देवराज चौहान कार से मुम्बई के बोरीवली इलाके से निकल रहा था। दिन का डेढ़ बजा था। दोपहर के वक्त सड़कों पर भरपूर ट्रैफिक था। गर्मी थी, यदा-कदा पसीना भी बह उठता था। कार में ए.सी. था, जिसकी वजह से देवराज चौहान को गर्मी ज्यादा परेशान नहीं कर रही थी। तभी देवराज चौहान का फोन बजने लगा, दूसरी तरफ जगमोहन था।

"कहो!" एक हाथ से स्टेयरिंग संभाले देवराज चौहान ने कॉल रिसीव की।

"कहाँ हो?” जगमोहन की आवाज कानों में पड़ी।

"रास्ते में हूँ। बंगले पर आ रहा हूँ।"

"खाने-पीने का सामान खत्म है। लेते आना।"

"ठीक है।" देवराज चौहान ने कहा और फोन बंद करके जेब में रख लिया।

दस मिनट बाद देवराज चौहान ने कार को एक मार्किट में रोका और उतरकर कार लॉक की, फिर सामने दिखाई दे रहीं दुकानों की तरफ बढ़ गया। यहाँ बहुत मशहूर बेकरी शॉप थी और खाने का तरह-तरह का बढ़िया सामान मिलता था। चंद मिनटों बाद शीशे का दरवाजा धकेलते देवराज चौहान ने बेकरी शॉप में प्रवेश किया। यहाँ और भी काफी लोग सामान ले रहे थे। ए.सी. की ठण्डक से शरीर को शान्ति मिली। देवराज चौहान जरूरत के सामान का ऑर्डर देने लगा।

पच्चीस मिनट लगे देवराज चौहान के सामान को पैक होने में। सामान काफी ज्यादा हो गया था, जिसे कि गत्ते के डिब्बों में पैक करना पड़ा। देवराज चौहान ने पर्स निकालकर पेमेंट दी। तब देवराज चौहान वहाँ से चलने की तैयारी कर रहा था। बेकरी का कर्मचारी पैक गत्ते के बक्सों को उसकी कार तक पहुँचाने के लिए उठाने की तैयारी में था कि तभी दुकान पर मौजूद कस्टमरों में से एक ने सख्ती से देवराज चौहान की बाँह थाम ली।

देवराज चौहान तुरन्त उसकी तरफ घूमा।

वो साठ बरस का व्यक्ति था। बाल काले थे, सफेद भी, कद लम्बा था। आकर्षक व्यक्त्वि था और दौलत के मामले में वो सम्पन्न दिख रहा था। महंगे कपड़े पहन रखे थे। टाई लगा रखी थी। इस वक्त उसके चेहरे पर कठोरता दिख रही थी और नजरें देवराज चौहान के चेहरे पर टिकी थीं। देवराज चौहान ने उसके क्रोध को पहचाना।

"क्या समस्या है आपको?" देवराज चौहान ने अपनी बांह छुड़ाते हुए पूछा।

“समस्या?" उसके होंठ भिंच गए।

"जिस तरह आपने मेरी बाँह पकड़ी, जैसे आप गुस्से से मुझे देख रहे हैं, उसे मैं समस्या ही....।"

“तुम्हें मेरा एहसानमंद होना चाहिए कि यहाँ सब लोगों के सामने मैं जूता उतारकर तुम्हें पीटने नहीं लगा। ये मेरा बड़प्पन है कि मैंने ऐसा नहीं किया, जबकि तुम जैसे कमीने के साथ मुझे ऐसा ही करना चाहिए।" वो गुस्से से कह उठा। आवाज ऊँची थी।

देवराज चौहान के चेहरे पर हैरानी के भाव उभरे।

वहाँ मौजूद लोगों का ध्यान उनकी तरफ हो गया।

उस व्यक्ति के कहे शब्द सबने सुने थे।

“मिस्टर!” देवराज चौहान मुस्कुराकर कह उठा--- "आपको कोई गलतफहमी हो रही....।"

“मुझे कोई गलतफहमी नहीं हो रही और ये कहते हुए तुम्हें शर्म भी नहीं आ रही। अपनी गलती मानने की अपेक्षा, तुम मुझे गलत ठहरा रहे हो।" वो व्यक्ति बेहद गुस्से में था--- "तुम मेरे सब्र का इतना भी इम्तिहान मत लो कि मैं हद पार कर जाऊँ। दस महीनों से तुम मेरी बेटी को छोड़कर गायब हो। अब मेरे सामने पड़ गए तो मुझे पहचानने से इंकार कर दिया। इतने बेशर्म मत बनो और चुपचाप मेरे साथ चलो। घर चलो। तुम्हारे बिना सब परेशान हैं... तुम....।"

“आपकी बेटी?” देवराज चौहान के चेहरे पर अजीब से भाव आ गए।

“अब नोरा को भी भूल गए?" उसके गुस्से से भरे स्वर में शिकायत के भाव भी आ गए।

“नोरा? मैं किसी नोरा को नहीं जानता....।”

“नोरा तुम्हारी पत्नी है।" उसने पाँव पटकने वाले अन्दाज में कहा--- "वो सबसे बुरा दिन था, जब मैंने अपनी बेटी का हाथ, तुम्हारे हाथ में दिया। शायद तुम्हारे पिता के नाम और खानदान की इज्जत को देखकर दिया था। जब तक शिवचंद जिन्दा रहा, तब तक सब ठीक रहा; परन्तु उसकी मौत के साथ ही.... ।” उसने दुखी अन्दाज में गहरी सांस ली--- "अपने घर चलो सूरज, सब ठीक हो जाएगा। सारी दौलत वापस ले लेंगे तुम्हारे चाचा से। दिल इतना छोटा ना करो। मैं तो....।”

“आप मुझे सूरज कह रहे हैं?"

“हाँ तुम सूरज हो, क्या तुमने अब अपना नाम भी बदल लिया है? आखिर इतनी नाराजगी किससे--- चाचा से है तो चाचा की गर्दन पकड़ो। नोरा ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है। वो मासूम तो पलकें बिछाये तुम्हारे आ जाने का इंतजार कर रही है। दस महीने हो गए, पर वो हर वक्त ये ही कहती है कि तुम जरूर आ जाओगे। वो जाने क्यों तुम पर इतना भरोसा करती है और तुमने भरोसे के काबिल कोई काम नहीं किया। इतने कमजोर निकले तुम कि अपनी दौलत वापस पाने की अपेक्षा घर से भाग गए।"

“मैं आपसे फिर कहता हूँ कि मैं वो नहीं, जो आप समझ रहे हैं। मैं सूरज नहीं, सुरेन्द्रपाल हूँ।”

“खूब! तुमने तो अपना नाम भी बदल लिया।" उस व्यक्ति ने कड़वे स्वर में कहा--  “तब तो बेटे तुम्हें अपना चेहरा भी बदल लेना चाहिए था कि पहचाने नहीं जाते।"

देवराज चौहान ने अपने चेहरे पर हाथ फेरा।

दिमाग तेजी से दौड़ रहा था।

तो क्या किसी का चेहरा उससे इतना मिलता है कि कोई इतना बड़ा धोखा खा जाए?

आस-पास खड़े लोग दिलचस्पी से उनकी बातें सुन रहे थे।

“सूरज!” उस व्यक्ति ने देवराज चौहान के कंधे पर हाथ रखा--  "बहुत हो गया, अब नोरा के पास चलो। घर चलो।”

“आपको गलती लग रही.... ।”

“सब ठीक हो जाएगा। किसी भी बात की फिक्र मत करो। नोरा मेरी इकलौती बेटी है। मेरा सब कुछ भी तुम्हारा ही तो.... ।"

“देखिए।” देवराज चौहान ने उसका हाथ कंधे से हटाते हुए कहा--- "मैं वो नहीं जो आप समझ रहे हैं। मेरा नाम सुरेन्द्रपाल.... ।”

“भगवान के लिए सूरज ! ये कहना अब छोड़ भी दो। तुम्हें जितना पैसा चाहिए, मैं दूंगा। तुम अपने साथ-साथ मेरी बेटी की भी जिन्दगी खराब मत करो। दोनों खुशी से रहो। तुम्हारे पास कमी किस चीज की है? दो सौ करोड़ का तो तुम्हारा बंगला है। तुम्हारा चाचा मदन देसाई, तुम्हारे पिता शिवचंद की मौत के साथ ही, पार्टनर होने के नाते, सारे बिजनेस का मालिक बन बैठा। यहाँ तक कि अब तुम्हारे बंगले को भी, मदन देसाई कहता है ये उसकी प्रॉपर्टी है। शिवचंद ने बंगला एक सौ अस्सी करोड़ में उसके पास गिरवी रखा हुआ था। वो हर चीज के कागजात दिखाता है, पर सब कुछ नकली है। कागजों पर शिवचंद के साईन भी नकली हैं। शिवचंद को अपने छोटे भाई मदन पर बहुत भरोसा था। उसी भरोसे की आड़ में मदन ने सारी धोखेबाजी की। तुम्हारे पिता ने तुम्हें बता रखा है कि अपनी बेशकीमती दौलत जिनमें हीरे-जवाहरात, ढेरो सोना है, वो सब मदन के पास रखवा रखा है। तुमने ही ये बात मुझे बताई थी, पर अब वो कमीना कहता है कि उसके पास शिवचंद का ऐसा कोई सामान है ही नहीं। वो लालची और मक्कार.... ।”

"देखिये।" देवराज चौहान ने हाथ उठाकर गम्भीर स्वर में कहा--- “मैं ये नहीं कहता कि आप गलत कह रहे हैं, लेकिन जो कह रहे हैं, वो गलत आदमी से कह रहे हैं। मैं सूरज नहीं, सुरेन्द्रपाल हूँ। सम्भव है मेरा चेहरा देखकर आप धोखा खा गए और.... ।”

“मैं धोखा नहीं खा रहा, तुम सूरज ही हो।" वो व्यक्ति होंठ भींचकर दृढ़ स्वर में कह उठा।

देवराज चौहान ने पास खड़े बेकरी के कर्मचारी से कहा---

“मेरा सामान बाहर खड़ी मेरी कार तक पहुँचा दो।”

“चलिये सर ।” कहते हुए उसने नीचे झुककर, रास्ते के दोनों बड़े डिब्बों को एक के ऊपर एक रखकर बांहों में उठा लिया।

“सूरज तुम.... ।” उस व्यक्ति ने कहना चाहा।

तब तक देवराज चौहान शीशे के दरवाजे की तरफ बढ़ गया।

डिब्बों को उठाये कर्मचारी पीछे था।

दोनों दुकान से बाहर निकलकर आगे बढ़ने लगे।

वो व्यक्ति भी तेजी से बढ़ता आया और परेशानी भरे भाव से देवराज चौहान के बगल में चलता कह उठा---

“तुम्हें अपनी पत्नी की चिन्ता नहीं है। अपने छोटे भाई-बहन की भी परवाह नहीं है।"

चलते हुए देवराज चौहान ने उसके चेहरे पर नजर मारी।

"तुम्हारे पिता की मौत के बाद तुम ही अब परिवार में बड़े हो। नीरज और श्रेया का ध्यान भी तुमने ही रखना है।"

"नीरज-श्रेया?"

"तुम्हरे छोटे भाई-बहन श्रेया शुरू से ही तुम्हारे करीब रही है। जो तुम्हें और तुम उसे बहुत प्यारे हो। तुम्हारे इस तरह चले जाने से श्रेया परेशान रहती है। हर वक्त तुम्हारी ही बातें....।"

"मेरी नहीं, सूरज की बातें....।" देवराज चौहान ने कहा।

"तुम सूरज ही तो हो। अब तुम मुझे मिल गए हो तो तुम्हारा सुरेन्द्रपाल बनने का क्या फायदा?" उसने परेशान स्वर में कहा--- "घर चलो। घर-बार संभालो। शिवचंद की मौत के बाद जो बिगड़ा है, उसे किसी तरह ठीक करने की कोशिश, मिलकर करेंगे। मेरी बेटी को इस तरह छोड़कर तुम गायब नहीं रह सकते। तुम्हें नोरा की जिन्दगी बरबाद करने का कोई हक नहीं।"

“मैं किसी नोरा को नहीं जानता।"

"वो तुम्हारी पत्नी है कमीने इन्सान। तुम्हारे वापस आने का वो इन्तजार कर रही है। इस तरह घर से जाकर तुमने उसकी खुशियाँ छीन ली हैं। दिल तो करता है तुम्हारे साथ बुरे से बुरा व्यवहार करूँ।" उस व्यक्ति का स्वर गुस्से से काँप रहा था--- "तुमने अब तक जितना करना था कर लिया। चुपचाप घर चलो। सब किया-धरा तुम्हारे चाचा मदन देसाई का है। उससे निपटने का दम तो तुम में है नहीं, अपना गुस्सा नोरा पर, श्रेया पर, नीरज पर निकाल रहे हो। उन्होंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है!"

