प्राक्कथन
“भाई साहब!”
विमल ठिठका, आवाज की दिशा में घूमा।
एक परेशानहाल, बद्हवास युवती उससे सम्बोधित थी। उम्र में वो बीसेक साल की जान पड़ती थी, उसका रंग गोरा था और नयननक्श तीखे थे। वो फुटपाथ पर खड़ी थी और अपना बायाँ हाथ दायें कंधे पर टिकाये बेचैनी से पहलू बदल रही थी।
विमल और नीलम मार्केट में शापिंग के लिये आये थे, नन्हा सूरज घर पर मेड के हवाले था, और अब वो वापिस लौट रहे थे तो वो पुकार विमल के कान में पड़ी थी।
“हाँ।” — विमल बोला।
“भाई साहब, वो लड़का . . .”
विमल ने देखा वो कोई दस-बारह गज परे एक पेड़ के नीचे खड़े एक लड़के की तरफ इशारा कर रही थी।
“क्या हुआ उसे?” — विमल असमंजसपूर्ण भाव से बोला।
“उसे नहीं, मुझे हुआ।” — वो बोली — “उसने किया।”
“क्या?”
“मेरा . . . दुपट्टा . . . छीन कर ले गया।”
“अरे!”
तब विमल की समझ में आया कि क्यों उसका बायाँ हाथ उसके दायें कन्धे पर था। यूं वो अपने वक्ष को ढंके थी।
“चलो!” — नीलम उसकी बाँह खींचती बोली।
“अभी। अभी।” — विमल ने सप्रयास अपनी बाँह को आजाद किया। उसने फिर उस लड़के की ओर देखा तो इस बार उसे उसके हाथ में लड़की के सलवार सूट से मैच करता दुपट्टा दिखाई दिया। उसकी विमल से निगाह मिली तो वो दाँत निकाल कर हँसने लगा।
अब वो शक्ल से ही शोहदा लग रहा था।
एकाएक उसने एक बड़ी अश्लील हरकत की। उसने हाथ में थमे दुपट्टे को गुच्छा-मुच्छा किया और युवती को दिखाकर उसे यूँ अपनी जींस के अग्रभाग से रगड़ने लगा जैसे दुपट्टे में हस्तमैथुन कर रहा हो।
लड़की के चेहरे पर शर्म की लाली दौड़ गयी, उसने कातर भाव से विमल की तरफ देखा।
विमल के जबड़े भिंचे, अंजाने में उसके दायें हाथ की मुट्ठी कसने लगी।
लड़के ने वो जलील हरकत बन्द की तो दुपट्टे के दोनों सिरों को दोनों हाथों में पकड़कर अपनी जाँघों के बीच आगे-पीछे फिराने लगा।
मुट्ठियाँ भींचे विमल उसकी तरफ बढ़ा।
“ख़बरदार!” — नीलम भिंचे दान्तों के बीच से फुंफकारी।
विमल ठिठका।
“तुम्हारा कोई मतलब नहीं।”
“लेकिन” —विमल आवेश से बोला — “वो लड़का . . .”
“बहुत कमीना है। गोली मार देने के काबिल। लेकिन जो तुम देख रहे हो, वो और लोग भी देख रहे हैं।”
“अरे, वो बेचारी लड़की . . .”
“सिर्फ तुम्हारे लिये बेचारी नहीं है। सबके लिये बेचारी है। तुम चौधरी बनने की कोशिश मत करो।”
“लेकिन . . .”
“अपना वादा याद करो, सरदारजी। याद करो और याद रखो। यहाँ दिल्ली में तुम एक आम शहरी हो। तुम भूल चुके हो कि तुम सोहल हो।”
“लेकिन . . .”
“कोई लेकिन नहीं। आम शहरी जैसा अपना मिजाज तुम्हें बनाना होगा वर्ना तुम्हारे लिये दिल्ली में और पीछे छुटी मुम्बई में कोई फर्क बाकी नहीं बचेगा। यहाँ भी दीन के हेत लड़ने वाले सूरमा जैसा मिजाज बना कर रखने से बाज नहीं आओगे तो कभी वैसे आम गृहस्थ नहीं बन सकोगे जैसे बनने की ख्वाहिश तुमने अपने मुरीदों के सामने मुम्बई में जाहिर की थी:
“मैं दिल्ली जाकर रहूँगा जहाँ मेरा एक छोटा-सा फ्लैट है, जिसमें मैं बीवी बच्चे के साथ रहूँगा, जहाँ गैलेक्सी की एकाउन्टेंट की नौकरी है, जो मैं एक मेहनती मुलाजिम की तरह करूँगा। मैं अपने मेहरबानों से दरख्वास्त करता हूँ कि वो मेरे लिये दुआ करें कि मेरी सैलाब जैसी जिन्दगी में ठहराव आये, मेरी कुत्ते जैसी दुर-दुर बन्द हो, मुझे भी आखिर पता लगे कि गृहस्थ होने का चैन और सुकून क्या होता है। मेरी बीवी विधवा की जिन्दगी जी रही है, उसे अहसास हो कि वो विधवा नहीं, सुहागन है। मेरे बच्चे के सिर पर बाप का साया हो। मैं सरदार सुरेन्द्र सिंह सोहल, सरदारनी नीलम कौर सोहल और सरदारजादा सूरज सिंह सोहल के साथ हरमिन्दर साहब की देहरी पर मत्था टेकने का सुख पाऊँ और वाहे गुरु से दुआ मांगू किं जमीं दी है तो थोड़ा आसमान भी दे, मेरे खुदा मेरे होने का कुछ गुमान भी दे।”
“भाई साहब!” — लड़की के आर्तनाद से विमल की विचार शृंखला को ब्रेक लगी। उसने सिर उठा कर सामने देखा।
लड़के ने अपनी जलील, अश्लील हरकत से किनारा कर दिया था, दुपट्टा अब फिर एक गोले की शक्ल में उसके दायें हाथ में था और वो पूर्ववत् दाँत निकालता लड़की की तरफ बढ़ रहा था।
“भाई साहब, आप कुछ कीजिये।”
“पुलिस को कॉल करो।” — विमल होंठों में बुदबुदाया।
“अभी तो कुछ कीजिये।”
“अपने मोबाइल से सौ बजाओ।”
“लेकिन अभी तो . . .”
“डायल 100, डोन्ट वेस्ट टाइम।”
लड़का लड़की से दो गज परे पहुँच कर ठिठका, उसका दुपट्टे के गोले वाला हाथ ऊपर उठा और गोला उसने खींच कर लड़की को दे मारा।
गोला लड़की के चेहरे से टकराया और नीचे फुटपाथ पर जाकर गिरा।
लड़के ने एक धृष्ट निगाह लड़की पर डाली, खीसें निपोरीं, घूमा और करीब खड़ी एक फैंसी मोटरसाइकल पर सवार होकर यह जा वह जा।
लड़की ने दुपट्टा उठाने की कोशिश न की — उसने दुपट्टे की तरफ झाँका तक नहीं — जरूर लड़के की घिनौनी हरकत के बाद उसे दुपट्टे को छूना भी गवारा नहीं था। वो घूमी और सिर झुकाये फुटपाथ पर आगे बढ़ चली।
“खता माफ करना, वाहे गुरु जी” — विमल होंठों में बुदबुदाया — “आज गुरां दा सिंग दीन के हित के लिये न लड़ सका।”
“जज्बाती होने की जरूरत नहीं।” — नीलम सख्ती से बोली — “भूल जाओ कि तुम क्या थे और क्या कर सकते थे, कि तुम जो थे वही होते तो क्या करते।”
“उस लड़के की ऐसी गत बनाता” — विमल हिंसक भाव से बोला — “कि वो उस घड़ी को कोसता जब कि उसकी माँ ने उसको पैदा किया था।”
“मालूम है। इसीलिये टोका। इसीलिये रोका।”
“दाता! क्या होगा इस मुल्क का!”
“ये मुल्क का निजाम चलाने वालों के सोचने की बात है, एक प्राइवेट कम्पनी के एक मामूली एकाउन्ट्स आफिसर के सोचने की बात नहीं है ये। पब्लिक को वैसा ही निजाम हासिल होता है जैसा निजाम वो डिजर्व करती है।”
“बहुत सयानी बातें करती है! मेरे से दूर रह कर आलम फाजिल हो गयी है!”
“चलो अब।”
“सब तमाशा है।” —कोई भीड़ में से उच्च स्वर में बोला — “साली खुद पहले भाव देती हैं, फिर भाव बढ़ाने के लिए अड़ी करने लगती हैं। अब मर्द बच्चा भड़के नहीं तो क्या करे!”
“एकदम ठीक बोला।” — कोई दूसरा बोला — “चलो, उनके तमाशे का हमें भी तो मजा आया!”
“हमें क्या मजा आया?” — कोई और बोला।
“अरे, देखा नहीं कितने बड़े-बड़े थे उसके! दुपट्टे बिना साफ नजारा हो रहा था!”
“हाँ, यार। लड़के ने जब दुपट्टा झपटा था, तब साली के जम्पर के एक दो बटन भी तोड़ देता तो और यादगार नजारा होता।”
“ख्वाब देखता है साला हरामी!”
