय बेदी की हरकतों पर नजर रखो। इनकी हरकतों से ही ये बात सामने आ जायेगी कि, कल्पना सुखवंत राय जैसे मालदार आदमी के यहां क्या कर रही है। जहां तक मेरा ख्याल है। कल्पना, सुखवंत राय के यहां से बहुत ही मोटी रकम समेटने के फेर में होगी। वो पक्का हरबंस के इशारे पर ही चल रही है। गोपाल, तुम उन पर नजर रखकर देखो कि वे क्या करते हैं।"
"ठीक है।" कहने के साथ ही गोपाल बाहर निकल गया।
कश लेती सोफिया ने गीले बालों को पुनः झटका दिया और कर्सी पर आ बैठी। सिग्रेट खत्म करके उसे ऐश ट्रे में डाला कि फोन की घंटी बज उठी। उसने हाथ बढ़ाकर रिसीवर उठाया ।
"हैलो !”
"मैं रावत हूं मैडम सोफिया।”
"कहो---।"
"सुखवंत राय की लड़की का कुछ पता नहीं चल रहा। उसके बारे में कोई खबर नहीं मिली।"
"वो मर नहीं गई।" सोफिया कठोर स्वर में कह उठी--- “समझे रावत! वो जिन्दा है और जिन्दा लोगों की खबर देर-सवेर में हो ही जाती है कि वो कहां है। तीन महीने से तुम उस लड़की की तलाश में लगे हुए हो।"
"मैं अपनी पूरी कोशिश कर रहा हूं। इसके अलावा और कर भी क्या सकता हूं।” रावत के शब्द कानों में पड़े।
“तुमने ये कहने के लिए मुझे फोन किया है।" सोफिया का स्वर पहले जैसा था।
रावत की तरफ से कोई आवाज नहीं आई।
“सुनो रावत!” सोफिया ने एक-एक शब्द चबाकर कहा--- “साल भर से मैंने इस काम पर बहुत मेहनत की है। सुखवंत राय की बेटी दीपाली को, मेरे कहने पर जिस लड़के ने उसे प्रेमजाल में फंसाया, मैंने उस लड़के पर लाख रुपये का खर्चा किया। लड़के ने दीपाली को फंसाकर, धीरे-धीरे उसे ड्रग्स की आदी बनाने में छः महीने लग गये। आखिरकार दीपाली की ये हालत हो गई कि वो ड्रग्स के बिना नहीं रह सकती। ऐसे में वो कहीं से तो ड्रग्स लेती होगी। वो अचानक गुम नहीं हो सकती।”
"तुम ठीक कहती हो मैडम।"
“जो ड्रग्स बेचते हैं, दीपाली का हुलिया बताकर, उसके बारे में मालूम करो।"
"ठीक है।"
“दीपाली का या सुखवंत राय का नाम नहीं लेना। ये ठीक नहीं। होगा। उसके बारे में इस तरह पूछताछ करो, जैसे तुम किसी साधारण लड़की को ढूंढ रहे हो।" सोफिया बोली।
"ठीक है।"
“मुझे जल्दी से जल्दी दीपाली के बारे में खबर दो कि वो कहां है।" कहने के साथ ही सोफिया ने रिसीवर रखा। चेहरे के भाव बता रहे थे कि उसका मूड खराब हो गया है।
तभी उसकी नजर दरवाजे के भीतर खड़े एक व्यक्ति पर पड़ी। जो कि सोफिया का ही हमउम्र, चालीस के आसपास का लग रहा था। सोफिया को देखते ही वो मुस्कराया।
"खुले और गीले बालों में तुम ज्यादा खूबसूरत लगती हो।" वो कह उठा।
"तुम कब आये?" सोफिया ने गीले बालों को झटका दिया।
"अभी।" वो आगे बढ़ा और कुर्सी पर जा बैठा। चेहरे पर अब मुस्कान नहीं थी--- "तुम सुखवंत राय की बेटी दीपाली की क्या बात कर रही थीं? इस बारे में तुमने मुझसे कभी जिक्र नहीं किया।"
"अमर!" सोफिया मुस्कराकर कह उठी--- "हमारी दोस्ती बैडरूम तक की है। धंधे तक नहीं।"
"ड्रग्स तो मैं ही तुम्हें सप्लाई करता हूं।" अमर मुस्कराया।
“तो दोस्ती के नाम पर मैंने तुम्हारी पेमेंट कभी नहीं मारी ।" सोफिया मुस्करा रही थी।
"जो भी हो हम अच्छे दोस्त हैं सोफिया !" अमर ने गहरी सांस लेकर कहा--- "तुम मेरी ये बात क्यों नहीं मानतीं कि हम शादी कर लेते हैं। हम दोनों में अच्छी पटेगी।"
“शादी की कोई जरूरत नहीं। सब कुछ वैसे ही ठीक चल रहा है।" सोफिया ने लापरवाही से कहा--- "कोई मर्द दिन भर मेरे साथ चिपका रहे। मुझे पसन्द नहीं। वैसे भी मर्द मुझे वहीं तक अच्छे लगते हैं, जहां तक उनकी जरूरत हो।"
"तुम्हारा ये ख्याल मुझे कभी भी पसन्द नहीं आया।"
"मैंने कब कहा कि पसन्द करो। काम से आये हो?" सोफिया ने पूछा।
"नहीं। तुम्हारे साथ कुछ घंटे अच्छी तरह बिताने आया हूँ।" अमर बोला--- “सुखवंत राय का क्या चक्कर है ?"
सोफिया ने अमर को देखा, फिर मुस्करा पड़ी।
"एक ही बार में तगड़ा नावां पीटना चाहती हूँ।"
"वो कैसे?"
"सुखवंत राय की बेटी दीपाली पर एक बार मेरी नजर पड़ी तो लगा, इसके द्वारा मैं मोटी रकम हासिल कर सकती हूं। योजना बनाकर मैंने एक खूबसूरत लड़के को, उसके पीछे लगा दिया। मेरे इशारे पर उसने दीपाली से दोस्ती की फिर ड्रग्स की आदत डाल दी उसे। धीरे-धीरे ये काम किया गया। साल भर लग गया। अब दीपाली की ये हालत हो गई थी कि वो ड्रग्स के बिना नहीं रह सकती थी। इसके बाद ही मेरा असली काम शुरू होना था कि अचानक वो गायब हो गई।"
"कहां गायब हो गई?" अमर के होंठों से निकला।
"मालूम नहीं। दो-तीन महीने हो गये इस बात को। उसे तलाश करवाते हुए। लेकिन दीपाली की कोई खबर नहीं।"
"खबर होती तो तुम क्या करतीं?”
"मुझे खास कुछ करने की जरूरत नहीं पड़ती।" सोफिया ने लापरवाही से कहा--- "सुखवंत राय और उसके परिवार की मीडिया की निगाहों में अहमियत है। सुखवंत राय दौलतमंद होने के साथ-साथ माना हुआ समाज-सेवक भी है। लोगों की निगाहों में वो इज्जतदार है। ऐसे में वो कभी भी नहीं चाहेगा कि अखबारों के फ्रंट पेज पर ये खबर छपे कि, उसकी बेटी ड्रग्स एडिक्ट है। अब, जब वो ड्रग्स के नशे में होती तो मैं उसकी कुछ तस्वीरें बिना कपड़ों के, उसके आशिक के साथ लेनी थी। सुखवंत राय कभी नहीं चाहता कि उसकी बेटी की हरकतों की खबर अखबारों में छपे या लोग उसकी बुरी तस्वीरें देखें। दो मिनट की सौदेबाजी में सुखवंत राय दो-चार करोड़ आसानी से दे देता।"
अमर के चेहरे पर सोच के भाव नजर आने लगे ।
“क्या हुआ?" सोफिया ने पूछा।
"सोच रहा हूं तुम्हारी योजना बढ़िया है।" अमर बोला--- “लेकिन दीपाली कहां चली गई ?"
