धड़ाम !
कानों के पर्दों को हिला देने वाला एक ऐसा भयानक विस्फोट
हुआ, जिसने वहां उपस्थित अनेकों प्राणियों को न सिर्फ चौका दिया, बल्कि बुरी तरह भयभीत
भी कर दिया।
मेहमान भयभीत होकर इधर-उधर भागने लगे।
इस विस्फोट के सबसे निकट विकास था--- परन्तु वह खतरनाक लड़का
भला इतना शरीफ कहां था कि उसकी चपेट में आता !
विस्फोट होते ही उसने भयानक जिन्न की भांति रिक्त वायुमंडल
में ठीक किसी नट की भांति दो-तीन कला दिखाई और अगले ही पल वह उस विस्फोट वाले स्थान
से सबसे अधिक दूर था।
जब विस्फोट हुआ तो विकास के दाएं-बाएं रैना और रघुनाथ खड़े
थे, उन दोनों में से कोई भी कुछ न समझ सका कि यह यकायक क्या हुआ, अत: वे लोग विस्फोट
वाले स्थान से दूर भी कुछ न हो सके, परंतु विस्फोट उनके अत्यधिक निकट होने के पश्चात
भी उन्हें किसी प्रकार की लेशमात्र भी हानि न पहुंची।
चौंका विजय भी था, किंतु न तो कोई ऐसा कार्य था जो वह करता
और न ही वह कुछ समझ सका।
यह विस्फोट अचानक हुआ था। विजय भी सतर्क हो गया था, परंतु
इस जोरदार धमाके के उपरांत अन्य किसी नवीन अथवा खतरनाक घटना ने जन्म नहीं लिया।
आज विकास का तेरहवां जन्म दिवस था और इस खतरनाक लड़के के
जन्म दिवस पर इस प्रकार की खौफनाक घटना का होना कोई आश्चर्य की बात न थी, क्योंकि उसके
प्रत्येक जन्म दिवस पर अपराधी जगत के हीरे यानी एक-से-एक खूंखार अपराधी उसे आशीर्वाद
देने आया करते थे और सबसे बड़ी विशेषता ये थी कि उस दिन कोई भी अपराधी इस प्रकार का
कोई भी अपराध नहीं करता था, जिससे साधारण जनता को किसी प्रकार की हानि हो, लेकिन आज...
यानी इस तेरहवें जन्म दिवस पर वे सभी अपराधी आ चुके थे, जो अक्सर आया करते थे। जिनमें
विशेष सिंगही, जैक्सन और अलफांसे इत्यादि हैं।
ऐसे सभी भयानक अपराधी अपने विचित्र ढंग से विकास को आशीर्वाद
देकर चले जाते थे। परंतु अब... यानी सबके पश्चात अब तक समस्त मेहमान निश्चिंत हो चुके
थे कि अब कोई नहीं आएगा और इसी भयानक विस्फोट ने न सिर्फ सबको चौंका दिया, बल्कि भयानक
आतंक भी फैला दिया था।
हमेशा की भांति समारोह में विजय के साथ उसके दोस्तों के रूप
में अशरफ, ब्लैक ब्वॉय और आशा इत्यादि सभी सीक्रेट सर्विस के जांबाज, विजय के पिता
ठाकुर साहब और उनकी पत्नी विजय की माताजी इत्यादि सभी उपस्थित थे।
सभी कार्य विकास के पूर्व जन्म-दिवसों की भांति सुचारु रूप
से चल रहा था। अबकी बार विजय और विकास की नोंकझोंक हो चुकी थी। विजय ने दो-चार झकझकियां
सुनाई तो उत्तर में विकास ने दस-बीस दिलजलियां सुनाकर विजय की बुद्धि का दिवाला निकाल
दिया था।
वैसे विजय जान चुका था कि विकास अपने ढंग का एक अनोखा ही
बालक है।
'दहकते शहर' और 'आग के बेटे' नामक इन दो अभियानों में ही
विकास ने कुछ इस प्रकार के खतरनाक कारनामे किए थे कि विजय स्वयं उसकी विलक्षण बुद्धि
पर दांतों तले उंगली दबाकर रह गया था।
'विकास के बारे में वैसे तो आप परिचित होंगे ही, लेकिन अगर
आप मेरा यह उपन्यास पहली बार पढ़ रहे हैं तो आप 'विकास' के बारे में विस्तारपूर्वक जानने
के लिए 'दहकते शहर' और 'आग के बेटे' अवश्य पढ़ें। दोनों ही उपन्यास राजा पॉकेट बुक्स
में प्रकाशित हो चुके हैं।
खैर यह भयानक, कानों के पर्दों को कंपकंपा देने वाला विस्फोट
उस समय हुआ, जब प्रसन्नता में डूबे समस्त मेहमानों ने विकास को ले जाकर केक के पास
खड़ा कर दिया और उसे काटने का अनुरोध किया।
उस समय रघुनाथ और रैना उसके दाएं-बाएं खड़े थे। विजय विकास
के ठीक सामने उस लंबी मेज के पास खड़ा था, जिस पर वह केक रखा था।
विस्फोट ठीक उस समय हुआ, जब विकास ने छुरी उठाकर उस केक से
स्पर्श की!
बस.. उसी क्षण !
जैसे ही छुरी केक से स्पर्श हुई, अचानक एक भयानक विस्फोट
के कारण वह केक चीथड़े चीथड़े हो गया। आग की भी कोई चिंगारी नहीं लपकी ।
इस भयानक विस्फोट के होते ही विकास तो हवा में कला खाता हुआ
दूर चला ही गया, परंतु वहां खड़े रह गए मेहमानों में से भी किसी को कोई विशेष हानि
न हुई। सिर्फ इसके कि उन सभी की स्थिति हास्यास्पद थी।
हास्यास्पद इसलिए कि विस्फोट के कारण केक के टुकड़े चीथड़ों
के रूप में इधर-उधर छिटके और कुछ पास खड़े मेहमानों के चेहरे की शोभा बने हुए थे तो
कुछों ने उनके नए कपड़ों के सौंदर्य में चार चांद लगा दिए । -
केक का कोई चीथड़ा किसी की आंख पर जाकर लटक गया तो किसी ने
उसके होंठों को बंद कर दिया।
अचानक ठाकुर साहब बोले ।
"अरे! वह क्या?"
विजय के साथ सभी की निगाहें उस ओर स्थिर हो गई, जिधर ठाकुर
साहब ने अपने शब्दों के साथ संकेत किया था।
सबकी दृष्टियां एक कागज पर जमी हुई थीं, जो उस मेज के एक
कोने पर पड़ा था। कागज ऐसा था, जिस पर साधारण द्रव्य कोई प्रभाव न डाल सके। वह तह किया
हुआ था।
विजय ने हाथ बढ़ाकर उसे उठा लिया और खोलकर पढ़ा तो वह इंग्लिश
में लिखा था। जिसका हिंदी में अनुवाद कुछ इस प्रकार था ।
'प्यारे कानून के ठेकेदारो!