सामूहिक अट्टहास का शोर उठा।
विमल का पारा फिर चढ़ने लगा, उसकी आँखों में कहर के लाल डोरे खिंचने लगे।
नीलम ने मजबूती से उसकी बाँह थामी और उसे जबरन एक ओर चलाने लगी।
अपने आक्रोश पर काबू पाने की कोशिश करता विमल उसके साथ खिंचता चला गया।
विमल को नीलम और सूरज के साथ दिल्ली आये दो महीने हो गये थे।
गैलेक्सी की एकाउन्ट्स आफिसर की नौकरी में खुद को पुर्नस्थापित करने में उसे कोई दिक्कत नहीं हुई थी। गैलेक्सी ट्रेडिंग कॉरपोरेशन के मालिक दिवंगत शिव शंकर शुक्ला के सौजन्य से वहाँ उसकी वो नौकरी सदा बरकरार थी। उसकी बाबत पूछे जाने पर वहाँ से हमेशा जवाब मिलता था कि कश्मीरी विस्थापित अरविन्द कौल वहाँ एकाउन्ट्स आफिसर थे, कम्पनी के काम से हैदराबाद/मुम्बई/बैंगलौर टूअर पर गये हुए थे। शुक्ला साहब के कत्ल के बाद से कम्पनी की बागडोर उनकी पत्नी शोभा शुक्ला सम्भाल रही थी, जिसको विमल के बारे में शुक्ला साहब की पहले से हिदायत थी। लिहाजा दिल्ली आकर गैलेक्सी में स्थापित होने में विमल को कोई दिक्कत नहीं हुई थी। मैनेजर चान्दवानी ने तो बाकायदा खुशी जाहिर की थी कि उनका योग्य, गुणी, और कर्मठ एकाउन्ट्स आफिसर कौल हैड आफिस वापिस लौट आया था। कौल के विशेष प्रशंसक चीफ डिजाइनर आप्टे ने भी उसकी वापिसी पर वैसे ही उद्गार प्रकट किये थे।
रिहायश के मामले में दिल्ली में उसे जो आप्शन थी वो गोल मार्केट स्थित कोविल हाउसिंग सोसाइटी का एक छोटा-सा फ्लैट था जिसमें वो नीलम के साथ पहले भी काफी अरसा रह चुका था, लेकिन एक दूसरी आप्शन अपने आप ही पेश हो गयी थी।
जब पहाड़गंज पुलिस थाने में गिरफ्तार मायाराम बावा ने उसके बारे में हाल दुहाई मचाई भी कि वो विमल नहीं, मशहूर इश्तिहारी मुजरिम सरदार सुरेन्द्र सिंह सोहल था, जिसकी गिरफ्तारी पर तीन लाख रुपये का इनाम था, तो शिव शंकर शुक्ला के कॉर्पोरेट रसूख ने और सीबीआई के एंटीटैरेरिस्ट स्क्वॉड के डिप्टी डायरेक्टर योगेश पाण्डेय के सरकारी रुतबे ने उसे वक्ती तौर पर सोहल होने के इलजाम से बचा तो लिया था, लेकिन उनके उन दोनों मेहरबानों का यही पुख्ता ख़याल था कि अब उसका दिल्ली में बना रहना खतरनाक साबित हो सकता था क्योंकि मायाराम बावा को वक्ती तौर पर चुप भले ही करा दिया गया था, लेकिन वो चुप नहीं रहने वाला था। उसकी हाल दुहाई पुलिस न सुनती तो मीडिया सुन सकता था और नतीजतन कोई खुराफाती रिपोर्टर कथित कश्मीरी विस्थापित अरविन्द कौल के बखिये उधेड़ने की ठान लेता तो न उसकी गैलेक्सी की बाई प्रॉक्सी मुलाजमत वाली स्टोरी स्टैण्ड करती और न सोपोर के विस्थापित शरणार्थी वाली स्टोरी स्टैण्ड करती। फिर ये भी उजागर हो जाना कोई बड़ी बात नहीं थी कि असली ख़बरदार शहरी शिवनारायण पिपलोनिया नहीं, वो था। यूँ एक बार पुलिस का उस पर फोकस बनता तो वो उसकी बाबत उन राज्यों की पुलिस से भी दरियाफ्त करते जिनके रिकार्ड में कि वो इश्तिहारी मुजरिम था। फिर अरविन्द कौल का सोहल साबित हो जाना महज वक्त की बात होती, इसलिये विमल का वक्त रहते दिल्ली से कूच कर जाना जरूरी था।
अपने मेहरबानों की उस संजीदा राय के तहत विमल ने ऐन वैसा ही किया था।
अब एक अरसे के बाद उसने दिल्ली लौटने की जुर्रत की थी तो इसलिये कि अब दिल्ली में उसको लेकर वो हालात नहीं रहे थे, जो कि तब थे, जब कि मायाराम बावा की उसके सोहल होने की हाल दुइाई के तहत उसे दिल्ली से कूच करना पड़ा था। पहाड़गंज थाने का तब का एसएचओ नसीब सिंह रिटायर हो चुका था और दिल्ली से बोरिया बिस्तर समेटकर गढ़वाल चला गया था, जहाँ का वो मूल रूप से था। वहीं का सब-इन्स्पेक्टर जनकराज किन्हीं लोकल गैंगस्टर्स की गिरफ्तारी के दौरान उन से हुई पुलिस मुठभेड़ में मारा गया था और ऐसे ही अंजाम को विमल के वजूद के लिये सबसे बड़ा खतरा मायाराम बावा पहुँच चुका था। पंजाब पुलिस उसको ट्रांजिट रिमांड पर दिल्ली से अमृतसर लेकर जा रही थी जहाँ कि वो भारत बैंक की डकैती और डबल मर्डर का अपराधी था। पुलिस की वैन को जीटी रोड पर रास्ते में घात लगा कर कुछ अज्ञात लोगों ने रोका था और मायाराम बावा को छुड़ा ले गये थे। बाद में उसकी शूट की गयी लाश जीटी रोड पर के एक उजाड़ फार्म के एक करीबी कुयें से बरामद हुई थी और ये राज कभी उजागर नहीं हो सका था कि पंजाब पुलिस के कब्जे से उसको छुड़ाने वाले कौन थे और किसकी वजह से वो मौत का ग्रास बना था। बहरहाल, जो तीन शख़्स दिल्ली में विमल के वजूद के लिये खतरा बन सकते थे उनमें से दो मौत का निवाला बन चुके थे और एक हमेशा के लिये दिल्ली से दूर, बहुत दूर चला गया था।
लिहाजा विमल दिल्ली में सुरक्षित वापिसी कर सकता था।
दिल्ली से पलायन करते वक्त उसका आवास मॉडल टाउन स्थित पिपलोनिया की डी-9 नम्बर कोठी थी, अपनी वसीयत के तहत जिसका मालिक पिपलोनिया विमल को बना कर मरा था। दिल्ली से पलायन से पहले विमल ने वो कोठी औने-पौने दामों में एक बिल्डर को बेच दी थी, जिसका उसने सिर्फ बयाना हासिल किया था, बाकी तमाम फॉलोअप उसकी अथारिटी पर उसके दोस्त और ख़ैरख़्वाह योगेश पाण्डेय ने करना था। बाद में बाजरिया योगेश पाण्डेय ही विमल को ख़बर लगी थी कि बिल्डर इस बिना पर डील से बैक आउट कर गया था कि बेचने वाले के नाम, विमल के नाम, उसका क्लियर टाइटल नहीं था। वो कोठी बेच पाने से पहले विमल के लिये जरूरी था कि वो लोकल म्यूनीसिपल कार्पोरेशन के रिकार्ड में कोठी की मिल्कियत अपने नाम ट्रांसफर कराता, जिसके लिये विमल के पास वक्त नहीं था क्योंकि उसका दिल्ली में जरा भी फालतू रुकना खतरे से खाली नहीं था।
लिहाजा, मॉडल टाउन की वो कोठी उसकी दिल्ली वापिसी के वक्त भी विमल की मिल्कियत थी और अब उसके पास चॉयस थी कि वो अपनी गृहस्थी कोविल हाउसिंग सोसायटी, गोल मार्केट वाले फ्लैट में स्थापित करता या डी-9 मॉडल टाउन को फिर आबाद करता।
विमल ने मॉडल टाउन वाली कोठी को तरजीह दी थी।
हालाँकि योगेश पाण्डेय उसके उस फैसले से सहमत नहीं था।
बतौर दिल्ली प्रवास मॉडल टाउन को चुनने के पीछे एक और भी वजह थी जो विमल योगेश पाण्डेय को नहीं बता सकता था।
वो वजह अजीत लूथरा थी।
कभी अजीत लूथरा दिल्ली पुलिस में सब-इंस्पेक्टर होता था, जो विमल के पिछले दिल्ली प्रवास के दौरान अपनी सरकारी हैसियत के बूते पर पंजे झाड़ के उसके पीछे पड़ा था। वो बतौर सोहल उसे पहचान गया था और उसे गिरफ्तार करके वाहवाही लूटने की जगह उसने उसे बाकायदा ब्लैकमेल करने की कोशिश की थी। पूरी बेशर्मी से उसने अपनी खामोशी की विमल से एक बड़ी कीमत माँगी थी और बाद में जब उसकी चाल उसे उलटी पड़ गयी थी तो उसने खुद कबूल किया था कि उसने विमल को — सोहल को — बहुत कम कर के आँका था, जिसका नतीजा ये निकला था कि हाथ से नौकरी भी गयी थी और वो गिरफ्तार भी हो गया था। सोहल के पलटवार के नतीजे के तौर पर उसके घर पर पड़ी एंटीकरप्शन डिपार्टमेंट की रेड में दो किलो चरस बरामद हुई, एक मोटी कैश रकम बरामद हुई और लेखराज मूंदड़ा नाम के एक नोननॉरकॉटिक्स स्मगलर ने उसके खिलाफ बयान दिया कि अजीत लूथरा नॉरकॉटिक्स स्मगलिंग में उसका जोड़ीदार था। नतीजतन, तत्काल उसे नौकरी से सस्पेंड कर दिया गया और गिरफ्तार कर लिया गया। बड़ी मुश्किल से उसकी जमानत हुई लेकिन फिर नौकरी से सस्पेंशन बर्खास्तगी में तब्दील हो गयी। तब लूथरा ने सोहल के हजार हाथों में से दो हाथ बन कर दिखाया और उसके खूब काम आया। वो जमानत पर तब भी छूटा हुआ था लेकिन मुकदमा उस पर बरकरार था। फिर उसकी रूठी किस्मत ने उसका साथ दिया कि लेखराज मूंदड़ा को जेल में दुश्मन गैंग के कैदियों ने मार डाला। यूँ लूथरा के केस में उसके खिलाफ जो सबसे बड़ा गवाह था, वो न रहा। फिर जो दो किलो चरस उस के फ्लैट से बरामद हुई थी, उस की बाबत — फिर कर्टसी सोहल — फॉरेंसिक रिपोर्ट आयी कि वो सूखी घास थी। तब लूथरा शेर हो गया, उसने पुरजोर दावा किया कि जो कैश रकम उसके फ्लैट से बरामद हुई थी, वो उसे फँसाने के लिये वहाँ प्लांट की गयी थी। उन बातों का सामूहिक नतीजा ये निकला कि इसके खिलाफ जो केस था, वो अदालत में न टिक पाया और वो बरी हो गया। उस फैसले की रू में न सिर्फ उसकी अपनी नौकरी पर बहाली हो गयी, वो तरक्की पा कर इसलिये इन्स्पेक्टर बन गया क्योंकि उसके लाँग सस्पेंशन पीरियड के दौरान उसके बैच के सारे सब-इन्स्पेक्टर, इन्स्पेक्टर बन गये थे।
विमल की मॉडल टाउन प्रवास को तरजीह देने की ये भी वजह थी कि दिल्ली आते ही जब उसने लूथरा से सम्पर्क किया था, तो उसे मालूम पड़ा था कि महकमे में उसकी मौजूदा पोस्टिंग मॉडल टाउन थाने में बतौर एडीशनल स्टेशन हाउस आफिसर थी, विमल ने उस इलाके में बसना इसलिए पसन्द किया, जिसके थाने का एएसएचओ न सिर्फ उसका वाकिफ था, उसका अनन्य भक्त था, उसका राजदार था। लिहाजा उसके सौ काम आ सकता था।
□ □ □
21 अक्टूबर-सोमवार
आफिस जाने को तैयार विमल ब्रेकफास्ट टेबल पर मौजूद था और खामोशी से नाश्ता कर रहा था।
कितनी ही देर से सामने बैठी नीलम ने अपलक उसे देखा, उसने सिर न उठाया तो वो बोली — “क्या बात है, सरदार जी, तबीयत तो ठीक है?”
“मुझे सरदार मत बोला कर।” — विमल झुँझलाया — “पहले भी कई बार बोला। मैं यहाँ कौल हूँ, कश्मीरी ब्राह्मण, कोई ‘सरदार जी’ सुनेगा तो क्या कहेगा!”
“यहाँ कौन सुनेगा?”
“अरे, दीवारों के भी कान होते हैं!”
“होते होंगे! जुबान तो नहीं होती!”
“बहुत स्मार्ट हो गयी है।”
“सोहबत का असर है, जी। मेरा सरदार स्मार्ट है तो . . . मेरा मतलब है सरताज स्मार्ट है तो . . .”
“बस कर। मेड को भूल गयी! वो सुनती हो सकती है!”
“ओह! फिर तो सॉरी!”
“आई बड़ी अंग्रेज।”
“पर मेरी बात तो तुमने बीच में ही गुम कर दी!”
“कौन-सी बात?”
“आज बहुत गुमसुम हो! मैं पूछ रही थी, तबीयत तो ठीक है?”
“तबीयत को कुछ नहीं हुआ। वो ठीक है। मन ठीक नहीं है।”
“क्यों भला?”
“मार्केट का कल वाला नजारा नहीं भूलता। जेहन पर उस लड़की की परेशान सूरत उबरती है, उस शैतान की औलाद लड़के की धृष्ट, गुस्ताख सूरत उबरती है तो मन आन्दोलित हो उठता है।”
“भूल जाओ सब। आजकल बड़े शहरों की ये रोजमर्रा की बातें हैं।”
“तू न रोकती तो उस चाण्डाल को ऐसा सबक सिखाता कि . . .”
“फिर शुरू हो गये! उसको कोई सबक सिखाने से पहले खुद अपना सबक याद करो जो ऐसे मौकों पर जोश खाते हो तो भूल जाते हो।”
“क्या कह रही है!”
“तुम्हें मालूम है क्या कह रही हूँ। तुमने वादा किया था कि अपनी गुजश्ता, ख़ूनआलूदा जिन्दगी को कतई भूल जाओगे और यहाँ दिल्ली आकर एक नयी, सलेट जैसी साफ जिन्दगी शुरू करोगे जो उस गुनाह की दुनिया की परछाई से भी दूर होगी, जिसमें तुम जुल्म की आँधियों के दरम्यान तिनके की तरह उड़ते फिरते थे। तुम्हारी खुद की हमेशा की ख़्वाहिश थी कि तुम्हें इत्मीनान की, सुकून की जिन्दगी हासिल हो और जब ऐसी जिन्दगी की देहरी पर तुम कदम रख रहे हो तो एक छोटे से, रोजमर्रा के वाकये से हिलकर दिखा रहे हो! आन्दोलित होकर दिखा रहे हो! जो कल तुमने देखा, वो आज के बड़े शहरों के मिजाज की छोटी-मोटी बातें हैं, उन से भड़कोगे और कुछ कर गुजरने को उतावले होने लगोगे तो कैसे अपने वादे पर खरा उतर कर दिखाओगे कि अब कभी अपनी गुनाहों से पिरोई गुजश्ता जिन्दगी की तरफ झाँकोगे भी नहीं! नयी जिन्दगी की तरफ तुम्हारा तो पहला ही कदम मुझे लड़खड़ाता दिखाई दे रहा है!”
“ये” — विमल भौंचक्का सा बोला — “तू ही बोल रही है न!”
“नहीं, बैडरूम से टीवी की आवाज आ रही है।”
“लैक्चर देना कब से सीख गयी?”
“सिखा दिया सधवा होते हुए विधवा की जिन्दगी जीने ने।”
“शट अप!”
“क्यों, कुछ गलत कह दिया मैंने?”
“ऐसी बातें ठीक भी हों तो नहीं सुननी मैंने।”
“जो आज्ञा, प्राणनाथ। अब उठो, नौ बजने को हैं।”
“ओह!”
“और वापिसी में गुरुद्वारे मत्था टेक कर आना। मन निर्मल हो जायेगा। आन्दोलित भावनायें शान्त हो जायेंगी।”
“कमाल है! साली मिडल फेल! कैसी फैंसी लफ्फाजी झाड़ रही है!”
