सुनील ने सिर से पांव तक उस लड़की को देखा जिसे चपरासी उस केबिन में छोड़ गया था । वह बेहद सुन्दर थीं ।
“बैठो ।” - वह बोला ।
लड़की बैठ गई ।
सुनील उसके बोलने की प्रतीक्षा करने लगा ।
“मेरा नाम रचना है ।” - वह बोली ।
“मैं तुमसे पहले कभी मिला हूं क्या ?” - सुनील ने पूछा
“नहीं ।”
“तो !”
“तुम्हें आरती की याद है ?”
“कौन आरती ?”
“भंडारी साहब की लड़की । जो शंकर दास रोड की दो नम्बर कोठी में रहती है ।”
“अच्छा, वह आरती । उसके विषय में क्या कहना चाहती हो तुम ?”
“आरती मेरा सहेली है ।”
“अच्छा ।”
“वह तुम्हारा बहुत जिक्र किया करती है । उसने तुम्हारे विषय में मुझे बहुत बातें सुनाई हैं । जिस ढंग से तुमने मुसीबत अपने सिर लेकर उसे बदनामी से बचाया था और उसे एक दुर्दान्त ब्लैकमेलर के पंजे से छुड़ाया था, उसके लिये भंडारी साहब का सारा परिवार तुम्हारा अहसानमन्द है । (देखिए - ‘शैतान की मौत’)
सुनील चुप रहा ।
“मेरी एक व्यक्तिगत परेशानी थी और मुझे किसी की सहायता की जरूरत थी ।” - वह धीरे से बोली - “तभी मुझे तुम्हारा ख्याल आया । पहले मैंने सोचा कि आरती के माध्यम से तुमसे सम्पर्क स्थापित करने का प्रयत्न करूं लेकिन बाद में मैंने यही उचित समझा कि मैं आरती को बीच में न लाऊं ।”
“क्यों ?”
“मेरी सारी परेशानी का कारण मेरा पति है...”
“तुम विवाहित हो ?” - सुनील हैरानी से उसे घूरता हुआ बोला ।
“विवाहित होना कोई अपराध है क्या ?”
“नहीं । मेरा मतलब है - शक्ल सूरत से तुम विवाहित लगती तो नहीं हो ।”
“शायद तुम्हें मालूम नहीं है कि विवाहित औरतों में अविवाहित लगना भी आजकल फैशन बन गया है ।”
“तुम आरती को बीच में क्यों नहीं लाना चाहती थीं ?”
“मैंने प्रेम विवाह किया है । जिस व्यक्ति से मैंने प्रेम विवाह किया है, आरती उसके हक में नहीं थी । वह शक्ल सूरत में भला आदमी जरूर था लेकिन आरती की निगाह में वह बेहद घटिया और अपराधी प्रवृत्तियों का आदमी मालूम हुआ था । आरती की इन बातों के कारण उन दिनों मेरा उससे मनमुटाव भी हो गया था - लेकिन विवाह के कुछ महीनों के बाद मुझे महसूस हो गया था कि अपने पति को पहचानने में मैंने गलती की थी । आरती एकदम सच कहती थी । मेरा पति केवल अपराधी प्रवृत्तियों का ही आदमी नहीं था अच्छा खासा पेशेवर अपराधी था और राजनगर के एक बहुत बड़े गैंग का एक सदस्य था और अब भी है । अगर मैं अब आरती के पास जाकर उसे अपने पति के बारे में बताती तो वह छूटते ही कहती कि मैं तो पहले ही कह रही थी कि तुम्हारा पति अच्छा आदमी नहीं है । यह बात सच होते हुए भी मुझे बड़ी अपमानजनक लगती ।”
“इसलिए तुमने मुझसे सम्पर्क स्थापित करने के लिए आरती का सहारा नहीं लिया ?”
“हां यही बात है ।”
“तुम मुझे पहचानती हो ?”
“हां । आरती ने एक बार एक होटल में तुम्हें संकेत करके दिखाया था मुझे, और एक बार ‘ब्लास्ट’ में मैंने तुम्हारी तस्वीर भी देखी थी ।”
सुनील ने सिगरेट का पैकेट निकाल लिया और एक सिगरेट सुलगा लिया - “तुम मुझसे क्या सहायता चाहती हो ?”
“तुम मेरी मदद करोगे ?” - उसने एकदम आशान्वित स्वर से पूछा ।
“दो में दो जोड़ कर जवाब छत्तीस निकालने की कोशिश मत करो अभी मैं कोई वादा नहीं कर रहा हूं । फिलहाल तुम अपनी बात कहो मैं अपनी बात अन्त में कहूंगा ।”
“अच्छी बात है ।” - रचना बोली ।
सुनील उसके फिर बोलने की प्रतीक्षा करने लगा ।
रचना कई क्षण चुप रही जैसे सोच रही हो कि बात कहां से शुरु करे । अन्त में वह बोली - “तुमने शम्भूदयाल का नाम सुना है ?”
“मैंने तो कई शम्भूदयालों का नाम सुना है । तुम किस शम्भूदयाल की बात कर रही हो ?”
“जिसने पिछले महीने दिन दहाड़े नैशनल बैंक पर डाका डाला था ?”
“उस शम्भूदयाल को कौन नहीं जानता ? हम अखबार निकालते हैं मैडम कोई मूंगफली तो नहीं बेचते । और फिर उस शम्भूदयाल के बारे में तो मूंगफली बेचने वाले भी जानते हैं । लेकिन तुम उसका जिक्र क्यों कर रही हो । कहीं...” - सुनील एकाएक रचना की थोड़ी देर पहले कही हुई बातें याद करता हुआ बोला - “कहीं तुम यह कहने की कोशिश तो नहीं कर रही हो कि शम्भूदयाल ही तुम्हारा पति है ।”
रचना ने स्वीकृति से सिर हिला दिया ।
“ओह गाड । फिर तो तुम्हारी कहानी बड़ी सस्पैंसफुल होगी । जल्दी बाताओ मेरा धीरज छूटा जा रहा है ।”
“फिर तो तुम्हें यह भी याद होगा कि शम्भू दयाल ने पूरे गैंग के साथ नेशनल बैंक पर डाका डाला था । वे लोग बैंक का वाल्ट खुलवा कर पचास लाख रुपया लूटने में सफल भी हो गये थे । लेकिन उन्हें यह मालूम नहीं था कि बैंक के एक कर्मचारी ने चुपचाप खतरे की उस घन्टी का बटन दबा दिया था जो सीधे समीप के पुलिस स्टेशन में जाकर बजती थी । शम्भू दयाल और उसके साथी एक चमड़े के बैग में नोट भरकर भागने ही वाले थे कि वहां पुलिस पहुंच गई थी । शम्भू दयाल के साथी भी सशस्त्र थे । वे फौरन पुलिस से भिड़ गये थे और भाग निकलने में सफल हो गये थे । दुर्भाग्यवश लूट के रुपयों के थैले के समेत शम्भू दयाल पीछे रह गया था । उसके पास भी रिवाल्वर थी और वह पुलिस के तीन सिपाहियों को गोली से उड़ा कर उन्हीं की एक जीप में भाग निकला था । पुलिस काफी देर तक उसका पीछा करती रही थी लेकिन उसे पकड़ नहीं पाई थी । वह पुलिस को डाज देने में सफल हो गया था । रात को वह घर आया ।”
“तुम्हारे पास ?”
“हां और उस रात मुझे पहली बार मालूम हुआ कि मेरा पति एक दुर्दान्त हत्यारा और डाकू है । उससे पहले मैं भी और हमारे सारे पड़ोसी भी उसे किसी कम्पनी का ट्रेवलिंग सेल्समैन समझते थे । मुझे अपने पति के कार्यकलापों पर सन्देह तो जरूर था लेकिन यह तो मैंने स्वप्न में भी नहीं सोचा था कि वह इतना भयानक अपराधी हो सकता है । उस रात उसने मुझे सब कुछ बता दिया । उसने बैंक के लूटे हुए धन का बैग मुझे सौंप दिया और कहा कि मैं वह धन संभाल कर रखूं । अभी पुलिस उसके पीछे पड़ी हुई है । मामला ठन्डा पड़ते ही वह वापिस आकर मुझे और उस बैग दोनों को ले जायेगा और फिर बाकी जिन्दगी बड़ी मौज से गुजरेगी और पुलिस को उसकी हवा भी नहीं लगेगी ।”
“लेकिन रात को वह तुम्हारे पास क्यों आया ? अपने गैंग के पास अपने अड्डे पर क्यों नहीं गया ?”
“क्योंकि उसके मन में बेईमानी आ गई थी । वह अपने साथियों को धोखा देना चाहता था और सारा माल खुद हड़प जाना चाहता था ।”
“तुमने वह धन रख लिया ?”
“मेरी हां, न का तो सवाल नहीं था । उसने गिड़गिड़ा कर मुझे अपनी मुहब्बत का वास्ता देकर सहयोग देने के लिये तैयार कर लिया और बैग मेरे पास छोड़कर वहां से भाग आया ।”
“तुमने पुलिस को सूचना नहीं दी ।”
“नहीं ।”
“क्यों ?”
“कई कारण थे ।”
“क्या ? इसलिये कि तुम्हारा ‘पति परमेश्वर’ था ।” - सुनील तनिक व्यंग्य पूर्ण स्वर से बोला ।
“वह मेरा पति जरूर था लेकिन मेरी उसमें परमेश्वर वाली आस्था नहीं थी । उसकी जगह अगर कोई और भी होता तो भी मैं उस के अहित का कारण बनना पसन्द नहीं करती । दूसरी बात यह थी कि मैं भी इन्सान हूं कोई देवता नहीं । लाखों रुपयों की रकम का लालच मुझे भी आ रहा था और तीसरी और सबसे बड़ी बात यह थी कि पुलिस को सूचित करने की नौबत ही नहीं आई, जरूरत ही नहीं पड़ी ।”
“क्या मतलब ?”
“मतलब यह कि उस रात को मेरे पति के मेरे फ्लैट से कूच करने के दो घन्टे बाद ही उसके गैंग के आधी दर्जन आदमी मेरे फ्लैट पर आ धमके । उन्होंने मेरी छाती पर पिस्तौल रख दी और मुझे जान से मार देने की धमकी देते हुए पूछने लगे कि क्या शम्भू यहां आया था । मुझे भी अपनी जान का मोह है, मैंने स्वीकार कर लिया कि शम्भूदयाल यहां आया था । उन्होंने लूटे हुए धन के बारे में पूछा । मैंने झूठ बोल दिया कि वह कोई धन वहां छोड़ कर नहीं गया है ।”
“उन्होंने तुम्हारी बात पर विश्वास कर लिया ?”
“सवाल ही नहीं पैदा होता । पचास लाख रुपये की रकम की खातिर तो बड़े-बड़े महात्मा झूठ बोल जाते हैं मैं तो एक मामूली सांसारिक स्त्री थी और उस आदमी की पत्नी भी थी जिसने उन्हें धोखा दिया था ।”
“फिर ?”
“फिर उन्होंने यूं मेरे फ्लैट की तलाशी लेनी शुरू कर दी जैसे सुई तलाश रहें हों । पांच ही मिनटों में वह चमड़े का बैग उनके हाथ में था ।”
“तुमने बैग कहां छुपाया था ।”
“आटे के ड्रम में । मैं बड़ी कठिनाई से उन्हें विश्वास दिला पाई कि मुझे मालूम नहीं था कि मेरा पति बैग कहां छुपा गया है । उन लोगों ने मेरी जान बख्श दी और बैग लेकर भाग गये । इसलिये बाद में पुलिस में सूचना देना तो मुझे एक बेकार का काम दिखाई देने लगा था ।”
“लेकिन तुम्हारी परेशानी क्या है ?” - सुनील ने पूछा
“मेरी परेशानी यह है कि मेरी जान पर आ बनी है ।” - रचना धीमे स्वर से बोली ।
“कैसे ?”
“मेरा पति समझता है कि मैं उसे धोखा देना चाहती हूं और सारा रुपया अकेले हड़प लेना चाहती हूं । उसे मेरी बात पर कतई विश्वास नहीं है कि रुपया उसके गैंग के लोग उसी दिन मुझसे छीनकर ले गये थे ।”
“शम्भू दयाल तुम्हारे फ्लैट पर आया था ?”
“हां ।”
“कब ?”
“चार दिन पहले । वह अमावस की रात थी । और बड़ी तेज बारिश हो रही थी । वह भूत की तरह फ्लैट के द्वार पर आ खड़ा हुआ । उसकी दाढी बढी हुई थी बाल बिखरे हुए थे वह मैले कुचैले कपड़े पहने हुए था और बेहद खूंखार लग रहा था । आते ही उसने जबरदस्ती करनी शुरू कर दी । वह मुझे मारने-पीटने लगा । मैं डर गयी मुझे ऐसा लगा जैसे वो मेरी जान ही ले डालेगा । बड़ी मुश्किल से मैं चीख-चिल्ला कर पड़ोसियों को इकट्ठा कर पाई । तब कहीं जाकर मेरा उससे पीछा छूटा । उस दिन के बाद से मैं ऐसी भयभीत हूं कि कभी अकेली रहने का हौसला नहीं कर पाती । अपनी किन्हीं सहेलियों को पड़ोसिनों को अपने फ्लैट पर सोने के लिये मजबूर करती हूं । या फिर खुद और लोगों के घर जाकर रहती हूं । रात तो क्या दिन में भी मैं कालबैल बजने पर दरवाजा खोलने से डरती हूं । ऐसी सूरत में मैं कहां भाग कर जा सकती हूं । मैं जहां भी जाऊंगी, मुझे मालूम है, मेरा पति वहीं पहुंच जायेगा और पहला मौका हाथ में आते ही वह मुझे से मार डालने में तनिक भी नहीं हिचकेगा ।”
वह चुप हो गई । उसने सिर झुका लिया । उसके चेहरे पर भय और चिन्ता के गहन भाव परिलक्षित हो रहे थे ।
सुनील भी प्रभावित हुए बिना न रह सका ।
कई क्षण वह चुपचाप सिगरेट के कश लगाता रहा ।
स्थति वाकई बड़ी विकट थी ।
उसने सिगरेट का बचा हुआ टुकड़ा ऐश ट्रे में डाल दिया और पूछा - “वह है राजनगर में ही ?”
“हां ।”
“तुम्हें कैसे मालूम ?”
“वह मुझे अक्सर टेलीफोन करता रहता है ।”
“इससे तो यह सिद्ध नहीं होता कि वह राजनगर में है । राजनगर के और अन्य कई नगरों के बीच में ट्रंक डायलिंग (Trunk-Dialling) की सुविधा है । सम्भव है वह किसी दूसरे शहर से तुम्हें फोन करता हो !”
“सम्भव तो है, लेकिन वह जब भी फोन करता है, मुझे लगता है कि वह कहीं पास से ही बोल रहा है ।”
“यह तुम्हारा कोरा बहम भी हो सकता है ।”
“हो सकता है ।” - रचना ने स्वीकार किया ।
“टेलीफोन पर वह क्या कहता है तुमसे ?”
“मुझे धमकियां देता है । कहता है कि मैं उसका माल अकेले हजम नहीं कर सकती । अगर मैंने उसे माल नहीं लौटाया तो वह मुझे कुत्ते की मौत मारेगा ।” - रचना का गला भर आया ।
सुनील चुप रहा ।
“मैंने उसके सामने रो-रोकर विनती की है, उसे हर प्रकार से विश्वास दिलाने का प्रयत्न किया है कि मेरे पास माल नहीं है लेकिन वह मानता ही नहीं । वह यही कहता है कि मैं उसे धोखा देने की कोशिश कर रही हूं ।”
रचना चुप हो गई ।
वातावरण में एक विचित्र सा भारीपन आ गया था ।
कई क्षण चुप रहने के बाद सुनील गम्भीर स्वर से बोला - “तुम मुझसे किस प्रकार की सहायता की आशा कर रही हो ?”
“तुम उसे गिरफ्तार करवा दो ।”
“कैसे ?” - सुनील एकदम हैरानी से बोला - “मैं कैसे गिरफ्तार करवा सकता हूं उसे ?”
“बताती हूं ।” - रचना तनिक संयत स्वर से बोली - “कल मुझे मुरारी नाम के एक आदमी ने फोन किया । उसने कहा कि वह मेरे पति के अपराधी जीवन से सम्बन्धित एक आदमी है और वह सारा किस्सा जानता है ।”
“सारा किस्सा ?”
“हां । मतलब यह है कि मेरा पति बैंक से लूटा हुआ धन मेरे पास छुपाकर फरार हो गया था और अब वह धन वापिस मांग रहा है जो मैं देना नहीं चाहती और या मेरे पास है नहीं, लेकिन वह यही समझता है कि मैं उसे धोखा देने की कोशिश कर रही हूं । इसलिये वह मुझे जान से मार डालने की धमकी दे रहा है । और अपने पति की इन धमकियों के कारण मेरी जान सूली पर टंगी हुई है ।”
“वह मुरारी नाम का आदमी चाहता क्या था ?”
“वह मुझे यह बता सकता है कि मेरा पति कहा छुपा हुआ है ? उसके बाद में पुलिस को सूचना देकर उसे गिरफ्तार करवा सकती हूं । वह फांसी पर लटक जायेगा और मुझे मुक्ति मिल जायेगी । इस जानकारी के बदले में वह मुझसे दस हजार रुपये मांग रहा है ।”
“अभी थोड़ी देर पहले तो तुमने कहा था कि पुलिस को सूचना इसलिये नहीं दी थी । क्योंकि तुम अपने पति के अहित का कारण नहीं बनना चाहती थीं । लेकिन अब तुम उसे फांसी पर लटकवाने का इन्तजाम कर रही हो ।”
“अब स्थिति में बहुत अन्तर आ गया है । अब मेरी अपनी जान पर आ बनी है । जब तक वह पुलिस के हाथों नहीं पड़ेगा तब तक मेरे सर पर से मौत का खतरा टलेगा नहीं । सरकार उसे नहीं मारेगी तो वह मुझे मार देगा । मुझे भी तो अपनी जान प्यारी है ।”
“तुम्हारे पास मुरारी को देने के लिये दस हजार रुपये हैं ?”
“नहीं हैं ।” - वह सिर झुकाये हुए बोली - “लेकिन मैं इन्तजाम कर लूंगी ।”
“कैसे ?”
“कहीं से भी । कर्जा लेकर । उधार मांगकर । घर का सामान बेचकर । कैसे भी ? मेरी जिन्दगी दस हजार रुपये की रकम के मुकाबले में तो हर हाल में कीमती है ।”
“तुम्हारे पति ने तुम्हारे लिये कुछ नहीं छोड़ा ?”
“लगभग तीस हजार रुपये हैं मेरे पास ।”
“अच्छी बात है । तुम दस हजार रुपये का इन्तजाम कर लोगी । बदले में मुरारी यह बता देगा कि शम्भूदयाल कहां छुपा हुआ है । तब पुलिस को सूचना दे दोगी । पुलिस शम्भूदयाल को गिरफ्तार कर लेगी । डकैती और सिपाहियों की हत्या के अपराध में वह फांसी पर लटक जायेगा । किस्सा खतम । मैं इस तस्वीर में कहां फिट हुआ ?”
“दरअसल बात यह है ।” - रचना विचलित स्वर से बोली - “मुरारी सीधे-सीधे यह नहीं बता सकता कि मेरा पति कहां छुपा हुआ है ?”
“क्या मतलब ?”
“वह कहता है कि वास्तव में मेरा पति कहां छुपा हुआ है, यह उसे खुद भी मालूम नहीं है ।”
“तो फिर...”
“मैं बताती हूं । तुम पूरी बात तो सुनो ।”
“सुनाओ ।”
“मुरारी एक ऐसी लड़की को जानता है जो मेरे पति की प्रेमिका है ।”
“प्रेमिका ! तुम्हारे होते हुए...”
“इसमें हैरानी वाली कौन-सी बात है ? आज के जमाने में पत्नी कोई ऐसा भारी बन्धन नहीं होती है कि आदमी प्रेमिका न पाल सके या कोई रखैल न रख सके । मेरा पति एक साधारण आदमी है, कोई पुराणों में वर्णित एक पत्नी धर्म का पालन करने वाला चरित्रवान महापुरुष तो नहीं है ।”
“खैर, फिर ?”
“मुरारी कहता है कि मेरा पति उस लड़की से बहुत प्यार करता है, बाजारी शब्दों में कहा जाये तो वह उस पर इस बुरी तरह मरता है कि उसके बिना जिन्दा नहीं रह सकता । मुरारी कहता है कि वह कहीं भी हो उस लड़की के पास जरूर पहुंचेगा या वह लड़की उससे सम्पर्क स्थापित करेगी । मुरारी कहता है वह अकेला आदमी है जो मेरे पति के उस प्रेमिका के अस्तित्व को जानता है । वास्तव में दस हजार रुपयों के बदले में वह केवल मुझे उस लड़की का पता बतायेगा और फिर उस लड़की के माध्यम से मेरे पति तक पहुंचा जा सकता है ।”
“तो तुम मुरारी से उस लड़की का पता पूछ लो और फिर पुलिस को सूचना दे दो कि उस लड़की के माध्यम से शम्भूदयाल को फांसा जा सकता है ।”
“नहीं ।” - रचना चिन्तित ढंग से हिलाती हुई बोली ।
“क्यों ?”
“मुरारी यह नहीं चाहता ।”
“क्या नहीं चाहता ?”
“कि लड़की पुलिस की जानकारी में आये ।”
“क्यों ?”
“पता नहीं । सम्भव है कि वह भी उसी लड़की से प्रेम करता हो और न चाहता हो कि लड़की पुलिस के घपले में पड़े । और फिर पुलिस के काम करने के तरीके भी तो बड़े सीधे होते हैं । सम्भव है पुलिस लड़की पर नजर रखने के स्थान पर यह ज्यादा सहूलियत का काम समझे कि उसे गिरफ्तार ही कर ले और फिर उससे मेरे पति के बारे में पूछे । ऐसी हालत में मान लो लड़की मुंह नहीं खोलती है या किसी प्रकार मेरे पति को मालूम हो जाता है कि उसकी प्रेमिका पुलिस के हाथ पड़ गई है तो क्या फिर उसे गिरफ्तार कर पाना सम्भव होगा ?”
“आल राइट ।” - सुनील बोला - “मान लिया तुम्हारा तर्क बड़ा वजनी है । अब मैं अपना वही प्रश्न फिर दोहरा देता हूं जो मैं पहले भी कम से कम आधी दर्जन बार पूछ चुका हूं । मैं इस तस्वीर में कहां फिट होता हूं ? तुम मुझसे कौन-सी सहायता चाहती हो ?”
“तुम मेरी सहायता करो न ?” - वह याचनापूर्ण स्वर से बोली ।
“क्या सहायता करूं ?”
“मुरारी मुझे बहुत चालाक आदमी मालूम होता है । मुझे भय है कहीं वह मुझे ठग न ले । कहीं ऐसा न हो कि मेरे दस हजार रुपये भी मार जाये और मुझे मेरे पति का पता ठिकाना भी न बताये । क्या मालूम मुरारी वास्तव में कुछ जानता भी है या नहीं । सम्भव है मुझे केवल ठगने के लिये ही उसने मेरे पति की प्रेमिका का किस्सा घड़ लिया हो । मैं चाहती हूं कि मुरारी से तुम मिल लो । अगर मेरे पति की सत्य ही कोई प्रेमिका है तो वह तुम्हें उसका पता बता देगा । और फिर... और फिर...”
“और फिर मैं उस लड़की के पीछे लगकर शम्भूदयाल को खोज निकालूं और फिर पुलिस को सूचना दे दूं । यही चाहती हो न तुम ?” - सुनील स्पष्ट-शब्दों में बोला ।
“हां-हां ।” - रचना ने कठिन स्वर से उत्तर दिया ।
“मुरारी शम्भूदयाल को कैसे जानता है ?”
“मैंने बताया न, दोनों अपराधी जीवन के साथी हैं । मुरारी और मेरा पति मित्र रहे हैं ।”
“फिर भी मुरारी शम्भूदयाल को फंसवाने का प्रयत्न कर रहा है !”
“मैंने मुरारी से यह प्रश्न पूछा था । वह कहता है मेरे पति से उसके साथ किसी ‘धन्धे’ में धोखेबाजी की है और वह उसका बदला लेना चाहता है ।”
“तो वह ही शम्भूदयाल की प्रेमिका पर नजर रखकर शम्भूदयाल को क्यों नहीं खोज निकालता ?”
“क्योंकि वह मेरे पति से डरता है । उसे भय है, अगर मेरे पति को उसकी नीयत की जानकारी हो गई तो वह उसे जान से मार डालेगा और फिर मेरे द्वारा उसे हासिल होने वाले दस हजार रुपयों का भी तो सवाल है ।”
“दस हजार रुपये के भुगतान का भी कोई तरीका निश्चित हुआ है ?”
“हां । मैं उसे दो हजार रुपये पहले दे दूंगी और बाकी के आठ हजार रुपये तब दूंगी जब मैं या मेरा कोई प्रतिनिधि मेरे पति की सूरत देख लेगा ।”
“उसकी गिरफ्तारी के बाद क्यों नहीं ?”
“मुरारी नहीं मानता । वह कहता है, मेरा पति बहुत चालाक और भयंकर आदमी है । यह कतई जरूरी नहीं है कि पुलिस द्वारा घेर लिये जाने के बाद भी वह पुलिस के हाथ में आ ही जाये । बैंक में भी तो पुलिस द्वारा घेर लिया गया था लेकिन वह फिर भी भाग निकला था । वह कहता है कि वह दस हजार रुपये मेरे पति के गुप्त स्थान की सूचना देने के लिये चाहता है उसे गिरफ्तार करवाने की गारन्टी के नहीं ।”
“मुरारी कहां रहता है ?”
“मुझे नहीं मालूम ।”
“तो फिर तुम उससे सम्पर्क कैसे स्थापित करोगी ?”
“वह मुझे फौन करेगा ।”
“उसे अपने फ्लैट पर बुला लो ।”
“अच्छा ।”
“फिर मैं उससे बात कर लूंगा ।”
“मतलब यह कि तुम मेरी सहायता करने के लिये तैयार हो ?”
“अब क्या लिखकर देना पड़ेगा ?”
“ओह, सुनील ।” वह एकदम हर्षित स्वर से बोली - “बाई गाड यू... यू आर..” - उसे शब्द नहीं सूझे - “यू आर...”
“ग्रेट ।”
“हां । ओह यस ।” - वह नर्वस स्वर से बोली ।
“क्यों नहीं । क्यों नहीं । अब तो मैं ग्रेट हूं । अगर तुम्हारी सहायता करने से इनकार कर देता तो क्या होता ?”
“तुम मुझे शर्मिन्दा करना चाहते हो ?” - वह दबे स्वर से बोली ।
“खैर, जाने दो ।” - सुनील बोला - “मुरारी जब दुबारा फोन करे तो उसे अपने फ्लैट पर बुला लेना । जब वह तुम्हारे फ्लैट पर पहुंच जाये तो मुझे सूचित कर देना । मेरा नम्बर मालूम है तुम्हें ?”
“नहीं ।”
“डायरेक्टरी में देख लेना । अगर आफिस टाइम में ‘ब्लास्ट’ के दफ्तर में मौजूद न होऊं तो हमारी आपरेटर को मैसेज दे देना, मुझे सूचना मिल जायेगी । ओके ?”
“ओके ।”
“तुम्हारा फ्लैट कहां है ?”
“महात्मा गांधी रोड पर ‘श्री निवास’ नाम की एक इमारत है उसकी दूसरी मन्जिल पर दायें वाला फ्लैट मेरा है ।”
“आल राइट ।
रचना उठ खड़ी हुई ।
***
सुनील ‘ब्लास्ट’ के आफिस में अपने केबिन में बैठा था ।
उसी क्षण उसके एक्सटैंशन टेलीफोन की घन्टी बज उठी ।
सुनील ने रिसीवर उठाकर कान से लगा लिया और बोला - “हैल्लो ।”
“सोनू” - दूसरी ओर से रिसैप्शनिस्ट कम आपरेटर रेणु का स्वर सुनाई दिया - “तुम्हारा फोन है ।”
“कौन है ?” - सुनील ने लापरवाही से पूछा ।
“कोई छोकरी है ।”
“फोन पर तुम्हें कैसे मालूम हो जाता है कि वह छोकरी है या पचास साल की बुढिया ।”
“तजुर्बा है ।” - रेणु शान से बोली - “इतने साल बोर्ड आपरेट करते हो गये हैं, तुम्हारे ख्याल से अभी तक मुझे आवाजें पहचानने की भी अकल नहीं आई होगी । मिस्टर, उसकी आवाज में शीशे जैसी खनखनाहट है जो पचास साल की बुढिया की आवाज में मुमकिन नहीं है । यही नहीं उस छोकरी की आवाज से ऐसा लगता है जैसे वह तुम से बेहद प्रभावित है । साफ-साफ शब्दों में कहा जाये तो तुम पर मरती मालूम होती है ।”
“अब अपनी ही हांके जाओगी क्या ? उससे बात करवाओ ।”
“कोई जल्दी नहीं है ।” - रेणु नाराजी भरे स्वर से बोली - “वह इन्तजार कर सकती है । पहले मेरी बात सुनो ।”
“लेकिन वह लाइन छोड़ जायेगी ।”
“मरो नहीं । वह तो परसों तक लाइन नहीं छोड़ेगी ।”
“लेकिन...”
“अगर फिर कभी मुझे इस प्रकार बीच में टोकोगे तो तुम्हारे सब काम करने वालों को कह दूंगी कि तुम्हारी ट्रान्सफर कलकत्ते हो गई है ।”
“अगर तुम्हें मुझ से गप्पें ही मारनी हैं तो मैं ऐसा करता हूं, वहीं रिसेप्शन पर आ जाता हूं ।”
“एक बात बताओ ।”
“पूछो ।”
“तुम्हारी नब्बे प्रतिशत काल लड़कियों की होती हैं । राजनगर की गोपियों में तो कन्हैया बने हुए हो तुम । कौन सा जादू चलाते हो उन पर ?”
“मैं तो कोई जादू नहीं चलाता ।” - सुनील मासूम स्वर से बोला - “मेरे पास तो कोई मुरली भी नहीं है ।”
“कुछ तो बात है ही । आखिर उतनी लड़कियां कैसे तुम पर मरने लगती हैं ।”
“तुम भी तो मरती हो मुझ पर । अपने आप से पूछ लो ।” - सुनील शरारत भरे स्वर से बोला ।
“ऐसा की तैसी तुम्हारी ।” - रेणु तीखे स्वर से बोली - “लो, बात करो अपनी अम्मा से ।”
एक खट की आवाज सुनील के कान में पड़ी, फिर रेणु की व्यवसाय सुलभ आवाज आई - “स्पीक आन, मैडम, मिस्टर सुनील इज आन दि लाइन ।”
और फिर उसे रचना का व्यग्र स्वर सुनाई दिया - “हल्लो, सुनील मैं रचना बोल रही हूं ।”
“बोलो ।”- सुनील बोला ।
“मुरारी मेरे फ्लैट पर आ गया है लेकिन एक दुर्घटना हो गई है ।”
“कैसी दुर्घटना ?”
“मुरारी जिस टैक्सी में मेरे फ्लैट की ओर आ रहा था वह एक दूसरी कार से टकरा गई थी । मुरारी को काफी चोटें आई हैं । इस समय वह घायलावस्था में मेरे फ्लैट में पड़ा है । उसका कोई डाक्टर दोस्त है, वही उसे अटैण्ड कर रहा है ।”
“मुरारी होश में है । मेरा मतलब है बोलने चालने के काबिल है ?”
“वह होश में है और डाक्टर कहता है थोड़ी देर बाद वह बोलने चालने के काबिल भी हो जायेगा ।”
“उसे तुम्हारे फ्लैट पर कौन लाया था ?”
“उसका डाक्टर मित्र । ऐक्सीडेंट के बाद लोग उसे हस्पताल में ले गये थे । वहां उसे फस्ट एड वगैरह दी गई थी । फिर उसने अपने डाक्टर मित्र को बुला भेजा था जो मेरे फ्लैट पर ले आया था ।”
“उसे क्या काफी गहरी चोटें आई हैं ?”
“मैंने पूछा नहीं है लेकिन डाक्टर को कहते सुना था कि उसके चेहरे पर ज्यादा चोटें लगी हैं । नाक की हड्डी टूट गई है ।”
“मैं आता हूं ।” - सुनील बोला ।
“ओ.के. । इन्तजार करूंगी ।”
सुनील ने रिसीवर को क्रेडिल पर रख दिया और उठ खड़ा हुआ ।
वह अपनी टाई की गांठ ठीक करता हुआ अपने केबिन से बाहर निकल आया और एक साइड पर रेलिंग लगे पैसेज से गुजरता हुआ, बाहर की ओर चल दिया ।
रिसैप्शन के समीप से गुजरते हुए वह एक क्षण के लिये ठिठका और उसके होठों पर शरारत भरी मुस्कुराहट आ गई ।
“हल्लो, बेबी ।” - सुनील बोला ।
रेणु ने आंखें तरेर कर उसकी ओर देखा और फिर बोली - “तुम अपने आप को यूसुफ समझते हो क्या ?”
“यूसुफ से मेरी हैसियत बहुत अच्छी है, मैडम ।” - सुनील शान से बोला - “कम से कम मैं यूसुफ की तरह किसी बाजार के चौराहे पर गुलाम की हैसियत से तो नहीं बेचा जाऊंगा ।”
“तुम्हें कौन खरीदेगा ?”
“कोई बड़ी हस्ती ही खरीदेगी । मेरी कीमत चुकाना कम से कम किसी टेलीफोन आपरेटर रिसैप्शनिस्ट के बस की बात तो नहीं है ।”
“सोनू ।” - रेणु एकाएक प्यार भरे स्वर मे बोली ।
“यस, मैडम ।”
“वुड यू प्लीज कीप यूअर ब्लडी माउथ शट एण्ड टेक दि हैल अवे फ्राम हियर (भगवान के लिए अपना थोबड़ा बन्द करो और दफा हो जाओ) ।”
“श्योर, मैडम ।” - सुनील बड़े ड्रामेटिक ढंग से सिर झुका कर बोला - “राईट अवे, मैडम ।”
और वह यूं द्वार की ओर बढा जैसे शेक्सपीरियन ड्रामे का कोई पात्र अपना कर्ट कर के स्टेज से विदा ले रहा हो ।
द्वार के समीप के समीप स्टूल पर बैठा हुआ चपरासी धीरे-धीरे मुस्करा रहा था ।
***
सुनील ने महात्मा गांधी रोड पर स्थित श्रीनिवास नामक चार मन्जिली इसारत की दूसरी मन्जिल पर दाईं ओर के फ्लैट की काल बैल पर उंगली रख दी ।
द्वार स्वयं रचना से खोला । उसके चेहरे पर चिन्ता के भाव परिलक्षित हो रहे थे ।
“हल्लो ।” - सुनील बोला ।
“हल्लो ।” - वह बोली - “शुक्र है तुम आ गये, सुनील ।”
“तुम हर किसी को यूं ही दरवाजा खोल देती हो ?”
“मैं इतनी मूर्ख नहीं हूं । द्वार की पैनल में एक छोटा-सा गुप्त लैंस लगा हुआ है । उसमें से आगन्तुक देख लेने के बाद ही मैं दरवाजा खोलती हूं ।”
“वह कहां है ?”