सर्वप्रथम आप सब लोगों को मेरी तरफ से पुंगी-पुंगी। अब शायद
आप लोग सोच रहे हैं कि ये पुंगी-पुंगी क्या बला है ? तो साहबानो... ये कोई बला नहीं
बल्कि मेरी भाषा में आप लोगों को प्रणाम है। खैर छोड़िए इस पुंगी-पुंगी की पूंछ को।
अब आओ, कुछ काम की बात करें।
हां, तो मैं स्वयं को सिर्फ टुम्बकटू कहता हूं परंतु यार
लोगों ने इस टुम्बकटू के आगे कुछ अन्य शब्द लगा दिए हैं। यार लोग इस टुम्बकदू को 'छलावा
अपराधी टुम्बकटू? कहते हैं। अब आप सोच रहे हैं कि मैं यहां क्या मटर गुना रहा हूं।
तो जनाब, इस प्रश्न का उत्तर सिर्फ ये है कि मैंने ये सुना था कि विकास के जन्म दिन
पर विश्व के बड़े-बड़े अपराधी आकर उसे आशीर्वाद देते हैं। और मैं यानी टुम्बकटू यहां
इसलिए आया था कि उन महान विभूतियों के दर्शन कर लूं, क्योंकि मैं इस पत्र के माध्यम
से धरती के समस्त देशों की सरकार के साथ-साथ अपराधी जगत के भयानक-से- भयानक अपराधी
को चैलेंज दे रहा हूं। चैलेंज ये है कि जिसमें भी शक्ति हो, वह मेरा यानी टुम्बकटू
का खून कर दे!
शायद आप मेरे विचित्र चैलेंज को सुनकर फिर चौक पड़े ! चौंकिए
नहीं जनाब, घबराइए भी नहीं! मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि संसार का कोई भी प्राणी
टुम्बकटू का खून नहीं कर सकता। मेरा खून करने में किसी प्रकार की बंदिश भी नहीं है,
खून एक व्यक्ति भी कर सकता है और अनेक भी। धोखे से भी कर सकते हो! पूरी फौज भी कर सकती
है और पूरा देश भी। बस न चले तो समूचा विश्व भी मेरा खून करने का प्रयास करे...
अब आप लोग सोच रहे होंगे कि मेरा खून करने से आप
लोगों को क्या लाभ होगा? तो जनाब! मेरा खून करने पर लाभ इतना
होगा कि समूचे विश्व के लिए मैं अपने पीछे एक ऐसी वस्तु छोड़ जाऊंगा, जो विश्व के लिए
न सिर्फ अत्यधिक उपयोगी बल्कि ऐसी वस्तु होगी, जिसे प्राप्त करके धरती का मानव शायद
ईश्वर बन जाए। वास्तव में मेरे पास एक नहीं बल्कि अनेक ऐसी वस्तुओं का खजाना है, जिसे
प्राप्त करने के पश्चात मानव ईश्वर को भी परास्त कर सकता है। उस एक विशेष वस्तु के
साथ-साथ उस खजाने में इतना धन भी है कि... सच मानना, उस धन से समस्त विश्व को खरीदा
जा सकता है। इतना धन है कि समूची धरती का धन भी एकत्रित कर लिया जाए तो उसका दसवां
भाग भी न बैठे। यह धन हीरो और पन्नों के रूप में है। आप लोग अभी तक सिर्फ कोहिनूर हीरे
को ही सर्वश्रेष्ठ हीरा मानते हैं परंतु जब उस खजाने में पड़े अरबों हीरों को देखोगे,
जो एक-से-एक बढ़कर हैं, तो कोहिनूर का हीरा महज कांच का टुकड़ा प्रतीत होगा। उस खजाने
में इतनी धनराशि है कि आप लोग कल्पना भी नहीं कर सकते। साथ ही एक ऐसी वस्तु भी है जिसे
प्राप्त करने के पश्चात निश्चित रूप से, आप सच मानिए, मानव ईश्वर से भी कहीं अधिक महान
बन जाएगा, इंसान भगवान पर विजय प्राप्त कर लेगा। इस बात को सच मानिए कि वास्तव में
मैं एक ऐसे खजाने का पता जानता हूं। लेकिन सावधान!
ये मत समझो कि यह खजाना तुम्हें इस सरलता से प्राप्त हो जाएगा।
इस खजाने तक पहुंचने हेतु नक्शा अथवा मार्ग के विषय में समूची जानकारी मेरे पास है,
जो सिर्फ मेरी हत्या करने के पश्चात ही प्राप्त हो सकता है। क्योंकि उस नक्शे की माइक्रोफिल्म
को मैंने ऑपरेशन करके अपनी दाई जांघ में छुपा लिया है। यूं तो आज यहां मैंने सिंगही,
प्रिंसेज ऑफ मर्डरलैंड यानी जैक्सन और अलफांसे जैसे अपराधी जगत के अनेक हीरों को देखा
और वास्तविकता ये है कि मुझे उनमें से किसी में भी ऐसी विशेषता नजर नहीं आई, जिसके
कारण मैं यह मान सकूं कि वे वास्तव में अपराधी हैं। वैसे उसे मैं अपने दिल से बहादुर
मानूंगा, जो मेरे जीवित रहते हुए ही मेरी जांघ में रखी उस माइक्रोफिल्म तक पहुंच जाएगा।
मैं ये भी वादा करता हूं कि जो मेरे जीवित रहते हुए मेरी जांघ से फिल्म निकाल लेगा,
मैं दिल से उसे अपना गुरु मानकर हमेशा उसके गुलाम की भांति रहूंगा।
एक अन्य बात और भी कहना चाहता हूं। वह यह कि मैं खुलेआम सड़कों
पर घूमूंगा, किसी में भी अगर प्रतिभा है तो अपनी इच्छानुसार किसी भी प्रकार वह माइक्रोफिल्म
प्राप्त कर ले। में एक बार फिर समूचे विश्व को चैलेंज करता हूं कि अगर समूचा विश्व
भी संगठित होकर इस नक्शे को प्राप्त कर सके, तो करे। अच्छा प्यारे विश्व - निवासियो,
अब फिलहाल पत्र बंद कर रहा हूं। सुट्टम-सुट्टा... अंतिम शब्द का अर्थ मेरी भाषा में
विदाई है।
विश्व का दुश्मन, छलावा अपराधी --- टुम्बकटू।'
***
बात उस समय की है, जब विकास दूसरा केक काटने के लिए चला,
इस बार किसी को भी किसी घटना की आशा न थी। परंतु उस समय!
