"अब हम डॉक्टर वधावन की बेटी आस्था के बारे में सब कुछ जान चुके हैं कि वह कब घर से बाहर जाती है। क्या करती है, किससे मिलती है। मतलब कि उसकी पूरी दिनचर्या हमारे सामने है। ऐसे में हम सोच-समझकर, कहीं भी उसका अपहरण करके, वधावन को मजबूर कर सकते हैं कि वह ऑपरेशन करके मेरे दिमाग में फंसी गोली को निकाले।" विजय बेदी ने एक-एक शब्द पर जोर देकर कहा और सामने बैठे शुक्रा और उदयवीर को देखने लगा।
“ठीक बोला तू, वधावन की बेटी आस्था को आजकल में उठाकर, वधावन से बात... ।"
“धीरे !” शुक्रा ने गम्भीर स्वर में टोका--- “इतनी जल्दी छलांग मारकर आगे बढ़ने की कोशिश मत कर।"
बेदी और उदयवीर की निगाह शुक्रा पर गई ।
"क्यों, गलत बोला मैं?"
“मालूम नहीं।" शुक्रा ने दोनों पर निगाह मारी--- “लेकिन मैं जो कहने जा रहा हूं, उस पर सोचना जरूरी है।”
"क्या?" बेदी के होंठों से निकला।
शुक्रा ने सिगरेट सुलगाई और सोच भरे स्वर में बोला ।
"डॉक्टर वधावन की बेटी आस्था का आशिक मालूम है तुम लोगों को कि, वह कौन है?"
"कौन है?"
“मैंने मालूम किया है। यूं ही कर लिया, यह सोचकर उसके बारे में जाना कि वह डॉक्टर वधावन की इकलौती बेटी से शादी करके, करोड़ों का मालिक बनेगा। शायद कभी उसे दुआ-सलाम करने की जरूरत पड़ जाये।" कहते हुए शुक्रा की निगाह दोनों पर जा रही थी--- "उसका नाम विष्णु है।"
"विष्णु?" उदयवीर के होंठों से निकला ।
“यह कौन है?" बेदी की निगाह शुक्रा पर जा टिकी !
"शांता बहन का भाई ।"
"यह शांता बहन कौन है? सीधे-सीधे सारी बात बोल ।" उदयवीर ने उसे घूरा।
"शांता नाम है उसका, लोग उसे शांता बहन कहकर बुलाते हैं। शास्त्री नगर में उसका ठौर-ठिकाना है। वह एक खतरनाक गैंग की लीडर है और...।"
"गैंग?" बेदी चौंका।
"सुनते रहो, टोको मत ।" शुक्रा ने गम्भीर स्वर में कहते हुए हाथ उठाया— "शांता बहन का यह खानदानी धंधा है। पहले गैंग को उसका बाप केदारनाथ संभाला करता था। परन्तु शांता अपने बाप की बाप निकली और गैंग को अपने हाथों में ले लिया। शांता बहन के सारे कामों का लेखा-जोखा उसकी मां सत्या रखती है। बड़ा भाई दामोदर और छोटी बहन मीना बाहर के कामों को संभालते हैं। विष्णु दूसरे शहर से खासा पढ़-लिखकर आया है। सब लोग शांता के कहने में हैं। किसी में भी इतनी हिम्मत नहीं कि शांता को इन्कार कर सके। उसका बाप केदारनाथ भी, उसके कामों में कम ही दखल देता है।"
बेदी ने व्याकुलता से पहलू बदला ।
"तुम्हारा मतलब कि पूरे परिवार का ही यह गैंग है।"
“हाँ।” शुक्रा ने सिर हिलाया--- “पूरे परिवार का गैंग है। शांता को बहुत खतरनाक माना जाता है। शास्त्री नगर तो क्या दूर-दूर तक उसका दबदबा है। वैसे तो हाथ के सारे मामले शांता ही संभाल लेती है। जरूरत पड़ने पर किराये के लोगों को भी इस्तेमाल कर लेती है। गौर करने लायक खास बात यह भी है कि शांता बहुत खूबसूरत है। कोई नहीं कह सकता कि वह खतरनाक गैंग की लीडर हो सकती है और उसकी उम्र सिर्फ छब्बीस साल है।"
"छब्बीस साल?" बेदी के होंठों से निकला।
"हां और छः सालों से वह बाखूबी गैंग को संभाले हुए है। पुलिस वाले उन लोगों के कामों की तरफ ध्यान नहीं देते। शांता ने सारा मामला सैट कर रखा है। यह लोग सिर्फ अपने काम की तरफ ध्यान देते हैं। उनमें से कोई वक्त बरबाद करे, यह बात शांता कभी भी बर्दाश्त नहीं करती।"
"तुमने तो इस शांता के बारे में बहुत जानकारी इकट्ठी कर ली है।" उदयवीर कह उठा।
"करनी ही पड़ी, क्योंकि....।"
तभी बेदी ने टोका।
"शांता को पसन्द नहीं कि उसके परिवार का कोई इन्सान वक्त बरबाद करे।"
"हां।"
"और उसका भाई विष्णु वधावन की बेटी आस्था के साथ, हाथों में हाथ डाले बागों में गाना गाता फिर रहा है।" बेदी का स्वर एकाएक तेज हो गया--- "हे भगवान, अब समझ रहा हूं कि तुम क्या कहना चाहते हो, तुम्हारा... ।" बेदी ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी--- "तुम्हारा मतलब कि विष्णु ने शांता के कहने पर ही, आस्था को फांसा है। मतलब कि वह उससे प्यार नहीं करता, कोई और ही बात है।"
"हां, यही मैं कहना चाहता हूं।" शुक्रा ने सिर हिलाया।
बेदी सिर से पांव तक बेचैनी के समन्दर में डूब गया।
"फिर तो दो में से एक बात ही हो सकती है।" बेदी ने गम्भीर-व्याकुल स्वर में कहा।
"क्या?"
"विष्णु ने आस्था को, डॉक्टर वधावन की करोड़ों की जायदाद के लिए फांसा है। आस्था से शादी करके उसकी सारी जायदाद पर कब्जा करने के लिए या फिर वह मौका पाकर आस्था को उठायेगा और वधावन से रकम मांगेगा। इसके अलावा और कोई तीसरी वजह नहीं हो सकती।"
"विजय ठीक कहता है।" उदयवीर ने सिर हिलाया।
"जो भी हो, विष्णु यह काम शांता के कहने पर कर रहा है। शुक्रा की बात सुनकर मैं इसी फैसले पर पहुंचा हूं।" बेदी ने दोनों को देखते हुए परेशान स्वर में कहा।
कुछ पलों के लिये उनके बीच खामोशी छा गई।
"जिस तरह हमने यह सोचना है कि डॉक्टर वधावन की बेटी आस्था को कैसे उठाये, उसी तरह हमने विष्णु के बारे में भी सोचना है, जिसके पीछे शांता जैसी गैंग लीडर है।" शुक्रा ने कहा।
"हां।" बेदी ने सिर हिलाया--- "यह एक गम्भीर मसला है। हम अगर आस्था पर हाथ डालते हैं या उसे उठा ले जाने में सफल होते हैं तो शांता को यह बात पसन्द नहीं आयेगी। ऐसे में शांता जैसी युवती हमारी दुश्मन बन जायेगी और हम लोगों के बस से बाहर की बात है, शांता का मुकाबला करना ।”
"मेरे ख्याल में, हम लोग कुछ ज्यादा सोच रहे हैं।" उदयवीर ने कहा।
"कैसे?" बेदी ने उसे देखा।
“विजय! यह भी तो हो सकता है कि विष्णु वास्तव में शांता से प्यार करता हो, यह काम वह शांता के कहने पर न कर रहो हो। मेरे ख्याल में हर बात को शक में लेना ठीक नहीं, मैं...।"
"उदय!” शुक्रा पक्के स्वर में कह उठा---"विष्णु शांता के कहने के बिना कोई काम नहीं करेगा। शांता से पूछे बिना वह किसी से प्यार भी नहीं कर सकता। तूने शांता के बारे में जानकारी हासिल नहीं की, मैंने की है। इसलिये यह बात कहता हू।"
उदयवीर ने शुक्रा को देखा, कहा कुछ नहीं।
"अब क्या करें?" बेदी व्याकुल निगाहों से दोनों को देखने लगा।
"करना क्या है।" शुक्रा अपने शब्दों पर जोर देकर बोला--- "अपने यार के दिमाग में गोली फंसी है। जिसे वधावन गारण्टी के साथ सफल ऑपरेशन करके निकाल सकता है और वह निकालेगा।"
"मतलब कि डॉक्टर वधावन की बेटी आस्था को उठाना ही है।" उदयवीर ने उसे देखा।
"हां।” शुक्रा ने सिर हिलाया--- "हम जिस रास्ते पर बढ़ रहे हैं, बढ़ते रहेंगे।"
“और शांता ?” बेदी ने शुक्रा को देखा।
“विजय, मेरे यार, मेरे भाई ।” शुक्रा ने मुस्कराकर कहा--- "बाद में होने वाली बात को पहले नहीं सोचना चाहिये। हो सकता है, ऐसा कुछ भी न हो, जैसा हम सोच रहे हैं। हमारे लिए सबसे जरूरी है तेरी जान बचाना। तेरे सिर में फंसी गोली निकलवाना, दिमाग में फंसी गोली के साथ तेरी जिन्दगी सिर्फ दो महीने की है। हस्तपताल वाले डॉक्टर ने यही कहा था ना ?"