“भीतर बैडरूम में । उसके डाक्टर मित्र भी उसके पास है । आओ ।”
“डाक्टर क्या कर रहा है ?”
“उसकी नाक से ब्लीडिंग शुरू हो गई थी । उसकी फिर से ड्रेसिंग कर रहा है ।”
सुनील फ्लैट में प्रवेश कर गया ।
रचना द्वार बन्द करने लगी ।
भीतर बैडरूम में कुछ मरदानी आवाजें लोगों की मौजूदगी का आभास दे रही थीं । फिर तेज चरर्र-चरर्र की आवाज आई जैसे डाक्टरों द्वार ड्रेसिंग में प्रयुक्त होने वाले प्लास्टर टेप की स्ट्रिप काटी जा रही हों ।
“आओ ।” - रचना बोली ।
सुनील उसके पीछे हो लिया ।
रचना उसे बैडरूम में ले आई ।
एक लगभग चौबीस-पच्चीस साल का दुबला पतला युवक बड़े व्यवसायिक ढंग से पट्टियां खोल रहा था । एक अन्य व्यक्ति पलंग पर पड़ा था और रह-रह कर कुछ अनजाने लोगों को कोस रहा था जो शायद उस एक्सीडेंट के जिम्मेदार थे । डाक्टर ने बांस की छोटी-छोटी खपच्चियों, प्लास्टर टेप और पट्टियों द्वारा उसकी टॅटी हुई नाक के आसपास एक ब्रिज सा बना दिया था ताकि अनजाने में भी उसकी नाम पर जोर न पड़े । उसके बाकी चेहरे पर भी कई स्थानों पर प्लास्टर टेप की कत्तरें चिपकी दिखाई दे रहीं थीं । उसके सिर के काले बाल एकदम मध्य में निकाली मांग के द्वारा दो भागों में विभक्त होकर सिर के दायें-बायें लटक रहे थै । सिर के पिछले भाग में बालों के बीच में कम से कम दो इंच व्यास का गंज दिखाई दे रहा था । चेहरे पर नाक के आसपास लगी प्लास्टर टेप की कत्तरों से उसके चेहरे की खाल इस बुरी तरह नाक की ओर खिंच गई थी कि उसकी आंखें बड़े डरावने ढंग से बाहर की ओर निकल आई थीं ।
चेहरे के मुकाबले में उसका शरीर काफी भारी था । उसका पेट मटके की तरह बाहर को निकला हुआ था ।
आयु में वह लगभग पैंतीस साल का आदमी लग रहा था ।
“यह मुरारी है ।” - रचना ने परिचय कराया - “यह मुरारी का मित्र राजीव सक्सेना । और मुरारी यह सुनील है जिसका मैंने तुम से जिक्र किया था ।”
राजीव ने चुपचाप सुनील से हाथ मिलाया ।
सुनील मुरारी की ओर देख कर अभिवादन के ढंग से मुस्कराया । उत्तर में शायद मुरारी ने भी मुस्कराने की कोशिश की लेकिन उसका पट्टियों और प्लास्टर टेप के शिकंजे में कसा हुआ चेहरा तनिक-सा विकृत होकर रह गया । और फिर वह बोला - “क्या हाल है, साहब ! साला ठीक से बोला भी तो नहीं जा रहा ।”
आवाज उसके मुंह के स्थान पर उसकी नाक पर बन्धी पट्टियों में से फिल्टर होती हुई निकली और सुनील को यूं सुनाई दिया जैसे वह कह रहा हो - गया हाड़ है, शाफ । शाड़ा, डीग शे बोडा बी डो नहीं जाड़ा ।
सुनील चुप रहा ।
डाक्टर ने अपना बक्सा बन्द किया और फिर मुरारी से बोला - “मैं जाता हूं । फिलहाल तुम ठीक हो लेकिन कोई मेहनत वाला या भारी काम मत करना वर्ना तुम्हारा ब्लड प्रेशर बढ जायेगा और हैमरेज (खून बहना) शुरू हो जाने का खतरा हो जायेगा । तीन-चार दिन तक यूं ही आराम करो और हल्का-सा लैक्जेटिक लेते रहो । हर चार घन्टे बाद टैम्प्रेचर देख लेना । अगर टैम्प्रचर बढने लगे तो मुझे फौरन सूचित कर देना ।”
“अच्छा !” - मुरारी यूं बोला जैसे उसे डाक्टर के निर्देशों की कोई विशेष परवाह न हो ।
“आल राइट, दैन, विश यू गुड लक ।” - डाक्टर ने अपना बक्सा लिया । उसके सुनील से हाथ मिलाया और बाहर की ओर चल दिया ।
रचना उसके साथ हो ली ।
“तुम कहां जा रही हो ?” - सुनील ने पूछा ।
“बाहर का दरवाजा बन्द कर आऊं ।” - रचना बोली ।
“अच्छा ।”
डाक्टर और रचना बाहर निकल गये ।
“आप कौन हैं, साहब ?” - मुरारी सुनील को देखता हुआ अपने पहले जैसे नाक में से निकलते हुए गोलमोल स्वर से बोला ।
“मेरा नाम सुनील है । रचना ने...”
“नाम मैंने सुन लिया था । मैंने नाम नहीं पूछा है ।”
“तो और क्या पूछा है ।”
“मेरा मतलब है, आप रचना को कैसे जानते हैं ?”
“बस जानता हूं ।” - सुनील लापरवाही से बोला ।
“फिर भी ?” - मुरारी जिद भरे स्वर से बोला ।
“रचना ने आपको कुछ नहीं बताया ?” - सुनील ने पूछा ।
“नहीं ।”
“फिर आप मुझसे ही क्यों आशा रखते हैं कि अपने बारे में मैं आपको कुछ बताऊंगा ।”
“फिर भी मुझे मालूम तो होना चाहिए ।”
“क्यों मालूम होना चाहिए, साहब ? आप आम खाने से मतलब रखिये ! पेड़ गिनने की आप को क्या जरूरत है ।”
मुरारी चुप हो गया ।
“रचना बहुत खूबसूरत औरत है ।” - थोड़ी देर बाद मुरारी फिर बोला ।
“मुझे मालूम है ।” - सुनील ने लापरवाही से उत्तर दिया ।
“कोई ऐसी सती-सावित्री भी नहीं है ।”
“फिर ?”
“कहीं तुम्हें भी उसने अपना मतलब हल करने के लिए अपने शारीरिक आकर्षण के जोर पर ही तो नहीं फंसा लिया ?”
शायद सुनील के उस स्टेटस की कल्पना कर के ही मुरारी उसे ‘आप’ से ‘तुम’ कहने लगा था ।
सुनील चुप रहा ।
“तुम रचना के... यार हो !”
“अच्छा, बाबा, हूं ।” - सुनील तनिक चिढकर बोला - “इससे तुम्हारे पेट में मरोड़ क्यों उठ रहीं हैं । वह तुम्हारी बीवी तो नहीं है न ?”
मुरारी कसमसा कर चुप हो गया ।
“मुझे तुम वैसे आदमी नहीं लगते ?” - वह फिर बोला ।
“कैसा आदमी नहीं लगता मैं तुम्हें ?” सुनील ने पूछा ।
“जो खूबसूरत औरतों से यूं ही प्रभावित हो जाता है । तुम खुद भी तो कम आकर्षक व्यक्तित्व वाले नहीं हो ।”
“यार, लगता है, दुर्घटना से तुम्हारे दिमाग को भी चोट पहुंची है । खुद ही तर्क करते है, खुद ही उसे काटते हो । मैं कौन हूं रचना को कैसे जानता हूं ? इससे तुम्हारी सेहत पर क्या असर पड़ता है । रचना से तुम्हारा जो सौदा हुआ है, तुम उससे मतलब रखो । तुम हमें शम्भूदयाल तक पहंचने का साधन बताओ । बदले में अपना रुपया लो और छुट्टी करो ।”
“वह तो ठीक है लेकिन मैं किसी बखेड़े में नहीं फंसना चाहता ।”
“किसी बखेड़े की गुंजाइश ही नहीं है ।”
“है क्यों नहीं ? मान लो तुम पुलिस के आदमी हो । ऐसी सूरत में इस बात की क्या गारण्टी है कि तुम लोग मुझे भी और उस लड़की को भी जो शम्भूदयाल की प्रेमिका है, नहीं धर लोगे ?”
सुनील चुप रहा ।
“तुम पुलिस के आदमी हो ?” - मुरारी ने तनिक तीव्र स्वर से पूछा ।
“नहीं ।” - सुनील बोला ।
“झूठ तो नहीं बोल रहे हो ?”
“नहीं ।”
“मैं झूठ बोलने वालों से बड़ी बुरी तरह पेश आता हूं ।” - वह धमकी भरे स्वर में बोला ।
“तुम इस हालत में कहां हो कि किसी से बुरी तरह पेश आ सको ।” - सुनील मन ही मन मुस्कराता हुआ बोला - “नाक तुम्हारी टूटी हुई है । तुम्हारे चेहरे पर सत्तर पट्टियां बन्धी हुई हैं । मैं तुम्हें एक घूंसा जमा दूं तो शायद तुम परलोक ही सिधार जाओगे ओर मुझे धमका यूं रहे हो जैसे अभी फूंक मारकर उड़ा दोगे मुझे ।”
“मैं घायल हूं इसलिए तुम मेरी मजबूरी का नाजायज फायदा उठाने की कोशिश कर रहे हो । वर्ना...”
“तुम घायल हो इसीलिये तो मैं तुम्हारी इतनी बकवास सुन भी रहा हूं वर्ना मैंने तुम्हारा थोबड़ा कब का बन्द कर दिया होता ।”
“तुम पुलिस के आदमी नहीं हो ।” - वह विश्वासपूर्ण स्वर से बोला ।
“फिर अपनी ही बात काट रहे हो । बात क्या है प्यारेलाल ! खुद ही सवाल करते हो और खुद ही जवाब भी दे लेते हो ?”
“अगर तुम पुलिस के आदमी होते तो यह तकल्लुफ दिखाने की तकलीफ नहीं करते कि मैं घायल आदमी हूं । दरअसल पुलिस वाले उस हालात में ज्यादा सूरमा बनने की कोशिश करते हैं जब कि दूसरा आदमी उनका ठीक से सामना करने की स्थिति में न हो ।”
सुनील चुप रहा । उसे मुरारी कुछ ‘क्रैक’ सा लगा ।
“तुम तो, लगता है, कोई मेरे ही जैसे आदमी हो ।”
“तुम्हारे जैसा आदमी तो हूं ही मैं । आदमी तो भगवान ने सभी एक ही माडल के बनाये हैं । मेरे भी दो हाथ, दो पांव हैं...”
“मेरा यह मतलब नहीं था ।”
“तो फिर ?”
“मेरे ख्याल से तुम भी...”
और उसने कम्बल के नीचे से निकाल कर अपना एक हाथ यूं घुमाया जैसे चाकू चला रहा हो ।
“कि मैं भी दादा हूं ?” - सुनील ने पूछा ।
“हां ।”
“अपने लिये तो तुम मुझे दादा ही समझो ।”
उसी क्षण रचना वापिस आ गई ।
“इतनी देर कहां लगा दी ?” - सुनील ने पूछा ।
“एक पड़ोसिन आ गई थी ।” - वह नर्वस स्वर से बोली ।
“ओह !”
“मुरारी ने कुछ बताया ?”
“नहीं । अभी तो वह मेरा इम्तहान ले रहा था ।”
रचना ने प्रश्नसूचक दृष्टि से मुरारी को देखा ।
“रुपये निकालो ।” - मुरारी बोला ।
रचना ने सुनील की ओर देखा ।
“दे दो ।” - सुनील बोला ।
रचना दूसरे कमरे में चली गई ।
थोड़ी देर बाद वह सौ-सौ के नोट लेकर वापिस लौटी ।
नोट उसने मुरारी के हाथ में देने की जगह सुनील को दे दिये ।
सुनील ने नोट गिने । बीस थे ।
उसने नोट मुरारी की ओर बढा दिये ।
“कितने हैं ?” - मुरारी ने पूछा ।
“तुमने कितने मांगे थे ।
“दो हजार ।”
“दो हजार ही हैं ।”
“मेरी पतलून की जेब में डाल दो ।”
सुनील ने नोट उसकी पतलून की जेब में डाल दिये ।
“अब शुरू हो जाओ ।” - सुनील बोला ।
“पहले मैं एक बार फिर स्पष्ट कर देना चाहता हूं ।” - मुरारी बोला - “तुम्हें शम्भूदयाल की सूरत दिखाई देते ही मुझे बाकी के आठ हजार रुपये मिल जाने चाहिए । मैं इन्तजार नहीं करुंगा ।”
“अच्छा ।”
“और अगर तुम लोगों ने मुझे कोई धोखा देने की कोशिश की तो, भगवान कसम, दोनों को खलास कर दूंगा ।”
“पहले इस काबिल तो हो लो ।” - सुनील व्यंगपूर्ण स्वर से बोला ।
“तुम लोगों के काबिल तो मैं हो जाऊंगा । वैसे भी मुझे अकेला मत समझो । मेरा भी पूरा गैंग है ।”
“फिर भी शम्भूदयाल के नाम से ही तुम्हें दहशत होती है ।”
मुरारी चुप हो गया ।
“अब बहस छोड़ो और लड़की का नाम और पता बताओ ।”
“अच्छा ।” - वह बोला - “लड़की का नाम किशोरी है । वह मेहता रोड की चालीस नम्बर इमारत के एक छोटे से फ्लैट में रहती है । तुम उसकी निगरानी करनी शुरु कर दो । कभी न कभी शम्भूदयाल वहां जरूर आयेगा या वह शम्भूदयाल के पास जायेगी । या फिर एकदम उस पर चढ दौड़ो । उसे कहो कि तुम पुलिस के आदमी हो और उस यह इल्जाम लगाओ कि उसने शम्भूदयाल को छुपा रखा है । जब वह अच्छी तरह भयभीत हो जाये तो उसे छोड़ दो । वह गोली की तरह शम्भूदयाल से संपर्क स्थापित करने का प्रयत्न करेगी ताकि शम्भूदयाल सावधान हो जाये । ...लेकिन एक बात का ध्यान रखना ।”
“क्या !”
“सारे सिलसिले में यह बात हरगिज जाहिर नहीं होना चाहिए कि किशोरी का पता तुम्हें मैंने बताया है ।”
“अच्छा ।”
मुरारी चुप हो गया ।
“तुम यहां कब तक रहोगे ?” - रचना ने व्यग्र स्वर से मुरारी से पूछा ।
“घबराओ नहीं ।” - मुरारी बोला - “अगर ऐक्सीडेन्ट न हो गया होता तो मैं यहां एक मिनट भी नहीं रहता । मगर अब मजबूरी है । डाक्टर कहता था, सात-आठ घण्टे में मैं हिलने-डुलने के काबिल हो जाऊंगा । उसके बाद मैं फौरन यहां से चला जाऊंगा ।”
रचना चुप हो गई । उसकी सूरत से असन्तोष झलक रहा था ।
“तुम्हारे पास शम्भूदयाल की कोई तस्वीर है ?” - सुनील ने रचना से पूछा ।
“कई हैं ।”
“मुझे दिखाओ ।”
“क्यों ?”
“बाबा, मैं शम्भूदयाल को पहचानूंगा कैसे ?”
“ओह !” - रचना बोली - “मैं एलबम लेकर आती हूं ।”
सुनील एक सोफे पर बैठ गया ।
रचना एलबम ले आई और सुनील की बगल में बैठ गई ।
वह सुनील को एक-एक पृष्ठ खोलकर दिखाने लगी । वह उन स्थानों पर ऊंगली रखती जा रही थी जहां शम्भूदयाल का चित्र दिखाई दे रहा था ।
एलबम पूरी देख चुकने के बाद सुनील ने एलबम अपने हाथ में ले ली और उसमें शम्भूदयाल के दो कैबिनेट साइज चित्र निकाल लिये । उसनें वे दोनों चित्र अपनी जेब में रख लिये और एलबम रचना को थमा दी ।
रचना उससे एकदम सटकर बैठी हुई थी । उसने एलबम लेकर उठने का उपक्रम नहीं किया ।
सुनील तनिक असुविधा का अनुभव करने लगा ।
“ओ. के. रचना ।” - वह उठने का उपक्रम करता हुआ बोला ।
रचना ने एलबम अपनी बगल में रख ली और अपने दोनों हाथ सुनील के कन्धे पर रखती हुई मधुर स्वर से बोली - “सुनील!”
“हां ।”
“मैं तुम्हारे इस अहसान का बदला कैसे चुका सकती हूं ?”
“बड़ी आसानी से ।” - सुनील मुस्कराया ।
“कैसे ?” - रचना आशापूर्ण स्वर से बोली - “उसके हाथों का दबाव बढ गया ।”
“मुझसे चार फुट दूर बैठकर ।” - सुनील बर्फ से ठंडे स्वर से बोला ।
एक क्षण तो रचना की बात समझ में ही नहीं आई । फिर उसका चेहरा लाल हो उठा । वह एकदम सुनील से ठिठक कर अलग हठ गई । और सामने के सोफे पर जा बैठी ।
सुनील उठ खड़ा हुआ ।
“मैं चला ।” - वह बोला - “तुम्हें फोन करूंगा ।”
रचना ने सिर उठाने की भी तकलीफ नहीं की ।
सुनील चुपचाप फ्लैट से बाहर निकल गया ।
***
सुनील ने अपनी मोटरसाइकिल मेहता रोड पर एक ऐसे स्थान पर खड़ी कर दी जहां पार्किंग की इजाजत थी ।
वह चालीस नम्बर इमारत तलाश करने लगा ।
चालीस नम्बर एक शानदार पांच मन्जिली इमारत थी । इमारत के निवासियों के नाम लिखे हुए थे ।
सुनील को किशोरी का नाम कहीं दिखाई नहीं दिया ।
उसी क्षण उसे एक आदमी इमारत से बाहर निकलता दिखाई दिया ।
“जरा सुनिए, साहब ।” - सुनील उसके सामने पहुंचता हुआ बोला ।
वह आदमी रुक गया और बोला - “फरमाइये ।”
“आप इसी इमारत में रहते हैं ?”
“जी हां ।”
“यह... आपको मालूम है किशोरी कौन से फ्लैट में रहती है ?”
उस आदमी ने सुनील को सिर से पांव तक घूरा और एकदम बदले स्वर में बोला - “पहली मंजिल का फ्रन्ट वाला फ्लैट है ।”
और वह तेज कदमों से चलता हुआ यूं सुनील से दूर हट गया जैसे सुनली को कोई छूत की बीमारी हो ।
सुनील कुछ क्षण दूर होते हुए आदमी को देखता रहा और फिर इमारत की ओर बढ गया ।
लगता था किशोरी और उससे मिलने वाले उस इमारत में अच्छी निगाहों से नहीं देखे जाते थे ।
सुनील सीढियां चढकर उस आदमी द्वारा बताये फ्लैट पर पहुंच गया ।
पहले उसने अपना हाथ घन्टी की ओर बढाया । फिर उसने घन्टी बजाने का इरादा छोड़ दिया और जोर-जोर से द्वार भड़भड़ाने लगा ।
उस तरकीब उसने झेरी हत्याकांड के दौरान में जौहरी से सीखी थी । जौहरी के कथनानुसार पुलिस वाले द्वार खुलवाने के लिये घन्टी बजाने जैसा शिष्ट तरीका इस्तेमाल में लाने में विश्वास नहीं करते (हत्या की रात )
द्वार फौरन खुल गया और द्वार पर सुनील की एक रेशमी गाउन में ढंकी हुई खूबसूरत लड़की दिखाई दी ।
“तुम्हारा नाम किशोरी है !” - सुनील कर्कश स्वर से बोला ।
लड़की जो वास्तव में इस प्रकार द्वार खटखटाये जाने पर नाराजगी प्रकट करने वाली थी, एकदम बोलती-बोलती रुक गई और फिर सन्दिग्ध स्वर से बोली - “हां ।”
“रास्ता छोड़ो ।” - सुनील वैसे ही स्वर से बोला और यूं एकदम फ्लैट के भीतर की ओर बढा जैसे अगर किशोरी फौरन रास्ते से हट नहीं गई तो वह उसे रौंदता हुआ गुजर जायेगा ।
किशोरी हड़बड़ा कर एक ओर हट गई ।
सुनील ने फ्लैट के भीतर पहुंच कर पांव की ठोकर से द्वार बन्द कर दिया और फिर नपे-तुले कदमों से आगे बढकर ड्राइंग रूम में रखे एक शानदार सोफे पर बैठ गया ।
उसने लापरवाही से जेब से लक्की स्ट्राइक का पैकेट और माचिस निकाली और एक सिगरेट सुलगाने लगा ।
किशोरी अभी भी द्वार पर ही खड़ी थी और भय, विस्मय और सन्देह के मिले-जुले भावों से सुनील को देख रही थी ।
“यहां मेरे सामने आकर बैठ जाओ, और मेरे प्रश्नों का उत्तर दो ।” - सुनील सिगरेट का ढेर सारा धुंआ उगलता हुआ बोला ।
“लेकिन आप हैं कौन ?” - किशोरी दबे स्वर में बोली ।
“वह भी बताता हूं, तुम यहां आओ ।”
किशोरी उसके सामने आकर बैठ गई ।
सुनील सीधा उसके नेत्रों में झांकने लगा ।
किशोरी ने नर्वस होकर सिर झुका लिया ।
सुनील ने सिगरेट की राख फर्श पर बिछे शानदार गलीचे पर झाड़ी और फिर अधिकारपूर्ण स्वर स्वर से बोला - “तुमने कई मामलों में कानून का उल्लंघन किया है ।”
“मैं...”
“तुम जानती हो राजनगर में यूं खुलेआम वेश्यावृत्ति के अपराध में पकड़े जाने पर सजा होती है ।” - वह कठोर स्वर से बोला ।
जिस आदमी से उसने किशोरी का पता पूछा था, उसके व्यवहार के कारण ही उसे किशोरी से ऐसा सवाल पूछने का हौसला हुआ था ।
किशोरी के चेहरे का रंग उड़ गया - “क्या-क्या बक रहे हैं आप ?”
“मैंने झूठ कहा है ?” - सुनील आंखें निकालकर बोला ।
“एकदम झूठ कहा है आपने ? आपको ऐसी बात करते शर्म आनी चाहिये ।”
“इस इमारत के अन्य निवासियों ने तुम्हारी शिकायत की है ।”
“वे लोग मुझसे जलते हैं । मैं भी इस इमारत के अन्य किरायेदारों की तरह इज्जतदार और मान-मर्यादावाली औरत हूं ।”
“लेकिन अकेली रहती हो ?” - सुनील व्यंग्यपूर्ण स्वर से बोला ।
“इससे क्या होता है ?”
“तुम्हारा फ्लैट बहुत शानदार है ।”
“किशोरी चुप रही ।”
“कितना किराया देती हो ?”
“चार सौ रुपये ।”
“फ्लैट की फरनिशिंग पर भी हजारों रुपया खर्च हुआ मालूम होता है ।”
“फिर...”
“इतना रुपया तुम्हारे पास कहां से आया ?” - सुनील ने तीव्र स्वर से पूछा ।
किशोरी को एकदम जवाब नहीं सूझा ।
“अब भी तुम दावा करती हो कि तुम काल गर्ल नहीं हो ?”
“यह झूठ है ।” - वह भारी विरोधपूर्ण स्वर से बोली - “मैं वैसी लड़की नहीं हूं । आपको मेरे बारे में ऐसी बातें करने का की अधिकार नहीं है ।”
“यह झूठ है ?”
“हां । सरासर झूठ है ।”
“यहां नये-नये लोग नहीं आते हैं ?”
“नहीं आते हैं ।”
“ओह ।” - सुनील गहरी सांस लेकर बोला - “तो उसका मतलब यह हुआ कि तुम सिर्फ एक ग्राहक पर निर्भर करती हो । तुम्हारा सारा खर्चा अकेला शम्भूदयाल उठाता है ।”
किशोरी जैसे आसमान से गिरी । उसका चेहरा राख की तरह सफेद पड़ गया ।
“क.. क... क्या ?”
“अब यह मत कहना कि तुम शम्भूदयाल को भी नहीं जानती ।”
“मैं किसी शम्भूदयाल को नहीं जानती ।”
“पहले कम से कम यह तो पूछ लो, मैं कौन से शम्भूदयाल की बात कर रहा हूं ?”
“तुम किस शम्भूदयाल की बात कर रहे हो ?”
“मैं उस शम्भूदयाल की बात कर रहा हूं, जिसने बैंक में डाका डाला था और पुलिस के तीन सिपाहियों को मौत के घाट उतार दिया था ।”
“मैं नहीं जानती उसे ।” - वह तनिक दिलेरी से बोली ।
“फिर सोच लो ।”
“इसमें सोचने वाली कौन सी बात है ?”
“शायद तुम्हें मालूम नहीं है कि” - सुनील एक-एक शब्द पर जोर देता हुआ बोला - “कि अपराधी की सहायता करने वाला बी अपराधी होता है ।”
किशोरी चुप रही ।
“शम्भूदयाल फरार मुजरिम है । उस शरण देने वाला या उससे सम्पर्क होने के बावजूद भी पुलिस को सूचना न देने वाला भी अपराधी कहला सकता है ।”
“यह सब कुछ आप मुझे क्यों बता रहे हैं ?”
“क्योंकि शम्भूदयाल तुमसे सम्बन्धित है । तुम उसकी प्रेमिका हो वह इस फ्लैट पर आता है ।”
“यह झूठ है ।”
“शम्भूदयाल की सहयोगिनी होने के नाते तुम भी गिरफ्तार की जा सकती हो ।”
“यह सरासर झूठ है । मैं किसी शम्भूदयाल को नहीं जानती ।”
“तुम झूठ बोल रही हो ।” - सुनील आंखे निकाल कर बोला ।
“मैं एकदम सच कह रही हूं ।”
“देखो” - सुनील तनिक नरम स्वर से बोला - “तुम खामखाह बखेड़े में क्यों फंसती हो । अगर पुलिस को सहयोग देना स्वीकार कर लो तो मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूं तुम पर की आंच नहीं आयेगी और न ही इस बात की इन्क्वायरी की जायेगी कि तुम्हारी आय का साधन क्या है ।”
“आप क्या चाहते हैं मुझसे ?”
“हमें शम्भूदयाल का पता बता दो ।”
“लेकिन जब मैं किसी शम्भूदयाल को जानती ही नहीं तो उसका पता कैसे बता दूं ?”
“यह तुम्हारा अन्तिम उत्तर है ?”
“मेरे उत्तर को आप एक क्षण के लिये छोड़िये” - किशोरी एकाएक तनिक सतर्क स्वर से बोली - “आपने अभी तक यह नहीं बताया है कि आप हैं कौन ?”
“यह भी बताता हूं ।” - सुनील बोला - “उसने सिगरेट गलीचे पर फेंक दिया और उसे पांव से मसलता हुआ उठ खड़ा हुआ ।”
वह लम्बे डग भरता हुआ कोने की मेज पर रखे टेलीफोन की ओर बढा ।
उसने एक झटके से रिसीवर उठा लिया और फिर यूथ क्ल्ब के नम्बर डायल करने लगा ।
“यह आप क्या कर रहे हैं ?” - किशोरी तनिक आतंकित स्वर से बोली ।
“टेलीफोन कर रहा हूं ।” - सुनील ने सरल स्वर से उत्तर दिया ।
“कहां ?”
“पुलिस हैडक्वार्टर ।”
किशोरी का मुंह खुला का खुला रहा गया ।
सुनील कुछ क्षण रिसीवर कान से लगाये खड़ा रहा ।
“हल्लो !” - दूसरी ओर से उसे रमाकांत की आवाज सुनाई दी ।
“हल्लो” - सुनील बड़ी तत्परता से बोला - “पुलिस हैडक्वार्टर ?”
“यूथ क्लब !” - दूसरी ओर से रमाकांत की आवाज आई ।
“पुट मी टु सुपरिन्टेन्डेन्ट प्लीज ।” - सुनील रमाकांत की आवाज की परवाह किये बिना गम्भीर स्वर से बोला ।
“वाट दि हैल !”
सुनील कुछ क्षण चुप रहा और फिर आदरपूर्ण स्वर से बोला - “सर मैं डिटेक्टिव इन्सपैक्टर चक्रवर्ती बोल रहा हूं । जी हां, उसी लड़की के फ्लैट से...”
“अबे ओ सुनील के घोड़े” - रमाकांत चिल्लाया - “साले मैं तेरी आवाज पहचान गया हूं । तू डिटेक्टिव इन्स्पैक्टर कब से हो गया है !”
सुनील उसकी बातों की परवाह किये बिना बोलता रहा - “यस सर, वह लड़की इस बात से सरासर इन्कार कर रही है... जी हां, वह कह रही है कि शम्भूदयाल से उसका कोई सम्बन्ध नहीं है । ...जी हां, जी हां, मैंने उसे बताया था कि शम्भूदयाल और उसे कई बार इकट्ठे देखा गया है । यह बात निर्विवाद रूप से सिद्ध हो चुकी है कि वह शम्भूदयाल की प्रेमिका है । यस सर, लेकिन किया क्या जाये । लड़की पुलिस को सहयोग देना ही नहीं चाहती और ऊपर से झूठ पर झूठ बोले चली जा रही है ।”
“अबे क्या बक रहा है ?” - रमाकांत चिल्लाया - “क्या यही बकवास सुनाने के लिये टेलीफोन किया था ? साली मजाक की भी कोई हद होती है..”
किशोरी दहशत भरे भाव से सुनील का मोनो डायलाग सुन रही थी ।
“अब मेरे लिय क्या आर्डर है, साहब ?” - सुनील कहता रहा - “क्या मैं इसे गिरफ्तार करके हैडक्टवार्टर ले आऊं ?....लेकिन क्यों, सर विशेष रूप से जब कि... लेकिन सर, गलती की सम्भावना नहीं है । यह हकीकत है कि शम्भूदयाल इस लड़की से सम्बन्धित है...”
“जहन्नुम में जाओ ।” - रमाकांत आखिरी बार दहाड़ा और उसने भड़ाक से टेलीफोन बन्द कर दिया ।
“ओके सर ।” - सुनील डैड लाईन में ही बोलता रहा - “अगर आप डबल चेकिंग करवाना चाहते हैं तो आप की मर्जी । वैसे मेरी राय तो यही है कि इसे अभी गिरफ्तार कर लेना चाहिए । ...राइट सर । ..लेकिन अगर इसने टेलीफोन से शम्भूदयाल को सावधान करने का प्रयत्न किया तो ...जी हां, आप ऐसा इन्तजाम कर दीजिये कि अगर वह किसी को टेलीफोन करे तो हम हैडक्वार्टर पर वार्तालाप सुन सकें...”
“ओके सर ।”
सुनील ने रिसीवर रख दिया । आखिरी बात उसने धीमे स्वर में कही थी लेकिन इस बात का विशेष ध्यान रखा था कि किशोरी के कान में वह बात पड़े बिना न रह सके ।
“ओके मैडम ।” - सुनील बोला - “मैं तो तुम्हें अभी गिरफ्तार करके हैडक्वार्टर ले जाना चाहता था लेकिन मेरा अफसर चाहता है कि तुम्हें एक बार और अच्छी तरह ठोक बजाकर देख लिया जाये । शायद हम से ही गलती हुई हो ।”
किशोरी चुप रही ।
“जाती बार एक बात तुम्हें फिर कह देना चाहता हूं ।” - सुनील बोला - “पुलिस से असहयोग की भावना कोई अच्छी आदत नहीं होती है ।”
और सुनील लम्बे डग भरता हुआ फ्लैट से बाहर निकल गया ।
***
चालीस नम्बर इमारत के सामने सड़क के दूसरी ओर एक रेस्टोरेन्ट था ।
रेस्टोरेन्ट की कांच वाली खिड़की के सामने की मेज पर सुनील बैठा हुआ था ।
उस खिड़की में से चालीस नम्बर का मुख्य द्वार एकदम साफ दिखाई दे रहा था ।
किशोरी अभी तक इमारत से बाहर नहीं निकली थी ।
सुनील व्यग्रता से प्रतीक्षा कर रहा था ।
इस बात की काफी सम्भावना थी कि किशोरी शम्भूदयाल को चेतावनी देने के लिये खुद उस से सम्पर्क स्थापित करेगी । टेलीफोन के मोनो डायलाग द्वारा सुनील ने उसके दिमाग में यह बात बिठा दी थी कि वह टेलीफोन द्वारा शम्भूदयाल से सम्पर्क करने की मूर्खता नहीं करेगी ।
लेकिन फिर भी एक चिन्ता सुनील को थी ।
कहीं किशोरी इमारत में ही लगे किसी अन्य टेलिफोन से या इमारत से बाहर निकलकर किसी पब्लिक टेलीफोन से ही शम्भूदयाल को अपने फ्लैट पर आने के लिये ही सूचना न दे दे ।
फिर सुनील ने यह सोच कर यह विचार अपने दिमाग से झटक दिया कि किशोरी टाइप की लड़कियां इतनी समझदार कहां होती हैं ।
उसी क्षण किशोरी इमारत के मुख्य द्वार से बाहर निकली ।
वह गहरे नीले रंग की भारी रेशम की साड़ी और उसी से मैच करता हुआ ब्लाउज पहने हुए थी । उसके नेत्रों पर बड़े-बड़े शीशों वाला चश्मा लगा हुआ था और वह अपने दायें हाथ में एक सूटकेस थामे हुए थी ।
सुनील ने जल्दी से बिल चुकाया ।
समीप ही टैक्सी स्टैण्ड था । किशोरी हाथ हिलाकर किसी टैक्सी वाले का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयत्न कर रही थी ।
एक टैक्सी उसके सामने आ कर रुकी ।
किशोरी टैक्सी के भीतर जा बैठी ।
सुनील सिर झुकाये जल्दी से उस ओर बढा जहां उसने अपनी मोटरसाइकिल पार्क की थी ।
टैक्सी ड्राइवर ने बाहर निकल कर मीटर डाउन किया और वापिस ड्राइविंग सीट पर जा बैठा ।
अगले ही क्षण टैक्सी चिकनी सड़क पर भाग निकली ।
मोटर साइकिल तक पहुंच पाने का समय नहीं था ।
सुनील लपक कर टैक्सी स्टैण्ड की ओर बढा ।
“इधर बाबूजी !” - एक टैक्सी वाला उसे बुलाता हुआ बोला ।
सुनील जल्दी से उस की टैक्सी में जा बैठा ।
टैक्सी वाले ने ड्राइविंग सीट पर बैठकर इंजन स्टार्ट किया ओर बोला - “किधर, बाबूजी ?”
