वह एक बहुत सर्द रात थी ।
सर्दियों में दिल्ली की रातें सर्द ही होती हैं लेकिन उस रात पर सर्दियों के मौसम की कुछ ज्यादा ही नजरेइनायत मालूम होती थी । दिल्ली के सर्दियों के मौसम में वैसी कुछ रातें हमेशा आती थीं जब हमेशा अगली तारीख में घर लौटने वाले मर्द भी तारीख बदलने से बहुत पहले घर लौट जाते थे, जब अपनी अधेड़ उम्र की, मोटापे के आगे हथियार डाल चुकी बीवियों की भी उनके मर्दों को कद्र होने लगती थी और जब नगर की कॉलगर्ल्स को सिनेमा के नाइट शोज के खतम होने का इन्तजार करना मुहाल लगने लगता था और वे ईवनिंग शो की समाप्ति के बाद ही औने-पौने में ग्राहक पटाकर अपने धंधे के एक और दिन को नाकामयाबी का मुंह देखने से बचा लेती थी । वैसी रातों को तो सड़क पर हमेशा आवारागर्दी करते कुत्ते तक नहीं दिखाई देते थे । इस लिहाज से नाइट वाचमैन और नाइट पैट्रोल का अंग पुलिसिये यकीनन हमदर्दी के हकदार थे - बशर्ते कि वे अपनी ड्यूटी भुगताने के मामले में ईमानदार भी हों ।
उस रात को जब मेरे अड़ोसी-पड़ोसी वक्त से बहुत पहले अपनी बीवियों और नींद की गोद में गर्क हो चुके थे, मैं जाग रहा था - आधी रात के बाद भी जाग रहा था ।
उस नामुराद रात की हौलनाक दास्तान को आगे बढ़ाने से पहले मैं आपको याद दिला देना चाहता हूं कि आपका पुराना खादिम सुधीर कोहली फिर आपसे मुखातिब है । वैसे आप मुझे जानते ही हैं, नहीं जानते तो दोबारा बता देता हूं कि मैं प्राइवेट डिटेक्टिव के उस दुर्लभ धंधे से ताल्लुक रखता हूं जो हिन्दोस्तान में अभी ढंग से पहचाना नहीं जाता लेकिन फिर भी दिल्ली शहर में थोड़ी-बहुत पूछ मेरी है । नेहरू प्लेस में यूनीवर्सल इनवैस्टिगेशन्स के नाम से मेरा दफ्तर है और ग्रेटर कैलाश में एन-128 नम्बर की इमारत के एक फ्लैट में मैं रहता हूं और उस रात जैसी ठंडी रातों में रजाई से वह गर्मी और सकून हासिल करने की कोशिश करता हूं जो खुशकिस्मत लोग नौजवान और खूवसूरत औरत के नंगे जिस्म से हासिल करते हैं । शायद ऐसे ही खुशकिस्मत लोगों ने मेरे जैसे तनहा नौजवानों की कमतरी का मजाक उड़ाने के लिए यह मुहावरा प्रचलित किया है कि “महीना पोह, बचेंगे वो, जो सोयेंगे दो” ।
पोह का महीना हर साल आता है लेकिन ऊपरवाले की इनायत है कि अभी तक आपका खादिम बचा हुआ है यानी कि अकेला सोने की अपनी बदकिस्मती की वजह से शहीद नहीं हुआ है । बीच में एक दौर ऐसा आया था जब मैं भी शादीशुदा था और अपनी बीवी के साथ सोता था । लेकिन मेरी बीवी, मेरी निम्फोमैनियक बीवी, क्योंकि मेरे अलावा सौ-पचास और मर्दों के साथ भी सोना चाहती थी, इसलिये मजबूरन उसे मुझसे तलाक लेना पड़ा था । पोह के महीने में बीवी के साथ सोने के मामले में मैं अपनी कोई जाती राय पेश नहीं कर सकता क्योंकि मेरी शादी हुई ही पोह के महीने में थी और उन दिनों मैं रातों को सोता थोड़े ही थी । इतना बेवकूफ तो मैं हरगिज भी नहीं हूं । कहते हैं कि खुदा ने रातें सोने के लिए बनाई हैं लेकिन इसकी तसदीक आप भी कर सकते हैं कि यह बात नवविवाहित जोड़ों पर लागू नहीं होती ।
विस्की का आखिरी पैग मैंने रात को ग्यारह बजे यानी कि तब से कोई तीन घंटे पहले पिया था । मैं और विस्की पी सकता था लेकिन उस रात क्योंकि मुझे नशा भी नहीं हो रहा था इसलिए मैंने और विस्की पीने को या यूं कहिए कि बरबाद करने की कोशिश नहीं की थी । वैसे भी अकेले विस्की पीने से ज्यादा बेहूदा काम दुनिया में कोई नहीं । बाद में मैंने, काफी देर तक इरविंग वालेस के उपन्यास “दि सैकेंण्ड लेडी” में दिल लगाने की कोशिश की थी लेकिन फिर मेरा उससे भी मन उचाट हो गया था । जब एक-एक पैरा तीन-तीन बार पढ़ने की नौबत आ गई थी तो मैंने उपन्यास को एक ओर फेंक दिया था, टेबल लैम्प का स्विच ऑफ कर दिया था और नींद को जबरन हथियाने की कोशिश फिर शुरू कर दी थी ।
विलायती मुल्कों में कहा जाता है कि नींद न आने की सूरत में भेडें गिनने की कोशिश की जाए तो नींद आ जाती है । लेकिन मैं उस सिलसिले में भी नाकामयाब रहा था, इसलिए नहीं क्योंकि मुझे गिनती नहीं आती बल्कि इसलिए कि मैं तो भेड़ का अक्स ही अपने जहन पर नहीं उतार पा रहा था । पता नहीं कब से भेड़ नहीं देखी थी मैंने ।
फिर भेडें गिनने की जगह मैंने उन औरतों की गिनती आरम्भ की, अपनी निम्फोमैनियक बीवी से तलाक लेने के बाद से, जिनके साथ मैं हमबिस्तर हो चुका था । उन कलाबाजियों की ब्लू फिल्म सी मेरे मानस-पटल पर चलने लगी जो कि मैंने पता नहीं कितनी औरतों के साथ खाई थी लेकिन बात न बनी । नींद न आई ।
फिर अपने आप ही मेरा ध्यान बेपनाह हुस्न की मलिका उस औरत की तरफ चला गया जो कि कभी मेरी बीवी थी ।
अब तक कितने मर्दों का बिस्तर गर्म कर चुकी होगी वो ?
मेरे से अलहदगी के बाद से स्कोर डबल या या ट्रिपल सेंचुरी तक तो पहुंच ही गया होगा । क्या पता कामयाबी फोर फिगर्स में पहुंच चुकी हो ।
कभी मेरे एक दोस्त ने मुझसे एक सवाल किया था कि मुझे हरजाई औरतें पसन्द थीं या दूसरी किस्म की । मुझे उसके सवाल पर बहुत हंसी आई थी । कैसा बेवकूफ आदमी था वो । वो समझता था कि औरतों की कोई दूसरी किस्म भी होती थी ।
शादीशुदा मर्द की यह ट्रेजडी है कि वह घुटनों के बल झुक कर औरत का हाथ मांगता है और फिर सारी उम्र अपने पैरों पर खड़े होने की कोशिश में गुजार देता है ।
तभी एकाएक टेलीफोन की घंटी बज उठी ।
उस अप्रत्याशित आवाज से मैं यूं चिहुंका जैसे किसी ने मुझे बिजली का तार छुआ दिया हो या मेरे ऊपर बर्फ से ठंडे पानी की बाल्टी पलट दी हो ।
मैंने बत्ती जलाई और यूं टेलीफोन की तरफ देखा जैसे मैं उसी के मुंह से यह सुनने की उम्मीद कर रहा होऊं कि यूं वह एकाएक क्यूं बजा ।
फिर मैंने हाथ बढाकर रिसीवर उठाया और उसे कान से लगाकर बोला - “हन्लो ।”
दूसरी ओर से कोई न बोला । लेकिन मैं जानता था कि लाइन कनैक्ट हुई-हुई थी क्योंकि मुझे किसी के सांस लेने की आवाज आ रही थी ।
“इतमीनान से बोलना” - मैं माउथपीस में बोला - “मुझे कोई जल्दी नहीं है । सारी रात अपनी है ।”
दूसरी ओर से किसी ने एक लम्बी सांस ली और फिर लाइन कट गई ।
मुझे डायल टोन की आवाज सुनाई देने लगी ।
मैंने रिसीवर वापिस क्रेडिल पर रख दिया ।
पता नहीं कौन था ?
शायद कोई रोंग नम्बर मिल गया था ।
लेकिन दूसरी ओर से यह तो पूछा ही नहीं गया था कि मैं कौन था और कहां से बोल रहा था ?
या शायद कॉल करने वाला कोई जनानी आवाज सुनने की उम्मीद कर रहा था । और मरदानी आवाज सुनते ही वह समझ गया था कि रोंग नम्बर लग गया था ।
अब क्योंकि मैंने बत्ती जला ली थी, इसलिए मैंने उपन्यास को भी दोबारा उठा लिया । मैंने उपन्यास को वहां से आगे पढ़ने की कोशिश नहीं की जहां तक कि मैं उसे पढ चुका था, बल्कि मैंने उसे वहां से खोला जहां अमेरिका के राष्ट्रपति का अपनी पत्नी से अभिसार रत होने का प्रसंग था । वह प्रसंग इस बात का सबूत था कि वहां लेखक को अभिव्यक्ति की जो स्वतन्त्रता प्राप्त थी वह किसी भारतीय लेखक को सात जन्म प्राप्त नहीं हो सकती थी । वैसा प्रसंग भारत में छप जाए तो लेखक, प्रकाशक, मुद्रक सब जेल में हो ।
रात एकदम स्तब्ध थी । काफी अरसे से बाहर एकदम सन्नाटा था लेकिन तभी मुझे किसी कार के इंजन की आवाज सुनाई दी । फिर ब्रेकों की तीखी चरचराहट के साथ कार के मेरे फ्लैट वाली इमारत के पास ही कहीं - शायद ऐन सामने ही - रुकने की आवाज आई ।
फिर कार का दरवाजा खुलने और भड़ाक से बन्द होने की आवाज ।
फिर पथरीले फुटपाथ पर बजती ऊंची एड़ी की तीखी ठक-ठक । व्यवधान । फिर ठक-ठक । फिर खामोशी । जैसे कार से निकलकर कोई स्त्री कुछ कदम चली, ठिठकी, फिर चली और फिर रुक गई ।
फिर एक और कार की, पहली कार से भिन्न आवाज मेरे कानों में पड़ी । वह किसी खर्र-खर्र करते इंजन वाली पुरानी कार की आवाज थी ।
मेरा ध्यान खामखाह ही नीचे सड़क से आती उन आवाजों की तरफ चला गया था जबकि मेरा उनसे कोई मतलब नहीं था ।
लेकिन फिर वह आवाज भी मेरे फ्लैट के स्तब्ध वातावरण में गूंज उठी, जिससे मेरा कोई मतलब हो सकता था ।
मेरे टेलीफोन की घंटी बज उठी ।
इस बार मैंने जान-बूझकर उसे थोड़ी देर तक बजते रहने दिया । फिर मैंने रिसीवर उठा लिया और माउथपीस में बोला - “हैलो, अमिताभ बच्चन स्पीकिंग ।”
“मिस्टर कोहली ?” - दूसरी ओर से मुझे एक व्यग्र स्त्री स्वर सुनाई दिया - “मिस्टर सुधीर कोहली ?”
“आपको नहीं पता लगा ?”
“क्या ?”
“सुधीर कोहली साहब का स्वर्गवास हो गया है । अभी थोड़ी देर पहले जब नींद न आने की वजह से वे करवटें बदल रहे थे तो एकाएक फोन बज उठा था और घंटी की आवाज उन्हें गोली की तरह लगी थी । बेचारे बेवक्त इंतकाल फरमा गए । वैसे थे भले आदमी ।”
“मिस्टर...।”
“बहुत सी खूबियां थी मरने वाले में....”
“मिस्टर अगर आप मजाक कर रहे हैं तो भगवान के लिए ऐसा न कीजिए । यह कोहली साहब का नंबर नहीं है तो साफ कहिए की रोंग नंबर मिल गया है ताकि मैं कोहली साहब के नंबर पर दोबारा फोन करूं ।”
“नंबर तो आपका सही मिला है लेकिन...”
“तो फिर मेरी कोहली साहब से बात कराइए । और भगवान के लिए वक्त बरबाद मत कीजिये ।”
मैं उस आवाज के बारे में सोचने लगा । आवाज से परेशानी टपक रही थी लेकिन उसमें निहित मिठास और खनक साबित कर रही थी की वह किसी नौजवान लड़की की आवाज थी । लेकिन उस आवाज को मैं पहचानता नहीं था । वह मेरी किसी वाकिफकार लड़की की आवाज नहीं थी । 
“मैं सुधीर कोहली बोल रहा हूं” - प्रत्यक्षत: मैं अपेक्षाकृत गंभीर स्वर में बोला ।
“कोहली साहब” - दूसरी तरफ से आवाज आई - “आप मुझे जानते नहीं हैं । मेरा नाम सोनिया तलवार है । मैं...”
“अभी थोड़ी देर पहले भी आप ही ने फोन किया था ?”
“क्या...? नहीं, नहीं । मैंने पहले फोन नहीं किया । मैंने अभी पहली बार फोन किया है । कोहली साहब, मैं कह रही थी की मेरा नाम सोनिया है और मैं...”
