वो छतरपुर गांव से आगे भाटी माइन्स के रास्ते में मेन रोड से काफी हटकर बना शुक्ला फार्म्स के नाम से जाना जाने वाला एक फार्म हाउस था जिसके लोहे के बन्द फाटक के सामने मैं उस घड़ी मौजूद था।
रात के बारह बजने को थे और चारों तरफ सन्नाटा था । हीरा ईरानी कितनी हौसलामंद थी इसका अन्दाजा इसी से लगाया जा सकता था कि दिल्ली शहर के एक सिरे पर उस सुनसान इलाके में, जहां कि दिन में भी कोई इक्का-दुक्का बंदा ही नजर आता था वो -वो बंदी- अकेली रहती थी । दिन में अमूमन उसके साथ रूबी होती थी लेकिन रात को वो भी वहां से रुख्सत कर दी जाती थी ।
तनहाई में खलल जो आता था उसकी मौजूदगी से !
हीरा ईरानी कहने को कनाट प्लेस में स्थित सिल्वर मून नामक रेस्टोरेंट में कैब्रे डांसर थी लेकिन असलियत में वो एक हाई प्राईस्ड कालगर्ल थी । कितनी हाई प्राइस्ड थी, इसका अन्दाजा इसी से लगाया जा सकता था कि वो दिल्ली जैसे महंगे शहर में आठ एकड़ में बने उस फार्म हाउस में रहती थी ।
रूबी गोमेज एक गोवानी लड़की थी जो कि कहने को हीरा की मेड थी लेकिन असल में वो उसकी सहयोगी, केयरटेकर, बावर्चिन, वगैरह सब कुछ थी । वो कोई पच्चीस साल की सांवली रंगत वाली लड़की थी जिसकी रंगत वाली कमी उसके बनाने वाले ने उसे खूबसूरती और भरपूर जवानी देकर निकाल दी मालूम होती थी ।
उसकी मालकिन हीरा उम्र में उससे एकाध साल बड़ी परीचेहरा, शोलाबदन, युवती थी जिसको खुदा ने ताजमहल के से अन्दाज से बनाया मालूम होता था ।
ताजमहल कहीं किसी एक की मिल्कियत हो सकता है !
हीरा और रूबी को साथ देखकर हमेशा मुझे रसगुल्ले और गुलाब जामुन का ख्याल आता था ।
मैंने बंद फाटक के एक पहलू में बना एक लैटर बॉक्स सरीखा बक्सा खोला और भीतर लगा एक बटन दबाया ।
“कौन ?” - कुछ क्षण बाद बटन के ऊपर लगे माइक्रोफोन में से हीरा की आवाज आयी ।
“सुधीर ।” - मैं बोला ।
“कौन सुधीर ?”
“सुधीर कोहली । दि ओनली वन ।”
“वैलकम ।”
मैंने बक्से का ढक्कन बंद कर दिया और वापस अपनी फियेट में आ बैठा ।
मेरे सामने लोहे का फाटक अपने आप खुला । मैंने कार आगे बढाई । कार फाटक पार कर गई तो वो वो पीछे अपने आप बंद हो गया । दोनों तरफ लगे पेड़ों के बीच से गुजरते एक लम्बे ड्राइव-वे में कार चलाता हुआ मैं फार्म के बीचोंबीच बने एक छोटे से बंगले के सामने पहुंचा । मैंने कार को पार्किंग में खड़ी एक मारुती 1000 के पीछे रोका और बाहर निकला ।
हीरा मुझे ड्राइंगरूम के दरवाजे पर मिली ।
उस घड़ी वो एक झीनी सी नाइटी पहने थी जिसमें से उसका पुष्ट गोरा बदन साफ झलक रहा था ।
“वैलकम ।” - वो बोली ।
मैं उससे बगलगीर होकर मिला । मेरे तजुर्बेकार हाथ ने एक ही क्षण में उसके जिस्म की कई गोलाईयां टटोल डालीं ।
“अकेली हो ?” - मैं बोला ।
“अब नहीं हूं ।” - वो चेहरे पर एक चित्ताकर्षक मुस्कराहट लाती हुई बोली ।
“नींद तो क्या आती होगी अकेले !”
“नहीं आती । अच्छा हुआ तुम आ गए ।”
“मैं किसी और मकसद से आया हूं ।”
“वो मकसद भी पूरा हो जायेगा ।”
“मैं उस मकसद से नहीं आया ।”
वो तनिक हकबकाई, क्षण भर को उसकी आंखें बर्फ की मानिन्द सर्द हुईं लेकिन फिर तत्काल ही वो अपने मोतियों जैसे दांत चमकाती मुस्कराने लगी । वो मुझे बांह पकड़कर भीतर ले चली और फिर मुझे एक सोफे पर धकेलती हुये बोली - “बैठो ।”
“थैंक्यू !” - मैं बोला ।
“कुछ पियोगे ?” - वो बोली ।
“जो पिलाओगी पी लूंगा ।” - मैं बोला ।
“अच्छा !” - वो इठलाकर बोली - “अभी तो तुम कह रहे थे कि तुम उस मकसद से नहीं आये हो ।”
“म..मेरा मतलब था जो तुम पियोगी, वो मैं भी पी लूंगा ।”
“मैं अभी आयी ।”
बड़ी मदमाती चाल चलती वो वहां से रुख्सत हो गयी ।
कोई और वक्त होता तो मैं उसे वहीं दबोच लेता लेकिन वो घड़ी बिजनेस को प्लेजर से मिक्स करने की नहीं थी । बड़े नर्वस भाव से मैंने जेब से डनहिल का पैकेट निकाला और एक सिगरेट सुलगा लिया ।
मुझे उम्मीद ही नहीं, यकीन है कि अपने खादिम को आप भूले नही होंगे लेकिन फिर भी ऐसा हो गया हो तो मैं अपना परिचय फिर से दिये देता हूं । बन्दे को सुधीर कोहली कहते हैं । बन्दा प्राइवेट डिटेक्टिव के उस दुर्लभ धन्धे से ताल्लुक रखता है जो हिन्दुस्तान में अभी ढंग से जाना पहचाना नहीं जाता लेकिन ऊपर वाले की मेहरबानी है कि दिल्ली शहर में खास इस धंधे की वजह से ही आपके खादिम की अच्छी खासी पूछ है । प्राइवेट डिटेक्टिव के धंधे में मेरा दर्जा दरअसल अंधों में काना राजा वाला है । अगर मैं काबिल नहीं तो मुझ से ज्यादा काबिल भी कोई नहीं ।
ड्रिंक्स की एक ट्राली धकेलती हीरा वापिस लौटी ।
मैंने देखा कि उसने नाइटी की जगह शलवार कमीज पहन ली थी जिसमें उसका जिस्म और भी कसा हुआ लगता था ।
वो ड्रिंक्स बनाने लगी ।
मैंने आंख भरकर उसे देखा ।
मेरी पसन्द की हर चीज थोक के भाव मौजूद थी कमबख्त में : लम्बा कद । छरहरा बदन । तनी हुई सुडौल छातियां । भारी नितम्ब । लम्बे, सुडौल, गोरे चिट्टे हाथ पांव । गुलाब की पंखुड़ियों जैसे होंठ, हिरणी जैसी आंखें । सुराही जैसी गरदन, रेशम से मुलायम खुले, काले बाल । हर चीज फिट । हर बात काबिलेतारीफ कहीं कोई नुक्स था तो वो उसकी नीयत में था । नीयत के मामले में वो ऐसी मकड़ी की तरह थी जो अपने शिकार को अपने जाल में फांस कर घुट-घुट कर मरने के लिये छोड़ देती थी । ऐसा जादू था उसका कि उसका शिकार अपनी ऐसी मौत को अपना परमसौभाग्य समझता था ।
उसके जाल में फंसा ऐसा ही एक भुंगा आजकल आपका खादिम भी था ।
मैंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि औरतों को फंसाने के मामले में इंगलैंड, अमरीका तक मशहूर आपका यह गोल्डमैडलिस्ट खादिम भी कभी किसी औरत के फंसाये फंस सकता था । लेकिन इस बार तो ऐसा हो ही गया था । जरूर हीरा नाम की हीरे जैसे कठोर दिल वली वो औरत कोई जादूगरनी थी ।
और ब्लैकमेलर ।
“पोशाक क्यों बदल ली ?”