“पास। सौ बार कहा।”
विमल हँसा।
फिर उसने उठकर अपना ब्रीफकेस सम्भाला और बाहर की ओर बढ़ा।
नीलम चौखट तक उसके साथ आयी।
विमल ने बाहर कदम रखा तो वो चौखट पर ही ठिठक गयी।
“मैंने सुना है” — वो विनोदपूर्ण स्वर में बोली — “बाहर के मुल्कों में साहब लोग जब ऐसे सुबह घर से रवाना होते हैं तो अपनी मेम के गाल पर थूक लगा के जाते हैं।”
“माँ का सिर सुना है।” — विमल की हँसी निकल गयी — “अरी, मिडल फेल, बीवी को ‘गुडबाई किस’ से नवाज के जाते हैं।”
“किस से? थूक से?”
“के-आई-डबल एस किस से। अब तेरे को के-आई-डबल एस नहीं समझ में आना, साली हिन्दी मीडियम। अब . . .”
एकाएक विमल ठिठका।
“क्या हुआ?” — नीलम सशंक भाव से बोली।
विमल ने ख़ामोशी से सामने कोठी के आयरन गेट से पार सड़क पर इशारा किया। नीलम ने उसकी निगाह का अनुसरण किया तो पाया वहाँ ऐन गेट के सामने एक स्टील ग्रे कलर की ‘वरना’ खड़ी थी जिसकी वहाँ मौजूदगी के दौरान विमल कोठी के भीतर खड़ी अपनी रिट्ज कार बाहर नहीं निकाल सकता था।
दोनों आयरन गेट के करीब पहुँचे।
“मैं इस कार को पहचानती हूँ।” — नीलम बोली।
विमल की भवें उठीं।
“छः नम्बर वालों की है। उनका नौजवान लड़का चलाता है। शायद अरमान त्रिपाठी नाम है। रात-ब-रात भटकता है। देर रात लौटता है, तो गाड़ी कहीं भी खड़ी कर देता है।”
“कहीं भी क्यों?”
“उनके पास तीन गाडि़याँ हैं। हमारी तरह भीतर गैराज नहीं है उनके यहाँ। इसलिये उन्हें पार्किंग की प्रॉब्लम है।”
“तू तो बहुत कुछ जानती है आस-पड़ोस के बारे में!”
“क्या बड़ी बात है! दो महीने हो गये यहाँ रहते।”
“ठीक! त्रिपाठी! छः नम्बर!”
“क्या इरादा है?”
“जाके बात करता हूँ न!”
“सुनो! जाने दो।”
“क्या! आफिस जाना जाने दूँ? छुट्टी कर लूँ आज, क्योंकि पड़ोसी की नालायकी, बल्कि धाँधली, की वजह से मैं अपनी गाड़ी बाहर नहीं निकाल सकता!”
“नहीं।”
“तो!”
“कैब बुला लो।”
विमल ने अपलक उसकी तरफ देखा।
“प्लीज!”
विमल एक क्षण हिचका, फिर उसने सहमति में सिर हिलाया।
नीलम ने चैन की साँस ली।
अगले दिन फिर वही हुआ।
सुबह विमल का आफिस जाने का वक्त हुआ तो उसने वही ‘वरना’ फिर अपने आयरन गेट पर खड़ी पायी।
“मैं कल शाम जब लौटा था” — विमल भुनभुनाता-सा बोला — “तब तो ये यहाँ नहीं थी!”
“दोपहरबाद किसी वक्त गयी थी।” — नीलम धीरे से बोली।
“बात करनी थी!”
“मुझे पता ही नहीं लगा था कब गयी थी। अन्दाजन बोला कि दोपहर के बाद गयी थी क्योंकि तब सब्जी वाले की आवाज सुनकर मैं बाहर निकली थी।”
“अब क्या करूँ मैं? आज भी कैब बुलाऊँ?”
“प्लीज! आज मैं निगाह रखूँगी। आज मैं बात करूँगी।”
“ठीक है।”
कुछ ठीक न हुआ।
उससे अगले दिन भी ‘वरना’ वहीं खड़ी थी।
विमल का पारा चढ़ने लगा।
“तूने बात नहीं की कल?” — वो गुस्से से बोला।
“कोशिश की थी।” — नीलम दबे स्वर में बोली।
“क्या मतलब?”
“मैं खास उसकी ताक में थी। वो छोकरा आया तो मैं बाहर निकली थी। लेकिन उसने तो मुझे बात करने का मौका ही नहीं दिया। मैं आवाज ही देती रह गयी और वो गाड़ी लेकर निकल भी लिया!”
“हूँ! त्रिपाठी! छः नम्बर!”
“हाँ। लेकिन . . .”
“अब ख़बरदार जो कहा कि कैब बुला लूं।”
“नहीं” — नीलम का स्वर और व्यग्र हुआ — “मैं तो कह रही थी . . .”
“अरे, क्या कह रही थी! साफ बोल। मुझे पहले ही देर हो रही है।”
“झगड़ा न करना। प्लीज।”
विमल ने घूर कर उसे देखा।
“तुम्हें . . . सूरज की कसम।”
विमल ने गहरी साँस ली फिर असहाय भाव से सहमति में गर्दन हिलाई।
आयरन गेट को धकेल कर वो बाहर निकला और सड़क पर दायीं ओर आगे बढ़ा। छः नम्बर एक दोमंजिला कोठी थी, जिसके सामने जैसे-तैसे तीन कारें पहले से खड़ी थीं।
तीन!
उसने देखा कोठी के आयरन गेट के पहलू में एक चिट्ठी डालने के काम आने वाला लम्बा झरोखा था जिसके नीचे पीतल के अक्षरों से जड़ी ग्रेनाइट की एक स्लैब तिरछी लगी हुई थी जिस पर दर्ज था:
चिन्तामणि त्रिपाठी
गौरमेंट कान्ट्रैक्टर
डी-6, मॉडल टाउन
बन्द आयरन गेट पर स्टूल पर बैठा एक वर्दीधारी वाचमैन मौजूद था।
“मैं नौ नम्बर से हूँ। अरविन्द कौल।” — विमल बोला — “जरा त्रिपाठी जी को बुला दो।”
“वो तो इस वक्त नहीं बुल सकते!” — वाचमैन बोला।
“क्यों?”
“फैमिली के साथ ब्रेकफास्ट कर रहे हैं। उठ के कैसे बाहर आयेंगे?”
“तो भाई, मेरे को उनके पास ले चल।”
वाचमैन ने उस बात पर विचार किया, फिर उठकर आयरन गेट खोला और भीतर को बढ़ा।
विमल उसके पीछे हो लिया।
वाचमैन उसे एक भव्य डाइनिंगरूम में लेकर आया जहाँ एक विशाल डायनिंग टेबल के गिर्द परिवार के बच्चे, बड़े कई सदस्य बैठे ब्रेकफास्ट कर रहे थे। उनमें से एक कोई पचपन साल का रौबदार शक्ल-सूरत वाला व्यक्ति था, जिसने सबसे पहले सिर उठाया और अप्रसन्न भाव से बोला— “क्या है!”
“ये पड़ोस से हैं।” — वाचमैन विनयशील स्वर में बोला — “आप से मिलना चाहते हैं।”
“तो यहाँ क्यों ले आया? देखता नहीं, ब्रेकफास्ट कर रहे हैं!”
“साहब, मैंने सोचा कि कोई जरा-सी बात होगी, इसलिए . . .”
“खैर, अब ले आया तो . . . ठीक है। देखते हैं। तू जा।”
वाचमैन वहाँ से रुख़सत हो गया।
“कौन हो, भई?” — पीछे उम्रदराज शख़्स बोला — “क्या चाहते हो?”
“मेरा नाम अरविन्द कौल है, जनाब।” — विमल विनयशील स्वर में बोला — “मैं नौ नम्बर में रहता हूँ . . .”
“तो!” — वो शख़्स उतावले स्वर में बोला — “तो?”
“आप की गाड़ी मेरी कोठी के आयरन गेट के आगे खड़ी है . . .”
“तो क्या आफत आ गयी?”
“कल भी खड़ी थी। परसों भी खड़ी थी।”
“अरे, भई, तो क्या आफत आ गयी आज, कल या परसों?”
“आफत कोई नहीं आ गयी, जनाब, लेकिन बात ये है कि मैं अपनी गाड़ी भीतर से बाहर नहीं निकाल सकता! दो दिन इसी विघ्न की वजह से मुझे कैब बुलानी पड़ी। मैं रोज-रोज कैब नहीं बुला सकता। मैं नौकरीपेशा आदमी हूँ, मेरा फिक्स्ड-टाइम पर आफिस पहुँचना जरूरी होता है। मुझे देर हो रही है।”
“तो हम क्या करें?”
“आपकी वजह से देर हो रही है।”
“क्या चाहते हो?”
“चाहता क्या हूँ! बताया तो है! मेरे गेट पर से अपनी गाड़ी हटाइये ताकि मैं . . .”
“यार, तुम तो खड़े घोड़े पर सवार हो! ऐसे होता है कहीं! अब ब्रेकफास्ट भी नहीं करने दोगे! इतने सख्त हाकिम हो . . .”
“जनाब, मैं हाकिम नहीं हूँ, मैं तो . . .”
“हुक्म तो हाकिम की तरह ही दनदना रहे हो!”
“. . . दरख़्वास्त कर रहा हूँ। दरख़्वास्त कर रहा हूँ कि . . .”
“ठीक है, ठीक है। ब्रेकफास्ट से निपट कर करते हैं कुछ।”
“जनाब, मैंने आफिस पहुँचना है, मुझे देर . . .”
“तो क्या करें? ब्रेकफास्ट छोड़ दें?”
“मैंने तो ऐसा नहीं कहा!”
“कह लो। एक तो घर में घुस आये और आकर सिर पर सवार हो गये, ऊपर से . . .”
“मैं नहीं घुस आया। आपका वाचमैन मुझे यहाँ लाया।”
“अब वाचमैन ही बाहर ले जायेगा तो जाओगे?”
विमल का चेहरा तमतमाने लगा।
‘झगड़ा न करना!’
नीलम की चेतावनी उसके जेहन में गूँजी।
उसने सप्रयास अपने भड़कने को तत्पर मूड पर काबू किया।
“गली सबकी साँझी होती है।” — उम्रदराज शख़्स के बाजू में बैठा एक नौजवान लड़का तमक कर बोला।
“क्या बोला?” — विमल ने घूर कर उसे देखा।
“हियरिंग में कोई प्रॉब्लम है क्या?”
“तुम शायद अरमान हो! जिसकी वो ‘वरना’ है जो मेरे आयरन गेट के सामने खड़ी है।”
“कैसे जाना?”
“. . . कल भी खड़ी थी। परसों भी खड़ी थी।”
“अरे, कैसे जाना कि मैं अरमान हूँ?”
“तुम्हारी एरोगेंस से जाना। तुम्हारी गुस्ताख़, बद्अख़लाक जुबान से जाना?”
वो हड़बड़ाया।
“ज्यादा जुबानदराजी की जरूरत नहीं है।” — फिर पूर्ववत् तमक कर बोला — “हमारी कोठी के आगे भी किसी की गाड़ी खड़ी है; वो हट जाये फिर हम भी हटा लेंगे।”
“कब?”
“जब भी वो गाड़ी हटेगी।”
“मैं इतना इन्तजार नहीं कर सकता।”
“तो मत करो।”
“नहीं करूँगा। आप अभी अपनी गाड़ी हटा लोगे तो क्यों करूँगा भला!”
“अरे, क्या सचमुच में बहरे हो! बोला न कि पहले वो गाड़ी, जो पता नहीं कौन साला . . .”
वो ठिठका, उसने बगल में बैठे उम्रदराज शख़्स की तरफ देखा जो अब प्रत्यक्ष था कि उसका पिता चिन्तामणि त्रिपाठी था।
“पता नहीं” — युवक भुनभुनाया — “गाड़ी इस गली की भी है या नहीं!”
“मुझे पता है।” — विमल धीरज के साथ बोला — “मुझे पता है ‘वरना’ तुम्हारी है और वो मेरा रास्ता रोक रही है। अब जरा चलो और उसे हटा लो ताकि मैं आफिस जा सकूँ।”
“अच्छा!” — पिता व्यंग्यपूर्ण भाव से बोला — “तुम्हारे कहने से ये ब्रेकफास्ट छोड़ दे!”
“जनाब, आप मेरी प्रॉब्लम भी तो समझो!”
“समझी है। ब्रेकफास्ट से फारिग हो लें, फिर . . . करते हैं कुछ। टलो अब।”
“टलूँ?”
“जाओ, भई।” —पिता फर्जी नम्रता से बोला — “तशरीफ़ ले जाओ। अब ठीक है?”
