वो क्राइम क्लब की एक महत्वपूर्ण मीटिंग थी ।

मीटिंग की जगह जोरबाग में स्थित एक कोठी थी जिसका स्वामी विवेक आगाशे क्राइम क्लब का सर्वसम्मति से चुना गया सभापति था । विवेक आगाशे को मिलाकर तब तक उस अनोखी क्लब के केवल छः सदस्य थे और वो सब-के सब उस शाम वहां मौजूद थे । वो छ: सदस्य थे:

1. विवेक आगाशे : आयु पचास वर्ष । व्यवसाय प्राइवेट डिटेक्टिव । तन्दुरुस्ती चाक चौबन्द । स्वभाव से धीर-गम्भीर । फौज से सेवानिवृत लेफ्टिनेंट कर्नल । आवास वर्तमान मीटिंग स्थल ।

2. रुचिका केजरीवाल : आयु अट्ठाइस वर्ष । व्यवसाय पत्रकार । भारत टाइम्स नामक राष्ट्रीय दैनिक की प्रसिद्ध क्राइम रिपोर्टर । चंचल, चपल दबंग युवती । क्राइम रिपोर्टर के पेशे में होने के बावजूद स्वभाव से बहुत पोयेटिक, बहुत रोमांटिक, बहुत भावुक । अभी तक अविवाहित । आवास भगवानदास रोड पर स्थित वर्किंग गर्ल्स होस्टल ।

3. लौंगमल दासानी : आयु पचास वर्ष । व्यवसाय वकालत । फौजदारी के मुकद्दमों का नामी वकील । खानदानी रईस । विधुर । इकलौती औलाद खूबसूरत, नौजवान, जहीन, बाइस वर्षीया विभा दासानी । आवास वसन्त विहार ।

4. छाया प्रजापति : आयु चालीस वर्ष । व्यवसाय मैजिस्ट्रेट फर्स्ट क्लास । मामूली शक्ल-सूरत वाली, चश्माधारी, सख्तमिजाज महिला । पति विदेश सेवा में ऊंचा ओहदे पर । दो बच्चे मसूरी में अध्ययनरत । आवास साउथ पटेल नगर ।

5. अभिजीत घोष : आयु बत्तीस वर्ष । व्यवसाय चार्टर्ड एकाउन्टैंट । खंडहर-सी तन्दुरुस्ती और चूहे जैसी शक्ल वाला अत्यन्त क्षीणकाय चश्माधारी युवक । मिस्ट्री फैन । जासूसी उपन्यासों का रसिया । कम-से-कम रोज एक देसी या विदेशी जासूसी उपन्यास पढने में खब्त की हद तक रूचि रखने वाला अभी तक अविवाहित युवक । आवास शाहदरा ।

6. अशोक प्रभाकर : आयु पैंतालीस वर्ष । व्यवसाय जासूसी उपन्यासकार । अशोक प्रभाकर छद्म नाम । वास्तविक नाम सुशील जैन । सौ से अधिक मर्डर मिस्ट्रीज का राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त लेखक । हर उपन्यास कई-कई बार प्रकाशित । कलम के जरिये सम्पन्नता प्राप्त करने वाला दुर्लभ लेखक । आवास शालीमार बाग ।

उपरोक्त में से अभिजीत घोष ही था, क्राइम क्लब की सदस्यता का जिसका दावा सबसे कमजोर था और जो वहां होने वाली अपराधी सबन्धी परिचर्चाओं में अक्सर खामोश ही रहता था । वो क्लब का सबसे बाद में, केवल दो महीने पहले, बना सदस्य था और उसकी सदस्यता में इस बात का भी दखल था कि कोई और, ज्यादा काबिल, सदस्य उपलब्ध नहीं था । इस बात से विवेक आगाशे मायूस तो था लेकिन फिर भी उसे पूरी उम्मीद थी कि देर-सवेर क्लब की सदस्यता बीस सदस्यों तक जरूर पहुंच जाने वाली थी जो कि उसका लक्ष्य था ।

क्राइम क्लब की सदस्यता की पहली शर्त ये थी कि प्रत्याशी को अपराध में और अपराधशास्त्र में गहरी रुची हो । वो शहरी समाज में होने वाली गम्भीर अपराधों की घटनाओं से बेखबर न हो और वो ऐसी घटनाओं की बाबत कोई विशिष्ट दो टूक राय पेश करने में सक्षम हो, जो अपराध विज्ञान की आधुनिक उपलब्धियों की पूरी जानकारी रखता हो और जिसे क्राइम डिटेक्शन और अनैलेसिज के बेसिक प्रोसीजर की पूरी-पूरी जानकारी हो । फिंगरप्रिंट्स स्टडी सम्बनधी, या बैलेस्टिक सम्बन्धी या पाथोलोजी सम्बन्धी ज्ञान को प्रत्याशी की अतिरिक्त योग्यता माना जा सकता था ।

उस रोज क्लब की मीटिंग में आमन्त्रित मेहमान शिवनाथ राजोरिया था जो कि दिल्ली पुलिस में इन्स्पेक्टर था और विवेक आगाशे के विशेष आमन्त्रण पर पुलिस हैडक्वार्टर से वहां आया था । वो पचास के पेटे में पहुंच रहा, हट्टा-कट्टा, रोबदार व्यक्ति था जो कि सूरत से ही पुलिसिया मालूम होता था ।

अपराध विज्ञान में गहरी दिलचस्पी रखने वाले आला दिमागों की सूरत में सब सदस्यों का बाकायदा परिचय इन्स्पेक्टर राजोरिया से करवाया जा चुका था । राजोरिया साफ-साफ सबसे प्रभावित हुआ था;

सिवाय मिस्ट्री फेन होने के नाते क्लब की सदस्यता के दावेदार अभिजीत घोष से जो कि पहली निगाह में राजोरिया को चार्टर्ड एकाउन्टैंट कम और चरसी ज्यादा लगा था ।

विवेक आगाशे ने एक सरसरी निगाह अपने दायें पहलू में बैठे इन्स्पेक्टर शिवनाथ राजोरिया पर डाली खंखारकर गला साफ किया और फिर धीर-गम्भीर स्वर में बोला - “लेडीज एण्ड जन्टलमैन, मुझे इस बात की खुशी है कि श्री शिवनाथ राजोरिया की सूरत में दिल्ली पुलिस के एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने हमारी क्राइम क्लब की मेहमानी कबूल फरमाई है । मुझे ये बताते हुए खुशी हो रही है कि इन्स्पेक्टर राजोरिया की अपने बीच मौजूदगी का फायदा उठाने का मैंने एक बड़ा नायाब तरीका सोचा है और मुझे पूरा यकीन है कि कि वो तरीका हाजिर मेम्बरान को भी जरूर-जरूर प्रभावित करेगा । लेडीज एण्ड जन्टलमैन, जो तरीका मैंने सोचा है उसका केन्द्रबिन्दु मिस्टर मुकेश निगम हैं - या यूं कहिये कि मिस्टर निगम की हत्प्राण बीवी अंजना निगम हैं । मिस्टर मुकेश निगम के नाम से हम सब में से कोई नावाकिफ नहीं । हमारे एक-दो मेम्बर तो उन्हें जाती तौर से भी जानते हैं । हकीकत ये है कि हमारे बीच मिस्टर मुकेश निगम के नाम का चर्चा हमारे क्लब के सम्भावित सदस्य के रूप में एक बार हो भी चुका है । जहां तक मुझे याद पड़ता है कुछ अरसा पहले मिस्टर दासानी ने ये प्रस्ताव रखा था कि हमें मिस्टर मुकेश निगम से सम्पर्क करना चाहिये था । क्राइम क्लब की सदस्यता आफर करनी चाहिये थी ।”

लौंगमल दासानी ने बड़ी गम्भीरता से सहमति में सिर हिलाया ।

“बहरहाल” - विवेक आगाशे आगे बढा - “किन्हीं अपरिहार्य कारणों से मिस्टर दासानी के प्रस्ताव पर अमल नहीं हो सका था । जबकि ये हकीकत आज भी अपनी जगह कायम है कि मिस्टर मुकेश निगम जैसे अपराध विज्ञान विशेषज्ञ का हमारी क्लब की सदस्यता स्वीकार करना हमारे लिये गौरव का विषय होता । मुझे जाती तौर पर मिस्टर निगम से मुलाकात का सौभाग्य कभी प्राप्त नहीं हुआ लेकिन आजकल अगर वो अपनी बीवी की दर्दनाक मौत की ट्रेजेडी से दो-चार न हो रहे होते तो मैं खुद जाकर उन्हें क्राइम क्लब की सदस्यता की पेशकश करता । हम, मिस्टर निगम को क्लब के सम्भावित सदस्य की दृष्टि से देखते हैं और इस लिहाज से हम सब अपने आपको उनके गम में शरीक मानते हैं । अब मेरा सुझाव ये है कि हम सब मिलकर हमदर्दी के इस जज्बे का कोई क्रियात्मक प्रयोग सोचें ।”

“आई सेकेंड द मोशन ।” - क्राइम रिपोर्टर रुचिका केजरीवाल बोली - “वुई मस्ट टर्न दिस सिम्पथी टु प्रैक्टिकल यूज ।”

तत्काल मैजिस्ट्रेट छाया प्रजापति ने अपना चश्मा ठीक करते हुए सहमति में सिर हिलाया ।

वकील दासानी का सिर भी वैसे ही हिला ।

केवल जासूसी उपन्यास लेखक अशोक प्रभाकर और उसका फैन अभिजीत घोष सपाट चेहरे लिये स्थिर, खामोश बैठे रहे ।

“साहबान ” - प्राइवेट डिटेक्टिव शिरोमणि विवेक आगाशे आगे बढ़ा - “मैं निसंकोच कह सकता हूं कि जो आइडिया मैंने सोचा है, वो क्राइम डिटेक्शन के क्षेत्र में एक बहुत बड़ा, बहुत नया प्रयोग होगा । सूचनार्थ निवेदन है कि आइडिया खुद पुलिस कमिश्नर साहब के साथ डिसकस किया जा चुका है और उसे उनका अनुमोदन प्राप्त है । अलबत्ता कमिश्नर साहब ने ये शर्त रखी है कि जब तक कोई कारआमद नतीजा सामने न आ जाये, हम लोग हर बात को, हर डिसकशन को पूरी तरह गोपनीय रखें । इसी सिलसिले में हालात से हमें पूरी तरह वाकिफ कराने के लिये कमिश्नर साहब ने इन्स्पेक्टर राजोरिया को डिप्यूट किया है । जनाबेहाजरीन, आप लोग समझ ही गये होंगे कि अपने जिस आइडिया का मैं जिक्र कर रहा हूं वो मिसेज अंजना निगम की मौत के रहस्य से ताल्लुक रखता है । इस सन्दर्भ में यहां इस बात का जिक्र करना गलत न होगा कि बकौल खुद पुलिस कमिश्नर साहब, पुलिस इस मौत के रहस्य से पर्दा उठा पाने की तमाम उम्मीदें छोड़ चुकी है । इन्स्पेक्टर साहब, मैने ठीक कहा ?”

“जी हां ।” - इन्स्पेक्टर राजोरिया गम्भीरता से बोला - “ठीक तो आपने कहा है लेकिन ये बात सीक्रेट रहनी चाहिये । इसका प्रचार होने से पुलिस की इमेज बिगड़ सकती है ।”

“ऐसा कम-से-कम” - विवेक आगाशे बोला - “हमारे मेम्वरान की वजह से नहीं होगा ।”

“जब कि एक मेम्बर” - इन्स्पेक्टर ने एक उड़ती निगाह रुचिका केजरीवाल पर डाली - “प्रैस रिपोर्टर भी है ।”

“आप खातिर जमा रखिये, इन्स्पेक्टर साहब, यहां की कोई भी बात इस कमरे से बाहर नहीं जायेगी । रुचिका पत्रकार बाद में है, क्राइम क्लब की जिम्मेदार मेम्बर पहले है । क्यों रुचिका ?”

रुचिका केजरीवाल ने तत्काल सहमति में सिर हिलाया ।

इन्स्पेक्टर के चेहरे पर आश्वासन के भाव आये ।

“बहरहाल ” - सभापति विवेक आगाशे आगे बढा - “बात ये हो रही थी कि मिसेज अंजना निगम की मौत के केस के सिलसिले में पुलिस की तफ्तीश का कोई नतीजा नहीं निकला है और न आगे निकलने की सम्भावना पुलिस को दिखाई दे रही है । पुलिस के पास दर्जनों केस होते हैं, आये दिन नये वाकयात होते हैं जो दर्जनों केसों में और दर्जनों केसों का इजाफा करते रहते हैं, नतीजतन पुलिस एक ही केस पर सिर धुनती नहीं रह सकती । न चाहते हुए भी पुलिस को कई बार ऐसे केसों को शैल्फ कर देना पड़ता है । लेकिन जनाबेहाजरीन, हमारे सामने ऐसी कोई मजबूरी या पाबन्दी नहीं । हमारे सामने एक ही केस होगा जिसे हम अपनी पूरी और मुतवार तवज्जो दे सकेंगे । हो सकता है हमारी कोशिशों से कोई नये तथ्य रोशनी में आयें जो कि केस के हल की तरफ मजबूत कदम उठाने का जरिया बन सकें । हो सकता है हम में से किसी की व्यक्तिगत कोशिश या हमारी सामूहिक कोशिशें उस केस का हल निकालने में कामयाब हो जायें जिसका पुलिस की निगाह में आज की तारिख में कोई हल नहीं । इसके विपरीत ये भी हो सकता है कि अपनी भरपूर कोशिशों के बावजूद हम भी पुलिस की तरह नाकामयाब ही रहें । लेकिन कोशिश” - विवेक आगाशे ने दायें हाथ की मुट्ठी भींचकर मेम्बरान को दिखाई - “कोशिश हम जरूर करेंगे । और अपनी कोशिश को हम वहां से शुरू करेंगे जहां से पुलिस की कोशिशें खत्म होती हैं । कहने का मतलब ये है, जनाबेहाजरीन, कि हमारे मुअज्जिज मेहमान इन्स्पेक्टर शिवनाथ राजोरिया पूरी तफसील से हमें ये बतायेंगे कि मिसेज अंजना निगम की मौत के रहस्य पर से पर्दा उठाने के लिये पुलिस ने क्या कुछ किया था और उनकी कोशिशों ने तफ्तीश के कौन से मुकाम पर पहुंचकर दम तोड़ा था । मैंने ठीक कहा, इन्स्पेक्टर साहब ?”

