पापा की परी हूँ मैं

शाम हो चुकी थी और ढलता हुआ सूरज, अँधेरे की चादर में कहीं खो जाने को बेक़रार था। ऋचा अंगड़ाई लेते हुए उठी और बिस्तर पर ही बैठ गयी। उसकी नज़रों ने जब खिड़की से बाहर झाँककर, नीले आसमान पर सूरज की किरणों की बनायी चित्रकारी को देखा तो उसके होंठों पर अपने आप ही मुस्कराहट आ गयी। वो आज सुबह ही, दिल्ली की अपनी व्यस्त ज़िन्दगी से कुछ दिनों की छुट्टी लेकर बिलासपुरा आयी थी। कहने को तो बिलासपुरा एक छोटा-सा नगर था, पर उसका प्राकृतिक सौंदर्य देखते ही बनता था। बड़े शहरों की तरह, यहाँ न तो शोर-गुल था, न ही भीड़-भाड़। चारों ओर बस शान्ति और ख़ुशी का माहौल था। ऐसी ही एक जगह की तलाश में तो ऋचा अपना घर और दिल्ली शहर, दोनों को छोड़कर यहाँ आयी थी। उसे शान्ति और एकांत की ज़रूरत थी ताकि वो अपना पहला उपन्यास लिख सके।

वैसे लिखने का शौक तो ऋचा को बचपन से था। कहानियाँ, ऋचा के लिए एक ज़रिया थी अपनी उन इच्छाओं को पूरा करने की, जिन्हें वो अपने पिता ज़िद्द की वजह से असल ज़िन्दगी में पूरा नहीं कर पायी। पर जब उसने तूलिका पब्लिशिंग हाउस द्वारा आयोजित कहानी लेखन प्रतियोगिता में भाग लिया तो उसके मन में भूल से भी कभी ये ख़याल नहीं आया कि उसकी लिखी कहानी को पहला स्थान मिलेगा और उसे तूलिका पब्लिशिंग हाउस के साथ तीन उपन्यास प्रकाशित करने का कॉन्ट्रेक्ट मिल जायेगा। ये खबर सुनते ही उसके ऑफिस में और घर में ख़ुशी की लहर दौड़ गयी। ऑफिस में तो उसके बॉस और सहकर्मियों ने मिलकर, उसके लिए एक सरप्राइज पार्टी ही दे डाली। ऋतु, सी. ए. थी और दिल्ली के एक बहुत बड़े फर्म में काम करती थी। काम में व्यस्त रहने के कारण उसके लिए उपन्यास लिखने का समय निकाल पाना मुश्किल था। इसलिए जब उसने अपने बॉस से निवेदन किया, तो उन्होंने बिना आना-कानी किए, ऋचा को एक महीने की छुट्टी दे डाली। अब ऋचा को तलाश थी ऐसी एक जगह की जहाँ वो आराम से लिख सके। उसकी सहेली आराध्या, बिलासपुरा से थी। आराध्या ने, न केवल ऋचा को बिलासपुरा जाने का सुझाव दिया, बल्कि उसके वहाँ रहने का इंतज़ाम भी कर दिया। ऋचा के 'मिशन उपन्यास' का अगला और सबसे मुश्किल चरण था अपने पापा को मनाना ताकि वे उसे पूरे एक महीने के लिए बिलासपुरा जाने की इजाजत दे दें। पर यहाँ भी किस्मत ने ऋचा का साथ दिया और वो आँखों में कुछ सपने और मन में ढेर सारी उम्मीदें लिए, अपने घर से निकल पड़ी। ऋचा इस बात से बहुत अच्छी तरह से वाकिफ़ थी कि पापा ने उसकी ख़ुशी के लिए उसे जाने तो दे दिया, पर वे मन ही मन बहुत चिंतित थे। पच्चीस वर्षीय ऋचा, ज़िन्दगी में पहली बार जो अकेले, इतनी दूर जा रही थी।