"यहीं पर तो सारा मामला अटक गया है।" सोफिया का चेहरा सख्त सा हो उठा।
“वो लड़का कौन है, जिसने दीपाली को, तुम्हारे कहने पर फंसाया था?" अमर ने पूछा।
“उसके बारे में पूछने की क्या जरूरत पड़ गई?" सोफिया ने अमर को देखा।
“हो सकता है, वो नाटक करते-करते सच में उसे चाहने लगा हो। तुम्हारा इरादा तो उसे पहले ही पता था। ऐसे में दीपाली को सब कुछ बताकर, वो दीपाली के साथ कहीं खिसक गया हो।"
सोफिया के चेहरे पर तीखी मुस्कान उभरी।
"ऐसी कोई बात नहीं है।"
"तुम्हें उस लड़के पर इतना यकीन क्यों?" अमर की आंखें सिकुड़ीं।
"दीपाली के गायब होने के बाद, मैंने उस लड़के से अच्छी तरह पूछताछ की थी। उसे वास्तव में दीपाली के बारे में कुछ नहीं मालूम।" सोफिया के स्वर में विश्वास के भाव भरे पड़े थे।
"हो सकता है, वो तुमसे इस बारे में झूठ बोल गया हो।”
“जब मुझे विश्वास हो गया कि वो लड़का सच कह रहा है तो मैंने उसे खत्म करवा दिया।" सोफिया की आवाज में सख्त से भाव आ गये थे--- "वो मेरी योजना जानता था। बाद में गड़बड़ कर सकता था।"
"हूं। ठीक किया तुमने। उसे जिन्दा छोड़ने से मामला बिगड़ सकता था।" अमर ने सोच भरे स्वर में कहा--- “दीपाली के गायब होने पर, सुखवंत राय भी तो अपनी बेटी को तलाश करवा रहा होगा।"
“वो क्या कर रहा है या कुछ नहीं कर रहा। मुझे खबर नहीं।"
“ये बात तुम्हें मालूम करनी चाहिये।"
"सुखवंत राय के यहां से खबरें बाहर आना सम्भव नहीं। उसका हर आदमी विश्वास के काबिल है।” सोफिया ने गहरी सांस ली--- "मैं कोशिश करके देख चुकी हूं।"
अमर सोचों में रहा।
सोफिया ने नई सिग्रेट सुलगाकर कहा।
"सुखवंत राय के यहां हरबंस नाम के आदमी की मुंह बोली बेटी कल्पना काम करती है। लेकिन उसका इस्तेमाल करने से खामखाह का नुकसान हो सकता है।"
“क्यों ?"
"हरबंस यहां अक्सर दारू पीने आता रहता है। तमाम उम्र चोरी-चकारी और जेब-तराशी का काम किया है। उसे मालूम हो गया कि मैं किस फेर में हूं तो मुंह फाड़ेगा। सारी उम्र ब्लैकमेल भी कर सकता है। भविष्य में कल्पना भी ब्लैकमेल कर सकती है या पुलिस को कभी इस मामले के बारे में खबर दे सकती है। हरबंस किसी भी तरफ से विश्वास के काबिल नहीं है।" सोफिया ने गम्भीर स्वर में कहा।
“इस बारे में कभी हरबंस से बात की?" अमर ने पूछा ।
"नहीं।"
"हरबंस से बात करनी चाहिये। शायद सब ठीक रहे।"
सोफिया ने अमर को देखा। कहा, कुछ नहीं ।
"लंच का वक्त होने वाला है।" अमर मुस्कराकर कह उठा--- "लंच से पहले एक फेरा बैडरूम का लगा लें।"
जवाब में सोफिया के होंठों पर भी मुस्कान उभर आई।
■■■
शाम को आठ बजे बेदी और हरबंस ने सोफिया के दारूखाने में प्रवेश किया।
"मैंने बहुत कोशिश की कि कोई ऐसा काम नजर आ जाये, जिससे दस लाख की रकम पैदा हो जाये। दिन भर की कोशिश के बाद भी ऐसे किसी काम की जानकारी मिली नहीं।" हरबंस कह रहा था--- "लेकिन चिन्ता की कोई बात नहीं। जल्दी ही मैं ऐसा कोई काम ढूंढ निकालूंगा।"
बेदी ने कुछ नहीं कहा।
"कहां बैठें ?" हरबंस ने उसे देखा--- “बैंचों पर या अंग्रेजी के लिए कुर्सियों पर।"
“अभी तो नोट हैं जेब में।" बेदी इधर-उधर देखता हुआ बोला ।
"तो फिर कुर्सियों पर ही बैठ जाते हैं। अंग्रेजी चलने दो।”
दोनों कोने में मौजूद टेबल के गिर्द पड़ी कुर्सियों पर जा बैठे।
“हरबंस !” बेदी उसे देखते हुए गम्भीर स्वर में कह उठा--- "जल्दी ही किसी ऐसे काम का इन्तजाम करो कि मैं छः लाख इकट्टे कर सकूं। अगर दिमाग में फंसी गोली का जहर फैल गया तो---।”
"मैं समझता हूं।" हरबंस ने उसकी बात काटकर सिर हिलाया--- "सच बात तो ये है कि मैं अभी यही सोच रहा हूं कि इस बारे में कल किस-किस से मुलाकात करूं। बात करूं। मुझे चिन्ता है तेरी ।"
तभी कल वाला ही, सर्व करने वाला व्यक्ति पास आ पहुंचा।
"दोनों के चार सौ रुपये।” वो मुस्कराकर बोला।
बेदी ने बिना कुछ कहे चार सौ निकालकर उसे दे दिये।
“जल्दी लाना।" हरबंस ने उसे कहा।
"ला रहा हूं । तसल्ली रख।" कहकर वो चला गया।
“आज फिर वहीं खाना खायेंगे, जहां कल खाया था।" हरबंस बोला--- “वहां का खाना अच्छा है।”
"तुम्हें कल होश ही कहां थी, खाने का अच्छा-बुरा देखने-पहचानने की।" बेदी मुस्कराया।
“पीकर मैं होश नहीं गंवाता। तेरे को पहले भी बोला है।”
"वो तो मैं जानता हूं।”
तभी सर्व करने वाला दो लार्ज पैग व्हिस्की और मसालेदार चने की कटोरी ले आया।
"रुक जा।" कहते हुए हरबंस ने गिलास थामा और खत्म करके टेबल पर रखता हुआ बोला--- “फटाफट और ला।"
वो चला गया।
हरबंस, बेदी को देखकर दांत फाड़कर हौले से हंसा।
"अपनी-अपनी आदत है। मैं जरा जल्दी-जल्दी पीता हूं।"
"कल देखा था मैंने।" कहने के साथ ही बेदी ने गिलास उठाकर घूंट भरा--- "तुम यहां ही पीने क्यों आते हो?"
"यहां माल ठीक मिलता है। हेराफेरी नहीं होती। दूसरी जगहों में ज्यादातर हेराफेरी---।"
तभी सर्व करने वाला नया लार्ज पैग ले आया। गिलास रखा। वहीं खड़ा रहा।
“पांच मिनट बाद आना।" हरबंस ने हाथ हिलाकर कहा--- “दूर खड़ा होकर इधर नजर रख। आज भी टिप मिलेगी।"
“सोफिया मैडम बुला रही हैं।" वो बोला।
“सोफिया?” हरबंस ने उसे देखा--- "क्यों बुला रही है?"