उसकी बाकी बात मुझे ठीक से सुनाई न दे पाई, क्योंकि तभी एकाएक कॉलबैल बज उठी । उसकी तीखी आवाज में कथित सोनिया तलवार की आवाज थोड़ी देर के लिए गुम हो गई । कॉलबैल बजनी बंद हो हुई तो मुझे टेलीफोन से आती आवाज फिर से सुनाई देने लगी - “...और मेरे ख्याल से वह किसी भारी मुसीबत में पड़ गई हो सकती है, कोहली साहब ।”
“कौन ?” - मैं सशंक स्वर में बोला - “कौन भारी मुसीबत में पड़ गई है ?” - तभी कॉलबैल फिर बजी - “आप बरायमेहरबानी एक मिनट होल्ड कीजिये । कॉलबैल बज रही है । मुझे दरवाजा खोलने जाना होगा ।”
मैंने रिसीवर को टेलीफोन की बगल में रखा और रजाई में से निकलकर दरवाजे की तरफ बढ़ा । दरवाजे की तरफ पहुंचकर मैं ठिठका ।
इतनी रात गए कौन आया हो सकता था ।
“कौन है ?” - दरवाजा खोलने से पहले मैं तनिक उच्च स्वर में बोला ।
उत्तर में मुझे एक स्त्री स्वर सुनाई दिया । उसने कहा तो काफी कुछ, लेकिन मेरी समझ में एक ही शब्द आया - सुधीर !
मेरा नाम ।
मैंने दरवाजा खोला ।
बाहर गलियारे में अंधेरा था । और भीतर भी कोई खास रोशनी नहीं थी । भीतर मेरे पलंग के पास जलता टेबल लैंप मेरे बैडरूम के एक भाग को ही प्रकाशित कर रहा था । उस अप्रयाप्त प्रकाश में मुझे केवल इतना ही दिखाई दिया की कोई स्त्री चौखट का सहारा लिए एक शराबी की तरह झूमती-सी खड़ी थी ।  “सु... सुधीर” - दरवाजा खुलते ही उसके मुंह से निकला ।
मैंने उसे आवाज से पहचाना । उसकी सूरत भी मुझे भूली नहीं थी, लेकिन नीम अन्धेरे में वह मुझे दिखाई नहीं दे रही थी । वह एक टाइट जीन और चमड़े का घुटनों तक लंबा कोट पहने थी । कोट आगे खुला था और उसका एक हाथ कोट के भीतर कहीं घुसा हुआ उसके एक उन्नत उरोज के नीचे उसके बाएं पहलू को थामे था । उसकी सांस धौंकनी की तरह चल रही थी और घुटने यूं एक दूसरे से टकरा रहे थे जैसे उसके शरीर का भार संभालने में स्वयं को सक्षम न पा रही हों ।
अपने दूसरे हाथ से चौखट का सहारा लिए-लिए ही उसने भीतर कदम रखा ।
“बधाई हो” - मैं व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोला - “अब पीने भी लगी हो । और इतनी पीने लगी हो कि अपने पैरों पर खड़ी नहीं हो सकती हो । जाओ, घर जाओ । क्या पता वहां तुम्हारा कोई नया यार तुम्हारी चौखट पर सिर पटक-पटककर जान देने के लिए आमादा हो ।”
चौखट के सहारे उसका शरीर तनिक लहराया । उसने एक बार जोर से अपनी आंखें बंद करके दोबारा खोलीं । उसका चेहरा मेरी तरफ था लेकिन मुझे ऐसा नहीं लगा जैसे वह मुझे देख रही हो । उसकी उस अजीब-सी निगाह से मुझे यूं लगा जैसे मैं शीशे का बना हुआ था और वह मेरे आर-पार झांक रही थी ।
वह एक लंबे अरसे के बाद मेरे पास आई थी इसलिए मुझे कोई सख्त बात कहनी तो नहीं चाहिए थी लेकिन जो कुछ मैंने कहा था, वह अनायास ही मेरे मुंह से निकल गया था ।
“सु...सुधीर” - उसके मुंह से निकला - “अभी भी वही गुस्सा, अभी भी..”
एकाएक चौखट पर से उसकी पकड़ छूट गई । स्वयं को संतुलित करने की कोशिश में उसने एक कदम आगे रखा । उसका सारा शरीर एक बार आंधी में झूमते पेड़ की तरह लहराया, धनुष की तरह घूमा और फिर उसके घुटने मुड़ने लगे । इससे पहले की वह धड़ाम से फर्श पर जाकर गिरती, मैंने लपककर उसे थाम लिया । बड़ी कठिनाई से मैं उसको संभाल पाया और नीचे गिरने से बचा पाया । तभी मुझे उसकी असली हालत का अंदाजा हुआ । तभी मुझे एहसास हुआ कि वह नशे में नहीं थी । तभी मुझे लगा कि एक निहायत खूबसूरत खिलौना टूट-फूटकर छिन्न-भिन्न हो गया था ।
“मंजुला” - मैं आतंकित भाव से बोला - “मंजुला !”
मेरे द्वारा उसे संभाले जाने की क्रिया में उसका कोट उसके शरीर के सामने के भाग से सरक गया था और उसके बाएं पहलू पर से उसका हाथ भी हट गया था । तब मैंने देखा की उसके हाथ की उंगलियां खून से रंगी हुई थीं और उसके बाएं पहलू में वक्ष के एकदम नीचे उसकी सफेद स्कीवी में एक कट दिखाई दे रहा था । उस कट में से खून रिस रहा था और उसके आस-पास सफेद स्कीवी पर खून का दायरा सा खींचा हुआ था जो की धीरे-धीरे बड़ा होता जा रहा था ।
मेरे छक्के छूट गए ।
मैंने कभी सपने में नहीं सोचा था की इतने अरसे के बाद जब मेरी उससे दोबारा मुलाकात होगी तो वह उस हालत में होगी जिसमें मैं उस वक्त उसे देख रहा था ।
उसके खूबसूरत होंठ उस वक्त भिंचे हुए थे और चेहरा खिंचा हुआ था । उसकी आंखें खुली थीं लेकिन वे पत्थर के टुकड़ों की तरह बेहिस मालूम हो रही थीं ।
“सुधीर” - एकाएक उसके होंठ खुले और उसके गले से कांपती-थरथराती आवाज निकली - “जानते हो मैंने क्या किया है ? आज मैंने वो काम किया है जो...”
“मैं सुनूंगा” - मैं उसकी बात काटकर बोला - “मैं सुनूंगा तुमने क्या किया है । लेकिन पहले मुझे किसी डॉक्टर को बुला लेने दो । मैं तुम्हें यहीं लिटाने लगा हूं, मंजुला और ....”
“ऐसा न करना” - उसने यूं कसकर मेरी बांह थामी जैसे मेले में गुम हो जाने के अंदेशे से त्रस्त कोई बच्चा अपने अभिभावक की बांह थमता है - “सुधीर, मुझे यूं ही अपने पहलू में लिटाए रखो । मुझे यूं ही अपनी बांहों में थामे रहो ।”
फिर उसकी पकड़ अपने आप ही मेरी बांह से ढीली होने लगी ।
“मंजुला” - मैं बोला - “तुम घायल हो । तुम्हें डाक्टरी इमदाद की सख्त जरूरत है ।”
“मुझे किसी की जरूरत नहीं ।” - वह बड़े दयनीय स्वर में बोली - “मैं तुम्हारी गुनहगार हूं, सुधीर । अपनी जिंदगी की आखिरी घड़ियों में मुझे सिर्फ तुम्हारी जरूरत है सुधीर । मुझे कस कर अपने साथ लगा लो । मुझे अपनी बांहों में भर लो, सुधीर ।”
उसकी आंखों से आंसू बहने लगे ।
“सुधीर, मैं मर रही हूं । लेकिन मुझे खुशी है की तुम्हारी बांहों में मर रही हूं ।”
“तुम्हें कुछ नहीं होगा, मंजुला” - मैंने उसे दिलासा दिया - “मैं अभी डॉक्टर को बुलाता हूं ।”
“कोई फायदा नहीं होगा । डॉक्टर की आने से बहुत पहले मैं जहन्नुम की आग में झुलसने के लिए दूसरी दुनिया में पहुंच चुकी होऊंगी । मुझे यही करिश्मा लग रहा है की मैं तुम्हारे पास तक जिंदा पहुंच गई । शायद मेरे परमात्मा ने मुझ पर रहम खाकर मुझे कुछ सांसें उधार दे दी हैं ताकि मैं उस शख्स की बांहों में दम तोड़ सकूं जिसे मैंने अपनी जिंदगी में सबसे ज्यादा चाहा है । सुधीर मैं तुम्हें यह बता कर मरना चाहती हूं कि कभी एक क्षण के लिए भी तुम्हारा ख्याल अपने दिलो-दिमाग से नहीं निकाल सकी । मेरी जिंदगी में तुम्हारी जगह कभी कोई न ले सका, सुधीर । सुधीर ।”
“मंजुला” - मैंने आर्तनाद किया । खुद मेरी आंखों से आंसू बहने लगे ।
“सुधीर, तुम्हारी जिंदगी से हमेशा के लिए रुखसत लेकर जब मैं यहां से गई थी तो तुमने मुझे माफ नहीं किया था । आज मरने से पहले मैं तुमसे यह भीख मांगती हूं कि एक बार, सिर्फ एक बार, अपनी जुबान से कह दो कि तुमने मुझे माफ कर दिया, तुमने मेरी सारी खताएं बख्श दीं । बोलो, सुधीर, बोलो । कहो कि तुमने मुझे माफ कर दिया । कहो, सुधीर...सुधीर ।”
आखिरी बार उसके मुंह से मेरा नाम निकला और फिर उसकी आंखों से जीवन ज्योति बुझ गई । उसका शरीर मेरी बांहों में ढीला पड़ गया । यह जानते हुए भी कि वह मर चुकी थी, मैं कितनी ही देर उसे अपनी बांहों में थामे रहा ।
आखिरकार मैंने उसे धीरे से फर्श पर लिटा दिया । मैंने एक आखिरी निगाह उसके पथरा चुके चेहरे पर डाली और अपने आंसू पोंछता हुआ उठ खड़ा हुआ ।  तब मुझे टेलीफोन का ख्याल आया ।
मैं टेलीफोन के पास पहुंचा । मैंने रिसीवर उठाकर कान से लगाया और व्यग्र भाव से बोला - “हैलो ! आर यू स्टिल देयर ?”
“मिस्टर कोहली ?” - मुझे सोनिया तलवार की परेशानहाल आवाज फिर सुनाई दी ।
“हां । आप क्या कहना ...?”
“मिस्टर कोहली, आप भगवान के लिए मेरी बात सुनिए । आपकी जानकारी के लिए मैं और मंजुला एक ही फ्लैट में रहते हैं । मुझे मंजुला की बहुत फिक्र लगी हुई है, मिस्टर कोहली । मौजूदा हालात में उसके बारे में आपके अलावा और किसी को फोन करना मुझे नहीं सूझा । मंजुला किसी भारी मुसीबत में पड़ गई मालूम होती है । मिस्टर कोहली उसकी जान भी जा सकती है ।”
जान !