“उस टैक्सी के पीछे ।” - सुनील ने दूर सड़क पर जाती हुई किशोरी की टैक्सी की ओर संकेत करता हुआ बोला ।
“क्या मामला है, बाबूजी ?” - ड्राइवर सन्दिग्ध स्वर से बोला । वह रियर व्यू मिरर में से उसे घूर रहा था ।
“उस टैक्सी में मेरी बीवी है यार ।” - सुनील चिढे स्वर में बोला ।
“आप अपनी बीवी का पीछा कर रह हैं बाबूजी ।” - ड्राइवर अविश्वास पूर्ण स्वर से बोला ।
“हां ।” - सुनील ने वैसे ही चिड़े स्वर से उत्तर दिया - “पट्ठी रोज दोपहर को टैक्सी में बैठकर कहीं जाती है । पड़ोसी बताते थे तो मैं मानता नहीं था । आज अपनी आंखों से देख लिया है मैंने देखता हूं । कौन से यार से मिलने जाती है ।”
और सुनील ने सीट के साथ सिर लगा कर यूं नेत्र बन्द कर लिये जैसे वह की अपनी पत्नी की बेवफाई से बेहद दुखी इन्सान हो ।
“आजकल की सारी ही मेंमे ऐसी होती हैं, बाबूजी ।” - ड्राइवर सहानुभूतिपूर्ण स्वर से बोला ।
“अजी, मैं वैसा साहब नहीं हूं ।” - सुनील भड़क कर बोला - “मैं तो साली की मार-मार कर चमड़ी उधेड़ दूंगा ।”
“बिल्कुल जी ।” - ऐसा ही करना चाहिये । ड्राइवर ने हां में हां मिलाई ।
“उस्ताद, जरा टैक्सी पर भी नजर रखो । कहीं वह गायब ही न हो जाये ।”
“फिक्र न करो, साहब ।”
“और उसे पता नहीं लगना चाहिये कि उसका पीछा हो रहा है ।”
“मैंने कहा, न बाबू साहब, फिक्र मत करो ।”
अगली टैक्सी सीधी इम्पीरियल होटल की लाबी में जाकर रुकी ।
सुनील के ड्राइवर ने टैक्सी बाहर सड़क पर ही खड़ी कर दी ।
किशोरी टैक्सी में से निकल कर होटल में घुस गई ।
लगभग दो मिनट वह रिसैप्शन के काउन्टर पर खड़ी रही । फिर एक बैल बॉय ने आकर उसका सूटकेस उठा लिया और वह होटल के भीतर कहीं गायब हो गई ।
सुनील ने अपनी टैक्सी के ड्राइवर को एक दस रुपये का नोट दिया और होटल के भीतर की ओर लपका ।
लाबी में पहुंच कर उसने देखा लिफ्ट की बगल में लगे इन्डीकेटर में नम्बर चार की लाईट जल रही थी । जिस से प्रकट होता था कि लिफ्ट चौथी मंजिल पर रुकी हुई थी ।
“यस सर ।” - रिसैप्शन क्लर्क उसका ध्यान अपनी ओर आकर्षित करता हुआ बोला ।
सुनील उसके सामने आ खड़ा हुआ और मुस्कराता हुआ बोला - “आई वान्ट ए रूम ।”
“यस सर, श्योर सर । आपका सामान ?”
“क्लाक रूम में पड़ा है । बाद में मंगवा लूंगा ।”
“राइट सर । आपको सिंगल चाहिये न ?”
“हां, लेकिन बहुत नीचे या ऊपर मत दीजिये । अगर चौथी मंजिल पर कोई सिंगल खाली हो तो ठीक रहेगा ।”
“चौथी मंजिल पर तो कमरा खाली नहीं है, साहब ।” - क्लर्क खेदपूर्ण स्वर से बोला ।
“अच्छा ।” - सुनील निराश हो उठा - “तो फिर...”
उसी क्षण काउन्टर पर रखे टेलीफोन की घन्टी घनघना उठी ।
क्लर्क ने टेलीफोन का रिसीवर उठाकर कान से लगा लिया ।
क्लर्क कुछ क्षण टेलीफोन पर बात करता रहा ।
“आल राइट मिसेज दयाल ।” - अन्त में वह बोला और उसने रिसीवर रख दिया ।
वह सुनील की ओर आकर्षित हुआ - “यू आर लक्की, सर । चौथी मंजिल का एक रूम अभी फ्री हो गया है ।”
“अच्छा ।” - सुनील हैरानी दिखाता हुआ बोला - “कैसे ?”
“हमारी एक पैट्रन ने पहले चौथी मंजिल पर बराबर के दो कमरे बुक करवा लिये थे । चार सौ अट्ठारह और चार सौ बीस । अभी उन्होंने फोन पर बताया है कि उनका काम एक ही कमरे से चल जायेगा । उन्होंने चार सौ बीस नम्बर छोड़ दिया है । अगर आपको कमरे के नम्बर से एतराज न हो तो...”
“मुझे कोई एतराज नहीं है । दे दीजिये । चार सौ बीस सिंगल रूम है न ?”
“आई सी ।”
क्लर्क ने सुनील को चार सौ बीस में बुक कर दिया ।
वही बेल बॉय सुनील को ऊपर की ओर ले चला जो किशोरी को ऊपर छोड़ने गया था ।
“एक मिनट में पांच रूपये कमाना चाहते हो, प्यारेलाल ?” - लिफ्ट में सुनील ने उससे पूछा ।
“क्यों नहीं साहब ।” - बैल बॉय बोला - “पैसा कोई मुझे काटता थोड़ा ही है ।”
सुनील ने पांच का नोट निकाल कर हाथ में थाम लिया और पूछा - “अभी थोड़ी देर पहले तुम एक मेम साहब को चौथी मंजिल पर छोकर आये थे न ?”
“कौन मेम साहब ?”
“वे गहरे रंग की रेशमी साड़ी और वैसा ही ब्लाऊज पहने थीं और उन्होंने बड़े-बड़े शीशों वाला रंग का चश्मा लगाया हुआ था ।”
“अच्छा । आप मिसेज दयाल की बात कर रहे हैं ।”
“उन्हें कौन से कमरे में छोड़कर आए थे तुम ?”
“चास सौ अट्ठारह में ।” - बैल ब्वाय बोला ।
लिफ्ट चौथी मंजिल पर आ रुकी ।
बैल बॉय उसे चार सौ बीस नम्बर कमरे के सामने ले आया ।
सुनील ने देखा चार सौ अट्ठारह और चार सौ बीस अगल-बगल के कमरे थे । चार सौ अट्ठारह का द्वार बन्द था ।
सुनील ने बैल बॉय को पांच का नोट देकर उसे द्वार से ही विदा कर दिया और अपने कमरे में घुस गया
उसने द्वार भीतर से बन्द कर लिया ।
उसने कमरे का निरीक्षण आरम्भ कर लिया ।
चार सौ बीस और चार सौ अट्ठारह नम्बर कमरों के बीच अटेच्ड बाथरूम था जो दोनों कमरों की ओर से इस्तेमाल हो सकता था ।
सुनील बाथरूम का अपनी ओर का द्वार खोल कर भीतर घुस गया ।
उसने बाथरूम की चार सौ अट्ठारह नम्बर कमरे के द्वार की नाब को घुमाकर हल्का सा धक्का दिया ।
द्वार दूसरी ओर से बन्द था ।
सुनील बाथरूम से बाहर निकल आया ।
उसने डायरेक्ट्री में रचना का टैलीफोन नम्बर देखा और फिर होटल की आपरेटर से वह नम्बर मांग लिया ।
“हल्लो ।” - दूसरी ओर से रचना का स्वर सुनाई दिया ।
“मैं सुनील बोल रहा हूं ।” - सुनील ने बताया ।
“कहां से ?”
“इम्पीरियल होटल से ।”
“वहां कैसे पहुंच गये तुम ?”
“सुनो । मुरारी ने किशोरी नाम की जिस लड़की के बारे में बताया था, वह भी यहीं मेरे बगल वाले कमरे में मिसेज दयाल के नाम से ठहरी हुई हैं । उसने रिसैप्शन क्लर्क को बताया था कि उसका पति बाद में आने वाला है । हालात ये ही बताते हैं कि उसका कथित पति शम्भूदयाल ही होगा ।”
“वह कब आयेगा ?” - रचना का व्यग्र स्वर सुनाई दिया ।
“मैं क्या कह सकता हूं ? सम्भव है अभी आ जाये । सम्भव है कई घन्टों बाद आये ।”
“वह आयेगा तो सही ।”
“वर्तमान स्थिति से तो यही लगता है कि वह जरूर आयेगा ।”
दूसरी ओर से कोई उत्तर नहीं मिला ।
“अगर वह यहां आ जाये तो मैं पुलिस को रिपोर्ट कर दूं ?”
“तुम जरा एक मिनट होल्ड कर लो ।”
सुनील प्रतिक्षा करने लगा ।
“हां ।”
“मैं होटल में आ रही हूं ।”
“अगर शम्भूदयाल ने तुम्हें देख लिया तो जानती हो कितना भारी बखेड़ा खड़ा हो जायेगा ।”
“कुछ नहीं होगा । मैं चुपचाप तुम्हारे कमरे में आ जाऊंगी ।”
“लेकिन तुम यहां आना क्यों चाहती हो ?”
“मुरारी कहता है कि मैं होटल में जाऊं और मेरे पति की होटल में मौजूदगी सिद्ध हो जाने के फौरन बाद उसे बाकी का आठ हजार रुपया दे दूं ।”
“मतलब यह कि मुरारी भी यहां आ रहा है ।”
“हां ।”
“अगर शम्भूदयाल ने तुम दोनों मे से किसी को देख लिया तो हगामा खड़ा हो जायेगा ।” - सुनील चिन्तित स्वर से बोला ।
“कुछ नहीं होगा । वह हमे नहीं देख पायेगा । हम पूरी सावयधानी बरतेंगे ।”
“अच्छी बात है ।”
“तुम्हारा कमरा नंबर क्या है ?”
“चार सौ बीस में । और जरा सम्भल कर आना । किशोरी बगल के ही कमरे में है ।”
“अच्छा ।”
दूसरी ओर से सम्बन्ध विच्छेद हो गया ।
सुनील ने रिसीवर रख दिया ।
उसे आसार अच्छे नहीं दिखाई दे रहे थे ।
वह कुछ क्षण विचारपूर्ण मुद्रा बनाये बैठा रहा । फिर उसने दुबारा रिसीवर उठा लिया और आपरेटर से यूथ क्लब का नम्बर मांगा ।
नम्बर मिलते ही वह बोला - “रमाकांत प्लीज ।”
थोड़ी ही देर में रमाकांत लाइन पर आ गया ।
“रमाकांत, मैं सुनील बोल रहा हूं ।” - सुनील बोला ।
“ऐसी की तैसी तुम्हारी ।” - रमाकांत फट पड़ा - “यह दोपहर में टेलीफोन पर क्या ड्रामा कर रहे थे तुम ?”
“यार, हालात ऐसे थे कि वह बकवास करनी पड़ी थी ।”
“हालात ऐसे थे कि तुम इतनी ज्यादा पी गये थे कि तुम अपने आप को डिटैक्टिव इन्स्पैक्टर चक्रवर्ती समझने लगे थे और मुझे पुलिस सुपरिन्टेन्डेन्ट ।”
“यार, वह एक घिस्सा था जो किसी को देना जरूरी था ।”
“सीरियस ?”
“सीरियस ।”
“तुम पिये हुए नहीं थे ।”
“नहीं ।”
“किस्सा क्या है ?”
“किस्सा बाद में बताऊंगा । पहले एक काम करो ।”
“क्या ?”
“एक रिवाल्वर दिलवाओ ।”
“क्या ?” - रमाकांत और तीखे स्वर से बोला ।
“एक रिवाल्वर दिलवाओ, यार ।”
“क्या करोगे ?”
“एक घपले में फस गया हूं । थोड़ी सी प्रोटेक्शन की जरूरत महसूस होने वाली है ।”
“फिर कोई लड़की ?”
सुनील चुप रहा ।
“तुम मरोगे किसी दिन ।”
“रिवाल्वर भिजवा रहे हो ?”
“कैसी रिवाल्वर चाहिये ?”
“कोई पुरानी सी रिवाल्वर जो पकड़ी जाने पर ट्रेस न की जा सके और कुछ कारतूस ।”
“कहां भिजवाऊं ?”
“तुम उसका एक पार्सल सा बना कर इम्पीरियल होटल के काउन्टर पर मेरे नाम छोड़ जाओ । मैं वहां से ले लूंगा ।”
“ओके । और कुछ ।”
“फिलहाल बस ।”
“लेकिन किस्सा क्या है ?”
“फिर बतायेंगे ।”
“मर्जी तुम्हारी ।”
सुनील ने रिसीवर क्रेडिल पर रख दिया ।
***
लगभग एक घन्टे बाद किसी ने सुनील के कमरे का दरवाजा खटखटाया ।
उसने द्वार खोल दिया ।
गलियारे में रचना और उसके कन्धे का सहारा लिये हुए मुरारी खड़ा था । उसके चेहरे पर अब भी पहले की तरह पट्टियों और प्लास्टर टेप के टुकड़ों का जाला चढा हुआ था । एक लम्बा ओवरकोट उसे सिर से पांव तक ढके हुए था ।
दोनों भीतर आ गये ।
सुनील ने फौरन द्वार बन्द कर दिया ।
मुरारी फौरन पलंग पर जा बैठा । वह हांफ रहा था ।
“किसी ने तुम्हें आते देखा तो नहीं ?”
“नहीं । हम बैल कैप्टन को रिश्वत देकर पिछले दरवाजे से आये हैं ।” - रचना ने उत्तर दिया और फिर पूछा - “वह आया है ?”
“अभी नहीं ।”
“तुम्हें कैसे मालूम है ?”
“मैं बाथरूम में उनकी साइड के दरवाजे पर कान लगाये बैठा था । मुझे दूसरी ओर न कोई पुरुष स्वर सुनाई दिया और न ही इस दौर में एक बार भी द्वार खुला है ।”
“किशोरी अकेली है ?” - मुरारी ने पूछा लेकिन उसकी आवाज फिर पहले की तरह बुरी तरह बिगड़ कर नाक में से निकल रही थी और सुनील को लगा जैसे वह कह रहा हो - “गिजोड़ी अकेली है ?”
“हां ।” - सुनील ने उत्तर दिया ।
मुरारी फिर नहीं बोला ।
“तुम बाकी के आठ हजार रुपये साथ लाई हो ?” - सुनील ने रचना से पूछा ।
“हां ।” - वह बोली ।
उसी क्षण टेलीफोन की घन्टी बजी ।
सुनील ने आगे बढकर रिसीवर उठा लिया और बोला - “यस ।”
“मिस्टर चक्रवर्ती ।” - दूसरी ओर से रिसैप्शन क्लर्क का स्वर सुनाई दिया ।
“यस ।”
“आपका एक पार्सल आया है । मैं उसे ऊपर भिजवा दूं ।”
“नहीं । मैं नीचे आकर ले लेता हूं ।”
“राइट सर ।”
सुनील ने रिसीवर रख दिया ।
“मैं जरा नीचे जा रहा हूं ।” - वह बोला - “तुम लोग किसी को द्वार मत खोलना ।”
“अच्छा ! लेकिन अगर इसी बीच मेरा पति आ गया तो हमें पता कैसे लगेगा ?” - रचना ने पूछा ।
“इस बाथरूम का एक द्वार दूसरी ओर भी खुलता है ।” - सुनील बाथरूम की ओर संकेत करते हुए बोला - “किशोरी ने द्वार अपनी साइड में बन्द किया हुआ है । तुम उस द्वार से कान लगाकर सुन सकती हो । तुम अपने पति की आवाज तो पहचान ही लोगी ?”
“अगर हम बाथरूम के द्वार में छेाटा सा छेद कर लें तो ?” - मुरारी ने राय दी ।
“किशोरी को फौरन पता लग जायेगा । ऐसा कोई काम भूल कर भी मत करना । अगर किशोरी को मालूम हो गया कि उसका निगरानी की जा रही है तो समझ लो शम्भूदयाल वहां कभी नहीं आयेगा ।”
मुरारी चुप हो गया ।
सुनील कमरे से बाहर निकल गया ।
चार सौ अठारह का द्वार अभी भी बन्द था ।
वह नीचे काउन्टर पर पहुंच गया ।
उसने पार्सल लिया और ग्राउन्ड फ्लोर पर ही बने एक क्लाक रूम में घुस गया । उसने द्वार भीतर से बन्द कर लिया और पार्सल को खोला ।
पार्सल में एक छोटी सी गहरे नीले रंग की पक्के लोहे की रिवाल्वर और 38 कैलिबर के कारतूसों का एक डिब्बा था ।
सुनील ने कारतूसों का डिब्बा खोलकर रिवाल्वर का चैम्बर पूरा भर लिया और रिवाल्वर को अपनी पतलून की बैल्ट में खोंसकर ऊपर से कोट के बटन बन्द कर लिये ।
पार्सल के भग्नावशेष और बाकी के कारतूस उसने पानी की टंकी में डाल दिये और बाहर निकल आया ।
वह ऊपर वापिस अपने कमरे में पहुंच गया ।
रचना और मुरारी दोनों बड़े उत्तेजित दिखाई दे रहे थे ।
“वह आ गया है ।” - रचना फुसफुसाकर बोली ।
“अच्छा !” - सुनील बोला - “कब ?”
“अभी दो मिनट पहले आया है वह ।”
“तुमने उसकी आवाज सुनी है ?”
“मैंने सुनी है ।” - मुरारी बोला - “मैं बाथरूम के उस ओर के द्वार से कान लगाये सुन रहा था ।”
“अभी वह भीतर ही है ?”
“हां ।” - रचना बोली - “उसकी आवाज मैंने भी सुनी है ।”
“अब तुम मुझे बाकी के रुपये दे दो ।” - मुरारी बोला ।
“लेकिन...” - रचना ने प्रतिवाद किया - “मैंने तो अभी उकसी आवाज ही सुनी है । सम्भव है मुझे धोखा हुआ हो और वास्तव मे वह कोई और ही आदमी हो ।”
“तो फिर तुम जाकर उसे देख लो ?” - मुरारी तीव्र स्वर से बोला ।
“मैं कैसे देख सकती हूं ? अगर मैं उसके सामने पड़ गई तो वह तो मुझे जान से ही मार डालेगा ।
“यह मेरा सिरदर्द थोड़े ही है ।”
“लेकिन मुझे पता तो लगना चाहिये कि दूसरे कमरे में मेरा पति ही मैाजूद है ।”
“तो फिर पता लगा लो ।”
रचना ने प्रार्थनापूर्ण नेत्रों से सुनील की ओर देखा ।
“पुलिस को फोन कर दो ।” - सुनील बोला ।
“अगर दूसरे कमरे में मेरे पति की जगह कोई और ही आदमी हुआ तो ?”
“लेकिन तुमने उसकी आवाज तो सुनी है ?”
“मुझे आवाज पहचानने में धोखा भी हो सकता है ।”
“मुरारी ने भी तो आवाज सुनी है ?”
“अगर एक आदमी को धोखा हो सकता है तो दो को भी हो सकता है ।”
सुनील कई क्षण विचार करता रहा ।
रचना व्यग्रता से उसका मुंह देख रही थी ।
मुरारी प्रत्यक्षतः पैसा मिलने में देर होती देखकर नाराज था ।
“मैं शम्भूदयाल के कमरे में झांकने की कोशिश करता हूं ।” - अन्त में सुनील बोला ।
“कैसे ?” - रचना ने पूछा - कैसे झांकोगे तुम ।”
“मैं किसी वेटर को पटाता हूं । होटल का वेटर बन कर ही भीतर जाया जा सकता है ।”
“तुम्हें वेटर की वर्दी भी तो पहननी पड़ेगी ।”
“मैं उसका इन्तजाम कर लूंगा ।”
“अगर कोई घपला हो गया तो ?”
“क्या घपला होगा ?”
“अगर शम्भूदयाल को सन्देह हो गया ?”
“उसे सन्देह कैसे होगा ? वह मुझे पहचानता थोड़े ही है ?”
“लेकिन कमरे में किशोरी भी तो है ।”
“वह वेटर की यूनीफार्म में मुझे पहचान नहीं पायेगी । वैसे भी मैं सावधान रहूंगा ।”
“देख लो ।” - मुरारी असन्तुष्ट स्वर से बोला - “अगर मुनासिब समझते हो तो...”
“तुम चिन्ता मत करो ।”
“तुम मेरे पति को पहचान लोगे ?” - रचना ने पूछा ।
“पहचान लूंगा । तुम्हारी एलबम में से निकाली हुई तस्वीर काफी साफ थी । मैंने उन्हें तरह स्टडी कर लिया है ।”
फिर कोई कुछ नहीं बोला ।
सुनील कमरे से बाहर निकल आया ।
बगल का दरवाला अभी भी बन्द था ।
गलियारे के कोने में एक स्टूल पर एक वेटर बैठा हुआ था ।
सुनील लम्बे डग भरता हुआ उसके समीप पहुंचा ।
वेटर आदरपूर्ण ढंग से उठकर खड़ा हो गया ।
“इस फ्लोर के वेटर तुम हो ?” - सुनील ने पूछा ।
“हां, साब ।” - वेटर बोला ।
“मेरा एक काम कर दो, उस्ताद ।” - सुनील प्रेमपूर्ण स्वर से बोला ।
“बोलिये, साब ।”
“मैं चार सौ बीस नम्बर कमरे में हूं...”
“मुझे मालूम है, साब ।”
“गुड । चार सौ अठारह में मेरा एक दोस्त अपनी बीवी के साथ ठहरा हुआ है ।”
“आप मिस्टर एण्ड मिसेज दयाल की बात कर रहे हैं ।”
“हां । मुझे अभी मालूम हुआ है कि वह मेरे बगल के कमरे में हैं । उसे अभी मेरे बारे में जानकारी नहीं है । दरअसल मैं उसे एकाएक चौंका देना चाहता हूं ।”
“मेरे लायक क्या सेवा है, साब ?”
“तुम थोड़ी देर के लिये अपनी यूनीफार्म दे दो ।”
“जी ।” - वेटर एकदम चौंका ।
“हां ।” - सुनील अपनी जेब में से बटुआ निकालता हुआ सहज स्वर से बोला - “मैं वेटर बनके उसके कमरे में घुस जाऊंगा । पहले उसे अच्छी तरह घिसूंगा और फिर उसे अपनी सूरत दिखाऊंगा । पट्ठा हैरान रह जायेगा ।”
“लेकिन साब !” - वेटर ने प्रतिवाद करना चाहा ।
“इन्कार मत करो, यार ।” - सुनील उसके हाथ में दस-दस के दो नोट ठूंसता हुआ बोला - “मजाक का मजा बिगड़ जायेगा ।”
वेटर अनिश्चिच-सा नोट हाथ में लिये खड़ा रहा ।
सुनील ने एक नोट और उसकी हथेली पर ठूंस दिया ।
“यूनीफार्म लेने के लिए तो मुझे अपने घर जाना पड़ेगा ।” - वेटर बोला ।
“यही उतार दो न, जो तुम पहने हुए हो ।”
“नहीं साहब । होटल में मैनेजर साहब ने मुझे बिना यूनीफार्म देख लिया तो मुझे फौरन नौकरी से निकाल देंगे ।”
“तो घर चले जाओ ।”
“उसके लिये मुझे आधे घंटे की छुट्टी लेनी पड़ेगी ।”
“तो ले लो न, यार ।”
“अगर छुट्टी न मिली तो ?”
“तुम पूछकर तो देखो ।”
“अच्छा साहब ।”
“मैं यहीं खड़ा हूं ।”
“अच्छा साहब ।”
वेटर चला गया ।
पांच मिनट बाद वह वापिस आया ।
“बड़ी मुश्किल से छुट्टी मिली है, साब ।” वह बोला ।
“वैरी गुड ।” - सुनील बोला - “टैक्सी पर दौड़ जाओ । मैं नीचे लाबी में तुम्हारा इन्तजार करता हूं ।”
“अच्छा साहब ।”
वेटर चला गया ।
सुनील नीचे लाबी में आ बैठा ।
उसने एक सिगरेट सुलगा लिया ।
तीन सिगरेटों के बाद वेटर वापिस आ गया ।
उसने चुपचाप अपना पैकेट सुनील को थमा दिया और सीढियों की ओर बढ गया ।
सुनील ने सिगरेट को ऐश ट्रे में फेंका और लापरवाही का प्रदर्शन करता हुआ उठ खड़ा हुआ ।
वह एक क्लाक रूम में घुस गया ।
उसने अपना सूट उतार कर वेटर की यूनीफार्म पहन ली । उसने सूट को तह करके यूनीफार्म वाले पैकेट में बांध दिया ।
उसने यूनीफार्म की पगड़ी अच्छी तरह अपने चेहरे पर जमाई और क्लाक रूम से बाहर निकल आया ।
किसी का ध्यान उसकी ओर नहीं थी ।
वह सीढियों के रास्ते चौथी मंजिल पर पहुंच गया ।
“तुम्हारी वर्दी एकदम फिट आई है, उस्ताद ।” - सुनील वेटर से बोला ।
वेटर आदरपूर्ण मुद्रा बनाये चुपचाप खड़ा रहा । वह तनिक सहमा हुआ दिखाई दे रहा था । उसने सुनील के हाथ से पैकेट लेकर स्टूल के नीचे रख दिया ।
“अब चार सौ अठारह के किसी आर्डर की प्रतीक्षा करनी पड़ेगी ।” - सुनील उसकी बगल में खड़ा हो गया और लापरवाही से बोला ।
“मतलब यह कि उस कमरे में आर्डर लेकर आप जायेंगे ?” - वेटर ने पूछा ।
वेटर चुप हो गया ।
लगभग दस मिनट की प्रतीक्षा के बाद चार सौ अठारह का द्वार खुला और किशोरी ने बाहर झांका ।
सुनील ने सिर झुका लिया ।
किशोरी ने हाथ के संकेत से वेटर को बुलाया ।
वेटर लपक कर उसके समीप पहुंच गया ।
आधे मिनट बाद द्वार बन्द हो गया और वेटर वापिस लौट आया ।
“वे चाय मंगा रहे हैं ।” - वेटर सुनील से बोला ।
“तो ले आओ ।”
वेटर नीचे चला गया ।
सुनील लपक कर अपने कमरे में घुस गया ।
“कहां घुसे चले आ रहे हो ?” - रचना नाराज स्वर से बोली और फिर तत्काल ही उसकी नजर सुनील के चेहरे पर पड़ी और उसके नेत्र फैल गये ।
“तुम !” - उसके मुंह से निकला ।
“हां ।” - सुनील बोला - “तुम्हारे पति ने चाय मंगाई है । वेटर नीचे चाय लेने गया है लेकिन कमरे में चार लेकर मैं जाऊंगा । अगर भीतर तुम्हारा पति ही हुआ तो मैं फौरन पुलिस को फोन कर दूं न ?”
“नहीं फौरन नहीं ।” रचना जल्दी से बोली - “दो-तीन मिनट बाद । ताकि मैं और मुरारी होटल में से निकल जायें ।”
एकाएक सुनील को ख्याल आया । मुरारी कमरे में नहीं था ।
“मुरारी कहां है ?” - उसने तनिक संदिग्ध स्वर से पूछा ।
“भीतर बाथरूम में है ।” - रचना तनिक चिन्तित स्वर से बोली - “साथ में उसका डाक्टर दोस्त भी है ।”
“डाक्टर भी है । उसकी क्या जरूरत पड़ गई ?”
“तुम्हारे जाने के बाद मुरारी मुझसे झगड़ने लगा था । वह बेहद उत्तेजित हो गया था उसी के कारण उसका ब्लड प्रेशर बढ गया और हेमरेज फिर से शुरू हो गया । उसकी टूटी हुई नाक में से अन्दर ही अन्दर खून बहने लगा था और खून मुंह के रास्ते बाहर निकलने लगा था । उसके चेहरे की सारी पट्टियां खून से भीग गई थीं । इसीजिये डाक्टर को फौरन टेलीफोन करके बुलाना पड़ा था । यह तो गनीमत हुई कि वह फोन पर मिल गया नहीं तो...”
“क्या मामला काफी सीरियस है ?”
“हां । डाक्टर बेहद नाराज हो रहा है । वह कहता है मुरारी को बिस्तर से नहीं उठना चाहिए था । वह कहता है, बार-बार ब्लीडिंग होने से जख्मों के खराब हो जाने का खतरा है । वह तो बेहोश होता जा रहा था । बड़ी मुश्किल से डाक्टर ने उसे सम्भाला है ।”
“गलती मुरारी की अपनी है ।” - सुनील बोला - “उसे यहां नहीं आना चाहिए था ।”
“वह जानता है । कोई बच्चा थोड़े ही है । लेकिन आठ हजार रुपये फौरन हासिल कर लेने का लालच उसे यहां खींच लाया है ।”
“डाक्टर क्या कर रहा है ?”
“उसके जख्म धोकर फिर से ड्रेसिंग कर रहा है । मुझे चिन्ता है कि कहीं उसकी ऐसी हालत न हो जाये कि वक्त पर यहां से निकल भागना मुश्किल हो जाये ।”
“तुमने बहुत घपला कर दिया ।”
“मैंने क्या घपला किया है ?”
“तुम्हें मुरारी को यहां नहीं लाना चाहिए था ।”
“मेरे कहने से क्या वह रुकता है ?”
“खैर !”
सुनील कमरे से बाहर निकल गया ।
गलियारे में वेटर चाय उठाये धीरे से चला आ रहा था ।
सुनील ने ट्रे उसके हाथ से ले ली ।
सुनील चोरों की तरह बायें हाथ से कन्धे के सहारे ट्रे उठाये चार सौ अठारह के सामने पहुंचा ।
उसने धीरे से द्वार खटखटा दिया ।
“कौन है ?” - भीतर से किशोरी की आवाज आई ।
“वेटर ।” - सुनील भारी स्वर से बोला - “चाय मेम साहब ।”
“दरवाजा खुला है ।”
सुनील द्वार को धकेल कर भीतर घुस गया ।
किशोरी ड्रेसिंग टेबल के सामने बैठी बालों में कंघी फिरा रही थी । कमीज और भूरे रंग की पतलून पहनी हुई थी । उसका कोट पलंग की पीट पर पड़ा था । वह तीखे नाक-नक्श वाला खूबसूरत आदमी था । एथलीटों जैसा पुष्ट और सन्तुलित शरीर था उसका । उसके सिर पर गहरे काले बाल थे जो उसके माथे से पीछे की ओर बिना मांग निकाले कंघी किये हुए थे ।
वह शम्भूदयाल था, इस बात में सन्देह की कतई गुंजाइश नहीं थी ।
सुनील ने चाय की ट्रे छोटी मेज पर रख दी ।
“चाय बनाऊं, साहब !” - वह बोला ।
“नहीं ।” - शम्भूदयाल लेटे-लेटे ही अनिश्चित स्वर से बोला - “तुम जाओ ।”
सुनील सिर झुकाये कमरे से बाहर निकल गया ।
बाहर खड़े वेटर की जान में जान आई ।
“सब ठीक है, प्यारे ।” - सुनील बोला - “मेरा वह सूट वाला पैकेट ला दो और फिर छुट्टी ।”
वेटर लपक कर स्टूल के नीचे से पैकेट निकाल लाया ।
सुनील पैकेट लेकर के अपने कमरे में घुस गया ।
रचना ने व्यग्रता से उसकी ओर देखा ।
“दूसरे कमरे में शम्भूदयाल ही है ।” - सुनील धीमे स्वर से बोला ।
“श्योर ?”
“डैड श्योर ।”
रचना ने शान्ति की सांस ली ।
“डाक्टर और मुरारी की हालत बहुत खराब है ?”
“हां ।”
“तो फिर डाक्टर उसे हस्पताल क्यों नहीं ले जाता है ?”
“डाक्टर कहता है, वह सम्भाल लेगा ।”
उसी क्षण बाथरूम का द्वार खुला और डाक्टर मुरारी को सहारा दिये हुए बाहर निकला ।
डाक्टर ने अपनी कमीज की बाहें कन्धों तक चढाई हुई थीं । उसकी कमीज पर जगह-जगह खून और पानी के छींटे पड़े दिखाई दे रहे थे ।
मुरारी कांपता हुआ डाक्टर का सहारा लेकर चल रहा था । उस के बाल बिखरे हुए थे और अब उसके चेहरे पर पहले से भी अधिक पट्टियां दिखाई दे रहीं थीं । पट्टियों पर जगह-जगह पर खून छलका हुआ था । उसकी आंखों में से बदहवासी टपक रही थी । ओवरकोट अच्छी तरह उसके सारे शरीर से लिपटा हुआ था ।
“सीरियस ?” - सुनील ने डाक्टर से पूछा ।
डाक्टर ने चिन्तापूर्ण ढंग से सिर हिलाया और फिर मुरारी बोला - “अगर दुबारा ऐसी गड़गड़ हुई तो मुरारी, मैं तुम्हें कह देता हूं, जिन्दा नहीं बचोगे । अब कम से कम तीन दिन तक बिल्कुल बिस्तर से हिलना भी मत । समझ गये ।”
मुरारी ने कापते हुए सिर हिला दिया ।
डाक्टर ने उसे सहारा देकर पलंग पर बिठा दिया ।
“क्यों साहब ?” - मुरारी पहले से भी ज्यादा घुटी हुई और कांपती हुई आवाज से सुनील से सम्बोधित हुआ - “दूसरे कमरे में क्या शम्भूदयाल है ?”
सुनील ने स्वीकृति सूचक ढंग से सिर हिला दिया ।
“तुमने खुद देख लिया है उसे ?”
“हां ।”
रचना कुछ क्षण हिचकिचाई । फिर उसने अपना पर्स खोला उसने सौ-सौ के नोटों का एक बंडल निकाला और उसे मुरारी के बढे हुए हाथों पर रखने के स्थान पर सुनील की ओर बढा दिया ।
सुनील ने नोट लेकर गिनने आरम्भ कर दिये ।
अस्सी थे ।
सुनील ने नोट मुरारी को दे दिये ।
मुरारी ने कांपते हाथों से नोट लेकर अपने ओवरकोट की जेब में डाल लिये और उठ खड़ा हुआ ।
“पुलिस को फोन करने से पहले हमें इतना समय जरूर दे दो ।” - मुरारी बोला - “कि हम होटल से बाहर निकल कर अपनी राह हो लें ।”
“ओ के ।”
“चलो ।” - मुरारी डाक्टर से बोला ।
दोनों बाहर चल दिये ।
रचना ने कृतज्ञतापूर्ण दृष्टि सुनील पर डाली और वह भी द्वार की ओर बढी ।
“सुनो ।” - सुनील ने धीरे से पुकारा ।
रचना रुक गई ।
डाक्टर और मुरारी बाहर निकल चुके थे ।
“मुरारी अब कहां जायेगा ?”
“फिलहाल तो वह मेरे फ्लैट पर ही जायेगा । वह कहता है राजनगर में उसका कोई अपना ठिकाना नहीं है । लेकिन डाक्टर कह रहा था कि वह कल मुरारी को किसी हस्पताल में दाखिल करवा देगा ।”
“तुम्हें रात को मुरारी के साथ रहते डर नहीं लगेगा ।”
“हालांकि वह घायल है और किसी भाग दौड़ के काबिल नहीं है लेकिन फिर भी मेरी जान सूली पर टंगी हुई है ।”
“क्यों ?”
“आखिर है तो वह अपराधी ही । मान लो वह रात को अपना एक आध साथी और बुला ले तो...”
रचना ने जानबूझ कर वाक्य अधूरा छोड़ दिया ।
सुनील ने अपने सूट वाला पैकेट खोला, और उसमें से रिवाल्वर निकाल ली ।
रचना के नेत्र फैल गए ।
“इसे अपने पास रख लो ।” - सुनील रिवाल्वर उसकी ओर बढाता हुआ बोला ।
“म... म... मैं..”
