बुधवार दोपहर बाद वह रजिस्टर्ड लिफाफा इकबालसिंह के पास पहुंचा जिसकी बाबत सोमवार शाम को टेलीफोन पर उसीकी सोनपुर की हेल्गा नाम की किसी औरत से बात हुई थी । फोन पर हेल्गा ने सरदार सुरेंद्रसिंह सोहल नामक इश्तिहारी मुजरिम की बाबत जो चमत्कृत कर देने वाल बात बताई थी, उस पर इकबालसिंह को अभी भी यकीन नहीं आ रहा था । बहरहाल उसने फोन पर वादा किया था कि डाक से हासिल होने वाला माल अगर उसके मतलब का, उसकी पसंद का, हुआ तो वह उसकी दस लाख रुपए कीमत अदा करेगा ।
इकबालसिंह लगभग पचास साल का, गैंडे जैसी शक्ल-सूरत और आकार वाला, मिडल फेल गढवाली था, खतरनाक गैंगस्टर था और बंबई अंडरवर्ल्ड के भूतपूर्व बादशाह राजबहादुर बखिया की बादशाहत में से जिंदा बचा हुआ इकलौता शख्स था । आज ‘कंपनी’ के नाम से जानी जाने वाली गैंगस्टर्स की आर्गेनाइजेशन का रसूख, उसकी शानो-शौकत, उसका कारोबार बखिया के वक्त जैसा भले ही नहीं रहा था लेकिन फिर भी इकबालसिंह की झंडाबरदारी में अंडरवर्ल्ड में ‘कंपनी’ का भरपूर दबदबा था । ‘कंपनी’ के प्रभुत्व को चैलेंज करने वाला कोई दादा फिर भी सिर उठाने लगता था - जैसे आजकल इब्राहीम कालिया नाम का दादा उठा रहा था - तो उसका सिर कुचलने की हर जायज-नाजयज कोशिश फौरन की जाती थी ।
कंपनी का सिपहसालार श्याम डोंगरे खुद सोनपुर से आया रजिस्टर्ड लिफाफा लेकर इकबालसिंह के होटल सी व्यू के सूट में उसके रूबरू हाजिर हुआ ।
श्याम डोंगरे एक चालीस साल का, गठीले बदन वाला, निहायत सख्त चेहरे वाला व्यक्ति था जो अपनी जेहनी काबलियत में ‘कंपनी’ के दंडवते परेरा और घोरपड़े जैसे पिछले सिपहसालारों से उन्नीस हो सकता था लेकिन अपनी दुर्दान्तता में किसी से कम नहीं था ।
लिफाफा खोला गया ।
दोनों ने मंत्रमुग्ध भाव से सात राज्यों में घोषित इश्तिहारी मुजरिम सरदारा सुरेंद्रसिंह सोहल उर्फ विमलकुमार खन्ना उर्फ गिरीश माथुर उर्फ बनवारीलाल तांगेवाला उर्फ कैलाश मल्होत्रा उर्फ बसंतकुमार मोटर मकैनिक उर्फ नितिन मेहता उर्फ कालीचरण के प्लास्टिक सर्जरी द्वारा हासिल हुए नए चेहरे का पर्दाफाश करती हुई फाइल पढी और विभिन्न कोणों से ली गई उसके नए चेहरे की तस्वीरें देखीं ।
“तो यह वजह थी” – फिर इकबालसिंह के मुंह से निकला - “जो वह सरदार का बच्चा हमें बंबई में ढूंढे नहीं मिल रहा था ।”
“इस सूरत का तो” - डोंगर बोला - “सोहल के थोबड़े से दूरदराज का कोई रिश्ता दिखाई नहीं देता ।”
“बिल्कुल ।”
“मैं भी तो कहूं कि हमारे भेदिए, सारे प्यादे क्या अंधे हो गए थें जो बंबई का चप्पा-चप्पा छानने के बावजूद सोहल की कोई खबर नहीं ला पाते थे । इस सूरत के साथ तो उन्होंने सोहल को सैकड़ों बार भी देखा होता तो न पहचाना होता । साहब, मुझे एक बात की खुशी है । ”
“किस बात की ?”
“कि मेरे आदमियों की नीयत में या मुस्तैदी में कोई खामी नहीं थी ।”
“वो तो हुआ, अब हमें करना क्या चाहिए ?”
“हमें सोहल का नया चेहरा अपने आदमियों में और भेदियों में सर्कुलेट करना चाहिए । फिर सोहल का हमारी गिरफ्त में होना महज वक्त की बात होगी ।”
“वो सब तो होगा लेकिन अभी फौरन भी तो हमें कुछ करना चाहिए ।”
“क्या ?”
“यह मैं बताऊं ?” - इकबाबलसिंह आंख निकालकर बोला ।
“आपका मतलब है” - डोंगरे तनिक बौखलाकर बोला - “हमें किसी को सोनपुर भेजना चाहिए ।”
“किसी को नहीं, तुझे खुद सोनपुर जाना चाहिए । अपने ढेर सारे प्यादों के साथ ।”
“आपको उम्मीद है कि सोहल फिर वहां लौटेगा ?”
“वो औरत फोन पर कहती थी कि वो वह कहकर गया था कि वो किसी चंदानी नाम के आदमी की फिराक में अहमदाबाद जा रहा था । अगर उसका लौटने का इरादा न होता तो वह इस बात का जिक्र ही क्यों करता कि वह कहां जा रहा था, क्यों जा रहा था ?”
डोंगरे सोच में पड़ गया ।
“तू उस औरत को फौरन फोन लगा । फोन लगा और मालूम कर कि सोहल लौटा या नहीं । अगर नहीं लौटा है तो उसे कह कि तेरे आने तक वो किसी भी हालत में सोहल को वहां अटकाकर रखे । उसे कह कि अगर वो सोहल को पकड़वाने में मददगार साबित होगी तो उसे दस की जगह बीस लाख रुपया मिलेगा । ”
“ठीक है । मैं अभी फोन लगाता हूं ।”
“जाने का क्या करेगा ?”
“मैं कल सुबह की फ्लाइट से राजनगर चला जाऊंगा । वहां से सोनपुर करीब ही है । बड़ी हद दोपहर तक मैं वहां पहुंच जाऊगा ।”
डोंगरे ने अपनी बात अभी मुकम्म्ल भी नहीं की थी कि इकबालसिंह का सिर इनकार में हिलने लगा था । उसने प्रश्नासूचक नेत्रों से अपने बॉस की तरफ देखा ।
“ये टाइम खोटा करने का वक्त नहीं ।” - इकबालसिंह गंभीरता से बोला - “मेरा बस चलता तो मैं तुझे जादू के जोर से अभी सोनपुर पहुंचा देता ।”
“लेकिन कल सुबह-सवेरे अगर प्लेन से...”
“ट्रेन से जा । अपने आदमियों को साथ ले के जा । मैंने मालूम किया है, ट्रेन सुबह पांच बजे तक राजनगर पहुंच जाती है । यूं अभी दिन ही चढा होगा कि तू सोनपुर में होगा ।”
“आजकल” - डोंगरे दबे स्वर में बोला - “बाढ के दिन हैं । ट्रेन लेट हो जाती हैं ।”
“फ्लाइट भी लेट हो जाती हैं । बल्कि कैंसिल हो जाती हैं । तू ट्रेन से जा ।”
“ठीक है ।”
“और कम-से-कम बीस लाख रुपया साथ लेकर जा ।”
“अच्छा ।”
“और अपने जिस भगवान की मानता है, उससे ये मन्नत मांगता हुआ जा कि सोहल तेरी वहां मौजूदगी में वहां पहुंचे और तेरा वादा पूरा हो ।”
“वादा !”
“भूल गया । तूने मेरे से दावा नहीं किया था कि अगर एक महीने में तू सोहल को जिंदा या मुर्दा मेरे सामने पेश नहीं कर पाया तो जिंदगी-भर दोबारा कभी मुझे अपनी सूरत नहीं दिखाएगा ।”
“ओह ! साहब, मुझे अपना वादा याद है । अभी महीना मुकम्म्ल होने में बहुत दिन बाकी हैं । और तब तो मुझे सोहल के नए थोबड़े की भी पहचान है ।” - उसने एक बार फिर सोहल के नए चेहरे की तस्वीर पर निगाह डाली - “साहब !”
“अब क्या है ?”
“पता नहीं क्यों मुझे यह तस्वीर वाली सूरत कुछ जानी-पहचानी लग रही है । न जाने क्यों मुझे ऐसा लग रहा है कि मैंने यह सूरत हाल ही में कहीं देखी है ।”
“कहां ?”
“यही तो याद नहीं आ रहा ।”
“डोंगरे, सच पूछे तो मुझे भी लग रहा है कि ये थोबड़ा मेरा देखा हुआ है ।”
“कहीं राह चलते या कहीं किसी पब्लिक प्लेस पर देखा होगा ।”
“हो सकता है । ऐसा आदमी कभी मेरी बगल से गुजर गया हो या कभी कहीं किसी होटल वगैरह में मेरे सामने बैठा रहा हो तो भी मुझे क्या फर्क पड़ने वाला था । पहले हमें मालूम थोड़े ही था कि यह सोहल का नया चेहरा है ।”
“या शायद यह सूरत हमारी किसी जानी-पहचानी सूरत से महज मेल खाती हो ।”
“किससे ?”
डोंगरे ने इनकार में सिर हिलाया ।
“खैर छोड़ । तू सोनपुर फोन कर, वहां जाने की तैयारी कर और इस तस्वीर की पांच सौ कापियां बनवाने का इंतजाम कर ।”
“पांच सौ !”
“हां । पांच सौ । मैं चाहता हूं, यह तस्वीर हमारे हर आदमी के पास हो, बंबई में मौजूद हमारे हर भेदिए के पास हो । अंडरवर्ल्ड में सोहल का नया चेहरा उसकी पुरानी सूरत जितना ही मशहूर हो जाना चाहिए, डोंगरे ।”
“आप समझते हैं कि ऐसी कार्यवाही की जरूरत पड़ेगी ?”
“अगर तू सोनपूर से कामयाब होकर लौटेगा, तब तो नहीं पड़ेगी ।”
डोंगरे खामोश रहा ।
“यानी कि” - इकबालसिंह उसे घूरता हुआ बोला - “तुझे अपनी कामयाबी पर शक है ?”
डोंगरे बौखलाया, उसने तत्काल इनकार में गरदन हिला दी ।
“मुंडी मत हिला ।” - इकबालसिंह डपटकर बोला - “मुंह से बोल ।”
“मुझे अपनी कामयबी पर कोई शक नहीं । बॉस, सोहल का सिर आपके कदमों में लोटता ही होगा ।”
“बढिया । एक बात और ।”
“जी ।”
“अपने पीछे चौकस इंतजाम करके जाना । जो प्रोग्राम हमने उस इब्राहीम कालिया के बच्चे के खिलाफ चलाया है, उसमें ढील नहीं होनी चाहिए ।”
“नहीं होगी ।” - डोंगरे तत्काल बड़े विश्वास के साथ बोला - “मेरी बंबई से गैरमौजूदगी की वजह से तो हरगिज नहीं होगी । कालिया के कई आदमी, उसके कई ठिकाने हमारी निगाह में हैं जिन्हें मुनासिब मौका हाथ आते ही बुरी तरह हिट किया जाएगा । इंदौरी और भौमिक को मैंने खासतौर से इसीह काम पर लगाया हुआ है । आप जानते ही हैं कि वो दोनों मेरे दाएं-बाएं हाथ का दर्जा रखते हैं ।”
“बढिया ।”
“मैं चलता हूं ।”
इकबालसिंह ने सहमति में सिर हिला दिया ।
***
जैकपॉट !
यह उस इंतहाई रंगीले कैब्रे-जायंट का नाम था जो शांताक्रूज एयरपोर्ट से मुश्किल से एक फर्लांग दूर था । जैकपॉट में शाम सात बजे से लेकर रात के दो बजे तक कैब्रे के ऐसे प्रोग्राम चलते थे जिनमें राम ग्यारह बजे तक तो नर्तकियां अर्धनग्न होती थीं लेकिन फिर उसके बाद उनके जिस्म पर वही पोशाक दिखाई देती थी जिसे पहनकर वे पैदा हुई थीं ।
जैकपॉट में आने वाले बहुत कम लोग ऐसे होते थे जिन्हें इस बात का अहसास था कि पहले उसी जगह उमर खैयाम नाम का एक बार चला करता था जो कि कंपनी की प्रॉपर्टी होता था । बखिया की जिंदगी मे एक बार ‘कुछ मवालियों ने’ उसे ऐसा तबाह किया था कि दोबारा फिर कभी वो बार नहीं चल पाया था । मवालियों ने तोड़-फोड़ और खून-खराबे का वहां ऐसा आतंक फैलाया था कि बाद में क्या वेटर, क्या बारमैन, न तो वहां कोई नौकरी करने को तैयार था और न ही कोई ग्राहक आने को तैयार था । नतीजन बार बंद हो गया था । 
आज अंडरवर्ल्ड में भी यह जानने वाला कोई इक्का-दुक्का ही था कि उमर खैयाम को तबाह करने वाला मवाली और कोई नहीं, तुकाराम, उसका सबसे छोटा भाई देवाराम और अकरम लाटरीवाला नाम का भिंडी बाजार का एक दादा और उसके आदमी थे ।
अब आम ख्याल यह था कि ‘कंपनी’ ने उमर खैयाम वाली इमारत को बेच दिया था और उसे खरीदने वाले उल्हास सितोले नामक आदमी ने उसे नए सिरे से सजा-संवारकर वहां जैकपॉट नाम का कैब्रे जायंट शुरू कर दिया था जबकिक हकीकत यह थी कि वह जगह आज भी कंपनी की मिल्कीयत थी और उल्हास सितोले केवल दिखावे को वहां का मालिक था । ‘कंपनी’ का बादशाह बनने पर बखिया के स्थापित निजाम में इकबालसिंह ने जो छोटे-मोटे हेर-फेर किए थे, उनमें से एक यह भी था कि ‘कंपनी’ के ऐसे संस्थापनों की किसी को खबर नहीं होनी चहिए थी । यूं कोई फसाद खड़ा हो जाने पर ‘कंपनी’ का उस संस्थापन से हाथ खींच लेना आसान होता था ।
बखिया और इकबालसिंह में यह भी एक फर्क था कि जहां बखिया जो काम करता था बिना किसी का खौफ खाए, बिना अंजाम की परवाह किए, डंके की चोट पर करता था, वहां इकबालसिंह हर कदम फूंक-फूंककर उठाने में विश्वास रखता था । इकबालसिंह नहीं जानता था कि जिसे वह अपनी होशियारी और दूर-अंदेशी समझता था, उसे ‘कंपनी’ के दुश्मन उसकी कायरता और कमजोरी समझते थे । यही कारण था कि इब्राहीम कालिया जैसे मामूली स्मगलर की ‘कंपनी’ से टककर लेने की मजाल हो गई थी और आज की तारीख में वह ‘कंपनी’ के उसी व्यापार को चोट पहुंचाने की कोशश कर रहा था जो सालों से बिना किसी भी प्रकार के विघ्न के बड़े सुचारु रूप से चला आ रहा था । वो व्यापार था ‘कंपनी’ का नारकाटिक्स स्मगलिंग का धंधा जिसमें बाधा डालने की हिम्मत भारत तो क्या एशिया के किसी गैंगस्टर की नहीं हुई थी । पिछले दिनों बंबई पुलिस के एक युवा और कर्मठ पुलिस इंस्पेक्टर अशोक जगनानी की वजह से ‘कंपनी’ के पुर्तगाल और गोवा के रास्ते चलने वाले नारकाटिक्स स्मगलिंग के रूट का पर्दाफाश हो गया था जिसकी वजह से ‘कंपनी’ की सलामती इसी में समझी गई थी कि उस रूट के तमाम आपरेशन रद्द कर दिए जाते और ‘कंपनी’ के सीनियर ओहदेदार व्यास शंकर गजरे की राय पर - जोकि ‘कंपनी’ के नारकाटिक्स ट्रेड का इंचार्ज था और ‘कंपनी’ की बादशाहत में जिसका नाम इकबालसिंह के बाद दूसरे नंबर पर आता था - नारकाटिक्स का लोकल ट्रेड भी वक्ती तौर पर बंद कर दिया जाता । इन बातों की जानकारी जब इब्राहीम कालिया को लगी थी तो वो वह और शेर हो गया था और उसने ताबड़तोड़ दुबई से हेरोइन, एल.एस.डी. वगैरह बंबई पहुंचानी शुरू कर दी थी ।