जब विकास छुरी से केक काटना ही चाहता था।
एकाएक सब लोग बुरी तरह से चौंके ।
कुछों की चीखें निकल गई।
विकास जंप लगाता हुआ फिर मेहमानों के पीछे जा गिरा। मेहमान
भयभीत होकर पीछे हट गए।
ठाकुर साहब के हाथ में रिवॉल्वर आ गया। सबकी दृष्टि उस दृश्य
पर जमी हुई थी।
हुआ यूं कि जैसे ही विकास केक काटने हेतु मेज के निकट पहुंचा
कि मेज पहले तो आश्चर्यजनक ढंग से हिली, और फिर धीमे-धीमे ऊपर उठने लगी। कुछ देर तक
तो ये ही समझ में नहीं आ रहा था कि मेज ऊपर कैसे उठने लगी, परंतु जब मेज काफी ऊपर उठ
गई तो मेज के नीचे किसी की लंबी-लंबी टांगे नजर आई। शायद मेज के नीचे कोई इंसान था,
जो ऐन वक्त पर मेज को सिर पर उठाकर खड़ा हो रहा था।
सभी लोग उस व्यक्ति की विचित्र हरकत को देख रहे थे । अभी
किसी को भी उसका चेहरा दृष्टिगोचर नहीं हो रहा था।
मेज फर्श से लगभग सात फीट ऊपर जाकर स्थिर हो गई और अचानक
उस अपरिचित ने अपने सिर को एक तीव्र झटका दिया, परिणामस्वरूप मेज हवा में लहराई। उधर
के इंसान चीख मारकर एक तरफ हो गए और मेज धड़ाम से फर्श पर गिरी । केक एक बार फिर फर्श
पर पर बिखर गया ।
एक पल के लिए लोगों का ध्यान उस मेज की ओर गया, परंतु अगले
ही पल सबकी दृष्टियां घूमकर फिर उस अपरिचित पर स्थिर हो गई। ठाकुर साहब और विजय की
दृष्टियां जैसे ही उस व्यक्ति पर पड़ी तो दोनों की आंखों में आश्चर्य उभर आया।
मेज फेंकने वाला अपरिचित स्वयं तो एक नमूना था ही, साथ ही
उसका परिधान भी उसके नमूने में चार चांद लगा रहा था। उन लोगों के सामने एक पतला-दुबला
मरियल-सा व्यक्ति खड़ा था। उसका कद सात फीट था, चेहरा लंबूतरा ।
यहां उपस्थित किसी भी व्यक्ति ने शायद अपने जीवन में उस व्यक्ति
से अधिक अथवा उसके जैसा पतला व्यक्ति न देखा होगा।
गन्ने की भांति तना हुआ उसका बदन ऐसा लगता था, जैसे बस किसी
गन्ने की भांति ही कट से दो भागों में विभक्त हो जाएगा। शुतुरमुर्गी लंबी व पतली गरदन
पर उसका पतला चेहरा ऐसा लगता था, जैसे किसी ने लटका दिया हो! लंबूतरे चेहरे पर नाक
मानो लटक रही थी, कान कुछ बड़े थे। आँखें छोटी-छोटी, परंतु बेहद चमकीली थीं। वास्तव
में उसकी आखों में बेहद गजब की चमक थी। एक ऐसी चमक, जो इंसान को बरबस ही अपनी ओर आकर्षित
कर ले। उसकी पतली-पतली कलाइयों के आगे दोनों हाथों की उंगलियों की संख्या बीस थी, बीसों
उंगलियों के नाखून बढ्कर उसकी उंगलियों से भी बड़े हो गए थे (नाखून सख्त होने के कारण
लटक नहीं रहे थे, बल्कि सीधे तने हुए थे। पुटे हुए सिर पर लंबे, परंतु अस्त-व्यस्त-से
बाल थे।
यह तो थी उसके जिस्म की बनावट, जो उसे इंसान कम और नमूना
अधिक कहने के लिए हमें बाध्य कर रही है और उसके जिस्म पर मौजूद परिधान तो ऐसा था कि
विजय का दिल चाहा कि वह खुलकर एक ऐसा अट्टहास लगाए कि उसकी आवाज से सामने खड़ा यह गन्ने
जैसा मानव लहराकर फर्श पर गिर पड़े ।
उसके लंबे और पतले जिस्म पर लटका हुआ कोट ऐसा प्रतीत होता
था, जैसे किसी हैंगर पर लटका हो। शायद ही संसार का ऐसा कोई रंग हो जो उसके इस कोट में
देखने को न मिलता हो। ऐसा लगता था जैसे बड़े कठिन परिश्रम के पश्चात उसने समूची दुनिया
के रंगों के नमूने एकत्रित किए और फिर उसका कोट सिलवा लिया। उसकी पतली-पतली गन्ने की
भांति तनी हुई टांगों में कुछ ऐसे रंग की पैंट थी, जिसे किसी भी रंग की संज्ञा देने
में दिल नहीं ठुकता था। कुछ विचित्र - से रंग की पैंट थी व उसके लंबे पैरों में विचित्र
किस्म के जूते थे। वास्तविकता तो ये थी कि उन्हें जूते कहते हुए भी मन नहीं ठुकता,
परंतु हम क्योंकि उनका नाम नहीं जानते तो अपनी भाषा में फिलहाल हम उन्हें जूते ही कहेंगे।
उसके जूतों का रंग ही दुनिया से नदारद था।
तो यह थी उसकी विचित्र हास्यास्पद वेशभूषा, ऐसी कि प्रत्येक
इंसान कहकहा लगाने के लिए बाध्य हो जाए, परंतु समय की गंभीरता को देखते हुए कहकहा तो
किसी ने नहीं लगाया, बल्कि आश्चर्य के साथ खड़े हुए उसे घूर अवश्य रहे थे। उस नमूने
के होंठों पर ऐसी मुस्कान थी, मानो उसने मेज फेंककर हिमालय पर्वत एक तरफ फेंकने जैसा
महान कार्य किया हो। कुछ पल तक तो उपस्थित लोग उस अजीब नमूने को देखते रहे। इस मौनता
को सर्वप्रथम भंग करने का श्रेय ठाकुर साहब को प्राप्त हुआ। अपने रिवॉल्वर को संभालते
हुए वे कुछ आगे बढ़कर बोले।
-"कौन हो तुम?"
-" बंदे को टुम्बकटू कहते हैं।" वह अदब से झुककर
बोला।
उसकी आवाज में ऐसी तीव्र व भयानक घरघराहट थी, मानो फुल आवाज
पर खुला रेडियो अचानक खराब हो गया हो! परंतु घरधराहट होने पर भी उसका प्रत्येक शब्द
स्पष्ट था।
ये बात अवश्य है कि उसके नाम बताते ही लोगों ने बहुत चाहा
कि अपना कहकहा रोकें, परंतु कोई भी स्वयं पर संयम न पा सका और अगले ही पल वहां कहकहों
का साम्राज्य था। विजय भी उसकी बात पर हंसा तो नि:संदेह था, किंतु उसके इन शब्दों ने
विजय के मस्तिष्क में उथल-पुथल- सी मचा दी थी। कुछ देर तक तो हॉल में कहकहों का साम्राज्य
रहा, फिर ठाकुर साहब कुछ और आगे बढ़कर बोले -- -----"क्या बकते हो----सच बोलो,
कौन हो तुम?"
"मै पहले ही नाम बता चुका हूँ।" फिर वही भयानक
घरघराहट।
"तो तुम वही टुम्बकटू हो, जिसने विश्व को चैलेंज दिया
है?'' ठाकुर साहब व्यंग्यात्मक लहजे में उसे घूरते हुए बोले ।
"क्या आपको कोई संदेह है?'' टुम्बकटू मुस्कराता हुआ
बोला।
"लेकिन यहां इस बेहूदगी का क्या अर्थ..?"
"किस बेवकूफ ने आपको आई.जी. बना दिया?"
टुम्बकटू उसी प्रकार मुस्कराता हुआ बोला--- "मैंने अपने
पत्र में लिखा है कि मैं खुली सड़क पर घूमूंगा, अगर आपमें बुद्धि होती तो अभी तक मुझ
पर फायर कर देते ।"
उसके इन शब्दों पर तो ठाकुर साहब के तन-बदन में आग लग गई।
उनकी आंखें क्रोध से दहकने लगी, जिस्म कांपने लगा, चेहरा क्रोध से कनपटी तक लाल हो
गया, लगभग चीखते हुए वे बोले-- -"क्यों बेकार मरना चाहते हो बेवकूफ व्यक्ति?"