देवराज चौहान अपनी कार के पास जाकर रुका और पिछला दरवाजा खोला।

बेकरी का कर्मचारी दोनों डिब्बे पीछे की सीट पर रख कर चला गया।

देवराज चौहान ने कार का दरवाजा बंद किया।

“ये.... ये कार तुम्हारी है ?" उस व्यक्ति के होंठों से निकला।

"हाँ, क्यों?" देवराज चौहान ने होंठ सिकोड़ कर उसे देखा।

“तुम्हारी कार है ये?" अजीब स्वर था उसका।

"कहीं ये भी आपकी तो नहीं?" देवराज चौहान का स्वर तीखा हो गया।

"तुम ये कार इस्तेमाल कर रहे हो? घटिया और बेकार कार । शिवचंद देसाई का बेटा सूरज देसाई ऐसी कार में बैठता है! हैरानी है! इस कार को तो तुम्हारे ड्राईवर भी चलाना पसंद ना करें।" उसने बुरा-सा मुँह बनाकर कहा--- "क्यों अपनी जिन्दगी बरबाद करने पर लगे हो। मुझे दुःख हो रहा है कि तुमने अपनी क्या हालत बना रखी है।"

“आपको दुःखी होने की जरूरत नहीं है।"

"बेटा सूरज!" उसने करीब आकर देवराज चौहान के कंधे पर हाथ रखकर प्यार से कहा--- "घर, घर ही होता है। मदन ने तुम लोगों के साथ शिवचंद की मौत के बाद जो किया, वो शर्मनाक है, पर अभी भी बहुत कुछ बचा है। बहुत दौलत है, बहुत प्रॉपर्टी है। फिर तुम अपने चाचा मदन से कोर्ट में लड़ाई लड़ सकते हो। तुम देखना, कोर्ट की लड़ाई में वो हार जाएगा। कागजों पर उसने तुम्हारे पापा शिवचंद के नकली साईन कर रखे हैं। कोर्ट में ये बात साबित हो जाएगी।"

“मैं वो नहीं, जो आप समझ रहे हैं।" देवराज चौहान ने अपने कंधे से उसका हाथ हटाया--- “मुझे ध्यान से देखें, तब आपको मुझ में या सूरज में कोई फर्क जरूर दिखेगा। मैं सूरज हूँ ही नहीं।"

उस व्यक्ति ने देवराज चौहान को सिर से पाँव तक गहरी नजरों से देखा।

“तुम मुझे बेवकूफ नहीं बना सकते।" उसने एकाएक सिर हिलाकर कहा।

“तो मैं सूरज हूँ?”

“सौ प्रतिशत। पकड़े जाने पर तुम फिर भाग जाना चाहते हो, लेकिन मैं अब ऐसा नहीं होने दूंगा।"

उसे देखते देवराज चौहान ने सिगरेट सुलगा ली।

“तुम ये सिगरेट पीते हो?” उस व्यक्ति के होंठों से निकला।

“क्या ये भी कार की तरह घटिया है?” देवराज चौहान ने कहा।

“बेहद घटिया । ऐसी सिगरेट तो तुम्हारे नौकर पीते हैं। मुझे समझ नहीं आ रहा कि तुमने अपना क्या हाल कर लिया है। तुम जाने किस बात का अपने से ही बदला ले रहे हो। अपने को संभालो सूरज..... ।”

“नमस्कर।” देवराज चौहान ने बेहद सामान्य ढंग से उस व्यक्ति से कहा--- “बहुत हो गया। अब मुझे चले जाना चाहिए।"

“नहीं, तुम नहीं जा सकते।" उसके होंठों से तेज स्वर निकला।

"क्यों?"

“अब मैं तुम्हें फिर भागने नहीं दूंगा। तुम्हें अपने घर चलना.... ।”

"मैं अपने घर ही जा रहा....।"

"नोरा के पास जा रहे हो?"

"वो मेरा घर नहीं है। मैं नहीं जानता आप किसकी बात कर रहे....।"

एकाएक वो व्यक्ति आगे बढ़ा और फुर्ती से उसने देवराज चौहान की कलाई थाम ली ।

देवराज चौहान के माथे पर बल पड़ गए।

“ये क्या कर रहे हो?" देवराज चौहान का स्वर सख्त था।

"तुम कहीं नहीं जा सकते।" उस व्यक्ति ने दृढ़ स्वर में कहा--- "मैं जानता था कि तुम ऐसा कर सकते हो मुझे देखते ही। मैंने तुम्हें देखते ही सब-इंस्पेक्टर जीवन ताड़े को फोन कर दिया था जो तुम्हें ढूंढने पर लगा हुआ है। वो आने ही वाला होगा। मैंने उसे कहा था कि उसके आने तक तुम्हें हर हाल में रोके रखूंगा। मेरी बेटी को अकेला छोड़कर इस तरह तुम उसकी जिन्दगी बरबाद नहीं कर सकते। नोरा तुम्हारे इंतजार में आंसू बहाती रहती है और तुम्हें उसकी जरा भी परवाह नहीं।"

"तुमने पुलिस को फोन कर दिया?” देवराज चौहान के होंठों से निकला।

“ताकि तुम मेरे हाथ से ना निकल सको। बेटा, घर, घर ही होता है। पत्नी, पत्नी ही होती है। तुम चिन्ता मत करो, मदन से हम किसी तरह निपट लेंगे। अपने छोटे भाई-बहन की सोचो, इस तरह तुम्हारे घर छोड़ देने से उन पर क्या असर पड़ेगा।"

देवराज चौहान ने अपनी कलाई छुड़ानी चाही। परन्तु उसने कलाई को बेहद सख्ती से थाम रखा था।

"तुम हद से ज्यादा आगे बढ़ रहे हो मिस्टर ।" देवराज चौहान की आवाज में कठोरता थी।

“जो भी कहो सूरज, मैं तुम्हें जाने नहीं दूंगा।"

"मैं आपकी उम्र का लिहाज कर रहा....।"

“तुम अपने ससुर का लिहाज कर रहे हो। नोरा के पापा का लिहाज कर रहे हो। मैं जानता....।"

“तुम कुछ नहीं जानते कि तुमने किसकी कलाई पकड़ रखी... ।"

देवराज चौहान के शब्द अधूरे रह गए।

उसी वक्त मोटरसाईकिल की फट-फट करीब ही गूंज उठी।

दोनों नजर घूमी ।

मोटरसाईकिल पर वर्दी पहने एक पुलिस वाला उनके करीब आ पहुँचा था। पाँच कदम की दूरी पर उसने मोटरसाईकिल रोकी। इन दोनों को देखकर वो मुस्कुरा रहा था। मोटरसाईकिल स्टैन्ड पर लगाकर वो पास आने लगा।

"आओ इंस्पेक्टर।" उस व्यक्ति ने कहा।

"नमस्कार सुन्दरलाल जी।" सब-इंस्पेक्टर ने उस व्यक्ति से कहा, जिसका नाम सुन्दरलाल था, फिर कलाई थमी को देखा, उसके बाद सब-इंस्पेक्टर ने देवराज चौहान से मुस्कुराकर कहा--- “नमस्कार सूरज साहब।"

"मैं सूरज नहीं हूँ।" देवराज चौहान ने सख्त स्वर में कहा।

सुन्दरलाल जी ने अब उसकी कलाई छोड़ दी थी।

“सर।” सब-इंस्पेक्टर जीवन ताड़े ने मधुर स्वर में कहा--- “इतनी नाराजगी आपको नहीं होनी चाहिए। दस महीने से आप गायब हैं और मैं आपको ढूंढने पर लगा हूँ। अब आप मिले हैं और कह रहे हैं कि आप, आप नहीं हैं। छोटा मुँह, बड़ी बात, बेहतर होगा कि आप ऐसी कोई हरकत ना करें, जिससे कि आप तमाशा बन जाएं। खबर उठी तो न्यूज पेपर, टी.वी. में आपकी तस्वीर आ जाएगी, फिर....।"

ये सुनते ही देवराज चौहान सतर्क हो उठा ।

जीवन ताड़े ने तो उसे नहीं पहचाना था कि वो डकैती मास्टर देवराज चौहान है। अगर टी.वी. में, अखबार में उसकी तस्वीर छप गई या आ गई तो मुसीबतें खड़ी हो जाएंगी उसके लिए। चाहे जैसे भी हो, ये मामला उसे संभालना होगा; परन्तु मन-ही-मन उसे हैरानी थी कि आखिर ये सूरज कौन है, जिसकी शक्ल इस हद तक उससे मिलती है कि सब धोखा खा जाएं।

“आपको अपने घर चलना चाहिए। अपने परिवार के पास ।" सब-इंस्पेक्टर ने कहा--- “आपके चाचा ने आपके पिता की मौत के बाद आपको जो धोखा दिया है, उससे निपटने का आप कोई भी कानूनी रास्ता निकाल सकते हैं। वकीलों से बातचीत कर सकते हैं, लेकिन ये तभी हो सकता है, जब आप घर पर रहें और हिम्मत से काम लें।"

"तो आप दोनों में से किसी को इस बात का यकीन नहीं कि मैं सूरज नहीं हूँ।" देवराज चौहान ने गम्भीर स्वर में कहा।

सुन्दरलाल ने सब-इंस्पेक्टर ताड़े को देखा।

सब-इंस्पेक्टर ताड़े ने जेब से एक तुड़ी-मुड़ी तस्वीर निकालकर देवराज चौहान को दिखाई।

"ये तस्वीर तो आप ही की है सर?”

देवराज चौहान ने तस्वीर को देखा।

वो उसी की तस्वीर थी यानि कि उसकी ना होते हुए भी उसकी तस्वीर थी।

मिनट भर देवराज चौहान तस्वीर पर नजरें टिकाए रहा।

सब-इंस्पेक्टर ताड़े ने तस्वीर जेब में डालते हुए शांत स्वर में कहा।

"सर । आप को घर चले जाना....।"

“इंस्पेक्टर....।” तभी सुन्दरलाल कह उठे--- “तुम इसे बंगले तक ले चलोगे, ये रास्ते में कहीं भाग खड़ा न हो।"

ताड़े ने सोचभरी नजरों से देवराज चौहान को देखा।

देवराज चौहान के चेहरे पर गम्भीरता ठहरी हुई थी।

"आप चलने को तैयार हैं सर?” ताड़े ने पूछा।

“जाना कहाँ है?” देवराज चौहान ने पूछा।

"बंगले पर ।" सुन्दरलाल ने कहा।

“बंगला कौन-सी जगह पर है?"

