देवराज चौहान के होंठों से कराह निकली। बन्द पलकें जोरों से कांपी। दिमाग सक्रिय हुआ, परन्तु सोचने में कुछ भी नहीं आया। उसी पल उसने आंखें खोलीं। आंखें खोलते ही उसे फौरन बन्द कर लेनी पड़ी। वो इतना ही देख पाया था कि पेड़ के पीछे से सूर्य चमक रहा है और धूप की तेज किरण उसकी आंखों से टकराई थी।

वो कहां है?

ये सवाल उसके मस्तिष्क में उभरा। अपने बारे में उसने सोचना चाहा, परन्तु फिर से कोशिश बेकार रही। दिमाग खाली-सा लगा। सोचों में ऐसा कुछ भी नहीं आया कि अपनी स्थिति के बारे में सोच-समझ पाता ।

देवराज चौहान ने हाथों से जमीन को छुआ। वो घास-सी लगी उसे ।

देवराज चौहान ने करवट ली और आंखें खोलने की चेष्टा की। तभी उसका हाथ किसी अन्य इन्सानी शरीर से जा टकराया। हाथों से टटोला तो पाया वो किसी की टांग को दबा रहा है। एक बार फिर देवराज चौहान ने चेष्टा की और पलकों को खोल दिया। देखता रहा चन्द पल सामने को।

मात्र एक फीट दूरी पर, किसी का शरीर पड़ा उसे दिख रहा था। उसके पार वो नहीं देख पाया। कई पलों तक वो ऐसे ही पड़ा रहा फिर नीचे देखा तो हरी घास दिखी। उसने उठना चाहा तो कमजोरी-सी महसूस हुई। क्या हो गया है उसे? कहां पर है वो? एक बार फिर उसने दिमाग पर जोर डाला। अपने बारे में सोचा।

परन्तु किसी भी तरह का विचार उसके दिमाग में नहीं उभरा जिससे कि वो अपनी मौजूदा स्थिति के बारे में जान पाता। कई पलों तक आंखें खोले वैसे ही पड़ा रहा, फिर करवट लेकर सीधा हुआ कि फौरन ही उसे करवट ले लेनी पड़ी, क्योंकि पेड़ से छनकर, सूर्य की तीखी किरणें पुनः उसकी आंखों में पड़ी थी। देवराज चौहान ने हिम्मत इकट्ठी की और जमीन पर हथेलियां टिकाता उठ बैठा। उसे लगा जैसे उसे चक्कर आ रहा है। सिर घूम रहा है। अपने हाल पर हैरान था वो। क्या हुआ जो वो इस हाल में आ पहुंचा है। अपने चकराते सिर पर काबू पाने की चेष्टा की और घास में पड़े इन्सान को देखने की चेष्टा की, जो कि औंधे मुंह पड़ा था। इसलिये उसे ठीक से देख नहीं पाया तो उस व्यक्ति को खींचकर सीधा किया कि उसे देख सके। इतनी कोशिश में ही थक-सा गया था वो।

परन्तु उसका चेहरा देखा तो उसे देखता ही रह गया।

वो जगमोहन था।

जगमोहन भी यहां। मैं भी यहां, वो भी इस हाल में?

देवराज चौहान ने पुनः सोचने की चेष्टा की, लेकिन दिमाग में कोई विचार नहीं उभरा। उसने उसी तरह बैठे-बैठे आस-पास नजर घुमाई। सिर में अभी चक्कर से आ रहे थे। रह-रहकर आंखों के सामने धुंधला-सा नजारा दिखने लगता। देवराज चौहान ने देखा ये छोटा-सा पार्क है। पार्क के आस-पास घर बने दिख रहे थे। पास ही कहीं सड़क थी, जहां से निकलते ट्रेफिक की आवाजें, हार्न की आवाजें सुनाई दे रही थीं।

तभी पेट में पीड़ा की जबर्दस्त लहर उठी। देवराज चौहान पेट थामे, दांत भींचकर घास पर लुढ़कता चला गया। पल भर के लिए उसे लगा जैसे उसकी जान निकल जायेगी। पेट के मांस को उसने मुट्ठी में भींच लिया था कि एकाएक पीड़ा की लहर गायब होती चली गई। सब कुछ सामान्य हो गया। पेट थामे वो लेटा, आसमान को देखता रहा। उसे महसूस हुआ कि जैसे कि पेट इतना खाली है, कि कई दिन से उसने कुछ खाया ना हो। गहरी सांसें ली उसने।

उसी पल देवराज चौहान के कानों में कराह पड़ी। गर्दन घुमाई तो जगमोहन के शरीर को हिलते देखा। उसे देखता रहा और ये ही सोच रहा था कि उसकी तरह जगमोहन को भी होश आ रहा है। उसे तो याद नहीं आया कि यहां कैसे, किस हाल में पहुंचा। परन्तु जगमोहन को जरूर पता होगा।

देवराज चौहान कोशिश करके उठ बैठा ।

जगमोहन के शरीर में हरकतें तेज हो गई थीं। उसके हाथ-पांव हिल रहे थे। होंठों से रह-रहकर कराहें निकल रही थीं। देवराज चौहान ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी। उसे जगमोहन के होश में आने का इन्तज़ार था। तभी देवराज चौहान के पेट में पीड़ा की तीव्र लहर उठी और उसने दांत भींचकर, अपना पेट थाम लिया। कुछ पलों बाद पीड़ा की लहर गायब हो गई। उसकी निगाह जगमोहन पर जा टिकी थीं।

जगमोहन के होंठों से तीव्र कराह निकली और मिचमिचाकर आंखें खोल दीं।

देवराज चौहान ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी ।

जगमोहन के होंठों से पुनः मध्यम-सी कराह निकली। उसका चेहरा फीका पड़ा हुआ था। कई पलों तक वो इसी तरह पड़ा रहा। देवराज चौहान उसे देख रहा था। पुकारना चाहता था, परन्तु बेहद कमजोरी की वजह से पुकार ना पाया, फिर हाथ बढ़ाकर जगमोहन की टांग को छुआ तो जगमोहन की गर्दन देवराज चौहान की तरफ घूम गई।

दोनों की नज़रें मिलीं।

वे एक-दूसरे को देखते रहे।

"ह... हम कहां हैं?" देवराज चौहान कह उठा।

जगमोहन के होंठ हिले, परन्तु कुछ कह ना सका। आंखें खोले वो इधर-उधर देखता रहा।

देवराज चौहान सरककर उसके करीब सरक आया और सूखे होंठों पर जीभ फेरकर बोला---

“ह... हम कहां हैं?"

जगमोहन ने देवराज चौहान को देखा, देखता रहा।

“मुझे... याद नहीं आ रहा कि हम यहां कैसे पहुंचे?" देवराज चौहान ने पुनः धीमे स्वर में कहा।

"ये क्या जगह है?"

“कालोनी के भीतर का पार्क है।"

“ओफ...फ... ।” एकाएक जगमोहन पेट पकड़कर दोहरा होता चला गया।

देवराज चौहान समझ गया कि उसी की तरह, जगमोहन के पेट में भी दर्द उठा होगा। दोनों के हालात एक जैसे ही थे। वो तब तक जगमोहन को देखता रहा, जब तक वो सामान्य ना हो गया। अब वो गहरी सांसें ले रहा था।

"मेरे पेट में भी ऐसा दर्द हो चुका है।” देवराज चौहान बोला--- "ना खाने की वजह से दर्द हो रहा है। लगता है हमने कई दिनों से कुछ भी खाया नहीं है। समझ में नहीं आता कि हमारे साथ क्या हो रहा है।"

जगमोहन ने उठकर बैठने की चेष्टा की, परन्तु कराहकर रह गया।

“ह... हमारे साथ क्या हुआ ?" जगमोहन बोला--- “हम यहां कैसे पहुंचे, ह... हम... ।”

"मैं तो ये ही सवाल तुमसे पूछ रहा हूं।” देवराज चौहान ने कहा।

जगमोहन चुप रहा।

"कैसा महसूस कर रहे हो तुम?"

"कमज़ोरी है, थकान है, आंखों में नींद है। हिला भी नहीं जा रहा।" जगमोहन कह उठा।

"ऐसा ही मेरा हाल है। सोचो, पीछे हम कहां थे...कुछ याद करो।"

जगमोहन ने आंखें बन्द की । चन्द पलों बाद आंखें खोलते हुए कहा।

“कुछ भी याद नहीं आ रहा। लगता है जैसे दिमाग खाली हो गया है। कुछ भी सोचों में नहीं आ रहा। ये कैसे हो सकता है। हमें कुछ तो ध्यान आना चाहिये। हम कब और क्यों यहां पहुंचे?”

"हमें यहां से चलना चाहिये।" एकाएक देवराज चौहान कह उठा।

"मुझमें हिम्मत नहीं है चलने की... ।”

“पागल मत बनो। लगता है जैसे कोई तूफान गुजरा हो और अंत में तूफान ने हमें यहां पटक दिया हो। ये हैरानी की बात है कि हमें कुछ भी याद नहीं आ रहा। ऐसा कैसे हो सकता है। यकीनन कोई खास बात है। बेहद खास बात, जो अभी हमें समझ नहीं आ रही, वरना हम यहां ना पड़े होते। इस हाल में ना होते कि हमें कुछ याद ही ना आये। पेट का दर्द हमें एहसास करा रहा है कि हमने कई दिन से कुछ नहीं खाया। ये सामान्य स्थिति में नहीं हो सकता।"

जगमोहन उठ बैठा।

"हमारे कपड़े भी मैले हो रहे हैं।" देवराज चौहान ने जगमोहन के कपड़ों को देखते हुए कहा--- "जरूर कुछ हुआ है, जगमोहन, हम आसानी से इस बुरी स्थिति में नहीं पहुंच सकते।"

"क्या हुआ है?"

"ये ही तो समझ में नहीं आ रहा कि हम बीते वक्त से अन्जान क्यों हैं। हमें यहां से चल देना चाहिये।"

"अभी?”

"हां अभी। क्योंकि हमें नहीं पता कि हम किस स्थिति से गुजर रहे हैं। हमारे आस-पास क्या चल रहा है। हमें कुछ भी याद क्यों नहीं आ रहा। ये बात मुझे चिन्ता में डाल रही है।"

जगमोहन ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी ।

"मैं...।"

"होश आने पर मुझे भी ऐसा ही हुआ था। पर अब ऐसा नहीं है। तुम भी ठीक हो जाओगे।"

वाहनों की आवाज सुनकर जगमोहन ने कहा।

“पास ही कोई सड़क लगती है।"

“हां। मैंने भी इस बात को महसूस किया है।"

“हम मुम्बई के किस इलाके में हैं?" जगमोहन ने पूछा।

"इस वक्त जो हालत तुम्हारी है, वो ही मेरी है। यहां से चलो, हमें हर बात का जवाब मिल जायेगा।" कहकर देवराज चौहान उठा।

उठते ही टांगों में कमजोरी महसूस की। परन्तु सम्भलकर खड़ा रहा।

"हम नींद में थे या बेहोश थे?" जगमोहन ने उसे देखा।

"पता नहीं। बस आंख खुल गई।" कहने के साथ ही देवराज चौहान ने जेबें टटोलीं। रिवाल्वर, जेब में थी। मोबाइल जेब में था, पर्स जेब में था--- "तुम्हारी कोई चीज़ तो गुम नहीं हुई। जेब चैक करो।"

जगमोहन ने फौरन जेबें चैक कीं।

"सब कुछ है। मोबाइल, पर्स, रिवाल्वर... ।”

“इसका मतलब हमें यहां कोई फेंक कर नहीं गया। हम ही यहां पहुंचे होंगे। अगर ऐसा ना होता तो, हमें यहां डालने वाले हमारी जेबें जरूर खाली कर जाते। लेकिन कुछ याद क्यों नहीं आ रहा?"

जगमोहन भी उठ खड़ा हुआ।

दोनों की हालत ज्यादा बेहतर नहीं थी फिर भी वे पार्क से निकलकर उस तरफ बढ़ गये, जहां से वाहनों की आवाजें आ रही थीं। पार्क के पीछे ही मेन सड़क थी। वहां से भारी ट्रैफिक निकल रहा था।

"मुझे भूख लगी है।"

"मुझे भी।" देवराज चौहान आस-पास देखता कह उठा--- "मैं इस जगह को पहचान गया हूं, ये मलॉड वाली सड़क है। पास ही में उस तरफ मार्किट है, वहां खाने की कई दुकानें हैं, वहां से।"

"अभी सुबह के दस बजे हैं।" जगमोहन कलाई पर बंधी घड़ी देखता बोला—“इस समय खाने को कुछ नहीं मिलेगा।”

"कुछ तो मिलेगा।"

"खाने के बाद मैं बंगले पर जाकर आराम करना चाहता हूं।" जगमोहन ने थके स्वर में कहा।

“बंगले पर ही चलेंगे। मुझे नींद महसूस हो...।"

तभी देवराज चौहान की जेब में पड़ा मोबाइल बजने लगा।

देवराज चौहान ने मोबाइल निकाला और कॉलिंग स्विच दबाकर कान से लगाया।

"हैलो...।"

"तुम कहां हो देवराज चौहान भाई! अभी तक वापस नहीं आये?" उधर से आवाज कानों में पड़ी।

"त... तुम कौन हो?"

"मैं? कमाल है, एक रात में भूल गये। क्यों मजाक करते...।"

“मुझे बताओ तुम कौन हो ?"

“हद है।" उधर से आवाज आई--- “अरे भई मैं खुदे, हरीश खुदे हूं। कैसी बातें कर रहे हो तुम।”

“हरीश खुदे ?” देवराज चौहान ने सोच भरे अन्दाज में नाम दोहराया--- "मुझे याद नहीं आ रहा कि...।”

"तुम्हें क्या हो गया है। रात को तुम और जगमोहन, मोना चौधरी को ढूंढने गये थे कि उसे मार सको। अब अजीब-सी बातें कर रहे हो। ये बताओ कि कब तक आओगे?"

