वह एक उजाड़ समुद्र तट था । नगर वहां से कम से कम बीस मील दूर था और चार-पांच मील तक तो किसी भी प्रकार की आबादी नहीं थी । किनारे से काफी परे पेड़ों का एक झुरमुट था । उसके एक बहुत ऊंचे पेड़ पर एक बड़ी खतरनाक स्थिति में एक आदमी बैठा था । उस आदमी का नाम दौलतसिंह था । उसने अपने गले में एक कैमरा लटकाया हुआ था । जिसमें उसने एक विशेष प्रकार की फिल्म भरी हुई थी । उस फिल्म पर अंधकार में भी तस्वीर खींची जा सकती थी । कैमरे के आगे साधारण लैंस के स्थान पर एक बेहद शक्तिशाली टैलिस्कोपिक लैंस लगा हुआ था । दौलतसिंह रह-रहकर उस लैंस में से समुद्र की ओर दूर-दूर तक झांक लेता था लेकिन फिलहाल उसे कहीं किसी हरकत का आभास नहीं मिल रहा था ।
उसे उस पेड़ पर टंगे बैठे तीन घंटे हो गए थे । उसे एक बड़े ही विश्वस्त सूत्र से यह संकेत मिला था कि आज रात उस सुनसान समुद्र तट पर मुहम्मद मुस्तफा खुद पहुंचने वाला था ।
मुहम्मद मुस्तफा एक बहुत बड़ा स्मगलर था । एशिया और योरोप के कम से कम आधी दर्जन मुल्कों में उसके नाम के वारंट निकले हुए थे । आबूधाबी के रास्ते स्मगलिंग का जितना सोना भारत समुद्र तटों पर उतरता था, उस में से पिचहत्तर प्रतिशत की पीठ पर मुहम्मद मुस्तफा खुद होता था औैर बाकी पच्चीस प्रतिशत सोने की स्मगलिंग भी उसकी जानकारी के बिना नहीं हो पाती थी । मुहम्मद मुस्तफा का खुद भारत के किसी समुद्र तट के पास फटकना कोई मामूली घटना नहीं थी । अगर दौलतसिंह की सूचना गलत नहीं थी तो निश्चय ही आज स्मगलिंग के माल की बहुत महत्वपूर्ण सौदेबाजी उस उजाड़ समुद्र तट पर होने वाली थी ।
और इसीलिए वह उम्मीद कर रहा था कि अपने पेशे के मुहम्मद मुस्तफा जैसे बड़े आदमी के स्वागत के लिए नारंग खुद आएगा ।
नारंग भारत का सबसे बड़ा स्मगलर था ।
दौलतसिंह की नारंग से निजी अदावत थी । वह नारंग का जानी दुश्मन था और उसी के ताबूत में एक और, सबसे मजबूत, कील ठोक पाने की उम्मीद में वह उस समय उस सुनसान समुद्र तट पर उस पेड़ पर चढा बैठा था ।
दौलतसिंह पहले खुद एक छोटा-मोटा स्मगलर था और केवल स्विस घड़ियों की स्मगलिंग का काम करता था । एक बार उसे नारंग की ओर से चेतावनी मिली कि उसकी छत्रछाया में आए बिना कोई आदमी बम्बई में स्वतंत्र रूप से स्मगलिंग का धन्धा नहीं कर सकता था । या तो दौलतसिंह उसके दल में शामिल हो जाए हो जाए और या फिर वह नारंग को अपने स्मगलिंग के मुनाफे में से कमीशन दे । उस वक्त दौलसिंह को नहीं मालूम था कि इस धंधे में नारंग कितना शक्तिशाली आदमी था इसलिए उाने नारंग की धमकी की परवाह नहीं की । उसने न तो नारंग की छत्रछाया में जाना स्वीकार किया और न ही कमीशन देनी आरम्भ की । परिणामस्वरूप कुछ दिन तो कुछ भी नहीं हुआ । दौलतसिंह सारी घटना को एक गीदड़ भभकी की संज्ञा दे कर फिर अपने काम में लग गया । लेकिन बाद में जब कुछ हुआ तो ऐसा हुआ कि दौलतसिंह एकदम तबाह हो गया । जब-जब उसका माल किनारे लगा, कस्टम पुलिस द्वारा धर लिया गया । उसके तमाम आदमी पकड़े गये । उसका भी मुकद्दर अच्छा ही था जो वह गिरफ्तारी से बचा रहा था । उसके बाद उसने अपने स्मगलिंग के धंधे की पुन: स्थापना की बहुत कोशिश की लेकिन वह कामयाब न हो सका । विदेशी स्मगलरों का उस पर से विश्वास उठ गया । उन्होंने उसे माल देना बंद कर दिया । उसकी सब जमा पूंजी कई बार माल पकड़े जाने की वजह से पहले ही चुक चुकी थी । अंत में हालात से घबरा कर उसने थूक कर चाटने जैसा काम भी करना स्वीकर कर लिया । उसने नारंग की छत्रछाया कबूल करने का फैसला कर लिया और उसे यह संदेश भिजवा दिया । लेकिन अब वह दरवाजा भी बंद हो चुका था । नारंग ने उसे बुलाया और फिर कई हमपेशा आदमियों के सामने उसे जी भरकर जलील किया, उसका मजाक उड़ाया और फिर कुत्ते की तरह दुत्कारकर वहां से निकाल दिया ।
दौलतसिंह का ऐसा अपमान जीवन भर नहीं हुआ था ।
उसी क्षण उसने कसम खाई थी कि वह नारंग से बदला जरूर लेगा ।
यह चींटी द्वारा हाथी मार गिराने की कल्पना जैसा काम था ।
लेकिन चींटी हाथी मार ही गिराती है ।
दौलतसिंह को नारंग से बदला लेने की और तो कोई तरकीब सूझी नहीं, इसलिए उसने नारंग की जड़ों में ऐसा पलीता लगाने का फैसला किया जिससे वह लाख कोशिशों के बावजूद भी न बच पाये ।
उसने नारंग की जरायमपेशा जिंदगी के बखिये उधेड़ने आरम्भ कर दिये । उसने नारंग के उन अपराधों की टोह लेनी आरम्भ कर दी जिनकी पुलिस को खबर नहीं थी, उसके उन अपराधों के सबूत इकट्ठे करने आरम्भ कर दिये जिनकी पुलिस को खबर तो थी लेकिन जिनमें नारंग का हाथ सिद्ध करने का पुलिस के पास कोई साधन नहीं था ।
छ: महीने के अरसे में बड़े धीरज से और अपनी अनथक मेहनत से दौलतसिंह ने नारंग की करतूतों और उसके प्रमाणों की एक मोटी फाइल तैयार कर ली थी । अब अगर नारंग वहां पहुंच जाये, और उसकी सूचना के अनुसार मुहम्मद मुस्तफा भी वहां पहुंच जाये, और वह उन दोनों की तस्वीर खींचने में कामयाब हो जाए तो नारंग का बेड़ा गर्क करने के लिये वह तस्वीर सबसे बड़ा सबूत हो सकती थी ।
थोड़ी देर पहले एक कार वहां पहुंची थी लेकिन उसमें से कोई आदमी बाहर नहीं निकला था । पता नहीं कार में नारंग आया था या नहीं ।
दौलतसिंह बड़े धीरज के साथ अपनी मेहनत का कोई फल हासिल होने की उम्मीद में उस पेड़ पर टंगा बैठा रहा ।
एकाएक उसे दूर समुद्र की तरफ कहीं से एक जुगनू-सा चमकता दिखाई दिया ।
दौलतसिंह संभलकर बैठ गया ।
वह खुद उसी पेशे से सम्बंधित था समुद्र की छाती पर जुगनू की तरह चमकती ऐसी रोशनी का अर्थ वो खूब समझता था । वह जानता था कि समु्द्र से किनारे की तरफ एक पूर्व निर्धारित सिग्नल भेजा जा रहा था ।
दौलतसिंह ने आशापूर्ण नेत्रों से कार की तरफ देखा ।
तभी कार में से एक टार्च जलने-बुझने लगी ।
वह निश्चय ही समुद्र की ओर से आते सिग्नल का जवाब था ।
कुछ क्षण यूं ही सिग्नलों का आदान-प्रदान होता रहा और फिर रोशनियां चमकनी बंद हो गई ।
कार के चारों दरवाजे एक साथ खुले और उसमें से चार आदमी बाहर निकले । दौलतसिंह को अंधकार में केवल उनके साये ही दिखाई दिये लेकिन वह चाल-ढाल से ही नारंग को पहचान गया ।
उसने शांति की एक गहरी सांस ली ।
नारंग ऐसे स्थानों पर खुद कभी नहीं जाता था । उसका वहां आना ही इस बात का सबूत था कि मुहम्मद मुस्तफा भी वहां आने वाला था । वह किसी छोटे-मोटे आदमी की खातिर अपना नियम तोड़ने वाला नहीं था ।
तभी अंधकार में से इंजन की चग-चग की बहुत ही मध्यम आवाज उसके कान में पड़ी । वह कान लगा कर सुनने लगा । आवाज धीरे-धीरे तेज होती जा रही थी । निश्चय ही एक शक्तिशाली इंजन वाली मोटरबोट किनारे की ओर बढ रही थी ।
थोड़ी देर बाद उसे अपने कैमरे के टैलिस्कोपिक लैंस में से एक विशाल मोटरबोट का आकार दिखाई देने लगा ।
फिर यह मोटरबोट के किनारे के समीप पहुंची ।
दो आदमी मोटरबोट रुकते ही उसमें से कूदे और घुटनों-घुटनों पानी में से होते हुए किनारे की ओर बढे ।
किनारे पर मौजूद चारों आदमियों में से दो ने आगे बढ कर उनका स्वागत किया । कुछ क्षण वार्तालाप होता रहा फिर मोटरबोट से आये आदमियों में से एक उच्च स्वर में कुछ बोला । आवाज दौलतसिंह के कानों तक पहुंची जरूर लेकिन कहा क्या गया था, यह वह न समझ सका । शायद बोलने वाला किसी विदेशी भाषा में बोला था ।
कुछ क्षण बाद दो और आदमी मोटरबोट में से पानी में कूदे । उनमें से एक असाधारण आकार का आदमी था और अरब परिधान पहने हुए था ।
दौलतसिंह का दिल गवाही देने लगा कि वह मुहम्मद मुस्तफा था । उसने टैलीस्कोपिक लैंस का फोकस ठीक किया और तस्वीर खींचने को एकदम तैयार होकर बैठ गया । कैमरे में मौजूद विशेष फिल्म की विशेषता यह थी कि उस पर निपट अंधकार में उन चीजों की भी स्पष्ट तस्वीर खींची जा सकती थी जो नंगी आंखों को दिखाई नहीं देती थी ।
अरब परिधान वाला नारंग के समीप पहुंचा । दोनों ने हाथ मिलाया ।
दौलतसिंह ने बड़ी सावधानी से तस्वीर खींची ।
अरब ने अपनी जेब से एक पोटली निकाली और उसे नारंग की हथेली पर उलट दिया ।
अन्धकार में जगमग-जगमग होने लगी ।
हीरे !
दौलतसिंह ने तस्वीर खींची ।
थोड़ी देर बाद हीरे फिर पोटली में पहुंच गये और पोटली नारंग की जेब में पहुंच गई ।
फिर नारंग ने अपने एक आदमी को संकेत किया । वह आदमी एक ब्रीफकेस लेकर आगे बढा । उसने ब्रीफकेस नारंग को थमाया और पीछे हट गया ।
नारंग ने ब्रीफकेस खोलकर अरब के आगे कर दिया ।
दौलतसिंह ने तस्वीर खींची । ब्रीफकेस में क्या था, यह वह न देख पाया ।
अरब ने ब्रीफकेस में से कुछ उठाया । अरब के उसे हैंडल करने के ढंग से वह जान गया कि वह नोटों की गड्डी थी ।
फिर तस्वीर !
अरब ने गड्डी वापिस ब्रीफकेस में रखी और उसे बन्द कर दिया । उसने ब्रीफकेस नारंग से लेकर अपने एक साथी को थमा दिया । उसने फिर नारंग से हाथ हिलाया और घूमकर मोटरबोट की तरफ बढ गया ।
दौलतसिंह ने मोटरबोट की भी एक तस्वीर खींच ली ।
थोड़ी देर बाद मोटरबोट वहां से रवाना हो गई ।
नारंग और उसके आदमी कार में सवार हुये और कार वहां से भाग निकली ।
समुद्र तट फिर उजाड़ हो गया ।
मोटरबोट और कार दोनों के दृष्टि से ओझल हो जाने के भी पन्द्रह मिनट बाद दौलतसिंह पेड़ से उतरा । वह अपनी आज की उपलब्धि से खुश था । तस्वीरों की प्राप्ति के बाद अब नारंग का बेड़ा गर्क होने में कोई कसर नहीं रह गई थी ।
दौलतसिंह घर पहुंचा । घर में ही उसने एक छोटा-सा डार्क रूम बनाया हुआ था । स्मगलिंग के धन्धे में आने से पहले वह फोटोग्राफी का ही काम करता था । बाद में उसने फोटोग्राफी को धन्धे के तौर पर तो त्याग दिया था लेकिन उसका फोटोग्राफी का शौक कम नहीं हुआ था । आज उसका वह ज्ञान उसके बहुत काम आया था ।
उसने फिल्म धोई और उसके चार गुणा छ: इंच के आकार के प्रिंट तैयार किये ।
तस्वीरें देखकर उसकी बांछें खिल गई । उसने मोर्चा मार लिया था । तस्वीरें एकदम साफ आई थीं ।
अरब परिधान वाला असाधारण आकार वाला आदमी मुहम्मद मुस्तफा ही था ।
और नारंग भी हर तस्वीर में साफ पहचाना जा सकता था ।
उस रात उसे बड़ी चैन की नींद आई ।
***
अगली सुबह साढे दस बजे के करीब दौलतसिंह ने एक पब्लिक कॉल ऑफिस से बम्बई के पुलिस कमिश्नर को फोन किया ।
“मेरी कमिश्नर साहब से बात करवाओ ।” - दूसरी ओर से उत्तर मिलते ही वह बोला ।
“कौन साहब बोल रहे हैं ?” - दूसरी ओर से किसी ने पूछा ।
“पी. आई. सिंह ।”
“पी. आई. सिंह ? आप अपना पूरा परिचय दीजिये ।”
“मेरा नाम ही मेरा पूरा परिचय है । तुमने मेरे नाम पर गौर नहीं किया मालूम होता है । मेरा नाम पी. आई. सिंह है । पुलिस इनफॉर्मर सिंह ।”
“यह क्या बदतमीजी है । तुम मजाक कर रहे हो । मैं तुम्हें गिरफ्तार करवा दूंगा ।”
“आप कौन बोल रहे हैं ?”
“मैं कमिश्नर साहब का प्रावेट सैक्रेट्री हूं ।”
“कमाल है । फिर भी मेरे नाम की अहमियत नहीं समझते हो । मेरी फौरन कमिश्नर साहब से बात करवाओ, दोस्त, वर्ना तुम्हारी नौकरी पर आ बनेगी ।”
“लेकिन...”
“और मैं ज्यादा देर होल्ड भी नहीं करुंगा !”
दूसरी ओर कुछ क्षण चुप्पी रही और फिर वही आवाज आई - “लाइन चालू रखना ।”
दौलतसिंह रिसीवर कान से लगाए बूथ में खड़ा रहा । थोड़ी देर बाद वही आवाज फिर आई - “बात करो कमिश्नर साहब से ।”
“अच्छा ।” - दौलतसिंह बोला ।
एक खट्ट की आवाज हुई । फिर एक नई आवाज उसके कानों में पडी - “हैल्लो ।”
“आप कमिश्नर साहब बोल रहे हैं, जनाब !” - दौलतहसिंह आदरपूर्ण स्वर में बोला ।
“हां । तुम पुलिस इन्फॉर्मर (मुखबिर) हो ?”
“जी हां ।”
“अपना नाम बोलो ।”
“मेरे नाम की कोई अहमियत नहीं है, हुजूर । मैं आपका कोई जाना-पहचाना मुखबिर नहीं ।”
“फिर भी अपना नाम बताओ ।”
“फिलहाल आप मुझे काले चोर के नाम से पुकार सकते हैं ।”
“देखो, मिस्टर...”