“मालूम नहीं। बोला, तुम्हें बुलाऊं।"
"उससे कह, मेरा उधार चुकता हो गया है। अब नकद पर पी रहा हूँ।"
"ये बात नहीं है। मेरे ख्याल में कोई और ही बात है।"
हरबंस ने सोच भरी निगाहों से उसे देखा।
"इस उम्र में तो मैं शादी भी नहीं कर सकता। इसके अलावा उसे और क्या काम होगा मेरे से।" हरबंस ने मुंह बनाकर कहा और गिलास उठाकर एक ही सांस में खाली कर दिया और बोला--- “कान खोलकर सुन ले, जब मैं सोफिया से बात करके वापस आऊं तो यहां पैग तैयार पड़ा होना चाहिये।" फिर उसने बेदी को देखा--- "विजय दो-चार घूंट मार, मैं अभी आया।"
बेदी ने सिर हिला दिया।
हरबंस उठा और हॉल में एक तरफ नजर आ रहे बंद दरवाजे के पास पहुंचा और दरवाजा धकेलकर भीतर प्रवेश कर गया।
सामान्य साईज के कमरे को आफिस का रूप दे रखा था। टेबल के पीछे कुर्सी पर सोफिया मौजूद थी। हाथ की उंगलियों में सुलगती सिग्रेट थमी थी।
“आ हरबंस बैठ---।"
"मेरा उधार चुकता हो गया ना। अब तेरे को---।"
"बैठ तो।" सोफिया के होंठों पर मुस्कान उभरी।
हरबंस बैठ गया।
"ये तेरा नया दोस्त कौन है?" सोफिया का स्वर सामान्य था।
"कौन है क्या--दोस्त है। विजय है।"
"दोस्त तो सबके ही होते हैं। लेकिन इस तरह बिना वजह दूसरों पर खर्चा नहीं करते।”
"तू मेरे कामों में दखल देने की कोशिश मत कर। तेरे को अपने काम-धंधे से मतलब होना चाहिये।"
“मैं तेरे भले के लिए ये बात कह रही हूं।" सोफिया ने मुस्कराकर कहा--- “उसके नोटों पर, मुफ्त की पीने के फेर में किसी मुसीबत में न पड़ जाना। मुझे वो आदमी ठीक नहीं लगता ।”
"अच्छा!" हरबंस का स्वर तीखा हो गया--- "तेरे को मेरी चिन्ता कब से होने लगी?"
"जब से तूने मेरी जान बचाई है।” सोफिया छोटी सी हंसी, हंसी।
"तभी कल अपने आदमियों से धक्के दिलवाकर बाहर निकलवा रही थी मुझे।"
"वो मेरा धंधा है। और इस वक्त तुमसे जो बात कर रही हूं, वो धंधे से वास्ता नहीं रखती।”
"तूने जो कहा, मैंने सुना। चलता हूं, विजय मेरा इन्तजार---।"
“सुना है तेरी मुंह बोली बेटी कल्पना सुखवंत राय जैसे अरबोपति के यहां काम करती है।"
हरबंस के माथे पर बल उभरे। उसने सोफिया की आंखों में झांका।
"करती है तो?"
"जो तेरे से सुना, पूछ लिया। गलत किया क्या?"
“ठीक किया।” हरबंस सतर्क सा नजर आने लगा--- "ये बात पूछने में क्या हर्ज है?"
सोफिया उसे देखकर मुस्कराई फिर टेबल का नीचे वाला ड्राअर खोलकर बोतल और दो गिलास निकाले।
हरबंस देखता रहा। उसने व्हिस्की के दो गिलास तैयार किए। एक हरबंस की तरफ सरका दिया। दूसरा अपने हाथ में थामते हुए बोली।
“गिलास उठाओ हरबंस ।” चेहरे पर मुस्कान आ गई।
“मेरा गिलास बाहर टेबल पर पड़ा है।" हरबंस पैनी निगाहों से, सोफिया को देखते हुए कह उठा।
"ले लो। इसके पैसे नहीं देने पड़ेंगे।"
"मुफ्त का माल है तो ले लेता हूं।" कहने के साथ ही गिलास उठाकर, उसने तगड़ा घूंट भरा।
सोफिया ने घूंट भरा और गिलास टेबल पर रखती हुई बोली ।
"कल एक आदमी का फोन आया था। अपना नाम तो उसने नहीं बताया। उसी ने ये खबर मुझे दी कि तुम्हारी मुंह बोली बेटी सुखवंत राय जैसे अरबोपति के यहां काम करती है।"
"ये खबर नहीं है। खबर होती तो अखबारों में छप गई होती।” हरबंस ने घूंट भरा--- "वैसे मैं सुन रहा हूं। तुमने जो कहना है, कह जाओ।"
"वो आदमी हरबंस राय की बेटी दीपाली के बारे में जानना चाहता है कि वो कहां है। उसने कहा कि इस बारे में तुमसे बात करूं। तुम कल्पना के द्वारा ये मालूम कर सकते हो। बोला इस काम के बीस हजार भिजवा रहा हूं। इतना ही कहकर उसने फोन बंद कर दिया। घंटे भर बाद ही कोई आदमी बाहर ही मौजूद मेरे आदमी को बीस हजार दे गया कि वो रुपये मुझ तक पहुंचा दे।"
"बीस हजार--जरा से काम के।" हरबंस ने पुनः घूंट भरा।
"मालूम नहीं वो क्या चाहता है। इस मामले से जितनी मैं अंजान हूं उतने ही तुम।" सोफिया ने लापरवाही से कहा--- "अब तुम ही बताओ कि उस आदमी का फोन आये तो उसे क्या कहूं?"
“ये बात तो मैं कल्पना से मालूम कर लूंगा। लेकिन तुम इसमें क्यों दिलचस्पी ले रही हो?"
"मेरी कोई दिलचस्पी नहीं है। मेरी तरफ से तुम और फोन करने वाला दोनों ही कुएं में गिरो।" सोफिया ने मुंह बनाकर कहा--- “अगर तुम सुखवंत राय की बेटी के बारे में, कल्पना से पूछते हो तो मैं तुम्हें दस हज़ार दे सकती हूँ। चाहो तो अभी ले जाओ।"
"दस हजार। लेकिन तुम तो अभी बीस हजार की बात कर रही थीं।" हरबंस ने उसे घूरा।
"तो मैं क्या इस काम में तुम्हारा और नोटों का मुंह देखूंगी। तुम्हें दस हजार का खामखाह फायदा हो रहा है तो मुझे भी दस हजार का फायदा मिलना चाहिये। नहीं तो मैं उसे बीस हजार वापस कर दूंगी।"
"वापस करने जैसी बात क्यों करती हो।" हरबंस मुस्करा पड़ा--- "जहां तक मेरी कोशिश होती है मैं नोटों को दूर नहीं जाने देता। ला, दस हजार दे।"
“कब तक मालूम कर देगा?"
"आज का दिन तो 'टप' गया। कल बात करूंगा कल्पना से।"
“शाम को मुझे जवाब देगा? जिसने बीस हजार दिया है, उसे जवाब देना है।"
"हां। कल जब पीने यहां आऊंगा, जवाब मिल जायेगा। नोट कहां हैं?"
सोफिया ने टेबल की ड्राअर खोली और दस हजार की गड्डी निकालकर टेबल पर रख दी।
हरबंस ने तुरन्त झपट्टा मारा और गड्डी अपनी जेब में ठूंसते कह उठा।
"मेरी वजह से दस हजार की कमाई तूने मुफ्त में कर ली।"
"तेरी भी तो मुफ्त में कमाई हो गई।" सोफिया मुस्कराई।
हरबंस ने गिलास खाली किया और उठ खड़ा हुआ।
"चलता हूं।" कल मैं तुम्हारा इन्तजार करूंगी।"
"मैं तो चाहता हूं तुम हर रोज नोटो के साथ मेरा इन्तजार किया करो।" कहकर हरबंस हंसा और बाहर निकल गया।
■■■
"साली सोफिया मुझे बेवकूफ समझती है।" हरबंस की आवाज नशे में भटक रही थी। बेदी उसकी बांह पकड़े फुटपाथ पर आगे बढ़ा जा रहा था--- "कहती है किसी ने फोन किया और बीस हजार भिजवा दिया, सिर्फ ये जानने के लिए कि हरबंस राय की बेटी कहां है।"
“वो झूठ बोल रही है?" बेदी बोला ।
"पक्का झूठ बोल रही है।" अपनी बांह हिलाकर हरबंस कह उठा।
“वो कैसे?"