इब्राहीत कालिया एक मुश्किल से पैंतीस साल का नौजवान था जो कि एक दुर्दान्त हत्यारा था और दर्जनों खून कर चुका था । बांबे कस्टम को, डायरेक्ट्रेट ऑफ रेवेन्यू इंटेलीजेंस को और पुलिस को कितने ही केसों के सिलसिले में उसकी तलाश थी लेकिन वह स्थायी रूप से बंबई से भागकर दुबई में बस गया बताया जाता था । नारकाटिक्स स्मगलिंग के अलावा जिन और गैरकानूनी धंधों में उसका दखल था, वे थे सोने और चांदी की स्मगलिंग, हवाले से जायदाद की खरीद-फरोख्त और बंबई में प्रापर्टी और रुपए-पैसे के झगड़े दादागिरी से सुलझाने का निहायत खतरनाक धंधा । उसके इस आखिरी धंधे की वजह से बंबई में यह धारणा आम थी कि ऐसा केवल समझा ही जाता था कि इब्राहीम कालिया दुबई में बस गया हुआ था जबकि वास्तव में वह सदा बंबई में ही उपलब्ध होता था ।
बखिया के वक्त भी अपराध की दुनिया में इब्राहिम कालिया का बड़ा नाम था लेकिन क्योंकि तब कभी उसने बखिया के किसी धंधे में दखलअंदाजी करने की जुर्रत नहीं की थी इसलिए तब बखिया ने या ‘कंपनी’ ने कभी उसकी तरफ तवज्जो नहीं दी थी । तब इब्राहीम कालिया ‘कांट्रैक्ट किलर’ के नाम से जाना जाता था जिसे मुंहमांगी फीस देकर - जोकि लाखों कें होती थी - किसी का भी कत्ल करने के लिए तैयार किया जा सकता था । जानने वाले जानते थे कि इब्राहीम कालिया दस ‘पेटी’ तक (एक पेटी बराबर एक लाख रुपया) एक कत्ल की फीस हासिल कर चुका था जबकि तब के सबसे अधिक दुर्दान्त हत्यारे करीमलाल जैसे सुपरबॉस का मुंहबोला बेटा रामद खान भी कभी एक कत्ल की डेढ या दो पेटी से ज्यादा फीस हासिल नहीं कर सका था । यूं खून-खराबे के जरिए चार पैसे कमा लेने के बाद ही इब्राहीम कालिया को लगा था कि कांट्रैक्ट किलिंग में कुछ नहीं रखा था । असल माल और दबदबा नारकाटिक्स ट्रेड में था । बखिया का वह बेपनाह खौफ खाता था इसलिए पहले तो वह जब्त किए रहा लेकिन जब बखिया के कत्ल के बाद उसकी जगह इकबालसिंह ने ले ली तो कालिया ने पर निकालने शुरू कर दिए । इकबालसिंह ने फौरन उसके पर कतरने का सामान न करने की नादानी की तो इब्राहीम कालिया शेर हो गया । आनन-फानन उसने अपनी शक्ति इतनी बढा ली कि अब उसके पर कतरना एक दुरूह काम बन गया जबकि शुरू में यह मामूली काम था । ‘कंपनी’ इब्राहीम कालिया की अपने नारकाटिक्स ट्रेड को धमकी का कड़ा मुकाबला कर रही थी । लेकिन अब यह मुकाबला ऐसा नहीं रहा था जो ‘कंपनी’ के बाज जैसे एक ही झपट्टे से दुश्मन की मुकम्मल हस्ती को नेस्तनाबूद कर सकता । बहरहाल इकबालसिंह इस बात से भी खुश था कि इब्राहीम कालिया उसके खौफ का मार दुबई भागा हआ था - हालांकि यह एक झूठी तस्ल्ली थी । हकीकतन इकबालसिंह का नहीं, पुलिस का, कानून का खौफ इब्राहीम कालिया को बंबई से दूर रखे हुए था । इकबालसिंह समझदार होता, बखिया के निजाम की असीम शक्त‍ियों का वारिस बनकर भरमा न गया हुआ होता तो वह इसे अपने और ‘कंपनी’ के अस्तित्व के लिए बहुत बड़ा चैलेंज समझता कि इब्राहीम कालिया दुबई में बैठा-बैठा बंबई के अंडरवर्ल्ड में अपना दबदबा कायम किए रह सकता था । वो ऐसा समझता तो चोर की जगह चोर की मां को पकड़ने की कोशिश करता । जबकि वह इब्राहीम कालिया के आदमियों को या उसके ठिकानों को ही गाहे-बगाहे हिट करके समझ रहा था कि वह बहुत बड़ा काम कर रहा था ।
जैकपॉट की कोई दर्जन-भर कैब्रे डांसरों में जो सबसे कमसिन, सबसे शानदार, सबसे हसीन डांसर थी, उसका नाम चांदनी था । जैकपॉट के आधे से ज्यादा ग्राहक ऐसे होते थे जो केवल चांदनी का ही डांस देखने आते थे । चांदनी की परफारमेंस क्योंकि शुरू ही ग्यारह बजे की बाद होती थी इसलिए उस वक्त के बाद जैकपॉट में ऐसी भीड़ हो जाती थी कि डोरमैन को सख्ती से ग्राहकों को यह कहकर लौटाना पड़ता था कि भीतर जगह नहीं थी । ग्राहक तब भी नहीं मानते थे तो प्रवेश द्वार को बंद करके उस पर ताला लगाना पड़ता था । ऐसी तालाबंदी पुलिस को हतोत्साहित करने के लिए भी होती थी जो कि एकाएक वहां आन टपक पड़ती थी । ताला खुलने पर भीतर नग्न नृत्य करती कैब्रे डांसर कुछ औने-पौने कपड़े पहन लेती थी और पुलिस को ताले की यही सफाई दी जाती थी कि पब्लिक जबरन भीतर घुस आने को आमादा थी ।
अन्य ऐेसे स्थानों की तरह जैकपॉट का स्टेज हॉल के किसी एक कोने में नहीं था, वहां स्टेज हॉल के ऐन बीचोंबीच था और स्टेज पर कैब्रे डांसर छत से नीचे लटकाए जाते, रंग बिरंगी रोशनियों से जगमग करते, एक हिंडोले में अवतरित होती थी । हिंडोला डांसर को छोड़कर वापिस चला जाता था और डांसर की परफारमेंस खत्म हो जाने पर उसे वहां से ले जाने के लिए फिर लौट आता था ।
उस वक्त रात के कोई साढे ग्यारह बजे थे, स्टेज पर चांदनी संपूर्ण नग्नावस्था में विलायती संगीत की धुन पर पारे की तरह थिरक रही थी और दर्शक आंखें फाड़े, घुटनों तक लार टपकाते उसके सांचे में ढले अंग-प्रत्यंग को निहार रहे थे । चांदनी केवल डांस ही नहीं करती थी ब‍ल्कि डांस के साथ-साथ बड़े संकेतात्मक ढंग से अपने अंग-प्रत्यंग को छेड़ती थी, सहलाती थी ।
अंत में डांस अपनी चरम सीमा तक पहुंचा और करतल ध्वनि के बीच हिंडोला नीचे स्टेज पर उतरने लगा । फिर आर्केस्ट्रा की ध्वनि के साथ चांदनी ने चारों तरफ घूमकर अपने दर्शकों का अभिवादन किया, एक लगभग पारदर्शक गाउन-सा पहना और फिर दोनों हाथों के इशारों से हवा में चुंबन उछालती हिंडोले पर सवार हो गई ।
हिंडोला दर्शकों की दृष्टि से ओझल हो गया तो रोशनियां, जो पहले स्टेज पर ही केंद्रित थीं, अब सारे हॉल में जगमगाने लगीं । तुरंत बाद हॉल मे वेटरों की हलचल दिखाई देने लगी ।
चांदनी की एक और, निहायत कामयाब, परफारमेंस का समापन हो चुका था ।
चांदनी गाउन को अपने बदन के साथ लपेटती हिंडोलें से निकली और पहली मंजिल पर स्थित अपने ड्रेसिंगरूम में पहुंची ।
ड्रेसिंगरूम खाली नहीं था ।
वहां निहायत शानदार सूट-बूट में सुसज्जित एक खूबसूरत युवक बैठा था जो नौजवानी के देवानंद सरीखा लग रहा था । उसका कद-काठ और नयन-नक्श इतने आकर्षक थे कि उस लिहाज से वह चांदनी का मां जाया लगता था लेकिन वास्तव में वह चांदनी का प्रेमी था । उसका नाम अरविंद नायक था, चिंचपोकली में उसके बाप की कैमिस्ट की दुकान थी, जिसके कामकाज में वह उसका हाथ बंटाता था लेकिन वास्तव में वह इब्राहीम कालिया के गैंग का आदमी था और यह बात उसने खुद ही चांदनी को बताई थी ।
चांदनी को भीतर दाखिल होता देखक‍र वह उठ खड़ा हुआ । उसने मुस्कराते हुए अपनी बांहें चांदनी की दिशा में फैला दीं । चांदनी दौड़कर उसकी बांहों में आ गई । उसका न होने जैसा गाउन सामने से खुल गया और उसके नग्न उन्नत उरोज नायक के सीने से रगड़ खाते हुए उसके शरीर में सिर से पांव तक बिजलियां दौड़ाने लगे । नायक ने कसकर उसे अपने आलिंगन में जकड़ लिया और बड़े आतुर भाव से उसके कपोलों और होंठों को चूमने लगा ।
फिर चांदनी जबरन उससे अलग हुई, उसने इठलाते हुए नायक को वापिस कुर्सी में धकेल दिया और अपना गाउन व्यवस्थित करने लगी ।
“कब आए ?” - चांदनी उसके सामने बैठती हुई बोली ।
“थोड़ी देर पहले ।” - अरविंद नायक बोला - “बस तू स्टेज पर पहुंची ही थी ।”
“तब तो वहीं आ जाना था ।”
नायक ने इनकार में सिर हिलाया ।
“क्यों ?” - चांदनी माथे पर बल डालती हुई बोली ।
“वजह तुझे मालूम है ।”
“लोगों की भूखी निगाहें मेरे नंगे जिस्म पर पड़ें, यह तुम्हें बर्दाशत नहीं होता ?”
“हां । ”
चांदनी खिलखिलाकर हंसी ।
“माई स्टूपिड डार्लिंग” - यह बोली - “बट दैट इज बिजनेस ।”
“फिर भी ।” - नायक बोला ।
“क्या फिर भी !” - चांदनी इठलाती हुई अपनी कुर्सी से उठी और नायक की गोद में बैठ गई - “बुद्धू ! वो लोग सिर्फ देख सकते हैं मेरे जिस्म को । इसे छूने का, इसे हासिल करने का, हक सिर्फ तुम्हें है । सिर्फ तुम्हें । क्या समझे ?”
उसने नायक का सिर अपने दोनों हाथों में थामा और जोर से अपने नंगे वक्ष के साथ भींचा ।
अरविंद नायक निहाल हो गया ।
“तुम तो आज आने वाले नहीं थे ?” - फिर चांदनी ने पूछा ।
“मेरा प्रोग्राम लेट हो गया ।” - नायक बोला - “पहले मुझे ग्यारह बजे वरसोवा समुद्र तट पर पहुंचना था । अब दो बजे पहुंचना है ।”
सिर्फ वक्त ही तब्दील हुआ है न ?” - चांदनी ने सावधानी से पुछा - “बाकी प्रोग्राम तो वही है न ?”
“हां । बाकी प्रोग्राम वही है ।”
“अभी तो दो बजने में बहुत वक्त है ।” - चांदनी ने वाल क्लॉक पर निगाह डाली - “अच्छा हुआ यहां आ गए । मैं तो तुम्हें याद ही कर रही थी ।”
“सच ?”
“हां । चाहो तो कसम उठवा लो ।”
“मुझे वैसे ही तेरी बात पर विश्वास है । जानती है मैं यहां क्यों आया ?”
“मेरे से मिलने ।”
“तेरे से मिलने तो आया । लेकिन क्यों तेरे से मिलने आया ?”
“क्यों मेरे से मिलने आए ?”
“क्योंकि... क्योंकि...”
“बोला न । खामोश क्यों हो गए ?”
“क्योंकि मेरे को लग रहा है कि आज के बाद मैं फिर कभी तेरे से नहीं मिल पाऊंगा ।”
“क्यों नहीं मिलन पाओगे भला ? क्या हो जाएगा आज के बाद ?”
“बस हो जाएगा कुछ ।”
“तुम नशे में हो ।”
“वो तो मैं हूं लेकिन...”
“और नशे में भावुक हो रहे हो । अपनी आज जैसी हर असाइनमेंट पर रवाना होने से पहले तुम हर बार यही कहते हो और फिर भूल जाते हो ।”
“इस बार मेरे दिल से यह बात निकल रही है, मेरी जान ।”
“याह भी हर बार कहते हो ।”
“लेकिन...”
“छोड़ो । कोई और बात करो । और पियोगे ? मंगाऊं ?”
“नहीं । मैं पहले ही बहुत पी चुका हूं ।”
“तभी तो नशे में बहक रहे हो, खामखाह जज्बाती हो रहे हो और ये ड्रॉमेटिक डायेलॉग बोल रहे हो - मेरी जान, यह हमारी आखिरी मुलाकात है, अब मैं फिर कभी तेरे से नहीं मिल पाऊंगा, जालिम जमाना हमारे बीच दीवार बनकर खड़ा हो जाएगा...”
आखिरी वाक्य कहते समय चांदनी ने नायक के अंदाजेबयां की ऐसी कामयाब नकल उतारी कि नायक हंसे बिना न रह सका ।
“एक गुड न्यूज है ।” - फिर वह बोला ।
“हां, ये हुई न बात !” - चांदनी उसके बालों में उंगलियां फिराती हुई बोली - “गुड न्यूज सुनाओ । तुमने तो बिरह गीत गाने शुरू कर दिए थे ।”
“आज रात मेरी इब्राहीम कालिया से मुलाकात होगी ।”
“अच्छा !” - चांदनी एकाएक सावधान स्वर में बोली - “वो दुबई से यहां आ रहा है ?”
“मुझे नहीं मालूम कि वो दुबई से यहां आ रहा है या पहले से ही यहां है लेकिन आज मेरी इब्राहीम कालिया से मुलाकात जरूर होगी । भट्टी ने मेरे से पक्का वादा किया है ।”
भट्टी - शमशेर भट्टी - इब्राहीम कालियाका दायां हाथ था और इस बात से चांदनी बखूबी वाकिफ थी ।
“कहां होगी मुलाकात ?” - वह बोली ।
“मालूम नहीं ।”
“भट्टी से ?”
“वो भी नहीं मालूम । भट्टी कहता था वो खुद मेरे से काटैक्ट कर लेगा ।”
“ओह ! हासिल क्या होगा तुम्हें कालिया से मुलाकात से ?”
“बहुत कुछ हासिल होगा । मैंने बहुत खिदमत की है इब्राहीम कालिया की । वो और भट्टी दोनों खुद कबूल करते हैं कि मेरा सामाजिक रुतबा, मेरी सफेदपोशी, नारकाटिक्स स्मगलिंग में उनके बहुत काम आ रही है । मेरे सुपुर्द किया गया माल आज तक नहीं पकड़ा गया ।”
“तो ?”
“मैं अपनी खिदमत का हवाला देकर इब्राहीम कालिया से दरख्वास्त करूंगा कि अब मुझे कूरियर के काम से निजात दिलाई जाए और कोई ज्यादा जिम्मेदारी का काम सौंपा जाए ।”
“उससे क्या होगा ?”
“उससे बहुत कुछ होगा । उससे मेरा रिस्क घट जाएगा और मेरी-आमदनी, मेरे ठाठ-बाट, मेरी शानो-शौकत, मेरी सलाहियात बढ जाएंगी । ऐसा होते ही जानती है मैं पहला काम क्या करूंगा ?”
“क्या करोगे ?”
“मैं तेरे से यह नामुराद धंधा छुड़वाऊंगा जो मुझे एक आंख नहीं सुहाता और फिर तेरे से शादी बनाऊंगा ।”
“ओह, अरविंद ।” - चांदनी फिर उससे लिपट गई - “माई डार्लिंग ।”
“बोल ! बनाएगी न मेरे से शादी ?”
“फौरन ! गोली की तरह ! कहो तो अभी ।”
“नहीं । अभी तो मुमकिन नहीं शादी लेकिन एक काम अभी भी मुमकिन है ।”
“क्या ?”
“हनीमून का रिहर्सल ।”
“क-क्या !”
“दरवाजा भीतर से बंद कर ।”
“पागल हुए हो ! इस वक्त ?”
“सुना नहीं !”
“सितोले आ जाएगा ।”
“आ जाएगा तो आ जाएगा । बड़ी हद यही तो हो जाएगा कि तू यह धंधा कल छोड़ने की जगह आज छोड़ देगी ।”
“मेरी स्टेज पर परफारमेंस है ।”
“अभी वक्त है उसमें ।”
“लेकिन...”
“और ये न भूल कि हो सकता है यह मरने वाले की आखिरी ख्वाहिश हो ।”
“फिर पहुंच गए उसी जगह पर ।” - चांदनी ने आंखें तरेरीं ।
“नहीं पहुंचता । तू मुझे कहीं और पहुंचने दे । जाके दरवाजा बंद करके आ ।”
“नहीं मानोगे ?”