“मुझे कुछ दिखाने की जगह आप कुछ देखिये, कमिश्नर साहब । आप कुछ सुनिए । मैंने किसी मकसद से आपको फोन किया है । पहले मेरी पूरी बात सुन लीजिए और फिर मीनमेख बाद में निकालिएगा ।”
“बोलो, क्या कहना चाहते हो ?”
“मैं आपका ध्यान पुलिस की फाइलों में दबे कुछ ऐसे केसों की ओर आकर्षित करता चाहता हूं जो आज तक सुलझ नहीं सके हैं ।”
“मसलन ?”
“मसलन फारस रोड की उस वेश्या की हत्या का केस, जिसकी किसी ने दोनों छातियां काट दी थीं और उसके सारे जिस्म का ब्लेड से पुर्जा-पुर्जा कर दिया था । मसलन गिरधारी लाल नाम के उस खतरनाक स्मगलर का केस जो वरसोवा में खड़ी पार्इ गई अपनी कार में मरा पाया गया था । किसी ने गोली मारकर उसका भेजा उड़ा दिया था । मसलन पुलिस के उस डी एस पी की हत्या का केस जिसकी लाश माहिम क्रीक में तैरती पाई गई थी । मसलन उन चार भाइयों की रहस्यपूर्ण सामूहिक हत्या जिनके बारे में बाद में पता चला था कि वे जुए के अड्डे चलाते थे और शराब की स्मगलिंग करते थे । मसलन स्मगलिंग के कई वे केस जिनके बारे में पुलिस केवल इतना जानती है कि उनकी पीठ पर जो आदमी है वह अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त स्मगलर मुहम्मद मुस्तफा का दायां हाथ है लेकिन जिसका आज तक पुलिस नाम भी नहीं जान पाई । मसलन...”
“तुम्हारा मतलब है इन तमाम अपराधों के पीछे केवल एक अपराधी का हाथ है ?”
“जी हां । और आज की तारीख में उस अपराधी को केवल मैं जानता हूं । मैं न केवल उसे जानता हूं बल्कि उसके अधिकतर अपराधों के ऐसे अकाट्य सबूत प्रस्तुत कर सकता हूं जिन्हें दुनिया का बड़े से बड़ा आदमी नहीं हिला सकता ।”
“कौन है वो आदमी ?”
“सब कुछ बताऊंगा । बताने के लिए ही फोन किया है लेकिन पहले जरा सौदे की बात तो हो जाये ।”
“कैसा सौदा ?”
“मैं इतना बड़ा अपराधी आपके हुजूर में प्लेट में सजाकर पेश कर रहा हूं । बदले में मुझे भी तो कुछ हासिल होना चाहिए ।”
“तुम क्या चाहते हो ?”
“जिन हत्याओं का मैंने अभी जिक्र किया है, उनके हत्यारों को पकड़वाने के लिये पुलिस ने छोटे-बड़े कई इनामों की घोषणा की हुई है । मैंने आपको अभी बताया ही है कि उन तमाम अपराधों का अपराधी एक ही है । मैं आपको उस अपराधी का नाम बताऊंगा और उसके हर अपराध का आपको अकाट्य सबूत दूंगा । इस लिहाज से वे सारे इनाम जिनकी रकम कोई पचास हजार रुपये होती है, मुझे मिलनी चाहिये ।”
“ठीक है । मिल जायेगी ।”
“फौरन एडवांस । इस हाथ ले उस हाथ दे । मैं आपको अपराधी का नाम और उसके खिलाफ सबूत दूंगा और आप हाथ के हाथ मुझे पचास हजार रुपये देंगे ।”
“यह नहीं हो सकता । यह पुलिस नियमों के खिलाफ है । ऐसे इनाम तब दिये जाते हैं जब अपराधी को अदालत से सजा हो जाती है ।”
“इस मामले में तो आपको अपना नियम बदलना होगा, कमिश्नर साहब । यह मेरी पहली और सबसे बड़ी शर्त है ।”
“पहली और सबसे बड़ी ! क्या मतलब क्या कोई और भी शर्तें हैं ?”
“जी हां । एक छोटी-सी शर्त और है ।”
“क्या ?”
“उस बड़ी मछली को पुलिस के जाल में फंसाने का सामान करने में शायद पुलिस को इस नाचीज के भी किन्हीं छोटे-मोटे अपराध की खबर लग जाए । इसलिए आपको मुझसे यह भी वादा करना होगा कि मुझे अभयदान दिया जाएगा । ऐसी कोई गड़बड़ हो जाने की सूरत में आपको मुझे वादामाफ गवाह का दर्जा देना होगा ।”
“यह कैसे हो सकता है, पता नहीं तुमने कितने गम्भीर अपराध किए हों । शायद कोई कत्ल ही किया हो...”
“मैंने कोई गम्भीर अपराध नहीं किया । मैंने अर्ज किया न सरकार कि उस बड़े मगरमच्छ के मुकाबले में तो मैं बहुत ही छोटी मछली हूं ।”
“सुनो तुम यहां मेरे पास आ जाओ । मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूं कि...”
“खातिर जमा रखिए, साहब, ऐसा नहीं हो सकता ।”
“लेकिन हमें इस बात का विश्वास कैसे हो कि तुम जो कुछ कह रहे हो, सही कह रहे हो । क्या पता तुम...”
“ठीक है । आपका यह एतराज सरासर जायज है । मैं पहले अपने कथन की सत्यता को प्रमाणित करने के लिये आप की सेवा में एक छोटा-सा सबूत भेज देता हूं । हालांकि ऐसा मैं चाहता तो नहीं क्योंकि इससे आपको उस बड़े मगरमच्छ का नाम मालूम हो जायेगा जिसका कि मैं जिक्र कर रहा हूं । लेकिन फिर भी आपकी तसल्ली के लिए और आपका विश्वास हासिल करने के लिए मैं यह काम करने को तैयार हूं ।”
“कौन है यह आदमी ?”
“आप खुद ही जान जायेंगे । जो चीज मैं आपको भेज रहा हूं, वह आपके कई अपराधों में से एक के सबूत का काम तो कर ही सकती है लेकिन मुझे पूरा विश्वास है कि आप उतने से ही सब्र कर लेने की नादानी नहीं करेंगे । क्योंकि मैं तो आपको उस आदमी के अपराधों के घड़े में से एक बून्द भेज रहा हूं ।”
“ओके । ओके ।”
“बारह बजे तक मेरा एक आदमी आपको वह चीज दे जाएगा । लेकिन हुजूर, उस आदमी को पकड़कर उससे कुछ कुबुलवाने की कोशिश मत कीजिएगा । क्योंकि वह किराए का आदमी होगा और मेरे बारे में कतई कुछ नहीं जानता होगा ।”
“अच्छा ।”
“मैं शाम तक आपको फिर फोन करूंगा । टेलीफोन पर उपलब्ध रहिएगा ।”
“अच्छा ।”
“और अपने प्राइवेट सैक्रेट्री से कह दीजिएगा कि वह मेरे लिए आप तक पहुंचना दूभर न कर दे । जब भी काले चोर का फोन आए वह उसका फौरन आपसे सम्पर्क स्थापित करवा दे ।”
“हम कह देंगे ।”
“धन्यवाद ।”
दौलतसिंह ने सम्बन्ध विच्छेद कर दिया ।
वह वापिस अपने घर पहुंचा । उसने पिछली रात खींची तस्वीरों में से एक तसवीर छांटी । वह, वह तस्वीर थी जिसमें मुहम्मद मुस्तफा नारंग की हथेली पर पोटली में से हीरे पलट रहा था । उसने उस तस्वीर को एक लिफाफे में बन्द किया और उस पर लाख से सील लगा दी । लिफाफे पर उसने ‘पुलिस कमिश्नर बम्बई पुलिस’ लिखा और उसे अपनी जेब में रख लिया । वह फिर घर से बाहर निकला और पैदल चलता हुआ नुक्कड़ पर मौजूद एक ईरानी के रेस्टोरण्ट में पहुंचा । वहां उसे उम्मीद थी कि उसे उसके मतलब का कोई आदमी मिल जायेगा ।
वहां उसे एक कोने में चाय की चुस्कियां लेता कनकटा बजरंगी दिखाई दिया ।
कनकटा बजरंगी एक मामूली जेबकतरा था । दौलतसिंह उसे पुराना जानता था । किसी जमाने में वह उसके पीछे पड़ा रहा करता था कि वह स्मगलिंग के अपने धन्धे में उसे शागिर्द मान ले लेकिन दौलतसिंह ने उसे कभी अपने पास नहीं फटकने दिया था । वह उसे कोई दिल गुर्दे वाला आदमी नहीं लगता था । वह अपना जेब काटने का धन्धा ही ठीक से नहीं चला पाता था । कई बार जेब काटते पकड़ा जा चुका था और कभी लोगों से तो कभी पुलिस से पिट चुका था । एक-दो बार वह जेल की हवा भी खा आया हुआ था ।
दौलतसिंह उसके समीप जा बैठा ।
“आओ, उस्ताद जी ।” - बजरंगी उसे देखते ही हर्षित स्वर में बोला ।
“क्या हाल है, बजरंगी ?” - दौलतसिंह ने पूछा ।
“ठीक है, उस्तादजी ।”
“धन्धा कैसा चल रहा है आजकल ?”
“बुरा हाल है, उस्तादजी । कोई दांव ही नहीं लगता । लोग जेबों से हाथ ही नहीं निकालते । जो निकालते हैं उनकी जेबों में कुछ होता नहीं ।”
“आजकल तुम्हारी अपनी जेब का क्या हाल है ?”
“खस्ता । कड़की चल रही है ।”
“दस रुपये कमाना चाहते हो ?”
“क्या करना होगा ?” - बजरंगी ने सन्दिग्ध स्वर में पूछा ।
“मामूली काम ।” - दौलतसिंह ने अपनी जेब से सीलबन्द लिफाफा निकालकर उसे दिखाया - “यह एक चिट्ठी है । इसे पुलिस कमिश्नर साहब के दफ्तर में पहुंचाना है ।”
“पुलिस कमिश्नर साहब के दफ्तर में !” - बजरंगी नेत्र फैलाकर बोला - “उस्तादजी क्या है इसमें ?”
“इसमें हेमामालिनी के सिर के बालों की एक लट है ।”
“हीं हीं हीं । क्यों मजाक करते हो, उस्तादजी ?”
“बको मत । तुम यह काम करते हो या मैं किसी और को कहूं ।”
“वे लोग मुझे पकड़कर वहीं तो नहीं बिठा लेंगे ?”
“नहीं ।”
“कोई और घोटाले वाली बात तो नहीं, उस्तादजी !”
“नहीं ।”
“सच कह रहे हो न ?”
“मैंने पहले कभी तुमसे झूठ बोला है ?”
बजरंगी ने उसके हाथ से लिफाफा ले लिया और बोला - “रुपये निकालो ।”
“दौलतसिंह ने एक पांच का नोट उसे थमा दिया ।”
“पांच !” - बजरंगी बोला ।
“बाकी के पांच तब जब यह लिफाफा ठिकाने पर पहुंचा कर वापिस आओगे ।”
“अच्छा ।”
“और वहां से रसीद लेकर आना कि लिफाफा वसूल पाया ।”
“वे देंगे रसीद ?”
“देंगे ।”
“अच्छा । बस का किराया तो दो ।”
दौलतसिंह ने उसे एक रुपया और दे दिया और बोला - “मैं यहीं बैठा हूं । लिफाफा देकर उलटे पांव यहां आ जाना ।”
“जरूर ।”
बजरंगी चला गया ।
***
बजरंगी पुलिस कमिश्नर के दफ्तर के समीप के बस स्टैण्ड पर बस से उतरा लेकिन वह तुरंत दफ्तर की तरफ नहीं बढा । वह वहीं बस स्टैण्ड पर ठिठककर खड़ा हो गया । उसने एक बीड़ी सुलगा ली । उसने अपनी जेब से दौलतसिंह का दिया लिफाफा निकाला और बीड़ी के कश लगाता हुआ उस लिफाफे को उलट-उलट कर देखता रहा । बस के सारे रास्ते वह यही सोचता आया था कि आखिर उस लिफाफे में क्या था और दौलतसिंह जैसा आदमी उसे पुलिस कमिश्नर के पास क्यों भेज रहा था । लिफाफे पर सील न लगी हुई होती तो वह उसे कब का खोलकर भीतर झांक चुका होता ।
बजरंगी एक बेहद खुराफाती दिमाग का नौजवान था । एक बार किसी चीज के प्रति उत्सुकता जाग उठने के बाद उसका उसकी तह तक पहुंचने से सब्र किये रहना बडा़ कठिन होता था । जब से वह दौलतसिंह से अलग हुआ था, एक ही ख्याल हथोड़े की तरह उसके दिमाग में बज रहा था - क्या था उस लिफाफे में ?
अब उसकी उत्सुकता इस हद तक प्रबल हो उठी थी कि उसे लग रहा था कि अगर उसने लिफाफे के भीतर न झांका तो शायद वह मर ही जाएगा ।
अन्त में उसने मन ही मन एक फैसला किया । उसने बीड़ी फेंक दी और समीप ही बनी एक लैट्रिन में घुस गया । उसने लैट्रिन का दरवाजा भीतर से बन्द कर लिया और फिर लिफाफे पर लगी लाख की सील का बड़ी गौर से निरीक्षण करने लगा । फिर उसने अपनी जेब से एक ब्लेड का टूटा हुआ टुकडा़ निकाला । वह छोटा-सा टुकडा़ बहुत पैनी धार वाला था । उसे अपने अंगूठे के लम्बे नाखून में फंसाकर ही वह लोगों की जेबें काटा करता था । उस तरीके से ब्लेड चलाने में वह सिद्धहस्त था । आज तक जेब तराशने में उससे कभी गलती नहीं हुई थी । पकड़ा तो वह अपनी और ही मूर्खताओं की वजह से जाता था उन मू्र्खताओं में से मुख्य थी उसकी एकाएक हड़बड़ा जाने की आदत जिसकी वजह से वह काम हो चुकने के बाद अक्सर गलती करता था ।
उस पतले ब्लेड की सहायता से उसने सील को बडी़ सवाधानी से लिफाफे से अलग कर दिया । सील सही सलामत, बिना टूटे लिफाफे से अलग हो गई । उसने सील को जेब में रखा और धीरे-धीरे लिफाफे को खोलने लगा । थोड़ी देर बाद लिफाफे का मुंह भी खुल गया । उसने बड़ी व्यग्रता से भीतर झांका । भीतर उसको एक तस्वीर दिखाई दी । उसने लिफाफे में दो उंगलियां डालकर तस्वीर बाहर खींच ली ।
तस्वीर पर निगाह पड़ते ही उसके छक्के छूट गए । तसवीर में चित्रित माहौल ही बता रहा था कि किस्सा क्या था । उस अरब वेशभूषा वाले व्यक्ति को, जो हीरे की पोटली उलट रहा था, वह नहीं जानता था । लेकिन जिसकी हथेली पर हीरे उलटे जा रहे थे उसे वह खूब अच्छी तरह पहचानता था । वह नारंग था । उसके पास खड़े तीन आदमियों में भी एक को वह पहचानता था । वह रणजीत था । बड़ा खतरनाक दादा था और नारंग का दायां हाथ समझा जाता था ।
अरब वेशभूषा वाले आदमी के पास खड़े आदमी भी भारतीय नहीं लग रहे थे । पृष्ठभूमि में समुद्र में खड़ी विशाल मोटरबोट भी दिखाई दे रही थी । वह भी निश्चय ही विदेशी थी ।
नारंग को बम्बई के हर जरायमपेशा आदमी की तरह बजरंगी भी जानता था । वह बहुत शक्तिशाली आदमी था और उसकी बहुत ऊपर तक पहुंच थी । मैरीन ड्राइव पर उसका एक शानदार होटल था जो प्रत्यक्षत: उसकी जीविका का साधन था । लेकिन जरायमपेशा लोगों में बच्चा-बच्चा जानता था कि नारंग एक बेहद खतरनाक दादा था और बहुत बड़ा स्मगलर था । अमेरिका के एक अमरीकी सरकार से भी ज्यादा शक्तिशाली और संगठित अपराधियों के संस्थान से उसके निकट सम्बन्ध बताए जाते थे और यह कहा जाता था कि नारंग के ही माध्यम से माफिया का आगमन एशिया में हो रहा था ।
वर्तमान तस्वीर चाहे उसके अन्य बेशुमार गुनाहों से पर्दा न उठा सके लेकिन वह यह तो निश्चय ही स्थापित कर सकती थी कि वह स्मगलर था उसका विदेशी स्मगलरों से गहरा गठजोड़ था ।
बजरंगी के अचेतन मन में कहीं बज रहा था कि अगर वह वर्तमान स्थिति का जरा चतुराई से फायदा उठाए तो वह जेब काटने के हकीर काम को छोड़कर कोई बड़ा आदमी बन सकता था । नारंग पर अहसान करने का अवसर उसके सामने था । नारंग निश्चय ही खुश होकर उसे अपनी छत्रछाया में ले लेगा और फिर वह पता नहीं कहां से कहां पहुंच जाएगा ।
लेकिन मौके का चतुराई से फायदा उठाने जितनी अक्ल किस में थी । मौजूदा स्थिति में कोई शरारत करने के बाद पैदा होने वाले खतरे को दिलेरी से झेल लेने का हौसला किस में था । उस क्षण उसे केवल इतना ही सूझा कि वह नारंग से सम्पर्क स्थापित करे और उसे वह तस्वीर दिखाए ।
उसने तस्वीर लिफाफे में रखी, लिफाफे पर से उखडी़ सील को भी उसने सावधानी से लिफाफे में रखा और लिफाफे को जेब में रख लिया । वह लैट्रिन से बाहर निकला और एक टैक्सी पर सवार होकर मैरिन ड्राइव की ओर उड़ चला । दौलतसिंह के दिये पांच रुपयों के अलावा पांच-सात रुपये उसके अपने पास भी थे । उनसें से सात रुपये टैक्सी का किराया खर्च करके वह नारंग के होटल में पहुंचा । इतना उसे मालूम था कि नारंग होटल के ही एक सूट में रहता था । वह रिसैप्शन पर पहुंचा और उसने नारंग साहब से बात करने की इच्छा व्यक्त की । रिसैप्शनिस्ट ने उस फटीचर आदमी को उपेक्षा भरी निगाहों से देखा और रुखाई से जवाब दिया कि नारंग साहब होटल में नहीं है ।
“वे होटल में नहीं हैं या तुम मुझ उनसे मिलने नहीं देना चाहते ?” - बजरंगी ने व्यग्र स्वर से पूछा । उसे भय था कि कोई उसे देख न ले और जाकर दौलतसिंह को न खबर कर दे कि कनकटा बजरंगी पुलिस कमिश्नर के ऑफिस में जाने के स्थान पर नारंग के होटल में पहुंच गया था ।
“अरे कहा न वे होटल में नहीं हैं ।” - रिसैप्शनिस्ट झल्लाकर बोला ।
“देखो । नाराज मत होवो !” - बजरंगी विनीत स्वर में बोला - “मैं किसी अपने स्वार्थ से यहां नहीं आया मेरी उनसे मुलाकात होने में उन्हीं की भलाई है ।”
“क्या भलाई है उनकी ?”
