यह बात तो बहुत पुरानी हो चुकी...जब राजेश केन्द्रीय खुफिया में आये थे और पहले ही मामले में जयन्त उनका सहायक था। अब जयन्त सहायक नहीं था। परन्तु पारिवारिक सम्बन्धों के कारण ऐसा हमेशा ही होता था कि सालाना छुट्टियां दोनों साथ-साथ ही लेते थे, और अगर छुट्टियों में कहीं बाहर जाना पड़े तो दोनों सपरिवार साथ-साथ ही जाते थे।

इस बार आग्रह तो खैर बहुत पुराना था, परन्तु दिल्ली हो या लखनऊ...जून-जुलाई में तो दोनों ही नगर मानसून आने तक बहुत ही गर्म रहते हैं...साथ ही राजेश के पिता के मित्र नवाब हैदर अली का निरन्तर आग्रह था कि एक बार जुलाई में लखनऊ आओ। नवाब साहब निरन्तर आग्रह करते रहते थे और हर उत्तर में राजेश यही लिखते थे-'हुजूर नवाब चचा साहेब इस बार जरूर आऊंगा।'

इस बार नवाब ने तनिक तीखा पत्र लिखा था-'बेटे हम जानते हैं कि तुम न आओगे। अगर आओगे भी तब जब तुम्हारा बूढ़ा चचा इस दुनिया में नहीं रहेगा या जब प्रशासन बाग को ले लेगा। फिर जुलाई में हम बुलायेंगे तो किसलिए?'

नवाब हैदर अली की बात चुभ जाने वाली थी। वैसे राजेश यह जानते थे कि उत्तर प्रदेश सरकार कई बार कह चुकी है कि विश्व विख्यात मलीहाबाद पट्टी को जहां के आम दूर-दूर तक मशहूर हैं, शहर के विस्तार के लिए कभी नहीं लिया जाएगा।

फिर भी इस बार बीस जून को राजेश ने लखनऊ फोन किया, बड़ा कसैला उत्तर उधर से मिला-'बेटे फोन किसलिए किया है! अभी तो हम जिन्दा हैं, क्या किसी ने यह गलत खबर दे दी कि हैदर अली दुनिया जहान से उठ गया।'

-'ऐसी बात मत कहिये चचा हुजूर, आपके गिले-शिकवे दूर करने के लिए मैं छब्बीस जून को सुबह लखनक पहुंच रहा हूं।'

-'यकीन तो नहीं आता बेटे, फिर भी छब्बीस जून को सुबह कार स्टेशन पहुंच जाएगी। कार से सीधे बाग वाली कोठी में ही पहुंचना, वहीं सभी से मुलाकात होगी।'

-'जो हुक्म चचा साहेब, जरा चची साहिबा को तो फोन दीजिए। आदाब बजा लाना चाहता हूं।'

-'बुलाते हैं। वैसे बेटे लखनऊ के होकर लखनऊ को भूल तो नहीं गये? बाग का मौसम इतना बढ़िया रहता है कि नैनीताल भी मात! लो अपनी चची से बात करो।'

आदाब के बाद उधर से नवाब चची ने तारा से बात करने की इच्छा प्रगट की, और वह दोनों कई मिनट तक बातें करती रहीं।

इसके बाद लखनऊ रेलवे स्टेशन पर।

राजेश, तारा, जयन्त, हेमा और उनके बच्चे।

ट्रेन से उतरते ही जयन्त बोला-'वाह बड़े भाई, कैसे-कैसे मजे में छुट्टियां बीतेंगी। यानि कि अभी पूरे आठ भी नहीं बजे हैं और लू चलने लगी...!'

मुस्कराते हुये राजेश ने जयन्त के कंधे पर हाथ रखा-'ऐसा है जयन्त कि पूरे मजे तो कहीं भी नहीं मिल सकते। मान लो मानसून आने के बाद ही आते तो यहां आम तो मिलते, लेकिन खरबूजों का मजा समाप्त हो जाता।'

जयन्त कोई उत्तर दे ही रहा था कि तभी नवाब हैदर अली के पुत्र ने प्रगट होकर कहा    -'आदाब बजा लाता हूं भाई जान।'

-'अच्छे हो शेर अली...कुनबे में सभी अच्छे हैं न?'

-'जी आपकी मेहरबानी है। अब्बा हुजूर जरा ऐसे-वैसे ही चल रहे हैं, लेकिन मुझे यकीन है कि आपको देख कर वह बिल्कुल ठीक हो जायेंगे। भाभी जान, आदाब बजा लाता हूं।'

इस प्रकार सभी कार द्वारा बाग वाली कोठी में पहुंचे।

नवाब साहेब का कहना झूठ नहीं था, अमराई में जैसे वृक्षों ने सूरज को रोक रखा था। हवा में उतनी तपिश नहीं थी।

वहां पूरा ही नवाब परिवार था। सभी से दुआ सलाम में कुछ समय लगा।

राजेश ने पूछा-'चची साहिबा, चचा जान को नहीं देख रहा हूं!'

-'कोने वाले कमरे में लेटे हैं। न डाक्टर की बात सुनते, न हममें से किसी की। डाक्टर ने आम और खरबूजे खाने से मना किया है, और वह हैं कि एक महीने से यहीं बाग वाली कोठी में पड़े हैं। अब तुम आ गए हो, तुम ही सम्भालो अपने नवाब चचा को।'

राजेश और जयन्त दोनों उस कमरे की ओर बढ़ गए।

तनिक भारी बदन के नवाब हैदर अली ने उठ कर राजेश और जयन्त को गले लगाया। फिर आराम कुर्सी पर बैठते हुए कहा-'मानते हैं भई, दिल से दिल को राहत होती है। दरअसल इस साल हमें तुम दोनों की जरूरत थी।'

वह दोनों उनके सामने ही कुर्सियों पर बैठे।

राजेश बोले-'हुक्म दीजिये चचा नवाब साहेब।'

-'देखो बेटे, हम उस वक्त के बी. ए. पास हैं, जब बी. ए. पास कलक्टर भी बन जाते थे। इसीलिये हम यह भी जानते हैं कि तुम्हारा महकमा पुलिस से भी बड़ा है।'

-'अपनी-अपनी जगह पर सभी महकमे बड़े हैं। आप हुक्म दीजिए।'

-'हां बेटे, वैसे हुक्म जैसी कोई बात भी नहीं है। जरा यह बताओ कि इस बाग का मालिक कौन है?'