इन्स्पेक्टर राजौरिया ने सहमति में सिर हिलाया ।

“गुड !” - आगाशे बोला - “लेडीज एण्ड जन्टलमैन, इस केस की तफ्तीश के सिलसिले में हमें एडवाटेंज ये है कि पुलिस की तरह हम प्रोसीजर आफ इनवैस्टीगेशन की किसी रुटीन से बन्धे हुए नहीं होंगे । हमारा रहनुमा कोई मशीनी प्रोसीजर नहीं, हमारी बेहतर सोच, हमारी उम्दा सूझबूझ और हमारा आला दिमाग होगा जिसका इस्तेमाल हम में से हर कोई स्वतन्त्र रूप से इस केस का हल खोज निकालने में करेगा । मेरी राय में शुरुआत में हम लोग इस काम को स्वतन्त्र रूप से, बिना अपनी लाइन ऑफ एक्शन किसी दूसरे से डिसकस किये, अंजाम देने की कोशिश करेगे । यूं हम में से कोई भी अगर कोई नतीजा निकालने में कामयाब नहीं हो पायेगा तो एक आखिरी कोशिश हम सामूहिक रूप से, एक टीम के तौर पर करके देखेंगे । वैसे मुझे पूरा यकीन है कि टीम वर्क की नौबत नहीं आयेगी । ऐसी नौबत आने से पहले ही हम में से कोई, शायद पहला ही शख्स, रहस्य की तमाम परतें छिन्न-भिन्न करने में कामयाब हो जायेगा । जनाबेहाजरीन, किन्हीं साहब या साहिबा को मेरी बात से इत्तफाक न हो तो बरायमेहरवानी हाथ खड़ा करे ।”

कोई हाथ न उठा ।

“गुड !” - आगाशे सन्तुष्टिपूर्ण स्वर में बोला - “आई एम ग्लैड । तो फिर फैसला ये हुआ कि इस केस का हल तलाश करने के लिये हम सब बारी-बारी अपनी दिमागी कूवत की आजमयश करेंगे । बारी को निर्धारित करने के लिये मेम्बरान के नामों की पर्चियां डाली जायेंगी । केस की और पुलिस के उपक्रमों की व्यापक जानकारी हमें इन्स्पेक्टर साहब देंगे । वो जानकारी हासिल हो जाने के बाद मुमकिन है कुछ को केस का कोई सम्भावित हल तत्काल ही सूझ जाये...”

“मुझे तो सूझ भी चुका है ।” - मिस्ट्री राइटर अशोक प्रभाकर धीरे से बोला ।

सबकी निगाहें उसकी तरफ उठीं ।

“हल !” - सभापति आगाशे हकबका कर बोला ।

“हल !” - अशोक प्रभाकर बोला - “या हल को हाईलाइट करती हुई थ्योरी ।”

“इन्स्पेक्टर साहब का बयान सुनने से पहले ही ?”

“जो कुछ इस केस की बाबत रोज-ब-रोज अखबारों में छपता रहा है, उसके अलावा इन्स्पेक्टर साहब शायद ही नया कुछ बता पायेंगे ।”

“प्रभाकर साहब” - इस बार आगाशे तनिक शुष्क स्वर में बोला - “मैं आपके अतिउत्साह की कद्र करता हूं और साथ ही आपसे दरख्वास्त करता हूं कि फिलहाल आप अपनी थ्योरी की बाबत खामोश ही रहें, आप इन्स्पेक्टर साहब का आख्यान सुनें और पर्चियों द्वारा नाम निकाले जाने का इन्तजार करें । पहला नाम अगर आपका निकलता है तो हम बड़ी खुशी से पहले आपकी थ्योरी सुनेंगे लेकिन अगर पहला नाम आपका नहीं निकलता तो पहले पहले नाम वाले को अपनी बात कहने का मौका दिया जायेगा ।”

“यूं अगर वही केस को हल करने में कामयाब हो गया तो मेरी तो बारी ही नहीं आयेगी ।”

“प्रभाकर साहब, केस के गलत हल मुख्तलिफ हो सकते हैं लेकिन सही हल, जाहिर है कि, एक ही होगा । अगर आपका हल सही है तो वो किसी दूसरे के, आप से पहले बारी वाले के, हल से जुदा नहीं हो सकता ।”

“आई कैन अन्डरस्टैण्ड दैट । लेकिन यूं मेरे हल की अहमियत तो खत्म हो जायेगी ।”

“आप क्या चाहते हैं ?”

“मैं चाहता हूं कि मेरा हल पहले सुना जाये ।”

आगाशे ने बाकी मेम्बरान की तरफ देखा ।

सब के सिर इनकार में हिले ।

“जिन साहबान को” - आगाशे बोला - “मिस्टर प्रभाकर की दरख्वास्त से इत्तफाक है, वो बरायमेहरबानी हाथ खड़ा करें ।”

कोई हाथ न उठा ।

“सो” - आगाशे ने मिस्ट्री राइटर की तरफ देखा - “देयर यू आर ।”

अशोक प्रभाकर खामोश हो गया ।

“लेडीज एण्ड जन्टलमैन” - आगाशे बड़ी संजीदगी से बोला - “मेरी राय ये है कि इस बाबत कोई उतावलापन न दिखाया जाये । जल्दी का काम शैतान का होता है । हड़बड़ी गलतियों को जन्म देती है । मेरी राय ये है कि मिस्टर प्रभाकर की तरह किसी और के भी जेहन में केस की बाबत कोई थ्योरी पहले से हो तो भी वो इन्स्पेक्टर साहब का आख्यान पहले सुनें उसकी रूह में अपनी थ्योरी को तोले, थ्योरी के किसी पहलू को पुख्ता करने के लिये किसी तफ्तीश की जरूरत समझे तो वो पुख्ता करने के लिये किसी तफ्तीश पहले कर । मैं समझता हूं कि इस काम के लिये एक हफ्ते का वक्त मुकर्रर किया जाना चाहिये । उस वक्फे में हर बात को पूरी चौकसी से जांचा-परखा जाना चाहिये और उसके बात ही थ्योरी को क्राइम क्लब के सामने पेश किये जाने के काबिल माना जाना चाहिये । कहने की जरूरत नहीं कि उस वक्फे के दौरान हर मेम्बर अपनी थ्योरी को गोपनीय रखेगा और उसे किसी और मेम्बरों से डिसकस नहीं करेगा । ओके ?”

सब के सिर सहमति में हिले ।

“मुमकिन है” - आगाशे आगे बढा - “कि हमारी तमाम कोशिशों का हासिल कुछ भी न निकले, मुमकिन है कि हमारा हासिल उतना भी न हो जितना कि पुलिस का है लेकिन साहबान, उस सूरत में भी हम ये नहीं कह पायेंगे कि हमने अपना वक्त, अपनी मेहनत जाया की । इस केस का हल तलाश करने की कोशिश भी क्लब के मेम्बरान के लिये निहायत दिलचस्प दिमागी व्यायाम होगा, बढिया क्रिमिनालोजिकल एक्सरसाइज होगी । वैसी तो मुझे क्राइम क्लब के तमाम मेम्बरान, जिनमें कि मैं भी शामिल हूं, की जेहनी काबलियत पर इतना एतबार है कि मुझे यकीन है कि हममें से कोई एक दो नहीं, बल्कि सब-के-सब कामयाब होंगे । सब-के-सब एक ही सही नतीजे पर पहुंचेंगे क्योंकि सही हल एक से ज्यादा हो ही नहीं सकते ।”

सबके सिर अनुमोदन में हिले ।

“अब कोई सवाल ?”

“मिस्टर प्रेजीडेंट” - तत्काल क्राइम रिपोर्ट रुचिका केरीवाल ने सवाल किया - “सब कुछ कागजी ही होगा या हम लोग फील्ड में जाकर अपनी खुद की इनवैस्टीशन भी कर सकते हैं ?”

“केस के सही हल तक पहुंचने की खातिर” - आगाशे बोला - “आप कुछ भी कर सकते हैं । आप जैसी भी तफ्तीश मुनासिब समझें, उसे अंजाम दे सकते हैं । लेकिन मिस्टर प्रभाकर की तरह अगर बिना तफ्तीश के, बिना फुटवर्क के महज किसी थ्योरी के दम पर आप केस का हल पेश कर सकते हैं तो वो भी पूरी तरह से कबूल होगा । साहबान, आपकी कोशिशें प्रैक्टिकल हों या अकैडमिक या दोनों, नतीजा माकूल निकलना चाहिये । एण्ड जस्टीफाइज दि मींस, यू नो ।”

“जोर प्रैक्टिकल पर रहा” - मेजिस्ट्रेट छाया प्रजापति बोली - “तो फिर तो आप ही कामयाब होंगे, मिस्टर आगाशे आखिर आप फेमस डिटेक्टिव हैं ।”

“प्राइवेट ।” - आगाशे हंसता हुआ बोला - “पुलिस के असली, बेशुमार, प्रशिक्षणप्राप्त डिटेक्टवों के सामने इस वाहिद प्राइवेट डिटेक्टिव की क्या बिसात है, छाया जी ?”

सब हंसे । छाया भी ।

“मुझे तो पता भी नहीं” - अभिजीत घोष इतने धीरे से बोला कि केवल उसकी बगल में बैठी रुचिका केजरीवाल ही उसकी बात सुन सकी - “कि प्रैक्टीकल इनवेस्टीगेशन कैसे होती है !”

“जबकि” - रुचिका बोली - “दुनिया भर के जासूसी नॉवल चाटते हो ।”

“नॉवलों की बात और होती है । उनमें जासूस शायद ही कभी कुछ करता है । उसके पास तो तथ्य लाये जाते हैं, जिन्हें वो सिर्फ ऐनेलाइज करता है । फुटवर्क करने वाले और लोग होते हैं और लेखक ये बताता नहीं कि फुटवर्क को हकीकतन कैसे अंजाम दिया गया । जासूस का काई सहायक या उसकी साइड किक बस सिर्फ नतीजा कह सुनाता है फुटवर्क का । मसलन एक हिन्दुस्तानी मिस्ट्री राइटर का हीरो कोई जासूस या कोई पुलिस अधिकारी या कोई सी आई डी वाला होने की जगह तुम्हारी तरह प्रेस रिपोर्टर है । उसका एक दोस्त एक क्लब का मालिक है जिसे बक्तेजरूरत वो ये हुक्म दनदना देता है कि फलां आदमी की निगरानी करवाओ, फलां औरत को तलाश करवाओ या फलां बात का पता लगवाओ । चन्द घण्टों में ही उसे दोस्त की रिपोर्ट मिल जाती है और लेखक इस बात का कतई जिक्र नहीं करता कि उस रिपोर्ट का आधार क्या था ! क्योंकर किसी की निगरानी का या किसी की तलाश का या किसी का पता लगाने का काम हो पाया ?”

“जो दोस्त एक क्लब चलाता है, वो ऐसे वाहियात काम करता या करवाता क्यों है ?”

“ये भी एक बात है जिस पर उस लेखक ने कभी रोशनी नहीं डाली ।”

“फिर भी वो फेमस है ? खूब पढा जाता है ?”

“बहुत ज्यादा ।”

“कमाल है !”

“एक और लेखक का हीरो अपने एक पुलिस सुपरिन्टेन्डेन्ट दोस्त को फोन करता है और तमाम जानकारी प्लेट में सजी उसके सामने पेश हो जाती है ।”

“वो खुद कुछ नहीं करता ?”

“न । और जो सुपरिन्टेन्डेन्ट उसे जानकारी सप्लाई करता है वो खुद इतना गावदी है कि अपनी ही सप्लाई की जानकारी की अहमियत तब तक उसकी समझ में नहीं आती जब तक की हीरो उसकी क्लास नहीं लेता ।”

“क्यों पढते हो ऐसे बेहूदा नावल ?”