“यह मैं तुम्हें नहीं बता सकता ।”
“तो फिर फूटो यहां से ।”
“क्या रणजीत है ?”
“नहीं है । वह भी नारंग साहब के साथ ही कहीं गया है ।”
“उनका कोई और महत्वपूर्ण आदमी हो ?”
“अरे बाबा, क्यों दिमाग चाट रहे हो ? अब फूटो भी ।”
बजरंगी घबराया हुआ था । उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे । बड़ा दादा बनने का सुनहरा अवसर खामखाह उसके हाथों से निकला जा रहा था ।
“वे गये कहां हैं ?” - उसने असहाय भाव से पूछा ।
“गोवा ।”
“कब लौटेंगे ?”
“मालूम नहीं शायद शाम तक लौट आएं । शायद कल लौटें ।”
“क्या उनसे गोवा में कहीं सम्पर्क स्थापित किया जा सकता है ?”
“मुझे नहीं मालूम ।”
“देखो, किसी भी प्रकार उनसे अभी सम्पर्क स्थापित कर सकते हो तो करो और उनसे मेरी बात करवा दो । इस काम में उनकी बहुत बड़ी भलाई छुपी हुई है । देख लेना तुम्हारी इस मुस्तैदी के लिए वे तुम्हें भी बहुत इनाम इकराम देंगे ।”
रिसैप्शनिस्ट उसका मुंह देखने लगा । वह आदमी उसकी समझ से बाहर था । जरूर वह कोई सिरफिरा था ।
“तुम अब यहां से फूटते हो या मैं चौकीदार को बुलाकर तुम्हें यहां से निकलवाऊं ?” - रिसैप्शनिस्ट दांत पीसता हुआ बोला ।
“जाता हूं ! जाता हूं ।” - बजरंगी हड़बड़ाकर बोला और भारी कदमों से होटल से बाहर निकल गया ।
तभी एक सूटबूटधारी रोबदार आदमी रिसैप्शन पर पहुंचा वह होटल का मैनेजर था ।
“क्या बात थी वर्मा ?” - उसने पूछा ।
“कुछ नहीं साहब ।” - रिसैप्शनिस्ट आदरपूर्ण स्वर से बोला - “कोई सिरफिरा आदमी था । नारंग साहब से मिलना चाहता था । कहता था मुलाकात में नारंग साहब की ही कोई भलाई थी । पट्ठा मुझे बेवकूफ बनाने चला था । ऐसे फटीचर आदमी से मुलाकात में भला नारंग साहब की क्या भलाई हो सकती थी ? वह रणजीत साहब को भी पूछ रहा था । कह रहा था रणजीत साहब नहीं तो कोई और महत्वपूर्ण आदमी हो । कहने लगा कि अगर मैं अभी किसी प्रकार उसका नारंग साहब से बोला में सम्पर्क स्थापित करवा दूं तो वे मेरी इस मुस्तैदी के लिए वे मुझे इनाम इकराम देंगे । कह रहा था...”
मैनेजर ने आगे बात नहीं सुनी ।
“गोरखा !” - वह गला फाड़कर चिल्लाया ।
गोरखा भागा हुआ रिसैप्शन पर पहुंचा ।
“अभी जो फटीचर-सा आदमी होटल से निकला था उसे पकड़ कर लाओ ।” - मैनेजर बोला ।
“वह तो, हुजूर” - गोरखा हड़बड़ाकर बोला - “मेरे सामने ही एक बस पर सवार हो गया था ।”
“कौन सी बस थी वह ? किधर की बस थी ?”
“यह सब कुछ मैंने देखा नहीं साहब ।”
मैनेजर असहाय भाव से अपनी हथेलियां मसलने लगा ।
रिसैप्शनिस्ट वर्मा उसके सामने खड़ा थर-थर कांप रहा था ।
यह उसकी समझ से बाहर था कि उससे क्या गलती हो गई थी ।
वह वहां ताजा-ताजा भारती हुआ था । उसे नहीं मालूम था कि नारंग साहब होटल चलाने के अलावा और क्या-क्या पापड़ बेलते थे लेकिन मैनेजर पुराना आदमी था । वह नारंग साहब की हकीकत को जानता था इसलिए यह भी जानता था कि बजरंगी जैसे आदमियों के यूं नारंग साहब से मिलने आने का क्या मतलब होना था ।
“साहब !” - वर्मा खुशामद भरे स्वर में बोला - “वह आदमी...”
“शटअप, स्टूपिड फूल !” - मैनेजर दांत पीसकर बोला - “तुमने उस आदमी के बारे में खुद ही फैसला क्यों कर लिया ? तुमने मुझे खबर क्यों नहीं दी ? अब उसे कहां से तलाश करें ?”
वर्मा सहमकर चुप हो गया । यह बात अभी भी उसकी समझ से बाहर थी कि उससे क्या गलती हो गई थी ।
“नारंग साहब को खबर करनी होगी ।” - मैनेजर बोला - “फोन करो उन्हें ।”
वर्मा फोन की तरफ झपटा ।
निराश बजरंगी बस में सवार होकर फिर पुलिस कमिश्नर के ऑफिस के सामने पहुंचा । पहले जहां बड़ा आदमी बनने के सपने देख-देखकर खुश हो रहा था, वहीं अब वह उन सात रुपयों का मातम मना रहा था जो, उसने खामखाह टैक्सी पर खर्च कर दिये थे और हासिल कुछ भी नहीं हुआ था । ऊपर से देर हो जाने की वजह से दौलतसिंह भी उस पर शक कर सकता था । वह अपनी तकदीर को कोसता हुआ कमिश्नर साहब के दफ्तर के सामने मौजूद एक पोस्ट ऑफिस में दाखिल हो गया । वहां से गोंद लेकर उसने लिफाफे को बदस्तूर चिपकाया और फिर पहले वाले स्थान पर बड़ी सावधानी से सील भी चिपका दी । अब सरसरी तौर से लिफाफे को देखकर यह नहीं कहा जा सकता था कि उसके साथ कोई छेड़छाड़ की गई थी ।
कुछ क्षण वह लिफाफे को हवा में हिला-हिला कर सुखाता रहा और फिर वह पोस्ट ऑफिस से बाहर निकल आया । वह झिझकता-सकुचाता कमिश्नर साहब के दफ्तर में पहुंचा । वहां उसने लिफाफे एक क्लर्क को सौंपा और रसीद मांगी ।
“एक मिनट ठ‍हरो ?” - आदेश दिया ।
जिस आदमी को उसने लिफाफा सौंपा था । वह उसे लेकर एक भीतरी कमरे में चला गया । थोड़ी देर बाद वह वापिस लौटा । उसने एक उड़ती निगाह बजरंगी पर डाली, एक कोरा कागज उठाया, उस पर ‘एक पत्र प्राप्त हुआ’ लिखा और कमिश्नर के दफ्तर की मोहर लगाकर हस्ताक्षर कर दिये । उसने कागज बजरंगी को सौंप दिया ।
बजरंगी की जान में जान आई । कोई हादसा नहीं हुआ था । उसने कागज अपनी जेब में धकेला और वहां बाहर निकाल आया ।
उसे य‍ह देखने का ख्याल तक नहीं आया था कि शायद कोई उसका पीछा कर रहा हो ।
वह फिर बस पर सवार हो गया
***
जिस इमारत में ईरानी रेस्टोरेंट था, दौलतसिंह उसके सामने की चारमंजिली इमारत की छत पर चढा हुआ था ।
वही बड़ी देर से बजरंगी के आगमन की प्रतीक्षा कर रहा था । वहां वह इसलिये चढा था ताकि अगर कोई बजरंगी का पीछा करता हुआ वहां पहुंचे तो उसे खबर लग जाये ।
बजरंगी को गये हुए बहुत देर हो चुकी थी । उसे अब तक लौट आना चाहिये था । कहीं पुलिस ने उसे पकड़ कर तो नहीं बिठा लिया था ? वे जोर-जबरदस्ती के तरीकों से उससे दौलतसिंह के बारे में कोई जानकारी हासिल करने की कोशिश तो नहीं कर रहे थे ?
वह चिंतित हो उठा ।
तभी उस सड़क पर बजरंगी आता दिखाई दिया तो उसकी जान में जान आई ।
लेकिन फिर एक नई चिंता की बुनियाद पैदा हो गई ।
उसके पीछे साये की तरह दो आदमी लगे हुये थे जो सूरत और हाव-भाव से साफ पुलिस के लगते थे ।
उसके देखते-देखते बजरंगी रेस्टोरेंट में दाखिल हो गया । पीछे लगे दो आदमियों में से एक उसके पीछे रेस्टोरेट में चला गया और दूसरा बाहर सड़क पर ही खड़ा रहा ।
पन्द्रह-बीस मिनट दौल‍तसिंह छत पर बैठा रहा लेकिन स्थिति में कोई अंतर नहीं आया । बजरंगी के पीछे लगी पुलिस इस बात का पर्याप्त प्रमाण थी कि बजरंगी लिफाफा पुलिस कमिश्नर के ऑफिस में पहुंचा आया था । लेकिन फिर भी उस की बजरंगी से बात होनी जरूरी थी । क्या पता कोई और बात हुई हो जो जिक्र के काबिल हो ।
वह सीढियां उतरकर नीचे पहुंचा और चुपचाप इमारत से बाहर निकल आया । थोड़ी ही दूर एक पब्लिक टेलीफोन बूथ था । वहां से उसने कमिश्नर साहब के ऑफिस में फोन किया ।
“मेरी कमिश्नर साहब से बात करवाओ ।” - वह कर्कश स्वर में बोला ।
“कौन साहब बोल रहे हैं ?” - पूछा गया ।
“काला चोर ।”
तुरन्त कमिश्नर साहब से सम्पर्क स्थापित हो गया ।
“मुझे आपसे ऐसी उम्मीद नहीं थी ।” - कमिश्नर साहब की आवाज आते ही वह खेदपूर्ण स्वर में बोला ।
“क्या हो गया ?” - कमिश्नर साहब हड़बड़ाकर बोले ।
“जैसे आप जानते नहीं । मेरे मना करने पर भी आप मेरे आदमी के पीछे अपना आदमी लगाने से बाज नहीं आये ?”
“देखो ।” - पुलिस कमिश्नर साहब उसे समझाते हुए बोले - “हमने आदमी इसलिये नहीं लगाये थे क्योंकि हम सौदे से फिर रहे हैं । हम तो केवल यह चाहते थे कि आंख-मिचौली का वह खेल बंद हो जाये और हम जल्द तुम्हारे सम्पर्क में आ जायें ।”
“मुमकिन है आप सच कह रहे हों लेकिन आपकी इस हरकत ने आप पर मेरा विश्वास हिला दिया है । मैं आपको एक बेहद ईमानदार अफसर और जुबान के बड़े पक्के शख्स के रूप में जानता हूं ! इसलिये आप से, किसी और से नहीं, सम्पर्क स्थापित किया था ।”
“हमने जो कुछ किया, उसमें हमारी नीयत बुरी नहीं थी । फिर भी हमें इसका खेद है । बहरहाल तुम्हारी भेजी तस्वीर हमें मिल गई है और...”
“मुझे मालूम है । बाकी बातें बाद में होंगी । पहले आप अपने आदमियों को वापिस बुलवाइये ।”
“लेकिन...”
उसने सम्बन्ध विच्छेद कर दिया ।
वह बूथ से निकला और फिर ईरानी रेस्टोरेंट के सामने वाली इमारत की चौथी मंजिल पर पहुंच गया ।
कोई बीस मिनट बाद वहां एक जीप पहुंची । उसमें से एक आदमी बाहर निकला । बड़े रेस्टोरेंट के बाहर खड़े पुलिसयों के पास पहुंचा । उसने उसे कुछ कहा और वापिस जीप में जा बैठा । पुलिसिया सह‍मतिसूचक ढंग से सिर हिलाता हुआ भीतर चला गया । थोड़ी देर बाद वह अपने साथी को साथ लेकर बाहर निेकला । वे दोनों जीप में सवार हो गये । जीप वहां से चली गई ।
अगला पूरा एक घंटा दौलतसिंह पूरी सावधानी से रेस्टोरेंट और आसपास के इलाके की निगरानी करता रहा । उसे कहीं कोई संदिग्ध व्यक्ति नहीं दिखाई दिया । जो दो आदमी बजरंगी का पीछा करते हुए वहां पहुंचे थे, उनके बाद वहां ऐसा कोई आदमी प्रकट नहीं हुआ था जो पुलिसिया लगता हो ।
दौलतसिंह ईमारत से फिर नीचे उतरा ।
वह ईरानी रेस्टोरेंट में पहुंचा ।
वहां एक कोने में कनकटा बजरंगी बड़ी परेशानहाल मुद्रा बनाये बैठा था । दौलतसिंह को देखकर उसके चेहरे पर तनिक रौनक आ गई । वह शिकायत भरे स्वर में बोला - “कहां चले गये थे, उस्तादजी ? मैं तो बैठा-बैठा सूख गया ।”
“चिट्ठी पहुंचा दी ?” - दौलतसिंह उसके सामने बैठता हुआ बोला ।
“हां, यह रही रसीद ।”
दौलतसिंह ने उससे रसीद ले ली । उसने गौर से उसका निरीक्षण किया । उसे उसमें कोई नुक्स नहीं दिया । उसने रसीद जेब में डाल ली ।
“तुम्हें इतनी देर क्यों लगी ?” - उसने पूछा ।
“वह... वह !” - बजरंगी हड़बड़ा कर बोला - “बस नहीं मिली थी, उस्तादजी । आपने एक रुपल्ली बस का भाड़ा दिया था न । टैक्सी का भाड़ा देते तो आंधी की तरह जाता और तूफान की तरह आता ।”
“और कोई खास बात तो नहीं हुई ?”
