“आपका नाम वीरप्पा है ?”
वीरप्पा ने एक खोजपूर्ण दृष्टि प्रश्नकर्ता पर डाली ।
वह लगभग तीस साल का एक सुन्दर युवक था । उसके बाल बिखरे हुए थे और आंखों पर मोटे शीशों का चश्मा लगा हुआ था । वह एक सूती बुशशर्ट और पतलून पहने हुए था । वीरप्पा को अपनी ओर देखते पाकर उसने बड़े नर्वस ढंग से दायें हाथ से अपना चश्मा उतारा, उसी हाथ की पीठ को अपनी आंखों पर रगड़ा और चश्मा दोबारा अपनी नाम पर‍ टिका लिया ।
“मेरा ही नाम वीरप्पा है ।” - वीरप्पा सहमतिसूचक ढंग से सिर हिलाता हुआ बोला ।
“मेरा नाम गिरीश है ।” - चश्मे वाला युवक बोला - “राजाराव ने आपको मेरे बारे में बताया होगा !”
“हां बताया था । फरमाइये ?”
युवक ने अपने आसपास दृष्टि दौड़ाई । वह ज्वैलरी का एक विशाल शोरूम था । संयोगवश उस समय काउन्टर के दूसरे सिरे पर केवल एक ही ग्राहक मौजूद था जो कि एक अधेड़-सी उम्र की महिला थी । काउन्टर के पीछे वीरप्पा के अतिरिक्त दो और सेल्समैन थे । उनमें से एक बोर होता हुआ जमहाईयां ले रहा था और दूसरा उस अधेड़ उम्र की महिला को अटैण्ड कर रहा था ।
युवक हिचकिचाया, फरमाने के लिए वह उचित स्थान नहीं था ।
वीरप्पा ने उसकी हिचकिचाहट भांप ली ।
“मेरे साथ आइये ।” - वह बोला ।
वीरप्पा उसे काउन्टर के पीछे के एक छोटे से कमरे में ले आया । उसने कमरे का दरवाजा भीतर से बन्द कर लिया ।
“अब फरमाइये ।” - वीरप्पा बोला ।
युवक ने सच्चे मोतियों का एक शानदार हार निकालकर वीरप्पा के सामने रख दिया ।
हार पर निगाह पड़ते ही वीरप्पा के नेत्र फैल गये । उसने हार उठा लिया और एक पारखी की निगाह से उसे अपने हाथों में उलटने-पलटने लगा ।
“हूं ।” - कई क्षण बाद वह बोला - “कीमती चीज है ।”
“इसकी कीमत एक लाख रुपया है ।” - युवक धीरे से बोला ।
“जरूर होगी ।” - वीरप्पा सहमतिसूचक ढंग से सिर हिलाता हुआ बोला ।
युवक चुप रहा ।
“मुझ से क्या सेवा चाहते हैं आप ?”
युवक एक क्षण हिचकिचाया और फिर धीमे स्वर में बोला - “मैं इसे बेचना चाहता हूं ।”
“यह.. हार...” - वीरप्पा एक-एक शब्द पर अटकता हुआ बोला - “चोरी का है ?”
“जाहिर है ।” - युवक शान्ति से बोला - “अगर यह मेरी अपनी खरीद होती तो मैं इसे धड़ल्ले से कहीं भी बेच सकता था ।”
“हूं ।”
“राजाराव ने कहा था कि इस सिलसिले में आप मेरी जरूर मदद करेंगे ।” - युवक आशापूर्ण स्वर में बोला ।
“जरूर मदद करूंगा साहब, लेकिन...”
“अगर आप मुझे इसकी आधी कीमत भी दिलवा दें तो मैं आपको पांच हजार रुपये देने को तैयार हूं ।”
“चोरी के माल की आधी कीमत मिलना भी मुश्किल होता है, साहब ।”
“आप ज्यादा से ज्यादा क्या दिलवा सकते हैं ?”
“मैं आपको... जरा एक मिनट ठहरिये । टेलीफोन की घण्टी बज रही है । मैं अभी हाजिर होता हूं ।”
वीरप्पा हार को वहीं छोड़कर बगल के कमरे में घुस गया । उसने अपने पीछे द्वार बन्द कर लिया ।
उस कमरे में टेलीफोन मौजूद था लेकिन उसकी घण्टी नहीं बज रही थी और न ही वह पहले बजी थी ।
वीरप्पा ने टेलीफोन का रिसीवर उठाया और एक नम्बर डायल कर दिया ।
वह सम्पर्क स्थापित होने की प्रतीक्षा करने लगा ।
“बॉस !” - दूसरी ओर से उत्तर मिलते ही वह बोला - “कूप्पूस्वामी की जगह भरने के लिए चौथा आदमी मिल गया समझिये ।”
“क्या मतलब ?” - दूसरी ओर से किसी का अधिकारपूर्ण स्वर सुनाई दिया ।
“मेरा राजाराव नाम का दोस्त है । उसने मुझे बताया था कि उसका कोई गिरीश नाम का जानकार एक चोरी का हार बेचना चाहता है । वह जानकार एक हार लेकर मेरे पास आया है । वह एक लाख रुपये की कीमत का सच्चे मोतियों का हार है और मैं उस हार को पहचानता हूं ।”
“और हार लाने वाले को ?”
“उस हार की वजह से अब मैं हार लाने वाले को भी पहचानता हूं ।”
“हार को कैसे पहचानते हो तुम ?”
“आप जानते हैं पहले मैं मुम्बई में भीमजी सोहराबजी ज्वेलर्स के यहां काम करता था । पांच साल पहले वह मोतियों का हार बम्बई के इने-गिने रईसों में एक सर गोकुलदास ने भीमजी सोहराबजी ज्वेलर्स के यहां से खरीदा था । सर गोकुलदास ने वह हार अपनी नवविवाहिता, जवान बीवी लेडी शान्ता गोकुलदास की पसन्द पर खरीदा था । उस हार को मैं अच्छी तरह पहचानता हूं ।”
“फिर ?”
“आपने अखबार में लेडी शान्ता गोकुलदास की सनसनीखेज हत्या का विवरण अवश्य पढ़ा होगा । पिछले महीने सर गोकुलदास एस्टेट के विमल नाम के एक कर्मचारी ने एस्टेट के बीच पर स्थित केबिन में लेडी शान्ता गोकुलदास की बड़ी नृशंसता से हत्या कर दी थी । पुलिस का अनुमान है कि मोतियों के हार के लालच में ही विमल ने बीच वाले केबिन में वीनस की भारी प्रतिमा के प्रहार से लेडी शान्ता गोकुलदास की हत्या कर दी थी और फिर सर गोकुलदास की ही मोटरबोट पर समुद्र के रास्ते भाग निकला था । पुलिस ने उसका पीछा किया था लेकिन तब गोकुलदास की मोटरबोट की रफ्तार का मुकाबला करने वाली मोटरबोट पुलिस के पास तो क्या सारी बम्बई में किसी के पास नहीं थी । परिणामस्वरूप विमल भागने में सफल हो गया था ।”
“तुम कहीं यह तो नहीं कहना चाहते कि तुम्हारे दोस्त राजाराव का वह गिरीश नाम का जानकार ही विमल है ?”
“ऐब्सोल्यूट्ली करैक्ट, सर ।” - वीरप्पा तनिक उत्तेजित लेकिन धीमे स्वर में बोला - “अखबार में विमल का हुलिया भी प्रकाशित हुआ था । मुझे वह हुलिया याद है । अपना नाम गिरीश बताने वाला यह युवक शर्तिया वही विमल कुमार खन्ना है जिसकी लेडी शान्ता गोकुलदास की हत्या के इलजाम में पुलिस को तलाश है । और बास, मजेदार बात यह कि विमल भी इसका असली नाम नहीं है ।”
“क्या मतलब ?”