" मैं इसी तरह खुले रूप से प्रत्येक देश के कानून का
उल्लंघन करूंगा।" टुम्बकटू फिर उसी प्रकार मुस्कराता हुआ बोला-----" और मुझे
ये विश्वास है कि जब तक धरती पर आप जैसे मूर्ख पुलिस अधिकारी हैं, तब तक टुम्बकटू को
तुम लोग नहीं मार सकते।"
ठाकुर साहब उसके मुंह से स्वयं को गाली न सुन सके, उनका क्रोध
चरम सीमा पर पहुंच गया। उन्होंने फायर करने हेतु जैसे ही अपना हाथ आगे बढ़ाया।
उनकी आखें तो हैरत से फैल गई।
हुआ यूं कि जैसे ही ठाकुर साहब ने फायर करने हेतु रिवॉल्वर
का रुख टुम्बकटू की ओर करना चाहा, वैसे ही टुम्बकदू ने अपना पतला हाथ रिवॉल्वर की ओर
कर दिया और रिवॉल्वर आश्चर्यजनक रूप से ठाकुर साहब के हाथ से निकलकर क्षणमात्र के भी
सौंवें भाग तक वायु में नजर आया और अगले ही पल रिवॉल्वर टुम्बकटू की उंगलियों से चिपका
हुआ था।
यह सब पलक झपकते ही हो गया था, शायद ही किसी ने रिवॉल्वर
को वायु में लहराते देखा हो ।
ठाकुर साहब ने लाख चाहा था कि रिवॉल्वर को अपने हाथ से न
निकलने दे किंतु वे रोक न सके। रिवॉल्वर उनके हाथ से ऐसा निकला मानो किसी अदृश्य शक्ति
ने उसे अपनी ओर खींच लिया हो। रिवॉल्वर टुम्बकटू की उंगलियों से लिपटा हुआ था। वह ठाकुर
साहब की ओर देखकर व्यंग्यात्मक लहजे में बोला----- "आपको रिवॉल्वर पकड़ना तक नहीं
आता, आप भला फायर क्या करेंगे?"
टुम्बकटू के इन शब्दों ने तो ठाकुर साहब के तन-बदन में मानो
एकदम आग लगा दी थी.. . क्रोध में |
पलक झपकते ही, भयानक फुर्ती के साथ उन्होंने टुम्बकटू पर
जंप लगा दी।
परंतु उफ्...!
टुम्बकटू मरियल-सा व्यक्ति था अथवा भयानक फुर्तीला छलावा-----कोई
निश्चय न कर सका। कोई न देख सका कि कब उस भयानक छलावे ने अपना स्थान छोड़ दिया।
पलकें झपकीं ।
स्थिति एकदम आश्चर्य से परिपूर्ण और विपरीत थी। इस
समय ठाकुर साहब औंधेमुंह पड़े हुए रिक्त फर्श चाट रहे थे,
जबकि टुम्बकटू उनके पीछे खड़ा हुआ मजे में कह रहा था।
"अरे, आप वहां क्या कर रहे हैं? मैं तो यहां हूं आपके
पीछे।"
समस्त मेहमान आश्चर्यचकित रह गए। उनकी समझ में नहीं आया कि
वे गंभीर रहें अथवा हंसे । स्थिति तो गंभीर रहने की थी, परंतु टुम्बकटू की प्रत्येक
हरकत और उसके शब्द लोगों को कहकहा लगाने के लिए विवश कर रहे थे।
***
स्वयं विजय हतप्रभ रह गया। वह जान गया कि वास्तव में टुम्बकटू
को 'छलावा अपराधी' ठीक ही कहा जाता है। वास्तव में उसने छलावे से भी कहीं अधिक फुर्ती
का परिचय दिया था। उसके जहन में एकदम आया कि यह टुम्बकटू अत्यधिक भयानक है!
इससे पूर्व कि ठाकुर साहब स्वयं खड़े हों अथवा टुम्बकदू कुछ
करे, विजय ने तुरंत ब्लैक ब्वॉय व अन्य सीक्रेट एजेंटों को गुप्त संकेत किया और अगले
ही पल टुम्बकदू सीक्रेट सर्विस के जासूसों के रिवॉल्वरों के साए में था। उसके चारों
ओर विजय, अशरफ, ब्लैक ब्वॉय, विक्रम, नाहर और आशा इत्यादि खड़े थे। विजय आगे बढ्कर
अपने ही अंदाज में बोला--- "बहुत हो चुका प्यारे टुम्बकटू! अब अगर तुमने कोई भी
गलत हरकत करने की चेष्टा की तो तुम्हारे चारों ओर तने हुए रिवॉल्वर तुम्हें खुदागंज
पहुंचा देंगे।"
"बिल्कुल ठीक!" टुम्बकटू अर्थपूर्ण ढंग से मुस्कराता
हुआ मस्ती में बोला- "पिता की यह स्थिति देखकर बेटे का खून खौलना स्वाभाविक है
। "
"बेटा टुम्बकटू !" विजय भी अपने नाम का बस एक ही
विजय था-----''जब चारों ओर से गोलियां चलती हैं तो इंसान का खुदागंज पहुंचना भी स्वाभाविक
है।"
"लेकिन टुम्बकटू का नहीं।" टुम्बकटू पर किसी भी
बात का लेशमात्र भी तो प्रभाव न पड़ रहा था, ऐसा लगता था मानो उसे रिवॉल्वरों की कोई
चिंता ही न हो। अभी वह मस्ती में कुछ कहने जा रहा था कि !
अचानक!
विकास... यानी उस खतरनाक लड़के का भयानक दुस्साहस!