"हां।” बेदी का चेहरा फक्क पड़ने लगा।
“और उस दो महीनों में से चौदह दिन गुजर चुके हैं। बाकी अड़तालीस दिन बचे हैं। यानी कि हमारे पास बहुत वक्त है। तू ठीक हो जायेगा और पहले की ही तरह मजे से जिन्दगी बितायेगा ।"
"मैं शांता के बारे में सोच...।"
तभी बेदी के सिर में दर्द उठा। भयंकर पीड़ा की तीव्र लहर, उसने दोनों हाथों से सिर को थामते हुए दबा दिया। चेहरा लाल सुर्ख हो गया। दांत भिंच गये अगले ही पल दर्द में डूबा कुर्सी से लुढ़ककर फर्श पर जा गिरा। कंधा जोरों से फर्श से जा टकराया।
"विजय।"
"विजय, क्या हुआ ?" उदयवीर और शुक्रा जल्दी से कुर्सियां छोड़कर, बेदी की तरफ लपके।
उन्होंने बेदी को संभाला और नीचे बिछी चटाई पर लिटा दिया। इसके साथ ही बेदी की तबीयत संभलने लगी। दोनों की गम्भीर और दुख भरी निगाहें बेदी पर थीं।
इस वक्त ये तीनों गैराज के केबिन में मौजूद थे। बाहर, गैराज में छोकरे एक कार से चिपके उसे ठीक करने में लगे थे। यदा-कदा उदयवीर छोकरों के पास चक्कर लगा आता था।
बेदी की हालत पहले की ही तरह ठीक हो गई, लेकिन चेहरे पर पीलापन छाया रहा।
“शुक्रा, उदय।” बेदी की आवाज में तड़प थी--- "मैं ठीक हो जाऊंगा ना ?" बेदी का स्वर भर्रा उठा।
"क्यों नहीं होगा।" शुक्रा मन-ही-मन तड़प उठा--- “सब ठीक हो जायेगा, दो-चार दिन में हमने वधावन की बेटी को उठा लेना है। उसके बाद तो वह फौरन, बिना बारह लाख के तेरा ऑपरेशन कर देगा । दिमाग में फंसी गोली निकाल देगा। तू चिन्ता मत किया कर, मैं...।"
"मैं मरना नहीं चाहता। जीना चाहता हूं। मुझे मौत से बहुत डर लगता है।” कहते हुए बेदी चटाई से उठ खड़ा हुआ। आंखों में आंसू भरे थे--- “दिमाग में फंसी गोली न निकली तो मैं मर जाऊंगा, फिर... ।"
“ऐसी बातें करके तू, मुझे भी रुला देगा।" कहने के साथ ही शुक्रा ने आगे बढ़कर बेदी को गले से लगा लिया--- "हम पर विश्वास रख, हम जो कर रहे हैं, तेरे को बचाने के लिए ही तो...।"
प्यारे पाठकों, आशा है आपने 'चाबुक' का पहला भाग 'खलबली' पढ़ा होगा। अगर नहीं पढ़ा तो उपन्यास 'खलबली' की अहम-अहम घटनाओं से आपको वाकिफ करा दूं ताकि यह उपन्यास आप बिना किसी दिक्कत के पढ़ सकें। समझ सकें। खलबली में विजय बेदी नाम का युवक, रायल सेफ कम्पनी में सेल्समैन है। सेफ बेचने का काम करता है। अपनी जिन्दगी से वो खुश है। अंजना नाम की लड़की से वो शादी करने वाला है। उसके तीन दोस्त राघव, उदयवीर और शुक्रा हैं। तभी एक हादसे के दौरान विजय बेदी के सिर में गोली लग जाती है। जब उसे होश आता है तो डॉक्टर बताता है कि सिर में लगी गोली, उसके दिमाग के दोनों हिस्सों के बीच फंसी हुई है। जिसे निकालने की कोशिश में उसकी जान भी जा सकती है लेकिन डॉक्टर वधावन ऑपरेशन करके दिमाग में से गोली निकाले तो वह बच सकता है। नहीं तो उसकी जिन्दगी ज्यादा से ज्यादा दो महीने की है। यह सुनते ही विजय बेदी के होश गुम हो गये क्योंकि इस दुनिया में सबसे ज्यादा अगर उसे किसी चीज से प्यार था तो वह था अपनी जान से। उसके दोस्तों को पता चलता है तो वह भी चिन्ता करते हैं। यही हाल उसकी मंगेतर अंजना का होता है। वे लोग डॉक्टर वधावन से मिलते हैं तो वधावन ऑपरेशन के बारह लाख रुपये मांगता है। इतनी ज्यादा फीस की एवज में वधावन का जवाब होता है कि साढ़े ग्यारह लाख इस गारंटी के हैं कि वो उसकी जान बचा देगा। दिमाग में फंसी गोली निकालने के पचास हजार रुपये हैं। इतने पैसे विजय बेदी और उसके दोस्तों के पास मिलाकर भी नहीं हो पाते। सिर में फंसी गोली की वजह से कभी-कभार विजय बेदी के सिर में भयंकर दर्द होता है। डॉक्टर के मुताबिक उसकी जिन्दगी के दो महीने बाकी हैं अगर दिमाग में फंसी गोली न निकली तो। ऐसे में विजय बेदी कहीं से पैसा चुराने की सोचता है। उसकी यह बात सुनकर उदयवीर और राघव पीछे हट जाते हैं, परन्तु शुक्रा और मंगेतर अंजना उसका साथ देते हैं। तब विजय बेदी को ध्यान आता है कि कुछ दिन पहले उसने सेठ पिशोरी लाल की खुली तिजोरी देखी थी, जिसमें एक-डेढ़ करोड़ के जेवरात हैं। तो वह उसकी तिजोरी चोरी करने की योजना बनाता है। कई सनसनीखेज और खतरनाक हादसों के बाद विजय बेटी तिजोरी चोरी करने में सफल हो जाता है। परन्तु सब-इंस्पेक्टर जय नारायण उसके पीछे पड़ जाता है। जय नारायण से बचता विजय बेदी किसी तरह अपने कामों को अंजाम देता रहता है। बाद में तिजोरी का कम्बीनेशन नम्बर जानने के लिये सेठ पिशोरीलाल को उठा लाता है, परन्तु पिशोरीलाल नम्बर नहीं बताता । नम्बर जानने की खातिर विजय बेदी रायल सेफ कम्पनी के जनरल मैनेजर हेमन्त लाल को उठा लाता है। उसके साथ की गई। कोशिशों की वजह से वह तिजोरी का कम्बीनेशन नम्बर जान लेता है। इसके साथ ही विजय बेदी किसी तरह डॉक्टर वधावन का भी अपहरण करता है ताकि बारह लाख मिलते ही, उससे खामोशी से ऑपरेशन कराया जाये। क्योंकि सब-इंस्पेक्टर जय नारायण सख्ती से उसे ढूंढ रहा होता है। जनरल मैनेजर हेमन्तलाल से तिजोरी का कम्बीनेशन नम्बर जानने के बाद वे तिजोरी खोलते हैं जिसमें एक-दो करोड़ के हीरे-जेवरात घूंसे पड़े हैं। मंगेतर अंजना बहुत खुश होती है, इतने जेवरात को देखकर। वह शुरू से ही विजय बेदी को उकसा रही होती है कि वो कहीं मोटी लूटपाट करे । विजय बेदी ऐसा करता है तो अंजना की योजना सफल होती है। विजय बेदी के सिर में गोली लगने के बाद अंजना, विजय बेदी को बेकार बीमार इन्सान मानते हुए उसके दोस्त राघव को फंसा लेती है और तिजोरी खुलते ही, योजना के मुताबिक राघव वहां आ जाता है और तिजोरी के सारे हीरे-जेवरात अंजना और राघव ले उड़ते हैं। इतनी मेहनत के बाद भी विजय बेदी के हाथ बारह लाख नहीं लगते कि वो वधावन से ऑपरेशन कराकर, दिमाग में फंसी गोली निकलवा सके। विजय बेदी पागल हो उठता है। ऐसा होने पर शुक्रा की हालत भी पागलों जैसी हो जाती है। जैसे-तैसे वो खुद पर काबू पाता है। विजय बेदी को चिन्ता खाये जा रही है कि दिन बीत रहे हैं। दो महीने पूरे होते ही वो मर जायेगा। पिशोरीलाल, वधावन