उसने गर्दन घुमाकर अर्धनिमीलित नेत्रों से मेरी तरफ देखा और फिर बड़े कुटिल भाव से बोली - “तुम्हारी भलाई के लिये ।”
“म-मेरी भलाई के लिये ?”
“और नहीं तो क्या ! अब तुम उस मकसद से तो आये नहीं हो । मैं उसी पोशाक में रहती तो तुम्हें याद रह पाता अपना यहां आने का असल मकसद ?”
“ओह !”
उसने मुझे जाम पेश किया ।
हम दोनों ने जाम टकराये ।
“यहां” - मैं स्काच विस्की चुसकता हुआ बोला - “अकेले तुम्हें डर नहीं लगता ?”
“मैं अकेली कहां हूं यहां ?” - वो बोली ।
“जब अकेली होती हो तो तब डर नहीं लगता ?”
“मैं कभी अकेली होती ही नहीं यहां ।”
“मेरे आने से पहले तो अकेली थी ?”
“वो इसलिये क्योंकि तुम आने वाले थे । यहां कोई और भी मौजूद होता, ये तुम्हें पसन्द आता ?”
“नहीं ।”
“सो देयर यू आर ।”
“कभी उससे डर नहीं लगता जो तुम्हारे साथ होता है ?”
“जैसे इस वक्त तुम मेरे साथ हो ?”
“मान लो कि हां ।”
“तुम्हें मेरे से डर नहीं लगता ?”
“ओह ! तो तुम्हारा मतलब है कि यहां की तनहाई में तुम्हारे साथी को तुमसे डरना चाहिये न कि तुम्हें उससे ?”
“बिल्कुल ।”
“इतनी दिलेरी अच्छी नहीं होती, बहन जी ।”
“बहन जी !” - वो हंसी ।
मैंने हड़बड़ा कर विस्की का एक और घूंट हलक से उतारा और सिगरेट का कश लगाया ।
“अब बोलो क्या बात है ?” - वो बोली - “क्यों ऐसे शख्स जैसी सूरत बनाये हुए हो जिसकी बीवी सुहागरात को यार के साथ भाग गयी हो ?”
“हीरा ।” - मैं बड़ी संजीदगी से बोला - “कौशिक आज मेरे पास आया था ।”
“कौशिक !” - वो सहज भाव से बोली - “कैसा है वो ?”
“तुम्हें नहीं मालूम ?”
“नहीं मालूम । मुझे तो वो बहुत अरसे से नहीं मिला ।”
“अच्छा !”
“हां । कैसा है वो ?”
“बहुत हलकान । बहुत परेशान । बहुत नाखुश ।”
“मेरे से तो नहीं होना चाहिये । मैंने तो कभी कोई कसर उठा नहीं रखी उसे खुश करने में । अलबत्ता पिछली बार मिला था तो काफी उखड़ा-उखड़ा मिला था । लेकिन तुम अपनी कहो । तुम यहां कोई कौशिक का मिजाज डिसकस करने थोड़े ही आये हो ?”
“इसी वजह से आया हूं ।”
“कौशिक का मिजाज डिसकस करने ?” - वो हैरानी से बोली ।
“और और भी बहुत कुछ डिसकस करने ।”
“मसलन किस बाबत ?”
“मसलन ब्लैकमेल की बाबत ।”
“मेरा ब्लैकमेल से क्या लेना-देना ?”
“तुम्हारा ही लेना-देना है । बल्कि लेना ही लेना है ।”
वह खामोश रही ।
“ब्लैकमेल की कहानी कहने वाला कौशिक इकलौता शख्स नहीं है । वही कहानी पचौरी की भी जुबान पर है । दो जनों से तो मेरी सीधे बात हुई है । और पता नहीं कितने होंगे जिन्होंने अभी तक जुबान नहीं खोली या जिन्हें मैं जानता नहीं । लेकिन तुम तो सब जानती हो !”
“काजी दुबला” - वो व्यंययपूर्ण स्वर में बोली - “शहर के अन्देशे ।”
“ये काजी शहर के अन्देशे दुबला होने वाला नहीं है, स्वीटहार्ट । इसे अपने अंदेशे दुबला होना पड़ रहा है । मुझे कौशिक और पचौरी की जुबानी मालूम हुआ है कि तुम उनको धमकाने के लिये मेरा नाम यूं इस्तेमाल कर रही हो जैसे तुम्हारे ब्लैकमेलिंग के धंधे में मैं तुम्हारा पार्टनर हूं । तुम उन पर ऐसा जताती हो जैसे उन्होंने तुम्हारी ब्लैकमेलिंग की मांग मंजूर न की तो कोहली - मैं, तुम्हारा पट्ठा - उन्हें एक्सपोज कर देगा ।”
“तुम” - वो फिर इठलाई - “नहीं हो मेरे पट्ठे ?”
“ये मजाक का मुद्दा नहीं है हीरा । अभी मेरे इतने बुरे दिन नहीं आये कि मुझे किसी औरत का पट्ठा बनना पड़े ।” '
“बात किसी औरत की नहीं” - उसने जोर की अंगड़ाई ली - “इस औरत की हो रही है ।”
“हीरा प्लीज !”
“गिलास खाली करो ।”
“मैंने विस्की का आखिरी घूंट पीकर गिलास उसे थमा दिया । उसने अपना भी गिलास खाली किया और नये जाम बनाने लगी ।
जाहिर था कि उस घड़ी हीरा का शराब पर - और अपने शबाब पर - बेतहाशा जोर इसलिये था क्योंकि वो ब्लैकमेल के मुद्दे को और उस सन्दर्भ में कौशिक और पचौरी के जिक्र को टालना चाहती थी । एकबारगी तो मैंने सोचा कि क्यों न मैं उसी की रौ में बहना शुरू कर दूं । यूं मैं उसकी मदहोशी का फायदा उठा सकता था और यूं मुझे वहां उसके निजी कागजात वगैरह को टटोलने का मौका मिल सकता था । पचौरी ने एक डायरी का जिक्र किया था जिसमें कि वो अपने क्लायंटों का कच्चा चिट्ठा नोट करके रखती थी । अगर वही उसके ब्लैकमेलिंग का हथियार था तो उस रात वो डायरी मेरे हाथ लग सकती थी ।
लेकिन फौरन ही वो ख्याल मैंने अपने जेहन से झटक दिया ।
डायरी का क्या था, उसके चोरी चले जाने की खबर लगने के बाद वैसी डायरी वो फिर लिख सकती थी और उस बार उसके वैसी कोशिश करने पर उसकी याददाश्त पहले से ज्यादा गुल खिला सकती थी और पहले से ज्यादा घातक बातें सोच या गढ़ सकती थी ।
मैंने नया सिगरेट सुलगा लिया ।
“क्या नीरस बातें ले बैठे ?” - वो मुझे गिलास वापिस थमाती हुई बोली - “ये आधी रात की तनहाई में हीरा से करने की बातें हैं ? तुम तो यूं पेश आ रहे हो जैसे हीरा हीरा ना हो रेत का बोरा हो ।”
उसने फिर अंगड़ाई ली ।
“हीरा !” - मैं जबरन उसे न देखने की कोशिश करता हुआ बोला - “मुझे ये कबूल नहीं, मुझे ये पसन्द नहीं कि तुम्हारे नापाक इरादों में मैं भी शरीक समझा जाऊं ।”
“तुम कहां हो शरीक ?”
“नहीं हूं लेकिन मेरी भरपूर कोशिशों के बावजूद उन दोनों में से किसी को भी मेरी बात पर यकीन नहीं आया है ।”
“लेकिन तुम्हें उनकी बात पर यकीन है ?”
“किस बात पर ?”
“इस बात पर कि मैं उन्हें ब्लैकमेल कर रही हूं ?”
“हां । यकीन है मुझे ।”
“यानी कि तुम्हारी निगाह में वो दोनों मेरे से ज्यादा काबिले-एतबार शख्स हैं ?”
“नहीं । लेकिन कम से कम इस मामले में मुझे उनकी बातों पर फिर भी यकीन है । वो कोई मेरे जिगरी दोस्त नहीं, सच पूछो तो तुम्हारी वजह से उन्हें तो मेरे से हैलो कहना गवारा नहीं । अपना रकीब मानते हैं वो मुझे । ऐसा कोई शख्स जब कोई बात कहने के लिये खास चलके मेरे पास आता है तो उसकी बात पर यकीन करना ही पड़ता है ।”
“कौन खास चलकर आया था ?”
