“मिस्टर सुनील, मैं एक ब्लैकमेलर हूं ।” - वह आदमी सरल स्वर में बोला ।
सुनील ने विस्मय से उस आदमी की ओर देखा । उस आदमी का चेहरा सलेट की तरह साफ था । उसका स्वयं को ब्लैकमेलर बताने का ढंग ऐसा था जैसे वह अपनी किसी भारी महानता का वर्णन कर रहा हो और वह गर्वोक्ति ही इसकी महानता का सही प्रतिपादन कर सकती हो । बिल्कुल उसी भाव से उसने स्वयं को ब्लैकमेलर बताया था जैसे कोई अनुभवी डाक्टर या वकील या प्रोफेसर अपने पेशे का जिक्र करता है ।
सुनील ने फिर एक खोजपूर्ण दृष्टि उसकी सूरत पर डाली । वह लगभग चालीस साल का प्रभावशाली चेहरे वाला एक हष्ट पुष्ट आदमी था । उसने एक शानदार सूट पहना हुआ था । ‘ब्लास्ट’ के दफ्तर में स्थित सुनील के केबिन में सुनील के सामने जिस कुर्सी पर वह बैठा हुआ था उसकी बगल में अपने पैरों के पास उसने एक छोटा सा कीमती ब्रीफकेस रखा हुआ था ।
“आई एम ए ब्लैकमेलर, मिस्टर सुनील ।” - वह आदमी फिर बोला ।
“आई हैव हर्ड यू आलरेडी ।” - सुनील के होठों पर एक क्षीण सी मुस्कराहट उभरी और गायब हो गई - “देयर वाज नो नीड टु ट्रांसलेट दि स्टेटमैंट इन इंगलिश ।” [मैंने आपकी बात पहले हो सुन ली है । बात को इंगलिश में अनुवाद करके कहने की जरूरत नहीं थी ।]
वह आदमी तनिक कसमसाया और फिर बोला - “मेरा नाम राधेमोहन है ।”
“आप मुझे कैसे जानते हैं, मिस्टर राधेमोहन ?” - सुनील ने प्रश्न किया ।
“किसी ने मुझे आपके बारे में बताया था । वैसे आपको आप के अखबार के माध्यम से तो मैं पहले से ही जानता हूं । ‘ब्लास्ट’ में छपी आप की रिपोर्ट बड़ी रूचि से पढ़ता हूं ।”
सुनील चुप रहा ।
“वैसे मिस्टर सुनील, शायद आपको यह सुनकर हैरानी हो कि समाज के सभ्य और शिक्षित वर्ग के मुकाबले में जरायमपेशा लोगों में आप ज्यादा मशहूर हैं और ज्यादा अच्छी तरह जाने पहचाने जाते हैं ।”
“अच्छा !”
“जी हां ।”
“वजह ?”
“वजह तो आपको बेहतर मालूम होगी ?”
“मेरे बारे में आपको किसी पेशेवर अपराधी ने ही बताया है ?”
“जी हां । एक रिटायर्ड पेशेवर अपराधी ने । वैसे मैं आप को बता ही चुका हूं कि ‘ब्लास्ट’ के माध्यम से मैं आप को पहले से ही जानता हूं ।”
“और वह रिटायर्ड पेशेवर अपराधी कौन है ?”
“मैं उसका नाम जाहिर नहीं करना चाहता ।”
“बड़ी अच्छी बात है मत कीजिए । अब आप यह बताइए कि आप मुझे किस सिलसिले में मिलने आये हैं ?”
राधेमोहन चुप रहा ।
“मेरे ख्याल से आपको यह याद दिला देने में कोई हर्ज नहीं होगा कि पांच बज चुके हैं, दफ्तर से मेरी छुट्टी हो चुकी है और मैं केवल आप ही की खातिर इस समय यहां बैठा हूं ।”
“आपकी मेहरबानी है । मैं आपका अधिक समय नहीं लूंगा ।”
शुरू हो जाइये फिर ।”
“मिस्टर सुनील ।” - राधेमोहन बड़ी सावधानी से शब्दों का चयन करता हुआ बोला - “जैसा कि मैं पहले अर्ज कर चुका हूं कि मैं एक ब्लैकमेलर हूं । ब्लैकमेलिंग मेरा पेशा है, मेरी रोजी-रोटी का जरिया है । इस धन्धे को स्थापित करने में मैंने बहुत मेहनत की है । कई सालों के अनथक परिश्रम के बाद और जेल जाने के और अपनी जान से हाथ धो बैठने के न जाने कितने खतरे उठाने के बाद मैं अपने धन्धे को इस स्टेज पर ला सकने में सफल हुआ हूं कि मेरे शिकार बिना विरोध किये चुपचाप मुझे हर महीने एक लगी बन्धी रकम देते रहें । मैं...”
“आप ब्लैकमेलिंग को पेशा कहते हैं ?” - एकाएक सुनील बीच में बोल पड़ा ।
“आप इसे क्या कहते हैं ?”
“मैं तो इसे चोरी कहता हूं । डाकाजनी कहता हूं ।”
“अपना अपना ख्याल है, साहब ।” - राधेमोहन दार्शनिक भाव से बोला - “मेरी नजर में तो यह पेशा ही है ।”
“बड़े खतरनाक आदमी हैं आप । आपको तो जेल में होना चाहिए ।”
“जी हां । शायद । लेकिन भगवान की दया से अभी तक बचा रहा हूं और अगर मेरे सितारे हाथ देते रहे तो आगे भी बचा रहूंगा ।”
“आपने अभी तक यह नहीं बताया है कि आप मुझ से क्या चाहते हैं ।”
“वही बताने जा रहा हूं । सुनील साहब, कल रात एक ऐसी घटना हो गई जिससे मेरे धन्धे की नींव का पत्थर उखड़ गया है । मेरा पटड़ा हुआ जा रहा है जनाब । मैं बरबाद हुआ जा रहा हूं ।”
“क्या हो गया है ?”
“कल रात मेरे घर में सशस्त्र डाका पड़ा था । डाकू मेरी सेफ में से ढर सारे-रुपये पैसे के साथ साथ वे कागजात वैगरह भी चुरा कर ले गये हैं जिनके दम पर मैं नगर के कुछ प्रतिष्ठित महानुभावों को ब्लैकमेल कर रहा था ।”
“डाका !” - सुनील चौंका - “कल रात को आपकी कोठी पर डाका पड़ा था ?”
“जी हां ।”
“आप शंकर रोड की नौ नम्बर कोठी में रहते हैं !”
“जी हां ।”
“ब्लास्ट’ में हमने डाके का समाचार छापा था लेकिन पुलिस को तो आपने यह नहीं बताया था कि आपका ढेर सारा रुपया डाकू ले उड़े हैं !”
“उस सेफ में लगभग बारह लाख रुपया था ।” - राधेमोहन धीरे से बोला ।
“लेकिन पुलिस को आपने नहीं बताया यह !”
“कैसे बताता ? वह तो ब्लैकमेलिंग से इकट्ठा किया हुआ काला धन था । पुलिस को उसके बारे में बताकर तो मैं बखेड़े में फंस सकता था । मुझ से पहला सवाल यही पूछा जाता कि इतना सारा रुपया मेरे पास आया कहां से ? मेरे लिए जवाबदेही मुश्किल हो जाती, साहब ।”
सुनील चुप रहा । उसके नेत्रों के सामने ‘ब्लास्ट’ में छपा डाके का समाचार घूम गया ।
पिछली रात के राधेमोहन एक पार्टी में गया हुआ था । उसके पीछे उसकी कोठी पर केवल उसका एक नौकर मौजूद था । रात को एक बजे एक कार कोठी के सामने आकर रुकी थी और उसमें से पांच नकाबपोश डाकू बाहर निकले थे । सब के सब सशस्त्र थे । कोठी में प्रविष्ट होते ही उन्होंने नौकर को अपने अधिकार में कर लिया था और उसके हाथ-पांव बांधकर उसे एक कमरे में बन्द कर दिया था । फिर वे लोग कोठी के एक बैडरूम में मौजूद सेफ खोलने में जुट गए थे । न जाने कैसे वे सेफ खोलने में सफल हो गए थे और फिर उन्होंने सेफ पर झाड़ू सी फेर दी थी । राधेमोहन के अखबार में छपे बयान के अनुसार डाकुओं ने सेफ में एक कागज का टुकड़ा तक नहीं छोड़ा था ।
डाकू माल समेटकर वहां से कूच करने ही वाले थे कि राधेमोहन कोठी पर वापिस लौट आया था । उसके साथ उसके तीन दोस्त थे । अनायास ही उनका डाकुओं से सामना हो गया था । डाकू माल लेकर कोठी से बाहर निकल रहे थे कि वे लोग वहां पहुंच गए थे । संयोगवश राधेमोहन के एक दोस्त के पास रिवाल्वर थी । लेकिन उस समय उसे यह मालूम नहीं था कि कोठी में घुसे हुए नकाबपोश कोई मामूली चोर नहीं सशस्त्र डाकू थे । राधेमोहन के दोस्त ने रिवाल्वर का डर दिखाकर उन्हें रोकने की कोशिश की और एक दो फायर भी कर दिए । डाकुओं ने भी गोलियां चलाई जिसकी वजह से राधेमोहन का रिवाल्वर वाला दोस्त और उसका एक अन्य साथी तत्काल मारे गए । राधेमोहन के दोस्त की चलाई गई एक गोली पता नहीं कैसे एक डाकू के चेहरे से जा टकराई । उसके चेहरे के परखच्चे उड़ गए थे और उसकी लगभग फौरन ही मृत्यु हो गई थी ।
बाकी डाकू साफ-साफ भाग निकले थे ।
जो डाकू मर गया था पुलिस उसकी शिनाख्त करने में सफल नहीं हो पाई थी । उसके उंगलियों के निशान चैक किए गए थे लेकिन पुलिस के पास उसका कोई रिकार्ड नहीं था । शायद वह कोई नया अपराधी था और या फिर ऐसा अपराधी था जो अभी तक एक बार भी पुलिस की गिरफ्त में नहीं आ पाया था रिवाल्वर की गोली से उसका चेहरा इस बुरी तरह बिगड़ चुका था कि सूरत से उसकी शिनाख्त होनी असम्भव सी थी । उसके कदकाठ का वर्णन अखबार में छपा था । सारा दिन उसकी लाश पुलिस मोर्ग में पड़ी रही थी लेकिन उसकी शिनाख्त नहीं हो पाई थी ।
“आप मुझसे क्या चाहते हैं ?” - अन्त में सुनील ने पूछा ।
“मैं आपकी मदद चाहता हूं, मिस्टर सुनील ।” - राधेमोहन विनीत स्वर से बोला - “और सच पूछिए तो केवल आप ही मेरी मद कर सकते हैं ।”
“मैं आपकी क्या मदद कर सकता हूं ?” - सुनील तनिक हैरानी से बोला ।
“आप डाकुओं को तलाश कर सकते हैं ।”
“मजाक कर रहे हैं आप ?”
“मैं एकदम ठीक कह रहा हूं, मिस्टर सुनील ।”
“क्या ठीक कह रहे हैं आप ! मैं भला डाकुओं को कैसे तलाश कर सकता हूं ?”