“नहीं ।”
“ठीक है ।”
चांदनी उसकी गोद में से उतरी और मदमाती चाल चलती हुई दरवाजे की ओर बढी ।
उसकी चाल देखकर ही अ‍रविंद नायक का कलेजा मुंह को आने लगा । उसे चांदनी के दरवाजे पर से लौटकर आने तक का सब्र करना मुहाल लगने लगा ।
वह अपने स्थान से उठा और बाज की तरह चांदनी पर झपटा ।
***
सतीश गावली ने अपनी मर्सीडीज कार के डैशबोर्ड पर लगी घड़ी पर निगाह डाली, जोकि उस वक्त पौने बारह बजा रही थी और अपनी बगल में बैठी रेशम के ढेर जैसी लड़की पर निगाह डालकर मुस्कराया ।
लड़की भी बड़े चित्ताकर्षक भाव से मुस्कराई और उसने अपना कोमल हाथ सतीश गावली की जांघ पर सरक जाने दिया ।
सतीश गावली का दिल खुशी से झूम उठा और उसकी आंखों में रंगीन डोरे तैर गए ।
लड़की एक फिल्मस्टार थी और हाईप्राइस्ड कॉलगर्ल थी जिसके साथ वह जुहू के सेंतूर होटल से लौट रहा था । अब वह महसूस कर रहा था कि उसने अच्छा किया था जो उसने जल्दी ही होटल से किनारा कर लिया था । उस वक्त कार वेस्टर्न एक्सप्रैस हाइवे पर दौड़ रही थी और और पंद्रह-बीस मिनट में उसने हेनस रोड पर महालक्ष्मी रेसकोर्स के बाजू में स्थित अपने फ्लैट पर पहुंच जाना था जहां सवेरा होने तक अब या वह होगा या वह लड़की होगी - जिसने अपनी एक रात के उससे दस हजार रुपए वसूल किए थे - और या उसके बेडरूम का विशाल पलंग होगा ।
सतीश गावली प्रत्यक्षत: विदेशी कारों की खरीद-फरोख्त का धंधा करता था । लेकिन असल में वह नारकाटिक्स स्मगलर था और इब्राहीम कालिया के गैंग का आदमी था । इब्राहीम कालिया तक उसकी सीधी पहुंच थी और वह कालिया का बहुत करीबी माना जाता था । वह इस बात से अपने आपसे बहुत संतुष्ट था कि बंबई शहर में किसी को कानोंकान खबर नहीं थी कि वास्तव में वह नार‍काटिक्स स्मगलर था और इब्राहीम कालिया के गैंग का आदमी था ।
कितना भुलावे में था सतीश गावली नाम का वो स्मगलर !
वो नहीं जानता था कि ‘कंपनी’ न सिर्फ उसकी हकीकत से वाकिफ थी बल्कि कंपनी के सिपहसालार श्याम डोंगरे के दो अत्यंत विश्वासपात्र लेफ्टीनेंट इंदौरी और भौमिक उसकी टोह में लग भी चुके थे ।
सतीश गावली को अगर इस हकीकत की खबर होती तो जरूर-जरूर वो फौरन से पेश्तर बंबई के कूच कर जाता और पनाह मांगता अपने आका इब्राहीम कालिया के पास दुबई पहुंच जाता ।
जिस मर्सीडीज कार में वह उस वक्त सवार था उसके सारे शीशे बुलेटप्रूफ थे और वह स्वंय हर वक्त अपने पास एक भरी हुई रिवॉल्वर रखता था । वो दोनों सावधानियां उसे गैरजरूरी लगती थीं लेकिन शमशेर भट्टी ने उसे खासतौर से चेताया था कि इब्राहीम कालिया चाहता था कि या वह रात-बिरात बंबई की सड़कों पर अकेले निकलना बंद करे और या फिर वह वे दोनों सावधानियां बरते । वैसे उसे बाडीगार्ड रखने की भी राय दी गई थी लेकिन सतीश गावली उसके लिए तैयार नहीं हुआ था क्योंकि, बकौल उसके, यह बाम खामखाह उसे शक्की निगाहों का शिकार बना देती कि एक मामूली यूज्ड कार डीलर आखिर बाडीगार्ड को लेकर क्यों फिरता था ?
पिछले दिनों बंबई में कुछ ऐसी घटनाएं घटित हुई थीं जिनकी रूह में उसे लगा था कि न जरूरत होते हुए भी इब्राहीम कालिया की बताई अतिरिक्त सावधानियां बरतने में कोई हर्ज नहीं था ।
कार ने माहिम काजवे पार किया और फिर तुलसी पाइप रोड पर दौड़ने लगी ।
आधी रात होने को थी लेकिन बंबई की सड़कों की रौनक किसी कदर कम नहीं हुई थी । बंबई तो एक तरह से चौबीस घंटे के दिन वाला शहर हो गया था, दिल्ली की तरह - जहां कि वह सिर्फ एक बार गया था - अंधेरा होते ही शहर पपर मरघट का-सा सन्नाटा नहीं तारी हो जाने लगती थी ।
वह उस घड़ी उम्दा स्कच व्हिस्की के सरूर में था लेकिन किसी भी कदर लापरवाह नहीं था । उसकी चौकन्नी निगाह अक्सर रियरव्यू मिरर पर यह तसदीक करने के लिए पड़ जाती थी कि कोई गाड़ी उसके पीछे तो नहीं लगी हुई थी ।
उसकी कार एक चौराहे पर पहुंची तो एकाएक आगे चौराहे की ट्रैफिक सिग्नल वाली बत्ती लाल हो गई । उसने कार रोक दी और सिगरेट सुलगाने लगा ।
तभी मिलिट्री की एक जीप उसकी कार के पहलू में आकर रुकी । जीप को मिलिट्री का एक वर्दीधारी जवान चला रहा था और उसके पहलू में पैसेंजर सीट पर जो व्यक्ति बैठा था, उसकी वर्दी के फूल कर्नल होने की चुगली कर रहे थे । कर्नल के मुंह में एक सिगार था जिसे वह एक लाइटर से सुलगाने की कोशिश कर रहा था लेकिन लाइटर था कि जलकर ही नहीं दे रहा था ।
“ओ हैल !” - कर्नल झुंझलाता हुआ बोला और फिर जीप से बाहर सतीश गावली की तरफ हाथ बढाता हुआ बोला - “मिस्टर, जरा लाइटर देना ।”
सतीश गावली का लाइटर अभी उसके हाथ में ही था । कर्नल का लाइटर न जलने पर झुंझलाना और बगल की कार के ड्राइवर को सिगरेट पीता देखकर उससे लाइटर की मांग करना एक इतनी सहज स्वाभाविक प्रक्रिया थी कि उसने निसंकोच अपनी मर्सीडीज का जीप की ओर का शीशा नीचे गिराया और अपने हाथ में थमा लाइटर कर्नल के अपनी ओर फैले हाथ पर रख दिया ।
आगे बत्ती अभी भी लाल थी ।
“थैंक्यू ।” - कर्नल रोबदार आवाज में बोला, उसने अपना लाइटर परे उछाल दिया और तभी हासिल हुए लाइटर से अपना सिगार सुलगाने लगा ।
सिगार सुलगा चुकने के बाद उसनेक अपना बायां हाथ सतीश गावली की कार की तरफ यूं बढाया कि हाथ खिड़की में से कार के भीतर तक घुस आया । उसमें से लाइटर निकालने के लिए सतीश गावाली ने जब अपना हाथ आगे बढाया तो आतंक से उसके नेत्र फंट पड़े ।
कर्नल के हाथ में लाइटर की जगह एक रिवॉल्वर थी जिसकी नाल उसकी खोपड़ी से मुश्किल से आधा फुट दूर थी ।
खिड़की बंद करना संभव नहीं था क्योंकि कर्नल का हाथ खिड़की के भीतर था इसलिए बिजली की फुर्ती से उसका हाथ अपने शोल्डर होल्टर की तरफ बढा जहां कि उसकी अपनी रिवॉल्वर मौजूद थी ।
हाथ को रिवॉल्वर तक पहुंचना नसीब न हुआ ।
कर्नल की रिवॉल्वर ने एक के बाद एक तीन फायर किए और सतीश गावाली नामक यूज्ड कार डीलर और नारकाटिक्स स्मगलर का भेजा अपनी उस रात की संभावित संगिनी उस हाईप्राइज्ड कॉलगर्ल के उन्नत वक्ष पर बिखर गया जिसको अदा किए दस हजार रुपयों की एक कानी कौड़ी भी अभी वह वसूल नहीं कर पाया था ।
जीप के ड्राइवर ने - जो कि इंदौरी था - केवल एक बार अपने आला अफसर - जोकि भौमिक था - की तरफ देखा और जीप आगे दौड़ा दी ।
ट्रेफिक लाइट तभी हरी हुई थी ।
तभी पीछे खड़ी मर्सीडीज लड़की की चींखों की आवाज से गूंजने लगी ।
जीप और वर्दियों से किनारा करके जब इंदौरी और भौमिक एक टैक्सी पर सवार उसी रास्ते वापिस लौट रहे थे तो लड़की तब भी अभी हिस्टीरिया के रोगी की तरह चीख ही रही थी, अलबत्ता अब मर्सीडीज कार के इर्द-गिर्द लोगों का जमघट लग गया था जिसमें एकाध पुलिसिया भी दिखाई दे रहा था ।
***
पौने दो बजे नई-नकोर एयरकंडीशंड सिल्वर मारुति पर अरविंद नायक वरसोवा पहुंचा ।
उसने कार को पेड़ों के झुरमुट में छुपाकर खड़ा किया और पैदल आगे समुद्र तट की ओर बढा । रात के उस वक्त चारों तरफ मुकम्म्ल सन्नाटा था और समुद्र भी शांत था ।
बीच पर एक स्थान पर मछुआरों की अनगिनत नावें खड़ी थीं । उसने उनमें से एक छोटी-सी, लेकिन हर लिहाज से चौकस, नाव छांटी और उसे चुपचाप समुद्र में उतारा । वह उसमें सवार हो गया और चप्पू चलाता हुआ उसे अंधियारे समुद्र की छाती पर चलाने लगा ।
किनारे से कोई सौ गज आगे आ जाने पर उसने चप्पू चलाना बंद कर दिया और जेब से एक छोटी-सी टार्च निकाल ली । उसने अपनी कलाई घड़ी पर निगाह डाली और बड़े धीरज के साथ प्रतीक्षा करने लगा ।
घड़ी ने ज्यों ही पूरे दो बजाए, उसने टॉर्च का रुख समुद्र की ओर करके एक पूर्वानिर्धारित तरीके से उसे तीन-चार बार जलाया-बुझाया ।
तुरंत दूर समुद्र में कहीं जुगनू-सा चमका ।
नायक आश्वस्त हो गया । उसे सिग्नल का जवाब सिग्नल से मिल रहा था ।
वह खामोश बैठा रहा ।
एक पूर्वनिर्धारित वक्त के बाद उसने टार्च को फिर जलाया-बुझाया ।
तुरंत फिर सिग्नल का उत्तर मिला ।
उसने संतुष्टिपूर्ण भाव से सिर हिलाया, टार्च जेब के हवाले की और फिर चप्पू संभाल लिए । वह धीरे-धीरे नाव को उस दिशा में खेने लगा जिधर से उसे सिग्नल मिला था और जिधर पहले जैसा जुगनू-सा अभी भी रह-रह‍कर चमक उठता था ।
समुद्र में थोड़ा आगे बढ़ आने पर उसे एकाएक अपने सामने एक अंधेरी दीवार-सी खड़ी दिखाई देने लगी ।
उस दीवार पर से फिर जुगनू चमका ।
नायक नाव और करीब ले आया ।
अब उसे दिखाई देने लगा कि वह दीवार वास्तव में एक छोटे-मोटे शिप जैसी विशाल मोटरबोट का एक पहलू थी जिसके डैक पर से जुगनू सी चमक उसे दिखाई जा रही थी ।
नाव की धीरे-धीरे खेता हुआ वह उसे मोटरबोट के एकदम करीब ले आया फिर उसने उसे मोटरबोट के पहलू के साथ लगा दिया ।
प्रत्यक्षत: मोटरबोट से उसके हर एक्शन पर निगाह रखी जा रही थी क्योंकि नाव के मोटरबोट के साथ लगते ही ऊपर से रस्सियों की एक सीढी फेंकी गई जो ऐन नायक की नाक के सामने आकर लहराई ।
नायक स्तब्ध नाव में बैठा रहा ।
फिर सीढी के सहरो एक साया नीचे उतरा और नाव में आ गया ।
नायक ने कोई प्रतिक्रिया जाहिर नहीं की ।
“छत्रपति शिवाजी राणे ।” - साया फुसफुसाया ।
“बाजेराव मस्तानी ।” - नायक निसंकोच बोला ।
“सीढी चढ जाओ ।” - साया बोला, प्रत्यक्षत: उसे कोड का जवाब सही कोड से मिला था - “मैं तुम्हारी नाव संभालता हूं ।”
नायक ने सहमति में सिर हिलाया और अपने सामने लहराती सीढी का एक डंडा थाम लिया । फिर बंदर की-सी फुर्ती से वह सीढी चढने लगा ।
वह रेलिंग के करीब पहुंचा तो चार मजबूत हाथों ने उसे डैक पर खींच लिया ।
“चलो ।” - आदेश मिला ।
दो व्यक्तियों के बीच में चलता हुआ वह आगे बढा । सीढियों के रास्ते उसे नीचे केबिन में ले जाया गया । वहां खूब रोशनी थी और वहां एक लंबा-तगड़ा अरब मौजूद था । उसने एक बार एक सरसरी निगाह नायक पर डाली और फिर एक आयतकार पैकेट उसे सौंप दिया ।
नायक ने पैकेट थाम लिया, उसने एक व्यग्र निगाह चारों तरफ दौड़ाई और फिर मायूसी से बोला - “कालिया साहब नहीं आए ?”
किसी ने उत्तर देने की कोशिश न की । किसी ने नायक के साथ किसी वार्तालाप में शामिल होने की ख्वाहिश तक जाहिर न की ।
“मुझे बताया गया था” - वह फिर बोला - “कि यह कनसाइनमेंट खुद इब्राहिम कालिया साहब लेकर आने वाले थे । क्या वो...”