“क्यों ड्रामा कर रहे हो सूरज। इन बातों का कोई फायदा नहीं....।"

"पैडर रोड पर ।” सब-इंस्पेक्टर जीवन ताड़े कह उठा ।

देवराज चौहान ने सिर हिलाया। सुन्दरलाल जी को देखा।

सुन्दरलाल तीखी निगाहों से उसे देखता कह उठा ।

"तुम अपने घर चल रहे हो। हिम्मत लाओ अपने में कि मदन, की हरकतों का मुँहतोड़ जवाब उसे दे सको। डरते क्यों हो? रिश्तेदारी की भी एक सीमा होती है। वो कमीना है तो तुम भी कमीने बन जाओ। उसकी वजह से अपनी जिम्मेदारियों से मत भागो।"

देवराज चौहान सुन्दरलाल को देखता रहा ।

सुन्दरलाल ने सब-इंस्पेक्टर ताड़े से कहा ।

"मेरी कार उधर, सामने खड़ी है। आइये।"

देवराज चौहान मन-ही-मन बहुत उलझन में था और परेशान भी था। उसे यकीन नहीं आ रहा था कि कोई उसका हमशक्ल भी है। ठीक उसके जैसा दिखता है। सुन्दरलाल और पुलिस वाला उसे सूरज समझ रहे थे। हो सकता था कि देवराज चौहान इन सब बातों को षड्यन्त्र के तहत लेता; परन्तु सुन्दरलाल का ये कहना कि उसका दो सौ करोड़ का बंगला है? किसी षड्यंत्र के तहत दो सौ करोड़ का बंगला नहीं दिया जा सकता। उस बंगले में नोरा नाम की उसकी पत्नी है। श्रेया और नीरज नाम के छोटे भाई-बहन है। उसके द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली कार को सुन्दरलाल ने  घटिया कहा था। वो जो सिगरेट पीता था, सुन्दरलाल के मुताबिक, वैसी सिगरेट सूरज के नौकर पीते हैं। पुलिस वाला ताड़े उसे दस महीने से ढूंढ रहा था, यहाँ तक कि उसकी तस्वीर भी उसकी जेब में मौजद थी। अगर सब-इंस्पेक्टर जीवन ताड़े वहाँ ना आ जाता तो देवराज चौहान ने सुन्दरलाल से पल्ला झाड़कर निकल जाना था; परन्तु उसके आ जाने से वो खामोशी से इन दोनों के साथ जाने को इसलिए तैयार हो गया कि कोई नया पंगा ना खड़ा हो जाए। वो देवराज चौहान के तौर पर ना पहचान लिया जाए। पर देवराज चौहान निश्चिंत था कि बंगले पर पहुँचने के बाद, इन लोगों को आसानी से गच्चा देकर निकल जाएगा।

जो भी हो, देवराज चौहान का दिमाग गोल-गोल घूम रहा था इन नये हालातों पर।

■■■

कार पैडर रोड के उस दो-मंजिला शानदार बंगले में प्रवेश करती चली गई। लोहे का विशाल गेट दरबान ने कार को देखकर फुर्ती से खोला था। कार पोर्च में पहुँचकर रुक गई। कार को सुन्दरलाल का ड्राईवर चला रहा था। दरवाजे खुले, वो सब बाहर निकले। सुन्दरलाल का चेहरा खुशी से चमक रहा था।

"आओ बेटे।" सुन्दरलाल जी ने प्यार से कहते हुए देवराज चौहान का हाथ थामा--- "तुम अपने घर आ गए। आज का दिन कितना अच्छा है। नोरा तुम्हें देखकर बहुत खुश होगी। श्रेया तो उछलने लगेगी अपने भैया को देखकर।"

"सुन्दरलाल जी, मुझे इजाजत दीजिए।" सब-इंस्पेक्टर ताड़े कह उठा।

"बाहर-बाहर से ही, ये कैसे हो सकता है, भीतर आइये... चाय-पानी...।"

"कल-परसों आऊँगा। सूरज जी से भी मिलूंगा। मुझे तो इतनी तसल्ली है कि सर मिल गए। इस वक्त मैं ड्यूटी पर हूँ और मेरी मोटरसाइकिल उधर खड़ी है।" ताड़े ने कहा।

"मेरा ड्राईवर आपको छोड़ आता है।" कहते हुए सुन्दरलाल जी ड्राईवर से बात करने लगे।

"ठीक है सर।" सब-इंस्पेक्टर ताड़े ने देवराज चौहान से कह--- "मुझे इजाजत दीजिए। मेरा विश्वास है कि अब आप बंगला छोड़कर नहीं जाएंगे।"

देवराज चौहान उसे देखता रहा, बोला नहीं।

सब-इंस्पेक्टर ताड़े सुन्दरलाल की कार में वहाँ से चला गया।

देवराज चौहान पोर्च में खड़ी तीन कारों को देख रहा था। दो कारें विदेशी थीं। कीमती थीं। उनकी शान देखते ही बनती थी। तीसरी कार अपने देश की थी लेकिन वो भी बहुत महंगी थी।

“आओ सूरज भीतर चलो।" सुन्दरलाल जी ने प्यार से उसके कंधे पर हाथ रखा।

तभी पैंट-कमीज पहने एक व्यक्ति पोर्च की तरफ से लगभग दौड़ते हुए करीब आ पहुँचा। उसके चेहरे पर खुशी के भाव दिख रहे थे। वो दोनों हाथ जोड़े कंपकंपाते स्वर में कह उठा---

“आप आ गये मालिक....। आपके बिना तो काम में मन ही नहीं लगता था...।"

देवराज चौहान ने सिर हिलाया।

उसी पल कारों की तरफ से एक और आदमी तेज-तेज कदमों से पास आ पहुँचा।

“मालिक....।" उसका स्वर खुशी से काँप रहा था--- "आप आ गये। मेरा दिल कहता था कि आप जरूर लौट आएंगे।" पास खड़े दूसरे आदमी की तरफ इशारा करते उसने कहा--- "मैं कल ही रतन सिंह से कह रहा था कि मालिक जल्दी आ जाएंगे।"

ना चाहते हुए भी देवराज चौहान दोनों को देखकर मुस्कराया ।

फिर सुन्दरलाल और देवराज चौहान पोर्च में होते हुए, आगे दिखाई दे रहे बंगले के मुख्य द्वार की तरफ बढ़ने लगे।

“ये दोनों कौन थे ?” देवराज चौहान ने पूछा।

“अब तो नाराजगी छोड़ दो सूरज। ऐसी बातें मत पूछो, जो तुम जानते हो। तुम...।"

“मैंने पूछा है ये दोनों कौन थे?"

“ड्राईवर हैं दोनों। रतनसिंह और प्यारेलाल।"

देवराज चौहान सुन्दरलाल के साथ आगे बढ़ता कह उठा---

"अभी भी यकीन कर लो, मैं सूरज नहीं, सुरेन्द्रपाल हूँ।"

"समझ में नहीं आता कि अपने घर आकर भी, जानबूझ कर अनजान बनने का क्या फायदा....।" सुन्दरलाल ने गहरी सांस लेकर कहा--- "अपने घर से कोई भी अनजान नहीं होता, फिर नाराजगी किस बात की। घर के लोगों से तुम्हें शिकायत क्यों....?"

“ये मेरा घर नहीं। वो पुलिसवाला ना आता तो...।"

इसी पल बंगले के मुख्य द्वार से बयालीस पैंतालिस बरस का व्यक्ति बाहर निकला। उसने सफेद कुर्ता-पायजामा पहन रखा था। कंधे पर अंगोछा ले रखा था। सिर के बाल छोटे और काले-सफेद थे। वो स्वस्थ व्यक्ति था। अंगोछे से स्पष्ट हो गया। था कि वो नौकर है। देवराज चौहान पर नज़र पड़ते ही वो ठिठका, फिर उसके चेहरे पर प्रसन्नता भर आई।

"मालिक!" दोनों हाथ जोड़े वो देवराज चौहान की तरफ बढ़ा।

देवराज चौहान ठिठक गया।

"आप आ गये। ओह, अब मैं आपकी पसन्द का खाना बनाऊंगा। जब से आप गये हैं, खाना बनाने का मन ही नहीं करता था....।" वो कह उठा।

देवराज चौहान उसे देखकर मासूम अन्दाज में मुस्कराया। कहा कुछ नहीं। उसके बाद सुन्दरलाल के साथ बंगले के प्रवेश दरवाजे की तरफ बढ़ गया और सुन्दरलाल से पूछा---

"इस नौकर का नाम क्या है?"

"तुम्हें नहीं पता जो मुझसे पूछा....।"

"नाम क्या है?" देवराज चौहान का स्वर कठोर हो गया।

"बाबू!" सुन्दरलाल ने अनमने मन से कहा।

देवराज अब तक इतना तो समझ चुका था कि सूरज मोटी आसामी है। बहुत पैसे वाला है। पोर्च में खड़ी गाड़ियों और बंगले को देखकर ये अनुमान लगाना कठिन नहीं था। ऐसे इंसान को घर छोड़कर नहीं जाना चाहिये था। जिन्दगी में कोई कमी ना हो तो अपने परिवार में ही खुश रहना चाहिये। अगर ऐसा हुआ है तो यकीनन कोई खास वजह ही होगी। इस बात को सूरज से बेहतर कोई नहीं जान सकता। कोई नहीं बता सकता। सुन्दरलाल ने सही कहा था कि दो सौ करोड़ का बंगला है ये।

देवराज चौहान खुद को अजीब-सी स्थिति में महसूस कर रहा था।

दोनों मुख्य दरवाजे से बंगले के भीतर प्रवेश कर गये। ये बंगले का हाल ड्राईंग रूम था। हाल इतना बड़ा था कि उसमें पाँच सौ लोग आसानी से आ सकते थे। साज-सज्जा की तरफ खास ध्यान दिया गया था। बेशकीमती चीजों से ड्राईंगरूम को सजाया गया था। बारह फानूस लटक रहे थे हाल की पूरी छत पर। छतों पर पी•ओ•पी• से काम किया गया था और उनमें कई रंग भरे दिख रहे थे।

हाल के एक तरफ ऊपर जाने के लिए सीढ़ियां दिख रही थीं।

पहली मंजिल पर हाल की तरफ रेलिंग लगी थी और पीछे कतार में कमरे बने दिख रहे थे और देवराज चौहान की निगाह...।

"नोरा.... मेरी बेटी।" सुन्दरलाल के होठों से निकला।

निगाह ऊपरी मंजिल की रेलिंग के उस हिस्से पर जा टिकी थी जहां नोरा खड़ी थी।

वो गहरे रंगों वाली प्रिंटेड साड़ी पहने थी। वैसा ही ब्लाउज था। कद कुछ लम्बा था। बदन छरहरा था। उसके कंधे चौड़े थे। रंग गोरा था। वो दोनों हाथों से रेलिंग को थामें हुए थी और आंसुओं भरी बिल्लौरी आंखों से देवराज चौहान को देख रही थी।

वो इंतहाई खूबसूरत थी ।

उसके होंठों के कट ऐसे मोहक अन्दाज में थे कि खूबसूरती को चार चांद लग गए थे। उन्हीं होंठों पर लाल रंग की लिपस्टिक लगी थी और माथे पर लगे सिन्दूर के निशान ने उसकी खूबसूरती को आसमान तक पहुँचा दिया था।

उसके सामने नामी फिल्मी हीरोईन भी सुन्दरता के मामले में फीकी थी।

देवराज चौहान सोच रहा था कि इतनी बड़ी दौलत और ऐसी खूबसूरत पत्नी को कोई बेवकूफ ही छोड़कर जायेगा; परन्तु वो सूरज को बेवकूफ नहीं मान सकता था। जरूर कोई तो बात थी कि उसे ऐसा कदम.....।

"जाओ बेटा।" सुन्दरलाल ने देवराज चौहान का कंधा थपथपा कर कहा--- "नोरा के पास जाओ। दस महीने से वो तुम्हारे आने का बेसब्री से इन्तजार कर रही है। उधर सीढ़ियाँ हैं....उस तरफ ।"

देवराज चौहान ने सोच भरी नज़रों से सुन्दरलाल को देखा।

"मैं यहीं हूँ।" सुन्दरलाल की आँखों में आँसू छलछला उठे--- "तुम नहीं समझ सकते कि इस वक्त मैं कितना खुश हूं। तुम नोरा के पास जाओ। जाने से पहले मैं तुम्हें मिलकर जाऊंगा सूरज।"

देवराज चौहान ने नज़रें उठाकर पहली मंजिल पर रेलिंग के पास खड़ी नोरा को देखा।

नोरा की आंखों में और गाल पर उसने आंसुओं की चमक देखी। उसकी निगाहों में उसने शिकायत के भाव देखे, जैसे कह रही हो कि तुम मुझे इस तरह छोड़ कर क्यों चले गये थे। तुम्हारे बिना मैं कैसे रही, तुम क्या जानो....। शायद वो अपने पिता की मौजूदगी की वजह से अपने कदमों को, अपनी जुबान की रोके हुए थी, पर आखिरकार कह ही उठी---

"मैंने कहा था पापा....कि मेरा सूरज वापस आ जाएगा।" स्वर में भर्राहट थी। तड़प थी।

जवाब में सुन्दरलाल ने आँसुओं भरा चेहरा हिलाया और मुँह फेर लिया।

एकाएक देवराज चौहान को देखते ही नोरा मुस्कुराई।

देवराज चौहान पलटा और सीढ़ियों की तरफ बढ़ गया। दिमाग में खलबली मची हुई थी। उसे कुछ भी समझ नहीं आ रहा था। कि ये क्या हो रहा है। हर कोई उसे देखकर धोखा खा रहा है कि वो सूरज है। उसे यकीन नहीं आ रहा था कि दो इंसान इस कदर एक जैसे हो सकते हैं। वो नोरा से बात करके हालातों की ठीक से जानकारी लेना चाहता था। अपने हमशक्ल को देखने की उत्सुकता थी मन में और ये भी सोच रहा था कि अगर इन लोगों की समस्या हल कर सका तो जरूर करने की कोशिश करेगा।