मैंने लाश की दिशा में निगाह उठाई ।
जान तो जा चुकी थी ।
“ओह माई गॉड !” - सोनिया की व्याकुल आवाज मेरे कान में दस्तक दे रही थी - “मिस्टर सुधीर, आप सुन भी रहे हैं या नहीं । अगर आप नींद में हैं तो भगवान के जागिए । होश में आइये और गौर से मेरी बात सुनिए । मैं मंजुला के बारे में, आपकी बीवी के बारे में, कुछ कहने की कोशिश कर रही हूं ।”
***
उससे मेरी पहली मुलाकात कोई तीन साल पहले सर्दियों के मौसम में बंबई में हुई थी । तब मैंने अपना प्राइवेट डिटेक्टिव का धंधा मैंने नया-नया ही शुरू किया था इसलिए असाइनमेंट्स के मामले में मेरी कोई चॉइस नहीं थी । जो केस भी मुझे ऑफर किया जाता था मैं उसे सहर्ष स्वीकार कर लेता था । न स्वीकार करने का तो सवाल ही नहीं पैदा होता था, क्योंकि उन दिनों रो-रोकर तो कोई पेइंग कस्टमर यूनिवर्सल इंवेस्टिगेशन्स के ऑफिस में कदम रखता था । जो केस मुझे बंबई लाया था वह फीस के लिहाज से मेरा तब तक का सबसे दमदार केस था और मैं हैरान था कि मेरे क्लायंट को मेरे जैसे, उस वक्त निहायत मामूली समझे जाने वाले, प्राइवेट डिटेक्टिव के पास आना सूझा था ।  मेरे फिल्दी रिच क्लायंट की नौजवान लड़की घर से एकाएक गायब हो गई थी और मुझे उसको तलाश करके चुपचाप घर वापिस लाना था । मैंने बड़ी निष्ठा के साथ केस पर काम किया था और लड़की को बंबई में ट्रेस कर लिया था जहां कि वह जुहू के एक कॉटेज में चार युवकों के साथ रंगरलियां मना रही थी । लड़की को युवकों के चंगुल से निकालने की खातिर जो मार-पीट मेरे और उन चारों के बीच में हुई थी, उसमें मेरी जान भी जा सकती थी । लेकिन गनीमत थी कि वे चारों युवक पलंग पर ही कुश्ती लड़ने के उस्ताद थे और इसलिए जल्दी ही लड़की को छोड़-छाड़कर वहां से भाग गए थे ।
लड़की को मैंने एल एस डी के तगड़े नशे में डूबी पाया था । मैंने उसके होशोहवास ठिकाने लगाने की कोशिश की थी तो वह मेरे हवास गुम कर देने की कोशिश करने लगी थी । लड़की खूबसूरत थी, नौजवान थी, नशे की वजह से पुरुष के सहवास को तड़प रही थी और मेरे सामने बिछ जाने के लिए पूरी तरह से तैयार थी लेकिन वह मेरा पहला मेजर केस था और मेरी फीस और खर्चे के अलावा केस में कामयाबी की सूरत में मुझे पांच हजार रुपए का बोनस भी मिलने वाला था इसलिए क्लायंट की लड़की के साथ हमबिस्तर होने जैसी कोई हरकत करना मुझे गवारा न हुआ । लेकिन लड़की को सब गवारा था । उसने मुझे साफ-साफ कहा कि वह क्या चाहती थी । जो वह चाहती थी, उसमें कुझे शरीक होने को उत्सुक न पाकर उसने यह समझा कि मैं शायद विश्वामित्र की औलाद था और मुझे रिझाने के लिए विशेष प्रयत्नों की जरूरत थी । वो विशेष प्रयत्न उसने ये किया कि वह लता की तरह मेरे साथ लिपट गई और एक भूखी बिल्ली की तरह मेरा नाश्ता करने लगी । मैंने उसे जबरन परे धकेल दिया तो वह क्रोध में आगबबूला हो उठी । उसने अपने कपड़े फाड़ डाले और यूं गला फाड़-फाड़कर चिल्लाने लगी कि अगर मैंने जबरन उसका मुंह बंद न कर दिया होता तो उसकी चीख-पुकार सुनकर वहां पहुंचे लोग यही समझते कि मैं उस बेचारी के साथ बलात्कार करने की कोशिश कर रहा था । मैंने उसका मुंह ही बंद नहीं किया बल्कि मैंने उसकी मुश्कें भी कस दीं । फिर ट्रंक कॉल पर उसके बाप को खबर कर दी कि मैंने उसकी लाड़ली बेटी को तलाश कर लिया था । शाम तक वह बंबई पहुंच गया और मुझे बोनस और मेरा शुक्रिया अदा करके वह अपनी लड़की को साथ ले गया । दिल्ली मैं उसके साथ भी जा सकता था, लेकिन क्योंकि मैं पहली बार बंबई आया था इसलिए मैंने सैर-सपाटे की नीयत से एकाध दिन और वहां ठहरने का फैसला कर लिया ।
मैं भी जुहू के ही एक होटल में ठहरा हुआ था ।
अगले रोज मैंने बंबई की जी भरकर सैर की और रात के कोई ग्यारह बजे मैं होटल में वापिस लौटा । वह पूरे चांद की रात थी और होटल से समुद्र का किनारा बहुत करीब था ।  उस रात मेरी तकदीर में मेरी होने वाली बीवी से मुलाकात लिखी थी, इसलिए एकाएक मेरा दिल चांदनी रात में समुद्र का नजारा करने के लिए मचलने लगा । परिणामस्वरूप आधी रात का वक्त था जबकि मैं होटल से थोड़ा दूर समुद्र के किनारे पर मौजूद था । समुद्र की ओर से तेज लहरें किनारे की तरफ बढ़ती थीं और मेरे कदमों में सिर पटक कर वापिस लौट जाती थीं । पूरे चांद की चांदनी पिघली हुई चांदी के तरह समुद्र की छाती पर फैली हुई मालूम हो रही थी । ठंडी-ठंडी हवा चल रही थी । सब कुछ तो था वहां, कमी थी तो सिर्फ एक सहचरी की जो उस रोमांटिक वातावरण में मेरे रोमांटिक मूड का हिस्सा बन सकती ।
एकाएक मेरे दिल में समुद्र में तैरने की इच्छा बलवती होने लगी । मेरा होटल वहां से ज्यादा दूर नहीं था । मैं वापिस जाकर वहां से स्विमिंग कॉस्टयूम और तौलिया वगैरह ला सकता था । लेकिन मैंने वह सब जरूरी न समझा । आधी रात को वहां कौन आने वाला था ? मैंने अपने कपड़े उतारकर किनारे पर एक जगह दाल दिये और समुद्र में दाखिल हो गया ।
कोई बीस मिनट मैं समुद्र में तैरता रहा ।
जिंदगी का आनंद आ गया ।
फिर मैं वापिस लौटा ।
अभी तक मैं कमर तक पानी में ही था कि किनारे पर मुझे वो दिखाई दी । वह मुझसे दूर थी, इसलिए मुझे उसकी सूरत तो साफ-साफ नहीं दिखाई दे रही थी लेकिन हवा में उड़ते उसके रेशम के जैसे मुलायम बाल मुझे बखूबी दिखाई दे रहे थे, उसकी पतली कमर और भूरी-भूरी जांघों के गिर्द लिपटी उसकी डेनिम की स्कर्ट मुझे बखूबी दिखाई दे रही थी, उसकी सफेद स्कीवी में पहाड़ की चोटियों की तरह सर उठाए खड़े उसके उन्नत उरोज मुझे बखूबी दिखाई दे रहे थे । वह खुश्की पर नहीं खड़ी थी । वह जान-बूझकर वहां खड़ी थी जहां लहरें आकर उसके कदमों पर दम तोड़ रही थीं ।
फिर उसकी लंबी पतली-पतली उंगलियों में मुझे एक ताजा सुलगाया हुआ सिगरेट दिखाई दिया । मेरे देखते-देखते उसने सिगरेट का एक छोटा सा कश लगाया और विनोदपूर्ण स्वर में बोली - “सिगरेट तुम्हारा है लेकिन मैंने किनारे पर पड़े तुम्हारे कपड़ों की तलाशी नहीं ली है । तुम्हारा डनहिल का पैकेट तुम्हारी जैकेट की जेब में से आधा बाहर झांक रहा था । मैंने सिर्फ पैकेट ही निकाला था और उसमें से भी यह सिर्फ एक सिगरेट निकाला था ।”
“और इसे सुलगा अपने अंगारों की तरह दहकते होंठों से लिया होगा” - मैं बोला ।
“नहीं” - वह बड़े इत्मीनान से बोली - “तुम्हारा लाइटर भी निकाला था, लेकिन मैंने दोनों चीजें वापिस तुम्हारी जैकेट में रख दी हैं, चाहो तो चैक कर लो ।”
“चैक करने के लिए मुझे किनारे पर आना होगा ।”
“जाहिर है ।”
“और किनारे पर आने के लिए मुझे पानी से बाहर निकालना होगा ।”
“वह भी जाहिर है ।”
“मेम साहब, इन तमाम हरकतों से कुछ और जाहिर हो सकता है जो कि मैं नहीं चाहता कि तुम्हारे सामने जाहिर हो ।”
“तो मैं क्या करूं ?” - वह बड़ी मासूमियत से बोली ।
“तुम यहां से टलो और क्या करो ?”
वह हंसी । उसने बड़ी अलमस्ती से सिगरेट का एक कश लगाया और ढेर सारा धुआं मेरी दिशा में उगला ।
“या थोड़ी देर के लिए मेरी तरफ पीठ ही फेर लो” - मैं बोला ।
वह फिर हंसी । उसने पीठ नहीं फेरी  । पीठ फेरने के स्थान पर वह कुछ कदम और आगे बढ़ आई । अब वह टखनों से ऊपर तक पानी में खड़ी थी । उसकी सूरत एकदम साफ तो मुझे अब भी दिखाई नहीं दे रही थी, लेकिन पूरे चांद की रोशनी में इतना मैं बखूबी देख सकता था कि वह खूब गोरी थी और उसके नयन नक्श फिल्म अभिनेत्रियों जैसे खूबसूरत थे ।
“अगर मैं पीठ न फेरूं तो ?” - वह कुटिल स्वर में बोली - “अगर मैं यूं ही यहां खड़ी रहूं तो ?”
“तो इंसानी जिस्म से ताल्लुक रखती तुम्हारी जानकारी ताजा हो जाएगी और अगर शरीफ लड़की हो तो उसमें इजाफा हो जाएगा ।”
“मतलब ?”
“मतलब यह कि तुम पीठ फेरो न फेरो, मैं पानी से बाहर निकल रहा हूं ।”
“अरे, नहीं ।”
“क्या नहीं ?”
“मत निकलना ।”
“मेम साहब, ठंड से ठिठुर कर जान देने का मेरा फिलहाल कोई इरादा नहीं है । आगे कभी इरादा बनेगा तो मैं आपको चिट्ठी लिख दूंगा ।”
“अरे !”
“इसलिए पीठ फेर लो नहीं तो ....”
“तुम पीठ फेर लो” - वह फिर हंसने लगी ।
फिर उसने अपनी स्कीवी के सामने के बटन खोलने शुरू कर दिये ।
मेरे छक्के छूट गए ।
मैंने सचमुच उसकी तरफ से पीठ फेर ली ।
न सिर्फ पीठ फेर ली बल्कि मैं किनारे के समानांतर उससे परे तैरने लगा ।
काफी आगे आकार मैंने घूमकर देखा तो वह मुझे किनारे पर खड़ी दिखाई न दी ।
मैं वापिस लौटा ।
तभी एकाएक मेरे सामने उसने पानी में से सिर उठाया ।
“हैलो !” - वह खिलखिलाकर हंसती हुई बोली - “हैलो मिस्टर सुधीर कोहली ।”
तब मैंने गौर से उसकी सूरत देखी ।
वह बहुत खूबसूरत थी ।
पानी से भीगा उसका चेहरा ताजे गुलाब की तरह खिला हुआ मालूम हो रहा था । उसके बाल भीगकर कई लटों की सूरत अख्तियार कर चुके थे और उसके चेहरे पर चिपके हुए थे ।
“मैं तुम्हें जानता हूं” - मैं तनिक व्यंगपूर्ण स्वर में बोला - “तुम वो भली मानस लड़की हो जिसने मेरी जेब से सिर्फ मेरा सिगरेट का पैकेट और लाइटर ही निकाला था । तुमने मेरी बाकी जेबें और उनमें मौजूद सामान नहीं टटोला था ।”
“समुद्र के सुनसान किनारे पर लावारिस पड़े कपड़ों को और उनमें मौजूद सामान को अगर मैंने टटोल लिया तो क्या गलती की ?”
“तुमने सोचा था कि कपड़ों के मालिक ने समुद्र में डूबकर आत्महत्या कर ली है और ऐसा उसने कपड़े उतारकर इसलिए किया है ताकि कोई सखी हातिम किसी और के काम आने के लिए उसके कपड़े यतीमखाने में पहुंचा दे ।”
वह हंसी । बड़ी जानलेवा हंसी थी उसकी ।
“लेकिन मेम साहब” - मैं बोला - “मेरे कपड़ों को तुमने मुकम्मल तौर पर नहीं टटोला ।”
“क्या मतलब ?”
“मेरी जैकेट की एक खुफिया जेब में मेरा दिल भी मौजूद था ।”
वह फिर हंसी । बड़ी ईमान खराब कर देने वाली हंसी थी उसकी । यूं लगता था जैसे बिलौरी गिलास सें बर्फ के टुकड़े टकरा रहे हों ।
उसने पानी में हाथ मारकर मेरी तरफ छींटें उड़ाए और फिर पानी में डुबकी लगा दी ! मुझे उसकी नंगी टांगों की एक झलक मिली और फिर मुझसे कोई बीस गज परे उसने पानी में से सिर निकाला । उसके बाद एक दक्ष तैराक की तरह तैरती हुई वह मुझे अपने से परे होती दिखाई दी ।
मेरी जी चाह रहा था कि मैं उससे ज्यादा तेज रफतार से तैरता हुआ उसके करीब पहुंचूं और समुद्र में ही उसे दबोच लूं । उस वक्त वह मुझे कोई जलपरी लग रही थी और मैं अपनी कल्पना एक आक्टोपस के तौर पर कर रहा था जिसकी आठ भुजाओं की पकड़ से निकलना उस जलपरी के लिए आसान न होता ।
लेकिन मैंने ऐसा नहीं किया ।
उसके पीछे जाने के स्थान पर मैं उस तरफ बढ़ा जिधर किनारे पर मेरे कपड़े पड़े थे ।
उसके पानी से निकलकर आने तक मैं कपड़े पहन चुका था और डनहिल का एक सिगरेट सुलगा चुका था ।
उसके अपने कपड़े मेरे से थोड़ी ही दूर पड़े थे । वह बेझिझक पानी से बाहर निकली और अपने कपड़ों के पास पहुंची । मेरी तरफ पीठ किये उसने अपनी गीली अंगिया उतारकर स्कीवी  पहन ली और स्कर्ट पहन चुकने के बाद अपना गीला अन्डरवियर उतारा । स्कर्ट और स्कीवी उसने गीले जिस्म पर ही पहने थे लेकिन आग के शोले की तरह धधकते उस नौजवान जिस्म पर समुद्र के पानी की नमी का वजूद कब तक टिकने वाला था ।
फिर वह अपने बालों को झटकने लगी ।
मेरी तरफ से वह यूं बेपरवाह थी जैसे उसे मालूम ही नहीं था कि मैं वहां मौजूद था । लेकिन मुझे तो कोई फांसी पर भी लटका देता तो मैं उसकी वहां मौजूदगी को नजरअन्दाज नहीं कर सकता था । मैं अपलक उसे देख रहा था ।
मेरी पसन्द की हर चीज उस युवती में मौजूद थी ।
लम्बा कद । तनी हुई सुडौल भरपूर छातियां जो अंगिया के सहारे की कतई मोहताज नहीं थीं । पतली कमर । भारी नितम्ब । लम्बे गोरे-चिट्टे हाथ-पांव । साफ-सुथरे खूबसूरत नयन-नक्श । रेशम जैसे कटे हुए मुलायम बाल ।
मैं धीरे-धीरे चलता हुआ उसकी तरफ बढ़ा ।
मेरा दिल हथोड़े की तरह मेरी पसलियों में टकरा रहा था । मेरी कनपटियों में खून बज रहा था और मेरा गला सूखा जा रहा था ।
मैं उसके बहुत करीब पहुंच गया तो वह एकाएक घूमी । अपने बालों को झटकने की क्रिया में उसके सिर ऊपर उठे उसके हाथ ठिठक गए । उसकी छातियां एक चैलेंज की तरह मेरी तरफ तन गई और उसने बड़ी बेबाक निगाहों से मेरी तरफ देखा ।
मैंने हाथ में थमा सिगरेट एक तरफ उछाल दिया और एक कदम और आगे बढा ।
“क्या चाहते हो ?” - वह निडर भाव से बोली ।
“तुम्हें ।” - मैं फंसे स्वर में बोला - “तुम्हें चाहता हूं ।”
“चाहते हो ?”- वह मुस्कराई - “तुम्हारी सूरत से तो यूं लग रहा है जैसे तुम अभी मुझे हजम कर जाओगे और डकार भी नहीं लोगे ।”
चांद की रोशनी उसके भीगे चेहरे पर कहर ढा रही थी । चंचल हवा से उसके गीले बालों की एक लट उसके चेहरे पर उड़-उड़ जा रही थी । उसके जिस्म से अजीब की महक उठ रही थी जो मुझे दीवाना बनाये दे रही भी । मैंने उसकी तरफ एक कदम और बढ़ाया तो मैं उसके इतना करीब आ गया कि अब और कदम बढा पाना मुमकिन न रह गया ।
मैंने हाथ बढ़ाकर हौले से उसके चेहरे पर खिलवाड़ करती लट को परे हटाया । उस क्रिया में मेरी उंगलियां उसके एक कपोल से छू गई और मेरे तन बदन में आग लग गई ।
अब जब्त करना मुहाल था ।
“क्या देख रहे हो ?” - वह बोली ।
“अपने पत्ते देख रहा हूं” - मैं बड़ी मुश्किल से कह पाया - “और फैसला करने की कोशिश कर रहा हूं कि मैं जीतूंगा या नहीं ।”
“क्या हैं तुम्हारे पत्ते ?”