वह खामोश हो गया । एक आदमी अपनी कोहनी से उसकी पसलियों को टहोक रहा था । नायक ने उसकी तरफ देखा तो उसने बाहर की तरफ इशारा किया ।
नायक के मुंह से एक आह-सी निकली । वह वापिस घूमा ।
पैकेट संभाले दोनों आदामियों के साथ सैंडविच की सूरत में वह वापिस डैक पर पहुंचा । 
वह जानता था कि पैकेट में पूरी एक किलो प्योर, अनकट हेरोइन थी, भारत के खुदरा व्यापार के बाजार में जिसकी किमत एक करोड़ रुपया थी ।
उसके हाथ में थमा वह छोटा-सा निर्दोष-सा आयातकार पैकेट एक करोड़ रुपए की कीमत रखता था ।
***
माहिम क्रीक पर धारावी बांद्रा लिंक रोड के धारावी की ओर वाले सिरे पर एक काली फिएट खड़ी थी जिसकी अगली सीट पर दो आदमी खामोशी से बैठे सिगरेट पी रहे थे । दोनों की निगाह पुल पर टिकी हुई थी ।
फिएट की ड्राइविंग सीट पर बैठा आदमी डेनिम की टाइट जीन और चमड़े की जैकेट पहने था । उसके गले में सोने की मोटी जंजीर थी जिसके सहारे लटकते भारी पैंडल पर उर्दू में ‘अल्लाह’ गुदा हुआ था । उसके पहलू में बैठा व्यक्ति एक बुढापे की दहलीज पर पहुचा हुआ लेकिन खूब हट्टा-कट्टा सिख था जो कि टाई के बिना एक थ्री पीस सूट पहने था ।
सिख ने कलाई घड़ी पर निगाह डाली और फिर धीरे से बोला - “वक्त तो हो गया ।”
चमड़े की जैकेट वाले ने सहमति में सिर हिलाया ।
तभी एक सिल्वर मारुति पुल के दाहाने पर प्रकट हुई ।
“वही है ।” - सिख एकाएक बोला ।
“शायद ।” - जैकेट वाला बोला - “करीब आने दो । नंबर देखते हैं ।”
सिल्वर मारुति करीब आई । उसे एक खूबसूरत नौजवान चला रहा था लेकिन उनकी निगाहों का केंद्र मारुति का ड्राइवर नहीं उसकी नंबर प्लेट थी ।
“वही है ।” - मारुति उनकी बगल से गुजर गई तो सिख बोला । जैकेट वाले ने सहमति में सिर हिलाया और फिएट को स्टार्ट किया । उसने बड़ी दक्षता से गाड़ी चलाते हुए उसे सड़क पर मारुति के पीछे डाल दिया ।
सिल्वर मारुति धारावी के इलाके में दाखिल हुई, सायन रोड पहुंची और फिर कई सड़कों वाले उस चौराहे पर पहुंची जहां से आगे बढती प्रमुख रोड ईस्टर्न एक्सप्रेस रोड थी ।
चौराहे पर सिल्वर मारुति रुकी ।
जैकेट वाले ने फिएट उसके पहलू में लाकर रोकी ।
उसने एक विशिष्ट अंदाज में हौले से हॉर्न बजाया ।
ऐन उसी अंदाज में सिल्वर मारुति की ड्राइविंग सीट पर बैठे अरविंद नायक ने हॉर्न बजाया । एक क्षण के लिए दोनों कारों के ड्राइवरों की निगाहें मिलीं । फिर तभी आगे बत्ती हरी हो गई ।
जैकेट वाले ने चौराहा तो नायक के साथ ही पार किया लेकिन फिर उसने मारुति को आगे निकल जाने दिया । मारुति ईस्टर्न एक्सप्रेस हाइवे पर दौड़ने लगी । फिएट बड़ी मुस्तैदी से उसके पीछे लगी रही ।
नायक ने टैगोर नगर के करीब हाइवे छोड़ दिया और अपनी सिल्वर मारुति को विकरोली रेलवे स्टेशन की ओर जाती सड़क पर डाल दिया ।
उसने रियरव्यू मिरर में फिएट को भी अपने पीछे उसी सड़क पर प्रकट होते देखा ।
गुड ! - वह होंठों में बुदबुदाया ।
थोड़ा आगे एक बहुमंजिली इमारत थी जिसके ग्राउंड फ्लोर और बेसमेंट में कार पार्किंग थी । उसके दहाने पर वाचमैन का केबिन था । वाचमैन का नाम मिर्ची थी । वह नायक को बंखूबी जानता-पहचानता था क्योंकि माल की अदला-बदली के लिए उस जगह को नायक पहले भी कई बार इस्तेमाल कर चुका था ।
नायक ने मारुति को वाचमैन के केबिन की खिड़की के सामने रोका और खिड़की में से सिर निकालकर मिर्ची की तरफ देखा ।
मिर्ची ने तत्काल सका अभिवादन किया और उठकर केबिन से बाहर आया । वह नायक के करीब पहुंचा ।
“फिएट ।” - नायक धीरे से बोला - “काली । नंबर एसआरजे 1942 है । भीतर दो आदमी हैं । एक चमड़े की जैकेट और सोने का भारी कंठा पहने है और दूसरा थ्री पीस सूट और खुले कालर की कमीज पहने एक बूढा सरदार है ।
मिर्ची ने सहमति में सिर हिलाया ।
फिर नायक का हाथ उसकी तरफ बढा । उस हाथ में सौ-सौ के पांच नोट थे जो नायक के हाथ से निकलकर तत्काल मिर्ची की मैली पतलून में गायब हो गए ।
सिल्वर मारुति बेसमेंट में उतर गई ।
उसके बेसमेंट की ढलान पर दाखिल होते ही मिर्ची ने बेसमेंट के दहाने पर एक स्टैंड पर टंगा एक बोर्ड खड़ा कर दिया जिस पर लिखा था - फुल ।
वह केबिन से बाहर ही साइनबोर्ड के करीब खड़ा रहा ।
तभी काली फिएट वहां पहुंची ।
मिर्ची ने कार के नंबर और सवारियों पर निगाह डाली और फिर ‘फुल’ वाला साइनबोर्ड उठा लिया । वह एक ओर हट गया । उसने फिएट की सवारियों को एक हल्का-सा इशारा किया ।
फिएट भी नीचे बेसमेंट में पहुंच गई ।
मिर्ची ने साइनबोर्ड फिर थथास्थान रख दिया ।
अब कोई और कार बेसमेंट में नहीं जा सकती थी । रात की उस घड़ी किसी और कार के वहां आने की उम्मीद कम ही होती थी लेकिन अगर कोई कार आ भी जाती तो अब वह ग्राउंड फ्लोर की पार्किंग में ही जाकर खड़ी होती क्योंकि साइनबोर्ड के मुताबिक बेसमेंट की पार्किंग में जगह नहीं थी, वो ‘फुल’ थी ।
मिर्ची वापिस अपने केबिन में जा बैठा । उसने एक बीड़ी सुलगा ली और उसके छोटे-छोटे कश लगाता प्रतीक्षा करने लगा ।
उसका तजुर्बा था कि नीचे जो कुछ भी होता था, उसमें दसेक मिनट जरूर लगते थे ।
पता नहीं क्या होता था नीचे ?
मिर्ची को न इस बाबत कुछ मालूम था और न उसने कभी कुछ जानने की कोशिश की थी । वो सिर्फ तना जानता था कि हर चंद दिनों बात वो फिल्म अभिनेताओं जैसा खूबसूरत बाबू कार पर वहां आता था, उसके पीछे एक और कार पर उसके कुछ जानने वाले आते थे जिनके साथ नीचे पता नहीं उसकी क्या गुप्त मन्त्रणा होती थी लेकिन वे सब दस मिनट में, दस में नहीं तो बड़ी हद पंद्रह मिनट में, वहां से रुख्सत हो जाते थे और मिर्ची की मुफलिस जेब सौ-सौ के पांच नोंटो से गर्म हो जाती थी ।
तभी एक नीले रंग की रोवर वहां पहुंची ।
मिर्ची ने रोवर की तरफ कोई विशेष तवज्जो न दी । वह जानता था कि बेसमेंट की पार्किग के रास्ते के दहाने पर फुल का बोर्ड लगा देखकर रोवर ग्राउंड फ्लोर की पार्किग में दाखिल होने के लिए बाएं मुड़ जाएगी ।
रोवर बाएं न मुड़ी । वह उसके केबिन के आगे आकर रुकी और वहीं ठिठकी खड़ी रही ।
मिर्ची ने फिर कार की तरफ देखा । उसके भीतर पांच आदमी मौजूद थे, जिनमें एक को भी वह जानता नहीं था । जानता होता तो जरूर उसके होश फाख्ता हो जाते क्योंकि कार की अगली सीट पर इंदौरी और भौमिक बैठे थे और पिछली सीट पर ‘कंपनी’ के फ्रेडो, शेलके और जीवाने नाम के तीन प्यादे बैठे थे जोकि ओहदे में और रुतबे में कार की अगली सवारियों से कम जरूर थे लेकिन दुर्दांतता में उनसे किसी कदर भी कम नहीं थे ।
भौमिक कार से बाहर निकला । वह वाचमैन के केबिन का दरवाजा खोलकर भीतर दाखिल हुआ ।
मिर्ची तनिक भी विचलित न हुआ । जरूर वे लोग इमारत को कोई पता दरयाफ्त करना चाहते थे, अलबत्ता उस आदमी को केबिन के भीतर आने की जगह खिड़की के पास पहुंचना चाहिए था ।
“भीतर आना मना है ।” - मिर्ची नकली रोब झाड़ता हुआ बोला ।
“अच्छा !” - भौमिक मुस्कराया - “क्यों ?”
“अरे कहा न, भीतर आना मना है ।”
“नाराज क्यों होता है ?”
“आप पहले बाहर चलिए ।”
“जाता हूं, बाप । लेकिन तेरी नाक पर जो मक्खी बैठी है, पहले वो तो उड़ा दूं ।”
“नाक ! मक्खी ! ये क्या...?”
बाकी के शब्द मिर्ची के गले में ही घुटकर रह गए । तभी भौमिक का एक प्रचंड घूंसा मिर्ची की नाक पर पड़ा । एक ही वार ने मिर्ची को धराशायी कर दिया, उसके नाक की हड्डी टूट गई, नासिकाओं में से खून की दोनाली बहने लगी और उस पर बेहोशी-सी तारी होने लगी ।
भौमिक तत्काल उसके सिर पर पहुंचा । उसने उसकी छाती पर अपना घुटना धर दिया और उसका टेंटुवा दबोच दिया ।
मिर्ची उसके नीचे दबा बुरी तरह तड़फड़ाने लगा और हाथ-पांव पटकने लगा ।
कुछ क्षण बाद उसने हाथ-पांव पटकने बंद कर दिए ।
भौमिक ने उसकी शाहरग टटोलकर इस बात की तसदीक की कि वह मर चुका था और फिर उसने उसकी लाश खिड़की के सामने लगी मेज के नीचे धकेल दी ।
अब बाहर से केबिन में मरा पड़ा मिर्ची दिखाई नहीं दे सकता था ।
भौमिक सीधा हुआ, उसने कार की तरफ इशारा किया ।
उसके उस्ताद ने उसे यही सिखाया था कि खून-खराबे का कभी की गवाह नहीं छोड़ना चाहिए था, इसलिए मिर्ची की मौत जरूरी थी ।
जीवाने कार से निकलकर केबिन में दाखिल हुआ और मिर्ची की जगह उसकी कुर्सी पर बैठ गया ।
भौमिक बाहर निकला ।
उसने ढलान के रास्ते से ‘फुल’ वाला साइनबोर्ड हटाया और इंदौरी को इशारा किया । इंदौरी ने कार निःशब्द आगे बढा दी । कार ढलान पर पहुंच गई तो भौमिक ने साइनबोर्ड यथास्थान रख दिया और इंदौरी के साथ कार में सवार हो गया ।
कार निःशब्द बेसमेंट की ओर लुढक गई ।
सिल्वर मारुति में ड्राइविंग सीट की नीचे खासतौर से बनाया गया एक खाना था जिसमें हेरोइन का एक किलोग्राम का आयताकार पैकेट एकदम फिट आता था । अरविंद नायक उस खाने में से हेरोइन का पैकेट निकालकर काली फिएट वालों के हवाले कर चुका था और उनसे एक करोड़ रुपए के नोटों से भरे दो सूटकेस हासिल कर चुका था । फिएट वाले इस बात की तसदीक कर चुके थे कि हेरोइन प्योर थी, अनकट थी, एक किलो थी और नायक इस बात की तसदीक कर चुका था कि नोट चौकस थे, असली थे और एक करोड़ रुपए के थे । अब उसने फिएट वालों को वहां से विदा करना था और फिर खुद भी वहां से विदा हो जाना था ।
हेरोइन का पैकेट उस घड़ी चमड़े की जैकेट वाले के हाथ में था और अपने थ्री पीस सूट वाले सिख साथी कि साथ वह अपनी काली फिएट की ओर बढ़ रहा था ।
तभी उन्हें बेसमेंट में उतरी चली आ रही रोवर की आवाज सुनाई धी ।
तुरंत फिएट वाले दोनों व्यक्तियों के हाथ अपनी-अपनी रिवॉल्वरों पर पड़े ।
“तुम तो कह रहे थे” - थ्री पीस सूट वाला सिख सांप की तरह फुंफकारा - “कि हमारी यहां मौजूदगी के दौरान यहां कोई गाड़ी नहीं आ सकती थी ।”
“नहीं आ सकती थी ।” - नायक चितिंत भाव से बोला - “पता नहीं कैसे आ गई !”
“क्या इंतजाम है तुम्हारा ।” - चमड़े की जैकेट वाला गुर्राया - “कालिया तो कहता था कि तुम...”
“खामोश !” - नायक धीरे-से बोला - “एक कार ही तो आई है ।”
“जो कि नहीं आनी चाहिए थी ।”
“कबूल । मैं खूद हैरान हूं इसकी आमद से । तुम लोग खामोश रहो । कार वाला कार खड़ी करके चला जाएगा । अगर हम खामोश रहेंगे तो उसे हमारी यहां मौजूदगी की भनक भी नहीं लगेगी ।”
“लेकिन...”
“खामोश !”
नीले रंग की रोवर बेसमेंट में पहुंचकर उन्हीं की तरफ घुसी और आगे बढी । कार की ड्राइविंग सीट वाली साइड से एक बाह बाहर निकली तो नायक को उस बांह के हाथ में एक खतरनाक रिवॉल्वर दिखाई दी ।
एकाएक नायक बडे आतंकित भाव से चिल्लाया ।
रिवॉल्वर ने आग उगली ।
पहली ही चीख नायक के गले में घुटकर रह गई ।
दो और फायर हुए ।
तीनों गोलियां नायक के चेहरे से टकराई । नतीजतन नायक का फिल्म अभिनेताओं जैसा खूबसूरत चेहरा मांस का लोथड़ा बन गया । वह धड़ाम से गैरेज के फर्श पर गिरा ।
पूरी तरह से धराशायी हो पाने से पहले ही उसके प्राण-पखेरू उड़ चुके थे ।
रोवर एक मदमस्त हाथी की तरह झूमती हुई हाथों में रिवॉल्वर थामे फिएट वालों की ओर बढी । फिएट वाले दोनों व्यक्तियों ने रोवर की तरफ अपने रिवॉल्वर वाले हाथ अभी सीधे ही किए थे कि रोवर उनके सिरों पर थी । फायर करने का ख्याल छोड़कर दोनों ने रोवर की चपेट से बचने के लिए दाएं-बांए छलांग लगाई लेकिन अपने प्रयत्न में केवल अपने साथी से उम्र में कहीं बड़ा सिख ही कामयाब हो सका । चमड़े की जैकेट वाला रफ्तार से करीब आती रोवर के मजबूत बम्फर से टकराया । हेरोइन का आयताकर पैकेट जैकेट वाले के हाथ से निकलकर एक ओर उछला और रोवर जैकेट वाले को रौंदती हुई गुजर गई ।
ब्रेकों की चरचराहट से वातावरण गूंजा । वापिस लौटने के लिए रोवर बैक हुई तो उसके पिछले पहिए फिर धराशायी हुए जैकेट वाले के ऊपर चढ गए ।
थ्री पीस सूट वाला सिख बेसमेंट से ऊपर को जाने वाली सीढियों की तरफ भागा जा रहा था ।
अभी वह सीढियों के करीब भी नहीं पहुंचा कि रोवर ने पूरी शक्ति से उसे पीछे से ठोकर मारी ।
शक्तिशाली कार की भरपूर ठोकर से थ्री पीस सूट वाले का शरीर इतना ऊंचा हवा में उछला कि गैरेज की छत से जाकर टकराया ।
दो बार धड़ाम की आवाज हुई ।
पहले उसके छत से जा टकराने की वजह से और फिर उसके फर्श पर आकर गिरने की वजह से ।
ब्रेकों की भीषण चरचराहट के साथ रोवर बेसमेंट की परली दीवार के करीब रुकी , फिर तूफानी रफ्तार से बैक होती ही वापिस लौटी और फिर अपने हाथ-पांव के सहारे उठकर खड़ा होने की कोशिश करते गंभीर रूप से घायल सिख को रौंदती हुई गुजर गई ।
उसके शरीर में दोबारा हरकत न हुई ।
रोवर गतिशून्य हुई । हाथों में रिवॉल्वर थामे फ्रेडो और शेलके कार से बाहर निकले । फ्रेडो ने सिख का रुख किया और शेलके ने जाकर जैकेट वाले का मुआयना किया ।
दोनों मर चुके थे ।
अरविंद नायक के तो जिंदा रहने का सवाल ही नहीं पैदा होता था ।
फिर फ्रेडो ने हेराइन का पैकेट तलाश करके अपने कब्जे में किया और शेलके ने नोटों से भरे दोनों सूटकेस संभाले ।
सूटकेस रोवर की डिकी में बंद कर दिए गए, हेरोइन का पैकेट खुद भौमिक ने संभाला ।
फिर फ्रेडो और शेलके रोवर की पिछली सीट पर सवार हुए और रोवर वहां से यूं रवाना हुई जैसे कुछ हुआ ही न हो ।
***
बंबई के दोपहर को प्रकाशित होने वाले एक अखबार में टैगोर नगर की बहुमंजिली इमारत की पार्किंग में पिछली रात हुए खून-खराबे की खबर छपी जो इकबालसिंह ने बड़े संतुष्टिपूर्ण भाव से पढी ।
सतीश गावली के कत्ल की खबर तो सुबह के अखबारों में छप चुकी थी ।
गुजरा दिन इकबालसिंह के लिए बहुत ही ज्यादा मुफीद साबित हुआ था । उस इब्राहीम कालिया के बच्चे को खूब करारा हिट किया गया था पिछली रात । उसके दो बहुत कांटे के आदमी ‘कंपनी’ ने मार गिराए थे और उसको दो करोड़ रुपए का चूना भी लगा दिया था । अब अगर डोंगरे भी सोनपुर से सोहल की बाबत कोई गुड न्यूज लेकर आएं तो...