"अगर उसका इस मामले से वास्ता न होता तो वो अपनी कीमती व्हिस्की का मोटा तगड़ा पैग, अपने हाथों से बनाकर, मेरे सामने पेश नहीं करती।" नशे में हरबंस की आवाज ऊंची होने लगी थी। वैसे भी रात के ग्यारह बजे उसकी तरफ ध्यान देने वाला था ही कौन। कभी-कभार ही इक्का-दुक्का व्यक्ति फुटपाथ से गुजर जाता था--- "हरबंस राय की बेटी का मामला उसी का ही है। वो समझती है, इस तरह मुझे बेवकूफ बना लेगी। लेकिन एक बात तो है विजय ।"
"क्या?"
"इतनी कमीनी औरत है वो कि एक बूंद व्हिस्की भी बिना मतलब के न पिलाये। लेकिन उसने मुझे गिलास भरकर पिलाई। वो एक फूटी कौड़ी भी किसी को न दे। देखा नहीं कल, मुझे धक्के देकर अपने दारूखाने से निकलवा रही थी। ऐसी शह दस हजार रुपये पल्ले से खर्च करे तो बहुत बड़ा मतलब निकलता है।" नशे से भरा, हरबंस का स्वर संभला हुआ था--- "अरबोपति की बेटी के बारे में पूछताछ कर रही है तो जाहिर है किसी मोटे फेर में ही होगी। तभी दस हजार निकाले हैं उसने।"
"मेरे ख्याल में तुम ठीक कह रहे हो।" बेदी के होठों से निकला।
"मैं ठीक ही कहता होता हूं।"
"अगर ऐसा है तो मालूम करना चाहिये कि सोफिया क्या करना चाहती है।" बेदी की आवाज में गम्भीरता आ गई--- “हो सकता है कि किसी तरह मेरे को भी छः लाख मिल जायें।"
"चार लाख मेरे भी अपने साथ जोड़ लिया कर।"
"वो ही। वो ही।" बेदी ने जल्दी से कहा--- “अब तुम क्या करोगे?"
“यार वो खाने वाला ढाबा नहीं आया।” एकाएक हरबंस कह उठा।
“अभी थोड़ा आगे है। तो उस सोफिया के मामले में क्या करोगे?"
“सोफिया ने जो कहा है, वो तो मैं कल्पना से मालूम कर लूंगा। उसके बाद मालूम करूंगा कि सोफिया सुखवंत राय की बेटी में क्यों दिलचस्पी ले रही है।" हरबंस का नशा आज कुछ काबू में था।
“कल्पना बता देगी, सुखवंत राय की बेटी के बारे में? अगर उसने बताने से मना कर---।"
"इतनी हिम्मत नहीं है उसकी कि वो बताने से मुझे मना कर दे।" हरबंस ने बांह को हवा में लहराकर कहा--- "पैसे के मामले में मना कर देती है वो अलग बात है। वो जानती है कि, मेरे पास जितना भी पैसा होगा मैं उतनी ही ज्यादा दारू पिऊंगा। वो मेरा दारू पीना पसन्द नहीं करती। मना करती है।"
"ठीक ही तो करती है।"
“तू उसकी तरफदारी कर रहा है और अभी उसे देखा भी नहीं है। जब देख लेगा तो---।"
"मैं उसकी बात को सही कह रहा हूं कि---।"
"यार विजय। अगर दस साल पहले सोफिया मेरे से शादी कर लेती तो अब तक तीन बच्चे पैदा कर ही चुकी होती।"
“भूख नहीं लगी?" बेदी के होंठों पर मुस्कान उभरी।
"लगी है। कहां है ढाबा ?"
"जरा-सा आगे।"
“ठीक है। तो मैं क्या कह रहा था?"
"तुम कह रहे थे कि सोफिया से जो दस हजार मिले हैं, उन पैसों में से कल नई कमीज-पैंट खरीदोगे।" बेदी ने मुस्कराहट भरी गहरी सांस ली।
"हां। रेमण्ड की लूंगा। बढ़िया कपड़ा होता है और सुन, कल सोफिया के दारूखाने पर, व्हिस्की का खर्चा मैं दूंगा। जितनी मर्जी पीना। बेशक पीकर बहक जाना। लेकिन दारू का पैसा मैं---।"
बेदी बराबर मुस्कराता रहा।
हरबंस बढ़-चढ़कर बोलता रहा।
ढाबा आ गया।
■■■
रात के बारह बजे महल जैसे बंगले में, विदेशी कार ने भीतर प्रवेश किया। कार की पीछे वाली सीट पर पचपन वर्षीय सुखवंत राय मौजूद था। उसके व्यक्तित्व में, एक निगाह में ही, इस बात को महसूस किया जा सकता था कि वो मोटी आसामी है।
शहर में रुतबा था सुखवंत राय का । उद्योगपति, दो मिलों के मालिक होने के साथ, कई ऐसी संस्थाओं के साथ जुड़ा हुआ था, जो समाज कल्याण का कार्य करती थी। हर तरफ मान-सम्मान था उसका।
पोर्च में कार रुकते ही, ड्राईवर फौरन बाहर निकला और पीछे वाला दरवाजा खोलकर अदब से खड़ा हो गया। सुखवंत राय बाहर निकला। उंगलियों में जड़ी हीरे की अंगूठियां, वहां मौजूद रोशनी में चमकीं। चेहरे पर थकान के भाव नजर आ रहे थे। वो सीधा सदर द्वार की तरफ बढ़ गया। जो कि खुला था।
तभी भीतर से नौकर आया और दरवाजे के पास खड़ा हो गया।
"राम-राम मालिक।"
सिर हिलाते हुए सुखवंत राय आगे बढ़ता हुआ, सीढ़ियां चढ़कर पहली मंजिल पर पहुंचा। उसकी निगाह गैलरी के कोने में, एक बंद दरवाजे के बाहर खड़े गार्ड पर गई। पल भर के लिए वो ठिठका, फिर उसी तरफ बढ़ गया। पास पहुंचने पर गार्ड ने सलाम किया।
"दरवाजा खोलो।"
गार्ड ने फौरन पलटकर दरवाजा थपथपाया।
"कौन है ?" भीतर से युवती की आवाज आई।
"मालिक आए हैं।"
तुरन्त ही दरवाजा खुला। दरवाजा खोलने वाली पैंतीस बरस की, नर्स की यूनिफार्म में औरत खड़ी थी। सुखवंत राय को देखते ही वो पीछे हट गई।
सुखवंत राय ने भीतर प्रवेश किया।
सामने ही बैड पर तेईस बरस की खूबसूरत युवती, नाईट सूट में तकियों के सहारे अधलेटी सी मैग्जीन के पन्ने पलट रही थी कि सुखवंत राय को देखते ही बैड से नीचे उतरती हुई बोली ।
"पापा! इस तरह मुझे कैद करके क्यों रखा हुआ है। अब तो मैं बिल्कुल ठीक हूं। ड्रग्स लेने की इच्छा भी नहीं होती। कल डाक्टर ने आपसे कहा था कि मेरी ड्रग्स की आदत छूट चुकी है।"
सुखवंत राय ने मुस्कराकर, प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरा।
"अब तो मैं बंगले से बाहर जा सकती हूं पापा।"
"अभी नहीं दीपाली बेटी।" सुखवंत राय ने धीमे स्वर में कहा--- “अभी कुछ देर इन्तजार करो।”
“अब तो मैं ठीक हो चुकी हूं। फिर मुझे कैद में क्यों.....?"
"बड़ों से बहस नहीं करते। मैं कुछ कह रहा हूं तो अवश्य कोई बात तो होगी ही।" सुखवंत राय ने धीमे स्वर में कहा।
"कैसी बात?"