"कहां?" देवराज चौहान के होंठों से निकला।

"वहीं, बिल्ले के घर। रास्ता भूल गये क्या...?”

देवराज चौहान की समझ में कुछ नहीं आया।

"तुम जो भी हो, मैंने तुम्हें नहीं पहचाना। कुछ और बातें बताओ मुझे, कुछ याद नहीं आ रहा।"

“मुझे नहीं पता था कि तुम मजाक भी करते हो।" उधर से हरीश खुदे की आवाज आई--- “तुम कहां पर हो। मैं...।"

तभी जगमोहन कह उठा।

“हरीश खुदे तो पूरबनाथ साठी का आदमी है। साल भर पहले जब साठी का काम किया था तो खुदे हमारे साथ था।”

“ये वो वाला हरीश खुदे है?" देवराज चौहान ने जगमोहन को देखा।

"मुझे क्या पता। उससे पूछो...।”

“तुम क्या पूरबनाथ साठी के आदमी हो ?"

"तुम क्या पागलों वाली बातें कर रहे हो। पूरबनाथ साठी का तो तुमने बैण्ड बजा दिया है। अब तो मैं तुम्हारा आदमी हूं। तुम हो कहां, मैं वहां आ जाता हूं। पूरी रात मैंने तगड़ी नींद ली। खूब सोचा, वो मोना चौधरी मिली कि नहीं ?”

“मोना चौधरी ?" देवराज चौहान के माथे पर बल पड़े--- “उसकी क्या बात कर रहे हो तुम?"

"बहकी-बहकी बातें क्यों कर रहे हो देवराज चौहान ! तुम मोना चौधरी को ढूंढ रहे हो। उसे मार देना चाहते हो। इसी काम के वास्ते मैं भागदौड़ कर रहा था और... ।”

"मैं मोना चौधरी को क्यों मारूंगा?" देवराज चौहान के होंठों से निकला।

"ये तुम जानो...।”

"तुमने कहा, तुम मेरे साथ थे तो तुम्हें पता होगा कि...।”

“तुमने नहीं बताया, इसलिए मुझे नहीं पता। पूछने पर तुम कहते थे कि तुम्हें याद नहीं आ रहा कि क्यों मोना चौधरी को मारना चाहते हो। पर मारना है। मुझे तो हैरानी है कि तुम एक ही रात में सब कुछ भूल... ।”

“तुम यहां आ जाओ खुदे ।” एकाएक देवराज चौहान ने कहा।

"कहां?"

“मलॉड की मुख्य सड़क के चौराहे के पास जो मार्किट है, वहां क्वालिटी स्वीट्स के बाहर मिलना।”

“अभी पहुंचा।"

"कितनी देर में?"

"तीस-पैंतीस मिनट में...।" कहने के साथ ही उधर से फोन बन्द कर दिया गया था।

देवराज चौहान ने फोन जेब में रखा। चेहरे पर उलझन थी।

"ये मोना चौधरी की क्या बात हो रही थी। खुदे क्या कह रहा था?" जगमोहन बोला।

"अजीब-सी बातें कर रहा था।" देवराज चौहान ने जगमोहन को देखकर कहा--- "कहता है अण्डरवर्ल्ड किंग पूरबनाथ साठी को हमने मार दिया है और अब हम मोना चौधरी को मारने के लिए भागे फिर रहे थे...।"

"हमारा क्या दिमाग खराब है जो हम मोना चौधरी को मारना चाहेंगे।" जगमोहन कह उठा।

देवराज चौहान ने जगमोहन को देखा और सोच भरे स्वर में बोला।

“कुछ तो हुआ ही है जगमोहन !"

"क्या मतलब?"

"हमें कुछ याद क्यों नहीं आ रहा। हम पार्क में क्या कर रहे थे। हमारी हिम्मत हमारा साथ क्यों नहीं दे रही। ये खुदे तो पूरबनाथ साठी का आदमी है, लेकिन कहता है अब हमारा साथी है। कहता है हमने पूरबनाथ साठी को मार दिया है।"

“नशा कर रखा होगा हरीश खुदे ने जो ऐसा कह रहा है।"

“उसने हमें फोन क्यों किया? खुदे हमें फोन क्यों करेगा?" देवराज चौहान ने कहा--- “जरूर कोई बात है, जो हमारी समझ में नहीं आ रही। खुदे सब बातें बतायेगा। वो कुछ ही देर में क्वालिटी स्वीट्स के बाहर पहुंचेगा।”

“आखिर हमें कुछ याद क्यों नहीं आ रहा?"

“बिल्ला कौन है?"

"बिल्ला ? मैंने तो किसी पहचान वाले का नाम नहीं सुना।" जगमोहन बोला।

“खुदे कहता है कि हम बिल्ले के घर पर थे।"

"कितनी अजीब बात है कि...।"

"खुदे ही बतायेगा सब कुछ।" देवराज चौहान गम्भीर स्वर में कह उठा।

देवराज चौहान और जगमोहन आगे बढ़ गये।

"खुदे का और हमारा साथ कैसे बन गया।" जगमोहन बोला--- “वो गलत कहता है, वो हमारे साथ नहीं हो सकता।"

"कुछ भी हो सकता है।"

"क्यों?"

“क्योंकि हमें याद नहीं आ रहा कि क्या हुआ है। हम सोचते हैं तो दिमाग को खाली महसूस करते हैं।” देवराज चौहान होंठ भींचकर बोला--- “ऐसा क्यों हो रहा है कि हमें कुछ याद ही ना आये। खुदे कहता है कि हमने पूरबनाथ साठी को मारा।"

"बकवास करता है। हम उसे क्यों मारेंगे।"

“वो कहता है कि हम मोना चौधरी को ढूंढ रहे थे कि उसे मार सकें।"

“मुझे हरीश खुदे की बातों पर विश्वास नहीं। खुदे से मिले हमें साल हो गया है जब साठी का काम किया था।"

चलते हुए देवराज चौहान ने जगमोहन को देखा, परन्तु कहा कुछ नहीं ।

■■■

देवराज चौहान और जगमोहन ने एक-एक बर्गर लिया और कोल्ड ड्रिंक के साथ वो खाया। इस दौरान पेट में रह-रहकर पीड़ा उठती रही। बर्गर से ज्यादा वो नहीं खा सके। उसके बाद दोनों क्वालिटी स्वीट्स के बाहर आ खड़े हुए। सुबह के साढ़े दस हो रहे थे। बाजार में बहुत कम लोग थे। दुकानें अभी खुल रही थीं। कुछ खुल भी चुकी थीं।

उन्हें खड़े पन्द्रह मिनट ही हुए थे कि हरीश खुदे पर निगाह पड़ी जो सामने से आ रहा था। उसके हाथ में छोटा-सा ब्रीफकेस था। उसके चेहरे पर घबराहट स्पष्ट नजर आ रही थी। पास पहुंचते ही वो कह उठा।

“तुम लोग इस तरह खुले में रहोगे तो मरोगे। मैंने अभी-अभी देवेन साठी के आदमी को उस तरफ देखा है। मेरे ख्याल में उसने मुझे देख लिया है। तुम लोगों ने मुझे भी मुसीबत में डाल दिया । मेरा यहां रुकना ठीक नहीं।" हरीश खुदे ने जल्दी से कहने के साथ ही ब्रीफकेस जगमोहन को थमा दिया--- "इसे रखो। बिल्ले का कोई भरोसा नहीं कि इसे खोल ले और बीच में से नोटों की गड्डियां खिसका ले। पूरा अड़तीस लाख था। तुमने पांच लाख मुझे देने को कहा था, वो मैंने निकाल लिया है। तैंतीस लाख अब इस ब्रीफकेस में है। पूरी ईमानदारी से मैंने पांच लाख ही निकाला...।"

"ये सब क्या हो रहा है।" देवराज चौहान के होंठों से निकला।

"तुम्हें नहीं पता ?” खुदे ने हैरानी से कहा।

“नहीं पता, तभी तो...।"

"फोन पर तुम बहकी-बहकी बातें कर रहे थे। मेरे से मजाक करना बन्द करो। मैं गम्भीर हूं। अपना वादा मत भूलना कि जब डकैती की तैयारी करो, तो मुझे भी साथ ले लेना। मेरा फोन नम्बर तुम्हारे पास है ही और...।"

“रुको भी, तुम तो बोलते जा रहे हो।” देवराज चौहान ने कहा--- "मेरी बात का जवाब दो। मुझे कुछ याद नहीं आ रहा कि तुम हमें कहां मिले, हमने क्या-क्या किया। देवेन साठी कौन है जो...।"

“पूरबनाथ साठी का भाई है। पूरबनाथ साठी को तो तुमने मार दिया। देवेन साठी अब तुम दोनों को और मुझे भी नहीं छोड़ने वाला । मोना चौधरी को तुम अभी तक नहीं मार सके। मैं बिल्ले के यहां हूं, वहीं आ जाओ। बातें कर लेना। यहां पर मैं ज्यादा नहीं रुक सकता। देवेन साठी के आदमी को मैंने यहां देखा है, शायद उसने मुझे देख लिया है। बिल्ले के घर पर पहुंचो। मैं वहीं जा रहा हूँ ।" कहने के साथ ही खुदे पलटा और तेज-तेज कदमों से आगे बढ़ गया।

"खुदे...।" जगमोहन ने पुकारा--- “एक मिनट रुको तो सही।"

परन्तु खुदे नहीं रुका और दूर होता चला गया।

"ये क्या हो रहा है।" जगमोहन बोला--- “क्या हमने सच में पूरबनाथ साठी को मार दिया है। सच में मोना चौधरी को... ।”

“ब्रीफकेस खोलकर देखो, भीतर क्या है।” देवराज चौहान परेशान स्वर में बोला।

जगमोहन ने फौरन ब्रीफकेस खोला और हड़बड़ाकर बन्द कर दिया।

"क्या है?"

“हजार-हजार के नोटों की गड्डियों से भरा पड़ा है।” जगमोहन व्याकुल-सा कह उठा ।

“इसका मतलब खुदे की बातें सच हैं।” देवराज चौहान का स्वर गम्भीर था---  "वरना वो, तैंतीस लाख रुपया हमें क्यों देता ?"

"लेकिन ये पैसा आया कहां से?"

"ये ही तो अब हमें पता करना है।"

"ये क्या हो रहा है। हमें पता क्यों नहीं चल रहा। हमारा दिमाग पीछे की जिन्दगी से खाली क्यों है ।"

"अगर हमने पूरबनाथ साठी को मारा है तो ये बहुत गम्भीर मसला है।" देवराज चौहान ने कहा।

“पर हम उसे क्यों मारेंगे?"

"इन्हीं बातों का जवाब हमें ढूंढना है। खुदे कहता है कि हम मोना चौधरी को मारने के लिए भाग-दौड़ कर रहे थे। वो बिल्ले के घर गया है। उसकी बातों का अन्दाज़ बताता है कि हमें बिल्ले के घर का पता है, उसने हमें वहां आ जाने को कहा।"

“बिल्ले का घर ?” जगमोहन उलझन भरे स्वर में बोला--- "मुझे तो नहीं पता।"

"मुझे भी नहीं मालूम। हमें कुछ भी याद नहीं आ रहा।” देवराज चौहान के होंठ भिंच गये।

"यहां से चलो...।" जगमोहन ने कहा।

दोनों बाजार में ही आगे बढ़ने लगे। बाजार की चहल-पहल अब बढ़ने लगी थी। उनकी नज़रें इधर-उधर जा रही थीं। परन्तु उन्हें नहीं पता था कि वो क्या ढूंढ रहे हैं।

“हमें इतनी कमज़ोरी क्यों आई हुई है। हमारे पेट क्यों खाली हैं?" जगमोहन बोला।

"हमारे पास हमारी किसी बात का जवाब नहीं है।"

“कितनी हैरान करने वाली बात है। कुछ भी समझ में नहीं आ रहा कि हमारे साथ क्या हुआ...। इस वक्त हमें नींद की जरूरत क्यों महसूस हो रही है। खुदे से हमारा सम्बन्ध कैसे बन गया... कैसे...?"

"हमारी बातों के जवाब खुदे दे सकता...।"

“वो बिल्ले के घर गया है। हमें भी वहां आने को कह गया है और हमें नहीं पता बिल्ला कहां रहता है और कौन है।"

“सबसे पहले हमें बंगले पर पहुंचकर आराम करना चाहिये। सोचेंगे, शायद कुछ बातें समझ सकें ।”

“खुदे कहता है कि जब हम डकैती करें तो वादे के मुताबिक उसे साथ ले लें। ऐसा क्यों?"

“इस बात से तो ऐसा ही लगता है जैसे हमने उससे ऐसा कोई वादा किया होगा।”

"ऐसा वादा हम क्यों करने लगे?"