तभी ‘कंपनी’ के मौजूदा निजाम में दूसरे नंबर का दर्जा रखने वाले ओहदेदार व्यास शंकर गजरे ने वहां कदम रखा ।
व्यास शंकर गजरे एक बुलडॉग जैसे चेहरे वाला, कद में निहायत ठिगना और इकबालसिंह की ही उम्र का आदमी थी । वह एक निहायत शानदार और कीमती सूट पहने था और अपनी दस में से सात उंगलियों में कीमती नगों से जड़ी अंगूठियां पहने था । उसके टार्ईपिन में हीरा जड़ा हुआ था और जो हवाना सिगार वह उस क्षण पी रहा था, वह पचास रुपए कीमत का था ।
“आओ गजरे” - इकबालसिंह ने उसका स्वागत किया - “कैसे आए ?”
“तेरे को बढिया खबर सुनाने आया था ।” - गजरे आगे बढकर बगलगीर होकर उससे मिलता हुआ बोला ।
“और ?” - इकबालसिंह खुश होता हुआ बोला - “और बढिया खबर ?”
“हां ।”
“क्या ?”
“टैगोर नगर में कालिया के आदमी अरविंद नायक के साथ मरने वाले दोनों आदमियों की शिनाख्त हो गई है ।”
“अच्छा ! अखबार में तो लिखा था कि चेहरे कार के टायरों के नीचे आकर कुचल जाने की वजह से उनकी शिनाख्त नहीं हो सकी थी ।”
“पहले नहीं हो सकी थी । अब हो गई है । शिनाख्त के और भी जरिए होते हैं ।”
“कौन थे वो ?”
“मुख्तियारसिंह और मंजूर खान ।”
“वो दिल्ली वाले ?” - इकबालसिंह चौंका ।
“हां ।”
“लेकिन वो तो हमारे ग्राहक थे । उनको तो बखिया साहब के वक्त से ही हमसे सप्लाई हासिल होती आई है ।”
“बरोबर । तभी तो बोला कि बढिया खबर सुनाने आया हूं । कालिया की शै पर हमारे से बाहर जाने वाला उन हरामजादों का भी पत्ता कट गया, बोलो यह बढिया खबर है या नहीं ?”
“बहुत बढिया खबर है । बंबई से बाहर के हमारे काफी ग्राहकों को इससे सबक मिलेगा ।”
“वही तो बोला ।”
तभी एक आदमी ने एक बंडल के साथ वहां कदम रखा ।
उस आदमी का नाम डेविड था, वह ‘कंपनी’ का प्यादा था और उन दिनों इकबालसिंह के व्यक्तिगत बाडीगार्डों की टीम का अंग था ।
“क्या है ?” - इकबालसिंह बोला ।
“फोटो !” - डेविड बंडल आगे करता हुआ बोला - “पांच सौ । अभी बनकर आई हैं ।”
“अच्छा वो ।” - वह गजरे की तरफ घूमा - “सोहल के नए थोबड़े की तस्वीरें हैं ।”
गजरे ने सिगार का कश लगाते हुए सहमति में सिर हिलाया ।
“बंडल खोल ।” - इकबालसिंह ने आदेश दिया ।
डेविड ने आदेश का पालन किया ।
“ले” - इकबालसिंह ने क तस्वीर उसे थमाई - “सबसे पहले, सबसे पहली तस्वीर तू ले । मेरे हाथ से ले । बाकी लोगों में भी तस्वीरें बांटकर आ और सबको खबर करके आ कि इस तस्वीर के दम पर ‘कंपनी’ को जो कोई भी आदमी सोहल की खबर लाएगा, उसे फौरन ओहदेदार बना दिया जाएगा ।”
डेविड के चेहरे पर उम्मीद की चमक आई ।
“बंडल संभाल ।”
उसने बंडल वापिस ले लिया और अलग से हासिल हुई तस्वीर पर निगाह डालता हुआ बाहर की ओर बढा ।
वह दरवाजे से अभी दूर ही था कि एकाएक थमककर खड़ा हो गया । वह घूमा तो इकबालसिंह को उसके चेहरे पर बडे अजीब भाव दिखाई दिए ।
“क्या हुआ ?” - इकबालसिंह तनिक अप्रसन्न स्वर में बोला ।
“साहब !” - डेविड आंखें फैलाए हाथ में थमी तस्वीर को घूरता हुआ बोला - “ये तो वही है ।”
“कौन वही है ?”
“ये... ये...”
“क्या बक रहा है ? जो कहना है ठीक से कह ।”
“साहब, यह वही आदमी है जो चैम्बूर से बंबई सेंट्रल तक कार पर हमारे साथ गया था ।”
“कब ?”
“कुछ ही दिन पहले । जब हम दत्तानी साहब के साथ चैम्बूर में तुकाराम के घर गए थे । तुकाराम ने इस आदमी के लिए स्टेशन तक आपसे लिफ्ट मांगी थी ।”
“तुकाराम का भांजा ।” - इकबालसिंह हकबकाया - “क्या नाम था उसका ?”
“आत्माराम ।”
“जिसे तुकाराम सोनपुर से आया बता रहा था ?”
“हां, साहब ।”
“सोनपुर !” - डेविड के पास बुलाने के स्थान पर एकाएक उत्तेजित हो उठा इकबालसिंह झपटकर उसके पास पहुंचा, उसके हाथ में थमी तस्वीर उसने लगभग नोचकर निकाली और फिर फटी-फटी आंखों से तस्वीर को घूरता हुआ बोला - “ये वो आदमी है ?”
“बिल्कुल साहब !” - अब डेविड के स्वर में गर्व का पुट आ गया - “मैंने साफ पहचाना है इसे ।”
“आत्माराम ! तुकाराम का भांजा । सोनपुर से आया हुआ !” - इकबालसिंह ने अपने माथे पर हाथ मारा - “यानी कि वो बूढा, वो रूपचंद जगनानी सही फरियाद कर रहा था कि यही सोहल था ।”
“हां, साहब ।”
“तभी मुझे यह शक्ल, यह हरामजादी शक्ल, जानी-पहचानी लग रही थी । मैं तो अंधा बना ही, हमारा सिपहसालार भी अंधा बना ।”
“साहब” - डेविड ने शेखी बघारी - “मैं अंधा नहीं बना । मैंने तो फौरन...”
“बकवास बंद !” - इकबालसिंह दहाड़ा - “दफा हो यहां से और एक मिनट में कम-से-कम पच्चीस प्यादों को तैयार कर । मैं अभी, इसी वक्त, खुद चैम्बूर जाऊंगा ।”
डेविड यूं वहां से भागा । जैसे भूत देख लिया हो ।
“बकवास बंद !” - इकबालसिंह दहाड़ा - “दफा हो यहां से और एक मिनट में कम-से-कम पच्चीस प्यादों को तैयार कर । मैं अभी, इसी वक्त, खुद चैम्बर जाऊंगा ।”
डेविड यूं वहां से भागा । जैसे भूत देख लिया हो ।
***
“बेवकूफ ! गधा !” - इब्राहीम कालिया गुस्से में दांत किटकिटाता हुआ बोला - “इतनी मामूली ट्रिक में फंसकर बुलेटप्रूफ कार का शीशा गिरा बैठा और खोपड़ी का तरबूज बनवा बैठा ।”
शमशेर भट्टी खामोश रहा ।
इब्राहीम कालिया एक लगभग पैंतीस साल का, गेहुआ रंगत, साफ-सुथरे नयन-नक्श और इकहहरे बदन वाला नौजवान था । वह फिल्मस्टारों के अंदाज से कटे बाल, लंबी कलमें और होंठों की कोरों के करीब आकर नीचे को झुकी घनी मूंछे रखता था । जो सूट वह पहने था, वह लंदन के बेहतरीन दर्जी ने सिया था, जो कमीज वो पहने था वो खास उसके लिए फ्रांस से आई थी, जो जूते वह पहने था वह इटैलियन थे, लेकिन बावजूद इतने डीलक्स रख-रखाव के और अच्छी शक्ल-सूरत के वह कोई भद्र पुरष नहीं मालूम होता था । भरपूर विलायती रख-रखाव भी उसके चेहरे से वो दुर्दान्तता नहीं पोंछ सका था जिसके लिए वो मशहूर था ।
बंबई की पुलिस को ही नहीं, बल्कि कस्टम को, डायरेक्ट्रेट ऑफ रेवेन्यू एंड इंटैलीजेंस को और नारकाटिक्स कंट्रोल ब्यूरो को भी जिस शख्स की बड़ी शिद्दत से तलाश थी वो इस वक्त ग्रांट रोड की एक बहुमंजिली इमारत की चौथी मंजिल पर स्थित एक अत्याधुनिक फ्लैट में मौजूद था और उसके ड्राइंगरूम के तौर पर सुसज्जित एक कमरे में फर्श को रौंद देने के अंदाज से चहलकदमी कर रहा था ।
उसके अलावा वहां जो दूसरा शख्स मौजूद था, उसका नाम शमशेर भट्टी था और वह इब्राहीम कालिया का दाहिना हाथ माना जाता था । अपने बॉस से वह उम्र में कोई दस साल बड़ा था लेकिन सजा-धजा वो भी अपने बॉस के ही अंदाज से हुआ था, अलबत्ता उसकी फैशनेबल प्रवृति की पहुंच स्थानीय हर्नबी रोड के शो रूमों तक ही सीमित थी ।
शमशेर भट्टी उसे सतीश गावली और अरविंद नायक की मौत की खबर सुना चुका था । सतीश गावली के साथ वो कॉलगर्ल न होती तो उन्हें कभी खबर न लग पाती कि वो कैसे मरा था ।
“वो” - भट्टी धीरे से बोला - “शराब और शबाब के दोहरे नशे में था । लापरवाही होना लाजिमी था ।”
“बहुत नुकसान हो गया, भट्टी ।” - चहलकदमी करता इब्राहीम कालिया अपने लेफ्टीनेंट के सामने ठिठका - “एक ही रात में हमारे दो खास आदमी मारे गए और करोड़ रुपए की हेरोइन हाथ से निकल गई ।”
“अपने रोकड़े समेत दो ग्राहक भी खल्लास । मुख्तियारसिंह और मंजूर खान से हमें आगे बहुत उम्मीदें थीं ।”
“हां । बहुत नुकसान हुआ । लेकिन सबसे ज्यादा अफसोस मुझे अरविंद नायक की मौत का है । वो लड़का बहुत होशियार था और आगे हमारे बहुत काम आने वाला था । माल ट्रांसफर करने का उसका स्टाइल बहुत शानदार था । पता नहीं कैसे किसी को उसकी भनक लग गई ?”
“कैसे लग गई ?”
“अपने आप तो लग नहीं सकती । जरूर किसी के लगाए लगी ।”
“किसके ?”
“इसी का तो हमें पता लगाना है । भट्टी, मेरे दिल गवाही दे रहा है कि हमारा नायक किसी के धोखे का शिकार हुआ है । गावली मूर्खता से मरा लेकिन नायक को किसी के विश्वासघात ने मारा है ।”
“ऐसा कौन हो सकता है ?”
“मालूम कर । कैसे भी मालूम कर । मेरे आदमी के साथ धोखा करने वाले को उसकी करतूत की सजा मिलनी ही चाहिए ।”
“ठीक है ।” - भट्टी पूरी निशिंचतता से बोला - “मालूम हो जाएगा । सजा भी मिल जाएगी ।”
“सख्त सजा ।”
“सख्त ही मिलेगी ।”
कालिया कमरे के कोने में पहुंचा । वहां एक मेज पर ब्लैकडाग की बोतल, सोडा साइफन और कुछ गिलास पड़े थे । उसने दो ड्रिंक्स तैयार किए और दोनों हाथों में गिलास थामे शमशेर भट्टी के करीब पहुंचा । उसने खामोशी से एक गिलास भट्टी को थमा दिया ।
“ऐसे कैसे बीतेगी, भट्टी ?” - इब्राहीम कालिया चिंतित भाव से बोला - “जवाबी हमले के तौर पर हम ‘कंपनी’ का कोई बड़ा नुकसान फौरन न कर पाए तो यही हमारी हार मान ली जाएगी ।”
“मुझे भी” - भट्टी बोला - “इसी बात कि फिक्र है ।”
“तू तो खूद इकबालसिंह पर घात लगाने की फिराक में था ।”
“वो बात नहीं बनी ।” - भट्टी के स्वर में खेद का स्पष्ट पुट था ।
“क्यों ?”
“इकबालसिंह को सोहल से जान की धमकी मिली बताते हैं । सोहल के नाम और काम से आप वाकिफ हैं । बखिया को और उसके निजाम को नेस्तनाबूद करके बंबई के - बल्कि सारे हिंदोस्तान के - अंडरवर्ल्ड में जो दबदबा उसने पैदा किया है, वो किसी से छुपा नहीं हुआ । ‘कंपनी’ के जौहरी बाजार वाले वॉल्ट की लूट का आर्किटैक्ट भी वही माना जा रहा है ।”
“आदमी कांटे का है ।”
“बिलाशक ।”
“लेकिन वो है कहां ?”
“मालूम नहीं । लेकिन वो कहीं भी हो, इकबालसिंह को वो अपने सिर पर सवार ही मालूम होता है । इसीलिए उसने अपनी सिक्योरिटी के बेमिसाल इंतजाम किये हुए हैं । अपना खार वाला बंगला उसने कब का छोड़ दिया हुआ है । अब तो स्थायी रूप से कंपनी के हैडक्वार्टर होटल सी व्यू में रहता है और होटल सी व्यू, आप जानते ही हैं कि, किसी मजबूत किले की तरह अभेद्य है ।”
“वहां से बाहर भी तो निकलता होगा ।”
“निकलता है । लेकिन जब निकलता है तो उसके साथ इतना लाव-लश्कर होता है कि उसके करीब भी फटकना नामुमकिन होता है । चार तो बाडीगार्ड ही उसे हर वक्त घेरे रहते हैं, फिर उसको और बाडीगार्डों को घेरे रखने के लिए हर घड़ी दर्जन से ऊपर प्यादे मौजूद होते हैं । इसके अलावा तकरीबन बार ‘कंपनी’ का सिपहसालार श्याम डोंगरे भी उसके साथ होता है । वो न हो तो उसका कोई भरोसे का लेफ्टीनेंट उसकी जगह लिए रहता है । ऐसे माहौल में इकबालसिंह पर हाथ एक ही सूरत में डाला जा सकता है कि उसको यूं हर वक्त घेरे रहने वाले लोगों में से ही की उसके साथ दगाबाजी करे ।”
“वो क्या मुश्किल है । उसके किसी बाडीगार्ड को खरीद ।”
“कोई बिकाऊ नहीं ।”
“ऐसा कहीं होता है । कोई रोकड़े से बस में नहीं आता तो किसी की बहन-बेटी उठवा दे ।”
“वो मुमकिन नहीं ।”
“क्यों ?” - कालिया कहर-भरे स्वर में बोला - “क्यों मुमकिन नहीं ?”
“क्योंकि इस मामले में इकबालसिंह ने बहुत होशियारी और दूरअंदेशी से काम लिया...”
“भट्टे ।” - कालिया दांत पीसता हुआ बोला - “दुश्मन की तारीफ छोड़ । मतलब की बात कर ।”
“हम इकबालसिंह के चारों बाडीगार्डों में से किसी का भी कोई ऐसा नजदीकी रिश्तेदार ट्रेस नहीं कर पाए जिसके जरिए किसी बाडीगार्ड पर दबाव डाला जा सकता होता ।” - भट्टी एक क्षण ठिठका फिर बोला - “फिर भी हमने उसके डेविड नाम के एक आदमी को पटाकर अपनी तरफ करने को कोशिश की थी । बाप, पटना और हमारी तरफ होना तो दूर, उसने हमारे उस आदमी का ही काम तमाम कर दिया जोकि हमारी तरफ से उस तक यह पैगाम लेकर गया था और अपने आका इकबालसिंह को सारी बात की खबर भी कर दी ।”
“ओह !”
“कहने का मतलब है इकबालसिंह के बाडीगार्ड उसके सौ फीसदी वफादार हैं ।”
“खुशकिस्मत है इकबालसिंह ।” - कालिया एक क्षण ठिठका और फिर बोला - “प्यादे ?”
“उसके प्यादे इतने मजबूत नहीं लेकिन उनमें से किसी को पटाने में कोई फायदा नहीं ।”
“क्यों ?”
“क्योंकि प्यादे रोज के रोज बदलते रहते हैं । उनको इस तरीके से रोटेशन में इकबालसिंह के साथ लगाया जाता है कि कोई प्यादा यकीनी तौर से यह नहीं कह सकता कि वो कब इकबालसिंह के लश्कर के साथ होगा । इन हालात में हम कोई प्यादा पटा भी लें तो वो हमारे किसी काम नहीं आने वाला ।”
“ओह !” - कालिया ने विस्की का एक घूंट भरा - “अब तू क्या करेगा ?”
“कुछ तो मैं कर भी चुका हूं और कुछ रात होने पर हो जाएगा ।”
“क्या कर चुका है ?”