-'जाहिर है कि आप मालिक हैं।'

-'तब यहां हुक्म किसका चलेगा?'

-'आपका ही हुक्म चलेगा।'

-'तो बेटे हमारा हुक्म है कि यहां से अपनी चची, भाई, बहनों यानि सभी को निकाल दो। यानि कि क्या जमाना आ गया है! हम अपने बाग के आम, अपने खेत के खरबूजे भी नहीं खा सकते। हालत यह है कि दो चपाती सुबह चने की दाल के साथ, दो शाम को किसी भी मामूली सब्जी के साथ। हद हो गई...दुनिया भर में मशहूर दशहरी और चौसा आम, खरबूजे...मामूली जौनपुरी नहीं, ना बागपत नस्ल के...खास लखनवी बट्टी खरबूजा यानि  हमारे बाग और खेत में होते है और हम ही नहीं खा सकते? तो हम ही हुक्म दे रहे हैं कि सभी को निकाल दो। वैसे तो शहर वाली हवेली भी हमारी है, लेकिन खैर...यह सभी वहां जाकर रह सकते हैं।'

सहज स्वर में राजेश ने पूछा-'वैसे इलाज तो सिकन्दर मिर्जा का ही चल रहा होगा?'

-'नाम मत लो उस काफिर का। हर महीने यह टैस्ट कराओ, वह टेस्ट कराओ और सू-सू बोलने वाली मशीन को ले आएगा। सारे बदन को बिजली के तारों से लपेट देगा और फिर कागज की पट्टी दिखा कर कहेगा...बहुत गड़बड़ है चचा। मैं सच कहता हूं राजेश, किसी दिन अगर गुस्सा आ गया तो मिर्जा को गोली मार दूंगा। अरे भाई दिल हमारा है। वल्लाह हम लखनऊ के ऐश परस्त नवाब नहीं हैं। जवानी में हम भी शहर के एक बांके थे। अरे भई यह दिल हमारा है। हम जानेंगे कि दिल को क्या तकलीफ है...यानि कि दिल हमारा है और दिल की तकलीफ का फैसला मिर्जा करेगा...?'

तभी चची बेगम आई।

-'अब राजेश आ गया है, तुम सभी को बाग से निकलवा दूंगा।'

वह मुस्कराई-'हम पर रौब नहीं चलेगा नबाब साहेब! बाप या चचा बच्चे नहीं जनते, बच्चे जनती हैं मां और चची। अपनी खैर मनाइये, कहीं आपको ही बच्चे लखनऊ से बांस बरेली न पहुंचा दें! दोनों बहुयें और बच्चे आदाब बजाने आ रहे हैं।'

तारा और हेमा अपने बच्चों सहित आईं।

-'ठीक है, जीती रहो...सलामत रहो...खुश रहो। सोच रहे हैं, तुम्हारी चची को तलाक दे दें। मेहर की पच्चीस अशर्फीं इनको दी जानी हैं...दे देंगे। लेकिन मामला मुकदमा हुआ तो तुम सभी को सोचना है कि चचा की तरफ रहोगी या चची की तरफ?'

-'हां-हां...जो चाहो वह कर लेना। तुम्हारे लिए दूध आ रहा है। राजेश और जयन्त...तुम क्या लोगे?'

राजेश ने अत्यन्त सहजता से उत्तर दिया-'चची आप कुछ भी कहिये...हम तो अपने चचा के साथ हैं। जो चचा पियेंगे वही हम भी पियेंगे।'

-'राजेश बेटे, पागल तो नहीं हो गए हो? इन्हें तो एक प्याली गाय का गर्म और फीका दूध दिया जाता है। तुम दोनों के लिये आम और दूध का शर्बत बनवा दूं?'

-'जी नहीं।' राजेश उठे और नवाब चची का हाथ थाम कर उन्हें बाहर ले आए।

कुछ देर बाद वह स्वयं ही ट्रे में तीन प्याली दूध लेकर आए।

नवाब साहेब ने पूछा भी-'मेरी प्याली कौन-सी है?'

-'हर प्याली में बराबर ही दूध है, चाहे जो प्याली ले लीजिए।'

-'मुझे यह लोग फीका दूध देते हैं।'

-'जी हां, तीनों ही प्यालियों में फीका दूध है।'

-'नहीं नहीं, मैं तुम दोनों को अपने बाप पर जुल्म करने की इजाजत नहीं दूंगा।'

-'जुल्म कैसा चचा! सभी को बूढ़ा भी होना पड़ता है और बीमार भी...अगर पहले ही आने वाले जमाने का मुकाबला करने की कोशिश की जाए तो क्या हर्ज है?'

कहां तो नवाब साहेब अपनी जिद चलाना चाहते थे, और कहां उन्हें अपनी जिद पर अफसोस होने लगा।

दोपहर के खाने के लिये दो दस्तरखान बिछे।

एक नवाब साहब, राजेश, जयन्त और शेर अली के लिए...दूसरा अन्य सभी के लिये।

सूखी चपाती और चने की दाल।

दो आम और एक खरबूजा, हरेक के लिए दो-दो खरबूजे की फांक और आधा-आधा आम।

-'यानि चाहते हो कि मैं तुम सभी से माफी मांगूं?'