और हेमन्तलाल उनकी कैद में होते हैं। वधावन बिना पैसा लिए ऑपरेशन करने को तैयार नहीं होता। आखिरकार विजय बेदी और शुक्रा उस जगह को छोड़ते हैं और पुलिस को फोन करके बताते हैं कि वो तीनों वहां कैद हैं। उन्हें वहां से निकाल लो। उसके बाद उनके सामने यह समस्या खड़ी हो जाती है कि वो कहां जाएं? सब-इंस्पेक्टर जय नारायण विजय बेदी उनकी बुरी तरह तलाश कर रहा होता है। आखिरकार वे उदयवीर के गैराज पर पहुंचते हैं। वहां रहते हैं। फिर उदयवीर को बताते हैं कि उन्होंने बारह लाख पाने के लिए क्या किया। उनकी कोशिश सफल भी रहती, अगर अंजना और राघव उन्हें धोखा देकर, एक-डेढ़ करोड़ की दौलत नहीं ले उड़ते। उदयवीर को यकीन नहीं आता कि अंजना और राघव ऐसा कर सकते हैं। बहरहाल अब उदयवीर भी उनके साथ मिल जाता है कि वे तीनों कहीं से भी कोशिश करके बारह लाख इकट्ठे करेंगे। दो-चार दिन के सोच-विचार के बाद वे तीनों तय करते हैं कि डॉक्टर वधावन की इकलौती बेटी आस्था को पकड़ कर, अपने पास कैद कर लिया जाये तो, दबाव में आकर वधावन ऑपरेशन कर देगा। यह विचार उन सबको पसन्द आता है और वे तीनों वधावन की बेटी को उठाने के लिए निकल पड़ते हैं।
उधर अण्डरवर्ल्ड की नामी शख्सियत शांता बहन, खतरनाक गैंगस्टर की निगाह डॉक्टर वधावन पर पड़ चुकी होती है। क्योंकि डॉक्टर वधावन तीस साल विदेश में प्रैक्टिस करने के बाद वापस अपने देश में रहने के लिए आया है। शांता बहन के सूत्रों के मुताबिक वधावन के पास बहुत ज्यादा दौलत है। शांता बहन वधावन की बेटी आस्था को फांसने के लिए अपने छोटे भाई विष्णु को लगा देती है। विष्णु, आस्था को फांसता है। शांता बहन के मुताबिक अब विष्णु ने आस्था का अपहरण करना है, लेकिन विष्णु सच में, आस्था को प्यार करने लगता है। शांता बहन को जब विष्णु की हरकत का एहसास होता है तो वो विष्णु को वार्निंग देती है कि प्यार छोड़कर धंधे की तरफ ध्यान दे। यहाँ तक आपने पूर्व प्रकाशित 'खलबली' में पढ़ा। बहुत ही ज्यादा सारांश में आपके सामने 'खलबली' की घटनाओं को रखा गया है। अगर पूरा मजा लेना हो तो पाठकों को 'खलबली' अवश्य पढ़ना पड़ेगा। जो कि पूर्व प्रकाशित सैट में, प्रकाशित हो चुका है। आइए अब आगे पढ़ते हैं 'चाबुक' में, विजय बेदी को।
"हमें वधावन की बेटी पर ध्यान देना चाहिये।" उदयवीर के शब्दों से माहौल बदला ।
शुक्रा, बेदी से अलग हुआ। बेदी ने अपनी गीली आंखों को पौंछा ।
"आस्था का अपहरण कब, कहां, कैसे करना है। इन बातों पर दिमाग दौड़ाना पड़ेगा।" उदयवीर की आवाज में गम्भीरता थी--- "विजय के दिमाग में फंसी गोली निकलवाने के लिए जरूरी है कि आस्था हमारे कब्जे में आ जाए। उसके बिना वधावन ऑपरेशन नहीं करेगा, क्योंकि उसकी फीस के बारह लाख हम नहीं दे सकते।"
"एक-दो दिन में आस्था को उठा लेंगे।” शुक्रा ने कहा।
"कैसे, कुछ सोचा है?"
“सोच लेंगे, आज के दिन में किसी नतीजे पर पहुंच जायेंगे ।"
"सब-इंस्पेक्टर जय नारायण सख्ती से मेरी तलाश कर रहा है।” बेदी कह उठा--- “अब तो पिशोरी लाल, वधावन और हेमन्त लाल के बयानों के दम पर उसे तेरी भी तलाश होगी। क्योंकि उसे मालूम हो चुका होगा कि पिशोरीलाल की तिजोरी चोरी करने में तू बराबर मेरे साथ था।”
"हां, जय नारायण जैसे पुलिस वाले से हमें बचकर चलना होगा, वह बहुत तेज है।"
"अगर....।" बेदी ने गहरी सांस ली--- “अंजना और राघव ने दगाबाजी न की होती तो सब ठीक हो गया होता। लेकिन वो दोनों तो मेरी जिन्दगी की परवाह किए बिना तिजोरी का पूरा का पूरा पैसा लेकर भाग गये । कम से कम बारह लाख तो मुझे दे देते कि मैं ऑपरेशन कराकर दिमाग में फंसी गोली...।"
"बात मत कर उन कुत्तों की।" शुक्रा दांत भींचकर कह उठा― "मेरा दिल कहता है कि एक दिन वे दोनों पक्का कहीं- न-कहीं टकरायेंगे। तब हम उनसे अगला-पिछला सारा हिसाब चुकता करेंगे।”
"मुझे तो विश्वास नहीं आता कि अंजना-राघव ऐसा भी कर सकते हैं।" उदयवीर कह उठा।
"सकते नहीं, किया है। हमें बेहोश करके हरामजादे हमारी सारी मेहनत पर पानी फेर गये और आपस में एक-दूसरे को डार्लिंग-डियर कह रहे थे। तूने उस वक्त राघव और अंजना का रूप नहीं देखा। अगर हम उन्हें रोकने की कोशिश करते तो वह हमें गोली मार देते। शायद उन्होंने यह सोचकर हमें जिन्दा छोड़ दिया कि फिर कभी जिन्दगी में हमारी मुलाकात नहीं होगी। यहीं पर उन्होंने गलती कर दी। हमारी उनसे मुलाकात होगी और जरूर होगी। तब देखना...।" शुक्रा का चेहरा गुस्से से सुर्ख हो उठा था।
"शुक्रा।" बेदी भारी मन से कह उठा--- "छोड़ उनकी बातें, मुझे अपनी जान की फिक्र लगी है। जब तक मेरे दिमाग में फंसी गोली नहीं निकलती, तब तक कोई और बात मत कर, हमारा वक्त बहुत कीमती है।"
■■■
सब-इंस्पेक्टर जय नारायण ने रॉयल सेफ कम्पनी के मैनेजर प्राणनाथ मल्होत्रा के ऑफिस कदम रखा। उसके चेहरे पर सख्ती उभरी पड़ी थी। उसके हाव-भाव से लग रहा था जैसे अभी कुर्सी उठाकर प्राणनाथ मल्होत्रा के सिर पर मार देगा, होंठ भिंचे हुए थे।
आहट पाकर प्राणनाथ मल्होत्रा ने सिर उठाया तो सामने जयनारायण को पाकर चौंका फिर अगले ही पल संभल गया। चेहरे पर व्याकुलता की छाप आ टिकी।
"नमस्कार मल्होत्रा साहब।" जय नारायण की आवाज में व्यंग्य से भरे कड़वे भाव थे।
प्राणनाथ मल्होत्रा खामोश रहा।
जय नारायण ने पुलसिया अंदाज में कुर्सी खींची और बैठ गया।
मल्होत्रा ने उस पर से निगाहें हटाकर खुद को सिगरेट सुलगाने में व्यस्त कर लिया।
“तो आपका कहना है विजय बेदी चींटी मारने की भी हिम्मत नहीं रखता।"
मल्होत्रा ने दूसरी तरफ देखते कश लिया।
"वो तो मासूम है।"
मल्होत्रा बाईं तरफ देखने लगा ।
“उससे ज्यादा शरीफ कोई है ही नहीं, क्योंकि वह रॉयल सेफ कम्पनी में सेल्समैन था।"
मल्होत्रा ने सामने खुली फाइल बंद कर दी।
"मैं खामख़ाह उसके पीछे पड़ा हूं। अगर मैंने विजय बेदी को ज्यादा तंग किया तो आप मेरे खिलाफ खड़े हो जायेंगे या फिर मेरी रिपोर्ट करेंगे।" जय नारायण की आवाज में विषैलापन था ।