पापा का ख़याल आते ही ऋचा का मन विचलित हो गया। ऋचा के पापा, श्री देवेंद्र गुप्ता, दिल्ली के बड़े मशहूर क्रिमिनल वकील थे। ऋचा, चार साल की थी जब उसकी माँ का देहान्त हो गया। उसके बाद से उसके पिता ने कभी अपने बारे में न सोचा और अपनी पूरी ज़िन्दगी, अपनी इकलौती बेटी को पालने-पोसने में व्यतीत कर दी। अब उनके जीवन का एकमात्र लक्ष्य, ऋचा की ज़िन्दगी को खुशहाल बनाना और उसे एक उज्ज्वल भविष्य देना था। ऐसे हाला तो में आमतौर पर होता ये है कि माँ-बाप, अपनी इकलौती संतान को लाड-प्यार कर बिगाड़ देते हैं। पर, ऋचा के मामले में कुछ उल्टा ही हुआ। देवेंद्र गुप्ता को अब अपनी बेटी को अकेले ही संभालना था, तो उन्हें सदा ये चिंता लगी रहती थी कि वे अपनी जिम्मेदारी ठीक तरह से निभा पाएंगे या नहीं? वे स्वयं को एक अच्छा पिता साबित कर पाएंगे या नहीं? इसलिए, वे ऋचा की हर छोटी से छोटी बात पर विशेष ध्यान देने लगे और ऋचा के लिए सारे फैसले भी खुद ही लेने लगे। ऋचा के बचपन से ही, देवेंद्र गुप्ता ये तय करते आये थे कि ऋचा क्या खायेगी, कब सोयेगी, कौन से स्कूल में पढ़ेगी। यहाँ तक कि उसके लिए कपड़े और मित्र चुनने का अधिकार भी गुप्ता जी को ही था।

चार साल की उम्र से ही, ऋचा अपने पिता के इशारों पर नाचने वाली एक गुड़िया बन गयी थी। ऋचा के बड़े हो जाने पर भी ये सिलसिला यूँ ही चलता रहा। ऋचा ने गुप्ता जी की इच्छा अनुसार ही सी. ए. बनने का फैसला किया था। केवल इतना ही नहीं, वो किस फर्म में काम करेगी, इसका फैसला भी गुप्ता जी ने ही किया था। हालाँकि, कई बार अपने पिता की इच्छाओं को पूरा करने के लिए ऋचा को अपनी इच्छाओं को मारना पड़ता था। पर, ऋचा को न तो कभी इस बात का बुरा लगा, न कभी उसने अपने पिता के खिलाफ बगावत की। ऋचा जानती थी उसके अलावा इस दुनिया में और कोई नहीं है, जिसे गुप्ता जी अपना कह सके। एक तरह से ये उसके पिता का तरीका था, अपनी बेटी से प्यार और अपनापन जताने का। और फिर जिस पिता ने, उसकी ख़ुशी के लिए अपनी खुशियों का त्याग कर दिया और कभी दोबारा शादी तक न की, उनके प्रति ऋचा का भी तो कुछ फ़र्ज़ बनता है। उसे भी तो उनकी खातिर कुछ त्याग करने पड़ेंगे। लेकिन, बीते कुछ महीनों से हालात कुछ ऐसे हो गए थे कि ऋचा को अपने पिता की हर आज्ञा को यूँ आँख मूँदकर मान लेने का ये सिलसिला बरक़रार रखना मुश्किल लगने लगा था।