-'क्या कह रहे हैं हुजूर चचा साहेब! तारा को बुला कर पूछ लीजिये कि मुझे चने की दाल कितनी पसन्द है। चपाती पर मैं कभी भी घी नहीं लगवाता।'

-'अच्छा बेटे तुम जीते और मैं हारा।'

-'हार जीत का सवाल ही नहीं है, शुरू कीजिये।'

और सचमुच नवाब साहेब को दुख हुआ कि राजेश ने उन्हें गांधी वाले तरीके से मात दे दी।

सांझ से कुछ पहले।

-'चचा साहब, मैं और जयन्त शहर की तरफ जा रहे हैं। आपके लिये कुछ लायें?'

वह मुस्करा दिये-'जाओ...जल्दी ही लौट आना।'

-'डाक्टर मिर्जा से भी मिलूंगा।'

-'खबरदार, उस काफिर का मेरे सामने नाम मत लो।'

-'डाक्टर मिर्जा मेरे साथ पढ़े हैं। सिर्फ इसीलिए दुआ सलाम की इजाजत चाहता हूं।'

नवाब साहेब ने मौन स्वीकृति दे दी।

राजेश और जयन्त दोनों डाक्टर मिर्जा के क्लीनिक में पहुंचे।

सहपाठी और पुराने मित्र डाक्टर मिर्जा राजेश को देख कर बहुत प्रसन्न हुए।

बहुत-सी बातें हुईं। और बाद में नवाब हैदर अली के बारे में बातचीत।

हंस कर डाक्टर बोले-'भई राजेश, अच्छी तरह जानता हूं कि पुरानी पीढ़ी के नवाबों का इलाज करना आसान काम नहीं है। चचा नबाब अपने जमाने के नामी लखनवी बांके रहे हैं। हाल तो खैर उम्र के हिसाब से ठीक ही है। जाहिर है कि उन्होंने मुझे गालियां भी दी होंगी। परन्तु तुम भी तो लखनऊ के ही हो। अब पुराने खानदानी नवाब ठहरे, ऐसे लोगों को अगर एकदम खाना छोड़ देने के लिये कहूं तो शायद एक आधी चपाती खाना कम कर देंगे। मुझे जानकारी है कि पूरे कुनबे के साथ बाग वाली कोठी में ठहरे हैं, आप आम और खरबूजे वगैरह नहीं खायेंगे...यह कहा जरूर है। लेकिन सिर्फ इतना ही होगा कि कुछ कम खायेंगे, सो भाई पुरानी पीढ़ी के बुजुर्गों का इलाज तो करना ही होगा...इसीलिए...।'

-'यानि खतरे जैसी कोई बात नहीं है?'

-'बेशक खतरे वाली बात नहीं है। वहीं ठहरे हो...यह बात उनसे और उनके खानदान वालों से मत कहना।'

-'ठीक है, और मिर्जा साहेब आप भी पुरानी पीढ़ी के बारे में ठीक ही सोचते हैं। शुक्रिया।'

डाक्टर मिर्जा से विदा लेकर राजेश और जयन्त दोनों बाहर आए।

राजेश बोले-'डाक्टर हैं तो क्या हुआ, मिर्जा भी तो लखनवी हैं। नाश्ते के नाम पर इतना खिला दिया कि जो खाया है उसे पचाने के लिये पैदल चलना जरूरी है। चलो एक चक्कर नखास बाजार का लगा आते हैं...कार यहीं खड़ी रहने दो।'

-'वैसे बड़े भाई, दिल्ली में रहने के बावजूद आप भी लखनवी ही हैं...खाने के लिए इन्कार कर सकते थे। बस फर्क इतना ही है कि लखनवी हाजमे के लिए टहलते हैं, और आप नखास बाजार घूमना चाहते हैं! वैसे मुझसे कोई कह रहा था कि इस बाजार में सुईं से लेकर हाथी तक मिल जाता है।'

-'हां सुनता तो मैं भी यही रहा हूं। परन्तु मैने कभी उस बाजार में हाथी बिकते नहीं देखा, आओ।'

और फिर नखास बाजार में।

-'जयन्त!'

-'जी।'

-'उस दुकान पर बड़े मियां को देख रहे हो न...वह हैं चचा रहमान रद्दी वाले। जब कालेज में पढ़ता था तब भी साइन्स का विद्यार्थी होते हुए कुछ और पढ़ने को जी चाहता था। चचा हर महीने घर से अखबार की रद्दी ले जाते थे और उनसे मैं कभी रद्दी के दाम नहीं लेता था। जुमे के दिन कभी आता था और पढ़ने के लिए कोई अच्छी पुस्तक मिल ही जाती थी। आओ...चचा से भी सलाम किए लेते हैं।'

-'वैसे बड़े भाई...यहां कहीं माशूक छाप साबुन भी तो कभी बिका था?'

-'अच्छा नागर जी की कहानी की बात कर रहे हो! अब भाई महात्मा गांधी भी गुजराती थे, अमृत लाल नागर जी भी गुजराती थे और तुम भी गुजराती हो। कई बार उनसे दुआ सलाम हुई, लेकिन यह पूछने की हिम्मत नहीं कर सका कि क्या कभी यहां माशूक छाप साबुन भी बिका था। यहां न कभी हाथी बिकते देखा है, न माशूक छाप साबुन। परन्तु सचमुच यह मानने को जी नहीं चाहता कि आज नागर जी संसार में नहीं हैं।'

चलते-चलते दोनों उस दुकान के सामने आ गये।

राजेश ने चश्माधारी वृद्ध को सम्बोधित किया-'आदाब अर्ज है चचा जान।'

बूढ़ी आंखों ने चश्मे के पीछे से कुछ क्षण देखा। फिर तनिक आश्चर्य भरे स्वर में कहा        -'राजेश बेटे ही हो न?'