"इस बारे में मैं तुमसे ज्यादा बात नहीं करना चाहता। अपने दिल-दिमाग को अच्छी तरह समझा लो कि पन्द्रह-बीस दिन तुम्हें बाहर नहीं निकलने दिया जायेगा।" सुखवंत राय की आवाज में गम्भीरता थी।
“पन्द्रह-बीस दिन तक तो मैं इस कैद में पागल हो जाऊंगी। सच पापा मैं भाग जाऊंगी यहां से।"
“तुम समझदार हो। तुम्हें ऐसी बेवकूफी वाली बातें नहीं करनी चाहियें।" सुखवंत राय ने कहते हुए प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरा और पलटकर दरवाजे की तरफ बढ़ गया।
"पापा!" पीछे से गुस्से से दीपाली ने पुकारा।
परन्तु सुखवंत राय बाहर निकल गये।
दरवाजा पहले की तरह बंद हो गया।
सुखवंत राय अपने बैडरूम में पहुंचे। कोट उतारकर एक तरफ रखा। सोचों में डूबे टाई की नॉट खोलने लगे तो निगाह टेबल पर पड़े लिफाफे पर पड़ी। दो कदम आगे बढ़कर लिफाफा उठाकर देखा तो उसके बाहर "सुपर प्राइवेट डिटेक्टिव एजेन्सी" लिखा था।
सुखवंत राय ने लिफाफा टेबल पर रखा और फोन के पास पहुंचकर नम्बर मिलाया।
"हैलो!" लाईन मिलते ही, नींद से भरी आवाज उसके कानों में पड़ी।
"विनोद कुमार---।"
"ओह! राय साहब।" अब संभला स्वर कानों में पड़ा--- "मैंने रिपोर्ट भेजी थी। पढ़ ली होगी आपने।"
"मैंने तुमसे कहा था कि इस मामले की कोई रिपोर्ट टाईप नहीं होगी।" सुखवंत राय की आवाज में सख्ती आ गई थी--- "दोबारा ऐसी गलती नहीं होनी चाहिये।"
"ऐसा ही होगा राय साहब। अब रिपोर्ट टाईप नहीं होगी।"
"सुबह ठीक आठ बजे बंगले पर आकर मुझसे मिलो। कागज पर लिखे शब्दों को पढ़ने से बेहतर होगा कि अपने मुंह से तुम सब कुछ बताओ।" कहने के साथ ही सुखवंत राय ने रिसीवर रख दिया।
■■■
पैंतीस वर्षीय विनोद कुमार कभी पुलिस में कांस्टेबिल हुआ करता था। सिर्फ पचास रुपये रिश्वत लेने के आरोप में उसे कांस्टेबिल की नौकरी से हाथ धोना पड़ा था। ये दस साल पहले की बात थी। उसके बाद जैसे-तैसे जुगाड़ करके "सुपर प्राईवेट डिटेक्टिव एजेन्सी" खोली। किस्मत ने साथ दिया। मेहनती तो वो था ही, काम चल निकला। केस आने लगे और वो पूरी तसल्ली से कस्टमरों का काम करता।
कुछ ही सालों में प्राइवट जासूसी में वो नाम कमा गया।
और आज वो नम्बर वन प्राईवेट जासूस था। इस शहर में तो क्या, दूसरे शहरों में भी उसका नाम था। अपना स्टाफ था। पन्द्रह के करीब असिस्टैंट थे। पल की भी फुर्सत नहीं थी। आने वाले नये केसों को अधिकतर उसके असिस्टेंट ही देखते थे, परन्तु बड़े लोगों के केस, जहां खामखाह की तगड़ी फीस हासिल होती थी, उनसे खुद ही बात करता था। जैसे कि सुखवंत राय के कहते ही, सुबह आठ बजे वो हाजिर हो गया।
सुखवंत राय ने अपने पर्सनल छोटे से ड्राईंगरूम में उससे बात की।
“क्या है तुम्हारी रिपोर्ट ?"
“आपने पढ़ा होगा कि---।"
"मैंने कुछ नहीं पढ़ा। तुम्हारा वो लिफाफा अभी तक बंद रखा है।" सुखवंत राय ने नाराजगी भरे स्वर में कहा--- “खुद को तुम बहुत ज्यादा समझदार मानते हो और करते हो बड़ी-बड़ी गलतियां ।"
विनोद कुमार नोटों वाले लोगों की बातों का कभी भी बुरा नहीं मानता था।
"उस लिफाफे को कोई भी खोलकर पढ़ सकता था और---।"
“आप ठीक कह रहे हैं राय साहब।” विनोद कुमार कह उठा--- "लेकिन ये गलती मेरे असिस्टेंट से हुई है। मैं उसे समझा दूंगा कि इस मामले की रिपोर्ट कभी भी टाईप न की जाये।"
दो पलों की खामोशी के बाद सुखवंत राय बोला ।
"बोलो।”
“आपकी बेटी दीपाली के ब्वॉय फ्रेंड का कुछ भी पता नहीं चल रहा।" विनोद कुमार ने कहा।
"ये बताने के लिए तुमने मेरा वक्त खराब किया। लोग कहते हैं, तुम माने हुए जासूस हो। लेकिन वक्त आने पर जवाब देते हो कि काम नहीं हो पाया। ये शब्द क्या तुम्हें शोभा देते हैं विनोद कुमार ?"
विनोद कुमार कई क्षणों तक गम्भीरता से सुखवंत राय को देखता रहा।
"काम नहीं हो पा रहा, ये कहते हुए मुझे वास्तव में अजीब-सा महसूस हो रहा है।" विनोद कुमार ने धीमे स्वर में कहा--- "क्योंकि मैंने हर केस में कस्टमर को पूरी तसल्ली दी है।"
"मुझे तो तुम तसल्ली भरे शब्द भी नहीं कह रहे।” सुखवंत राय की आवाज में सख्ती आ गई--- "मैंने तुम्हें पहले भी कहा था कि जो फीस मांगोगे, मिलेगी। लेकिन काम पूरा होना चाहिये।"
विनोद कुमार ने कुछ नहीं कहा।
"किसी ने मेरी बेटी को अपने जाल में फंसाया।" सुखवंत राय दांत भींचकर कह उठा--- “धीरे-धीरे मेरी बेटी को ड्रग्स की लत लगवा दी गई। दीपाली पूरी तरह ड्रग एडिक्ट हो गई। इन सब हरकतों के पीछे किसी की चाल है। वो दीपाली की आड़ में यकीनन मेरे को बदनाम करना चाहता था, या फिर ब्लैकमेल करना चाहता था । लेकिन वक्त रहते मैंने दीपाली को संभाल लिया और उसका ईलाज करवाकर उसे ठीक भी करा दिया।"
विनोद कुमार, सुखवंत राय के गुस्से से भरे चेहरे को देख रहा था।
"मैं अच्छी तरह जानता हूं दीपाली का ब्वॉयफ्रेंड, सिर्फ उन लोगों का मोहरा था। असल लोग तो उसके पीछे हैं और मैं जानना चाहता हूं कि वो कौन हिम्मत वाला है, जिसने मेरे गिरेबान में हाथ डालना चाहा और ये बात तभी सामने आ सकती है, जब ये मालूम हो कि दीपाली का वो ब्यायफ्रेंड कौन है। वही बतायेगा कि किसके इशारे पर उसने दीपाली को इस राह पर डाला और---।"
"मैं आपसे वायदा करता हूं कि बहुत जल्द उसके बारे में मालूम हो जायेगा।" कहते हुए विनोद कुमार उठ खड़ा हुआ।
"क्या मतलब?"
"पहले इस केस पर मेरे दो असिस्टेंट काम कर रहे थे।" विनोद कुमार ने गम्भीर स्वर में कहा--- “लेकिन अब इस केस को सिर्फ मैं देखूंगा। लेकिन आपकी बेटी द्वारा एक भारी समस्या भी सामने आ रही है।"
"क्या ?"
"वो उस लड़के के घर का पता नहीं जानती। फोन नम्बर नहीं है उसके पास । वो लड़का ही दीपाली को फोन किया करता था। उसके बारे में वो ठीक से कुछ नहीं जानती।" विनोद कुमार ने सुखवंत राय को देखा।
"ऐसे उलझे काम को सुलझाने का काम करना ही तुम्हारा पेशा है विनोद कुमार।"
विनोट कुमार के होंठों पर मुस्कान उभरी।
"आप ठीक कहते हैं। चलता हूं। एक-दो दिन में आपसे बात करूंगा।"
■■■
बेदी, हरबंस के साथ ही था। दिन के दस बज रहे थे। दोनों पब्लिक बूथ में थे और हरबंस रिसीवर पकड़े सुखवंत राय के नम्बर मिला रहा था, कल्पना से बात करने के लिए।
लाईन मिली। बात हुई।
"हैलो!" हरबंस के कानों में आवाज पड़ी।
"नमस्कार जी।" हरबंस बेहद मीठे स्वर में कह उठा--- “राय साहब के यहां से बोल रहे हैं आप?"