पिता की हर इच्छा को पूरा करना अपना परम कर्तव्य समझकर सर आँखों पर रखने वाली ऋचा के कदम, कर्तव्य पथ से पहली बार तब डगमगाए जब उसने पहली बार अपने ऑफिस में कदम रखा। वहीं उसकी मुलाक़ात कार्तिक रामनाथन से हुई। कार्तिक, ऋचा से उम्र में कुछ साल दो साल बड़ा था और वो भी ऋचा की तरह सी. ए. था। कार्तिक चेन्नई के एक रईस, तमिल ब्राह्मण दम्पति का इकलौता बेटा था। देखने में वो जितना आकर्षक था उतना ही लुभावना उसका व्यक्तित्व था। ऊँचा कद, साँवला रंग और दो काली आँखें जिनमें सागर की गहराई थी, शायद ये कार्तिक की वो विशेषताएँ थी जो सबको उसकी ओर आकर्षित करती थी। कार्तिक जैसे ही ऑफिस में कदम रखता था, सारी लड़कियाँ अपना दिल थाम लेती थी। बस एक ऋचा ही थी जो उसे आता देखकर अपनी नज़रें अपने लेपटॉप पर गड़ा लेती थी, जैसे वो काम में व्यस्त हो। कार्तिक बड़ा ही खुश मिज़ाज और मिलनसार था। ऑफिस में आते ही वो सब से मुस्कुराकर, शुद्ध हिंदी में 'शुभ प्रभात' कहता और सबके हाल-चाल पूछता। कार्तिक की इसी अदा पर तो ऑफिस की सारी महिला कर्मचारी फ़िदा थी। वे सब ऑफिस आते ही बड़ी बेकरारी से कार्तिक का इंतज़ार करती। उसके मुँह से 'शुभ प्रभात' सुने बिना उनका कोई भी प्रभात शुभ, भला कैसे हो सकता था?

हालाँकि ऋतु, कार्तिक को ज़्यादा भाव नहीं देती थी, पर एक भी प्रभात ऐसा नहीं गया जब कार्तिक ने स्वयं उसके सामने प्रकट होकर उसे 'शुभ प्रभात’ न कहा हो। कार्तिक का स्वभाव था ही ऐसा। उसे न किसी से कोई शिकायत थी, न बैर। वो तो बस एक सीधा-साधा इंसान था जिसका दिल बिलकुल साफ़ था, उस पर वो मस्त मौला और हाज़िर-जवाब भी था। अक्सर काम के सिलसिले में ऋचा को कार्तिक से बात करनी पड़ती थी। ऐसे अवसरों में न जाने क्यों ऋचा को बड़ी घबराहट होती थी। ऋचा जब भी कार्तिक की उन सागर जैसी गहरी, काली आँखों में देखती, उसे ऐसा लगता जैसे मानो वो अपने आप को भुलाकर उन आँखों की गहराई में डूब जाएगी। इसीलिए वो जब भी कार्तिक से बात करती तो इस बात का ख़ास ख्याल रखती थी कि उसकी उन आँखों में ना देखे। न जाने कौन सा काला जादू कर देती थी, कार्तिक की वो दो काली आँखें, ऋचा पर? लेकिन, ऑफिस की पार्टियों या दोस्तों के जन्मदिन के जश्न पर, ऋचा उससे जितना दूर भागने की कोशिश करती, कार्तिक उसके उतने ही करीब आने की कोशिश करता। उसके पास आते ही ऋचा का दिल जोरों से धड़कने लगता और वो कोई बहाना बनाकर वहाँ से चली जाती। ये देखकर खफा होने की बजाय, कार्तिक मुस्कुराने लगता था। ऑफिस की दूसरी लड़कियाँ कार्तिक को रिझाने के लिए क्या नहीं करती थी पर कार्तिक तो ऋचा की सादगी पर मर मिटा था। वैसे तो उन दोनों के बीच कभी 'प्यार' नामक एहसास की कोई बात नहीं हुई थी। लेकिन बिना कहे ही वे दोनों, एक-दूसरे के अनकहे शब्द सुनने की क्षमता रखते थे। ऋचा को कार्तिक अच्छा तो बहुत लगता था पर वो ये भी जानती थी कि उसके पापा, कार्तिक को कभी पसंद नहीं करेंगे। वो तो ऋचा की शादी अपनी ही बिरादरी में करना चाहते थे। ऋचा अपने पिता की मर्जी के खिलाफ जाना नहीं चाहती थी इसलिए उसने कार्तिक से दूरी बनाये रखना ही ठीक समझा। शायद, कार्तिक भी ऋचा की मजबूरी को समझता था। इसीलिए, ऋचा के अपने प्रति रूखे बर्ताव का कार्तिक ने कभी बुरा नहीं माना।