-'जी चचा।'

-'जीते रहो, जाने कौन कह रहा था कि तुम दिल्ली में बहुत बड़े पुलिस के अफसर बन गये हो?'

-'आप ही कहिये क्या मैं पुलिस अफसर जैसा दिखाई पड़ता हूं? वैसे यह सही है कि नई दिल्ली के एक आफिस में नौकरी जरूर करता हूं।'

-'यही तो हमने कहा था कि भई वह हमारे भतीजे हैं, अगर पुलिस में होते तो क्या हमें नहीं बताते! बाहर गर्मी है बेटे, आओ दुकान के अन्दर पंखे के नीचे आ जाओ।'

-'चचा, यह मेरे दोस्त हैं...जयन्त।'

-'जीते रहो, दोनों अन्दर आ जाओ बेटे।'

दुकान के अन्दर। वही पुराना तरीका।

सामने वह किताबें लगी हुई थीं जो रद्दी के भाव खरीदी गई थीं।

अन्दर बैठते हुए राजेश ने पूछा-'चचा काम कैसा चल रहा है?'

-'पहले वाली बात नहीं है। जब से पैलोथिन चला है, अखबारी रद्दी की कदर नहीं रही। तुम्हारे दोनों भाई तो नौकरी करते हैं। बस अपनी दुकान है तो हम ही यहां बैठे रहते हैं। अब बेटे, पहले की तरह फेरी तो लगाई नहीं जाती। यहीं रद्दी वालों से रद्दी खरीद लेता हूं, और यहीं बेच देता हूं।'

लगभग आधे घन्टे तक राजेश दुकान के अन्दर बैठे चचा रहमान से बातें करते रहे। रहमान के आग्रह, सोडा वाटर की बोतलें मंगवाने के लिए, को राजेश ने बड़ी विनम्रता से मना किया। फिर राजेश बोले-'तकरीबन एक महीने लखनऊ में ही रहूंगा चचा, क्या सामने रखी किताबों को देख सकता हूं?'

-'वाह...वल्लाह कैसी बातें कर रहे हो बेटे! दुकान तुम्हारी है, कहो तो हम दुकान से नीचे उतर जायें।'

इसी तरह की लखनवी बातों के बाद राजेश और जयन्त दोनों सामने के रेक में रखी पुस्तकों को देखने लगे।

राजेश ने पूछा-'चचा, यह कपड़े में बन्धी क्या चीज है?'

-'बेटे, एक प्रोफेसर साहब थे...अब कहीं और चले गये हैं। कह गए हैं कि कोई पुरानी किताब हों, या पुराने कागजात हों तो सम्भाल कर रख लेना। वही ऐसी चीजें खरीदा करते थे। इस दीमक के घर को उनकी वजह से रख रखा था। वह तो आये नहीं, सोच रहे हैं इसे फेंक दें।'

राजेश ने गठरी की तरह से बंधे उन कागजातों को खोल कर देखा, बहुत ही पुराने कागज उर्दू में लिखे हुए।

लगभग पन्द्रह मिनट तक राजेश उन कागजों को देखते रहे फिर बोले-'चचा इन कागजों को मैं लिए जाता हूं।'

-'ले जाओ।'

-'कपड़े की जगह किसी बड़े कागज में लपेट कर ले जाऊंगा।'

-'ले भी जाओ बेटे, मामूली कपड़ा तुमसे कीमती तो हो नहीं सकता। नवाब साहब के यहां ही ठहरे हो?'

-'जी हां...उनकी बाग वाली कोठी में।'

-'भाई साहब और नवाब साहेब में बड़ी गहरी दोस्ती थी। यही तो लखनऊ की खास बात है कि दोस्ती के रिश्ते भी पीढ़ी दर पीढ़ी चलते हैं। एक तकलीफ करना बेटे।'

-'हुक्म दीजिये।'

-'नवाब साहेब के बाग से गोमती अधिक दूर नहीं है। दीमकों के घर को गोमती में ही फेंक देना।'

-'लेकिन चचा साहेब इन कागजों में दीमक तो नहीं लगी हुई है!'

-'दीमक लगते देर कितनी लगती है।'

और राजेश ने उन कागजों को फिर से गठरी में बांध लिया। विवश जयन्त ने उसे हाथ में लटका लिया।

-'चचा तकलीफ दी...माफी चाहता हूं।'

-'एक बात सुन लो बेटे, जैसा कि तकलीफ के बारे में कह रहे हो...अगर हर हफ्ते जब तक लखनऊ में हो, तकलीफ न दी तो चचा भतीजे का रिश्ता खत्म।'

-'ऐसा क्यों कह रहे हैं चचा...जब तक लखनऊ में हूं, हफ्ते में दो बार हाजिरी दूंगा।'

-'जीते रहो, खुश रहो।'

और रास्ते में...बोझ को हाथ में लटकाए जयन्त ने कहा-'दो बातें बड़ी दुखदाई हैं। एक तो छोटा भाई होना और दूसरे किसी बड़े अफसर का मातहत होना। जान सकता हूं कि इन बेकार कागजों का आप क्या करेंगे?'

-'इसमें बहुत दिलचस्प किस्से हैं।'

-'अब मेरी और आपकी किस्से कहानियां सुनने की उम्र तो रही नहीं है।'

-'अगर किस्से जासूसी हों तो...?'

-'क्या अब जमाना नहीं बदल गया है?'

-'बेशक जमाना बदल गया है। अब यह कहना तो बड़ा मुश्किल है कि कौन-सा जमाना अच्छा था। हम आज के जासूस अच्छे हैं या वह पुराने जासूस अच्छे थे। शायद बोझ लग रहा है, लाओ गठरी मुझे दे दो।'

-'मेहरबानी करके चलते रहिये। जब बड़े भाई लदने के लिए आपके पास पालतू गधा है तो परेशान क्यों होते हैं!'