"जी हां। आप कौन ?"
"मैं कल्पना का पिता बोल रहा हूं। हरबंस । कल्पना से बात हो सकती है?"
"होल्ड कीजिये।"
हरबंस ने माऊथपीस पर हाथ रखकर बेदी से कहा।
"आ रही है।"
बेदी ने कुछ नहीं कहा।
डेढ़ मिनट के इन्तजार के बाद, हरबंस के कानों में कल्पना का मीठा स्वर पड़ा।
"पापा!"
"कैसी हो बेटी ?"
“मैं ठीक हूं। पैसे नहीं हैं मेरे पास आपकी ड्रिंक के लिये।” कल्पना का स्वर कानों में पड़ा ।
"वो तो मुझे मालूम है, तू नहीं देगी। किसी और बात के लिए फोन मारा है।"
"क्या ?"
“सुखवंत राय की बेटी है ना, दीपाली ?”
"हां।" कल्पना के स्वर में अजीब-से भाव आ गये थे।
"वो कहां है?"
"क्या मतलब?"
"मैंने पूछा है, वो कहा है। सुखवंत राय की बेटी दीपाली कहां है इस वक्त ?"
कल्पना की तरफ से आवाज नहीं आई।
"बोली नहीं तू?"
"तुम्हें ये बात पूछने की क्या जरूरत पड़ गई पापा!" कल्पना का स्वर कानों में पड़ा।
"ज्यादा सवाल मत कर । जवाब दे।"
"वो यहीं है। बंगले पर ।"
"बंगले में?"
"हां। लेकिन बात क्या है?"
"कोई बात नहीं।" कहने के साथ ही हरबंस ने रिसीवर रख दिया।
बेदी की निगाह हरबंस पर थी।
"दीपाली तो अपने बंगले पर ही है। ये बात तो सोफिया को पहले ही मालूम हो जानी चाहिये थी।" हरबंस ने उसे देखकर कहा--- "सोफिया ने खामखाह दस हजार खर्चा ।"
“खामखाह तो वो दस हजार नहीं खर्च करेगी।" बेदी ने गहरी सांस ली--- "तुम्हें कल्पना की वजह से मालूम हो गया कि दीपाली बंगले पर है। हो सकता है, सोफिया को ये बात न मालूम हो पा रही हो।"
हरबंस ने सोच भरी निगाहों से बेदी को देखा।
“हो सकता है।"
दोनों फोन बूथ से बाहर आ गये।
"अब क्या करोगे?" बेदी ने पूछा।
"अब?" इस शब्द के साथ ही हरबंस के चेहरे पर सवाल उभरा।
"तुमने मेरे लिए कोई रास्ता तलाश करना है कि मैं छः लाख अपने लिए और चार लाख तुम्हारे लिए इन्तजाम कर सकूं।" बेदी ने एक-एक शब्द पर जोर देकर कहा ।
हरबंस ने सिग्रेट सुलगाई और कुछ पल सोचकर कह उठा।
"मेरे ख्याल में सोफिया किसी लम्बे फेर में लगती है।"
"क्या मतलब?"
"सोफिया जैसी औरत को सुखवंत राय की बेटी से कोई वास्ता नहीं होना चाहिये।" हरबंस ने कहा--- "और बिना मतलब के सोफिया किसी बात से वास्ता रखती नहीं।"
"मैं अभी भी नहीं समझा।"
"सुखवत राय दौलतमंद इन्सान है और सोफिया को दौलत की भूख लगी रहती है।" हरबंस राय ने होंठ सिकोड़कर कहा--- “कोई बड़ी बात नहीं कि हमारी लाखों की जरूरत सोफिया के द्वारा ही पूरी हो जाये। मेरे ख्याल में हमें ये जानने की कोशिश करनी चाहिये कि सोफिया, सुखवंत राय की बेटी को लेकर किस चक्कर में है।"
"हो सकता है वो किसी चक्कर में न हो।"
"जिसने दस हजार जरा सी बात पूछने के लिए मुझे दे दिया, तो वो किसी चक्कर में तो होगी ही।"
"ये भी तो हो सकता है कि सोफिया सच कह रही हो। वास्तव में उसे किसी ने बीस हजार रुपया दिया हो ये बात मालूम करने के लिए---।"
"अगर ऐसा होता तो बढ़िया व्हिस्की का पैग अपने हाथों से बनाकर मेरे सामने पेश न करती। सोफिया की घटिया फितरत से मैं अच्छी तरह वाकिफ हूं। ये काम उसने अपने लिए ही कराया है।" हरबंस के स्वर में विश्वास के भाव थे--- “उसके बात करने के ढंग से ही मैं समझ गया था।"
बेदी ने कुछ नहीं कहा।
दोनों पैदल ही आगे बढ़ रहे थे।
“सोफिया के पास चलते हैं।" हरबंस ने उसे देखा ।
“सोफिया के?"
"हां। सुखवंत राय की बेटी की खबर देने के बहाने उसके पास हो आते हैं। उसे टटोलने की कोशिश करूंगा कि शायद मालूम हो, वो किस फेर में है। तुम बाहर ही रहना। हो सकता है वो कुछ कहना चाहे, लेकिन तुम्हारी मौजूदगी में न कह पाये। मैं चैक करूंगा सोफिया को।"
बेदी सिर्फ सिर हिलाकर रह गया।
■■■
“तुमने तो आज शाम को मिलना था।" सोफिया, हरबंस को देखते ही बोली।
"हां।" हरबंस उसके कमरे में आगे बढ़ा और कुर्सी पर बैठता हुआ बोला--- “तुम्हारा काम हो गया था और मेरे पास फुर्सत थी । इसलिए चला आया। सुखवंत राय की बेटी के बारे में मालूम कर लिया है।"
सोफिया की निगाह, हरबंस के चेहरे पर जा टिकी ।
“वो अपने बंगले पर ही है।" हरबंस ने कहा।
"बंगले पर?" सोफिया की आंखें सिकुड़ीं।
“हां।" हरबंस की निगाह सोफिया के चेहरे पर पड़ी।
"खबर पक्की है?"
"दस हजार के बदले मैं क्या तुम्हें गलत खबर दूंगा।" हरबंस के चेहरे पर छोटी सी मुस्कान उभरी।
सोफिया एकाएक मुस्करा पड़ी।
“मेरे लायक कोई और सेवा हो तो कहो।" हरबंस बोला।
“मेरे पास तो तुम्हारी सेवा के लिए कुछ नहीं है।" सोफिया के स्वर में लापरवाही थी--- "जिसने इस काम के लिए बीस हजार रुपया दिया था, उसका फोन आयेगा तो तुम्हारी कही बात उसे बता दूंगी। अगर उसने फिर कोई काम करने को कहा तो तुम्हें कहूंगी।"
"बात कर लेना उससे।" हरबंस उठते हुए बोला--- "शायद वो कुछ और मालूम करने को कहे और मेरी कमाई हो जाये।"
सोफिया ने मुस्करा कर सिर हिलाया।
"शाम को आऊंगा।" कहने के साथ ही हरबंस बाहर निकल गया।
सोफिया कुछ पलों तक सोच के भाव चेहरे पर समेटे बैठी रही फिर हाथ बढ़ाकर रिसीवर उठाया और नम्बर मिलाकर बात की।
"गोपाल!"
"सोफिया मैडम!" उधर से गोपाल का स्वर कानों में पड़ा।
"सुखवंत राय की बेटी का कुछ पता चला ?”