राधेमोहन कुछ क्षण चुप रहा । उसने एक बार केबिन के बन्द द्वार की ओर देखा और फिर सुनील की ओर झुककर बहुत धीमे और रहस्यपूर्ण स्वर से बोला - “मैंने डाकुओं में से एक ही सूरत देखी थी और मैं उसे कभी भी लाखों में पहचान सकता हूं ।”
“क्या ?” - सुनील हैरानी से बोला ।
राधेमोहन ने बड़े अर्थपूर्ण ढंग से सिर हिलाया ।
“लेकिन उन सबने तो अपने चेहरे नकाबों से ढके हुए थे ।”
“भागते समय उनमें से एक के चेहरे का नकाब उतर गया था और मेरी कार की हैडलाइट्स की सीधी रोशनी उसके चेहरे पर पड़ी थी । वह लगभग पैंतीस साल के आदमी का चेहरा था उसके चेहरे पर हल्की-हल्की मूंछे थीं, सिर से वह काफी हद का गंजा था । भारी जबड़े थे और गाल भीतर की ओर धंसे हुए थे । और उसकी सबसे बड़ी पहचान यह है कि उसके बायें गाल पर एक काले रंग का बहुत बड़ा मस्सा था और उसकी बांई आंख पर एक गहरी चोट का लम्बा निशान था । जिसकी वजह से उसकी बाईं भौं के बाल दो भागों में विभक्त हो गए थे ।”
“इतनी थोड़ी से देर में आप उस डाकू के चेहरे की इतनी सारी डिटेल नोट करने में सफल हो गए थे ?” सुनील हैरानी से बोला ।
“जी हां । मैं और लोगों के मुकाबले में लोगों के चेहरे जरा जल्दी पढ लेता हूं और मेरी याददाश्त बहुत अच्छी है ।”
“लेकिन इतनी महत्वपूर्ण बात अपने पुलिस को क्यों नहीं बताई । आपने उससे यह बात क्यों छुपाई कि आप डाकुओं की टोली में से एक को इतनी अच्छी तरह पहचान गए हैं ?”
“क्योंकि पुलिस को यह बात बताने में मुझे अपना हित दिखाई नहीं देता था ।” - राधेमोहन धीरे से बोला ।
“क्यों ?”
“क्योंकि मैं नहीं चाहता कि मेरी सेफ में से चुराए गए वे कागजात जिनके दम पर मैं अपना ब्लैकमेलिंग का धन्धा चला रहा हूं, पुलिस के हाथ में पड़ जाए । अगर मैं पुलिस को उस डाकू का हुलिया बता देता तो पुलिस जैसी विशाल और संगठित संस्था के लिए उस बेनकाब हो गए डाकू को खोज निकालना असम्भव नहीं था । एक डाकू के पकड़े जाने की देर होती और फिर उसके माध्यम से उसके सारे साथी पकड़े जाते । फिर लूट का माल भी बरामद होता और मेरे द्वारा ब्लैकमेलिंग में इस्तेमाल होने वाले कागजात सीधे पुलिस के हाथ में पहुंच पाते । मिस्टर सुनील, वे कोई मामूली कागजात नहीं हैं । ये तो बारूद का ढेर है जो गलत हाथों में पहुंचते ही भक्क से उड़ जाएगा । पुलिस के हाथों में उन कागजात के पड़ जाने से मैं तो रगड़ा जाऊंगा ही, साथ ही नगर के कम से कम एक दर्जन ऐसे महानुभाव जो समाज में प्रतिष्ठा और मान के आधारस्तम्भ माने जाते हैं या तो जेल में दिखाई देंगे और या फिर आत्महत्या कर लेंगे । मिस्टर सुनील, अपने और अपनी आसामियों का हित मुझे इसी में दिखाई दिया था कि उस बेनकाब डाकू के बारे में जो जानकारी अनायास ही मेरे हाथ में आ गई है उसे में अपने तक ही रखूं ।”
“लेकिन आप यह क्यों भूलते हैं कि डाकुओं ने आपके दो मित्रों की हत्या भी की है । उस वजह से भी तो उनका पकड़ा जाना बहुत जरूरी है ।”
“मैं इस वक्त जीवित आदमियों के हिताहित की बात सोच रहा हूं साहब । जो मर गए हैं वे तो मर ही गए हैं । डाकुओं के पकड़े जाने से वे जीवित हो तो नहीं जायेंगे लेकिन दूसरी सूरत में मेरा कबाड़ा जरूर हो जाएगा ।”
“बहुत स्वार्थी आदमी हैं आप ।”
राधेमोहन चुप रहा । वह सुनील से असहमत दिखाई दे रहा था ।
“कहने का मतलब यह हुआ कि आप यह नहीं चाहते कि डाकू पकड़े जायें ?”
“आपने फिर गलत समझा है मुझे । मैं यह चाहता हूं कि मेरी सेफ में से उड़ाए गए ब्लैकमेलिंग के कागजात पुलिस के हाथों में न पहुंच जायें ।”
“और यह कैसे सम्भव होगा ?”
“आपकी सहायता से ।”
“कैसे ?”
“मैंने आपकी बहुत तारीफ सुनी है, मिस्टर सुनील ! आप बहुत समर्थ आदमी हैं । आप यकीनन उस बेनकाब डाकू को तलाश कर सकते हैं । मिस्टर सुनील, डाकुओं ने तो सेफ तोड़ लेने के बाद आनन-फानन सेफ खाली कर दी थी । यह तो वे बाद में जाकर देखेंगे कि रुपये पैसे के अलावा वे ढेर सारे ऊल-जलूल कागजात भी उठा लाए हैं । उन कागजों का उनकी निगाहों में कोई महत्व नहीं है । अगर उन डाकुओं का पता मुझे लग जाए तो मैं किसी भी कीमत पर उनसे वे कागजात खरीदने के लिए तैयार हूं ।”
“लेकिन उसके विपरीत अगर उन डाकुओं की समझ में उन कागजात का महत्व आ गया और उन्होंने खुद कागजात के स्वामियों को ब्लैकमेल करना आरम्भ कर दिया तो ?”
“तो बहुत बुरा होगा । जिस शराफत और ईमानदारी से मैं अपने आसामियों से पेश आता हूं, वह डाकू मेरे आसामियों के साथ नहीं दिखा सकते । मैं अपने आसामियों से एक बार में उतनी ही रकम की मांग करता था जितनी कि मुझे मालूम होता था कि वे सहूलियत से दे सकते हैं । अगर डाकुओं की समझ में उन कागजों का महत्व आ गया तो वे इस प्रकार का कोई तकल्लुफ थोड़े ही बतरेंगे । वे तो शायद इतनी भारी रकम की मांग पेश कर दें कि आसामी के सामने आत्महत्या के अतिरिक्त कोई रास्ता ही न रह जाए ।”
“ऐसे भंयकर कागजात आपके पास आए कहां से ?” - सुनील ने प्रश्न किया ।
राधेमोहन चुप रहा ।
सुनील कुछ क्षण उत्तर ही प्रतीक्षा करता रहा और फिर बोला - “मैंने आपसे एक सवाल पूछा है ।”
“ऐसा सवाल आपको नहीं पूछना चाहिए था ।” - राधेमोहन बोला - “मैं आपको इस सवाल का जवाब नहीं दे सकता ।”
“आल राईट ! क्या आप यह बता सकते हैं कि प्रतिष्ठा और सम्मान के वे कथित आधार स्तम्भ कौन हैं जिन्हें आप ब्लैकमेल कर रहे हैं ?”
“नाम नहीं बताऊंगा लेकिन आपको यह बताने में शायद कोई हर्ज नहीं है कि उन महानुभावों में से एक कैबिनेट मिनिस्टर हैं जिनके अपनी सगी भतीजी से अवैध सम्बन्ध हैं । मिनिस्टर साहब और उनकी भतीजी की ऐसी तसवीरें उन कागजात में थीं जिन पर एक शरीफ आदमी निगाह डालना भी पसन्द नहीं करेगा । हाई कोर्ट के एक जज हैं जिन्होंने दो लाख रुपए रिश्वत लेकर एक खूनी को रिहा कर दिया था । सौदे के वार्तालाप का टेप रिकार्ड उस सेफ में था । गृहमन्त्रालय के एक अन्डर सैक्रेट्री हैं जिन्होंने अपनी बीवी की हत्या कर दी थी लेकिन पकड़े नहीं गए थे । मेरे पास उनकी एक स्टेटमेंट मौजूद थी जिसमें उन्होंने खुद अपने हस्तलेख में अपना अपराध स्वीकार किया था । नगर एक एक करोड़पति सेठ हैं जिनके पांच बच्चे हैं लेकिन जिनका अपनी पत्नी से विधिवत् विवाह नहीं हुआ । मतलब यह कि मेरे जुबान खोल देने भर की देर है और उनके बच्चों पर हराम की औलाद का लेबल लग जायेगा । करतूतों का कच्चा चिट्ठा उस सेफ में बन्द था ।”
सुनील नेत्र फैलाये राधेमोहन का मुंह देखता रहा ।
राधेमोहन गम्भीर था ।
“उस सेफ में कुछ ऐसे भी सबूत थे जिनसे आप फस सकते हों ?” - सुनील ने पूछा ।
राधेमोहन कुछ क्षण हिचकिचाया और फिर स्वीकृति सूचक ढंग से सिर हिलाता हुआ बोला - “सेफ में मेरे आसामियों द्वारा मुझे लिखे हुए कुछ ऐसे पत्र थे जो मुझे ब्लैकमेलर सिद्ध कर सकते हैं ।”
“मतलब यह कि जिन लोगों के अधिकार में आपकी सेफ के कागजात अब हैं, वे अगर चाहें तो ब्लैकमेलर को ब्लैकमेल कर सकते हैं ।”
राधेमोहन ने सहमति सूचक ढंग से सिर हिलाया लेकिन ऐसा मालूम होता था जैसे वह इस तथ्य को स्वीकार न करना चाहता हो ।
सुनील मुस्कराया ।
“लेकिन अगर आप मेरी सहायता करें तो ऐसी नौबत नहीं आयेगी ।” - राधेमोहन बोला ।
सुनील ने उत्तर नहीं दिया ।
राधेमोहन ने फर्श पर अपने घुटनों के पास रखा ब्रीफकेस उठाकर अपनी गोद में रख लिया । उसने ब्रीफकेस को चाबी लगाकर खोला और उसमें से सौ-सौ के नोटों की दो गड्डियां निकाल कर सुनील के सामने रख दीं ।
सुनील ने एक उड़ती हुई दृष्टि नोटों पर डाली और फिर प्रश्नसूचक नेत्रों से राधेमोहन की ओर देखा ।
“यह बीस हजार रुपया” - राधेमोहन बोला - “आपके मेरी सहायता के लिए हां करते ही तुरन्त आपका हो जाएगा । आपका काम केवल उन डाकुओं की तलाश करना है । बाकी बतचीत मैं खुद कर लूंगा अगर आप मेरे इस काम में सफल हो गए तो मैं आपको अस्सी हजार रुपया और दूंगा ।”
“बहुत रुपया है आपके पास ।” - सुनील बोला ।
“क्या मतलब ?”
“मेरा मतलब है कि आपका बारह लाख रुपया डाकुओं ने लूट लिया है फिर भी आपके पास इतना धन बाकी है कि उसमें से एक लाख रुपया आप मुझे दे सकते हैं और फिर बाद में डाकुओं से उन कागजात का सौदा करने में आप उन्हें भी एक मोटी रकम देंगे ही ।”
“आप कहना क्या चाहते हैं ?”
“मैं यह कहना चाहता हूं, राधेमोहन जी, कि जो आप खो चुके हैं उसे भूलकर आपके पास जो बाकी है, आप उसी से सब्र क्यों नहीं करते ?”
राधेमोहन कसमसाया । लगता था जैसे एकाएक उसे कोई जवाब न सूझ रहा हो ।
“मेरे पास ज्यादा रुपया नहीं है, मिस्टर सुनील ।” - अन्त में वह बोला - “जितना रुपया मेरे पास है वह एक दांव की तरह लगभग सारा ही अपने कागजात हासिल करने के लिए स्वाहा किये दे रहा हूं ।”
“आपको ऐसा नहीं करना चाहिए ।”
“छोड़िए । अपना हिताहित सोचना मेरा काम है । बताइये आपको मेरा आफर मंजूर है ?”