देवराज चौहान पहली मंजिल पर पहुंचा और रेलिंग के साथ चलता, नोरा की तरफ बढ़ने लगा।

नोरा की आंसुओं भरी नज़रें देवराज चौहान पर थीं। होंठों में कम्पन-सा उठ आया था उसे करीब आते पाकर ।

देवराज चौहान उसके करीब, चार कदम के फासले पर पहुंच कर रुक गया। उसे देखने लगा।

नोरा की आंखों से आंसू बह निकले, उसे देखते हुए। वो आगे बढ़ी और देवराज चौहान का हाथ थाम लिया। देवराज चौहान हाथ छुड़ा लेना चाहता था, परन्तु उसने सब्र से काम लिया। नोरा को हाथ पकड़े रहने दिया।

"स-सूरज....म-मेरे सूरज....तुम मुझे छोड़कर क्यों चले गए।" नोरा भर्राए स्वर में कह उठी--- “मैंने तो तुम्हें कोई तकलीफ नहीं दी थी। उस दिन तुमने फैसला कर लिया था कि अपने चाचा को कानून के दम पर सबक सिखा कर ही चैन लोगे। उस शाम को तुम किसी काम के लिए खुद ही कार ड्राइव करके गए और आज दस महीनों के बाद मैं तुम्हें देख पा रही हूँ। तुम्हारी कार यहाँ से कुछ दूर खड़े मिली। तुम कहाँ चले गये थे सूरज। तुम्हें मेरी याद नहीं आई.... ।"

देवराज चौहान की शांत निगाह नोरा के आंसुओं भरे चेहरे पर टिकी रही।

एकाएक नोरा उसका हाथ थामे, लगभग खींचने के अन्दाज में सामने की तरफ बढ़ी, जहाँ आठ फीट चौड़ी गैलरी दिख रही थी, जिसके दोनों तरफ बने कमरों के दरवाजे थे। एक हाथ से देवराज चौहान को थामे, दूसरे हाथ से एक दरवाजे को खोला और देवराज चौहान के साथ भीतर प्रवेश करके दरवाजा बंद किया और उससे लिपट गई।

"सूरज.... मेरे सूरज।" नोरा रो पड़ी--- "अब मुझे छोड़ कर मत जाना।"

परन्तु देवराज चौहान ने नोरा को बांहों में कसने की देष्टा नहीं की। अपने दोनों हाथ पीठ पर बांध लिए। सीधा खड़ा रहा। ये अलगाव नोरा ने महसूस किया तो वो फौरन उससे अलग होकर उसे देखने लगी।

देवराज चौहान के चेहरे पर गम्भीरता थी।

नोरा के माथे पर हल्के से बल ठहरे दिख रहे थे।

"तुम....तुम किसी और को तो पसन्द नहीं करने लगे.....?" नोरा के होंठों से भीगा स्वर निकला।

देवराज चौहान उसे देखता रहा।

"दस महीनों के बाद तुम लौटे हो....और मुझे बांहों में भी नहीं ले रहे?" नोरा के भीगे स्वर में बेचैनी आ गई।

देवराज चौहान चुप रहा।

"तुम....तुम मुझे पसन्द नहीं करते तो साफ कह दो, मैं इस घर से चली जाऊंगी, तुम्हें जाने की जरूरत नहीं।"

देवराज चौहान ने कुछ नहीं कहा।

"ऐसे खामोश मत रहो सूरज। जो भी बात है स्पष्ट कह दो। मैं तुम्हें कोई तकलीफ नहीं देना चाहती। मैंने हमेशा तुम्हारी हर बात मानी है। हम पति-पत्नी नहीं, दोस्त बन कर रहे हैं। तुमने ही कहा था कि तुम मुझे दोस्त बनाकर रखोगे। अगर तुम्हारे दिल में कोई और आ बसी है तो मैं तुम्हें परेशान नहीं होने दूंगी। मैं तुम्हारे रास्ते से हट जाऊंगी। पापा की चिन्ता मत करो। पापा को मैं समझा लूंगी। जो भी बात है, मुझे साफ-साफ बता दो। मैं तुम्हें खुश देखना चाहती हूँ।" नोरा की बिल्लौरी आँखों में अभी भी आँसुओं की चमक नज़र आ रही थी--- "मुझे अपना दोस्त समझो सूरज। पति-पत्नी होकर भी हम अच्छे दोस्त रहे हैं।"

देवराज चौहान ने नोरा के चेहरे से हटाकर कमरे में नज़रे दौड़ाई।

ये काफी बड़ा और सजा-सजाया बैडरूम था। किंग साइज का बैड था। टी.वी. था। फ्रिज था। दो वार्डरोब थे। छोटी सी डायनिंग टेबल के अलावा एक तरफ दो कुर्सियाँ और टेबल बैठने के लिए भी थी। जरूरत की हर चीज वहां मौजूद थी, जैसे कि दौलतमंद के बैडरूम में होती है। एक तरफ छोटा सा बॉर काउंटर था जिसके पीछे शैल्फ में कीमती बोतलें रखी नज़र आ रही थीं, परन्तु देवराज चौहान की निगाह बैड के साईड टेबल पर खड़ी कर रखी तस्वीर पर जा टिकी।

देवराज चौहान तुरन्त आगे बढ़ा और पास पहुंचकर उस तस्वीर को उठा लिया।

वो तस्वीर नोरा की शादी की थी।

दुल्हन बनी नोरा के साथ दूल्हे के रूप में वो खुद खड़ा था।

देवराज चौहान की आंखें सिकुड़ गईं।

नोरा के साथ दूल्हे के रूप में वो ही तो था; परन्तु उसे पता था कि वो तस्वीर उसकी नहीं है, क्योंकि वो कभी भी नोरा का दूल्हा नहीं बना था। उसने नोरा के साथ शादी नहीं की थी तो तस्वीर उसकी भी नहीं थी।

स्पष्ट था कि नोरा के साथ उसके चेहरे जैसा कोई दूसरा इन्सान है।

दूसरा इन्सान यानि कि सूरज ?

उसका चेहरा इस कदर सूरज के साथ मेल खाता था कि दूसरों की क्या बात कहें, वो खुद भी धोखा खा रहा था। अगर जगमोहन ये तस्वीर देखता तो, इसे उसकी तस्वीर ही कहता।

देवराज चौहान के चेहरे पर गम्भीरता नज़र आने लगी। उसने तस्वीर वापस रखी और पलटकर नोरा की तरफ देखा, जो कि उसे ही देख रही थी। देवराज चौहान आगे बढ़कर कुर्सी पर बैठा और सिगरेट सुलगा ली।

नोरा अभी भी वहीं खड़ी एकटक उसे देख रही थी और कह उठी---“तुम बहुत बदले-बदले से लग रहे हो सूरज। लगता नहीं कि तुम सूरज ही हो।"

"यहां आओ, कर्सी पर बैठो, तुमसे कुछ बात करनी है।" देवराज चौहान के चेहरे पर गम्भीरता थी।

नोरा तुरन्त पास आ पहुंची और कुर्सी पर बैठते व्याकुल स्वर में बोली---

“तो मेरा ख्याल ठीक निकला कि इन दस महीनों में तुम्हारे दिल में कोई और आ बसी है।"

देवराज चौहान ने उसके खूबसूरत चेहरे को देखा। बिल्लौरी आंखों ने उसकी खूबसूरती में चार चांद लगा रखे थे वो ऐसी दिखती थी कि हर कोई उससे शादी करने का इच्छुक होता। था।

परन्तु देवराज चौहान का दिमाग तो कहीं और दौड़ रहा था।

"मैं सूरज हूँ?" देवराज चौहान ने बात शुरू की।

"हाँ, तुम सूरज ही हो....।"

"मैं सूरज नहीं हूँ।"

"तुम सूरज नहीं हो?" नोरा अजीब-से स्वर में बोली--- "ये तुम क्या कह रहे हो?"

"मैं सही कह रहा हूँ।"

"होश में आओ सूरज, तुम मेरे सामने, अपने सामने, बंगले वालों के सामने, अपने यार-दोस्तों के सामने तुम खुद को नकार नहीं सकते। ये क्या पागलों वाली बात कह रहे हो कि तुम सूरज नहीं हो? कोई मानेगा क्या?"

"मेरा नाम सुरेन्द्रपाल है।"

“सुरेन्द्रपाल ?" नोरा के स्वर में उलझन उभरी--- "क्या हो गया है तुम्हें सूरज?"

देवराज चौहान ने कश लिया, फिर बोला---

"मैं सच कह रहा हूं, मैं सुरेन्द्रपाल हूँ।"

"तुम्हें प्राब्लम क्या है? तुम दस महीने से घर से गायब हो और अब सामने आये तो कहते हो कि सूरज नहीं, सुरेन्द्रपाल हो। मेरी तो समझ में कुछ नहीं आ रहा कि आखिर तुम चाहते क्या हो?"

“तुम्हें मेरी बात मान लेनी चाहिये कि मैं सुरेन्द्रपाल...।"

“वो उधर, फ्रेम में लगी तुमने शादी की तस्वीर देखी है अभी?" नोरा व्याकुल सी बोली।

"हां... I"

“उसे देखने के बाद भी तुम कहोगे कि तुम सूरज नहीं, सुरेन्द्रपाल हो?"

“मेरा नाम सुरेन्द्रपाल है।"

“और तुम-- तुम-- वो तस्वीर तुम्हारी नहीं, सूरज की है। यही ना?"

“हाँ।”

“तुम तो पागलों वाली बातें कर रहे हो। क्या हो गया है तुम्हें? तुम मुझे अपनी पत्नी मानने से इन्कार कर रहे हो। जो भी ये बात सुनेगा, वो तुम्हें पागल ही कहेगा।" नोरा हक्की-बक्की सी हालत में थी।

"मैं पागल नहीं हूँ।"

"पर तुम पागलों वाली बातें ही कर रहे हो....।"

"मैं पागल नहीं हूँ और मैंने जो कहा है, वो पूरी तरह सच है कि मैं सूरज नहीं सुरेन्द्रपाल हूँ।" देवराज चौहान ने एक-एक शब्द पर जोर देकर कहा--- "मैं तो कभी भी....।"

"इसका मतलब मैं पागल हूँ। मेरे पापा पागल हैं। इस बंगले के नौकर पागल हैं जो तुम्हें सूरज समझते हैं। तुम्हारे दोस्तों को फोन करके अभी बुलाऊँ तो वो भी तुम्हें सूरज कहेंगे और वो भी पागल ही होंगे। तुम्हारा मदन चाचा तुम्हें सूरज कहेगा तो वो भी पागल होगा। तुम्हारे पापा के बिजनेस में सब कर्मचारी तुम्हें जानते हैं, वो भी तुम्हें पागल ही लगेंगे जब तुम्हें सूरज कहेंगे। आस-पड़ौस में रहने वाले भी पागल हैं जो तुम्हें सूरज कहकर बुलाएंगे। सिर्फ तुम ही सही हो।" नोरा के स्वर में उखड़ापन आ गया था---- "मैंने पहले भी कहा है कि अगर तुम किसी और लड़की के चक्कर में हो तो कह दो, मैं रास्ते से हट जाऊँगी।"

जवाब में देवराज चौहान बेहद शांत स्वर में बोला---

“मैं तुम्हें ये समझाना चाहता हूँ कि मैं....।"

तभी दरवाजे पर थपथपाहट हुई।

दोनों की निगाहें दरवाजे की तरफ उठीं।

"कौन?” यहीं बैठे-बैठे नोरा ने पूछा।

“मालकिन, चाय लाया हूँ।" बाहर से बाबू की आवाज कानों में पड़ी।

"आ जाओ।"

दरवाजा खुला और ट्रे थामे बाबू दिखा। पीछे एक नौकरानी भी ट्रे थामे थी। दोनों ने भीतर प्रवेश किया और उनके पास आ पहुँचे। बाबू प्रसन्न दिख रहा था और ट्रे में रखी केतली और कप वगैरह टेबल पर रखते हुए, देवराज चौहान को देखते कह उठा---

"मालिक, आज मन से चाय बनाई है। खुशी से बनाई है कि आप बंगले पर आ गए।"

तभी सत्ताईस बरस की नौकरानी प्रेमवती ट्रे में खाने का सामान थामे कह उठी---

"राम-राम मालिक। जब मुझे पता चला कि आप आ गए हैं, तो मैंने उसी पल गैस पर कढ़ाई रख दी। आपकी पसन्द के पकोड़े बनाए हैं। जब से आप गए, तब से मैंने पकोड़े ही नहीं बनाए।"