“क्योंकि ये नावल एक खास नुक्तानिगाह से ही बेहूदा लगते हैं । कुछ विसंगतियों से समझौता करके उन्हें पढा जाये तो खासे दिलचस्प होते हैं ।”

“इन्स्पेटर केस से सम्बन्धी तथ्यों को बयान को बयान करने जा रहा है ।”

“नया क्या बयान करेगा ? सब कुछ तो अखबारों में छप चुका है ।”

“हमारा सभापति कह रहा है कि वो कई नयी बातें बतायेगा ।”

“फिर तो सुनते हैं ।”

अब सब की तवज्जो इन्स्पेक्टर शिवनाथ राजोरिया की ओर थी ।

जिन अजीबोगरीब हालात में मिसेज अंजाम निगम की मौत हुई थी, इन्स्पेक्टर ने यूं बयान किया :

शनिवार दिनांक सत्तरह नवम्बर की सुबह की साढे दस के करीब मुकेश निगम ने कर्जन रोड पर स्थित शिवालिक क्लब में, जिसका कि वो पुराना मेम्बर था, कदम रखा । डोरमैन के अभिवादन का उत्तर देता हुआ वह मेन हाल में दाखिल हो गया ।

मुकेश निगम कोई पैंतीस साल का, फैशनेबल और सूरत से ही सम्पन्न लगने वाला शख्स था । उसका क्लीन शेव्ड चेहरा, उसका हेयर स्टाइल और उसकी पोशाक फैशन में उसकी विशेष आस्था की चुगली करते थे । नयननक्श उसके मामूली थे लेकिन अमूमन उसकी उस कमी की ओर उसकी सजधज तवज्जो नहीं जाने देती थी । वो कोई खानदानी रईस नहीं था । उसका बाप एक मामूली हैसियत का आदमी था जिसको उसकी जिन्दगी के आखिरी सालों में जमीन जायजाद की कुछ इनवेस्टमेंट्स ने मालामाल कर दिया था । यूं बाप की कमाई दौलत उसकी इकलौती औलाद मुकेश निगम के साथ आ गई थी और जिसकी वजह से कोई काम-धाम करना उसके लिए जरूरी नहीं रह गया था । अलबत्ता वो दो तीन कम्पनियों के बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स में था और कुछ सिक्केबन्द गौरमैंट सिक्योरिटीज का भी स्वामी वो था ।

उसकी बीवी अंजना उसके मुकाबले में खालिस रईस थी । वो एक कपड़े के बड़े व्यापारी और मिल मालिक की इकलौती औलाद थी और कोई चालीस पचास लाख की चल और अचल सम्पत्ति की स्वतंत्र रूप से भी मालकिन बताई जाती थी ।

यानी कि दौलत के हिसाब में एक और एक मिलकर ग्यारह हो गये थे ।

अंजना एक लम्बी, उंची, खूबसूरत, उच्च शिक्षा प्राप्त, संजीदा किस्म की लड़की थी, उम्र में वो अपने पति से सात साल छोटी थी और उनका अब तक का तीन साल का विवाहित जीवन बड़े सुख-चैन से कटा था । मुकेश निगम को अपनी बीवी से कोई शिकायत नहीं थी लेकिन बीवी को मियां से ये शिकायत हो सकती थी कि उसकी शादी से पहले जो सोसायटी की रंगीन तितलियों की तरफ रूझान रहा था वो अब भी कभी-कभार चोरी-छुपे जोर मार जाता था । लेकिन बीवी अपने मियां की उन छोटी-मोटी एडवेंचरों को ये सोचकर नजरअंदाज कर देती थी कि पैसे वाले पर ऐसी तितलियां मडराती ही थीं । गुड़ पर मक्खियों का भिनभिनाना लाजमी होता था । और फिर वो ये भी समझाती थी कि अगर गुड़ की चौकसी की जाये तो मक्खियों को दफा किया जा सकता था ।

नतीजा ये था कि निगम कि निगम की रंगीन तबियत उसके विवाहित जीवन में कभी कोई समस्या नहीं खड़ी कर पायी थी । इसमें इस बात का भी दखल था कि निगम दिल से अपनी बीवी को चाहता था और बीवी की भावनायें भी इस से जुदा नहीं बताई जाती थी।

कहने का तात्पर्य थी कि दुनिया की निगाहों में वो एक सुखी घर-संसार की मिसाल थे ।

जिस घड़ी मुकेश निगम हाल में दाखिल हो रहा था, ऐन उसी घड़ी क्लब का एक और मेम्बर वहां पहुंचा । उस दूसरे मेम्बर का नाम दुष्यन्त परमार था, आयु में वो पैंतालीस के पेटे में पहुंच रहा था लेकिन पैंतीस से भी कम लगता था । उसके स्त्रियों जैसे नाजुक और हसीन नयननक्श थे और वह स्त्रियों जैसे ही लम्बे बाल रखता था जो कि उसे खूब जंचते थे । वो दिल्ली के साहित्यिक दायरे में खूब चर्चित कवि और नाटककार था और विपरीत सैक्स के लिये इतना विशेष आकर्षण रखता था कि मंडी हाउस का कलाकार वर्ग उसकी पीठ पीछे उसे दिल्ली के लार्ड बायरन के नाम से पुकारता था । खुद दुष्यन्त परमार अपने लिये प्रयुक्त होने वाली उस संज्ञा से बेखबर नहीं था और हकीकत यह थी कि अपने को लार्ड बायरन के समकक्ष ठहराये जाने पर वो मन-ही-मन खुश ही होता था ।

“लार्ड बायरन की तरह में ये तो नहीं कह सकता” - विस्की की तरंग में वो कई बार कहता सुना गया था - “कि मदर आई शुड नाट, क्वीन आई कुड नाट, माई ब्लड इज रनिंग थ्रू होल इंगलैंड (मां के साथ करना नहीं चाहिए, मलिका के साथ कर न सका, बाकी मैंने इंगलैंड की कोई औरत नहीं छोड़ी ) लेकिन इतना मैं जरूर कह सकता हूं कि दिल्ली शहर के उच्च वर्ग के कई पति और पिता अपनी बीवियों और बेटियों के मेरे साथ ताल्लुकात की वजह से आम मेरी मौत की कामना करते हैं ।”

हकीकत ये थी कि दिल्ली के लार्ड बायरन का वो अतिशयोक्तिपूर्ण जरूर था लेकिन गलत नहीं था ।

दुष्यन्त परमार का आवास क्लब से करीब ही हेली रोड के मोड़ पर था । लेकिन उसका अधिकतर समय शिवालिक क्लब में ही व्यतीत होता था । उसके वहां पहुचते ही डोरमैन की निगाह स्वयंमेव ही वाल क्लाक की ओर उठ गयी जो कि उस घड़ी ठीक साढे दस बजा रही थी । डोरमैन सालों से देखता आ रहा था कि दुष्यन्त परमार का वहां प्रातःकालीन आगमन हमेशा ऐन साढे दस बजे ही होता था, उस वक्त में कभी एक मिनट की भी कमीबेशी नहीं होती थी । यूं ये बात निश्चित रूप से स्थापित थी कि सत्तरह नवम्बर, शनिवार की सुबह को भी दिल्ली के लार्ड बायरन, कवि एवं नाटककार दुष्यन्त परमार का शिवालिक क्लब में आगमन ऐन साढे दस बजे ही हुआ था ।

क्लब में पहुंचते ही हमेशा की तरह दुष्यन्त परमार ने अपनी किसी चिट्ठी-पत्री के बारे में डोरमैन से सवाल किया किसके जवाब में डोरमैन ने उसे तीन चिट्ठियां और एक छोटा-सा पार्सल थमा दिया । अपनी डाक के साथ उसने क्लब के हाल में कदम रखा जहां उसका तभी वहां पहुंचे मुकेश निगम से अभिवादन का आदान-प्रदान हुआ । दोनों आतिशदान के सामने एक दूसरे के करीब बैंत की कुर्सियों पर बैठ गये । एक ही क्लब के मेम्बर होने की वजह से दोनों में मामूली वाकफियत थी और अमूमन उनमें सिर्फ अभिवादन का आदान-प्रदान होता था । कभी बातचीत होती थी तो वो चन्द फिकरों में ही सिमटकर रह जाती थी ।

उस घड़ी उन दोनों के अलावा क्लब व हाल में कोई नहीं था ।

दुष्यन्त परमार ने पहले चिट्ठियां खोलकर पढीं और फिर अन्त में पार्सल को खोला । भीतर निगाह पड़ते ही उसके चेहरे पर वितृष्णा के गहन भाव प्रकट हुए । मुकेश निगम ने प्रश्नसूचक नेत्रों से उसकी तरफ देखा तो दुष्यन्त परमार ने भुनभुनाते हुए और बिक्री के आधुनिक तरीकों का फातिहा पढते हुए वो चिट्ठी उसकी तरफ बढा दी जो कि पार्सल के भीतर से बरामद हुई थी । बड़े सहानुभूतिपूर्ण ढंग से गर्दन हिलाते हुए मुकेश निगम ने प्रसिद्ध चाकलेट मैनुफैक्चरर सोराबजी एण्ड सन्स के लेटरहैड पर टाइपशुदा वो चिट्ठी पढी । चिट्ठी में इस बात का वर्णन था कि वे अपने द्वारा निर्मित लिकर चाकलेट की एक नई किस्म ‘चेरी मैलबरी’ मार्केट में इन्ट्रोड्यूस कर रहे थे । वो चाकलेट विशेष रूप से समाज के अभिजात वर्ग के लिये बनाई गयी थी और कम्पनी के सौजन्य से उस नये ब्रांड की तीस चाकलेटों का एक पैकेट उस पत्र के साथ प्रेषित किया जा रहा था । पत्र में चाकलेट के प्रति दुष्यन्त परमार की, अच्छी-बुरी कैसी भी, राय की फरमायश की गयी थी ।

“तौबा !” - दुष्यन्त परमार भुनभुनाया - “साले समझते हैं कि मैं कोई कैब्रे डांसर हूं । मेरे से... ‘मेरे से’ अपनी चाकलेट की तारीफ में कसीदे पढवाना चाहते हैं ! कनज्यूमर फोरम को शिकायत भेजूंगा सालों की ! हो सका तो एम. आर. टी. पी. में भी ! और पोस्टमास्टर जनरल को तो जरूरी ही । ये पोस्टल सर्विसिज का सरासर बेजा इस्तेमाल है । ऐसे जबरदस्ती मत्थे मढने वाली डाक पर जरूर कोई पाबन्दी होनी चाहिए । यहां भी ऐसी जंक मेल गले पड़नी है तो फायदा क्या हुआ शिवालिक जैसी एक्सक्लूसिव क्लब का मेम्बर बनने का !”

“आप चाकलेट पसन्द नहीं करते ?” - मुकेश निगम बोला ।

“मैं कोई औरत हूं ?”

“यानी कि नहीं पसन्द करते ?”

“मैं करीब भी नहीं फटकता ।”

“चाकलेट तो बहुत उम्दा है ये !”

“होगी ।”

“क्या करेंगे आप अब इसका ?”

“कूड़ेदान के हवाले करूंगा और क्या करूंगा !”

“इतनी उम्दा चाकलेट का इतना शानदार गिफ्ट पैक आप कूड़ेदान के हवाले करेंगे ?”

“और क्या करूं ?”

“मेरा मतलब है ये खामखाह की बरबादी होगी ।”

“ऐसी बात है तो जबरदस्ती के इस गिफ्ट का कोई बेहतर इस्तेमाल आप बता दीजिये ।”

“एक इस्तेमाल” - मुकेश निगम तनिक संकोचपूर्ण स्वर में बोला - “है तो सही मेरे जेहन में इसका ।”

“क्या ?”

“आप बुरा तो नहीं मानेंगे ?”

“काहे को, भई ?”

“वो क्या है कि मैं चाकलेटों के एक बड़े पैकेट की अपनी बीवी अंजना से शर्त हारा हूं । उस शर्त का कर्जा आज भी मेरे सिर पर है ।”

“शर्त ! कैसी शर्त ?”

“कल नून शो में हमने ‘रीगल’ पर अनिल कपूर की नयी फिल्म ‘अपराधी कौन’ का प्रीमियर शो देखा था । फिल्म मर्डर मिस्ट्री थी । डनहिल के दो पैकेटों के बदले में चाकलेटों के एक डिब्बे की शर्त मेरी अपनी बीवी से लगी थी कि इन्टरवल तक वो बता देगी कि खूनी कौन था । अगर वो इन्टरवल तक खूनी को पहचान जाती तो चाकलेटों का एक बड़ा पैकेट मैं हारता और अगर वो खूनी को न पहचान पाती तो डनहिल सिगरेट के दो पैकेट वो हारती । वो शर्त कल वो जीत गयी थी । इन्टरवल तक उसने सही खूनी को पहचान लिया था । आपने देखी वो फिल्म ?”

“मैं फिल्में नहीं देखता ।”

“बढिया फिल्म थी । आखिरी सीन तक खूनी का पता नहीं लगता । लेकिन मेरी बीवी ने इन्टरवल तक ही भांप लिया था कि खूनी घर का चौकीदार था । अब एक पैकेट चाकलेट का मैं अपनी बीवी का कर्जाई हूं ।”

“जनाब” - दुष्यन्त परमार ने तत्काल जबरन पैकेट मुकेश निगम के हाथ में धकेल दिया - “आप शौक से ये पैकेट अपनी बेगम साहिबा की खिदमत में पेश कर सकते हैं ।”

ये बात काबिलेगौर है कि मुकेश निगम ने वो पैकेट पैसा बचाने की नीयत से नहीं हासिल किया था । बड़ी हद सौ रुपये का वो पैकेट था और उस मामूली रकम की उसके सामने कोई बिसात नहीं थी । हकीकतन उसने वो पैकेट बाजार जाकर चाकलेट खरीदने की जहमत से बचने के लिये हासिल किया था । दूसरी बात ये भी थी कि वो चाकलेट की नयी उम्दा और बाजार में आम न हुई किस्म थी । और फिर ये बात तो थी ही कि खुद दुष्यन्त परमार के लिये उसका कोई इस्तेमाल नहीं था - वो तो उसे कूड़ेदान के हवाले करने को आमादा था ।

“आप” - फिर भी मुकेश निगम ने पूछा - “वाकई इसे नहीं रखना चाहते ?”