सुनील ने धीरे से नकारात्मक ढंग से सिर हिला दिया ।
“क्या मतलब ?” - राधेमोहन बोला - “आप यह काम नहीं कर सकते हैं ?”
“मैं यह काम करना नहीं चाहता हूं ।” - सुनील शान्ति से बोला ।
“वजह ?”
“क्योंकि ब्लैकमेलिंग के वे कागज आपको वापिस दिलाने में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं है । मैं तो भगवान से यह प्रार्थना करता हूं कि वे कागजात कभी भी वापिस आपके हाथ न लगें । मुझे हैरानी है कि आपने यह सोच कैसे लिया कि पैसे के लालच में आकर में एक ब्लैकमेलर की सहायता करने के लिए तैयार हो जाऊंगा ।”
राधेमोहन के चेहरे ने कई रंग बदले ।
“मिस्टर राधेमोहन ।” - सुनील फिर बोला - “एक सिद्धांत के तौर पर मैं उसी काम में अपनी सिरखपाई करता हूं जिस में मुझे किसी भले आदमी का हित दिखाई दे । आपकी सहायता करने में मुझे किसी भले आदमी का हित दिखाई नहीं दे रहा है ।”
“आप मेरा अपमान कर रहे हैं ।” - राधेमोहन क्रोधित स्वर से बोला ।
“अपने अपमान की स्थिति तो स्वयं आपने पैदा की है इसके लिए आप मुझे जिम्मेदार कैसे ठहरा सकते हैं । वैसे तो मुझे अफसोस है कि मौजूदा हालत में मैं आपका अपमान ही कर सकता हूं, जो बातें आपने मुझे सुनाई हैं, उनके दम पर मैं आपको जेल नहीं भिजवा सकता ।”
राधेमोहन कुछ क्षण चुप रहा और फिर बोला - “मैं अधिक रुपया दे सकता हूं ।”
“मुझे रुपये की चाह नहीं ।”
“मिस्टर सुनील एक लाख रुपया बहुत बड़ी रकम होती है । आप ‘ब्लास्ट’ के एक मामूली रिपोर्टर हैं । आप अपनी पूरी जिन्दगी में एक लाख रुपया जमा नहीं कर पायेंगे ।”
“यह बात आप इसलिए कह रहें हैं क्योंकि आप मुझे अच्छी तरह जानते नहीं हैं । मेरी निगाहों में एक लाख रुपया हासिल कर लेना कोई कठिन काम नहीं है । जब मुझे जरूरत पड़ेगी, मैं बड़ी आसानी से यह रकम हासिल कर लूंगा और विश्वास कीजिए इसके लिए मुझे किसी पेशवर ब्लैकमेलर की अपराध की कमाई में से हिस्सा नहीं बटाना पड़ेगा ।”
“मिस्टर सुनील !” - राधेमोहन विनीत स्वर से बोला - “मैं आपके पास बहुत आशा लेकर आया था । आप ही मुझे एक ऐसे आदमी दिखाई दिये थे, जिन पर मैं भरोसा कर सकता हूं । किसी दूसरे आदमी को यही काम सौंपने में तो मुझे यही डर लगा रहेगा कि कहीं वह कागजात हथिया लेने के बाद खुद ही ब्लैकमेलर न बन जाये । क्या ऐसी कोई सूरत नहीं हो सकती कि आप मेरी सहायता के लिये तैयार हो जायें ?”
“आई एम सारी !” - सुनील बोला ।
“आल राइट ।” - राधेमोहन गहरी सांस लेकर बोला - “आल राइट, मिस्टर सुनील ।”
उसने नोटों की दोनों गड्डियां उठाकर फिर ब्रीफकेस में रख लीं और बोला - “मैं आशा करता हूं कि जो कुछ मैंने आपको बताया है, आप उसे अभी इसी समय भूल जायेंगे । आप इन बातों को अपने अखबार में छापने का प्रयत्न नहीं करेंगे और न ही आप इसकी सूचना पुलिस को देंगे ।”
“आप जारूरत से ज्यादा आशावादी हैं ।” - सुनील मुस्करा कर बोला ।
“क्या मतलब ?”
“मतलब यह कि बात जब तक आप ने कही नहीं थी तब तक वह आप की प्रापर्टी थी । एक बार जब आप कोई बात अपनी जुबान से निकाल देते हैं तो उस पर से आपका एकाधिकार समाप्त हो जाता है । मैंने आपसे नहीं कहा था कि आप मुझे कुछ बतायें । अब जो कुछ आपने मुझे बताया है, उसे मैं किस ढंग से इस्तेमाल करता हूं यह मेरे सोचने की बात है । इस सिलसिले में आप मुझ पर किस प्रकार का बन्धन नहीं लगा सकते हैं ।”
राधेमोहन क्रोधित हो उठा । कुछ क्षण वह कठोर नेत्रों से सुनील को घूरता रहा और फिर कठिन स्वर से बोला - “बड़े बदमाश आदमी हैं आप ।”
“मैं !” - सुनील आश्चर्य व्यक्त करता हुआ बोला - “अच्छा ! यह बात तो आपकी अपने बारे में कहनी चाहिए ।”
“देखो, मैं तुम्हें पहले ही बता चुका हूं कि मैं एक पेशेवर ब्लैकमेलर हूं । मुझसे टक्कर लोगे तो पछताओगे ।”
राधेमोहन एकाएक ही आप से तुम पर उतर आया था ।
“मुझे भी ब्लैकमेल करेंगे आप ?”
“क्यों नहीं ?”
“किस आधार पर ?”
“आधार तलाश कर लूंगा मैं ।”
“कैसे ?”
“मैं तुम्हारी पिछली जिन्दगी के बखिये उधेड़ कर रख दूंगा । कभी तो तुमने कोई ऐसा गैरकानूनी या अनैतिक काम किया होगा जिसे तुम दुनिया की निगाहों में आने देना पसन्द नहीं करोगे और फिर मैं तुम्हारा जीना दूभर कर दूंगा, फिर मैं...”
“ऐसी नौबत आने से पहले मैं तुम्हारा गला नहीं काट दूंगा ।” - सुनील विनोदपूर्ण स्वर से बोला ।
राधेमोहन खा जाने वाली निगाहों से उसे घूरता रहा और फिर बोला - “जो कुछ मैंने तुम्हें बताया है उसे तुम हरगिज भी सिद्ध नहीं कर सकते । अगर तुमने पुलिस को यह बताया कि डाकुओं में से एक ही सूरत पहचानता हूं और यह कि मैं ब्लैकमेलर हूं या ये बातें अखबार मैं छापी तो मैं हर बात से साफ-साफ मुकर जाऊंगा और फिर अदालत में तुम पर मानहानि का दावा ठोक दूंगा ।”
“भाई साहब, दरअसल आप बौखला गये हैं और बौखलाहट में आपको कोई विवेकपूर्ण बात नहीं सूझ रही है । पहले आप मेरे खिलाफ अपनी लाइन ऑफ एक्शन निश्चित कर लीजिये । पहले यह फैसला कर लीजिये कि समय आने पर आप मुझे ब्लैकमेल करने के साधन जुटाने की कोशिश करेंगे या मुझ पर मानहानि का मुकदमा करेंगे ।”
राधेमोहन कुर्सी पर उठ खड़ा हुआ । उसके चेहरे पर झुंझलाहट क्रोध और बेबसी के भाव स्पष्ट रूप से परिलक्षित हो रहे थे । उसने अपना ब्रीफकेस उठा लिया, एक आखिरी कहर भरी निगाह सुनील पर डाली और फिर एकदम अबाउट टर्न करके कमरे में बाहर की ओर चल दिया ।
“जरा सुनिये ।” - सुनील ने पीछे से आवाज दी ।
राधेमोहन ठिठक गया । उसने बड़े अनिश्चित ढंग से घूमकर सुनील की ओर देखा ।
“जिस आदमी ने आपको मेरे पास आने की राय दी थी ।” - सुनील बोला - “कहीं जाकर उसका गला मत घोंट दीजियेगा ।”
राधेमोहन पांव पटकता हुआ तत्काल बाहर निकल गया ।
सुनील विचारपूर्ण मुद्रा बनाये अपने दोनों हाथों की उंगलियों से मेज ठकठकाता रहा ।
अचानक बेनकाब हो गये डाकू का राधेमोहन द्वारा बयान किया हुआ चेहरा सुनील के नेत्रों के सामने घूमा गया - आयु लगभग पैंतीस साल । चेहरे पर हल्की-हल्की मूंछें । सिर से काफी हद तक गंजा । भारी जबड़े और गाल भीतर की ओर धंसे हुए । बायें गाल पर काले रंग का का बहुत बड़ा मस्सा । बाईं आंख पर गहरी चोट का लम्बा निशान जिसकी वजह से बाई भौं के बाल दो भागों में विभक्त हो गये थे ।
उसी क्षण फोन की घन्टी बज उठी ।
सुनील कुछ क्षण अनिश्चयपूर्ण ढंग से टेलीफोन को देखता रहा और फिर उसने रिसीवर उठा लिया ।
“सुनील ।” - वह रिसीवर को कान से लगाकर बोला ।
“चटर्जी बोल रहा हूं, सुनील ।” - दूसरी ओर से उसे चटर्जी एण्ड मुखर्जी नाम की वकीलों की फर्म के सीनियर पार्टनर चटर्जी का स्वर सुनाई दिया ।
“यस मिस्टर चटर्जी, हाउ आर यू !” - सुनील बोला ।
“फाइन । सुनील, थोड़ी देर के लिये मेरे दफ्तर में आ सकते हो ?”
“अभी ?”
“हां ।”
“मामला क्या है ?”