ना चाहते हुए भी देवराज चौहान ने मुस्कुराकर गर्दन हिला दी।

"अब तो यहीं रहोगे ना मालिक...।" प्रेमवती खाने के सामान की प्लेटें टेबल पर रखती कह उठी।

"बाकी बातें फिर कर लेना।" नोरा के ये शब्द प्रेमवती को यहाँ से जाने का इशारा थे।

"चल-चल ।" बाबू बोला--- "मालिक को आराम करने दे।"

दोनों बाहर निकल गए। दरवाजा बंद हो गया।

नोरा ने देवराज चौहान को देखकर कहा---

"ये दोनों भी पागल हैं कि तुम्हें सूरज समझ रहे हैं। तुम तो सूरज हो ही नहीं।"

"मेरी बात को समझने की चेष्टा....।"

"ये सब छोड़ो सूरज, अगर मेरे से तुम्हारा मन शादी के तीन महीने में ही भर गया है तो मैं चली जाती....।"

"तीन महीने? क्या सूरज जब तुम्हें छोड़कर गया, तब शादी को तीन महीने ही हुए थे?" देवराज चौहान ने पूछा।

"जैसे कि तुम्हें पता नहीं। इतने भोले क्यों बन रहे हो?" नोरा ने उखड़े स्वर में कहा--- "मुझे नहीं मालूम था कि दस महीनों बाद तुम सामने आओगे, तो ऐसा कुछ कहोगे। मैं तुम पर बोझ नहीं बनना.....।"

"तुम्हारे साथ तो तीस साल रहकर भी किसी का मन नहीं भरेगा। तुम बहुत खूबसूरत हो।" देवराज चौहान ने गंभीर स्वर में कहा--- "मैं तुम्हें समझाना चाहता हूँ कि मैं सूरज नहीं, सुरेन्द्रपाल हूँ। धोखा यहाँ हो रहा है कि मेरा और सूरज का चेहरा एक जैसा ही है, तभी तुम सब धोखा खा रहे हो।"

नोरा ने देवराज चौहान की आँखों में झांका।

"इतने लोग गलत नहीं हो सकते जो मुझे सूरज कह रहे हैं। वो पुलिसवाला भी गलत नहीं हो सकता, लेकिन मैं भी गलत नहीं हूँ कि मैं सुरेन्द्रपाल हूँ। जैसे मैं हालातों को समझ रहा हूँ, उसी तरह तुम भी हालातों को समझो कि सूरज का चेहरा मेरे साथ मिलता है। बस यहीं पर सबको धोखा हुआ है।"

"तुम सूरज नहीं तो यहाँ आये क्यों?" नोरा कह उठी।

"वो पुलिसवाला और तुम्हारे पापा जबर्दस्ती.....।"

"जबदस्ती?" नोरा की आवाज में तीखापन आ गया--- "इस तरह किसी की जबर्दस्ती नहीं चल सकती। तुम वहाँ पर हंगामा खड़ा कर सकते थे कि तुम सूरज नहीं, सुरेन्द्र हो। तुम्हारा भी तो चार होगा, पत्नी-परिवार होगा। पड़ौस के लोग होंगे। रिश्तेदार होंगे, वो सब ये बात साबित कर देते कि तुम सुरेन्द्रपाल हो, सूरज नहीं। पर ऐसा कुछ भी नहीं किया तुमने, क्योंकि तुम सूरज हो और....।"

नोरा कहती रही।

जबकि देवराज चौहान सोच रहा था कि नोरा की बात सौ प्रतिशत सही है। उसे ऐसा ही करना चाहिए था, परन्तु ऐसा कर नहीं सकता था, क्योंकि वो डकैती मास्टर देवराज चौहान था। बात बढ़ती तो कोई भी पुलिस वाला उसे पहचान सकता था। यही वजह रही कि वो खामोशी से यहाँ चला आया।

चाय ठण्डी हो रही थी, ना नोरा ने पी. ना देवराज चौहान ने

"मैं।" नोरा ने पुनः गंभीर स्वर में कहा--- "जबर्दस्ती तुम्हारे साथ नहीं रहना चाहती कि तुम मुझे अपनी पत्नी ही ना मानो। अगर तुम मुझसे अलग होना चाहते हो तो तुम्हें जाने की जरूरत नहीं, मैं ही यहाँ से चली जाती....।"

"नहीं।" देवराज चौहान के होंठों से निकला--- "तुम यहीं रहो।"

नोरा ने गहरी निगाहों से देवराज चौहान को देखा।

"यहीं रहूँ?"

"हां!"

"तो मानते हो कि तुम सूरज हो!"

"नहीं...मैं....।"

"फिर मेरा यहाँ पर रहने का कोई फायदा नहीं।" नोरा कहते हुए कुर्सी से उठ खड़ी हुई।

देवराज चौहान भी उठा।

"मैं किसी का गला पकड़ कर उसके साथ नहीं चाहती।" नोरा ने कहा--- "तुम खुशी से.....।"

"मुझे समझो तुम कि मैं तुम्हारा पति नहीं हूँ।"

"नहीं हो?"

"यकीन मानो नहीं।"

"मैं तुम्हारे शरीर पर दो जगह देखना चाहती हूँ।" नोरा बोली।

"दो जगह ?"

"तुम्हारी पीठ और तुम्हारी दाईं टांग।"

"वहाँ क्या देखना चाहती हो?" देवराज चौहान की आँखें सिकुड़ी।

"तुम कहोगे कि मैं तुमसे पहले कभी नहीं मिली?" नोरा ने कहा।

"यकीनन हम पहली बार मिल रहे हैं।" देवराज चौहान ने सिर हिलाया।

"परन्तु तुम मेरे पति हो। मैंने तुम्हारे शरीर को बहुत अच्छी तरह देखा है, पत्नी होने के नाते। तुम्हारे दाँये कंधे पर लाल तिल है और दांई जांघ के भीतरी तरफ छोटा-सा काला निशान है। ऐसी बातें सिर्फ पत्नी ही नोट कर सकती है। अगर दोनों में से एक चीज भी तुम्हारे शरीर पर कम मिली तो मैं उसी पल मान लूंगी कि तुम मेरे पति सूरज नहीं हो, बल्कि कोई अजनबी सुरेन्द्रपाल हो।" नोरा के स्वर में गंभीरता भरी हुई थी।

देवराज चौहान के मस्तिष्क को जबर्दस्त झटका लगा।

उसके दाँये कंधे पर लाल तिल था। वो जानता था। दाई जाँघ के भीतरी तरफ काला तिल था, ये भी उसे पता था।

देवराज चौहान एकटक नोरा के खूबसूरत चेहरे को देखता रह गया। मस्तिष्क में तूफान-सा उठ रहा था कि वो नोरा से कभी नहीं मिला। नोरा से उसका कोई रिश्ता, कभी नहीं रहा। फिर इसे कैसे पता कि उसके कंधे पर और जाँघ के भीतरी तरफ भी तिल हैं? देवराज चौहान को अपना सिर गोल-गोल घूमता-सा लगा।

“तुम्हें कैसे पता?" देवराज चौहान के होंठों से निकला।

"क्या?"

“कि... कि मेरे कंधे और जाँघ पर तिल हैं।"

“मतलब कि हैं?" नोरा के होंठों पर छोटी-सी मुस्कान उभरी, फिर लुप्त हो गई--- “मेरे पतिदेव, तुमने खुद अपने मुँह से दोनों तिलों के होने की बात मानी है। बहुत हो गया सूरज ! अब और ड्रामा ना करो। मुझसे तुम्हें वैसे भी नाराजगी नहीं होनी चाहिए, क्योंकि मैं तुम्हारी पत्नी हूँ और अच्छी पत्नी हूँ। अब मुझे अपनी बांहों में ले लो।"

उसे देखता, देवराज चौहान खड़ा रहा।

“नहीं मानोगे?” नोरा मुस्कुराई ।

देवराज चौहान खुद को असंयत सा महसूस कर रहा था। नोरा ने तिलों के होने की जो बात बताई थी, उसके बाद तो उसके होंठों से कुछ निकल ही नहीं रहा था। कहते ना बन पा रहा था। मस्तिष्क में एक ही बात दौड़े जा रही थी कि उसके साथ क्या हो रहा है। नोरा आखिर है कौन, जो उसके शरीर के तिलों के बारे में जानती है। वो कहती है कि उसकी पत्नी है। फ्रेम में लगी शादी की तस्वीर सामने ही रखी है। उसमें भी वो ही है। तो क्या कोई ऐसा इंसान भी है जो ठीक उसकी तरह दिखता है। यहाँ तक कि उसके कंधे और जांघ के भीतरी तरफ भी तिल हैं?

ये असम्भव-सी बात थी। परन्तु हालात इशारा कर रहे थे कि ऐसा ही है।

"सूरज.... ।" नोरा एक कदम उठाकर उसके करीब आ पहुंची।

देवराज चौहान ख्यालों से बाहर निकला।

नोरा को देखा जो प्यार भरी नजरों से उसे देखती मंद-मंद मुस्कुरा रही थी।

"मुझे बांहों में क्यों नहीं लेते, पहले की तरह?" नोरा की आवाज में मादकता आ गई।

“एक बात बताओ।" देवराज चौहान खुद को संयत रखता कह उठा।

"पूछो पतिदेव ।" कहते हुए नोरा ने उसका हाथ थाम लिया।

देवराज चौहान ने हाथ छुड़ाने की चेष्टा नहीं की।

"दस महीने पहले जब मैं चला गया था, तो तब भी मैं ऐसा ही दिखता था?” देवराज चौहान बोला।

“क्या मतलब?”

“मेरा मतलब कि मेरी कद-काठी। पहले और अब की लम्बाई-चौड़ाई में तुम्हें फर्क नजर नहीं आ रहा?"

“नहीं तो.... । तुम जैसे गए थे, वैसे ही हो। एकदम वैसे ही।" कहने के साथ नोरा ने उसे बांहों में भर लिया।

देवराज चौहान ने उसे बांहों में नहीं भरा। दोनों हाथ पीठ पर बांध लिए।

ये महसूस करते ही नोरा तड़पकर उससे अलग होते कह उठी---

“आखिर तुम्हारे मन में क्या है। तुम मुझे बाहों में क्यों नहीं लेते। पहले तो तुम..... ।”

“शांत रहो।” देवराज चौहान बोला--- “मैं कुछ परेशान हूँ।"

“परेशान? क्या मुझे पास पाकर तुम परेशान हो ?”

“ये बात नहीं.... ।”

“तुम साफ क्यों नहीं कहते कि तुम्हारे मन में कोई और आ बसी है। कहाँ रहे तुम दस महीने? किसी लड़की के साथ रहे ना? एक बार कहकर तो देखो, मैं तुम्हारी जिन्दगी से चली जाऊँगी।" नोरा की आँखों में आंसू चमक उठे।

देवराज चौहान का दिमाग तेजी से चल रहा था।

ये सारे हालात उसे बेचैन कर रहे थे।

क्या ये कोई षड्यंत्र है, जिसमें उसे फंसाया जा रहा है?

"मेरे से आराम से पेश आओ।" देवराज चौहान बोला--- "मुझे कुछ वक्त दो। मेरा दिमाग ठीक से काम नहीं कर रहा....मैं....।"

"क्या हुआ है तुम्हारे दिमाग को?" नोरा ने पुन: देवराज चौहान का हाथ थाम लिया।

"मैं... मैं, मेरा एक्सीडेन्ट हो गया था।" देवराज चौहान सब्र के साथ बोला--- "पता नहीं कैसे हुआ? मुझे कुछ भी याद नहीं। इतना पता है कि मैं हॉस्पिटल में महीनों रहा। मुझे होश नहीं रहा कि मैं कौन हूँ, कहाँ हूँ। एक्सीडेन्ट का दिमाग पर ऐसा असर हुआ, मुझे अपना नाम तक नहीं पता....।"

"ये... ये क्या कह रहे हो सूरज?"