“तीन इक्के” - मैं उसकी आंखों में झांकता हुआ बोला ।
“तुम हार जाओगे । मेरा पास भारी पत्ते हैं । तुम्हारे तीन इक्के पिट जायेंगे ।”
“तीन इक्के कभी नहीं पिटते ।”
“आज पिट जायेंगे ।”
एकाएक उसने अपनी दोनों बांहें मेरे कन्धों पर टिका दीं । मैंने बड़े आतुर भाव से उसे अपनी तरफ खींचा और उसे अपने आलिंगन में बांध लिया । स्कीवी के काफी मोटे कपड़े के व्यवधान के बावजूद भी उसकी नोकीली छातियां मुझे दो कीलों की तरह अपने सीने पर चुभती महसूस हुई । उसकी उभरी हुई जांघें मेरी जांघों के साथ सट गई । मैंने अपने होंठों को उसके हौले-हौले कांपते होंठों पर रख दिया और उसे यूं अपने साथ भींचा कि उसके मुंह से एक हलकी सी कराह निकल गई ।
उसने जबरन मुंह फेर लिया तो मेरे होंठ उसके एक कपोल से टकराये ।
“मेरी एकाध पसली चटकाना चाहते हो ?” - वह मादक स्वर में बोली ।
मैंने अपनी गिरफ्त थोड़ी ढीली कर दी ।
मेरे दोनों हाथ उसके शरीर की पागल बना देने वाली गोलाइयों का जुगराफिया समझने की कोशिश करने लगे ।
“कोई आ रहा है” - एकाएक वह बोली ।
मैं उस वक्त पागल न हुआ होता तो कदमों को वह आहट मुझे भी सुनाई देती जो उसे सुनाई दी थी । मैंने आवाज की दिशा में देखा तो मुझे बीच पर चलते हुए दो साये दिखाई दिये ।
मैंने उसे अपनी गिरफ्त से अलग नहीं किया जो कि उस स्थिति में मुझे करना चाहिए था । अपनी मर्जी से तो मैं अपनी जन्नत अपने हाथों से निकलने नहीं दे सकता था । मैंने उसके शरीर को इस प्रकार झुकाया कि उसके घुटने मुड़ने लगे । मैंने उसे सहारा देकर रेत पर लिटा दिया और स्वयं उसके ऊपर लेट गया ।
उसने एतराज नहीं किया ।
बीच पर चलते हुए दोनों साये हमारे बहुत करीब से गुजरे ।
“यार, मेरी बीवी बहुत खूवसूरत है” - एक जना कह रहा था - “लेकिन मैं सच कहता हूं मैं बहुत गलत औरत से शादी कर बैठा हूं । मेरी बीवी निम्फोमैनियाक है, यार । साल में तीन सौ पैंसठ दिन होते हैं तो उसे तीन सौ पैंसठ ही मर्द चाहिए । मैं बेचारा....”
आगे मैं न सुन सका क्योंकि तब तक वे दोनों इतनी दूर निकल चुके थे कि उसकी आवाज हम तक पहुंचनी बन्द हो गई थी ।
निम्फोमैनियाक !
बड़ा अजीब-सा लफ्ज था वो जो उस रोज मैंने पहली बार सुना था । पता नहीं क्या मतलब होता था उसका । पता नहीं औरत के कौन से गुण या अवगुण की व्याख्या करता था वह ।
एकाएक एक जोर की, ज्यादा मुंहजोर लहर समुद्र में उठी और हमारे शरीरों के ऊपर से होती हुई गुजर गई ।
उसका शरीर एक बार जोर से कांपा तो मैंने उसे और भी मजबूती से अपने नीचे दबोच लिया । मेरा मुंह उसकी गरदन के खम के पास कहीं धंसा हुआ था । उसकी स्कर्ट अपने आप ही उसकी जांघों से ऊपर उठ गई थी और मेरा एक बेताब हाथ उसकी स्कीवी को उसके स्तनों पर से सरकाने की कोशिश कर रहा था ।
“तुम मुझे जानते तक नहीं हो” - वह हौले से मेरे कान में बोली ।
“जानता हूं” - मैं हांफता हुआ बोला - “खूब जानता हूं ।”
“कौन हूं मैं ?”
“तुम मिसेज सुधीर कोहली हो ।”
वह एक बार फिर अपनी अब तक फेमस हो चुकी खनकती हुई हंसी हंसी ।
मैं अपनी मनमानी करता रहा ।
“पत्ते किसके भारी है ?” - एकाएक वह बोली ।
“तुम्हारे” - मैं बड़ी कठिनाई से कह पाया ।
“तुम तो कहते थे कि तीन इक्के कभी नहीं पिटते ।”
“मैं गलत कहता था । मेरे पत्ते पिट गये हैं । मैं हार गया हूं ।”
“तुम नहीं हारे हो ?”
“तो क्या तुम हारी हो ?”
“नही ! मैं भी नहीं हारी हूं ।”
“ऐसा कैसे हो सकता है । हम दोनों कैसे जीत सकते हैं ?”
“औरत और मर्द के बीच खेला जाने वाला यह दुनिया का इकलौता खेल है जिसमें हमेशा दोनों खिलाड़ियों की जीत होती है ।”
“तुम ठीक कहती हो ।”
“अब क्या चाहते हो ?”
“तुमसे शादी करना चाहता हूं” - मेरे मुंह से अपने आप ही निकल गया । कहने से पहले तक मैं खुद नहीं जानता था कि ऐसा कुछ मैं कहना चाहता था । लेकिन कह चुकने के बाद मुझे लगा कि वह हो ही नहीं सकता था कि वह बात मैं न कहता ।
एक बात मैं जरूर कहना चाहता हूं । वह कोई पहला मौका नहीं था जब किसी युवती की खूवसूरती और नौजवानी से मैं यूं वशीभूत हुआ था और मैंने यूं आनन-फानन उसके सामने शादी का प्रस्ताव रखा था । ऐसे दो मौके मेरी जिंदगी में पहले भी आये थे । पहली बार इस प्रस्ताव के उत्तर में मुझे यह सुनने को मिला था कि युवती पहले से ही विवाहिता थी; उसका पति फौज में था जो अपनी वफादार बीवी की याद से दिल बहलाता हुआ किसी दूरदराज बार्डर पर पहरा दे रहा था । दूसरी बार इस प्रस्ताव के उत्तर में मुझे हां तो सुनने को मिली थी लेकिन शादी की नौबत नहीं आई थी । उस हां के तीन दिन बाद ही एक मोटर एक्सीडेंट में वह लड़की अपनी जान से हाथ धो बैठी थी ।
आज तीसरी बार आपका खादिम फिर एक बीवी हासिल करने की कोशिश कर रहा था लेकिन नहीं जानता था कि इस बार तकदीर उसके साथ कौन-सा मजाक करने वाली थी ।
“जानते हो शरीफ आदमी की क्या परिभाषा होती है ?” - वह बोली ।
“नहीं” - मैं बोला - “तुम बताओ ।”
“वह अपन आधा वजन अपनी कोहनियों पर रखता है ।”
“सॉरी” - मैं तनिक शर्मिंदगी भरे स्वर में बोला और मैं उसके ऊपर से हट गया ।
ए जेंटलमैन आलवेज कीप्स हाफ ऑफ हिज वेट ऑन हिज एल्बोज ।
यह फैंसी बात मैंने भी कभी कहीं पढ़ी थी ।
मैंने अपनी जेब से डनहिल का पैकेट निकाला, पैकेट पूरी तरह भीगने से बच गया था । मैंने उसमें से छांटकर दो सिगरेट निकाले, लाइटर से दोनों को सुलगाया और एक सिगरेट उसे थमा दिया ।
वह लेटे-लेटे ही सिगरेट के छोटे-छोटे कश लगाने लगी ।
मेरे सिगरेट सुलगाने के दौरान उसने अपने कपड़े व्यवस्थित कर लिए थे ।
“तो तुम प्राइवेट डिटेक्टिव हो” - वह बोली ।
“यानी कि मेम साहब कबूल करती है” - मैं बोला - “कि उन्होंने मेरे कपड़ों में से सिर्फ सिगरेट नहीं बरामद किया था बल्कि उनकी मुकम्मल तलाशी ली थी ।”
“उस वक्त मुझे क्या मालूम था कि वे तुम्हारे कपड़े थे ? लावारिस माल की मिल्कियत समझने के लिए उसको टटोलने का अख्तियार हर किसी को होता है ।”
“तुम पहले भी कह चुकी हो यह बात ।”
“अच्छा ! मुझे याद नहीं ।”
“तुम्हारी याददाश्त कमजोर मालम होती है ।”
“मेरा डिफेंस भी कमजोर मालूम होता है । तभी तुम यूं आनन-फानन मुझ पर हावी हो गए थे ।”
उसने बात ऐसी संजीदगी से कही थी कि मैं शर्मिंदा हो उठा ।
“कैसी अजीब बात है, मर्द जब अपनी कामयाबी का झंडा गाड़ना चाहता है तो वह यह भी नहीं जानना चाहता कि जो जमीन उसने फतह की है वो किस नाम से जानी जाती है ।”
“तुम्हारा यह इल्जाम सौ फीसदी सच नहीं है” - मैं धीरे से बोला - “जिसने तुम्हें पैदा किया है, उसने तुम्हारा क्या नाम रखा था, यह मैं नहीं जानता लेकिन जिसके लिए तुए पैदा की गयी हो, उसने तुम्हारा नाम क्या रखा है, यह तुम्हें मालूम है । तुम्हारा नाम मिसेज सुधीर कोहली है ।”
“मेरा नाम मंजुला है । अब चलो, समुद्र में एक डुबकी और लगाये और अपने पाप धो लें ।”
मैं खामोश रहा ।
उसने सिगरेट का एक लम्बा कश लगाया और उसे परे उछाल दिया ।
“मैं यहां की रहने वाली नहीं” - वह बोली - “ मैं दिल्ली से आई हूं । वहां एक प्राइवेट कम्पनी में मैं टेलीफोन ऑपरेटर की नौकरी करती हूं । कम्पनी के ही कर्मचारियों के एक टूर के साथ सैर करने मैं यहां आई हूं । उस सामने वाले होटल में हम सब लोग ठहरे हैं । मुझे नींद नहीं आ रही थी इसलिए यहां टहलने आ गई थी । यहां आने से पहले मैं एक जासूसी उपन्यास पढ़ने की कोशिश कर रही थी । अब वापिस जाती हूं और उस उपन्यास को आगे पढने की कोशिश करती हूं ।”
“यानी कि नींद तुम्हें अभी भी नहीं आएगी ?”
“शायद अब आ जाए ।” - एकाएक वह उठ खड़ी हुई और अपने कपडों में से पानी झटकती हुई बोली -”मैं चलती हूं । गुड बाई, मिस्टर सुधीर कोहली ।”
“सुनो, सुनो” - मैंने भी सिगरेट फेंका और उठ खड़ा हुआ ।
“क्या कहना चाहते हो ?” - वह निर्विकार भाव से बोली ।
“वही जो पहले भी कह चुका हूं ।”
“यह कि तुम मुझसे शादी करना चाहते हो ?”
“हां ।”
“बिना मेरे बारे में और कुछ जाने-समझे ?”