“हां ! यह पूरी तरह लोड की हुई है । अगर कोई तुम से ज्यादती करने की कोशिश करे तो बेहिचक रिवाल्वर दाग देना । आत्मरक्षा के लिए किसी पर प्रहार कर देना कोई गुनाह नहीं है ।”
“लेकिन...”
“डरो मत ! रख लो । जब मुरारी चला जाए और शम्भूदयाल भी गिरफ्तार हो जाये तो यह मुझे वापिस कर देना ।”
रचना ने कांपते हाथों से रिवाल्वर लेकर अपने पर्स में रख ली ।
उसने अनिश्चित भाव से सुनील को देखा और फिर कमरे से बाहर निकल गई ।
उसके कमरे से निकलते ही सुनील ने द्वार भीतर से बन्द कर लिया ।
वह अपने सूट का पैकेट लेकर बाथरूम में घुस गया ।
उसने वेटर की यूनीफार्म उतार कर पैकेट में बन्द कर दी और अपना सूट पहन लिया ।
बाथरूम के सिंक में खून से सनी हुई पट्टियां और रुई के टुकड़े पड़े हुए थे ।
उसने बाथरूम का चार सौ अठारह की दिशा का द्वार हौले से धकेला ।
द्वार अब भी दूसरी ओर से बन्द था ।
दूसरी ओर से कोई आवाज नहीं आ रही थी ।
उसने पैकेट बगल में दबाया और बाहर निकल गया ।
वह लम्बे डग भरता हुआ वेटर के समीप पहुंचा ।
“यह लो अपनी यूनीफार्म ।” - वह पैकेट वेटर को देता हुआ बोला ।
वेटर ने चुपचाप पैकेट ले लिया ।
“चार सौ अठारह में से मेरा दोस्त बाहर तो नहीं निकला ।”
“नहीं ।” - वेटर बोला ।
सुनील लिफ्ट द्वारा नीचे लाबी में पहुंच गया ।
वह रिसैप्शन काउन्टर पर पहुंचा ।
“मुझे एक जरूरी काम के कारण फौरन होटल छोड़ना पड़ रहा है ।” - सुनील क्लर्क से बोला - “मेरा बिल बना दीजिये ।”
“ओके सर ।” - क्लर्क बोला ।
बिल चुकाने में सुनील को पांच मिनट लगे ।
फिर वह लाबी के ही एक कोने में बने टेलीफोन बूथ में घुस गया ।
उसने पुलिस हैडक्वार्टर का नम्बर डायल कर दिया ।
“पुलिस हैडक्वार्टर ।” - दूसरी ओर से आवाज आई ।
“आफिसर ।” - सुनील स्वर में बनावटी भर्राहट पैदा करता हुआ बोला - “मैं बैंक की डकैती के सिलसिले में फरार शम्भूदयाल की सूचना देना चाहता हूं ।”
कुछ क्षण दूसरी ओर से कोई उत्तर नहीं मिला और फिर किसी ने सतर्क स्वर से पूछा - “कहां है वह ?”
“वह इस समय इम्पीरियल होटल के चार सौ अट्ठारह नम्बर कमरे में मौजूद है ।”
“आप कौन बोल रहे हैं ?”
उत्तर में सुनील ने रिसीवर को हुक पर टांग दिया ।
उसने एक सिगरेट सुलगाया और बाहर निकल आया ।
वह लाबी में काउन्टर के सामने दीवार के साथ लगी कुर्सियों की कतार में एक पर बैठ गया और एक अखबार पढने का बहाना करने लगा ।
लगभग पांच मिनट बाद होटल के कम्पाउन्ड में जीप घुसती दिखाई दी ।
उसने अखबार फेंक दिया और चुपचाप सिर झुकाये लाबी से बाहर निकल गया ।
पहली जीप के पीछे ही चार जीपें और कम्पाउन्ड में घुस आई ।
सुनील सन्तुष्ट था । शम्भूदयाल अभी भी भीतर था और इस बार उसका निकल पाना असम्भव था ।
सशस्त्र सिपाहियों ने होटल को घेर लिया ।
***
सुनील चुपचाप होटल के कम्पाउन्ड से बाहर निकल कर मेन रोड पर आ गया ।
सुनील टैक्सी स्टैण्ड की ओर बढा ।
“जरा सुनिये, भाई साहब ।” - उसके कानों में एक आवाज पड़ी ।
वह ठिठक गया ।
आवाज सड़क की दूसरी ओर फुटपाथ के साथ खड़ी एक काले रंग की एम्बैसेडर गाड़ी में से आई थी ।
सुनील ने प्रश्नसूचक दृष्टि से उस ओर देखा ।
एम्बैसेडर की ड्राइविंग सीठ पर बैठा एक आदमी उसे हाथ के संकेत से पास बुला रहा था ।
सुनील तनिक हिचकिचाया और कार की ओर बढा ।
कार की पिछली सीट पर बैठे दो आदमी कार से बाहर निकल आये । उसमें से एक लम्बे चौड़े आदमी के हाथ में एक कागज था ।
“भाई साहब ।” - उसने सुनील से पूछा - “यह कम्पनी आपको मालूम है, इस सड़क पर कहां है ?”
सुनील समीप पहुंचा और उसने कागज की ओर हाथ बढा दिया ।
दूसरा आदमी सुनील की बगल में आ खड़ा हुआ ।
अगले ही क्षण उसे अपनी पसलियों में रिवाल्वर की नाल चुभती हुई महसूस हुई ।
“शोर नहीं ।” - वह धीरे से सुनील के कान में फुसफुसाया ।
सुनील ने देखा लम्बे चौड़े आदमी के हाथ में थमे कागज के नीचे से भी रिवाल्वर झलक रही थी ।
“क्या बात है ?” - सुनील ने पूछा ।
“कार में बैठो ।” - रिवाल्वर का दबाव उसकी पसलियों पर बढ गया ।
“क्यों ?”
“इसका जवाब भी मिल जायेगा । पहले जो हम कह रहे हैं, वह करो ।”
सुनील हिचकिचाया ।
लम्बे-चौड़े आदमी ने उसकी बांह पकड़ ली और उसे कार की पिछली सीट पर जबरदस्ती धकेल दिया ।
दोनों आदमी उसकी अगल-बगल आ बैठे । दोनों की रिवाल्वरें सुनील के शरीर के साथ लगी हुई थीं ।
“किस्सा क्या है, साहब ?” - सुनील ने फिर प्रश्न किया ।
“चुपचाप बैठो ।”
सुनील चुप हो गया ।
वह हैरान था । उसे समझ नहीं आ रहा था कि आखिर ये लोग उससे चाहते क्या हैं ?
ड्राइविंग सीट पर बैठे हुए आदमी ने कार चलाने का उपक्रम नहीं किया ।
दो मिनट यूं ही गुजर गये ।
“आखिर आप मुझ से चाहते क्या हैं ?” - सुनील फिर बोला ।
“अगर इस बार मुंह खोला ।” - लम्बे-चौड़े आदमी ने उसे धमकाया - “तो सिर तोड़ दूंगा ।”
सुनील फिर चुप हो गया ।
उसका दिमाग तेजी से सोच रहा था लेकिन उसके पास उन अनजाने लोगों के उस एक्शन का कोई जवाब नहीं था ।
लगभग बीस मिनट और गुजर गये ।
होटल की लाबी बाहर सड़क से साफ दिखाई दे रही थी ।
होटल की दिनचर्या पर पुलिस के आगमन का कोई विशेष प्रभाव दिखाई नहीं दे रहा था ।
लगभग दस मिनट और गुजर गये ।
फिर होटल में से पुलिस के सिपाही निकल कर जीपों में भरने लगे ।
पलक झपकते ही सारी जीपें होटल के सामने से गायब हो गई ।
सुनील को किसी भी जीप में शम्भूदयाल की झलक दिखाई नहीं दी ।
वह उलझ गया ।
उसी क्षण होटल की ओर से एक आदमी कार की ओर आता दिखाई दिया ।
“पुलिस के हाथ कुछ नहीं लगा है ।” - वह आदमी समीप आकर बोला - “इन्स्पैक्टर का ख्याल है किसी ने मजाक की खातिर ही पुलिस को फोनकर दिया था ।”
लम्बे-चौड़े आदमी न विचित्र नेत्रों से सुनील की ओर देखा और फिर ड्राइवर से बोला - “चलो ।”
कार चल पड़ी ।
एक आदमी ने कार की खिड़कियो पर काले पर्दे गिरा दिए और दूसरे ने सुनील की आंखों पर एक काली पट्टी बांध दी ।
कार चलती रही ।
सुनील दिशा याद रखने का प्रयत्न करने लगा ।
लेकिन अगले पांच ही मिनटों में कार ने इतने ढेर सारे मोड़ काट डाले कि सुनील का याद रख पाना असम्भव हो गया कि कार किस दिशा में जा रही है ।
लगभग बीस मिनट तक कार चलती रही ।
फिर कार एक स्थान पर रुकी ।
लगभग एक मिनट बाद कार चली और फिर तत्काल ही रुक गई ।
सुनील के कानों में शटर गिराये जाने की आवाज पड़ी ।
कार का इंजन बंद हो गया ।
किसी ने उसके हाथों में हथकड़ियां भर दीं और फिर उसके नेत्रों से पट्टी हटा दी गई ।
सुनील आंखें मिचमिचा कर स्वयं को तीव्र कृत्रिम प्रकाश अभ्यस्त बनाने का प्रयत्न करता रहा ।
“चलो ।” - किसी ने उसे रिवाल्वर से आगे धकेला ।
एक लम्बे गलियारे से होते हुए वे लोग एक विशाल कमरे में आ गये ।
“बैठ जाओ ।” - कोई नम्र स्वर से बोला ।
सुनील एक कुर्सी पर बैठ गया ।
“मुझे यहां क्यों लाया गया है ?” - सुनील ने पूछा ।
“घबराओ नहीं ।” - कोई बोला - “तुम से केवल कुछ प्रश्न पूछे जायेंगे । अगर तुम उनका ठीक-ठीक उत्तर दे दोगे तो तुम्हारा कुछ भी नहीं बिगड़ेगा । मैं खुद तुम्हें तुम्हारे घर छोड़ आऊंगा ।”
“कैसे प्रश्न ?”
“अभी पता लग जायेगा ।”
उसी क्षण कमरे में एक गंजे सिर वाले मोटे ठिगने आदमी ने प्रवेश किया ।
उसे देखकर दोनों रिवाल्वर वाले उठकर आदरपूर्ण ढंग से खड़े हो गये ।
गंजा एक कुर्सी पर आ बैठा ।
उसने लम्बे-चौड़े आदमी की ओर दृष्टि दौड़ाई और बोला - “क्या मामला है, चन्दन ? यह आदमी कौन है ?”
“बॉस ।” - चन्दन नाम से सम्बोधित किये जाने वाला लम्बा-चौड़ा आदमी आदरपूर्ण स्वर से बोला - “छगन ने इसे होटल की लाबी में से पुलिस हैडक्वार्टर टेलीफोन करते सुना था । इसने पुलिस को बताया था कि शम्भूदयाल होटल के चार सौ अट्ठारह नम्बर कमरे में मौजूद है ।”
गंजे के नेत्र एकदम चमक उठे ।
“वह कहां था ?” - उसने सतर्क स्वर से पूछा ।
“हमने खुद नहीं देखा ।” - चन्दन बोला - “क्योंकि उसी समय पुलिस वहां पहुंच गई थी । पुलिस के कई सिपाही आधे घंटे तक होटल की तलाशी लेते रहे थे लेकिन उन्हें चार सौ अट्ठारह नम्बर कमरे में तो क्या होटल में कहीं भी शम्भूदयाल दिखाई नहीं दिया था । इन्स्पैक्टर कह रहा था किसी ने केवल पुलिस को परेशान करने के लिए वह गन्दा मजाक किया था ।”
गंजा सुनील की ओर घूमा ।
“आपका नाम क्या है, साहब ?” - उसने शिष्टाचारपूर्ण स्वर से पूछा ।
“सुनील ।” - सुनील बोला ।
“बड़ी खुशी हुई आप से मिलकर ।” - वह यूं बोला जैसे उसे सुनील से मिलकर वाकई खुशी हुई हो - “क्या मैं आपका पेशा पूछने की गुस्ताखी कर सकता हूं ।”
“मैं रिपोर्टर हूं ।” - सुनील धैर्यपूर्ण स्वर से बोला ।
“कौन से पेपर के ?”
“ब्लास्ट ।”
“आपको, सुनील साहब, कैसे मालूम था कि इम्पीरियल होटल के चार सौ अट्ठारह नम्बर कमरे में शम्भूदयाल मौजूद था ?”
“मुझे मालूम नहीं था ।”
“तो फिर आपने पुलिस को फोन क्यों किया था ?”
“अभी चन्दन ने आपको बताया तो है कि वह एक मजाक था ।”
“नहीं, साहब नहीं ।” - गंजा धीरे से नकारात्मक ढंग से सिर हिलाता हुआ बोला - “आप जैसा जिम्मेदार आदमी पुलिस के साथ ऐसा गलत तरह का मजाक नहीं कर सकता । अगर आपने पुलिस को फोन किया था कि शम्भूदयाल होटल में है तो शम्भूदयाल जरूर होटल में होगा । आपको कैसे मालूम हुआ कि शम्भूदयाल होटल में है ! और शम्भूदयाल में आपकी क्या दिलचस्पी है ?”
“पहले आप यह बताइये, शम्भूदयाल में आपकी क्या दिलचस्पी है ?”
“अच्छी बात है । पहले यही सुन लीजिये ।” - गंजा धैर्यपूर्ण स्वर से बोला - “पहले यही सुन लीजिये । शम्भूदयाल हमारे लिये काम करता था । सालों हमारे लिये काम करते रहने के बावजूद भी वह हमें धोखा दे गया और हमारा ढेर सारा माल लेकर उड़ गया । हमें शम्भूदयाल की तलाश है ताकि हम उससे अपना माल वसूल कर सकें । हमारे कम से कम दो दर्जन आदमी शम्भूदयाल को हर सम्भावित स्थान पर खोजते रहे हैं लेकिन उन्हें शम्भूदयाल की हवा भी नहीं मिलती है और आपने साहब, सहज ही भविष्यवाणी सी कर दी कि शम्भूदयाल इम्पीरियल होटल में मौजूद है । आपने कैसे जाना कि शम्भूदयाल कहां हैं ?”
“आप कौन से शम्भूदयाल की बात कर रहे हैं ?” - सुनील ने मासूमियत से पूछा ।
“वह शम्भूदयाल जिसने बैंक में डाका डाला था और पुलिस के तीन सिपाहियों को गोली से उड़ा दिया था ।”
“लेकिन मैं तो उस शम्भूदयाल को नहीं जानता था । मैं तो उस शम्भूदयाल को जानता हूं तो स्टण्ट फिल्मों का म्यूजिक डायरेक्टर है ।”
गंजे ने चंदन की ओर देखा ।
“यह झूठ बोल रहा है ।” - चन्दन मुंह बिगाड़कर बोला - “यह पुलिस से फरार शम्भूदयाल की ही बात कर रहा था, वर्ना यह पुलिस को फोन क्यों करता ?”
“तुमने इसकी तलाशी ली है ?” - गंजे ने चंदन से पूछा ।
“नहीं ।”
“तलाशी लो ।”
“एक आदमी ने सुनील की खोपड़ी से रिवाल्वर सटा दी और चन्दन उसकी तलाशी लेने लगा ।”
उसने सुनील की भीतरी जेब से शम्भूदयाल की वे दोनों तस्वीरें निकाल लीं जो सुनील ने रचना की एलबम में से निकाली थीं ।
उसने तस्वीरें गंजे को दे दीं ।
“अब भी आप कहते हैं कि आप पुलिस से फरार शम्भूदयाल को नहीं जानते ?” - गंजा तस्वीरें देखकर सुनील से बोला ।
सुनील चुप रहा ।
“देखिये, सुनील साहब !” - गंजा उसे समझाने लगा - “आप समझदार आदमी हैं । कोई बच्चे तो नहीं हैं आप जो अभी तक इतनी मामूली-सी बात न समझ सकें कि आप झूठ बोलने या एकदम न बोलने की स्थिति में नहीं हैं । चन्दन केवल पांच मिनट आपकी सेवा करेगा और उसके बाद आप हमारे बिना पूछे ही हमें सब कुछ बताने के लिये उत्सुक हो उठेंगे । इसलिये क्या यह अच्छा नहीं होगा कि आप पहले ही वह काम कर डालें जो आप चन्दन द्वारा सेवा करवाने के बाद करेंगे ।”
सुनील फिर भी चुप रहा ।
“अच्छी तरह सोच लीजिये, सुनील साहब विश्वास कीजिये, आपकी स्थिति ऐसी नहीं है कि आप हमारा विरोध कर सकें ।”
सुनील जानता था गंजा सच कह रहा था । शम्भूदयाल की जानकारी को छुपाकर रखने से खुद उसका कोई लाभ नहीं होने वाला था ।
“क्या सोचा आपने ?” - गंजा तनिक व्यग्र स्वर से बोला - “मैं चंदन को आपकी थोड़ी सेवा करने के लिये कहूं या आप शम्भूदयाल के बारे में हमें सब कुछ बताने के लिये तैयार हैं ?”
“मुफ्त में तो मैं आपको जानकारी देने के लिये तैयार नहीं हूं ।” - सुनील स्थिर स्वर से बोला ।
“क्या मतलब ?”
“मतलब यह कि किसी प्रकार की कोई जानकारी किसी को मुफ्त में देना मेरा सिद्धान्त नहीं है ।”
“आई सी ।” - गंजा एक दीर्घ निश्वास लेता हुआ बोला - “क्या चाहते हैं आप ?”
“लेकिन आप” - चन्दन व्यग्र स्वर से बोला - “मैं सिर्फ पांच मिनट में इसकी जबान खुलवा सकता हूं ।”
“नहीं चन्दन ।” - गंजा बोला- “साहब बहुत ऊंचे दर्जे के आदमी हैं । उनके साथ घटिया लोगों जैसा व्यवहार करना हमें शोभा नहीं देता । ...क्या चाहते हैं आप, मिस्टर सुनील ।”
“पांच हजार रुपये ।” - सुनील बोला ।
गंजे के नेत्रों में कठोरता आ गई ।
“यह बताने के बदले में ।” - गंजा बोला - “कि शम्भूदयाल कहां है ?”
“जिस बात की मुझे खुद जानकारी नहीं है ।” - सुनील बोला - “उसे मैं तुम्हें कैसे बता सकता हूं ? मेरी जानकारी में तो शम्भूदयाल इम्पीरियल होटल के चार सौ अट्ठारह नम्बर कमरे था । लेकिन पुलिस को वह वहां नहीं मिला ।”
“वह वहां होगा ही नहीं ।”
“वह वहां था । मैंने खुद उसे अपनी आंखों से देखा है ।”
“आपको पता कैसे लगा कि शम्भूदयाल उस कमरे में था ?”
सुनील ने एक अर्थपूर्ण चुप्पी साध ली ।
“जितनी जानकारी आपके पास है वह हमारे लिये भारी महत्वपूर्ण नहीं है ।”
“अगर जो मैं जानता हूं, वह आपके लिये महत्वपूर्ण न होता तो आपके आदमी मुझे यूं पकड़कर आपके पास न ले आते ।”
“मैं आपको एक हजार रुपया दे सकता हूं ।”
सुनील चुप रहा ।
“दो हजार रुपये में अपना राग अलाप डालिये, वर्ना मैं चन्दन को कहता हूं वह अपने तरीके इस्तेमाल में लाये ।”
“मुझे मंजूर है ।” - सुनील बोला और उसने रुपयों के लिये हाथ फैला दिया ।
गंजे ने अपनी जेब में से नोटों से फूला हुआ बटुआ निकाल लिया ।
“बास, चन्दन ने प्रतिवाद किया ।” - आप खामखाह रुपया बर्बाद कर रहे हैं । आप मुझे इशारा कीजिये, मैं साहब को अभी बुलावाता हूं ।”
“शट अप, चन्दन ।” - गंजा बोला - “साहब की सेवाओं की हमें भविष्य में जरूरत है । अगर सुनील साहब एक बार शम्भूदयाल को तलाश कर सकते हैं तो दुबारा भी कर सकते हैं । मार पीट से हम इनकी योग्यता का लाभ केवल एक ही बार उठा पायेंगे ।”
चन्दन अनिच्छापूर्ण भाव से चुप हो गया ।
गंजे ने सौ-सौ के बीस नोट निकालकर सुनील की ओर बढा दिये ।
सुनील ने हथकड़ी लगे हाथों से ही नोट अपनी जेब में रख लिये ।
“अब शुरु हो जाइये ।” - गंजा बोला ।
“पहले मैं एक बात जानना चाहता हूं ।” - सुनील बोला ।
“क्या ?”
“बैंक की डकैती में शम्भूदयाल के साथी क्या आपके आदमी थे ?”
गंजा क्षण भर हिचकिचाया और फिर बोला- “नहीं ।”
“आप शम्भूदयाल से अपने कौन से माल की वसूली चाहते हैं ?”
“अब आप हमसे ज्यादती कर रहे हैं, मिस्टर सुनील । जानकारी हासिल करने के लिये रुपया हम आपको दे रहे हैं, आप हमें नहीं । हमारा शम्भूदयाल से क्या वास्ता है, आप यह बात छोड़िये । आप अपनी कहानी कहिये ।”
“आल राइट ।” - सुनील बोला - “मैं शम्भूदयाल की पत्नी रचना के लिये काम कर रहा हूं । रचना ने मुझे बताया कि शम्भूदयाल बैंक का लूटा हुआ धन अपने साथियों में बांट लेने के स्थान पर खुद हड़प जाना चाहता था । उसने सारा धन रचना को छुपाने के लिये दे दिया था और खुद गायब हो गया था लेकिन उसके साथियों को किसी प्रकार मालूम हो गया कि लूट का माल रचना के पास है । उन्होंने रचना से सारा रुपया छीन लिया ।”
“अच्छा ।” - गंजा हैरानी से बोला ।
“हां ।”
“यह बात वाकई रचना ने कही है या आप हमें कोई हैण्डमेड कहानी सुना रहे हैं ।”
“क्या आप लोगों ने यह माल रचना से नहीं छीना है ?” - सुनील भोलेपन से बोला ।
“हमने !” - गंजा बोला - “मिस्टर, हम शम्भूदयाल के उस प्रकार के साथी नहीं हैं ।”
“तो फिर आप मेरी बात पर विश्वास कीजिये । मैं आपको पूरी ईमानदारी से वह सब बता रहा हूं, जो रचना ने मुझे बताया है ।”
“अच्छी बात है । कर लिया विश्वास । आगे कहिये ।”
“शम्भूदयाल का ख्याल था कि रचना झूठ बोलकर उसे धोखा देना चाहती है और सारा रुपया हड़प कर जाना चाहती है । शम्भूदयाल उसे जान से मार डालने की धमकी दे रहा था और एक बार तो उसने रचना को लगभग मार ही डाला था । रचना चाहती थी कि शम्भूदयाल गिरफ्तार हो जाये और उसकी जान छूटे ।”
“फिर ?”
“शम्भूदयाल का मुरारी नाम का कोई मित्र था जो दस हजार रुपये के बदले में ऐसा तरीका बता सकता था जिससे शम्भूदयाल का पता लग जाये ।”
“उसने बताया ।”
“हां । उसने शम्भूदयाल की एक प्रेमिका किशोरी के बारे में बताया जो मेहता रोड पर चालीस नम्बर इमारत में रहती है । मैंने किशोरी को चैक किया और उसे यह विश्वास दिला दिया कि उसके फ्लैट की निगरानी हो रही है । मैं जानता था, कि किशोरी शम्भूदयाल को खतरे की सूचना देने जायेगी ।”
“वह टेलीफोन भी तो कर सकती थी ?”
“मैंने ऐसी स्थिति पैदा कर दी थी कि किशोरी यह समझे कि उसकी लाइन पुलिस द्वारा टेप की हुई है ।”
“फिर ?”
“किशोरी इम्पीरियल होटल आई । मैंने उसका पीछा किया । उसने चार सौ अट्ठारह नम्बर कमरा किराये पर लिया । मैंने भी उसकी बगल का कमरा ले लिया और प्रतीक्षा करने लगा ।”
“शम्भूदयाल आया ?”
“बिल्कुल आया । मैंने खुद उसे चार सौ अट्ठारह नम्बर में किशोरी के साथ देखा था ।”
“लेकिन यह असम्भव है ।” - चन्दन बोल पड़ा ।
“शटअप ।” - गंजे ने डांटा - “बीच में मत बोलो ।”
चन्दन चुप हो गया ।
“तुम उसके कमरे में कैसे गये ?”
“मैं वेटर के भेष में उसके कमरे में चाय लेकर गया था ।”
“तुम्हें धोखा तो नहीं हुआ ?”
“सवाल ही नहीं पैदा होता । कमरे में वही आदमी था जिसकी तस्वीरें मेरे पास हैं । अगर ये तस्वीरें ही शम्भूदयाल की नहीं हैं तो दूसरी बात है ।”
“तस्वीरें शम्भूदयाल की ही हैं ।”
“तो फिर वह शम्भूदयाल ही था । यही नहीं रचना और मुरारी ने भी शम्भूदयाल की आवाज सुनी थीं और पहचानी थी ।”
“वे भी वहीं थे ?” - गंजा चौंका ।
“जी हां ।” - उत्तर चंन्दन ने दिया - “हमने शम्भूदयाल की बीवी को होटल में जाते और फिर बाहर निकलते देखा था । उसके साथ एक घायल आदमी था ।”
“वह मुरारी था ।” - सुनील बोला ।
“लेकिन” - गंजा खीजकर बोला - “शम्भूदयाल का होटल में होना कैसे मुमकिन है ?”
सुनील चुप रहा ।
“जरूर कहीं कोई गड़बड़ है ।”
“कोई गड़बड़ नहीं है ।” - सुनील बोला ।
“मेरे आदमी धोखा नहीं खा सकते । होटल की अच्छी तरह निगरानी हो रही थी । उनकी जानकारी में आये बिना शम्भूदयाल का होटल में प्रवेश कर पाना असम्भव था ।”
“तुम्हारे आदमियों ने निगरानी ठीक से नहीं की होगी ।”
गंजे ने जलती निगाहों से चन्दन को देखा ।
“यह असम्भव है ।” - चन्दन हड़बड़ा कर बोला - “मेरे आदमी पूरी तरह सतर्क थे । वे पूरी तत्परता से सारे होटल की निगरानी कर रहे थे । मैं आपको विश्वास दिलाता हूं, बॉस मेरे आदमियों की जानकारी के बिना होटल में एक चूहा भी भीतर घुसा या बाहर नहीं निकला है ।”
“फिर भी शम्भूदयाल होटल के चार सौ अट्ठारह नम्बर कमरे तक पहुंच गया और पुलिस के आने से पहले बाहर भी निकल गया ।” - सुनील व्यंग्यपूर्ण स्वर से बोला ।
“यही तो समझ नहीं आ रहा है कि यह करिश्मा कैसे हो गया है ।” - चन्दन अपने बाल नोंचता हुआ बोला - “मुझे तो इस बखेड़े का एक ही हल दिखाई देता है ।”
“क्या ?”
“कि तुम झूठ बोल रहे हो । तुमने शम्भूदयाल को होटल में नहीं देखा ।”
“फिर तो मैंने पुलिस को भी झूठा फोन किया होगा ।”
“सम्भव है ।”
“तो फिर झगड़ा किस बात का है । मैंने तो शुरू में ही यह बात कही थी ।”
“अपने दोष को दूसरे के सिर पर थोपने की कोशिश मत करो चन्दन ।” - गंजा कठोर स्वर से बोला - “मुझे तुम्हारी गलती दिखाई देती है । तुम्हारे ही आदमियों ने लापरवाही से काम किया है ।”
“लेकिन बास...”
“शटअप ।”
चन्दन कसमसा कर चुप हो गया ।
“क्या यह हो सकता है” - एकाएक सुनील को ख्याल आया - “कि शम्भूदयाल किशोरी के होटल में आने से पहले से ही होटल के चार सौ अट्ठारह नम्बर कमर में मौजूद हो ?”
“यह नहीं हो सकता ।” - चन्दन बोला - “वह कितना पहले होटल में मौजूद होगा । मेरे आदमी पिछले दस दिन से होटल की निगरानी कर रहे हैं ।”
“मतलब कि आप लोग पिछले दस दिन से शम्भूदयाल के इम्पीरियल में आने की प्रतीक्षा कर रहे थे ।”
“हां ।”
“आपको कैसे मालूम था कि वह इम्पीरियल में आने वाला है ?”
चन्दन ने उत्तर दिया ।
“इम्पीरियल होटल शम्भूदयाल का अड्डा है । वहां शम्भूदयाल के बहुत मित्र हैं । हमें पूरा विश्वास था कि कभी न कभी शम्भूदयाल वहां जरूर आयेगा ।”
“वह आया भी लेकिन फिर भी आप उसे पकड़ नहीं सके ।”
“बॉस ।” - चन्दन का दूसरा साथी जो अभी तक चुप खड़ा था, एकाएक बोला ।
“हां ।”
“मुझे एक बात सूझी है ।”
“क्या ?”
“अगर शम्भूदयाल वाकई होटल में था तो सम्भव है ! वह अभी भी वहीं हो ?”
“यह कैसे हो सकता है ? पुलिस तो पूरे तीस मिनट तक होटल को छानती रही है ।”
“फिर भी होटल में छुपने की बहुत जगहें सम्भव हैं । अगर होटल के कर्मचारी उसकी छुपने में मदद कर रहें हों तो वह पुलिस की नजरों में आने से बच सकता है ।”
गंजा सोचने लगा । उसकी सूरत से लग रहा था कि वह संभावना उसे प्रभावित कर रही थी । सुनील को भी यही बात दमदार लग रही थी ।
“चन्दन ।” - गंजा बोला - “होटल का चिड़िया के घोंसले जितना छेद भी टटोल डालो ।”
“ओके बॉस ।”
“मुझे भी यही लगता है कि शम्भूदयाल अभी भी होटल में ही है । अगर वह होटल में होगा तो अब निकल कर नहीं जा पायेगा ।” - चन्दन विश्वासपूर्ण स्वर से बोला - “मैं वहां पर और आदमी भिजवाता हूं ।”
“गुड ।” - गंजा बोला ।
चन्दन दूसरे कमरे में चला गया ।
“मिस्टर सुनील !” - गंजा सुनील से बोला - “शम्भूदयाल की मुझे सख्त जरूरत है । वह मेरी हार की निशानी है । मैं नहीं जानता, वह इम्पीरियल होटल में मौजूद है या नहीं और अगर है तो वह चन्दन के हाथ आयेगा या नहीं लेकिन आपको मैं आफर देता हूं । अगर आप मुझे शम्भूदयाल का पता बता पायें तो मैं आपको दस हजार रुपये देने का वादा करता हूं ।”
“दस हजार रुपये के लालच में तो बाकायदा शम्भूदयाल को तलाश करना आरम्भ कर दूंगा ।”
“यह और भी अच्छी बात है । मैं जुबान का पक्का आदमी हूं, मिस्टर । शम्भूदयाल के बारे में किसी प्रकार की जानकारी खरीदने के लिये मैं हर समय तैयार हूं ।”
“मैं आपसे सम्पर्क कैसे स्थापित करूंगा ?”
“आपको तकलीफ करने की जरूरत नहीं । चन्दन हमेशा आपके साथ में रहेगा ।”
“अच्छी बात है । अब मुझे यहां से आजादी कब मिलेगी ?”
“जल्दी ही । अंधेरा होते हीं चन्दन आपको, जहां आप कहेंगे छोड़ आयेगा ।”
“तब तक कम से कम मेरी हथकड़ियां तो खोल दीजिये ताकि मैं सिगरेट तो पी सकूं ।”
“क्यों नहीं, क्यों नहीं ।” - गंजा बोला - “लेकिन साहब कोई शरारत मत कीजियेगा ।”
“नहीं करूंगा ।” - सुनील बड़ी शराफत से बोला ।
गंजे ने संकेत किया ।
सुनील की हथकड़ियां खोल दी गई
***
“चलो ।” - चन्दन आकर बोला ।
“अंधेरा हो गया है ?” - सुनील जम्हाई लेता हुआ उठ खड़ा हुआ ।
“हां ।”
वह सुनील को गैरेज में ले आया ।
दोनों कार में जा बैठे ।
चन्दन जेब से पट्टी निकालता हुआ बोला - “तुम्हारी आंखों पर पट्टी बांधनी है ।”
“भले आदमी ।” - सुनील बोला - “अगर दुबारा भी मुझे अन्धा ही बनाना था तो अंधेरा होने का इन्तजार करने की क्या जरूरत थी ।”
“मुझे नहीं मालूम । बॉस का ऐसा ही आर्डर था ।”
उसने सुनील के नेत्रों पर पट्टी बांध दी ।
किसी ने शटर उठा दिया ।
कार स्टार्ट हुई और फिर बैक होती हुई बाहर निकल गई ।
एक क्षण के लिये कार स्थिर हुई और फिर तेजी से आगे बढ गई ।
पहले की तरह फिर कार यों ही उल्टे सीधे मोड़ काटती रही ।
“तुम्हें शम्भूदयाल होटल में मिल गया था ?” - एकाएक सुनील ने पूछा ।
“नहीं । वह होटल में होता तो मिलता न । हमने तो होटल के चीटियों के बिल तक देख डाले हैं लेकिन कहीं शम्भूदयाल नहीं मिला है ।”
“ओह ।”
“लेकिन इसी तलाशी के चक्कर में एक बड़ी अनोखी चीज मिली है ।”
“क्या ?” - सुनील के कान खड़े हो गये ।
“ग्राउन्ड फ्लोर के एक क्लोक रूम में पानी की टंकी में एक 38 कैलिबर की रिवाल्वर के कारतूसों का डिब्बा मिला है ।”
“अच्छा !” - सुनील सहज स्वर में बोला - “तुम लोग पानी की टंकी में क्या शम्भूदयाल को तलाश कर रहे थे ।”
“मजाक मत करो ।” - चन्दन का नाराज स्वर उसके कानों में पड़ा ।
“फिर भी तुम ऐसी मामूली जगहों में क्यों झांक रहे थे ।”
“हमारी नजर में शम्भूदयाल का हमारी जानकारी में आये बिना होटल में आना और फिर गायब हो जाना एक करिश्मा था । हमारे एक साथी का ख्याल था कि शायद होटल में आने-जाने के लिये शायद गुप्त द्वार हो ।”
“इम्पीरियल जैसे माडर्न होटल में तुम ऐसी चीजों की आशा करते हो ?”
“सम्भव तो नहीं है लेकिन हालात ने हमें इस लाइन पर सोचने पर मजबूर कर दिया था । हम होटल की छोटी से छोटी जगह इसलिये देख रहे थे कि शायद हमें उस गुप्त द्वार को खोलने वाली कोई मेकेनिज्म कहीं लगी दिखाई दे जाये ।”
“दिखाई दी ?”
“नहीं ।”
सुनील चुप हो गया ।
“तुम्हारा घर कहां है ?” - चन्दन ने पूछा ।
“क्यों ?”