“मामला इतना गम्भीर है कि उसके बारे मे मैं तुम्हें फोन पर कुछ नहीं बता सकता ।”
“अच्छी बात है । आ रहा हूं ।”
“मैं तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा हूं ।”
सुनील ने रिसीवर क्रेडिल पर रखा और उठ खड़ा हुआ । उसने अपने पीछे खूंटी पर टंगा अपना कोट उतार कर पहना टाई की गांठ ठीक की और अपने खूबसूरत बालों मे हाथ फिराता हुआ केबिन से बाहर निकल गया ।
ब्लास्ट के दफ्तर की इमारत की मुख्य द्वार से बाहर निकल कर सड़क कर आते ही सुनील एकाएक ठिठक गया ।
उस से थोड़ी ही दूर एक बिजली के खम्बे की ओट में राधेमोहन खड़ा एक अन्य व्यक्ति से बात कर रहा था । राधेमोहन के चेहरे पर हवाईयां उड़ रही थी । वह बुरी तरह भयभीत दिखाई दे रहा था ।
जिस आदमी से राधेमोहन बातें कर रहा था, उसकी सुनील की ओर पीठ थी इसलिये सुनील उसकी सूरत नहीं देख पा रहा था ।
सुनील वहीं खड़ा राधेमोहन की सूरत देखता रहा ।
राधेमोहन के एकाएक भयभीत हो उठने का कारण निश्यय ही वह आदमी था जिससे वह बातें कर रहा था । सिर्फ एक मिनट पहले राधेमोहन सुनील के पास से गया था और उस समय वह बेहद झुंझलाया हुआ और क्रोधित दिखाई दे रहा था लेकिन एक ही मिनट में इतना परिवर्तन हो गया था कि अब वह उस कबूतर की तरह दहशत खाये हुए था जिस पर बिल्ली किसी भी क्षण झपटने वाली हो और उसके लिए बचाव की कोई सूरत न हो ।
राधेमोहन के इस भाव परिवर्तन का कारण निश्चय ही वह दूसरा आदमी था ।
फिर सुनील ने राधेमोहन की स्वीकृति सूचक ढंग से सिर हिलाते देखा । फिर दूसरे आदमी का हाथ राधेमोहन के कन्धों पर पड़ा । राधेमोहन की भयभीत चेहरे पर पीड़ा के भाव परिलक्षित हुए और फिर दूसरे आदमी ने अपना हाथ उसके कन्धे से हटा लिया ।
राधेमोहन तत्काल घूमा और लड़खड़ाया हुआ सुनील से विपरीत दिशा में चल दिया ।
सारे सिलसिले में दूसरे आदमी ने सुनील की दिलचस्पी और उत्सुकता और बढा दी ।
उसी क्षण वह आदमी घूमा । सुनील की निगाहों उसके चेहरे से टकराई और फिर उसके नेत्र फैल गये
राधेमोहन के भयभीत होने की वजह तत्काल उसकी समझ में आ गई ।
वह वही आदमी था जिसके बेनकाब चेहरे का राधेमोहन ने वर्णन किया था । उसके चेहरे पर हल्की मूछें थीं, सिर से काफी हद तक गंजा था, भारी जबड़े थे और गाल भीतर को धंसे हुए थे, बायें गाल पर काले रंग का बड़ा सा मस्सा और बाई आंख पर चोट का लम्बा निशान उसके चेहरे पर एक विचित्र प्रकार की क्रूरता का प्रतिनिधित्व कर रहे थे । राधेमोहन ने उस डाकू के चेहरे के वर्णन में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी थी । उस बयान के दम पर उस आदमी को लाखों की भीड़ में भी आसानी से पहचाना जा सकता था ।
वह आदमी सुनील की ओर घूमा और फिर फुटपाथ पर उसकी बगल में से गुजरता हुआ आगे बढ गया ।
फिर उस आदमी ने खाली जाते हुए एक स्कूटर को रोका और उसमें सवार हो गया ।
स्कूटर आगे बढ गया ।
सुनील एक क्षण हिचकिचाया और फिर ‘ब्लास्ट’ की इमारत की बगल में ही बने टैक्सी स्टैण्ड की ओर लपका ।
सुनील एक टैक्सी में बैठ गया और ड्राइवर से बोला - “उस स्कूटर के पीछे चलना है, उस्ताद ।”
ड्राइवर ने सहमति सूचक ढंग से सिर हिलाया और तत्काल टैक्सी को गियर में डाल दिया । टैक्सी ड्राइवर सुनील को पहचानता था, इसलिए उसने किसी प्रकार का प्रश्न नहीं पूछा था । उसकी निगाहों में अखबार वालों को ऐसी हरकतों का कोई विशेष मतलब नहीं होता था ।
वक्ती तौर पर सुनील ने चटर्जी के पास तत्काल पहुंचने का ख्याल छोड़ दिया था । जो काम वह अब कर रहा था वह उसे चटर्जी से फौरन मिलने से ज्यादा महत्वपूर्ण लग रहा था ।
टैक्सी भीड़ भरी सड़कों पर स्कूटर के पीछे भागती रही । स्कूटर का सवार इस बात से पूर्णतया बेखबर था कि उसका पीछा किया जा रहा था ।
स्कूटर हर्नबी रोड पर एक इमारत के सामने आकर रुक गया ।
सुनील ने भी थोड़ी दूर टैक्सी रुकवा ली लेकिन उसने टैक्सी से बाहर निकलने का उपक्रम नहीं किया ।
उस आदमी ने स्कूटर वाले को पैसे दिए और फिर सड़क से हट कर ढके हुए बरामदे में आ गया ।
सुनील ने उसे उस इमारत में प्रविष्ट होते हुए देखा जिस पर ‘क्वालिटी बार एण्ड रेस्टोरेण्ट’ का बोर्ड लगा हुआ था ।
सुनील ने भी टैक्सी का बिल चुकाया और टैक्सी से बाहर निकल आया ।
टैक्सी तत्काल आगे बढ गई ।
सुनील ने अपनी जेब से लक्की स्ट्राइक का पैकेट निकाला और एक सिगरेट सुलगा लिया ।
वह लापरवाही से टहलता हुआ बार के समीप पहुंचा और फिर झूलता हुआ दरवाजा ठेलकर भीतर घुस गया ।
भीतर के अर्ध प्रकाशित वातावरण में उसने चारों ओर दृष्टि दौड़ाई ।
हाल की दांई और लम्बा बार काउन्टर था जिसके सामने बारह तेरह ऊंचे स्टूल पड़े थे । उन स्टूलों में से एक पर वह आदमी बैठा था जिसका पीछा करता हुआ सुनील यहां तक आया था ।
सुनील आगे बढा और सहज भाव से जाकर उस आदमी की बगल के स्टूल पर बैठ गया । सुनील ने उस आदमी की ओर दृष्टिपात करने का उपक्रम नहीं किया । उसने बार काउन्टर पर थोडी दूर पड़ी ऐश-ट्रे अपनी ओर खींच ली और चुपचाप सिगरेट के कश लगाने लगा ।
उस आदमी ने एक उड़ती सी दृष्टि सुनील की ओर डाली, सुनील को अपने प्रति पूर्णतया उदासीन पाकर उसने काउन्टर पर अपना सिर झुका लिया ।
काउन्टर के सामने शराब और बियर और बोतलों के पीछे दीवार के एक सिरे से दूसरे सिरे तक शीशा लगा हुआ था । सुनील उसी शीशे में से अपनी बगल में बैठे आदमी का निरीक्षण कर रहा था ।
वह आदमी चिन्तित दिखाई दे रहा था ।
बार टेन्डर ने उस आदमी के सामने विस्की का गिलास और सोडा रख दिया ।
सुनील ने देखा, गिलास में सोडा डालते समय उस आदमी का हाथ कांप रहा था ।
उस आदमी ने एक बार में गिलास की सारी विस्की अपने गिलास में उडेली, गिलास को इतनी जोर से काउन्टर पर रखा कि उसका पेन्दा ठक्क से काउन्टर से टकराया और फिर अपने होंठों पर अपने दाएं हाथ का पृष्ठ भाग फिराता हुआ बड़े नर्वस स्वर से बोला - “एक और ।”
बार टेन्डर ने स्वीकृति सूचक ढग से सिर हिलाया और फिर सुनील की ओर आकर्षित होता हुआ बोला - “आपको साहब ?”
“बियर !” - सुनील बोला । प्रत्यक्षतः बगल के आदमी के प्रति वह अभी भी पूर्णतया उदासीन था ।
बार टेन्डर ने पहले उस आदमी के सामने विस्की का नया गिलास और सोडे की बोतल रखी और फिर सुनील को बड़े से मग में बियर सर्व कर दी ।
सुनील ने सिगरेट को ऐश ट्रे में डाल दिया और बियर की चुस्कियां लेने लगा ।
इस बार वह आदमी विस्की पीने में पहले जैसी उतावली नहीं दिखा रहा था । इस बार उसने विस्की का एक घूंट पीकर गिलास को काउन्टर पर रख दिया था ।
सुनील ने बियर का एक बड़ा घूंट लिया और अपनी कोहनियां सामने काउन्टर पर टिका दीं । वह थोड़ा सा उस आदमी की ओर झुका फिर धीरे से बोला - “वह माना ?”
वह आदमी यूं चिहुंका जैसे एकाएक किसी ने उसे बिजली का तार छुआ दिया हो ।
वह सुनील की ओर घूमा । कुछ क्षण वह सुनील को घूरता रहा । सुनील ऐसी तन्मयता से बियर के जग में झांक रहा था जैसे अभी उसी से कोई जलपरी बाहर निकलने वाली हो । फिर वह आदमी अपने स्वर को भरसक सन्तुलित रखने का प्रयत्न करता हुआ बोला - “तुमने मुझसे कहा कुछ ?”
सुनील ने बड़ी मेहनत से बियर के गिलास पर से अपना सिर उठाकर उस आदमी की ओर देखा और फिर भावहीन स्वर से बोला - “और किससे कहा है ? तुम्हारे सिवाय मेरी बगल में क्या कोई और भी बैठा है ?”
“क्या कहा था तुमने ?”
“मैंने पूछा था वह माना ?”
“वह कौन ?”
“राधेमोहन ।”
राधेमोहन का नाम सुनकर उस आदमी के चेहरे के भाव तो नहीं बदले लेकिन उसके अगले एक्शन ने उसकी आन्तरिक भावनाओं की अच्छी-खासी चुगली कर दी । उसने जल्दी से अपना विस्की का गिलास उठाया और एक ही सांस में सारी विस्की हलक में उड़ेल ली ।
उसके चेहरे पर लालिमा दौड़ गई ।
“एक और...” - वह बार टेन्डर से बोला ।
“और राधेमोहन कौन है ?” - फिर उसने सुनील से प्रश्न किया ।
“तुम नहीं जानते राधेमोहन कौन है ?” - सुनील बोला ।
“मैं किसी राधेमोहन को नहीं जानता ।” - वह उखड़े स्वर से बोला ।
“अच्छा मैं बताता हूं राधेमोहन कौन है” - सुनील बोला - “राधेमोहन वह आदमी है जिसके साथ अभी थोड़ी देर पहले तुम ‘ब्लास्ट’ के दफ्तर के सामने फुटपाथ पर खड़े बातें कर रहे थे ।”
“तुम मेरा पीछा कर रहे थे ।” - वह घृणापूर्ण स्वर से बोला ।
“हां ।” - सुनील ने बड़ी सादगी से स्वीकार किया ।
“मैं तुम्हारे हाथ-पांव तोड़ दूंगा ।”
“तोड़ देना लेकिन अब कम से कम यह तो स्वीकार कर लो कि तुम राधेमोहन को जानते हो ।”
वह आदमी चुप रहा ।
“राधेमोहन की कोठी पर जिन डाकुओं ने कल रात को डाका डाला था, उनमें से एक तुम भी हो । दुर्भाग्यवश एकाएक तुम्हारे चेहरे से नकाब उतर गया था और राधेमोहन ने तुम्हारी सूरत देख ली थी । लोगों की सूरत याद रखने के मामले में राधेमोहन जरूरत से ज्यादा होशियार मालूम होता है । वह तुम्हारे लिए अच्छा-खासा खतरा साबित हो सकता है । थोड़ी देर पहले जब तुम राधेमोहन से बात कर रहे थे तो राधेमोहन पत्ते की तरह कांप रहा था । इससे मैं एक ही नतीजा निकाल सकता हूं । जरूर तुमने उसे धमकी दी है कि अगर वह तुम्हारे बारे में अपनी जुबान खोलेगा तो तुम उसे जान से मार डालोगे । और राधेमोहन की हालत देखकर ऐसा लगता था जैसे तुम्हारी धमकी काम कर गई है । मैंने कुछ गलत तो नहीं कहा प्यारेलाल ।”
वह आदमी विस्फारित नेत्रों से सुनील की ओर देखने लगा ।
उसी क्षण बार टेन्डर ने उसे फिर विस्की सर्व कर दी । कड़ी मेहनत से उस आदमी ने अपनी निगाहें सुनील के चेहरे से हटाई और अपना सिर विस्की के गिलास पर झुका लिया ।
“चोरी चकारी के खेल में नई भर्ती मालूम होते हो उस्ताद ।” - सुनील बोला - “तुम्हारी जगह कोई घिसा हुआ अपराधी होता तो राधेमोहन को धमकी देने के स्थान पर स्थाई रूप से उसका मुंह बन्द करने के लिए उसका काम तमाम कर आया होता ।”
“तुम कौन हो ?” - उस आदमी ने अपने स्वर को भरसक सन्तुलित रखने का प्रयत्न करते हुए प्रश्न किया ।
“मैं वह आदमी हूं जिसके पास राधेमोहन एक लाख रुपये की आफर लेकर आया था । बदले में मुझे तुम्हें तलाश करना था । मुझे उम्मीद नहीं थी कि तुम्हारे से इतनी जल्दी टकराव हो जाएगा । अब तो मुझे यूं लग रहा है जैसे मुझे साफ-साफ एक लाख रुपये का घाटा हो गया हो ।”
वह आदमी चुप रहा । उसने विस्की का बड़ा सा घूंट हलक में उडेला ।
“तुम्हारी बदकिस्मती से अब तो तुम्हारे बारे में मैं भी जानता हूं । तुम मेरा मुंह कैसे बन्द करोगे ?” - सुनील बोला ।
वह आदमी एक ही बार में गिलास की बाकी विस्की भी पी गया । उसके नेत्रों से सुरूर झलकने लगा था ।
“मुझे तुम्हारा मुंह बन्द करने की क्या जरूरत है ।” - एकाएक वह लापरवाही भरे स्वर से बोला - “तुम मेरा क्या बिगाड़ सकते हो ?”