"नहीं मैडम। मैं....।"
"मेरे पास आओ।"
आधे घंटे बाद गोपाल, सोफिया के पास कमरे में था।
"तीन महीनों से तुम दीपाली की कोई खबर नहीं पा सके।" सोफिया ने तीखे स्वर में कहा--- "जबकि वो अपने बंगले पर ही मौजूद है।"
"बंगले पर---?" गोपाल ने हैरानी से कहा।
"हां।"
“आपको कैसे मालूम हुआ। आप....।"
"बेकार के सवाल मत पूछो और ठीक ढंग से काम करने की आदत डालो।" सोफिया के माथे पर बल उभर आये--- "दीपाली बंगले पर है। वहां नजर रखो। दीपाली बाहर निकलती होगी। अब जब भी वो बाहर निकले, उसे उठा लो। "
"वो बाहर नहीं निकलती।" गोपाल ने कहा।
"ये बात तुम कैसे कह सकते हो?" सोफिया की आंखें सिकुड़ी।
"मेरा कोई न कोई आदमी सुखवंत राय के बंगले पर नजर रखता है। अगर वो बाहर निकली होती तो नजर में आ जाती।" गोपाल की आवाज में पक्कापन था--- "वो बाहर नहीं निकलती मैडम सोफिया।"
सोफिया कई पलों तक गोपाल के चेहरे को देखती रही फिर कह उठी।
"वो कभी तो बाहर निकलेगी। जब भी वो बाहर निकले तो उसे उठाकर अपने ठिकाने पर रखो और मुझे खबर दो।"
■■■
सुबह दीपाली की देख-रेख के लिए दूसरी नर्स आ गई थी। पच्चीस बरस की उम्र थी उसकी। नर्स की यूनिफार्म में वो जंच रही थी। उसके आने पर रात वाली नर्स चली गई।
"आखिर तुम लोग कब तक मेरे सिर पर सवार रहोगे।" उसे देखते ही दीपाली झल्लाकर रह गई।
नर्स मुस्कराकर कह उठी।
"जब तक डाक्टर साहब और आपके पापा कहेंगे, हमें आपके पास रहना पड़ेगा तब तक।"
"डाक्टर ने कह दिया है कि मैं ठीक हूं और---।"
"लेकिन दीपाली जी आपके पापा---।"
"पापा का दिमाग खराब हो गया है। अब मेरी नशे की आदत छूट गई है तो वो मुझे बाहर क्यों नहीं जाने देते?" दीपाली का स्वर गुस्से में भर गया था। चेहरा सुर्ख सा नजर आने लगा था।
नर्स ने जवाब में कुछ नहीं कहा।
"रेवती तू ही बता कि मैं अब क्या बीमार हूं? नशा मांगती हूं कभी?” दीपाली ने उसे देखा।
"नहीं।"
"तो तीन महीने से मुझे खुले आसमान के नीचे क्यों नहीं जाने दिया जा रहा? कैद क्यों कर रखा...?"
“तुम बाहर जाना चाहती हो?" रेवती ने धीमे स्वर में उसकी बात काटी।
"हां।"
"अगर मैंने तुम्हें बाहर जाने दिया तो तुम्हारे पापा मेरा बुरा हाल कर देंगे।"
“मैं-मैं पापा को बताऊंगी ही नहीं कि तुमने मुझे बाहर जाने दिया। प्लीज, मुझे यहां से निकालो। वरना मैं अपने ही घर में पागल होकर रह जाऊँगी। मैंने आज तक अपनी जिन्दगी में ऐसी बुरी कैद नहीं काटी।"
रेवती कुछ पलों तक उसे देखती रही।
"प्लीज रेवती! मुझे यहां से बाहर निकाल दो। मैं....।"
"सोचने का मौका दो।" रेवती ने दीपाली का कंधा थपथपाया--- "मैं अभी आई।” कहने के साथ ही रेवती कमरे से बाहर निकली और आगे बढ़ गई। दरवाजे के बाहर गार्ड खड़ा था। उसने दरवाजा बंद कर दिया।
रेवती नीचे हॉल में पहुंची। वहां कुछ दूर एक नौकर अपने काम में व्यस्त था। रेवती ने वहां मौजूद फोन का रिसीवर उठाया और नम्बर मिलाकर बात की।
"हैलो! मैं रेवती बोल रही हूं।" उसने धीमे स्वर में कहा।
"कहो। मैं तुम्हारे ही फोन का इन्तजार कर रहा था।" किसी मर्द की आवाज कानों में पड़ी।
"दीपाली यहां से निकलने को बेताब है।"
"तो उसे निकालो बाहर ।"
"मेरी पचास हजार की रकम।" रेवती धीमे से बोली--- "काम होने के बाद न मिली तो?"
“मिल जायेगी।" आवाज कानों में पड़ी--- "मत भूलो ये काम करने के लिए, मैंने ही रात को तुमसे मुलाकात की थी।"
“पचास हजार रुपया मेरे घर पहुंचा दो। मैं घर में फोन करके मालूम कर लूंगी। अगर रुपया पहुंच गया होगा तो तुम्हारा काम हो जायेगा। जैसे भी हो, दीपाली आज ही, बंगले से बाहर निकल जायेगी।"
"ठीक है। रुपया मैं अभी तुम्हारे घर पहुंचा देता हूँ। वो अभी नशा करती है?" उधर से पूछा गया।
"मालूम नहीं। पहले से ठीक है। वैसे उसने कभी नशा मांगा नहीं।"
"तुम पुड़िया लाई हो?"
"हां।"
"दीपाली को चैक करो। अगर वो नशा लेने को तैयार होती है तो पुड़िया उसे दे देना ।"
"ठीक है। रुपया मेरे घर पहुंच गया तो, दीपाली को आज किसी भी वक्त बंगले से बाहर निकाल दूंगी।" कहने के साथ ही रेवती ने रिसीवर रखा। पलटी कि ठिठक गई।
चंद कदमों पर अपनी खूबसूरती समेटे कल्पना खड़ी थी।
"हैलो कल्पना!” रेवती मुस्कराई।
"हैलो! फोन तो तुम कमरे से भी कर सकती थीं।" कल्पना ने शांत स्वर में कहा।
"खास बात करनी थी। वहां दीपाली है।" रेवती मुस्करा रही थी--- "आज तुम बहुत जंच रही हो।"
"मक्खन लगा रही हो।" कल्पना हौले से हँसी--- "दीपाली के पास जाओ। राय साहब ने देखा तो नाराज होंगे।"
रेवती वहां से चली गई।
कल्पना आगे बढ़ी और रिसीवर उठाकर नम्बर मिलाये।
"हैलो!" दूसरी तरफ से आवाज आई।
"रेवती ने अभी तुम्हें ही फोन किया था अमर?" कल्पना ने धीमे स्वर में पूछा।
"हां। रेवती आज दीपाली को बंगले से बाहर निकालने जा रही है।" अमर का स्वर कानों में पड़ा। ये वही अमर था। सोफिया का दोस्त। जो सोफिया को स्मैक सप्लाई करता था।
"आगे का काम सम्भल कर करना।"
"मैं सब संभाल लूंगा।"
"तुमने बताया था कि सोफिया भी दीपाली के पीछे है।"
"हाँ। लेकिन मुझे उसकी परवाह नहीं। वो मेरे लिए कोई मुसीबत खड़ी नहीं कर सकती।”
"ठीक है। फोन बंद कर रही हूं।" कहने के साथ ही कल्पना ने रिसीवर रखा और आगे बढ़ गई। चेहरे पर शांत-सामान्य भाव थे। तभी सामने से आता नौकर कह उठा--- "छोटे मालिक आपको बुला रहे हैं।"
कल्पना ने सिर हिला दिया।
छोटे मालिक!
यानि कि सुखवंत राय के बेटे और दीपाली का बड़ा भाई सुरेश राय। जो कि अट्ठाईस वर्षीय ठीक-ठाक दिखने वाला युवक था। अपने पिता के कामों में कभी-कभार हाथ बंटा देता था। जब से कल्पना ने बंगले के काम संभाले थे, तब से ही उसकी नजर कल्पना पर थी। ऐसी खूबसूरत उसने पहले कभी नहीं देखी थी।
सुरेश राय कमीज-पैंट पहने अपने बैडरूम में टहल रहा था कि कल्पना ने भीतर प्रवेश किया।
"आपने मुझे बुलाया छोटे मालिक?"