“तुम्हें वहां छोड़ आऊं ।”
“नहीं । घर नहीं, तुम मुझे मेहता रोड पर छोड़ आओ ।”
“वहां क्यों ?”
“वहां मेरी मोटर साइकिल खड़ी है ।”
“नहीं ।” - चन्दन बोला - “मैं तुम्हें ऐसी जगह छोड़कर नहीं जाऊंगा जहां तुम मेरा पीछा करने के बारे में सोचने लगो । तुम अपने घर का ही बताओ ।”
“नम्बर तीन, बैंक स्ट्रीट ।” - सुनील बोला ।
चन्दन चुपचाप गाड़ी ड्राइव करता रहा ।
एक स्थान पर उसने गाड़ी रोकी और फिर सुनील की आंखों से पट्टी हटा दी ।
सुनील ने देखा कार बैंक स्ट्रीट के कोने पर खड़ी थी ।
“नम्बर तीन कहां है ?” - चन्दन ने पूछा ।
“मैं यहीं उतर जाता हूं । आगे पैदल चला जाऊंगा ।”
“नहीं ।”
सुनील ने सामने की एक इमारत की ओर संकेत कर दिया ।
चन्दन ने कार तीन नम्बर इमारत के सामने ला खड़ी की ।
वह इग्नीशन को बन्द कर सुनील की साइड वाले दरवाजे पर पहुंचा और बोला - “आओ ।”
सुनील बाहर निकल आया ।
“सीधे इमारत में चलो । पीछे घूमकर मत देखना ।” - चन्दन बोला - “मेरे हाथ में रिवाल्वर है और उसका रुख तुम्हारी ओर ही है ।”
“क्यों ? पीछे घूमकर देखने से क्या हो जायेगा ?”
“मैं, नहीं चाहता तुम कार का नम्बर देख पाओ ।”
“ऐसा खतरा था, प्यारेलाल, तो कार का नम्बर की बदल देते ।”
“मुझे बाद में ख्याल आया था । अगर यह बात पहले मेरे दिमाग में आ जाती तो ऐसा ही करता ।”
दोनों इमारत में प्रवेश कर गये ।
“एक बात बताओ ।” - रास्ते में चन्दन बोला ।
“पूछो ।”
“क्या वाकई तुमने शम्भूदयाल को होटल के कमरे में देखा था ?”
“तुम्हें अभी भी सन्देह है ?”
चन्दन चुप रहा ।
सुनील दूसरी मंजिल पर स्थित अपने फ्लैट के सामने आ खड़ा हुआ ।
उसने चाबी निकाल कर फ्लैट का द्वार खोला ।
“आओ ।”
“नहीं, मेहरबानी । तुम भीतर चलो ।”
सुनील भीतर घुस गया ।
चन्दन ने द्वार बाहर से बन्द कर के चिटखनी लगा दी ।
“अबे ।” - सुनील चिल्लाया - “मैं बाहर कैसे निकलूंगा ?”
“मेरे जाने के बाद किसी को आवाज दे देना ।” - चन्दन बोला ।
सुनील ड्राइंग रूम और बेडरूम में से होता हुआ किचन की ओर लपका । उसने अपने जूते उतार दिये और पलक झपकते ही किचन की खिड़की का द्वार खोलकर पिछली ओर खिड़की के नीचे बने प्रोजेक्शन पर उतर गया ।
अगले ही क्षण वह बन्दर की सी फुर्ती से पिछवाड़े में दीवार के साथ लगे गन्दे पानी के पाइप के सहारे नीचे उतरने लगा ।
मोड़ पर पहुंचकर उसने सावधानी से सामने की सड़क पर झांका ।
चन्दन कार में बैठ चुका था और कार को बैक कर रहा था ।
सुनील ने कार का नम्बर देखा । नम्बर था RJL 3144 ।
उसने शान्ति की एक गहन निश्वास ली ।
वह अपने फ्लैट में वापिस आ गया ।
उसने यूथ क्लब को फोन किया ।
“यूथ क्लब, गुड ईवनिंग ।” - दूसरी ओर से आपरेटर का स्वर सुनाई दिया ।
“रमाकांत, प्लीज ।” - सुनील बोला ।
“प्लीज होल्ड दि लाइन ।”
सुनील रिसीवर कान से लगाये बैठा रहा ।
“हल्लो ।” - थोड़ी देर बाद रमाकांत की आवाज आई ।
“रमाकांत, सुनील बोल रहा हूं ।” - सुनील बोला ।
“कहां से बोल रहे हो ?” - रमाकांत का उत्साह भरा स्वर सुनाई दिया - “आज तो क्लब में बड़ा रंगीन प्रोग्राम है ।”
“क्या प्रोग्राम ?”
“एक खास अरब की बैली डान्सर (Belly Dancer) की परफारमेंस का इन्तजाम किया है । बाई गाड, देखोगे तो फड़क जाओगे । एकदम असली माल है ।”
“असली माल !”
“हां । मेरा मतलब है । असली बैली डान्सर है । यूं ही उल्टा-सीधा पेट हिलाने वाली नहीं है ।”
“मैं बिजी हूं ।”
“क्या कर रहे हो ?”
“एक केस है और उसी सिलसिले में मैंने तुम्हें फोन किया है ।”
“कोई काम मत बता देना यार ।” - रमाकांत आशंकित स्वर में बोला ।
“काम तो है ही । और क्या मैंने तुम्हारी मीठी आवाज सुनने के लिये फोन किया है ?”
“टाल नहीं सकते ?”
“नहीं ।”
“अच्छा फिर, बको ।”
“एक कार का नम्बर नोट कर लो ।”
“बोलो ।”
“RJL 3144”
“कुछ मेक वगैरह मालूम है ।”
“एम्बैसेडर । रंग काला ।”
“करना क्या है ?”
“रजिस्ट्रेशन के सहारे इसके मालिक का नाम और पता मालूम करने की कोशिश करो ।”
“और ?”
“फिलहाल बस, लेकिन यह काम जल्दी होना चाहिये ।”
“अच्छा । वैसे मामला क्या है ? ...अच्छा छोड़ो मत बताओ ।”
“क्यों ?”
“मेरे पास सुनने को समय नहीं है । यह सवाल तो, दरअसल मैंने आदतन पूछ लिया था । इस समय तो मुझे जोहरा के अतिरिक्त कुछ नहीं सूझ रहा है ।”
“जोहरा उस बैली डान्सर का नाम है ?”
“हां ! तुम आओगे ?”
“नहीं । मुझे काम है । वैसे भी मैं आराम करना चाहता हूं ।”
“आल राइट । विश मी लक, देन ।”
“फार वाट ?”
“फार जोहरा ।”
“ओके । गुड लक, मैन ।”
सुनील ने रिसीवर रख दिया ।
उसने एक सिगरेट सुलगा लिया और सोचने लगा ।
सिगरेट की समाप्ति के बाद उसने फिर टेलीफोन उठा लिया ।
उसने इम्पीरियल होटल का नम्बर डायल कर दिया ।
“पुट मी टु फ्रन्ट डैस्क ।” - लाइन कनैक्ट होने पर वह बोला ।
“यस सर ।” - थोड़ी देर बाद दूसरी ओर से आवाज आई ।
“रूम नम्बर चार सौ अट्ठारह में मिसेज दयाल ठहरी हुई हैं । उनसे बात करा दीजिये ।”
“वे तो चली गई साहब ?”
“वापिस कब आयेंगी ?”
“नहीं, साहब मेरा मतलब है वे होटल छोड़ गई हैं । हर नेम इज चैक्ड आउट ।”
“कब ?”
“दोपहर में ।”
सुनील ने रिसीवर रख दिया ।
वह अपने फ्लैट से बाहर निकल आया ।
नीचे आकर उसने एक टैक्सी की और मेहता रोड पहुंच गया ।
वह सीधा किशोरी के फ्लैट पर पहुंचा ।
फ्लैट पर एक छोटी-सा ताला लगा हुआ था ।
उसी क्षण बगल के फ्लैट में से नौकर सा लगने वाला एक आदमी निकला ।
“सुनो ।” - सुनील ने उसे आवाज दी ।
“हां साहब ।” - वह बोला ।
“इस फ्लैट में जो मेम साहब रहती हैं...”
“आप किशोरी मेम साहब की बात कर रहे हैं न ?” - नौकर जल्दी से बात काट कर बोला ।
“हां ।”
“वे तो फ्लैट छोड़कर चली गई ।”
“क्या मतलब ?”
“उन्होंने फ्लैट खाली कर दिया है, साहब ।”
“कब ?”
“आज शाम को ।”
“कुछ मालूम है, वे कहां गई हैं ?”
“नहीं, साहब । दरअसल, वे तो वापिस लौटी ही नहीं । एक और ही आदमी उनका सामान उठवाने आया था और वह ही मकान मालिक को बाकी किराया भी दे गया था ।”
“मकान मालिक ने इस प्रकार उसे सामान ले जाने दिया ?”
“जी हां । किशोरी ने मकान मालिक को पहले ही फोन कर दिया था कि वह सामान उठवाने के लिये एक आदमी भेज रही हूं । और वह आदमी किशोरी से लिखवा कर भी लाया था ।”
“इमारत में किसी और को मालूम है कि किशोरी कहां गई है या कहां मिल सकती है ?”
“नहीं, साहब ।”
“तुम्हें यह सब कैसे मालूम है ?”
“मैं मकान मालिक का ही नौकर हूं जी ।”
“मकान मालिक को भी कुछ नहीं मालूम है ?”
“नहीं, साहब ! किशोरी मेम साहब ने कुछ बताया ही नहीं ।”
“अच्छा ।” - सुनील अनिश्चित से स्वर में बोला और इमारत की सीढियां उतर गया ।
मेहता रोड पर आकर वह उस ओर चल दिया जिधर दिन में आने पर मोटर साईकिल खड़ी की थी ।
रास्ते में उसे एक पब्लिक टेलीफोन बूथ दिखाई दिया । उसने जेब से दस पैसे के सिक्के निकाल लिये और फिर उसने रचना के फ्लैट का नम्बर डायल कर दिया ।
दूसरी ओर घन्टी जाने लगी ।
कितनी ही देर वह दूसरी ओर जाती हुई घन्टी का सिग्नल सुनता रहा लेकिन दूसरी ओर किसी ने रिसीवर नहीं उठाया ।
अन्त में सुनील ने रिसीवर को हुक पर टांग दिया ।
फिर एकाएक उसे मुरारी के दोस्त डाक्टर राजीव सक्सेना का ख्याल आया ।
उसने डायरेक्टरी देखनी आरम्भ कर दी ।
डाक्टर राजीव सक्सेना का कहीं नाम नहीं था ।
वह परेशान हो उठा ।
उसने फिर यूथ क्लब के नम्बर डायल कर दिये ।
“रमाकांत को बुलाओ ।” - वह आपरेटर से बोला ।
“सर, मिस्टर रमाकांत बेहद बिजी हैं ।” - आपरेटर खेदपूर्ण स्वर में बोला - “वह इस समय काल रिसीव नहीं कर सकते ।”
“वह क्लब में है ?”
“मुझे यह भी ठीक से मालूम नहीं है । आप मैसेज छोड़ दीजिये, मैं उन्हें बता दूंगी ।”
“सुनो ।” - सुनील तनिक कठोर स्वर से बोला - “मुझे मालूम है, रमाकान्त किस काम में बिजी है । मैं सुनील बोल रहा हूं । उसे फौरन टेलीफोन पर बुलाओ ।”
“आप होल्ड कर लीजिये । मैं पता लगाती हूं ।”
“अच्छा ।”
दो मिनट बाद उसने कानों में रमाकान्त का चिढा हुआ स्वर पड़ा - “क्या मुसीबत है, बाबा ।”
“ऐसी की तैसी तुम्हारी ।” - सुनील गुर्राया - “तुमने आपरेटर को कह रखा है कि वह तुम्हें फोन न दे ।”
“अरे, तुम्हारे लिए थोड़े ही कहा था, बाबा ।”
“कार का कुछ पता चला ?”
“अभी इतनी जल्दी कैसे पता चल जायेगा ? मैंने इन्तजाम कर दिया है । पता लगते ही फौरन तुम्हें टेलीफोन कर दूंगा । ...तुम यहां आ रहे हो ?”
“बैली डान्सर को देखने ?”
“हां ।” - रमाकान्त एकदम उत्साहित स्वर से बोला - “सुनील प्यारे, हम तो समझते थे कि औरत की खूबसूरती उसकी कटीली आंखों में होती है, गुलाब की पंखड़ियों जैसे होंठों में होती है, सीने के पिरामिड जैसे उभार में होती है लेकिन मालूम हुआ है कि बैले डान्सर के पैर से ज्यादा खूबसूरत औरत के शरीर का कोई अंग नहीं होता । बाई गाड, क्या मक्खन जैसी मुलायम सतह होती है !”
“अच्छा ।” - सुनील बनावटी हैरानी जाहिर करता हुआ बोला ।
“हां । और जब नाचती है तो पेट यूं थिरकता है, उस पर यूं गोल-गोल लहरें उठती हैं, जैसे किसी ने तालाब के ठहरे हुए पानी में पत्थर फेंक दिया हो ।”
“बहुत खुश हो ।”
“मजा आ रहा है ।”
“अभी तक कितने पैग पी चुके हो ?”
“सिर्फ दो ।” - रमाकान्त ईमानदारी से बोला - “लेकिन सारी रात का प्रोग्राम है । तुम आ जाओ न । मुझे बता दो तुम कहां हो, मैं आकर ले जाता हूं तुम्हें ।”
“मुझे छोड़ो । तुम आज की खुशी में एक काम और करवा दो ?”
“क्या ?” - रमाकान्त के स्वर में उत्साह की मात्रा पचास प्रतिशत रह गई थी ।
“राजीव सक्सेना नाम के एक डाक्टर का पता लगाओ ।”
“टेलीफोन डायरेक्टरी देख लो यार ।”
“टालो मत । मैं डायरेक्टरी देख चुका हूं । उसमें उसका नाम नहीं है ।”
“तो फिर मैं कैसे पता लगाऊं ?”
“नगर के सारे हस्पतालों में फोन करो । मैडीकल काउन्सिल के आफिस से पूछो कि क्या राजीव सक्सेना नाम का कोई डाक्टर रजिस्टर्ड है ।”
“अच्छी बात है ।” - रमाकान्त मरे स्वर में बोला ।
“ओके । तुम्हें रात की रंगीनी मुबारिक ।”
सुनील टेलीफोन रखने ही लगा था कि उसे रमाकान्त का तीव्र स्वर सुनाई दिया - “सुनील !”
“हां ।”
“इस केस में तुम बहुत नावां (धन) मार रहे हो ?”
“हां । बहुत । और फिक्र न करो, तुम भी हिस्सेदार हो ।”
“लेकिन बदले में तुम मेरे साथ जोहरा में तो हिस्सा नहीं बटाओगे न ?”
“नहीं ।”
“दैट्स ग्रेट । यू आर ए पाल, मैन । गुड नाइट ।”
“गुड नाइट ।” - सुनील बोला और उसने रिसीवर रख दिया ।
वह बूथ से बाहर निकल आया ।
अगले ही क्षण वह मोटर साईकिल पर बैठा बैंक स्ट्रीट की ओर उड़ा जा रहा था ।
***
टेलीफोन की निरन्तर बजती हुई घण्टी से सुनील की नींद खुल गई
उसने अनिच्छापूर्ण ढंग से हाथ बढाकर टेबल लैम्प का स्विच आन किया और फिर रिसीवर उठाकर अपने कान से लगा लिया ।
“हल्लो !” - वह अलसाये स्वर में बोला ।
“सुनील ।” - दूसरी ओर से एक स्त्री स्वर सुनाई दिया ।
“हां ! कौन बोल रहा है ?”
“सुनील । मैं रचना हूं ।”
“कौन ?”
“रचना ! रचना !”
रचना ! उसने लैम्प की बगल में रखी घड़ी देखी । रात के ढाई बजने को थे । रचना इतनी रात को फोन क्यों कर रही है ।
उसने अपने सिर को एक झटक दिया और फिर पहले से अधिक संयत स्वर में बोला - “क्या बात है रचना ?”
“सुनील ।” - दूसरी ओर से रचना का बेहद डरा हुआ स्वर सुनाई दिया - “भगवान के लिये यहां आ जाओ ।”
“यहां कहां ?”
“मेरे फ्लैट पर ।”
“क्यों ? क्या हो गया है ? इमारत में आग लग गई है क्या ?” - सुनील तनिक खीज भरे स्वर में बोला ।
“उसने भी भयानक बात हो गई है । भगवान के लिये, सुनील, टेलीफोन पर बहस मत करो और यहां आ जाओ । दहशत के मारे मेरी जान निकली जा रही है ।”
“लेकिन हुआ क्या है ?”
“मेरा पति...”
“शम्भूदयाल ! क्या उसने फिर तुम पर हमला कर दिया है ?”
“सुनील, मेरे हाथ से रिसीवर छूटा जा रहा है । मेरी चेतना लुप्त होती जा रही है । भगवान के लिए मुझ से फोन पर कुछ मत पूछो ।” - और सुनील के कानों से उसके फफक-फफककर रोने की आवाज सुनाई दी ।
“मैं आ रहा हूं ।” - सुनील बोला और उसने रिसीवर रख दिया ।
वह फुर्ती से बिस्तर से निकला । बाथरूम में जाकर उसने मुंह धोया । फिर उसने कपड़े बदले और फिर फ्लैट को ताला लगाता हुआ बाहर निकल गया ।
उसने मोटर साईकिल सम्भाली और महात्मा गांधी रोड की ओर उड़ चला ।
रात अंधेरी थी और रास्ते सुनसान पड़े थे ।
केवल छः मिनट में वह श्री निवास के सामने पहुंच गया ।
उसने मोटर साईकिल को स्टैण्ड पर खड़ा किया और सीढियों की ओर लपका ।
दूसरी मंजिल पर पहुंचकर उसने रचना के फ्लैट का द्वार धीरे से खटखटा दिया ।
द्वार फौरन खुल गया ।
शायद रचना द्वार के दूसरे ओर ही खड़ी थी ।
सुनील को देखकर वह एकदम जोर से रो पड़ी और उसके साथ लिपट गई ।
सुनील ने पांव की ठोकर से द्वार बन्द कर दिया और फिर रचना को सहारा देकर एक सोफे पर बैठा दिया ।
उसने एक सिगरेट सुलगा लिया और उसके चुप होने की प्रतीक्षा करने लगा ।
थोड़ी देर तक रचना हिचकियां लेती रही और फिर चुप हो गई ।
“क्या हो गया है ?” - सुनील ने स्थिर स्वर में पूछा ।
“सु... सुनील, मेरे पति... म... म... म... मेरे...”
“ड्रामा कम करो और बात ज्यादा करो । अगर बोला नहीं जा रहा है तो थोड़ी देर और चुप बैठी रहो या एक गिलास पानी पियो । इतनी रात गये मैं यहां पर किसी औरत को हिस्टीरिया कै दौरे पड़ते देखने नहीं आया हूं ।”
रचना एकदम चुप हो गई । कई क्षण वह यूं ही चुप रही जैसे स्वयं को व्यवस्थित करने का प्रयत्न कर रही हो ।
“अब बताओ क्या हुआ है ?” - सुनील ने फिर पूछा ।
“मुरारी ने मेरे पति की हत्या कर दी है ।” - रचना कठिन स्वर में बोली ।
“क्या ?” - सुनील हैरानी से लगभग चिल्ला पड़ा ।
“हां ।”
“तुम्हें कैसे मालूम है ?”
“लाश मेरे बैडरूम में पड़ी है ।”
“हुआ क्या था ?”
“मैं अपने बैडरूम में सोई पड़ी थी । एकाएक मेरी नींद खुल गई । किसी ने मेरी गर्दन दबोच रखी थी और वह मुझे झिंझोड़कर जगा रहा था ।”
“कौन था वह ?”
“उस समय तो अंधेरे में मैं उसकी सूरत नहीं देख पाई थी लेकिन बाद में मुझे मालूम हुआ वह मेरा पति था ।”
“वह भीतर कैसे आया ?”
“खिड़की खुली थी । शायद पाइप के रास्ते चढ आया था ।”
“फिर ?”
“वह मेरा गला दबा रहा था और मुझ से छुपाई हुई रकम के बारे में पूछ रहा था । मैं हाथ पांव पटकने लगी और स्वयं को उसके चंगुल से छुड़ाने का प्रयत्न करने लगी । उसी खटखट की आवाज से शायद बगल के बैडरूम में सोये हुए मुरारी की नींद खुल गई । वह मेरे बैडरूम में आया । उसने मेरा गला दबाते हुए मेरे पति पर गोली चला दी ।”
“फौरन ?”
“नहीं । पहले उसने उसे कहा कि मुझे छोड़ दे । मेरे पति ने मुझे तो छोड़ दिया लेकिन वह मुरारी की ओर झपटा । मुरारी के हाथ में रिवाल्वर थी । उसने गोली चला दी । मेरे पति के मुंह से एक हाय निकली और वह कटे वृक्ष की तरह फर्श पर गिर पड़ा । मुरारी रिवाल्वर वहीं फेंक कर भाग खड़ा हुआ ।”
“मुरारी के पास रिवाल्वर कहां से आया ?”
रचना एक क्षण चुप रही और फिर बोली - “यह वही रिवाल्वर था जो तुमने मुझे दिया था ।”
“वह रिवाल्वर मुरारी के पास कैसे पहुंच गया ?”
“मैंने उसे बताया था कि तुमने आत्मरक्षा के लिए मुझे एक रिवाल्वर दिया है । रिवाल्वर मेरे पर्स में था और मैं रात होने तक रिवाल्वर को बिल्कुल भूल चुकी थी । पर्स ड्राईंगरूम में रखा था । मुरारी ने मेरे बैडरूम में आने से पहले शायद रिवाल्वर निकाल लिया था ।”
“मुरारी अब कहां है ?”
“मुझे नहीं मालूम । मेरे पति पर गोली चलाने के फौरन बाद वह यहां से भाग गया था ।”
“तुमने शम्भूदयाल और मुरारी दोनों को देखा था ?”
“हां ।”
“तुम्हें विश्वास है कि जो आदमी तुम्हारा गला दबा रहा था, वह तुम्हारा पति ही था, कोई और नहीं ।”
“मैं अंधेरे में उसकी सूरत नहीं देख पाई थी ।”
“तुमने अंधेरे में मुरारी को कैसे पहचाना ?”
“उसके चेहरे पर बंधी पट्टियों के कारण ।”
“जब तुमने अपना गला दबाने वाले आदमी को देखा नहीं तो तुम्हें यह कैसे मालूम है कि वह तुम्हारा पति था ?”
“मुरारी के भाग जाने के बाद मैं भी बाहर भाग आई थी । फिर मुझे ख्याल आया था कि वह शायद जिसे गोली लगी है वह मेरा पति न हो । मैंने बैडरूम के द्वार के पास जाकर द्वार धकेला था लेकिन द्वार के दूसरी ओर ही लाश पड़ी होने के कारण द्वार खुल नहीं पाया था । बाहर से द्वार इतना ही खुल पाया था कि मैं बाहर खड़ी-खड़ी सिर डालकर अन्दर झांक सकूं । द्वार के पास ही बिजली का स्विच था । मैंने स्विच आन करके भीतर झांका था । लाश मेरे पति की ही थी ।”
“मतलब यह है कि मुरारी तुम्हारे पति की हत्या करके भाग गया है ।”
“हां ।”
“जरा मुरारी का कमरा देखें ।”
दोनों उठ खड़े हुए और मुरारी के बैडरूम में आ गये । बैडरूम खाली पड़ा था ।
सुनील ने बगल में रखी ड्रेसिंग टैबल के दराज खोलने आरम्भ कर दिये । निचले दराज में कोई भारी-सी चीज पड़ी थी । सुनील ने उसे बाहर निकाल दिया ।
“यह क्या है ?” - उसने पूछा ।
“मालूम नहीं ।” रचना बोली ।
वह कपड़े का बना हुआ लगभग बारह इंच व्यास का अर्द्धवृत्ताकार एक पैड था जिसके पृष्ठ भाग में बैल्ट जैसे स्ट्रैप लगे हुए थे ।
“क्या बला है यह ?” - सुनील उलझनपूर्ण ढंग से उसे हाथ में ठंलटता-पलटता रहा ।
फिर एकाएक उसके दिमाग में बिजली-सी कौध गई ।
उसकी आंखों के सामने मुरारी का अस्वाभाविकता की हद तक बाहर को निकला हुआ मटके जैसा पेट घूम गया ।
उसने अपने कोट के बटन खोले और उस पैड को पेट के एकदम सामने टिकाकर उसके पृष्ठ भाग में लगे स्ट्रैप अपनी पीठ पीछे बांध लिये ।
ऊपर से उसने अपने कोट के बटन बन्द कर लिये ।
वह रचना की ओर घूमा ।
रचना के मुंह से सिसकारी-सी निकल गई ।
सुनील ने पैड उतार दिया । बोला - “आओ ।”
दोनों बाहर आ गये ।
“यहां मेरे सामने बैठ जाओ ।” - सुनील एक सोफे पर बैठता हुआ बोला ।
रचना हिचकती हुई उसके सामने आ बैठी ।
“मेरी ओर देखो ।” - सुनील ने आदेश दिया ।
रचना नर्वस ढंग से उसकी ओर देखने लगी ।
“मेरी आंखों में देखो ।”
रचना उसकी आंखों में देखने लगी ।
“अब सचसच बताओ क्या हुआ था ?”
रचना के नेत्र झुक गये ।
“जो कुछ मैंने कहा था, वह सब सच था ।” - वह दबे स्वर में बोली ।
“नहीं ।” - सुनील कठोर स्वर में बोला - “वह सब सच नहीं था ।”
“यह सच है । मुरारी ने ही मेरे पति की हत्या की है ।”
“नहीं ।” - सुनील नकारात्मक ढंग से सिर हिलाता हुआ निश्चित स्वर में बोला - “यह सम्भव नहीं है ।”
“क्यों सम्भव नहीं है ?”
“क्योंकि शम्भूदयाल और मुरारी दो आदमी नहीं हैं । मुरारी ही शम्भूदयाल था ।”
“क्या ?” - रचना हैरानी से एकदम चिल्ला पड़ी ।
“यह हकीकत है ।”
“लेकिन यह कैसे सम्भव है । अगर मुरारी ही मेरा पति होता तो क्या मैं उसे पहचान न लेती ?”
“उसने वह रूप ही ऐसा धारा था और हालात ही ऐसे पैदा कर दिए थे कि तुम्हारा मुरारी के रूप में अपने पति को पहचान पाना सम्भव नहीं था ।”
“लेकिन यह कैसे हो सकता है ?”
“यह हुआ है और एकदम तुम्हारी नाक के नीचे हुआ है । शम्भूदयाल मुरारी बनकर तुम्हारे साथ इसी फ्लैट में रहता रहा और तुम्हें पता नहीं लगा ।”
“यह असम्भव है । मुरारी मेरा पति नहीं हो सकता ।”
“यह शतप्रतिशत सच है कि मुरारी ही शम्भूदयाल था । हर बात इसी ओर संकेत करती है । बहुत सी उलझनें इसीलिये दूर नहीं हो रही थीं कि मुझे यह एक बार भी नहीं सूझा था कि मुरारी और शम्भूदयाल एक ही आदमी हो सकते हैं ।”
“लेकिन...”
“पहले मेरी बात सुनो । मैं तुम्हें शुरु से सारी स्थिति समझाता हूं । मुरारी ने हमें किशोरी के बारे में बताया । उस के कथनानुसार किशोरी शम्भूदयाल की प्रेमिका थी और वह अभी भी शम्भूदयाल से सम्पर्क स्थापित किये हुए है । मैं किशोरी से मिला और उस पर यह जाहिर करने की कोशिश थी कि मैं पुलिस का आदमी हूं और यह बात जानता हूं कि वह शम्भूदयाल से सम्बंधित है और शम्भूदयाल अभी भी उससे मिलने आता है । मैंने उसके दिमाग में यह बात बिठा दी कि पुलिस ने उसकी लाइन टेप की हुई है और उसके फ्लैट की निगरानी भी की जा रही है । इतना होने के बावजूद भी मेरे उस फ्लैट में से निकलने के लगभग फौरन बाद ही किशोरी अपने फ्लैट से बाहर आई और एक टैक्सी लेकर नाक की सीध में इम्पीरियल होटल पहुंच गई जहां उसे शम्भूदयाल मिलने आने वाला था ।”
“क्यों ?”
“क्योंकि वह जानती थी कि मैं पुलिस से सम्बंधित नहीं हूं । वह जानती थी कि मुरारी उर्फ शम्भूदयाल ने ही मुझे उसका पता बता कर भेजा है । वह भयभीत होने का अभिनय करती रही और मेरे जाते ही इम्पीरियल होटल की ओर भागी जैसे वह शम्भूदयाल को बताने जा रही हो कि उसके फ्लैट पर आना शम्भूदयाल के लिये खतरनाक सिद्ध हो सकता है । वास्तव में उसे मालूम था कि मैं उसका पीछा करुंगा एक निश्चित स्कीम के अनुसार वह सीधी इम्प्रियल होटल पहुंच गई । यही नहीं उसने इस बात का भी इन्तजाम कर दिया कि मैं उस पर निगाह रखने के लिये चार सौ बीस नम्बर कमरा ही किराये पर लूं ।”
“यह कैसे हो सकता है ?”
“हो सकता है क्या, यह हुआ है । मैं बताता हूं कैसे हुआ है ? उस ने इम्पीरियल होटल की चौथी मन्जिल पर पहले से ही चार सौ अट्ठारह और चार सौ बीस नम्बर के दो अगल बगल के कमरे बुक करवा लिये थे । मैं उसका पीछा करता हुआ होटल में पहुंचा और अभी मैं चौथी मन्जिल पर अपने लिये कोई कमरा लेने के बारे में बातचीत ही कर रहा था कि किशोरी ने फोन करके रिसैप्शन क्लर्क को बताया कि अब उसे चार सौ बीस कमरे की जरूरत नहीं है । चौथी मन्जिल पर और कमरे खाली भी होते तो भी मैं किशोरी की बगल वाला कमरा ही लेना पसंद करता, क्योंकि वहां से उस पर सहुलियत से नजर रखी जा सकती थी । एक निश्चित स्कीम के अनुसार किशोरी ने जान बूझ कर ठीक मौके पर चार सौ बीस नम्बर कमरा छोड़ दिया था । न केवल यह उस ने बाथरूम भी चार सौ बीस के साथ ही सम्बद्ध रहने दिया था ।”
“बाथरूम क्यों ?”
“बाथरूम का तो उनकी स्कीम में सबसे अधिक महत्व था । उसी रास्ते से तो मुरारी किशोरी वाले कमरे में जा कर शम्भूदयाल बन जाता था ।”
“लेकिन किशोरी ने बाथ रूम क्यों छोड़ा ?”
“या तो उसने चार सौ सोलह और चार सौ अट्ठरह के बीच का बाथ रूम यूज किया होगा या फिर उसने कमरा विदाउट बाथ किराये पर लिया होगा ।”
“लेकिन मुरारी दूसरे कमरे में जा कर शम्भूदयाल कैसे बन सकता है । मुरारी तो बुरी तरह घायल था । उसका चेहरा दुर्घटना के कारण कुचला पड़ा था । वह...”
“एक्सीडैन्ट की बात एकदम झूठी थी मुरारी घायल नहीं था । उस के घायल होने का केवल बहाना किया था, इसलिये ताकि चेहरे पर ड्रेसिंग के रूम में ढेर सारा ताम-झाम मंढा होने के कारण तुम उसे पहचान न पाओ ।”
“लेकिन डाक्टर ?”
“क्या डाक्टर ! कैसा डाक्टर ! राजीव नाम का वह डाक्टर भी मुरारी की तरह फ्राड था । वह मुरारी का कोई दोस्त था जो डाक्टर बन कर मुरारी की सहायता कर रहा था । रचना तुम याद करने की कोशिश करो डाक्टर ने बड़े विचित्र ढंग से मुरारी के चेहरे की ड्रेसिंग की थी । डाक्टर कहता था कि मुरारी की नाक टूट गई है और इस बहाने उसने मुरारी के चेहरे पर नाक के आस-पास बास की खपच्चियों का बना हुआ इतना मोटा ब्रिज मंढ दिया था कि उससे उसके चेहरे का एक बहुत बड़ा भाग कवर हो गया था । ऊपर से उसने ढेर सारी पट्टियां बांध दी थी । डाक्टर ने उसके बाकी के चेहरे पर प्लास्टर टेप की कत्तरें जड़ दी थी जिसके कारण उसके चेहरे की खाल खिंच गई थी । प्लास्टर के कारण उसका मुंह टेढा हो गया था और आंखें बड़े डरावने ढंग से बाहर निकल आई थीं । यही नहीं उसने अपना हेयर स्टाइल भी बदल लिया था । उसने अपने सिर के बीचों बीच लम्बी मांग निकाली हुई थी और बालों को कानों की ओर दायें बायें कंघी किया हुआ था और उसकी खोपड़ी के पिछले भाग का लगभग दो इंच व्यास का गंजा क्षेत्र स्पष्ट दिखाई देने लगा था । तुम सोचो जिस आदमी के चेहरे पर इस ढंग के लम्बे बाल हों वह भला इस प्रकार की कंघी क्यों करेगा कि उसकी खोपड़ी का गंजा हिस्सा स्पष्ट दिखाई देने लगे । वह तो बालों में बिना मांग निकाले पीछे की ओर इस प्रकार कंघी करेगा कि सिर पर गंजापन बालों में छुप जाये ।”
“मेरे पति की तरह...” - रचना मंत्रमुग्ध स्वर में बोली ।
“बिल्कुल । और फिर उसका पेट ! मुरारी का पेट मटके की तरह बाहर को फूला हुआ था । वह पेट भी नकली था, जैसा कि इस स्ट्रैपों वाले पैड की बरामदी से स्पष्ट हो ही चुका है । ऊपर से वह यह... लम्बा ओवरकोट पहने रखता था । इतने बखड़े के बाद क्या इस बात की सम्भावना है कि तुम शम्भूदयाल को पहचान सको ?”
रचना का सिर अपने आप ही नकारात्मक ढंग से हिलने लगा । फिर एकाएक उसने सिर हिलाना बन्द कर दिया और बोली - “लेकिन खून !”
“वह तो इस मास्टरपीस स्कीम की सबसे मामूली बात थी । MERCUROCHROME नाम की एक चीज तो मैं जानता हूं जिसकी सूरत शक्ल एकदम खून से मिलती जुलती है । ऐसी ही और भी चीजें होती ही होंगी । उन लोगों ने खून का इम्प्रेशन देने के लिए ऐसी कोई चीज इस्तेमाल की होगी ।”
रचना चुप रही ।
“मुरारी ही शम्भूदयाल था ।” - सुनील फिर बोला - “इसका सबूत मैं और देता हूं तुम्हें । शम्भूदयाल अपराधियों के जिस गैंग का सदस्य था, वे लोग भी शम्भूदयाल को तलाश कर रहे थे । उन्हें आशा थी की शम्भूदयाल कभी न कभी इम्पीरियल होटल जरूर आयेगा । इसलिए वह कई दिनों से होटल की निगरानी कर रहे थे ।”
“यह बात तुम्हें कैसे मालूम है ?”