“मुझे तो यह युवक बड़ा घाघ और पेशेवर अपराधी मालूम होता है । इसका वास्तविक नाम सुरेन्द्र सिंह सोहल है । पहले यह सरदार था और इलाहाबाद में एरिक जानसन नामक कम्पनी में एकाउटेंट था । एरिक जानसन में इसने पचास हजार रुपये की रकम का गबन किया था लेकिन फौरन गिरफ्तार हो गया था । इसे दो साल की सजा हुई थी लेकिन जब इसकी सजा के चार महीने बाकी रह गये थे तो इलाहाबाद सैन्ट्रल जेल में आग लग गई थी और अन्य कैदियों के साथ यह भी जेल से भाग निकलने में सफल हो गया था । जेल से भाग जाने के बाद इसने दाढ़ी-मूंछ और केश कटवा दिये थे और सरदार सुरेन्द्र सिंह सोहल से विमल कुमार खन्ना बन गया था और इसी वजह से दोबारा पुलिस की पकड़ में नहीं आ पाया था । अब वही सरदार सुरेन्द्र सिंह सोहल उर्फ विमल कुमार खन्ना मेरे पास मौजूद है और अपना नाम गिरीश बता रहा है । अब आप ही सोचिये बॉस, कि कुप्पूस्वामी की जगह हमारे काम के लिए इससे मुनासिब आदमी और कौन हो सकता है ! अव्वल तो यह इनकार नहीं करेगा और अगर इनकार करेगा तो हम इसे गिरफ्तार करवा देने की धमकी देकर फंसाये रख सकते हैं ।”
“तुम्हें यह सब कैसे मालूम है ?”
“सब कुछ अखबार में छपा है, बॉस । आप शायद अखबार नहीं पढ़ते ।”
“मैं अखबार नहीं पढ़ता ।”
“और फिर इसका हार को किसी भी कीमत पर बेचने की कोशिश करना साफ जाहिर करता है कि इसे पैसे की सख्त जरूरत है । इसका पिछला रिकार्ड बताता है कि यह बहुत कामयाब तो नहीं, लेकिन बड़ा हिम्मती और आदी मुजरिम है । मुझे उम्मीद नहीं कि ऐसा आदमी हमारे साथ काम करने से इन्कार कर दे ।”
“वीरप्पा !” - दूसरी ओर से एक निर्णयात्मक स्वर सुनाई दिया - “तुम उसे कब तक अपने पास रोके रख सकते हो ?”
“जब तक आप चाहें ।” - वीरप्पा विश्वासपूर्ण स्वर में बोला ।
“ठीक है । तुम उसे रूबी रेस्टोरेन्ट में ले जाओ और वहीं मेरा इन्तजार करो । मैं फौरन वहां पहुंच रहा हूं ।”
“ओके बॉस ।” - वीरप्पा बोला और उसने रिसीवर क्रेडल पर रख दिया ।
वीरप्पा वापिस उस कमरे में आ गया जिस में वह चश्मे वाला युवक कुर्सी पर बैठा पहलू बदल रहा था ।
“मैंने टेलीफोन पर एक आदमी से बात की है ।” - वीरप्पा बोला - “मुझे खेद है, मैं इस हार के आपको पच्चीस हजार रुपये से ज्यादा नहीं दिला सकता ।”
“लेकिन पच्चीस हजार तो बहुत कम हैं ।” - युवक व्यग्र स्वर में बोला ।
“वह तो इतनी कीमती आइटम लेने को ही तैयार नहीं था । बड़ी मुश्किल से मैंने उसे इसे खरीदने के लिए राजी किया है और बहुत ही ज्यादा मुश्किल से मैंने बीस हजार से पच्चीस हजार रुपये कीमत बढ़वाई है ।”
“इससे ज्यादा की कोई गुंजायश नहीं ?”
“नहीं ।” - वीरप्पा खेदपूर्ण स्वर में बोला ।
“ऑल राइट । मुझे मंजूर है । रुपया कब मिलेगा ?”
“जब तुम चाहो ।”
“मैं तो अभी चाहता हूं ।”
“ठीक है । अभी इन्तजाम हो जाएगा । मैं उसे फोन कर देता हूं ।”
वीरप्पा दोबारा बगल के कमरे में घुस गया ।
लगभग दो मिनट बाद वह वापिस लौटा ।
“आओ ।” - वह बोला ।
युवक उसके साथ हो लिया ।
दोनों शोरूम से बाहर निकल आए ।
“किधर ?” -युवक ने पूछा ।
“पास ही ।” - वीरप्पा बोला - “माउन्ट रोड पर ही सैफायर सिनेमा है न ! उसमें रूबी रेस्टोरेन्ट है । इस समय उस रेस्टोरेन्ट में भीड़ नहीं होती । वह आदमी वहीं पहुंच रहा है ।”
युवक चुप हो गया ।
दोनों पैदल चलते हुए सैफायर पहुंच गए । वे रूबी रेस्टोरेन्ट के एक केबिन में जा बैठे । वीरप्पा ने कॉफी का आर्डर दिया । शीघ्र ही उन्हें कॉफी सर्व कर गया ।
दोनों चुपचाप कॉफी पीने लगे ।
***
रेस्टोरेन्ट के केबिन का पर्दा हटाकर जो आदमी भीतर प्रविष्ट हुआ, उसका नाम जयशंकर था । वह लगभग पचपन साल का दुबला-पतला, छोटे कद का, झुका हुआ-सा, मामूली शक्ल-सूरत वाला और बेहद महत्त्वहीन लगने वाला वृद्ध था । लेकिन वह सूरत से महत्त्वहीन लगने वाला इन्सान एक खतरनाक मुजरिम था । अपनी पचपन साला जिन्दगी के ठोस बीस साल वह छः किस्तों में जेल की चारदीवारी के भीतर गुजार चुका था । लेकिन इसके बावजूद न तो कभी उसके दिमाग में जेल का डर पैदा हुआ था और न ही उसके मन में अपने अपराधी जीवन से किनारा कर लेने का विचार पनपा था । उसका खुराफाती दिमाग हमेशा जेल से बाहर आते ही किसी नये अपराध की रुपरेखा तैयार करने में जुट जाता था । इस बार भी उसने इतने बड़े अपराध की स्कीम बनाई थी कि अपनी स्कीम में कामयाब हो जाने की सूरत में कम से कम पैसे की खातिर उसे दोबारा अपराध करने की जरूरत नहीं रहनी थी । और अपनी कामयाबी पर उसे शत-प्रतिशत विश्वास था ।
जयशंकर को देख कर वीरप्पा ने बड़े आदरपूर्ण ढंग से उसका अभिवादन किया ।
जयशंकर ने एक सरसरी निगाह चश्मे वाले युवक पर डाली और फिर वीरप्पा की बगल में बैठ गया ।
“बॉस” - वीरप्पा बोला - “यही वो साहब हैं जिनका मैंने टेलीफोन पर जिक्र किया था ।”
युवक ने जयशंकर का अभिवादन किया ।
जयशंकर ने उसके अभिवादन का उत्तर दिया और फिर बोला - “मिस्टर, मैं ज्यादा बोलना पसन्द नहीं करता इसलिये मैं अपनी बात फौरन और कम से कम शब्दों में कहने जा रहा हूं ।”
“क्या मतलब ?” - युवक हैरानी से बोला ।
“मतलब यह कि तुम्हारी हकीकत मुझ पर खुल चुकी है ।” - जयशंकर धीमे किन्तु स्पष्ट स्वर में बोला - “तुम वही विमल कुमार खन्ना हो जिसकी बम्बई की पुलिस को लेडी शान्ता गोकुलदास की हत्या के सिलसिले में तलाश है । लेकिन तुम्हारा वास्तविक नाम विमल कुमार खन्ना भी नहीं है । तुम्हारा वास्तविक नाम सरदार सुरेन्द्र सिंह सोहल है और तुम इलाहाबाद सैन्ट्रल जेल के फरार मुजरिम हो ।”
युवक फौरन अपने स्थान से उठ खड़ा हुआ । उसने केबिन के द्वार की ओर कदम बढ़ाया ।
“चुपचाप अपनी जगह पर बैठ जाओ ।” - उसके कानों में जयशंकर का सांप की तरह फुंफकारता हुआ स्वर पड़ा । उसने देखा, जयशंकर के हाथ में एक साइलेन्सर लगी रिवॉल्वर चमक रही थी ।
युवक एक क्षण हिचकिचाया और फिर धम्म से वापिस कुर्सी पर बैठ गया ।
“वह हार निकालो ।” - जयशंकर बोला ।
युवक ने चुपचाप हार निकाल कर मेज पर रख दिया ।
जयशंकर ने हार अपनी जेब के हवाले किया और बोला - “यह हार मेरे पास तुम्हारी अमानत है । मेरा काम हो जाये फिर यह हार तुम्हें वापिस लौटा दिया जायेगा, हालांकि मुझे विश्वास है कि मेरा काम हो जाने के बाद इस हार की तुम्हें जरूरत नहीं रहेगी । तब तक तुम साढ़े बारह लाख रुपये की मोटी रकम के स्वामी बन चुके होगे ।”
“और तुम्हारा काम क्या है ?” - युवक बोला ।
“धीरे-धीरे सब मलूम हो जायेगा । लेकिन पहले हम यह तय कर लें कि तुम किस नाम से पुकारा जाना पसन्द करोगे ? गिरीश के नाम से, विमल कुमार खन्ना के नाम से या फिर सरदार सुरेन्द्र सिंह सोहल के नाम से ?”