मल्होत्रा ने पुनः कश लिया।
“विजय बेदी तो किसी तरह का गुनाह कर ही नहीं सकता।"
मल्होत्रा ने बेचैनी से पहलू बदला ।
"जय नारायण यानी कि मैं वक्त पर पहुंचकर, आपकी कम्पनी के जनरल मैनेजर हेमन्त लाल को न खोलता तो कोई बड़ी बात नहीं, अगले चौबीस घंटों में, वह बंधे-बंधे ही मर जाता।" जय नारायण ने दांत भींचकर एक-एक शब्द चबाकर कहा--- "और विजय बेदी पर कातिल का लेबिल भी लग जाता।"
मल्होत्रा की गम्भीर निगाह जय नारायण पर जा टिकी ।
"मैं खासतौर से आपके पास यह कहने आया था कि विजय बेदी के आने पर, उसे बताये बिना फौरन मुझे खबर दी जाये। मेरे जाते ही वह आया, लेकिन आपने मुझे खबर करने की जरूरत महसूस नहीं की। शायद इसलिये कि वो मासूम हैं। चींटी नहीं मार सकता । गुनाह नहीं कर सकता । बेचारा है, वगैरह-वगैरह।" जय नारायण खा जाने वाली निगाहों से प्राणनाथ मल्होत्रा को घूर रहा था।
मल्होत्रा ने होंठ बंद कर रखे थे।
“मैंने कहा जनाब, मैं आपसे कह रहा हूं।" जय नारायण ने दांत भींचकर कहा।
“सुन रहा हूं।" मल्होत्रा के होंठ खुले ।
“पुलिस वाले सुनाते नहीं हैं, पूछते हैं और मैं आपसे जवाब की आशा कर रहा हूं।"
"क्या जवाब दूं?"
"यही कह दीजिये कि मैंने तो सोचा भी नहीं था कि विजय बेदी ऐसा कुछ कर सकता है। मैं तो खुद हैरान हूं कि उसने यह सब कैसे कर डाला। ऐसे मौके पर यही कहा जाता है ना, मल्होत्रा साहब?"
"हां, कुछ ऐसा ही मेरे दिमाग में घूम रहा था।" मल्होत्रा ने धीमे स्वर में कहा।
“आपका दिमाग कुछ ज्यादा ही घूमता है।"
मल्होत्रा ने पुनः बेचैनी से पहलू बदला।
“वैसे विजय बेदी किस्मत वाला निकला।" जय नारायण ने व्यंग्य से कहा– “सेठ पिशोरी लाल की पूरी तिजोरी खाली कर गया। करीब दो करोड़ का माल रहा होगा उसमें। पट्ठा ऐश कर रहा होगा। दिमाग में फंसी गोली निकलवाने के लिये, पैसों का इन्तजाम कर रहा था। अब तो सारी जिन्दगी ऐश करेगा। वैसे कुछ ज्यादा ही किस्मत वाला निकला। मैं उसके पीछे था। एयरपोर्ट पर किस खूबसूरती से मेरे से बच निकला। पुलिस को भी बेवकूफ बना दिया। यानी कि मुझे... ।"
मल्होत्रा ने यूं ही सिर हिलाते हुए कश लिया।
"दो करोड़ का हाथ मारने के बाद आपसे तो मिला ही होगा।" जय नारायण खुन्दक खाये हुए था।
"नहीं।"
"एक बार तो मिला ही होगा ।"
"नहीं, मैंने उसके बाद उसकी सूरत भी नहीं देखी ।" मल्होत्रा ने फंसे स्वर में कहा।
"आवाज तो सुनी होगी।"
"आवाज ?"
"हां, फोन पर ।"
"विजय ने कोई फोन नहीं किया।"
"कमाल है, एहसान फरामोश निकला। आपने उसे मेरे हाथों से एक बार बचाया। कम-से-कम इस बात का धन्यवाद तो उसे अदा करना ही चाहिये था या फिर हो सकता है उसे वक्त न मिला हो । दो करोड़ को आनन-फानन तो संभाला नहीं जा सकता। कुछ वक्त तो लगता ही है। फुर्सत में वह अवश्य फोन करेगा।"
“उसका फोन आया तो मैं आपको खबर कर दूंगा।"
“देर से ही सही, जनाब को अक्ल तो आई।” जयनारायण ने व्यंग्य से कहा ।
प्राणनाथ मल्होत्रा ने कुछ कहने के लिये मुंह खोला, लेकिन फिर होंठ बंद कर लिये।
"रुक क्यों गये। कहिये-कहिये, मैं सुनने को तैयार हूं।" जय नारायण का स्वर तीखा हो गया।
"मुझसे जो गलती हुई, मानता हूं।" मल्होत्रा का धीमा स्वर शांत था--- "आपकी बात मानकर, विजय के बारे में आपको खबर कर देता तो शायद बचाव हो जाता, लेकिन बीता वक्त मैं वापस नहीं ला सकता।"
जय नारायण, प्राणनाथ मल्होत्रा को घूरता रहा।
कई पलों तक उनके बीच खामोशी रही।
"चाय - ठण्डा, कुछ लेंगे।"
मल्होत्रा की बात पर ध्यान न देकर जय नारायण बोला ।
"इस काम में विजय बेदी के साथ दो लोग थे। एक युवती और एक युवक। पिशोरी लाल, वधावन, हेमन्त लाल के मुताबिक युवती का नाम अंजना था और युवक का शुक्रा। मैं इनके बारे मैं जानना चाहता हूं।"
“ये दोनों नाम मैं आपसे पहली बार सुन रहा हूं।"
"आप मेरे मुंह से कोई बात दूसरी बार सुनते हैं?" जय नारायण ने उखड़े स्वर में कहा--- "जब मैंने कहा कि विजय बेदी ने तिजोरी चोरी की है तो यह बात भी आपके लिए नई थी। अब मैं आपके सामने दो नाम रख रहा हूं तो यह नाम भी आपके लिये नये हैं।" "
"अंजना और शुक्रा के बारे में मैं नहीं जानता।”
"विजय बेदी का कोई पहचान वाला ? "
“मुझे नहीं मालूम।”
"हैरत की बात है।" जय नारायण कड़वे स्वर में कह उठा--- "विजय बेदी के बारे में आप कुछ नहीं जानते, सिवाय इसके कि वह आपकी कम्पनी में सेल्समैन था। इस पर भी आप उस दिन दावे पर दावा पेश कर रहे थे कि वह शरीफ और बेचारा है। कोई जुर्म नहीं कर सकता।"
"वह ऐसा ही था।" मल्होत्रा ने कठिनता से कहा।
"ऐसा ही था तो पिशोरीलाल की तिजोरी चोरी करके दो करोड़ क्यों ले उड़ा।"
"जो भी किया है, उसने बहुत गलत किया है।" मल्होत्रा ने गहरी सांस ली--- "लेकिन वह अपने दिमाग में फंसी गोली को लेकर परेशान था। वधावन जैसे बड़े डॉक्टर से ऑपरेशन कराना चाहता था। उससे गोली निकलवाना चाहता था। जो कि ऑपरेशन के बारह लाख मांगता था, इसलिये।"
“इसलिये चोरी कर लो, मुजरिम बन जाओ। दूसरों का अपहरण कर लो।" जय नारायण ने कठोर स्वर में कहा--- "वैसे मैं यह ऑपरेशन पचास हजार में करवा सकता हूं।"
"जानता हूं, विजय ने भी मुझसे कुछ ऐसी बात कही थी, लेकिन साथ में उसने यह भी कहा था कि डॉक्टर सौ प्रतिशत गारण्टी नहीं लेता कि दिमाग में फंसी गोली निकालते वक्त, खोपड़ी खोलने से लेकर बंद करने तक सब ठीक रहेगा। ऑपरेशन पूरी तरह सफल रहेगा। ऑपरेशन के दौरान जान जाने वाली बात भी हो सकती है और विजय को अपनी जान से बहुत प्यार है। उसका कहना है कि वह लम्बी जिन्दगी जीना चाहता है और डॉक्टर वधावन इस बात की सौ प्रतिशत गारण्टी लेता है कि वह सफलता से उसके दिमाग में फंसी गोली निकाल देगा।"
जय नारायण के चेहरे पर विषैले भाव उभरे।
"बहुत प्यार है विजय बेदी को अपनी जिन्दगी से। मैं दूंगा उसे लम्बी जिन्दगी । एक बार नजर तो आ जाये । गारण्टी से, मेरी गोली उसकी खोपड़ी में नहीं फंसेगी। बल्कि आर-पार हो जायेगी।"
"ये तो गलत है।" मल्होत्रा के होंठों से निकला ।
"क्या?"