“हां ।”
“जो कुछ हम दोनों के बीच में हुआ, उसके बाद कहने के लिए इससे ज्यादा खूबसूरत बात और कोई नहीं हो सकती । लेकिन मौजूदा-हालात में इससे ज्यादा गैर-जरूरी बात भी और कोई नहीं । मैंने तनहाई, चांदनी रात, रंगीन मौसम, रोमान्टिक समुद्र और चंचल हवा के रोब को अगर अपने आप पर हावी होने दिया तो इसमें तुम्हारी कोई गलती नहीं । इसलिए मुझे खुश करने के लिए और मुझ पर अपनी शराफत का सिक्का जमाने के लिए तुम्हारा ऐसी कोई फैंसी बात कहना जरुरी नहीं ।”
“तुम मुझे गलत समझ रही हो” - मैं व्यग्र भाव से बोला - “मैं जो कुछ कह रहा हूं, खामखाह नहीं कह रहा हूं, सिर्फ कहने की खातिर नहीं कह रहा हूं । मैंने जो कुछ कहा है पूरी संजीदगी के साथ, पूरी तरह से सोच-समझकर कहा है ।”
वह खामोश रही ।
“जिस विजिटिंग कार्ड से तुमने मेरा नाम पढा है, उस पर मेरा पता भी लिखा हुआ था । तुमने पता भी जरूर पढ़ा होगा, इसलिऐ तुम्हें मालूम होना चाहिए कि रहने वाला मैं भी दिल्ली का ही हूं । जो इत्तफाक मुझे यहां लाया है, उसी ने ही इतने असाधारण तरीके से तुम्हारे से मेरी मुलाकात कराई है । तुम मुझे अपने काबिल नहीं समझती हो तो बात दूसरी है । वर्ना मैने जो कुछ कहा है, पूरी संजीदगी से कहा है । मैं अपने आपको किसी भी लिहाज से तुम्हारे काबिल मर्द और एक अच्छा पति बनकर दिखा सकता हूं । अब फैसला तुम्हारे हाथ में है, मंजुला ।”
“यह तो दो मुसाफिरों की रेलवे स्टेशन पर हुई मुलाकात जैसी मुलाकात है” - वह अनिश्चित भाव से  बोली - “हमारे रास्ते एक कैसे हो सकते हैं ?”
“क्यों नहीं हो सकते ? सरासर हो सकते हैं । कई बार इत्तफाक से मिले दो मुसाफिर भी एक ही राह  के राही हो जाते हैं ।”
उसने उत्तर नहीं दिया ।
तभी पहले वाले दोनों साये लौटते हुए उधर से गुजरे । पहले वाली ही आवाज मुझे फिर सुनाई दी । खूबसूरत बीवी का का पति अभी भी अपने दोस्त को अपने दुखड़े सुनाकर अपना दिल हल्का करने की कोशिश कर रहा था । वह कह रहा था - “मेरी बीवी कैसी भी है, यार, लेकिन अब मैं उसे छोड़ नहीं सकता । वह मेरी बीवी ही नहीं, मेरे बच्चों की मां भी है । शादीशुदा औरत का यही डबल रोल उसे उसकी कई बदकारियों की माफी दिला देता है । अपनी बीवी से इत्तफाक न होते हुए भी आपको अपने बच्चों की मां से इत्तफाक रखना पड़ता है । मैं बेचारा ....”
बाकी की बात समुद्र के गर्जन में डूब गई ।
एक लहर हमारे कदमों सें लिपटी और फिर वापिस लौट गई ।
उन दोनों सायों के निगाहों से ओझल हो जाने तक हम बुत की तरह खामोश एक-दूसरे के सामने खड़े रहे ।
एकएक मैंने हाथ बढ़ाये और उसे उसके दोनों कंधों से थामता हुआ धीरे से बोला - “मैं तुम्हारे जवाब का इंतजार कर रहा हूं, मंजुला ।”
“मिस्टर सुधीर कोहली” - वह बोली - “सारा सिलसिला ही इन्त्हाई बेहूदा, नामुमकिन और न समझ में आने वाला है । लेकिन मुझे उम्मीद नहीं कि मौजूदा हालात में अपने सवाल का जवाब तुम न में कबूल कर लोगे ।”
“यानी कि तुम्हें मेरा प्रस्ताव कबूल है ।”
“प्रस्ताव तो कबूल है लेकिन अब एक समस्या और भी तो है मेरे सामने ।”
“वह क्या ?” - मैं सशंक स्वर में बोला ।
“मैं” - एकाएक उसके स्वर में से संजीदगी गायब हो गई और पहले जैसा ही विनोद का पुट आ गया -”अब संजीव कुमार को क्या जवाब दूंगी ?”
मैं भी खुलकर हंसा ।
मैंने जोर से उसे अपनी बांहों में भींच लिया ।
उस रात अपने होटल में जाकर सोने से पहले होटल वाले से एक डिक्शनरी मंगाकर मैंने उसमें निम्फोमैनियाक शब्द तलाश किया ।
ए वुमन हैविंग एबनोर्मल एण्ड अनकन्ट्रोलेबल सेक्सुअल डिजायर ।
अति काम वासना, कामोन्माद से प्रताड़ित स्त्री । हर समय रति की उत्कट इच्छा रखने वाली स्त्री ।
यह बात मुझे मालुम होने में दस महीने लगे कि खुद मेरी अपनी बीवी निम्फोमैनियाक थी ।
***
दिल्ली में वह एक एडवरटाईजिंग एजेंसी में टेलीफोन ऑपरेटर थी जहां कि वह काफी अच्छी तनखाह पाती थी । वह आई पी कॉलेज की पढ़ी हुई थी और उम्र में मेरे से पांच साल छोटी थी । परिवार के नाम पर उसकी मां और मृदुला नाम की एक उससे कोई दस साल बड़ी बहन के अलावा उसका कोई नहीं था । मां बूढ़ी थी और अक्सर बीमार रहती थी थी । बहन बत्तीस साल की उम्र में भी अविवाहित थी और एक स्कूल में अध्यापिका थी । कभी उन लोगों ने बहुत अच्छे दिन देखे थे लेकिन सिर से बाप का साया उठ जाने के बाद वे लोग काफी तंग हो गए थे । घर में कोई मर्द था नहीं, लड़कियां नौकरी न करती तो पता नहीं कैसे जिन्दगी कटती उन लोगों की । वैसे भले दिनों की यादगार के तौर पर न्यू राजेन्द्र नगर में उनका अपना मकान था और एक मौरिस माइनर थी जो कि अभी भी उनके पास थी, क्योंकि उसे कोई खरीदता नहीं था और अगर खरीदता था तो इतने कम पैसों में कि किसी को मुफ्त दे देना ज्यादा मुनासिब होता । वैसे कार चलती थी और महीने-पन्द्रह दिन में एक बार शौकिया तौर पर मृदुला उसे चलाती भी थी ।
मुझे मालूम हुआ कि मंजुला उस घर में बहुत कम रहती थी । कर्जन रोड की एक बहुमंजिला इमारत में दो अपनी ही तरह अविवाहित सहेलियों के साथ मिलकर उसने एक फ्लैट लिया हुआ था और अपनी मां और बहन के साथ रहने के स्थान पर वह वहां रहना ज्यादा पसंद करती थी ।
हमने दिल्ली लौटते ही शादी कर ली थी । शादी के बाद वह मेरे साथ मेरे मौजूदा आवास में आकर रहने लगी थी । पहले मेरे पास एक ही कमरा हुआ करता था । बाद में जब मैंने अपने धंधे में तरक्की कर ली थी तो मैंने अपने कमरे की बगल का कमरा भी हासिल कर लिया था और मैं दो कमरे के फ्लैट का मालिक बन गया था ।
अपनी सुहागरात को मैंने मंजुला की दाईं जांघ पर बहुत ऊपर एक सिले हुए जख्म का निशान देखा । पूछने पर मालूम हुआ कि चोट उसे बचपन में लगी थी । जब वह आठ साल की थी तो एक बार वह तुगलकाबाद के खंडहरों में खो गई थी और दो दिन बाद कहीं जाकर मिली थी । तभी किसी तीखी चीज से उसकी जांघ कट गई थी जिसकी यादगार के तौर पर वह निशान अभी तक उसके  जिस्म पर मौजूद था ।
“तुम खंडहरों में खो कैसे गई थी ?” - मैंने पूछा था ।
“याद नहीं ।” - उसने उत्तर दिया - “बचपन की इतनी पुरानी घटना है वो । चौदह साल पहले की बात क्या अब तक मुझे याद पड़ी है ।”
होगी कोई बात ।  खुद मुझे अपने बचपन की एक भी बात याद नहीं थी । मेरे अपने जिस्म पर कई ऐसे चोटों के निशान थे जिन के बारे में मुझे कतई याद नहीं था कि वे मुझे कैसे लगी थीं, कब लगी थीं ।
फिर वह शायद जनवरी का महीना था जब एक दिन मुझे अपनी बीवी के बारे में कुछ और ही सोचने पर मजबूर होना पड़ा ।
एक असाइनमेंट के सिलसिले में मैं कलकत्ता गया था । तीन दिन का काम था । चौथे दिन शाम को मैं लौटने वाला था । और यह बात मैं मंजुला को गया था , लेकिन इत्तफाक ऐसा हुआ कि मेरा क्लायंट मुझे प्लेन पर अपने साथ ले आया और मैं उस रोज सुबह-सवेरे दिल्ली पहुंच गया ।
एक टैक्सी करके मैं घर पहुंचा ।
मुझे मालूम था अभी वह जागी नहीं हो सकती थी, इसलिए मैंने उसकी नींद में खलल न ही डालने का फैसला किया । दरवाजा खटखटाने के स्थान पर मैंने अपनी चाबी लगाकर ताला खोलने की कोशिश की  तो पाया कि ताला पहले ही खुला था ।
मैंने हैंडल घुमाकर दरवाजा ठेला तो वह खुल गया ।
ऐसी लापरवाही की मुझे उससे उम्मीद नहीं थी ।
मैंने भीतर कदम रखा ।
वह पलंग पर सोई पड़ी थी ।
मैंने बत्ती जलाई तो वह जाग गई ।
“तुम !”- वह हैरानी से बोली - “आ भी गए ?”
“हां” - मैं मुसकुराता हुआ बोला - “हल्लो, वायफी ।”
उसने घड़ी पर निगाह डाली और फिर बोली - “हल्लो, हब्बी ।”
और उसने बड़े आमंत्रणपूर्ण ढंग से पलंग पर अपने पहलू में इशारा किया ।
मैंने कपड़े बदले और बिस्तर पर पहुंच गया ।
बिस्तर की सफेद चादर सिलवटों से भरी पड़ी थी । बिस्तर गरम था । उसका पहलू गर्म था ।
मैं सफर से थका हुआ था । उसके आगोश में पहुंचते ही मुझे नींद आ गई ।
दोपहर के करीब मैं सोकर उठा ।
मंजुला कब की अपने ऑफिस जा चुकी थी ।
मैंने उसके ऑफिस मैं उसे फोन किया ।
“जाग गए ?”- वह बोली ।
“हां” - मैं बोला - “तुमने ऐसा जुल्म क्यों किया ?”
“कैसा जुल्म ?”
“मैं इतने दिनों बाद घर लौटा था । मुझे “नमस्ते” तो करनी थी ।”
“नमस्ते ! ओह वह ! हुई तो थी नमस्ते ।”
“कब ?”
“सुबह-सवेरे ।”
“लेकिन मैं तो आते ही सो गया था ।”
“वहम है तुम्हारा । अगर सो गए थे तो समझ लो नमस्ते नींद में हुई थी ।”
“अच्छा ।”
“हां । और ऐसी बातें याद रखा करो माई डियर डार्लिंग हसबेंड ।” 
“अच्छा ।”
मैंने हाथ बढ़ाकर टेबल पर से डनहिल का पैकेट उठाया, एक सिगरेट होंठों से लगाया और माचिस से उसे सुलगाकर जव मैं तीली पास ही पड़ी ऐश ट्रे में डालने लगा तो मेरा हाथ रुक गया और मैं अपलक ऐश ट्रे को देखने लगा ।
मंजुला कुछ कह रही थी जो मैं समझ नहीं पा रहा था ।
“क्या ?” - फिर मेरी तन्द्रा टूटी - “क्या कहा ?”
“अरे, मैं पूछ रही हूं, आज ऑफिस जाओगे ?”
“पता नहीं ।”
“यह एकाएक कहां खो गए हो तुम ? तुम्हारी तो आवाज ही बदल गई है ।”
“कुछ नहीं । मैं जरा कुछ सोच रहा था ।”
“नमस्ते के बारे में ?”
“हां” - मैंने झूठ बोला ।
“ठीक है । शाम को आते ही नमस्ते ही होगी सबसे पहले ।”
“ठीक है ।”
उसने लाइन काट दी ।
मैं रिसीवर हाथ में ही थामे रहा । फिर कोई एक मिनट बाद मैंने उसे वापस क्रेडिल पर रख दिया ।
मंजुला को सिगरेट पीने की आदत नही थी । वह यूं ही मज़ाक में, मर्दों की बराबरी करने की नीयत से कभी-कभार सिगरेट पीती थी । मेज पर जो ऐश ट्रे पड़ी थी, वह कट ग्लास की थी और बहुत बड़ी थी । कलकत्ता जाने से पहले मैं खुद उसे खाली करके गया था, लेकिन उस वक्त वह सिगरेट के टुकड़ों से भरी
पड़ी थी और उन टुकड़ों में केवल चार या पांच टुकड़े ही डनहिल के थे जिन पर कि उसकी लिपस्टिक के निशान भी दिखाई दे रहे थे ।
बाकी के सारे टुकड़े विल्स के थे ।
उस वक्त जो मैं सोच रहा था, उसे मैं सोचना नहीं चाहता था । विल्स के टुकड़ों को देखकर जो ख्याल मेरे जहन में आ रहा था, उसे मैं वहां टिकने नहीं देना चाहता था । उसे मैं जबरदस्ती धकेलकर अपने जहन से बाहर निकालना चाहता था । मैं कोई आम आदमी होता तो शायद अपनी इस कोशिश में कामयाब हो जाता लेकिन मेरा प्राइवेट डिटेक्टिव का असाधारण धन्धा मेरे आड़े आ रहा था । आखिर आदत थी मुझे बाल की खाल निकालने की ।
मेरा जी चाहा कि मैं उसे दोबारा फोन करू और उससे पूछूं कि मेरी गैरहाजिरी में कौन आया था जो विल्स के इतने सिगरेट पीने लायक अरसे तक ठहरा था कि सारी ऐश ट्रे भर गई थी । मैंनै कई बार टेलीफोन की तरफ हाथ बढ़ाया लेकिन फिर हाथ वापिस खींच लिया ।
अपनी बीवी के बारे में उल्टा-सीधा सोचना मेरी जहालत की निशानी भी हो सकती थी ।
हो सकता थे उसका कोई रिश्तेदार ही उससे मिलने के लिए वहां आया हो ।
लेकिन वह तो कहती थी कि उसका कोई मर्द रिश्तेदार था ही नहीं ।
तो क्या कोई पुराना वाकिफकार ? उसके पिता का दोस्त ?