“मेरे ख्याल से विमल ही ठीक रहेगा ।” - युवक सहज स्वर में बोला ।
“वैरी वैल ।” - जयशंकर बोला - “तो मिस्टर विमल, तुम मेरे साथ कम करके साढ़े बारह लाख रुपया कमाना चाहते हो या अभी इसी वक्त जेल जाना चाहते हो ?”
“मैं जेल नहीं जाना चाहता ।”
“समझदार आदमी हो ।”
“लेकिन मैं तुम्हारे साथ काम भी नहीं करना चाहता ।”
“यह सम्भव नहीं ।” - जयशंकर कठोर स्वर में बोला - “अगर तुम जेल जाने से बचना चाहते हो तो तुम्हें मेरे साथ काम करना ही पड़ेगा । मुझे तुम्हारे जैसे एक हिम्मती और पेशेवर मुजरिम के सहयोग की सख्त जरूरत है ।”
“तुम्हें मुझसे निराश होना पड़ेगा, मिस्टर जयशंकर ।” - युवक बोला - “मैं न हिम्मती हूं और न पेशेवर मुजरिम हूं ।”
“डोंट टैल मी दैट ।” - जयशंकर उपहासपूर्ण स्वर में बोला - “जेल तोड़कर भाग निकलना और किसी का खून करके भी पुलिस के हाथ ना आना एक पेशेवर और हिम्मती मुजरिम का काम नहीं तो किसका काम है ?”
“तुम जो मर्जी समझो लेकिन हकीकत यह है कि मैं पेशेवर मुजरिम नहीं हूं । जो दो अपराध मैंने किये हैं, उसमें हालात की मांग और वक्ती जनून का बहुत बड़ा हाथ था । जेल से मैं इसलिए भागा था क्योंकि और कैदी भाग रहे थे और औरों के साथ भी झोंक में भाग निकला था । आज मैं महसूस करता हूं कि अगर मैंने उस रात जेल से भागने की मूर्खता न की होती और मैंने अपनी सजा के बाकी चार महीने चुपचाप काट लिए होते तो मुझे उन सैकड़ों मुसीबतों का सामना ना करना पड़ता जो बाद में मुझ पर आई । और हत्या मैंने यह सोचकर की थी कि उसमें मुझे किसी लाचार आदमी का हित दिखाई दिया था । लेकिन दूसरे का हित करते-करते मैं अपना सर्वनाश कर बैठा । भाई साहब, मैं पेशेवर मुजरिम नहीं हूं और हिम्मती तो मैं हरगिज भी नहीं हूं । मैंने जो कुछ किया है वक्ती...”
“मुझे बेवकूफ बनाने की कोशिश मत करो ।” - जयशंकर उसकी बात काटकर बोला - “तुम्हारी बातों से मैं इसी नतीजे पर पहुंचा हूं कि तुम न केवल हिम्मती और पेशेवर मुजरिम हो बल्कि बहुत समझदार और चालाक भी हो लेकिन तुम्हारी समझदारी और चालाकी यहां किसी काम नहीं आयेगी । तुम्हें अभी इसी वक्त्त दो में से एक रास्ता चुनना है । तुम पुलिस के हाथों में पड़कर फांसी पर चढ़ना चाहते हो या मेरे सहयोगी बनकर लाखों रुपया कमाना चाहते हो । और कहने की जरूरत नहीं कि अगर तुम्हें मेरा सहयोगी बनना स्वीकार नहीं तो मैं अभी तुम्हें पुलिस के हवाले कर दूंगा ।”
“मैं फांसी पर नहीं लटकना चाहता ।”
“तो फिर तुम मेरा सहयोगी बनना स्वीकार करो ।”
“तुम्हारा सहयोगी बनकर मुझे क्या करना होगा ?”
“वक्त आने दो तुम्हें सब मालूम हो जायेगा । पहले तुम इस बात का जवाब दो कि तुम्हें फांसी पर लटकना है या मेरा सहयोगी बनना है ?”
“ऑल राइट ।” - युवक निर्णयात्मक स्वर में बोला - “मुझे तुम्हारा सहयोगी बनना मंजूर है । अब बताओ, मुझे क्या करना होगा ?”
“वह मैं तुम्हें बाद में बताऊंगा । फिलहाल मैं तुम्हें बधाई देता हूं कि तुमने एक समझदारी भरा फैसला किया है । मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूं कि अपने इस फैसले की वजह से तुम्हें पछताना नहीं पड़ेगा ।”
“देखते हैं ।” - युवक चिंतायुक्त स्वर में बोला ।
“रहते कहां हो ?” - जयशंकर ने पूछा ।
“सब जगह और कहीं भी नहीं ।”
“क्या मतलब ?”
“मतलब यह कि जहां रात हो जाती है, वहीं सो जाता हूं लेकिन अक्सर मेरिना बीच की रेत पर ही सोता हूं ।”
“आज से तुम वीरप्पा के साथ रहोगे । वीरप्पा रात को तुम्हें मेरे ठिकाने पर ले आयेगा । वहां मैं तुम्हें बाकी साथियों से मिलाऊंगा । और भागने की कोशिश मत करना । भागने की कोशिश करोगे तो सीधे पुलिस के हाथों में पहुंचोगे । पुलिस को एक बार मालूम होने की देर है कि तुम मद्रास में हो और फिर तुम चाहे जहां हो, पुलिस तुम्हें खोज निकालेगी ।”
“अब मैं भाग कर क्या करूंगा ? मेरा भागने का साधन तो तुमने अपनी जेब में रख लिया है ।”
“तुम्हारा हार मेरे पास तुम्हारी अमानत है । काम हो जाने पर हार तुम्हें वापिस मिल जायेगा ।”
“मुझे हार नहीं हार की कीमत चाहिए ।”
“हार की कीमत मिल जाएगी ।”
युवक चुप हो गया ।
“हाथ मिलाओ ।” - जयशंकर बोला ।
युवक ने अनिच्छापूण॔ ढंग से जयशंकर से हाथ मिलाया ।
“यह रिवॉल्वर अपने पास रख लो” - जयशंकर वीरप्पा की ओर रिवॉल्वर बढ़ाता हुआ बोला - “भागने के मामले में मिस्टर विमल की हिम्मत पस्त रखने में यह बहुत काम आएगी ।”
वीरप्पा ने रिवॉल्वर लेकर अपनी जेब में रख ली ।
“और तुम अभी से अपनी नौकरी से एक हफ्ते की छुट्टी ले लो । भगवान ने चाहा तो तुम्हें जिंदगी में दोबारा उस या उस जैसी किसी और मामूली नौकरी की ओर झांक कर भी न देखना पडे़गा ।”
वीरप्पा का चेहरा चमक उठा । उसके नेत्रों के सामने उज्ज्वल भविष्य के सुन्दर सपने तैरने लगे ।
रात को लगभग नौ बजे वीरप्पा विमल को सूर्यनारायण रोड पर स्थित एक तनहा बंगले में आया ।
बंगले में उस समय कोई भी नहीं था । वीरप्पा ने बंगले का मुख्य द्वार चाबी लगाकर खोला ।
दोनों भीतर ड्रांइगरूम में आ बैठे ।
“जयशंकर कहां है ?” - विमल ने पूछा ।
“आ जाएगा ।” - वीरप्पा बोला - “और तुम उसे जयशंकर नहीं कहोगे ।”
“तो और क्या कहूंगा ?”