विमल ने सप्रयास सहमति में सिर हिलाया और रुख़सत पाने को वापिस घूमा।
वो अपनी कोठी पर लौटा।
“क्या हुआ?” — तब भी बरामदे में खड़ी नीलम ने व्यग्र भाव से पूछा।
विमल ने बताया।
“हे भगवान!” — नीलम हैरानी से बोली — “ऐसे पेश आये वो तुम्हारे साथ! ब्रेकफास्ट पर बैठे थे, अदब होता तो घर आये मेहमान को ब्रेकफास्ट ऑफर करते! अदब तो दिखाया नहीं, ऊपर से बद्तमीजी करने लगे!”
“पैसे की गर्मी हो तो अहंकार आ ही जाता है। जब अहंकार आता है तो बद्तमीजी साथ ले कर आता है।”
“अब क्या करोगे? इन्तजार!”
“मुझे कोई ऐतराज नहीं लेकिन मुझे लगता है अपनी ताकत बताने के लिये वो जानबूझ कर गाड़ी हटाने में देर करेंगे . . .”
“आज फिर कैब बुला लो। प्लीज।”
“पहले कुछ और ट्राई करता हूँ। ट्राई नाकाम रही तो कैब बुला लूँगा।”
“क्या ट्राई? क्या करोगे?”
“अभी सामने आता है।”
“कोई . . . फसादी काम न करना।”
“अरे, नहीं, भई। वादा है घरवाली से। वादाखिलाफ़ी कैसे करूँगा!”
“हाँ। याद रखना ये बात।”
“याद है, बीबी नीलम कौरे।”
विमल ने जेब से अपना मोबाइल निकाला और अजीत लूथरा को काल लगाई।
शाम को विमल घर लौटा।
छः नम्बर वालों का वाचमैन शायद उसी के लौटने की ताक में था, उसकी कार को पहचानते ही वो कोठी के भीतर को भागा।
विमल ने हॉर्न बजाया।
मेड ने कोठी से बाहर निकल कर आयरन गेट खोला तो विमल ने कार को भीतर ले जाकर खड़ा किया। वो कार से बाहर निकल कर अभी बरामदे की ओर बढ़ा ही था कि दनदनाता हुआ चिन्तामणि त्रिपाठी वहाँ पहुँच गया।
विमल ठिठका, प्रश्नसूचक नेत्रें से उसने त्रिपाठी के गुस्साये चेहरे की तरफ देखा।
“हमारी गाड़ी का क्या किया?” — त्रिपाठी सूरत से मैच करते गुस्से से बोला।
“आपकी गाड़ी!” — जानबूझ कर अंजान बनता विमल बोला।
“ ‘वरना’। नयी। जो सुबह यहाँ बाहर खड़ी थी! कहाँ गयी वो?”
“मुझे क्या मालूम कहाँ गयी! आप की गाड़ी की आप को ख़बर हो!”
“जब वो यहाँ गेट के आगे खड़ी थी तो तुमने अपनी गाड़ी कैसे निकाली?”
“जब मैंने अपनी गाड़ी निकाली थी, तो वो गेट के आगे नहीं खड़ी थी।”
“कहाँ गयी?”
“मुझे क्या पता कहाँ गयी! आप के बालक ने हटा ली होगी। आप बोल तो रहे थे ब्रेकफास्ट से फारिग होकर उस बाबत करेंगे कुछ!”
“हमने कुछ नहीं किया था। ब्रेकफास्ट से फारिग होकर जब अरमान यहाँ आया था तो गाड़ी यहाँ नहीं थी।”
“कहाँ गयी?”
“अरे, मैं तुम से पूछ रहा हूँ।”
“मुझे इस बाबत कुछ नहीं मालूम। मैं तो सुबह नौ बजे का निकला अभी लौटा हूँ।”
“यही तो मैं पूछ रहा हूँ कि निकले कैसे? गाड़ी से लौटे हो तो जाहिर है कि गाड़ी से ही गये थे। कैसे निकाली?”
“मैंने अर्ज किया न, जनाब, कि जब मैंने भीतर से गाड़ी निकाली थी तो बाहर ‘वरना’ नहीं थी वर्ना मैं गाड़ी निकाल ही न पाया होता।”
“नहीं थी तो कहाँ गयी! हमने तो नहीं हटाई थी!”
“तो किसने हटाई!”
“यही तो मैं जानना चाहता हूँ।”
“आपने नहीं हटाई तो एक ही बात हो सकती है।”
“क्या?”
“उठ गयी।”
“क्या!”
“चोरी हो गयी।”
“क्या! ये नहीं हो सकता। इधर कभी कोई कार चोरी की वारदात नहीं हुई।”
“जनाब, कभी तो पहल होनी ही होती है!”
“बिल्कुल नयी थी। अभी पिछले महीने ही ली थी।”
“कारजैकर्स नयी और हाई एण्ड कार्स पर ही घात लगाते हैं।”
“चोरी हो गयी!” — वो अनिश्चित भाव से बड़बड़ाया।
“और क्या हो सकता है! आपको थाने जा के चोरी की रपट लिखानी चाहिये।”
“अरमान बोल रहा था ऐसा। लेकिन मैं पहले तुम से बात करना चाहता था।”
“मेरे से बात कर ली है आपने। अब . . .”
“तुमने वाकई हमारी कार के साथ कोई करतब नहीं किया?”
“अरे, जनाब, मैं क्या करतब कर सकता था? गिली-गिली करके कार को गायब कर सकता था? क्या कर सकता था? बताइये?”
उससे जवाब, देते न बना।
“कर सकता होता तो पहली बार ही न करता!”
“तो” — वो फिर बोला — “जब तुमने अपनी कार निकाली थी तो हमारी ‘वरना’ बाहर नहीं थी?”
“ये भी कोई पूछने की बात है! ‘वरना’ बाहर होती तो मैंने अपनी कार कैसे निकाली होती? यूँ कार निकालना मुमकिन होता तो मैं क्यों फरियादी बन कर आप के द्वारे गया होता और फटकार खाकर लौटा होता?”
“ऐसी कोई बात नहीं थी। हम ब्रेकफास्ट बीच में नहीं छोड़ सकते थे, बस?”
“ठीक! ठीक! तो कब निपटे थे?”
“तुम्हारी आमद पर तो बस अभी बैठे ही थे डायनिंग टेबल पर। पन्द्रह-बीस मिनट तो लगते ही हैं न निपटने में!”
“ ‘फिर जायें या न जायें’ विचारने में भी वक्त लगा होगा!”
वो सकपकाया, उसने तनिक बेचैनी से पहलू बदला!
“बहरहाल ब्रेकफास्ट से फारिग होकर आप जब यहाँ आये तो आपकी ‘वरना’ यहाँ नहीं थी।”
“अरमान आया।”
“तब कार यहाँ नहीं थी!”
“हाँ। बहुत आगबगूला हुआ। वो तो . . . वो तो . . . तुम्हें ही जिम्मेदार ठहरा रहा था।”
“खामखाह! मैं चाहता भी तो क्या कर सकता था?”
“हूँ!”
“आप भीतर आइये और हमें मेहमाननवाजी का मौका दीजिये। मेरी बीवी कॉफी बहुत अच्छी बनाती है। ऐन कैफे कॉफी डे जैसी।”
“नहीं। मैं . . . थाने ही जाता हूँ।”
“जनाब, जब सुबह से नहीं गये तो थोड़ी देर और सही।”
“नहीं। जाता हूँ मैं। लेकिन एक बात गौर से सुन लो।”
“सुनाइये।”
“मुझे नहीं पता कार के साथ क्या हुआ लेकिन जो हुआ, उसमें तुम्हारा जरा सा भी हाथ निकला तो . . .”
“तो क्या?”
“तो तुम्हारी खैर नहीं।”
विमल ने जिस्म में झुरझुरी दौड़ गयी होने का अभिनय किया।
“मैं सरकारी ठेकेदार हूँ और मेरा छोटा भाई इसी इलाके से एमएलए है। दिल्ली सरकार में मेरी ऐन टॉप तक पहुँच है।”
“और हम ऐसी टॉप तक पहुँच वालों के पड़ोसी हैं!”
“अभी आयी बात समझ में।”
“महिमा घटी समुद्र की, रावण बसा पड़ोस।”
“क्या बोला?”
“कुछ नहीं। तो आप हमें टॉप-की-पहुँच के साथ कॉफी शेयर करने का मौका नहीं देंगे!”
“अभी थाने जाना है। फिर कभी . . . देखेंगे।”
“वैलकम ऐनी टाइम। वैसे गाड़ी इन्श्योर्ड तो थी न!”
“फुल्ली इंश्योर्ड थी। अभी पिछले महीने तो ली थी! आज कल तो फुल इंश्योरेंस के बिना गाड़ी शोरूम से निकाली ही नहीं जा सकती।”
“सॉरी! मैं भूल गया था। फिर क्यों फिक्र करते हैं! बीमा कम्पनी पूरा पैसा लौटायेगी।”
“अरे, पैसे की किसे फ़िक्र है! साले, बैंक एकाउन्ट भरे पड़े हैं। लॉकर भरे पड़े हैं। हैरान करने की बात तो ये है कि किसी ने चिन्तामणि त्रिपाठी की मूँछ का बाल उखाड़ने की कोशिश की!”
“जो सरकारी ठेकेदार हैं, जिनका भाई एमएलए है, जिनका चाचा, ताया, मामा, फूफा मंत्री हैं . . .”
“अभी नहीं है तो हो जायेगा। एमएलए भाई ही मंत्री हो जायेगा।”
“बधाई।”
“वैसे करते क्या हो?”
“प्राइवेट जॉब करता हूँ। केजी मार्ग पर गैलेक्सी ट्रेडिंग कार्पोरेशन करके एक कम्पनी है, उसमें एकाउन्ट्स ऑफिसर हूँ।”
“बस! फिर भी इतने ठाठ हैं!”
“कोई ठाठ नहीं है, जनाब, बस गुजारा चल रहा है।”
“ये कोठी तो काफी अरसे तक खाली पड़ी थी! फिर सुना था किसी बिल्डर ने खरीद ली थी। फिर तुम आ गये। किराये पर हो?”
विमल ने ख़ामोशी से इंकार में सिर हिलाया।
“ओह! तो मालिक हो! फिर भी कहते हो ठाठ नहीं हैं! एकाउन्ट्स आफिसर की कोई सिक्स-सेवन फिगर सैलरी तो होती नहीं होगी! फिर भी . . .”
“मेरे ख़याल से आप कॉफी पी ही लीजिये।”
“कॉफी!” — वो हड़बड़ाया — “नहीं। जाता हूँ।”
“थाने?”
“और कहाँ?”
“विश यू आल दि बैस्ट।”
वो चला गया।
भीतर का दरवाजा खोल कर नीलम ने बरामदे में कदम रखा।
“गया?” — वो बोली।
“हाँ।”
“साफ धमकी दे के गया!”
“अपनी मौत का सामान करके गया।”
“जोश नहीं खाना, सरदार जी, ठण्ड रखो। रखो ही नहीं रखे रहो। यूँ जोश खाओगे तो उसी दुनिया में पहुँच जाओगे जिसमें वापिस कदम न रखने का अहद लेकर दिल्ली आये हो और गृहस्थ बने वाइट कालर जॉब कर रहे हो। अभी कितनी बार और ये बात याद दिलानी पड़ेगी तुम्हें? वो आया अपनी मौत का सामान करने क्योंकि नहीं जानता तुम कौन हो। लेकिन तुम तो जानते हो तुम कौन हो!”
“वाइट कालर एम्पलाई! बल्ले! कैसे-कैसे फैंसी फ्रेज सीख गयी है साली मिडल फेल।”
“पास। सौ बार समझाया है।”
“अच्छा, अच्छा! अब भीतर चल और चाय की शक्ल दिखा।”
“उसको तो कॉफी ऑफर कर रहे थे! बोल रहे थे मैं कैफे कॉफी डे से बढि़या कॉफी बनाती हूँ!”
“बढि़या नहीं, अपने-मुँह-मियाँ-मिट्ठू, कैफ़े कॉफी डे जैसी! और इसलिये बोल रहा था क्योंकि मालूम था कि ऑफर कबूल नहीं होने वाली थी। जिसने अपने घर पर मुझे बैठने तक को न बोला, उसका यहाँ मेहमाननवाजी पर कोई दावा बनता था?”
“उसे रावण बोला!”
“तो कौन-सा उसकी समझ में आ गया!”
“ऐसी भड़काऊ बातें भी न किया करो।”
“मंजूर, मालको, मंजूर!”
विमल चाय से फारिग हुआ ही था कि एक हवलदार वहाँ पहुँच गया।
“आप को थाने तलब किया गया है।” — वो सहज भाव से बोला।
उसका आगमन अनपेक्षित नहीं था, फिर भी विमल ने पूछा — “वजह?”
“आप पर एक कार की चोरी की जवाबदारी है।”
“ओह! सड़क पर चलो, मैं गाड़ी निकालता हूँ।”
“मैं जीप लाया हूँ।”
“गुड!”