"मैं ठीक कह रहा हूँ।" देवराज चौहान गम्भीर था--- "महीनों बाद जब डॉक्टरों ने मुझे छुट्टी दी तो जाने किसने मुझे सुरेन्द्रपाल का नाम दिया और मुझे ये ही याद रहा कि मैं सुरेन्द्रपाल हूँ। अपना पुराना जीवन मैं भूल गया। मुझे याद है कि डॉक्टर ने कहा था, कभी भी मुझे अपने पुराने जीवन की बातें याद आ सकती हैं। मैं नहीं जानता तुम कौन हो? तुम्हारे पापा को भी नहीं जानता। उन्होंने मुझे देखा और एक पुलिसवाले को बुला लिया। फिर जबर्दस्ती ही यहाँ ले आए। अभी भी मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा कि तुम...तुम मेरी कौन हो।"

"ओह!" नोरा तड़पकर बोली--- "तुम...तुम अपनी याददाश्त खो बैठे हो।"

"कुछ ऐसा ही। मुझे अपने जीवन की बातें याद नहीं। एक्सीडेन्ट के बाद की बातें ही याद हैं। मैं-मैं....।"

“अब मैं तुम्हारे पास हूँ।" नोरा, देवराज चौहान के सीने से लग गई--- "मैं तुम्हें सब याद दिला दूंगी। मेरा प्यार तुम्हें वापस अपनी जिंदगी में ले आएगा। बस इतना याद रखो कि मैं तुम्हारी पत्नी नोरा हूँ।"

"नोरा !"

"हाँ, नोरा तुम्हारी है। सिर्फ सूरज की।" देवराज चौहान की छाती से सटे नोरा भर्राए स्वर में कह रही थी--- "मैं तुम्हें कुछ नहीं होने दूंगी अब तुम हर वक्त मेरे पास, मेरी आँखों के सामने रहोगे।"

"तुम बहुत अच्छी हो।"

"हम बहुत खुश थे सूरज। हमारी जिन्दगी अच्छी चलने लगी थी शादी के बाद। जाने किसकी बुरी नजर लग गई। मैं तुम्हारा अच्छे-से-अच्छे डॉक्टर से इलाज कराऊँगी। तुम ठीक हो जाओगे सब कुछ तुम्हें याद आ जाएगा।"

देवराज चौहान ने नोरा के आंसू अपनी छाती पर महसूस किए। साथ ही सोच रहा था कि हालातों को समझने के लिए अब उसे वक्त मिल गया है। ऐसी बातें करके उसने नोरा को संभाल लिया है। ये सब क्या हो रहा है, धीरे-धीरे समझ सकेगा। ये सब कुछ उसे गहरी साजिश जैसा, किसी षड्यन्त्र जैसा लग रहा था।

“नोरा....।" देवराज चौहान बोला।

“हाँ सूरज ।” नोरा उस से अलग होती कह उठी।

देवराज चौहान ने देखा नोरा के गाल और आँखें आँसुओं से भरे थे ।

“मैं आराम करना चाहता हूँ कुछ देर।"

“आओ ना।" नोरा उसका हाथ पकड़कर बैड की तरफ बढ़ी--- “यहाँ आराम करो।"

देवराज चौहान बैड पर आ बैठा।

नोरा फुर्ती से झुकी और देवराज चौहान के जूते उतारने लगी।

देवराज चौहान नोरा को देखता रहा। कहा कुछ नहीं।

फिर बैड की पुश्त से तकिये सटाकर देवराज चौहान अधलेटा-सा हो गया। जेब से पैकिट निकाला, सिगरेट निकालने के लिए कि नोरा ने तुरन्त उसके हाथ से पैकिट लेते हुए कहा---

“ये कौन-सी सिगरेट पीने लगे तुम।”

“मैं ये ही सिगरेट पीता हूँ।" देवराज चौहान ने कहा।

“तुम ये नहीं पीते, ठहरो, मैं देती हूँ।" इसके साथ ही नोरा वार्डरौब की तरफ बढ़ गई।

“तुम शायद भूल गए हो कि ये सिगरेट पीते हो।”

“मैंने कहा ना, मुझे कुछ भी याद नहीं पहले का।" खुद को परेशान दिखाते देवराज चौहान ने कहा।

"सब ठीक हो जाएगा सूरज। मेरे पास आ गए हो तो सब कुछ तुम्हे याद भी आने लगेगा।" नोरा ने कहा और उसके पास ही बैड पर आ बैठी, उसे पैकिट दिया। देवराज चौहान के सिर के बालों में हाथ फेरने लगी।

देवराज चौहान ने सिगरेट सुलगा ली। वो सोच रहा था कि ये सब क्या हो रहा है?

“नोरा।" देवराज चौहान ने सोच भरे स्वर में कहा।

“कहो तो....!”

"जब बंगले के और बाहर के सब लोग, ये जानेंगे कि मुझे पहले का कुछ याद नहीं, तो क्या होगा?"

नोरा ने सोच भरी निगाहों से देवराज चौहान को देखा।

"तब तो तुम्हें बहुत समस्या आएगी सूरज....।" नोरा बोली।

"हाँ। मैं किसी से ठीक से बात नहीं कर पाऊँगा।"

नोरा के चेहरे पर सोचें नाचती रहीं।

देवराज चौहान ने आँखें बंद कीं और कश लिया।

"तुम ठीक हो जाओगे, मेरा दिल कहता है, पर तब तक के लिए एक रास्ता है इस समस्या का हल....।"

"क्या?" देवराज चौहान ने आँखें खोलकर, नोरा को देखा।

"मैं हर पल तुम्हारे साथ रहूँ और तुम जिससे भी मिलो, उसके बारे में तुम्हें बता दूँ कि वो कौन है। तुम उससे कैसे बात करते हो।"

“ऐसा किया जा सकता है; परन्तु ये पक्का हल तो नहीं।"

“क्या पता इसी तरह धीरे-धीरे तुम्हें सब याद आ जाए।" नोरा ने कहा।

"कह नहीं सकता।”

"मुझ पर यकीन रखो, सब ठीक हो जाएगा सूरज।" नोरा उसके सिर के बालों में हाथ फेरती बोली--- "तुम्हारे जाने के बाद मैं बहुत कमजोर हो गई थी। अकेली पड़ गई थी। नीरज और श्रेया को संभालना कठिन हो रहा था। दोनों मुझसे पूछते कि तुम कहाँ हो, कब घर आओगे? कोई फोन तो नहीं आया--- क्या कहती मैं उन्हें। श्रेया से तो तुम्हारी बनती भी बहुत है। वो तुम्हारे बिना उदास रहती है। जब उसे पता चलेगा कि तुम आ गए हो तो....।"

"तुम्हारे पापा ने मुझे नीरज-श्रेया के बारे में बताया था, ये मेरे छोटे भाई-बहन हैं?"

“हाँ तो... ये दोनों....।"

"मुझे सब कुछ बताओ....।"

"सब कुछ?" नोरा का फिरता हाथ देवराज चौहान के सिर पर थम गया।

"मेरे पहले के जीवन की सारी बातें। सारे लोग, हो सकता है इस तरह मुझे याद आ जाए सब कुछ।"

"क्यों नहीं।" नोरा फौरन बैड से उतरी और उसी वार्डरौब को खोलकर भीतर से चाबी का गुच्छा ले आई। पास आते ही हाथ में थमा गुच्छा देवराज चौहान की तरफ बढ़ाती, मुस्कुराकर बोली--- "ये लो और मेरा बोझ कम करो।"

देवराज चौहान ने देखा उस गुच्छे में दो लम्बी चाबियाँ थीं। उसने चाबी का गुच्छा थामा और ध्यान से चाबियों को देखा। एक कुछ छोटी, परन्तु तीन इंच लम्बी चाबी थी। दूसरी मोटी और पाँच इंच लम्बी चाबी थी। देवराज चौहान को समझते देर नहीं लगी कि ये चाबियाँ किसी तिजोरी या ऐसी ही किसी चीज की होनी चाहिए।

"कुछ याद नहीं आया?" नोरा मुस्कुराई ।

"नहीं!"

“ये तुम्हारी तिजोरी की चाबी है।” नोरा कह उठी--- “जब तुम अचानक चले गए थे तो बाद में ये चाबी मुझे उस टेबल के ड्राज़ में ही पड़ी मिली। मेरे पास तो पैसा था नहीं। तिजोरी में से ही दस महीनों से जरूरत का पैसा निकालकर खर्च करती रही।"

“पर तिजोरी है कहाँ?"

“आओ! मैं बताती हूँ पतिदेव । तुम जानते हो तिजोरी में क्या-क्या है?"

"नहीं।"

“पहले तो मुझे भी पता नहीं था, पर तुम्हारे जाने के बाद मैंने तिजोरी को पूरा चैक किया था। अब तुम ही उसे देखो, शायद बीते वक्त तुम्हें याद आ जाएं। अब उठो भी....।" नोरा ने देवराज चौहान की बाँह थामी।

देवराज चौहान चाबियाँ थामे उठ खड़ा हुआ।

नोरा उसे लेकर वार्डरोब के पास, कोने में पहुँची और देखते-ही-देखते दोनों हाथों से वार्डरोब को धक्का देने लगी। वार्डरौब ऊपर-नीचे, चैनलों के साथ खड़ा था जो कि चैनलों पर सरकता एक तरफ होता चला गया। उसके पीछे दीवार पर पाँच फुट ऊंची, चार फुट चौड़ी तिजोरी का दरवाजा दिखने लगा था। तिजोरी जमीन से चार फुट ऊपर, छ: इंच दीवार में धंसी हुई थी। तिजोरी का सामने का दरवाजा देखकर ही पता चलता था कि वो मजबूत है; परन्तु वो पुराने जमाने की थी। आज-कल की तरह कम्बीनेशन वाली तिजोरी नहीं थी।

देवराज चौहान तिजोरी को देखता रह गया।

"खोलो इसे।" नोरा बोली।

देवराज चौहान हाथ में दबी चाबियों को नोरा की तरफ बढ़ाते हुए बोला---

“तुम खोलो।"

नोरा ने चाबियां लीं और तिजोरी खोलने लगी। तिजोरी के दरवाजे पर साथ-साथ ही दो की-होल नजर आ रहे थे। नोरा ने पहले छोटी चाबी एक की-होल में डालकर घुमाई, फिर बड़ी चाबी को दूसरे की-होल में डालकर उल्टी दिशा में तीन बार घुमाने के बाद, तिजोरी का हैंडिल दबाकर, उसका दरवाजा खोल दिया।

देवराज चौहान की निगाह तिजोरी के भीतर जाकर ठहर गई।

"मैं दरवाजे की सिटकनी लगा आऊँ।” कहकर नोरा दरवाजे की तरफ बढ़ गई।

जबकि देवराज चौहान सकते की सी स्थिति में खड़ा था। तिजोरी में रखी करोड़ों की दौलत उसे नजर आ रही थी। उसकी पैनी नजरों ने भांप लिया था कि एक से दो या तीन करोड़ के बीच तक की नकदी पड़ी है। तिजोरी की दीवार के साथ-साथ हजार-हजार के नोटों की गड्डियों की लाइनें लगी हुई। थीं। पाँच सौ के नोटों की गड्डियाँ भी थीं। तिजोरी चार से पाँच फुट गहरी थी। बीच में छोटे ढेर की तरह गोल्ड रखा था। डायमंड के जेवरात भी थे। देखता रह गया देवराज चौहान।

नोरा पास आ पहुँची थी।

देवराज चौहान का दिमाग इस वक्त अजीब-सी स्थिति में फंस चुका था। वो सोच रहा था कि किसी अन्जान के सामने इस तरह दौलत नहीं परोसी जा सकती, वो भी इतनी बड़ी दौलत । तो क्या वास्तव में सूरज का वजूद है? नोरा सही कह रही है? नोरा के पापा सुन्दरलाल ने जो कहा, वो सब सही है?