“बॉस ! बॉस कहोगे तुम उसे ।”
“बॉस वह तुम्हारा होगा, मेरा नहीं । मुझे उससे कुछ लेना-देना नहीं है । उसको मेरी जरूरत है, मुझे उसकी जरूरत नहीं है ।”
“उसे भी तुम्हारी जरूरत नहीं थी । अगर वह कुप्पूस्वामी का बच्चा ऐन मौके पर पीठ न दिखा गया होता तो हमने क्या तुम्हारा अचार डालना था ?”
“कुप्पूस्वामी कौन हुआ ?”
“कुप्पूस्वामी वो शख्स है जिसकी जगह अब तुम ले रहे हो ।”
“उसे क्या हुआ ?”
“हुआ कुछ नहीं ।”
“तो फिर पीठ क्यों दिखा गया ?”
“डर गया साला । ऐन मौके पर हिम्मत दगा दे गई उसकी । ऐन मौके पर कहने लगा कि काम उसके बस का नहीं था ।”
“काम क्या है ?”
“अभी मालूम हो जाएगा ।”
“हूं ।”
“बॉस कहता है कि जो आदमी घर से ही डरकर रवाना होगा, वह काम क्या खाक करेगा ! काम करना तो दूर, वो तो उलटे ऐन मौके पर ऐसी समस्या खड़ी कर देगा कि सब की जान पर आ बनेगी । जो डर गया, सो मर गया । इसीलिए बॉस ने उसकी हौसला-अफजाई करके उसे साथ मिलाए रखने की जगह यही मुनासिब समझा कि उसे चलता ही कर दिया जाए ।”
“उसे मालूम था कि काम क्या था ?”
वीरप्पा हिचकिचाया ।
“यानी कि मालूम था ।”
“बात यह हो रही थी” - वीरप्पा बदले स्वर में बोला - “कि तुम जयशंकर को बॉस कहोगे ।”
“और मैंने तुम्हें यह जवाब दिया था कि बॉस वह तुम्हारा होगा, मेरा नहीं ।”
“अच्छा, बकवास बंद करो ।”
“बकवास तुम कर रहे हो, मैं नहीं ।”
उसी क्षण बंगले का मुख्य द्वार खुला और लगभग पैंतीस साल के एक आदमी ने भीतर कदम रखा । वह एक हलके रंग का सूट पहने हुए था और सूरत-शक्ल से बहुत खूबसूरत, प्रभावशाली, पढा-लिखा और मान-मर्यादा वाला आदमी लग रहा था ।
वीरप्पा ने उसका विमल से परिचय करवाया । विमल को मालूम हुआ कि उसका नाम सदाशिवराव था ।
सदाशिवराव आकर विमल की बगल में बैठ गया । उसने अपनी जेब से पनामा का पैकेट निकाल कर वीरप्पा और विमल की ओर बढा़या । दोनों ने एक-एक सिगरेट ले लिया । सदाशिवराव ने भी विमल का सिगरेट सुलगाया और फिर अपना सिगरेट सुलगा लिया ।
तीनों चुपचाप सिगरेट पीने लगे ।
विमल सिगरेट के कश लगाता हुआ अपने अतीत के बारे में सोचने लगा ।
उस रात शान्ता गोकुलदास की हत्या के बाद वह सर गोकुलदास की मोटरबोट पर जुहू से भागा था तो उसने गोवा के समीप एक अनजान समुद्री किनारे पर ही आकर दम लिया था । पुलिस ने उसका पीछा किया था लेकिन उसे विमल की हवा भी नहीं लगी थी ।
मोटरबोट के केबिन में उसे जानीवाकर की दो बोतलें पड़ी मिल गई थीं । उन्हें दो सौ रुपये में बेच कर लगभग फौरन ही गोवा से कूच कर गया था । मोटरबोट उसने वहीं छोड़ दी थी । बाद में कई रेलगाड़ियों के धक्के खाता हुआ मद्रास पहुंच गया था ।
दो सौ रुपयों ने उसका ज्यादा दिन साथ नहीं दिया था । दो सौ रुपये जल्दी ही पेट का ईंधन जुटाने में ही खर्च हो गए थे । अन्त में हालत यह हो गई थी कि उसकी जेब में एक नया पैसा भी नहीं था, लेकिन था सच्चे मोतियों का एक हार जिसकी कीमत एक लाख रुपये थी । उसी हार को बेच कर पैसा जुटाने के चक्कर में वह फिर मुसीबत में फंस गया था और अभी पता नहीं उस मुसीबत में उसे कितना गहरा धंसना था ।
बम्बई में लेडी शान्ता गोकुलदास ने उसे गोकुलदास एस्टेट में नौकरी दी थी तो वह समझा था कि उसकी मुसीबत के दिन खतम हो गए थे । उसने समझा था कि अब वाहेगुरु को भी मालूम हो गया था कि उसे बहुत सजा मिल चुकी थी । लेकिन जब लेडी शान्ता गोकुलदास ने उसे अपने पति की हत्या करने के लिये बाकायदा ब्लैकमेल करना शुरू कर दिया तो उसका भरम टूट गया । उसे मुसीबतों से छुटकारा नहीं मिला था । वह केवल आसमान से गिरा था और खजूर में अटका था ।
और अब वह खजूर से गिर कर भी रास्ते में ही कहीं अटक गया था, जमीन पर नहीं पहुंचा था ।
विमल ने एक आह भरी और मन-ही-मन बोला - जो तुध भावे नानका सोई भली कार ।
बंगले का मुख्य द्वार फिर खुला और एक टाइट पतलूनधारी झब्बेदार बालों वाले युवक ने भीतर कदम रखा ।
वीरप्पा ने विमल से उसका परिचय अब्राहम के नाम से करवाया ।
अब्राहम ने बड़े विलायती अन्दाज से विमल से हाथ मिलाया और फिर एक कुर्सी पर बैठ गया ।
“बॉस नहीं आया ?” - उसने वीरप्पा से पूछा ।
वीरप्पा ने नकारात्मक ढंग से सिर हिला दिया ।
विमल फिर सिगरेट पीने में मग्न हो गया ।
उसे आशा थी कि लाख रुपये की कीमत का सच्चे मोतियों का हार अगर चोर बाजार की कीमत में भी बिकेगा तो उसे कम से कम चालीस हजार रुपये मिल जायेंगे । संयोगवश उस से राजाराव नाम का एक आदमी टकरा गया था जिसने विमल को एक बड़े भरोसे वाले आदमी के पास भेज दिया था लेकिन वही भरोसे वाला आदमी वीरप्पा अब उसके लिये मुसीबत बन गया था ।
उसका ख्याल था कि हार बेच कर हासिल हुए रुपयों से वह किसी प्रकार एक जाली पासपोर्ट जुटा लेगा और फिर अगर उसकी तकदीर फिर दगा न दे गई तो वह भारत से ही कूच कर जायेगा ।
लेकिन अब हार उसके हाथों से निकल गया था ।
और जिस साढ़े बारह लाख रुपये की रकम का जिक्र जयशंकर ने उससे किया था, वह पता नहीं उसे कैसे हासिल होने वाली थी ।
सारा दिन वीरप्पा ने उस पर ऐसी कड़ी निगाह रखी थी कि वीरप्पा की जानकारी के बिना उसका स्थान से हिल पाना भी सम्भव नहीं था ।
बाद में विमल को मालूम हुआ था कि वीरप्पा, सदाशिवराव और अब्राहम तीनों पेशेवर अपराधी थे और सदाशिवराव और अब्राहम कई-कई बार जेल कि हवा खा चुके थे । केवल वीरप्पा जेल नहीं गया था । उसकी मुख्य वजह यह थी कि उसकी कभी कोई खतरे वाला काम करने की हिम्मत नहीं हुई थी और अपनी जोहरी की दुकान की नौकरी की वजह से वह बड़ा सम्मानित आदमी समझा जाता था ।
विमल को वे लोग बहुत भयंकर अपराधी समझते थे क्योंकि विमल एक खून भी कर चका था ।
“वो...” - एकाएक विमल बोला - “कुप्पूस्वामी - तुम्हारा ओरीजिनल जोड़ीदार - वो भी उन्हीं गुणों का मालिक था जिनके कि तुम लोग हो ?”