“दोनों । पचौरी आज शाम नेहरू प्लेस मेरे आफिस पहुंच गया था और आफिस से जब मैं ग्रेटर कैलाश अपने घर पहुंचा था तो कौशिक मुझे अपने फ्लैट के दरवाजे पर धरना दिये बैठा मिला था ।”
“ओह !”
“हीरा, तुम बहुत खतरनाक खेल खेल रही हो ।”
उतने एक दर्शनी जमहाई ली ।
“ठीक है, अगर तुम्हें खतरनाक खेल खेलना आता है तो खुशी से खेलो लेकिन तुम लोगों को ये कहती फिरो कि उस खेल में मैं तुम्हारा पार्टनर हूं ये नहीं चलने का । अपने कुकर्मो में तुम मेरा नाम लपेटो, ये मैं नहीं होने दूंगा ।”
“कैसे रोकोगे मुझे ?” - वो तीखे स्वर में बोली ।
“कई तरीके हैं । कई तो बहुत आसान हैं । हींग लगे न फिटकरी रंग चोखा वाली किस्म के ।”
“मसलन ?”
“मसलन मैं तुम्हारी रिपोर्ट इन्कम टैक्स विभाग में कर सकता हूं । एक बार इन्क्म टैक्स वालों की पूछताछ शुरू हो गयी तो अपने इस वैभवशाली रहन-सहन की सफाई देना तुम्हारे लिये बहुत मुश्किल हो जायेगा ।”
“ऐसा तुम करोगे ?”
“मजबूरन ।”
“लेकिन करोगे ?”
“मैं नहीं चाहता कि ऐसी नौबत आये...”
“साफ जवाब देना नहीं सीखे मालूम होते ।”
मैं खामोश रहा ।
कुछ क्षण वो भी खामोश रही और फिर बोली - “फार्म मेरा नहीं है ।”
“मुझे कहना आसान है । मुझे तो ये भी कहना आसान होगा कि बाहर खड़ी नयी मारुति -1000 तुम्हारी नहीं है, यहां का कीमती फर्नीचर, शानोशौकत का स्काच विस्की जैसा बाकी साजोसामान । कुछ तुम्हारा नहीं है लेकिन इन्कम टैक्स वालों को ये कहना आसान न होगा ।”
“सुधीर कोहली ।” - वो तिरस्कारपूर्ण स्वर में बोली - “तुम ऐसा इसलिये कह रहे हो क्योंकि तुम अपनी और मेरी औकात एक करके आंक रहे हो ।”
“तुम आसमान से उतरी हो ?”
“हां । अभी पिछली ही बार जब मैं तुम से तुम्हारे फ्लैट पर मिली थी तो तुम मुझे परी बता रहे थे । परियां तो आसमान से ही उतरती हैं ।”
“मजाक मत करो ।”
“तो संजीदा बात सुनो । तुमने सैंया भये कोतवाल वाली मसल सुनी है ?”
“क्या मतलब ?”
“मुझे कम न समझो, सुधीर कोहली । सरकार के घर में मेरी बहुत भीतर तक पैठ है ।”
“ओह ! तो ये बात है ?”
“हां, ये बात है । अव्वल तो ऐसी कोई बेहूदा इन्क्वायरी मेरी हो ही नहीं सकती, होगी तो शुरू होने से पहले खत्म हो जायेगी । ऐसा भी नहीं होगा तो मेरे खिलाफ अभी ऐसा एक भी कदम नहीं उठा होगा कि मुझे खबर लग जायेगी । तब कुछ नहीं मिलने वाला मेरे खिलाफ मेरी इन्क्वायरी करने वालों को ।”
“प्रास्टीच्युशन के बारे में क्या ख्याल है ?”
“क्या !”
“प्रास्टीच्यूशन । वेश्यावृत्ति । भारतीय दण्ड विधान में ये गम्भीर अपराध है । दिल्ली पुलिस को खुशी होगी तुम्हारे कारोबार की जानकारी पाकर ।”
“पुलिस मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकती । कोई मेरे करीब भी नहीं फटकेगा । फटकेगा तो मैं उसे तिगनी का नाच नचा के दिखाउंगी ।”
“ये तेवर हैं ?”
“हां ये तेवर हैं ।”
“क्योंकि सरकार के घर में तुम्हारी बहुत भीतर तक पैठ है ?”
“हां ।”
“कोई मन्त्री पट गया क्या ?”
वो खामोश रही ।
“कौन है वो बदनसीब ?”
“खुशनसीब ।”- वो तमक कर बोली ।
“वही सही लेकिन है कौन वो ?”
“तुम्हें बताना जरूरी है ? तुम्हारे सामने उसका नाम लेना जरूरी है ?”
“नहीं जरूरी । ऐन इसी तरह किसी के सामने मेरा नाम लेना भी जरूरी नहीं तुम्हारे लिये ।”
“अब इतनी भी फूंक न लो ।”
“मैं नहीं ले रहा फूंक । तुम ले रही हो । क्योंकि तुमने मेरे नाम को एक प्राइवेट डिटेक्टिव के नाम को - सुधीर कोहली के नाम को - फूंक लेने लायक बना दिया है । ये नाम कारआमद साबित हो रहा है, इसका यही काफी सबूत है कि लोग तुम्हारी ब्लैकमेलिंग की धमकी से उतने खौफजदा नहीं, जितने तुम्हारे साथ जुड़े इस नाम से खौफजदा हैं । वो समझते हैं कि मेरे जरिये तुमने उनकी बाबत और भी बहुत कुछ खोद निकाला है या आइन्दा दिनों में ऐसा कुछ कर गुजरने का इरादा रखती हो । तुम मेरा नाम यूं इस्तेमाल नहीं कर सकती ।”
“क्यों नहीं कर सकती ? तुम मुझे इस्तेमाल कर सकते हो, मैं तुम्हारा नाम इस्तेमाल नहीं कर सकती ?”
मेरे मुंह से बोल न फूटा ।
“अब चुप क्यों हो गये ?” - वो चैलेन्जभरे स्वर में बोली - “जवाब क्यों नहीं देते हो ?”
जवाब सोचने के लिये वक्त हासिल करने के लिये मुझे विस्की का घूंट पीना पड़ा सिगरेट का कश लगता पड़ा ।
“देखो ।” - मैं सावधानी से शब्द चयन करता हुआ बोला - “मेरी बात को पूरा संजीदा होकर सुनो और उस पर जरा ठन्डे दिमाग से गौर करो । जिस धंधे में तुम हो उसके सदके भी तुम कोई कम ऐश की जिन्दगी नहीं गुजार रही हो । तुम क्यों एक और भी बड़े क्राइम की राह पर चलना चाहती हो ? क्यों ब्लैकमेलिंग जैसे खतरनाक खेल का खिलाड़ी बनना चाहती हो ? हीरा, ये धंधा लम्बा चलने वाला नहीं होता ।”
“जिस धंधे में मैं हूं वो भी लम्बा चलने वाला नहीं होता ।”
“उसमें जान पर आ बनती है ।”
“इसमें भी जान पर आ बनती है ।”
“तुम समझती क्यों नहीं ?”
“मैं सब समझती हूं । तुम नहीं समझते हो । मैं आज तक मर्दों का खिलौना बनती आयी हूं । अब मैं मर्दों को अपना खिलौना बनाना चाहती हूं ।”
“ओह ! यानी कि तुम्हें दौलत की नहीं ताकत की चाह है !”
“दौलत की भी चाह है ।”
“दौलत से ज्यादा ताकत की चाह है । ताकत का नशा हावी है तुम पुर । दौलत और रसूख वाले लोगों के सिर अपने सामने झुके देखना चाहती हो, उन्हें ये जता कर सुख पाना चाहती हो कि अपनी ताकत के इस्तेमाल से तुम उन्हें बर्बाद कर सकती हो, ये साबित करके दिखाना चाहती हो कि भले ही उनके मुकाबले में तुम्हारी हस्ती मामूली है लेकिन तुम्हारी मामूली हस्ती के आगे उनकी अजीमोश्शान हस्ती भी कुछ नहीं ।”
“समझदार आदमी हो ।”
“तुम खता खाओगी ।”
“खता मैं खा चुकी । पहले । अब नहीं खाऊंगी ।”
“अब भी खाओगी ।”
“मेरा बुरा चाहने वाले के मुंह में खाक ।”
“हीरा, हुस्न और जवानी का साथ हमेशा का नहीं होता ।”
“मुझे मालूम है लेकिन मैंने उसका भी इन्तजाम सोचा हुआ है ।”
“क्या ?”