“अरे, हरगिज भी नहीं ।” - दुष्यन्त परमार पुरजोर लहजे में बोला ।

“फिर तो शुक्रिया ।”

उस घड़ी मुकेश निगम नहीं जानता था कि चाकलेटों का वो फ्री गिफ्ट आगे चलकर उसके लिए कितनी बड़ी मुसीबत का बायस बनने वाला था ।

ये मात्र संयोग था कि पार्सल का रैपर और उसके साथ आई चिट्ठी उस घड़ी आतिशदान की आग में न झोंकी गयी । दुष्यन्त परमार ने चाकलेटों का पैकेट, उसका रैपर और वो चिट्ठी तीनों चीजें निगम के हवाले कर दी थीं जिन्हें कि उसने आगे एक वेटर को अपने लिये रखने को सौंप दिया था । वेटर सब तामझाम के साथ कोने की एक मेज के पास पहुंचा था, चाकलेटों का पैकेट उसने मेज के ऊपर रख दिया था और रैपर और चिट्ठी को गोलमोल करके मेज के नीचे रखी एक रद्दी की टोकरी में डाल दिया था जहां से कि बाद में पुलिस द्वारा वो चीजें बरामद की गयी थीं ।

मिसेज अंजना निगम की रहस्मयी मौत से सम्बन्धित जो तीन क्लू पुलिस को उपलब्ध थे, उनमें से दो वो रैपर और वो चिट्ठी थी ।

और तीसरा तो चाकलेटों का पैकेट था ही ।

वही चाकलेटों की पैकेट निगम के सुखी घर-संसार में बारूद बनकर फूटा था ।

साढे बारह बजे तक निगम क्लब में रहा था जहां कि पहले वो अखबार पढता रहा था और फिर ग्यारह बजे बार खुलने पर दुष्यन्त परमार से रुख्सत होकर वो बार में जा बैठा था जहां कि वो खामोशी से बैठा बीयर चुसकता रहा था । फिर वहां से उठकर उसने वेटर से चाकलेटों का पैकेट हासिल किया था और सीधा बाबर रोड पर स्थित अपने आवास पर पहुंच गया था ।

उस घड़ी अंजना निगम भी घर पर मौजूद थी । अंजना का लंच उस रोज घर से बाहर होने वाला था लेकिन फिर उसकी लंच अप्वायन्टमैंट कैंसिल हो गयी थी और इसी वजह से वो लंच के वक्त घर पर मौजूद थी ।

उस रोज पति-पत्नी ने इकट्ठे लंच किया ।

लंच के बाद वे ड्राइंगरूम में आ बैठे तो मुकेश निगम ने अपनी बीवी को चेरी मेलबरी चाकलेट का डिब्बा भेंट किया और हंसते हुए उसे यह भी बताया कि वो डिब्बा उसे कैसे हासिल हुआ था ।

चाकलेट की वो किस्म नयी होने की वजह से अंजना ने पहले बड़े संदिग्ध भाव से उसका बारीक मुआयना किया और फिर इसी नतीजे पर पहुंची कि वो बहुत उम्दा किस्म की, विदेश से आने वाली लिकर चाकलेट्स का मुकाबला करने वाली किस्म थी । चाकलेट की शौकीन होने के कारण क्योंकि अंजना चाकलेट्स के बारे में ज्यादा जानती थी इसलिये उसी ने अपने पति को बताया कि वो उस प्रकार की चाकलेट थी जिसकी बाहर की परत ठोस होती थी लेकिन भीतर गाढा तरल पदार्थ भरा होता था ।

फिर अंजना ने एक चाकलेट मुंह में रखी ।

“चेरी जैसी जायका है ।” - कुछ क्षण बाद वह बोली - “तीखा स्वाद है । जुबान को चुभने वाला । जैसा उम्दा ब्रांडी का होता है ।”

“कहीं भीतर” - मुकेश बोला - “चेरी की ब्रांडी ही तो नहीं भरी हुई ?”

“अरे, कहां ! हिन्दोस्तान में मत मिली इजाजत किसी को ऐसी प्रॉडक्ट बनाने की ।”

“तो फिर फ्लेवर वैसी होगी ।”

“यही होगा ।” - अंजना ने डिब्बे में से एक चाकलेट निकालकर अपने पति की ओर बढायी - “लो, तुम भी चखो ।”

“मैं काफी पी रहा हूं ।”

“तो क्या हुआ ? वो तो मैं भी पी रही हूं ।”

“लेकिन चाकलेट...”

“लो तो । नई आइटम है । पसन्द आयेगी ।”

“लेकिन....”

“हद है तुम्हारी भी । मुफ्त के माल में भी नखरे !”

तब मुकेश ने चाकलेट ले ली और उसका रैपर उतारकर चाकलेट को मुंह में रख लिया ।

“स्ट्रांग आइटम है ।” - वह बोला ।

“आम लिकर चाकलेट से कहीं गुणा ज्यादा स्ट्रांग !” - अंजना बोली, उसने एक और चाकलेट अपने मुंह में रखी ।

“मुझे तो यूं लग रहा है जैसे इसमें नीट ब्रांडी भरी हुई हो ।”

“लगता ही है ऐसा । असल में होता नहीं ऐसा ।”

“मुझे तो जायजा जुबान को काटता-सा लग रहा है ।”

“उसी का तो मजा होता है ।”

“तुम्हें भी ऐसा ही लग रहा है ?”

“हां । वैसे इस ब्रांड को खाते हुए जरा ज्यादा लग रहा है । जरा क्या, सच पूछो तो बहुत ज्यादा लग रहा है । लेकिन मजा आ रहा है । लो, एक और लो ।”

“न भई न । मुझे नहीं चाहिये । चाकलेट तुम्हें ही मुबारक हो । मैं तो एक ही खा के पछता रहा हूं ।”

वो हंसी । जो चाकलेट वो अपने पति को आपर कर रही थी, उसे भी उसने अपने मुंह में स्थानान्तरित किया ।

“नयी, नावाकिफ आइटम है ।” - मुकेश ने उसे सावधान किया - “ज्यादा मत खाओ ।”

“बढिया है । खूब चलेगी मार्केट में । आते ही छा जायेगी । मजा आ गया । एक तो लो ।”

“न ।” - मुकेश तत्काल उठ खड़ा हुआ - “मुझे काम है । मैं जा रहा हूं ।”

“अरे, लो भी ।”

पत्नी की जिद पर मुकेश ने एक चाकलेट और ले ली और फिर लिकर चाकलेट की नयी किसम चेरी मेलबरी का आनन्द लेती अपनी बीवी को ड्राइंगरूम में बैठा छोड़कर वो वहां से विदा हो गया ।

वो आखिरी घड़ी थी जब कि मुकेश निगम ने अपनी पत्नी को जीवित देखा था ।

ढाई बजे अपने घर से रवाना होकर तीन बजे वह नेहरू प्लेस पहुंचा जहां कि उसने अपने एक मित्र से कोई व्यापारिक मन्त्रणा करनी थी । मन्त्रणा के दौरान ही वो तबीयत खराब होने लगने की शिकायत करने लगा और फिर जैसे-तैसे मन्त्रणा से फारिग होकर शिवालिक क्लब के लिये रवाना हो गया । बतौर टैक्सी ड्राइवर, टैक्सी में ही उसकी इतनी तबीयत खराब हो गयी कि ड्राइवर ने उसे हस्पताल ले चलने की पेशकश की लेकिन मुकेश निगम ने क्लब जाने की ही जिद की जहां कि, उसका ख्याल था कि, एक कप कॉफी पी लेने से उसकी तबीयत सुधर जाने वाली थी । टैक्सी के क्लब पहुंचने तक उसकी हालत इतनी बद् हो गयी कि क्लब के डोरमैन और एक वेटर ने मिलकर उसे क्लब के भीतर पहुंचाया । दोनों का कहना था कि तब मुकेश निगम के होश-हवास उड़े हुए थे, सांस उखड़ रही थी, होंठ कागज की तरह फड़फड़ा रहे थे और जिस्म पसीने से तर था ।

भीतर पहुंच कर उसने एक गिलास पानी पिया तो उसकी हालत में तनिक सुधार हुआ । क्लब के सैक्रेटरी ने डॉक्टर बुलाने की पेशकश की तो उसने ये कहकर इनकार कर दिया था कि उसे खास कुछ नहीं हुआ था, जो कुछ वो महसूस कर रहा था उसकी वजह जरूर बद्हजमी थी जो लंच में कोई गलत चीज खा बैठने की वजह से उसे हो गयी थी और वो थोड़ी देर में अपने आप ठीक हो जाने वाला था ।

दुष्यन्त परमार उस वक्त भी क्लब में मौजूद था - वो तो सुबह से ही वहीं था - मुकेश निगम ने उस पर ये शक जरूर जाहिर कर दिया कि उसकी हालत जरूर वो चाकलेटें खाने की वजह से बिगड़ी थी जो सुबह उसने उसे दी थीं । वो शक जाहिर करने के बाद ही उसे अपनी बीवी का ख्याल आया, खुद उसने तो सिर्फ दो चाकलेट खाई थीं तो उसका वो हाल हो गया था, अंजना तो उसके घर से निकलने तक ही कई खा चुकी थी और तब भी चाकलेटों का डिब्बा गोद में लिये बैठी और खाने को आमादा थी । इस लिहाज से अंजना का तो उससे भी बुरा हाल हुआ हो सकता था ।

आशंकित दुष्यन्त परमार ने खुद उसके घर फोन करने की पेशकश की क्योंकि निगम तो उठकर टेलीफोन तक पहुंच पाने की भी हालत में नहीं था । पानी पीने से बहुत ही वक्ती तौर पर उसकी तबीयत तनिक सम्भली थी लेकिन अब वो पहले से ज्यादा खराब होने लगी थी । अब तो उसके जबड़े अकड़ने लगे थे और पेट और छाती यूं उठने-गिरने लगे थे जैसे सांस ले पाना उसे दूभर कार्य लग रहा हो ।

तब दुष्यन्त परमार ने ये महसूस किया कि मुकेश निगम की जिद मानकर डाक्टर न बुलाना मूर्खता था । उसने तत्काल डाक्टर को बुलाये जाने का निर्देश दिया ।

फिर चार जनों ने मिलकर मुकेश निगम को कुर्सी से उठाया और उसे एक सोफे पर लिटाया । एक जने ने उसके कपड़े ढीले किये, दूसरा उसके चेहरे पर पानी के छींटे मारने लगा ।

“ऐसी तड़पने जैसी हालत तो” - किसी ने दबे स्वर में राय पेश की - “उसकी होती है जिसको जहर दिया गया हो ।”

तत्काल कई सिर सहमति में हिले ।

किसी ने उसे हस्पताल ले जाये जाने की राय दी तो क्लब के सैक्रेट्री ने बताया कि एक डाक्टर पांच मिनट के भीतर वहां पहुंच जाने वाला था ।

तब तक मुकेश निगम की चेतना लुप्त हो चुकी थी ।

डाक्टर के पहुंचने से पहले क्लब में मुकेश निगम के घर से टेलीफोन पहुंचा । घर का एक नौकर आतंकित भाव से कह रहा था कि अगर निगम साहब क्लब में हों तो उन्हें फौरन घर भेज दिया जाये क्योंकि मिसेज निगम को एकाएक कुछ हो गया था और वो सीरियस हालत में थीं ।

पीछे बाबर रोड पर निगम के घर में खुद उसके हालात से मिलता-जुलता ही, लेकिन कई गुणा ज्यादा, सब कुछ हुआ था । पति के जाने के बाद अंजना कोई आधा घन्टा और ड्राइंगरूम में बैठी रही थी और चाकलेट खाती रही थी । फिर वो एकाएक उठी थी और अपने बेडरूम में जाकर लेट गयी थी । उसने अपनी नौकरानी को केवल इतना कहा था कि उसकी तबीयत जरा भारी हो रही थी इसीलिये वो थोड़ी देर आराम करने जा रही थी । तब तक अपने पति की तरह उसने भी अपनी बिगड़ी हालत के लिये लंच में खायी गयी किसी गलत चीज को ही दोषी ठहराया था जो कि हजम नहीं हो रही थी और तब पेट में उत्पात मचा रही थी ।

नौकरानी ने अंजना को चूर्ण की दो गोलियां खिलायीं और पेट पर सेक करने के लिये हॉट वाटर बाटल लाकर दी । उस घड़ी अंजना की हालत वैसी ही थी जैसी कि टैक्सी ड्राइवर ने और क्लब के डोरमैन और वेटर ने उसके पति की देखी थी लेकिन नौकरानी ने कोई खास दहशत नहीं खायी थी क्योंकि, जैसा कि नौकरानी ने बाद में पुलिस को बताया, मालकिन के साथ ऐसा अक्सर हो जाता था कि वो लंच में ज्यादा खा जाती थीं और फिर बाद में हाय-हाय करने लगती थीं ।

सवा तीन बजे के करीब कोठी में अंजना की नौकरानी के लिये बड़ी हाहाकारी पुकार गूंजी ।