“खास बात कैसी ?”
“कैसी भी ?”
“नहीं ! नहीं हुई ।”
“ठीक है । शुक्रिया ।” - दौलतसिंह उठता हुआ बोला - “तुम इस बारे में किसी से मेरी बात मत करना ।”
“बहुत अच्छा !”
दौलतसिंह दरवाजे की तरफ बढा ।
“उस्तादजी । उस्तादजी” - बजरंगी हड़बड़ाकर बोला - “वह मेरे पांच रुपये तो देते जाओ ।”
“ओह ! हां ।” - दौलतसिंह बोला और उसने एक पांच का नोट जेब से निकाला उसकी ओर उछाल दिया ।
वह रेस्टोरेंट से बाहर निकल गया ।
बजरंगी भी लपककर अपने स्थान से उठा । उसने रेस्टोरेंट के दरवाजे की ओट से सामने झांका । उसने देखा दौलतसिंह थोड़ी ही दूर फुटपाथ पर बने टेलीफोन बूथ की तरफ बढ रहा था । उसके देखते-देखते वह टेलीफोन बूथ में घुस गया और एक नम्बर डायल करने लगा । बजरंगी की दिशा में उसकी पीठ थी ।
बजरंगी रेस्टोरेंट से निकला और लोगों की ओट लेता हुआ सावधानी से बूथ की तरफ बढा ।
उस टेलीफोन बूथ का दरवाजा शीशे का था लेकिन बाकी की तीन साइडें प्लाइवुड की थीं । बजरंगी चुपचाप बूथ के पास पहुंचा और उसकी पिछली साइड के साथ लग कर खड़ा हो गया । अपनी वर्तमान स्थिति में उसे दौलतसिंह दिखाई नहीं दे रहा था लेकिन उसकी धीमी-धीमी आवाज सुनाई दे रही थी बजरंगी कान लगाकर सुनने लगा ।
“...के लिये धन्यवाद ।” - दौलतसिंह कह रहा था - “तस्वीर आपने देख ली ही होगी और उसमें चित्रित लोगों को भी पहचान लिया होगा ।”
“हां ।” - कमिश्नर साहब बोले - “तस्वीर किसने और कब खींची थी ?”
बजरंगी को दूसरी ओर की बातें नहीं सुनाई नहीं दे रही थी, केवल दौलतसिंह की आवाज सुनाई दे रही थी । लेकिन वह वार्तालाप का अनुमान बखूबी लगा सकता था और यहां तो दौलतसिंह के पहले ही फिकरे से जाहिर हो गया था कि वह पुलिस कमिश्नर को फोन कर रहा था ।
“तस्वीर कल रात वरसोवा बीच के पास आपके इस खादिम ने खुद खींची है । यह उन कई तस्वीरों में से एक है जो नैगेटिव सहित मेरे पास मौजूद हैं । जो तस्वीर मैंने आपको भेजी है, उसकी अपने आप में कोई अहमियत नहीं क्योंकि पूछे जाने पर नारंग वह कह सकता है कि वह तस्वीर किसी शरारती फोटोग्राफर की करामात है । अर्थात् किसी और तस्वीर पर उसकी सूरत लगाकर मौजूदा तस्वीर बनाई गई है लेकिन नैगेटिवों की पूरी फिल्म देखकर वह ऐसा नहीं कह सकेगा । कहने का मतलब यह है कि बाकी मसाला मेरे अधिकार में है, उसे हासिल किये बिना आप उसके खिलाफ कुछ भी साबित नहीं कर पायेंगे ।”
“तुम्हारी नारंग से कोई निजी दुश्मनी है ?”
“आप आम खाने से मतलब रखिये, बंदापरवर, पेड़ गिनने में नहीं । अब आप फौरन जवाब दीजिये कि आपको सौदा मंजूर है या नहीं ?”
“तुम हमें अपना परिचय नहीं दोगे ?”
“सौदा तय हो जाने से पहले नहीं ।”
“अगर हम इस वक्त हामी भर दें और बाद में मुकर जायें तो ?”
“मैं आपसे ऐसी उम्मीद नहीं करता । मुझे पूरा भरोसा है आप वादाखिलाफी नहीं करेंगे ।”
“ओके । हमें तुम्हारी दोनों शर्तें मंजूर हैं । अगर तुमने कोई जघन्य अपराध नहीं किया है तो हम तुम्हें पुलिस का वादामाफ गवाह बना लेंगे और अगर तुम्हारे पास नारंग के खिलाफ वैसे ही अकाट्य सबूत हैं जैसे तुम बता रहे हो और वह उन तमाम अपराधों का अपराधी सिद्ध हो स‍कता है जिनका कि तुमने जिक्र किया है तो हम तुम्हें पचास हजार रुपये देने को तैयार हैं ।”
“शुक्रिया ! मुझे आपसे इसी जवाब की उम्मीद थी ।”
“अब तुम माल लेकर मेरे ऑफिस में पहुंच जाओ ।”
“जी नहीं । यह तकलीफ तो आपको ही फरमानी होगी ।”
“मतलब ?”
“ग्रान्ट रोड पर एल्फ्रेड बार नामक एक बार है । वह रात के एक बजे तक खुलता है । रात के ठीक साढे बारह बजे मैं उसके क्लॉक रूम में आपसे मिलूंगा । मैं वहां आपका माल ले आऊंगा । आप मेरा माल, पचास हजार रुपये नकद ले आइयेगा ।”
“मुलाकात के लिये य‍ह कोई मुनासिब जगह नहीं ।”
“लेकिन सुरक्षित जगह है । और बहस मत कीजिए कमिश्नर साहब, आपको वहीं आना होगा, अकेले । अगर आप अपने चेले-चान्टे साथ लाये तो मुझे खबर लग जायेगी और फिर मैं वहां आपको नहीं मिलूंगा । मेरी निगाह हर क्षण आप पर होगी अगर आप मुझे अकेले आते न दिखाई दिए तो मैं आपको बार में नहीं मिलूंगा और न भविष्य में दोबारा आपसे सम्पर्क स्थापित करूंगा ।”
“अच्छी बात है !” - कमिश्नर साहब हथियार डालते हुए बोले - “तुम्हारी मर्जी ।”
“और बार पर पहले से घेरा डलवाने की कोशिश भी मत कीजिएगा । मेरा माल मुझसे जबरदस्ती छीनने की कोशिश में कुछ हाथ नहीं आयेगा । जिस ब्रीफकेस में मैंने वे सारे कागजात रखे हुए हैं, उसके हैंडल में एक विशेष प्रकार का खटका लगा हुआ है । मेरे उसको एक बार दबाने भर से उसके भीतर रखे सारे कागजात अपने आप नष्ट हो जायेंगे ।”
“तुम निश्चिन्त रहो । तुम्हारे साथ कोई धोखाधड़ी नहीं होगी ।
“निश्चिन्त तो मैं एक ही बार में होऊंगा । तब जब यह सिलसिला निपट जायेगा और नारंग फांसी पर लटक जायेगा ।”
“तुम्हारी उससे कोई निजी दुश्मनी ?”
“नमस्ते कमिश्नर साहब । ठीक साढे बारह बजे एल्फ्रेड बार में आपसे मुलाकात होगी ।”
बजरंगी फौरन वहां से परे खिसक गया और भीड़ में मिल गया ।
हे भगवान ! यह दौलतसिंह तो नारंग को फांसी पर लटकाने का सामान कर रहा है और सीधे पुलिस से पचास हजार रुपये का सौदा कर रहा था । आज रात ठीक साढे बारह बजे वह स्वयं पुलिस कमिश्नर से एल्फ्रेड बार में मिलने वाला था वह जानकारी तो उस तस्वीर से भी ज्यादा कीमती थी । अगर वह किसी तरह नारंग तक पहुंच जाये तो उसकी तकदीर चमक सकती थी । लेकिन नारंग तक पहुंच हो कहां रही थी ? वह तो पता नहीं कहां था और होटल के कर्मचारियों को उसकी बात तक सुनना गवारा नहीं था ।
लेकिन उन्होंने कहा था कि शायद नारंग शाम तक गोवा से लौट आये ।
उसने एक बार फिर नारंग के होटल जाने का फैसला किया । क्या फर्क पड़ेगा ? थोड़ी और तौहीन हो जायेगी । पहले उसकी कौन सी इज्जत हो रही थी ? इस बार वह कोशिश करेगा कि उसकी बात होटल के मैनेजर से हो सके ।
शाम को सात बजे वह फिर होटल में पहुंचा ।
इस बार संयोगवश मैनेजर भी रिसैप्शन पर मौजूद था । सुबह वाले क्लर्क वर्मा के स्थान पर वहां कोई और युवक खड़ा था । उसने उस युवक से कहा कि वह नारंग साहब से मिलना चाहता था ।
मैनेजर ने गौर से बजरंगी को देखा फिर रिसैप्शन क्लर्क के कुछ कहने से पहले ही एकाएक उसने पूछा - “तुम सुबह भी आये थे ?”
“ज... जी.. हां ।” - बजरंगी हड़बड़ाकर बोला - “जी हां ।”
“तुम वहां सामने जाकर बैठ जाओ” - मैनेजर नम्र स्वर से बोला - “मैं नारंग साहब से बात करता हूं ।”
“वे गोवा से आ गये हैं ?” - बजरंगी ने झिझकते हुए पूछा ।
“हां । अभी बस पहुंचे ही हैं ।”
मैनेजर ने काउंटर पर रखा फोन उठा लिया । थोड़ी देर वह फोन में धीरे-धीरे बात करता रहा फिर उसने फोन रख दिया । उसने बजरंगी को संकेत किया । बजरंगी चाबी लगे खिलौने की तरह उठा और लपककर मैनेजर के पास पहुंचा । मैनेजर उसे साथ लेकर लिफ्ट के रास्ते पांचवीं मंजिल पर पहुंचा । वहां नारंग का एक चार कमरों का सूट था । जिस कमरे का दरवाजा मैनेजर ने खोला, वह एक रिसैप्शन के ढंग से सजा हुआ कमरा था । कोने में एक मेज लगी हुई थी जिसके पीछे एक बेहद खूबसूरत युवती बैठी थी । मैनेजर ने बजरंगी को उस युवती के हवाले किया और स्वयं वहां से चला गया ।
बजरंगी झिझकता-सा खड़ा रहा ।
युवती ने टेलीफोन उठाकर इंगलिश में कुछ कहा और फिर टेलीफोन रख दिया ।
कुछ क्षण बाद एक पिछला दरवाजा खुला और चौखट पर रणजीत दिखाई दिया । युवती ने उसे दिखाकर बजरंगी की तरफ संकेत कर दिया । रणजीत ने बजरंगी को समीप आने का संकेत किया ।
बजरंगी न जाने क्यों एकाएक भयभीत हो उठा । वह भारी कदमों से रणजीत के पास पहुंचा । रणजीत ने उसे बांह पकड़कर कमरे में खींच लिया और अपने पीछे दरवाजा बन्द कर लिया ।
“दीवार की ओर मुंह करके खड़े हो जाओ और हाथ ऊपर उठा लो ।” - वह कर्कश स्वर में बोला ।
बजरंगी के होंठ सूखने लगे । उसने तुरन्त आज्ञा का पालन किया ।
रणजीत ने उसकी जेबों को और शरीर के अन्य भागों को बड़ी दक्षता से टटोला । बजरंगी जानता था कि वह देख रहा था कि कहीं उसके पास कोई हथियार तो नहीं था ।
“चलो ।” - अन्त में रणजीत बोला ।
बजरंगी ने हाथ नीचे गिरा दिये और रणजीत के साथ आगे बढा ।
जिस कमरे में उसे रणजीत अब लाया था वह पहले के दो कमरों से भी ज्यादा बड़ा था । वहां एक विशाल खिड़की के सामने एक असाधारण आकार की मेज लगी हुई थी । उसके पीछे राजसिंहासन जैसी एक कुर्सी पर नारंग बैठा था ।
रणजीत ने उसे आगे धकेल दिया । वह झिझकता हुआ मेज के सामने जा खड़ा हुआ ।
नारंग ने अपनी पैनी निगाहों से उसका मुआयना करना आरम्भ कर दिया ।
बजरंगी का पसीना छूटने लगा ।
“क्या नाम है तुम्हारा ?” - नारंग का कठोर स्वर चाबुक की तरह उसकी चेतना से टकराया ।
“जी - जी, ब - बज - बजरंगी ।” - बजरंगी बड़ी मुश्किल से कह पाया ।
“मिमियाना बन्द करो और ठीक से बात करो ।”
“जी, बजरंगी नाम है मेरा ।”
“क्या चाहते हो ?”
“जी, मैं आपको कुछ बताना चाहता हूं ।”
“तो बताओ । जो कहना है, जल्दी-जल्दी कहो और एक ही बार में कहो ।”
बजरंगी यह सोचकर आया था कि जैसी करामाती जानकारी वह रखता था, उसे सुनकर नारंग उसे गले तो लगा ही लेगा । वह बड़े नाटकीय ढंग से अटक-अटककर, ढेरों सस्पैंस फैलाकर अपनी बात कहेगा ताकि नारंग को उसकी बात का और उसका महत्व पूरी तरह महसूस हो सके । लेकिन हकीकत में नारंग का रोब और दबदबा उस पर ऐसा गालिब हुआ कि उसके मुंह से यूं सारी बातें बाहर बिखरने लगीं जैसे नदी का बांध टूट जाने से पानी बह निकलता है ।
“आज रात साढे बारह बजे दौलतसिंह ग्रांट रोड पर स्थित एल्फ्रेड बार में स्वयं पुलिस कमिश्नर साहब से मिलने वाला है ।” - अन्त में बजरंगी बोला ।
नारंग का चेहरा एकाएक गम्भीर हो उठा था । उसने चिन्तित भाव से रणजीत की ओर देखा । रणजीत खुद सन्नाटे में आया हुआ था ।
“तुमने वह तस्वीर अच्छी तरह पहचानी थी ?” - अन्त में नारंग ने पूछा ।
“गलती की कोई गुंजाइश नहीं हुजूर ! - बजरंगी विनीत स्वर में बोला ।
“दौलतसिंह का पता बोलो ।”
“मुझे नहीं मालूम ।”
“क्या ?”
“जनाब, मुझे वाकई नहीं मालूम वह कहां रहता है । पहले वह खड़ा पारसा में रहता था लेकिन इतना मुझे मालूम है कि अब वह वहां नहीं रहता ।”
“उसका कोई और पता ठिकाना ?”
“मुझे नहीं मालूम, जनाब ।”
नारंग ने रणजीत की ओर देखा ।
रणजीत ने खेदपूर्ण ढंग से इन्कार में सिर हिलाया और बोला - “उसने जबसे खड़ा पारसा वाला मकान छोड़ा है हमने उसकी खोजखबर नहीं ली ।”
“लेकिन वह हरामजादा हमारी खोजखबर खोजखबर बखूबी लेता रहा ।” - नारंग कहरपूर्ण स्वर में बोला - “हमने गलती की जो हमने पहले उसे जिन्दा छोड़ दिया था । हमने सोचा था कि हमने उसके तमाम कस बल निकाल दिए हैं ।”
रणजीत चुप रहा ।
“उसे ढूंढो !” - नारंग फुंफकारा - “उसके लिए सारी बम्बई छान मारो । आधी रात से पहले वह हमारे अधिकार में होना चाहिये । समझ गए ।”
“मैं अभी इन्तजाम करता हूं ।” - रणजीत बोला और एक कोने में रखे एक टेलीफोन की तरफ लपका ।
बजरंगी परेशानहाल अपने स्थान पर खड़ा था । वह हैरान था कि उसने नारंग को इतनी भयंकर बात बताई थी लेकिन उसने कोई अहसान ही नहीं जताया था । कोई शाबाशी नहीं । कोई इनाम इकराम नहीं । उसकी बात सुन चुकने के बाद नारंग के लिये जैसे उसका अस्तित्व ही खत्म हो गया था ।
वह धीरे से खांसा ।
नारंग सिर झुकाये बैठा था । उसने चौंककर सिर उठाया । उसने बजरंगी की ओर यूं देखा जैसे वह हैरान हो रहा हो कि वह अभी तक वहीं था ।
“मेरे लिए क्या हुक्म है, हुजुर ?” - बजरंगी कठिन स्वर में बोला ।”
“तुम्हारे लिये हुक्म !” - नारंग ने उलझनपूर्ण स्वर में दोहराया - “ओह ! अच्छा !”