लगता था शराब के नशे ने उसे दिलेर बना दिया था ।
“मैं तुम्हारे बारे में पुलिस में रिपोर्ट कर सकता हूं ।” - सुनील बोला - “मैं पुलिस को बता सकता हूं कि राधेमोहन की कोठी को लूटने वाले डाकुओं में से तुम भी एक थे ।­”
“और पुलिस तुम्हारी बात पर विश्वास कर लेगी ।” - वह आदमी व्यंगपूर्ण स्वर से बोला ।
“मेरी बात पर न सही राधेमोहन की बात पर तो विश्वास करेगी । मजबूर करने पर राधेमोहन को पुलिस को भी वह सब कुछ बताना पड़ेगा जो उसने मुझे बताया था ।”
“कुछ बताना तो दूर, राधेमोहन तो तुम्हारी सूरत पहचानने से भी इन्कार कर देगा ।”
“अच्छा ! तुम उसे इस हद तक धमका आये हो ?”
उस आदमी के चेहरे पर एक कमीनी मुस्कराहट दौड़ गई ।
“राधेमोहन पुलिस थर्ड डिग्री के सामने अपनी जबान बन्द नहीं रख पाएगा । वह तो...”
सुनील चुप हो गया । वह आदमी स्टूल से उठकर खड़ा हुआ था । उसने अपनी जेब में से कुछ नोट निकाले और उन्हें काउन्टर पर उछाल दिया । फिर उसने जेब से रूमाल निकालकर अपने चेहरे पर फिराया और फिर सुनील की ओर घूमकर बोला - “देखो लड़के जिस रास्ते पर तुम चलने की कोशिश कर रहे हो, उसे फौरन छोड़ दो, वर्ना खामखाह मारे जाओगे ।”
सुनील उसकी धमकी नहीं सुन रहा था । उसकी निगाहें उस आदमी के कोट की दांई जेब से टकरा रही थीं । उस जेब में से एक लिफाफा बाहर निकल आया था ।
वह आदमी बाहर जाने के लिए घूमा ।
“भाई साहब ।” - सुनील एकदम स्टूल से उतरा थोड़ा, लड़खड़ाया, फिर उस आदमी के शरीर से उसका शरीर टकराया और फिर वह सम्भल गया ।
“क्या है ?” - वह आदमी गुर्राया ।
“कम से कम अपना नाम तो बताते जाइए ।” - सुनील विनीत स्वर से बोला ।
उस आदमी ने होंठ बिगाड़ कर उसकी ओर देखा और फिर बिना कुछ बोले द्वार की ओर बढ गया ।
सुनील के होठों पर एक मुस्कराहट दौड़ गई । उस आदमी की दांई जेब में से आधा बाहर झांकता हुआ लिफाफा सुनील के हाथ में पहुंच चुका था । सुनील ने जल्दी से उस लिफाफे को दौहरा करके अपने कोट की भीतरी जेब में रखा और फिर बियर का बिल चुका दिया । उसने मुश्किल से बियर के दो तीन घूंट पिये थे ।
फिर वह भी तेजी से बाहर निकल गया ।
वह आदमी फुटपाथ पर एक ओर चला जा रहा था ।
अन्धकार हो चुका था, सड़क की और दुकानों की बत्तियां जल चुकी थीं और सड़क पर लोगों की भीड़ भी बढ गई थी ।
उस भीड़ में सुनील उस आदमी का पीछा करता रहा ।
शायद शराब के नशे ने उस आदमी को थोड़ा लापरवाह बना दिया था । उसने एक बार भी पीछे घूमकर नहीं देखा था उसे इस बात का अहसास नहीं था कि सुनील फिर उसका पीछा कर रहा था ।
वह आदमी भीड़ भरी सड़क को छोड़कर एक अन्य सड़क पर दांई ओर घूम गया । उस सड़क पर ट्रेफिक कम था । बहुत कम लोग आते जाते दिखाई दे रहे थे ।
सुनील ने उस सड़क पर घूमने से पहले उसे काफी आगे निकल जाने दिया । फिर वह अपने आपको एक निश्चित फासले पर रख पूर्ववत् उसका पीछा करने लगा ।
काफी आगे चलकर वह आदमी फिर दांई ओर घूम गया और सुनील की दृष्टि से ओझल हो गया ।
सुनील तेजी से चलता हुआ उस रास्ते के मुंह पर पहुंचा जिधर उसने उस आदमी को जाते देखा था । वह दोनों ओर बने बंगलों की लम्बी कतार में से गुजरता हुआ एक रास्ता था जिसके दोनों ओर पड़े उसे हुए थे । रास्ते के मुंह के पास के एक बिजली के खम्बे पर बल्ब जल रहा था । आगे के तीन चार खम्बों का बिजली का बल्ब उस रास्ते की पूरी लम्बाई का अन्धकार दूर करने के लिए अपर्याप्त था ।
सुनील को उस लगभग अन्धेरी गली में वह आदमी कहीं दिखाई नहीं दिया रास्ता एकदम सुनसान पड़ा था ।
सुनील दांये बांये देखता हुआ सावधानी से आगे बढने लगा ।
शायद वह आदमी उन बंगलों में से किसी एक में प्रविष्ट हो गया था । सुनील आगे बढ रहा था और उचक-उचक कर दांये बांये के बगलों के भीतर झांकता जा रहा था इस आशा में कि शायद कहीं उसे वह आदमी दिखाई दे जाये ।
वह रास्ता आगे से बन्द था इसलिए यह बात तो निश्चित ही थी कि वह आदमी उन बंगलों में से ही किसी एक में प्रविष्ट हुआ था ।
सुनील जानता था कि अन्त में उसे यही करना पड़ेगा कि वह उस गली में खड़ा तब तक प्रतीक्षा करता रहे जब तक कि वह आदमी जहां गया है वहां से बाहर न निकल आये ।
वह पूर्ववत् आगे बढता रहा ।
फिर एकाएक सुनील को यूं लगा, जैसे उस पर पहाड़ टूट पड़ा हो ।
इससे पहले कि वह स्थिति को समझ पाता वह जमीन चाट रहा था ।
जमीन पर पड़े-पड़े एक क्षण से भी कम का समय उसे अपने आक्रमणकारी पर दृष्टिपात करने का मिला ।
वह वही बदमाश था जिस का पीछा करता हुआ यहां तक आया था । शायद वह किसी पेड़ के पीछे छुपा हुआ था और सुनील के वहां से गुजरते ही उसने पीछे से सुनील पर छलांग लगा दी थी ।
इससे पहले कि सुनील सम्भल पाता, उस आदमी के भारी बूट वाले पांव की भरपूर ठोकर सुनील के पेट में पड़ी ।
सुनील के मुंह से एक घुटी हुई चीख निकली और वह फुटबाल की तरह दूसरी ओर उछल गया ।
उस आदमी के पांव की दूसरी ठोकर फिर उसके पेट में पड़ी । वह उसे सम्भलने का कतई मौका नहीं दे रहा था ।
यह सोचना सुनील की गलती थी कि वह आदमी उसके प्रति एकदम लापरवाह था । शायद उसे ‘क्वालिटी’ से निकलने के बाद से ही मालूम था कि सुनील उसका पीछा कर रहा था । इसलिए शायद वह जान-बूझकर ऐसे रास्ते पर पहुंच गया था जहां वह अकस्मात सुनील पर आक्रमण कर सके ।
उस आदमी का पांव पूरी तेजी से हवा में घूमा । इससे पहले कि उसके पांव की ठोकर फिर सुनील के शरीर से टकरा पाती सुनील ने दोनों हाथ फैलाए और झपट कर उसका पैर पकड़ लिया । लेकिन उसका इच्छित फल सुनील को नहीं मिला न तो उस आदमी का बैलेंस बिगड़ा और न ही सुनील की पकड़ बरकरार रह सकी । उसका पांव छूटते ही फिर सुनील की छाती से टकराया ।
वह आदमी तनिक लड़खड़ाया और फिर सम्भल गया ।
उस एक क्षण में सुनील उछल कर अपने पैरों पर खड़ा हो गया ।
सुनील ने अपनी पूरी शक्ति से उस आदमी पर अपने दांयें हाथ का घूंसा चलाया । वह आदमी हाथ उस आदमी के सिर के ऊपर से हवा को चीरता हुआ गुजर गया ।
वही एक अवसर था जब सुनील को उस आदमी पर प्रहार - निष्फल प्रहार - करने का अवसर मिला था । उसके बाद उस आदमी ने सुनील को घूंसों पर धर लिया ।
उस आदमी के घूंसे तब तक सुनील के शरीर के विभिन्न भागों पर बरसते रहे जब तक सुनील का शरीर निश्चेष्ट होकर उस रास्ते की पथरीली जमीन पर लोट नहीं गया ।
उस आदमी ने सुनील की टांगें पकड़ी और फिर उसे घसीट कर रास्ते के किनारे दो समीप-समीप उसे पेड़ों के पीछे डाल दिया ।
फिर वह लम्बे डग भरता हुआ वापिस चला गया ।
***
जब सुनील को होश आया तो उसने स्वयं को सूखी पत्तियों के ढेर के बीच में पड़ा पाया । बड़ी मेहनत से उठकर अपने पैरों पर खड़ा हुआ । उसने कलाई पर वन्धी घड़ी पर दृष्टिपात किया ।
वह लगभग दस मिनट बेहोश रहा था ।
उसने अपने कपड़े झाड़े जेब से रूमाल निकालकर चेहरे पर फेरा । बालों में उंगलिया फिरा-फिरा कर सूखी पत्तियां निकालीं और लड़खड़ाता हुआ आगे बढा ।
एक पब्लिक टेलीफोन से उसने चटर्जी को फोन किया ।
“सुनील बोल रहा हूं मिस्टर चटर्जी ।” - वह बोला ।
“कहां से बोल रहे हो, बाबा ।” - चटर्जी शिकायत भरे स्वर से बोले - “मैं सिर्फ तुम्हारे इन्तजार में ही दफ्तर खोलकर बैठा हुआ हूं ।”
“मैं शर्मिंदा हूं, दादा । एक भारी बखेड़े में फंस गया था । इसलिए फौरन नहीं आ सका ।”
“अब आ रहे हो ?”