गोल्ड और डायमंड मिलाकर ये तीन करोड़ के ऊपर की दौलत थी।

देवराज चौहान आगे बढ़ा और तिजोरी में हाथ डालकर सब कुछ देखने लगा। चैक करने लगा।

तभी देवराज चौहान की निगाह एक मोटे-से फोल्डर पर पड़ी। देवराज चौहान ने फोल्डर बाहर निकाला और उसे खोला। भीतर टाईप किए स्टाम्प पेपर थे। उसकी तस्वीर भी उस पेपर पर लगी थी। एक और तस्वीर थी पैंसठ साल के बुजुर्ग की । देवराज चौहान स्टाम्प पेपरों को पढ़ता चला गया। कोर्ट की मोहरें उन कागजों के आगे-पीछे लगी थीं। पेपर पैडर रोड के इसी बंगले के थे। इनमें उसका नाम सूरज लिखा था और उस बुजुर्ग व्यक्ति का नाम शिवचंद था। पेपरों के मुताबिक शिवचंद उसका पिता था, तारीख के हिसाब से पन्द्रह महीने पहले शिवचन्द ने ये बंगला अपने बेटे सूरज को गिफ्ट के तौर पर दे दिया था।

इसका मतलब इस बंगले का मालिक सूरज है।

और उसे सूरज समझा जा रहा है।

देवराज चौहान जानता था कि ये बंगला दो सौ करोड़ से ज्यादा का है। जबर्दस्ती उसे पकड़कर, उसे सूरज कहकर सब कुछ दिया जा रहा है। साथ में नोरा नाम की खूबसूरत पत्नी । बंगला भी, महंगी गाड़ियाँ भी।

देवराज चौहान ठगा-सा खड़ा था। पास खड़ी नोरा को तो वो बिल्कुल ही भूल गया था।

देवराज चौहान ने कागजों के उस फोल्डर को वापस तिजोरी में रखा। चेहरे पर गंभीरता नाच रही थी, वो सोच रहा था; परन्तु सोचें इतनी ज्यादा इकट्ठी हो गई थीं कि पता नहीं चल रहा था कि वो क्या सोच रहा है।

"कुछ याद आया?" नोरा की आवाज कानों में पड़ी।

देवराज चौहान ने गर्दन घुमाकर नोरा को देखा।

नोरा के चेहरे पर उत्सुकता के भाव थे और नजर उस पर थी।

"नहीं।" देवराज चौहान ने इंकार में सिर हिलाया।

"ओह....!" नोरा के चेहरे पर मायूसी छा गई।

देवराज चौहान ने खुली तिजोरी पर नजर मारकर नोरा से कहा।

"इसे बंद कर दो।" इसके साथ ही देवराज चौहान वापस बैड पर पहुँचा और सिगरेट सुलगा ली। नोरा ने तिजोरी पहले की तरह बंद की। वार्डरौब वापस सरकाया और पास आ पहुँची।

"ये लो।" नोरा ने चाबियां उसकी तरफ बढ़ाई--- "तिजोरी को संभालना मेरे बस का नहीं।"

देवराज चौहान ने चाबियों को देखा, फिर नोरा को।

"ये तुम ही रखो।" देवराज चौहान का स्वर गंभीर था।

"बिल्कुल नहीं।" नोरा ने चाबियाँ देवराज चौहान के पास रखते हुए दृढ़ स्वर में कहा--- "मैं ही जानती हूँ कि पिछले दस महीनों से तिजोरी को कैसे संभाल रही हूँ। हर समय मुझे तिजोरी की चिन्ता लगी रहती थी कि कोई भीतर का सामान ना ले जाए। ऐसा हुआ तो तुम्हारे वापस आने पर तुम्हें क्या मुँह दिखाऊंगी। अब तुम वापस आ...।"

"कुछ दिन और रखो...।" देवराज चौहान ने कहना चाहा।

"एक पल भी नहीं। इतनी बड़ी जिम्मेदारी मैं नहीं संभाल सकती सूरज। अब तुम वापस आ गए हो तो अपने कामों को संभालो। बेशक तुम्हें अभी कुछ याद नहीं, परन्तु आने वाले वक्त में सब ठीक हो जाएगा। कभी भी तुम्हें सब याद आ सकता है। नहीं तो हम खामोशी से किसी बड़े डॉक्टर से इलाज....।"

"मैं नहीं चाहता कि कोई जाने कि मैं पहले का वक्त भूल चुका हूँ।" देवराज चौहान का धीमा स्वर, सोच भरा था।

नोरा ने गंभीर नजरों से देवराज चौहान को देखा और बैड के किनारे पर पास ही बैठ गई।

"मैं तुम्हारे साथ हूँ सूरज। पहले भी तुम्हारे साथ थी, तुम जो कहोगे, मैं वैसा ही करूंगी।"

“ये चाबियाँ....।"

"ये नहीं।" नोरा ने तुरन्त इंकार किया--- “ये जिम्मेदारी तुम्हें ही संभालनी होगी।”

देवराज चौहान ने कुछ नहीं कहा और बैड पर रखी चाबियां उठाकर नोरा को देते हुए कहा---

"इसे उस टेबल के ड्राज में रख दो।"

नोरा ने चाबियां ड्राज में रखीं और वापस देवराज चौहान के पास बैड के किनारे पर बैठते हुए कहा---

“मैं तुम्हें याद दिलाने के लिए सब कुछ बताती हूँ कि.... ।”

“अभी नहीं।” देवराज चौहान बोला--- “मुझे कॉफी की जरूरत महसूस हो रही है। जब तक कॉफी न पी लूँ, तब तक मुझे आराम करने दो। सिर कुछ भारी-सा हो रहा है।"

"मैं अभी कॉफी मंगवाती हूँ।" नोरा उठी और दीवार के पास रखे छोटे-से टेबल पर रखा इन्टरकॉम रिसीवर उठाया और बटन दबाकर, रिसीवर कान से लगा लिया। रिसीवर के माध्यम से बजर की आवाज कानों में पड़ने लगी।

"हुक्म मालकिन?” तभी उधर से बाबू की आवाज कानों में पड़ी।

"बाबू, साहब के लिए कॉफी लाओ और मेरे लिए भी कॉफी ले आओ।" कहने के साथ ही नोरा ने रिसीवर रखा और वापस बैड के पास पहुँची। देवराज चौहान बैड पर अधलेटा-सा, आँखें बंद किए पड़ा था। नोरा ने देवराज चौहान को डिस्टर्ब करना ठीक नहीं समझा और बैड के पास ही कुर्सी रखकर बैठ गई।

जबकि देवराज चौहान के मस्तिष्क में उथल-पुथल हो रही थी। उसके दिमाग का इस वक्त वो ही हाल था, जो कि सागर मंथन के वक्त सागर की लहरों का होता है। आज के दिन की हर बात सुन्दरलाल से मिलने से लेकर अब तक की हर बात, उसके मस्तिष्क में से गुजर रही थी। बार-बार सब कुछ सामने आ रहा था। अब तक तो वो बात को, मामले को हल्के में ले रहा था। सब कुछ धोखा या षड्यंत्र जैसा लग रहा था। कुछ गड़बड़ लग रही थी उसे; परन्तु तिजोरी देखने के बाद वो सोचने के लिए मजबूर हो गया था, ये मात्र धोखा नहीं है, कोई चालबाजी नहीं है। करोड़ों की दौलत तिजोरी में मौजूद थी, उसके हवाले थी। बंगले के कागजात भी तिजोरी में रखे थे, जिनके हिसाब से वो दो सौ करोड़ के बंगले का मालिक था। कागजों पर उसकी तस्वीर लगी थी। किसी भी तरह के शक की कोई गुंजाईश नजर नहीं आ रही थी। कहीं भी कोई धोखा नहीं लगा उसे। दो सौ करोड़ का बंगला और करोड़ों की दौलत उसे देकर कोई खेल नहीं खेला जा सकता था।

स्पष्ट था कि सूरज का वजूद है।

वो सूरज, जिसका चेहरा पूरी तरह उससे मिलता है। कद-काठी मिलती है, यहाँ तक कि आवाज भी मिलती है। अगर आवाज ना मिलती होती तो अब तक ये बात नोरा कह चुकी होती, और तो और, उसके कंधे जैसा और दाईं जाँघ पर मौजूद तिल जैसा भी तिल, सूरज के इन्हीं दोनों जगह पर था।

आखिर सूरज है कौन?

उसमें और सूरज में इतनी समानता क्यों है?

क्या सूरज से उसका कोई रिश्ता है?

नहीं! असम्भव! कोई रिश्ता नहीं हो सकता। उसका ऐसा भाई नहीं था जो ठीक उस जैसा हो।

तो क्या रिश्ते के बिना भी वो और सूरज एक जैसे हैं? परन्तु अभी भी देवराज चौहान को कई बातें समझ नहीं आ रही थीं, सूरज के बारे में।

वो स्वयं इश्तिहारी मुजरिम था। पुलिस में वांटेड था। उसकी तस्वीर पुलिस के पास थी। ऐसे में पुलिस ने उसकी जगह सूरज पर हाथ क्यों नहीं डाला, उसे देवराज चौहान समझकर या फिर इत्तफाक ऐसा रहा कि सूरज का पुलिस से कभी आमना-सामना ही नहीं हो सका। इस बात का जवाब देवराज चौहान के पास नहीं था। उसकी सारी जिन्दगी मुम्बई में बीती थी, परन्तु अपने जैसे हमशक्ल व्यक्ति के बारे में किसी से नहीं सुना, ना ही उसे कभी देख पाया। वो तो....।

"कॉफी लो सूरज ।"

नोरा की आवाज सुनकर देवराज चौहान की विचार तंद्रा भंग हुई। उसने देखा कॉफी का प्याला थामे नोरा पास ही खड़ी थी। बाबू कब कॉफी दे गया, उसे पता नहीं चला। पहले के बर्तन भी अब कमरे में नहीं थे। देवराज चौहान सीधा होकर बैठ गया और नोरा से कॉफी का प्याला ले लिया। घूंट भरा।

"तुम ठीक तो हो?" नोरा ने प्यार से पूछा।

देवराज चौहान ने हाँ में सिर हिला दिया।

नोरा ने टेबल पर से अपना कॉफी का प्याला थामा और कुर्सी पर बैठ गई।

देवराज चौहान पुनः सोचों में डूब गया। तिजोरी देखने के बाद उसके दिमाग के हालात बदल गए थे। उसकी सोचें अब इन हालातों से सहमत होते दिखने लगी थीं कि उस जैसा कोई इन्सान, सूरज नाम का है, तभी तो सब धोखा खा रहे हैं। यहाँ तक कि उसके हवाले करोड़ों की दौलत (तिजोरी) कर दी गई। आखिर सूरज ये सब छोड़कर चला क्यों गया? यहाँ के लोग उसे सूरज समझ रहे थे, जबकि वो सूरज नहीं था। सूरज के कंधे पर तिल था, दांईं जांघ के भीतरी तरफ तिल था और ठीक ऐसे ही तिल उसके कंधे और जांघ पर भी थे। एकाएक देवराज चौहान की सोचें टूटीं। उसने नोरा को देखा और आधा खाली प्याला पास के साईड टेबल पर रखते हुए कह उठा---

"मैं तुम्हें कंधे और जांघ का तिल दिखाना चाहता हूँ।"

“पर मैं जरूरत नहीं समझती। तुम किन बातों में उलझ....।"

"मैं दिखाना चाहता हूँ....।" देवराज चौहान बैड से उठा और कमीज खोलने लगा--- "तुम तिलों को देखकर बताओ कि क्या पहले भी तुमने मेरे शरीर पर ऐसे ही तिल देखे थे या अब इनमें कुछ बदलाव है?"

“ये कैसी बातें कर रहे हो?" नोरा के चेहरे पर अजीब-से भाव उभरे।

कमीज उतारने बाद देवराज चौहान पैंट खोलने लगा।

नोरा के चेहरे पर अब उलझन के भाव दिख रहे थे।

देवराज चौहान अब बनियान और अण्डरवियर में नोरा के सामने खड़ा था।

“देखो...।” देवराज चौहान गंभीर था।

नोरा ने कॉफी का प्याला रखा और चेयर से उठकर देवराज चौहान की पीठ की तरफ पहुँची और कंधे पर मौजूद तिल को देखा और कह उठी---

"तिल है, वैसा ही है। ठीक तो है। समझ में नहीं आता। कि तुम क्या दिखाना चाहते हो....।"

"जांघ पर देखो।"

नोरा सामने की तरफ आई और झुककर दांईं जांघ पर भीतर की तरफ देखा। वहाँ स्पष्ट रूप से तिल नजर आ रहा था। वो सीधी खड़े होते कह उठी---

“तिल है जांघ पर भी....।"

"दोनों तिल वहीं पर हैं, जहाँ तुमने पहले देखे थे, आगे-पीछे तो नहीं?" देवराज चौहान ने पूछा।

"वहीं हैं। तिल अपनी जगह थोड़े ना बदलते हैं।" नोरा ने कहा और आगे बढ़कर देवराज चौहान की छाती से सट गई।

देवराज चौहान अण्डरवियर और बनियान में था। देवराज चौहान ने नोरा को आराम से अपने से अलग किया।

“मैं तुम्हारी पत्नी हूँ सूरज।" नोरा ने कुछ नाराजगी से कहा--- "और हम दस महीने बाद मिले हैं....तुम.... ।”

“मैं तुम्हें बता चुका हूँ कि मुझे पहले का कुछ भी याद नहीं।" देवराज चौहान ने सामान्य स्वर में कहा और पैंट-कमीज पहनने लगा--- "मेरे लिए ये चिन्ता का विषय है कि मुझे कुछ भी....।”

"तो उससे क्या फर्क पड़ता है। मुझे तो याद है। हम पति-पत्नी की तरह रह सकते हैं। ठीक वक्त आया तो तुम्हें याद आ जाएगा।"

पैंट-कमीज पहनकर देवराज चौहान ने कॉफी का प्याला उठाया और बैड पर बैठ गया।

"चेयर पर बैठो नोरा। तुमसे कुछ कहना है।" देवराज चौहान ने सोच भरे स्वर में कहा।

नोरा चेयर पर बैठ गई।

देवराज चौहान ने कॉफी का घूंट भरा और बोला---

"तुम कहती हो हम पति-पत्नी हैं, जबकि तुम मेरे लिए अन्जान हो, क्योंकि मुझे कुछ याद नहीं।"

“उससे क्या फर्क पड़ता हैं; हम वैसा प्यार तो कर सकते हैं, जैसा पति-पत्नी करते....।"

"मुझे फर्क पड़ता है।" देवराज चौहान गम्भीर था।

"वे क्या कह रहे हो सूरज?" नोरा के होंठों से निकला।

"एक्सीडेन्ट ने मेरे दिमाग पर बहुत बुरा प्रभाव डाला है कि मैं सब कुछ भूल गया, परन्तु सब कुछ ठीक हो सकता है, अगर तुम मेरा साथ दो। मुझे तुम्हारे साथ की जरूरत.....।"

"सूरज, मैं तो तुम्हारे साथ....।"

"तुम्हें मेरी कुछ बाते माननी होंगी।" देवराज चौहान ने घूंट भरकर कॉफी का प्याला एक तरफ रख दिया।

"क्या?"