विमल उसके साथ हो लिया।
थाने में हवलदार ने उसे एएसएचओ अजीत लूथरा के आफिस में पहुँचाया जहाँ भुनभुनाता-सा चिन्तामणि त्रिपाठी पहले से मौजूद था।
“बिराजिये।” — बिना विमल से निगाह मिलाने का उपक्रम किये लूथरा बोला।
विमल त्रिपाठी के पहलू में एक विजिटर्स चेयर पर बैठ गया।
“ये चिन्तामणि त्रिपाठी हैं, बड़े कॉन्ट्रैक्टर हैं, रुतबे और रसूख वाले आदमी हैं, आपके पड़ोस में रहते हैं, मालूम होगा!”
“मैं इनकी सूरत से वाकिफ हूँ।” — विमल सहज भाव से बोला।
“गुड! आज सुबह आपकी कोठी के सामने से इनकी नयी ‘वरना’ कार चोरी हो गयी है।”
“मेरी कोठी के सामने से?” — विमल की भवें उठी।
“इनके सुपुत्र अरमान त्रिपाठी बीती रात बहुत लेट — कोई रात डेढ़ बजे — घर लौटे थे, कहते हैं तब और कहीं पार्किंग के लिये जगह नहीं थी।”
“मुझे अपनी कोठी के आयरन गेट के सामने खड़ी एक स्टील ग्रे कलर की ‘वरना’ की ख़बर है . . .”
“इन्हीं की थी।”
“नौ बजे तक वो वहाँ थी। थोड़ी देर बाद ही जब मैं आफिस के लिये रवाना होने लगा था तो वो वहाँ नहीं थी।”
“करैक्ट। ये कहते हैं कि इनकी गाड़ी के वहाँ खड़ा होने पर ऐतराज जताने आप इनके घर पहुँच गये थे जहाँ ब्रेकफास्ट के लिये बैठी फैमिली को आपने डिस्टर्ब किया था।”
“आपकी बात का फर्स्ट हाफ ठीक है, सैकण्ड हाफ गलत है। मैं पहुँच नहीं गया था, इनके वाचमैन ने बाकायदा मुझे वहाँ पहुँचाया था, एस्कार्ट किया था। मेरी आमद से अगर ये डिस्टर्ब हुए थे तो जिम्मेदार अपने वाचमैन को ठहरायें।”
“बहरहाल, वो मुद्दा नहीं है, मुद्दा ये है कि इनकी कार चोरी चली गयी है और ये समझते हैं कि ये आपकी कोई कारस्तानी है।”
“कारस्तानी?”
“हरकत। मूव। आप क्या कहते हैं इस बारे में?”
“ये मुझे चोर ठहरा रहे हैं?”
“चोर नहीं ठहरा रहे लेकिन इन्होंने शक जाहिर किया है कि आप इस सिलसिले में कुछ जानते हैं।”
“क्या?”
“आप बताइये।”
“मैं क्या बताऊँ? सिवाय इसके कि कार वहाँ थी और फिर नहीं थी।”
“क्यों नहीं थी?” — त्रिपाठी भड़का — “कहाँ गयी?”
“कोई नजूमी ही बतायेगा, जनाब, जो कि मैं नहीं हूँ।”
“आप को कार की वहाँ मौजूदगी से प्रॉब्लम थी। फिर वो प्रॉब्लम अपने आप ही रफा हो गयी। क्योंकर हुआ ऐसा?”
“निजामुद्दीन के इलाके के एक मुअज्जिज मौलाना को मैं जानता हूँ जो अल्लाह वाले फर्द हैं और माने हुए नजूमी हैं। मेरी राय में इस बारे में आप उनसे मशवरा फरमाइये।”
“इन्स्पेक्टर साहब, ये बात को मजाक में ले रहे हैं।”
“आप बात को मजाक में ले रहे हैं जो समझते हैं कि मैंने फूँक मारी और कार गायब हो गयी।”
“कुछ तो किया आपने!”
“कहिये, चोरी की। दो टूक कहिए। बतौर गवाह इन्स्पेक्टर साहब के सामने कहिये। फिर डिफेमेशन ऑफ कैरेक्टर के केस में कोर्ट के अपने नाम समन का इन्तजार कीजिये।”
वो हड़बड़ाया।
“फिर वहां भी जज को बताइयेगा कि आप बड़े, सरकारी ठेकेदार हैं, आप का भाई एमएलए है और मंत्री बनने वाला है और आपके बैंक एकाउन्ट, लॉकर सब पैसे से भरे पड़े हैं। इतने से ही जज पर आप का ऐसा रौब गालिब होगा कि वो डिफेमेशन के गंभीर केस में आपकी जवाबदेही की कोई जरूरत ही नहीं समझेगा।”
वो और हड़बड़ाया, उसने बेचैनी से पहलू बदला और पनाह माँगती निगाह से लूथरा की तरफ देखा।
“हाई एण्ड ‘वरना’ का सवा मीट्रिक टन के करीब वजन होता है।” — लूथरा बोला — “क्रेन के बिना वो कहीं से नहीं हटाई जा सकती। मिस्टर कौल” — एकाएक उसके नेत्रें में एक धूर्त भाव आया, जिसे सिर्फ विमल ने देखा, और गायब हुआ — “आपके पास क्रेन है?”
“नहीं।” — विमल बोला।
“टो ट्रक?”
“नहीं।”
लूथरा ने त्रिपाठी की तरफ देखा।
“ऐसी चीजों का खुद मालिक होना जरूरी नहीं होता।” — त्रिपाठी सख्ती से बोला — “बावक्तेजरूरत उन्हें तलब भी किया जा सकता है।”
“ओब्सट्रक्शन हटवाने के लिये?” — विमल बोला।
“हाँ।”
“जोकि ऑफेंस है? जिस का चालान होता है? जुर्माना होता है?”
“होता होगा!”
“होगा नहीं, त्रिपाठी जी, है।” — लूथरा बोला — “ओब्सट्रक्शन इज ए पनिशेबल क्राइम। अगर किसी की गाड़ी पड़ोसी की ईजी एक्सैस को ओब्सट्रक्ट करती है, पड़ोसी 100 पर उसकी कंपलेंट करता है, तो बाजरिया ट्रैफिक पुलिस वो गाड़ी वहाँ से हटाई जा सकती है।”
“इन्होंने यही किया होगा!”
“ऐसी गाड़ी उठवा के थाने लायी जाती है। आज सुबह से यहाँ तो कोई ‘वरना’ नहीं लायी गयी!”
“मैं कुछ नहीं जानता।” — त्रिपाठी झुँझलाया — “मैं बस इतना जानता हूँ कि मेरी नयी वरना कार गायब है और उसके गायब होने में किसी न किसी तरह से इनका कोई हाथ है।”
“क्या हाथ है? ट्रैफिक पुलिस से मिली भगत के तहत इन्होंने वो गाड़ी बेच खायी?”
“ये तो मैंने नहीं कहा!”
“कहिये। फिर रिटर्न कंपलेंट लिखवाइये, मैं इनको अभी हिरासत में लेता हूँ।”
“मैं बात इतनी नहीं बढ़ाना चाहता।”
“बात तो आप बढ़ा चुके। आप इन्हें चोर ठहरा रहे हैं और कहते हैं बात नहीं बढ़ाना चाहते।”
“आप ये न भूलें कि मेरा भाई इस इलाके का एमएलए है।”
“अगर पुलिस से बेहतर एमएलए साहब आपके काम आ सकते थे, तो वहीं जाना था, यहाँ क्यों चले आये?”
त्रिपाठी से जवाब देते न बना।
“अब अपनी गलती सुधार लीजिये, अब चले जाइये उनके पास।”
“हाँ” — विमल बोला — “शायद वो तीसरा नेत्र खोलें और जान जायें कि आपकी गायबशुदा कार कहाँ खड़ी थी!”
“तुम चुप रहो, जी!” त्रिपाठी भड़का — “मैं तुम से बात नहीं कर रहा।”
“ये मेरे लिये अच्छी ख़बर है।” — विमल इन्स्पेक्टर की तरफ घूमा — “अब मेरे लिये क्या हुक्म है?”
लूथरा ने त्रिपाठी की तरफ देखा।
त्रिपाठी परे देखने लगा।
“आज सुबह” — लूथरा विमल से सम्बोधित हुआ — “आपने ओब्सट्रक्शन की कोई कंपलेंट 100 नम्बर पर दर्ज कराई थी?”
“नहीं।” — विमल बोला।
“आप इनकी गुमशुदा कार के बारे में कुछ जानते हैं?”
“नहीं।”
“जा सकते हैं।”
“थैंक्यू।” — विमल उठ खड़ा हुआ।
“आप भी।” — लूथरा पाण्डेय से बोला।
“लेकिन” — त्रिपाठी हड़बड़ाया — “मेरी कार चोरी की कंपलेंट तो दर्ज हुई नहीं!”
“वो कंपलेंट अभी दर्ज नहीं हो सकती। ऐसे मामलात में एक पहले से तयशुदा अरसे तक कार की रिकवरी का इन्तजार किया जाता है। ऐसा न हो पाया होने की सूरत में ही चोरी की कंपलेंट रजिस्टर की जाती है। आप अगले हफ़्ते आइये। तब देखेंगे क्या किया जा सकता है आपकी कंपलेंट की बाबत। अभी आप जा सकते हैं।”
“आप मेरे साथ ऐसे पेश नहीं आ सकते। मेरा भाई . . .”
“एलएलए है। मंत्री बनने वाला है। बता चुके हैं आप।”
“तो फिर आप . . .”
“क्या बुरा पेश आ रहा हूँ मैं आपके साथ? आपकी बात पूरे धीरज के साथ सुनी न मैंने! आपकी माँग पर — नाजायज माँग पर — मिस्टर कौल को वारफुटिंग पर यहाँ तलब किया न मैंने! कार चोरी से ताल्लुक रखता कायदा कानून आपको समझाया न मैंने! ये सब करने में बुरा कहाँ पेश आया मैं आपके साथ?”
त्रिपाठी से जवाब देते न बना, वो एकाएक उठ खड़ा हुआ और बिना लूथरा ने कोई कलाम किये घूमा और बाहर की ओर बढ़ा।
“कार बरामद हो गयी तो आपको ख़बर पहुँचानी होगी।” — पीछे से लूथरा ने आवाज लगाई — “अपना मोबाइल नम्बर छोड़ कर जाइये।”
उसने जेब से एक विजिटिंग कार्ड बरामद किया और उसे लूथरा की टेबल पर उछाल दिया।
“अब आप यहाँ क्या कर रहे हैं!” — लूथरा हँसी दबाकर विमल से बोला — आप भी तो जाइये! वही जीप आपको छोड़ आयेगी जो लाई थी।”
“थैंक्यू, सर।”
विमल थाने की इमारत से बाहर निकला।
त्रिपाठी एक शोफर ड्रिवन होंडा अकॉर्ड में सवार हो रहा था। विमल को देख कर वो ठिठका और बोला — “एक बात सुनते जाओ, बाबू साहेब।”
“फरमाईये, जनाब।” — विमल सहज भाव से बोला।
“मेरे से होशियारी महंगी पड़ेगी।”
“मैंने तो कोई होशियारी नहीं की।”
“अब फिर बहस शुरू न करो। बात का मतलब समझो और भली मनाओ।”
“आपकी?”
“अपनी।”
वो कार में सवार हुआ, तत्काल कार वहाँ से रुख़सत हो गयी।
पुलिस की जीप विमल के करीब पहुँची।
“एक मिनट।” — विमल जल्दी से बोला — “मैं इन्स्पेक्टर साहब से एक बात पूछना भूल गया।”
ड्राइविंग सीट पर बैठे हवलदार ने सहमति में सिर हिलाया।
विमल वापिस एएसएचओ के आफिस में पहुँचा।
लूथरा की भवें उठीं।
“शुक्रिया अदा करने आया।” — विमल बोला — “जो कि ठेकेदार के सामने ठीक न होता।”
“शुक्रिया कैसा?” — लूथरा एक सशंक निगाह परे दरवाजे की ओर डालता बोला — “मुझे तो खुशी है कि मैं आपके किसी काम आया।”
“फिर भी . . .”
“आपके अहसानों के बोझ से दबा मैं आपका खादिम हूँ, जनाब, और ताजिन्दगी रहूँगा। ये तो मामूली काम था, किसी बड़े काम के लिये आजमाइयेगा, गोली की तरह करूँगा, भले ही वर्दी उतर जाये, भले ही जान चली जाये।”
ये विमल की वो कमाई थी, जिसका मुकाबला कोई नहीं कर सकता था। लूथरा जैसे और भी कितने लोग थे जो बावक्तेजरूरत खुशी-खुशी उसके काम आते थे। वो विमल के वो हजार हाथ थे, जिन पर विमल को फख्र था।
“फिर भी” — वो बोला — “मैं मशकूर हूँ . . .”
“मैं मशकूर हूँ, जनाब, कि आपने मुझे खिदमत का मौक़ा दिया वरना ऐसा कौन सा काम है जिसे आप खुद ही अंजाम नहीं दे सकते!”
“अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता।”
“गुस्ताखी माफ, ये मसल आप पर लागू नहीं। आप अकेले ही आसमान फाड़ सकते हैं। आंधी तूफानों से मुकाबिल खड़े हो सकते हैं। समुद्र से मोती निकाल सकते हैं। आप कुछ भी कर सकते हैं। मैं गवाह हूँ।”
“बहुत बढ़ा-चढ़ा कर मेरा बखान कर रहे हो, यार।”
“कितना भी बढ़ा-चढ़ा के करूँ, काफी न होगा। लोग हादसों में मरते हैं, आपको तो पाला ही हादसों ने है।”
“मैं अपनी गुजश्ता जिन्दगी को याद नहीं करना चाहता। मैं यहाँ अमन चैन से रहना चाहता हूँ।”
“इसी बात से तो त्रिपाठी जैसे लोग धोखा खाते हैं। लहरों को शांत देखकर समझ लेते हैं कि समुद्र में तूफान नहीं है।”
“भाई के एमएलए होने की हूल दे रहा था!”
“जी हाँ, लेकिन दिल्ली पुलिस पर ऐसी हूल का कोई असर नहीं होने वाला। दिल्ली पुलिस दिल्ली सरकार के मातहत नहीं है और हमें ऐन टॉप से शह है कि दिल्ली सरकार के नुमाइन्दों को खास ख़ातिर में नहीं लाना है।”
“ओह! गाड़ी का आखि़र होगा क्या?”
“क्या होना है! कल बरामद हो जायेगी।”
“कहाँ से?”
“रिज से। जहाँ कि वो छोड़ी गयी है। मालिक को उसकी बाबत ख़बर कर दी जायेगी।”
“अपनी वो हरकत वो फिर दोहरायेगा?”
“उम्मीद तो नहीं! ओब्स्ट्रक्शन की बाबत और उसके चालान की बाबत उसे बहुत अच्छी तरह से समझा दिया गया था। जल्दी तो नहीं भूल जायेगा सब कुछ!”
“उसका लड़का धृष्ट है।”
“देखेंगे उसे भी। आप किसी तरह की कोई फिक्र न कीजिये।”
“अच्छा। तुम कहते हो तो . . .”
“मैं पुरइसरार कहता हूँ।”
“ओके। एक बात बताओ। मेरी हैल्प तो मेरे अजीत लूथरा नाम के एक दोस्त ने कर दी, ऐसी नौबत आने पर और लोग क्या करते हैं?”
“या दोस्त तलाशते हैं या भुगतते हैं। या फिर पंगा लेते हैं।”
“पंगा!”
“जिसका नतीजा सिर फुड़ौवल होता है! एक मिसाल देता हूँ। यहाँ मॉडल टाउन में ही बी ब्लाक में कोई दूसरे के घर के सामने की उसकी पार्किंग में अपनी कार खड़ी कर गया। उस शख़्स ने कार के चारों पहियों की हवा निकाल दी।”
“चारों की?”
“जी हाँ। कार का मालिक आया, उसने वो नजारा देखा तो आपे से बाहर हो गया। लगा दरवाजा पीटने। मकान मालिक बाहर निकला तो उसने उसे गिरेबान से पकड़ लिया। दोनों में हाथपायी होने लगी जो आखि़र इस अंजाम तक पहुँची कि कार वाले ने मकान मालिक के पेट में लम्बा पेचकस घोंप दिया। पुलिस ने आकर मकान मालिक को फौरन हस्पताल न पहुँचाया होता तो एक्सेसिव ब्लीडिंग से ही मर गया होता।”
“ओह!”
“लेकिन, जनाब, मैं जो बात कहना चाहता हूँ वो मकान मालिक के पंगे से ताल्लुक रखती है। ओब्स्ट्रक्शन पर उसका गुस्सा जायज था, लेकिन गुस्से के हवाले जो हरकत उसने की, वो तो जायज न थी! कार वाले को उसकी नाजायज हरकत की इतनी वार्निंग काफी थी कि एक पहिये की हवा निकाल देता, ताकि कार मालिक आके पंचर पहिया चेंज करके कार चलाने के काबिल तो बनता! उसने तो चारों पहियों की हवा निकाल दी! अब कैसे कार वहाँ से हटाई जाती! कारवाला एक पहिया पंचर पाता तो शायद इतना आगबगूला न हुआ होता, जितना कि तब हुआ।”
“मकान मालिक ने ओवर-रियेक्ट किया!”
“सरासर। लेकिन अपनी गलती कौन मानता है! उस पर कातिलाना हमला हो गया इसलिये हर किसी की हमदर्दी का हकदार बन गया। किसी ने सवाल न किया कि उसने चारों पहियों की हवा क्यों निकाली!”
“पार्किंग को लेकर तुम्हारे शहर में बहुत हाय हाय है।”
“क्योंकि पार्किंग यहाँ की मेजर प्रॉब्लम है। आँकड़े बताते हैं कि जितनी कारें मुम्बई, कलकत्ता, मद्रास, बंगलौर में हैं, इससे ज्यादा अकेले दिल्ली में हैं।”
“आई सी।”
“पार्किंग को लेकर हर इलाके में पड़ोसियों में खूब झगड़े होते हैं। बात तकरार से शुरू होती है और खूनखराबे तक पहुँच जाती है। न कोई मुल्क के कायदे कानून से डरता है, न सजा से डरता है।”
“एक्सैसिव बूजिंग भी इसकी वजह बताई जाती है!”
“सही बताई जाती है। कुछ दिन पहले की एक बड़े फैशन डिजाइनर की मिसाल है। रात के दो बजे अपने एक दोस्त और दो मुलाजिमों के साथ टुन्न घर लौटा और पार्किंग के ही एक बखेड़े को लेकर जबरन पड़ोसी के घर में घुस गया और उसको धमकाने लग गया। इतना हंगामा किया कि पुलिस पहुँच गयी और चारों को गिरफ्तार कर के ले गयी।”
“फिर क्या हुआ?”
“क्या हुआ, कुछ भी न हुआ। थानाध्यक्ष की मध्यस्थता में सुलह सफाई हो गयी और उन्हें घर भेज दिया गया।”
“शायद ऐसे लोगों को पता होता है कि आखि़र कुछ नहीं होना।”
“जी हाँ। फिर अपने सैलीब्रीटी स्टेटस का नाजायज फायदा उठाते हैं। बड़े-बड़े नाम उछालते हैं। दिल्ली राजधानी है, नेताओं की नगरी है। यहाँ तो हर किसी का कोई-न-कोई कुछ-न-कुछ है। पुलिस वाला किसी वायलेशन के तहत किसी कारवाले को रोकता है तो जानते हैं कारवाला पहली बात क्या कहता है?”
“सॉरी?”
“तौबा कीजिये। ‘ओये, तू जानता नहीं मैं कौन हूँ?’ कहता है! सब किसी-न-किसी के सगे वाले हैं, एक बेचारा पुलिसवाला ही किसी का सगा नहीं। रोजाना पन्द्रह-सोलह घंटे ड्यूटी करता है — ये जानने के लिए कि वायलेटर कौन है और क्यों वो उसका चालान नहीं कर सकता!”
विमल ख़ामोश रहा।
“आधी रात के बाद ईटरीज के आगे — ख़ासतौर से ढाबों के आगे — ऐसे वाकये आम होते हैं। स्टैबिंग, शूटिंग आम होती हैं। तकरीबन कल्परिट वारदात करके फरार हो जाते हैं। तफ्तीश पर कोई गवाह नहीं मिलता जब कि सबके सामने सरेआम वारदात हुई होती है। पुलिस का काम तो बस ये समझिये मौका-ए-वारदात पर पहुँचकर घायल या मृत को हस्पताल पहुँचाना होता है।”
“खून गर्म है दिल्ली वालों का!”
“जी हाँ। ठण्डा करने की जरूरत है। लेकिन क्या करें! ‘तू जानता नहीं है मैं कौन हूँ’ कल्चर पर कोई अंकुश लगे तो कुछ करें न!”
“ठीक!”
“वर्दी उतरवा दूँगा, ‘लाइन हाजिर करवा दूँगा’ आम धमकियाँ हैं जो पुलिस वालों को ‘जानता-नहीं-है-मैं-कौन-हूँ’ से मिलती हैं।”
“मुश्किल नौकरी है पुलिस की!”
“मुश्किल और डिसग्रेसफुल! ह्यूमीलियेटिंग! ऊपर वालों की ही मौज है। कभी कोई इस बात को खातिर में लाता है कि सबकी दीवाली होती है, ईद होती है, क्रिसमस होती है, पुलिस वाले की नहीं होती जब कि वो भी बाल-बच्चेदार हैं! रैवेलर्स का हजूम आधी रात को कनॉट प्लेस में इकट्ठा होकर नये साल का स्वागत करता है, पटाखे फोड़ता है, बधाईयाँ बांटता है, बधाईयाँ बटोरता है, सुबह-सवेरे से घर से निकला, चार डिग्री टैम्प्रेचर में ठिठुरता पुलिसवाला ड्यूटी करता है और जब लोगों के सारी रात सोकर उठने का टाइम होता है, तब घर पहुँचता है। उसे हाइपरटेंशन है, उसे डायबिटीज है, उसे पेट की प्रॉब्लम है लेकिन वो अपनी दुश्वारियों की तरफ ध्यान नहीं दे सकता क्योंकि उसने आवाम की, दिल्ली की जनता की, दुश्वारियों की तरफ ध्यान देना है। स्कूलों में होने वाली पेरेंट-टीचर मीटिंग का उसने नाम ही सुना है, कभी उसमें शिरकत करने का टाइम उसे नहीं मिलता। पब्लिक पुलिसमैन का एक ही रूप पहचानती है।”
“कौन सा?”
“साला रिश्वतखोर। मेरा ड्रंकन ड्राइविंग का चालान कर रहा था, दो सौ रुपये झाड़ लिये। पोल्यूशन का चालान कर रहा था, तीन सौ रुपये झाड़ लिये। रैडलाइट जंप करने का चालान कर रहा था, पचास रुपये झाड़ लिये। कितना जुल्म किया पुलिस ने बेचारे के साथ! लेकिन मजाल है कि पुलिस को कोसनों से नवाजते वक्त अपनी करतूत जुबान पर लाये कि चालान से बचने के लिये रिश्वत की पेशकश करने वाला खुद वो था। जिस वायलेशन के लिये वो जिम्मेदार था, राजी से उसका चालान भर देता तो क्यों उस रिश्वत की नौबत आती, जिसकी अब वो दुहाई दे रहा था!”
“ठीक।”
“आजकल पुलिसमैन की क्या औकात बची है? दो टके का आदमी उसे कोस कर, जलील करके भाग जाता है — बल्कि कई बार तो पीट के भाग जाता है। आज ही के अखबार में एक ख़बर है कि कल आईटीओ पर एक ट्रैफिक कांस्टेबल ने एक स्कूटर वाले को — जो कि राँग साइड आ रहा था — स्कूटर धीरे चलाने को बोला, क्योंकि वो सड़क पार करती एक महिला को हिट करने लगा था। उस स्कूटर वाले ने क्या किया? सॉरी बोला? स्कूटर तेज न चलाने का आश्वासन दिया? राँग साइड आता होने पर माफी माँगी? नहीं। उसने स्कूटर कांस्टेबल पर चढ़ा दिया।”
“अरे!”
“उतर के उसके साथ हाथापायी की, उसकी वर्दी फाड़ दी, फिर इग्नीशन-की से खुद को घायल किया, माथे से ख़ून निकाल लिया, ख़ून को कांस्टेबल की वर्दी से पोंछ दिया और लगा हालदुहाई मचाने कि कांस्टेबल ने बिना वजह — रिपीट, बिना वजह — उसे पब्लिक में मारा और लगा धमकाने कि अब वो साला जेल जायेगा।”
“उलट भी तो होता है!”
लूथरा की भवें उठीं।
“मैं खुद अपने वाकफ़ि की एक मिसाल देता हूँ। उसकी गाड़ी ड्राइवर चलाता था। एक बार एक क्रासिंग पर ड्राइवर से कोताही हुई, उसने रैडलाइट जंप की तो ट्रैफिक के हवलदार ने उसे रोक लिया, गाड़ी साइड में लगवाई और सामने अड़कर चालान काटने लगा। दोस्त को अहसास था कि गलती उसके ड्राइवर की थी इसलिये उसने पहले ही सौ रुपये निकाल लिये क्योंकि रैडलाइट जंप करने का चालान सौ रुपये का ही था। और हवलदार था कि चालान बुक पर कलम चलाता ही जा रहा था। तब दोस्त का माथा ठनका, वो उतरकर उसके पास गया और उससे पूछा क्या बात थी, सिम्पल चालान काटने में इतना टाइम लगता था! हवलदार रुखाई से बोला सिम्पल चालान नहीं था, कम्पाउंडिड चालान था, क्योंकि जब ड्राइवर को रोका गया था तो उसने गाड़ी हवलदार के ऊपर चढ़ा देने की कोशिश की थी — जो कि बिल्कुल झूठ था — और ऐसे चालान का जुर्माना हजार रुपये था, ड्राइवर का लाइसेंस जब्त होता था और कोर्ट में तारीख पर ड्राइवर को खुद पेश होना पड़ता था।”
लूथरा का सिर सहमति में हिला।
“मकसद क्या था? सौ रुपये का चालान रफा-दफा करने में वो पचास रुपये लेता हजार के चालान को खारिज करने के पाँच सौ माँगता।”
“कैसे निपटा मामला?” — लूथरा उत्सुक भाव से बोला।
“वो जुदा मसला है। मैं सिर्फ इस बात को हाईलाइट करना चाहता था कि अपनी नाजायज दुकानदारी को चमकाने के लिये, प्राप्ति का मार्जिन बढ़ाने के लिये, पुलिस भी तो पब्लिक के साथ ज्यादती करती है!”