"तुम विजय की जान लेने को कह रहे हो।"
"गलत कह दिया क्या?"
"तुम कानून के रखवाले हो। पुलिस वाले हो, मुजरिम को पकड़ना तुम्हारा काम है, उसे गोली मारना नहीं।"
"तुम मुझे कानून की किताब पढ़ाओगे ।" जय नारायण के दांत भिंच गए।
मल्होत्रा ने व्याकुलता से कश लिया।
"उसके पास रिवाल्वर देखी गई है।" जय नारायण एक-एक शब्द चबाकर कह उठा--- "जब मैं उसके सामने पड़ूंगा तो वह अपनी गिरफ्तारी नहीं देगा, रिवॉल्वर निकालने की कोशिश करेगा। ऐसे में उसे गोली मारने का मेरा हक बनता है। उसकी जेब में गैर लायसेंसी रिवॉल्वर होनी चाहिये। बस, बाकी तो हम साबित कर देते हैं कि वह निशाना लेने की चेष्टा कर रहा था। आत्मरक्षा की खातिर पुलिस वाले को गोली चलानी पड़ी।" कहने के साथ ही जय नारायण उठ खड़ा हुआ। उसके चेहरे पर सख्ती के भाव थे।
मल्होत्रा की निगाह उस पर थी।
“मिस्टर प्राणनाथ महोत्रा, अगर मुझे मालूम हुआ कि विजय बेदी आपसे मिला है और इस बात की खबर फौरन आपने पुलिस में नहीं दी तो मैं विजय बेदी की सहायता करने के जुर्म में आपको गिरफ्तार कर लूंगा। अगर फोन आये तो आपने उसे कुरेदने की कोशिश करनी है कि वह कहां है। मुझे पूरा यकीन है कि विजय बेदी इसी शहर में कहीं टिका हुआ है।"
"वह वह दो करोड़ के साथ शहर से बाहर भी तो जा सकता है।" मल्होत्रा के होंठों से निकला।
"नहीं जायेगा ।" जयनारायण के स्वर में दृढ़ता थी--- "क्योंकि उसके बारे में जो जानकारी इकट्ठी की है। उसके मुताबिक वह दिमाग में फंसी गोली डॉक्टर वधावन से ही निकलवायेगा और अभी डॉक्टर वधावन ने ऑपरेशन करके उसके दिमाग में फंसी गोली नहीं निकाली है। इसलिये विजय बेदी अभी दो करोड़ के साथ इसी शहर में यहीं छिपा हुआ है।" कहने के साथ जय नारायण बाहर निकलता चला गया।
रिसेप्शन के सामने से गुजरते जय नारायण ठिठका। रिसेप्शन पर सपना मौजूद थी। वह रिसेप्शन की तरफ बढ़ गया। सपना की निगाह उस पर जा टिकी।
“मुझे सब-इंस्पेक्टर जय नारायण कहते हैं।" उसने सपना से कहा।
सपना ने उसकी वर्दी पर निगाह मारी फिर उसे देखा ।
"कहिये।"
“मैं विजय बेदी को तलाश कर रहा हूं जो इस कम्पनी का सेल्समैन था।" जय नारायण ने शांत लहजे में कहा--- "ये तो आपने सुन ही लिया होगा कि उसने तिजोरी चोरी की और डेढ़-करोड़ के जेवरात...।"
"जानती हूं।” सपना गम्भीर थी।
"आपका क्या ख्याल है, ठीक किया विजय बेदी ने ?"
"गलत किया।"
"मैं आपसे ऐसे ही जवाब की आशा कर रहा था। खैर, आप जानती हैं, वह कहां मिल सकता है? कहां छिपा होगा या फिर ऐसी कोई बात ?" जय नारायण मुस्कराया।
"मैं इस बारे में कुछ नहीं जानती।"
"इस बार भी मैं आपसे ऐसे ही जवाब की आशा कर रहा था।" जय नारायण ने वर्दी का कॉलर ठीक करते हुए कहा--- "विजय बेदी के किसी रिश्तेदार को जानती हैं?"
"नहीं।"
"उसके फोन तो आते होंगे ?"
"जी हां?"
"उसके कौन खास लोग हैं, जिनके फोन अक्सर आते रहते हैं।" जय नारायण ने पूछा।
"एक लड़की है अंजना। उसके फोन बराबर आते थे। दोनों शादी करने वाले थे।"
"गुड ! गुड ! आपको यह तो पता ही होगा कि अंजना कहां रहती है, उसका पता वगैरह ?
"नहीं, मैंने न तो कभी उसका पता पूछा, ना ही उसने कभी बताया।"
"हूं और किसके फोन आते थे?"
“उसके तीन दोस्त हैं। जिनके फोन कभी-कभार ही आते थे।" सपना ने बताया।
"उनके नाम ?"
"शुक्रा, राघव, उदयवीर ।"
"गुड-गुड!, शुक्रा ।" जय नारायण ने सिर हिलाया--- "यह शुक्रा कहां रहता है?"
"मालूम नहीं।"
"जरा भी नहीं मालूम।"
"जरा भी का मतलब ?"
"मैंने सोचा, पक्के नहीं तो कच्चे तौर पर ही, कभी उड़ते-उड़ते सुना हो कि वह किस इलाके में रहता है। खैर, कोई बात नहीं। ये राघव और उदयवीर का पता तो मालूम होगा ही।"
"इंस्पेक्टर साहब। यह मेरी ड्यूटी में शामिल नहीं है कि फोन करने वालों से मैं उनका पता मालूम करूं। मेरी जो नौकरी है, सिर्फ उसी तरफ मैं ध्यान रखती हूं।"
"हूं, कोई ऐसी बात बता सकती है आप, जो विजय बेदी तक पहुंचने में सहायक हो ?"