मौत से भयानक शातिर की भांति विकास ने चमत्कृत कर देने वाले
ढंग से हवा में जंप लगाई और इससे पहले कि कोई भी कुछ समझ सके--- हवा में ठीक जिन्न
की भांति लहराता हुआ वह लड़का टुम्बकटू के गन्ने की भांति खड़े जिस्म पर आ गिरा।
टुम्बकटू शायद सब ओर से सतर्क था, किंतु इस बालक से उसे ऐसी
खौफनाक हरकत की आशा कदापि न थी। तभी तो वह भयानक छलावे जैसा विचित्र अपराधी हल्की-सी
मात खा गया था।
परंतु अगले ही पल बाजी फिर टुम्बकटू ही के हाथ में थी।
हुआ यूं कि जैसे ही वायु में लहराता हुआ विकास टुम्बकटू के
मरियल -----से जिस्म पर गिरा ----- उस समय विकास को ऐसा लगा मानो वह किसी सख्त पत्थर
पर आ गिरा है। परंतु विकास भी लाखों में एक था। वह लेशमात्र भी नहीं घबराया, बल्कि
उसने तुरंत संभलकर टुम्बकटू के पतले जिस्म को अपनी टांगों के बीच में फंसाना चाहा,
परंतु तब तक भयानक छलावा अपराधी टुम्बकटू अपनी हरकत दिखा गया था।
इससे पूर्व कि विकास अपने इरादों में सफल हो सके, अचानक टुम्बकटू
की पतली-पतली दाएं हाथ की दस उंगलियों ने एक हल्की चपत विकास के सिर पर मारी तथा साथ
ही साधारण तरीके से मुस्कराकर बोला।
" बच्चों को बड़ों के बीच में शरारत शोभा नहीं देती।"
टुम्बकटू ने अपनी ओर से तो यह चपत काफी धीमे से मारी थी,
किन्तु इसका क्या किया जाए कि विकास को यह चपत ऐसी लगी, जैसे किसी ने कसकर लोहे का
हथौड़ा उसके सिर पर मारा हो। परिणामस्वरूप उसके नेत्रों के आगे लाल-पीले तारे नृत्य
करने लगे और अगले ही पल सब कुछ अंधकार में बदल गया। विकास ने बहुत चाहा कि वह स्वयं
को संभाल सके, परंतु वह असफल रहा। एक ही चपत में उसके नेत्रों के आगे का अंधकार काजल
की भांति अत्यधिक गाढ़ा हो गया और फिर बिना कोई विशेष हरकत किए वह लहराकर फर्श पर गिरा।
विकास अचेत हो गया था।
टुम्बकटू आश्चर्य के साथ फर्श पर पड़े विकास को घूरता हुआ
मुस्कराकर विजय की ओर संबोधित होकर बोला ।
-----"अब तुम्हीं बताओ विजय, क्या बच्चों को बड़ों के
बीच में आना चाहिए?''
विजय स्वयं चकराकर रह गया । विजय का तो जीवन ही ऐसा था कि
उसने एक-से-एक भयानक, खूंखार और खौफनाक. अपराधी देखे थे। परंतु अब जो नमूना उसके सामने
खड़ा था। यानी टुम्बकटू जैसा विचित्र अपराधी उसने अपने समूचे जीवन में ----- आज से
पूर्व कभी नहीं देखा था।
यह व्यक्ति एकदम विचित्र था।
उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह टुम्बकटू को जोकर समझे,
सनकी कहे अथवा भयानक अपराधियों की श्रेणी में ले! उसे ऐसा लग रहा था, जैसे सिंगही और
जैक्सन जैसे महान अपराधी भी इस जोकरनुमा हंसमुख और भयानक अपराधी टुम्बकटू को पराजित
न कर सकेंगे। इस ओर से मस्तिष्क हटाकर वह तुरंत टुम्बकटू से संबोधित होकर अपनी आदतानुसार
उसका नाम बिगाड़कर बोला ।
-----"बेटा टुम्बकटू... लगता है तुम भी खलीफा हो ।"
"क्यों, क्या अभी से हार मान गए?" टुम्बकटू मुस्कराता
हुआ बोला।
"तुम खलीफा हो तो हम खलीफा के बाप हैं बेटे टुम्बकटू।"
विजय मुस्कराकर सतर्क दृष्टि से बोला-----"हमने आज तक हार नहीं मानी।"
'और टुम्बकटू के लिए तुम मच्छर से अधिक महत्त्व नहीं रखते।"
टुम्बकटू उसी प्रकार मस्ती में मुस्कराता हुआ बोला। उसके चेहरे पर उपस्थित भावों में
कोई भी चिह ऐसा न था, जिससे प्रतीत हो कि वह रिवॉल्वरों के साए में है।
" प्यारे टुम्बकटू !" विजय मुस्कराते हुए बोला-
"पहले हम अमन- शांति से काम करते हैं----- लेकिन जब उससे काम नहीं चलता तो हिंसा
भी जानते हैं।"
-"प्यारे झकझकिए !" इस बार टुम्बकटू ने भी विजय
के लिए नया ही संबोधन निकाला ----- "वास्तव में पागल तुम भी कम नहीं हो -----
अगर बुद्धिमान हो तो अमन-शांति जैसे शब्दों को भूल जाओ और सिर्फ हिंसा का दामन थाम
लो। सच पूछो तो मुझे अमन और शांति जरा भी पसंद नहीं है, मैं तो हिंसा का पुजारी हूं।"
" तो प्यारे, इसका मतलब तुम बातों के भूत नहीं हो?"
----- "शायद लातों का भी नहीं।" टुम्बकटू उसी प्रकार
मुस्कराकर बोला।
"तो फिर प्यारे, तैयार हो जाओ।" विजय ध्यान से
स्थिति का निरीक्षण करता हुआ बोला। उसने देख लिया था कि जहां टुम्बकटू खड़ा है-----वहां
अन्य कोई नहीं है --- सिर्फ विकास है-----जो फर्श पर अचेत स्थिति में पड़ा है। अब वह
टुम्बकटू से टकराने का निश्चय कर चुका था।
सब लोग सिमटकर हॉल में कोनों में धंस गए थे।
ठाकुर साहब आश्चर्य से आंखें फाड़े अपने नालायक पुत्र की
कारगुजारी देख रहे थे।
"तैयार तो मैं हूं ही प्यारे झकझकिए !' टुम्बकटू बिना
प्रभावित हुए बोला-----"वैसे मैं तुम्हें यह बता दूं
कि मैं यहां से किसी भी एक व्यक्ति को ले जाऊंगा।"
"फायर!" विजय टुम्बकटू की बात पर कोई विशेष ध्यान
न देकर जोर से चीखा।
सीक्रेट सर्विस के सभी सदस्य बुद्धिमान व फुर्तीले थे।
विजय का आदेश मिलते ही सब फर्श पर लेट गए और ।
----- 'धायं धायं धायं!'
अनेक फायरों की ध्वनि से हॉल थर्रा उठा।
सभी लेट इसलिए गए थे कि कहीं एक-दूसरे की गोलियों के ही शिकार
न हो जाएं, और सभी ने फायर टुम्बकटू के सिर पर किए थे, जिससे गोली खाली जाने की स्थिति
में किसी अन्य व्यक्ति को न लग सके और सभी मेहमानों के ऊपर से निकलकर दीवारों में धंसे
।
वास्तव में परिणाम देखकर सबकी आंखें आश्चर्य से फैलती चली
गई। सभी की आंखों में महान आश्चर्य का सागर ठहाके लगा रहा था।
किसी को भी टुम्बकटू वहां नजर न आया, जहां होना चाहिए था!
सभी गोलियां वायु में लहराती हुई इधर-उधर की दीवारों में
धंस गई।
विजय स्वयं हैरत के साथ उस रिक्त स्थान को घूर रहा था
----- जहां टुम्बकटु को होना चाहिए था। विजय को लगा कि वास्तव में टुम्बकटू इंसान नहीं
छलावा है। संगआर्ट से केवल एक रिवॉल्वर की गोली से बचा जा सकता था, परंतु इस प्रकार
अनेकों गोलियों से बचने वाला इंसान नहीं हो सकता।
और सबसे आश्चर्य की बात तो ये थी कि टुम्बकटू हॉल में कहीं
भी नजर नहीं आ रहा था। विजय अपने सामने उसकी तलाश कर ही रहा था कि सहसा वह बुरी तरह
चौंक पड़ा।
***
लाल-पीले तारे उसकी आंखों के सामने नृत्य करने लगे। हुआ यूं
कि विजय को ऐसा लगा, जैसा किसी ने भारी फौलाद का हथौड़ा उसके सिर पर मार दिया हो, जबकि
यह टुम्बकटू ने उसके पीछे से सिर पर चपत मारा था। विजय के सिर पर चपत मारता हुआ टुम्बकटू
बोला--- "बेकार क्यों गोली बरबाद कर रहे हो ----- मैं तुम्हारे पीछे हूं।"
विजय ने स्वयं को संभाला और अपनी तरफ से बेहद फुर्ती के साथ
दाएं पैर की एड़ी पर घूमा तो अपने पीछे रिक्त स्थान देखकर उसकी आखें हैरत से फैल गई।
अभी उसके मस्तिष्क में यह विचार आया ही था कि आखिर यह टुम्बकटू
है क्या चीज ? कि एकाएक वह फिर चौंक पड़ा।
उसके कानों के पर्दों से एक चीख टकराई!