"कुछ तो कहा ही होगा, तभी उसने ऐसा कहा। हमें खुदे को ढूंढना चाहिये। वो हमें सब कुछ बता सकता है। उसे जाने नहीं देना चाहिये था। ये भूल हो गई हमसे।" देवराज चौहान ने कहा।

"वो तो एकदम भाग गया, कह रहा था देवेन साठी के आदमी को, इस इलाके में देखा...।" कहते-कहते जगमोहन ठिठक-सा गया। उसे अपने पीछे किसी के आ पहुंचने की मौजूदगी का एहसास हुआ। वो तुरन्त घूमा।

अगले ही पल चिहुंक पड़ा।

पीछे मोना चौधरी खड़ी थी और रिवाल्वर उसने देखते-ही-देखते निकाला था। उसके चेहरे पर खतरनाक भावों को देखकर जगमोहन हक्का-बक्का रह गया था। वो समझ गया कि मोना चौधरी उन्हें शूट करने वाली है।

उसी पल जगमोहन ने हड़बड़ाकर ब्रीफकेस वाला हाथ घुमा दिया।

ब्रीफकेस सीधा मोना चौधरी के माथे पर जा लगा। उसे सम्भलने का मौका नहीं मिल सका था। जगमोहन ने उसे कूल्हों के बल पीछे गिरते और रिवाल्वर हाथ से निकालते देखा ।

"भागो...।" जगमोहन चिल्लाया।

देवराज चौहान ने तभी ही पलटकर ये सब देखा था ।

दोनों भागे। पूरी ताकत के साथ दौड़ पड़े थे। आस-पास से निकलते लोग माजरा समझने की चेष्टा करने लगे। वो बिना पीछे देखे भागे जा रहे थे। बाजार छोड़कर, वे सड़क पर पहुंचे, वहां मोटर साइकिल को स्टार्ट किए एक युवक बैठा था और युवती पास खड़ी बातें कर रही थी।

“मोटर साइकिल हमें दो ।" देवराज चौहान भागकर उसके पास पहुंचा था।

“ये मेरी है, मैं...।” युवक ने कहना चाहा।

देवराज चौहान ने उसे मोटर साइकिल से नीचे धकेला और खुद उस पर बैठ गया। तब तक जगमोहन पीछे बैठ चुका था। मोटर साइकिल दौड़ा दी देवराज चौहान ने। पीछे से मोटर साइकिल वाला युवक चीख रहा था। वो तब तक मोटर साइकिल दौड़ाते रहे, जब तक उसमें पैट्रोल खत्म नहीं हो गया।

जब मोटर साइकिल रुक गई तो उसे सड़क किनारे खड़े करके वे आगे बढ़ गये।

"अब हमारे पीछे कोई नहीं है।" ब्रीफकेस थामे साथ चलता जगमोहन सूख रहे होंठों पर जीभ फेरता बोला--- "ये क्या हो रहा है हमारे साथ? अगर मैंने वक्त पर मोना चौधरी को देख ना लिया होता तो उसने हमें गोली मार देनी थी। जाने कैसे उस वक्त मुझे लगा कि हमारे पीछे कोई है। वो बहुत गुस्से में थी। भगवान खुदे का भला करे जो ये ब्रीफकेस दे गया। इसे घुमाते ही, मोना चौधरी के माथे पर जा लगा और हमें भागने का मौका मिल...।”

“अब यकीन आया कि खुदे जो कह रहा था, वो सही था ।" देवराज चौहान बोला।

जगमोहन ने गहरी सांस ली।

"खुदे हमारे लिए जरूरी हो गया है। उसे ढूंढना होगा।" देवराज चौहान ने कहा।

"बिल्ले का घर है कहां?"

"कुछ नहीं पता। परन्तु मोना चौधरी हमें अवश्य बता सकती है कि क्या हुआ था?"

“मोना चौधरी ? वो तो हमारी जान के पीछे...मेरे पास महाजन का नम्बर है। उससे बात करके देखता हूं।” कहते हुए जगमोहन ने जेब से फोन निकाला और फोन डायरी से महाजन का नम्बर मिलाकर, फोन कान से लगा लिया--- “आखिर हमने ऐसा क्या कर दिया जो मोना चौधरी हमें मारना चाहती...।”

"खुदे ने कहा था कि हम उसे मारने के लिए, मोना चौधरी को तलाश कर रहे हैं। मतलब कि झगड़ा खड़ा हो चुका था।" देवराज चौहान का स्वर गम्भीर था--- "हम उसे मारना चाहते थे, वो हमें मारना चाहती है, परन्तु ऐसा क्यों है, हमें नहीं पता। कुछ भी याद नहीं आ रहा। कितनी अजीब बात है कि हमारे दिमाग खाली...।”

तभी जगमोहन के कानों में महाजन की आवाज पड़ी।

"हैलो...।"

“महाजन ! मैं जगमोहन बोल रहा... ।"

“साले कुत्ते ।" एकाएक महाजन की गुर्राहट कानों में पड़ी--- "बच गये तुम दोनों। मैं एक मिनट बाद पहुंचा वहां। लेकिन कब तक तुम दोनों बचोगे। बहुत बुरी मौत मरोगे। हम तुम दोनों को छोड़ने वाले नहीं... ।"

"ऐसा क्यों... हमने क्या किया है जो...।"

"एक बार सामने आ जाओ, फिर बताऊंगा कि...।"

जगमोहन ने फोन बन्द करते, देवराज चौहान से कहा---

"मामला बहुत ज्यादा गड़बड़ लगता है। महाजन गालियां दे रहा है और हमें मारने को कह रहा है।"

देवराज चौहान के होंठ भिंच गये।

"हमें खुदे को ढूंढना चाहिये। पता करना चाहिये कि बिल्ले का घर कहां है।" जगमोहन पुनः गम्भीर स्वर में बोला--- "खुदे ही हमें बता सकता है कि क्या हुआ है। ये हालात क्यों बन गये हैं।"

"मेरे ख्याल में सबसे पहले हमें कोई जगह तलाश करनी चाहिये। हमारा इस तरह से खुले में रहना खतरे से खाली नहीं। मोना चौधरी तो हमारे पीछे है, हमें पता चल गया परन्तु खुदे का कहना था कि पूरबनाथ साठी का भाई देवेन साठी भी हमें ढूंढ रहा है। उन लोगों को तो हम पहचानते भी नहीं। उनसे खतरा ज्यादा है।"

"पर हमने पूरबनाथ साठी को किन हालातों में मारा। उससे हमारा कोई झगड़ा नहीं था।"

"ये बातें हमें पता करनी होंगी, लेकिन पहले रहने की जगह ढूंढते हैं।" देवराज चौहान ने गम्भीर स्वर में कहा ।

■■■

देवराज चौहान और जगमोहन एक सस्ते दर्जे के होटल में जा ठहरे, जो कि गली में था और मात्र दो सौ गज में बना हुआ था। छोटे-छोटे कमरे थे। परन्तु उन्हें पहली मंजिल पर डबल बैड वाला कमरा मिल गया। सस्ते और घटिया होटल में ठहरने के पीछे ये मतलब था कि उन्हें ढूंढने वाले अगर होटलों को छानें तो ऐसी जगह वो ना पहुंच सकें।

"हम बंगले पर भी तो... ।”

“नहीं।” देवराज चौहान ने गम्भीर स्वर में कहा--- “बंगले पर जाना ठीक नहीं होगा। हम नहीं जानते कि हम कैसे हालातों गुजर रहे हैं। हमारे साथ क्या हुआ पड़ा है। ऐसे में कोई हमारे गले पर नजर रखता भी हो सकता है।"

“मैं कुछ याद करने की कोशिश करता हूं।" जगमोहन ने कहा और बैड पर लेट गया।

देवराज चौहान ने सिगरेट सुलगाई और कुर्सी पर बैठ गया। चेहरे पर गम्भीरता दिख रही थी। वो जानना चाहता था कि ये सब क्या हो रहा है। तभी दरवाजा खटखटाया गया।

देवराज चौहान ने दरवाजा खोला तो होटल के छोकरे को खड़ा पाया।

"साथ कुछ चाहिये?"

"कॉफी मिलेगी ?"

"बरोबर मिलेगी साब, कितनी लाऊं?"

"दो ले आओ।"

छोकरा चला गया। देवराज चौहान ने दरवाजा खुला ही रहने दिया और कुर्सी पर आ बैठा। जगमोहन पर नजर मारी, जो कि आंखें बन्द किए बैड पर लेटा था। देवराज चौहान कश लेता रहा। वो सोचने की कोशिश कर रहा था, परन्तु कुछ भी ठीक से सोच नहीं पाया। कोशिश करने पर भी ये नहीं जान पाया कि पार्क में होश में आने से पहले क्या हुआ था।

दस मिनट में ही छोकरा प्लेट में कॉफी के कप रखे आ गया। उसने टेबल पर प्याले रखे।

"खाने को क्या है?" देवराज चौहान ने पूछा।

"खाना मिलेगा साहब! बाजू के ढाबे से इधर खाना आता है।" छोकरा बोला।

"सैंडविच मिलेंगे?"

"मिलेंगे साब! बाजू में दुकान है। उधर सैंडविच मिलता है।"

देवराज चौहान ने उसे सौ का नोट देते हुए कहा---

"चार सैंडविच ले आओ।"

छोकरा नोट लेकर चला गया।

"कॉफी ले लो।" देवराज चौहान ने जगमोहन से कहा और अपना प्याला उठा लिया।

परन्तु जगमोहन हिला भी नहीं। देवराज चौहान ने कॉफी का घूंट भरा और उठकर जगमोहन के पास पहुंचा। उसे हिलाकर देखा तो गहरी नींद में पाया उसे। वो वापस कुर्सी पर बैठ गया।

छोकरा लिफाफे में सैंडविच दे गया। बाकी के पैसे भी ।

देवराज चौहान तब सैंडविच खा रहा था कि उसका मोबाइल बजने लगा।

"हैलो।" देवराज चौहान ने जल्दी से बात की।

"तुम अभी तक पहुंचे नहीं।” हरीश खुदे की आवाज कानों में पड़ी।

"तुम?" देवराज चौहान के होंठों से निकला--- “मैं तुमसे बात करना चाहता था। तुम रुके क्यों नहीं वहां...। मैं...!”

“बताया तो था, उधर देवेन साठी का आदमी था। साठी के आदमियों को मैं पहचानता हूं। कभी मैं भी उसके लिए काम करता था। उसने मुझे देख भी लिया था। वहां रुकता तो मुसीबत खड़ी हो...।"

"तब वहां मोना चौधरी भी थी।” देवराज चौहान ने गम्भीर स्वर में कहा।

“मोना चौधरी मिली तुम्हें?” उधर से खुदे चौंका--- “मार दिया उसे?"

"नहीं। बहुत मुश्किल से जान बचाकर भागना पड़ा हमें, हम...।"

"क्या ?" खुदे का हैरानी भरा स्वर कानों में पड़ा--- “तुमने भागकर जान बचाई। गंगा उल्टी कैसे चल पड़ी। पहले तो मोना चौधरी जान बचाती भाग रही थी। तुम तो भागने वालों में से नहीं हो, फिर उसे मारा क्यों नहीं?"

देवराज चौहान के होंठ सिकुड़ चुके थे।

“अब मैं तुमसे जो पूछ रहा हूँ वो बताना। ये सारा मामला क्या है। बताओ।"

“सारा मामला? तुम्हारा ही तो मामला है, और तुम मेरे से पूछ...।"

“तुम मुझे सब कुछ बताओ।"

“आज सुबह से ही तुम अजीब-सी बातें कर रहे हो। क्या हो गया है तुम्हें। कल शाम को जब गये तो ठीक थे और...।"

"कहाँ से गया?"

"बिल्ले के घर से....।"

"बिल्ले का घर कहां पर है। मुझे बताओ, मैं वहीं आता...।"

तभी उधर से किसी को कुछ कहते सुना ।

"ये कौन है? पास में...?” देवराज चौहान ने पूछा।

“बिल्ला है, साला परेशान कर रहा है। कहता है टुन्नी को यहीं ले आऊं, वो अकेली है। ये कमीना तो...।"

"टुन्नी कौन?"

"तुम्हें टुन्नी का भी ध्यान नहीं। पागल तो नहीं हो गये तुम।"

"टुन्नी कौन है?"

"मेरी पत्नी...।"

"ठीक है, तुम बिल्ले के घर का पता...।"

उसी पल उधर से फिर कुछ कहने, बात करने का स्वर आया।

"मैं तुम्हें बाद में फोन करता हूं पहले इस हरामी से निपट लूं।" कहने के साथ ही उधर से खुदे ने फोन बन्द कर दिया था।

देवराज चौहान ने उसी पल फोन से वापस फोन किया।

कई बार बेल बजने के बाद फोन पर खुदे की आवाज आई।

“मैं हूँ। तुम मेरी बात सुनों। मुझे तुमसे बहुत बातें करनी...।"

"हैलो।"

“मैं तुम्हें कुछ देर बाद फोन करता हूं पहले इस हरामी बिल्ले से तो निपट लूं। टुन्नी मेरी पत्नी है और तकलीफ इसे हो रही है कि घर पर वो अकेली रह रही है कहता है उसे भी यहीं ले आऊं। इसकी तो...।"

“खुदे मेरी बात सुनो। मेरी बात ज्यादा जरूरी...।"

"इस कमीने को सम्भालना ज्यादा जरूरी है। साला मेरी पत्नी पर नज़र रखता है।” फोन बन्द हो गया।

देवराज चौहान के चेहरे पर गम्भीरता उभरी हुई थी। उसने मोबाइल टेबल पर रखा और नई सिगरेट सुलगा ली। चेहरे पर सोच के भाव नाच रहे थे। जो हालात उसे महसूस हो रहे थे, उनके बारे में वो जवाब पा लेना चाहता था कि वो क्यों कर बने? इन बातों का जवाब खुदे ही दे सकता था। उसने जगमोहन पर निगाह मारी, जो कि गहरी नींद में था। उसे भी नींद आ रही थी। आंखें भारी थीं, परन्तु खुदे का फोन आने के इन्तज़ार में बैठा रहा। सिगरेट खत्म हो गई, परन्तु खुदे का फोन नहीं आया। आधा घण्टा बीतने पर देवराज चौहान ने खुदे को फोन किया।

“हैलो ।” खुदे की आवाज कानों में पड़ी।

“तुमने फोन नहीं किया। मैं इन्तजार कर रहा... !"