सदाशिवराव और अब्राहम, जिन्हें कि बात का सूत्र नहीं मालूम था, पहले सकपकाये और फिर वीरप्पा की तरफ देखने लगे जिससे कि वस्तुतः सवाल किया गया था ।
“क्या मतलब ?” - वीरप्पा बोला ।
“वो भी तुम्हारा ही मौसेरा भाई था ?”
“अरे, क्या पहेलियां बुझा रहे हो ?” - वीरप्पा झुझलाया ।
“यह पढ़ा-लिखा मालूम होता है” - सदाशिवराव बोला - “और इसका इशारा चोर-चोर मौसेरे भाई वाली मसल की तरफ मालूम होता है ।”
“ओह !” - वीरप्पा बोला - “हां ! था कुप्पूस्वामी भी चोर । लेकिन तुम साले कौन से साधू महात्मा हो । अगर हम चोर हैं तो तुम महाचोर हो ।”
“च-च-च !” - सदाशिवराव बोला - “पॉट कालिंग द कैटल ब्लैक । वैरी बैड ! वैरी बैड इनडीड ।”
विमल खामोश रहा ।
और भी कोई कुछ न बोला ।
विमल ने सिगरेट का आखिरी कश लगा कर उसे फर्श पर फेंक दिया ।
उसी क्षण ड्रामे के सबसे महत्वपूर्ण पात्र के अन्दाज से जयशंकर ने भीतर कदम रखा ।
वीरप्पा, सदाशिवराव और अब्राहम तत्काल उठकर खड़े हो गये लेकिन विमल ने अपने स्थान से हिलने का प्रयत्न नहीं किया ।
जयशंकर ने एक तीव्र दृष्टि विमल पर डाली और एक कुर्सी घसीट कर उन लोगों के सामने बैठता हुआ बोला - “बैठ जाओ, दोस्तो ।”
सब बैठ गये ।
“मुझे उम्मीद है, अब तक आप सब लोग एक-दूसरे को अच्छी तरह जान-पहचान गये होंगे ।”
कोई कुछ नहीं बोला ।
“अब मैं आपके सामने उस ऑपरेशन की रूपरेखा प्रस्तुत करता हूं जिसके सफल हो जाने पर सत्तर लाख रुपये की भारी रकम हमारे हाथों में होगी ।”
“सत्तर लाख रुपये !” - अब्राहम के नेत्र फैल गये ।
वही हाल सदाशिवराव का भी हुआ ।
केवल वीरप्पा के चेहरे पर कोई भाव न आया ।
शायद उसे सारे सिलसिले की पहले से ही जानकारी थी ।
“करैक्ट” - जयशंकर प्रभावपूर्ण स्वर में बोला - “और वह रुपया सोमवार रात को मद्रास की ही नहीं बल्कि भारत की शान के तौर पर समझे जाने वाले सत्तर हजार सीटों वाले विशाल अन्ना स्टेडियम में मौजूद होगा ।”
“अन्ना स्टेडियम !” - अब्राहम के मुंह से निकला ।
“सोमवार रात को तो” - सदाशिवराव बोला - “वहां कोई बहुत बड़ा शो होने वाला है ।”
“बाढ़ पीड़ितों की सहायतार्थ ।” - जयशंकर बोला - “उस शो में सारे संसार के कलाकर आमन्त्रित हैं । अमरीकी पॉप सिंगरों और बम्बई के फिल्मी सितारों की वहां खासतौर से भरमार होगी । रॉक म्यूजिक का ऐसा लाइव प्रोग्राम होना बताते हैं जैसा कि कम से कम हिन्दोस्तान में पहले कभी नहीं हुआ होगा । इसी वजह से उस शो की टिकट सौ रुपये है ।”
जयशंकर एक क्षण ठिठका और फिर बोला - “वहां कोई पहला, दूसरा और तीसरा दर्जा नहीं । हर सीट एक ही दर्जे की होगी और उसकी कीमत सौ रुपये होगी । उस शो की बड़ी खूबी यह है कि टिकटों की कोई एडवांस बुकिंग नहीं होगी । सामेवार दोपहर को बुकिंग खुलेगी, टिकटें बिकनी शुरू होंगी, जब सत्तर हजार टिकटें बिक जायेंगी तो बुकिंग बन्द हो जायेगी जब बुकिंग बंद होगी तो स्टेडियम के भीतर टिकटों की बिक्री से हासिल हुआ सत्तर लाख रुपया मौजूद होगा ।”
“और वह रुपया हमको लूटना है ?” - सदाशिवराव अविश्वासपूर्ण स्वर में बोला ।
“हां ।” - जयशंकर बोला ।
“नामुमकिन !”
“साथियो ।” - जयशंकर बोला - “इन्सान में अक्ल होनी चाहिए और कुछ कर डालने की हिम्मत होनी चाहिए फिर इस संसार में कुछ भी नामुमकिन नहीं । मैंने बड़ी मेहनत से स्टेडियम की गेट मनी लूटने की स्कीम तैयार की है । अगर आप लोग मुझ पर भरोसा करें और जैसा मैं कहूं, बेहिचक वैसा करें तो मैं असम्भव को सम्भव करके दिखा सकता हूं लेकिन अगर आपको मुझ पर भरोसा नहीं और आप में भरपूर हौसला नहीं तो फिर स्टेडियम को लूटने की कोशिश करना बेकार है ।”
“हमें तुम पर पूरा भरोसा है ।” - सदाशिवराव एक बार अपने दायें देखता हुआ बोला - “लेकिन मुझे तो यह हो सकने वाला काम नहीं दिखाई देता । उस शो में स्टेट का चीफ मिनिस्टर मौजूद होगा । स्वयं प्रधानमन्त्री के आगमन की भी बात सुनी जा रही है । राजनैतिक नेताओं की वहां मौजूदगी की वजह से तुम ही सोचो कि वहां सिक्योरिटी का कितना तगड़ा प्रबन्ध होगा ! चप्पे-चप्पे पर सशस्त्र कमांडो गार्ड्स बिछे होंगे । फिर रुपया भी भीतर कहीं लावारिस तो पड़ा नहीं होगा । वह गिना जा रहा होगा, सम्भाला जा रहा होगा और कई आदमी इस काम में मशगूल होंगे । ऐसा कैश भला कैसे लुट जाएगा !”