इस तरह की बातें करते हुये ही दोनों डाक्टर मिर्जा के क्लीनिक के बाहर पहुंच गये, जहां कार खड़ी हुई थी।

और फिर वहां से बाग वाली कोठी पर।

रात के पहले पहर में भी दोपहर की तरह दो दस्तरखान लगे। लौकी की भाजी और चपाती।

तभी नवाब साहब ने पूछा-'तो उस काफिर के पास भी गये थे, हमारा जिक्र तो नहीं आया?'

-'जी हां, मैंने ही जिक्र छेड़ा था। कह दिया कि चचा हमारे हैं...कल से हम उन्हें एक आम और एक खरबूजा रोज दिया करेंगे।'

-'उस काफिर ने क्या कहा?'

-'कुछ खास तो नहीं, अलबत्ता कह रहे थे कि आज के बुजुर्ग भी बड़े अजीब हैं! नवाब साहेब हमें काफिर कहते हैं।'

-'एक बार नहीं सौ बार काफिर।'

-'अब नाराजगी छोड़ दीजिए। कल से आपको एक आम और एक खरबूजा दिया जायेगा।'

और रात में!

राजेश की पत्नि तारा तो ग्यारह बजे से सो गई थी। परन्तु राजेश रात के तीन बजे तक उर्दू में लिखे कागजों को पढ़ते रहे।

सुबह चाय पीते हुए राजेश ने कहा-'दोपहर में हम आपको लखनवी जासूस का किस्सा सुनायेंगे।'

नवाब बोले-'किस्सा हम भी सुनेंगे।'

-'जी हां, आपको बड़े कमरे में आना होगा। जो भी किस्सा सुनना चाहें वही बड़े कमरे में खाने के बाद आ सकते हैं।'

दोपहर में दो बजे सभी उस कमरे में आ गये।

नवाब साहब आराम कुर्सी पर बैठे, राजेश को कागजों के कारण कुर्सी के साथ मेज की भी आवश्यकता थी।

चची बेगम नवाब साहेब के साथ एक और कुर्सी पर बैठीं।

शेष सभी नीचे कालीन पर बैठे।

राजेश ने पढ़ना आरम्भ किया...।

ऐ दिले-नेक दुई को छोड़ कर यकरंग हो जा, क्योंकि लिखा है कि अल्लाह एक है। वही रहीम है, करीम है...अपने बंदों की फरियाद सुनता है और अपने बंदों का इम्तिहान भी लेता है।

इसलिए जाने आलम हुजूर वाजिद अली शाह जो अल्लाह के इम्तिहान और फिरंगी के सितम की वजह से इस वक्त शहर कलकत्ता में हैं एक पैगाम भेजते हैं...यह कि मुंशी अमानत दुनिया के रंग बहुत से हैं, और उन्हीं रंगों में एक रंग मुसीबत का भी है। जो हमारे वतन लखनऊ में इस समय मौजूद है और यह भी कि हम अपने वतन से दूर यहां कलकत्ता में हैं। इन्सान को लाजिम है कि वह मुसीबत से न घबराये और तुम भी अपने फर्ज का अन्जाम दो। तुमने हमारा दिल बहलाने के लिये इन्द्रसभा लिखा...मजेदार था। लेकिन कलम नहीं रुकनी चाहिये, अब लिखो चतुरी पाण्डे की दास्तान...यानि लखनवी जासूस। सभी कारनामे लिखना...लेकिन पहले पहला, और उनका आखिरी कारनामा लिखना।

तो हुक्म बजा लाता हूं!

जब लखनऊ में नवाबी कायम हुई तभी ऐयार या जासूस जनाब असगर अली खां हुए। उन्होंने ही यह कायदा बनाया कि लखनऊ में हमेशा ही एक जासूस यानि नामी ऐयार रहेगा। लेकिन यह भी कायदा बनाया कि मुसलमान जासूस अपना शागिर्द हिन्दू को बनायेगा और हिन्दू जासूस मुसलमान को अपना शागिर्द बनायेगा। यह उसूल की बात है, उसूल मैंने इन्द्र सभा लिखते हुए भी याद रखा। यानि राजा इन्द्र हिन्दू और गुल्फाम मुसलमान। सब्जपरी और लालपरी...जिन्हें हिन्दू यह समझें कि दोनों हिन्दू हैं और मुसलमान भी उन्हें मुसलमान समझ सकें।

तो नवाबी हुक्म से पहले चतुरी पाण्डे का पहला और आखिरी किस्सा लिखता हूं।

पहला किस्सा अंगूठी की चोरी।

एक तरफ नवाब वाजिद अली शाह तख़्तनशीन हुए, और दूसरी तरफ पाण्डे जी शाही जासूस बने।

खास बेगम के अलावा हरम में कितनी ही निकाहशुदा और मुताई बेगमें थीं। यकीन कीजिये जितना मैं पाण्डे जी के बारे में जानता हूं, उतना नवाब साहब भी नहीं जानते। इसलिये कि मैं पाण्डे जी का खास दोस्त हूं...अलबता यह नहीं जानता कि इस वक्त पाण्डे जी कहां हैं!

लेकिन यह तो पहला किस्सा है...

तब सर्दियों की दोपहर थी, जब नवाब साहेब ने पाण्डे जी को बुलवाया।

पाण्डे जी ने हाजिर होकर कोरनीस को तो जाने आलम ने बहुत ही उदास लहजे में कहा  -'पाण्डे जी, हम लुट गये।'

लुट गये का मतलब पाण्डे जी नहीं समझ पाये। शहर लखनऊ अपनी जगह, खजाना जैसे का तैसा है...नवाब लुट कैसे गये?