उसने अपनी जेब से एक पर्स निकाला । पर्स नोटों से भरा हुआ था । उसने उसमें से एक सौ का नोट निकाला और उसे बजरंगी की तरफ उछाल दिया । बिल्कुल यूं जैसे किसी कुत्ते को रोटी का टुकड़ा डाला हो ।
बजरंगी को अपना सपनों का महल धराशायी होता दिखाई दिया । वह जड़-सा यथास्थान खड़ा रहा ।
“उठाओ अपना इनाम और फूटो ।”
बजरंगी ने हड़बड़ाकर सौ का नोट उठा लिया लेकिन फूटा नहीं । वह हकलाता हुआ बोला - “साहब.. साहब ।”
“क्या है ? जल्दी बोलो । कुछ और चाहिए ?”
“साहब, मैं चाहता था कि... कि आप मुझे भी अपने चरणों में जगह दे देते ।”
“तुम्हें !” - नारंग नफरतभरे स्वर में बोला - “एक दगाबाज आदमी को ! तुम्हारे जैसे इन्सान का हम कैसे भरोसा कर सकते हैं । आज तुमने अपने एक छोटे फायदे के लिए दौलतसिंह को धोखा दिया है । कल तुम अपने किसी बड़े फायदे के लिए हमें भी तो धोखा दे सकते हो ?”
“हरगिज नहीं, जनाब, मैं तो...”
“तुम शुक्र मनाओ कि हम तुम्हारी जानबख्शी कर रहे हैं । हमें धोखेबाज आदमियों से सख्त नफरत है । अब दफा हो जाओ यहां से ।”
बजरंगी वहां से यूं भागा जैसे भूत देख लिया हो ।
उसके कमरे से निकलते ही नारंग ने फोन उठाया । उसने फोन पर मैनेजर को बुलाया और बोला - “वह आदमी नीचे आ रहा है । उसे पकड़ लो और अण्डरग्राउन्ड कर दो । जब तक मेरा आदेश न मिले उसे छोड़ा न जाए ।”
और उसने रिसीवर वापिस टेलीफोन पर पटक दिया ।
रणजीतसिंह अभी भी फोन से उलझा हुआ था ।
***
नारंग के सौ से अधिक आदमियों ने बम्बई का चप्पा-चप्पा छान मारा, सैकड़ों जगहों से हजारों लोगों से पूछताछ की लेकिन उन्हें दौलतसिंह की खोज-खबर न लग सकी ।
रात के साढ़े ग्यारह बज गए । नारंग अपने सूट में बैठा अंगारों पर लोट रहा था । रणजीत असहाय भाव से उसके सामने बैठा हुआ था ।
नारंग ने घड़ी देखी और बोला - “तलाश बंद करवा दो । अब लोगों पर निर्भर रहने का वक्त नहीं रहा है । अब खुद ही कुछ करना होगा ।”
रणजीत ने सहमति से सिर हिलाया ।
“तुम पुलिस कमिश्नर के पीछे आदमी लगाओ और ऐसा इन्तजाम करो कि निर्धारित समय पर वह एल्फ्रेड बार में न पहुंच पाये । अगर वह वहां पहुंच गया तो हमें उसका भी कत्ल करना होगा जो कि हमारे लिए बेहद खतरनाक साबित होगा । इतने बड़े पुलिस अधिकारी का कत्ल करने वाले अपराधी को पुलिस पाताल में से भी खोज निकालेगी क्योंकि यह उनकी इज्जत का सवाल होगा इसलिए हम नहीं चाहते कि ऐसी नौबत आए ।”
“ठीक है ।”
“और कमिश्नर को अटकाना भी बड़ी चतुराई से होगा उसकी गाड़ी का छोटा-मोटा एक्सीडेंट करवा दो या जिस रास्ते वह जा रहा हो उस पर कहीं नाकेबन्दी करवा दो । सिलसिला ऐसा होना चाहिए कि उसे तुरन्त किसी शरारत की बू न लगे ।”
“मैं अभी सब इन्तजाम करता हूं ।” - रणजीत बोला और फिर टेलीफोन में उलझ गया ।
नारंग ने चाबी लगाकर अपनी मेज का एक दराज खोला और उसमें से एक रिवॉल्वर निकाली । उसने रिवॉल्वर को अच्छी तरह चैक किया विशेष रूप से घोड़े को चैक किया कि कहीं वह अटकता तो नहीं था । रिवॉल्वर से पूरी तरह संतुष्ट हो जाने के बाद उसने उसमें गोलियां भरी और उसे पतलून की पिछली जेब में रख लिया ।
तभी रणजीत ने टेलीफोन क्रेडिल पर रखा और बोला - “सब इंतजाम हो गया है, बॉस ।”
“ठीक है । चलो ।” - नारंग बोला ।
वे वहां से बाहर निकले । नीचे आकर वे एक कार में सवार हुए । रणजीत ने गाड़ी चलानी आरंभ की । कार ग्रान्ट रोड की तरफ भाग निकली ।
नारंग के संकेत पर रणजीत ने कार को लैमिंगटन रोड पर वाई एम सी ए के पास रोक दिया । दोनों कार से निकले और पैदल आगे बढे ।
जिस वक्त उन्होंने एल्फ्रेड बार में कदम रखा, उस वक्त साढे बारह बजने में मुश्किल से तीस सेकेण्ड बाकी थे । दौलतसिंह उनसे केवल आधा मिनट पहले बार में दाखिल हुआ था । उससे पहले वह दस बजे बार के सामने की इमारत की छत पर चढा रहा था और बड़ी बारीकी से बार और आस-पास की निगरानी करता रहा था । जब उसे पूरी तसल्ली हो गई थी कि कमिश्नर साहब अपना वादा पूरा कर रहे थे, उन्होंने बार को घेरने के लिये कोई एडवांस पार्टी नहीं भेजी थी, तभी निर्धारित समय से थोड़ी देर पहले वह उस इमारत से निकला था और बार में दाखिल हुआ था । अगर नारंग और रणजीत एक मिनट पहले वहां पहुंचे होते तो वे दौलतसिंह को दिखाई दे जाते और फिर वह न केवल बार में कदम न रखता बल्कि भविष्य के लिये भी सावधान हो जाता ।
बार का मालिक एल्फ्रेड खुद बार काउन्टर के पीछे मौजूद था । वह नारंग को जानता था । उसने नारंग का अभिवादन किया लेकिन नारंग ने उसकी ओर ध्यान नहीं दिया । उसने चारों और निगाह दौड़ाई । बार बान्द होने का समय करीब था इसलिए बार खाली पड़ा था । केवल कोने की मेज पर बैठे दो आदमी बीयर पी रहे थे । उन्होंने एक सरसरी निगाह नारंग और रणजीत पर डाली और फिर बातें करने में मग्न हो गए ।
“क्लॉकरूम किधर है ?” - नारंग धीरे से बोला ।
एल्फ्रेड ने पिछवाड़े के एक दरवाजे की ओर संकेत कर दिया । वे दोनों दृढ कदमों से आगे बढ गये ।
उन दोनों ने पिछवाड़े का दरवाजा धकेला और उसमें दाखिल होकर निगाहों से ओझल हो गए ।
एल्फ्रेड के माथे पर बल पड़ गये ।
वह क्या चक्कर था ! नारंग आया और सीधा क्लॉकरूम की तरफ बढ गया । उससे पहले हाथ में ब्रीफकेस झुलाता एक आदमी और आया था और क्लॉकरूम की तरफ बढ गया था । उस आदमी ने तो पूछा तक नहीं था कि क्लॉकरूम किधर था । शायद वह पहले ही जानता था कि उस दरवाजे के पीछे गलियारे में क्लॉकरूम था । लेकिन....
धांय ! धांय ! धांय !
एल्फ्रेड के नेत्र फट पड़े । वह आवाज वह खूब पहचानता था । वह गोली चलने की आवाज थी । एक के बाद एक, तीन फायर हुए थे और आवाज पिछले गलियारे की तरफ से आई थी ।
वह बार के पीछे से निकला और पिछले गलियारे की तरफ भागा ।
बीयर पीते दोनों ग्राहक भी बीयर पीना भूलकर हक्के-बक्के से उसी तरफ देख रहे थे ।
एल्फ्रेड दरवाजा धकेल कर गलियारे में पहुंचा । गलियारा खाली था । फिर उसने क्लॉकरूम का दरवाजा धकेला और एकाएक यूं वहीं थमककर खड़ा हो गया जैसे उसे सांप सूंघ गया हो ।
नारंग के हाथ में रिवॉल्वर थी जिसमें से अभी धुंआ निकल रहा था । ब्रीफकेस वाला आदमी फर्श पर औंधा पड़ा था । उसकी छाती में से खून के फव्वारे छूट रहे थे और खून उसके शरीर के इर्द-गिर्द फर्श पर इकट्ठा होता जा रहा था । नारंग का साथी घुटनों के बल लाश के पास बैठा था और ब्रीफकेस को अपने एक घुटने पर टिकाये उसे खोलने की कोशिश कर रहा था ।
नारंग के हाथ में रिवॉल्वर थी जिसमें से अभी धुंआ निकल रहा था । ब्रीफकेस वाला आदमी फर्श पर औंधा पड़ा था । उसके छाती में से खून के फव्वारे छूट रहे थे और खून उसके शरीर के इर्द-गिर्द फर्श पर इकट्ठा होता जा रहा था । नारंग का साथी घुटनों के बल लाश के पास बैठा था और ब्रीफकेस को अपने एक घुटने पर टिकाये उसे खोलने की कोशिश कर रहा था ।
नारंग ने रिवॉल्वर का रुख एल्फ्रेड की तरफ किया और कहर भरे स्वर में बोला - “तुमने क्या देखा ?”
“क कुछ… कुछ नहीं ।” - एल्फ्रेड हकलाता हुआ बोला । उसके चेहरे का रंग उड़ गया था ।
“शाबाश ! समझ लो तुम्हारी जान बच गई ।”
एल्फ्रेड ने अपने सूखे होंठों पर जुबान फेरी ।
“जाकर अपना काम करो ।” - आदेश मिला ।
एल्फ्रेड उल्टे पांव वापिस बार में आ गया । उसका दिल जोरों से धड़क रहा था और चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थी ।
बीयर पीते दोनों ग्राहक काउंटर के पास आ खड़े हुये ।
“क्या हुआ था, एल्फ्रेड ?” - एक ने पूछा ।
“कुछ नहीं ठाकरे साहब ।” - एल्फ्रेड खोखले स्वर में बोला ।
“वह आवाज...”
तभी गलियारे वाला दरवाजा खुला और नारंग और रणजीत ने बार में कदम रखा । रणजीत के हाथ में ब्रीफकेस था और नारंग के हाथ में रिवॉल्वर थी जिसमें से अभी भी धुआं निकल रहा था ।
ठाकरे के नाम से पुकारा जाने वाला आदमी और उसका साथी दोनों मुंह बाये नारंग को देखने लगे । फिर एकाएक वे दोनों घूमे और तोप से छूटे गोले की तरह बार से बाहर भागे । तुरन्त एक मोटरसाइकिल स्टार्ट हुई और फिर उसके वहां से भाग निकलने की आवाज आई ।
“ये दोनों कौन थे ?” - नारंग ने पूछा ।
“मेरे पुराने ग्राहक हैं ।” - एल्फ्रेड होंठों पर जुबान फेरता हुआ बोला ।
“इन्हें जानते हो ?”
“हां एक का नाम ठाकरे है और दूसरे का दामले ।”
“ये दोनों...”
तभी बाहर एक टैक्सी आकर रुकी ।
“बॉस !” - एकाएक रणजीत आतंकित स्वर में बोला - “कमिश्नर साहब !”
नारंग भी हड़बड़ा गया । उसे पहली बार सूझा कि रिवॉल्वर तभी भी उसके हाथ में थी । उसने रिवॉल्वर जल्दी से जेब में डाली और एल्फ्रेड से पूछा - “पिछवाड़े में कोई रास्ता है ?”
“गलियारे के दूसरे सिरे पर जो दरवाजा है वह पिछली गली में खुलता है ।” - एल्फ्रेड बोला ।
दोनों फिर गलियारे की तरफ भागे ।
जब तक कमिश्नर साहब टैक्सी का किराया चुका कर निपटे, तब तक वे दोनों पिछवाड़े के रास्ते से निकलकर गली में पहुंच चुके थे और अंधेरे में तेजी से आगे बढ रहे थे ।
वे दोनों सुरक्षित अपनी कार तक पहुंच गये ।
“बाल-बाल बचे, बॉस ।” - रणजीत बोला ।
“वह तो हुआ !” - नारंग दांत पीसकर बोला - “लेकिन कमिश्नर का बच्चा इतनी जल्दी वहां कैसे पहुंच गया ? मैंने आदेश दिया था कि उसे काफी देर तक कहीं अटकाये रखा जाये । क्या करते हैं तुम्हारे आदमी ?”
“मैं मालूम करूंगा ।”
“हां । और जिसने लापरवाही बरती है, उसे सख्त सजा दो ताकि दूसरों के लिये सबक हो ।”
“यस, बॉस ।”
नारंग चुप हो गया ।
रणजीत भी चुप बैठा रहा ।
“ये ठाकरे और दामले नामक दोनों आदमी मुझे चिन्ता में डाल रहे हैं ।” - नारंग चिन्तित स्वर में बोला - “पुलिस उन तक जरूर पहुंचेगी । ऐसा होने से पहले हमें उन तक पहुंचना चाहिये । वे एल्फ्रेड के पुराने ग्राहक हैं । शायद वह जानता हो कि वे कहां रहते हैं ।”
“लेकिन इस वक्त हम एल्फ्रेड से बात कैसे कर सकते हैं । अब तक तो वहां पुलिस दिखाई देने लगी होगी ।”
नारंग कुछ क्षण सोचता रहा और फिर निर्णात्मक में बोला - “त्रिलोकीनाथ के यहां चलो ।”
रणजीत ने तुरन्त कार आगे बढा दी ।
त्रिलोकीनाथ को उन्होंने सोते से जगाया ।
त्रिलोकी नाथ नगर की एक गणमान्य और प्रतिष्ठित हस्ती थी । वह दो बार लोकसभा का सदस्य रह चुका था । स्थानीय हाई कोर्ट में वकालत करता था और वकील के नाते उसकी धूम सारे भारत में थी । राज्य और केन्द्रीय सरकार के बहुत ऊंचे-ऊंचे लोगों तक उसकी पहुंच थी । त्रिलोकीनाथ और नारंग पक्के दोस्त थे । दोनों के ही एक-दूसरे पर बहुत अहसान थे इसलिये दोनों एक-दूसरे के आड़े में काम आते थे और एक-दूसरे के अच्छे-बुरे काम पूरी संजीदगी से करते थे । त्रिलोकीनाथ को जो राजनैतिक सफलता मिली थी, उसका शत-प्रतिशत श्रेय नारंग को था । उसको दो बार लोक सभा का इलैक्शन जितवाने के लिये नारंग ने लाखों रुपया खर्च किया था । बदले में त्रिलोकीनाथ ने नारंग को कई बार बड़े-बड़े बखेड़ों से निकाला था । ऊंचे-ऊंचे ओहदों पर लगे सरकारी अधिकारियों की वाकफियत का भरपूर फायदा उठाकर उसने नारंग को कई बार जेल तक जाने से बचाया था । नारंग उस पर बहुत निर्भर करता था । अपनी नादानी और जल्दबाजी की वजह से वह जब भी कोई मुसीबत मोल ले लेता था, उसे त्रिलोकीनाथ की ही याद आती थी और त्रिलोकीनाथ ने आज तक कभी निराश नहीं किया था ।
त्रिलोकीनाथ ने बड़ी गम्भीरता से नारंग की सारी कहानी सुनी और फिर तुरन्त कुछ करने का आश्वासन देकर उसे घर भेज दिया ।
त्रिलोकीनाथ एल्फ्रेड बार की ओर रवाना हुआ और नारंग अपने होटल आ गया ।
कोई एक घण्टे बाद उसके प्राइवेट फोन की घण्टी बजी तो उसने झपटकर उसे उठा लिया ।
फोन त्रिलोकीनाथ का ही था ।
“क्या खबर है ?” - नारंग ने व्यग्र स्वर में पुछा ।
“चिन्ता की कोई बात नहीं है” - त्रिलोकीनाथ का आश्वासनपूर्ण स्वर सुनाई दिया - “एल्फ्रेड ने अपने बयान में ऐसी कोई बात नहीं कही है जो तुम्हें फंसा सके, या घटना से तुम्हारा सम्बन्ध तक जोड़ सके । उन दोनों आदमियों के पते मैंने एल्फ्रेड से मालूम कर लिये थे । मैंने दोनों से बात की है । तुम्हारे खिलाफ कोई गवाही देना तो दूर की बात है, वे तो यह भी नहीं चाहते कि पुलिस को उनकी खबर तक लगे । एल्फ्रेड ने भी पुलिस को उनकी मौजूदगी के बारे में कुछ नहीं बताया है । अपने बयान में उसने कहा है कि बार तो बारह बजे से ही खाली पड़ा था जैसा कि कमिश्नर साहब ने वहां आने पर देखा था ।”
“ओह !”