वह चीख आशा की थी।
वह बेहद फुर्ती के साथ आशा की ओर घूमा और वहां का दृश्य देखते
ही, उसके नेत्रों में उपस्थित आश्चर्य का सागर और अधिक गहरा हो गया।
जब उसने देखा तो आशा लहराकर फर्श पर गिर रही थी। क्षण-मात्र
में विजय समझ गया कि यह प्रभाव टुम्बकटू के चपत का है।
तभी टुम्बकटू विजय को अशरफ के पीछे नजर आया। विजय तेजी से
चीखा-----"अशरफ ! बचो..."
और वास्तव में अशरफ भी बिजली कीं-सी फुर्ती के साथ
पीछे घूमा-----किंतु उस समय विजय का आश्चर्य चरम सीमा पर
पहुंच गया, जब टुम्बकटू के लंबे गन्ने जैसे शरीर को अशरफ के ऊपर से होकर, अशरफ के घूमते-ही-घूमते
उसके पीछे आते देखा।
जब अशरफ घूमा तो अपने पीछे रिक्त स्थान देखकर चौंका, बल्कि
लाल-पीले तारे उसकी आंखों के सामने नाचबउठे-----उसे अपना जिस्म हवा में लहराता अनुभव
हुआ।
यह टुम्बकटू के चपत का प्रभाव था !
अचेत होते-होते अशरफ को ऐसा महसूस हुआ, जैसे टुम्बकटू मुस्कराता
हुआ कह रहा हो-----"तुम लोग बहुत सुस्त हो यार!"
इधर विजय ने जब अशरफ को अचेत होते देखा तो उसने आव देखा न
ताव, बस जोश में आकर टुम्बकटू पर फायर झोंक दिया।
परंतु इसका क्या किया जाए कि तब तक भयानक छलावा अपराधी अपना
स्थान छोड़ चुका था, बल्कि एक अन्य व्यक्ति को अपने चपत का करिश्मा दिखा चुका था।
विजय की समझ में नहीं आ रहा था कि वह इस विचित्र और भयानक
छलावे को किस प्रकार रोके? कोई भी गोली उसे नहीं लग रही थी और वह था कि सबको अपने चपत
का कमाल दिखा रहा था ।
विजय ने उस पर अनेक फायर किए ----- लेकिन परिणाम ढाक के तीन
पात।
यानी कोई भी गोली टुम्बकटू के जिस्म को न लग सकीं, जबकि वह
भयानक छलावा समूचे हॉल में अनेक व्यक्तियों को अपने चपत का शिकार बना चुका था।
लोग उसका चपत लगते ही चीखकर अचेत हो जाते।
कुछ देर तक तो ठाकुर साहब और रघुनाथ इस जोकर टाइप के टुम्बकटू
के विचित्र हास्यपूर्ण और साथ ही भयानक खेल को देखते रहे ----- परंतु अगले ही पल उन्हें
जैसे क्रोध आ गया। उन्होंने भी अपने साथियों को संकेत दिए ।
'धायं... धायं...धायं!'
न जाने टुम्बकटू कौन-सी मिट्टी का बना था कि वह इस बार भी
अपने स्थान से गायब था।
अभी विजय इत्यादि उस स्थान को आश्चर्य के साथ देख ही रहे
थे कि अचानक टुम्बकटू की आवाज ने उन सबको चौंकाया।
" आप लोग क्यों कष्ट कर रहे हैं, मैं यहां हूं।"
टुम्बकटू की आवाज के साथ सबकी निगाहें आवाज की दिशा में उठ
गई और फिर दृश्य देखकर लोगों की आश्चर्यमिश्रित सिसकारियां निकल गई।
आवाज के साथ सबकी निगाहें हॉल में एक ओर बने रोशनदान पर पड़ी
और उस समय सबकी आखें हैरत से फट गई जब लोगों ने टुम्बकटू को रोशनदान से लटकते पाया।
टुम्बकटू रोशनदान पर लटका हुआ था और मुस्करा रहा था।
"वह रहा ----- रोशनदान पर।" ठाकुर साहब क्रोध में
एकदम चीखे-----"फायर...!''
---'धायं...धायं...धायं!' एक बार फिर फायरों की बाढ़ ।
परंतु रोशनदान खाली था।
"बड़ी शर्म की बात है!" एक बार फिर टुम्बकटू की
आवाज-----''आप लोगों का निशाना बहुत कच्चा है।"
-----"वो देखो मेज के नीचे!" ठाकुर साहब पागल से
होकर चीखे-----"फायर करो।"
इस अजीबोगरीब धंधे में औरों की बात क्या, स्वयं विजय ही बुरी
तरह बौखला गया था। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि टुम्बकटू वास्तव में इंसान है अथवा
कोई भूत?
एक पल में वह कहीं होता है और दूसरे पल में कहीं। बौखला तो
विजय गया ही था ----परंतु इस बौखलाहट में भी उसने मेज के नीचे टुम्बकटू पर फायर कर
दिया। परंतु तभी एक अन्य रोशनदान से आवाज आई।
" मिस्टर विजय... कम-से-कम मैं तुम्हें उतना मूर्ख नहीं
समझा था।"
पलक झपकते ही उस रोशनदान की ओर अनेकों आग के शोले लपके-----लेकिन
तभी मेहमानों के जत्थे के बीच में से टुम्बकटू की आवाज गूंजी।
" क्यों देश का धन बरबाद कर रहे हो ?"
वे इंसान चौक पड़े, जिनके समीप टुम्बकटू खड़ा किसी गन्ने
की भांति हिल रहा था।
अगले ही पल टुम्बकटू के आसपास भगदड़ मच गई।
लोग उससे उसकी हरकतों के कारण अत्यधिक भयभीत हो गए थे। अत:
क्षणमात्र में उसके आसपास से भीड़ काई की भांति फट गई।
अब वह अकेला वहां खड़ा विचित्र ढंग से मुस्कराता हुआ कह रहा
था-----''अरे... क्या आप लोग घबरा गए?"