“कंपनी के दो आदमी मेरी निगाह में थे । दोनों को उनके घरों पर शूट किया जा चुका है ।”
“कोई ऊंचे ओहदेदार ?”
भट्टी ने हिचकिचाते हुए इनकार में सिर हिलाया ।
“फिर क्या फायदा हुआ ?”
भट्टी खामोश रहा ।
“रात होने पर क्या हो जाएगा ?”
“पैडर रोड पर एक पैट्रोल पम्प है जोकि असल में कंपनी का हेरोइन की सप्लाई का अड्डा है । आज रात वो पैट्रोल पम्प शोलों के हवाले होगा ।”
कालिया ने असंतोष के भाव से गरदन हिलाई ।
“बाप” - भट्टी बोला - “बड़ा वार तो फिर यही मुमकिन है कि हम सब सिर पर कफन बांध लें और ‘कंपनी’ के टापू वाले कैसीनो पर टूट पड़ें ।”
“माथा फिरेला है ।” - कालिया झिड़ककर बोला ।
“बाप, लड़खड़ा तो कंपनी उसी चोट से सकती है ।”
“बरोबर । लेकिन भट्टे, वो हल्ले से नहीं, तरकीब से होने वाला काम है । कोई तरकीब सोच ।”
“आप सोच न, बाप !”
“मुझे कुछ सूझता होता तो तेरे को बोलता ।”
भट्टी खामोश रहा ।
“काला कुत्ता पकड़ । शायद उसकी तरंग में कोई तरकीब सूझे ।”
भट्टी सहमति में सिर हिलाया हुआ कोने की मेज पर पड़ी ब्लैक डाग की बोतल की ओर बढ गया ।
***
कॉलबेल बजी ।
तुकाराम के करीब से उठकर वागले मुख्यद्वार पर पहुंचा । दरवाजे में फिट लैंस में से उसने बाहर झांका तो उसे एक अपरिचित चेहरा दिखाई दिया ।
“क्या है ?” - वागले उच्च स्वर में बोला ।
“साहब आएला है ।” - जवाब मिला - “तुकाराम से मिलना मांगता है ।”
“साहब ! कौन-सा साहब ?”
“इकबालसिंह !”
वागले को सांप-सूंघ गया ।
बंबई के अंडरवर्ल्ड के मौजूदा बादशाह का खुद चलकर वहां आना अपने आप में सबूत था कि कुछ बुरा होने वाला था ।
सोहल की सोनपुर रवानगी के बाद ही वे चैम्बूर वाले उसे मकान से कोलीवाडे सलाउद्दीन के होटल मराठा में शिफ्ट कर गए थे और जौहरी बाजार की डकैती के बाद बंबई में अमन-शांति का माहौल स्थापित हो गया जानकर वे उसी रोज चैम्बूर वापिस लौटे थे ।
बाहर से बड़े उतावले ढंग से दरवाजा भड़भड़या गया ।
वागले ने एक गहरी सांस ली और दरवाजा खोलने लगा ।
इकबालसिंह अपने लाव-लश्कर के बिना तो वहां आया हो नहीं सकता था । दरवाजा न खुलने की सूरत में उसके प्यादे उस इमारत को ही जड़ से उखाड़ फेंक सकते थे ।
दरवाजा खुला ।
बाहर बिल्कुल एक जैसी पांच काली एम्बेसेडर कारें खड़ी थीं ।
दरवाजा खटखटाते खड़े आदमी के पीछे उसी जैसे चार आदमी और खड़े थे जो दरवाजा खुलते ही भीतर दाखिल हो गए । उन्होंने वागले को पीछे धकेला और उसके दांए-बांए खड़े हो गए ।
चार और प्यादे इमारत में दाखिल हुए और बगूले की तरह सारी इमारत में फिर गए ।
फिर उनमें से एक ने दरवाजे पर खड़े आदमी को इशारा किया ।
वो आदमी, जिसका नाम बाबू कामले था और जो ‘कंपनी’ के मौजूदा सिपहसालार श्याम डोंगरे का लेफ्टीनेंट था, एक काली कार के करीब पहुंचा । वह झुककर कार की खिड़की के पास सिर ले जाकर कुछ बोला जिसके परिणामस्वरूप कार के चारों दरवाजे एक साथ खुले और डेविड सहित बाडीगार्डों की ड्यूटी को अंजाम देते चार प्यादों के साथ इकबालसिंह ने कार से बाहर कदम रखा । अपने बाडीगार्डों के बीच बड़ी शान से चलता हुआ वह तुकाराम के मकान में दाखिल हुआ ।
इकबालसिंह ने एक सरसरी निगाह वागले पर डाली और फिर सीधा भीतर उस कमरे की तरफ बढ़ा जहां कि वह पिछली बार तुकाराम से मिला था ।
तुकाराम एक पलंग पर अधलेटा-सा बैठा था । उसने निर्विकार भाव से इकबालसिंह और उसके प्यादों की तरफ देखा और फिर आंखों से ही इकबालसिंह का अभिवादन किया ।
“कैसा है तुकाराम ?” - इकबालसिंह उसके करीब आकर बोला ।
“अच्छा हूं ।” - तुकाराम बोला - “बैठो ।”
डेविड ने एक कुर्सी पलंग के करीब सरका दी जिस पर इकबालसिंह बैठ गया ।
“टांग जुड़ी नहीं अभी तेरी ?” - इकबालसिंह हमदर्दी भरे स्वर में बोला ।
“जुड़ गई है ।” - तुकाराम बोला - “लेकिन अभी एहतियात की जरूरत है वरना वहीं से दोबारा टूट सकती है ।”
“ओह ! चलता-फिरता तो है न ?”
“हां । बखूबी ।”
“बढिया ।”
“कैसे आए ?”
“यूं ही । इधर से गुजर रहा था । सोचा अपने तुकाराम का हालचाल मालूम करता चलूं ।”
“शुक्रिया ।”
“तेरा भांजा कैसा है ?”
“भांजा !”
“आत्माराम ! तेरी बहन का लड़का ! तेरी सोनपुर वाली बहन का लड़का ।”
“वो तो सोनपुर चला गया । तुम्हारे साथ ही तो गया था वो स्टेशन तक ।”
“हां । हां । दोबारा लौटकर नहीं आया वो ?”
“अभी तो नहीं आया ?”
“आएगा ?”
“मर्जी होगी तो आ जाएगा ।”
“वैसे होगा वो सोनपुर में ही ?”
“और कहां जाएगा ?”
“करता क्या है वो वहां ?”
“खेती-बाड़ी का काम देखता है । इकबालसिंह, मेरे भांजे में एकाएक इतनी दिलचस्पी किसलिए ?”
“तेरे को नहीं मालूम ?”
तुकाराम ने इनकार में सिर हिलाया ।
इकबालसिंह ने एक आह-सी भरी, वह कुछ क्षण अपलक तुकाराम को देखता रहा और फिर बोला - “तुकाराम, पिछली बार जब मैं यहीं आया था तो मैं तेरे को एक बात बोला था ।”
“क्या ?”
“भूल गया ! चार दिन याद न रखी मेरी बात ?”
तुकाराम खामोश रहा ।
“मैं तेरे से बोला था कि ‘कंपनी’ से बैर मोल लेने का नतीजा आज भी बुरा हो सकता है, जो कहानी शांताराम की मौत के साथ शुरु हुई थी और तेरे और तीन भाइयों की मौत के साथ खत्म हुई थी, वो आज भी दोहराई जा सकती है ।”
“मैं रिटायर हो चुका हूं ।”
“ऐसा तू पिछली बार भी बोला था” - इकबालसिंह सख्ती से बोला - “लेकिन झूठ बोला था । तुकाराम, मैं जब तुझे देखूं, तू मुझे चारपाई पर पड़ा दिखाई दे, इतना ही काफी नहीं ये साबित करने के लिए कि तू रिटायर हो चुका है ।”
“चारपाई पर पड़ा-पड़ा कोई क्या कर सकता है ?”
“कोई नहीं कर सकता । लेकिन तू कर सकता है । अपने उस जोड़ीदार की वजह से कर सकता है जो आजकल तेरी हमलावर बांह बना हुआ है ।”
“कौन ?”
“सोहल ! जिसने फ्रांसीसी पेटिंगों की चोरी को अंजाम दिया । जिसने जौहरी बाजार का वॉल्ट लूटा ।”
“मेरा उससे कोई वास्ता नहीं ।”
“वास्ता ! वास्ता तो इतना ज्यादा है कि अब तूने उससे रिश्तेदारी जोड़ ली हुई है ।”
“रिश्तेदारी !”
“मामा बना बैठा है तू उसका । तेरी सोनपुर वाली बहन का लड़का हो गया है वो ।”
“इकबालसिंह” - तुकाराम ऊपर से दिलेरी से बोल रहा था लेकिन भीतर से किसी भारी अनिष्ट की आशंका से उसका दिल बैठा जा रहा था - “मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा कि तुम क्या कह रहे हो ।”
“सब समझ में आ रहा है तेरी ।”
“लेकिन...”
“जरा उठके सीधा होके बैठ । मैं तुझे कुछ दिखाना चाहता हूं ।”
“क-क्या ?”
“अभी सामने आता है । तू सीधा तो हो ।”
तकियों का सहारा छोड़कर तुकाराम सीधा हुआ ।
“बीनाई ठीक है तेरी । कोई चश्मा-चश्मा लगाता हो तो लगा ले ।”
“मैं चश्मा नहीं लगाता ।”
“पढने-लिखने वाला भी नहीं ?”
“नहीं ।”
“पचास के लपेटे में तो होगा तू ?”
“पचास का ही हूं ।”
“फिर तो खुशकिस्मत है ।”
“तुम कुछ दिखाने जा रहे थे मुझे ?”
“हां । डेविड ।”
डेविड तत्काल लपककर इकबालसिंह के पहलू में पहुंचा ।
“तस्वीर दे ।”
डेविड ने जेब से तस्वीर बरामद की । उसने तस्वीर बड़ी तत्परता से इकबालसिंह को सौंपी ।
इकबालसिंह ने तस्वीर तुकाराम की गोद में डाल दी ।
“ये है न तेरा भांजा !” - इकबालसिंह विष-भरे स्वर में बोला - “आत्माराम !”
तुकाराम के मुंह से बोल न फूटा । सोहल के नए चेहरे की तस्वीर इकबालसिंह के पास होना उसे बहुत भयभीत कर रहा था ।
“जवाब तो दे !” - इकबालसिंह गुर्राया ।
तुकाराम ने सहमति में सिर हिलाया ।
“मुंडी क्या हिला रहा है ।” - अब तक मीठा-मीठा बोलती इकबालसिंह की जुबान अब कहर ढाने लगी - “कुछ मुंह से भी तो बोल ।”
“हं... हां ।”
“बस सिर्फ हां ! ये नहीं पूछेगा कि तेरे भांजे आत्माराम की तस्वीर इकबालसिंह के पास कैसे आ गई ?”
तुकाराम खामोश रहा ।
“यानी कि नहीं पूछेगा ! ठीक है । मैं ही बताता हूं । तुकाराम, ये सोहल है । ये सोहल है जिसने सोनपुर के डॉक्टर स्लेटर से अपने चेहरे की प्लास्टिक सर्जरी करवाई है । ये सोहल के उस नए चेहरे की तस्वीर है जो उसने डॉक्टर स्लेटर नाम के प्लास्टिक सर्जन से दस लाख रुपए में हासिल किया है । और उसके इस नए चेहरे का राजदां, कोई गवाह न रहे, इसलिए उसने नया चेहरा हासिल हो जाने के बाद डॉक्टर स्लेटर का खून कर दिया । लेकिन उसकी ये होशियारी किसी काम नहीं आई । अब ‘कंपनी’ राजदां है उसके नए चेहरे की । समझता था सूरत बदलकर वो ‘कंपनी’ की निगाहों से छुप जाएगा ।”
“उसने” - इस बार तुकाराम दिलेरी से बोला - “कंपनी’ की निगाहों से छुपने के लिए सूरत नहीं बदली । इकबालसिंह, वो आदमी क्या ‘कंपनी’ का खौफ खाएगा जो ‘कंपनी’ के इतने बड़े निजाम को, बमय उसके बादशाह बखिया, अकेला नेस्तनाबूद कर चुका हो ! जिसका धमकी की तलवार खुद तेरे सिर पर लटक रही है । जिसके खौफ से तू एक पगलाए हुए भैंसे की तरह डकराता इधर-उधर टक्करें मारता फिर रहा है । पता नहीं रात को नींद भी आती है या नहीं तुझे ! आती भी होगी तो ख्वाब में सोहल की सूरत देख के जाग जाता होगा और खौफ से घिग्घी बांधे अपने उन अंगरक्षक यादों की गोद में जा छुपता होगा जिन्होंने शायद आजकल तेरी ख्वाबगाह में तेरी बीवी की जगह ली हुई है...”
“ठहर जा साले !” - इकबालसिंह दांत पीसता हुआ बोला, उसका एक झत्राटेदार थप्पड़ यूं तुकाराम के चेहरे से टकराया कि गेंद की तरह पीछे तकियों पर उछल गया ।
तुकाराम पर वार होता देखकर वागले तड़पकर आगे को लपका लेकिन चार प्यादों ने उसे मजबूती से पीछे से दबोच लिया ।
पीड़ा और अपमान से तिलमिलाता हुआ तुकाराम सीधा हुआ । उसने ऐसी खूंखार और बेखौफ निगाहों से इकबालसिंह की तरफ देखा कि वो हड़बड़ा गया । उसने जल्दी से अपने दाएं-बाएं निगाह डाली और यह देखकर आश्वस्त हुआ कि उसके बाडीगार्डों के हाथों में रिवॉल्वर प्रकट हो चुकी थीं और वे तुकाराम की तरफ तन चुकी थीं ।
इकबालसिंह ने तुकाराम की गोद से सरककर नीचे जा गिरी तस्वीर उठा ली और फिर अपने स्वर को भरसक सुसंयत करता हुआ बोला - “अब कहां है ये... ये आत्माराम ?”
“मुझे नहीं मालूम ।” - तुकाराम भावहीन स्वर में बोला ।
“मुझे तेरे से इससे बेहतर जवाब की उम्मीद नहीं थी ।” - इकबालसिंह एक क्षण खामोश रहा, फिर उसने एक बार फिर तस्वीर पर निगाह डाली और फिर बड़े हसरत-भरे स्वर में बोला - “और कुछ हो न हो, मुकद्दर का धनी है ये सरदार का बच्चा ! मेरी कार में, मेरे पहलू में बैठकर, मेरे साथ, मेरे बाडीगार्डों की छत्रछाया में बंबई सेंट्रल स्टेशन तक गया तेरा भांजा आत्माराम ! काश, मैंने रत्ती-भर भी ध्यान उस बुजुर्गवार रूपचंद की दुहाई की तरफ दिया होता जो पुकार-पुकारकर कह रहा था कि वही सोहल था । मेरे से गलती हुई तुकाराम । रूपचंद की बात पर यकीन न आने के बावजूद मुझे तेरे उस कथित भांजे को थामकर रखना चाहिए था ।”
तुकाराम के चेहरे पर एक विद्रूपपूर्ण मुस्कराहट खेल गई ।
“खैर, कोई बात नहीं ।” - इकबालसिंह बड़े सब्र के साथ बोला - “अभी एक बात मेरे हक में है । अभी सोहल को नहीं मालूम कि मुझे उसके नए चेहरे की खबर लग चुकी है । अपने नए चेहरे की कामयाबी से मुतमइन वो बेखौफ यहां आएगा । यहां । अपने मोहसिनों के पास । अपने मेहरबानों के पास ! क्या ख्याल है, तुकाराम ! आएगा न वो यहां ?”
तुकाराम फिर चिंतित हो उठा ।
आखिर लौटना तो सोहल ने वहीं था ।
“तू सोच रहा होगा” - इकबालसिंह बोला - “कि वो इधर का रूख करेगा तो तू उसे कोई इशारा-विशारा करने की जुगत भिड़ा लेगा । लेकिन ऐसा नहीं हो पाएगा, तुकाराम । तेरी या तेरे इस शागिर्द की” - उसने वागले की तरफ देखा - “पलक भी न झपकने दी जाएगी यहां ।”
“तुम अपने प्यादों को यहां मेरे सिर पर बिठाकर जाओगे ?”
“न सिर्फ तेरे सिर पर बिठाकर जाऊंगा, इलाके के चप्पे-चप्पे में फैलाकर जाऊंगा । सोहल का एक कदम चैम्बूर में पड़ेगा तो दूसरा जहन्नुम के दरवाजे पर होगा ।”
“वो यहां नहीं आएगा ।”
“शायद आ जाए ?”
“नहीं आएगा ।” - तुकाराम आश्वासनहींन स्वर में बोला ।
“कोई बात नहीं । मैं कुछ दिन इंतजार कर सकता हूं । नहीं आएगा तो उसे बुला लिया जाएगा ।”
“बु... बुला लिया जाएगा !”