कल्पना की आवाज सुनकर ठिठका। नजरें दरवाजे की तरफ घूमी।
"मैंने तुमसे कितनी बार कहा है कल्पना कि मुझे छोटे मालिक नहीं, सुरेश कहा करो। सिर्फ सुरेश।”
कल्पना के होंठों पर मुस्कान उभरी।
"मालिक को मालिक का ही दर्जा देना चाहिये।" कल्पना ने मीठे स्वर में कहा।
"कल्पना तुम्हें कितनी बार---।"
"मालिक!” कल्पना ने पहले वाले स्वर में ही कहा--- “मैं यहां नौकरानी हूं और---।"
"अगर ऐसी बात है तो मेरे से बाहर मिलो। मैं---।"
"मैं ऐसी लड़की नहीं हूं कि---।"
“समझा करो कल्पना, मैं तुमसे प्यार करता हूं।” सुरेश ने गहरी सांस लेकर कहा।
“आप मुझे प्यार करते हैं तो शादी कर लीजिये।" कलपना के स्वर में सादगी थी।
"तुम अच्छी तरह समझती हो कि हमारी शादी नहीं हो सकती। मैं---।"
"ऐसा है तो फिर आप मुझे प्यार करना छोड़ दीजिये।" कल्पना ने कहा--- "मेरे ख्याल में आपने इन्हीं बातों के लिये मुझे बुलाया है। चलती हूं मालिक! मुझे कई काम करने हैं।" कहने के साथ ही कल्पना बाहर निकल गई।
सुरेश राय गहरी सांस लेकर रह गया।
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रेवती ने कमरे में प्रवेश करके दरवाजा बंद किया तो कुर्सी पर बैठी दीपाली बेचैनी से कह उठी।
"प्लीज रेवती! कोई रास्ता निकाल दे कि मैं खुली हवा में घूम-फिर सकूं।"
रेवती उसके पास पहुंची फिर मुस्कराई।
"अगर मैं तुम्हें किसी तरह यहां से बाहर निकाल दूं तो कितनी देर में वापस आ जाओगी ?"
“एक-दो घंटे में। कुछ देर खुले में घूमना चाहती हूं।" दीपाली के होंठों से निकला।
“अगर तुम नहीं लौटीं तो मेरी खैर नहीं।" कुर्सी पर बैठते हुए रेवती मुस्कराई ।
“मेरा यकीन करो। बाहर घूमकर एक-दो घंटों में वापस आ जाऊंगी। प्लीज रेवती!"
"ठीक है। लंच के वक्त दरवाजे के बाहर खड़ा गार्ड आधे घंटे के लिए जायेगा तो उस वक्त तुम्हारे बाहर जाने के लिए कोई न कोई रास्ता निकाल दूंगी।
"पक्का रेवती।" दीपाली का स्वर खुशी से कांप उठा।
"हां।" कहकर रेवती ने अपने कपड़ों में से पुड़िया निकाली और उसे खोलने लगी।
दीपाली की निगाह उस पुड़िया पर जा टिकी।
रेवती मुस्कराई।
"ये क्या है?" दीपाली के होंठों से निकला।
"खुद ही देख लो।" रेवती हौले से हंसी।
दीपाली अपनी जगह से उठी और जल्दी से उसके पास पहुंची। पुड़िया में पाऊडर पड़ा नजर आया तो दीपाली ने फौरन उसे सूंघा तो उसके होंठों से निकला।
"तू ड्रग्स लेती है?"
"कभी-कभी। किसी को बताना नहीं।"
दीपाली का ड्रग्स छोड़ने का ईलाज चल रहा था। अब ड्रग्स की इच्छा नहीं होती थी उसे, परन्तु जब ड्रग्स की स्मेल सांसों से टकराई तो उसे लेने की इच्छा ने जोर मारा।
"क्या हुआ?" उसके चेहरे के भाव देखकर रेवती ने पूछा।
दीपाली धीमे से कह उठी।
"थोड़ी-सी मुझे दे दे। सूंघकर मन कर आया लेने का।" दीपाली ने धीमे स्वर में कहा।
"लेकिन तेरा तो ईलाज चल---।"
"छोड़ इन बातों को। एक बार ले लेने से क्या फर्क पड़ेगा।" कहने के साथ ही दीपाली ने उसके हाथ से ड्रग्स की पुड़िया ली और भूखे भेड़िये की तरह ड्रग्स पर टूट पड़ी।
लंच के वक्त बंगले में व्यस्तता थी।
दरवाजे के बाहर खड़ा गार्ड भी लंच के लिये चला गया था। सुखवंत राय घंटा भर पहले ही बंगले से चले गये थे। सुरेश राय अपने कमरे में था।
रेवती हर तरफ नजर रख रही थी।
रास्ता साफ देखकर उसने दीपाली को साथ लिया और दरवाजा खोलकर बाहर निकल आई।
"मुझे डर लग रहा है।" दीपाली कह उठी--- "पापा ने देख लिया तो---।"
“राय साहब बंगले में नहीं हैं। कोई पूछे तो कहना पापा से पूछने के बाद ही बाहर जा रही हूँ।"
परन्तु रास्ते में किसी ने नहीं रोका।
कल्पना ने दीपाली के साथ रेवती को बाहर जाते देखा तो आंखों में चमक भर आई। लेकिन उसने इस तरह मुंह फेर लिया जैसे कुछ देखा ही न हो।
पोर्च में खड़ी कार में वे दोनों बैठीं। रेवती ने कार आगे बढ़ा दी। कई महीनों बाद दीपाली ने आज ड्रग्स का इस्तेमाल किया था, इसलिए वो खुद को ज्यादा ही मस्ती में महसूस कर रही थी। आंखों में नशे का हल्का सा गुलाबी रंग नजर आने लगा था।
गेट पर खड़े दोनों दरबानों को सुखवंत राय की तरफ से सख्त आदेश था कि दीपाली को बंगले से बाहर नहीं जाने देना है। वे पक्का दीपाली को बाहर नहीं जाने देते। लेकिन साथ में दीपाली की नर्स रेवती को देखकर उन्होंने नहीं टोका और गेट खोल दिया।
कार बाहर निकल गई।
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गोपाल का आदमी सुखवंत राय के बंगले पर नजर रख रहा था।
अमर को ये बात मालूम थी। रेवती ने जब अमर को विश्वास दिला दिया कि आज दीपाली बंगले से बाहर निकलेगी तो उसने फौरन अपने चार आदमी भेजे। उन्होंने गोपाल के आदमी को चुपके से बेहोश किया और दो आदमी उसे कार में डालकर ले गये।
दो वहीं खड़े रहे।
अमर ने सब समझाकर भेजा था उन्हें ।
लंच में जब कार पर रेवती और दीपाली बाहर निकलीं तो, वो दोनों दूसरी कार में उनके पीछे लग गये। आधे घंटे बाद जब रेवती कार को लगभग सुनसान सड़क से ले जा रही थी तो पीछे आती कार वाले बदमाशों ने कार को रुकवाया और रेवती को रिवाल्वर दिखाकर, दीपाली को जबर्दस्ती अपनी कार में बिठाकर ले गये। रेवती जानती थी कि अमर ने ऐसा ही कुछ करना है, इसलिए ज्यादा विरोध नहीं किया।
दीपाली ने उनके साथ जाने में भारी तौर पर एतराज उठाया तो उसके सिर में चोट मारकर उसे बेहोश करके कार में डाल दिया था।
रेवती जानती थी कि दीपाली के बंगले पर न मिलने पर उसे ही पकड़ा जायेगा। उससे ही पूछताछ की जायेगी। ऐसे में अपने बचाव के लिए वो सोचने लगी कि सुखवंत राय और पुलिस को क्या कहना है।
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