फिर भी सहज स्वर में पाण्डे जी ने पूछा-'हुजूर बात क्या है? दास चाहता है कि बात साफ-साफ बताई जाये।'

जाने आलम ने अपना सीधा हाथ पाण्डे जी की ओर बढ़ा दिया और चतुरी पाण्डे जी ने देखा कि सीधे हाथ की छोटी उंगली में चमकने वाली अंगूठी गायब है।

-'तो क्या हुजूर छोटी उंगली वाली चमकदार अंगूठी गायब है?'

-'हां पाण्डे जी, हम लुट गये। वह मामूली अंगूठी नहीं थी। वह नायाब हीरा हमें कामरूप से आने वाले एक जोगी ने दिया था। और बुलाकी सुनार ने उसे अंगूठी में जड़ा था। वह ऐसा खास किस्म का हीरा था कि उंगली में रहे तो जिसे हम चाहें, वह हमें जी जान से चाहे...!'

पाण्डे जी ने खुद मुझे बताया कि ऐसा उनका विश्वास नहीं है कि कोई भी पत्थर किसी की किस्मत बदल सके। लेकिन नवाब साहब के विश्वास को वह ठेस नहीं लगा सकते थे।

-'हुजूर की उंगली में हुजूर की जानकारी में वह अंगूठी कब तक थी?'

-'रात तक।'

-'आपने उसे गायब कब पाया?'

-'जब सुबह गुसल के लिये हमाम में गये।'

-'माफ कीजिएगा, मेरे लिए यह जानना जरूरी है कि हुजूर ने रात...?'

-'रात हमने शरबती बेगम के साथ गुजारी।'

-'अंगूठी उंगली में ढीली तो नहीं थी?'

-'नहीं, कुछ सख्त ही थी।'

-'माफ कीजियेगा, शरबती बेगम के अलावा उस दौर में और किस-किस से मुलाकात हुई थी?'

-'किसी से नहीं, छम्मो हमें बेगम के पास ले गई थी। उसने ही पेचवान पर चिलम रखी।'

-'अंगूठी तो हुजूर मिल ही जायेगी। लेकिन इसके लिये जरूरी है कि मुझे हरम में जाने की इजाजत मिले।'

-'आपके लिये कहीं भी जाने पर रोक नहीं है।'

-'शुक्रिया जाने आलम। अंगूठी आपको रात से पहले ही मिल जायेगी।'

-'पाण्डे जी अगर वह अंगूठी हमें न मिलेगी तो हम जी न सकेंगे।'

-'यकीनन...रात से पहले-पहले ही मिल जायेगी।'

-'यह आपका इम्तिहान है पाण्डे जी।'

-'नहीं हुजूर, यह तो मामूली बात है...शाम तक अंगूठी आपके हुजूर में पेश की जायेगी।'

पाण्डे जी कोरनीस करके आम हरम में पहुंचे।

जानते थे कि छम्मो कहारिन आम हरम की अघोषित दारोगिन है।

रंग काला, लेकिन गजब के नयन नक्श। भरपूर जवानी और हर अदा कातिल।             

पहले पाण्डे जी ने उसे ही बुलवाया। वह ऐशगाह में खड़े थे।

छम्मो ने आकर हाथ जोड़े। गजब की मुस्कराहट-'पाण्डे जी आपने याद किया! इस लौंडी की खाल हाजिर है...जूतियां बनवा लें।'

-'सुन छम्मो, अच्छी तरह देख ले कि हम काली जूती नहीं लाल चमड़े पर सुनहरी काम वाली सलीमशाही पहनते हैं। यह भी कहेंगे कि अपनी जात पर बट्टा मत लगा। हमारे गांव पाण्डे पुरवा में तेरी ही जात के एक छदम्मी चाचा हैं और उन्हें हम अपने बाप से भी बढ़ कर मानते हैं। तो जात की नहीं, आदमी औरत को बात है। सीधे-सीधे हमें यह बता दे कि नवाब हुजूर की अंगूठी कहां है?'

-'हाय हुजूर...क्या आपको अदब कायदा भी बताना पड़ेगा? हमारे और जाने आलम के बीच तीन कदम का फासला जरूरी है।'

-'पाण्डे से बात कर रही है सुसरी...अदब कायदा हमें पढ़ा रही है? बता तो जाने आलम की रखेलों से तेरी कितने कदम की दूरी रहती है? तो बोलती बन्द...सुन, जिस पर हमें शक हो जाता है। उसे हम मामले मुकदमे के लिये जिन्दा नहीं छोड़ते। यह मजबूरी की बात है हमने असली शंखचूड़ नाग देवता को तेरे जैसों के लिए ही पाल रक्खा है। जिसे वह डस ले...वह पानी भी नहीं मांगता। हमें सचमुच दुख होगा, एक तेरी जान के लिए...दूसरा जो पेट में है उसकी जान के लिए।'

चौंक पड़ी छम्मो...अपने पेट को छुपाया। सचमुच घबरा गई। दो ही महीने का होने पर भी पाण्डे की तेज नजर।

पाण्डे मुस्कराये-'किसका है? न ढोल बजे न नपीरी! यह जालिम पेट में कैसे आ गया?'

छम्मो मौन।

-'तो अब बता कि नवाबी अंगूठी कहां है?'

-'हम कुछ कहें पाण्डे जी?'

-'सुर में बोलना, अगर बेसुरी बोली तो पिटारी में से देवता को निकालने में देर नहीं लगेगी।'

-'पाण्डे जी...क्या दुनिया में गरीब का ही मरण है?'

-'गरीब?'