“कहने का मतलब यह है कि तुम एकदम निश्चिन्त हो जाओ और चैन की नींद सोओ । बाकी बातें फिर होंगी ।”
“ठीक है । मैं तुम्हारा दिल से शुक्रगुजार हूं, त्रिलोकीनाथ ।”
“नैवर माइंड ।”
सम्बन्ध विच्छेद हो गया ।
***
दौलतसिंह की हत्या का केस भी पुलिस के अनसुलझे केसों की फाइल में पहुंच गया ।
पुलिस कमिश्नर के खुद जोर लगाने के बावजूद भी नारंग के खिलाफ कुछ भी साबित न किया जा सका । नारंग का सबसे बड़ा बचाव त्रिलोकीनाथ की इस गवाही ने किया कि हत्या के समय नारंग उसके घर में उसके साथ मौजूद था ।
एल्फ्रेड के बयान से पुलिस के हाथ कुछ भी न लगा । कत्ल कैसे हुआ, उसने इस बात से सम्पूर्ण अनभिज्ञता प्रकट की । उसके ख्याल से हत्यारा पिछले दरवाजे से जो कि पता नहीं कैसे खुला रह गया था, वहां आया था और कत्ल करके उधर से ही भाग गया था ।
ठाकरे और दामले की पुलिस को कभी खबर न लगी ।
दौलतसिंह द्वारा कमिश्नर साहब को भेजी नारंग की वह तस्वीर जिसमें नारंग मुहम्मद मुस्तफा से हीरे हासिल करता दिखाया गया था, भी कुछ सिद्ध न कर सकी । नारंग ने यही दावा किया कि वह तस्वीर फोटोग्राफी की कोई ट्रिक थी और वह उसके बारे में कुछ नहीं जानता था ।
छ: महीने की हाय-तौबा के बाद केस पुलिस फाइलों में सिमट गया ।
***
त्रिलोकीनाथ का ऑफिस फ्लोरा फाउन्टेन वाले चौराहे के समीप स्थित एक पांच मंजिली इमारत की तीसरी मंजिल पर था । ऑफिस में दो कमरे थे । सामने वाले कमरे में विमल बैठा था और पिछले कमरे में त्रिलोकीनाथ का दफ्तर था उसके दरवाजे पर ‘प्राइवेट’ लिखा हुआ था ।
बम्बई वह आखिरी जगह थी जहां विमल कदम रखने की कल्पना कर सकता था । उसके उन जघन्य अपराधों का तांता यहीं से शुरु हुआ था, जो कि पकड़े जाने पर सीधे फांसी के फन्दे पर पहुचा सकते थे । यहीं उसके हाथों लेडी शान्ता गोकुलदास का कत्ल हुआ था और अब तकदीर दोबारा उसे वापस बम्बई ले आई थी ।
आरम्भ में तो उसे बहुत डर लगा था लेकिन कुछ दिन गुजर जाने के बाद उसने अनुभव किया था कि किसी एक स्थान का भय पालना फालतू-सी बात थी । उसके अपराधों की लिस्ट इतनी लम्बी हो गई थी अब कि इलाहाबाद, बम्बई, मद्रास, दिल्ली और अमृतसर की पुलिस को ही नहीं बल्कि सारे देश की पुलिस को उसकी तलाश थी । सरदार सुरेन्द्रसिंह सोहल उर्फ विमलकुमार खन्ना, उर्फ गिरीश माथुर, उर्फ बनवारीलाल, उर्फ रमेशकुमार शर्मा, उर्फ कैलाश मल्होत्रा (उसका वर्तमान नाम) इश्तिहारी मुजरिम था । वह न पकड़ा जाता तो चिराग तले अंधेरा की तरह ऐन पुलिस की नाक के नीचे न पकड़ा जाता और अगर पकड़ा जाता तो खतरे का कोई आभास न होते हुए भी खामखाह पकड़ा जाता जैसे कि वह शोलापुर में पकड़े जाने से बाल-बाल बचा था ।
अपने हिप्पी लिबास में किसी प्रकार वह दिल्ली से शोलापुर तक पहुंच गया । उसका इरादा गोवा पहुंचने का था जहां से कि वह कहीं विदेश को भाग निकलने का जुगाड़ करना चाहता था । शोलापुर में पता नहीं कैसे पुलिस के एक सिपाही ने उसे पहचान लिया था । वह बड़ी मुश्किल से उसकी गिरफ्त में आने से बचकर भागा था लेकिन उसने उसका पीछा नहीं छोड़ा था । उसने सीटी बजा-बजाकर कई और सिपाही इकट्ठे कर लिए थे । वह लगभग घिर ही चुका था कि तब उसे एक स्थान पर एक कार खड़ी दिखाई दी थी । संयोगवश कार का पिछला दरवाजा खुला था । वह पिछली सीट के सामने कार के फर्श पर लेट गया था । पुलिस के वहां पहुंचने से पहले ही कार का मालिक वहां पहुंच गया था और कार में सवार होकर वहां से रवाना हो गया था । कार का मालिक त्रिलोकीनाथ था । थोड़ी ही देर बाद उसे कार में किसी की उपस्थिति का भान हो गया था और उसने कार रोक दी थी ।
उसका त्रिलोकीनाथ से आमना-सामना हुआ ।
उसने रोते-गिड़गिड़ाते अपने फर्जी अपराध की कहानी त्रिलोकीनाथ को सुना दी थी और उसने रहम की भीख मांगी थी । उसने उसे बतलाया था कि उसका नाम कैलाश मल्होत्रा था कुछ गुंडे उसकी बहन को छेड़ रहे थे । उसने उन्हें मना किया था तो एक ने चाकू निकाल लिया था और उस पर झपट पड़ा था लेकिन छीना-झपटी में चाकू उस गुंडे को ही लग गया था और वह डरकर घटनास्थल से भाग आया था । अब पुलिस उनके पीछे पड़ी हुई थी और वह किसी प्रकार घटनास्थल से बहुत दूर निकल जाना चाहता था ।
त्रिलोकीनाथ का दिल पसीज गया था और उसने उसे अपनी कार की डिकी में छुपा लिया था जो कि अच्छा ही किया था क्योंकि पुलिस ने नगर से निकासी के सारे रास्तों की नाकाबन्दी की हुई थी । त्रिलोकीनाथ बड़ा आदमी था । उसने नाकेबन्दी पर जब अपना परिचय दिया था तो उसे फौरन वहां से गुजर जाने दिया गया था । इस प्रकार विमल वहां से तो बच निकला था लेकिन कई घंटों बाद जब त्रिलोकीनाथ ने कार खड़ी की थी और उसे डिकी से निकाला था तो उसने स्वयं को बम्बई में पाया था ।
उस रात त्रिलोकीनाथ ने उसे अपने घर में शरण दी थी ।
अगली सुबह उसने विमल से पूछताछ की थी तो उसे मालूम हुआ था कि वह बी कॉम, एल एल बी तक शिक्षा प्राप्त था और दक्ष अकाउंटेंट था । त्रिलोकीनाथ ने उसे बताया था कि वह एक वकील था, उसका क्लर्क हाल ही में नौकरी छोड़कर चला गया था और अगर विमल चाहता तो वह उसे वह नौकरी दे सकता था ।
विमल ने सहर्ष नौकरी कर ली ।
नौकरी के बाद उसने अपनी शक्ल-सूरत में केवल इतना अन्तर पैदा किया था कि उसने अपने हिप्पी परिधान को तिलांजलि दे दी थी और उसके स्थान पर सीधी-सादी पतलून बुशर्ट पहननी आरम्भ कर दी थी । आंखों में वह चश्मे की जगह कांटेक्ट लैंस ही लगाये हुए था और पाइप वह अभी भी पीता था । अमृतसर में बैंक के डाके के समय हाथ आई पचास-पचास के नये नोटों की दस गड्डियां अभी भी उसके अधिकार में थीं लेकिन उनका कोई वक्ती इस्तेमाल उसे नहीं दिखाई दे रहा था ।
उसे त्रिलोकीनाथ के यहां काम करते दो महीने हो गये थे और वे दो महीने बड़े चैन से कटे थे ।
उसी दौर में देश में एक बड़ा इंकलाबी परिवर्तन आया था ।
देश में आपतकालीन स्थिति की घोषणा हो गई थी ।
फिर आपतकालीन स्‍थिति की ओट में सत्तारूढ सरकार का ऐसा दमन चक्र चला कि बड़े-बड़े सूरमाओं के कलेजे कांप उठे । कोई सुनवाई नहीं, कोई दाद-फरियाद नहीं, जिसको जी चाहो पकड़ो, उसे आन्तरिक सुरक्षा कानून के अन्तर्गत पकड़कर जेल में डाल दो और फिर उसके अस्तित्व को भूल जाओ । सत्ता जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों के हाथ से निकलकर एक ऐसे व्यक्ति के हाथ में पहुंच गई जो सरकार की मशीनरी का मामूली-सा भी पुर्जा नहीं था । उसके चमचों की इतनी बन आई कि उन्होंने रासुका की ओट में लोगों से अपनी जाती अदावतों के बदले लेने आरम्भ कर दिए । किसी की गली का कुत्ता भी भौंके तो उस घर के मालिक को गिरफ्तार करवा दो जिसके आगे वह बैठा है और उसे ब्लैक मार्केटियर, मुनाफाखोर, जनसंघी, हिन्दूमहासभाई या कुछ भी कहकर जेल में डलवा दो । फिर आपातकालीन स्थिति की कथित उपलब्धियों का भारी प्रचार आरम्भ हुआ । स्मगलरों, ब्लैक मार्केटियरों, मुनाफाखोरों तथा अन्य कथित असामाजिक तत्वों की धरपकड़ के राग अलापे गये । कहा गया कि रातों-रात आवश्यक वस्तुओं की कीमतें नीचे आ गई हैं और जो वस्तुएं पहले ब्लैक-मार्केट में उपलब्ध थीं, अब आम मिलने लगी हैं । जनता को बताया गया है कि देश में अनुशासन, कर्त्तव्यनिष्ठता और ईमानदारी की लहर दौड़ गई थी और लोग अब एकाएक काहिल और कामचोर नहीं रहे थे । रेडियो और प्रेस को इस प्रकार नियन्त्रित किया गया कि सारे देश में केवल इंदिरा गांधी और संजय गांधी की जय-जयकार के अलावा कोई दूसरी आवाज सुनाई देनी बन्द हो गई । समझ में नहीं आता था कि कौम अपनी परम्परागत बेईमानी, काहिली और कामचोरी की आदतों से पल्ला झाड़कर सचमुच सुधर रही थी या सरकारी डंडे की मार से बचने के लिए केवल ऐसा दिखावा कर रही थी लेकिन इतना जरूर हुआ कि उन ढंके-छुपे जरायमपेशा लोगों के कलेजे कांपने लगे जो यह समझते थे कि उनकी इतनी ऊपर तक पहुंच थी, अपने-आपको कानून की पकड़ से बचाये रखने के उनके इतने साधन थे कि कोई उनकी ओर उंगली नहीं उठा सकता था ।
ऐसे लोगों में नारंग भी एक था ।
एमरजेंसी क्या आई उसके लिए तो कजा आ गई । पहले तो उसने यही समझा कि दिखावे की छोटी-मोटी धरपकड़ हो रही थी । उस जैसे ऊंचे और साधनसम्पन्न लोगों की तरफ सरकार आंख नहीं उठा सकती थी । लेकिन जब बखिया, हाजी मस्तान और पटेल जैसे टॉप के स्मगलर आन्तरिक सुरक्षा कानून के अन्तर्गत गिरफ्तार करके जेल में डाल दिए गये तो उसके छक्के छूट गये । अब तो किसी भी क्षण उसकी भी बारी आ सकती थी । ऐसी नौबत आने से पहले ही उसने अपनी सलामती का कोई इंतजाम करना था ।
उस कठिन घड़ी में उसे फिर अपने संकट-मोचन त्रिलोकीनाथ की याद आई ।
उस रोज सुबह सवेरे ही वह त्रिलोकीनाथ के दफ्तर में पहुंच गया ।
पहले रणजीत भीतर दाखिल हुआ । उसने विमल की ओर कतई ध्यान दिये बिना आगे बढकर त्रिलोकीनाथ के प्राइवेट ऑफिस का दरवाजा खोला और उसे भीतर बैठा पाकर नारंग को संकेत किया ।
फिर दोनों भीतरी ऑफिस में बंद हो गये ।
साधारणतया भीतरी ऑफिस की आवाजें बाह‍र नहीं निकलती थी, लेकिन भीतर अगर कोई ऊंची आवाज से बोलता था तो आवाज बाहर आ जाती थी ।
“मैं कोई एमरजेंसी नहीं जानता ।” - एकाएक उसके कानों में नारंग का आदेशपूर्ण स्वर पड़ा - “मेरा नाम मीसा के अंतर्गत पकड़े जाने वाले स्मगलरों की लिस्ट में नहीं आना चाहिए ।”
“मैं ऐसा नहीं कर सकता ।” - त्रिलोकीनाथ की आवाज आई ।
“क्यों नहीं कर सकते तुम ? क्या मुश्किल है इसमें ? तुम इतने बड़े-बड़े काम करते रहे हो ।”
“वक्त बदल गया है, नारंग और वक्त के साथ-साथ मैं भी बदल गया हूं । मैं देश के साथ गद्दारी नहीं कर सकता ।”
“अब तक जो कुछ करते रहे हो, वह क्या देश के साथ गद्दारी नहीं थी ?”
“थी । लेकिन तब मुझे उससे एतराज नहीं था । अब है । आज जबकि देश का बच्चा अपने कर्त्तव्य को पहचानकर देश के उत्थान में अपना योगदान दे रहा है, देश के हित के लिए कुछ न कुछ कर रहा है तो क्या मुझे अपने कुकर्मों को छोड़कर देश की बेहतरी के लिए कुछ नहीं करना चाहिए ? नारंग, अब मैं असामाजिक तत्वों का साथ नहीं दे सकता ।”
“नौ सौ चूहे खा के बिल्ली हज को चली । त्रिलोकीनाथ, जिस असामाजिक तत्व का तुम साथ नहीं देना चाहते, उसी की वजह से तुम वह बने हो जो कुछ तुम आज हो । मैंने तुम्हें जमीन से उठाकर आसमान पर पहुंचाया है । तुम्हारी आज की सारी मान-मर्यादा रुतबा, प्रतिष्ठा, सब मेरी वजह से है । मेरी दौलत के दम पर तुम दो बार मेम्बर पार्लियामेंट बने । मेरी दौलत के दम पर तुम इतने बड़े वकील बन पाये । तुम आज जो कुछ हो, मेरी वजह से हो और आज इस संकट की घड़ी में तुम मुझे आंखें दिखा रहे हो । मुझे नहीं मालूम था कि तुम इतने नाशुक्रे और यारमार आदमी निकलोगे ।”
“मैं न नाशुक्रा हूं और न यारमार और न तुम्हें आंखें दिखा रहा हूं । मैं तुम्हें सिर्फ इतना बता रहा हूं कि मैं अब या आज के बाद तुम्हारी कोई गैरकानूनी मदद नहीं कर सकता । लेकिन तुम समर्थ आदमी हो । तुम्हें मेरे अलावा भी अपने बहुत मददगार मिल जायेंगे ।”
“मैं किसी और को नहीं जानता । मेरे ट्रबलशूटर तुम हो । संकट की घड़ी में मैं हमेशा तुम्हारे पास आया हूं । आज मैं कोई नया घर तलाश करने नहीं जा सकता ।”
“और फिर अभी हुआ ही क्या है ! तुम भी नाहक परेशान हो रहे हो । अभी तक स्मगलरों की किसी लिस्ट में तुम्हारा नाम नहीं आया है । शायद वह आये ही नहीं ।”
“शायद से मेरा काम नहीं चलता । मैं गारन्टी चाहता हूं । और वह गारन्टी तुम्हारे हाथ पांव हिलाये बिना मुझे हासिल नहीं होने वाली ।”
“मैं ऐसी कोई गारन्टी नहीं कर सकता ।”
“यह तुम्हारा आखिरी फैसला है ?”