“मैं और हीरा पैदा करूंगी । मैं यहां अपनी देखरेख में इतने हीरे जमा करूंगी कि उनकी चकाचौंध किसी से नहीं झेली जायेगी ।”
“हीरा !” - मैने हैरानी से उसकी तरफ देखा - “कहीं तुम वही तो नहीं कह रही ही जो मैं समझ रहा हूं ।”
“मुझे क्या पता तुम क्या समझ रहे हो ।”
“तुम...तुम...चकला चलाने की फिराक में हो ? खुद बड़ी बाई बन कर ?”
“चकला एक बेहूदा लफ्ज है और बाई उससे भी बेहूदा ।”
“तुम प्रास्टीच्युशन का ओर्गेनाइज्ड रैकेट चनाना चाहती हो ? खुद मदाम बन के ?”
“तुम कल्पना नहीं कर सकते कि सिल्वर मून में मेरे साथ काम करती कितनी लड़कियां अपने आपको धन्य समझेंगी जबकि मैं उन्हें अपनी छत्रछाया में ले लूंगी । औरों की क्या कहूं, अपनी रूबी ही उस घड़ी का यूं इन्तजार कर रही है जैसे असल में उसकी जिन्दगी तो तभी से शुरू होने वाली हो ।”
मैंने हौलनाक निगाहों से उसकी तरफ देखा ।
“छूट गये छक्के !” - वो व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोली - “सुधीर कोहली, दि ओनली वन के भी ?”
“हीरा, मैं यहां तुम से तुम्हारे मुस्तकबिल के मंसूबे डिसकस करने नहीं आया । मैं यहां कौशिक और पचौरी की...”
“हिमायत करने आए हो !” - एकाएक उसका स्वर बेहद तल्ख हो उठा - “कोहली, जिन लोगों की तुम हिमायत कर रहे हो, किस कदर बेहतर हैं वो मेरे से ? कौन भलामानस है उनमें ? वो मोटा, ठिगना, सूअर जैसी थूथ वाला कौशिक जिसके दो बीवियों से सात बच्चे हैं, जिनसे निजात पाने के लिये वो महीने में तीन चक्कर लखनऊ से दिल्ली के लगाता है और जो पक्का ब्लैकमार्किटिया है ? या वो अपने आपको फिल्म स्टार समझने वाला बुढ़ाता हुआ प्लेबॉय पचौरी जो दुनिया की निगाह में पेटेंट अटोर्नी है लेकिन असल में फारेन करेन्सी का नाजायज धंधा करता है ? या वो तोन्दियल, टकला अस्थाना जो अपने आपको बिल्डिंग कांट्रेक्टर बताता है लेकिन असल में स्विस घड़ियों की स्मगलिंग करता है ? या वो लुकिंग लन्दन टाकिंग टर्की सरोश बैक्टर जो अपने आपको बताता गारमेंट एक्सपोर्टर है लेकिन जिसकी असली मोटी कमाई नकली स्काच विस्की के धंधे से है ? या वो तुम्हारा स्टाक ब्रोकर यार नरेन्द्र कुमार जो....”
“बस बस ।”
“क्या बस बस !”
“वो सब बड़े लोग हैं जिन्होंने सोसायटी में खूब तरक्की की है । कामयाबी उन लोगों के कदम चूमती है और....”
“सब मेरे पांव की जूती हैं । तुम भी ।”
“तुम उनकी तरक्की से, उनकी कामयाबी से, उनके हासिल की बुलन्दी से जलती हो । तुम उनकी बराबरी करना चाहती हो और अपने इस मिशन के लिये तुम ब्लैकमेल को अपना हथियार बना रही हो । लेकिन नहीं जानती हो कि ये दोतरफा वार करने वाला हथियार है जो किसी दूसरे पर चलाने की कोशिश में खुद तुम पर चल सकता है ।”
“मुझे अपनी परवाह नहीं ।”
“कहना इतना आसान न होता अगर तुम्हें ये मालूम होता कि कौशिक और पचौरी दोनों तुम्हें जान से मारने की धमकी दे रहे हैं ।”
“क्या !”
“तुम्हारा मुंह बन्द करने का उनके पास यही एक तरीका है ।”
तब पहली बार मुझे उसके चेहरे पर चिन्ता के भाव दिखाई दिये ।
कई क्षण खामोशी में गुजरे ।
उस दौरान उसने अपने गिलास में पहले से मौजूद विस्की में और विस्की डाल ली ।
“अब कुछ बोलो तो सही ।” - आखिरकार मैं बोला ।
“क्या बोलूं ?” - वो बोली ।
“क्या इरादा है ?”
“वही जो पहले था ।” - वो दिलेरी से बोली - “मैं हाथ आया सुनहरा मौका तुम्हारी बातों में आकर गंवाने वाली नहीं । दिन के उजाले में ही होते हैं ये लोग बड़े आदमी । रात के अंधेरे में हवस के मारे जब ये लोग मेरे पास आते हैं तो कुत्तों की तरह मेरे कदमों पर लोट रहे होते हैं और मेरी हर फटकार को, हर दुत्कार को सिर माथे ले रहे होते हैं क्योंकि इनकी बुढियाती बीवियों को अपनी किटी पार्टियों से फुर्सत नहीं होती, फुर्सत हो भी तो वो इनकी वो ख्वाहिशात पूरी नहीं कर सकती जिन के, अगर मेरे जैसी न हो, तो ये लोग सपने ही देखें ।”
“बदले में वो तुम्हारी मुंह मांगी फीस भी तो भरते हैं ।”
“वो फीस काफी नहीं । वो फीस ही नहीं । वो भूखे के सामने फेंका जाने वाला रोटी का टुकड़ा है । लेकिन अब टुकड़े से मेरा पेट नहीं भरने वाला । अब मुझे तर माल चाहिये जो मुझे न मिला तो...तो मैं सब को... सब को बर्बाद कर के रख दूंगी ।”
“मुझे भी ?” - मैं नकली हड़बड़ाहट जाहिर करता हुआ बोला ।
“नहीं” -वो नर्मी से बोली - “तुम्हें नहीं ।”
“मुझे क्यों नहीं ?”
“क्योंकि तुम्हारी बात और है ।”
“क्यों और है ?”
“तुम्हें मालूम है क्यों और है । क्योंकि मैंने कभी तुमसे सौदा नहीं किया । क्योंकि तुम मेरे बुरे वक्त के साथी हो । क्योंकि मुझे तुम पर एतबार है । अभी मुझे इन्कम टैक्स और पुलिस वालों की धमकियां देकर हटे हो, फिर भी मुझे तुम पर एतबार है । एक नम्बर के हरामी हो, फिर भी कौशिकों, पचौरियों अस्थानाओं के मुकाबले में राजा आदमी हो ।”
“तारीफ का शुक्रिया । लेकिन अगर मेरी वो बात भी मान लेतीं जो मैं कहने आया था तो मैं कहीं ज्यादा शुक्रगुजार होता ।”
“वो बात मैं नहीं मान सकती । अगर तुम चाहते हो कि मैं तुम्हें कान पकड़ कर यहां से बाहर न निकाल दूं तो ये टॉपिक यहीं खत्म कर दो ।”
“कर दिया ।”
“शाबाश । यानी कि जिस मकसद से आये थे वो तो निपट गया ।”
“हां ।”
“तो अब उस मकसद पर आयें जिस से नहीं आये हो ? फौरन जवाब देने की जरुरत नहीं । इत्मीनान से सोच लो जवाब ।” - उसने अपना गिलास खाली करके ट्राली पर रख दिया और उठ खड़ी हुई - “मैं अपने बैडरूम में जा रही हूं । बंगले में मेरा बैडरूम कहां है, तुम्हें मालूम है । मुझे नींद आने में दस मिनट लगते हैं । उतने वक्त में या मुझे तुम्हारी कार के स्टार्ट होने की आवाज सुनाई दे जाएगी या...”