पाण्डे जी मुस्कराये। दृष्टि भर कर छम्मो को देखा। रंग काला जरूर था, लेकिन पांवों की पाजेब से लेकर सिर के टीके तक सोने में लदी हुई।

-'यह मानते हैं छम्मो कि अगर आज भी तुझे महल से निकाल दिया जाये तो लखपति तो तू है ही। गरीब...हां कहने में बात सचमुच अच्छी है। लड़कपन से जवानी में कदम रखा तो लखपति, कहने की कोई बात ही नहीं है कि असल में मिर्जा साहेब और मीर साहेब तो कहने को ही शतरंज के खिलाड़ी हैं। असली शातिर तो तू ही है। शह की जरूरत ही नहीं...सीधी मात। खैर, हमें दुख होगा कि हम एक नहीं दो जान लेने के गुनाहगार बनेंगे।'

मुस्कराई छम्मो। हाथ बढ़ाया और पाण्डे जी की बांह पकड़ ली।

-'बांह छोड़ सुसरी...और अब चल हमारे साथ।'

-'बामन की जात हो पाण्डे जी, क्या इतना भी नहीं जानते कि महल में कौन चोर हो सकता है?'

-'सब कुछ जानते हैं और यह भी जानते हैं कि चोर कौन है और चोर की मां कौन है। और अब सीधी तरह आगे-आगे चल।'

-'कहां चलना है?'

-'गोमती के घाट पर ही चल। बड़े बूढ़े कह गए हैं कि जिसे सांप डसे, उसे जल समाधि देनी चाहिये। हजारों में एक भाग्यवान ऐसा भी होता है जिसे जल देवता वापस जीने के लिए धरती पर भेज देते हैं। लेकिन शंखचूड़ नाग का डसा हुआ...!'

-'हमारी जान चाहिए, ले लीजिए! यही तो होगा कि हमें मर कर भी स्वर्ग नहीं मिलेगा। इसलिए हमारी जान ले रहे हैं बामन देवता...चलो चलते हैं। बड़ी किरकिरी होगी पाण्डे जी। आप हमें जल समाधि दे रहे होंगे और इधर महल से चिड़िया फुर्र हो जायेगी।'

-'तो पहले यही आजमा ले छम्मो। जा...किसी भी दिशा से चाहे चोर दरवाजे से ही महल से जाने की कोशिश करके देख ले।'

-'इन्तजाम है तो पक्का ही होगा।'

-'आजमा कर देख ले।'

-'सो आपकी बात का यकीन है, परन्तु फिर से सोच लीजिए अंगूठी बहुत छोटी सी चीज होती है...मखमली घास में भी छुप सकती है।'

-'मुझे पढ़ाने की कोशिश मत कर।'

-'मैं तो आपकी बेदाम की गुलाम हूं। लेकिन सोच लीजिए...नवाब साहब की ऐशगाह... पूरब और पश्चिम...!'

-'वायदा करती है?'

-'आपकी बेदाम की गुलाम हूं।'

छम्मो दीवार के सहारे बुत की तरह खड़ी थी।

ख्वाबगाह की उस हब्शी बांदी को बुलाया गया, जिसका वहां पहरा रहता था।

ऐसी भयानक औरत जैसे पहाड़ चला जा रहा हो। हमेशा की तरह नंगी तलवार हाथ में।               पाण्डे जी ने पूछा-'पैदाइश?'

-'लखनऊ।'

-'बाप का नाम...?'

-'मां ने कभी बताया नहीं।'

-'बताया नहीं या पूछा नहीं?'

मौन! कोई उत्तर नहीं।

पाण्डे जी ने झपट कर उसकी तलवार छीन ली।

-'तलवार में जंग भी नहीं लगा है, धार भी तेज है। अगर एक ही वार में जिस्म के ऊपर से गर्दन उतार लूं तो...? लेकिन जब बाप का नाम ही मालूम नहीं तो सच झूठ का फैसला कैसे करेगी। फिर भी एक मौका देता हूं...रात के कितने गजर सुने?'

-'सभी!'

इकहरे बदन के पाण्डे जी का एक तमाचा पड़ा तो वह पहाड़ जैसी स्त्री मिट्टी के टीले की तरह फर्श पर गिर पड़ी।

-'अच्छी तरह सोच ले, अगर सच बोलेगी जान नहीं लूंगा। बता कितने गजर सुने थे?'

-'दो का सुना, फिर चार का सुना।'

-'खड़ी हो जा।'

वह उठ कर खड़ी हो गई, परन्तु दृष्टि झुकी हुई थी।

-'दो के बाद सो गई, और चार से पहले जाग गई। दरवाजा खुला हुआ था?'

-'हां।'

-'कहां सो रही थी?'

-'दरवाजे के बाहर दीवार के सहारे।'

-'रोज सोती है?'

वह बोली-'नहीं।' कह कर उसने दृष्टि झुका ली।

दोनों की बांह थाम कर कहा-'चलो, दोनों शरबती बेगम के पास चलो।'

शरबती बेगम।

रंग गोरा, कठिनता से अठारह बीस की उम्र।

पाण्डे जी देखते ही समझ गये कि अवध की नहीं शायद आगरा के आस-पास की है। उसे ऐशगाह में लाया गया है।

पाण्डे जी और दोनों स्त्रियों को देख कर उसके चेहरे का रंग उड़ गया और कांपते से स्वर में कहा-'हमारा सलाम लीजिए पाण्डे जी। अब तो आप जिलायेंगे तो जियेंगे वर्ना मौत तो मिलेगी ही।'

-'किसी ने खरीदा था?'

-'जी हां, हम तो नीच जात के थे महाराज। जमना के किनारे गांव था। किसी ने मां को सौ कलदार दिये। और...और किस्मत हमें यहां ले आई। यहां हमारे पांच सौ कलदार एक हवेली वालों ने दिये...हवेली वालों ने नवाब हुजूर को नजराने में दे दिया। यह भी सुना है कि हुजूर ने हवेली वालों को सौ अशर्फी का इनाम दिया।'

-'तब तो बड़े बुलन्द इरादे होंगे?'