“यार देवराज चौहान!" खुदे ने उधर से कहा--- “तुम्हारी बातों का मैं क्या जवाब दूं। तुम पूरबनाथ साठी को मारना चाहते थे तो उसे मार दिया। मेरे सामने मारा। उसके बाद तुम मोना चौधरी के पीछे पड़ गये। वो एक बार तुम्हारे हाथ लगी, परन्तु बचकर निकल गई। तब मेरे पास से ही भागी थी कार में। मैं अपार्टमेंट के गेट के पास खड़ा था। उसके बाद तुम और जगमोहन, मोना चौधरी को ढूंढने, मारने के वास्ते भागते रहे, साथ में मुझे भी दौड़ाये...।"

"ऐसे नहीं, ये सब बातें सिलसिलेवार बताओ। मामला कब शुरू हुआ। क्यों हुआ...।”

"इन बातों का मुझे क्या पता...।"

"क्यों नहीं पता।"

"उस दिन सुबह तुम मेरे घर पर पहुंचे और टुन्नी के सामने ही मुझे ठोक-पीटकर वहां से ले गये कि चल, पूरबनाथ साठी के बारे में बता कि वो कहां मिलेगा। तब से तुम्हारे ही साथ हूं।” उधर से खुदे की आवाज आई।

"लेकिन मैंने साठी को क्यों मारा, क्यों मोना चौधरी के पीछे...।"

“ये अब मुझे क्या पता...।"

“कुछ तो पता होगा। मैंने तुम्हें कुछ बताया होगा।”

“तुमने कुछ नहीं बताया। पूछने पर ये ही कहते कि साठी और मोना चौधरी को मारना है। क्यों मारना है, ये भूल गया हूं।”

"ये कैसे हो सकता है।” देवराज चौहान के माथे पर बल पड़े--- "ये बात मैं कैसे कह सकता...।”

“तुमने कही, तुम जानो। पर बात क्या है जो तुम अपने बारे में ही पूछताछ करते फिर रहे हो।"

“मुझे बिल्ले के घर का पता बता। मैं वहीं आता हूं।” देवराज चौहान ने गम्भीर स्वर में कहा।

उधर से हरीश खुदे ने बिल्ले के घर का पता बताया ।

"मैं जल्दी इस पते पर पहुंच जाऊंगा। जगमोहन नींद में है, उसके उठते ही, हम चल देंगे।" कहकर देवराज चौहान ने फोन बन्द किया और कुछ पल कुर्सी पर बैठा रहा, फिर उठा और बैड पर जा लेटा। कुछ ही पलों में वो भी नींद में जा डूबा ।

■■■

सोहनलाल की हालत बुरी हो रही थी। उसके हाथ-पांव बंधे थे और शरीर पर ढेरों जख्म नज़र आ रहे थे। चेहरे पर भी मार-पिटाई के निशान मौजूद थे। उसके होंठों से रह-रहकर पीड़ा भरी कराहें निकल रही थीं। हाथ-पांव बंधे होने की वजह से उसे ज्यादा तकलीफ हो रही थी। कोशिश करने पर भी बंधनों को ढीला ना कर पाया था।

तभी राधा प्लेट में आलू का परांठा और उसके ऊपर मक्खन रखे पहुंची और सोहनलाल के पास पड़ी कुर्सी पर बैठ गई। सोहनलाल को देखा। सोहनलाल ने भी उसे देखा।

"क्या हाल है सोहनलाल भैया!" राधा आलू का परांठा खाते कह उठी।

सोहनलाल ने कुछ नहीं कहा।

"मैं जानती हूं जब हाथ-पांव बंधे हों तो कितनी तकलीफ में रहना पड़ता है। देवराज चौहान और जगमोहन ने मुझे और नीलू को भी इसी तरह बांधा था। बहुत तकलीफ हुई थी मुझे। हाय...।" राधा ने गहरी सांस ली--- “मैं जानती हूं कि तेरा कोई कसूर नहीं, तू यूं ही रगड़े में आ गया। इसी तरह मैं और नीलू भी खामखाह इस रगड़े में आ फंसे थे या यूं कह लो कि देवराज चौहान ने ही हमें इस मामले में खींच लिया।" राधा गर्मा-गर्म आलू का परांठा भी खाते जा रही थी--- "कितना बुरा दिन था वो मेरे और नीलू के लिए। देवराज चौहान और जगमोहन ने हमें मार ही देना था, वो तो हमारी किस्मत अच्छी थी कि बच निकले। सच में वो दोनों तो पागल हुए पड़े थे। लाल आंखें, गुस्से से भरा चेहरा, मैं तो अब भी डर जाती हूं वो वक्त याद करके ।"

सोहनलाल ने कुछ नहीं कहा।

"सुन रहे हो ना सोहनलाल भैया?" राधा ने फिर कहा।

“साफ सुनाई दे रहा है राधा बहन ! कहती रहो।" सोहनलाल कह उठा।

"तुम्हारी पत्नी नानिया भी पूर्वजन्म से है और मुझे भी नीलू वहीं से लाया था। पर पूर्वजन्म में मेरी मुलाकात कभी नानिया से नहीं हुई थी। वो वहां की जमीन के दूसरे हिस्से में, कहीं दूर रहती थी।" राधा बोली।

सोहनलाल चुप रहा।

“मुझे तो तुम पर बहुत तरस आ रहा है। आधी रात से बंधे हुए हो। सेवा-सत्कार हुआ, वो अलग से। मैं तो चाहती हूं कि तुम भी मेरी तरह आलू के गर्म परांठे खाओ, मेरी तरह। कहो तो बना देती हूं।” राधा खाते-खाते कह उठी--- "बस तुम्हें इतना बताना है कि देवराज चौहान का ठिकाना कहां है। तुम क्यों उसके लिए तकलीफ उठा रहे हो। अब मैंने उसे करीब से देखा था वो और जगहमोहन बहुत घटिया इन्सान हैं। जगमोहन ने तो मुझ पर हाथ उठा दिया। मुझे बेहोश कर दिया। चोर भी हैं दोनों। हमारा नोटों से भरा ब्रीफकेस ले गये। पूरा अड़तीस लाख रुपया गिनकर रखा था मैंने उसमें। वो जो साथ में था, क्या नाम था उसका, हां खुदे। वो तो उनसे भी घटिया इन्सान था। वैसे तो मुझे बहन कह रहा था, पर मेरे को कस के बांधा था उसने और...।"

"राधा बहन...!" सोहनलाल कह उठा।

“बोलो भैया! तुम्हारी तकलीफ मुझसे देखी नहीं जाती।” राधा ने गहरी सांस ली।

"ऐसा है तो तुम खोल क्यों नहीं देती ?"

“ये काम तो मैं तब तक ना करूं, जब तक तुम देवराज चौहान का ठिकाना नहीं बता देते।"

“फिर तो तुम मुझे खोलने वाली नहीं।”

“कभी नहीं।"

"खुदे कौन है?"

“मुझे क्या पता होगा कोई आवारागर्द, जो देवराज चौहान जैसे घटिया आदमी के साथ था। तुम्हें देवराज चौहान के ठिकाने के बारे में बता देना चाहिये। नानिया की सोचो। तुम्हारी पत्नी तुम्हें इस तरह गायब पाकर वो परेशान हो रही होगी।"

"वो चिन्ता नहीं करती।"

"क्यों?"

"उसे पता है मैं इसी तरह गायब होता हूं और वापस आ जाता हूं। पर इस बार गायब होने में खास बात है।"

“क्या?"

“आधी रात को मुझे पारसनाथ और महाजन लेकर आये थे। मोना चौधरी बाहर कार में बैठी थी। ये बात मैं नानिया को बता आया था। मतलब कि नानिया जानती है कि मैं किसके साथ गया। ये बात जल्दी ही देवराज चौहान जान जायेगा।”

"देवराज चौहान को तो अब तुम भूल जाओ भैया !” राधा हाथ हिलाकर बोली--- "नीलू, मोना चौधरी और पारसनाथ उसकी तलाश में पूरी मुम्बई छान रहे हैं। वो तो कभी भी मर जायेगा ।"

सोहनलाल के जख्मी चेहरे पर मुस्कान उभरी।

"राधा बहन, वो नहीं मरने वाला। तुम महाजन को अपनी गोद में छिपा लो, कहीं उसे कुछ ना हो जाये।"

"मेरा नीलू बहादुर है।"

"तुम सबकी बहादुरी तो मैं देख ही रहा हूं। धोखे से मुझे साथ ले आये। यहां बांधकर, मार-पीट करते हुए मुझसे देवराज चौहान का ठिकाना पूछने लगे। ये बहादुरी है तो...।"

"देवराज चौहान ने भी तो मेरे और नीलू पर ऐसी ही बहादुरी दिखाई थी। जगमोहन ने मुझ पर हाथ उठाया। मुझे और नीलू को इसी तरह बांध दिया। अब हम ऐसा कर रहे हैं तो तुम ताना मार रहे हो।"

सोहनलाल ने गहरी सांस ली।

"बता दे सोहनलाल कि देवराज चौहान कहां मिलेगा। फिर तेरे को चार-चार आलू के परांठे...।"

“तुम देखना देवराज चौहान जल्दी ही यहां पहुंच...।"

"वो यहां कभी नहीं पहुंच सकता। इस फ्लैट के बारे में कोई भी नहीं जानता। पारसनाथ ने ये फ्लैट यूं ही ले रखा है। तुम तो देवराज चौहान का इन्तजार करते-करते, सूखकर मर जाओगे। तब तक देवराज चौहान भगवान के पास हाजिरी लगा रहा होगा।" राधा ने परांठा खाकर, चिढ़ाने के वास्ते खाली प्लेट सोहनलाल को दिखाई और उठकर किचन की तरफ बढ़ गई।

■■■

बांकेलाल राठौर ने कार को सड़क के किनारे रोका और पास बैठे रुस्तम राव से कहा।

"छोरे ! कल मनने देवराज चौहानो के बंगलों में देख लयो हो, उधर कोइयो ना हौवे...।"

“आपुन भी उधर देखेला बाप!" रुस्तम राव बोला--- “उधर ही चलो।"

“थारो मर्जी ।" बांके ने कहा और कार आगे बढ़ा दी--- “घणो ही लफड़ो हौवे । मनने देवराज चौहानो को फोन कियो तो म्हारे से वो ठीको बातो ना करो हो। बोत गुस्सो में लागो हो। नानिया ने महारे को फोन मारो हो कि सोहनलालो को महाजनो, मोना चौधरी और पारसनाथो ले गये यो बोल के कि देवराज चौहानो की जानो को खतरो हौवे। महाजनो के घरो में गयो तो उसके घरो का दरवाजा टूटो पड़ो हो। घरो में कोइयो ना हौवे। पारसनाथ भी अपने रैस्टोरेंट में ना मिलो हो। उधरो डिसूजो मिल्लो, पर वो भी ठीको से बातो ना करो हो। मोन्नो चौधरो को ठिकानो अंम ना जानो हो।"

"आपुन लफड़े का पता करेला बाप!"

“डिसूजो म्हारे को बोल्लो कि मोन्नो चौधरो देवराज चौहानो को जिन्दो ना छोड़े क्योंकि देवराज चौहानो, मोन्नो चौधरी के मारणो चाहो। घणो ही लफड़ो हो गयो, म्हारे को पक्को लागे हो।"

"क्या पता बाप, देवराज चौहान बंगले पर ही मिलेला।"

"म्हारे को तो कल ना मिल्लो हो।"

आधे घण्टे बाद उनकी कार देवराज चौहान, जगमोहन के बंगले तक पहुंच गई।

“अंम इधरो ही बैठो हो। तंम भीतरो नजर मार आयो...।"

रुस्तम राव कार से उतरा और बंगले के गेट को खोलकर भीतर प्रवेश कर गया।

चार-पांच मिनट बाद वापस लौट आया।

"भीतर कोई नेई होइला बाप...!”

"वो तो अंम पैले ही बोल्लो हो ।”

रुस्तम राव कार में बैठा तो बांकेलाल राठौर सोच भरे स्वर में कह उठा---

“छोरे...! म्हारे मणो में एको बात आवे हो।"

“बोल बाप... ।”

"देवराज चौहानो, जगमोहनो, नगीना बहणो के यहां तो ना पौंचो हो।"

रुस्तम राव ने बांके को देखा। कुछ चुप रहकर कह उठा---

"ऐसा चान्स भी होइला बाप! नगीना दीदी के यहां होने की सम्भावना होइला बाप!”

"उधरो चल्लो का?"

“चल।" रुस्तम राव ने सिर हिलाया--- “नगीना दीदी के यहां भी नज़र मारेला बाप!”

■■■

नगीना उन्हें आया पाकर हैरान हुई, खुश भी हुई।

"बांके भैया, रुस्तम, आओ-आओ।” नगीना दरवाज़े के पीछे हटती कह उठी।

दोनों भीतर पहुंचे। बंगले में नज़र मारी।

“क्या देख रहे हो। तुम दोनों पहली बार तो यहां नहीं आये।" नगीना मुस्करा पड़ी।

"देवराज चौहानो कहां हौवे बहणो, इधरो हौवे ?" बांकेलाल राठौर की निगाह नगीना पर जा टिकी।

नगीना चौंकी।

"वो तो दूसरे बंगले पर होंगे।” नगीना के होंठों से निकला--- "या किसी काम पर कहीं गये होंगे।"

"बोत गड़बड़ो हो गये बहणो---।”

“क्या?" नगीना के माथे पर बल पड़े।

बांकेलाल राठौर ने नगीना को बताया कि कैसे उसे नानिया का फोन आया कि सोहनलाल को, महाजन मोना चौधरी और पारसनाथ ये कहकर ले गये कि देवराज चौहान की जान खतरे में है। उसके बाद से सोहनलाल का कुछ पता नहीं लगा। महाजन के घर का दरवाजा टूट पड़ा है, वहां भी कोई नहीं। पारसनाथ भी रेस्टोरेंट में नहीं मिला और डिसूजा ने उसे कहा कि देवराज चौहान अब मोना चौधरी के हाथों नहीं बचने वाला। पता लगा कि देवराज चौहान भी मोना चौधरी को मारने की फिराक में है। बंगले पर ताला लगा हुआ है, वहां कोई नहीं है। उसने फोन पर देवराज चौहान से बात की, तो देवराज चौहान ने बहुत गुस्से में बात की और फोन बन्द कर दिया। उन्हें चिन्ता हो रही है इन हालातों से ।

सब कुछ सुनकर नगीना गम्भीर हो गई।

“ये कब की बात है भैया?” नगीना ने पूछा।

“कलो की बातो हौवे बहणा।"

“तुम्हारी बातों ने तो मुझे चिन्ता में डाल दिया है। मिन्नो (मोना चौधरी) से क्या झगड़ा हो गया देवराज चौहान का ।”

"आपुन सोचेला कि देवराज चौहान इधर होइला।"

“वो इधर नहीं आये। पांच-छः दिन से तो उनका फोन भी नहीं आया।”

“तुम फोन करके देखेला दीदी ।"

नगीना ने सोच भरी निगाहों से दोनों को देखा, फिर अपने मोबाइल से देवराज चौहान को फोन किया।

उधर बेल गई और जाती रही (ये वो ही वक्त था जब देवराज चौहान और जगमोहन होटल के कमरे में बेसुध होकर गहरी नींद में डूबे थे) कॉल रिसीव नहीं हुई और फोन बन्द हो गया।

“बेल जा रही है, परन्तु जवाब नहीं मिल रहा।” नगीना व्याकुल स्वर में कह उठी--- "ऐसा पहले कभी नहीं हुआ।"

"बहणा म्हारे को तो तगड़ो रगड़ो लागे हो।"

“मोना चौधरी से पंगा होना मामूली बात नेई होइला दीदी!" रुस्तम राव बोला ।

"हमें देवराज चौहान और जगमोहन को ढूंढना होगा।” नगीना कह उठी--- "मुझे तो हैरानी हो रही है कि मिन्नो (मोना चौधरी) के साथ इनका झगड़ा क्यों हो गया। वो तो मिन्नो (मोना चौधरी का पूर्वजन्म का नाम) से दूर ही रहते हैं कि झगड़ा ना हो। बांके-रुस्तम तुम दोनों मिन्नो को ढूंढो मैं देवराज चौहान और जगमोहन को ढूंढती हूं...।"

"ठीको बहणो...।”

"मिन्नो का पता लगते ही मुझे फौरन खबर करना। मैं उससे बात करूंगी। तुम लोग उसे कुछ नहीं कहोगे ।"

दोनों ने सिर हिला दिया।

"सोहनलाल भाई साहब के बारे में कोई खबर नहीं मिली?”