कार्तिक के ख़याल को अपने मन से कोसों दूर रखने के लिए ऋचा ने एक ठंडी आह भरी और जल्दी से पलंग से नीचे उतर गयी। उसे इस समय एकांत की ज़रूरत थी। ऑफिस, कार्तिक, पापा और दिल्ली, सबको अपने दिल और दिमाग से दूर कर, उसे एक नयी दुनिया की सृष्टि करनी थी, उसके पहले उपन्यास की दुनिया। वो खिड़की के पास जाकर खड़ी हो गयी और ऊपर नीले आकाश को, धीरे-धीरे अन्धकार की बाँहों में सिमटते हुए देखती रही। इधर-उधर कई छोटे-छोटे तारे भी टिमटिमाने लगे थे।

“अरे! आप उठ गयी, दीदी?”

पीछे से किसी की आवाज़ सुनकर ऋचा चौंक गयी। वो मुड़ी तो उसने देखा कि राधा उसके ठीक पीछे खड़ी मुस्कुरा रही है। राधा, बिलासपुर की ही रहने वाली थी और आराध्या ने उसे ऋचा के घर, काम पर रखा था।

“दीदी,” राधा पलंग पर बिछी चादर ठीक करते हुए बोली, “आपके लिए कॉफी बना दूँ?”

“हाँ, बना दो।” ऋचा ने अलमारी से अपना तौलिया निकालते हुए कहा, “तब तक मैं ज़रा हाथ-मुँह धो लेती हूँ।”

ऋचा मुँह धोकर आयी तो देखा कि राधा ने मेज़ पर कॉफ़ी रख दी थी। वो आईने के सामने बैठ गयी और अपने बाल बनाने लगी। अपने शहर की दूसरी लड़कियों की तरह ऋचा को बाल काटने और छोटे कर के रखने का शौक नहीं था। उसके बाल तो बहुत काले, घने और लम्बे थे। कहने को तो ऋचा, दिल्ली जैसे बड़े शहर की रहने वाली थी। पर उसका रहन-सहन और पहनावा, वहाँ के लोगों से बिलकुल अलग था। वो अधिकतर सूट-सलवार ही पहनती थी और सदा उसके कानों में लम्बी बालियाँ और माथे पर बिंदी लगी होती थी। दरअसल, बात ये थी कि उसके पिता को आजकल की लड़कियों के तंग कपड़े, बोल-चाल का ढंग और तौर-तरीके बिलकुल पसंद नहीं थे। वे तो चाहते थे कि ऋचा एक आदर्श भारतीय नारी बने, जैसे कि उनकी स्वर्गवासी पत्नी अल्का थी। वे ऋचा को, हुबहु अल्का के रंग में ढ़ालना चाहते थे ताकि उन्हें यूँ लगता रहे कि अल्का अब भी उनके साथ ही है। ऋचा ने अपने पिता की इस इच्छा को भी पूरा कर दिया और पाश्चात्य वस्त्रों और रहन-सहन से हमेशा परहेज़ रखा। पर ऋचा को क्या पता था कि ऑफिस की पार्टियों में उसे साड़ी पहने देख, कार्तिक का दिल उस पर आ जायेगा।