“बड़े आराम से लुट जाएगा । तुम चार जने भीतर जाओगे और कैश निकाल लाओगे ।”
“लाइक दैट ?”
“यस ! लाइक दैट !”
सदाशिवराव हक्का-बक्का सा जयशंकर का मुंह देखने लगा ।
“आर यू श्योर” - वह बोला - “यू आर नाट क्रेजी ?”
जयशंकर केवल मुस्कराया । उसके चेहरे पर अपूर्व विश्वास की चमक थी ।
कुछ क्षण सन्नाटा रहा ।
“स्कीम क्या है ?” - फिर अब्राहम तनिक उतावले स्वर में बोला ।
जयशंकर ने देखा अब विमल भी स्कीम सुनने को उत्सुक दिखाई दे रहा था ।
विमल सोच रहा था कि या तो जयशंकर नाम का वह आदमी पागल था और या फिर एक बहुत ही ऊंचे दर्जे के दिमाग का स्वामी था और बेहद खतरनाक मुजरिम था ।
“बताता हूं” - जयशंकर बोला - “लेकिन पहले यह देखिये क्या है ।”
उसने अपनी जेब से एक तह किया हुआ कागज निकाला और उसे खोल कर सबके सामने मेज पर फैला दिया ।
“क्या है ?” - अब्राहम सन्दिग्ध भाव से बोला ।
“यह स्टेडियम का नक्शा है ।” - जयशंकर बोला - “यह स्टेडियम के साथ जुड़ा एडमिनिस्ट्रेशन ब्लाक है जिसकी दूसरी मंजिल पर ऑफिस सुपरिन्टेन्डेन्ट वासन का ऑफिस है जहां कि गेट मनी को सम्भाल के गिन करके बैंक ले जाने के काबिल बनाया जा रहा होगा । वहां इस काम के लिए चार क्लर्क होंगे और तीन सिक्योरिटी गार्ड होंगे । एक सिक्योरिटी गार्ड बाहर गलियारे में होगा । दो सिक्योरिटी गार्ड बाहर एडमिनिस्ट्रेशन ब्लाक की ओर के मेन गेट पर होंगे ।”
“वासन भी होगा ?”
“वो तो होगा ही । आखिर वह ऑफिस सुपरिन्टेन्डेन्ट है ।”
“हूं ।”
“सिक्योरिटी का जो तगड़ा इन्तजाम नेता लोगों की वजह से स्टेडियम में है, वह स्टेडियम के भीतर उसकी गोल छत तक और दर्शकों के लिए बने गेटों तक सीमित है । जहां गेट मनी है, वहां इतना ही सिलसिला है जो कि मैंने आपको बताया है ।”
“तुमने स्टेडियम का कोई आदमी फोड़ा हुआ है ?” - विमल बोला ।
जयशंकर ने सकपका कर विमल की तरफ देखा ।
“ऐसी बारीक जानकारी किसी भेदिये की मदद के बिना नहीं हासिल हो सकती ।”
जयशंकर कुछ क्षण अपलक विमल को देखता रहा, फिर उसके चेहरे पर मुस्हराहट आई ।
“तुमने ठीक पहचाना है ।” - वह बोला - “वहां का एक सिक्योरिटी गार्ड मैंने शीशे में उतारा हुआ है । उसी से मुझे यह नक्शा और बाकी कई तरह की जानकारी हासिल हुई है । वही और भी कुछ बातों में हमारी मदद करेगा ।”
“यानी कि उसकी मदद के बिना यह काम होना मुमकिन नहीं ?”
जयशंकर ने हिचकिचाते हुए हामी भरी ।
“अगर वह दगा दे गया तो कहानी खतम ?”
“वह दगा नहीं देगा ।”
“उसके दगा दे जाने से सत्तर लाख रुपया हथियाने का तुम्हारा सपना ही नहीं टूटेगा बल्कि हम सब जने जेल में भी होंगे ।”
“ऐसा कुछ नहीं होगा । मैंने बहुत ठोक-बजाकर उस गार्ड का भरोसा किया है । वह दगा नहीं देगा और फिर उसको माली फायदा भी तो है ।”
“माली फायदा !”
“हां । मैंने उसे दस हजार रुपये दिए हैं और कामयाब हो जाने पर नब्बे हजार और देने का वादा किया है ।”
“यार, तुम” - अब्राहम तनिक उतावले स्वर में बोला - “जरा कहानी को आगे बढ़ने दो ।”
विमल खामोश हो गया ।
“सिलसिला यूं शुरू होता है, साथियो” - जयशंकर बोला - “कि सोमवार को आप चारों जने सौ-सौ रुपये वाली एक-एक टिकट खरीदेंगे और शाम को जाकर स्टेडियम में बैठ जायेंगे । शो शुरू हो जाने के बाद एक निर्धारित समय पर आप लोग अपनी सीटों से बारी-बारी उठेंगे और यहां बाहर मौजूद” - जयशंकर ने नक्शे पर एक स्थान पर उंगली रखी - “टॉयलेट में जमा होंगे । यहां आप लोग इस कोने वाली लैवेटरी में दाखिल होंगे । लैवेटरी के रोशनदान की चौखट अपने स्थान से उखड़ी होगी और रोशनदान में सिर्फ इतनी अटकी होगी कि वह खुद ही नीचे न आ गिरे ।”
“वह रोशनदान भी हमारा भेदिया गार्ड उखाड़ेगा ?” - विमल बोला ।
“हां ।”
“अगर रोशनदान उखड़ा हुआ न मिला तो ?”
“तो आप लोग वापिस जाकर स्टेडियम में बैठ जाइएगा और शो का आनन्द लीजियेगा । शो खतम होने पर ठण्डे-ठण्डे घर लौट जाइएगा । खेल खतम ।”
“फर्ज किया” - अब्राहम बोला - “कि रोशनदान उखड़ा हुआ है ।”
“उस रोशनदान के रास्ते से आप चारों ने स्टेडियम की छत पर पहुंचना है ।” - जयशंकर बोला ।
“कैसे ?”
“रोशनदान से बाहर दीवार पर लगे पाइपों को पकड़ कर ।”
“मेरे तो बस का नहीं यह काम ।”
“मेरे भी ।” - सदाशिवराव बोला ।
विमल ने चुप रहना ही मुनासिब समझा ।
“यह काम” - जयशंकर बोला - “वीरप्पा के बस का है । यह पाइप के सहारे छत पर चढ़ेगा और फिर आप लोगों के लिए एक रस्सी नीचे लटका देगा जो कि एक छत पर फिट एक पुल्ली पर से गुजरती होने की वजह से बड़ी आसानी से खींची जा सकेगी ।”
“रस्सी !” - अब्राहम बोला - “पुल्ली !”
“दोनों चीजें ऊपर छत पर मौजूद एक बक्से में होंगी । वह बक्सा हमारा भेदिया गार्ड छत पर पहुंचाएगा ।”
“कैसे ?” - विमल बोला ।
“कैसे भी । यह उसका सिर दर्द है, हमारा नहीं ।”
“अगर बक्सा ऊपर न हुआ तो ?”
“तो भी खेल खतम ।”
“यानी कि यह सारी स्कीम उस गार्ड की मदद की मोहताज है ?”
“हां ।”
“बात बक्से की हो रही थी ।” - अब्राहम बोला ।
“और ?” - सदाशिवराव बोला - “मान लिया कि टॉयलेट के रोशनदान के रास्ते हम छत पर पहुंच गये । और ?”