"नहीं। वो तभी से गायब होइला, जब से महाजन-पारसनाथ उसे घर से साथ ले जाइला।"

"मोना चौधरी को ढूंढो और मुझे खबर करो। पता नहीं क्या हो रहा है। जल्दी इस काम को करो।”

■■■

जिस होटल में देवराज चौहान और जगमोहन ठहरे थे उसी होटल के टेबलनुमा रिसैप्शन पर बीस बरस का लड़का पायजामा पहने बैठा बीड़ी पी रहा था। टेबल पर मोटा-सा, मैला हो रहा रजिस्टर पड़ा था। साफ-सफाई का वहां पर कोई भी इन्तजाम नहीं लग रहा था। कागज इधर-उधर बिखरे नज़र आ रहे थे।

तभी चालीस बरस के, सांवले से रंग के व्यक्ति ने भीतर प्रवेश किया। वो चेहरे से कोई शरीफ नहीं लगा। टेबल के करीब आकर, जेब से देवराज चौहान की तस्वीर निकालता, उसके सामने करता बोला---

"ये आदमी यहां ठहरा है?"

पुरानी-सी कुर्सी पर धंसे उस पायजामा पहने युवक ने तस्वीर देखी तो चौंका। सम्भलकर बैठ गया और उस आदमी को देखने लगा। तस्वीर पर भी उसकी निगाह जा रही थी ।

"इस होटल में ठहरा है ये या यहां आया था ?” उसने तस्वीर को जेब में रखते पूछा।

"लफड़ा क्या है उस्ताद ?” वो लड़का बोला।

"इसके बारे में बतायेगा तो पांच हजार मिलेगा।" उस आदमी को लगा कि ये कुछ जानता है, देवराज चौहान के बारे में।

"पांच हजार।" वो अचानक ही चुस्त दिखने लगा-- "पांच हजार दो।"

"ये आदमी...।"

“इसी होटल में ठहरा है। साथ में एक और भी है। पांच हजार दो।"

उस आदमी की आंखों में चमक आ गई।

"पक्का ये यही है?” उसने पूछा।

"पक्का। तीन घण्टे पहले दोनों आये थे। पांच हजार दो।"

"अगर तेरी खबर सही है तो तुझे पांच हजार मिल जायेंगे। अब दोनों भीतर हैं?"

“भीतर हैं। छोकरे से कॉफी मंगवाई, सैंडविच मंगवाये। मैंने तुम्हें बता दिया तुम पांच हजार दो।"

“भाई को बुलाता हूं।” वो फोन निकालता बोला--- “वो ही आकर पांच हजार देगा।" नम्बर मिलाने लगा वो ।

“भाई कौन?"

“देवेन साठी...।"

“वो पूरबनाथ साठी का भाई? मैंने कल अखबार में पढ़ा था, पूरबनाथ को किसी ने मार दिया।"

उस आदमी का फोन लग गया। बात हो गई।

"हैलो ।" उधर से आती देवेन साठी की आवाज को उसने पहचाना।

"साठी साहब!" वो उत्साह भरे स्वर में बोला--- “देवराज चौहान और जगमोहन का पता चल गया है वो...।"

पाटिल और कर्मा खत्री ने तेजी से कमरे में प्रवेश किया और ठिठक गये।

सामने देवेन साठी होंठ भींचे कुर्सी पर बैठा था।

“क्या बात है देवेन साहब, आपने हम दोनों को फौरन आने को...।"

"देवराज चौहान और जगमोहन का पता चल गया है।" देवेन साठी ने दांत भींचकर कहा--- "वो एक घटिया से होटल में ठहरे हुए हैं। हमारा आदमी वहां हमारे आदेश का इन्तज़ार कर रहा है।"

"अब देवराज चौहान नहीं बचेगा।" पाटिल गुर्रा उठा ।

"मेरे साथ जाने की जरूरत है?" देवेन साठी ने दोनों को देखा।

"हम सब कुछ सम्भाल लेंगे देवेन साहब!" कर्मा खत्री खतरनाक स्वर में बोला ।

“उन दोनों को बचना नहीं चाहिये...।" दोनों को कठोर नज़रों से देखता देवेन साठी भिंचे स्वर में कह उठा--- “देवराज चौहान और जगमोहन ने मेरे भाई की हत्या की है। उनकी जान लेकर, मैंने भाई की आत्मा को शान्ति पहुंचानी है। सब काम ठीक से करना। अब तुमसे ये ही सुनने को मिले कि देवराज चौहान और जगमोहन मर गये।"

"हमसे आपको ये ही सुनने को मिलेगा।” पाटिल ने कठोरता से कहा।

“हरीश खुदे भी उनके साथ है?"

“मुझे ये ही खबर मिली है कि देवराज चौहान के साथ कोई एक आदमी है होटल के कमरे में। वो जगमोहन ही हो सकता है और खुदे भी हो सकता है। जगमोहन के होने की सम्भावना ज्यादा है। जो भी हो, जिन्दा ना बचे ।"

"कौन से होटल में वो ठहरे... ।”

देवेन साठी ने बताया होटल के बारे में।

"आपने मोना चौधरी को बताया या बताने की जरूरत... ।"

“तुम लोग अपना काम करो। मोना चौधरी भी देवराज चौहान की मौत चाहती है। बाद में उसे मौत की खबर दे दी जायेगी।" देवेन साठी गुर्रा उठा-- "पांच हजार रुपया होटल के उस लड़के को दे देना, जिसने देवराज चौहान के वहां होने की खबर दी है ।"

■■■

शाम के साढ़े पांच बज रहे थे।

देवराज चौहान और जगमोहन कमरे में बेड पर बेसुध से पड़े थे। हाल ये था कि जैसे उन्हें नींद आई, वैसे ही पड़े थे, करवट तक नहीं ली थी। जगमोहन का कॉफी का प्याला अभी तक टेबल पर पड़ा था।

तभी कमरे का दरवाजा बाहर से थपथपाया गया और छोकरे की आवाज आई।

“साब, दरवाज़ा खोलिये, बर्तन लेने हैं।"

दरवाजे के बाहर कर्मा खत्री, पाटिल और आठ लोग साथ थे। सबके हाथों में रिवाल्वरें थीं और चेहरों पर खतरनाक भाव उभरे हुए थे। घबराया-सा छोकरा उनके बीच खड़ा दरवाजा खटखटा रहा था।

परन्तु कई बार आवाज लगाने पर भी दरवाज़ा ना खुला।

“वो भीतर भी है?" कर्मा खत्री ने दबे स्वर में छोकरे से पूछा।

“पक्का है।" छोकरा घबराये स्वर में बोला ।

"तू खिसक ले यहां से।"

छोकरा फौरन रफूचक्कर हो गया।

कर्मा खत्री और पाटिल की नजरें मिलीं।

"मामूली दरवाज़ा है।" पाटिल धीमे स्वर में गुर्राया--- “तोड़ दे?"

"तोड़ दो।” कर्मा खत्री बोला--- “होटल को हमारे आदमियों ने घेरे में ले रखा है। वो बच नहीं सकेंगे।"

पाटिल ने अपने एक आदमी को इशारा किया कि दरवाजा तोड़ दे।

दो टक्कर में ही वो दरवाजा टूटकर झूल गया।

कर्मा खत्री ने दरवाजे पर दो ठोकरें मारीं तो वो नीचे जा गिरा ।

सब रिवाल्वरें थामें भीतर प्रवेश करते चले गये। परन्तु भीतर का नज़ारा देखकर ठिठके।

देवराज चौहान और जगमोहन बेड पर पस्त हाल में सोये पड़े थे।

कर्मा खत्री और पाटिल की नज़रें मिलीं।

"ऐसी भी क्या नींद कि दरवाजा तोड़े जाने की आवाज से भी नहीं उठे।” कर्मा खत्री रिवाल्वर थामे सावधानी से बोला ।

"नशा करके पड़े होंगे।" एक ने कहा।

पाटिल सावधानी से दोनों के पास पहुंचा। दोनों के चेहरों को देखा।

"देवराज चौहान ही है। दूसरा जगमोहन है। मैंने इन दोनों को साल पहले तब देखा था, जब इन्होंने साठी साहब का काम किया था। हरामजादों ने हमारे साठी साहब को मार दिया।” पाटिल ने दांत भींचकर कहा और रिवाल्वर देवराज चौहान की कमर से लगाकर गुर्राया--- "उठ साले, देख तेरी मौत आ गई है।"

परन्तु देवराज चौहान गहरी नींद में रहा।

पाटिल ने पुनः देवराज चौहान को हिलाया, पर कोई फायदा नहीं हुआ।

"क्या हो गया इन्हें। जाग क्यों नहीं रहे?" पाटिल कह उठा।

"इन्हें शूट करो और....।” कर्मा खत्री ने कहना चाहा कि पाटिल बोला।

"देवेन साहब को फोन लगा के बता कि यहां क्या हो रहा है।"

“क्या जरूरत है, हम इन्हें मारने निकले हैं, गोली मारो और...।"

"देवेन साहब को फोन लगा कर्मा...!"

कर्मा खत्री ने देवेन साठी को फोन लगा के बात की। यहां का हाल बताकर कहा।

“देवराज चौहान और जगमोहन हमारे निशाने पर हैं, परन्तु जाने क्यों बहुत गहरी नींद में हैं। गोली मार दें क्या ?"

“ऐसे मजा नहीं आयेगा कर्मा खत्री!" देवेन साठी का क्रूर स्वर कर्मा खत्री के कानों में पड़ा--- “इन्हें तो पता भी नहीं चलेगा कि वो क्यों मरे। उन्हें उठा, बता फिर सिर में गोली मारो... ।”

“समझ गया। कहें तो आपके पास ले आयें?" कर्मा खत्री बोला।

“ऐसा हो जाये तो इससे बढ़िया क्या बात होगी। कुत्तों को तड़पा-तड़पाकर मारूंगा। ले आओ।”

देवराज चौहान और जगमोहन पर नींद से भरी जाने कैसी बेहोशी छाई हुई थी कि उन्हें होश नहीं आ रहा था। इस वक्त वैन तेजी से सड़क पर दौड़ रही थी। वे दोनों वैन के फर्श पर पड़े झटके खा रहे थे। वैन में आगे दो ही आदमी थे। एक वैन चलाने वाला और दूसरा कर्मा खत्री। परन्तु वैन के पीछे आदमियों से भरी तीन कारें आ रही थीं। वो कुल सोलह हथियारबन्द आदमी थे। पाटिल दूसरी कार में अन्य लोगों के साथ था। होटल से चले उन्हें दस मिनट ही हुए थे।

वैन के फर्श पर पड़े हिलते-हिलते जगमोहन के होंठों से आह-सी निकली। हौले-हौले उसके हाथ-पांव हिले और फिर आंखें खोल दीं। खुद को तेजी से हिलता पा रहा था वो। तभी उसकी निगाह पास में पड़े देवराज चौहान पर पड़ी। देवराज चौहान की आंखें बन्द थीं, जैसे वो गहरी नींद में हो। परन्तु जगमोहन के चेहरे पर उलझन-सी आ ठहरी थी।

वो कहां है? शायद किसी गाड़ी में? यहां कैसे आया वो, वो तो होटल के एक कमरे में थे कि फिर वो नींद में डूब गया था।

तो वे वैन में कैसे पहुंच गये?

जगमोहन समझ नहीं पाया कि उनके साथ क्या हुआ होगा। एकाएक उसे मोना चौधरी का ध्यान आया कि मोना चौधरी उन्हें मारना चाहती है, तो क्या वो मोना चौधरी के हाथों में पड़ गये? या फिर देवेन साठी के हाथों में पड़ गये? खुदे ने उन्हें जो बताया था उसी के आधार पर जगमोहन की सोचें दौड़ने लगीं।

जगमोहन अभी तक वैसे ही वैन के फर्श पर पड़ा हिचकोले खा रहा था और सोच रहा था कि जो भी हो वो खतरे में है। कम-से-कम ये लोग दोस्त नहीं हो सकते। जगमोहन ने हाथ बढ़ाकर देवराज चौहान की बांह पकड़ी और उसे हिलाया परन्तु उस पर कोई असर नहीं हुआ। सोया रहा देवराज चौहान। क्या हो गया है इसे । उठ क्यों नहीं रहा?