“तुझे लिवा ले जाने के लिए । जैसे पहले भी एक बार वो तुझे और तेरे छोटे भाई देवाराम को लिवा ले जाने के लिए होटल सी व्यू में पहुंचा था । तब उसके पास बखिया साहब के खिलाफ हथियार के तौर पर इस्तेमाल करने के लिए ‘लिटल ब्लैक बुक’ थी लेकिन इस बार ऐसा कुछ नहीं होगा उसके पास । तुकाराम, इस बार उसे तेरी जान का सौदा अपनी जान से करना होगा ।”
“मैं” - तुकाराम मुस्कराया - “ऐसी नौबत ही नहीं आने दूंगा ।”
“मैं जानता हूं तेरा इशारा किस तरफ है, लेकिन इत्मीनान रख, खुदकुशी का मौका भी तुझे नहीं दिया जाएगा । मैने अपने प्यादों को समझा दिया है, अगर तू अपनी जान लेने में कामयाब हो गया तो इनमें से एक भी जिंदा नहीं बचेगा । क्यों बे, कामले ।”
“बाप !” - कामले ने खीसें निपोरीं - “मेरी इजाजत बिना इन दोनों में से कोई पलक झपक जाए तो कहना ।”
“सुना !”
तुकाराम खामोश रहा ।
“वैसे” - इकबालसिंह बोला - “हो सकता है यहां की ये सब किलेबंदी गैरजरूरी साबित हो, सरदार का बच्चा पहले ही हमारे हाथ आ जाए ।”
“अच्छा ! वो कैसे !”
“वो ऐसे कि मैंने खुद कंपनी के सिपहसालार को सोनपुर भेजा है । वहां मौजूद डॉक्टर स्लेटर के स्टाफ को सोहल के वहां वापिस लौटने की उम्मीद नहीं, लेकिन मुझे है । वो वहां लौटा तो डोंगरे के हाथों में पड़े बिना नहीं रह सकेगा ।”
“सोहल के नए चेहरे की पोल डॉक्टर स्लेटर के स्टाफ ने खोली ?”
“और कौन खोलता ?”
“क्यों ?”
“यह एक लंबी कहानी है । सोहल यहां लौट आया तो उसी की जुबानी सुनना । ऐसी किस्सागोई मौत से पहले चंद घड़ियां गुजारने में काफी मददगार साबित होगी ।”
तुकाराम खामोश रहा ।
“एक बात बीच में ही रह गई ।” - इकबालसिंह उठने को हुआ और फिर बैठ गया - “तू कह रहा था कि सोहल ने अपनी सूरत कंपनी की निगाहों से छुपने के लिए नहीं बदली । तो फिर किसलिए बदली ?”
“अभी सोहल आता ही होगा” - तुकाराम व्यंग्यात्मक स्वर में बोला - “उसी से पूछना ।”
“तुकाराम” - इकबालसिंह आहत भाव में बोला - “मैं तेरे साथ इतनी नर्मी और इतनी शराफत से पेश आ रहा हूं । और तू मेरे से मसखरी करता है ! जानता है मेरी जगह अगर बखिया साहब होते तो तेरे इस गुस्ताख जवाब की एवज में वो अब तक तेरी खाल खिंचवा चुके होते !”
तुकाराम खामोश रहा ।
“ठीक है ।” - इकबालसिंह उठ खड़ा हुआ - “मैं चलता हूं । सोहल आ जाए तो हम सब इकट्ठे बैठकर गुफ्तगू करेंगे ।”
फिर बेशुमार प्यादों को और बतौर उनके इंचार्ज बाबू कामले को पीछे छोड़कर अपने बाडीगार्डों के साथ इकबालसिंह वहां से विदा हो गया ।
***
दोपहर बाद दो बजे के करीब अपने दलबल के साथ कंपनी का सिपहसालार श्याम डोंगरे सोनपुर पहुंचा ।
सफर में वही हुआ था, जिसका उसे अंदेशा था ।
उसकी गाड़ी राजनगर छ: घंटे लेट पहुंची थी ।
डॉक्टर स्लेटर के क्लीनिक पर वह डॉक्टर स्लेटर की जिंदगी में वहां की केयरटेकर हेल्गा, उसके भाई जैक और उसके यार रिची से मिला, जिन्होंने उसे बताया कि सोहल को वहां से गए दो घंटे हो चुके थे ।
“दो घंटे !” - डोंगरे मायूसी से बोला ।
यानी कि गाड़ी लेट न हुई होती तो सोहल वहीं उसके कब्जे में होता ।
“हां ।” - हेल्गा बोली ।
“किधर गया ?” - डोंगरे ने पूछा ।
“मालूम नहीं ।” - हेल्गा बोली ।
“राजनगर ही गया होगा !” - जैक बोला - “क्योंकि जिस टैक्सी पर वो गया था वो राजनगर की थी ।”
“जरूरी नहीं ।” - डोंगरे पूर्ववत् मायूसी से सिर हिलाता हुआ बोला - “उसके यहां लौटकर आने की कोई उम्मीद ?”
हेल्गा, जैक और रिची तीनों के सिर इनकार में हिले ।
“उसे इस बात की तो खबर नहीं” - डोंगरे बोला - “कि तुम लोगों ने उसके नए चेहरे की मुकम्म्ल पोलपट्टी ‘कंपनी’ को भेज दी है ?”
किसी ने उत्तर न दिया ।
“यानी कि है ?” - डोंगरे उन्हें घूरता हुआ बोला ।
“हमें बताना पड़ा ।” - हेल्गा तनिक दिलेरी से बोली - “वो हमें जान से मार डालने की धमकी दे रहा था ।”
“मार डाला नहीं जान से ? तुम्हारी करतूत की जानकारी हासिल हो जाने के बाद भी जिंदा छोड़ गया तुम लोगों को ?”
तीनों बेचैनी से पहलू बदलने लगे ।
डोंगरे जैक की तरफ घूमा ।
“पांव को” - वह बोला - “ताजा-ताजा ही कुछ हुआ मालूम होता है ।”
जैक ने हिचकिचाते हुए सहमति में सिर हिलाया ।
“क्या हुआ ?” - डोंगरे ने पूछा ।
“सोहल ने गोली मार दी ।” - जैक कठिन स्वर में बोला ।
“कब ? तुम लोगों की उसके साथ दगाबाजी से पहले या उसके बाद ?”
“प... पहले ।”
“हमने” - एकाएक हेल्गा फट पड़ी - “सोहल के साथ क्या किया, या क्या नहीं किया, इससे तुमने क्या लेना-देना है ? तुम्हारे वहां आने के पीछे जो खास मुद्दा है, वह यह कि हमने तुम्हारे साथ क्या किया । ‘कंपनी’ का तो भला ही किया न हमने ?”
“हां । वो तो है !”
“फाइल तुम्हारे मतलब की निकली या नहीं निकली ?”
“निकली ।”
“तो फिर वो रकम निकालो जिसका तुम्हारे बॉस ने हमसे वादा किया था ।”
“दस लाख रुपए ।” - जैक भी दिलेरी से बोला ।
“पूरे ।” - हेल्गा बोली ।
“ये” - डोंगरे ने रिची की तरफ इशारा किया - “गूंगा है ?”
“गूंगा !” - हेल्गा सकपकाई - “काहे को ?”
“बोला जो नहीं अभी तक एक बार भी ।” - डोंगरे ने फिर रिची की ओर देखा - “लगता है तुम्हारी करतूत से इसे इत्तफाक नहीं ।”
“बातों में वक्त जाया न करो और रोकड़ा निकालो ।”
“अभी लो ।”
डोंगरे ने संकेत पर एक प्यादा गाड़ी में से नोटों से भरा एक सूटकेस निकाल लाया ।
“ये...ये तो” - हेल्गा के मुंह से निकला - “बहुत ज्यादा रोकड़ा मालूम पड़ता है ।”
“बीस लाख है ।” - डोंगरे बोला ।
“बीस लाख !”
“तुम्हारे ही लिए ही था । बशर्ते कि तुम लोग सोहल को पकड़वा पाए होते ।”
“ओह !”
“अब सिर्फ दस लाख ।”
हेल्गा के चेहरे पर यूं मुर्दनी छा गई जैसे उसका रोकड़े का नुकसान न हुआ हो बल्कि एकाएक किसी नजदीकी रिश्तेदार की मौत का समाचार मिला हो ।
***
शुक्रवार सुबह विमल अपनी चिरपरिचित ‘पाप की नगरी’ बंबई में था । बृहस्पतिवार को शाम को वह सोनपुर से राजनगर आ गया था और फिर अगली सुबह बंबई की अर्ली मार्निंग फ्लाइट से बंबई पहुंच गया था । अपना प्लेन का सफर उसने अपने हिप्पी बहुरूप में किया था । नए चेहरे की वजह से अब उसे पब्लिक या पुलिस द्वारा पहचान लिए जाने का अंदेशा नहीं था लेकिन वह जानता था कि एयरपोर्ट पर ‘कंपनी’ के आदमी उसकी ताक में हो सकते थे । सोमवार को हेल्गा द्वारा सोनपुर से बंबई भेजी विमल की फाइल अब तक निश्वय ही इकबालसिंह को मिल चुकी थी और अब उसे विमल के नए चेहरे की जानकारी होना अवश्यम्भावी था ।
एयरपोर्ट से वह निर्विघ्न निकल आया ।
वह इतना बखूबी समझता था कि उसके नए चेहरे की तस्वीर पर निगाह पड़ते ही इकबालसिंह को तुकाराम का आत्माराम नाम का वो भांजा याद आ जाना था, जिसे इकबालसिंह खुद अपनी कार में बिठाकर बंबई सैंट्रल स्टेशन छोड़कर गया था, और फिर इकबालसिंह ने फौरन से पेश्तर अपने पूरे लाव-लश्कर के साथ तुकाराम पर चढ दौड़ना था ।
उसने पहले सोनपुर में डॉक्टर स्लेटर की डायरेक्ट लाइन से और फिर राजनगर से टेलीफोन करके तुकाराम को इस बाबत चेतावनी देने की भरपूर कोशिश की थी लेकिन कॉल लग नहीं पाई थी । ‘मराठा’ फोन करके सलाउद्दीन से बात करने की कोशिश भी बेकार गई थी । ट्रंक आपरेटर का कहना था कि कुछ बाढ की वजह से और कुछ किन्हीं अन्य तकनीकी कारणों से राजनगर बंबई रूट की लगभग सभी ट्रंक लाइनें जाम थीं ।
एयरपोर्ट से विमल सबसे पहले सिवरी पहुंचा । वहां मिनर्वा स्टूडियो के करीब वो दुकान थीं, जहां से शुरु से ही वह अपनी विभिन्न वेशभूषाओं के लिए मेकअप का सामान और अन्य प्रॉप्स प्राप्त करता चला आया था । दुकानदार उसे मिनर्वा स्टूडियो के मेकअप मैन का सहायक समझता था ।
ग्यारह बजे के करीब विमल चैम्बूर में था ।
उस घड़ी वह एक चारखाने वाली तहमद और गोल गले की जालीदार बनियान पहने था । अपने सिर पर उसने गंजा विग लगाया हुआ था और उसके ऊपर जालीदार, गोल, काली टोपी पहनी हुई थी । उसकी ठोड़ी पर बकरे जैसी दाढी थी और ऊपरले होंठ पर कोरों से नीचे लटकती मूंछे थीं । उसके गले में काले धागे से बंधी एक ताबीज लटक रही थी और दाईं कलाई पर भीतर की ओर खूब बड़ा-बड़ा ‘अल्लाह’ गुदा हुआ था । उसकी पेशानी पर एक काला दाग था जो ‘उस अत्यंत धर्मपरायण मुसलमान’ के अपने बनाने वाले की देहरी पर उसके द्वारा किए गए बेशुमार सिजदों की दस्तावेज था । उस घड़ी वह एक साइकल पर सवार था और बड़े तजुर्बेकार अंदाज से पान चबा रहा था ।
वाहे गुरु सच्चे पातशाह - विमल मन ही मन बोला - तू मेरा राखा सबनी थाहीं ।
फिर उसने अपनी साइकल को उस सड़क पर डाल दिया जिस पर तुकाराम का मकान था ।
गाहेबगाहे घंटी बजाता हुआ वह तुकाराम के मकान के बंद दरवाजे के सामने से गुजरा ।
सड़क पर काफी चहल-पहल थी लेकिन किसी ने उसकी तरफ ध्यान न दिया । अलबत्ता विमल का ध्यान हर तरफ था । उसकी पैनी निगाहों ने बहुत-सी बातें नोट कीं ।
मसलन:
तुकाराम के मकान के प्रवेश द्वार के ऐन पहलू में फुटपाथ पर मेज लगाए एक धोबी कपड़े प्रैस कर रहा था । यूं कपड़े प्रैस करते धोबी की किसी रिहायशी इमारतों वाली सड़क पर मौजूदगी आम बात थी लेकिन जो बात आम नहीं थी, वह यह थी कि उस धोबी ने अपनी मेज फुटपाथ पर यूं लगाई हुई थी कि उसकी पीठ दीवार की तरफ थी और मेज उसके सामने थी जबकि ऐसे धोबी मेज दीवार के साथ सटाकर लगाते थे और स्वयं सड़क की ओर पीठ करके उसके सामने खड़े होते थे और अपना काम करते थे ।
सड़क से पार तुकाराम के मकान के सामने ही फुटपाथ पर एक मोची बैठा था । उसने अपने आसपास ढेर सारे जूते फैलाए हुए थे और उस घड़ी वह एक जूते को पालिश मार रहा था ।
उससे थोड़ा परे सामने कटोरा रखे एक भिखारी बैठा था ।
एक बावर्दी हवलदार डंडा हिलाता गश्त कर रहा था लेकिन उसकी गश्त का दायरा तुकाराम के मकान के आसपास तक ही सीमित था ।
वह डाकखाने पहुंचा ।
डाकखाना उसी सड़क पर तुकाराम के मकान से मुश्किल से दो फर्लांग दूर था ।
वहां के पब्लिक टेलीफोन से उसने तुकाराम का नंबर डायल किया ।
तत्काल उत्तर मिला ।
“तुका !” - विमल सावधानी से बोला ।
“कौन बोलता है ?” - एक नितांत अपरिचित आवाज ने पूछा ।
“रमेश !”
“रमेश कौन ?”
“तेरा बाप ! साले, रांग नंबर है तो साफ-साफ बोल ।”
“मैं तुकाराम को बुलाता हूं ।”
“शाबाश ।”
वह प्रतीक्षा करने लगा ।
“हल्लो !” – कुछ क्षण बाद उसे तुकाराम का अत्यंत भावहीन स्वर सुनाई दिया - “मैं तुकाराम बोल रहा हूं ।”
“तुका” – विमल सावधानी से बोला – “मैं...”
“तू यहां आ जा...”
विमल को सख्त हैरानी हुई । उसने सुनने तक की कोशिश नहीं की थी, कौन बोल रहा था और उसे घर आने का बुलावा दे दिया था ।
“…फिर हम सब इकट्ठे बैठकर बातें करेंगे ।”
हम सब - विमल सकपकाया, उसने मन-ही-मन सोचा - कौन हम सब ?
तुकाराम का स्वर अभी भी सर्वेदा भावहीन था ।
“तू आ रहा है न ?”
“मैं ?”
“हां ।”
“मैं कौन ?”
“आ रहा है न तू ।”
“वागले कहां है ?”
“यहां आ जा, बाकी बातें फिर होंगी ।
दाता ! - वह मन-ही-मन बोला - तुका तो इतने मामूली सवाल का जवाब भी टाल रहा था ।
“आ रहा है न तू ?”
“हां । अगर बारिश न होने लगी तो ।”
उसने हौले से रिसीवर वापिस हुक पर टांग दिया ।
तुकाराम यकीनन अपने घर में गिरफ्तार था और जो कुछ उसने फोन पर कहा था, वह उससे कहलवाया गया था ।
पंद्रह मिनट बाद बाइसिकल चलाता वह फिर तुकाराम के मकान के आगे से गुजरा तो उसने पाया कि धोबी उस घड़ी भी पहले वाली ही नीली धारियों वाली कमीज प्रैस कर रहा था, मोची तब भी उसी काले जूते के बांए पांव पर पालिश मार रहा था, हवलदार वहीं गश्त कर रहा था और भिखारी पहले की ही तरह भीख से हासिल होने वाले पैसों से उदासीन फुटपाथ पर बैठा था ।
अपने पांव में विमल अंगूठे वाली चप्पल पहने था, उसने चप्पल के दाएं पांव का अंगूठा जबरन उमेठकर तोड़ दिया और फिर साइकल चलाता मोची के पास पहुंचा । उसने साइकल को स्टैंड पर खड़ा किया और मोची के सामने उकडूं बैठ गया । उसने टूटी चप्पल मोची के सामने कर दी ।
“क्या है ?” – मोची रूखे स्वर में बोला ।
“अबे, दिखता नहीं क्या है ?” - विमल आंखें निकालता हुआ बोला - “साले, चप्पल टूटेला है । इसे जोड़ ।”
“कहीं और से जुड़वा ।”
“काहे ? इदर क्या वांदा है ?”