दौड़ती हुई नौकरानी अंजना के बेडरूम में पहुंची तो उस पर एक निगाह पड़ते ही उसके छक्के छूट गये । एक भी क्षण नष्ट किये बिना उसने निगम परिवार के फैमिली डाक्टर को, जो कि बाबर रोड पर ही रहता था, फोन किया लेकिन बदकिस्मती से डाक्टर उस वक्त घर पर नहीं था । नौकरानी ने घर के नौकर को बंगाली मार्केट दौड़ाया जहां से वह किसी और डाक्टर को लेकर आया । यूं अंजना की पहली हाहाकारी पुकार कोठी में गूंजने में और डाक्टर के उस तक पहुंचने में आधा घन्टा गुजर गया । तब तक अंजना की हालत किसी डाक्टरी इमदाद से सुधरने की हद से गुजर चुकी थी । उस पर गहरी मूर्छा तारी हो चुकी थी ।

डाक्टर को वहां पहुंचे अभी दस मिनट नहीं हुई थे कि अंजना निगम के प्राण पखेरू उड़ गये ।

हकीकतन घर के नौकर के मालिक को बुलाने के लिये शिवालिक क्लब का फोन खड़काने तक वो मर चुकी थी ।

इन्स्पेक्टर राजोरिया सांस लेने को और श्रोताओं पर अपने आख्यान का प्रभाव देखने को रुका ।

श्रोताओं के चेहरों पर कोई भाव नहीं थे । क्योंकि तब तक जो कुछ उन्होंने सुना था, वो अक्षरश: अखबारों में छप चुका था । तब तक इन्स्पेक्टर ने कोई नयी बात बयान नहीं की थी । श्रोतागण तो वस्तुत: पुलिस की तफ्तीश के उन नतीजों को सुनने के ख्वाहिशमन्द थे जो कि अखबारों में नहीं छपे थे ।

“साहबान” - इन्स्पेक्टर बोला, श्रोताओं के मन के भाव जैसे उसने पढ लिये - “मैं जानता हूं कि जो वाक्यात मैंने अब तक बयान किये हैं, उनसे आप पहले से वाकिफ हैं लेकिन केस का एकदम सही और मुकम्मल खाका आपकी निगाहों के सामने खींचने के लिये इन, पहले ही आम हो चुके, वाकयात को दोहराना जरूरी था ।”

“वुई अन्डरस्टैण्ड ।” - अपनी सभापति की हैसियत में विवेक आगाशे सबकी तरफ से बोला ।

“थैंक्यू ।” - इन्स्पेक्टर बोला - “आप सब लोग ये भी जानते ही होंगे कि मुकेश निगम मौत के आगोश में पहुंचने से बच गया था । ये उसकी खुशकिस्मती थी कि उसने दो चाकलेट खायी थीं जबकि उसकी बीवी ने वैसी चाकलेट सात खायी थीं । उसकी और भी खुशकिस्मती ये थी कि उसको अटैण्ड करने के लिये क्लब में आया डाक्टर वक्त रहते मरीज के पहलू में पहुंच गया था जबकि अंजना के लिये बुलाया गया डॉक्टर पहुंचा ही तब था जबकि मरीज की चल-चल हो भी चुकी थी । मुकेश निगम का डाक्टर आते ही भांप गया था कि वो प्वायजनिंग का केस था इसलिये उसने उसे तत्काल एण्टीडोट का इन्जेक्शन दिया था और स्टामेक को पम्प करके जहर से खाली कराने का इन्तजाम किया था । नतीजतन शाम आठ बजे तक उसे होश आ गया था और उसकी हालत को खतरे से बाहर घोषित कर दिया गया था । अगली सुबह तक तो वो ठीक भी हो गया था ।

केस में पुलिस का दखल अंजना को अटैण्ड करने वाले डाक्टर की इस तसदीक ने पैदा किया था कि अंजना की मौत जहर खाने की वजह से हुई थी । फिर ये बात भी पुलिस को मालूम हुई थी कि मरने वाली का पति भी ऐन वैसे ही हालात में मरते-मरते बचा था । पुलिस ने मुकेश निगम के शिवालिक क्लब में होश में आते ही उसका बयान लिया था । तब अभी उससे ये बात छुपाकर रखी गयी थी कि उसकी बीवी मर चुकी थी और उससे उसके खुद के तजुर्बे की बाबत ही सवाल किये गये थे । उसे साफ-साफ शब्दों में ये बताया गया था कि उसे जहर दिया गया था और उससे पूछा गया था कि वो जहर उसके पेट में कैसे पहुंचा था । तब मुकेश निगम ने चाकलेट की बाबत अपना वो शक जाहिर किया था जो कि वो दुष्यन्त परमार पर पहले ही जाहिर कर चुका था ।

पुलिस को वो बात पहले से मालूम थी । मुकेश निगम के होश में आने तक वो दुष्यन्त परमार का और तमाम सम्बन्धित व्यक्तियों का बयान पहले ही ले चुके थे । उस टैक्सी ड्राइवर तक को तलाश किया जा चुका था जो कि निगम को नेहरू प्लेस से शिवालिक क्लब तक लेकर आया था । निगम के बताने से पहले दुष्यन्त परमार से ही पुलिस को खबर लग चुकी थी कि कैसे सुबह एक चाकलेटों का डिब्बा डाक से वहां पहुंचा था और कैसे उसने वो डिब्बा निगम को सौंप दिया था । उस बयान के बाद ही पुलिस ने पार्सल का रैपर और उसके भीतर से बरामद हुई चिट्ठी रद्दी की टोकरी में से बरामद की थी ।

तत्काल एक पुलिसिया निगम की कोठी पर दौड़ाया गया जिसे कि चाकलेटों का डिब्बा ड्राइंगरूम की सैंटर टेबल पर पड़ा मिला । उसमें नौ चाकलेट कम पायी गयीं । निगम ने क्योंकि केवल दो चाकलेटें खाई होने की तसदीक की थी इसलिए सहज ही ये नतीजा निकाल लिया गया कि बाकी की सात चाकलेटें उसकी हत्प्राण बीवी ने खायी थीं ।

तब फोकस चाकलेटों पर हो जाना स्वाभाविक था ।

तत्काल अनैलेसिस के लिए उन्हें पुलिस लैबोरेट्री में भेजा गया ।

नतीजा ये सामने आया कि चाकलेटों में बाहरी ठोस परत के भीतर जो गाढा तरल पदार्थ भरा हुआ था उसमें नाइट्रोबेंजीन (Nitrobenzene) मिली हुई थी । नाइट्रोबेंजीन बादाम की फ्लेवर देने वाला कैमीकल था जो कि सस्ती किस्म की कन्फेक्शनरी में बादाम के तेल के विकल्प के तौर पर इस्तेमाल किया जाता था । वस्तुत: नाइट्रोबेंजीन जहर था लेकिन बहुत थोड़ी मात्रा में सावधानी से इस्तेमाल किये जाने पर ये कतई कोई नुकसान नहीं करता था । इसका प्रमुख इस्तेमाल कन्फेक्शनरी में नहीं, बल्कि डाई इन्डस्ट्री में होता था ।

प्रारम्भ में पुलिस की यही राय बनी कि जो कुछ हुआ था, एक दुखद दुर्घटनावश हुआ था । चाकलेट निर्मात्री फैक्ट्री के कर्मचारियों की लापरवाही से उन चाकलेटों में नाइट्रोबेंजीन के ओवरडोज का समावेश हो गया था ।

लेकिन इससे पहले कि चाकलेट निर्मात्री कम्पनी सोराबजी एण्ड संस से जवाबतलबी की जाती, कुछ और तथ्य सामने आये । मालूम हुआ कि डिब्बे में ऊपर नीचे दो तहों में लगी चाकलेटों में से केवल ऊपर की तह वाली चाकलेटों में ही जहर था । नीचे की तह वाली चाकलेटों में कम मात्रा में नाइट्रोबेंजीन तो क्या, नाइट्रोबेंजीन ही नहीं थी ।

जहर वाली चाकलेटों की बाबत जो काबिलेगौर बात सामने आयी वो ये थी कि हर चाकलेट के भीतर नाइट्रोबेंजीन की ऐन छ: बूंदें मौजूद थीं, पीछे बाकी बच गयी ऊपर की तह की छ: चाकलेटों में से किसी में भी उस जहर की छ: बूंदों से न तो एक बूंद कम थी, न ज्यादा थी, हालांकि चाकलेंटों के भीतर जहर की और बूंदें समा पाने लायक काफी जगह थी ।

ऐसी तमाम चाकलेटों की बारीक माइक्रोस्कोपिक जांच से ये नतीजा सामने आया कि हर चाकलेट के तले में एक महीन छेद था जो पिघली हुई चाकलेट की मदद से बन्द किया गया था । जाहिर था कि हर उस छेद के जरिये ड्रापर की सहायता से भीतर जहर की छ: बूंदें टपकायी गयी थीं और फिर छेद को अतिरिक्त चाकलेट पिघलाकर प्लग कर दिया गया था ।

तब पुलिस को दु:खद दुर्घटना वाली अपनी राय तब्दील करनी पड़ी और ये राय बनानी पड़ी कि वो कत्ल का केस था । किसी ने जहरभरी चाकलेटों के जरिये दुष्यन्त परमार का कत्ल करने की कोशिश की थी । किसी ने सोराबजी एण्ड संस की नई प्रॉडक्ट चेरी मेलबरी का एक डिब्बा मुहैया किया था; उसकी ऊपरली तह की पन्दरह की पन्दरह चाकलेटों में छेद करके उनमें जहर टपकाया था, छेद बन्द किया था, हर चाकलेट को उसके रेपर में पहले की तरह वापिस लपेटा था, उन्हें डिब्बे में सजाया था, डिब्बा बन्द किया था और डिब्बा यूं दुष्यन्त परमार के नाम पोस्ट कर दिया था जैसे कि वो सोराबजी एण्ड संस द्वारा ही भेजा गया हो ।

तब पोस्ट पार्सल के ऊपर का रेपर और पार्सल के साथ आया कम्पनी का लेटर पुलिस के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण हो उठा । वो दोनों चीजें अब पुलिस को एक डेलीब्रेट कोल्ड ब्लडिड मर्डर का मैटीरियल क्लू दिखाई देने लगीं ।

तब स्वाभाविक था कि पुलिस का अगला कदम सोराबजी एण्ड संस से सम्पर्क ही होता । कम्पनी के मैनेजिंग डायरेक्टर सोराबजी तक पुलिस पहुंची । उसे बिना बताये, कि किन हालात में पार्सल के साथ आया पत्र पुलिस के हाथ लगा था, पत्र सोराबजी को दिखाया गया और उस से पूछा गया कि ऐसे कितने पत्र नगर के गणमान्य व्यक्तियों को भेजे गये थे; उसकी बाबत किसे खबर थी और दुष्यन्त परमार को भेजा गया पार्सल, बमय वो पत्र, किन-किन हाथों से गुजरा हो सकता था ।

सोराबजी का जवाब चौंका देने वाला था ।

उसने बताया कि वो पत्र शर्तिया जाली था । उनके यहां से वैसे किसी पत्र के साथ चाकलेटों का कोई कम्पलीमैंट्री पार्सल नगर के किसी भी गणमान्य व्यक्ति को नहीं भेजा गया था । अपनी किसी नयी प्रॉडक्ट के लिये प्रशस्तिपत्र हासिल करने की खातिर यूं फ्री चाकलेट बांटने का उनके यहां कोई रिवाज नहीं था । और सौ बातों की एक बात, हाल ही में उन्होंने अपनी किसी चाकलेट का कोई नया ब्रांड मार्केट में इन्ट्रोड्यूस नहीं किया था ।

तब पुलिस को बताना पड़ा कि असल में एक कत्ल के केस की तफ्तीश पुलिस को वहां तक लायी थी और उस पत्र और उसमें वर्णित चाकलेटों के डिब्बे का केस से गहरा ताल्लुक था और केस की तफ्तीश की खातिर सोराबजी से सवाल करना जरूरी हो गया था ।

सोराबजी और पुलिस के बीच अगले पांच मिनट चले सवाल-जवाब के सिलसिले ने ये स्थापित कर दिया कि जिस केस को मामूली समझा जा रहा था, वो न सिर्फ गैरमामूली था बल्कि इन्तहाई पेचीदा था ।

पार्सल और पत्र की बाबत पूछताछ के लिये सोराबजी एण्ड संस में पहुंचने से पहले तक पुलिस का ख्याल था कि कम्पनी के किसी कर्मचारी की - ज्यादा सम्भावना उन्हें किसी स्त्री कर्मचारी की दिखाई दी थी - किसी तरह चाकलेटों के दुष्यन्त परमार को भेजे जा रहे उस कम्पलीमैन्ट्री पार्सल तक पहुंच हो गयी थी, उसकी दुष्यन्त परमार से कोई रंजिश थी - जो कि उसके ‘लार्ड बायरन’ वाले इमेज को देखते हुए कोई बड़ी बात नहीं थी - उसने दुष्यन्त परमार से बदला लेने के खातिर चाकलेटों में नाइट्रोबेंजीन, जो कि फैक्ट्री में ही बहुतायत में उपलब्ध होती थी, मिला दी थी जिसका नतीजा अंजना निगम की मौत की सूरत में सामने आया था । ऐसी कर्मचारी को फैक्ट्री में ट्रेस कर लेना पुलिस को मामूली काम लगा था ।

लेकिन वहां तो कहानी ही उलट हो गयी थी ।

अलबत्ता सोराबजी के बयान से साबित हुई फर्जी बातों में एक बात फिर भी जेनुइन थी ।

सोराबजी एण्ड कम्पनी का लेटरहैड, सोराबजी ने कबूल किया कि, एकदम असली था । उस लेटरहैड का कागज और उसकी छपाई दोनों एक्सक्लूसिव थे । न वैसा कागज आम मिलता था और न वैसी छपाई आम होती थी । कम्पनी में वो लेटरहैड केवल उन पत्रों के लिये इस्तेमाल किया जाता था जिस पर कि मैनेजिंग डायरेक्टर की हैसियत से खुद सोराबजी ने हस्ताक्षर करने होते थे । वो लेटरहैड कनाट प्लेस में स्थित प्रिंट आर्ट नामक स्टेशनरी शाप द्वारा विशेष रूप से सोराबजी एण्ड संस के लिये बनाया जाता था । और पिछले छ: महीने से वो कम्पनी की चिट्ठी-पत्री में इस्तेमाल नहीं हो रहा था ।

वजह !