“हां । मेरा हृदय परिवर्तन हो चुका है । मैंने निश्चय कर लिया है कि भविष्य में मैं ऐसा काम नहीं करुंगा जिसमें देश और समाज का अहित हो ।”
“भविष्य में तुम कैसा भी काम नहीं कर पाओगे । त्रिलोकीनाथ, यह मत भूलो, अगर मैं डूबूंगा तो तुम भी मेरे साथ डूबोगे । मैं फंसूंगा तो तुम भी फंसोगे ।”
“मुझे कोई एतराज नहीं, मेरे गुनाहों की लिस्ट तुम्हारे गुनाहों की लिस्ट जितनी लम्बी नहीं । मैं, तुम्हारी तरह फांसी में नहीं लटकूंगा । मुझे केवल दो तीन साल की सजा होगी और इसे मैं अपने गुनाहों के प्रायश्चित के रूप में खुशी से कबूल कर लूंगा ।”
“तुम्हारा प्रायश्चित भी मेरे हाथों और क्रियाकर्म भी ।” - इस बार एक कुर्सी घसीटी जाने की भी आवाज आई । कुर्सी शायद उलटकर जोर से फर्श पर गिरी । फिर नारंग गला फाड़कर चिल्लाया - “त्रिलोकीनाथ, मेरे साथ दगाबाजी करोगे तो मैं लाश का भी पता नहीं लगने दूंगा ।”
“यह गीदड़ धमकियां किसी और को देना ।” - त्रिलोकीनाथ भी चिल्लाया - “मैं कोई कल का पैदा हुआ लौंडा नहीं जो तुमसे डर जाऊंगा । तुमने मेरी ओर एक उंगली भी उठाई तो मैं तुम्हारी गर्दन कटवाने का सामान कर दूंगा ।”
“क्या पिद्दी और क्या पिद्दी का शोरबा ! क्या करोगे तुम ?”
“तुम दौलतसिंह के कत्ल को भूल गये मालूम होते हो । उसके कत्ल की पूरी दास्तान केवल मैं जानता हूं । उसे सविस्तार लिखकर मैंने अपने पास सुरक्षित रखा हुआ है । अगर मुझे कुछ हो गया तो वह सीधी पुलिस के हाथों में पहुंच जायेगी । उसके बाद तुम पिद्दी का दम भी देखना और पिद्दी के शोरबा का भी ।”
एकाएक सन्नाटा छा गया ।
थोड़ी देर बाद बीच का दरवाजा भड़ाक से खुला और नारंग पगलाए सांड की तरह फर्श को रौंदता हुआ ऑफिस से बाहर निकल गया । रणजीत हड़बड़ाया सा उसके पीछे भाग रहा था ।
ऑफिस में एकाएक मरघट का सा सन्नाटा छा गया ।
त्रिलोकीनाथ के कमरे में से कतई कोई आवाज नहीं आ रही थी ।
आधे घंटे तक यही आलम रहा ।
फिर त्रिलोकीनाथ ने घंटी बजाकर विमल को बुलाया ।
वह फौरन उसके कमरे में पहुंचा । उसने देखा त्रिलोकीनाथ बेहद परेशानहाल अपनी मेज के पीछे बैठा था । उसने अपने दोनों हाथों से अपना माथा थामा हुआ था । उसके सामने कुछ लिखे हुए कागज पड़े थे ।
विमल धीरे से खांसा ।
“कैलाश !” - त्रिलोकीनाथ ने सिर उठाया और धीरे बोला - “आज मैं एक बहुत गुप्त बात में तुम्हें अपना राजदार बनाना चाहता हूं । क्या मैं तुम पर भरोसा कर सकता हूं ?”
“मेरी जान हाजिर है, साहब !” - विमल बोला । थोड़ी देर पहले उसने जो वार्तालाप सुना था, उसकी वजह से उसकी निगाहों में त्रिलोकीनाथ का दर्जा बहुत ऊंचा हो गया था ।
“मुझे तुमसे यही उम्मीद थी । हालांकि मैं तुम्हारे बारे में ज्यादा कुछ नहीं जानता लेकिन मेरा शुरु से ही विश्वास है कि तुम किसी भले घर के चिराग हो । इसीलिए‍ मैं बेझिझक तुम्हें अपना राजदार बना रहा हूं ।”
“आपका हुक्म सर-आंखों पर साहब ।” - विमल बोला । त्रिलोकीनाथ ने अपने सामने पड़े लिखे हुए कागजात उठाये और उन्हें विमल को थमाता हुआ बोला - “इसे टाइप कर लाओ । प्रतिलिपि की जरूरत नहीं । टाइप कर चुकने के बाद मेरे हाथ के लिखे ये कागज नष्ट कर देना ।”
“ठीक है, साहब ।” - विमल बोला और कागज लेकर बाहर निकल गया ।
अपनी मेज पर पहुंचकर उसने टाइपराइटर अपने सामने खींच लिया । उसने रोलर पर कागज चढाया । टाइप करना शुरु करने से पहले उसने त्रिलोकीनाथ के दिये कागजों को पहले पढ लिया । ज्यों-ज्यों वह पढता गया, उसके नेत्र फैलते गये । उसमें लिखा था -
आज से कोई आठ महीने पहले, 26 नवम्बर को रात के साढे बारह बजे ग्रांट रोड पर स्थित एल्फ्रेड बार के क्लॉक रूम में दौलतसिंह नामक एक आदमी का कत्ल हुआ था । पुलिस को उस कत्ल का आज तक कोई सुराग नहीं मिला है और वह केस पुलिस के अनसुलझे केसों की फाइल में दफन हो चुका है । उस केस के वास्तविक तथ्य इस प्रकार हैं -
दौलतसिंह एक छोटा-सा स्मगलर था जिसका मैरिन ड्राइव पर स्थित नारंग होटल के मालिक विशम्भरदास नारंग ने बेड़ा गर्क कर दिया था । विशम्भरदास नारंग एक बहुत बड़ा स्मगलर है । वह बहुत बड़ा दादा और माफिया का भारतीय एजेण्ट है । उसका होटल उसके अपराधों के अड्डे के लिये ओट का काम करता है । दौलतसिंह ने बदला लेने की खातिर अपनी अनथक मेहनत से नारंग के खिलाफ कई ऐसे अकाट्य सबूत इकट्ठे कर लिये थे जो नारंग को न केवल बहुत बड़ा स्मगलर सिद्ध कर सकते थे बल्कि उसे निर्विवाद रूप से कम-से-कम आधी दर्जन हत्याओं का अपराधी भी सिद्ध कर सकते थे । वे तमाम सबूत एक पूर्व निर्धारित सौदे के अन्तर्गत 26 की रात को साढे बारह बजे एल्फ्रेड बार में दौलतससिंह स्वयं पुलिस कमिश्नर साहब को सौंपने वाला था । कनकटे बजरंगी नामक एक मामूली जेबकतरे की गद्दारी से वह सारी जानकारी समय रहते नारंग के हाथ में पहुंच गई थी ।
निर्धारित समय पर दौलतसिंह एक ब्रीफकेस में सारे कागजात रखकर एल्फ्रेड बार में पहुंच गया था । लेकिन नांरग ने ऐसा इन्तजाम किया था कि निर्धारित समय पर कमिश्नर साहब वहां न पहुंच पायें । उनके स्थान पर अपने दाहिने हाथ रणजीत के साथ नारंग खुद वहां पहुंचा और उसने क्लॉक रूम में दौलतसिंह को शूट करके उसका ब्रीफकेस अपने अधिकार में कर लिया । बार के मालिक एल्फ्रेड ने पुलिस को बयान दिया था कि गोलियों की आवाज सुनकर जब वह क्लॉक रूम में पहुंचा था, तब तक हत्यारा पिछले दरवाजे के रास्ते कहीं से भाग चुका था । लेकिन एल्फ्रेड का बयान झूठा था । उसने नारंग या रणजीत का जिक्र तक नहीं किया था ।
वास्तव में नारंग और रणजीत उसके सामने, उसी से पूछकर क्लॉकरूम गये थे । तुरंत बाद तीन बार गोली चलने की आवाज हुई थी । वह भागता हुआ क्लॉक रूम में पहुंचा था तो उसने दौलतसिंह को जमीन पर मरा पड़ा पाया था । रणजीत दौलतसिंह का ब्रीफकेस खोल रहा था और हाथ में रिवॉल्वर लिये नारंग खड़ा था । रिवॉल्वर की नाल से तब भी धुआं निकल रहा था । एल्फ्रेड उलटे पांव वहां से वापिस चला गया था । कुछ क्षण बाद नारंग और एल्फ्रेड बार में प्रकट हुये थे । दौलतसिंह का ब्रीफकेस रणजीत के हाथ में था और नारंग के हाथ में धुआं उगलती रिवॉल्वर अभी भी मौजूद थी ।
उस समय बार में ठाकरे और दामले नाम के दो ग्राहक मौजूद थे जो एल्फ्रेड के पूर्व परिचित थे । उन्होनें भी वह दृश्य देखा था और भयभीत होकर वहां से भाग निकले थे । लेकिन एल्फ्रेड ने अपने बयान में उन दोनों का जिक्र तक नहीं किया था । इसलिए पुलिस को उन दो महत्वपूर्ण गवाहों की कभी खबर नहीं लगी थी । उनके पूरे नाम और पते इस प्रकार हैं -
1 - ए. एस. ठाकरे : 26 हसन मंजिल तीसरा माला फ्लैट नंबर 7, कालबा देवी रोड, बम्बई ।
2 - पी. सी. दामले : मकान नम्बर 433, धोबी तालाब, बम्बई - 1
मुझे इस अपराध की इतनी बारीकियां इसलिये मालूम हैं क्योंकि हत्या होने के पन्द्रह बीस मिनट बाद नारंग और रणजीत मेरे घर पर आये थे । उन्होनें मुझे सोते से जगाया था और स्वयं मुझे बताया था कि वास्तव में क्या हुआ था । नारंग ने मुझे बताया था कि एल्फ्रेड से सहयोग हासिल होने की उसे पूरी उम्मीद थी लेकिन वह उन दो गवाहों के प्रति चिन्तित था जो घटना स्थल पर मौजूद थे । क्योंकि घटनास्थल पर पुलिस पहुंच चुकी थी इसलिये वह खुद वहां नहीं जा सकता था । उसने मुझसे प्रार्थना की कि मैं वहां जाऊं और उन दोनों आदमियों के बारे में जानकारी हासिल करने की कोशिश करूं ।
मैंने किसी प्रकार एल्फ्रेड से ठाकरे और दामले के पते हासिल किये । उसी रात को मैं उन दोनों के घरों पर उनसे मिला । वे दोनों ही पुलिस का बड़ा खौफ खाने वाले आदमी सिद्ध हुये । उन्होंने कहा कि वे पुलिस के साथ किसी प्रकार के सम्पर्क में नहीं आना चाहते थे इसलिये उनकी घटनास्थल पर मौजूदगी का किसी के सामने जिक्र न किया जाये । एल्फ्रेड ने पहले ही पुलिस को उनके बारे में कुछ नहीं बताया था । मैंने उनसे पूछा कि क्या वे हत्यारे को पहचानते थे, तो उन्होंने मेरे इस प्रश्न को टाल दिया लेकिन मुझे पूरा विश्वास है कि वे नारंग को पहचानते थे ।
फिर मैंने नारंग को सूचित कर दिया कि उसे उन दोनों की तरफ से कोई खतरा नहीं था ।
मैं वकील हूं और गवाहों की नीयत पहचानने का बड़ा तजुर्बा रखता हूं । मेरी धारणा है कि वे लोग पुलिस के पास खुद नहीं जाने वाले लेकिन पुलिस द्वारा जवाबतलबी किये जाने पर वे निश्चय ही सच-सच सब कुछ बता देंगे । आज तक उनकी जवाबतलबी की नौबत इसलिये नहीं आई, क्योंकि पुलिस को उनके अस्तित्व का भी ज्ञान नहीं है । मेरा यह भी दावा है कि अगर एल्फ्रेड का उन दोनों से आमना-सामना करवा दिया जाये तो वह कोई और ही राग अलापेगा और इस प्रकार उन तीनों की सामूहिक शहादत से नारंग के विरुद्ध हत्या का अपराध बड़ी सहूलियत से सिद्ध किया जा सकता है ।
नीचे दाईं ओर त्रिलोकीनाथ का नाम लिखा हुआ था । बाईं ओर गवाह के रूप में उसका नाम लिखा था ।
विमल ने वह सारी स्टेटमेंट सावधानी से टाइप कर दी । उसने त्रिलोकीनाथ की हस्तलिखित स्टेटमेंट को माचिस दिखा दी और टाइप की हुई स्टेटमेंट को लेकर त्रिलोकीनाथ के ऑफिस में पहुंचा । त्रिलोकी नाथ ने सारी स्टेटमेंट सावधानी से पढ़ी और फिर उस पर हस्ताक्षर करके तारीख डाल दी । उसने गवाह के स्थान पर विमल के हस्ताक्षर करवा दिये ।
फिर उसने स्टेटमेंट को एक लम्बे लिफाफे में बन्द करके लिफाफे को सील कर दिय । लिफाफे पर उसने पुलिस कमिश्नर, बम्बई पुलिस लिख दिया ।
हे भगवान ! - विमल मन-ही-मन सोचने लगा - क्या वह आदमी इस स्टेटमेंट को पुलिस के हवाले करने जा रहा था । इससे अगर नारंग फंसता तो वह खुद भी तो फंस जाता ।
लेकिन त्रिलोकीनाथ इतना नादान नहीं था ।
वह लिफाफा अपने हाथ में लिये अपने स्थान से उठा और एक कोने में पड़ी इस्पात की एक मजबूत सेफ के पास पहुंचा । उस सेफ पर, चाबी के छेद स्थान पर एक टेलीफोन जैसा डायल लगा हुआ था ।
“यह सेफ !” - त्रिलोकीनाथ बोला - “डायल पर एक विशेष नम्बर घुमाने पर खुलती है और फिर वही नम्बर घुमाने पर बंद होती है । वह नम्बर मेरे अलावा कोई नहीं जानता । आज वह नम्बर मैं तुम्हें बता रहा हूं । नम्बर है 515656 । इसे अच्छी तरह याद कर लो । शायद किसी विशेष स्थिति में तुम्हें यह सेफ खोलनी पड़े ।”
515656  - विमल होंठों में बुदबुदाया ।
त्रिलोकीनाथ ने वह नम्बर डायल करके सेफ खोली और लिफाफा भीतर रख दिया ।
“अगर निकट भविष्य में किसी भी वजह से मेरी मौत हो जाये तो तुम सेफ खोलकर यह लिफाफा निकाल लेना और इसे पुलिस कमिश्नर तक पहुंचा देना । समझ गये ?”
“समझ तो गया, साहब !” - विमल बोला - “लेकिन आपकी मौत...”