उसने जानबूझ कर वाक्य अधूरा छोड़ दिया ।
***
दस मिनट से बहुत पहले मैं हीरा के बैडरूम में उसकी बांहों में था । उसने अपना शलवार सूट उतार कर नाइटी फिर से पहन ली थी । लेकिन वो झीनी सी नाइटी कब की उसके जिस्म से अलग होकर पलंग से नीचे जा गिरी थी और अब मेरे हाथ उसके जिस्म की विभिन्न गोलाइयों पर फिर रहे थे ।
“सुधीर ।” - वो बोली ।
“हां ।”
“एक बात की मेरी गारन्टी है ।”
“किस बात की ?”
“कोई लड़की तुम्हारी सूरत भूल जाये, तुम्हारी सीरत भूल जाये, तुम्हारा नाम भूल जाए, तुम्हारा काम भूल जाये, लेकिन तुम्हारे हाथ नहीं भूल सकती ।”
मैं खामखाह हंसा ।
कितनी औरतों का मानमर्दन कर चुके हो ?”
“तुम कितने मर्दों का गरुर तोड़ चुकी हो ?”
“सवाल के बदले में सवाल न करो, सवाल का जवाब दो ।”
“यही सवाल का जवाब है । लंका में सब बावन गज के । हमाम में सब नंगे ।”
वो फिर न बोली ।
फिर कोई एक घन्टा उस बैडरूम में औरत और मर्द के बीच खेला जाने वाला दुनिया का वो इकलौता खेल चला जिसमें हमेशा दोनों खिलाडियों की जीत होती है ।
फिर वो मेरी बांहों में सो गयी ।
मैंने एक सिगरेट सुलगा लिया और अन्धेरे में उसके छोटे छोटे कश लगाता हीरा के बारे में सोचने लगा ।
हीरा-हीरा ईरानी-कोई तेरह महीने पहले मुझे तब मिली थी जब मैं राजधानी एक्सप्रेस से बम्बई से दिल्ली आ रहा था । चेयर कार में उसकी सीट मेरी सीट के बगल में थी इसलिये अभी थोड़ा ही सफर कटा था कि हम दोनों में बातचीत का सिलसिला चल निकला था । उसने मुझे बताया था कि मूल-रूप से वो हैदराबाद की रहने वाली थी जहां से डेढ़ साल पहले फिल्म स्टार बनने के चक्कर में वो बम्बई आयी थी । बम्बई में फिल्म स्टार तो वो बन नहीं पायी थी, उलटे एक ऐसे गैंगस्टर की निगाहों में चढ़ गयी थी जो कि दाउद इब्राहीम का आदमी बताया जाता था । उसी गैंगस्टर ने उसको हासिल करने की कोशिश में ऐसा उसका जीना हराम किया था कि चुपचाप बम्बई छोड़ जाने में ही उसे अपनी भलाई दिखाई दी थी । बम्बई जैसी सम्भावनाओं वाला दूसरा महानगर उसे दिल्ली लगा था इसलिए उसने दिल्ली का रुख किया था जहां उसका अहमतरीन काम ये था कि उसने कोई काम तलाश करना था ।
तब उसने खुद ही बताया था कि वैस्टर्न स्टाइल के नृत्यों में वो प्रवीण थी ।
दिल्ली में हीरा को पहली कैब्रे असाइनमेंट आपके खादिम ने ही दिलवाई थी और ऐसा मेरी फ्रेंड और अब्बा की पाटर्नर आधी ग्रीक आधी हिन्दुस्तानी अप्सरा सिल्विया ग्रेको की सिफारिश से ही हो सका था । सिल्वर मून कोई बहुत हाईक्लास जगह नहीं थी । लेकिन फिर भी वहां अक्सर आने वाले चन्द बढ़िया ग्राहकों के जरिये वो बहुत जल्द दिल्ली की हाईक्लास सोसायटी मे जानी पहचानी जाने लगी थी । आखिरकार जिसका नतीजा ये हुआ था कि वो लिमिटेड क्लायंटेल वाली हाईप्राईस्ड कालगर्ल बन गई थी । अलबत्ता दिखावे के लिये, ओट के लिये अपना कैब्रे का कारोबार उसने जारी रखा था ।
ये उसकी मेहरबानी थी कि शहर के बहुत बड़े-बड़े लोगों की सहचरी बन चुकने के बाद भी उसने आपके खादिम से पल्ला झाड़ने की कोई कोशिश नहीं की थी । मेरा उस परीचेहरा औरत का साथ छोड़ने का तो कोई मतलब ही नहीं था क्योंकि आपके खादिम का तो हमेशा से ही यही नजरिया रहा है कि सूखे कुएं की मिल्कियत से बहती धारा की एक चौथाई की भागीदारी भी कहीं अच्छी होती है ।
सब कुछ अभी भी ठीक-ठाक ही चल रहा होता अगर फिल्म स्टार बनने की ख्वाहिशमंद वो लड़की नाकाम अभिनेत्री से कैब्रे डांसर, कैब्रे डांसर से कॉलगर्ल और कालगर्ल से ब्लैकमेलर बनने की न ठान चुकी होती ।
मेरे अलावा हीरा के जो चार और स्टैडी थे और जिनसे मैं वाकिफ था, वो थे: अम्बरीश कौशिक, प्रभात पचौरी, राकेश अस्थाना और सरोहा बैक्टर और अब वो - विद ऑर विदाउट युअर्स ट्रूली - सबको बरबाद कर देने पर आमादा थी । मुझे उसका वो कदम दौलत के लालच या ताकत की चाह से कहीं ज्यादा बदले की इस भावना से प्रेरित लगता था कि हर दौलतमंद शख्स उसकी विपन्नता की शुरूआती जिन्दगी के लिये जिम्मेदार था । उन लोगों के सांसत में पड़ने से जरूर उसे कोई अन्दरूनी खुशी हासिल होती थी । मैं क्योंकि उसका हितचिन्तक था इसलिये दिल से इस बात के लिये ख्वाहिशमन्द था कि वो वो खतरनाक, आत्मघाती रास्ता छोड़ देती जिस पर उसके कदम भी उठ चुके थे । उसका दो टूक जवाब सुन चुकने के बावजूद मुझे उम्मीद थी कि मैं उसे अक्ल से काम लेने के लिये मना सकता था लेकिन मुश्किल ये थी कि ये कोई फौरन हो सकने वाला काम नहीं था जबकि जिनके पीछे वो पड़ी हुई थी, वो फौरन कोई ऐसा कदम उठा सकते थे जो कि उसके लिये घातक साबित हो सकता था ।
मैंने एक गहरी सांस ली, सिगरेट का आखिरी कश लगाकर उसे साइड टेबल गर पड़ी ऐश ट्रे में झोंका और आंखें बन्द कर ली पता नहीं कब मैं नींद के हवाले हो गया ।
जब मेरी नींद खुली तो मैंने पाया कि पांच बजने को थे ।
मैंने सावधानी से पहलू बदलकर हीरा की ओर देखा । उस घड़ी उसकी नाइटी फिर उसके जिस्म पर थी जोकि उसने मेरे सो जाने के बाद रात को किसी वक्त पता नहीं कब पहन ली थी । वो गहरी नींद सोई हुई थी और उस घड़ी उसके चेहरे पर बच्चों जैसी निश्छलता थी ।
बावजूद उसके कालगर्ल के प्रोफेशन के ।
मुझे जाती तजुर्बे से मालूम था कि वो दस बजे से पहले सोकर नहीं उठती थी । बारह एक बज जाना भी कोई बड़ी बात नहीं थी ।
लेकिन दस से पहले उठने का तो कोई मतलब ही नहीं था ।
यानी कि बंगले की भरपूर तलाशी लेने के लिये मेरे पास पर्याप्त वक्त था ।
मैं हौले से पलंग पर से उतरा, मैंने करीब एक सोफाचेयर पर पड़े अपने कपड़े समेटे, फर्श पर से अपने जूते उठाये और फिर दबे पांव बाथरूम में दाखिल हो गया जहां कि मैंने बिना बत्ती जलाये अपने कपड़े पहनने आरम्भ किये ।
बाथ टब के किनारे पर बैठा मैं अपने जूते पहन रहा था जबकि मुझे वो आवाज सुनायी दी ।
एक दबी-सी आवाज जैसे कोई कमजोर पटाखा छूटा हो या दूर कहीं किसी कार ने बैकफायर किया हो ।
वो भोर से पहले का स्तब्ध वातावरण का वक्त न होता तो मुझे वो आवाज सुनाई ही न दी होती ।
फिर वैसी ही एक और आवाज ।
फिर किसी दरवाजे के चौखट से टकराने की आवाज ।
जोकि कहीं करीब से ही आई थी ।
क्या माजरा था ? कहां से आ रही थीं वो आवाजें ?