“बाद में बताऊंगा । पहले जो मैं कह रहा हूं वह सुनो ।”
“अच्छा ।”
“उन लोगों की जानकारी में आये बिना शम्भूदयाल का होटल में घुस पाना असम्भव था । लेकिन फिर भी शम्भूदयाल होटल में था । मैंने फिर भी उसे चार सौ अट्ठारह नम्बर में किशोरी के साथ देखा था । फिर बाद में जब मैंने पुलिस को फोन करके बुलाया तो वह होटल में से गायब हो चुका था । उसके गैंग के आदमियों ने उसे बाहर निकलते नहीं देखा । क्योंकि वह तो मुरारी के रूप में आया और मुरारी के रूप में ही अपने कथित डाक्टर मित्र के कंघे का सहारा लिए हुए ठाट से सबकी नाक के नीचे से गुजर गया ।”
सुनील कुछ रुका और फिर बोला - “इम्पीरियल से मैंने तुम्हें फोन करके सारा सैट अप बताया था । मैंने कहा कि शम्भूदयाल के होटल में आते ही मैं ही पुलिस को फोन कर दूंगा और शम्भूदयाल गिरफ्तार हो जायेगा । लेकिन तुमने बताया था कि मुरारी होटल में आने की जिद कर रहा है । क्योंकि वह चाहता था कि तुम शम्भूदयाल की सूरत देखते ही उसे बाकी रुपये दो । इस बहाने की ओट में वह तुम्हारे साथ होटल में मेरे कमरे में आ पहुंचा । उसका तो होटल में आना सबसे जरूरी था ही । अगर वह होटल में नहीं आता तो वह बाथरूम के रास्ते दूसरे कमरे में जाकर शम्भूदयाल कैसे बनता ? वह होटल में आ धमका । एक बार मेरे कमरे से बाहर जाने के बाद वह बाथरूम में गया होगा । इसी पूर्व निर्धारित कोड के अनुसार बगल के कमरे में मौजूद किशोरी ने बाथरूम का अपनी ओर का द्वार खोल दिया होगा । वहां उसने अपनी असली आवाज में किशोरी से बातें की होंगी ।”
“असली आवाज !”
“हां मुरारी बोलता भी तो एक अजीब ढंग से था ताकि तुम उसकी आवाज न पहचान लो । उसकी नाक पर पट्टी वगैरह चढी होती थीं और वह नाक में ही बोलने की कोशिश करता था । परिणामस्वरूप एक घुटी सी अस्पष्ट सी आवाज उसके मुंह से निकलती थी इसलिए तुम कभी आवाज से भी उसे पति के रूप में नहीं पहचान पायी । वह तुम्हें सुनाने के लिए अपनी असली आवाज में किशोरी के कमरे में बोलता रहा और फिर वापस आ गया । तुम्हें यह विश्वास हो गया कि शम्भूदयाल बगल के कमरे में आ गया है । उसने बाकी के आठ हजार रुपये मांगने आरंभ कर दिये । लेकिन तुम चाहती थी कि किसी प्रकार उसकी सूरत भी देख ली जाये ताकि संदेह की कोई गुंजाइश न रहे । इसी सिलसिले में जब मैं दूसरी बार बाहर गया तो मुरारी उर्फ शम्भूदयाल ने उसका भी इन्तजाम कर लिया । उसने यह बहाना बनाया कि एकदम उत्तेजित हो जाने के कारण उसके जख्म खुल गये और खून बहना फिर शुरू हो गया है । इस बहाने उसने अपने नकली डाक्टर दोस्त को होटल में बुला भेजा । डाक्टर उसकी नये सिरे से ड्रैसिंग करने के बहाने उसे लेकर बाथरूम में घुस गया । उन्होंने बाथरूम का द्वार भीतर से बंद कर लिया । मुरारी ने अपने चेहरे से पट्टियां वगैरह उतार दी, अपना ओवरकोट भी उतार दिया, पेट से फेट उतार दिया । अपना हेयर स्टाइल बदल लिया तथा बालों में सामने से पीछे की ओर बिना मांग निकाले और कंघी कर ली ताकि सिर का गंज छुप जाये और किशोरी वाले कमरे में जाकर पलंग पर लेट गया । पलक झपकते ही मुरारी से शम्भूदयाल बन गया । पहले उसके सामने हुए वार्तालाप के कारण उसे मालूम था कि वेटर के लिबास में उसके कमरे में चाय लेकर मैं आऊंगा । वह मुझे दर्शन देने के लिए तैयार था । मैंने उसकी सूरत देखी और वापस आ गया । मेरे बाहर निकलते ही वह फिर बाथरूम में घुस गया । डाक्टर ने दुबारा से उसके चेहरे की मरहम पट्टी कर दी और उसके कपड़ों और नई पट्टियों और अपनी कमीज पर कहीं-कहीं मरक्यूरो क्रीम के धब्बे बना लिये । उसने अपना हेयर स्टाइल बदला, नकली पेट लगाया और ओवरकोट से अपने शरीर को ढका, ताकि मुझे वही कपड़े दुबारा दिखाई न दे जायें जिन्हें मैंने दूसरे कमरे में उसे शम्भूदयाल के रुप में पहने देखा था, डाक्टर के कंधे का सहारा लेकर बदहवास सा लड़खड़ाता हुआ बाहर आ गया । मैंने आकर बताया कि मैंने बगल के कमरे में शम्भूदयाल को देख लिया है । तुमने मुरारी को बाकी आठ हजार रुपये दे दिए । फिर तुम लोग होटल से चले गये । बाद मैंने पुलिस को फोन कर दिया । पुलिस फौरन आ गयी लेकिन तब तक शम्भूदयाल चार सौ अट्ठारह में से यूं गायब हो चुका था जैसे वह कभी वहां था ही नहीं ।
“लेकिन अगर मेरा ही पति मुरारी था तो उसे इतना ड्रामा करने की क्या जरूरत थी ?” - रचना ने पूछा ।
“वह भी सुनो ।” - सुनील ने उत्तर दिया - “शम्भूदयाल पुलिस से फरार मुजरिम था । एक बार पुलिस के हाथ पड़ जाने के बाद उसे फांसी की सजा होनी निश्चित थी । वह राजनगर में कहीं भी छुपता, पुलिस उसे जरूर खोज निकालती । बैंक के लुटे हुए माल के लालच में वह राजनगर छोड़ कर ही नहीं जाना चाहता था । इसलिए मुरारी के रूप में उसने ऐसी चाल चली कि वह सीधा अपने ही घर में आकर रहने लगा । उसका मेकअप कितना परफैक्ट था यह तो तुम जान ही चुकी हो । जब उसे मुरारी के रूप में खुद उसकी बीवी नहीं पहचान पायी तो पुलिस या उसके गैंग के आदमी तो क्या पहचानते उसे । मुरारी के रूप में वह हर किसी की नाक के नीचे अपने ही घर में रहा और किसी को खबर भी नहीं हुई ।”
“इस प्रकार का मेकअप तो मान लिया, उसने स्वयं को पुलिस और अपने गैंग के आदमियों से बचाने के लिये किया । लेकिन उसे मेरे पास आने की क्या जरूरत थी । मैं उसकी पत्नी थी । अच्छा मेकअप होने के बाद भी यह सम्भावना तो थी ही कि मैं उसे पहचान लेती । मुरारी के रूप में तो वह कहीं भी रह सकता था । और फिर उसने शम्भूदयाल को पकड़वाने के बदले में मुझसे दस हजार रुपये का सौदा क्यों किया ?”
“उस तरीके से वह तुम्हें परख सकता था ।”
“मुझे परख सकता था ! क्या मतलब ?”
“मतलब यह कि रुपये के मामले में तुम झूठ बोल रही हो या सच ।”
“कौन से रुपये के मामले में ? तुम कहना क्या चाहते हो ?” - रचना उलझनपूर्ण स्वर में बोली ।
“इतनी नादान मत बनो, रचना ।” - सुनील कठोर स्वर से बोला - “तुम्हें अच्छी तरह से मालूम है कि मैं बैंक से लूटे हुए उस धन की बात कर रहा हूं जो फरार होने से पहले शम्भूदयाल तुम्हें सौंप गया था ।”
“लेकिन वह धन मेरे पास कहां है । वह तो तभी उसके गैंग के लोग मुझसे छीन कर ले गये थे । मेरे पति को इस बात का विश्वास नहीं था । इसलिये तो वह मुझे मार डालने की धमकियां दे रहा था । इसलिये तो मैं मदद के लिये तुम्हारे पास आई थी ताकि वह गिरफ्तार हो जाये ।”
“तुम्हारे पास मुरारी को देने के लिये दस हजार रुपये कहां से आये ?”
“कुछ रुपया मेरे पास था बाकी मैंने किसी तरह इकट्ठा कर लिया था ।”
“कैसे ?”
“किसी से उधार मांग कर ।”
“किस से ?”
“मैं नाम नहीं बताना चाहती ।”
“तुम झूठ बोल रही हो ।” - सुनील तीव्र स्वर से बोला - “मुरारी को देने के लिये सौ सौ के नोट दोनों बार पहले तुमने तुझे दिये थे और वे फिर मैंने नोट गिन कर मुरारी को सौंपे थे । मैंने पहले दो हजार और बाद के आठ हजार रुपयों को अच्छी तरह देखा और परखा था । सारे नोट एकदम नये थे और एक ही सीरियल के थे । अगर तुमने कुछ रुपये अपने पास से दे दिये थे और बाकी किसी से उधार मांगे थे तो सारे नोट एक ही सीरियल के होने कैसे सम्भव हैं ।”
“मेरे अपने पास पांच-पांच, दस-दस के नोट थे ।” - रचना नर्वस स्वर में बोली - “मैंने अपने नोट भी उसे दे दिये थे जिसने मुझे उधार दिया था और उसने मुझे सौ-सौ के नोट दे दिए थे ।”
“एक ही सीरियल के ।”
“हां ।”
“तुम बताओ, तुम्हें किसने उधार दिया था ?”
“मैं उसका नाम नहीं बताना चाहती ।”
“रचना, झूठ बोलने से कोई फायदा नहीं होगा । कोई ऐसा आदमी हो तो तुम उसका नाम बताओ ना । तुमने मुरारी को बैंक से लुटे हुए माल में से नोट दिये हैं । नोटों के बारे में जो बात मैंने देखी है वह मुरारी ने भी देखी होगी और उसे विश्वास हो गया होगा कि तुम सारा माल खुद हड़प जाने के लिए झूठ बोल रही हो । मुरारी ने सारी चाल भी ये ही जानने के लिए चली थी । तुमने उससे कह दिया कि बैंक की लूट का माल उसके गैंग वाले तुमसे छीन कर ले गये हैं । उसने अपने गैंग को भी धोखा दिया था । इसलिए वह उन लोगों से पूछने तो जा नहीं सकता था कि क्या वे लोग रचना से माल छीन लाये हैं । तुम्हारी बात का विश्वास करने के अतिरिक्त उसके पास कोई चारा नहीं था । तुम भी इस तथ्य को अच्छी तरह समझती थीं । तुम्हारे पति को समझ नहीं आ रही थी कि तुम सच बोल रही हो या झूठ । वह तुम्हें धमकाता रहा और तुम झूठ बोलती रही । तुम्हारे पति का पेरशान होना स्वाभाविक ही था । उसके पास यह जानने का कोई साधन नहीं था कि तुम सच बोल रही हो या झूठ । अन्त में उसे एक तरकीब सूझ गयी । उसने मुरारी का बहुरूप धर कर तुमसे संपर्क स्थापित किया और दस हजार रुपये के बदले में शम्भूदयाल को अर्थात् खुद अपने आप को पकड़वा देने की ऑफर तुम्हारे सामने रखी । तुम्हारा पति होने के नाते वह जानता था कि दस हजार रुपये पास नहीं हैं । तुम्हारा उसे दस हजार रुपये देने का मतलब ही यह था कि बैंक का लूटा हुआ माल अभी भी तुम्हारे पास है । तुम पूरी तरह मुरारी की चाल में फंस गई । एक ही सीरियल के सौ-सौ के नोट उसके हाथ में आते ही उसे मालूम हो गया कि तुम माल अकेले हजम कर जाने की कोशिश कर रही हो । एक बार यह विश्वास हो जाने के बाद वह तुम पर चढ दौड़ा । तुमने उसकी हत्या कर दी । या तो तुम्हें पहले से ही मालूम था कि मुरारी ही शम्भूदयाल है या हत्या के बाद में तुम ने देखा कि मुरारी भी गायब है और तुमने शम्भूदयाल की हत्या का इल्जाम मुरारी के सिर पर मंढ दिया और मुझे मुरारी और शम्भूदयाल की हाथापाई की एक काल्पनिक कहानी सुना डाली ।”
“मुझे यह मालूम नहीं था कि मुरारी ही मेरा पति है ।”
“पहले तो मालूम नहीं था लेकिन हत्या के बाद मालूम हो गया होगा ।”
“नहीं ।”
“छोड़ो । अब यह बात प्रकट हो चुकी है कि मुरारी शम्भूदयाल की हत्या नहीं कर सकता । क्योंकि मुरारी और शम्भूदयाल एक ही आदमी के दो नाम हैं ।अब बताओ वास्तव में क्या हुआ था ?”
रचना चुप रही ।
“तुमने उसकी हत्या की है ?”
“मैंने हत्या करने के इरादे से उस पर गोली नहीं चलाई थी ।” - रचना अटक-अटक कर बोलने लगी -“और गोली चलाते समय तो मुझे मालूम भी नहीं था कि जो आदमी मेरा गला दबा रहा है, वह मेरा पति है । तुम्हारी दी हुई रिवाल्वर मैंने तकिये के नीचे रखी हुई थी । मेरा हाथ उस तक पहुंच गया और मैंने अन्धाधुन्ध गोली चला दी । गोली उस आदमी को कहां लगी मुझे यह भी मालूम नहीं । गोली चलते ही मेरी गरदन से उस आदमी की उंगलियों की पकड़ ढीली पड़ गई । मैं उसके चंगुल से निकल कर रिवाल्वर वहीं फेंक कर भाग खड़ी हुई ।”
“कहां ?”
“फ्लैट से बाहर । कितनी ही देर मैं नीचे जाकर इमारत की लाबी में खड़ी रही । मैं एकदम बदहवास हो गई थी । बड़ी मुश्किल से मैं स्वयं पर काबू पाने में सफल हो सकी । फिर मैं वापिस अपने फ्लैट में आई । जैसा मैं तुम्हें पहले बता चुकी हूं, मैंने अपने पति को बैडरूम में मरा पाया । तभी मुझे मालूम हुआ मेरी गरदन दबोचने वाला आदमी मेरा पति ही था । मैं इस विचार से बेहद भयभीत हो उठी कि मैंने खून कर दिया है मैंने बगल के बैडरूम में मुरारी को देखा । वह वहां से गायब था । मैं सच कहती हूं, मुझे मालूम नहीं था कि मुरारी और मेरा पति एक ही आदमी है । मुरारी को गायब देख कर मुझे यह ख्याल आया कि क्यों न मैं अपने पति की हत्या का इल्जाम मुरारी पर मंढ दूं । मैंने इसी झूठ को शब्द देने के लिए काल्पनिक कहानी तैयार कर ली और फिर तुम्हें फोन कर दिया ।”
“मुझे क्यों ? तुमने पुलिस को फोन क्यों नहीं किया जैसा कि इस स्थिति में स्वभाविक लगता है ।”
“क्योंकि मैं अपनी कहानी को पहले तुम पर आजमा लेना चाहती थी । अगर तुम यह बात स्वीकार कर लेते कि मुरारी ने ही मेरे पति का खून किया है तो मैं बड़ी दिलेरी से यही कहानी पुलिस को भी सुना देती लेकिन... लेकिन तुम्हें पहले से ही मालूम था कि मुरारी और शम्भूदयाल दो आदमी नहीं इसलिये...”
रचना चुप हो गई ।
“तुम अपने बैडरूम का दरवाजा भीतर से बन्द करके नहीं सोतीं ?”
“बाहर का दरवाजा तो बन्द था । जरूरत क्या थी ?”
“बगल के बैडरूम में मुरारी जो मौजूद था ।”
“मेरी नजर में तो वह ऐसा घायल और लाचार आदमी था जो बिना किसी का सहारा लिये बिस्तर से भी नहीं उठ सकता था । उस से मुझे क्या खतरा हो सकता था ।”
“और खिड़की ?”
“वह मैं अनजाने में बंद करना भूल गई थी ।”
“तो तुम स्वीकार करती हो कि अपने पति की हत्या तुमने की है ?”
“हत्या क्यों कहते हो ! मैंने आत्मरक्षा के लिये उस पर गोली चलाई थी ।”
“मैं पुलिस को फोन करता हूं ।” - सुनील उठने का उपक्रम करता हुआ बोला ।
“सुनील, सुनो ।” - रचना बड़े व्यंग्र स्वर में बोली और उसने सुनील के दोनों हाथ पकड़ लिये ।
सुनील रुक गया ।
“देखो ।” - रचना याचनापूर्ण स्वर से बोली - “तुम्हारे सिवाय इस तथ्य की जानकारी किसी को नहीं है कि शम्भूदयाल ही मुरारी था । शम्भूदयाल मर गया है, इसका मतलब है, मुरारी भी मर गया है । अगर तुम अपनी जुबान बन्द रखो तो मैं अभी पुलिस को यही कहानी सुना सकती हूं कि मुरारी ने शम्भूदयाल की हत्या की है ।”
“लेकिन ऐसा झूठ बोलने की जरूरत क्या है ?”
“मुझे डर लग रहा है ।”
“किस बात से ?”
“पुलिस से ।”
“तुम्हें पुलिस से डरने की क्या जरूरत है । तुमने तो आत्मरक्षा के लिये शम्भूदयाल पर गोली चलाई थी ।”
“फिर भी...”
“फिर भी क्या !”
रचना चुप रही लेकिन उसने सुनील के हाथ नहीं छोड़े ।
“देखो ।” - सुनील बोला - “पहले तो तुम्हारी ये ही बात गलत है कि मुरारी की असलियत को केवल मैं ही जानता हूं । राजीव सक्सेना नाम का नकली डाक्टर और किशोरी दोनों जानते हैं कि शम्भूदयाल ही मुरारी है । वे भी अपनी जुबान बन्द रखेंगे, इस बात की कोई गारंटी नहीं है ।”
“वे अगर सामने आयेंगे तो शम्भूदयाल के सहयोगियों के रूप में फंस नहीं जायेंगे ।”
“फंस जायेंगे लेकिन तुम्हारा झूठ तो फिर भी प्रकट हो जायेगा ।”
रचना चुप रही ।
“और फिर तुम मुझे भी तो सब कुछ साफ-साफ नहीं बता रही हो ।”
“अब क्या बाकी रह गया है ?” - वह डूबे स्वर में बोली ।
“तुमने अभी तक यह स्वीकार नहीं किया है कि बैंक की चोरी का माल तुम्हारे पास है । तुम्हारा यह झूठ शम्भूदयाल पर तो चल सकता था, कि माल उसके गैंग के आदमी ले गये हैं, मुझ पर नहीं । शम्भूदयाल तो मजबूर था । वह उन लोगों से जा कर पूछ नहीं सकता था ।”
“तुम पूछ सकते हो ?”
“मैं पूछ नहीं सकता लेकिन मुझे मालूम हो गया है कि माल उनके पास नहीं है । वे लोग भी अभी तक माल हासिल करने के लिये शम्भूदयाल को ढूंढते फिर रहे हैं ।”
“तुम्हें कैसे मालूम है ?”
“मेरा उस गैंग के लीडर से वास्ता पड़ चुका है । उस की बातों से यही मालूम होता है कि माल उन्हें नहीं मिला ।”
“क्या ?” - रचना हैरानी से बोली ।
“हां । उन लोगों ने जाहिर तो यही करने की कोशिश की थी । कि वे किसी और माल की खातिर शम्भूदयाल की तलाश कर रहे हैं लेकिन मैं जानता हूं कि वे बैंक के डाके वाले माल की ही फिराक में हैं ।”
“तुम्हारा ख्याल गलत है । वह कोई और गैंग होगा । मेरा पति कई गिरोहों का सदस्य था ।”
“मतलब यह कि तुम यह स्वीकार करने को तैयार नहीं हो कि माल तुम्हारे पास है ।”
“माल मेरे पास नहीं है ।”
“यह तुम्हारा आखिरी उत्तर है ?”
“हां ।” - वह निश्चयात्मक स्वर में बोली - “और यही सत्य है ।”
“फिर सोच लो ।”
“सुनील ।” - रचना उसके हाथों को और जोर से दबाती हुई याचनापूर्ण स्वर में बोली - “आखिर तुम समझते क्यों नहीं हो ?”
“क्या समझूं मैं ?”
“देखो, अगर तुम मेरी मदद करोगे तो मैं विश्वास दिलाती हूं कि तुम घाटे में नहीं रहोगे । सुनील, तुम्हारी मदद के बदले में तुम्हें कुछ भी देने के लिये तैयार हूं । मैं तुम्हारी खातिर कुछ भी करने के लिये तैयार हूं ।”
“सुनो ।” - सुनील बर्फ जैसे ठंण्डे स्वर में बोला - “मैंने जिन्दगी में बहुत बार लोगों की मदद की है । लेकिन उन सब लोगों में एक विशेषता थी । वे लोग निर्दोष थे, सच्चे थे लेकिन किन्हीं स्वार्थी और बदमाश तत्वों के चक्कर में आकर बखेड़े में फंस गये थे । मैं आदतन किसी की बात पर शक नहीं करता । जो भी मेरे पास सहायता के लिये आता है, एक उसूल के तौर पर मैं यह मान लेता हूं कि वह सच ही बोल रहा है, जैसे मैंने तुम पर विश्वास कर लिया । इसी धारणा के अंतर्गत मैं उनका बचाव करने का प्रयत्न करता हूं और सफल भी होता हूं क्योंकि मेरा विश्वास है कि दुनिया में सच्चाई से बड़ा हथियार कोई नहीं है और देर सवेर सच की ही जीत होती है । आज पहली बार तुम्हारे संपर्क में आकर मुझे इस बात का अफसोस हुआ है । कि मैं क्यों हर किसी की खातिर अपनी जान बखेड़े में डालता रहता हूं । तुम मुझे एक बेहद घटिया और मक्कार औरत लग रही हो, तुम केवल अभिनय करके झूठ बोल के मुझे न केवल अपनी सहायता के लिये तैयार करना चाहती हो बल्कि मुझे अपने अपराध में भी शरीक करना चाहती हो ।”
“सुनील तुम...”
“और देवी जी, विशेष रूप से ऐसी औरत के लिये मेरे मन में कोई अच्छी भावनायें पैदा नहीं हो सकतीं, जिसका बगल के कमरे में पति मरा पड़ा हो और वह किसी गैर मर्द के हाथ पकड़ कर उसे कुछ भी देने के और उसकी खातिर ‘कुछ भी करने के’ वादे कर रही हो ।”
रचना ने यूं अपने हांथ सुनील के हाथों से हटाये जैसे अभी तक वह सांप पकड़े बैठी हो । उसके चेहरे ने कई रंग बदले ।
सुनील उठ खड़ा हुआ ।
“सुनील, तुम मुझे गलत समझ रहे हो ।” - वह बोली ।
“मैं तुम्हें गलत समझ रहा था । अब ठीक समझ रहा हूं । मुझे अफसोस है, मेरी इतनी स्पष्ट बातें सुन चुकने के बाद भी तुमने अभिनय करना बंद नहीं किया है ।”
रचना चुप हो गई ।
सुनील उस कमरे के सामने पहुंचा, जिसमें शम्भूदयाल की लाश पड़ी थी । उसने द्वार को धकेला । द्वार के एकदम दूसरी ओर लाश पड़ी होने के कारण द्वार केवल चार पांच इंच ही खुल पाया । उसने भीतर की बत्ती जलाई और अपना सिर द्वार के समीप लाकर भीतर झांकता रहा ।
फिर वह वहां से हट गया ।
“सुनील ।” - रचना एकाएक बोली - “यह मत भूलो कि रिवाल्वर मुझे तुमने दी थी ।”
“धमकी दे रही हो ?”
रचना चुप रही ।
“साथ में पुलिस को यह भी बता देना कि हत्या भी तुमने मेरे ही कहने पर की है । या हो सके तो यही जाहिर करने की कोशिश करना कि हत्या मैंने की है और तुमने अपनी आंखों से मुझे शम्भूदयाल पर गोली चलाते देखा था । तुम अच्छी खासी ऐक्ट्रेस हो, इतना सा काम तो कर ही लोगी ।”
सुनील टेलीफोन की ओर बढा । उसने क्रेडिल से रिसीवर उठा लिया ।
एकाएक उसे एक ख्याल आया ।
“यहां आओ ।” - वह रचना से बोला ।
“क्यों ?” - उसने संदिग्ध स्वर में पूछा ।
“पुलिस को फोन तुम करो ।”
“क्यों ?”
“क्योंकि अगर मैंने फोन किया तो पुलिस के आने तक मुझे यहां ठहरना पड़ेगा और इस समय मैं इस स्थिति में नहीं हूं कि यहां ठहर सकूं ।”
वह सोफे से उठकर उसके समीप आ गई और बोली - “मैं पुलिस को क्या कहूं ?”
“वही जो कुछ हुआ है ।”
रचना ने रिसीवर ले लिया ।
सुनील ने पुलिस का नम्बर डायल कर दिया ।
“और घबराओ नहीं । अगर तुमने सच ही आत्मरक्षा के लिये रिवाल्वर चलाई है तो कोई तुम्हारा बाल भी बांका नहीं कर सकेगा ।”
रचना चुप रही ।
सुनील फ्लैट से बाहर निकल गया ।
***
जिस समय सुनील की मोटर साईकिल यूथ क्लब के कम्पाउन्ड में प्रविष्ट हुई, उस समय रात के साढे तीन बजे थे ।
यूथ क्लब में उल्लू बोल रहे थे ।
केवल फ्रन्ट की एक लाइट जल रही थी । और उसके नीचे चौकीदार बैठा ऊंघ रहा था ।
मोटर साईकिल की आवाज सुनकर वह उठ खड़ा हुआ ।
वह सुनील को पहचानता था ।
“रमाकांत है ?” - सुनील ने मोटर साईकिल स्टैण्ड पर खड़ी करते हुए पूछा ।
“ऊपर बैडरूम में हैं, साहब ।” - चौकीदार बोला ।
“सो रहा है ?”
“नहीं, साहब ।”
“तो ?”
चौकीदार चुप रहा ।
सुनील ने भी दुबारा प्रश्न नहीं पूछा । वह भीतर घुस गया । हाल में से होकर ऊपर जाती हुई लकड़ी की सीढियों के रास्ते से ऊपर पहुचा ।
रमाकांत के कमरे का द्वार धकेल कर वह भीतर घुस गया ।
भीतर के वातावरण पर एक नजर पड़ते ही सुनील की समझ में आ गया कि चौकीदार जबाब देता हुआ चुप क्यों हो गया था ।
कमरा यूं अस्त व्यस्त था जैसे भीतर जंगली हाथी घुस गये हों ।
कमरे के बीचों बैली डान्सर अपने पेट को झटके दे देकर नाच रही थी और रमाकांत भी उसी प्रकार पेट को झटके दे देकर नाचने का प्रयत्न कर रहा था । वह एक क्षण प्रशंसात्मक नेत्रों से नर्तकी का हिलता हुआ पेट देखता था फिर उस पर दोनों हाथ टिका कर मोशन समझने का प्रयत्न करता था । और फिर उसकी नकल करने के प्रयत्न में अपनी कमर मटका देता था ।
वह नशे में धुत्त था ।
“रमाकांत ।” - सुनील ने आवाज दी ।
लेकिन कौन सुनता था । रमाकांत तो दूसरी दुनिया में था ।
नर्तकी ने सुनील को देखा और उसने नाचना बंद कर दिया ।
रमाकांत बदस्तूर अपने दोनों हाथ ऊपर छत की ओर उठाये कमर मटका रहा था ।
“एक्सक्यूज मी, मैडम ।” - सुनील नर्तकी से बोला और उसने रमाकांत की गरदन थाम ली ।
नर्तकी मुस्कराती हुई पलंग पर बैठ गई ।
“क्या कर रही हो, डार्लिंग ?” - रमाकांत मुंह बिगाड़कर बोला ।
सुनील ने उसकी गरदन को एक जोरदार झटका दिया और बोला - “बेटे, मैं सुनील हूं ।”
“अभी तो हमारी शादी भी नहीं हुई, डार्लिंग ।” - रमाकांत बोला -“बेटे कहां से हो गये ? और वह साला सुनील ! मैं अपने बेटे का नाम सुनील तो कभी नहीं रखूंगा । मैं उसका नाम रखूंगा... नाम रखूंगा... नाम रखूंगा... जोहस कांत ।”
सुनील रमाकांत को धकेलता हुआ बाथरूम की ओर को चला । रमाकांत सुनील के सहारे बाथरूम की ओर बढ रहा था और कमर लचका रहा था ।
सुनील ने उसका सिर सिंक के नीचे दे दिया और ऊपर से ठण्डे पानी का नल खोल दिया ।
कुछ देर तो रमाकांत ने परवाह ही नहीं की । फिर वह हाथ पांव पटकने लगा ।
“अबे छोड़ । छोड़ ।”
सुनील ने छोड़ने का कोई उपक्रम नहीं किया ।
रमाकान्त हांथ पांव पटकता रहा ।
“अबे, मैं डूब जाऊंगा ।” - तीन चार मिनट बाद रमाकान्त बोला - “मुझे गोते आ रहे हैं ।”
“मैं कौन हूं, बेटे !”
“तुम मेरे बाप हो । तुम साले सुनील हो । कबाब में हड्डी हो और कितने नाम बताऊं ।”
सुनील ने उसे छोड़ दिया ।
रमाकांत सीधा खड़ा हो गया और हांफने लगा ।
सुनील ने हैंगर से उतार कर एक तौलिया उसकी ओर उछाल दिया ।
रमाकांत ने अपना मुंह और सिर पोंछा । फिर उसने गीला कोट और कमीज भी उतार दी । वह पैंट पहने हुए ही बाहर की ओर बढा और फिर ठिठक गया ।
“क्या हुआ ?”
“देयर इज ए लेडी आउटसाइड ।”
“अच्छा !” - सुनील व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोला ।
“तुम जरा बाहर से गाउन उठा लाओ ।”
सुनील गाउन उठा लाया ।
“क्या बात है ?” - रमाकांत गाउन पहनता हुआ बोला ।
“यहीं बताऊं ?”
“नीचे आफिस में चलो ।”
“होश में आओ । अब उल्टा सीधा बोले तो फिर नल के नीचे सिर दे दूंगा ।”
“ओके । नीचे आफिस में चलो ।”
नर्तकी उन्हें देखकर उठ खड़ी हुई ।
“यू स्टे हेयर हनी ।” - रमाकांत बोला ।
‘हनी’ ने स्वीकृतिसूचक ढंग से सिर हिला दिया ।
रमाकांत उसे नीचे हाल में मुख्य द्वार के पास रिसैप्शन के पीछे बने अपने आफिस में ले आया ।
“RJL 3144 कार के मालिक का पता चला ?” - सुनील ने पूछा ।
“जरा एक मिनट ठहरो ।” - रमाकांत बोला ।
वह अपनी विशाल महोगनी की मेज के सामने जा बैठा । उसने दराज में से चार मीनार का पैकेट निकाला और एक सिगरेट सुलगा लिया ।
सुनील ने भी अपना एक सिगरेट सुलगा लिया ।
जितनी देर में सुनील ने लक्की स्ट्राइक के चार कश लिये, उतनी देर में रमाकान्त ने रेल के इंजन की तरह धुंआ उगलते हुए अपना सारा सिगरेट फूंक दिया ।
कमरा चार मीनार के धुंये से भर गया ।
“खिड़की खोल दो ।” - सुनील बोला ।
“नहीं ।” - रमाकान्त लापरवाही से बोला - “बाहर ठण्ड है । तुम अपनी बात कहो । बेवक्त मजा किरकिरा करने के लिये कहां से आ मरे ?”
“कार का कुछ पता लगा ?” सुनील ने अपना प्रश्न दोहराया ।
रमाकान्त ने मेज के दराज में से एक कागज निकाला और उसे पढता हुआ बोला - “कार नम्बर RJL 3144, ब्लैक एम्बैसेडर । जमनादास नाम के आदमी के नाम रजिस्टर्ड है । जमनादास पार्क रोड पर चौदह नम्बर कोठी में रहता है । और राजीव सक्सेना नाम का कोई डाक्टर रजिस्टर्ड नहीं है ।”
“मेरा भी यही खयाल था ।”
“किस्सा क्या है ?”
“सुनने के मूड में हो ?”
“अब हूं ।”
सुनील ने उसे आद्योपान्त सही घटना कह सुनाई ।
“यह छोकरी तो बड़ी हरामजादी निकली ।” - सारी बात सुनकर रमाकांत चिन्तित स्वर से बोला । उसने एक नया सिगरेट सुलगा लिया ।
सुनील चुप रहा ।
“कहीं वह तुम्हें फंसवा न दे ।”
“मैं सोच रहा हूं, बैंक की चोरी का माल उसके पास है या नहीं ।”
“अब भी शक है तुम्हें ।”
“सम्भव है शम्भूदयाल सच ही दो पार्टियों का सदस्य रहा हो । जमनादास वाली पार्टी सम्भव है वाकई उसे किसी और माल की खातिर तलाश कर रही हो और दूसरी पार्टी सत्य ही रचना से बैंक के डाके का माल हथिया चुकी हो ।”
“लेकिन वे एक ही सीरियल के नोट थे ।”
“सम्भव है उसके बारे में वही बात सच हो जो रचना ने बताई है ।”
“संभव है ।”
सुनील विचारपूर्ण मुद्रा बनाये सिगरेट के कश लगाता रहा ।
“अब क्या इरादा है ?” - रमाकान्त ने पूछा ।
“तुम ऐसा करो, रमाकान्त ।” - सुनील सिगरेट को ऐशट्रे में झोंकता हुआ बोला - “रचना के फ्लैट की निगरानी करवाओ ।”
“उससे क्या होगा ?”
“मैं शम्भूदयाल की हत्या के बारे में पुलिस की गतिविधि जानना चाहता हूं ।”
“मैं किसी को भेज देता हूं ।”
“मैं पार्क रोड पर जा रहा हूं ।”
“जमनादास को टटोलने ?”
“हां ।”
“अकेले जाओगे ?”
“फिलहाल तो ये ही इरादा है ।”
“वे लोग तुम्हें छोड़ेगे नहीं । यह मत भूलो, वे लोग तुम्हारी आंखों पर पट्टी बांध कर तुम्हें अपने अड्डे पर लेकर गये थे । अगर पार्क रोड वाली इमारत ही उनका अड्डा और जमनादास ही उनका बास हुआ तो वे लोग तुम्हें छोड़ेंगे नहीं ।” रमाकान्त ने सिगरेट फेंक दिया और उठता हुआ निश्चयात्मक स्वर में बोला - “मैं भी तुम्हारे साथ चलता हूं ।”
“क्या फायदा होगा ?”
“कुछ तो फायदा होगा ही । एक से दो अच्छे ।”
“लेकिन...”