जगमोहन की उलझन बढ़ने लगी।

जगमोहन ने थोड़ा-सा सिर उठाकर सामने की तरफ देखने की चेष्टा की।

आगे दो आदमी बैठे दिखे। एक वैन चला रहा था दूसरा उसकी बगल में बैठा था। इसी पल उसका हाथ अपनी जेब पर गया, जहां अभी भी रिवाल्वर मौजूद थी। जगमोहन की हिम्मत बढ़ी, रिवाल्वर को पास पाकर। लगता है इन लोगों ने उनकी तलाशी नहीं ली, जैसे थे वैसे ही उठा लाये। जगमोहन हैरान था कि उसकी नींद क्यों नहीं खुली ?

देवराज चौहान होश में नहीं था। ऐसे में कुछ करना खतरे से खाली नहीं था। इसी तरह की सोचों में उलझा था कि तभी आगे बैठे कर्मा खत्री ने गर्दन घुमाकर पीछे उन्हें देखा। दोनों की नज़रें मिलीं।

उसे होश में आया पाकर कर्मा खत्री चौंका कि तभी जगमोहन ने फुर्ती से रिवाल्वर निकाली और उसी तरह नीचे पड़े रिवाल्वर का रुख कर्मा खत्री के चेहरे की तरफ करके बोला---

"हिलना मत।"

"नहीं हिलता ।" कर्मा खत्री मुस्करा पड़ा।

जगमोहन के दांत भिंच गये। वो सावधानी से धीरे-धीरे उठने लगा। रिवाल्वर उसकी तरफ रही।

“क्या हुआ ?” वैन चलाने वाले ने पूछा।

“जगमोहन को होश आ गया है।” कर्मा खत्री ने मुस्कान के साथ कहा--- "उसने रिवाल्वर मुझ पर तान रखी है।"

“तलाशी नहीं ली थी?" वैन चलाने वाले ने पल भर के लिए पीछे देखा फिर सामने देखने लगा ।

"जल्दबाज़ी में रह गई होगी, पर कोई फर्क नहीं पड़ता।”

"तुम कर्मा खत्री हो। पूरबनाथ साठी के आदमी।" जगमोहन घुटनों के बल बैठ चुका था।

“पूरबनाथ साठी को तो तुमने मार दिया। अब मुझे देवेन साठी का आदमी कहो।" कर्मा खत्री का स्वर कठोर हो गया।

“हमें कहां से पकड़ा तुमने?" जगमोहन ने रिवाल्वर उसकी तरफ तान रखी थी।

“होटल के कमरे से। आज कोई नशा कर रखा था क्या? बहुत उठाया, पर उठे नहीं... ।”

"हमें कहां ले जा रहे हो... ।”

“देवेन साठी के पास। वो तुम्हें और देवराज चौहान को बुरी मौत मारेगा कि तुम दोनों ने उसके भाई को मारा...खुदे कहां है। वो तुम लोगों के साथ नहीं है। वो भी नहीं बचेगा। ये रिवाल्वर मेरी तरफ करके मुझे डराओ मत। अगर तुमने कुछ किया तो तुम्हें सोलह लोगों से निपटना पड़ेगा जो कि पीछे कारों में आ रहे हैं और सबके पास हथियार हैं। लाओ, रिवाल्वर मुझे...।"

“हिलो मत...।" जगमोहन गुर्रा उठा ।

आगे बढ़ता कर्मा खत्री का हाथ रुक गया।

जगमोहन के चेहरे पर कठोरता इकट्ठी हो चुकी थी।

"कोई चालाकी मत करना।"

"तुम जो करना चाहते हो, वो नहीं कर सकोगे।” कर्मा खत्री उसे घूरता कह उठा--- "हमें इस बात की मनाही नहीं है कि तुम्हें मारे नहीं। अगर तुमने तमाशा खड़ा किया तो अभी तुम्हें शूट कर देंगे। रिवाल्वर मुझे दो और चुपचाप....।"

जगमोहन रिवाल्वर थामे वैन में खड़ा हो गया। छत नीची होने की वजह से उसे थोड़ा झुककर खड़ा होना पड़ा। रिवाल्वर वाला हाथ आगे बढ़ाया और नाल कर्मा खत्री के माथे से लगा दी।

“पागल मत बनो ।” कर्मा खत्री गुर्रा पड़ा।

"मैंने और देवराज चौहान ने सच में पूरबनाथ साठी को मारा?" दांत भींचे जगमोहन ने पूछा।

“तो क्या हम पागल हैं जो तुम्हारे पीछे...।”

"हमने क्यों मारा साठी को?”

“इस बात का जवाब तो अब तुम लोग ही दोगे कि क्यों मारा साठी को। रिवाल्वर मुझे दे दो जगमोहन ! सोलह हथियारबंद आदमियों से तुम लोग घिरे हुए हो। किसी भी हाल में बच नहीं...।"

'धांय' जगमोहन ने ट्रेगर दबा दिया। चेहरे पर दरिन्दगी थी।

वैन में फायर का तेज धमाका हुआ और गोली कर्मा खत्री के माथे से प्रवेश करके, पीछे से निकलकर, सामने के शीशे को तोड़ती बाहर निकल गई। ऐसा होते ही वैन सड़क पर लहरा उठी। वैन चलाने वाला घबरा गया था। जगमोहन ने पीछे से उसकी गर्दन से रिवाल्वर की गर्म नाल सटा दी।

“वैन को सम्भालो ।” जगमोहन गुर्राया। वैन फौरन सम्भल गई।

"जिन्दा रहना चाहता है तो वैन को दौड़ाता रह... ।" जगमोहन का स्वर बेहद खतरनाक था।

वैन चलाने वाले के चेहरे पर पसीना छलक उठा था। उसने एक्सीलेटर पर पांव बढ़ा दिया और छिपी निगाहों से बगल वाली सीट पर पड़ी कर्मा खत्री की लाश को देखा।

कर्मा खत्री का शरीर सीट पर गुड़मुड हुआ पड़ा था। जहां से गोली घुसी और निकली थी, वहां से खून निकलने लगा था। वैन चलाने वाले का चेहरा फक्क पड़ा हुआ था।

“हमारे पीछे तुम्हारे और भी आदमी हैं?"

"ह... हां।"

"कितने ?"

"तीन कारें, सोलह आदमी। उन्हें...उन्हें शायद पता चल गया है, यहां कुछ गड़बड़ है। वो हमें ओवरटेक करने की चेष्टा करने जा रहे हैं। बाईं तरफ वाली उनकी कार है। वे हमें देख रहे हैं गोलियां भी चला...।"

जगमोहन ने फौरन बाईं तरफ देखा ।

हरे रंग की कार उनकी कार के बराबर चल रही थी। भीतर कुछ चेहरे दिखे, जो इधर ही देख रहे थे। उनके पास से रिवाल्वरों की भी झलक मिली। वो शायद अभी माजरा समझने की चेष्टा कर रहे थे। उसी पल जगमोहन ने हरी कार के ड्राइवर का निशाना लेकर एक के बाद एक दो फायर कर दिए।

दूसरे ही क्षण हरी कार लहराई और बेकाबू होकर सामने से आती बस से जा टकराई।

जगमोहन ने नाल पुनः वैन के ड्राइवर की गर्दन से लगाकर गुर्राया---

"तुम वैन दौड़ाते रहो, वरना तुम भी मरोगे। मरना चाहते हो?"

“नहीं, मुझे मत मारना।" वो भय भरे स्वर में कह उठा।

"अगर तुम्हारे लोगों की गाड़ी इस वैन तक पहुंच गई तो तुम नहीं बचोगे। तुम्हारे साथी तुम पर भी गोलियां चला सकते हैं, क्योंकि तुम वैन चला रहे हो। दौड़ा दो वैन को, इसी में तुम्हारी जिन्दगी है ।"

जब एक साथ दो गोलियां जगमोहन ने चलाई थीं तो तब देवराज चौहान का शरीर थोड़ा-सा हिला और फिर जैसे होश आने के प्रयत्न में हिलता ही रहा। धीरे-धीरे उसके हाथ-पांवों की हरकत बढ़ती चली गई, फिर उसने आंखें खोल दीं। खुद को वैन में पाकर चौंका। उसके कानों में तब जगमोहन के शब्द पड़ रहे थे ।

“क्या हुआ?" देवराज चौहान ने सतर्क स्वर में पूछा।

"होश में आ गये तुम?" जगमोहन ने बिना पीछे देखे कहा।

"होश में? मैं बेहोश कब हुआ था?"

“ये तो मुझे भी नहीं पता।" जगमोहन ने होंठ भींचे कहा--- “मेरी हालत भी तुम जैसी ही थी लेकिन मुझे पहले होश आया। हम ऐसी नींद में थे जो बेहोशी की तरह थी। पता नहीं हमें क्या हुआ पड़ा था। इस वक्त पूरबनाथ साठी के भाई देवेन साठी के आदमी हमें उठा ले जा रहे हैं। क्योंकि हमने पूरबनाथ साठी को मारा है, देवेन साठी हमसे बदला....।"

"इन बातों को छोड़ो। इस वैन में एक लाश पड़ी है। पीछे देवेन साठी के आदमियों की तीन कारें थीं, अब दो रह गईं, उन कारों में सब हथियारबंद लोग हैं हमें मारने के लिए पीछे लगे हैं।"

देवराज चौहान उठने को हुआ तो जगमोहन ने कहा।

"उठो मत। कोई भी गोली आ सकती है मेरी तो मजबूरी है खड़ा होना। इसे भी सम्भालना है।"

देवराज चौहान बैठा रह गया। बोला---

"ये वैन किसकी है?"

"इन्हीं लोगों की, इस वैन में ये हमें देवेन साठी तक ले जा रहे थे। लेकिन गलती इन्होंने ये कर दी कि हमारी तलाशी नहीं ली। रिवाल्वर हमारे पास ही थी और मुझे होश आते ही मौका मिल गया।" जगमोहन ने दांत भींचकर कहा।

वैन सड़क पर, वाहनों के बीच में से तूफानी रफ्तार से दौड़ती जा रही थी। कई बार वैन दूसरे वाहनों से टकराते-टकराते बची थी और अब भी बच रही थी।

"हम नींद में थे और ये लोग हमें उठा लाये, हमें पता नहीं चला, ऐसी भी क्या नींद कि...।”

"लेकिन इस नींद को लेने के बाद हम काफी फ्रेश हैं। सुबह पार्क में हमारा जो हाल था और जो अब है, उसमें जमीन-आसमान का फर्क है। हम बेहतर हालत में होते जा रहे हैं।" जगमोहन उसकी गर्दन से रिवाल्वर लगाये हुए था।

वैन की रफ्तार तेज से तेज हुई पड़ी थी। वैन चलाने वाले को जगमोहन के अलावा अपने साथियों से भी खतरा था कि वो गोलियां चलाना ना शुरू कर दें। परन्तु वो ये भी जानता था कि अब वो काफी पीछे छूट गये हैं।

एक घण्टे बाद वैन मुख्य सड़क से हटकर, कालोनी के बीच की सड़क पर रुक चुकी थी अब कोई पीछे नहीं था। वैन चलाने वाले का चेहरा क्या, पूरा शरीर ही पसीने से भरा हुआ था। वो घबराहट में था।

"शक्रिया मेरे भाई!" जगमोहन शान्त स्वर में बोला--- "तूने बढ़िया काम किया। ना भी करता तो तब भी तुझे कुछ ना कहता। अब हम यहां से जा रहे हैं, तू थोड़ा वैन में ही आराम कर।" इसके साथ ही जगमोहन ने रिवाल्वर के दस्ते की चोट उसके सिर पर की तो वो बेहोश होकर स्टेयरिंग पर जा पड़ा। जगमोहन के चेहरे पर सख्ती नाच रही थी।

फिर देवराज चौहान और जगमोहन वैन से बाहर निकले। और आगे बढ़ गये। रिवाल्वरें जेबों में पहुंच चुकी थीं। शाम के सात से ऊपर का वक्त हो रहा था, कुछ देर में अन्धेरा होने वाला था।

"हम बुरे बचे।” देवराज चौहान ने कहा।

"उन्होंने हमारी रिवाल्वरें निकाल ली होतीं तो हम बच ना पाते। हमारी तलाशी ना लेकर गलती की और मुझे वक्त रहते होश आ गया। नहीं तो हम बचने वाले नहीं थे।” जगमोहन ने गम्भीर स्वर में कहा।

"हमारी नींद इतनी गहरी क्यों रही कि हमें कुछ पता ना चला।” देवराज चौहान कह उठा--- "लेकिन अब मैं खुद को पहले से बेहतर महसूस कर रहा हूं। दिन में तो बुरी हालत...।"

"सोये उठने के बाद अब कुछ बेहतर है।"

"ऐसा ही कुछ...।"

"लेकिन अब जायें कहां, किसी होटल में रुकना खतरे से खाली नहीं। हम दोबारा पकड़े जा सकते...।”

“बिल्ला के घर का पता है मेरे पास। खुदे ने बताया था। जब तुम नींद में थे, तब खुदे का फोन आया था।"

“पर ये बिल्ला है कौन?"

“पता नहीं। मुझे तो बिल्ले का ध्यान नहीं कि वो कौन है।" देवराज चौहान ने कहा--- “वहां पर खुदे हमारा इन्तज़ार कर रहा है। खुदे से हम जान पायेंगे कि क्या हमने कुछ किया है?"