“उफ़!” ऋचा ने ज़ोर से अपना माथा पीटा।

एक बार फिर से उसके ख़याल कार्तिक पर जा रुके तो ऋचा विचलित हो गयी। उसे समझ नहीं आ रहा था कि हर बात घूम-फिर कर कार्तिक तक कैसे पहुँच जाती है? उसने अपने ख़याली घोड़ों को अपने मन के अस्तबल में क़ैद किया और जल्दी से बालों का जूड़ा बनाकर उठ खड़ी हुई। उसके कमरे की खुली हुई खिड़की के पास एक मेज़ और कुर्सी रखी हुई थी। ऋचा ने अपने बैग से अपना लेपटॉप निकाला और कुर्सी पर जाकर बैठ गयी। थोड़ी देर तक वो लेपटॉप के खाली स्क्रीन को बस यूँ ही देखती रही। उसे समझ नहीं आ रहा था कि वो क्या लिखे, कैसे शुरुआत करें? कुछ विचार उसके मन में आते ज़रूर थे। पर इससे पहले कि वो उन्हें एक कहानी के सूत्र में पिरो पाती, वे अपनी दिशा से भटक जाते थे। ऋचा कभी ऊपर आसमान में चमकते तारों की तरफ देखती, तो कभी अपनी मेज़ पर रखी घड़ी की ओर, जैसे उनसे मदद माँग रही हो। पर उसके उपन्यास की कहानी थी कि आगे बढ़ने का नाम ही नहीं ले रही थी। जैसे ही उसके दिमाग में कहानी की एक धुंधली-सी रूप रेखा सी उभरती, ऋचा अपने लेपटॉप पर चंद शब्द टाइप करती। पर अगले ही क्षण, वो कहानी किसी धुंध में खो जाती और उसे अब तक टाइप किया हुआ सब कुछ डिलीट करना पड़ता। ये सिलसिला काफी देर तक चलता रहा। आखिर तंग आकर, ऋचा ने अपनी आँखें बंद कर ली और ध्यान लगाकर इस उम्मीद से बैठ गयी कि शायद उसे आशा की कोई नई किरण दिख जाए।

अचानक, ऋचा ने कोई आहट सुनी और एकदम से आँखें खोली। उसे ऐसा लगा जैसे उसने बाहर बरामदे में किसी के क़दमों की आहट सुनी हो। ऋचा ने अपनी कुर्सी पर बैठे-बैठे ही किचन की तरफ झाँककर देखा। राधा, किचन में कोई गीत गुनगुनाते हुए खाना बना रही थी।

“राधा तो किचन में है,” ऋचा अपने आप से बोली, “फिर, इतनी रात को बाहर कौन है?”

ऋचा ने खिड़की से बाहर झाँककर देखा। बाहर काफी अँधेरा था। तभी उसको कदमों की आहट फिर से सुनाई दी।

“शायद कोई पड़ोसी जान-पहचान बनाने चला आया होगा?” ऋचा जल्दी से उठी और बरामदे की ओर चल पड़ी।

ऋचा ने बाहर का दरवाज़ा खोला और देखा की बरामदे में बहुत अँधेरा था। आधे-चाँद की हलकी-सी रोशनी, बरामदे पर पड़ रही थी। ऋचा ने गौर से देखा तो उसे लगा कि बरामदे के दूसरी ओर कोई खड़ा है। रोशनी बहुत धुंधली होने की वजह से ऋचा को कुछ ठीक से दिख नहीं रहा था। बस वो इतना ही समझ पायी कि बरामदे में कोई लड़का खड़ा था जो लगभग पाँच-छह साल का होगा।

“कौन है वहाँ?” ऋचा ने एक कदम बच्चे की ओर बढ़ाते हुए पूछा।

वो बच्चा सहम गया। उसने कोई जवाब न दिया और एक कदम पीछे हट गया। ऋचा को अपनी ओर आते देख, उसने अपना चेहरा अपने हाथों में छिपा लिया। ये देखकर ऋचा को हँसी आ गयी।

“डरो मत, बेटा।” ऋचा ने बड़े प्यार से पूछा, “तुम्हारा नाम क्या है?”