“देखता नहीं मैं काम कर रहा हूं ?”
“पालिश ही तो मार रहा है जूते पर जिसका कि इधर कोई गिराहक भी नहीं दिखेला है ! पहले चप्पल जोड़ ।”
मोची ने भुनभुनाते हुए चप्पल संभाली । उसने कहीं से दो कील बरामद किए ।
“कीला नेईं मांगता ।” - विमल बोला - “सिलाई कर ।”
“सिलाई नहीं होती । कील ठुकवाना है तो बोल, नहीं तो...”
“ठीक है, कीला ही ठोक ।”
बड़े ही बेहूदा ढंग से मोची ने चप्पल के अंगूठे पर दो कील ठोकीं और चप्पल विमल के सामने डाल दी ।
विमल ने चप्पल पहन ली और उठ खड़ा हुआ ।
मोची ने फिर पालिश के लिए जूता उठा लिया ।
“पैसा ?” - विमल बोला ।
“पैसा !” - मोची उलझनपूर्ण स्वर में बोला ।
“अबे, कीला ठोंकने का कोई पैसा पत्ता लेगा कि नेईं लेगा ?”
“ओह !” - मोची एक क्षण हिचकिचाया और फिर बोला - “एक रुपया दे ।”
“अरे, क्या गजब करेला है ! दो कीला ठोंकने का एक रुपया !”
“अच्छा-अच्छा, अठन्नी निकाल ।”
विमल ने उसे पांच का नोट दिया ।
“छुट्टा नहीं है ।” - मोची बोला ।
“क्या बात है ? सवेरे से कोई गिराहक नेईं आया ?”
“ज्यास्ती बात नहीं ।”
विमल ने उसे अठन्नी दी ।
तब तक उसे मुकम्मल यकीन हो गया था कि वो कोई मोची नहीं, मोची बन बैठा ‘कंपनी’ का कोई प्यादा था ।
वह करीब ही बैठे भिखारी के पास ठिठका । उसने उसके कटोरे में एक सिक्का डाला ।
भिखारी के कान पर जूं तक न रेंगी ।
“अबे साले हलकट ।” - विमल झुंझलाए स्वर में बोला - “भीख ली है कि कोई कर्जा वसूल किएला है ?”
भिखारी ने सिर उठाकर उसकी तरफ देखा और बोला - “क्या बोला ?”
“जो तू सुना । कैसा भिखारी है तू ? भीख लेता है, दुआ नेई देता ?”
“भगवान तुम्हारा भला करे ।”
“हां । ऐसा । पहले क्या अफीम के नशे में था ?” 
“भगवान तुम्हारा भला करे बाबा ।”
“ज्यास्ती मत बोल । अब मैं और अठन्नी नेईं देना वाला ।”
तभी हवलदार करीब पहुंचा और अपने डंडे से उसकी साइकल खटखटाता हुआ बोला - “साइकल हटाओ इधर से ।”
“हटाता है, बाप ।” - विमल बोला ।
“सड़क पर साइकल खड़ी करने का नेईं है ।”
“पण इस्त्री का वास्ते मेज लगाने का है ! जूता गांठने का है ! भीख मांगने का है !”
“ज्यास्ती बात नेईं मांगता ।” - हवलदार आंखें निकालता हुआ बोला - “ज्यास्ती बात नेईं मांगता ! अंदर होना नेईं मांगता तो चलता बन ।”
“अब्बी गया, बाप । अब्बी का अब्बी गया ।”
विमल साइकल धकेलता हुआ वहां से रवाना हो गया ।
वह बड़ी आसानी से कंपनी के उन चारों प्यादों पर काबू पा सकता था और उन्हें निशस्त्र करके उन्हें वहां से रुखसत कर सकता था - ऐसा पहले वह बोरीवली के स्टेशन पर ‘कंपनी’ के चार की जगह पांच प्यादों के साथ कर चुका था - लेकिन उससे उसे कुछ हासिल नहीं होने वाला था, भीतर तुकाराम के मकान में उन चार के बदले में चालीस आदमी हो सकते थे जिन लोगों से वह अकेला नहीं जूझ सकता था ।
फिलहाल वहां से ठंडे-ठंडे कूच कर जाना ही ठीक था ।
***
अपनी नाकामी की दास्तान के साथ श्याम डोंगरे इकबालसिंह के सामने पेश हुआ ।
“अगर आपने” - वह बोला - “मुझे प्लेन से जाने दिया होता तो...”
“तो वो छः की जगह छत्तीस घंटे लेट हो जाता ।” - इकबालसिंह झल्लाकर बोला - “तो वो बंबई से उड़कर भी वापिस लौट आता । तो वो समुंदर में जा गिरता । जो काम नहीं होना होता, वो नहीं होता ।”
डोंगरे खामोश रहा ।
“कोई बात नहीं ।” - कुछ क्षण की खामोशी के बाद इकबालसिंह बोला - “आएगा तो वो बंबई में ही । आखिर उसने मुझे दी अपनी धमकी पर खरा उतरकर दिखाना है ।”
डोंगरे कुछ न बोला ।
“तेरे पीछे यहां जो कुछ हुआ, तुझे उसकी खबर है न ?”
डोंगरे ने सहमति में सिर हिलाया ।
“मुंडी मत हिला ।” - इकबालसिंह डपटकर बोला - “मुंह से बोल !”
“हां ।” - डोंगरे हड़बड़ाकर बोला - “खबर है ।”
“अब आगे क्या करेगा ?”
“इब्राहीम कालिया का एक बहुत बड़ा अड्डा मेरी निगाह में है । आज रात मैं खुद उस पर बहुत बड़ा झपट्टा मारूंगा ।”
“कैसे ?”
डोंगरे बताने लगा । आखिर वह उसका पसंदीदा काम था ।
***
विमल लोकल ट्रेन में सवार था और अपने डिब्बे के दरवाजे के पास खड़ा ठंडी समुद्री हवा का आनंद ले रहा था । चैम्बूर से वह लोकल में सवार हुआ था और तभी से अपने सामने एक मामूली शक्ल-सूरत वाली, दुबली-पतली नौजवान लड़की को खड़ा देख रहा था । वह एक निहायत मामूली सूती साड़ी और ब्लाउज पहने थी, उसके गले में मंगलसूत्र था, मांग में सिंदूर था और चेहरे पर परेशानी के ऐसे गहन भाव थे कि उसकी परेशानी की वजह जाने बिना उसकी सूरत देख-देखकर ही विमल का दिल पसीजा जा रहा था ।
पता नहीं क्या परेशानी है बेचारी को ! - वह मन-ही-मन सोच रहा था - जरूर बच्चा बीमार होगा ! या नौकरी पर आ बनी होगी । या...
लोकल सायन के स्टेशन पर कुझ क्षण को रुकी, कुछ मुसाफिर चढे, कुछ उतरे और लोकल फिर पटरियों पर दौड़ चली ।
“उधर सीट खाली है ।” - एकाएक विमल बोला - “जाकर बैठ जाओ ।”
लड़की ने हड़बड़ाकर गरदन उठाई ।
विमल को लगा जैसे उसकी आंखें आंसुओं से डबडबा रही हों ।
“क्या ?” - वह बोली ।
“मैं बोला” - विमल ने दोहराया - “उधर सीट खाली है, बैठ जाओ ।”
“तुम बैठ जाओ ।”
“मेरे को तो अगले स्टेशन पर उतरना है ।”
“मेरे को भी ।”
“हूं । दरवाजे से जरा हटके खड़ी होवो । धक्का लगा तो नीचे जा गिरोगी ।”
लड़की ने उतर न दिया । उसने दरवाजे पर से हटने का उपक्रम भी न किया ।
लोकल उस वक्त पूरी रफ्तार से दौड़ रही थी ।
विमल की निगाह लड़की से परे भटक गई ।
कुछ ही क्षण बाद एक अप्रत्याशित हलचल की वजह से उसका ध्यान फिर पलटा ।
फिर बिजली की फुर्ती से उसका दायां हाथ आगे बढा और उसने लड़की की बांह को दबोच लिया । 
“छोड़ो !” - लड़की ने आर्तनाद किया - “छोड़ो ।”
विमल ने उसे छोड़ने का कोई उपक्रम नहीं किया, उसने बहुत सख्त निगाहों से उसे घूरा ।
केवल एक क्षण के लिए ही लड़की उससे निगाहें मिलाने की ताव ला सकी, फिर उसकी निगाहें झुक गईं और शरीर ढीला पड़ गया ।
विमल ने तब भी उसकी बांह न छोड़ी ।
तभी ट्रेन की रफ्तार धीमी पड़ने लगी ।
फिर ट्रेन कोलीवाड़े के स्टेशन पर रुकी ।
“अब छोड़ो” - लड़की मरे स्वर में बोली - “मैंने यहां उतरना है ।”
“मैंने भी ।” - विमल बोला ।
दोनों ट्रेन से उतरकर प्लेटफार्म पर आए ।
तब विमल ने उसकी बांह छोड़ी ।
“तुम” - वह धीरे से बोला - “चलती ट्रेन से कूदने लगी थीं ?”
लड़की ने उतर न दिया ।
“आत्महत्या करने जा रही थीं ?”
लड़की फिर भी खामोश रही । उसने बेचैनी से पहलू बदला ।
“जरा इधर आओ ।”
यंत्रचालित-सी लड़की उसके साथ हो ली । विमल उसे भीड़भाड़ से परे प्लेटफार्म के एक अपेक्षाकृत तनहा कोने में ले आया ।
“चाय पीओगी ?” - वह बोला ।
लड़की ने इनकार में सिर हिलाया ।
“नाम क्या है तुम्हारा ?”
“क- का-काशीबाई ।”
“काशीबाई, आत्महत्या करना पाप होता है ।”
उत्तर में लड़की की आंखों से आंसुओं की दो मोटी-मोटी बूंदें ढुलक पड़ीं ।
“देखो” - विमल अपने वर्तमान बहुरूप की ओट लेता हुआ बोला - “मैं तुम्हारे बाप की उम्र का हूं । मुझसे कुछ न छुपाओ । मुझे बताओ, क्यों तुम अपनी जान देने पर आमदा थीं ।”
“फायदा ?”
“शायद कुछ हो । न भी हो तो यह जानकर बताओ कि दुख बांटने से दुख हल्का होता है ।”
उत्तर में लड़की ने जो कहानी सुनाई, वो हिंदोस्तान के गरीब तबके के घर-घर की कहानी थी । दो बेटियां पहले ब्याहकर कंगाल हो चुके उसके बाप ने कर्जा लेकर बड़ी मुश्किल से उस तीसरी बेटी की छः महीने पहले शादी की थी और अब उसके ससुराल वाले पचास हजार रुपया और मांग रहे थे ।
“मेरे बाप का रोम-रोम पहले से ही कर्जे से बिंधा हुआ है” - लड़की सुबकती हुई बोली - “वो पचास हजार रूपया कहां से लाएगा !”
“तुम्हारे सुसराल वाले मांग क्यों रहे हैं यह रकम ?” - विमल बोला ।
“कहते हैं बिजनेस के लिए चाहिए । बाद में लौटा देंगे ।”
“रकम न मिलने पर वो क्या करेंगे ?”
“मुझे मेरे मां-बाप के पास वापिस भेज देगे ।”
“लड़के को, मेरा मतलब है, तुम्हारे खाविंद को, यह मंजूर होगा ?”
“उसी को तो रुपया चाहिए । उसी ने तो बिजनेस करना है । कहता है मैं घर से रुपया ना लाई तो वो मुझे छोड़कर किसी और से शादी कर लेगा और यूं दूसरी जगह से रुपया हासिल कर लेगा ।”
“ऐसा नहीं कर सकता वो ।”
“वह जरूर करेगा । वो लोग बड़े जालिम है । मुझे तीन कपड़ो में घर से निकाल दिया उन लोगों ने । बोले, वापिस लौटूं तो पचास हजार रुपया लेकर ही लौटूं ।”
“इस बाबत तुमने अपने बाप को बताया ?”
“नहीं । न बताया है, न बताऊंगी । मैं क्या अपने बाप की दुश्वारियों को जानती नहीं । वो पचास हजार रूपए का हरगिज इंतजाम नहीं कर सकते ।”
“लेकिन तुम्हें बताना तो पड़ेगा । यूं मायके आ बैठने की कोई वजह तो तुम्हें बतानी पड़ेगी । असल वजह तुम नहीं बताओगी तो तुम्हारे ससुराल वाले बता देंगे । तुम्हारे मां-बाप आखिर पूछेंगे तो सही उनसे कि क्यों यूं लड़की वापिस भेज दी ।”
“हां । तभी तो मैं... तभी तो मैं...”
“ट्रेन से कूदने लगी थी ।”
वह खामोश रही ।
“करता क्या है तुम्हारा बाप ?”
“पुलिस में है ।”
“पुलिस में है !” - विमल हकबकाया - “फिर भी पचास हजार की रकम का इंतजाम नहीं कर सकता !”
“वो पुलिस की वैसी नौकरी में नहीं है ।”
“क्या मतलब ?”
“उसकी बाबूगिरी वाली नौकरी है ।”
“डैस्क वर्क ! क्लैरिकल जाब !”
“हां !”
“क्या नौकरी है उसकी ?”
“पुलिस हैडक्वार्टर में फिंगर प्रिट्स डिपार्टमेंट में रिकार्डकीपर है ।”
विमल अपलक लड़की को देखने लगा ।
“दाता ! - वह होंठों में बुदबुदाया - तेरा अंत न जाई लखया ।”
“क्या ?” - लड़की बोली ।
“कुछ नहीं ।” - विमल बोला - “नाम क्या है तुम्हारे बाप का ?”
“हवलदार केशवराव भौंसले ।”
“पता ?”
लड़की ने उसे कोलीवाड़े का एक पता बताया ।
“ड्यूटी तो दस से पांच ही करता होगा ?”
“हां ।”
“हूं ।” - विमल कुछ क्षण खामोश रहा और फिर बोला - “पचास हजार रुपया अगर तुम्हारी दुश्वारी का हल है तो वो मैं तुम्हें अभी दे सकता हूं ।”
“जी !” - लड़की भौचक्की-सी बोली, उसने बड़े अविश्वासपूर्ण ढंग से विमल के फटेहाल पर सिर से पांव तक निगाह दौड़ाई ।
“लेकिन यूं तुम्हारे पास इस रकम की मौजूदगी को बड़ी गलत निगाहों देखा जाएगा । कोई नहीं मानेगा कि एक राह चलते मियां ने तुम्हें यूं ही पचास हजार की रकम थमा दी । तुम सुन रही हो मैं क्या कर रहा हूं ?”
“हां ।”
“लेकिन समझ नहीं रही हो ! कोई बात नहीं । रात होने तक समझ जाओगी ।”
“क-कैसे ?”
“रात को मैं तुम्हारे घर जाऊंगा और तुम्हारे बाप से बात करूंगा । उस बातचीत का जो नतीजा निकलेगा, मुझे उम्मीद है कि वो ऐसा होगा जो सबको राजी कर देगा । तुम्हें तुम्हारे ससुराल वालों को तुम्हारे मां-बाप को और ...मुझे भी ।”
“आपको भी ?”
“हां । अब तुम मेरे से वादा करो कि तुम खुदकुशी कर लेने जैसी वानगी को दोहराओगी नहीं और चुपचाप घर जाओगी ।”
“मैं वादा करती हूं ।”
“जिस पीर-पैगंबर को मानती हो, उसकी कसम खाकर वादा करो ।”
“मैं गणपति की कसम खाकर वादा करती हूं ।”
“शाबाश । अब इस तसल्ली के साथ घर जाओ, काशीबाई, कि अब मैं तुम्हारे मुस्तकबिल का मुहाफिज हूं ।”
लड़की की आंखें फिर छलछला आई ।
“आप हैं कौन ?” - वह रूंधे कंठ से बोली ।
“मैं हूं खुदा का एक गुनहगार बंदा जो अपने बनाने वाले से अपने गुनाह बख्शवाने का ख्वाहिशमंद है ।”
लड़की के चेहरे पर उलझन के भाव आए ।
“अब जा, बहना ।” - विमल बोला - “मैं रात को...”
“पहले बेटी कहा ।” - लड़की मंत्रमुग्ध स्वर में बोली - “अब...”
“...तेरे घर आऊंगा और तेरे पिता हवलदार केशवराव भौंसले से बात करूंगा ।”
काशीबाई यंत्रचालित-सी घूमी और प्लेटफार्फ पर आगे बढ गई ।
देह शिवा वर मोहि इहै - पीछे विमल होंठों में बुदबुदाया - शुभ करमन ते कबहूं न टरों ।