"किया तो जरूर है।" जगमोहन बोला--- “तभी तो देवेन साठी हमारे पीछे है। मोना चौधरी भी पीछे है। वो लोग इतनी तेजी से हमारी तलाश कर रहे हैं कि होटल में ठहरे कुछ ही घण्टे हुए थे कि वो हम तक पहुंच गये। लेकिन हमें याद क्यों नहीं आ रहा अगर हमने कुछ किया है। हमारे दिमागों को क्या हो गया है। हमारी नींद भी बेहोशी से कम नहीं थी।”

"खुदे बतायेगा।" देवराज चौहान ने गम्भीर स्वर में कहा।

■■■

बिल्ला, जो कि इस मामले के बारे में बातें सुन-सुनकर जान चुका था, हरीश खुदे से आज दिन भर मैं इन्हीं बातों की पूछताछ में लगा रहा। बातों-बातों में उसने देवेन साठी का फोन नम्बर भी खुदे से मालूम कर लिया और पारसनाथ के रेस्टोरेंट का पता भी जान लिया। परन्तु वो खुदे से नाराज था कि टुन्नी को यहां क्यों नहीं बुला लेता जो कि खुदे की पत्नी थी। इन बातों को लेकर दोनों की कई बार झड़प हो चुकी थी।

बिल्ले ने अभी चाय बनाई थी। दोनों चाय पी रहे थे। खुदे सोचों में डूबा हुआ था। बिल्ले का खर्चा मजे से चल रहा था। खुदे उसे खाने-पीने के नोट दे रहा था।

“क्या सोच रहा है?" खुदे को खामोशी से चाय पीते देखकर बिल्ले ने पूछा।

"देवराज चौहान के बारे में कि शाम हो गई है और वो अभी तक आया नहीं।" खुदे ने कहा।

“देवराज चौहान के बारे में ही सोचेगा या कुछ टुन्नी के बारे में भी सोचेगा जो तीन दिन से अकेली रह रही है।" बिल्ला ने नाराजगी से कहा--- “अकेला घर उसे काट खाने को दौड़ता होगा, वो...।"

“उल्लू के पट्ठे वो मेरी बीवी है।" खुदे फट पड़ा--- "तू उसकी क्यों चिन्ता करता है।"

"मैं चिन्ता नहीं करूंगा तो कौन करेगा, आखिर... ।”

“मैं करूंगा चिन्ता। तू उसके बारे मत सोच। मैंने उससे शादी की है। मुझे ज्यादा उसकी चिन्ता है। तू मेरा दोस्त है तो दोस्त ही बनकर रह। मेरे घर के भीतर तक घुसने की कोशिश मत कर।” खुदे ने गुस्से से कहा।

“यार तू तो खामखाह ही नाराज़ हो रहा है।” बिल्ले ने मुंह बनाया--- "मेरा तो मतलब था कि टुन्नी भी तेरी तरह यहां आ जाये तो उसका दिल लगा रहेगा। मैं भी खुश हो जाऊंगा कि तूने मेरी बात मान ली और... ।”

“साले, मैं सब समझता हूं। तू टुन्नी पर नजर रखता...।"

“कैसी बातें करता है। मैं नज़र क्यों रखूंगा। पर टुन्नी में ऐसा तो कुछ है कि उसके चेहरे से नजर हटती नहीं। हट जाये तो चेहरा आंखों के सामने ही घूमता रहता है। मैं तो कई बार सोचता हूं कि टुन्नी अब क्या कर रही होगी। दोस्त की बीवी की चिन्ता मैं नहीं करूंगा तो कौन करेगा। तू कहे तो मैं उसे पूछ आऊं कि किसी चीज की जरूरत तो...।"

"उसे किसी चीज की जरूरत नहीं है।" खुदे ने कड़वे स्वर में कहा--- “तेरे जैसा कमीना दोस्त मैंने कभी नहीं देखा। अगर मेरे पर मुसीबत ना आई होती तो तेरे को जूती ठोककर मैं कब का यहां से चला गया होता।”

“उल्टी बातें क्यों बोलता है। दोस्त ही दोस्त के काम आता है। तेरे घर पर देवेन साठी के दो आदमी नजर रख रहे हैं। वो अगर तेरे घर में घुस आये तो सोच कि टुन्नी पर क्या बीतेगी...वो... ।”

"फिर टुन्नी, तेरे को कितनी बार बोला है कि टुन्नी का नाम अपने होंठों पर मत ला ।”

“लो।” बिल्ला नाराजगी से बोला--- “टुन्नी का नाम लेने को भी मना कर रहा है। ये क्या बात हुई। हम दोस्त...।"

"दोस्त हैं ना ?"

“हां। हम बढ़िया दोस्त... ।”

“और मैं नहीं चाहता कि तू टुन्नी का नाम लेते-लेते बेहोश होकर गिर पड़े। तेरी चिन्ता है मुझे। मुझे तो तेरी हालत खराब होती लग रही है। हर वक्त तू टुन्नी की बातें... ।”

“बातें ही नहीं, सोचता भी उसके बारे में हूं। आखिर वो दोस्त की पत्नी है, मेरा भी तो हक... ।”

“क्या हक ? " खुदे गुर्रा उठा ।

“दोस्त की पत्नी पर मेरा भी तो हक बनता...।”

“वो ही पूछ रहा हूं कि किस बात का हक बनता है?"

"यूं ही बातचीत करने का हक ।" बिल्ला दांत फाड़कर बोला--- “उसे खुश रखने का हक, उसकी चिन्ता करने का हक, उसकी देखभाल का हक। उसकी हर जरूरत पूरी करने का हक...।"

“सारे हक तो तेरे पास चले गये तो मैं क्या करूंगा।” खुदे ने तीखे स्वर में कहा।

“तू कमाने का हक रखता है कि टुन्नी को खिला सके। बचा-खुचा मैं भी खा लिया करूंगा। तू उसे नई-नई साड़ी लाकर देना, मैं देखा करूंगा कि उसे कौन-सी साड़ी पसन्द आती... ।”

"तू देखेगा कि कौन-सी साड़ी...।"

"मैं ये काम बढ़िया कर लूंगा। टुन्नी को बातों में लगाकर हर वक्त खुश...।"

"तू ऐसी ही बातें करता रहा तो मैं सीधा देवेन साठी के पास जाकर अपनी गर्दन कटवा लूंगा।"

“जल्दी क्यों करता है।" बिल्ला मुस्करा रहा था--- "मुझे नहीं लगता तू देवेन साठी से बच पायेगा।"

“अब तेरे को ये भी लगने लगा।"

"मैं तो ये भी सोच चुका हूं कि अगर तेरे को कुछ हो गया तो टुन्नी को कैसे सम्भालना है। दोस्त हूं तेरा और मेरा फर्ज है कि दोस्त के ना रहने के बाद उसकी बीवी को सम्भालूं, सहारा दूं...।"

“बिल्ले, तू मेरे हाथों से मरेगा।" खुदे झुंझला उठा।

“हम दोस्त हैं। भला तू कैसे मुझे मार सकता है। मेरी सलाह पर गम्भीरता से सोच और टुन्नी को यहीं ले आ। हम तीनों मिलकर रहेंगे। एक ही परिवार होगा हमारा। कभी तू कमरे से बाहर सो जाना तो कभी...।"

उसी पल खुदे का फोन बज उठा ।

होंठ भींचे, बिल्ले को घूरते, गुस्से से भरे खुदे ने फोन पर बात की।

"हैलो।"

"रात हो गई है। अब तो आ जाओ ना...।" टुन्नी की आवाज आई।

"तेरे को कहा था कि मैं नहीं आ सकता। घर पर देवेन साठी के आदमी नज़र रख रहे हैं।"

"तो कब आओगे?"

“मैं नहीं आ सकूंगा।" खुदे बोला--- “तेरे को बुलाऊंगा। हमें मुम्बई छोड़नी पड़ेगी।”

“पहले तो कह रहे थे कि मुम्बई में कहीं और रह लेंगे। अब... ।"

“मेरा दिमाग अभी काम नहीं कर रहा। इस वक्त तो मैं बिल्ले को रो रहा हूं।"

“मर गया वो। चलो अच्छा हुआ। कम-से-कम अब वो मुझ पर तो नज़र नहीं रखेगा।" टुन्नी ने उधर से कहा।

“अभी जिन्दा है और मुझे कह रहा है कि तुम्हें भी यहां बुला लूँ ।"

बिल्ला, खुदे को देखता, दांत फाड़कर मुस्कराया।

"वो कौन होता है ऐसा कहने वाला, वो तो...।"

"हालात ठीक हो जायें फिर निपटूंगा कमीने से। तू बता, उधर सब ठीक है ना?"

"हां। पर गली के बाहर अभी भी देवेन साठी के आदमी मौजूद हैं।”

"उनकी तू परवाह मत कर। मैं घर नहीं आने वाला। तू तैयार रहना, मैं कभी भी तेरे को, कहीं भी पहुंचने को कह दूंगा, उधर मैं मिलूंगा। इधर के हालातों का कुछ पता नहीं। सब कुछ खराब हुआ पड़ा है। इस मामले से मैंने पांच लाख तो बना लिए।"

"सच?" टुन्नी की खुशी से भरी आवाज आई--- “पांच लाख...?"

“हां, अब बन्द करता... ।”

"सुनो-सुनो, मुझे वो लठ की बहुत चिन्ता हो रही है, जो तुमने बताया, तुम पे चढ़ा हुआ है। वो निकला कि नहीं....।”

"वो नहीं निकलने वाला, मेरा बुरा हाल है।” खुदे ने गहरी सांस लेकर कहा और फोन बन्द कर दिया।

तभी बिल्ला कह उठा---

"तूने पांच लाख कैसे बना लिया। मैंने तो देखा नहीं, वो कहां है। मुझे क्यों नहीं बताया ?"

उसी पल खुले दरवाजे पर आहटें गूंजी।

दोनों ने उधर देखा तो देवराज चौहान और जगमोहन को वहां खड़े देखा।

“आओ। मैं तुम्हारा ही इन्तज़ार कर रहा था।” खुदे उन्हें देखते ही कह उठा ।

दोनों भीतर आ गये।

जगमोहन टूटे-फूटे कमरे को देखता कह उठा ।

"ये है बिल्ले का घर ?"

"ये सुरक्षित जगह है। कल भी तुम यहीं थे।” खुदे बोला।

देवराज चौहान की जगमोहन से नज़रें मिलीं।

“तुम तो ऐसे कह रहे हो जैसे यहां पर पहली बार आये हो।" बिल्ला कह उठा ।

"तू चुप रह। बात मत कर।" खुदे ने कहा--- “जा तू बाजार से डिनर पैक कराकर ला ।”

देवराज चौहान आगे बढ़कर कुर्सी पर जा बैठा।

"चाय बनाऊं क्या?" बिल्ला देवराज चौहान से बोला । साथ ही उसने कमरे के कोने की तरफ इशारा किया, जहां स्टोव, चार-पांच बर्तन और चायपत्ती-चीनी के डिब्बे पड़े थे।

जगमोहन आस-पास की चीजों को देख रहा था फिर खुदे से पूछा---

"कल भी हम यहीं थे?"

"हैरानी है, तुम ये बात भूल क्यों रहे हो या मज़ाक कर रहे हो?" खुदे ने अजीब से स्वर में कहा।

"मुझे याद नहीं आ रहा।"

"देवराज चौहान को तो याद होगा कि...।"

"इसे भी याद नहीं ।" जगमोहन गम्भीर स्वर में बोला।

"तुम लोग तो मुझे पागल कर दोगे।" खुदे देवराज चौहान और जगमोहन को देखता कह उठा--- "पहले तुम लोग पूरबनाथ साठी को मार रहे थे तो पूछने पर ये ही कहते थे कि तुम्हें याद नहीं, उसे क्यों मारा। मोना चौधरी को मारना चाहते हो पर पूछने पर कहते हो कि याद नहीं उसे क्यों मारना है और अब तुम लोगों को ये भी याद नहीं कि कल तुम दोनों यहीं थे और...।"

"हमें नहीं याद कि पूरबनाथ साठी को कब मारा और कब मोना चौधरी के पीछे पड़े या यहां पर कब थे।” देवराज चौहान ने गम्भीर स्वर में कहा--- "जो हम कह रहे हैं वो मानो। उन पर विश्वास करो।"

"लेकिन ये कैसे हो सकता है। मैं कैसे मान लूं कि...।"

“हम इसी समस्या से गुजर रहे हैं खुदे ।" जगमोहन बोला--- “हमें सच में नहीं पता कि हमारे साथ क्या हो रहा...।"

“लेकिन मैं तो जानता हूं कि तुम लोग क्या करते फिर रहे हो।”

"वो ही जानने तो तेरे पास आये हैं कि हमने क्या-क्या किया और क्यों किया?"

"क्यों किया, ये तुम लोग जानो, पर क्या किया, ये मैं जानता हूँ...।”

“तो बताओ हमें कि हमने क्या-क्या किया? मैं जानता हूं...।" जगमोहन कह उठा।

खुदे ने बिल्ले को देखकर कहा---

“तू अभी तक यहीं खड़ा है। डिनर पैक करा ला। चल निकल...।"

"इन्हें चाय भी तो पीनी है।"

"नहीं पीनी, तू खाना लेकर...।"

"नोट... ?" बिल्ले ने हाथ आगे किया।

"खुदे ने पांच सौ का नोट निकालकर उसे दिया।”

"इसमें क्या आयेगा।" बिल्ले ने मुंह बनाया--- "और दे। बढ़िया होटल से लाऊंगा।"

खुदे ने उसे पांच सौ का एक और नोट दिया।

बिल्ला जाने लगा तो, ठिठककर खुदे से बोला---

"टुन्नी ने पता नहीं खाना खाया भी होगा या नहीं...।"

"वो मेरी बीवी है। तू उसके बारे में क्यों सोचता है।” खुदे झल्लाकर कह उठा।

"क्यों ना सोचूं, मुझे उसकी चिन्ता रहती...।”

"निकल जा यहां से।” खुदे ने दांत पीसकर कहा--- "नहीं तो बोत बुरा हाल करूंगा।"

बिल्ला मुस्कराकर दरवाज़े की तरफ बढ़ा तो खुदे ने पुनः कहा---

“टुन्नी के पास मत चले जाना, वरना तेरे हाथ-पांव तोड़ दूंगा।"

बिल्ला बाहर निकल गया।

देवराज चौहान ने सिगरेट सुलगाई और कश लिया।

जगमोहन एक तरफ पड़े बैड पर जा बैठा।

“तुम दोनों।” खुदे कुर्सी पर बैठता दोनों को देखकर बोला--- "ये बताओ कि ये ड्रामा क्यों कर रहे हो कि कुछ भी याद नहीं, या बिल्ले के सामने ऐसा कर रहे थे, क्या बात है?"