“उस बक्से में” - जयशंकर बोला - “हमारी जरूरत का और भी कई तरह का सामान होगा ।”
“मसलन ?” - अब्राहम बोला ।
“मसलन पुल्ली फिक्स करने के औजार । दो कुदाल । टार्च । एक बैग जिसमें दो रिवाल्वरें, तीन हस्पतालों के आर्डर्लियों द्वारा पहनी जाने वाली सफेद वर्दियां, एक मोटरसाइकल का रियरव्यू मिरर, नायलोन की डोरी का एक लच्छा, नायलोन की ही नकाबें, गाव तकिये के गिलाफों जैसे तीन थैले वगैरह । बक्से का बाकी सामान छत पर पीछे छोड़ दिया जाएगा, सिर्फ एयरबैग वीरप्पा अपने अधिकार में ले लेगा ।”
“वह गार्ड हमें दर्शन नहीं देगा ?”
“नहीं । वह तुम्हारे करीब भी नहीं फटकेगा ।”
“चलिए ।” - सदाशिवराव बोला - “छत पर पहुंच गए हम ।”
“छत पर आप लोग चुपचाप आगे एक ऐसे स्थान तक चलेंगे जिसका फासला वीरप्पा को मालूम है । जहां तक आप लोगों ने जाना है, वहां हमारा गार्ड कोई निशानी भी लगा देगा । वह जगह एक बन्द स्टोर की छत होगी । कुदालों की सहायता से आपने उस छत में इतना बड़ा छेद करना है कि आप लोग उस छेद में से गुजर कर नीचे बन्द स्टोर में पहुंच सकें । तेज म्यूजिक के शोर की वजह से छत पर कुदाल चलने की आवाज किसी को सुनाई नहीं देगी । उस स्टोर में एयरकन्डीशनिंग के डक्ट का दहाना है । आप लोग वहां से एयरकन्डीशनिंग के डक्ट को उखाड़ेंगे और बाहर गलियारे के ऊपर बनी फाल्स सीलिंग में दाखिल हो जायेंगे । फाल्स सीलिंग में छाती के बल रेंगते हुए आप आगे बढ़ेंगे । यहां फिर वीरप्पा को मालूम है कि इस प्रकार कितनी दूर तक आगे बढ़ना है ।”
“वीरप्पा को कुछ ज्यादा ही मालूम है ।” - अब्राहम बोला ।
जयशंकर ने घूर कर उसे देखा ।
अब्राहम परे देखने लगा ।
“फाल्स सीलिंग के रास्ते आप एडमिनिस्ट्रेशन ब्लाक तक पहुंच जायेंगे । जहां कि गलियारे में एक सशस्त्र गार्ड मौजूद होगा । वहां आप फाल्स सीलिंग में से निकलेंगे और उस इकलौते गार्ड को अपने काबू में कर लेंगे जो कि कोई मुश्किल काम नहीं होगा ।”
“और कोई नहीं होगा वहां ?” - सदाशिवराव बोला - “कोई चपरासी, कोई और कर्मचारी...”
“नहीं होगा । रात के उस वक्त जनरल ऑफिस कब का बन्द हो चुका होगा । जो लोग वहां मौजूद होंगे वो वासन के ऑफिस में होंगे जो कि गेट मनी सम्भालने का स्पेशल काम करने के लिये वहां रुके होंगे ।”
“ओके ! ओके ।” - अब्राहम बोला - “गार्ड को हमने काबू में कर लिया । फिर ?”
“फिर आप उसे टॉयलेट में ले जायेंगे” - जयशंकर बोला - “जहां कि आप उस की वर्दी उतरवा लेंगे और उसकी मुश्कें कस देंगे । वह वर्दी सदाशिवराव पहन लेगा और गार्ड की कारबाइन लेकर गार्ड के स्थान पर पहरेदारी की ड्यूटी देने के लिये बाहर पहुंच जायेगा । बाकी तीन जने चेहरों पर नायलोन की नकाबे ओढ़ लेंगे और ऑफिस में पहुंचेंगे । वहां आप वासन के कमरे में पहुंचेंगे और उसे अपने अधिकार में कर लेंगे । फिर वासन को ही मोहरा बना कर आप सारे गार्डों को और सारे क्लर्कों को अपने काबू में कर लेंगे ।”
“कैसे ?”
अगले पांच मिनट तक बड़े सब्र के साथ जयशंकर ने उस ‘कैसे’ का जवाब दिया ।
अब सब बेहद प्रभावित दिखाई देने लगे ।
“फिर” - जयशंकर बड़े ड्रामेटिक अन्दाज से बोला - “आप नोटों को गाव तकिये के गिलाफ जैसै थैलों में भर लेंगे और हस्पताल के आर्डर्लियों वाली सफेद वर्दियां पहन लेंगे । फिर आप सिक्योरिटी गार्डों के इंचार्ज से गेट पर फोन करवायेंगे कि वासन साहब को दिल का दौरा पड़ गया था और उनको हस्पताल से जाने के लिये एक एम्बूलेंस गेट पर पहुंचने वाली थी, जिसे कि फौरन भीतर ले लिया जाये । वह एम्बूलेंस मैं वहां लाऊंगा । आप लोग नीचे आकर एम्बूलेंस में से स्ट्रेचर निकालेंगे और उस पर वासन की जगह नोटों से भरे थैले लिटा कर स्ट्रेचर नीचे वापिस लायेंगे, स्ट्रेचर समेत एम्बूलेंस में सवार होंगे और फिर एम्बूलेंस यह जा वह जा । सत्तर लाख रुपया हमारी मुट्ठी में ।”
“वैरी गुड !” - अब्राहम यूं खुशी में दमका जैसे माल उसकी मुट्ठी में आ भी चुका था ।
“अब बोलो, साथियो” - जयशंकर बोला - “क्या यह ऑपरेशन तुम्हें असम्भव लगता है ?”
“नहीं ।” - सदाशिवराव बोला - “यह काम कठिन जरूर है लेकिन असम्भव नहीं ।”
“लेकिन” - विमल बोला - “ऑपरेशन का सारा दारोमदार तुम्हारे उस भेदिये गार्ड के सहयोग पर है ।”
“उसकी तुम‍ फिक्र न करो । उसकी तरफ से कोई धोखा नहीं होगा । कोई और बात हो तो बोलो ।”
“स्कीम से ताल्लुक रखती तो कोई बात नहीं ।”
“कैसी भी कोई बात बोलो ।”
“बात लूट में मेरे हिस्से से ताल्लुक रखती है ।”
“अरे, कुछ कहो भी तो ।”
“तुमने कहा था कि लूट में मेरा हिस्सा साढ़े बारह लाख रुपये का होगा ।”
“हां ।”
“चौदह लाख क्यों नहीं ? अगर हमारे हाथ सत्तर लाख रुपया आने वाला है तो सत्तर लाख का पांचवां हिस्सा तो चौदह लाख होता है ।”
“मेरा हिस्सा बीस लाख है ।”
“क्यों ? तुम्हारा हिस्सा बड़ा क्यों ?”
“क्योंकि स्कीम मैंने बनाई है और उसकी तैयारी में जो ढेर सारा रुपया खर्च हुआ है, वह मैंने अपनी जेब से किया है । खर्चों में मोटे तौर पर तुम इस बंगले का किराया, एम्बूलेंस, हथियार और छत के बक्से के बाकी साजोसामान को गिन सकते हो । वह हमारा भेदिया गार्ड भी मेरी जिम्मेदारी है जिसे किे मैं दस हजार रुपये दे भी चुका हूं । इन हालात में मैं अपने आपको बाकी लोगों से ज्यादा बड़े हिस्से का हकदार मानता हूं ।”
“ठीक तो है ।” - वीरप्पा बोला ।
विमल चुप रहा ।
“अगर” - जयशंकर बोला - “किसी को इस स्कीम के बारे में कोई शंका है तो अभी बोल दे ताकि मैं उसका समाधान कर सकूं ।”
कोई कुछ न बोला ।
“किसी ने कुछ पूछना है ?”