और वो पहली दो आवाजें जो एक के बाद एक करके हुई थीं, वो कैसी थीं ? पटाखा छूटने का वहां क्यां काम ? और सड़क तो वहां से इतनी दूर थी कि वहां की कोई आवाज बंगले तक पहुंचती ही नहीं थी ।
तो ! तो !
गोली !
ओह माई गॉड !
मैं हड़बड़ा कर उठा तो उसी हड़बड़ाहट में संगमरमर के फर्श पर मेरा पांव फिसल गया । मेरा सिर पीछे बाथ टब के उसी किनारे से टकराया जिस पर से कि मैं उठा था और फिर मेरी चेतना लुप्त हो गयी ।
पता नहीं कब मुझे होश आया ।
मैं कराहता हुआ उठकर अपने पैरों पर खड़ा हुआ । मेरा सिर चक्कर खा रहा था और खोपड़ी के पृष्ठभाग में कहीं खून धाड़ धाड़ बज रहा था । मैं कुछ क्षण दोनों हाथों से अपना सिर थामे याद करने की कोशिश करता रहा कि क्या हुआ था । मुझे सब कुछ याद आया तो मैं फौरन बाहर को लपका ।
बैडरूम में दाखिल होते ही मैं थमक कर खड़ा हो गया ।
तब तक बाहर उजाला हो चुका था इसलिये कमरे में मुकम्मल अन्धेरा नहीं था । उस नीमअंधेरे में भी मुझे साफ दिखाई दिया कि हीरा पलंग पर मरी पड़ी थी । उसकी बाईं छाती में गोली का सुराख दिखाई दे रहा था जिसमें से बह-बह कर खून ने उसकी नाइटी का तमाम सामने का हिस्सा लाल कर दिया हुआ था । गोली ऐन दिल पर लगी थी जो कि तत्काल मृत्यु का सबूत था ।
मैंने पलंग के पीछे की खिड़की खोल कर बाहर झांका ।
कहीं कोई नहीं था । हर तरफ पूरा सन्नाटा था ।
मैंने खिड़की के पहलू में बने स्विच बोर्ड पर निगाह डाली तो पाया कि बाहर के फाटक की बिजली से चलने वाली चाबी उस घड़ी ओपन पोजीशन पर थी ।
उस चाबी की तीन पोजीशन थी - एक ओपन जिस पर फाटक खुलता था, दूसरी क्लोज जिस पर फाटक बन्द होता था और तीसरी मैनुअल जिस पर फाटक का स्वचालित सिलसिला बंद हो जाता था और तब उसे धकेल कर भी खोला बन्द किया जा सकता था ।
यानी कि हत्यारे को भी बंगले से ही बाहर का फाटक खोलने के उस इंतजाम की खबर थी । वो वहां पहुंचा कैसे भी था, वहां से रुख्सत वो बाकायदा वहीं से फाटक खोलकर हुआ था ।
फिर मुझे ख्याल आया कि मैंने दो गोलियां चलने की आवाज सुनी थी । एक गोली ने तो मुझे दिख रहा था कि हीरा की छाती को निशाना बनाया था, दूसरी कहां गई थी ? हीरा के जिस्म में तो कहीं और गोली लगी दिखा दे नहीं रही थी ।
मैंने बैडरूम की सारी बत्तियां जला दी और रोशनी में बारीकी से दायें-बायें निगाहें फिराना शुरू किया ।
दूसरी गोली का सुराख मुझे उसकी लाश से एक फुट परे चादर में दिखाई दिया । गोली चादर में छेद बनाती मैट्रेस में दाखिल हो गयी थी ।
मैंने चादर हटाकर मैट्रेस में से गोली बरामद की और उसे अपने कोट की भीतरी जेब में रख लिया ।
अब मुझे उस खूनी वारदात की इत्तला पुलिस को देनी थी ।
अनायास ही मेरे कदम पलंग की परली तरफ साइड टेबल पर पड़े टेलीफोन की ओर बढ़ गये । फोन के करीब पहुंच कर मैंने उसकी तरफ हाथ बढ़ाया ही था कि एकाएक मैं ठिठक गया ।
कहीं मैं अनायास ही किसी जाल में तो नहीं फंसा जा रहा था ?
कौशिक और पचौरी दोनों को मालूम था कि पिछली रात मैं हीरा से मिलने उसके फार्म हाउस पर जाने वाला था और ऐसा मैं आधी रात से पहले नहीं करने वाला था क्योंकि हीरा उस रोज आधी रात से पहले सिल्वर मून में अपनी परफारमेंस खत्म करके वहां पहुंच नहीं पाने वाली थी । उन दोनों को ये भी खबर थी कि मेरे हीरा से कैसे ताल्लुकात थे इसलिये इतनी रात गये मैं वहां से शहर नहीं लौटने वाला था, उनका ये सोचेगा भी स्वाभाविक था । ऊपर से कौशिक ने मुझे आफर दी थी कि हीरा तो अभी उससे दो लाख रुपये ही मांग रही थी, अगर मैं उसका हीरा से पीछा छुड़वा देता तो वो मुझे उससे दुगुनी रकम देने को तैयार था । उन तमाम हालात में अब अगर मैं वहां लाश के करीब पाया जाता तो एक बच्चा भी यही नतीजा निकालता कि कत्ल मैंने ही किया था ।
जबकि कत्ल कौशिक और पचौरी में से किसी एक की या दोनों की जॉइंट करतूत हो सकती थी । उन हालात में वो पिछली रात मेरे हुई मुलाकात से और हमारे में हुई हर बात से मुकर सकते थे या उसे यूं पेश कर सकते थे जैसे मैंने चार लाख रुपये के इनाम के लालच में सच में ही हीरा का कत्ल कर दिया था ।
मैं टेलीफोन से यूं परे हटा जैसे दो आगे बढ़ के मुझे काट खा सकता हो ।
फिर मैंने अपना रुमाल निकाल लिया और हर उस जगह को पोंछना शुरू कर दिया जहां कि मेरे उंगलियों के निशान बने हो सकते थे । बैडरूम, उससे अटैच्ड बाथ और ड्राइंगरूम की हर वो जगह मैंने पोंछी जहां जाने अनजाने मेरा हाथ पड़ा हो सकता था ।
फिर मैंने उस डायरी की, या डायरी का मतलब हल करने वाले कागजात की, तलाश शुरू की जिसका पता नहीं कोई अस्तित्व था भी या नहीं ।
मैट्रेस वार्डरोब वगैरह टटोल चुकने के बाद मेरी तवज्जो बैडरूम के एक कोने में लगी एक राइटिंग टेबल की तरफ गयी ।
मैंने पाया कि दराजों का ताला मजबूती से बंद था लेकिन वो वाला हीरा के ही एक हेयर पिन से खोल लेना मेरे लिये कोई मुश्किल काम साबित न हुआ ।
एक दराज में से चमड़े की लाल जिल्द वाली एक डायरी बरामद हुई ! मैंने उस डायरी के चन्द पन्ने पलटे तो मैंने महसूस किया कि मेरी तलाश कामयाब रही थी ।
अन्य दो दराजों में से कुछ चिट्ठियां और कुछ कागजात बरामद हुए जिसका कि मुआयना करने का मेरे पास वक्त नहीं था । मैंने वहीं से एक बड़ा सा भूरा लिफाफा उठाया और डायरी और तमाम चिट्ठियां और कागजात उस लिफाफे में भर लिये ।
और कहीं से मुझे कुछ न मिला ।
फिर लिफाफा सम्भाले मैं खामोशी से वहां से बाहर निकला और जाकर अपनी कार में सवार हो गया ।
तब तक सूरज निकल आया था और वातावरण में धूप फैलने लगी थी ।
कार को मैंने ड्राइव वे पर दौड़ा दिया ।
जैसा कि अपेक्षित था बाहरला फाटक खुला था ।