"हम झूठ नहीं कह रहे, हमें सच में नहीं पता कि हमने क्या किया है।" देवराज चौहान बोला--- "यकीन मानो... ।”

“हे भगवान! मुझे तो कुछ समझ में नहीं आ रहा। वो नोटों से भरा ब्रीफकेस भी याद नहीं... ?”

“ब्रीफकेस ?” जगमोहन एकाएक चौंका--- “ओह, वो तो शायद उसी होटल के कमरे में रह गया या देवेन साठी के आदमियों ने ले लिया होगा। कितना रुपया था उसमें? तैंतीस...?”

“लाख...।” खुदे के होंठों से निकला--- “किस होटल की बात कर रहे हो। देवेन साठी के लोग तुम लोगों से मिले क्या?"

“हां। जहाँ हम ठहरे थे वो वहाँ पहुंच गये। हमें वहां से उठाकर साथ ले गये। हम नींद में थे, बेहोशी जैसी... ।"

"फिर क्या हुआ?" खुदे ने बेचैन स्वर में पूछा।

जगमोहन ने सारी बात बताई।

"ओह, तो बच गये। परन्तु वो तैंतीस लाख वाला ब्रीफकेस... मैं... मैं होटल में देखकर आता...!"

"कोई जरूरत नहीं।” देवराज चौहान ने कहा--- “वहां तुम मुसीबत में पड़ सकते...।”

"क्या पता वो होटल के कमरे में ही हो...।" जगमोहन कह उठा।

"वो ही तो...।” खुदे ने कहना चाहा।

"कोई वहां नहीं जायेगा।” देवराज चौहान ने स्पष्ट मना कर दिया।

“इससे तो अच्छा था वो मैं तुम लोगों को देता ही नहीं।" खुदे बोला--- “तुम लोगों से मिलने आया तो ब्रीफकेस लेकर चल पड़ा कि बिल्ला बार-बार कह रहा था कि ब्रीफकेस में बम नहीं हो सकता। मैंने उसे कह रखा था कि ब्रीफकेस में बम है। छेड़छाड़ की तो बम फट जायेगा। मुसीबत पर मुसीबत खड़ी हो रही...।"

"वो ब्रीफकेस आया कहां से था?"

“महाजन के घर से। जब हमने महाजन और राधा को बंदी बना रखा...।"

"हमने ऐसा किया था?" जगमोहन सकपकाकर बोला। देवराज चौहान को देखा।

"बहुत कुछ किया था, परन्तु तुम दोनों को याद क्यों नहीं...?"

“तुम हमें सारी बात बताओ, जब से तुम हमारे साथ थे हमने क्या किया। तुम कब से हमारे साथ थे खुदे ?"

"तीन दिन से...।"

“तीन दिन...।” देवराज चौहान चौंका--- “तुम तीन दिन से हमारे साथ रहे?"

“हां। इसमें हैरान होने की क्या बात है?"

देवराज चौहान और जगमोहन ने एक-दूसरे को देखा ।

"तो हमें तीन दिन की बातें याद नहीं हैं।" जगमोहन बोला।

"तीन दिन से पहले का भी हमें याद नहीं आ रहा। जाने ऐसा कब से चल रहा है।" देवराज चौहान व्याकुल स्वर में कह उठा।

“यार, तुम दोनों तो मेरा दिमाग भी खराब कर रहे हो ऐसी बातें करके...।"

"तुम हमें बताओ कि, हमने क्या-क्या किया तीन दिनों में?" देवराज चौहान कह उठा।

"बताऊं?" खुदे अभी तक उलझन में था।

"हां, बताओ।" हरीश खुदे ने बताना शुरू किया।

प्यारे पाठकों, बीते तीन दिनों में देवराज चौहान और जगमोहन के साथ क्या हुआ था उन्होंने क्या किया, ये सारी बातें मैं अब आपको बता देता हूँ उधर खुदे देवराज चौहान और जगमोहन को तो बता ही रहा है। सब कुछ जानने के बाद कहानी के साथ आगे बढ़ेंगे तो डबल मजा आना शुरू हो जायेगा।

पहला दिन

देवराज चौहान और जगमोहन स्काई मैनशन नाम की चार मंजिला इमारत से बाहर निकले और पार्किंग में खड़ी कारों की तरफ बढ़ गये। दोनों की आंखें लाल सुर्ख हो रही थीं। आंखों के पोपटे भारी हो रहे थे। चेहरे कठोर हुए पड़े थे। ऐसा लग रहा था जैसे दोनों अभी-अभी तपती भट्टी से बाहर निकले हों।

दोनों कार में जा बैठे। जगमोहन ने कार स्टार्ट की ।

"हरीश खुदे के पास चलो। वो पूरबनाथ साठी का ठिकाना बता सकता है।” देवराज चौहान ने खतरनाक स्वर में कहा।

हरीश खुदे !

बत्तीस बरस का, सांवले रंग का व्यक्ति। कद लम्बा, सेहत ठीक-ठाक। जिन्दगी में कभी भी ठीक काम नहीं किया। चोरी, जेबकतरी, ड्रग्स को इधर से उधर पहुंचाना, ये ही सब करता रहा। चौबीस साल की उम्र में मुम्बई अण्डरवर्ल्ड डॉन के लिये काम करने लगा। आठ साल पूरबनाथ साठी के लिए काम किया और हाल ही में छः महीने पहले ही पूरबनाथ साठी से अलग हो गया। वजह थी, कोई बड़ा हाथ मारना। छोटी रकम से अब उसे मजा नहीं आता था। आठ सालों में काफी पैसा कमा लिया था। जब तक वो पैसा खत्म होता, तब तक बड़ा हाथ मारने का कोई प्रोग्राम उसने बना ही लेना था।

तेइस बरस की उम्र में लड़की को घर से भगाकर, उससे शादी कर ली थी। तब टुन्नी 18 साल की थी। नादानी में हरीश खुदे के साथ जुड़ गई थी, जब तक उसे समझ आती पांच बरस बीत चुके थे और वापस जाने का कोई रास्ता नहीं रहा था तब टुन्नी ने खुदे को ही अपना भाग्य मान लिया था।

रहने को हरीश खुदे के पास एक कमरे का फ्लैट था बांद्रा में।

छः महीने से हरीश खुदे घर पर ही रहा था और कभी-कभार ही बाहर जाता था। इन दिनों वो दो-तीन ऐसे साथियों की तलाश में था जो आगे जाकर उसके साथ काम कर सकें। जिन पर वो पूरा भरोसा कर सके। पांच-छः लोगों पर उसकी नज़र थी। उन्हीं में से उसने दो-तीन साथी चुनने थे परन्तु अब इस कशमकश में भी था कि काम क्या करना है। इस बारे में भी माथा-पच्ची कर रहा था। इन्हीं बातों में खुदे उलझा रहता था इन दिनों ।

सांवले रंग की नमकीन-सी लगने वाली टुन्नी कह उठी---

“अब क्या सारी उम्र घर पर ही बैठे रहने का इरादा है।"

“चुप कर तू ।” हरीश खुदे अपने आप में उलझा बोला--- “काम ही कर रहा हूं।"

“मुझे तो तुम घर बैठे दिखते हो हर वक्त... ।”

“तरे को क्या तकलीफ है। खाना-पीना बढ़िया मिल रहा है ना?"

“पर तू जो हर वक्त मेरे सिर पर बैठा रहता है, वो मुझे अच्छा नहीं लगता।" टुन्नी कमीज का बटन लगा रही थी--- “मुझे आज तक समझ नहीं आया कि साठी का काम तूने क्यों छोड़... ।”

“मेरे से अब दूसरों की नौकरी नहीं होती....।"

“अच्छा।” टुन्नी व्यंग से बोली--- “रहता तू एक कमरे में है और कहता नौकरी नहीं होती। कौन-सा बिजनेस... ।”

“जुबान मत चला।” हरीश खुदे ने टुन्नी को घूरा।

“तो क्या कर लेगा तू ।” टुन्नी मुंह बनाकर बोली--- “शादी की है तो मेरी सुननी भी पड़ेगी। तू हर वक्त घर पर पड़ा रहे ये मुझे पसन्द नहीं। सुबह बाहर निकल जाया कर। खाली मत बैठ और...।"

“अक्ल की अंधी, तुझे क्या पता मैं कितना बड़ा काम करने की सोच रहा...।"

"तो मुझे बता... ।”

"तेरे को बताने वाला काम नहीं है। जुबान बन्द रखा कर। ऐसी बातें करके मुझे डिस्टर्ब मत... ।”

तभी बाहर, दरवाजा खटखटाया गया।

"देख कौन है?" खुदे कुर्सी पर पसरा कह उठा।

टुन्नी उठी और दरवाजे की तरफ बढ़ गई।

दरवाज़ा खोला कि ठिठक गई।

सामने देवराज चौहान खड़ा था। एक कदम पीछे जगमोहन। सुर्ख हो रही आंखें, धधकता चेहरा।

"क्या है?" टुन्नी उनकी शक्ल देखकर सम्भली।

"हरीश खुदे...।” देवराज चौहान के होंठों से गुर्राहट निकली।

बुरा होने की आशंका से टुन्नी फौरन बोली ।

"वो घर पर नहीं...।"

"कौन है टुन्नी ?” कमरे में से हरीश खुदे की आवाज आई।

देवराज चौहान ने टुन्नी के कंधे पर हाथ रखकर उसे पीछे किया और भीतर आ गया।

देवराज चौहान पर निगाह पड़ते ही हरीश खुदे उछलकर खड़ा हो गया।

“त... तुम... देवराज चौहान!"

तब तक जगमोहन भी भीतर आ गया था।

खुदे ने उसे भी देखा।

दोनों की आंखें लाल और पपोटे भारी थे। चेहरे पर कठोरता नाच रही थी।

“ये तुम्हारी पहचान वाले हैं।" टुन्नी माथे पर बल डालकर बोली।

"जानता हूं इन्हें... ।” खुदे अभी भी सकते की हालत में था।

"इन्हें बोल दे कि शराब पीकर मेरे घर ना आया करें...।"

"हमने शराब नहीं पी।” जगमोहन दांत भींचकर बोला।

"लग तो रहा है कि...।”

“टुन्नी चुप कर।” खुदे बोला फिर उसने सूखे होंठों पर जीभ फेरकर देवराज चौहान से कहा--- “तुम मेरे पास क्या...।"

देवराज चौहान आगे बढ़ा और हरीश खुदे की कमीज का कॉलर पकड़ लिया।

"ये क्या कर रहे हो, मैंने क्या किया है।" खुदे घबराकर कह उठा।

"इस वक्त पूरबनाथ साठी कहां मिलेगा?” देवराज चौहान दांत पीसते कह उठा।

“मुझे... मुझे क्या पता। मैं तो छः महीने से उसका काम छोड़ चुका हूं और घर पर बैठा...।"

तभी देवराज चौहान का हाथ घूमा और खुदे के गाल पर पड़ा।

हरीश खुदे का सिर झनझना उठा।

"ये क्या कर रहे हो देवराज चौहान ! तुम होश में नहीं हो, तुम... ।”

देवराज चौहान का हाथ पुनः घूमा और खुदे के चेहरे से टकराया।

खुदे के होंठों से कराह निकली।

देवराज चौहान ने कमीज का कॉलर पकड़े रखा।

टुन्नी मामले की गम्भीरता समझकर चुप रही।

"मेरी पत्नी के सामने तो मेरी ठुकाई मत करो।” हरीश खुदे कह उठा--- "बाहर चलते हैं।"

“पूरबनाथ साठी किधर मिलेगा?" देवराज चौहान गुर्राया ।

"पता नहीं आजकल उसका रूटीन क्या चल रहा है। कहीं तो वो मिल ही जायेगा। दो-चार को फोन करके पता कर लेता हूँ। मेरी कमीज का कॉलर तो छोड़ दो। मेरी पत्नी घबरा रही होगी कि ये क्या हो...।"

“मैं नहीं घबरा रही।" टुन्नी कह उठी--- "मेरे लिए ये सब नया नहीं है।"

“तू नहीं घबरा रही ?"

"नेई... ।" टुन्नी ने सिर हिलाया।

“ये मुझे मार रहे हैं। जानती है ये हिन्दुस्तान का बहुत बड़ा डकैती मास्टर देवराज चौहान है।"

तभी देवराज चौहान का एक और जोरदार हाथ खुदे के गाल पर पड़ा।

“अब क्या है।" खुदे तड़पकर बोला--- “बोला तो पता लगाता...।"

देवराज चौहान ने खुदे की कमीज का कॉलर छोड़ा और दांत भींचकर बोला---

"मेरे साथ चल।" कहने के साथ ही देवराज चौहान पलटकर बाहर निकल गया।

जगमोहन भी बाहर निकला।

खुदे ने झल्लाये अन्दाज में टुन्नी को देखा।

"चक्कर क्या है?" टुन्नी ने पूछा।

"मुझे क्या पता?"

"तो वो तेरे को यूं ही तीन चांटे लगा गया।"

"वो देवराज चौहान है, दस चांटे भी लगा दे तो मुझे खाने पड़ेंगे।” खुदे ने परेशान स्वर में कहा।

"इतना शरीफ तो नहीं तू जो... ।”

"देवराज चौहान के सामने मैं उल्लू का पट्ठा हूं। तू जानती है उसे?"

"नहीं।"

“साली बक-बक करती रहती है। कितनी बार कहा है कि...।"

तभी तूफान की भांति जगमोहन ने भीतर प्रवेश किया और उसकी कमीज का कॉलर पकड़कर खींचता हुआ, उसे बाहर लेता चला गया।

■■■