सब के सिर इन्कार में हिले ।
जयशंकर के चेहरे पर अपार सन्तुष्टि के भाव उभर आए । वह अपनी तैयारियों से पूर्णतया सन्तुष्ट था ।
***
“यहां रोको ।” - एकाएक जयशंकर बोला ।
जयशंकर और वीरप्पा एक स्कूटर पर सवार थे । स्कूटर वीरप्पा चला रहा था ।
वीरप्पा ने तत्काल स्कूटर रोक दिया ।
जयशंकर ने विक्टोरिया मेमोरियल के समीप स्कूटर रुकवाया था । वह स्कूटर से उतरा और विक्टोरिया मेमोरियल की ओर बढ़ा ।
वीरप्पा ने अपनी कलाई पर बन्धी घड़ी पर दृष्टिपात किया ।
रात का एक बज चुका था ।
जयशंकर विक्टोरिया मेमोरियल के समीप की पार्किंग में खड़ी एक एम्बैसेडर कार की ओर बढ़ रहा था ।
उसने चाबी लगाकर कार का दरवाजा खोला । फिर वह कार की ड्राइविंग सीट पर आ बैठा । उसने कार स्टार्ट की और उसे ड्राइव करता हुआ सड़क पर ले आया ।
उसने वीरप्पा को अपना पीछा करने का संकेत किया और कार को साउथ बीच रोड पर आगे बढ़ा दिया ।
वीरप्पा ने तत्काल अपने स्कूटर को कार के पीछे लगा दिया ।
रात के सन्नाटे में मेरीना बीच के साथ-साथ दौड़ती साउथ बीच रोड पर कार और स्कूटर एक-दूसरे के आगे-पीछे बढ़ते रहे ।
साउथ बीच रोड से वे अदियार ब्रिज रोड पर मुड़ गये । एलफिंस्टन ब्रिज क्रॉस करके वे महाबलीपुरम की ओर जाने वाली सड़क पर मुड़ गये ।
शीघ्र ही मद्रास शहर पीछे कहीं गुम हो गया और वे महाबलीपुरम की ओर जाने वाली उजाड़ सड़क पर आगे बढ़ते रहे ।
लगभग बीस मील आगे जाने पर जयशंकर ने कार की रफ्तार कम कर दी । एक स्थान पर उसने महाबलीपुरम की ओर बढ़ती मुख्य सड़क को छोड़ दिया और कार को कच्चे पर उतार दिया ।
अपने स्कूटर को कच्चे में मोड़ने से पहले वीरप्पा की निगाह सड़क पर लगे मील के पत्थर पर पड़ी जिस पर लिखा था:
महाबलीपुरम - 15 मील
नारियल के पेड़ों से घिरे ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर जयशंकर कार आगे बढ़ाये लिये जा रहा था ।
लगभग पांच मिनट बाद उसने कार की रफ्तार एकदम कम कर दी । आगे घनी झाड़ियों का झुंड था । झाड़ियों के उस झुंड के पीछे जयशंकर ने कई दिन की मेहनत लगाकर पेड़ों की सूखी डालों और पत्तियों की सहायता से एक सायबान-सा बना लिया था । जयशंकर ने कार को उस सायबान के नीचे ले जा खड़ा किया ।
वीरप्पा मन्त्रमुग्ध-सा सब कुछ देख रहा था । एक बार उस सायबान के नीचे पहुंच जाने के बाद कार जैसे गायब हो गई ।
“वीरप्पा !” - जयशंकर ने आवाज दी ।
वीरप्पा ने स्कूटर को स्टैण्ड पर खड़ा किया और जयशंकर के पास पहुंच गया ।
जयशंकर कार की डिकी खोल रहा था ।
वीरप्पा ने देखा डिकी सामान से अटी पड़ी थी ।
“तुम बिस्तरबन्द उठाओ, मैं सूटकेस उठाता हूं ।” - जयशंकर बोला ।
वीरप्पा ने तत्काल आज्ञा का पालन किया । जयशंकर सूटकेस उठाकर आगे बढ़ा । वीरप्पा उसके पीछे हो लिया ।
एक स्थान पर जयशंकर रुका । उसने कुछ झाड़ियों को दायें-बायें सरकाया । उन झाड़ियों के पीछे से एक गुफा का मुंह निकल आया ।
“आओ ।” - जयशंकर बोला ।
वीरप्पा नेत्र फलाये उसके पीछे गुफा में घुस गया ।
भीतर घुप्प अन्धेरा था ।
जयशंकर ने जेब से टार्च निकाली और उसका प्रकाश भीतर डाला ।
वीरप्पा ने देखा गुफा काफी बड़ी थी और साफ-सुथरी थी । जयशंकर के संकेत पर उसने बिस्तरबन्द एक कोने में रख दिया । जयशंकर ने उसकी बगल में सूटकेस रख दिया ।
“वीरप्पा” - जयशंकर हांफता हुआ बोला - “तुम डिकी का बाकी सामान भी यहां ले आओ । मैं दिल का मरीज हूं । बोझ उठाने से मेरी छाती में दर्द होने लगता है ।”
“मैं अभी लाता हूं ।” - वीरप्पा बोला और गुफा से बाहर निकल गया ।
दो फेरों में वीरप्पा डिकी का सामान भी गुफा में ले आया ।
“अब यहां इतना इन्तजाम है” - जयशंकर बोला - “कि कोई आदमी एक महीने तक इस गुफा से बाहर कदम भी रखे बिना मजे से जिन्दगी बसर कर सकता है ।”
“लेकिन बॉस, यह सब इन्तजाम‍ किस लिये ?” - वीरप्पा हैरानी से बोला ।
“डाके के बाद पुलिस हमारी तलाश में मद्रास का चप्पा-चप्पा छान मारेगी । जब तक पुलिस की तलाश ठण्डी नहीं पड़ जायेगी तब तक हम सत्तर लाख रुपयों में से एक नया पैसा भी खर्च नहीं कर सकेंगे । मुझे उम्मीद है कि पन्द्रह-बीस दिनों में पुलिस की सरगर्मी खतम हो जायेगी । मैंने यहां दौलत के साथ एक महीने छुपे रहने का इन्तजाम किया हुआ है । छुपने के लिए इससे ज्यादा सुरक्षित स्थान सारे मद्रास में नहीं मिल सकता । एक महीना गुजर जाने के बाद तुम और मैं आपस में यह दौलत बांट लेंगे ।”
“जी !” - वीरप्पा बुरी तरह चौंका ।
“हां ।” - जयशंकर कुटिल स्वर में बोला - “सत्तर लाख में से चालीस लाख मैं रखूंगा और तीस लाख तुम्हें दूंगा ।”
“लेकिन बाकी लोग ?”
“ऐसी की तैसी बाकी लोगों की । तुम्हारे सिवाय किसी को इस जगह की जानकारी नहीं है । पुलिस की तरह वे भी सिर पटककर मर जायेंगे लेकिन मुझे तलाश नहीं कर पायेंगे ।”
वीरप्पा हक्का-बक्का सा उसका मुंह देख रहा था ।
“तुम कुछ दिन सूर्यनारायण रोड वाले बंगले में उन लोगों के साथ छुपे रहोगे ताकि उन्हें सन्देह न हो कि तुम मेरे साथ मिले हुये हो । उसके बाद तुम बंगले से चुपचाप खिसक कर यहां आ जाओगे । पुलिस की सरगर्मी ठण्डी होने के बाद हम झाड़ियों में खड़ी एम्बैसेडर में बैठकर आराम से मद्रास से बाहर निकल जायेंगे । ओके ?”
वीरप्पा ने मशीन की तरह सहमतिसूचक ढंग से सिर हिला दिया ।
“अब चलो यहां से ।” - जयशंकर बोला ।
दोनों गुफा से बाहर निकल आये । झाड़ियों से उन्होंने गुफा का मुंह पहले की तरह ढक दिया ।
फिर वे वीरप्पा के स्कूटर पर वापिस मद्रास शहर की ओर रवाना हो गये ।