इतना पुराना वाकिफकार और इतना अजीज दोस्त कि वो पलंग पर चढ़कर सिगरेट पीता था ?
वह ऐश ट्रे मैं टेबल पर टेलीफोन के पास रखता था और वह तभी इस्तेमाल होती थी जब मैं बिस्तर में होता था । सोफे के पास एक ऐश ट्रे और पड़ी थी लेकिन वह खाली थी ।
मैं बिस्तर से निकला । मैंने ऐश ट्रे को कूड़े दान में खाली किया और नित्यकर्म से निवृत्त हुआ । फिर मैं नेहरू प्लेस अपने ऑफिस पहुंचा ।
वहां काफी अरसा मुझे उस केस की रिपोर्ट बनाने में लग गया जिसके सिलसिले में मैं कलकत्ता गया था ।
उससे दिमाग खाली हुआ तो मुझे फिर ऐश ट्रे याद आने लगी और उसमें पड़े विल्स के बेशुमार टुकड़े याद आने लगे ।
मेरे जहन पर मंजुला की सूरत उभरती थी तो मुझे एक ही बात सूझती थी ।
कितनी खूबसूरत थी मेरी बीवी ।
अपने ऑफिस की खिड़की से बाहर झांकने भर से मैं नीचे शॉपिंग आरकेड में विचरती दर्जनों युवतियों को देख सकता था, लेकिन उनमें से कोई भी मेरी बीवी की जूती के बराबर भी नहीं थी ।
मेरी खूबसूरत बीवी ।
मेरी वफादार बीवी ?
मेरा दिमाग भिन्ना गया ।
चार बजे मैंने उसके दफ्तर में फोन किया और उसे यह अफसोसनाक खबर सुनाई कि मुझे उसी वक्त उल्टे पांव वापिस कलकत्ता जाना पड़ रहा था । मेरे क्लायन्ट ने अभी-अभी मुझे फोन किया था, और मुझे फौरन एयरपोर्ट पहुंचने का आदेश दिया था ।
“लेकिन, सुधीर...” - उसने कहना चाहा ।
“सॉरी, बेबी ।” - मैं बोला - “मेरे पास ज्यादा बात करने के लिए भी वक़्त नहीं है । मैं बहुत जल्दी लौट आऊंगा । बड़ी हद दो दिनों में ।”
“बड़ा नामुराद धन्धा है तुम्हारा ।”
“क्या किया जाए ? मजबूरी है ।”
“लेकिन...”
मैं फोन रख रहा हूं ।”
“सुधीर, तुम्हारा आज का व्यवहार मेरी समझ में नहीं आ रहा । पता नहीं क्यों मुझे लग रहा है जैसे  तुम मुझसे खिंच रहे हो और मेरे साथ अजनबियों की तरह पेश आ रहे हो ।”
“ऐसी कोई बात नहीं है डार्लिंग । अब मैंने जरा भागना है । बाकी बातें लौटने पर होंगी ।”
“परसों शाम तक तो आ जाओगे न ?”
“मैं कोशिश करूंगा, लेकिन हो सकता है कि परसों के बाद ही लौट पाऊं । आखिर सफर में भी तो वक्त लगता है ।”
“अच्छी बात है ।”
“सी यू, डार्लिग ।”
मैंने फोन रख दिया ।
मैं घर पहुंचा ।
वहां से मैंने अपना सूटकेस निकाला और उसे निजामुद्दीन स्टेशन के क्लाकरूम में जमा करा आया । फिर अपने एक मेहरबान से मैंने एक कार हासिल की और वापस ग्रेटर कैलाश लौटा । अपने फ्लैट वाली इमारत के सामने के मैदान में मैंने कार खड़ी कर दी और प्रतीक्षा करने लगा ।
पौने छ: बजे के करीब मुझे सड़क पर मंजुला दिखाई दी ।
मैंने अपना सिर थोड़ा नीचे झुका लिया ताकि अगर वो कार की दिशा में निगाह उठाए भी तो मैं उसे न दिखाई दूं । लेकिन वह दायें-बाएं देखे बिना नाक की सीध में आगे बढ़ रही थी । फिर वह हमारे फ्लैट वाली इमारत का फाटक ठेलकर भीतर दाखिल हुई और मेरी निगाहों से ओझल हो गई ।
अपने प्राइवेट डिटेक्टिव के धन्धे में मैंने कितनी ही बार अपने क्लायंटों की बदकार बीवियों की निगरानी की थी, लेकिन वह मेरे लिए मौत की घड़ी थी कि आज मुझे अपनी बीवी की निगरानी करनी पड़ रही थी । आज मेरा दिल कह रहा था कि काश मैं किसी और धन्धे में होता ।
ठण्डक बढ़ती जा रही थी और वातावरण में धुंध फैलने लगी थी । उस इमारत का ग्राउन्ड फ्लोर सारे का सारा मकान मालिक के पास था और ऊपर की तीन मंजिलों में छ: फ्लैट थे जो उसने किराए पर दिए हुए थे । हर किराएदार को मैं जाती तौर पर पहचानता था और हर किसी के कुनबे के हर सदस्य को जानता था । मेरे देखते-देखते लोग इमारत के भीतर ही दाखिल हुए कोई बाहर न निकला । इतनी ठण्डी रात में घर के सुख-सुविधापूर्ण वातावरण में पहुंच जाने के बाद कौन घर से बाहर निकलना चाहता था ।
सिवाय आपके खादिम के जो खुद अपने आपको सजा दे रहा था ।
लेकिन वह सजा जरूरी थी ।
उस पर मेरी आने वाली जिन्दगी का दारोमदार था ।
मेरी बीवी की तरफ से मेरा दिल साफ होना ही चाहिए था ।
दो घंटे गुजर गए ।
उस दौरान न मेरी बीवी इमारत से बाहर निकली और न किसी ऐसे आदमी ने इमारत में कदम रखा जो कि मेरा जाना-पहचाना नहीं था ।
अपनी उस करतूत पर शर्मिदा तो मैं एक घंटे बाद ही होने लगा था, लेकिन अब तो मेरा दिल मुझे इस बात के लिए लानत भेज रहा था कि मैंने अपनी बीवी पर शक किया था ।
आठ बजे के बाद तो मैं यह सोच रहा था कि सख्त सर्दी में कार में ठिठुरते बैठे रहने की जगह अब मुझे अपने फ्लैट में जाना चाहिए था और बाकायदा अपनी बीवी से माफी मांगनी चाहिए थी कि मैंने उसके चरित्र पर शक किया था ।
मेरे डनहिल के पैकेट में अभी तीन सिगरेट और बाकी थे ।
उतना अरसा मैंने और इन्तजार करने का फैसला कर लिया ।
ठीक साढ़े आठ बजे वह इमारत से बाहर निकली ।
उस वक्त वह अपने ऑफिस के कपड़ों में नहीं थी । ऑफिस वह हमेशा साड़ी पहनकर जाती थी । उस वक्त वह एक टाइट जीन, हाइनैक का पुलोवर और चमड़े का कोट पहने हुए थी ।
वह कोट की जेबों में हाथ धंसाए लम्बे डग भरती हुई मेरे से विपरीत दिशा में चलने लगी ।
थोड़ी देर बाद मैंने कार का इंजन चालू किया ।
मेन रोड पर पहुंचकर वह एक थ्री-व्हीलर में सवार हो गयी ।
मैंने कार को थ्री-व्हीलर के पीछे लगा दिया ।
हे भगवान ! - मैं मन ही मन दोहरा रहा था - यह राजेन्द्र नगर अपनी मां के घर जा रही हो । यह कर्जन रोड अपनी पुरानी सहेलियों से मिलने जा रही हो ।
लेकिन उसका थ्री-व्हीलर उन दिशाओं में से किसी भी तरफ न बढ़ा । ओबराय होटल के चौराहे से जब वह बाएं न घूमा तो मैं समझ गया कि वह मेरी सोची दोनों जगहों में से कहीं नहीं जाने वाली थी ।
मैं थ्री-व्हीलर के पीछे लगा रहा ।
अन्त्त में वह कश्मीरी गेट जाकर रुका ।
मैं अपनी कार उससे थोड़ा आगे निकाल ले गया और रियर-व्यू-मिरर में से पीछे देखने लगा ।
उसने ड्राइवर को किराया अदा किया और एक इमारत में दाखिल हो गई ।
मैं कार से बाहर निकला और सावधानी से आगे बढ़ा ।
इमारत के समीप पहुंचने पर मैंने देखा कि वह एक कमर्शियल इमारत थी जिस पर कई कम्पनियों के बोर्ड लगे हुए थे । इतनी रात गए पता नहीं वह वहां मौजूद कौन से दफ्तर में गई थी ।
लेकिन फिर मुझे एक ज्यादा सम्भावित जगह सूझ गई जहां कि वह जा सकती थी ।
मेरे सामने एक लम्बा गलियारा था जिसके परले सिरे से विलायती संगीत की आवाज आ रही थी ।
मैं आगे बढ़ा ।
वहां नीचे बेसमैंट को उतरती सीढियां थीं जिनके दहाने पर एक बोर्ड लगा था जिस पर लिखा था - दि हान्ट, डिस्कोथेक ।
नीचे से आते शोर-शराबे से लग रहा था कि वहां बहुत लोग मौजूद थे ।
मैं सावधानी से सीढियां उतरने लगा ।
नीचे रेलवे स्टेशन जैसी भीड़ थी । कुछ लोग नाच रहे थे कुछ डांस फ्लोर के आस-पास तीन-तीन चार-चार के समूहों में खड़े थे और कुछ बेसमैंट की चारदीवारी के साथ-साथ लगी मेजों पर बैठे थे ।
वातावरण में धुंए की धुंध-सी छाई हुई थी ।
वह मुझे कोने की एक मेज पर तीन नवयुवकों के बीच बैठी दिखाई दी । उसका चेहरा चमक रहा था और वह बात-बात पर हंस रही थी ।
तभी वेटर सबके सामने काफी के कप रख गया ।
मेरे देखते-देखते एक युवक ने अपनी जैकेट की जेब से विस्की का एक अद्धा निकाला और चारों कपों में विस्की डाल दी ।
जैसी आत्मीयता से वे लोग मंजुला से पेश आ रहे थे, उससे लगता था कि वह वहां अक्सर आया करती थी ।
उसे उसके कद्रदानों में घिरा छोड़कर भारी कदमों से चलता हुआ मैं वहां से बाहर निकल आया ।
इमारत के बाहर बरामदे में बैठे एक पनवाड़ी से मैंने डनहिल का एक पैकेट खरीदा और फिर अपनी कार मे आ बैठा ।
मैंने एक सिगरेट सुलगा लिया और सोचने लगा ।
वह डिस्को में ही तो आई थी । इसमें हर्ज की क्या बात थी ।
लेकिन इसके लिए शहर के दूसरे सिरे तक आने की क्या जरूरत थी ? ऐसी दर्जनों जगह तो रास्ते में भी थी ।
शायद उसे यही जगह पसन्द थी ।
और फिर कम से कम अभी तक उसने ऐसा कुछ नहीं किया था जो मेरे यूं उसके पीछे लगे होने को युक्तिसंगत ठहरा सकता ।
एक घण्टा गुजर गया ।
मैंने फिर डिस्को का चक्कर लगाया ।
इस बार मैंने उसे डांस फ्लोर पर नाचती पाया । उसके झूमने के अंदाज से लग रहा था जैसे उसे थोड़ा-बहुत नशा भी हो चुका था । उसके साथ जो युवक नाच रहा था, वह उससे उम्र में छोटा लग रहा था । मुश्किल से बीस साल का रहा होगा वो ।
मैं बाहर आकर फिर कार में बैठ गया और प्रतीक्षा करने लगा ।
वह एन्जॉय कर रही थी ।
क्या हर्ज था?
लेकिन हर्ज नहीं था तो फिर मेरा मन बेचैन क्यों हो रहा था ?