ऋचा का स्नेह भरा स्वर सुनकर, उस बच्चे ने अपने चेहरे से हाथ हटा लिया। ऋचा ने उसका चेहरा देखा तो उसके मन में उस बच्चे के लिए ममता उमड़ पड़ी। बड़ा ही प्यारा चेहरा था उसका और उस पर दो मासूम आँखें, जिनमें ख़ौफ़ भी था और याचना का भाव भी। ऋचा ने उसके गालों को सहलाने के लिए हाथ बढ़ाया तो वो झट से भाग गया।

“अरे, रुको तो,” ऋचा भी उसके पीछे भागी।

पर तब तक वो आँखों से ओझल हो चुका था। ऋचा ने उसे चारों ओर ढूँढा, पर वो कहीं नहीं मिला।

“क्या हुआ, दीदी?” ऋचा की आवाज़ सुनकर राधा भी बरामदे में आ गयी।

“अभी यहाँ कोई बच्चा आया था।” ऋचा की नज़रें अब भी उस घने अँधेरे में उस बच्चे को ही ढूंढ रही थी, “जाने कौन था? मगर था बड़ा प्यारा और मासूम।”

“मासूम?” राधा ज़रा रूखे स्वर में बोली, “अरे, वो तो मंजू दीदी के बच्चों में से कोई एक होगा। पर, उनमें कोई भी मासूम नहीं है। वो सब के सब तो अव्वल दर्जे के शैतान हैं। आप अंदर आ जाइए।”

“ये मंजू दीदी कौन हैं?” ऋचा ने अंदर से दरवाज़ा बंद करते हुए पूछा।

“आपके घर के पीछे की तरफ जो घर है, वो मंजू दीदी का है।” राधा ने उँगली से इशारा करते हुए कहा, “उनके पूरे छह बच्चे हैं, चार लड़के और दो लड़कियाँ।”

“अच्छा!” ऋचा को बड़ी हैरानी हुई, “इस महंगाई के ज़माने में भी छह बच्चे?”

“बड़ी मज़ेदार कहानी है, उनकी।” राधा हँसते हुए बोली। बीस वर्षीय राधा बहुत ही चुलबुली और हँसमुख थी।

“अच्छा, तो ज़रा हमें भी सुनाओ।” कहते हुए ऋचा सोफे पर बैठ गयी।

“मंजू दीदी के पति विराट भैया, फ़ौज में अफ़सर थे।” राधा सोफे के पास नीचे फर्श पर बैठ गयी, “वे दो-चार साल में एक बार ही छुट्टी लेकर अपनी पत्नी से मिलने आ पाते थे। और एक बार जो उनकी छुट्टियाँ खत्म हो जाती थी तो फिर कुछ पता नहीं की वे अगली बार कब आएंगे? तब तक उनकी पत्नी घर पर अकेली रह जाती थी। उनकी पत्नी को शिकायत का मौका न मिले इसलिए भैया जी जब भी आते, अपनी एक निशानी पत्नी के हवाले कर जाते। अगले कुछ सालों तक मंजू दीदी, बाल-गोपाल के लालन-पालन में व्यस्त रहती। उसके बाद, भैया फिर प्रकट हो जाते। ये सिलसिला कई सालों तक यूँ ही चलता रहा। और जब दोनों ने मिलकर आधा दर्जन बच्चों की फ़ौज खड़ी कर ली, तब भैया फ़ौज से सेवा-निवृत्त होकर अपने छोटे-से परिवार के साथ यहीं बस गए।”

“तुम भी न, राधा!” राधा की बात सुनकर ऋचा खिलखिला कर हँस पड़ी।

“अरे, बातों-बातों में मेरी सब्जी जल गई।” राधा किचन की ओर भागते हुए बोली।

राधा के जाते ही ऋचा उठी और वापस अपने लेपटॉप के पास जा बैठी। उसके चेहरे पर ख़ुशी की चमक थी। आखिर, उसे अपनी कहानी जो मिल गयी थी। उसने मन बना लिया था की वो एक परिवार की कहानी लिखेगी और उसकी कहानी का नायक होगा वो बच्चा, जिसे उसने अभी-अभी बरामदे में देखा था।