फाटक पार करके मैं बाहर सड़क पर आ गया । फाटक पीछे खुला रहना ठीक नहीं था लेकिन उस बाबत मैं कुछ कर भी तो नहीं सकता था । उसको बंद करने के लिये जो बिजली का स्विच चलाना पड़ता था वो तो भीतर हीरा के बैडरूम में था ।
मैं बंगले में वापिस जाकर फाटक की चाबी को मैनुअल पोजीशन पर सैट कर सकता था लेकिन अब लौटना मुझे मुनासिब न लगा । उस चाबी का मुझे बंगले में ही ख्याल आ जाता तो मैं चाबी को मैनुअल पर सैट करके ये सहज इंतजाम कर सकता था कि वहां से रुख्सत होते वक्त मैं फाटक बन्द करके जाता ।
खामोशी से कार चलाता मैं मेन रोड पर पहुचा । मैं खुश था कि तब तक के सारे रास्ते मुझे कोई वाहन या पैदल चलता व्यक्ति नहीं मिला था । मेन रोड पर ट्रैफिक था लेकिन अब कोई यह नहीं कह सकता था कि मेरी कार शुक्ला फार्म्स से वहां पहुंची थी ।
निर्विघ्न मैं ग्रेटर कैलाश में स्थित अपने फ्लैट पर पहुंच गया ।
वहां मैने भूरे लिफाफे को एक वाटरप्रूफ थैले में बन्द किया और उसे अपनी ओल्ड फेथफुल जगह में छुपा दिया ।
वो जगह थी टायलेट में पानी की टंकी के ढक्कन का भीतरी भाग जिस पर कि मैंने लिफाफा टेप की सहायता से बड़ी मजबूती से चिपका दिया ।
मेरी बहुत इच्छा थी कि उस डायरी को और उन कागजात को मैं पहले पढ़ता लेकिन उस घड़ी मुझे उन्हें फौरन छुपा देना ही श्रेयस्कर लगा था । वो बहुत सारा रीडिंग मैटीरियल था और उन्हें मुकम्मल पढना कई घंटो का प्रोजेक्ट था जबकि मौजूदा हालात में मुझे टाइम पर अपने ऑफिस में पहुंच जाना बहुत जरूरी लग रहा था । यूं सब कुछ सहज स्वाभाविक और मेरी रोजमर्रा की रुटीन के मुताबिक हुआ मालूम होता ।
मैं शेव स्नान वगैरह से निवृत्त हुआ और मैंने नया सूट पहना । फिर मैंने अपने लिये आमलेट और काफी का ब्रेकफास्ट तैयार किया और उसे उदरस्थ करके वहां से बाहर निकला ।
मेरा आफिस करीब ही नेहरू प्लेस में था जहां के लिये मैं अपनी कार पर रवाना हुआ ।
रास्ते में मेरी तवज्जो फिर हीरा के कत्ल की तरफ गयी ।
एक बात तो निश्चित थी । अगर हत्यारा कौशिक और पचौरी के अलावा कोई था तो उसने यही समझा था कि हीरा अपने फार्म हाउस पर अकेली थी । अगर हत्यारे को जरा भी अन्देशा होता कि वहां उसके साथ कोई और - आपका खादिम - मौजूद था तो या तो उसने कत्ल का प्रोग्राम मुल्तवी कर दिया होता और या फिर हीरा के साथ-साथ उसके मेहमान को भी खत्म कर दिया होता ।
चलाई गयी दो गोलियों में से एक का निशाने पर न लगना ये साबित करता था कि या तो हत्यारा बहुत घबराया हुआ था और या फिर गोली चलाने के मामले में वो निपट अनाड़ी था ।
एक और ख्याल मुझे बार-बार साल रहा था ।
फार्म हाउस पर बरती अपनी तमाम सावधानियों के बावजूद मैं कौशिक और पचौरी के रहमोकरम पर था । अनायास ही मेरी लगाम उन दोनों के हाथों में आ गयी थी जिसे कि वो जब चाहते खींच सकते थे । अब उस जंजाल से मेरी जान भूरे लिफाफे के कागजात ही निकाल सकते थे बशर्ते कि उनमें कौशिक और पचौरी के खिलाफ बहुत ही ज्यादा खतरनाक बातें दर्ज होतीं । फिर मैं ईंट का जवाब पत्थर से देने की स्थिति में आ सकता था ।
कैसे आ सकता था ? - तत्काल मेरी अक्ल ने जिरह की ।
उन कागजात को हथियार के तौर पर इस्तेमाल करना तो ये कबूल करना होता कि कागजात मेरे पास थे ।
नहीं, नहीं । उन कागजात की मेरे पास से बरामदी तो मेरे खिलाफ जा सकती थी । तब तो ये सिद्ध हो सकता था कि उन कागजात को हथियाने के लिये ही मैंने हीरा का खून कर दिया था क्योंकि अपने जीते जी तो वो वो कागजात किसी को सौंपने वाली नहीं थी ।
तौबा ! किस जंजाल में फंस गया था मैं !
ये उम्मीद करता मैं नेहरू प्लेस में एक बहुखण्डीय इमारत की चौथी मंजिल पर स्थित यूनीवर्सल इनवैस्टिगेशंस के नाम से जाने जाने वाले अपने ऑफिस में पहुंचा कि उन कागजात का गम्भीर अध्ययन ही मुझे उस जंजाल से निकलने का कोई रास्ता सुझा सकता था ।
आफिस खुला था और ताजे खिले गुलाब जैसी तरोताजा मेरी सैक्रेट्री रजनी आफिस के बाहरले कक्ष में रिसैप्शन डैस्क पर मौजूद थी ।
मेरे पर निगाह पड़ते ही उसके चेहरे पर सख्त हैरानी के भाव आये ।
टाइम पर कभी दफ्तर आता जो नहीं था मैं । टाइम पर क्या, मैं तो कई-कई बार कदम ही नहीं रखता था वहां ।
रजनी एक खूबसूरत, भलीमानस, नेकनीयत लड़की थी जिसके चेहरे पर ताजगी और कुलीनता की ऐसी चमक हमेशा दिखाई देती थी जैसी आजकल की लड़कियों में देखने को नहीं मिलती । मैं अपने दायें हाथ बिना अपनी कल्पना कर सकता था लेकिन रजनी बिना नहीं । इतनी खूबियां थीं उसमें ।
लेकिन एक खराबी भी थी ।
शरीफ लड़की थी ।
नहीं जानती थी कि शराफत और वरजिनिटी दोनों ही शहरी लड़कियों में आउट आफ फैशन हो चुकी थीं ।
“क्या बात है ?” - प्रत्यक्षत: मैं बोला - “तू तो यूं हैरान हो रही है जैसे एकाएक मेरे सिर पर सींग निकल आये हों ?”
“सींग निकल आये होते” - वो अपना निचला होंठ दबाकर बड़े कुटिल भाव से हंसती हुई बोली - “तो इतना हैरान न होती ।”
“अच्छा !”
“हां । याद करने की कोशिश कर रही हूं कि आज से पहले कब आप अपने आफिस में टाइम से पधारे थे ?”
“याद आया ?”
“अभी तो नहीं । लम्बी तहकीकात का मसला है । हफ्ता दस दिन तो लग ही जायेंगे ।”
“कतरनी बहुत चलती है तेरी । ब्रेकफास्ट में ब्लेड खाती है क्या ?”
“आप अन्तर्यामी हैं ।”
“यानी कि सच में ही ब्लेड खाती है ।”
“अब ये तो बताइये आये कैसे ?”
“अरे, आफिस मेरा है । अपने आफिस में आने की मुझे वजह बतानी होगी ?”
“सुबह सवेरे कैसे आये ?”
“ये देखने आया कि तू अपने ब्वाय फ्रेंड को साथ ही तो नहीं ले के आती ।”
“बस सिर्फ आज ही ऐसा न कर सकी ।”
“एक नम्बर की कमबख्त औरत है तू । किसी बात से शर्मिन्दा होना नहीं सीखी । अब खबरदार जो ये कहा कि तू औरत नहीं है, कमबख्त नहीं है ।”
वो निचला होंठ दबाकर हंसी ।
“अब बोलिए” - फिर वो बोली - “मैं आपकी क्या खिदमत करूं ?”