परंतु उसके प्रश्न का उत्तर सिर्फ गरजती हुई रिवॉल्वरों ने
दिया।
अनेकों गोलियां फिर टुम्बकटू की ओर लपकी।
लेकिन टुम्बकटू भला इतना शरीफ कहां था कि वह किसी भी गोली
को अपने जिस्म से स्पर्श होने देता! अत: तब तक कि गोलियां वहां तक पहुंचे-----टुम्बकटू
किसी अन्य स्थान पर खड़ा फिर कुछ इसी प्रकार के शब्द बोलता, जिससे उन लोगों के क्रोध
में और अधिक वृद्धि हो जाती।
लगभग पांच मिनट तक इसी प्रकार का क्रम चलता रहा।
वह कभी मेज के ऊपर खड़ा हुआ पुलिस वालों को धिक्कारता तो
पुलिस वाले उस पर फायर करते और वह किसी अन्य स्थान पर मुस्कराता पाया जाता। वहां फायर
करते तो वह किसी तीसरे स्थान पर किसी व्यक्ति के सिर पर चपत मारकर उसे बेहोश करता पाया
जाता।
हॉल में उपस्थित प्रत्येक इंसान टुम्बकटू की इन विचित्र हरकतों
पर बौखला गया।
स्वयं विजय को न सूझा कि आखिर करना क्या चाहिए? कैसे वह इस
टुम्बकटू पर काबू पाए? उस लंबे, पतले मरियल से टुम्बकटू ने पांच मिनट में ही सबको हिलाकर
रख दिया।
अचानक अंत में उसने भीड़ में खड़े एक युवक के सिर पर चपत
मारा, लिखने की आवश्यकता नहीं कि युवक महोदय अगले ही पल अचेत स्थिति में लंबे बांस-से
टुम्बकटू के कंधे पर पड़े थे।
युवक को कंधे पर डाले टुम्बकटू दरवाजे की ओर लपका कि तभी
ठाकुर साहब गरजे ----- "खबरदार... रुक जाओ!"
टुम्बकटू ठिठक गया। ठिठककर वह बड़े आराम से ठाकुर साहब की
ओर घूमा----उसके होंठों पर मुस्कान थी, लंबूतरे चेहरे पर शरारत के चिन्ह |
ठाकुर साहब के साथ-साथ अनेक दृष्टियां उस पर जमी हुई थी।
वह ठाकुर साहब की ओर देख रहा था। अचानक वह बोला-----"मुझे
हिंसा पसंद है, अहिंसा नहीं।"
कहते हुए टुम्बकटू ने शरारत से अपनी दाई आंख दबा दी।
ठाकुर साहब एकदम क्रोध से कांपने लगे, किंतु तब तक टुम्बकटू
न सिर्फ हॉल से नदारद था, बल्कि फिर वह दुबारा कहीं भी नजर नहीं आया।
अचानक विजय को ऐसा महसूस हुआ, जैसे कोठी के बाहर कुछ व्यक्ति
आपस में बातें कर रहे हों।
आवाजें कुछ तीव्र थीं।
उसने अपने हाथ में बंधी घड़ी के रेडियम डायल पर दृष्टि मारी
तो मुस्कराकर रह गया। क्योंकि घड़ी प्रात: के छह बजने का संदेश दे रही थी, जबकि उसका
अनुमान था कि अभी रात ही है।
परंतु फिर भी विजय की समझ में नहीं आया था कि यह शोर किस
प्रकार का है? वह उठा और नाइट सूट पर गाउन डालकर कमरे की उस खिड़की तक आया-----जहां
से वह कोठी के बाहर वाली सड़क देख सकता था।
***
बाहर का दृश्य देखकर वह यह तो समझ गया कि बाहर कोई अप्रिय
घटना घटित हो गई है-----परंतु यह न जान सका कि बात क्या है?
उसने देखा कि बाहर लोगों की भीड़ का जत्था खड़ा है। वे लोग
एक स्थान पर बुत बने खड़े थे और आपस में घेंपे-घेंपे कर रहे थे।
विजय यह तो जान गया कि लोगों के वृत्त के भीतर कोई ऐसी वस्तु
है, जिसने उन्हें यहां एकत्रित होने के लिए बाध्य कर दिया है, परंतु विजय यह न देख
सका कि वस्तु है क्या।
यही जानने हेतु उसने पैरों में चप्पल डालीं और बाहर आया।
भीड़ के निकट जाकर ज्यों ही उसकी दृष्टि भीड़ के बीच पड़ी
वस्तु पर पड़ी तो वह चौंक पड़ा।
एक बार फिर उसे ऐसा महसूस हुआ, जैसे उसकी खोपड़ी हवा में
चकरा रही हो ।
लोगों के बीच वही व्यक्ति पड़ा था, जिसे कल टुम्बकटू पार्टी
से उठाकर ले गया था।
वैसे विजय के चौंकने का कारण यह नहीं था कि वह व्यक्ति यहां
कैसे आ गया? बल्कि उसके चौंकने का कारण था --- उस व्यक्ति की स्थिति !
एक बार को तो उसकी स्थिति देखकर विजय के होंठों पर मुस्कान
उभर आई----- लेकिन अगले ही पल उसके होंठ सीटी बजाने की शक्ल में सिकुड़ गए।
वह जान गया कि टुम्बकटू अब शायद समूचे विश्व में आतंक मचाना
चाहता है। परंतु इस आतंक के पीछे आखिर उसका उद्देश्य क्या है?
इस प्रश्न का उत्तर कम-से-कम उसके पास तो था नहीं ।
लोगों की भीड़ के बीच वह व्यक्ति नग्न पड़ा था। बिल्कुल इस
प्रकार नग्न मानो अभी पैदा हुआ हो। किंतु उसके समूचे जिस्म को किसी गाड़ी काली स्याही
से पोत दिया गया था। ऊपर से नीचे तक वह काला स्याह था । बालों पर शायद उस्तरा फेरकर
सपाट कर दिया गया था। नाक से नीचे चॉक से मूंछें बना दी गई थी।
इस स्थिति को देखकर तो विजय के होंठों पर मुस्कान आई थी,
परंतु उस समय उसके होंठ सीटी बजाने की स्थिति में सिकुड़ गए जब उसने उसके काले स्याह
बदन पर ये शब्द लिखे देखे-----'छलावा अपराधी टुम्बकटू का शिकार ।'
विजय चुपचाप कोठी में आ गया और फोन उठाकर उसने इस घटना की
सूचना रघुनाथ को दे दी।
वह अभी टुम्बकटू के विषय में कुछ सोचना ही' चाहता था कि तभी
अखबार वाला अखबार डाल गया।
फर्श पर पड़े अखबार के मेन हैडिंग पर दृष्टि पड़ते ही विजय
चौंक पड़ा।
मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा था:
'विश्व को चैलेंज ।'
शीर्षक ही ऐसा था कि विजय का हाथ स्वयमेव ही बढ़ गया। उसने
अखबार उठाकर ज्यों ही पहली तह खोली तो उसकी दृष्टि टुम्बकटू के चित्र पर पड़ी, जो खड़ा
हुआ ठीक ऐसा लग रहा था मानो तीन गन्नों को एकत्रित करके खड़ा कर दिया हो । टुम्बकटू
के अधरों पर वही मुस्कान थी, जो कल विजय ने पार्टी में देखी थी।
विजय जान गया कि यह चित्र रिपोर्टर ने पार्टी में ही लिया