“फौरन आ रहा हूं । मैंने केवल यह देखने के लिए फोन किया था कि कहीं आप दफ्तर से उठ तो नहीं गए ।”
“मैं अभी भी प्रतीक्षा कर रहा हूं ।”
“मैं पन्द्रह मिनट में पहुंच रहा हूं ।”
“ओके ।”
सुनील ने सम्बन्ध विच्छेद कर दिया और बूथ से बाहर निकल आया ।
सड़क से उसने एक टैक्सी ली और सीधा चटर्जी के दफ्तर में पहुंच गया ।
चटर्जी अपने प्राइवेट आफिस में महोगनी की विशाल मेज के पाछे एक चमड़े की कुर्सीं पर अधलेटे से बैठे हुए थे । सुनील को देखकर उन्होंने स्वयं को कुर्सी पर व्यवस्थित किया और बोले - “आओ ।”
सुनील मुस्कराया और फिर फौरन ही उसके मुंह से हल्की सी सिसकारी निकल गई । वह भूल गया था कि थोड़ी देर पहले कुछ घूंसे उसके चेहरे पर भी पड़े थे और उसका ऊपर का होंठ कट गया था । वह चटर्जी के समीप की एक कुर्सी पर बैठ गया ।
चटर्जी ने सुनील के चेहरे की ओर देखा और फिर हैरानी से बोले - “यह क्या हालत बना रखी है ?”
“पिट कर आ रहा हूं, दादा ।” - सुनील बोला - “इसलिए यहां आने से देर हो गई थी ।
कोई और अवसर होता तो चटर्जी इस विषय में बहुत कुछ कहते लेकिन उस समय स्वयं अपनी ओर से कहने के लिए उनके पास इतनी गम्भीर बात थी कि उन्होंने उस वार्तालाप का वहीं पटाक्षेप कर दिया ।
“मुझे क्यों बुलाया था आपने ?” - सुनील बोला ।
“बताता हूं ।” - चटर्जी बेहद गम्भीर स्वर से बोले । उनके चेहरे पर ऐसे भाव उभरे जैसे वे सोच रहे हों कि बात को कहां से आरम्भ करें ।
सुनील धैर्यपूर्ण मुद्रा बनाये उनका मुंह देखता रहा ।
“सुनील ।” - अन्त में वह बोले - “इस नगर के कुछ बेहद महत्वपूर्ण आदमी मेरे पास आये थे और उन्होंने एक बड़ा ही अनोखा केस मुझे सौंपा है ।”
“और वह महत्वपूर्ण आदमी कौन हैं ?” - सुनील ने सहज भाव से पूछा ।
“आई एम सॉरी माई बॉय ।” - चटर्जी खेदपूर्ण स्वर से बोले - “मैं उनका नाम जाहिर नहीं कर सकता, मुझे कुछ भी बताने से पहले उन लोगों ने मुझे कसम खिलाई थी कि मैं उनकी कोई मदद कर सकूं या न कर सकूं किसी भी हालत में किसी अन्य व्यक्ति पर उनका नाम नहीं प्रकट करूंगा ।”
“ठीक है । नाम मत बताइये । लेकिन वे चाहते क्या हैं ?”
“सुनील, हर आदमी अपनी जिन्दगी में कभी न कभी कहीं न कहीं ऐसी हरकत कर बैठता है जो बाद में जाहिर हो जाने पर उसके लिये भारी मुसीबत खड़ी कर सकती है । अगर आपने अपने पिछले जीवन में कोई कुकर्म किया है या कोई अपराध किया है तो बाद में आप अपने किये पर पछता तो सकते हैं लेकिन उसे सलेट पर पड़े धब्बे की तरह मिटा नहीं सकते । आप का ऐसा कोई रहस्य किसी साधारण आदमी की जानकारी में आ जाना अगर कहीं ऐसा कोई रहस्य किसी गलत आदमी के हाथ में पड़ जाये तो वह आपकी जिन्दगी तबाह कर सकता है ।”
“गलत आदमी से आप का मतलब ब्लैकमेलर से है जो उस रहस्य को प्रकट करने की धमकी देकर आपको ब्लैकमेल कर सकता है ?”
चटर्जी तनिक हिचकिचाये । उनके चेहरे से यूं लग रहा था जैसे वे बात को अपने ढंग से धीरे-धीरे एक परत खोल कर उघाड़ना चाहते थे लेकिन सुनील के एकदम कूद कर नतीजे पर पहुंच जाने के ढंग ने उन्हें असुविधा में डाल दिया था ।
“हां !” - उन्होंने हिचकिचाते हुए स्वीकार किया ।
“और नगर के जो प्रतिष्ठित व्यक्ति आपके पास आये हैं जो अपना नाम नहीं जाहिर करना चाहते, उनके कोई रहस्य किसी कथित गलत आदमी के हाथ में पड़ गये हैं और अब वह गलत आदमी अर्थात ब्लैकमेलर जोंक की तरह खून चूस रहा है ।”
“हां ।” - चटर्जी ने पहले से भी अधिक असुविधा का अनुभव करते हुए स्वीकार किया ।
“तो फिर इसमें समस्या क्या हो गई है, साहब । जैसे वे लोग आज तक अपना खून चुसवाते रहे हैं, वैसे आगे भी चुसवाते रहें । चटर्जी साहब ब्लैकमेलिंग का धन्धा करने वाले भी एक खास तरह की पेशे की ईमानदारी दिखाते हैं । अगर उसकी मांग पूरी होती रहे तो उनके शिकार को किसी प्रकार का खतरा नहीं होता है ।”
“जो आदमी मेरे पास आये थे, उन्हें ब्लैकमेलर की मांगें पूरी करने से न कोई एतराज अब है न पहले था ।­”
“तो फिर समस्या क्या ?”
“जिन कागजात के दम पर ब्लैकमेलर उन लोगों को ब्लैकमेल कर रहा था, वे कागजात ब्लैकमेलर के हाथ से निकल गये हैं और ऐसी स्थिति पैदा हो गई है कि वे कागजात किसी भी क्षण पुलिस के हाथ पहुंच सकते हैं ।”
“और आपके पास आये समाज के कथित प्रतिष्ठित व्यक्ति यह नहीं चाहते कि उनके कुकर्मों और अपराधों का कच्चा चिट्ठा पुलिस के हाथों में पड़ जाये ?”
“हां ।” - चटर्जी स्वीकृति सूचक ढंग से सिर हिलाते हुए बोले - “उन कागजातों का पुलिस के हाथों में पड़ने का मतलब होगा कि कहानी खत्म । पुलिस उन कागजातों के दम पर उन लोगों को ब्लैकमेल थोड़े ही करेगी । पुसिस तो सीधे-सीधे उन्हें जेल की हवा खिला देगी ।”
सुनील एक क्षण चुप रहा और फिर हौले से मुस्कराता हुआ बोला - “चटर्जी साहब, आप सीधे-सीधे यह क्यों नहीं कहते कि शंकर रोड की नौ नम्बर कोठी में रहने वाला राधेमोहन ही वह आदमी है जो आपके पास आये नगर के प्रतिष्ठित व्यक्तियों को ब्लैकमेल कर रहा था । कल रात उसकी कोठी पर पड़े डाके में डाकू उसकी सेफ पर एकदम झाड़ू फेर गये हैं रुपये पैसे के साथ-साथ वे सेफ के कागजात भी अपने साथ ले गये हैं । मतलब यह कि वे कागजात जिनके दम पर राधेमोहन अपने शिकारों को ब्लैकमेल कर रहा था, अब अनजाने में ही डाकूओं के हाथ में पहुंच गये हैं । इस सारे बखेड़े में एक डाकू और राधेमोहन के दो दोस्त मारे गये हैं इसलिए पुलिस बड़ी तेजी से डाकुओं को तलाश कर रही है । डाकू पकड़े गये तो ब्लैकमेलिंग में काम आने वाले कागजात भी पुलिस के हाथ में पहुंच जायेंगे और फिर आपके प्रतिष्ठित सज्जनों का पटड़ा हो जायेगा ।”
चटर्जी के नेत्र यूं फैल गये जैसे बाहर निकल आयेंगे ।
“तु त.. तुम्हें क.. कैसे मालूम ?” - वे हकलाते हुए बोले ।
“यही नहीं मुझे तो यह भी मालूम है कि उन समाज के कथित प्रतिष्ठित व्यक्तियों में एक केबिनेट मिनिस्टर हैं, एक हाईकोर्ट के जज हैं, गृह मन्त्रालय में एक अन्डर सेक्रेट्री हैं एक करोड़पति सेठ हैं...”
“लेकिन ये सब तुम जानते कैसे हो ?” - चटर्जी हैरानी से लगभग चिल्ला पड़े - “राधेमोहन किन्हें किस दम पर ब्लैकमेल कर रहा था । इसकी जानकारी ब्लैकमेल करने वाले और ब्लैकमेल किये जाने वालों के अतिरिक्त किसी को नहीं है । या फिर अब वह जानकारी उन डाकुओं को हो सकती है । जिन्होंने सेफ में से वे कागजात निकाले । सुनील, राधेमोहन ने उन कागजात के बारे में किसी के सामने अपनी जबान तक नहीं खोली है । उसने पुलिस को भी नहीं बताया है कि ऐसे किन्हीं कागजात का अस्तित्व था और न ही वह ऐसी कोई बात जबान पर लाने की हिम्मत कर सकता था । सुनील, अगर मैं तुम्हें अच्छी तरह जानता न होता तो मैं यही समझता कि शायद राधेमोहन की कोठी पर डाका डालने वाले आदमियों में से तुम भी एक थे । तुम ये सब कैसे जानते हो ?”
“आप बहुत मामूली बात को बहुत ऊंचे स्तर पर सोच रहे हैं । दादा, जिस प्रकार ब्लैकमेलिंग के शिकार यह नहीं चाहते कि वे कागजात पुलिस तक पहुंचें उसी प्रकार ब्लैकमेलर भी यह नहीं चाहता । पुलिस के पास वे कागजात पहुंच गये तो ब्लैकमेलिंग के शिकार तो जेल में पहुंच जायेंगे और या फिर शर्म से आत्महत्या कर रहे होंगे और स्वयं ब्लैकमेलर का धन्धा खत्म हो जाएगा । इसलिए ब्लैकमेलर का और उसके आसामियों का भी सिलसिले में हाथ पांव पटकना स्वाभाविक ही है कि वे कागज पुलिस के हाथों में न पड़ने पायें । अगर मैं गलत नहीं कह रहा हूं तो ब्लैकमेलिंग के शिकारों ने आपसे यही सहायता मांगी है कि किसी प्रकार वे कागजात पुलिस के हाथों पहुंचने से पहले उन्हें मिल जायें या नष्ट हो जायें ।”
चटर्जी मन्त्रमुग्ध से सहमति सूचक ढंग से सिर हिलाते रहे ।
“आप भला उन लोगों की क्या सहायता कर सकते हैं ?” - सुनील बोला ।
“मैं उनकी कोई सहायता नहीं कर सकता ।” - चटर्जी धीरे से बोले - “और यह बात मैंने स्पष्ट शब्दों में उन्हें कह भी दी गयी थी । दरअसल, सुनील, ब्लैकमेलिंग के उन शिकारों में एक मेरा मित्र भी है ।”
“कौन ?”
“सॉरी, मैं नाम नहीं बताऊंगा ।”
“मैं पहले से ही बहुत कुछ जानता हूं । अब नाम छुपाने से क्या लाभ ?”