-'कैसे इरादे...सही मायनों में हमारी मौत तो उसी दिन हो गई थी जब शहर आगरा से शिकरम में बैठे। बढ़िया कपड़े भी मिले हैं, जेवर भी हैं...लेकिन महाराज, तलवार आपके हाथ में है और हम गर्दन झुका रहे हैं। जानते हैं कि एक आप ही मर्द हैं जो हुजूर के बाद जनाने महल में आ सकते हैं। हमारी जान ले लीजिये, लेकिन इतना रहम जरूर कीजिए कि हमें चोरी के कलंक से बचा लीजिये। क्या जिन्दगी है हमारी! नीच जात में पैदा हुए...न इज्जत न आबरु। यहां आए तो पत्थर के बन कर रह गये। रात में...सिर्फ एक रात में हुजूर ने मेहरबानी की तो चोरी की तोहमत गले पड़ गई। हमें इस तोहमत से बचा लीजिए महाराज।'

-'यही तो सवाल है कि कैसे बचायें! जाने आलम रात में तुम्हारे साथ थे, अंगूठी ढीली नहीं थी...फिर किसने उतारी अंगूठी...?'

-'अल्लाह ही बेहतर जानता है। यूं जनाने महल में रोज ही शराब मिलती है, लेकिन हम नहीं पीते। हमें कड़वी लगती है...लेकिन कल हुजूर का हुक्म कैसे टालते? हमारे गाल पर एक तमाचा भी पड़ा, देखिये।'

-'तमाचा किसने मारा?'

-'हुजूर ने ही। हम पीने की आदत नहीं है। हुक्म था तो टाला नहीं जा सकता था। सिर चकराया और आँखें मुंद गईं, तभी ऐसी बेहोशी की नींद कि हुजूर जा रहे थे तो बहुत ही मुश्किल से सलाम करने के लिये उठ सके। फिर दिन चढ़े ही गहरी नींद, और जैसे ही जागे तो अंगूठी चोरी होने की बात।'

-'अंगूठी के बारे में कुछ जानती हो?'

-'हमने तो हुजूर के हाथ में रही होगी तब भी नहीं देखी।'

-'कुछ सुना तो होगा?'

-'हां, जो कुछ सुना है उस पर यकीन तो किया नहीं जा सकता।'

-'यकीन क्यों नहीं?'

-'महाराज गरीबी भी देखी है, और महल में आकर अमीरी भी। हुजूर की बात सच नहीं हो सकती। गरीबी ऐसी कि सुबह रोटी मिली है तो शाम का भरोसा नहीं। एक नजर जनाने महल की औरतों पर डाल लीजिये...अंगूठी, हार, ताबीज...हर एक में रंग-बिरगे पत्थर जड़े हैं। तलवार आपके हाथ में है, जान ले लीजिये। लेकिन हीरे, पन्ने और जाने क्या-क्या...हैं तो कुदरती पत्थर ही। पत्थर किसी की तकदीर नहीं बदल सकते।'

यह थी ऐशगाह के पूरब वाले कमरे में रहने वाली।

पश्चिम से बुलाने के लिए हब्शी औरत को भेजा गया।

कुछ ही देर में वह लौट आई।

पाण्डे जी ने पूछा-'किसी को साथ नहीं लाई?'

-'इन्कार।'

-'क्यों?'

-'रुखसाना बेगम फरमाती है कि मुताई हैं तो क्या हुआ। वह अच्छे और नेक खानदान की हैं और पर्दे वाली हैं। जब तक जान है कोई उनका पर्दा नहीं उठा सकेगा। पहले जान ले लीजिए, मरने पर ही यह बेपर्दा हो सकेंगी।'

-'आओ, उन्हीं के कमरे में चलते हैं।'

छम्मो, वह हब्शी औरत और शरबती। आगे पाण्डे जी थे।

पाण्डे जी दरवाजे पर रुके।

-'अन्दर आने की इजाजत है बेगम साहिबा?' कोई उत्तर नहीं मिला।

पर्दा हटा कर पाण्डे जी तीनों स्त्रियों के साथ कमरे में पहुंचे।

गुलाब बेगम, जो चौकी पर बैठी थी उठ कर खड़ी हो गई। ओढ़नी ख़ास ढाका की मलमल वाली थी। पर्दा होते हुए भी पर्दा न था।

एकदम गोरी...निस्सन्देह सुन्दर।

पाण्डे जी ने झुक कर कोरनीस की-'बेगम साहिबा, हमें तो जनानखाने में आने की जरूरत नहीं थी। लेकिन मजबूरी है, मैं चतुरी पाण्डे...असगर अली उस्ताद की शागिर्द परम्परा में से हूं। नमक का कर्ज हुआ करता है...अब आप ही फरमाइए हम कैसे फर्ज पूरा करें?'

उधर से उत्तर प्राप्त नहीं हुआ।

पाण्डे जी ने छम्मो को उधर जाने का संकेत किया।

छम्मो बेगम के निकट पहुंची। गुलाब ने कुछ फुसफुसा कर छम्मो से कहा।

-'पाण्डे जी, बेगम साहिबा फरमा रही हैं कि वह बाहर जाने को तैयार हैं।'

-'मैंने तो ऐसा नहीं कहा।'

-'बेगम साहिबा, आपको कमरे की तलाशी की इजाजत देती है। इसीलिये वह बाहर चली जाना चाहती हैं।'

सचमुच ही बेगम दरवाजे की ओर बढ़ीं।

पाण्डे जी ने टोका-'रुक जाइए बेगम साहिबा! हुजूर जाने आलम की इज्जत हम दोनों की इज्जत है। खानदानों का फर्क करना हम जानते हैं। शुक्रिया...हम ही बाहर जा रहे हैं।'

और पाण्डे जी हब्शी बांदी, छम्मो और शरबती बेगम के साथ कमरे से बाहर आए। उन्होंने सम्मान प्रगट करते हुए शरबती का भी अभिवादन किया। हब्शी पहरेदारिन को भी जाने के लिये कह दिया।