“मेरा निकट भविष्य में मरने का कोई इरादा नहीं है लेकिन कभी-कभी ऐसे काम भी हो जाते हैं जिनकी इंसान अपेक्षा नहीं कर रहा होता । मैं हर स्थिति के लिये तैयार रहना चाहता हूं ।”
विमल चुप रहा ।
त्रिलोकीनाथ ने सेफ दोबारा बंद कर दी और बोला - “अब तुम जा सकते हो ।”
विमल बाहरी कमरे में आ गया ।
उस रात विमल को बड़ी देर बाद नींद आई ।
***
अगले दिन हमेशा की तरह साढे नौ बजे विमल ऑफिस में पहुंचा । त्रिलोकीनाथ दस बजे आता था लेकिन उसका निर्देश था कि विमल आधा घण्टा पहले आ जाया करे । उस रोज उसने ऑफिस का बाहरी दरवाजा खुला पाया । क्या त्रिलोकीनाथ आज जल्दी आ गया था । विमल दो महीने से वहां काम कर रहा था । उस अरसे में एक भी बार ऐसा नहीं हुआ था कि त्रिलोकीनाथ दस बजे से पहले आया हो । ऐसा तो हो जाता था कि वह दस बजे के बाद आया हो, बहुत बाद आया हो या आया ही न हो, लेकिन दस बजे से पहले वह कभी नहीं आया था ।
दरवाजा धकेल कर भीतर घुसने से पहले विमल ठिठका ।
ताले के छेद के इर्द-गिर्द इस प्रकार के निशान दिखाई दे रहे थे जैसे उसे जबरदस्ती खोला गया हो । उसने झिझकते हुए दरवाजा धकेलकर भीतर झांका ।
बाहरी कमरा, जहां वह बैठा करता था, एकदम व्यवस्थित था । वहां किसी प्रकार की छेड़खानी के आसार नहीं दिखाई दे रहे थे । विमल तनिक आश्वस्त हुआ । शायद ताले के बारे में वह खामखाह वहम कर रहा था ।
विमल भीतर दाखिल हुआ । उसने कमरा पार किया और जाकर त्रिलोकीनाथ के प्राइवेट ऑफिस का दरवाजा खोला ।
एकाएक वह वहीं थमकर खड़ा हो गया ।
कमरे में त्रिलोकीनाथ नहीं था लेकिन उसकी सेफ खुली पड़ी थी । दरवाजा अपने एक कब्जे पर अटका झूल रहा था । सेफ का डायल सेफ से बहुत दूर लुढका पड़ा था । हालात साफ जाहिर कर रहे थे कि सेफ के दरवाजे को बारूद लगाकार उड़ा दिया गया था ।
उसने आगे बढकर जल्दी-जल्दी सेफ के कागजात चैक किये तो मालूम हुआ कि वही लिफाफा गायब था जिसमें त्रिलोकीनाथ का पुलिस कमिश्नर के नाम बयान बंद था । उसके अलावा ऐसा नहीं लगता था कि सेफ में मौजूद किसी और चीज को छेड़ा गया हो । सेफ में नोटों की कुछ गड्डियां भी मौजूद थी जिससे साफ जाहिर होता था कि सेफ उड़ाने वाले की दिलचस्पी केवल उस लिफाफे में ही थी ।
उसने टेलीफोन का रिसीवर उठाया और त्रिलोकीनाथ के घर का नम्बर डायल किया । दूसरी ओर से निरन्तर घण्टी बजती रही लेकिन किसी ने टेलीफोन का रिसीवर नहीं उठाया । त्रिलोकीनाथ घर में अकेला रहता था । अगर वह घर में न हो तो वहां टेलीफोन सुनने वाला और कोई नहीं होता था । शायद वह दफ्तर के लिये चल चुका था ।
विमल ने रिसीवर रख दिया ।
उसने पुलिस को फोन करने का ख्याल किया लेकिन दो कारणों से वह ख्याल उसने छोड़ दिया ।
एक तो वह ही नहीं चहता था कि उसका पुलिस से आमना-सामना हो क्योंकि इस बात का कोई भरोसा नहीं था कि कब किसी पुलिसये की पारखी नजरें उसे पहचान लें ।
दूसरे चोरी की किस्म बड़ी अनोखी थी । केवल एक लिफाफा चोरी गया था । पता नहीं त्रिलोकीनाथ उसकी रिपोर्ट पुलिस में करना चाहता या नहीं । बिना उससे पूछे अगर वह पुलिस में रिपोर्ट कर देता तो क्या पता वह खफा ही हो जाता ।
उसने त्रिलोकीनाथ का इन्तजार करने का फैसला किया ।
कोई पौने दस बजे टेलीफोन की घंटी बजी ।
उसने टेलीफोन उठाया और बोला - “हैलो ।”
“हैलो ?” - दूसरी ओर से एक बड़ा ही मधुर स्त्री स्वर सुनाई दिया - “क्या यह त्रिलोकीनाथ जी का दफ्तर है ?”
“जी हां ।”
“आप कौन बोल रहे हैं ?”
“मेरा नाम कैलाश मल्होत्रा है । मैं उनका क्लर्क हूं ।”
“ओह, आई सी । सुनिये, मिस्टर कैलाश मल्होत्रा यहां मेरे पास पुलिस कमिश्नर साहब के नाम भेजी गई एक स्टेटमेंट है जिस पर गवाह के रूप में आपके हस्ताक्षर किए हुए हैं । क्या आपने हाल ही में त्रिलोकीनाथ जी के किसी लिखित बयान पर गवाह के रूप में हस्ताक्षर किये हैं ?”
“जी हां !” - विमल सशंक स्वर में बोला - “किये हैं । लेकिन आप क्यों पूछ रही हैं । आप क्या कमिश्नर साहब के ऑफिस से बोल रहीं हैं ?”
“आपने गवाह के रूप में उस पर हस्ताक्षर करने से पहले इसे अच्छी तरह पढ लिया था ?”
“जी हां लेकिन...”
“उसे टाइप किसने किया था ?”
“मैंने ही । लेकिन आप हैं कौन ? आप...”
“थैंक्यू, मिस्टर कैलाश मल्होत्रा ।”
और सम्बन्ध विच्छेद हो गया ।
विमल उलझनपूर्ण नेत्रों से रिसीवर को देखता रहा । फिर उसने धीरे से रिसीवर को क्रेडिल पर रख दिया ।
वह वापिस अपनीं सीट पर आ बैठा । उसके नेत्रों में गहरी चिंता के भाव थे । उसने पाइप निकालकर उसमें तम्बाकू भरा और उसे सुलगा कर उसके धीर-धीरे छोटे-छोटे कश लगाने लगा ।
एकाएक गलियारे के पार कहीं से रेडियो पर खबरें प्रसारित होने लगीं । विमल तक न्यूज रीडर की आवाज साफ-साफ पहुंच रही थी । अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय समाचारों के बाद जब स्थानीय समाचारों की बारी आई और न्यूज रीडर ने पहला ही फिकरा पढा तो विमल चिहुंक कर उठ खड़ा हुआ । वह लपक-कर दरवाजे के पास पहुंचा और कान लगाकर सुनने लगा ।
“पिछली रात नगर के तीन विभिन्न भागों से तीन बड़ी ही सनसनीखेज हत्याओं का समाचार मिला है” - न्यूज रीडर कह रहा था - “तीनों हत्या एक ही तरीके से हुई हैं । तीनों व्यक्तियों को पेशेवर दादाओं के अंदाज से गोलियों से भून डाला गया है । तीनों हत्प्राणों में से एक है नगर के विख्यात वकील और भूतपूर्व संसद सदस्य श्री त्रिलोकीनाथ । उनके शरीर के तीन विभिन्न स्थानों पर तीन गोलियां लगी हैं और उनमें से कोई सी भी एक घातक सिद्ध हो सकती थी । उनकी लाश तारदेव रोड के समीप एक खड्डे में पड़ी पाई गई थी । सबसे पहले सुबह एक दूध वाले की निगाह लाश पर पड़ी थी जिसने कि यह खबर नजदीकी पुलिस चौकी पर पहुंचा दी थी । पुलिस के एक प्रवक्ता का कहना है कि श्री त्रिलोकीनाथ का कत्ल पिछली रात बारह बजे के करीब हुआ था । पुलिस की यह भी धारणा है कि श्री त्रिलोकीनाथ का कत्ल वास्तव में कहीं और हुआ था लेकिन बाद में उनकी लाश किसी चलती कार में से उस स्थान पर उछाल दी गई थी जहां से कि वह बरामद हुई थी ।”
“दूसरी हत्या पी सी दामले नामक एक व्यक्ति की हुई थी । उसे उस वक्त शूट कर दिया गया था जब‍ वह रात के साढ़े ग्यारह बजे के करीब ग्रांट रोड पर स्थित एल्फ्रेड बार के मुख्य द्वार से बाहर निकल रहा था । श्री त्रिलोकीनाथ की तरह उसको भी तीन बार गोली मारी गई थी । याद रहे कि एल्फ्रेड बार आज से आठ महीने पहले भी ऐसी ही एक महत्वपूर्ण हत्या का घटनास्थल बना था । तब भी हत्प्राण बार के क्लॉक रूम में इसी प्रकार किसी की तीन गोलियों का शिकार बना था उस हत्या के रहस्य को भी पुलिस अब तक नहीं सुलझा पाई है ।”
“तीसरी हत्या ए एफ ठाकरे नामक एक व्यक्ति की हुई है । कहा जाता है कि एक चलती कार से उस पर तब तीन गोलियां चलाई गई थीं जब वह कालबा देवी रोड पर स्थित हसन मंजिल नामक इमारत की सीढ़ियां उतर रहा था । ठाकरे की तुरन्त मृत्यु नहीं हुई थी लेकिन जब वह बड़ी सोचनीय दशा में अस्पताल ले जाया जा रहा था तो रास्ते में ही उसकी मृत्यु हो गई थी ।”
“पुलिस के एक प्रवक्ता का कथन है कि इन तीनों हत्याओं का तरीका एक ही जरूर है लेकिन वे किसी भी प्रकार उन हत्याओं में कोई आपसी सम्बन्ध जोड़ पाने में असफल रहे हैं । न किसी भी हत्या का कोई उद्देश्य सामने आया है और न ही इन जघन्य अपराधों के संदर्भ में अभी कोई गिरफ्तारी हुई है । खबरें खत्म हुई ।”
विमल के छक्के छूट गये । वह दरवाजे के पास से हटा और खिड़की के पास आ खड़ा हुआ । उसने अपना बुझा हुआ पाइप फिर सुलगा लिया और खिड़की से बाहर झांकता हुआ उसके लम्बे-लम्बे कश लगाने लगा ।
त्रिलोकीनाथ का इतनी जल्दी, ऐसा अजांम होगा, यह उसने नहीं सोचा था । नारंग से कल के झगड़े की वजह से ही उसकी जान गई थी और वे बेचारे दो गवाह भी खामखाह मारे गये थे । एल्फ्रेड पर ऐसा कोई आक्रमण नहीं हुआ था, यही इस बात का सबूत था कि नारंग को उस पर पूरा भरोसा था ।
क्या पुलिस इन हत्याओं का सम्बन्ध नारंग से जोड़ सकती थी ?
शायद नहीं ।
लेकिन अगर वह गवाही दे तो ?
नहीं-नहीं । नारंग का तो उसकी गवाही से पता नहीं कुछ बिगड़ता या नहीं, वह खुद जरूर किसी जंजाल में फंस जाता ।
एकाएक इमारत के सामने एक कार आकर रुकी । कार में से जल्दी से दो आदमी निकले और इमारत के मुख्य द्वार की तरफ बढ़े । उनमें से एक को विमल ने फौरन पहचान लिया ।
वह रणजीत था ।
एकाएक थोड़ी देर पहले किसी रहस्यपूर्ण महिला से टेलीफोन पर हुआ वार्तालाप उसके कानों में बजने लगा । एकाएक सारी बात दिन की तरह स्पष्ट हो गई ।
सेफ से निकलकर त्रिलोकीनाथ का बयान निश्चय ही नारंग के हाथ में पंहुचा था । उस बयान को पढ़ने के बाद ही नारंग ने वे तीन हत्यायें की थीं या करवाई थीं । बयान पर गवाह के रूप में उसके हस्ताक्षरों ने हत्यारों का ध्यान उसकी ओर भी आकर्षित करवा दिया था । अभी थोड़ी देर पहले उस महिला ने यही जानने के लिये फोन किया था कि विमल को मालूम था या नहीं कि बयान में क्या लिखा हुआ था ।
और अब उसका भी पत्ता साफ करने को इन दो आदमियों को भेजा गया था । नारंग उसकी अपेक्षा से कहीं ज्यादा खतरनाक आदमी था । वह ऐसे किसी आदमी को जिन्दा नहीं रहने देना चाहता था जो कि उसके खिलाफ गवाह बन सकता था ।
विमल बाहर की ओर भागा । उसने लिफ्ट के इंडीकेटर की ओर निगाह डाली उसके अनुसार लिफ्ट ऊपर आ रही थी । वह सीढ़ियों की ओर लपका और फिर तुरन्त ठिठक गया । उधर से भी सीढ़ियों पर पड़ते भारी कदमों की आहट मिल रही थी ।
पता नहीं रणजीत और उसका साथी सीढ़ियों के रास्ते ऊपर आ रहे थे या लिफ्ट के रास्ते ।
फिर उसे फायर एस्केप का ख्याल आया । उसने एक बार देखा कि फायर एस्केप गलियारे के एक सिरे पर स्थित एक खिड़की के पास से गुजरता था ।
वह दबे पांव भागता हुआ उस खिड़की के पास पहुंचा । उसने जल्दी से वह खिड़की खोली और उसकी चौखट पर चढ़ गया । उसने दूसरी ओर स्थित फायर एस्केप की लोहे की घूमती हुई सीढ़ियों पर कदम रखा । कुछ सीढियां नीचे उतरने पर उसने सिर उठाकर खिड़की से भीतर झांका ।
उसने रणजीत और उसके साथी को लिफ्ट से निकलकर त्रिलोकीनाथ के दफ्तर की ओर बढ़ते देखा ।
वह बाल-बाल बचा था ।
लेकिन केवल वक्ती तौर पर । वे पेशेवर हत्यारे थे । वह कभी भी उनकी पकड़ में आ सकता था ।
उन गोल सीढ़ियों को वह जितनी तेजी से उतर सकता था उतरने लगा ।
सौभाग्यवश जिस क्षण वह नीचे पहुंचा, उसी क्षण सामने सड़क पर उसे एक खाली टैक्सी जाती दिखाई दी । उसने आवाज देकर टैक्सी को रोका और लपककर उस पर सवार हो गया ।
“भिंडी बाजार !” - वह टैक्सी ड्राइवर से बोला और हांफने लगा ।
टैक्सी तुरन्त आगे बढ़ गई ।
भिंडी बाजार की एक चाल में वह रहता था ।
अब उसका बम्बई से फौरन निकल भागने में ही कल्याण था ।
धन्न करतार ! - उसके मुंह से निकला ।
इस बार उसने सोचा था कि वह बड़ी इत्मीनान की जगह पर स्थापित हो गया था । इस बार शायद कोई गुंडे बदमाश उसे कोई बड़ा दादा समझकर, अपने अपराधों में उसका सहयोग हासिल करने के लिए उसके पुराने, मजबूरन किये, अपराधों की पोल खोल देने की धमकी देकर, उसे ब्लैकमेल नहीं कर सकेंगे । इस बार उस पर कोई मुसीबत नहीं आयेगी लेकिन मुसीबत आई थी, हमेशा की तरह खामखाह आई थी और एक नया रूप धारण करके आई थी । लगता था उसके गर्दिश के दिन अभी खत्म नहीं हुए थे । अभी भी उसकी जिन्दगी में एक आवारागर्द कुत्ते की तरह दर-दर की ठोकरें खाना ही लिखा था ।
वाहे गुरू सच्चे पातशाह ! - वह होंठों में बुदबुदाया - तेरे रंग न्यारे ।
टैक्सी भिंड़ी बाजार पहुंची । उसने टैक्सी अपनी चाल के सामने रुकवाई, टैक्सी ड्राइवर को रुकने को कहा और लपकता हुआ चाल की लकड़ी की चरमराती सीढ़ियां चढ़कर अपनी खोली में पहुंचा । वहां बिजली की फुर्ती से उसने अपना जरूरी-जरूरी सामान एक चमड़े की अटैची में डाला, उसका ढक्कन बंद किया और उसको उठाये खोली से निकल आया । वह फिर टैक्सी में आ सवार हुआ ।
“इंटरस्टेट बस टर्मिनल !” - वह ड्राइवर से बोला ।
टैक्सी फिर आगे बढ़ गई ।
उसने मन ही मन फैसला किया था कि जो पहली बस बम्बई से बाहर जाने वाली होगी, वह उस पर सवार हो जाएगा ।
वह बस स्टैण्ड पर पहुंचा तो मालूम हुआ कि पांच मिनट में गोवा की बस छूटने वाली थी ।
गोवा वहां से कोई साढ़े चार सौ मील दूर था और बस कोई सत्तरह-अट्ठारह घंटे के थका देने वाले सफर के बाद वहां पहुंचती थी ।
वैसे भी जब वह दिल्ली से रवाना हुआ था तो गोवा के लिये ही रवाना हुआ था ।
उसने बेहिचक गोवा जाने वाली बस का टिकट खरीद लिया ।