“लेकिन, कथा-नायक को नाम क्या दिया जाये?” ऋचा बाहर बरामदे की ओर देखते हुए सोचने लगी। उसकी आँखें उस बच्चे की एक झलक और देखने को बेक़रार थी, “ईशान...हाँ! ये नाम ठीक रहेगा।”

ऋचा का उत्साह दुगुना हो गया। उसे पूरा विश्वास था कि अब उसकी कहानी सही दिशा में चल पड़ी है। उसकी अंगुलियाँ लेपटॉप के कीबोर्ड पर बिजली की रफ्तार से दौड़ पड़ी और उसने अपनी कहानी की शुरुआत कुछ यूँ की;

'कहते हैं, बचपन हर इंसान की ज़िन्दगी का सबसे खूबसूरत वक़्त होता है। पाँच साल का ईशान भी अपनी ज़िन्दगी के उस खूबसूरत दौर को जी रहा था। वो अपने परिवार के साथ एक छोटे से शहर में रहता था...'

अगले पांच मिनट के अंदर, अपनी कहानी के कुछ दस-बारह वाक्य लिखने के बाद, ऋचा बड़ी संतुष्टि से मुस्काई। उसने अब तक लिखी पंक्तियों पर फिर से नज़र दौड़ाई। लेकिन, उन पंक्तियों में उसकी आँखों ने कुछ ऐसा देखा कि उसकी मुस्कान ग़ायब हो गयी।

“अरे! ये कैसे हो गया?” लेपटॉप के स्क्रीन पर नज़र गड़ाए हुए ऋचा ने कहा।

ऋचा ने स्क्रीन पर लिखे शब्दों को गौर से देखा तो पाया कि उसके कथानायक का नाम, जो उसने 'ईशान' टाइप किया था, वो लेपटॉप पर 'चिराग' टाइप हो गया था। ऋचा ने अपना सर हिलाया और 'चिराग' को डिलीट कर उसकी जगह फिर से 'ईशान' लिख दिया। उसने एक लम्बी साँस भरी और आगे की कहानी लिखने लगी।

“दीदी, खाना तैयार है, आ जाओ।”

ऋचा ने कहानी का पहला अध्याय पूरा ही किया था कि राधा ने किचन से उसे आवाज़ दी।

“बस, अभी आती हूँ।” ऋचा ने कह तो दिया पर बजाय खाने की मेज़ की ओर जाने के, ऋचा अपनी कहानी की तरफ ही लौट गयी।

ऋचा चाहती थी कि खाना खाने से पहले, वो अब तक लिखी कहानी को एक बार फिर से पढ़कर पूरी तरह से तृप्ति कर ले। वो कहानी को शुरू से पढ़ने लगी। लेकिन, इस बार जब उसकी नज़रें स्क्रीन पर लिखे शब्दों पर पड़ी तो वो दंग रह गयी। उसने जहाँ पर भी 'ईशान' लिखा था वो सब दोबारा से 'चिराग' में बदल गया था।

“ये क्या हो रहा है?” बौखलाई हुई ऋचा ने बड़े अचरज से स्क्रीन को देखते हुए कहा।

“अरे, दीदी, आओ न।” राधा ने फिर से आवाज़ दी, “देखो, खाना ठंडा हो रहा है। हमने इतनी मेहनत से बनाया है, अगर ठंडा हो गया तो बड़ा बेस्वाद लगेगा।”

“आ रही हूँ, बाबा।”

ऋचा ने उसे तसल्ली तो दे दी पर उसकी नज़रें लेपटॉप से हटने को राज़ी ही नहीं हो रही थी। उसे समझ ही नहीं आ रहा था कि आखिर ये क्या हो रहा है?

“शायद, कीबोर्ड में कोई खराबी आ गयी है।” ऋचा ने लैपटॉप बंद करते हुए सोचा, “कल सुबह ठीक करवा लूँगी।” उसने लैपटॉप वापस अपने बैग में रखा और खाना खाने चली गई।