"नहीं, अभी तो ध्यान नहीं, याद आया तो बता दूंगी।"
"अच्छी बात है। मैं आपके फोन का इन्तजार करूंगा। मेरा नम्बर इस कम्पनी के मैनेजर मिस्टर प्राणनाथ मल्होत्रा के पास है। जरूरत पड़ने पर उनसे ले लीजियेगा।"
सपना के गर्दन हिलाने पर जय नारायण बाहर की तरफ बढ़ गया।
■■■
सब-इंस्पेक्टर जय नारायण डॉक्टर वधावन से मिला।
वधावन उस वक्त क्लीनिक में था और घर जाने की तैयारी कर रहा था। वह बे-वजह किसी से नहीं मिलता था। परन्तु जय नारायण से यह सोचकर मिला कि जब विजय बेदी ने उसका अपहरण किया था तो इसी इंस्पेक्टर ने उसके बंधन खोलकर, उसे आजाद करवाया था।
"हैलो डॉक्टर।" जय नारायण ने वधावन से मुस्कराते हुए हाथ मिलाया।
"हैलो, बैठो।"
जय नारायण बैठा।
"आप अमेरिका में ही अच्छे थे। यूं ही अमेरिका छोड़कर वापस हिन्दुस्तान में आ बसे ।"
"यूं ही नहीं वापस हिन्दुस्तान आया।" डॉक्टर वधावन मुस्कराया--- "इस बात को तुम नहीं समझोगे कि अपने देश की मिट्टी की महक से कितना प्यार होता है, जब कोई परदेश में बैठा हो और फिर सारी जिन्दगी तो बीत ही गई। आखिरी वक्त में शरीर को अपने देश की मिट्टी न मिले तो मौत में भी मजा नहीं।"
“अभी तो आप सिर्फ पचपन-सत्तावन बरस के हैं। बहुत जीना है आपने। वैसे आपके विचार बहुत अच्छे हैं। जो भी सुनेगा, प्रभावित होगा। लेकिन आपकी फीस तो गला काटने के बराबर है।"
वधावन मुस्कराया।
"इंस्पेक्टर।" वधावन ने अपने सिर के सफेद बालों में उंगलियां फेरते हुए कहा--- “दरअसल बात यह है कि मैंने तीस साल अमेरिका में प्रैक्टिस करके इतना पैसा इकट्ठा कर लिया है कि अब मुझे पैसे की चाह नहीं और बाकी की जिन्दगी कुछ आराम से बिताना चाहता हूं और यह तभी हो सकता है कि जब मेरी फीस ज्यादा हो। हद से ज्यादा हो। ऐसे में गिनती के लोग ही इलाज के लिये मेरे पास आयेंगे। जो मेरी फीस चुकाने का दम रखते हैं। वैसे भी हिन्दुस्तान में जिन लोगों के पास पैसा है तो बहुत है। बेशुमार है और जिनके पास नहीं है तो है ही नहीं। जब यहां के लोग इलाज के लिये विदेशों में जाकर पैसा खर्च कर सकते हैं तो यहां पर मुझे क्यों नहीं दे सकते । हिन्दुस्तान से इलाज कराने कई लोग, अमेरिका में मेरे ही पास आते थे।"
“ठीक कह रहे हैं आप, लेकिन कभी-कभी कोई काम दया भाव से भी कर देना चाहिये।" जय नारायण बोला।
वधावन ने उसे देखा।
“दया-भाव ? मैं समझा नहीं ।"
“जैसे कि विजय बेदी के दिमाग में गोली फंसी पड़ी है। वह आपके पास आया तो आपने ऑपरेशन करके गोली निकालने की फीस बारह लाख मांगी और इतनी बड़ी रकम देना उसके बस में नहीं है, ऐसे में....।”
“इंस्पेक्टर ।” वधावन ने शांत स्वर में कहा--- “कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जो अपने उसूलों पर चलते हुए सारी जिन्दगी बिता देते हैं। मैं भी उन्हीं में से हूं। मैं अपनी मन चाही फीस लेता हूं और इलाज सामने वाले की मन पसन्द का करता हूं। फीस के मामले में मैं किसी तरह का समझौता नहीं करता।"
"कभी-कभी कर लेना चाहिये।" जय नारायण के होंठों पर मुस्कान उभरी--- “अगर आपने विजय बेदी के मामले में समझौता कर लिया होता तो वह पिशोरी लाल की तिजोरी से दो करोड़ न ले उड़ता । कानून को आज उसकी तलाश न होती। हम लोगों की सिरदर्दी, उसे पकड़ने की वजह से न बढ़ती ।"
"मुझे किसी की जाति जिन्दगी से कोई वास्ता नहीं कि वह क्या करता है। बीमार इन्सान के पास इलाज के लिये पैसा न हो तो इसका यह मतलब नहीं कि वह मुजरिम बन जाये। चोरी करने लगे, यह ऑपरेशन करने वाले डॉक्टर पचास हजार में भी मिल जायेंगे। सरकारी हस्तपाल में मुफ्त में भी हो जाता है, तो....।"
"लेकिन वह लोग पूरी गारण्टी नहीं देते कि ऑपरेशन सफल रहेगा। ऐसा विजय बेदी का ख्याल है।"
“और मैं गारण्टी देता हूं, यही ना?"
"हां।"
"तो बारह लाख में से साढ़े ग्यारह लाख मेरी गारण्टी की फीस है। अब आप समझ गये होंगे कि मेरी फीस इतनी ज्यादा क्यों है।" वधावन ने अपने शब्दों पर जोर देकर कहा।
"वो तो मैं पहले ही समझ रहा हूं।"
"आप विजय बेदी की बहुत चिन्ता कर रहे हैं कि... ।"
"मैं तो इस बारे में आपसे सरसरी बात कर रहा हूँ। कानून को सामने रखते हुए, मुझे विजय बेदी की चिन्ता है कि उसे जल्द से जल्द गिरफ्तार होना चाहिये।" इंस्पेक्टर जय नारायण ने वधावन की आंखों में देखा--- "वह आपके पास आया तो होगा।"
"मेरे पास?"
"हां।"
"क्यों?"
“ऑपरेशन करवाने, क्योंकि इस वक्त उसके पास दो करोड़ हैं। आपकी फीस बारह लाख है और यह तो वह तय किए बैठा है कि दिमाग में फंसी गोली, आपसे ही ऑपरेशन करके निकलवायेगा ।"
"मेरे पास तो वह नहीं आया।"
"फोन पर बात हुई हो ?”
"नहीं।"
"हैरानी है, उसे तो फौरन बारह लाख लेकर आपके पास पहुंच जाना चाहिये था।"
वधावन ने कलाई में बंधी घड़ी में वक्त देखा फिर कह उठा।
"वह मेरे पास आया तो उसकी खबर मैं पुलिस को कर दूंगा।"
"पक्का कह रहे हैं आप?"
"हां, मुझे कानून की अहमियत का एहसास है।"
"यह जानकर खुशी हुई कि आप कानून की इज्जत करते हैं।" जय नारायण मुस्कराया— “कहीं ऐसा न हो कि उसके हाथ में बारह लाख देखकर पुलिस को खबर करने की सोच मुल्तवी कर दें।"
वधावन ने जय नारायण को घूरा।
"नाराज मत होइये। मैं तो अपनी सोच जाहिर कर रहा था।" जय नारायण मुस्करा रहा था।
"इंस्पेक्टर, मैं आपसे पहले भी कह चुका हूं कि मेरे अपने उसूल हैं। रही बात बारह लाख की तो पैसे का लालच कभी भी मुझे पर हावी नहीं होता। विजय बेदी मेरे पास आया तो मैं पुलिस को खबर दूंगा।"
जय नारायण ने वधावन की आंखों में झांका और उठ खड़ा हुआ।
"विजय बेदी बहुत जल्द आपके पास आयेगा। आपके पास आये बिना, पिशोरीलाल की तिजोरी से चोरी किया दो करोड़ उसके लिए बेकार है। वह बहुत जल्द आपसे मिलेगा।" जय नारायण के शब्दों में विश्वास कूट-कूट कर भरा था।
■■■
इंस्पेक्टर महेन्द्र यादव ने सब-इंस्पेक्टर जय नारायण को देखा।
"सब-इंस्पेक्टर ही बने रहने का इरादा है तुम्हारा, लगता है इंस्पेक्टर बनने की इच्छा तुममें कभी नहीं रही।" इंस्पेक्टर महेन्द्र यादव की आवाज में हल्का-सा तीखापन आ गया था।
"ऐसी बात नहीं है सर।" जय नारायण जल्दी से कह उठा।
"जिस ढंग से तुम्हारी काम करने की रफ्तार है। उससे तो यही लगता है।"
सब-इंस्पेक्टर जय नारायण से कुछ कहते न बना।
"एक मामूली से इन्सान को जो कि कभी अपराधी नहीं रहा। सेफ बेचने वाला सेल्समैन है। तुम उसे नहीं पकड़ पा रहे तो और क्या करोगे?" इंस्पेक्टर महेन्द्र यादव का स्वर कठोर था।
“सर, मैं उसे ही तलाश कर रहा...।"
"इन शब्दों का इस्तेमाल मत करो।" महेन्द्र यादव के स्वर में नाराजगी थी– “यह शब्द मैं ऊपर वालों को कहता हूं, जब कोई काम पूरा नहीं होता। तुम कहो कि विजय बेदी को ढूंढ नहीं पा रहे।"
“सर ।" सब-इंस्पेक्टर जय नारायण का स्वर धीमा था--- "सच बात तो यही है कि विजय बेदी मेरे हाथ नहीं लग रहा। ना ही उसकी कोई खबर मिल रही है, जबकि मैं अपनी हिम्मत से भी ज्यादा कोशिश कर रहा...।"
"अपनी हिम्मत को और बढ़ाओ अगर इंस्पेक्टर बनना है तो।" महेन्द्र यादव का स्वर अब समझाने वाला हो गया था— “तुम्हारी सर्विस फाइल बहुत अच्छी रही है। तुम इंस्पेक्टर बनने के करीब हो मेरे ख्याल में विजय बेदी को पकड़ते ही तुम इंस्पेक्टर की कुर्सी के हकदार बन जाओगे।”
"जी-जी सर।"
“विजय बेदी कोई शातिर मुजरिम नहीं है। तुम्हारी रिपोर्ट को पढ़ने के बाद यह बात तो स्पष्ट है कि उसने मजबूरी में पिशोरीलाल की तिजोरी से दो करोड़ रुपया लूटा, ताकि दिमाग में फंसी गोली निकलवा सके। नारायण, मेरे ख्याल में विजय बेदी नाम का यह शख्स वहम का शिकार है।"
"कैसे सर?"