“एक पप्पी दे ।”
“मेरा सवाल चाय पानी की बाबत था । कुछ ठण्डा या गर्म..”
“एक गर्मागर्म पप्पी दे ।”
“बर्दाश्त कर सकेंगे ?”
“क्या ?”
“गर्मागर्म पप्पी । दाढ में जो सोने की फिलिंग है, वो पिघल के मुंह में आ जायेगी ।”
“तौबा ! क्या समझती है अपने आप को ?”
“वही जो मैं हूं । आपकी सैक्रेट्री ।”
“लेकिन सैक्रेट्री की ड्यूटीज नहीं समझतीं ! इतना अरसा यहां नौकरी कर चुकने के बाद भी सैक्रेट्री की ड्यूटीज नहीं समझती । नहीं जानती कि सेक्रेट्री की एक ड्यूटी ये भी होती है कि वो अपने साहब की गोद में बैठे और उसे पप्पी दे ।”
“फिर पहुंच गये एक आने वाली जगह पर ।”
मैं हंसा ।
वो भी हंसी ।
“एक बात बता ।” - “फिर मैं बोला - “कभी शादी के बारे में सोचा ?”
“बहुत बार सोचा ।” - वो बोली ।
“तो करती क्यों नहीं ?”
“जल्दी क्या है ?”
“जल्दी क्या है ! अरे एक तो हिन्दुस्तान में औरतें पहले ही कम हैं । हजार के पीछे सिर्फ नौ सौ उन्तीस । यानी कि इकहत्तर मर्दों का भविष्य इस मामले में अधर में । ऊपर से तू किसी मर्द मानस का हक दबाये बैठी है । ये शराफत है तेरी ?”
“इतने गूढ़ ज्ञान वाली बातें समझने के लिये मेरे पास दिमाग नहीं है ।”
“दिमाग होता तो जीनियस होती । मेरे जैसी ।”
“मैं इंसान ही ठीक हूं ।”
“अच्छा ! यानी कि मैं इंसान नहीं हूं ?”
“अभी आपने खुद ही तो कहा कि आप जीनियस हैं ।”
“जीनियस इंसान नहीं होता ?”
“ये एक मुश्किल सवाल है । मैं जरा सोच के जवाब दूंगी ।”
“ठीक है । सोच ले । अपने सारे बॉय फ्रेंड्स से भी मशवरा कर ले । मुझे जवाब की कोई जल्दी नहीं है । शाम तक भी जवाब दे देगी तो चलेगा ।”
“शाम तक सारे बॉय फ्रेंड्स से तो मशवरा मैं नहीं कर सकूंगी ।”
“लानत !”
भुनभुनाता हुआ मैं अपने कक्ष में पहुंचा और अपनी एग्जीक्यूटिव चेयर पर ढेर हो गया । मैंने एक सिगरेट सुलगा लिया और हीरा के कत्ल की बाबत सोचने लगा ।
मेरा दोस्त इन्स्पेक्टर देवेन्द्र कुमार यादव फ्लाइंग स्कवाड के उस स्पेशल दस्ते से सम्बद्ध था जो केवल कत्ल के केसों की तफ्तीश के लिये जाता था । लिहाजा उसकी खबर लेने से भी मुझे पता लग सकता था कि हीरा के कत्ल की खबर अभी पुलिस तक पहुंची थी या नहीं ।
मैंने फोन अपनी तरफ घसीट लिया और उस पर इन्स्पेक्टर यादव के आफिस का नम्बर डायल किया । सम्पर्क स्थापित हुआ तो मैं बोला - “इन्स्पेक्टर यादव प्लीज ।”
“वो नहीं हैं ।” - एक अपरिचित आवाज ने उत्तर दिया ।
“कहां गये हैं ?”
“पता नहीं ।”
“मेरा मतलब है अगर किसी केस की तफ्तीश पर गये हैं तो....”
“वो किसी केस की तफ्तीश पर न गये हैं और न फिलहाल जायेंगे ।”
“क्या मतलब ?”
“वो सस्पैंड होने वाले हैं ।”
“क्या !”
“आप कौन ?”
“मैं उनका फ्रेंड हूं । सुधीर कोहली नाम है और..”
“वो दिखे तो खबर कर दी जायेगी ।”
“आप कौन बोल रहे हैं ?”
“सब-इन्स्पेक्टर मकबूल सिंह ।”
“मकबूल सिंह जी, अगर आप मेरी बात ए एस आई कृपाल सिंह से करा सकें.....”
“वो ए सी पी तलवार साहब के साथ फील्ड में गया है ।”
“ए एस आई रावत हो ?”
“वो भी तलवार साहब के साथ है ।”
“सिपाही अनन्त राम ?”
“इन्स्पेक्टर यादव का सारा स्टाफ तलवार साहब के साथ गया है ।”
“यादव का कामकाज अब कौन देखता है ?”
“फिलहाल खुद ए सी पी साहब । यादव साहब सस्पैंड हो गये तो” - उसके स्वर में गर्व का पुट आ गया - “शायद मैं देखूं ।”
“ओके । थैंक्यू ।”
मैंने धीरे से रिसीवर क्रेडल पर रख दिया ।
ए सी पी शैलेश तलवार से मैं वाकिफ था । वो आई पी एस आफिसर था और दिल्ली पुलिस में ए सी पी की पोस्ट पर सीधा भरती हुआ था । वो कोई तीसेक साल का सुन्दर युवक था जो वर्दी में न हो तो पुलिसिया कतई नहीं लगता था । महकमे में वो इन्स्पेक्टर यादव का इमीजियेट बॉस था ।
तलवार से मेरी मुलाकात कोई दो महीने पहले एक पार्टी में हुई थी जोकि मेरे स्टाक ब्रोकर दोस्त नरेन्द्र कुमार ने अपनी राजपुर रोड वाली कोठी पर दी थी । उस पार्टी में हीरा भी आमन्त्रित थी । नरेन्द्र कुमार ने पहले मेरा परिचय हीरा से कराया था और ये जानकर बहुत हैरान हुआ था कि मैं हीरा से पहले से वाकिफ था । तब नरेन्द्र कुमार ने ही मुझे शैलेश तलवार से मिलवाया था और बताया था कि वो दिल्ली पुलिस में ए सी पी था - अलबत्ता तब मुझे ये नहीं मालूम था कि वो महकमे में यादव का इमीजियेट बॉस था ।
मैंने सिगरेट को ऐश ट्रे में झोंका और टेलीफोन डायरेक्ट्री निकाली । उसमें मैंने दिल्ली पुलिस की प्रविष्टियों में ए सी पी शैलेश तलवार का नम्बर तलाश किया । मैंने उस नम्बर पर फोन किया तो जवाब किसी स्त्री स्वर में मिला ।
“हम टाइम्स आफ इण्डिया के आफिस से बोल रहे हैं” - मैं बोला - “हमारे एडीटर साहब ए सी पी तलवार साहब से बात करना चाहते हैं ।”
“साहब इस वक्त फील्ड में हैं ।”
“कब लौटेंगे ?”
“पता नहीं ।”
“बात बहुत जरूरी है । ये बता सकती हैं कि वो फील्ड में कहां हैं ?”
“छतरपुर ।”
“छतरपुर में कहां ?”
“वहां शुक्ला फार्म्स करके एक फार्म हाउस है । वहां एक कत्ल हो गया है ।”
“हे भगवान ! किस का ?”
“हीरा ईरानी नाम की एक कैब्रे डांसर का । साहब उसी के कत्ल की तफतीश के लिये गए हैं ।”
“कितना अरसा हुआ कत्ल की खबर लगे ?”
“दो घण्टे ।”
मैंने हौले से सम्बन्ध विच्छेद कर दिया और वाल क्लॉक पर निगाह डाली ।
सवा नौ बजे थे ।
यानी कि सवा सात बजे के करीब पुलिस को हीरा के कत्ल की खबर लग भी चुकी थी ।
सात बजे तक तो खुद मैं ही वहां था !
यानी कि जिस किसी ने भी लाश बरामद की थी, उससे आमना सामना हो जाने से मैं बाल-बाल ही बचा था ।
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