“बहस मत करो ।”
“मर्जी तुम्हारी ।”
“मैं अपने किसी आदमी को महात्मा गांधी रोड भेजकर और कपड़े बदलकर आता हूं ।”
“ओके ।”
रमाकान्त कमरे से बाहर निकल गया ।
***
रमाकान्त ने अपनी शानदार इम्पाला गाड़ी पार्क रोड की चौदह नम्बर कोठी से थोड़ी दूर रोक दी ।
सुनील और रमाकांत कार में से निकल पड़े ।
रास्ता सुनसान पड़ा था और सारी कोठियां अधेरे के गर्त में डूबी हुई थी ।
दोनों चलते हुए चौदह नम्बर के सामने आ खड़े हुए ।
चौदह नम्बर के सामने के एक दूसरे के शीशों में से प्रकाश की किरणें बाहर फूट रही थीं ।
कोठी के बाहर एक टैक्सी खड़ी थी और उसके हुड के साथ पीठ टिकाये एक आदमी खड़ा था । वह बीड़ी पी रहा था ।
रमाकान्त ने प्रश्नसूचक दृष्टि से सुनील को देखा ।
सुनील ने अनभिज्ञता जताते हुए कन्धे उचका दिये ।
फिर रमाकांत ने सुनील को इशारा किया और दोनों टैक्सी के समीप पहुंच गये ।
“टैक्सी तुम्हारी है भाई ?” - रमाकान्त ने सहज स्वर में पूछा ।
“हां साब ।” - वह आदमी बोला ।
“खाली हो ?”
“नहीं साहब ! सवारी है ।”
“कोई जमनादास जी के यहां आया है ?” - रमाकान्त ने स्वभाविक स्वर में पूछा ।
“डाक्टर साहब, सामने की इमारत में गये हैं ।” - ड्राइवर चौदह नम्बर की ओर संकेत करता हुआ बोला ।
“हां, इसके मालिक जमनादास जी ही हैं । हमारे पड़ोसी हैं ।” - रमाकान्त बोला ।
“डाक्टर ।” - सुनील सतर्क स्वर में बोला - “तुम्हें कैसे मालूम है कि तुम्हारी सवारी डाक्टर है ?”
“उन्होंने खुद ही बताया था डाक्टर साहब ।” - ड्राइवर बोला - “कह रहे थे, मैं डाक्टर हूं और एक एमरजैन्सी केस देखने के लिये मुझे फौरन पहुंचना है और मैं गाड़ी जितनी ज्यादा तेज चला सकता हूं, चलाऊं । मैं तो गाड़ी को उड़ाता हुआ यहां लाया हूं ।”
“डाक्टर साहब को गये कितनी देर हो गई है ?”
“आधे घन्टे से ज्यादा हो गया है साहब ।”
“कोई बीमार होगा ।” - रमाकांत लापरवाही से बोला ।
“डाक्टर साहब को कहां से लाये थे तुम ?” - सुनील ने पूछा ।
ड्राइवर ने संदिग्ध नेत्रों से सुनील की ओर देखा ।
“मैं यह इसलिये पूछ रहा हूं कि क्या तुम डाक्टर साहब को छोड़ कर वापिस यहां आ सकते हो ?”
“नहीं साहब, नेताजी सुभाष रोड से यहां वापिस आने में चौदह मील का चक्कर पड़ जायेगा ।”
“चलो कोई बात नहीं ।”
उसी क्षण रमाकांत ने सुनील का हाथ दबाया ।
चौदह नम्बर इमारत का सामने का दरवाजा खुल रहा था ।
दोनों चुपचाप आगे बढ गये और दो इमारतों के बीच में एक खाली प्लाट के अंधेरे में छिप गये ।
दो आदमी कम्पाउन्ड के गेट तक आये । एक के हाथ में एक मैडिकल से मिलता जुलता बक्सा था, वह शायद डाक्टर था । उसने दूसरे आदमी से हाथ मिलाया और टैक्सी की पिछली सीट पर आ बैठा ।
टैक्सी वाला भी ड्राइविंग सीट पर बैठ गया । उसने टैक्सी स्टार्ट कर दी ।
दूसरा आदमी इमारत में घुस गया ।
टैक्सी जिस समय खाली प्लाट के सामने से गुजरी उस समय पिछली सीट पर बैठे हुए आदमी ने टैक्सी से बाहर हाथ निकाल कर कोई चीज खाली प्लाट में उछाल फेंकी ।
सुनील के पाव के पास एक खट्ट की आवाज हुई ।
रमाकांत ने भी वह आवाज सुनी । उसने सिगरेट लाइटर जलाया और उसके प्रकाश में जमीन पर देखने लगा ।
सुनील के पांव से थोड़ी दूर एक चमकदार चीज पड़ी थी ।
रमाकांत ने जेब से रुमाल निकालकर हाथ में लपेट और उसे उठा लिया ।
“गोली !” - वह बोला ।
“क्या ?”
“यह गोली है । 38 कैलिबर की मालूम होती है । किसी के शरीर से निकाली गई है । इसका मतलब यह हुआ कि चौदह नम्बर इमारत में किसी को गोली लगी है और डाक्टर साहब गोली निकालने आये थे ।”
“ऐसा ही मालूम होता है ।”
“तुमने डाक्टर की सूरत देखी थी ?”
“टैक्सी के भीतर के प्रकाश में हलकी सी झलक तो दिखाई दी थी ।”
“उसे दुबारा पहचान लोगे ?”
“संभव है । क्यों ?”
“वह नेताजी सुभाष रोड से आया था याद रखना । शायद उसे घेरना पड़े ।
“अच्छा । वैसे मैंने टैक्सी का नम्बर नोट कर लिया है ।”
“गुड ।”
“अब क्या इरादा है ?”
“रमाकन्त ।” - सुनील गम्भीर स्वर में बोलला - “मैं चौदह नम्बर इमारत के भीतर जाता हूं ।”
“क्या ? पागल हुए हो ?”
“तुम मेरी बात तो सुनो ।”
“वे लोग तुम्हारी चटनी बना देंगे ।”
“कुछ नहीं होगा । इसी सड़क के मोड़ पर एक पब्लिक टेलिफोन बूथ है । तुम वहां चले जाओ । चौदह नम्बर में टेलिफोन की तारें जाती दिखाई दे रही है मुझे । ठीक पांच मिनट बाद तुम उस इमारत में टेलिफोन कर देना और कहना कि तुम मुझसे बात करना चाहते हो । अगर वे लोग बात न करवायें तो समझना कि उन्होंने मुझे पकड़ लिया है और तुम पुलिस को फोन कर देना । लेकिन अगर बात करवा भी दें तो भी केवल पांच मिनट मेरे इमारत से बाहर निकलने की प्रतीक्षा करना । अगर उतने समय में मैं बाहर न आऊं तो भी पुलिस को फोन कर देना । ओके ।”
“ओके ।” - रमाकांत संदिग्ध स्वर में बोला ।
“मैं चला ।” - सुनील इमारत की ओर बढ गया ।
रमाकांत कार में जा बैठा और सड़क के मोड़ की ओर चला दिया ।
इमारत के कम्पाउन्ड का फाटक ठेल कर सुनील भीतर घुस गया । पोर्च में जाकर उसने काल बेल बजा दी और प्रतीक्षा करने लगा ।
सामने के कमरे में प्रकाश अब भी था ।
द्वार लगभग फौरन ही खुल गया ।
द्वार पर वही गंजा आदमी खड़ा था जिसे चन्दन बास के नाम से सम्बोधित कर रहा था ।
“हल्लो, बास ।” - सुनील मुस्कराता हुआ व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोला ।
गंजे के मुंह से बोल नहीं फूंटा । वह हक्का बक्का सा सुनील का मुंह ताकने लगा ।
“मुझे भीतर आने को हीं कहेंगे, आप ?”
“ओह क्यों नहीं, क्यों नहीं ।” - गंजा हड़बड़ाकर बोला - “तशरीफ लाइये ।”
वह एक ओर हट गया ।
सुनील भीतर घुस गया ।
वह एक बड़ा सा बैडरूम था ।
पलंग पर नेत्र बन्द किये चंदन पड़ा था । उसने गले तक कम्बल ओढा हुआ था, उसकी बगल में उसका वही साथी बैठा हुआ था जो दिन में सुनील को रिवाल्वर दिखाकर वहां तक लाया था ।
सुनील पर नजर पड़ते ही वह फुर्ती से उठा और उसने दीवार पर टंगे एक कोट की जेब में से रिवाल्वर निकाल ली ।
गंजे ने द्वार भीतर से बन्द करके उसके स्प्रिंग लाक में चाबी घुमा दी और चाबी अपने जेब में डाल ली ।
चन्दन ने भी नेत्र खोल दिये ।
सुनील पर नजर पड़ते ही वह यूं घबराया जैसे भूत देख लिया हो ।
सुनील मुस्कराता रहा ।
“तशरीफ रखिये ।” - गंजा बोला ।
“थैंक्यू ।” - सुनील बोला और गंजे के सामने एक कुर्सी पर बैठ गया ।
रिवाल्वर वाला गंजे की ओर देख रहा था । और आर्डर मिलने की प्रतीक्षा कर रहा था ।
“आप यहां कैसे आ गये ?” - गंजे ने कठोर स्वर में पूछा ।
“आप ही ने तो बुलाया था ?” - सुनील बनावटी हैरानी जाहिर करता हुआ बोला ।
“मैंने बुलाया था ?” - गंजा अचकचा कर बोला ।
“और नहीं तो क्या ? आप ही ने तो मुझे आफर दी थी कि अगर मैं शम्भूदयाल का पता आपको बता दूं तो आप मुझे दस हजार रुपये देंगे ।”
“आपने शम्भूदयाल का पता लगा लिया है ?”
“जी हां ।”
“और यही बताने आप यहां आये हैं ?”
“जी हां, लेकिन मुफ्त में बताने नहीं, दस हजार रुपये के बदले में जानकारी बेचने आया हूं ।”
“आप यहां पहुंचे कैसे ?”
“चल कर ।”
“मेरा मतलब है आपको इस स्थान का पता कैसे लगा ? हमने तो हर प्रकार की सावधानी बरती थी...”
“फिर भी मैं यहां पहुंच गया ।”
“कैसे ?”
“चन्दन जिस कार पर मुझे घर छोड़ने गया था, उसका नम्बर देख कर ।”
गंजे ने आग्नेय नेत्रों से चन्दन की ओर देखा ।
“लेकिन... लेकिन मैं तो” - चन्दन हड़बड़ाया - “मैं तो इसको फ्लैट में बन्द करके गया था और इस बात का पूरा ख्याल रखा था कि वह कार का नम्बर न देख ले । मैं तो...”
“शट अप ।” - गंजा दांत पीसता हुआ बोला ।
चन्दन कसमसा कर चुप हो गया ।
“आपको क्या हो गया है, साहब ?” - सुनील ने चन्दन से पूछा ।
“यह एक ऐक्सीडैन्ट में घायल हो गया है ।” - उत्तर गंजे ने दिया ।
“अच्छा ।” - सुनील बनावटी हमदर्दी दिखाता हुआ बोला - “च- च-च ।”
“आपने यहां आकर अच्छा नहीं किया, साहब ।” - गंजा चिन्तित स्वर में बोला ।
“क्या अच्छा नहीं किया ?”
“मैं चुपचाप काम करना पसन्द करता हूं । मैं इस बात का हमेशा खास ख्याल रखता हूं कि मेरी जानकारी किसी बाहरी आदमी को न हो । मैं अपनी दाढी किसी दूसरे के हाथ में देना पसंद नहीं करता !”
“आपके दाढी है ही कहां ?”
“मजाक मत करो । मिस्टर, अब तुम यहां से वापिस नहीं जाओगे ।”
“मुझे आपसे ऐसी ही किसी धमकी की आशा भी थी ।” - सुनील बोला - “लेकिन मैं आपको विश्वास दिलाता हूं आप मुझे रोक नहीं सकेंगे ।”
“यह बात आप तब कह रहे हैं जब तक रिवाल्वर आपकी ओर तनी हुई है और उसमें से निकली हुई गोली कभी भी आपके सीने से पार हो सकती है ।”
“ऐसा कुछ नहीं होगा ।” - सुनील निश्चित स्वर में बोला- “मैं अपनी हिफाजत का पूरा इन्तजाम करके आया हूं ।”
“क्या इन्तजाम करके आये हैं आप ?”
उसी क्षण कोने में रखे टेलीफोन की घंटी बज उठी ।
रिवाल्वर वाले ने प्रश्नसूचक दृष्टि से गंजे की ओर देखा ।
गंजे ने सिर हिला दिया ।
रिवाल्वर वाले ने रिसीवर उठाकर कान से लगा लिया ।
“कोई सुनील को पूछ रहा है ?” - कुछ क्षण सुन चुकने के बाद रिवाल्वर वाला बोला ।
“क्या ?” - गंजा हैरानी से बोला और सुनील का मुंह देखने लगा ।
“जी हां ।” - रिवाल्वर वाला बोला - “और वह कह रहा है अगर उसकी फौरन सुनील से बात न करवाई गई तो वह पुलिस को फोन कर देगा ।”
“तो अपना यह इन्तजाम किया था आपने ।” - गंजा बड़बड़ाया ।
सुनील मुस्कराया ।
“टेलीफोन साहब को दे दो ।” - गंजा निर्णयात्मक स्वर में बोला ।
रिवाल्वर वाले ने अनिच्छापूर्ण भाव से रिसीवर सुनील की ओर बढा दिया ।
सुनील ने रिसीवर ले लिया और बोला - “हल्लो.. हां, फिलहाल सब ठीक है.. मुझे एक धमकी मिल चुकी है । ...अगर मैं पांच मिनट तक इमारत से बाहर न निकलूं तो वही करना जो मैंने कहा था । ...ओके ।”
सुनील ने रिसीवर रख दिया ।
“तो आपने अपना यह इन्तजाम किया था ?” - गंजा बोला ।
“जी हां ।” - सुनील निडर स्वर में बोला और फिर उसके सामने आ खड़ा हुआ ।
“आपका साथी कहां से बोल रहा था ?”
सुनील ने उत्तर देने का उपक्रम नहीं किया ।
“अगले पांच मिनट में आप यहां से बाहर न निकले तो वह क्या करेगा ?”
सुनील फिर भी चुप रहा ।
“आप चाहते क्या हैं ?” - गंजा झुंझलाकर बोला ।
“मैं क्या चाहता हूं, मैं पहले ही बता चुका हूं । आपने अपने जुबान का पक्का होने के बड़े राग गाये थे और कहा था कि शम्भूदयाल के बारे में आप किसी भी प्रकार की जानकारी कभी भी खरीदने को तैयार हैं । आपने कहा था कि अगर मैं आपको शम्भूदयाल का पता बता दूं तो आप मुझे दस हजार रुपये देंगे । आप दस हजार रुपये निकालिये, मैं आपको शम्भूदयाल का पता बताता हूं ।”
“अब हमें शम्भूदयाल में कोई दिलचस्पी नहीं है ।” - गंजा बोला ।
“क्यों ? अब क्या हो गया है ? केवल बारह घंटे पहले तो आप शम्भूदयाल के बारे में किसी भी प्रकार की जानकारी हासिल करने के लिए मरे जा रहे थे ?”
“अब हमारा काम हो गया है । जिस माल की खातिर हम शम्भूदयाल की तलाश कर रहे थे, वह हमें किसी और आदमी के पास से हासिल हो गया है ।”
“आप दस हजार रुपये का बहाना बना रहे हैं ।”
“अच्छी बात है बहाना ही सही ।”
“मतलब यह कि आप दस हजार रुपये नहीं देना चाहते ।”
“जी हां, ये ही मतलब है ।”
“अच्छी बात है ।” - सुनील बोला और द्वार की ओर बढा । गंजे ने चाबी रिवाल्वर वाले की ओर उछाल दी और उसे द्वार खोलने का संकेत किया ।
“लेकिन बास..” - रिवाल्वर वाले ने प्रतिवाद किया ।
“साहब को जाने दो ।”
रिवाल्वर वाला अनिश्चित भाव से गंजे का मुंह देखता रहा ।
“साहब हमारा कुछ बिगाड़ नहीं सकते हैं ।” - गंजा बोला - “ये कभी सिद्ध नहीं कर सकते कि तुम लोग इन्हें दोपहर में यहां जबरदस्ती लेकर आये थे ।”
रिवाल्वर वाले ने अनिच्छापूर्ण भाव से द्वार खोल दिया ।
“एक बार फिर सोच लीजिये, साहब ।” - सुनील द्वार के समीप पहुंचकर बोला - “क्या आप वाकई शम्भूदयाल का पता नहीं जानना चाहते हैं ?”
“आउट ।” - गंजा होंठ सिकोड़कर बोला ।
सुनील चुपचाप बाहर निकल आया ।
वह कम्पाउण्ड को पार करके सड़क पर आ गया ।
उसी क्षण रमाकान्त ने अपनी गाड़ी लाकर उसकी बगल में रोक दी ।
सुनील कार में रमाकांत की बगल में बैठ गया ।
रमाकांत ने गाड़ी आगे बढा दी ।
“कहां ?” - रमाकान्त ने पूछा ।
“वापिस ।” - सुनील बोला ।
रमाकान्त ने गाड़ी यूथ क्लब की ओर जाने वाली सड़क पर डाल दी ।
“क्या हुआ था ?” - रमाकान्त ने पूछा ।
“बात कुछ बनी नहीं, यार । ये लोग शम्भूदयाल में कोई दिलचस्पी ही नहीं ले रहे हैं ।”
“क्यों ?”
“कहते हैं हमें अब उसकी जरूरत नहीं रही । यही लोग पूरे दस दिन शम्भूदयाल की खातिर इम्पीरियल होटल पर डेरा डाले बैठे रहे थे । केवल बारह घंटे पहले गंजा मुझे शम्भूदयाल की जानकारी के बदले में दस हजार रुपये देने के लिए तैयार था और अब उसे इस बात की भी परवाह नहीं है कि शम्भूदयाल मर गया है कि जिन्दा ।”
“कहीं उन्हें सच ही तो यह पता नहीं लग गया है कि शम्भूदयाल मर चुका है ।”
“कुछ तो बात होगी ही ।”
रमाकान्त कुछ नहीं बोला ।
रमाकांत ने गाड़ी यूथ क्लब के सामने ला खड़ी की ।
***
रमाकान्त ने सुनील को झिंझोड़कर जगाया ।
सुनील ने एक अंगड़ाई ली और उठकर बैठ गया ।
सूर्य की किरणें खिड़की के शीशों में से कमरे में फूट रही थी ।
उसने घड़ी देखी । नौ बज चुके थे ।
वे लोग सुबह साढे चार बजे यूथ क्लब वापिस लौटे थे । सुनील अपने फ्लैट पर नहीं गया था ।
रमाकांत के पलंग पर बैली डान्सर जोहरा सोई पड़ी थी । रमाकांत तो उसी के साथ पलंग पर जा लेटा था और सुनील नीचे रमाकान्त के आफिस में सोफे पर सो गया था ।
“तुम सोये नहीं ?” - सुनील ने रमाकान्त से पूछा ।
“एक दो घंटे सोया था ।” - रमाकान्त बोला - “बाकी समय तो मैं अपने आदमियों की रिपोर्ट ही सुनता रहा ।”
“कोई नई बात ?”
“कई हैं ? इसीलिए तो तुम्हें जगाया है ।”
“क्या ?”
“पहली बात तो यह है कि पुलिस ने रचना को अपने पति की हत्या के इल्जाम में गिरफ्तार कर लिया है ।”
“हत्या के इल्जाम में क्यों ? उसने तो आत्मरक्षा के लिये गोली चलाई थी ।”
“आत्मरक्षा ! माई फुट । प्यारे, वह औरत तो बेहत छटी हुई है । उसने जान-बूझकर अपने पति की हत्या की है ।”
“लेकिन...”
“लेकिन - वेकिन कुछ नहीं । गोली शम्भूदयाल की पीठ में लगी है । अब कोई आत्मरक्षा के लिए गोली चलाता है तो गोली आक्रमणकारी की पीठ में नहीं जा लगती है ।”
“लेकिन यह कैसे मुमकिन है ? रचना तो कह रही थी कि उसने गोली तब चलाई थी जब शम्भूदयाल उसका गला दबाने की कोशिश कर रहा था ।”
“वह झूठ बोल रही थी । उसने गोली तब चलाई थी जब शम्भूदयाल उससे बचने के लिए अपनी जान लेकर बाहर की ओर भाग रहा था । बैलेस्टिक एक्स्पर्ट की रिपोर्ट के अनुसार गोली कम से कम दस फुट के फासले से चलाई गई थी । रचना के बैडरूम के द्वार में और उसके पलंग में लगभग इतना ही फासला है । प्यारे उस औरत ने तो जान-बूझकर कत्ल किया है ।”
सुनील सोचने लगा ।
“उसने स्वीकार किया है कि उसने गोली चलाई है । रिवाल्वर कमरे में ही पड़ी मिली है ।”
“उस पर उंगलियों के निशान हैं ?”
“निशान तो हैं लेकिन वे बहुत अस्पष्ट हैं । फिंगर प्रिन्ट एक्स्पर्ट उनसे कोई नतीजा नहीं निकाल पाया है । लेकिन ऐसी सूरत में उंगलियों के निशानों का महत्व ही क्या है ? जबकि रचना यह बात स्वीकार करती है कि उसने आक्रमाणकारी पर गोली चलाई है और वह उसकी गोली का शिकार भी हुआ है । डाक्टर ने पोस्टमार्टम द्वारा शम्भूदयाल के शरीर से गोली निकाल ली है और बैलेस्टिक एक्स्पर्ट की रिपोर्ट के अनुसार वह गोली उसी रिवाल्वर से निकली है । प्यारे, रचना झूठ बोल रही है, आत्मरक्षा के बहाने वह हत्या छुपाने की कोशिश कर रही है । उसने अपने पति को तब शूट किया है जब वह रचना के हाथ में रिवाल्वर देखकर अपनी जान बचाने के लिए कमरे से भागा जा रहा था ।”
“और कुछ ?” - सुनील ने पूछा ।
“शम्भूदयाल की जेब में से दस हजार रुपये के सौ सौ के नोट निकले हैं । वे नोट एकदम नये हैं और एक ही सीरियल के हैं ।”
“उन नोटों की शम्भूदयाल की जेब में बरामदी से इस बात की और भी पुष्टि हो जाती कि शम्भूदयाल ही मुरारी था ।”
“राइट ।”
“और ?”
“उस रात वाले डाक्टर का भी पता लग गया है ।”
“कौन है वह ?”
“उसका नाम दीनदयाल शर्मा है । नेता जी सुभाष रोड पर उसका क्लिनिक है और क्लिनिक के ऊपर ही वह रहता है ।”
“गुड ।”
“सुनील ।” - रमाकांत गम्भीर स्वर से बोला - “इस केस से सबक लेकर एक कसम खा लो कि आगे से तुम केवल लड़की की खूबसूरती से प्रभावित होकर यह नहीं समझ लिया करोगे कि वह सत्य ही बोल रही है ।”
“शायद वह सच ही बोल रही हो ।” सुनील यूं बोला जैसे वह अपने आप से बातें कर रहा हो ।
“रचना सच बोल रही हो ?”
“हां । रमाकांत, मेरे दिमाग में इस सारी स्थिति का एक हल है ।”
“क्या ?”
“बाद में बताऊंगा । पहले मैं एक बार फिर रचना से बात कर लूं ।”
“बशर्ते कि पुलिस तुम्हें उससे बात करने दे ।”
“वह है कहां ?”
“महात्मा गांधी रोड के थाने में ।”
***
“मैं रचना का भाई हूं ।” - सुनील महात्मा गांधी रोड के थाने के इंचार्ज इन्सपेक्टर को बता रहा था ।
इन्सपेक्टर ने उसे सिर से पांव तक घूरा और फिर बोला - “तशरीफ रखिए ।”
सुनील बैठ गया ।
“फरमाइये ।” - इन्सपेक्टर बोला - “क्या खिदमत कर सकता हूं मैं आपकी ?”
“मैं अपनी बहन की जमानत देने आया हूं ।”
“मिस्टर ।” - इन्सपेक्टर कठोर स्वर से बोला - “आपकी बहन ने खून किया है और खून के अपराध में पकड़े गए अपराधियों की जमानत नहीं होती है । वैसे भी जमानत अदातल में मजिस्ट्रेट स्वीकार कर सकता है, हम लोग नहीं ।”
सुनील यूं दीन-हीन मुद्रा बनाए इन्सपेक्टर को देखता रहा जैसे उसे कानून की कतई जानकारी न हो ।
“क्या आपको विश्वास है कि गोली मेरी बहन ने ही चलाई है ?” - उसने डरते-डरते पूछा ।
“हमें क्या खुद आपकी बहन को विश्वास है कि गोली उसने चलाई है ।”
सुनील चुप हो गया और मूर्खों की तरह इन्सपेक्टर का मुंह देखने लगा ।
“क्या मैं” - उसने डरते-डरते पूछा - “एक मिनट के लिए अपनी बहन से मिल सकता हूं ?”
इन्सपेक्टर ने पहले तो आदतन इन्कार करने के ले मुंह खोला, फिर उसने सुनील के मूर्खतापूर्ण चेहरे को देखा और फिर उसने जोर से आवाज लगाई - “हवलदार !”
एक सिपाही कमरे में प्रविष्ट हुआ और उसने इन्सपेक्टर को सलाम ठोक दिया ।
“साहब को रचना से मिला दो ।” - इन्सपेक्टर ने आदेश दिया और फिर सुनील से बोला - “जाइये ।”
सुनील कृतज्ञता की प्रतिमूर्ति बनता हुआ उठ खड़ा हुआ और हवलदार के साथ चल दिया ।
हवलदार उसे थाने की हवालात में ले आया ।
उसने एक कोठरी का जंगलेदार द्वार खोला और सुनील को संकेत किया ।
सुनील भीतर घुस गया ।
हवलदार द्वार पर ही खड़ा रहा ।
भीतर एक बैंच पर सिर झुकाये रचना बैठी थी ।
कदमों की आहट सुनकर उसने सिर उठाया ।
सुनील ने देखा, उसका चेहरा राख की तरह सफेद था । कुछ ही घंटों में वह कई वर्ष बूढी लगने लगी थी । वह भयभीत लग रही थी ।
सुनील को देखकर उसके नेत्रों में एक क्षीण-सी चमक दिखाई दी जो फौरन ही बुझ गई ।
सुनील उसी बैंच पर उसके सामने जा बैठा ।
“अपनी वर्तमान स्थिति के बारे में तुम्हारा क्या ख्याल है ?” - सुनील ने धीमे स्वर में पूछा ।
रचना कुछ न बोली ।
“तुम फंस गई हो । तुमने जान-बूझकर उसकी हत्या की थी ?”
रचना ने सिर उठाकर उसकी ओर देखा और फिर नकारात्मक ढंग से सिर हिला दिया ।
“तुमने गोली तब चलाई थी, जब वह तुम्हारा गला घोंटने की कोशिश कर रहा था ?”
“हां ।” - रचना कठिन स्वर में बोली ।
“गोली उसके लगी थी ?”
“हां ।”
“तुम्हें कैसे मालूम है ?”
“उसकी उंगलियों की पकड़ मेरी गरदन से छूट गई थी । मैंने उसे चीख मारकर फर्श पर गिरते देखा था ।”
“और तुम रिवाल्वर फेंककर बैडरूम से बाहर भाग गई थीं ?”
“हां ।”
“तुम यह समझती हो कि जो कहानी तुमने सुनाई है उसके अनुसार मृत की पीठ में गोली लग पाना असम्भव है ?”
“हां ।”
“इससे तुम्हारी आत्मरक्षा के लिए गोली चलाने वाली कहानी झूठी सिद्ध होने लगती है ।”
उसने स्वीकारात्मक ढंग से सिर हिला दिया ।
“अंजाम भी जानती हो ?”
रचना चुप रही ।
“तुम्हें फांसी की सजा हो सकती है ।”
सुनील कई क्षण उसे घूरता रहा और फिर गम्भीर स्वर में बोला - “मैं तुम्हें बचा सकता हूं ।”
रचना ने एकदम झटके से सिर उठाया । उसके नेत्रों में अविश्वास की स्पष्ट झलक थी ।
“मैं तुम्हें बचा सकता हूं ।”
“कैसे ?”
“एक शर्त पर ।”
“क्या ?”
“तुम मुझे यह बता दो कि बैंक का लूट का माल तुमने कहां छुपाया हुआ है ?”
“लेकिन वह माल तो मेरे पास है ही नहीं । वह तो...”
“देखो, अगर तुमने अभी भी झूठ ही बोलना है तो मैं समझता हूं तुम्हें अपनी जान प्यारी नहीं है ।” सुनील उठ खड़ा हुआ - “मैं चलता हूं ।”
सुनील ने द्वार की ओर बढने का उपक्रम किया ।
“तुम सुनो ।” - रचना व्यग्र स्वर में बोली ।
“तुम मुझे कैसे बचा सकते हो ?”
“मेरे पास एक तुरुप का पत्ता है ।”
“क्या ?”
“पहले तुम मेरे सवाल का जवाब दो । लूट का माल कहां छुपाया है तुमने ?”
“नैशनल बैंक के लाकर में ।” - रचना कठिन स्वर में बोली ।
“क्या ?” - सुनील हैरानी से बोला - “तुम्हारा मतलब है माल उसी बैंक के लाकर में रखा हुआ है, जिसमें से वह चुराया गया था ।”
“हां, मुझे वही स्थान सबसे सुरक्षित लगा था ।”
“सारा धन वहीं है ?”
“केवल दस हजार रुपये कम हैं, जो मैंने मुरारी को दिए थे ।”
“लाकर नम्बर ?”
“सत्तर ।”
“चाबी ?”
“मेरे ड्राईंगरूम के सोफे की लाइनिंग में मिली हुई है ।”
“लाकर तुमने अपने नाम से लिया है ?”
“नहीं । शालिनी मेहता के नाम से ।”
सुनील ने अपने जेब से एक कागज और पैन निकाला और रचना की ओर बढाता हुआ बोला - “लिखो । मैं इस पत्र के संवाहक को अपना नैशनल बैंक का सत्तर नम्बर लाकर खोलने का अधिकार देती हूं । नीचे हस्ताक्षर कर के तारीख डाल दो ।”
रचना ने हिचकिचाते हुए अधिकार पत्र लिखा दिया ।
सुनील ने कागज मोड़ कर जेब में रखा और विश्वासपूर्ण स्वर में बोला - “आज की तारीख में तुम जेल से बाहर होवोगी ।”
वह द्वार के समीप पहुंचा और तनिक उच्च स्वर में बोला - “घबराना नहीं बहन । मैं तुम्हारे लिए नगर का सबसे बड़ा वकील करने जा रहा हूं ।”
वह बाहर निकल आया ।
***
“मेरा नाम सुनील है । मैं ब्लास्ट का रिपोर्टर हूं ।” - सुनील बोला ।
नैशनल बैंक का मैनेजर पचास साल का मोटा ताजा, स्वस्थ वृद्ध था । उसने नाक पर रखे चश्मे की ओट में से सुनील को देखा, घूरा, परखा और फिर व्यवसायिक स्वर में बोला - “तशरीफ रखिए ।”
सुनील उसकी विशाल मेज के सामने रखी कुर्सियों में से एक पर बैठ गया ।
“फरमाइये ।” - मैनेजर बोला ।
“पिछले दिनों आप के बैंक में जो डाका पड़ा था, उसके विषय में मैं आप से कुछ प्रश्न पूछना चाहता हूं ।”
“लेकिन मिस्टर...”
“और मैं आपको विश्वास दिलाता हूं कि उन प्रश्नों के उत्तर देने के आपका हित ही होगा अहित नहीं ।”
“अच्छी बात है, पूछिये ।”
“कितनी रकम चुराई गई थी ?”
“लगभग साठ लाख रुपये ।”
“रकम वापस मिलने की कुछ उम्मीद है ?”
“क्या उम्मीद होगी । डाका पड़े एक महीना होने को आया है, पुलिस अभी तक डाके में शामिल एक आदमी का पता नहीं लगा पाई है ।”
“साठ लाख रुपये बहुत बड़ी रकम होती है ।”
“यह आप मुझे बता रहे हैं ?”
“अगर वह रकम मैं आपको वापिस दिला दूं तो आप मुझे क्या इनाम देंगे ।”
मैनेजर ने एकदम घूर कर सुनील को देखा ।
“क्या कर रहे हो ?” - वो बोला ।
“वही जो आपने सुना है ।”
“तुम रकम वापिस दिला सकते हो ?”
“हां ।”
“तुम्हें मालूम है कि डाका किसने डाला था ?”
“मुझे मालूम है कि रकम आपको वापिस कैसे मिल सकती है ।”
“कैसे मिल सकती है ?”
“आपने अभी मेरे पहले सवाल का जवाब नहीं दिया ।”
“क्या इनाम चाहते हो ।”
“पचास हजार रुपये ।”
मैनेजर के मुंह से सीटी निकल गई ।
“यह तो बहुत बड़ी रकम होती है ?” - वह बोला ।
“यह चोरी गई रकम के एक प्रतिशत से भी कम है ।”
“फिर भी इनाम के नाते...”
“और मैं आपको विश्वास दिलाता हूं पुलिस उस रकम का एक नया पैसा भी आपको वापिस नहीं दिला पायेगी ।”
“फिर भी...”
“और फिर आप यह क्यों नहीं सोचते हैं कि जो रकम मैं आपको वापिस दिलाने की बात कर रहा हूं, वह मैं खुद भी हड़प सकता हूं ।”
“यू आर सीरियस ?”
“क्वाईट ।”
मैनेजर उठ खड़ा हुआ ।
“मुझे इस विषय में डायरेक्टर से बात करनी होगी ।”
“कर लीजिए ।”
“तुम यहीं बैठो । मैं आता हूं ।”
“कितनी देर में ?”
“तीस मिनट में ।”
“बेहतर । एक ख्याल रखियेगा । बैंक के डायरेक्टर की जगह पुलिस से बात करने मत चले जाइयेगा । उस सूरत में आप साठ लाख रुपये खो बैठेंगे । मैं साफ मुकर जाऊंगा कि मैंने ऐसा कोई वादा नहीं किया था कि मैं आपको लूट का माल वापिस दिला सकता हूं ।”
“घबराइये नहीं । ऐसा कुछ नहीं होगा ।”
“मैं नहीं घबरा रहा हूं ।”
मैनेजर बाहर निकल गया ।
सुनील ने लक्की स्ट्राइक का पैकेट निकाल कर सामने रख लिया और एक सिगरेट सुलगा लिया ।
पांच सिगरेट के बाद मैनेजर वापिस लौटा । उसके साथ एक अन्य वृद्ध था ।
“मैनेजिंग डायेरेक्टर आफ दी बैंक ।” - मैनेजर परिचय कराता हुआ बोला - “ही इज दि मैन सर, मिस्टर सुनील ।”
सुनील ने उठकर डाइरेक्टर से हाथ मिलाया ।
“अपनी आफर के मामले में आप गम्भीर हैं, मिस्टर सुनील ?” - डायरेक्टर ने पूछा ।
“एकदम गम्भीर हूं ।”
“ठीक है, फिर आप हमें माल वापिस दिलाइये, आपका पचास हजार रुपये का इनाम पक्का है ।”
“इसके अलावा दो-तीन छोटी-छोटी बातें और हैं ।” - सुनील बोला ।
“क्या ?” - डायरेक्टर ने सशंय स्वर में पूछा ।
“आप किसी को यह नहीं बतायेंगे कि लूट का माल आपको मेरी सूचना के अनुसार वापिस मिला है ।”
“और ?”