होगा। विचित्र - सी दृष्टि से वह उस मरियल-से टुम्बकटू के चित्र को घूरता रहा, उसे
तो अब भी विश्वास नहीं आ रहा था कि यह जोकर- सा नजर आने वाला पतला-दुबला व्यक्ति वह
सब कर भी सकता है, जो कल उसने पार्टी में किया।
फिर विजय ने वह 'विश्व को चैलेंज' वाला शीर्षक पढ़ा और फिर
समूचा पढ़ विवरण पढ़ गया, जिसका सारांश कुछ इस प्रकार था ।
'राजनगर... कल हमारे विशेष संवाददाता द्वारा विशेष समाचार
मिला है कि सुपरिंटेंडेंट रघुनाथ के लड़के विकास के जन्मावसर पर एक विचित्र अपराधी
ने विश्व को विचित्र चैलेंज दिया है। वह विचित्र व्यक्ति अपना नाम छलावा अपराधी टुम्बकटू
बताता है।'
उसके बाद रिपोर्टर ने वह सब लिखा था, जो कल पार्टी में हुआ
था। वह सब लिखने के पश्चात उसने कुछ इस प्रकार टुम्बकटू के विषय में अपने विचार प्रस्तुत
किए थे।
'विश्व को इतना भयानक चैलेंज देने वाला यह मरियल-सा हंसमुख,
किंतु अत्यंत खतरनाक व्यक्ति आज से पूर्व कभी कहीं नहीं देखा गया। यह व्यक्ति अपने
अंदर कुछ ऐसी विशेषताएं समेटे हुए है कि आश्चर्य होता है। कल यह लगभग पांच- सात मिनट
पुलिस को नचाता रहा। उसमें सबसे उल्लेखनीय और आश्चर्यजनक बात तो ये है कि इसने किसी
हथियार का प्रयोग नहीं किया और न ही किसी को मुक्का मारा। यह जिसको भी मारता, सिर्फ
चपत ही मारता, परंतु इसका प्रत्येक चपत इतना शक्तिशाली था कि लोग लगते ही अचेत हो जाते।
विश्वास नहीं होता कि यह पतला-दुबला व्यक्ति इतनी शक्ति रखता है। इसने वहां उपस्थित
लोगों को सिर्फ परेशान किया, किसी को इतनी हानि न पहुंचाई, जिससे उस पर कोई कड़ी कानूनी
दफा लग सके। ये भी पता नहीं लग सका कि इस प्रकार की हरकतों के पीछे उसका उद्देश्य क्या
है? वह माइक्रोफिल्म वाली बात कहां तक
सत्य है? उस खजाने में वह कौन-सी वस्तु है, जिसका प्राप्ति
पर टुम्बकटू के कथनानुसार मानव ईश्वर पर विजय प्राप्त कर लेगा? ऐसा लगता है, जैसे यह
विचित्र व्यक्ति टुम्बकटू भविष्य में वास्तव में एक परेशानी बन जाएगा।'
संपूर्ण विवरण पढ़ने के पश्चात विजय की दृष्टि फिर टुम्बकटू
के चित्र पर जम गई और वह उसे देखकर फिर अचंभे में रह गया कि आखिर यह गन्ने जैसा व्यक्ति
इतना खतरनाक कैसे हो सकता है? उसने सब कुछ अपनी आंखों से देखा था, परंतु फिर भी...
विजय को लग रहा था कि यह विचित्र नमूना शीघ्र ही समूचे विश्व
के लिए एक समस्या बन जाएगा। उसे कुछ सूझ नहीं रहा था कि वह क्या करे। उसे मालूम था
कल के अखबारों में इस घटना को, जो उसके बाहर हो रही है, जिससे कम-से-कम राजनगर में
तो आतंक फैल ही जाएगा।
जब विजय को कुछ नहीं सूझा तो उसने नौकर से चाय के लिए कहा।
कुछ देर पश्चात नौकर चुपचाप चाय मेज पर रखकर चला गया।
अभी कप उठाने के लिए उसने हाथ बढ़ाया ही था कि एकाएक वह बुरी
तरह चौंक पड़ा।
अचानक उसके सिर पर एक चपत लगी।
विजय की आंखों के सामने लाल-पीले तारे नाच गए। अगले ही पल
उसके कानों से टिम्बकटू की विचित्र आवाज टकराई- -" बड़ी गलत बात है विजय... अकेले
चाय पीते हो।"
विजय ने चारों ओर दृष्टि मारी।
"इधर-उधर क्या देख रहे हो?" टुम्बकटू की आवाज
- "मैं यहां हूं तुम्हारे पीछे।" 1
विजय फुर्ती के साथ पीछे घूमा।
पीछे रिक्त स्थान !
तभी उसके सिर से एक और चपत टकराई, फिर टुम्बकटू की आवाज!
"अगर घूमने में इतनी देर लगाओगे तो मैं हर बार तुम्हारे
पीछे ही होऊंगा।"
विजय फिर घूमा।
किंतु फिर उसके सिर के पिछले भाग में एक चपत पड़ा। इस बार
भी देर हो गई।
विजय बौखलाकर पीछे घूम गया।
परंतु फिर उसके पीछे से एक चपत पड़ा।
"यही चपत इतनी शक्ति से भी मार सकता हूं कि तुम अचेत
हो जाओ।"
टुम्बकटू की इन हरकतों से विजय की बौखलाहट चरम सीमा पर पहुंच
गई थी, लेकिन इस बार उसने एक शातिराना चाल चली।
उसने तेजी से पीछे घूमने का उपक्रम किया।
टुम्बकटू ने छलावे की-सी फुर्ती का परिचय देते हुए उसके ऊपर
से होकर उसके पीछे पहुंच जाना चाहा, किंतु इस बार टुम्बकटू मात खा गया।
अगले ही पल टुम्बकटू के छोटे-से जबड़े पर विजय का शक्तिशाली
घूंसा पड़ा।
टुम्बकटू का गन्ने जैसा जिस्म गार्ड की झंडी की भांति लहराया
और मेज से उलझता हुआ धड़ाम से कमरे के फर्श पर गिरा।
विजय जानता था कि टुम्बकटू फुर्ती की दृष्टि से किसी प्रकार
छलावे से कम नहीं है और उसे संभलने का अवसर देना मूर्खता के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है,
अत: टुम्बकटू को कोई भी अवसर दिए बगैर उसने टुम्बकटू पर जंप लगा दी।
किंतु वह रिक्त फर्श से टकराया।
"मानता हूं कि तुम लड़ने के अच्छे तरीके जानते हो।"
सहसा विजय के कानों से फिर टुम्बकटू की आवाज टकराई ---- -"लेकिन अभी फुर्ती की
दृष्टि से बच्चे हो ।'
यूं विजय भी किसी छलावे से कम नहीं था। ये तो बस अवसर था,
जो अभी तक टुम्बकटू का साथ दे रहा था।
अगले ही पल विजय भी फुर्ती के साथ खड़ा हो गया था।
उसका विचार था कि शीघ्र ही टुम्बकटू उसके सिर पर चपत मारेगा,
किंतु इस बार ऐसा न हुआ तो वह थोड़ा चौंका।
तभी टुम्बकटू की आवाज!
"मैं यहां हूं।" पलक झपकते ही विजय आवाज की ओर
घूम गया। टुम्बकटू को सामने देखकर उसे कुछ संतोष-सा हुआ। वह सामने के सोफे पर बैठा
विचित्र ढंग से मुस्करा रहा था।
***
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