छ: महीने पहले वह स्टाक खत्म हो चुका था । अब जो नया लेटरहैड इस्तेमाल में आ रहा था, उसका कागज, छपाई, टाइप, रंग संयोजन सब उस पिछले लेटरहैड से जुदा था ।

सोराबजी ने नया लेटरहैड दिखाया ।

दुर्भाग्यवश पुराने वाले लेटरहैड का कोई नमूना वहां उपलब्ध न हो पाया । आफिस में काफी तलाश के बावजूद वैसा एक भी लेटरहैड कहीं से बरामद न किया जा सका ।

तब उस घड़ी इन्स्पेक्टर राजोरिया ने अपने ब्रीफकेस से निकालकर वो पत्र हाजिर मेम्बरान के सामने पेश किया जो कि चाकलेट के पार्सल के साथ आया था ।

“गौर फरमाइयेगा, लेडीज एण्ड जन्टलमैन” - इन्स्पेक्टर बोला - “कि इस चिट्ठी का कागज सूरत से ही पुराना लगता है और इसके किनारे पीले पड़ चुके हैं ।”

सब ने बारी-बारी लेटरहैड का मुआयना किया और उस पर छपी हुई इबारत पढी ।

“ये लेटरहैड जाली नहीं है ।” - इन्स्पेक्टर बोला - “इसकी तसदीक इसको छापने वाली फर्म प्रिन्ट आर्ट से हो चुकी है । उनका दावा है कि जाली लेटरहैड छापने के लिए आज की तारीख में ये कागज ही कहीं उपलब्ध नहीं है । वैसे भी उन्होंने अपनी कारीगरी को बाखूबी, बेहिचक पहचाना है ।”

“अगर ये” - वकील दासानी बोला - “फर्जी होता तो क्या बड़ी बात हो जाती ?”

“तो ये अपने आप एक क्लू होता ।” - इन्स्पेक्टर बोला - “तो फर्जी लेटरहैड छापने वाले प्रिन्टर को तलाश करने की कोशिश की जाती और फिर उससे ये कुबुलवा लेना हमारे लिये कोई बड़ी बात न होती कि उसने ये जालसाजी किसके लिये की थी ।”

“आई सी ।”

“लेटरहैड असली होने का तो यही मतलब है कि छ: महीने पहले तक कातिल की किसी प्रकार सोराबजी एण्ड संस की स्टेशनरी तक पहुंच थी ।”

“आप का मतलब है” - पत्रकार रुचिका केजरीवाल बोली - “कि तब ये लेटरहैड कातिल ने छ: महीने बाद वैसे इस्तेमाल के लिये चुराया होगा जैसा इस्तेमाल कि अब सामने आया है ?”

“ऐसा ही लगता है ।”

“छ: महीने इन्तजार करते रहने की कोई वजह ?”

“कोई तो होगी ही ।”

“मालूम नहीं आप को कोई वजह ?”

“नहीं ।”

रुचिका केजरीवाल चुप हो गयी ।

फिर पार्सल के रैपर का जिक्र आया तो इंस्पेक्टर ने बताया कि रैपर में कोई खास, गौर के काबिल या जिक्र के काबिल, बात नहीं थी । वो एक मामूली किस्म का ब्राउन पैकिंग पेपर था जो कि छोटे-मोटे बंडल और पार्सल बनाने में आम इस्तेमाल किया जाता था । उस पर दुष्यन्त परमार का नाम और क्लब का पता काली स्याही वाले पैन से मोटे अक्षरों में हाथ से लिखा गया था । उस पर लगी डाकखाने की मोहर पर से जनपथ जी.पी.ओ. का नाम और तारीख 16-11-1990 साफ पढी जा रही थी ।

“हमें ये भी मालूम है” - इन्स्पेक्टर बोला - “कि वो पार्सल दोपहर सवा एक और दो पैंतालीस के बीच जनपथ पर इन्डियन आयल की इमारत के सामने लगे लेटर बक्स में डाला गया था ।”

“ये कैसे मालूम है ?” - मैजिस्ट्रेट फर्स्ट क्लास छाया प्रजापति ने तनिक हैरानी से पूछा ।

“क्योंकि डाकखाने के जिस कर्मचारी ने उस लेटर बक्स से डाक निकाली थी, उसे उस पार्सल की बाखूबी याद है ।”

“कैसे याद है ? कोई खास वजह ?”

“दो हैं । एक तो इसलिये कि लेटर बक्स में से उसके द्वारा निकाली गयी डाक में वो ही सिर्फ एक पार्सल था । दूसरे इसलिये कि ऐसे पार्सल हमेशा रजिस्टर्ड डाक से भेजे जाते हैं जिसे कि डाकखाने के काउन्टर पर जमा कराकर रसीद लेना होता है । यूं लेटर बक्स में ऐसा पार्सल कोई नहीं डालता ।”

“ओह !”

“और सवा एक और दो पैंतालीस का वक्त यूं मुकर्रर होता है कि ये दोनों वक्त लेटर बक्स से डाक कलैक्शन के हैं । सवा एक बजे वाली डाक कलैक्ट करने वाला कर्मचारी कोई दूसरा था । अगर वो पार्सल लेटर बक्स में सवा एक से पहले डाला गया होता तो उसे वो दूसरा कर्मचारी ले गया होता । फिर पौने तीन बजे डाक कलैक्ट करने आये कर्मचारी के हाथ वो पार्सल न लग पाया होता ।”

“वैरी क्लैवर !” - रुचिका केजरीवाल होंठो में बुदबुदाई ।

“ये है चाकलेट बाक्स वाले उस पार्सल का रैपर ।”

बारी-बारी रैपर का मुआयना किया जाने लगा ।

“क्या आप” - छाया प्रजापति ने पूछा - “चाकलेटों का डिब्बा और बची हुई चाकलेट भी लाये हैं ?”

“जी नहीं ।” - इन्स्पेक्टर बोला - “जहरवाली चाकलेटें तो तमाम-की-तमाम पुलिस लैबोरेट्री में अनैलेसिस में चुक गयी थीं और वो डिब्बा कार्डबोर्ड की बनी मामूली आइटम था जिससे कोई क्लू हासिल होना मुमकिन नहीं था ।”

“क्यों मुमकिन नहीं था ? उस पर उंगलियों के निशान हो सकते थे ।”

“नहीं थे । हमने चैक किया था ।”

“दोपहर के वक्त तो जनपथ की इन्डियन आयल की इमारत वाली मार्केट में बड़ी चहल-पहल होती है । किसी ने किसी को वो पार्सल लेटर-बक्स में डालते देखा हो सकता है !”

“नहीं देखा था । हमने भरपूर पूछताछ की है । लोगों के घर-घर जाना तो मुमकिन नहीं था क्योंकि यही मालूम हो पाना मुमकिन नहीं था कि उस रोज सवा एक और पौने तीन के बीच वहां कौन लोग चहलकदमी कर रहे थे । अलबत्ता दुकानदारों से, उनके कर्मचारियों से और इलाके के पक्के फेरीवालों से पूछताछ की गयी थी । नतीजा सिफर निकला था । उस वक्त की वहां की भीड़-भाड़ ही असल में पार्सल पोस्ट करने वाले की ओट बन गयी थी । भीड़-भाड़ में कहां कोई किसी की तरफ ध्यान देता है !”

“हूं ।”

“पार्सल को लेकर दुष्यन्त परमार से हमने खास तौर से पूछताछ की थी कि क्यों कोई यूं उनकी जान लेने का ख्वाहिशमन्द था और ऐसा शख्स कौन हो सकता था । अफसोस की बात है कि हमारे इन सवालों पर दुष्यन्त परमार कतई कोई रोशनी न डाल सके । फिर हमने मर्डर केस की इनवैस्टिगेशन की रूटीन के तौर पर ये जानने की कोशिश की कि उनकी मौत से किसे फायदा पहुंचता था ! नतीजा तब भी कुछ न निकला । उनके वारिस का दर्जा रखने वाली उनकी सबसे नजदीकी रिश्तेदार तो उनकी बीवी पार्वती परमार ही है लेकिन मालूम हुआ कि उन दोनों के आपसी ताल्लुकात आजकल इस हद तक खराब हैं कि दोनों में तलाक का मुकदमा अदालत में है । वैसे भी वो तब दिल्ली में नहीं थी । वो तब लखनऊ में थी । वहां की पुलिस की सहायता से हमने उसकी मूवमेंट्स को चैक करवाया है । नतीजा ये निकला है कि उस पर किसी प्रकार का शक करना बेकार है । वैसे भी वो बहुत भली और नेकबख्त औरत है ।”

कोई कुछ न बोला ।

“बहरहाल कातिल की बाबत हमें सिर्फ इतना अन्दाजा है कि छ: महीने पहले तक उसका सोराबजी एण्ड संस से कोई-न-कोई वास्ता जरूर था और सोलह नवम्बर की दोपहर को सवा एक और पौने तीन बजे के बीच वो जनपथ पर इन्डियन आयल की इमारत के सामने जरूर था ।”

“बस ?” - विवेक आगाशे तनिक सकपकाये स्वर में बोला ।

“बस ही जानिये, जनाब ।” - इन्पेक्टर बोला ।

“पुलिस की” - मिस्ट्री राइटर अशोक प्रभाकर बोला - “केस की बाबत कोई थ्योरी तो होगी !”

इन्स्पेक्टर एक क्षण हिचकिचाया और फिर बोला - “पुलिस की थ्योरी ये है कि ये किसी ऐसे शख्स का काम है जिसका मानसिक सन्तुलन मुकम्मल तौर से या काफी हद तक बिगड़ा हुआ है और शायद वो व्यक्तिगत तौर से दुष्यन्त परमार का परिचित भी नहीं । वो क्या है कि... मिस्टर परमार की जाती जिन्दगी कुछ ऐसी है... कुछ ऐसी फसादी किस्म की है कि... किसी ऐसे शख्स का कल्ल कर देना किसी धार्मिक धर्मान्धता के शिकार व्यक्ति का काम भी हो सकता है । ...कहने का मतलब है कि किसी विकृत मस्तिष्क वाले व्यक्ति ने किसी ऐसे शख्स की जान ले लेना पुण्य का काम समझा हो सकता है ।”

“इस लिहाज से तो” - आगाशे बोला - “कातिल कोई ऐसा होमीसिडल मैनियाक भी हो सकता है जो कि अनजान, अजनबी लोगों के कत्ल से मुसर्रत हासिल करता हो ।”

“हो सकता है । ऐसे ही दीवाने लोग अनजान लोगों को लेटर बम और जहर मिली शराब के तोहफे भेजते हैं ?”

“यू आर राइट ।”

“साहबान, पुलिस ने इस केस में जो कुछ जाना, जो कुछ किया, वो मैंने बयान कर दिया है । अब क्राइम क्लब के सदस्यों के कौशल प्रदर्शन के लिये मैदान खाली छोड़कर मैं आप लोगों से विदा लेता हूं ।”

***

इन्स्पेक्टर शिवनाथ राजोरिया के चले जाने के बाद उसकी जुबान से निकली हर बात पर पीछे गर्मागर्म बहस हुई । केस की बाबत हर किसी का अपना, सबसे जुदा, नजरिया था, बहस के लिये थ्योरी थी और पेशकश के लिये सलाह थी ।

जो एक बात सर्वसम्मति से वहां स्वीकृत हुई, वो ये थी कि पुलिस गलत लाइन पर करती रही थी । उसकी थ्योरी ही गलत थी । वो किसी दीवाने या धर्मान्ध व्यक्ति या समाजी इन्साफ में विश्वास रखने वाले शख्स द्वारा खामखाह में किया गया कत्ल नहीं हो सकता था । वस्तुत: वो किसी विशिष्ट उद्देश्य की पूर्ति के लिये खूब सोच-विचार कर किया गया कत्ल था ।

इस लिहाज से उद्देश्य पता लग जाना कातिल तक पहुंचने का सहूलियत का तरीका साबित हो सकता था ।

सभापति आगाशे ने इस बात पर अपनी पाबन्दी बरकरार रखी कि कोई भी सदस्य अपना नजरिया, अपनी थ्योरी, अपनी सलाह दूसरे सदस्यों के सामने डिसकस न करे । उस मानसिक व्यायाम के जो नियम स्थापित किये जा चुके थे, उन पर सख्ती से अमल जरूरी था ।

“मिस्टर आगाशे” - दासानी ने कहा - “हर कोई स्वतंत्र रूप से अपनी तफ्तीश करे, ये बात तो ठीक है लेकिन अगर किसी को कोई नयी, कारआमद, पहले से न मालूम बात मालूम होती है तो उसे क्लब के सामने रखने में क्या हर्ज है ?”