"तुम सैक्स के लिए मेरे पास नहीं आओगी।"

“क्या?” नोरा के मस्तिष्क को तीव्र झटका लगा--- "ऐ....ऐसा क्यों?" उसके होंठों से निकला।

“अगर ये मेरा घर है, तुम मेरी पत्नी हो, तो मुझे संभलने का मौका दो। सब कुछ तेजी के साथ नहीं होना चाहिए। मुझे धीरे-धीरे यहाँ की आदत डालने दो। यहाँ के माहौल से मुझे वाकिफ होने दो। मेरे दिल और दिमाग की हालत तुम नहीं समझ रहीं। मुझे कुछ बाद नहीं और तुम्हें सब याद है। हम दोनों में बहुत फर्क आ चुका है।"

नोरा, देवराज चौहान को टकटकी बाँधे देखने लगी।

देवराज चौहान ने सिगरेट सुलगा ली।

"मैं तुम्हारी बात समझ गई।" नोरा का स्वर धीमा था--- "पर फिर कहती हूँ कि हम आपस में प्यार करते रहें तो हर्ज हो क्या है। हम पति-पत्नी हैं। हो सकता है मेरे प्यार से तुम्हें सब कुछ याद आने में सहायता मिले।"

“अभी नहीं। अभी, यानि कि इन दिनों, मैं ऐसा कर नहीं पाऊँगा।" देवराज चौहान ने गहरी सांस ली।

नोरा उठी और देवराज चौहान के पास पहुँचकर उसके सिर पर हाथ फेरा। बोली---

"तुम जो कहोगे, जैसा कहोगे, मैं वैसा ही करूंगी सूरज। पर एक वादा करो।"

“जब भी मुझे प्यार करने का तुम्हारा मन हो, तब जरूर मेरे पास आना।"

“वादा।” देवराज चौहान हल्के से मुस्कुराया।

“तुम मुस्कुराते हुए हमेशा ही अच्छे लगते हो।" नोरा भी प्यार से मुस्कुरा पड़ी।

देवराज चौहान हौले से सिर हिलाकर रह गया।

"पापा नीचे इंतजार कर रहे हैं।" नोरा कह उठी।

“पापा ?" देवराज चौहान ने नोरा को देखा।

"हाँ, वो जरूर जानना चाहते होंगे कि सब ठीक तो है हमारे बीच।" नोरा बोली--- "तुम किसी से ना कहना कि तुम्हारी याददाश्त चली गई है। ऐसा तुम भी चाहते हो। पापा से यही कहना कि सब ठीक है। अब घर से नहीं जाओगे ।"

"क्या अभी मेरा उनसे मिलना जरूरी है?" देवराज चौहान बोला।

"तुम नहीं मिलना चाहते क्या?"

"मैं कुछ देर आराम करना चाहता....।"

"ठीक है, मैं पापा से कह देती हूँ और बंगले का हाल-चाल भी देख लूँ, कुछ ही देर में लौटती हूँ।" कहने के साथ ही नोरा ने देवराज चौहान का गाल थपथपाया--- "तुम आराम करो। मैं पापा को जाने को कहकर आती हूँ।"

नोरा बाहर निकल गई।

देवराज चौहान सिगरेट के कश लेता वहीं बैठा रहा।

इन नये हालातों पर सोचता रहा।

नोरा के व्यवहार में पत्नी का भरपूर प्यार था।

इन सब बातों में अगर कोई कमी थी तो सूरज की कमी थी, जो ठीक उस जैसा ही था; परन्तु उसे ढूँढ पाना आसान नहीं था। दस महीनों से जाने वो कहाँ था, अभी नोरा से सूरज के बारे में कई बातें जाननी थीं।

दो मिनट भी नहीं बीते कि देवराज चौहान का मोबाईल बजने लगा।

देवराज चौहान ने फोन निकाला, जगमोहन की कॉल आई थी।

“हाँ।" देवराज चौहान ने जगमोहन से बात की।

"कहाँ हो। अब तक तो तुमहें हर हालत में बंगले पर पहुंच जाना चाहिए था। तुम तो.... ।”

"मैं अजीब-सी स्थिति में फँस गया हूँ।" देवराज चौहान ने गहरी सांस ली।

"अजीब सी स्थिति... क्या हुआ?" दूसरी तरफ से जगमोहन का उलझन भरा स्वर आया

"सब कुछ सुनकर तुम भी मेरी तरह हैरान-परेशान हो जाओगे।"

"तुम ठीक तो हो?" उधर से जगमाहन ने पूछा।

"ठीक हूँ।"

"बताओ, क्या कहना चाहते हो?"

देवराज चौहान कम शब्दों में जगमोहन को फोन पर सारी बातें बताने लगा।

दस मिनट लगे। जगमोहन सारी बातों से वाकिफ हो गया।

"ये मामला तो सिर हिला देने वाला है।" सब कुछ जानकर उधर से जगमोहन ने कहा।

"सही कहा ।"

"इस वक्त तुम उसी बंगले पर हो ?"

"हाँ।"

"नोरा के पास?"

“हाँ।" देवराज चौहान के चेहरे पर गंभीरता थी।

"क्या सोचा कि क्या करोगे?"

"पहले तो सोचा था कि चुपचाप यहाँ से निकल जाऊँगा, परन्तु अब इन बातों में भी मेरी दिलचस्पी जाग उठी है कि आखिर सूरज है कौन, जो हू-ब-हू मेरे जैसा दिखता है। इतनी बड़ी दौलत होते हुए उसका घर छोड़कर चले जाना अपने आप में अजीब बात है, वो किन हालातों में घर से गया, यहाँ क्या होता रहा, सब कुछ जानना है मुझे।"

"जानकर क्या करोगे ?"

"जरूरत समझी तो हालातों को ठीक करने की चेष्टा करूंगा।" देवराज चौहान बोला।

“कहीं ये सब तुम्हारे खिलाफ षड्यंत्र तो नहीं?" उधर से जगमोहन ने पूछा।

"कह नहीं सकता।" देवराज चौहान ने सोच भरे स्वर में कहा--- “दो बातों की वजह से मैंने यहाँ रुकने की सोची है। पहली बात ये कि नोरा का बताना कि मेरे कंधे और जांघ के भीतरी तरफ तिल हैं। ये बात वो ही जान सकता है, जो मेरा करीबी रहा हो; परन्तु नोरा का कहना है कि मैं सूरज हूँ और पत्नी होने के नाते दोनों तिलों के बारे में बताया। मेरे लिए हैरानी की बात है कि क्या दो इन्सानों के चेहरे एक से हो सकते हैं, अगर हो सकते हैं तो क्या उनके तिल भी एक समान जगह पर हो सकते हैं। इस बात के निष्कर्ष पर पहुँचना है मुझे। ये तभी हो सकता है कि मैं यहाँ रहूँ, यहाँ के हालातों, लोगों को समझूँ।"

"और दूसरी क्या बात है?" दूसरी तरफ से जगमोहन ने पूछा।

"वो तिजारी, जिसमें कैश, गोल्ड, डायमंड मिलाकर तीन करोड़ की दौलत बनती है।

नोरा ने वो तिजोरी मुझे दिखाकर उसकी चाबियाँ इस तरह मेरे हवाले कर दीं कि मेरे आ जाने पर उसने राहत की सांस ली हो। मेरे इंकार करने पर भी वो चाबियाँ देकर ही मानी कि तिजोरी संभालना उसके लिए बोझ है। नोरा का व्यवहार पूरी तरह ये साबित करता है कि मैं और सूरज एक से ही दिखते हैं। वो मुझे पूरी तरह अपना पति समझ रही है। उसके व्यवहार में किसी प्रकार की कोई कमी नहीं देखी मैंने। कोई दिखावा या नकलीपन नहीं देखा, ना ही महसूस किया। अगर ये षड्यन्त्र होता तो इस प्रकार तीन करोड़ की नकद दौलत मेरे सामने ना रखी जाती। तिजोरी में इस बंगले की फाईल रखी है, जिसके मुताबिक सूरज यानि कि मैं बंगले का मालिक हूँ। बंगला सूरज के पिता शिवचंद ने पन्द्रह महीने पहले, अपने बेटे सूरज को गिफ्ट किया है। डीड सूरज के नाम से है और सूरज की यानि मेरी तस्वीर उन कागजों पर लगी है।" देवराज चौहान का स्वर गंभीर था।

"और वो बंगला दो सौ करोड़ का है।"

"हाँ....।"

जगमोहन के गहरी सांस लेने की आवाज देवराज चौहान के कानों में पड़ी।

"मेरी तो समझ में कुछ नहीं आ रहा। मुझे सब गोल-गोल सा लग रहा है। तुम्हें सब ठीक लगता है?" जगमोहन ने कहा।

"मैं हालातों को समझ रहा हूँ। अभी बहुत कुछ देखना-जानना-समझना बाकी है।" देवराज चौहान बोला।

"कहीं तुम खतरे में ना पड़ जाओ....।"

"अभी तक तो ऐसा कुछ महसूस नहीं हुआ। फिर भी मैं सतर्क हूँ।"

"तुम वहीं रहोगे?"

"हाँ। यहाँ रहकर मैं हालातों को बेहतर समझ सकूँगा।" देवराज चौहान ने कहा।

"पर तुम्हें वहाँ रहने की जरूरत क्या है?" उधर से जगमोहन ने कहा।

"मैं ये मामला पूरी तरह जानना चाहता हूँ और...।"

"इन बातों से हमें क्या लेना ? मेरो मानी तो वहाँ से निकल आओ।"

"पहले मैंने भी ऐसा ही सोचा था कि ये ही करूंगा; परन्तु अब तक यहाँ के जो हालात मेरे सामने आए है, उन्हें देखते हुए मन में आया है कि अगर सूरज बनकर मैं यहाँ के लोगों के काम आ सका, इनकी जिन्दगी आसान कर सका तो जरूर करूंगा, अगर सब कुछ सच और सामान्य है तो। दूसरी उत्सुकता मन में सूरज को देखने की भी है।" देवराज चौहान ने कहा।

“पर वो तो दस महीनों से बंगले से गायब है।"

“हाँ.... इस पर भी सोचता हूँ कि शायद सूरज से कहीं मुलाकात हो जाए।"

"मैं कुछ नहीं कह सकता इस बारे में। तुम सब कुछ बेहतर देख रहे हो। फैसला तुमने ही लेना है।"

“मेरी कार कहाँ खड़ी है, सुन लो, और वहाँ से कार उठा लाना।” देवराज चौहान ने बताया कार कहाँ खड़ी है।

सुनने के बाद जगमोहन ने उधर से कहा---

“इस मामले में मेरी कहीं जरूरत है?"

“अभी तो नहीं है।"

“मुझे बताते रहना कि तुम्हारे आस-पास क्या चल रहा है।"

“हाँ। हम फोन पर बात करते रहेंगे।" कहने के साथ ही देवराज चौहान ने फोन बंद कर दिया।

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