“फिर भी तुम उन लोगों के नाम नहीं जानते हो ।”
सुनील चुप रहा ।
“सुनील, राधेमोहन के शिकारों में से अपने मित्र की खातिर मैंने कुछ करने का इरादा किया था । मुझे काफी हद तक इस बात की आशा भी है कि शायद तुम डाकुओं में से किसी को तलाश करने में सफल हो जाओ । तुम्हारे जरायमपेशा लोगों में सम्पर्क हैं । पुलिस विभाग में भी तुम्हारे कुछ मित्र हैं । पुलिस सुपरिन्टेन्डेन्ट रामसिंह के बारे में तो तुमने खुद मुझे बताया था । इन सारी बातों को ध्यान में रखते हुए मुझे लगा था कि अगर तुम चाहो तो मेरे मित्र और ब्लैकमेलिंग के अन्य शिकारों के हक में शायद तुम कोई नतीजा निकाल सको । सुनील, अगर तुम राधेमोहन की सेफ में से चोरी गए कागजात डाकुओं से किसी भी कीमत पर वापिस हासिल कर सके या ब्लैकमेल के शिकारों को यह आश्वासन दिला सके कि वे कागजात नष्ट हो चुके हैं तो कागजात की चोरी के समाचार मात्र से अधमरे हो चुके वे लोग जीवन भर तुम्हारा अहसान तो मानेंगे ही साथ ही तुम्हें नकद एक लाख रुपया देंगे ।”
“चटर्जी साहब” - सुनील बोला - “एक लाख रुपया मेरे लिए कोई भारी प्रलोभन नहीं है । यही आफर थोड़ी देर पहले मुझे ब्लैकमेलर द्वारा दी जा चुकी है ।”
“राधेमोहन द्वारा ?”
“जी । वह भी मुझे वे कागजात वापिस दिलवाने के बदले में एक लाख रुपया देने को तैयार था । और सिर्फ इतना ही नहीं डाकुओं तक पहुंचने के लिए उसने मुझे ऐसा निश्चित सूत्र भी दिया था जिसके बारे में उसने पुलिस को भी नहीं बताया है ।”
“क्या ?”
“राधेमोहन ने उस रात एक डाकू की सूरत देख ली थी । संयोगवश एक डाकू का नकाब उतर गया था । राधेमोहन ने मुझे उस डाकू का हुलिया बताया था । वह भी यही चाहता था कि मैं किसी प्रकार उस डाकू को तलाश कर लूं और सीधे-सीधे उससे उन कागजों के बारे में सौदा कर लूं । और दादा, मजेदार बात यह है कि अभी मैं उसी डाकू के हाथ से पिटकर आ रहा हूं ।”
चटर्जी विस्फारित नेत्रों से सुनील की ओर देखने लगे ।
“क्या किस्सा है ?” - उन्होंने पूछा ।
सुनील ने कम से कम शब्दों में सारी घटना कह सुनाई ।
“ओह !” - सारी बात सुन चुकने के बाद चटर्जी निराशा पूर्ण स्वर से बोले - “फायदा तो कुछ भी न हुआ है ? उस डाकू को दुबारा तलाश कर पाने का तो कोई साधन ही नहीं रहा है । और अगर वह डाकू दुबारा मिल भी गया तो स्थिति में कोई विशेष अन्तर नहीं आएगा । राधेमोहन तो अब हरगिज भी वह बात स्वीकार नहीं करेगा कि वह आदमी डाकुओं के गिरोह में था । राधेमोहन की शिनाख्त के बिना उसका कुछ भी नहीं बिगाड़ा जा सकता ।”
“राधेमोहन उसके खिलाफ अपना मुंह खोलेगा या नहीं वह तो बाद की बात है ।” - सुनील बोला - “पहले तो उस डाकू का मिलना जरूरी है ।”
“और मौजूदा हालत में वह असम्भव दिखाई देता है ।”
“शायद इससे कुछ मदद मिले ।” - सुनील बोला और उसने अपनी जेब से वह लिफाफा निकाला जो उसने क्वालिटी बार में उस डाकू की जेब में से उड़ाया था ।
“यह क्या है ?” - चटर्जी बोला ।
“यह लिफाफा मैंने उस डाकू की जेब में से उड़ाया था । उस से पिटकर होश में आने के बाद मुझे तत्काल इसका ध्यान नहीं आया था । इसीलिए अभी तक मुझे इसका निरीक्षण करने का अवसर नहीं मिला था ।”
सुनील ने देखा लिफाफे के ऊपर अंग्रेजी में लिखा था -
बंसीलाल,
587 - धर्मपुरा
राजनगर
सुनील ने लिफाफे के भीतर हाथ डालकर भीतर मौजूद कागज निकाला । वह चारों तहों में मोड़ा हुआ भूरे रंग का रफ कापी का कागज था जिस पर लिखा था ?
बंसीलाल,
सोलह तारीख शाम को सात बजे मुझे हर्नबी रोड पर जोजेफ के बार में मिलो । - मंगतराम
सुनील ने लिफाफे पर डाकखाने की मोहर देखी । पत्र राजनगर से ही चौदह तारीख को पोस्ट किया गया था ।
फिर सुनील लिफाफा और पत्र दोनों चटर्जी के सामने रख दिए । चटर्जी कुछ क्षण उन्हें उलट-पलटकर देखते रहे और फिर बोले - “आज अट्ठारह तारीख है ।”
“और डाका कल अर्थात सत्तरह तारीख को पड़ा था ।” - सुनील बोला ।
“जिस डाकू की जेब में से तुमने लिफाफा निकाला है, बंसीलाल तो उसी का नाम होगा ?”
“सम्भावना तो इसी बात की लगती है ।”
चटर्जी कुछ क्षण सोचते रहे और फिर निर्णयात्मक स्वर से बोले - “सुनील, धर्मपुरे के पते पर इस आदमी से मिलने चलते हैं ।”
“उससे क्या होगा ?”
“अगर बंसीलाल वही आदमी हुआ जिसने तुम्हारे साथ मार पिटाई की थी और जो कल के डाके में भी शामिल था तो इसी से मेरे क्लायन्टों का मतलब हल हो जाएगा ।”
“कैसे ?”
“मैं बन्सीलाल के माध्यम से डाकुओं से वे कागजात खरीद लूंगा ।”
“और अगर उन्होंने न बेचे ?”
“बेचेंगे क्यों नहीं ? उनके लिए वे कागज दो कौड़ी की चीज हैं जिनके उन्हें एकमुश्त लाखों रुपये हासिल हो सकते हैं ।”
“लेकिन इस सौदे के लिए पहले उन्हें यह स्वीकार करना पड़ेगा कि डाका उन्होंने डाला है जो वे हरगिज नहीं चाहेंगे । क्योंकि वे आपको नहीं जानते । सम्भव है अपना मतलब हल हो जाने के बाद आप उनकी गिरफ्तारी का कारण बन आयें ।”
“ओह चलो तो सही बाबा । मैं उन्हें विश्वास दिला दूंगा कि इस सौदे में उन्हें किसी प्रकार का खतरा नहीं उठाना पड़ेगा ।”
“बन्सीलाल बहुत खतरनाक बदमाश है ।”
“उसके लिए मैं यह साथ लिए जा रहा हूं ।” - चटर्जी ने अपने मेज के दराज में से एक छोटी सी रिवाल्वर निकालकर सुनील को दिखाई और फिर उसे कोट की जेब में रख लिया ।
फिर चटर्जी उठ खड़े हुए ।
सुनील भी हिचकिचाता हुआ उठ खड़ा हुआ ।
“मेरे ख्याल से तो अगर हम इस मामले में पुलिस के किसी उच्चाधिकारी की सहायता लें तो ज्यादा अच्छा रहेगा ।”
“फिलहाल तो तुम चलो ।” - चटर्जी बोले - “बन्सीलाल के बारे में पुलिस को बाद में भी सूचित किया जा सकता है ।”
सुनील उनके साथ हो लिया ।
***
धर्मपुरा राजनगर का गन्दा और पुराना इलाका था ।
चटर्जी और सुनील चटर्जी की कार पर वहां पहुंचे । बड़ी मुश्किल से वे 587 नम्बर मकान तलाश कर पाये । वह एक पुराना सा दो मंजिला मकान था । ऊपर की मन्जिल के लिए सड़क पर से ही सीढियां जाती थीं । उसी इमारत में सीढियों की बगल में एक छोटी सी चाय की दुकान थी । दुकान पर एक लगभग पन्द्रह साल का लड़का बैठा हुआ था ।
“ए सुनो ।” - सुनील बोला ।
लड़के ने सिर उठाकर उनकी ओर देखा । उनके अच्छे कपड़ों और व्यक्तित्व का लड़के पर काफी प्रभाव पड़ा । उसके चेहरे पर सम्मान के भाव उभर आए ।
“हां, साहब ।” - वह तत्परता से बोला ।
“587 नम्बर मकान कौन सा है ?”
“यही है साहब ।”
“यहां बन्सीलाल कहां रहता है ?”
“ऊपर रहता है जी । सीढियों से सीधे ऊपर चले जाइए । ऊपर दो ही कमरे हैं और दोनों उसके पास हैं ।”
“तुम बन्सीलाल का हुलिया बयान कर सकते हो ?”
लड़के ने संदिग्ध नेत्रों से सुनील की ओर देखा ।
“यार, दरअसल हम यह नहीं चाहते कि हम किसी गलत बन्सीलाल के पास पहुंच जायें । यह बन्सीलाल वही है न जो सिर से काफी गंजा है, जिसके चेहरे पर हल्की-हल्की मूंछें हैं, भारी जबड़े हैं, गाल भीतर को धंसे हुए हैं, बाए गाल पर काले रंग का बड़ा सा मस्सा है और बांई आंख के ऊपर गहरी चोट का लम्बा सा निशान है ।”
लड़के के चेहरे से सन्देह के भाव गायब नहीं हुए लेकिन उसने स्वीकारात्मक ढंग से सिर हिला दिया ।
“मेहरबानी ।” - सुनील मुस्कराता हुआ बोला - “हम इसी बन्सीलाल से मिलने आए हैं । वह ऊपर है ?”