आगाशे सोचने लगा ।

“यकीनन आप ये नहीं चाहेंगे कि जो शुरूआत हम मानसिक व्यायाम, दिमागी कसरत के नुक्तानिगाह से कर रहे हैं वो अपने अंजाम तक पहुंचते-पहुचंते क्राइम डिटैक्शन के कम्पीटीशन की सूरत अख्तियार कर ले !”

“ये तो वांछित नहीं होगा” - आगाशे कठिन स्वर में बोला - “लेकिन फिर भी फिलहाल बेहतर यही होगा कि जो भी नये तथ्य सदस्यों की जानकारी में आयें, वो उन्हें अपने तक ही रखें । हम पुलिस की कूवत और काबलियत को कम करके न आंकें तो कह सकते हैं कि सामने आने लायक तमाम तथ्य पहले ही सामने आ चुके हैं । कोई नया तथ्य किसी सदस्य की वजह से उजागर होता है तो जरूरी नहीं कि उसका कोई सर्वव्यापी महत्व हो । किसी एक सदस्य की किसी थ्योरी को बल देने वाली कोई छोटी-मोटी बात हर किसी के काम की निकले, ये कतई जरूरी नहीं । इसलिये मेम्बराम से फिर दरख्वास्त है कि वो अपनी हासिल जानकारियों को अपने तक ही रखें । जो लोग इस इन्तजाम के खिलाफ हैं, वो बरायमेहरबानी हाथ खड़े करें ।”

दो हाथ खड़े हुए ।

एक वकील लौंगमल दासानी का और दूसरा मैजिस्ट्रेट छाया प्रजापति का ।

जाहिर था कि उनकी राय उनकी लीगल ट्रेनिंग पर आधारित थी ।

“तो फिर” - आगाशे बोला - “चार के बदले दो की मैजोरिटी वोट से ये फैसला हुआ कि हर सदस्य अपनी जानकारी अपने तक ही रखेगा । इस मीटिंग के बर्खास्त होने के बाद से जो भी नया तथ्य किसी सदस्य के हाथ लगेगा, वो उसे बाकी सदस्यों में आम करने की कोशिश नहीं करेगा । ओके ?”

“ये पाबन्दी” - अशोक प्रभाकर बोला - “मीटिंग बर्खास्त होने के बाद की है । अगर पहले, मसलन अभी, किसी को नया कुछ मालूम हो तो ?”

“तो वो उसे अभी बयान कर सकता है । हम सुनने को तैयार हैं । यूं जो कुछ हम सुनेंगे उसे हम इन्पेक्टर राजोरिया के ही बयान के विस्तार के तौर पर कबूल कर लेंगे ।”

“है भी ऐसा कुछ किसी के पास ?” - छाया प्रजापति बोली ।

“हो सकता है ।” - रुचिका केजरीवाल बोली - “इस वजह से हो सकता है क्योंकि दासानी साहब मिस्टर एण्ड मिसेज निगम से परिचित हैं । दुष्यन्त परमार को भी वो बाखूबी जानते हैं ।”

“उसे तो” - दासानी शुष्क स्वर में बोला - “तुम भी जानती हो ।”

“मैं अपना गुनाह कबूल करती हूं ।” - बड़े नाटकीय ढंग से सिर को खम देती रुचिका केसरीवाल व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोली - “मैं कबूल करती हूं कि दुष्यन्त परमार से मेरी भी वाकफियत है ।”

विवेक आगाशे मुस्कराया । रुचिका के व्यंग्य को वो बाखूबी समझ सकता था । वो क्या, कोई भी बाखूबी समझ सकता था । सारी क्लब को मालूम था कि आदत से मजबूर दुष्यन्त (लार्ड बायरन) परमार रुचिका के पीछे भी पंजे झाड़कर पड़ा था ।

रुचिका ने भी उसको खूब बढावा दिया था । दोनों में खूब मुलाकातें होती थीं, पोयेटिक डिसकशंस होती थीं, वो तमाम पैंतरे परमार रुचिका पर इस्तेमाल करता था जो कि उसे किसी युवती को समर्पण की स्टेज तक ले जाने के आते थे लेकिन बावजूद बेशुमार रंगीन, तनहा मुलाकातों के बात दोस्ती से आगे बढकर ही न दी । परमार ने अपना कवि ह्रदय पूरी तरह से उघाड़कर उसके सामने रख दिया लेकिन समर्पण तो दूर, रुचिका ने कभी उसे उंगली न पकड़ने दी ।

फिर एकाएक बिना किसी चेतावनी के, बिना किसी नोटिस के, रुचिका ने उस दोस्ती से हाथ खींच लिया । वो यूं परमार की जिन्दगी से गायब हुई जैसे कभी उसमें दाखिल ही नहीं हुई थी ।

परमार ने एक बद्मजा तजुर्बे की तरह सारे सिलसिले को भुला देना चाहा लेकिन रुचिका ने ऐसा कदम उठाया कि सिलसिला भूलना या छुपाना तो दूर, सारे संसार में उजागर हो गया । ‘एडवेंचर्स ऑफ इन्डियन लार्ड बायरन’ के शीर्षक से धारावाहिक रूप से रुचिका के अखबार भारत टाइम्स में जैसे दुष्यन्त परमार की आत्मकथा प्रकाशित हो गयी । बिना नाम लिये उसमें परमार की व्यभिचारी जिन्दगी का ऐसा कच्चा चिट्ठा खोला गया कि परमार की आत्मा त्राहि-त्राहि कर उठी । तब उसकी समझ में आया कि दिल्ली के अभिजातवर्ग की और बहन-बेटियों की तरह रुचिका उससे फंस नहीं रही थी, बल्कि अपने अखबार के माध्यम से उसके बखिये उधेड़ने के लिये, उसके निजी जीवन में झांकने की खातिर, उसे फंसा रही थी ।

उस धारावाहिक प्रकाशन ने अपने-अपने तरीकों से दुष्यन्त परमार और रुचिका केजरीवाल दोनों को बहुत प्रसिद्धि (बदनामी !) दिलायी ।

“कत्ल के नुक्तानिगाह से” - अशोक प्रभाकर बोला - “मिस्टर एण्ड मिसेज निगम का केस में दखल महज इत्तफाक की बात है । परमार और निगम इत्तफाक से एक ही क्लब के मेम्बर न होते तो मिस्टर एण्ड मिसेज निगम का तो कत्ल की उस अनोखी कोशिश से कुछ लेना-देना ही न होता ।”

“कबूल ।” - रुचिका केजरीवाल बोली - “लेकिन बात दुष्यन्त परमार की कहना चाहती थी मैं । मैं ये कहना चाहती थी कि दुष्यन्त परमार का गंदा चरित्र इस केस का महत्वपूर्ण क्लू हो सकता है । मैं ये कहना चाहती हूं कि कोई ये न समझे कि ‘एडवेंचर्स ऑफ इन्डियन लार्ड बायरन’ के प्रकाशन से उसके घिनौने चरित्र की पोल खुल जाने के बाद से वो कोई सुधर गया था । औरतों से नाजायज ताल्लुकात के मामले में आज की तारीख में परमार की नीयत कोई सुधर नहीं गयी है, मेरी राय में इसकी तसदीक दासानी साहब को करनी चाहिये ।”

“मुझे नहीं पता” - दासानी शुष्क स्वर में बोला - “कि एडवेंचर्स ऑफ इन्डियन लार्ड बारयन क्या बला है और उसमें दुष्यन्त परमार की बाबत तुमने क्या लिखा था । मैं तुम्हारा अखबार नहीं पढता ।”

“मेरा अखबार पढे बिना भी उस शख्स को उसके कारनामों समेत जाना जा सकता है ।”

“मैं नहीं जानता ।”

“जी !”

“मेरा मतलब है अच्छी तरह से नहीं जानता । वो शख्स मेरा कोई करीबी, कोई जिगरी नहीं है । और न ही उसे ऐसा बना लेने की मेरी कोई ख्वाहिश है ।”

किसी ने जुबानी कुछ न कहा लेकिन सबके चेहरों पर लिखा था कि वो दासानी की गलतबयानी से वाकिफ थे । सच्ची बात जुबान पर लाकर कोई अपने सहयोगी सदस्य को दुविधा में जो नहीं डालना चाहता था । सच्ची बात ये थी कि दासानी की इकलौती बेटी विभा दासानी उन दिनों दुष्यन्त परमार के फेमस चक्कर में पूरी तरह से आयी हुई बताई जाती थी । यहां तक अफवाह आम थी कि परमार विभा से शादी करने पर आमादा था और दासानी का उस शादी के ख्याल से खून खौलता था ।

पूछे जाने पर उसने बड़े पुरजोर लहजे से इस बात का खंडन किया था लेकिन कहने वाले तब भी कहते थे कि बात बिल्कुल ही बेबुनियाद नहीं थी ।

“मैं सिर्फ इतना जानता हूं” - लम्बी खामोशी से बौखलाकर दासानी आत्मबलरहित स्वर में बोला - “कि दुष्यन्त परमार नाम का ये शख्स एक अत्यन्त विलासी प्रवृति का निहायत जलील आदमी है जिसे न अपनी उम्र का लिहाज है और न अपने साहित्यिक रुतबे का । हर नेक शहरी को ऐसे शख्स की परछाई से भी अपने घर की बहन-बेटियों को महफूज रखना चाहिये ।”

“जो कि आप नहीं रख पा रहे हैं ।” - रुचिका धीरे से बोली ।

दासानी ने कहरभरी निगाहों से रुचिका की ओर देखा ।

बाकी चार सदस्यों की भी शिकायत करती निगाहें रुचिका की ओर उठी ।

“सारी ।” - रुचिका होंठों में बुदबुदायी ।

“हम फालतू बातों में वक्त जाया कर रहे हैं ।” - छाया प्रजापति बोली - “हमें उन तथ्यों की तरफ तवज्जो देनी चाहिये जो कि केस के हल में हमारे मददगार साबित हो सकते हैं । मसलन जो इस बात पर रोशनी डाले कि जिसके कत्ल की कोशिश हुई थी, क्या वो उस स्त्री को जानता था जिसका कि कत्ल वास्तव में हुआ था !”

“जानता तो जरूर था ।” - दासानी बोला - “भूल गया हो तो कह नहीं सकता ।”

“मतलब ?”

“मतलब ये कि कुछ अरसा पहले एक ड्रामा फैस्टिवल के दौरान मंडी हाउस पर कमानी आडीटोरियम में मैं भी मौजूद था और मिसेज अंजना निगम भी मौजूद थीं । हम दोनों लॉबी में बातचीत कर रहे थे तो दुष्यन्त परमार जबरन हमारे सिर पर आ खड़ा हुआ था । तब मजबूरन मुझे मिसेज निगम का उससे परिचय कराना पड़ा था ।”

“वो पहुंचा ही परिचय हासिल करने के लिये होगा ।” - रुचिका तिरस्कारपूर्ण स्वर में बोली - “कहीं खूबसूरत औरत दिखाई दे और वो भंवरे की तरह मंडराता उसके सिर पर न पहुंच जाये, ऐसा हो ही नहीं सकता ।”

“रुचिका, मिसेज निगम ऐसी औरत नहीं थी । परमार उसे कोई बेहूदा हिंट भी देता तो खता खाता ।”

“तभी तो बच गयी होगी ।”

“लेकिन बिन बुलायी मौत से न बच पायी ।” - सभापति आगाशे वार्तालाप का सूत्र अपने हाथ में लेने की नीयत से बोला - “बहरहाल हमारा फोकस उस पर होना चाहिये जिसका कत्ल होना था, न कि उस पर जिसका कत्ल हुआ । इसलिये लेडीज एण्ड जन्टलमैन, तवज्जो दुष्यन्त परमार पर रखिये । अब ये बताइये कि हममें से कौन दुष्यन्त परमार को जानता था ! जानता था तो क्या जानता था ! कोई ऐसी बात जानता था कोई जिसका कि इस क्राइम से कोई रिश्ता हो ?”

कोई कुछ न बोला ।

“नेवर माइन्ड ।” - आगाशे बोला - “ऐसी बातें जानने के लिये, उनको खोद निकालने के लिये हमारे पास एक हफ्ता है । एह हफ्ते का वक्त सब मेम्बरान को हासिल है केस की कैसी भी कोई तफ्तीश करने के लिये, केस की बाबत कैसी भी कोई थ्योरी स्थापित करने के लिये । एक हफ्ते के बाद यानी कि अगले सोमवार क्राइम क्लब की मीटिंग फिर होगी । फिर उसके बाद ऐसी ही एक मीटिंग हर शाम को होगी । यूं हर शाम को किसी एक मेम्बर के केस की बाबत विचार सुने जायेंगे । मंजूर ?”