“रुपया आप ही के बैंक के एक लाकर में मौजूद है ।”
“क्या ?” - डायरेक्टर और मैनेजर दोनों एक साथ बोले ।
“जी हां । पुलिस द्वारा तहकीकात किये जाने पर आप या आपके बैंच का कोई कर्मचारी ऐसा कोई बयान नहीं देगा जिससे लाकर किराये पर लेने वाले का पता लगाया जा सके ।”
“क्या मतलब ?”
“मतलब यह कि कोई लाकर के मालिक का हुलिया वगैरह बयान करने का प्रयत्न नहीं करेगा ।”
“लेकिन” - मैनेजर ने प्रतिवाद किया - “जब पुलिस हम से पूछेगी कि हमें धन का सुराग कहां से मिला तो क्या कहेंगे ?”
“आप कह दीजियेगा कि किसी अनजाने आदमी ने आपको फोन किया था कि आप ही के बैंक के लाकर में लूट का माल मौजूद है । और उसी ने डाक द्वारा आपको लाकर खोलने के लिए अथारिटी लैटर भी भेज दिया था ।”
“लेकिन हम अथारिटी लैटर कहां से लायेंगे ?”
“वह मैं दूंगा ।”
“और कोई शर्त ?”
“बस ।”
“अच्छी बात है । हमें तुम्हारी शर्तें मंजूर हैं ।”
“तो लाइये ।” - सुनील हाथ फैलाकर बोला ।
“क्या !” - मैनेजर ने उलझनपूर्ण स्वर में पूछा ।
“पचास हजार रुपये ।”
“लेकिन पहले हमें धन तो मिलने दो ।”
“वह तो मिल ही जायेगा ।”
मैनेजर ने डायरेक्टर की ओर देखा ।
“तुम्हारा पूरा नाम क्या है ?” - डायरेक्टर ने पूछा ।
“सुनील कुमार चक्रवर्ती ।”
“कौन-सा पेपर है तुम्हारा ?”
“ब्लास्ट ।”
डायरेक्टर लम्बे डग भरता हुआ टैलीफोन के समीप पहुंचा और रिसीवर उठा कर बोला - “आपरेटर कनैक्ट मी टु एडीटर आफ ब्लास्ट ।”
डायरेक्टर कुछ क्षण प्रतीक्षा करता रहा और फिर फोन में बोला - “हल्लो, एडीटर साहब मैं नैशनल बैंक का मैनेजिंग डायरेक्टर बोल रहा हूं.. क्या आप के पेपर में कोई सुनील कुमार चक्रवर्ती नाम का रिपोर्टर है ? ...है । ..कैसा आदमी है ? ..जी नहीं मेरा मतलब था कि क्या रुपये पैसे के मामले में हम उसका विश्वास कर सकते है ? ...अच्छा ! ..जी नहीं नहीं कोई खास बात नहीं थी । ....धन्यवाद ।”
डायरेक्टर ने टेलीफोन रख दिया और मैनेजर से बोला - “दे दो ।”
मैनेजर कमरे से बाहर निकल गया ।
डायरेक्टर प्रशन्सापूर्ण नेत्रों से सुनील को देख रहा था ।
सुनील ने सिर भी नहीं उठाया ।
एक मिनट बाद मैनेजर वापिस लौटा । उसने सौ-सौ के नोटों की पांच गड्डियां सुनील की ओर बढा दीं ।
सुनील नोटों को लापरवाही से जे में ठूंसता हुआ बोला - “लाकर दिखाइये ।”
तीनों बैंक के नीचे बने हुए तहखाने में पहुंच गए ।
लाकर एक विशाल हाल के साथ बने हुए थे ।
“सत्तर नम्बर ।” - सुनील बोला ।
“लेकिन हम उसे खोल कैसे सकते हैं ?” - मैनेजर बोला ।
“वह लाकर शालिनी मेहता के नाम है । मैं उससे यह अथारिटी लैटर लिखवाकर लाया हूं ।” - सुनील बोला और उसने अथारिटी लेटर मैनेजर की ओर बढा दिया ।
मैनेजर लैटर लेकर तहखाने में ही बैठे लाकर रूम के इंचार्ज के पास पहुंचा ।
कुछ देर दोनों रिकार्ड उलटते-पलटते रहे ।
“हस्ताक्षर तो मिलते हैं ।” - अन्त में मैनेजर बोला ।
“खोलो ।” - डायरेक्टर ने आदेश दिया ।
सुनील ने रचना की चाबी से लाकर खोल दिया । भीतर एक चमड़े का बैग रखा था ।
सुनील ने बैग बाहर निकाल लिया और उसकी जिप खोल दी ।
बैग नोटों से भरा पड़ा था ।
मैनेजर ने लपक कर बैग सुनील के हाथ से ले लिया और उसे एक मेज पर उलट दिया ।
मैनेजर और लकर का इंचार्ज नोट गिनने लगे ।
“दस हजार रुपये कम हैं ।” - अन्त में मैनेजर बोला ।
“जिस डाकू ने बैंक में डाका डाला था” - सुनील ने बताया - “मर चुका है । पुलिस ने उसकी जेब से चोरी के बाकी दस हजार बरामद किये हैं । वह आपको जल्दी ही वापिस मिल जायेंगे ।”
“वैरी गुड ।” - मैनेजर प्रसन्न स्वर में बोला ।
डायरेक्टर का भी चेहरा दमक रहा था ।
“थैंक्यू वैरी मच डियर ब्वाय ।” - डायरेक्टर उससे जबरदस्ती हाथ मिलाता हुआ बोला । दूसरे हाथ से वह उसका कन्धा थपथपा रहा था ।
“बाकी बातों के मामले में अपना वादा मत भूलियेगा ।” - सुनील ने चेतावनी दी ।
“नहीं भूलूंगा ।” - डायरेक्टर और मैनेजर एक साथ बोले ।
“अब मेरे पचास हजार रुपयों के बदले में आप बैंक ड्राफ्ट बनवा दीजिये ।”
“किसके नाम ?” - मैनेजर ने पूछा ।
“रचना के नाम ।”
“रचना कौन है ?”
“रचना उस डाकू की विधवा है, जिसने आपका बैंक लूटा था ।”
मैनेजर आश्चर्य से सुनील का मुंह देखने लगा ।
***
“तुम मरवाओगे यार ।” - रमाकांत बेचैन स्वर में बोला ।
“कुछ नहीं होता ।” - सुनील बैग में से टैलीफोन और तार का एक गुच्छा निकालता हुआ बोला - “बशर्ते कि दहशत से तुम्हारा हार्ट फेल न हो जाए ।”
रमाकान्त बुरा-सा मुंह बनाकर चुप हो गया । प्रत्यक्ष था उसे सुनील की हरकतें पसन्द नहीं आ रही थी ।
वे लोग पार्क रोड की चौदह नम्बर इमारत से लगभग सौ गज दूर एक टेलीफोन के खम्बे के नीचे खड़े थे । दोनों डाक तार विभाग के लाइन मैनों की खाकी वर्दी पहने हुए थे ।
सड़क पार इक्के-दुक्के लोग चल रहे थे लेकिन किसी को टेलीफोन के खम्बे के पास खड़े लाइन मैनों में दिलचस्पी नहीं थी ।
रमाकांत ने एक उड़ती-सी दृष्टि चौदह नम्बर इमारत की ओर डाली और फिर बोला - “तुम करना क्या चाहते हो ?”
“देखते जाओ ।” - सुनील बोला - “अभी सब मालूम हो जाएगा ।”
सुनील ने तार का गुच्छा खोल लिया । उसने तार का एक सिरा टेलीफोन के साथ जोड़ दिया और दूसरे सिरे को मुंह में दबाकर टेलीफोन के खम्बे पर चढ गया ।
उसने दूर तक खम्बे के ऊपर तने तारों पर दृष्टि दौड़ाई और फिर उन तारों को छांट लिया जो चौदह नम्बर इमारत में जा रही थीं । उसने जेब से एक प्लायर निकाला और अपने मुंह में दबी तार के दोनों सिर चौदह नम्बर इमारत में जाती हुई तारों के साथ जोड़ दिए ।
वह खम्बे से नीचे उतर आया ।
रमाकान्त टैलीफोन उठाये खड़ा था ।
सुनील ने क्रेडिल से रिसीवर उठाकर कान से लगाया ।
डायल टोन आ रही थी ।
“चौदह नम्बर इमारत के टैलीफोन का नम्बर याद है ?”
“हां । 34543 ।”
सुनील ने वह नम्बर घुमा दिया ।
तत्काल उसे बिजी टोन सुनाई देने लगी ।
“ठीक है ।” - सुनील सन्तुष्टिपूर्ण ढंग से सिर हिलाता हुआ बोला ।
“क्या ठीक है ?” - रमाकान्त ने पूछा ।
“यह टेलीफोन चौदह नम्बर इमारत के टेलीफोन के साथ पैरेनल में कनैक्ट हो गया है ।”
“इससे क्या होगा ?”
“इससे यह होगा कि अब मैं यहीं से तुम्हारे हाथ में थमे हुए टेलीफोन से पुलिस को फोन करूंगा और अगर वे पुलिस वाले एक्सचेंज से काल ट्रेस करने का प्रयत्न करेंगे तो उन्हें यही मालूम होगा कि काल चौदह नम्बर इमारत से की जा रही है ।”
“फिर क्या होगा !”
“अभी सब कुछ तुम्हें होता दिखाई दे जाएगा ।”
“लेकिन ऐसे किसी की टेलीफोन लाइन टेप करने के अपराध में तो हम गिरफ्तार किए जा सकते हैं ।”
“हम तो पांच मिनट में भुस में चिंगारी दिखाकर रफूचक्कर हो जायेंगे और किसी को कुछ पता भी नहीं लगेगा ।”
“फिर भी...”
“फिर भी कुछ नहीं । पिछली रात को डाक्टर ने जो 38 कैलिबर की गोली खाली प्लाट में फेंकी थी उसे लाए हो ?”
“लाया हूं ।”
“निकालो ।”
रमाकान्त ने रूमाल में लिपटी हुई गोली सुनील को थमा दी ।
सुनील ने सावधानी से रूमाल समेत गोली थाम ली और उसे ले जाकर फिर उसी खाली प्लाट में फेंक आया था जहां से वह गोली रमाकांत ने पिछली रात को उठाई थी ।
“अब ?” - रमाकांत ने पूछा ।
“अब मैं ड्रामा शुरू करता हूं ।” - सुनील बोला । उसने रमाकान्त के हाथ में नये टेलीफोन पर से रिसीवर फिर उठा लिया और उस पुलिस स्टेशन का नम्बर डायल कर दिया जहां वह रचना से मिला था ।
“हल्लो, पुलिस स्टेशन ।” - दूसरी ओर से उसे स्टेशन इंचार्ज इंस्पेक्टर की आवाज सुनाई दी ।
फिर भी सुनील ने पूछ लिया - “कौन साहब बोल रहे हैं ?”
“इन्सपेक्टर पांडे ।” - उत्तर मिला ।
“इंस्पेक्टर साहब ।” - सुनील तीव्र स्वर में बोला - “मैंने आपको एक बहुत महत्वपूर्ण बात बताने के लिए टेलीफोन किया है ।”
“फरमाइये ।” - इन्सपेक्टर का धैर्यपूर्ण स्वर सुनाई दिया ।
“मैं आपको महात्मा गांधी रोड की श्रीनिवास नामक इमारत में हुए शम्भूदयाल के कत्ल के बारे में एक बड़ी महत्वपूर्ण बात बता सकता हूं ।”
“क्या बता सकते हैं, आप ?”
“मैं आपको शम्भूदयाल के हत्यारे का नाम बता सकता हूं ।”
“हत्यारा पहले ही गिरफ्तार हो चुका है, मिस्टर ।”
“यह आपका बहम है, इन्स्पेक्टर साहब । आप शम्भूदयाल की पत्नी रचना को हत्यारी समझकर भारी भूल कर रहे हैं । हत्या रचना ने नहीं की है । मैं इसे सिद्ध कर सकता हूं ।”
इन्सपेक्टर कुछ क्षण चुप रहा और फिर बोला - “लेकिन आप हैं कौन ? और कहां से बोल रहे हैं आप ?”
“इन बातों को छोड़िये इन्सपैक्टर साहब ।” - सुनील वैसे ही तीव्र स्वर से बोलता रहा - “सवाल मत कीजिए । केवल मुझे बोलने का अवसर दीजिए । अगर आप शम्भूदयाल के असली हत्यारे का नाम नहीं जानना चाहते हैं तो मैं टेलीफोन बन्द किए देता हूं ।”
“नहीं, नहीं, आप बताइये । मैं सुन रहा हूं ।”
“एक चेतावनी और दिए देता हूं, इन्स्पेक्टर साहब । इस काल को ट्रेस करके मुझे गिरफ्तार करवाने का प्रयत्न मत कीजिएगा ।”
“अच्छी बात है ।”
रमाकांत हैरानी से सुनील का मुंह देख रहा था ।
“इन्स्पेक्टर साहब ।” - सुनील बोला - “मैं फिर दोहरा रहा हूं । हत्या रचना ने नहीं की है ।”
“कहने से क्या होता है ? आप जो कह रहे हैं, उसे सिद्ध कर सकते हैं ?”
“जी हां, कर सकता हूं ।”
“कीजिए ।” - इन्स्पेक्टर चेलेंज भरे स्वर में बोला ।
“केस की तफतीश आप कर रहे हैं न ?”
“जी हां ।”
“और रचना द्वारा हत्या की सूचना दिए जाने पर घटनास्थल पर भी पहले आप ही गए थे ?”
“हां मैं ही गया था ।”
“जिस कमरे में हत्या हुई थी उसके भीतर आप कैसे घुसे थे ?”
“क्या मतलब ?”
“मतलब यह कि बैडरूम के द्वार के एकदम दूसरी ओर लाश पड़ी थी जिसके कारण द्वार इस तरह ब्लाक हो गया था कि धक्का देने पर पल्ला लाश पर जा अटकता था और द्वार केवल पांच-छ: इंच ही खुल पाता था । फिर आप भीतर कैसे घुसे ?”
“आपको कैसे मालूम कि लाश ऐसी स्थिति में पड़ी थी ?”
“आपने फिर सवाल किया, इन्स्पेक्टर साहब ।”
“गलती हो गई ।”
“लेकिन फिर भी मैं आपको जवाब दे रहा हूं । मैं वास्तविक हत्यारे के साथ था । और शंभूदयाल मेरे सामने द्वार के समीप गिरकर मरा था ।”
“क्या ?” - इन्स्पेक्टर आश्चर्यपूर्ण स्वर में चिल्लाया ।
“जी हां ।”
“लेकिन गोली तो रचना ने स्वीकार किया है, उसने चलाई थी और शम्भूदयाल मरा भी उसी की रिवाल्वर में से निकली गोली से है । हमारा बैलेस्टिक एक्सपर्ट इस बात को सिद्ध कर चुका है ।”
“इसीलिए तो मैं कहता हूं आप मुझे बीच में टोकिए नहीं । खामखाह हैरानी मत जाहिर कीजिए । मुझे अपने ढंग से बात कहने दीजिये और सब गुत्थियां सुलझ जायेंगी ।”
“अच्छी बात है, कहिये ।”
“आप बैडरूम में लाश को अपने स्थान से हिलाये बिना भीतर कैसे घुसे थे ?”
“हमने दरवाजे को चौखट से अलग कर दिया था ।”
“मतलब यह कि लाश को अपनी स्थिति से हिलाये बिना दरवाजा खोल पाना असंभव था ।”
“जी हां ।”
“लेकिन खून के तालाब में डूबी हुई लाश की स्थिति को देखकर यह साफ जाहिर होता है कि लाश हिलाई नहीं गई है जैसा कि आपने प्रेस को अपने बयान में कहा भी है ।”
“राइट ।”
“फिर रचना कमरे से कैसे निकल गई ?”
रमाकांत के भी कान खड़े हो गए ।
“आप कहना क्या चाहते हैं ?” - इन्स्पेक्टर ने उलझनपूर्ण स्वर से पूछा ।
“इन्स्पेक्टर साहब ।” - सुनील बोला - “आपकी थ्योरी के अनुसार रचना के पलंग के पास से गोली चलाई थी और शम्भूदयाल उस समय रचना से कम से कम दस फुट दूर था और बाहर की ओर भागा जा रहा था । अगर मान लिया जाये कि रचना ने उस समय जान बूझकर उसे गोली मार दी थी और वह द्वार के पास मर कर गिर पड़ा था तो रचना बैडरूम से बाहर कैसे निकली ? उसने लाश को हिलाये बिना द्वार कैसे खोला ? लाश ने द्वार को इतना ब्लाक कर दिया था कि वह पांच या छ: इंच से अधिक खुल नहीं पाता था । छ: इंच की झिर्री में से रचना का बाहर निकल पाना असंभव है और लाश उसने हिलाई नहीं है वरना आपको पता लग जाता तो फिर रचना बाहर कैसे निकली ?”
इंस्पेक्टर कई क्षण चुप रहा और उत्तेजित स्वर से बोला - “तुम्हारा तर्क जोरदार है । बिना लाश हटाये रचना का बाहर निकल पाना अब असंभव है ।”
“इसका एक ही हल संभव है, वह यह कि रचना के बैडरूम से बाहर निकल जाने के बाद ही शम्भूदयाल मरा था ।”
“लेकिन रचना ने स्वीकार किया है कि उसने गोली चलाई थी और किसी को चीख मारकर फर्श पर गिरते देखा था ।”
“रचना की चलाई गोली मेरे साथी को लगी थी ।”
“लेकिन यह असंभव है । रिवाल्वर से केवल एक ही गोली चलाई गई थी और वह शम्भूदयाल की पीठ में लगी थी ।”
“इंस्पेक्टर साहब रिवाल्वर से दो गोलियां चलाई गई थी ।”
“लेकिन...”
“मैं आपको पूरा किस्सा सुनाता हूं ।”
“सुनाइए ।”
“हम लोगों ने नैशनल बैंक पर डांका डाला था एन मौके पर पुलिस के आ जाने के कारण हम लोग भाग खड़े हुए थे लेकिन लूट के माल के साथ शम्भूदयाल बैंक में ही फंस गया था । बाद में वह पुलिस के तीन सिपाहियों की हत्या करके भाग खड़ा हुआ था । लेकिन लौट कर अड्डे पर आने के स्थान पर वह गायब हो गया क्योंकि उसके मन में बेइमानी आ गई थी और वह सारा धन खुद हड़प जाना चाहता था । उसने लूट के माल का बैग अपनी पत्नी रचना को सौंप दिया और खुद फरार हो गया । हमारे ही गैंग के एक साथी को किसी प्रकार मालूम हो गया कि माल रचना के पास है । वह चुपचाप रचना के पास पहुंचा और उसे धमका कर माल छीन लाया । उसने माल को नैशनल बैंक के ही एक लॉकर में छुपा दिया और चुपचाप हमारे साथ काम करता रहा ताकि हम लोगों को संदेह न हो । बाद में सारा मामला ठंडा हो जाने पर वह माल लेकर चुपचाप खिसक जाता । शम्भूदयाल समझ रहा था कि उसकी पत्नी ने उसे धोखा दिया है और सारा माल खुद हड़प जाना चाहती है जबकि वास्तव में माल रचना के पास था ही नहीं । हम लोग भी शम्भूदयाल को तलाश कर रहे थे ताकि हम उससे माल वसूल कर सकें । फिर शम्भूदयाल ने एक चाल चली । वह मुरारी के बहुरूप में रचना के ही फ्लैट में रहने लगा ।”
“यह कैसे संभव है ?”
“यही हुआ है ।” - सुनील बोला और उसने मुरारी के बहुरूप का सारा किस्सा इंस्पैक्टर को सुना दिया ।
“लेकिन तुम लोगों को यह कैसे मालूम हुआ कि मुरारी ही शम्भूदयाल है ?” - इंस्पेक्टर ने पूछा ।
“सुनील नाम का एक आदमी रचना की सहायता कर रहा था ।” - सुनील बोला - “वह हमारी पकड़ में आ गया था । उसी से हमें यह मालूम हुआ था कि शम्भूदयाल ही मुरारी बना हुआ अपने ही फ्लैट में रह रहा है और उसी के कारण हमें यह ख्याल आया था कि रुपया शायद रचना के पास है पिछली रात को बॉस ने मुझे और चन्दन को रचना के फ्लैट पर जाने को कहा ।”
“बॉस कौन ?”
“हमारे गैंग का लीडर ।”
“और चन्दन ?”
“मेरा साथी जिसने बाद में शम्भूदयाल का खून किया था ।”
“फिर ?”
“रात के लगभग दो बजे हम रचना के फ्लैट वाली इमारत के समीप पहुंच गए । रचना के फ्लैट की एक खिड़की खुली थी । चन्दन और मैं उस खिड़की की बगल में से गुजरते हुए एक पानी के पाइप के रास्ते उस खिड़की तक पहुंच गए । मैं खिड़की की चौखट पर ही खड़ा रहा और चन्दन भीतर घुस गया । मैंने टार्च का प्रकाश कमरे में डाला वह रचना का बैडरूम था । रचना अपने पलंग पर सोई हुई थी । चंदन ने जाकर उसकी गर्दन दबोच ली । वह तो जबरदस्ती उससे माल का पता पूछना चाहता था । उस समय हमें यह मालूम नहीं था कि माल पहले ही हमारा ही एक आदमी रचना से छीन चुका है । रचना के तकिए के नीचे रिवाल्वर होगी, इस बात का न चंदन को ख्याल था न मुझे । रचना ने किसी प्रकार रिवाल्वर निकाल ली और चन्दन पर गोली चला दी । गोली चन्दन के कंध पर घुस गयी । वह चीख मारकर फर्श पर उलट गया । रचना रिवाल्वर फेंककर कमरे में से बाहर भाग गई । उसी क्षण शम्भूदयाल ने कमरे में प्रवेश किया ।”
“शम्भूदयाल ने !”
“हां, शायद वह भी उसी समय रचना को जबरदस्ती पकड़ कर उससे धन के बारे में पूछने आ रहा था । उसने बत्ती जलाई । कमरे में घुस आने के बाद उसे मैं और चन्दन दिखाई दिया । हमें देखते ही वह भयभीत हो गया और फर्श पड़ी रिवाल्वर की ओर झपटा लेकिन रिवाल्वर पहले ही चन्दन के हाथ आ चुकी थी । शम्भूदयाल बाहर की ओर भागा । चन्दन ने उसे गोली मार दी । शम्भूदयाल द्वार के पास गिरा और फौरन मर गया । चन्दन ने रिवाल्वर पर से उंगलियों के निशान साफ कर दिए और अपनी जेब से 38 कैलिबर का एक कारतूस निकालकर रिवाल्वर में डाल दिया और रिवाल्वर को वहीं फेंक दिया ।”
“लेकिन रिवाल्वर में तो सारे कारतूस एक ही टाइप के थे ?”
“शम्भूदयाल को इम्पीरियल होटल में एक ब्लाक रूम की पानी की टंकी में से 38 कैलिबर के कारतूसों का एक पूरा डिब्बा मिला था । वे कारतूस उस समय भी उसके पास थे । उसी में से एक कारतूस उसने रिवाल्वर में डाल दिया था । आप रिवाल्वर में से सारे कारतूसों को टैस्ट करके देखिए । एक कारतूस आपको भीगा हुआ मिलेगा ।”
“फिर क्या हुआ ?”
“फिर मैं और चन्दन पाइप के ही रास्ते नीचे उतर गए । इन्सपेक्टर साहब, आप रचना के बैडरूम की खिड़की चौखट और उसके पास से गुजरते हुए पाइप को चैक करवाकर देखिए । आपको चंदन की उंगलियों के कई निशान मिल जायेंगे ।”
“मैं देखूंगा ।”
“फिर मैं चन्दन को वापिस अड्डे पर ले आया । वहां हमने डाक्टर को बुलवाकर उसके कंधे में से गोली निकलवाई ।”
“गोली कौन से डाक्टर ने निकाली थी ?”
“डाक्टर का नाम दीनदयाल शर्मा है । नेता जी सुभाष रोड पर उसका क्लीनिक है और क्लीनिक के ऊपर ही उसका घर भी है । रात के साढे तीन बजे के करीब वह हमारे अड्डे पर आया था जिस टैक्सी पर वह आया था अगर उसे आप तलाश करवा लें तो डाक्टर झूठ नहीं बोल पायेगा ।”
“तुम्हारा अड्डा कहां है ?”
“अड्डा पार्क रोड की 14 नम्बर इमारत में है ।”
“बॉस कौन है ?”
“उसका नाम जमनादास है । वह गंजे सिर का मोटा और ठिकना आदमी है । वह उस इमारत का मालिक भी है । और इंस्पैक्टर साहब...”
“हां ।”
“पार्क रोड में चौदह नम्बर के समीप एक खाली प्लाट है । डाक्टर ने चंदन के शरीर से निकाली हुई गोली उस प्लाट में फेंक दी थी । अगर आप तलाश करवायें तो शायद वह गोली आपको मिल जाय । उस गोली पर आपको डाक्टर की उंगलियों के निशान मिल सकते हैं और बैलेस्टिक एक्सपर्ट पड़ी आसानी से यह सिद्ध कर सकता है कि 38 कैलिबर की वह गोली उसी रिवाल्वर में से निकली हुई है जिससे शम्भूदयाल की हत्या हुई है । इतने सबूतों के बाद डाक्टर झूठ बोलने का हौंसला नहीं कर सकता और न ही चंदन झूठ बोल पायेगा । एक आदमी के पुलिस के सामने सच बोल देने के बाद सारा गैंग पकड़ा जायेगा ।”
“तुम यह सब कुछ मुझे क्यों बता रहे हो ?”
“मैं अपराधपूर्ण जीवन से तंग आ चुका हूं, इन्स्पेक्टर साहब ।” - सुनील दर्द भरे स्वर में बोला - “मैं इन लोगों का पीछा छोड़ना चाहता हूं । मैं यहां से भाग रहा हूं । अगर बाकी गैंग पकड़ा गया तो मैं स्वयं को बड़ा सुरक्षित अनुभव करुंगा ।”
“तुम सरकारी गवाह क्यों नहीं बन जाते । मैं तुम्हें माफी दिलाने का वायदा करता हूं ।”
“मैं डरपोक आदमी हूं साहब जिन लोगों के साथ मैंने काम किया उनका सामना करने का मेरा हौसला नहीं होगा ।”
उसी क्षण पूरी रफ्तार से भागती हुई पुलिस की पांच जीपें पार्क रोड में घुसी । जीपें चौदह नम्बर इमारत के सामने जाकर रुक गई । पलक झपकते ही पुलिस के सिपाहियों ने कोठी को घेर लिया ।
“इन्स्पैक्टर ।” - सुनील दबे स्वर में टेलीफोन पर चीखा - “तुमने मुझे धोखा दिया है । मेरे मना करने पर भी तुम मेरा फोन नम्बर ट्रेस करवाने से बाज नहीं आये और यहां पुलिस भेज दी । पुलिस ने इमारत को घेर लिया है लेकिन इन्स्पेक्टर, मैं तुम्हारे हाथ में फिर भी नहीं आऊंगा ।”
और सुनील ने खटाक से रिसीवर को क्रेडिल पर पटक दिया ।
“कैसा रहा ड्रामा ?” - सुनील मुस्कराता हुआ बोला ।
“तुम्हें यह सब बातें कैसे मालूम हैं ?”
“मालूम किसे थीं सिर्फ अनुमान लगाया है ।”
“जो कि गलत भी हो सकता है ।”
“कोई छोटी मोटी बात गलत हो सकती है । बाकी सब ठीक है ।”
“अब खिसको यहां से ।”
“अच्छी बात है ।” - सुनील बोला । उसने एक झटका देकर पोल पर लगी तारों में से टेलीफोन की तार छुड़ा ली । उसने तार और टेलीफोन को बैग में डाला और बैग उठाता हुआ बोला - “चलो ।”
***
“तुम्हारी लगभग सभी बातें सच निकली है ।” - उस शाम को रमाकांत ने सुनील को बताया ।
“गलत कौन सी बात निकली है ?”
“गोली चन्दन के कंधे में नहीं पेट में लगी है ।”
“आई सी ।”
“डाक्टर दीनदयाल शर्मा ने कबूल कर लिया है कि उसने चन्दन के पेट में से 38 कैलिबर की गोली निकाली थी । पुलिस को खाली प्लाट में से गोली भी मिल गई है । उस पर डाक्टर की उंगलियों के निशान हैं और बैलेस्टिक एक्सपर्ट के टेस्ट से पता चला है कि वह उसी रिवाल्वर से चलाई गई है जिसकी गोली से शम्भूदयाल मरा है । चन्दन ने भी अपना अपराध स्वीकार कर लिया है । उनका सारा गिरोह गिरफ्तार कर लिया गया है । सब ने अपने अपराध कबूल कर लिए है केवल गंजा अभी भी यही कह रहा है कि उसका गिरोह से कोई वास्ता नहीं है ।”
“बॉस जो ठहरा ।” - सुनील मजाक भरे स्वर में बोला ।
“लेकिन हत्या का संदेह तुम्हें चंदन पर कैसे हुआ ?” - रमाकान्त ने पूछा ।
“संदेह तो दूर की बात है, मुझे पहले इस बात का ख्याल भी नहीं आया था कि चन्दन या उसके किसी आदमी ने हत्या की होगी । मुझे तो रचना ही झूठ बोलती मालूम हुई थी । मैंने इस बात को नोट तो किया था कि लाश द्वार के पीछे इस प्रकार पड़ी हुई है कि दरवाजा नहीं खुल सकता था लेकिन इस बात का महत्व फौरन मेरी समझ में नहीं आया था ।”
“तो फिर तुम हत्या के बाद पार्क रोड पर गंजे के मकान पर क्यों गये थे ?”
“एक चालाकी करने । गंजे ने मुझसे कहा था कि अगर मैं शम्भूदयाल को खोज निकालूं तो वह मुझे दस हजार रुपये देगा । उसने ऐसा तो कुछ कहा ही नहीं था कि शम्भूदयाल जिन्दा ही होना चाहिए । मैंने सोचा शायद मैं गंजे को हेरफेर में फंसाकर उससे दस हजार रुपये ऐंठ लूं । लेकिन उस पट्ठे ने तो शम्भूदयाल में दिलचस्पी ही नहीं ली । कहा वह दिन में शम्भूदयाल का पता पाने के लिए मरा जा रहा था और बदले में मुझे दस हजार रुपये ऑफर कर रहा था और कहां जब मैं शम्भूदयाल का पता बताने उसके घर पहुंचा तो उसने रुपया देना तो दूर बात सुनने में भी दिलचस्पी नहीं ली, उसने मुझसे यह तक नहीं पूछा कि शम्भूदयाल है कहां । फिर मुझे घायल पड़े चंदन का ख्याल आया । फिर मुझे डाक्टर का और उस द्वारा प्लाट में फेंकी 38 कैलिबर की गोली का ख्याल आया । गंजे के शम्भूदयाल में दिलचस्पी न लेने का मुझे यही कारण सूझा कि उसे मालूम है कि शम्भूदयाल मर चुका है । हत्या के फौरन बाद ही रचना ने फोन कर दिया था और उसके थोड़ी ही देर बाद में गंजे के पास जा पहुंचा था । ऐसी हालत में उसे शम्भुदयाल की हत्या की खबर उसी सूरत में मिल सकती थी जब या तो रचना ने उसे बताया हो और या खुद उसके ही किसी आदमी ने शम्भूदयाल की हत्या की हो । रचना के बताने का सवाल ही नहीं पैदा होता । दूसरी बात संभव थी । फिर मुझे चंदन पर हत्यारा होने का शक हुआ ।”
“कैसे ?”
“वह ताजा ताजा कहीं से गोली खाकर आया था । तब तक मुझे कमरे में शम्भूदयाल की लाश की स्थिति का महत्व भी समझ में आ चुका था । प्रत्यक्ष था कि रचना की गोली किसी और को लगी । अंधेरे में उसने आक्रमणकारी का मुंह तो देखा नहीं था । गोली चलाने के बाद वह रिवाल्वर फेंक कर भागी । अगले ही क्षण में वहां शम्भूदयाल आया और चंदन ने उसे गोली मार दी । वह द्वार के पास गिर पड़ा लेकिन द्वार को या लाश को फिर भी नहीं छेड़ा गया था । स्पष्ट था कि चंदन खिड़की के रास्ते ही बाहर निकला होगा । मेरे हिसाब से रिवाल्वर में से दो गोलियां चली थी लेकिन रिवाल्वर में केवल एक ही कारतूस कम मिला था । फिर मुझे ख्याल आया कि चन्दन ने कहा था कि उसे इम्पीरियल होटल के एक क्लार्क रूम में से 38 कैलिबर के कारतूसों का डिब्बा मिला था जो वास्तव में मैंने रखा था । चन्दन ने उसी में से एक कारतूस दुबारा रिवाल्वर में भर दिया होगा । इन्हीं धारणाओं और तथ्यों को सामने रखकर मैंने एक कहानी घड़ ली और इन्स्पेक्टर को सुना दी ।”
“सुनील ।” - रमाकान्त प्रशंसापूर्ण स्वर से बोला - “दुनिया में शायद ही कोई तुमसे बड़ा झूठा होगा । तुमने तो रिपले को भी माफ कर दिया ।”
“लेकिन मैं मतलब का झूठ बोलता हूं । रचना का क्या हुआ ?”
“वह बरी हो गई है ।”
सुनील ने अपनी जेब से पचास हजार रुपये का बैंक ड्राफ्ट निकाला और उसे रमाकांत की ओर बढाते हुए बोला - “यह रचना को भिजवा दो ।”
“पचास हजार रुपये ।” - रमाकांत आंखें फाड़ता हुआ बोला - “रचना को किस खुशी में दे रहे हो ये !”
“वह विधवा औरत है । समझदार होगी तो बाकी जिन्दगी सहूलियत से और बिना किसी के सामने हाथ फैलाये और बिना कोई गलत काम किए शरीफ औरतों की तरह गुजार लेगी ।”
“लेकिन इतना रुपया उसे देने के लिए तुम्हारे पास आया कहां से ?”
सुनील ने उसे बाकी कहानी भी सुना दी ।
“तुम्हारा मतलब है कि लूट का माल शुरु से ही रचना के पास था ।”
“हां ।”
“अगर यह बात जाहिर हो गई तो तुम भी रगड़े जाओगे ।”
“यह बात जाहिर नहीं होगी ।” - सुनील विश्वासपूर्ण स्वर में बोला ।
“तुम ड्राफ्ट रचना को खुद क्यों नहीं देने जाते ?”
“भिजवा दो यार । मैं गया तो वह मेरा शुक्रगुजार करने के लिए बहुत ड्रामा करेगी । औरतों की वैसी हरकतों से मुझे बड़ी उलझन होती है ।”
रमाकांत ने बहस नहीं की ।
समाप्त
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