"उसे यह वहम हो चुका है कि डॉक्टर वधावन के अलावा कोई और डॉक्टर ऑपरेशन करेगा तो ऑपरेशन सफल नहीं होगा। वह मर जायेगा। जबकि वधावन ऑपरेशन करेगा तो वह बच जायेगा।"
"आप ठीक कहते हैं सर ।"
"वधावन की बारह लाख फीस देने की खातिर ही उसने चोरी की, जबकि यह ऑपरेशन तो किसी सरकारी हस्पताल में भी हो सकता था और वह ठीक भी हो सकता था।"
"सर, अपनी जान को लेकर, जब कोई वहम में पड़ता है तो फिर उसका वहम ठीक नहीं किया जा सकता। वह वधावन से ऑपरेशन करवाने के लिये, वहां जरूर जायेगा और तब वह हमारे कब्जे में होगा।"
"डॉक्टर वधावन को इस बारे में सावधान कर दिया।"
"यस सर, रॉयल सेफ कम्पनी के मैनेजर प्राणनाथ मल्होत्रा को भी कह दिया है। विजय बेदी की खबर मिलते ही फोन कर देंगे।"
“उसके यारों-दोस्तों-रिश्तेदारों के बारे में कुछ पता चला?"
"नहीं सर, तीन दोस्तों के नाम सामने आये हैं, जो रॉयल सेफ कम्पनी में कभी-कभार फोन कर देते थे।"
"उनके नाम ?"
"उदयवीर, शुक्रा और राघव । लेकिन अभी उनका अता-पता नहीं मिल पाया। एक लड़की भी सामने आई है। अंजना नाम है उसका, वह और विजय बेदी शादी करने वाले थे। उसके बारे में भी जानकारी नहीं मिल पाई।"
"जानकारी नहीं मिल पाई ?"
“नहीं।"
"यह कहने से काम चल जायेगा।" इंस्पेक्टर महेन्द्र यादव ने उसे घूरा।
"सर मैं कोशिश... ।”
"स्पीड बढ़ाओ। अपने काम की स्पीड बढ़ाओ सब-इंस्पेक्टर जय नारायण । विजय बेदी को पकड़ते ही तुमने इंस्पेक्टर बन जाना है।"
"यस सर।"
"अंजना और उसके दोस्तों के बारे में जानकारी लेकर आओ। डॉक्टर वधावन के सम्पर्क में रहो, विजय बेदी देर-सबेर में वधावन से अवश्य मिलेगा।"
■■■
डॉक्टर वधावन की इकलौती बेटी आस्था ।
छरहरा बदन, लम्बी, खूबसूरत, बिल्लौरी आंखें, अमेरिकन मां और हिन्दुस्तानी पिता की औलाद। कुल मिलाकर सुन्दरता में वह नगीना थी
विष्णु जो कि आकर्षक व्यक्तित्व का मालिक था। दोनों की जोड़ी वास्तव में बहुत अच्छी थी। विष्णु और आस्था इस वक्त महंगे रेस्टोरेंट में बैठे कॉफी की चुस्किया लेते हुए मीठी-मीठी निगाहों से एक-दूसरे को देख रहे थे।
"विष्णु।” आस्था बोली।
"हूं।"
"तुमने अभी तक अपने घरवालों से नहीं मिलवाया।" आस्था के चेहरे पर मुस्कान थी।
"एक ही बार मिलना।” विष्णु हौले से हंसा।
"कब ?"
"जब तुम दुल्हन बनकर घर आओगी।"
“ऐसे नहीं।" आस्था ने चंचलता से कहा--- "एक बार तो पहले मिलूंगी।"
"क्यों ?"
"देखूं तो सही कि जिस घर में मुझे सारी जिन्दगी बितानी है, वह लोग कैसे हैं?"
“तुमने जिन्दगी मेरे साथ बितानी है। मेरे घरवालों के साथ नहीं।" विष्णु पुनः हौले से हंसा।
"वो तो ठीक है। फिर भी तुम्हारा घर और घर के लोगों को देखने का मन करता है।"
“दिखा दूंगा, सबसे मिल भी लेना।"
"कब ?"
"बहुत जल्द ।"
"ओ.के.।" आस्था ने सिर हिलाया--- "किसी दिन मौका देखकर मैं पापा से बात करूंगी।"
“क्या?"
“यही कि जिस लड़के को मैंने पसन्द किया है। कम-से-कम उसे देख तो लें।" आस्था छोटी सी हंसी हंसी।
“और अगर तुम्हारे पापा ने मुझे पसन्द नहीं किया तो?"
“पसन्द करेंगे, क्योंकि मेरी पसन्द पर पापा हमेशा भरोसा करते हैं और अब भी करेंगे।"
“इतना विश्वास है अपने पापा पर ।"
"तुम पर भी है।"
विष्णु मुस्कराकर रह गया।
"विष्णु, हमें मिलते तीन महीने हो गये हैं। लेकिन तुमने कभी शादी की बात नहीं की, हमारी शादी की ।"
"वो तो होनी ही है।" विष्णु ने कहा।
"क्या तुम्हें शादी करने की जल्दी नहीं है।"
"तुम्हें है?"
"हां, पहले जल्दी नहीं थी, लेकिन तुमसे मिलने के बाद, अब मुझे शादी की बहुत जल्दी है ।" आस्था हंसी ।
"तो मुझे तुमसे भी ज्यादा जल्दी है।" विष्णु मुस्कराया।
"तो यह बात तय रही कि हम जल्दी ही शादी करने वाले हैं।"
"हां, अब सारा काम जल्दी होगा।" कहते हुए विष्णु ने अपना हाथ, आस्था के हाथ पर रख दिया।
■■■
फोन की बैल बजते ही सत्या जल्दी से फोन की तरफ बढ़ी।
छब्बीस वर्षीय शांता सोफे पर अधलेटी-सी सिगरेट के कश ले रही थी। चेहरे पर सोच के भाव थे।
"हैलो।" सत्या ने रिसीवर उठाया, बात की फिर शांता को देखा।
शांता की निगाह सत्या पर जा टिकी।
"कौन है मां?"
सत्या ने माउथपीस पर हाथ रखकर उलझन भरे स्वर में कहा।
"वकील पुरा का खान है।"
शांता फौरन सीधी उठ बैठी।
“वकील पुरा का खान ?” शांता के होंठ सिकुड़े।
"हां, तुमसे बात करना चाहता है।"
"क्या बोलता है?"
"बताता नहीं ।"
शांता ने दो पल की सोच के बाद, हाथ के इशारे से फोन देने को कहा तो सत्या ने आगे बढ़कर फोन शांता को थमा दिया।
"कहो खान।" शांता का स्वर शांत था--- “आज इधर की याद कैसे आई?"