“होगा ।” - लड़का बोला - “मैंने उसे नीचे उतरते तो नहीं देखा है ।”
सुनील ने चटर्जी को संकेत किया ।
दोनों एक दूसरे के पीछे सीढियां चढने लगे ।
आधे रास्ते में सुनील ठिठक गया और बोला - “दादा, बन्सीलाल निश्चय ही वही आदमी है जिसने मेरी पिटाई की थी । मेरी सूरत देखते ही वह भड़क उठेगा । इसीलिए जरा होशियार रहियेगा और अवसर आने पर अपना वह खिलौना इस्तेमाल करने से हिचकिचायेगा नहीं ।”
“अच्छा ।” - चटर्जी बोले । उन्होंने रिवाल्वर को कोट की भीतरी जेब में से निकालकर दांई ओर की बाहर की जेब में डाल लिया और अपना दांया हाथ भी उसी जेब में डाल लिया ।
वे फिर सीढियां तय करने लगे ।
ऊपर उन्हें आगे पीछे बने दो कमरे दिखाई दिये ।
सुनील ने धीरे से बाहरी कमरे का द्वार खटखटाया ।
भीतर से कोई उत्तर नहीं मिला ।
“बन्सीलाल ।” - सुनील ने आवाज दी और फिर द्वार खटखटाया ।
“दरवाजा खुला है ।” - एकाएक चटर्जी बोले - “और बत्ती जल रही है ।”
सुनील ने द्वार को भीतर की ओर धक्का दिया ।
द्वार थोड़ा सा खुल गया ।
“बन्सीलाल ।” - सुनील ने फिर आवाज लगाई ।
उत्तर नहीं मिला ।
सुनील ने द्वार पूरा खोल दिया और फिर उत्तर न मिलने का कारण तत्काल उन्की समझ में आ गया ।
दोनों कमरों के बीच के दरवाजे की दहलीज पर बन्सीलाल का मृत शरीर पड़ा था । उसकी टांगे एक कमरे में थी और सिर और कन्धे दूसरे कमरे में । वह पीठ के बल पड़ा था । उसकी छाती में दिल के पास एक छुरा धंसा हुआ था जिसकी केवल मूठ ही शरीर से बाहर दिखाई दे रही थी । लाश के आसपास चमकदार लाल रंग के खून का तालाब बना हुआ था । उसका चेहरा गहन पीड़ा के भावों से विकृत हो उठा था लगता था छाती छुरा घुसने के बाद उसकी तत्काल मृत्यु नहीं हुई थी और प्राण निकलते से पहले उसे भारी तकलीफ का सामना करना पड़ा था ।
सुनील ने द्वार से आगे बढने का उपक्रम नहीं किया वह वहीं खड़ा-खड़ा बोला - “खून का रंग अभी भी चमकदार लाल है । इसकी मृत्यु हुए आधे घन्टे से अधिक समय नहीं हुआ है ।”
चटर्जी चुप रहे ।
सुनील ने द्वार को पूर्ववत बन्द कर दिया और चटर्जी को वापिस चलने का संकेत किया ।
दोनों चुपचाप सीढियां उतर आये ।
चाय वाला लड़का उन्हीं की ओर देखा रहा था ।
“बन्सीलाल ऊपर नहीं है ।” - सुनील बोला ।
“लेकिन मैंने उसे नीचे आते तो नहीं देखा ।” - लड़का बोला ।
“तुमने ध्यान नहीं दिया होगा ।”
“हां । शायद ।” - लड़का अनिश्चित स्वर से बोला ।
“अभी लगभग आधे घन्टे पहले बन्सीलाल से कोई मिलने आया था ?” - सुनील बोला ।
लड़का चुप रहा ।
सुनील उसके चेहरे को गौर से देखने लगा । वह यह समझ पाने की कोशिश कर रहा था कि लड़का उत्तर नहीं देना चाहता इसलिए चुप हो गया है या वह उत्तर सोचने का उपक्रम कर रहा है ।
“ठीक से सोचकर जवाब दो, बेटे ।” - सुनील उसे उत्साहित करता हुआ बोला - “मैं तुम्हें दस रुपए इनाम दूंगा ।”
लड़के के नेत्र चमक उठे । उसने आशापूर्ण ढंग से अपना हाथ सुनील की ओर बढा दिया ।
सुनील ने तत्काल एक दस का नोट उसकी हथेली पर रख दिया ।
चटर्जी विचित्र नेत्रों से सुनील की तरफ देख रहे थे ।
लड़का कुछ क्षण सोचता रहा और फिर बोला - “बाबू जी असल में आधा घन्टा पहले मैं किसी की चाय देने के लिए नुक्कड़ तक गया था । वहां मैं अपने एक दोस्त से बातें करने लगा था और फिर लगभग पांच मिनट बाद लौटा था । उतने समय में अगर कोई ऊपर गया हो तो में कह नहीं सकता लेकिन...”
और लड़का चुप हो गया ।
“लेकिन क्या !” - सुनील उत्सुक स्वर से बोला ।
“जब मैं वापिस लौट रहा था तो मुझे सीढियों के पास एक औरत दिखाई दी थी । उस समय मुझे लगा था जैसे वह औरत सीढियों से ही नीचे उतरी हो लेकिन मैं पक्का नहीं कह सकता ।”
“उस औरत को तुमने ऊपर जाते नहीं देखा था ।”
“नहीं ।”
“उसका हुलिया बयान कर सकते हो ?”
“मैंने उसे दूर से देखा था । मैं केवल इतना ही कह सकता हूं कि वह खूबसूरत थी, जवान थी और बड़ी कीमती साड़ी पहने हुए थी । साड़ी का पल्ला उसने अपने सिर के ऊपर से लपेटा हुआ था और किनारे को ठोडी के पास से पकड़ा हुआ था । जिस बात ने मेरा ध्यान उसकी ओर सबसे अधिक आकर्षित किया था, वह यह थी कि रात में भी धूप का बड़े-बड़े शीशों वाला चश्मा लगाए हुए थी ।”
“तुम उस औरत को कभी दोबारा देखो तो पहचान लोगे ?”
“सवाल ही नहीं पैदा होता साहब ।” - लड़का बोला - “उसकी सूरत तो मैं देख ही नहीं पाया था । मैंने कहा न उसने अपने सिर के गिर्द साड़ी का पल्लू लपेटा हुआ था और वह बेहद बड़े शीशों का चश्मा लगाए हुए थी ।”
“क्या बन्सीलाल से मिलने के लिए औरतें अक्सर आया करती हैं ?”
“हां जी । आती ही रहती हैं ।”
“बन्सी उन्हें साथ लाता है या वे खुद भी चली आती हैं ?”
“बन्सी के साथ भी आ जाती हैं और अकेली भी आ जाती हैं ।”
“वह चश्मे वाली औरत पहले कभी आई थी ?”
“शायद आई हो । शायद न आई हो । ऐसे क्या मालूम पड़ता है । मैंने कहा न कि चश्मे वाली के नयन नक्श तो मैं देख नहीं पाया था । वैसे रोशनी भी कम थी और मैं फासले पर था ।”
“उस औरत के अलावा और कौन आया था ?”
“मेरे दुकान पर लौटने के पांच मिनट बाद ही एक और आदमी आया था ।”
“वह कौन था ?”
“मैंने उसे पहले कभी नहीं देखा था । वह बेहद लम्बा दुबला पतला घने घुंघराले बालों वाला ज्यादा से ज्यादा बीस-बाइस साल का लड़का था । वह एक लाल धारियों वाली कमीज और नीली जीन पहने हुए था ।”
“वह ऊपर कितनी देर ठहरा था ?”
“उल्टे पांव वापिस लौट आया था, साहब । एक सैकन्ड भी नहीं ठहरा था । बस गया और आया ।”
“बन्सीलाल घर पर नहीं होगा न !”
“लेकिन मैंने बन्सीलाल को नीचे उतरते नहीं देखा ।”
“शायद यह तब नीचे उतरा हो, जब तुम चाय देने के लिए गए थे ?”
“शायद ।” - लड़का धीरे से बोला ।
“वह लाल धारियों की कमीज वाला लड़का पहले कभी बन्सी से मिलने आया था ?”
“मेरी जानकारी में नहीं ।”
“तुम उसे दुबारा देखो तो पहचान लोगे ?”
“पहचान लूंगा ।” - लड़का निश्चयपूर्ण स्वर से बोला ।
“वह लड़का सीढियां उतरते समय क्या बहुत तेजी में था ?”
“जी हां ।” - लड़का बोला - “सीढियां चढा तो वह बड़ी शान्ति से था । लेकिन लौटती बार वह बड़ी तेजी से धड़धड़ाता हुआ सीढियां उतरा था ।”
सुनील ने चटर्जी की ओर देखा । चटर्जी गम्भीर थे ।
“तुम उस औरत के बारे में दावे के साथ कुछ नहीं कह सकते कि वह सीढियां उतरकर नीचे आई थी या यह केवल एक संयोग था कि तुमने उसे इस इमारत की सीढियों के पास देख लिया था ।”
“मुझे तो यूं ही लगा था साहब जैसे वह सीढियों से नीचे उतरी हो ।”
“लेकिन तुम यह बात दावे के साथ नहीं कह सकते ?”
“नहीं कह सकता ।”
सुनील चुप हो गया ।
“साहब, अब कम से कम एक बात मुझे भी बता दो ।” - लड़का बोला ।
“क्या पूछना चाहते हो ?”
“आप इतने सवाल क्यों पूछ रहे हैं ?”
“वजह तुम्हारी समझ में नहीं आयेगी । यह सरकारी काम है ।”
“सरकारी काम !”
“हां । और सुनो, हम जा रहे हैं । जब बन्सीलाल वापिस लौटे तो उसे बता देना कि धर्मराज और कामराज उससे मिलने आये थे ।”
“धर्मराज और कामराज ।” - लड़के ने नाम दोहराये ।
“हां ! नाम याद रहेंगे न ?”
“जी हां !”
“अच्छा ।” - सुनील बोला । उसने चटर्जी को संकेत किया । दोनों उस ओर चल दिये जिधर वे कार खड़ी करके आए थे ।
“लगता है उस लाल धारियों वाली कमीज वाले लड़के ने ही बन्सीलाल की हत्या की है ।” - चटर्जी बोले ।
“जरूरी नहीं है, चटर्जी साहब ।” - सुनील बोला - “वह चाय की दुकान वाला लड़का अपने आपको जरूरत से ज्यादा होशियार जाहिर करने की कोशिश करता है । वह सारे बाजार में चाय देने जाता है । दिन में पता नहीं कितनी बार रूटीन के तौर पर ही दुकान से उतर कर जाता होगा । पता नहीं उसकी जानकारी में आये बिना कितने लोग ऊपर हो आए होंगे । और अगर ऊपर जाने वाला सावधानी बरते तो वह लड़के के दुकान पर मौजूद होने के बावजूद भी उसकी जानकारी में आये बिना ऊपर जा सकता है और फिर बन्सीलाल की हत्या करके चुपचाप नीचे आ सकता है । बाजार में वैसे ही काफी भीड़ रहती है । चाय वाला लड़का सीढियों के आसपास मौजूद हर आदमी पर निगाह कैसे रख सकता है, विशेष रूप से तब जबकि निगाह रखने की कोई वजह ही न हो ।”
“फिर भी वह लड़का हत्यारा हो सकता है ?”
“हो सकता है ।”
“और धूप के चश्मे वाली वह औरत भी ?”
“उस औरत के बारे में वह लड़का श्योर नहीं था कि वह यूं ही सीढियों के पास खड़ी थी या ऊपर से उतरी थी ।”
“शायद वह ऊपर से ही उतरी हो ?”
“फिर हो सकती है ।”
चटर्जी चुप रहे ।
दोनों चटर्जी की कार के समीप पहुंच गये ।
“आप तशरीफ ले जाइये ।” - सुनील बोल - “मैं फिर आपसे मिलूंगा ।”
“तुम कहां जाओगे ?” - चटर्जी ने पूछा ।
“मैं अभी कुछ क्षण यहीं ठहरूंगा ।”
“क्यों ?”
“बन्सीलाल की हत्या की रिपोर्ट पुलिस को तो देनी पड़ेगी वर्ना लाश ऊपर पड़ी सड़ती रहेगी । वैसे भी पुलिस को अपनी तफ्तीश में बहुत सूत्र प्राप्त हो सकते हैं जैसे छुरे पर अन्य स्थानों पर हत्यारे की उंगलियों के निशान ।”
“किसी बखेड़े में मत फंस जाना ।” - चटर्जी चिन्तित स्वर से बोले ।
“घबराइये मत । ऐसा कुछ नहीं होगा ।”
चटर्जी कार की ड्राइविंग सीट पर जा बैठे ।
जब तक चटर्जी की कार दृष्टि से ओझल नहीं हो गई, सुनील वहीं खड़ा रहा । फिर वह लम्बे डग भरता हुआ उस रेस्टोरेन्ट की ओर बढा जहां उसने डाक तार विभाग का नीला बोर्ड लगा देखा था, जिस पर लिखा था - आप यहां से स्थानीय टेलीफोन कर सकते हैं ।
उसने टेलीफोन बूथ से पुलिस हैडक्वार्टर फोन किया ।
“पुलिस हैडक्वार्टर ।” - दूसरी ओर से कोई बोला ।
सुनील ने तत्काल मशीन जैसे भावहीन स्वर से बोलना आरम्भ कर दिया - “धर्मपुरे के पांच सौ सत्तासी नम्बर मकान की उपरली मंजिल में एक आदमी की हत्या हो गई है । मरने वाले का नाम बन्सीलाल है और वह कल रात को नौ - शंकर रोड पर डाका डालने वाले डाकुओं में शामिल था । राधेमोहन नाम का वह आदमी जिसके घर में डाका पड़ा था मरने वाले की शिनाख्त कर सकता है ।”
“आप कौन बोल रहे हैं ?” - दूसरी ओर से किसी ने व्यग्र स्वर से प्रश्न किया ।
उत्तर में सुनील ने रिसीवर को धीरे से हुक पर टांग दिया ।