मैंने झुंझलाकर नया सिगरेट सुलगा लिया ।
ग्यारह बजे के करीब वह इमारत से बाहर निकली ।
उसके साथ वही कम उम्र नौजवान था जिसे मैंने डांस फ्लोर पर देखा था । दोनों हंस-हंस कर बातें कर रहे थे मंजुला की एक बांह उस युवक की कमर से यूं लिपटी हुई थी कि उसके शरीर का आधा भार युवक पर था ।
तब मैंने युवक को ज्यादा अच्छी तरह से देखा ।
वह लम्बा-ऊंचा खूबसूरत नौजवान था जो जीन और जैकेट पहने था । जैकेट के नीचे इतनी ठण्ड में भी वह खुले गले की कमीज पहने था ।
युवक ने मंजुला से कुछ कहा और उससे अलग हुआ । मंजुला को इमारत के सामने खड़ा छोड़कर वह पार्किग में गया और वहां से एक मोटर साइकल निकाल लाया । उसने मोटर साइकल को लाकर मंजुला के सामने खड़ा किया तो मंजुला उसी की तरह दाएं-बाएं टांगें फैलाकर उसके पीछे बैठ गई ।
शायद वह युवक अपनी मोटरसाइकल पर मंजुला को घर छोड़ने जा रहा था ।
लेकिन मोटर साइकल हमारे घर की ओर बढ़ने के स्थान पर एकदम विपरीत दिशा में बढ़ी । वह मेरी कार के एकदम करीब से गुजरी । मंजुला ने अपनी दोनों बांहें उस युवक की कमर में डाली हुई थीं और वह छिपकली की तरह उसकी पीठ से चिपकी हुई थी । उसने मेरी कार की तरफ निगाह तक नहीं उठाई थी ।
भारी मन से मैंने अपनी कार का इंजन चालू किया और उसे मोटर साइकल के पीछे लगा दिया ।
मोटर साइकल माल रोड की एक होस्टलनुमा इमारत के कम्पाउन्ड में दाखिल हुई ।
मैंने कार सड़क पर ही रोक दी ।
दोनों मोटर साइकल पर से उतरकर इमारत में दाखिल हो गए ।
इमारत की काफी सारी खिड़कियां सड़क की तरफ पड़ती थीं । उनमें से केवल दो-तीन में ही रोशनी थी ।
फिर दूसरी मंजिल की दो खिड़कियों में एकाएक रोशनी प्रकट हुई ।
शायद वे दोनों वहीं गए थे ।
मैं बेचैनी से पहलू बदलता हुआ अपना अगला कदम निर्धारित करने की कोशिश करने लगा । मैं उम्मीद के खिलाफ उम्मीद कर रहा था कि अभी मेरे देखते-देखते मेरी बीवी वहां से बाहर निकलेगी, कोई सवारी पकड़ेगी और घर चली जाएगी ।
लेकिन ऐसा न हुआ । ऐसा होना होता तो वह वहां आती ही क्यों ?
मैं कार से बाहर निकला ।
मैंने सिगरेट एक ओर उछाल दिया और आगे बढ़ा ।
इमारत में लिफ्ट भी थी लेकिन मैं सीढ़ियों के रास्ते दूसरी मंजिल पर पहुंचा ।
मैंने उस दरवाजे का अन्दाजा लगाया जिसकी खिड़कियां मेरे देखते-देखते रोशन हुई थीं और फिर हौले से उस पर दस्तक दी ।
एक मिनट तक कोई उत्तर न मिला तो मैंने इस बार अपेक्षा-कृत ज्यादा जोर से दरवाजा खटखटाया ।
इस बार मुझे भीतर से दरवाजे की ओर बढ़ते कदमों की आवाज आई । फिर दरवाजे के पीछे से सवाल किया गया - “कौन है ?”
“टेलीग्राम” - मैं बोला ।
फौरन दरवाजा खुला ।
वही युवक चौखट पर प्रकट हुआ । अपने जिस्म पर वह एक ऊनी गाउन पहने हुआ था जिसकी डोरीयां उसने सामने की तरफ बांधने के स्थान पर एक-दूसरे में उलझा भर ली थीं । घने बालों से भरी उसकी छाती नंगी थी और बाकी का जिस्म भी शायद छाती से मैच करता हुआ ही था ।
उसने संदिग्ध भाव से मेरी तरफ देखा और फिर बोला - “अभी दरवाजा तुमने खटखटाया था ?”
“हां” - मैं बोला ।
“तुम तो टेलीग्राम वाले मालूम नहीं होते ।”
“एकदम ठीक पहचाना ।” - मैंने एक बार खा जाने वाली नजरों से उसकी तरफ देखा और फिर बोला - “वो भी ऐसी ही हालत में है ?”
“वो कौन ?”
“जिसे तुम अभी मोटर साइकिल पर बैठकर अपने साथ लाए हो ।”
“जाओ, जाओ, काम करो अपना । तुमसे मतलब ?”
उसने दरवाजा बंद करने की कोशिश की लेकिन कामयाब न हो सका । मैंने चौखट में अपना पांव फंसा दिया और उसे गिरहबान से थाम लिया । गाउन का जो भाग मैंने थमा था, उसके साथ-साथ उसकी छाती के ढेर सारे बाल भी मेरी मुट्ठी में आ गए थे । मैंने जोर से उसे अपनी तरफ खींचा । उसका चेहरा लाल हो गया । जो थोड़ा बहुत विस्की का नशा उसे था, वह हिरन हो गया । वह मेरी पकड़ में छटपटाने लगा ।
“छोड़ो” - वह बड़ी कठिनाई से कह पाया - “छोड़ो ।”
मैंने उसे बाहर गलियारे में घसीट लिया और फिर छोड़ा ।
मैंने भीतर झांका ।
वह दो कमरों का फ्लैट था ।
सामने वाले कमरे को पिछले कमरे से मिलाने वाला दरवाजा बंद था ।
“पीछे बैडरूम है ?” - मैंने दबे स्वर में पूछा ।
उसने होठों पर जुबान फेरते हुए सहमति में सिर हिलाया ।
“तुम कब से जानते हो उसे ?”
“मैं तो उसे कतई नहीं जानता, सर” - वह भयभीत भाव में बोला - “आज से पहले तो मैंने उसकी सूरत तक नहीं देखी थी ।”
“वो मेरी बीवी है ।”
उसके छक्के छूट गए ।
“लेकिन, सर” - वह हकलाया - “मुझे तो उसने यह तक नहीं बताया था कि वह विवाहित थी ।”
“तुम उसे यहां क्यों लाए ?”
“सर, वह मौज-मेले के मूड में थी और उसी ने मुझे उकसाया था कि मैं उसे कहीं लेकर चलूं ।”
“तुम यहां अकेले रहते हो ?”
“नहीं । एक लड़का और भी रहता है यहां, लेकिन वह दो-तीन के लिए कहीं गया हुआ है ।”
“नीचे सड़क पर जाकर खड़े हो जाओ । जब तक हमें यहां से जाता न देख लो, वापस न आना ।”
“यस, सर । लेकिन मैं कपड़े....”
“ऐसे ही जाओ । नौजवान आदमी हो । ठंड से मर नहीं जाओगे ।”
“यस सर ।”
वह मन-मन के कदम भरता हुआ सीढ़ियों की तरफ बढ़ गया । वह मेरी निगाहों से ओझल हो गया तो मैंने भीतर कदम रखा ।
आगे बढ़कर मैंने अगला दरवाजा खोला ।
वह बैडरूम ही था ।
वहां एक बहुत कम रोशनी वाला बल्ब जल रहा था । उसका चमड़े का कोट, जीन, हाइनेक का पुलोवर, ब्रेजियर, अंडरवियर सब एक ढेर की सूरत में एक कुर्सी पर पड़े थे । वह सम्पूर्ण नग्नावस्था में एक डबल बैड पर इस तरह लेती हुई थी की उसका सिर मेरी तरफ था ।
जुबान खोलने से पहले मैंने जी भरकर उसके नंगे जिस्म का नजारा किया ।
कितनी खूबसूरत थी हरामजादी ।
पता नहीं चरित्रहीन औरतों को भगवान इतना खूबसूरत क्यों बनाता है ?
या शायद खूबसूरत औरतें ही चरित्रहीन होती हैं ।
मेरी बीवी तो खूबसूरत होने के साथ-साथ टेलीफोन ऑपरेटर भी थी जिसे की हर किसी से हैलो-हैलो करने का और हर किसी को फ्री लाइन देने का ज्यादा अभ्यास था ।
कहते हैं खूबसूरत औरत को काबू में रखने का एक ही तरीका होता है, लेकिन अफसोस वह किसी मर्द को नहीं आता ।
फिर शायद उसे मेरी वहां उपस्थिति का आभास मिल गया, लेकिन उसने घूमकर मेरी तरफ नहीं देखा । शायद उसने समझा था की वह छोकरा ही लौटकर आया था । 
“कौन था ?” - उसने निर्विकार भाव से पूछा ।
मैंने उत्तर न दिया । मेरे मुंह से बोल फूटा ही नहीं । मैं आगे बढ़ा और उसके सामने जा खड़ा हुआ ।
मुझ पर निगाह पड़ते ही जैसे उसे बिजली का करेंट लगा । उसके चेहरे से खून निचुड़ता मैंने साफ देखा । अगले ही क्षण उसका चेहरा उस चादर जैसा ही सफेद लग रहा था जिसे पलंग के पायताने से खींच कर वह अपना नंगा जिस्म ढकने की कोशिश कर रही थी । उसकी आंखों में आतंक का ऐसा भाव था जैसे अभी उसे हार्ट-अटैक होने वाला था । वह उठकर बैठ गई थी । चादर वह एक पर्दे की तरह अपने और मेरे बीच खींच रही थे । उसका शरीर रह-रहकर कांप जाता था और वह मुझसे निगाहें मिलाने की ताव नहीं ला पा रही थी ।
“तुम” - मैं धीरे से बोला - “शायद भूल गयी थीं कि तुम्हारा पति किस धंधे में है ।”
उसके होंठ कांपे । फिर उसकी आंखों से झर-झर आंसू बहने लगे । उस क्षण से पहले मैंने उसे कभी रोते हुए नहीं देखा था । उस वक्त वह मुझे बहुत मासूम लगी । उस वक्त वह मुझे उस बच्ची जैसी लग रही थी जिससे उसका खिलौना छीन लिया गया था । उसकी तमाम करतूतों के बावजूद भी मेरा जी चाहने लगा कि मैं उसे अपनी बांहों में भर लूं और अपने होंठों से उसके आंसुओं के मोती बीनकर उसे दिलासा दूं ।
बड़ी मुश्किल से मैं जब्त कर पाया ।
“उठो” - मैं बोला - “और कपड़े पहनो ।”
वह अपने स्थान से हिली भी नहीं । आंसुओं की गंगा-जमना पूर्ववत उसके गालों पर बहती रही ।
वह मेरे सामने कपड़े नहीं पहनने वाली थी । अब उसे शर्म आ रही थी । अपनी नग्नता की एक गैर मर्द के सामने वह दुकान लगाकर नुमायाश कर सकती थी, लेकिन अपने मर्द से, उस मर्द से जिसे अग्नि को साक्षी मानकर उसने अपना पति माना था, उसे शर्म आ रही थी । तभी तो कहते हैं कि त्रिया चरित्रम पुरुष्य भाग्यम, देवो न जान्येत कुतो मनुष्य ।
मैं बैडरूम से बाहर निकाल गया ।
बीच का दरवाजा मैंने बंद कर दिया ।
मैंने एक सिगरेट सुलगा लिया और बड़ी बेचैनी से बाहरी कमरे में चहलकदमी करने लगा ।
पांच मिनट बाद बीच का दरवाजा खुला और उसने बाहर कदम रखा । उसने कपड़े पहन लिए थे और आंसू पोंछ लिए थे, लेकिन उसकी आंखें कबूतर की आंखों की तरह लाल लग रही थीं ।
एक बार फिर मेरा जी चाहा कि मैं लपककर उसे अपनी बांहों में भर लूं और उसके सारे गुनाह माफ कर दूं । शायद मैंने ऐसा कर भी डाला होता, लेकिन तभी वह बाहर की तरफ बढ़ चली । वह फ्लैट से बाहर निकली तो मैं उसके पीछे हो लिया ।
एक-दूसरे के पीछे सीढ़ियाँ उतरते हम नीचे पहुंचे ।
इमारत से बाहर वह युवक मुझे कहीं दिखाई न दिया ।
सड़क पर आकर वह मुझसे अलग होकर सुनसान सड़क पर यूं आगे बढ़ी जैसे जताना चाहती हो कि अब हमारे रास्ते अलग थे ।
“इधर” - मैं बोला ।
वह ठिठकी ।
मैंने कार की तरफ संकेत किया ।
वह कार की तरफ बढ़ी ।
मैंने आगे बढ़कर उसके लिए कार का दरवाजा खोला ।
वह बैठ गई तो मैं कार का घेरा काटकर दूसरी तरफ पहुंचा । मैं ड्राइविंग सीट पर बैठा और मैंने कार को यू टर्न देकर वापिस सड़क पर दौड़ा दिया ।
एक बार सड़क पर से निगाह हटाकर मैंने उसकी तरफ देखा तो मैंने उसे खाली-खाली निगाहों से सीधे सामने झांकते पाया । लेकिन फिर भी शायद उसे मालूम था कि मैं उसकी तरफ देख रहा था ।
“क्यों ?” - मैं धीरे से बोला - “क्यों किया तुमने ऐसा ?”