“मैंने कब इंकार किया! लेकिन ये मत भूलिये कि वैसा ही पुलिस वाला कभी जुलूस, धरना प्रदर्शन निपटाता है, कभी मंत्री के कार्यक्रम में घंटों एक टाँग पर खड़ा होता है, कभी अधजली, पूरी जली, कभी दुर्गंध मारती लाश बरामद कर रहा होता है, तो कभी घर से भागी लड़की की तलाश में शहरोशहर भटक रहा होता है और सारे गाँव वालों की मुखालफत और कोसने झेल रहा होता है। कभी किसी जेबकतरे को, बैड कैरेक्टर को सुबह पेशी के लिये कोर्ट में ले के जाता है, तो शाम तक बारी नहीं आती और वो कैदी के साथ बंधा सुबह से शाम तक भूखा प्यासा रहता है। ऐसा कैदी किसी तरह से फरार हो जाये तो गाज सबसे पहले उसी पर गिरती है।”
“वो भ्रष्ट है।”
“ये इलजाम एक तरह से मेरे पर है।”
“जवाब दो।”
“हाँ, भ्रष्ट है। भ्रष्ट है क्योंकि भ्रष्टाचार हमारा राष्ट्रीय चरित्र है, नेशनल कैरेक्टर है। लेकिन क्या वो अकेला भ्रष्ट है? नहीं। जिस प्रकार न्यायपालिका, कलैक्ट्रेट, बिजली बोर्ड, जल बोर्ड, पी.डब्ल्यू.डी., स्वास्थ्य सेवायें, नगरपालिकायें, हमारे नेतागण भ्रष्ट हैं, उसी प्रकार वो भी भ्रष्ट है। नेता क्यों भ्रष्ट है? दो तीन करोड़ रुपया खर्च करके वो एमपी का इलेक्शन जीतता है, फिर वो पहले अपनी इनवेस्टमेंट की वसूली की तरफ तवज्जो देगा या समाज सेवा की तरफ? जब पॉलिटिक्स बिजनेस बन गया है, तो बिजनेस में मुनाफा कोई भला क्यों नहीं चाहेगा!”
“बात पुलिसमैन की हो रही थी।”
“उसी की हो रही है, जनाब। जिस दिन, जिस मुबारक दिन, जिस ‘अच्छे दिन आयेंगे’ दिन, हमारा समाज भ्रष्टाचार मुक्त हो जायेगा, उस दिन पुलिस से भी भ्रष्टाचार खत्म हो जायेगा।”
“हूँ।”
“एक मिसाल और सुनिये। जो लोग पानी पी-पीकर पुलिस को कोसते हैं, वही सबसे पहले कांस्टेबल या सब-इंस्पेक्टर की भरती का फार्म भरते हैं। क्यों? क्या जनता की सेवा के लिये? नहीं। पावर और पैसे के लिये। सामर्थ्य पर काबिज होने के लिये। हमाम के नंगों में नंगों का इजाफा करने के लिये। ‘लंका में सब बावन गज के’ वाली मसल चरितार्थ करने के लिये। यानी जिस व्यवस्था से आप पार नहीं जा सकते, उसका हिस्सा बन जाइये।”
“वैन यू कैननॉट बीट ए सिस्टम, जॉयन इट।”
“ऐग्जेक्टली, सर।” — लूथरा एक क्षण ठिठका, फिर बोला — कोई वक्त था कि चालीस-चालीस गाँव का एक थाना होता था — आज अकेले दिल्ली शहर में डेढ़ सौ थाने हैं — कोई वक्त था जब कहीं कोई वारदात हुई होने की ख़बर पुलिस के पास आती थी तो एक सिपाही डण्डा हिलाता जाता था और दस मुलजिमों को गिरफ्तार करके ले आता था। आज एक मुलजिम को गिरफ्तार करने दस पुलिस वाले जाते हैं और दुत्कार खाकर — कई बार तो मार खाकर — खाली हाथ लौट आते हैं। पहले क्यों नहीं होता था ऐसा? क्योंकि फिरंगी के निजाम के दौर में हर किसी को मुल्क के कायदे कानून पर अकीदा था, हर कोई गुनाह से डरता था, क्योंकि सजा से ख़ौफ खाता था। अब किसी को न गुनाह का खौफ रहा है न सजा का ख़ौफ रहा है, क्योंकि बड़े-से-बड़े अपराध के केस में जमानत हो जाती है। सालों में लोअर कोर्ट का फैसला आता है जिसके खिलाफ हाईकोर्ट में अपील हो जाती है। फिर सालों में हाईकोर्ट का फैसला आता है जिसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील हो जाती है। आखिर जब तक मुलजिम की सजा कनफर्म होती है, तब तक उसकी चल चल हो चुकी होती है।”
“सजायें फिर भी होती हैं! पब्लिक और नेता जेल तो फिर भी जाते हैं!”
“गुनाह की सजा के तौर पर नहीं, कोर्ट की सजा के तौर पर नहीं, अपनी बद्किस्मती की सजा के तौर पर।”
“ठीक।”
“दिल्ली में अस्सी हजार पुलिसकर्मी हैं। आधे नेताओं की सुरक्षा में लगे हुए हैं, धरना प्रदर्शन मॉनीटर करने में लगे हुए हैं। पोलिटिकल रैलियों और जुलूसों की व्यवस्था संभालने में लगे हुए हैं। फिर उनकी और भी ड्यूटियाँ हैं।”
“और भी?”
“जिनका उनकी जॉब रिक्वायरमेंट से कोई लेना-देना नहीं।”
“मसलन?”
“डीसीपी साहब की बीवी को शॉपिंग कराने ले जाना होता है। उनके बच्चों को स्कूल से लिवा लाने जाना होता है। रोजाना इस्तेमाल की दूध, डबलरोटी, सब्जी-भाजी लानी होती है। बिजली, पानी, फोन वगैरह का बिल जमा करा के आना होता है। सिवाय अफ़सर की बहती नाक पोंछने के और पता नहीं क्या कुछ करना होता है!”
“तौबा!”
“आप जानते हैं दिल्ली के एक थाने में डेढ़ सौ पुलिसकर्मियों का स्टाफ होता है और एक थाने की ज्यूरिसडिक्शन में पाँच लाख नागरिक आते हैं। एसएचओ थाने का बादशाह होता है और उसका इलाका उसकी बादशाहत होती है। फिर भी पुलिस के निजाम का इतना अहम पुर्जा गजेटिड आफिसर नहीं होता।”
“अरे! आफिसर नहीं होता!”
“आफिसर होता है। गजेटिड आफिसर नहीं होता। दिल्ली पुलिस के महकमें में गजेटिड आफिसर की पोस्ट एसीपी से शुरू होती है।”
“आई सी।”
“किसी एसएचओ को डिप्टी कमिश्नर या जॉयन्ट कमिश्नर हैड आफिस तलब करता है, तो तीन सितारों वाला, रोबीला इंस्पेक्टर चपरासी की तरह फाइल बगल में दबाये लॉबी में एक टाँग पर खड़ा मुलाकात के लिये तलब किये जाने का इन्तजार कर रहा होता है। मुलाकात होने में गैरमामूली देर लगती जाती है तो जानते हो मुलाकात जल्दी करवा देने के लिये किस की चिकौरी करता है?”
विमल ने इंकार में सिर हिलाया।
“एक मामूली सिपाही की जो कि बड़े साहब के आफिस में अर्दली की ड्यूटी कर रहा होता है और जो उसे रुखाई से कहता है — ‘वेट करो। साहब बोलेंगे तो बोलूँगा।’ और वो पहलू बदलता इंतजार करता है। कौन इंतजार करता है! तीन सितारों वाला इंस्पेक्टर। थानाध्यक्ष। जो अपने थाने में शेर की तरह गर्जता है तो मातहतों के प्राण कंपा देता है। वो ही जब पुलिस हैडक्वार्टर में पेश होता है तो भीगी बिल्ली बना होता है। सिपाही की चिकौरी कर रहा होता है।”
“आल थिंग्स सैड एण्ड डन, बहुत बदल गये हो, लूथरा। तुम बदल गये, तुम्हारी सोच बदल गयी, तुम्हारे ख़यालात बदल गये; अब तो तुम उस लूथरा की परछाईं भी नहीं जान पड़ते जो कभी पंजे झाड़ कर मेरे पीछे पड़ा था।”
“सोहबत का असर है, जनाब।”
“किसकी!”
“आप की!”
“मेरी?”
“प्रत्यक्षः में भी और परोक्ष में भी।”
“मैं निरगुणिआरे को गुणु नाहीं।”
“ये आप का बड़प्पन है जो . . .”
“बहरहाल” — विमल उठ खड़ा हुआ — “शुक्रिया।”
“वैलकम सर।”
आइन्दा कुछ दिन चैन से गुजरे।
फिर एक साथ दो वाकये पेश आये जिन्होंने विमल को फिर आंदोलित किया और उसके संकल्प की बुनियाद हिलाई।
27 अक्टूबर-रविवार
रविवार का दिन था।
लंच के बाद एकाएक नीलम ने भगवान दास रोड चलने की फरमायश की, जहाँ कि आगा ख़ान हाल में फैब इण्डिया की सेल लगी हुई थी।
सोते सूरज को मेड की देख-रेख में छोड़कर कार पर वो घर से निकले।
कार ने दिल्ली गेट का चौराहा पार किया। उस रोज डीडीसीए के क्रिकेट ग्राउन्ड्स में कोई मैच था, जिसकी वजह से स्टेडियम के आगे जाम जैसा हाल था। सड़क पर बेशुमार गाडि़यों का हुजूम था, लेकिन गनीमत थी कि ट्रैफिक चल रहा था।
एकाएक पीछे से हॉर्न बजने लगा।
विमल ने रियरव्यू मिरर में देखा तो पाया ऐन पीछे एक फॉर्चूनर थी।
हॉर्न फिर बजा।
फिर बजा।
फॉर्चूनर का ड्राइवर आगे निकलने के लिए उतावला था, लेकिन ट्रैफिक इतना घना था कि उसको रास्ता दे पाने की कोई गुंजायश नहीं थी।
हॉर्न फिर बजा।
“ये पागल है क्या?” — नीलम झुंझलाई।
“मगरूर! फॉर्चूनर के पोजेशन के कलफ से ऐंठा हुआ।”
फॉर्चूनर की ड्राइविंग सीट पर आँखों पर गॉगल्स चढ़ाये एक नौजवान था। पैसेंजर सीट पर उसी की उम्र का एक सिख युवक मौजूद था। पिछली सीट पर भी दो लड़कों की मौजूदगी का आभास विमल को मिला।
“गोली लगे कम्बख्तों को।” — नीलम भुनभुनाई।
“यही रवैया रखेंगे तो मिलता-जुलता कुछ हो के रहेगा देर-सबेर।”
इस बार हॉर्न बजा तो बजता ही चला गया।
आगे आईटीओ के चौराहे पर एकाएक सिग्नल की बत्ती लाल हुई।
विमल ने कार रोकी।
पीछे ब्रेकों की चहचहाहट के साथ फॉर्चूनर यूँ रूकी कि विमल की कार से टकराने से बाल-बाल बची। एक झटके से उसका ड्राइविंग सीट की ओर का दरवाजा खुला। गॉगल्स वाला युवक छलाँग मार कर बाहर निकला और जमीन रौंदता हुआ रिट्ज की ड्राइविंग साइड पर पहुँचा। एक झटके से उसने आँखों पर से गॉगल्स हटाये और यूँ जोर-जोर से खिड़की का शीशा ठनठनाने लगा जैसे फौरन न खुलने की सूरत में उसे तोड़ ही डालता।
विमल ने शीशा नीचे गिराया।
“मादर . . .! बहरा है!” — फुँफकारता, आँखें निकालता वो बोला — “हॉर्न सुनाई नहीं देता?”
“देता है, भई।” — विमल शांति से बोला।
“साला कहता है, देता है! अबे, कितना हॉर्न दिया मैंने तुझे! साइड क्यों नहीं देता था?”
“साइड मिलती तो देता न!”