तमाम सिर सहमति में हिले ।

“तो फिर अब बारी मुकर्रर करने के लिये पर्चियां डाल ली जायें ।”

पर्चियां डाली गयीं । छ: पर्चियों पर छ: नाम लिखकर एक डिब्बे में डाले गये और फिर एक-एक करके पर्चियां निकाली गयीं ।

नतीजा यूं पेश हुआ ।

एक, वकील लौंगमल दासानी ।

दो, मैजिस्ट्रेट छाया प्रजापति ।

तीन, जासूसी उपन्यासकार अशोक प्रभाकर उर्फ सुशील जैन ।

चार, प्राइवेट डिटेक्टिव विवेक आगाशे, लेफ्टीनेंट कर्नल (अवकाश प्राप्त)

पांच, क्राइम रिपोर्टर रुचिका केजरीवाल ।

छ:, मिस्ट्री फैन अभिजीत घोष ।

अपना नाम आखिर में निकला पाकर अभिजीत घोष बहुत प्रसन्न हुआ ।

“मेरी बारी आने तक तो” - वो धीरे से अशोक प्रभाकर के कान में बोला - “कोई-न-कोई केस का हल पहले ही पेश कर देगा, नतीजतन मेरे तो मुंह खोलने की भी नौबत नहीं आयेगी । ईश्वर ने ही लाज रख ली मेरी । मेरा ही नाम पहला होता तो मैं मारा गया था । बढिया हो गया ।”

अशोक प्रभाकर हंसा ।

“जिन्दगी भी कैसे-कैसे रंग दिखाती है !” - छाया प्रजापति कह रही थी - “अभी कल की बात मालूम होती है जबकि मैंने मिसेज अंजना निगम को रीगल में देखा था । उसकी मौत से एक दिन पहले सोलह नवम्बर को ‘अपराधी कौन’ के प्रीमियर शो में मैं भी आमन्त्रित थी । इत्तफाक से मैं उसी बाक्स में थी जिसमें कि मिस्टर एण्ड मिसेज निगम थे । अगर उस वक्त मुझे जरा भी अन्देशा होता कि अगले रोज अंजना ने मर जाना था...”

“तो जरूर आप उसे ये ही राय देतीं ।” - वकील ने मैजिस्ट्रेट से चुहल की - “कि चाहे कुछ भी हो जाये, मिसेज निगम; आइन्दा दिनों में चाकलेट न खाना ।”

“खाना तो” - आगाशे ने भी ठहाका लगाया - “सोराबजी एण्ड संस की बनी चाकलेट न खाना ।”

“वो भी खाना तो” - रुचिका केजरीवाल बाली - “वो ब्रांड न खाना जिसका नाम चेरी मेलबरी है ।”

“वो भी खाना तो” - अशोक प्रभाकर बोला - “फोकट में हासिल हुए डिब्बे में से मत खाना ।”

“वो भी खाना तो” - उस चुहल में भी अभिजीत घोष आखिर में बोलने वाला था - “एकाध से ज्यादा न खाना । सात तो हरागिज न खाना ।”

सबने अट्टहास लगाया ।

फिर मीटिंग बर्खास्त हो गयी ।

***

क्लब के तमाम सदस्यों के विवेक आगाशे की कोठी से रुख्सत हुए अभी पांच मिनट भी नहीं हुए थे कि इन्स्पेक्टर शिवनाथ राजोरिया वापिस आन धमका ।

“क्या बात है ?” - आगाशे हैरानी से बोला - “गये ही नहीं थे या जा के लौटे हो !”

“जा के लौटा हूं ।” - इन्स्पेक्टर बड़े इत्मीनान से बोला - “लेकिन कहीं दूर नहीं गया था । करीब ही था ।”

“कैसे आये ?”

“मीटिंग हो गयी ?”

“जाहिर है ।”

“क्या नतीजा निकला ?”

उत्तर देने के स्थान पर आगाशे केवल मुस्कराया ।

“आगाशे साहब” - इन्स्पेक्टर संजीदगी से बोला - “मेरी राय में इस केस से ताल्लुक रखने तमाम कार्यकलापों की; तमाम थ्योरियों की पुलिस को खबर होनी चाहिये । आपके मेम्बरान केस के हल की दिशा में कोई प्रॉग्रेस करते हैं तो वो प्वायंट-टु-प्वायंट हमें मालूम होनी चाहिये ।”

“क्यों ?”

“क्योंकि कातिल की शिनाख्त पर ही केस का समापन नहीं हो जाता । कातिल की शिनाख्त के बाद भी एक कदम और होता है और वही हर ऐसे केस का अहमतरीन कदम होता है ।”

“कौन सा ?”

“मुजरिम की गिरफ्तारी । अपने मेम्बरान के बीच जिस दिमागी कसरत की बुनियाद आपने रखी है, उसकी चरम सीमा मुजरिम की शिनाख्त है । आपका मकसद ये स्थापित करने से ही हल हो जाता है कि फलां आदमी ने जुर्म किया है । लेकिन पुलिस का मकसद इतने से हल नहीं होता । पुलिस ने मुजरिम को न सिर्फ गिरफ्तार करना होता है बल्कि अदालत में ‘बियांड आल रीजनेबल डाउट्स’ उसका जुर्म साबित करके दिखाना होता है और उसे सजा दिलवाना होता है ।”

“तो ?”

“तो !” - इन्स्पेक्टर तनिक हकबकाया - “तो यही कि एक नेक और जिम्मेदार शहरी की तरह आप अपना फर्ज पहचानें और आपकी आज की मीटिंग में जो कुछ डिसकस हुआ है, उसकी पुलिस को खबर करें ।”

“ये कैसे हो सकता है ?”

“आप ऐसा नहीं करेंगे तो वक्त आने पर मुजरिम को फरार हो जाने का मौका मिल जायेगा ।”

“नहीं मिलेगा । जब मुजरिम की पक्की शिनाख्त हो जायेगी तो हम उसकी खबर पुलिस को कर देंगे ।”

“लेकिन...”

“और हम क्या खबर कर देंगे ! पुलिस को तो पहले से खबर है...”

“जी !”

“कि हत्यारा कोई सिरफिरा है । रिमैम्बर ?”

“मजाक मत कीजिये । मुल्क में कोई घाटा है सिरफिरों का ! किस-किसको टटोलते फिर सकते हैं हम ?”

“यानी कि तुम्हें पुलिस की अपनी ही थ्योरी पर एतबार नहीं ?”

“एतबार है । पूरा एतबार है । लेकिन पुलिस की लिमिटेशंस से भी मैं बेखबर नहीं । हम शहर के, बल्कि सारे मुल्क के सिरफिरों को चैक नहीं कर सकते । वैसे भी ऐसे लोगों का कौन-सा कहीं रजिस्ट्रेशन हुआ हुआ है !”

“तुम्हारे कहने का मतलब ये है कि अपने इस ख्याल पर तो तुम कायम हो कि हत्यारा कोई सिरफिरा, कोई होमीसिडल मैनियाक है लेकिन वो कौन सा सिरफिरा है, इस बाबत तुम हमारी क्राइम क्लब से जानकारी हासिल होने की उम्मीद कर रहे हो ?”

“ऐसा ही समझ लीजिये ।”

“समझ लिया । अब तुम ये समझ लो कि वक्त आने पर इस समझ पर अमल हो जायेगा । अगर हम लोग कातिल की शिनाख्त कर पाये तो उसकी खबर फौरन, फौरन से पेश्तर पुलिस को की जायेगी ।”

“मेरी अभी भी ये ख्वाहिश है कि क्राइम क्लब में जो कुछ बीते, वो आप मुझे साफ-साफ, रोज-ब-रोज बतायें ।”

“सॉरी । तुम्हारी ये ख्वाहिश हम पूरी नहीं कर सकते ।”

“लेकिन...”

“राजोरिया, ये न भूलो कि खुद कमिश्नर साहब की ये ख्वाहिश है कि जब तक कोई कारआमद नतीजा सामने न आ जाये, हम लोग हर बात को, हर डिसकशन को, पूरी तरह से गोपनीय रखें ।”

“प्रेस से । पब्लिक से । पुलिस से ही नहीं !”

“पुलिस को नतीजे की - आई रिपीट, नतीजे की - खबर कर दी जायेगी ।”

“ठीक है । मर्जी आपकी । हमारा कोई जोर तो है नहीं आप पर ।”

“एक बात बताओ ।”

“पूछिये ।”

“कातिल कोई सिरफिरा है, ये तुम्हारे महकमे का ख्याल है या तुम्हारा जाती ख्याल भी यही है ?”

इन्स्पेक्टर हिचकिचाया ।

“ओह, कम आन !”

“देखिये कत्ल एक जघन्य अपराध है । किसी की जान लेने जैसा खौफनाक कदम उठाने वाला शख्स नार्मल माइन्ड वाला तो हो ही नहीं सकता । मेरे ख्याल से तो हर कातिल के दिमाग में फितूर होता है । कातिल क्या, हर मुजरिम के दिमाग में फितूर होता है ।”

“यानी कि तुम लोगों का सोचा हुआ कातिल सिरफिरा होने की वजह से कातिल नहीं, कातिल होने की वजह से सिरफिरा है ।”

इन्स्पेक्टर केवल हंसा ।

“यानी कि पुलिस का ये स्टाइल है बात को यूं लपेट कर कहने का कि उनकी नाक ऊंची रह सके और ऐसा महसूस हो कि ऐसा कोई नतीजा निकालकर वो बहुत दूर की कौड़ी लाये हैं जब कि ये बात, पुलिस का ये बयान, हर कत्ल के केस पर फिट बैठ सकता है । राइट ?”

“जनाब, अब अपने मुंह से क्या मैं अपने महकमे की सोच की पोल खोलूं ?”

“तुम्हारी जाती राय क्या है केस की बाबत ?”

“अपनी राय मैं आपको बताऊं ? जबकि आप मुझे कुछ भी नहीं बता रहे !”

“देखो, जैसे तुम्हारे पीछे पुलिस का महकमा है, ऐसे ही मेरे पीछे मेरी क्राइम क्लब है । इसीलिये मैंने तुम्हारी ‘जाती’ राय पूछी है । ‘जाती’ तौर पर । यू अन्डरस्टैण्ड माई प्वायन्ट ?”

“आई थिंक आई डू ।”

“दैन, कम आन ।”

“देखिये, ये कोई मामूली केस नहीं । ये एक निहायत पेचीदा केस है । और मेरी राय में इस केस का केन्द्रबिन्दु अगर कोई है तो वो दुष्यन्त परमार की रंगीनमिजाजी और उसकी निहायत काबिलेएतराज जिन्दगी है । यही बात पुलिस के लिए हैंडीकैप भी है । हम परमार की जाती जिन्दगी में जबरन घुसपैठ नहीं कर सकते ।”

“वो सहयोग नहीं देता ?”

“बिल्कुल नहीं देता । अपनी जाती जिन्दगी की बाबत किसी सवाल का जवाब नहीं देता वो । उलटे धमकाता है कि अगर उसे ऐसे सवाल कर-कर के हलकान किया जाना न छोड़ा गया तो वो लेफ्टीनेंट गवर्नर से शिकायत करेगा, वो आथर्स गिल्ड के माध्यम से प्रधानमन्त्री तक पहुंचेगा ।”

“पहुंच सकता है ?”

“पहुंच तो सकता है । मौजूदा सरकार को लेखकों और कलाकारों की बहुत कद्र जो है ।”

“यानी कि विख्यात कवि एवं नाटककार दुष्यन्त परमार से पुलिस ने हार मान ली !”

“यही समझ लीजिये मोटे तौर पर ।”

“जबकि प्रत्यक्ष में नहीं तो परोक्ष में इसी शख्स की वजह से मिसेज अंजना निगम नाम की मासूम औरत की जान गयी है !”

“हां ।”

“उसे उस बात का अहसास है ?”

“होना ही चाहिये । जरूर होगा ।”

“फिर भी वो पुलिस को सहयोग देने को तैयार नहीं ?”

“सहयोग देने को तैयार है लेकिन अपनी जाती जिन्दगी में झांकने देने को तैयार नहीं । कहता है उन बातों का वारदात से कुछ लेना-देना नहीं ।”

“जबकि लेना-देना हो सकता है ?”

“बिल्कुल हो सकता है । इसी वजह से हमने कान को दूसरे तरीके से पकड़ने की कोशिश की । हमने उन लोगों से परमार की जाती जिन्दगी की बाबत सवाल किये जो कि उसके नजदीकी माने जाते हैं । यूं उसके एक दो स्कैण्डल, एक दो घिनौने कृत्य हमारी जानकारी में तो आये लेकिन वो ऐसे थे कि हम उनका मिसेज निगम के कत्ल से कोई रिश्ता न जोड़ पाये ।”

“ओह !”

“जनाब, मेरी आपको यही राय है कि अगर आप अपनी कोशिशों से केस की तह तक पहुंचना चाहते हैं तो दुष्यन्त परमार के ही पीछे पड़िये और जैसे भी हो सके उसकी जाती जिन्दगी के बखिये उधेड़िये । यही एक काम है जिसे अंजाम देने में पुलिस फेल हुई है लेकिन आप कामयाब हो सकते हैं ।”

“मुझे तुम्हारी राय से पूरा-पूरा इत्तफाक है ।” - आगाशे बड़ी संजीदगी से बोला - “मेरा खुद का भी यही ख्याल है कि इस रहस्य की कुंजी दुष्यन्त परमार की प्राइवेट लाइफ ही है । उसकी प्राइवेट लाइफ से ताल्लुक रखते किसी शख्स ने ही उसे जहन्नुमुरसीद करने की कोशिश की थी लेकिन परमार की खुशकिस्मती से स्कीम बैकफायर कर गयी और जान किसी और की चली गयी ।”

इन्स्पेक्टर ने सहमति में सिर हिलाया ।

“ठीक है” - फिर आगाशे निर्णयात्मक स्वर में बोला - “मैं पंजे झाड़कर इस दुष्यन्त परमार के पीछे पडूंगा ।”