“यह कोई लव अफेयर नहीं था” - वह यूं बोली जैसे नींद में बड़बड़ा रही हो - “वह मेरे लिए एकदम अजनबी था । वह मेरा नाम तक नहीं जानता था ।”
“कभी मैं भी तुम्हारे लिए अजनबी था” - मैं आहत भाव से बोला - “कभी मैं भी तुम्हारा नाम तक नहीं जानता था । उम्मीद है कि बंबई के जुहू बीच की आधी रात की हमारी पहली मुलाकात तुम भूली नहीं होगी । लेकिन तब तुम्हारी निगाह में शायद मेरा वही दर्जा था जो आज इस छोकरे का था । मैंने जिसे प्यार का अंदाज समझा, वो तुम्हारी आदत निकली ।”
वह खामोश रही । उसकी आंखों से आंसुओं की दो मोटी-मोटी बूंदें ढुलकीं और उसके कपोलों से फिसलती हुई उसके पुलोवर की हाइनेक पर आकर गिरी ।
उसके बाद मालरोड से लेकर ग्रेटर कैलाश तक का लंबा रास्ता मुकम्मल खामोशी से कटा ।
मेरे अपने फ्लैट वाली इमारत के सामने कार खड़ी करते ही वह बाहर निकली और लंबे डग भरती हुई इमारत में दाखिल हो गई ।
कार को ठीक से पार्क करके और उसको ताला लगाकर जब मैं फ्लैट में पहुंचा तो मैंने उसे एक कुर्सी पर बैठे पाया । उसका सिर उसकी छाती पर झुका हुआ था और अपने दोनों हाथ उसने एक बेजान चीज की तरह अपनी गोद में रखे हुए थे ।
मैंने पीटर स्कॉट की बोतल निकाली । एक गिलास को मैंने विस्की से आधा भर लिया और विस्की को नीट ही पी गया । मेरी छाती में तो आग लग गई लेकिन नशे के नाम पर जो नतीजा सामने आया वह गंगाजल पीने जैसा ही था ।
फिर मैंने एक सिगरेट सुलगा लिया और उसके सामने बैठ गया ।
कितनी ही देर मैं उसके खूबसूरत चेहरे को देखता रहा और फिर बोला - “अपनी करतूत का कोई जवाब है तुम्हारे पास ?”
उसने उत्तर नहीं दिया ।
“तुम्हें तुम पर अपनी जान निछावर करने वाले, तुम्हारा सौ फीसदी भरोसा करने वाले, तुम्हें बेपनाह प्यार करने वाले अपने पति पर तरस नहीं आया ? उसे धोखा देते हुए तुम्हारा दिल नहीं लरजा ?”
“सुधीर” - वह फंसे स्वर में बोली - “मैं तुमसे प्यार करती हूं ।”
“जरूर करती होगी” - मैं विषभरे स्वर में बोला - “लेकिन सौ-पचास और मर्दों से भी प्यार करती हो ।”
“मैं सिर्फ तुमसे प्यार करती हूं ।”
“यह कैसा प्यार है तुम्हारा जिसमें मेरी पीठ फिरते ही तुम किसी गैर मर्द के, किसी भी गैर मर्द के, पहलू में लेटने के लिए तड़पने लगती हो । जो कुछ तुम और मर्दों के साथ करी हो, वह अगर प्यार नहीं तो क्या तुम्हारी आदत है ?”
“हां ।”
“क्या ?”
“हां, वह आदत है । एक बुरी आदत है जो एक बीमारी का दर्जा रखती है । सुधीर, मैं निम्फोमैनियक हूं ।”
कभी मैंने डिक्शनरी में उस शब्द का मतलब देखा था और वह मतलब मुझे अभी तक भूला नहीं था ।
ए वुमन हैविंग एबनोर्मल एण्ड अनकन्ट्रोलेबल सेक्सुअल डिजायर ।
“मुझे निम्फोमैनियक की बीमारी है” - वह धीरे से बोली - “मैं पुरुष सहवास के बिना नहीं रह सकती । तुम मेरे सामने होते हो तो मेरी निगाह में दुनिया में किसी दूसरे मर्द का अस्तित्व नहीं रहता, लेकिन तुम मेरी निगाहों से दूर चले जाते हो तो कामोन्माद मुझ पर हावी होने लगता है । मुझे डर लगने लगता है कि कहीं मैं पागल न हो जाऊं और इस घर की दीवारों से अपना सिर न टकराने लगूं । जब तुम कहीं चले जाते हो...”
“मैं महीने में मुश्किल से तीन-चार दिन के लिए जाता हूं ।” - मैंने प्रतिवाद किया ।
“जब तुम चले जाते हो” - वह कहती रही - “तो इस घर की चारदीवारी मुझे खाने को दौड़ती है । रात आती है तो वह मुझे हौवा-सी लगने लगती है । मैं सो नहीं पाती । मैं कितनी-कितनी देर इस कमरे में चहलकदमी करती रहती हूं, थककर निढाल हो जाती हूं लेकिन सो नहीं पाती । तब मुझे एक ही बात सूझती है । मेरे भीतर से कोई मुझे मजबूर करने लगता है कि मैं किसी की, किसी की भी, बांहों में समा जाऊं । मैं बहुत कोशिश करने पर भी अपने आप पर काबू नहीं कर पाती । मैं घर से बाहर निकल पड़ती हूं । उस वक्त मेरी हालत किसी एल्कोहोलिक, किसी ड्रग एडिक्ट जैसी होती है । जैसे शराबी का इलाज शराब होता है, नशेड़ी का इलाज नशा होता है वैसे ही नोम्फोमैनियक का इलाज पुरुष होता है । अपनी हरकतों के लिए मैं अपने आपसे नफरत करती हूं,  हजारों बार अपने आप पर लानत भेजती हूं लेकिन मैं क्या करूं ? मैं क्या करूं ?”
“तुम ऐसी कैसे हो गई ?”
उसने उत्तर नहीं दिया ।
“मैं जब भी शहर से बाहर जाता था तुम यही कुछ करती थी जो कि तुमने आज किया है ?”
“हां” - उसने बड़ी शराफत से स्वीकार किया ।
“हमेशा ?”
“हां ।”
हर बार कोई नया मर्द ?”
“हां ।”
“तुम्हारे जैसी शानदार और बड़ी सहूलियत से हासिल हो गई औरत से आगे भी ताल्लुकात बनाए रखने की कोशिश से वे लोग बाज आ जाते थे ?”
“वे तो कोशिश करते थे लेकिन मैं ऐसी नौबत नहीं आने देती थी ।”
“लोगों को तुम यहां भी लाती थी ?”
“कभी-कभार । जब कोई और ठिकाना मुमकिन नहीं होता था ।”
“ऐसा कोई मर्द तुम्हारे बिना बुलाये भी तो यहां दोबारा लौट सकता था ।”
“अभी तक तो कभी ऐसी नौबत नहीं आई थी ।”
“लेकिन आ तो सकती थी ।”
वह खामोश रही । जब उसके पास कोई जवाब नहीं होता था या जब वह कोई जवाब नहीं देना चाहती थी तो वह खामोश हो जाती थी ।
“मुझे निम्फोमैनियक का मतलब तो आता था, लेकिन मुझे यह नहीं मालूम था कि निम्फोमैनियक कोई बीमारी होती थी । यह मैं तुम्हारे ही मुंह से सुन रहा हूं कि यह मलेरिया या टाइफाइड की तरह ही किसी बीमारी का नाम है ।”
“और तुम्हें मेरी बात का विश्वास नहीं ?”
“अब मैं क्या कहूँ ?”
“सुधीर, मैं बहुत मजबूर, बहुत परेशान औरत हूं” - वह कातर स्वर में बोली - “तुम मेरे पास होते हो तो मुझे कुछ नहीं होता, लेकिन ज्यों ही तुम मुझसे दूर चले जाते हो तो ....”
“यानि कि” - मैंने उतावलेपन से उसकी बात काटी - “रोजी रोटी कमाने की कोशिश की जगह मुझे तुम्हारे पल्लू से बंधकर बैठ जाना चाहिए ।”
“नहीं ।”
“तो ?”
“सुधीर, मुझे माफ कर दो ।”
“तुम्हें माफ कर दूंगा तो सब-कुछ सुधर जाएगा ? तो सब-कुछ ठीक हो जाएगा ?”
“नहीं ।”
“तुम अपने आपको माफी की हकदार मानती हो ?”
“नहीं ।”
“आने वाले दिनों में तुम मेरी बीवी बनी रह सकती हो ?”
“नहीं ।”
“मेरी जिंदगी के बारे में भी सोचो, मंजुला । क्या मैं एक ऐसी दुरचिरिणी स्त्री का पति बना रह सकता हूं जो अपनी मुसलसल बेवफाई और बेहयाई को एक बीमारी बताती है और जिसके भविष्य में भी सुधर जाने की कोई गारंटी नहीं ?”
“नहीं ।”
“मंजुला, सच पूछो तो मेरे मन में इस वक्त तुम्हारे प्रति कोई विद्वेष का भाव नहीं है । मैं पहले की बात नहीं करता, लेकिन अब मुझे न तुम पर गुस्सा आ रहा है और न मुझे ऐसा लग रहा है कि मेरे साथ दगाबाजी करके तुमने मुझे बहुत बड़ा धोखा दिया है । आज अगर मैं तुम्हारे साथ बंबई में हुई अपनी पहली मुलाकात को याद करूं तो मुझे अपने बारे में यही राय कायम करनी होगी कि मैं अक्ल का अंधा हूं । बिना मामूली-सी भी जान-पहचान के जब इंतहाई सहूलियत से तुम मुझे बंबई के बीच पर हासिल हो गई थीं तो मैंने इसे अपनी मर्दानगी और आकर्षक व्यक्तित्व की जीत समझा था कि शायद मुझमें सुर्खाब के पर लगे हुए थे और तुम मुझे दुनिया-जहान के और मर्दों से बेहतर तसलीम करके मेरी बांहों में आई थीं । कितनी बड़ी गलती थी मेरी । मुझे तो वो औरत हासिल हुई थी जो हर किसी को हासिल थी ।
“तुम अपनी गलती अब सुधार सकते हो ।”
“कैसे ?”
“तुम्हारी गलती सुधारने में मैं तुम्हारी मदद कर सकती हूं ।”
“कैसे ? कैसे ?”
“तुम्हारी जिन्दगी से हमेशा के लिए विदा लेकर ।”
मैंने बेचैनी से से नया सिगरेट सुलगाया ।
वह धीरे-से अपने स्थान से उठी । वार्डरोब से उसने एक छोटा-सा अटैचीकेस निकाला और उसमें अपने कुछ कपड़े भरने लगी । फिर ड्रेसिंग टेबल पर से वह अपने सौंदर्य प्रसाधन उठाने लगी । अन्त में वह बाथरूम में जाकर अपना तौलिया और अपना टूथब्रश ले आई ।
मैं अपलक उसे देख रहा था । मैं जानता था वह क्या कर रही थी । मैं उसे रोकना चाहता था लेकिन मेरा विवेक, मेरी गैरत, मेरी जुबान नहीं खुलने दे रहे थे ।
उसने अटैचीकेस को बन्द किया और उसे उठाकर सीधी हुई । उसने ऐसी जख्मी निगाह उस छोटे-से कमरे की चारदीवारी, पलंग और बाकी चीजों पर डाली कि मेरा कलेजा मुंह को आने लगा ।
वह जा रही थी । पर हमेशा के लिए मेरे घर से मेरी जिन्दगी से, जा रही थी लेकिन मैं उसे रोक नहीं सकता था ।
हर किसी चीज से फिसलती हुई उसकी निगाह जिस आखिरी चीज पर आकर ठिठकी, वह मैं था ।
“यह घर तुम्हारा है” - वह रूंधे कण्ठ से बोली - “मेरे यहां कदम रखने से पहले भी यह तुम्हारा था और आगे भी तुम्हारा ही रहेगा । दस महीने । दस महीने जो मैंने इस घर में गुजारे, उन्हें तुम सपना समझकर भुला देना । समझ लेना यहां कभी कोई नहीं आया था ।”
“कहां जाओगी ?” - मेरे मुंह से निकला ।
“फिलहाल अपनी मां के घर । बाद में पता नहीं कहां !”
“अभी जाओगी ?”
“हां ।”
“सुबह चली जाना ।”
“नहीं । अभी ही जाना मुनासिब होगा । हो सकता है सुबह तक तुम्हें मुझ पर तरस आ जाए और तुम मुझे रोक लो ।”
वह फफक कर रो पड़ी ।
मैंने उसे रोने दिया । मैं बुत बना बैठा रहा ।
मेरा दिल मुझे धिक्वार रहा था, तेकिन मेरा विवेक मुसे इस बात के लिए मजबूर कर रहा था कि जो हो रहा था, मैं उसे होने देता ।
“मैं जा रही हूं” - वह बड़ी कठिनाई से कह पाई - “जाने से पहले एक बात कहकर जाना चाहती हूं । तुम्हारे अलावा अपनी जिन्दगी में मैंने किसी से प्यार नहीं किया । अपनी मां से भी नहीं, अपनी बहन से भी नहीं ।”
“जानकर खुशी हुई” - मैं शुष्क स्वर में बोला - “किसी गैर के बिस्तर पर पसरे तुम्हारे नंगे जिस्म की जब जब मुझे याद आएगी, तब-तब तुम्हारी यह बात याद करके मैं अपना दिल बहला लिया करूंगा कि तुम मुझसे प्यार करती हो ।”
उसने आहत भाव से मेरी तरफ देखा । फिर वह भारी कदमों से दरवाजे की तरफ बढ़ी ।
चौखट पर वह ठिठकी ।
उसने अपनी जेब से मेरे कोट के मुख्य द्वार की अपने वाली चाबी निकाली और उसे द्वार के समीप ही पड़े एक स्टूल पर रख दिया ।
फिर वह वहां से चली गई ।
हमेशा के लिए ।
उसे उस सुनसान और अन्धेरी रात में उसकी मां के घर छोड़कर आना तो दूर, मैं उसके साथ टैक्सी स्टैंड तक न गया ।
उस रात मैं विस्की की पूरी बोतल पी गया ।
बाद मे खाली बोतल को मैंने दीवार पर जहां फेंककर मारा था वहां से पलस्तर उखड़ गया था । वह पलस्तर आज दो साल बाद भी वैसे ही उखड़ा हुआ था जब मंजुला ने वापिस मेरे फ्लैट में कदम रखा था और वह मेरी बांहों में गिरकर मर गई थी ।