“देखो तो! बहन . . . कहता है साइड मिलती तो देता न! साले! बगल में माशूक बिठा ली तो सड़क का मालिक बन गया!”
विमल का चेहरा लाल होने लगा, उसके दाँत किटकिटाने लगे।
“चिल!” — नीलम उसका घुटना दबाती दबे स्वर में बोली — चिल!”
बड़ी मुश्किल से विमल ने अपने पर जब्त किया।
“अब अगर तू मुझे मेरे आगे दिखाई दिया न, तो गाड़ी समेत फूँक दूँगा यहीं सड़क पर।”
“दिखाई दे रहा हूँ न आगे। फूँक!”
वो हड़बड़ाया, एक क्षण को विचलित दिखाई दिया।
“साले” — फिर पूर्ववत् फुँफकारा — “क्यों मरने को तड़प रहा है? जानता नहीं है मैं कौन हूँ?”
“नहीं, नहीं जानता।”
“ओये, कुलप्रीत! ये बाउ मिजाज दिखा रहा है। आके इसे अच्छी तरह बता मैं कौन हूँ!”
“खुद ही बता ले न! साला क्या है ये मच्छर तेरे सामने!”
“ठहर जा, साले!”
उसने खिड़की में हाथ डाला और विमल का गिरहबान थामने की कोशिश की।
विमल ने हाथ रास्ते में ही थाम लिया और उसे इतनी जोर से मरोड़ा कि वो पीड़ा से बिलबिला उठा।
सिख युवक फॉर्चूनर से बाहर निकल आया था और अब मसल्स फड़फड़ाता रिट्ज की तरफ बढ़ रहा था।
“छोड़ दो।” — नीलम व्याकुल भाव से बोली।
विमल ने ख़ामोशी से अपनी पकड़ ढीली की और हाथ वापिस खींच लिया।
तभी आगे सिग्नल हरा हो गया।
विमल ने कार आगे दौड़ा दी।
पीछे वो दोनों फॉर्चूनर की तरफ लपके और उसमें सवार हो गये।
“हे भगवान!” — नीलम के शरीर ने झुरझुरी ली — “कैसा शहर है ये! हर कोई हर घड़ी मरने मारने पर उतारू है।”
“प्रैशर कुकर जैसा है। ऐसे प्रैशर कुकर जैसा जिसका सेफ्टी वॉल्व खराब है। पता नहीं कब फट पड़े।”
“हाँ।” — नीलम ने गहरी साँस ली, फिर बदले स्वर में बोली — “वो चार थे।”
“तो?”
“अकेले चार का मुकाबला कर लेते!”
“तेरा क्या ख़याल है? तू बता। कर लेता?”
नीलम कुछ क्षण ख़ामोश रही, फिर दृढ़ता से बोली — “हाँ। अकेला ही सवा लाख है मेरा सरदार।”
“बल्ले!”
“जो न किसी से डरता है और न किसी को डराता है।”
“भै काहू को देत नहि, नहि भै मानत आनि। गुरु तेग बहादुर जी का वाक है।”
“मालूम है।”
“ ‘चिल’ कैसे मालूम है?”
वो हँसी।
“टीवी से जाना।” — फिर बोली।
“क्या कहने!”
उस वक्त उनकी गाड़ी तिलक मार्ग पर दौड़ रही थी। तभी पीछे से फॉर्चूनर आगे आयी और उनकी गाड़ी के पहलू में उसके समानान्तर दौड़ने लगी।
हॉर्न बजा।
नीलम ने फॉर्चूनर की तरफ देखा।
गॉगल्स वाले युवक ने स्टियरिंग पर से हाथ हटा कर बड़ा अश्लील इशारा किया।
नीलम का चेहरा शर्म से लाल हो गया।
चारों ने इतनी जोर का अट्टहास किया कि वो रिट्ज में ढोल की आवाज की तरह गूँजा।
फिर फॉर्चूनर ने स्पीड़ पकड़ी और तोप से छूटे गोले की तरह सड़क पर दौड़ी।
विमल ने जबड़े कस गये। एक्सीलेटर को एकाएक उसने इतनी जोर से दबाया कि उसका पैडल फ़र्श से जा लगा।
“नहीं! नहीं!” — उसका मन्तव्य समझ कर नीलम व्याकुल भाव से बोली — “कसम है तुम्हें।”
असहाय भाव से गर्दन हिलाते विमल ने पैडल पर से दबाव कम कर दिया।
अगले क्रॉसिंग से कार भगवानदास रोड पर दायें मुड़ गयी जिधर कि आगा खान हाल था।
फॉर्चूनर तिलक मार्ग पर सीधे इंडिया गेट की तरफ दौड़ गयी थी।
दो घंटे विमल ने फैब इण्डिया की सेल में लगाये।
शापिंग बैग से लदे-फंदे जब वो आगा ख़ान हाल की इमारत से बाहर निकलकर आगे फुटपाथ पर पहुँचे, तब तक सूरज डूब चुका था लेकिन संध्या का उजाला वातावरण में अभी बाकी था।
इमारत के भीतर पार्किंग की व्यवस्था थी, लेकिन रविवार होने की वजह से भीतर की पार्किंग फुल थी इसलिये विमल को अपनी गाड़ी बाहर सड़क पर खड़ी करनी पड़ी थी।
फुटपाथ पर चलते वो ‘रिट्ज’ की ओर बढ़े। कार के करीब पहुँचकर विमल ने पिछला दरवाजा खोला और नीलम के और अपने शॉपिंग बैग पीछे डाले।
वहाँ करीब ही एक बस स्टैण्ड था, जहाँ उस घड़ी काफी पैसेंजर मौजूद थे, जिससे लगता था कि काफी देर से उधर से कोई बस नहीं गुजरी थी। एक खूबसूरत नौजवान लड़की उनसे अलग-थलग खड़ी थी, वजह शायद ये थी कि बस की प्रतीक्षा करते बाकी तमाम पैसेंजर मर्द थे जिन में से कुछ तो बाकायदा उस लड़की पर लार टपकाते जान पड़ते थे।
“अकेली है बेचारी।” — नीलम बोली — “लिफ्ट दे दें?”
“लिफ्ट दे दें!” — विमल बोला — “हमें क्या पता बेचारी ने किधर जाना है! उसको हमारे रूट पर नहीं जाना हुआ तो क्या करेंगे? घर छोड़ के आयेंगे? भले ही कुतुब मीनार के पास रहती हो!”
“मेरे ख़याल से लिफ्ट मिल रही है उसे।”
विमल ने लड़की की दिशा में देखा। एक आई-20 कार तभी लड़की के करीब आकर खड़ी हुई थी।
“हाँ, शायद।” — वो अनमने भाव से बोला।
आई-20 के पिछले दोनों दरवाजे एक साथ खुले और दो युवक उसमें से बाहर निकले। अप्रत्याशित फुर्ती से वो लड़की के करीब पहुँचे और उसके सामने जा खड़े हुए।
“शायद लड़की के वाकिफ हैं।” — नीलम बोली।
“शायद।”
एकाएक दोनों ने बाज की तरह लड़की पर झपट्टा मारा और उसको दबोच लिया। आतंकित लड़की ने चिल्लाने के लिये मुँह खोला तो एक युवक का मजबूत हाथ ढक्कन की तरह लड़की के मुँह पर चस्पां हो गया।
आवेश में विमल उनकी तरफ लपका।
नीलम ने उसकी बाँह थामी और उसे जबरन वापिस खींच लिया।
दोनों युवकों ने उनकी पकड़ में बुरी तरह से छटपटाती, हाथ पाँव पटकती लड़की को घसीट कर कार की पिछली सीट पर डाल दिया और फुर्ती से खुद भी उसके पीछे कार में सवार हो गये।
“ये . . . ये . . .” — विमल हकबकाया सा बोला — “ये क्या हो रहा है?”
“चुप करो।” — नीलम घुड़कती-सी बोली — “मत देखो उधर।”
“लेकिन . . .”
“चुप करो।”
आन्दोलित विमल ने होंठ भींच लिये।
आई-20 की ड्राइविंग सीट पर एक और युवक मौजूद था, जिसने कार के रुकने के बाद से इंजन बंद नहीं किया था। पिछला दरवाजा बंद होते ही उसने कार को तोप से छूटे गोले की तरह सड़क पर दौड़ाया।
“ये जुल्म है।” — विमल ने आर्तनाद किया।
“जिसके चश्मदीद तुम अकेले नहीं हो।”
“जुल्म होते देखकर उससे निगाह फेर लेना बुजदिली है, जालिम की मदद करने के बराबर है।”
“तुम यहाँ अकेले हो निगाह फेर लेने वाले? कितने लोग बस स्टैण्ड पर खड़े हैं? कितनी सड़क पर आवाजाही है? किसी ने किया कुछ?”
विमल ने सप्रयास इंकार में सिर हिलाया।
“लड़की के बचाव के लिये आगे न आये, न सही; किसी ने कोई शोर तक ही मचाया?”
“न-हीं।”
“सबने महज तमाशा देखा?”
“हँ-हाँ।”
“तो फिर तुम क्यों चौधरी बनना चाहते हो?”
“मैं तमाशबीन नहीं बन सकता। मैं और लोगों जैसा नहीं हूँ।”
“नहीं हो तो हो जाओ। बन कर दिखाओ और लोगों जैसा। वादा है तुम्हारा।”
“तुम मुझे नपुंसक देखना चाहती हो?”
“मैं तुम्हें आम शहरी देखना चाहती हूँ। मैं तुम्हें हकीकी जमीन पर लाकर खड़ा करना चाहती हूँ, ताकि मेरे सिर पर मेरे साईं का साया बना रहे, ताकि मेरा बच्चा बाप के सुख को न तरसे।”
“ये खुदगर्जी है।”
“अपना हित चाहना, अपने सुहाग का, अपनी औलाद का हित चाहना अगर खुदगर्जी है तो ये खुदगर्जी मुझे कबूल है। तमाम जिन्दगी कभी मुझे सुख का साँस नहीं आया, सुख का साँस लेने का अब एक मौका मुझे मिला है तो मैं उसे नहीं गँवाने वाली। जिस मिशन के तहत हम दिल्ली आकर बसे हैं, मैं उस मिशन को फेल नहीं होने दूँगी। बहुत जुल्म है इस दुनिया में। और ये भी विडम्बना है कि इंसान पर उतने जुल्म शैतान नहीं ढाता, भगवान नहीं ढाता, जितने इंसान ढाता है। उन जुल्मात की मुखालमात का झण्डाबरदार मैं तुम्हें नहीं बनने दूँगी। जैसे मुम्बई में लोग तुम्हें सखी हातिम, रॉबिनहुड,चैम्बूर का दाता वगैरह करार देते थे वैसी इमेज तुम अपनी यहाँ भी बनना शुरू करना चाहते हो तो ये मैं नहीं होने दूँगी। तुमने एक कसम खायी है, तुम मेरी एक कसम से बंधे हुए हो। कसम तोड़ दो, फिर जो मर्जी करो।”
“सूरा सो पहिचानीए” — विमल दबे स्वर में बोला — “जो लरै दीन के हेत।”
“मुझे अब सूरमा पति नहीं चाहिये। सूरमा पति मेरे किस काम आया? सूरमा पति की छत्रछाया में कौन-सी दुरगत है, जो मेरी नहीं हुई! गिनती गिनाऊँ?”
“नहीं।”
“मैं भी नहीं गिनना चाहती। मैं भी नहीं याद करना चाहती। मैं बस ये चाहती हूँ कि अब मैं आम, मामूली हैसियत वाले पति की छत्रछाया में आम, मामूली जिन्दगी बिताऊँ। कभी शिकायत करूँ तो लानत भेजना।”
विमल ख़ामोश रहा।
“मैं हमेशा, हमेशा सपना देखती हूँ कि सरदार सूरज सिंह सोहल जब बड़ा होगा तो ऐसा शुद्ध, पवित्र, सात्विक मानस बनेगा कि अपने मजबूर, मजलूम बाप के सारे पाप धो देगा। कैसे करेगा वो ये सब जब तुम अपने पापों में इजाफा करने की ही जुगत करते रहोगे?”
“बुराई की जीत इसलिये भी होती है, क्योंकि भलाई ने उसकी मुखालफत में उँगली तक न हिलाई।”
“भलाई जितना मर्जी जोर लगा ले, बुराई का सर्वनाश नहीं कर सकती। कर सकती होती तो इस मुल्क में रामराज होता।”
“मैं जुल्म होता नहीं देख सकता।”
“फिर वहीं पहुँच गये!”
“क्या होगा उस लड़की का?”
“वही होगा जो मंजूरेखुदा होगा। चलो अब।”
भारी मन से विमल कार में सवार हुआ।
तमाम रास्ते उसकी आँखों के आगे उस लड़की की सूरत नाचती रही जिसका सरेशाम, सरेराह उसकी आँखों के आगे अगवा हुआ था।
दाता! क्यों किसी को मुल्क के कायदे कानून का कोई खौफ नहीं था!
क्या होगा बेचारी का!
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