“शांता बहन ।" दूसरी तरफ से खान की आवाज आई--- "आज खान को तुम्हारी जरूरत पड़ गई।"
शांता के चेहरे पर सतर्कता-सी नजर आने लगी।
"हैरानी है कि आज खान को मेरी जरूरत पड़ गई।"
“हां, पड़ गई।” खान का स्वर कानों में पड़ा--- "जब मुझे तुम्हारी जरूरत पड़ी तो मुझे भी इस बात की हैरानी हुई कि मुझे तुम्हारी जरूरत पड़ रही है। कभी ऐसी कोई जरूरत पड़ेगी, मैंने नहीं सोचा था।”
“खान, तूने तीन साल पहले मेरे से टक्कर ली थी। मेरे भेजे आठ आदमी तूने मार दिए थे।"
"और तुमने मेरे इलाके में आकर मेरे छः आदमियों को गोली से उड़ाया था। यह तीन साल पहले की बात है। उसके बाद हममें समझौता हो गया था। फिर हममें दोस्ती नहीं तो, दुश्मनी भी नहीं रही।" खान के स्वर में ठहराव था--- “अगर बीती बात को सामने मत लाओ तो मैं आगे की बात करूं।"
“बोल।" कहते हुए शांता ने कश लिया।
“शांता बहन।" खान की आवाज में एकाएक गुस्सा उभरा--- "वो छोकरा है ना, नाके वाला, बद्दी,, वो बद्दी अपने पैर फैलाता जा रहा है। उसने अपना ठीक-ठाक गैंग भी बना लिया है ।"
शांता की आंखें सिकुड़ी।
"बद्दी, जो बीस-इक्कीस साल का छोकरा है। सुना है उसने बहुत तेजी से अपने हाथ-पांव फैलाये हैं।"
"हां, मैं उसकी ही बात कर रहा हूँ। मुझे तेरी सहायता की जरूरत है शांता बहन। वह बहुत देर से मेरे इलाके में दखल दे रहा है। कई बार उसे बोला, लेकिन बात मानने की अपेक्षा धमकी देता है।"
"तो गर्दन काट दे उसकी, सोचता क्या है?"
"बद्दी की पहचान है मेरे इलाके की पुलिस से, इलाके का इंस्पेक्टर खासतौर से मुझसे मिला। बोला, मैंने बद्दी को कुछ नहीं कहना है। अगर उसे कुछ कहा तो वह मुझे छोड़ेगा नहीं। साला, साफ-साफ बोला।"
"हूं, तो इंस्पेक्टर को संभाल।"
"कोशिश की, उसे नोट देने चाहे, लेकिन नहीं माना, वो पूरी तरह बद्दी की फेवर करता है।"
शांता ने हौले से सिर हिलाया।
"समझी, अगर तू बद्दी को कुछ करता है तो वो पुलिस वाला तेरा गला पकड़ लेगा।"
"हां, इसलिये।"
"दो चार बाहर के बंदे बद्दी के पीछे लगा दे। मौका देखते ही उसे खत्म कर देंगे। तेरा नाम नहीं आयेगा।"
"ऐसा नहीं हो सकता। ये काम मैंने किया तो बात खुल जायेगी और बद्दी का हिमायती पुलिस वाला मेरे को छोड़ेगा नहीं। इतना सीधा मामला नहीं है।" खान का स्वर गुस्से से भरा था।
शांता के चेहरे पर मुस्कान नाच उठी।
सत्या कठोर-सी निगाहों से, शांता को देखे जा रही थी।
"शांता बहन, मैं तेरे पर विश्वास कर सकता हूं। जानता धंधे की पक्की है। बात खुलेगी नहीं। अपने आदमी भेजकर बद्दी को खत्म कर दे। नहीं तो वो मेरे इलाके पर कब्जा कर लेगा ।" खान का भिंचा स्वर, शांता के कानों में पड़ा।
शांता के चेहरे पर जहरीली मुस्कान नाच उठी।
"आजकल तेरा धंधा कैसा चल रहा है खान?" शांता कह उठी।
"एकदम फिट। सिर्फ बद्दी है जो आने वाले वक्त में, मेरे लिये खतरा बनेगा ।"
"तेरा होटल कैसा चल रहा है ?"
"कौन-सा, चार में से किसकी बात कर रही है तू शांता बहन।"
"वो मून लाइट होटल, जो रात को शुरू होता है और सुबह होने तक भरा रहता है।"
"अच्छा चलता है। मोटा पैसा बनता है वहां से। तू क्यों पूछती है।" खान के स्वर में बदलाव आया।
“खान, तेरी बातों से लगता है बद्दी जल्दी ही तेरे इलाके पर कब्जा जमा लेगा। तेरे इलाके की पुलिस को उसने वैसे भी अपने हाथ में कर लिया है। हो सकता है तेरी मुंडी भी वो उड़ा दे।"
"तो...?"
"सारा इलाका जाने से कहीं अच्छा है कि मून लाइट होटल तेरे हाथ से चला जाये। जान और इलाका सलामत रहेगा तो ऐसे कई होटल तू खड़े कर लेगा।"
खान की तरफ से कोई जवाब नहीं आया।
शांता ने तुरन्त फोन बंद कर दिया, सत्या की तरफ बढ़ाया।
सत्या ने आगे बढ़कर शांता के हाथ से फोन लिया और बोली।
"शांता, खान जैसे नाग से दोस्ती करना ठीक नहीं।"
"मैं दोस्ती नहीं कर रही।" शांता ने सिगरेट का कश लेकर सिगरेट ऐश-ट्रे में डाल दी।
"मैं चाहती हूं तू खान से बात भी मत कर।"
शांता की खूबसूरत आंखों में कठोरता उभरी। उसने सत्या को घूरा।
"मां, अब तू मुझे बतायेगी कि मैंने कब कहां, क्या काम करना है।" शांता की आवाज में सख्ती थी।
"मैं अपनी राय दे रही हूँ शांता ।"
"राय से मुझे कोई एतराज नहीं। लेकिन तू दबाव डालने की कोशिश कर रही है। जा अपना काम कर।" शांता ने एक-एक- शब्द चबाकर कहा– “खान का काम है। करने के बदले उसका मून लाइट होटल मांग रही हूं। काम की कीमत। जहां से हर रात चालीस-पचास हजार की आमदनी होती है। क्या बुराई है, खान का काम करने में। मैं दुश्मनी से पहले धंधा और फायदा देखती हूँ। अगर तेरे में इतनी अक्ल होती तो तू सत्या नहीं, शांता होती।"
सत्या शांत खड़ी रही। कुछ नहीं बोली।
"दामोदर आया नहीं अभी तक ?" एकाएक शांता ने पूछा।
"नहीं, वो दारू की भट्टी पर गया है। उधर का काम देखकर उसने पुलिस से बात करनी है। इलाके का इंस्पेक्टर हफ्ता बढ़ाने को कह रहा है। उसके बाद वो बोला, पर्सनल काम है, रात होने पर आयेगा।"
शांता की आंखें सिकुड़ी।
"पर्सनल काम? मेरे को नेई मालूम और वह पर्सनल काम करता है।” शांता का स्वर सख्त हो गया--- "दामोदर आये तो उसे बोलना, मेरे से बात करे।"
सत्या ने सिर हिलाया। तभी हाथ में पकड़े फोन की बैल बज उठी।
"हैलो ।” सत्या ने बात की।
"मैं... खान।"
"बोल।” सत्या के चेहरे पर नापसन्दी के भाव आये।
"शांता से बात करनी है।"
"कर।” सत्या ने सख्त स्वर में कहा और फोन शांता को दिया--- “खान।"
शांता ने खान से बात की।
"खान, तेरा फोन बार-बार आये। मेरे को अच्छा नहीं लगता।" शांता का लहजा स्थिर था।
“तूने लाइन काटी थी।"
“मेरे पास फुर्सत नहीं कि मैं बोलूं और तू सोचने लगे।"
“शांता बहन, तेरे को मून लाइट होटल चाहिये। बद्दी का गला काटने के बदले में?"
"समझदार को इशारा काफी होता है।"
“ठीक है, होटल तेरा हुआ। सब कुछ जाने से अच्छा है। एक होटल तेरे को दे दूं। बद्दी को खत्म कर दे।"
"अभी।"
"ये काम जल्दी हो तो मैं चैन से नींद ले लूंगा।"
"ठीक है, जब होटल मून लाइट के कागजात मेरे नाम पर तैयार होकर मेरे पास पहुंच जायेंगे तो उसके एक घंटे बाद बद्दी की लाश कहीं पड़ी होगी। अपने आदमी दौड़ाकर खबर पा लेना।"
"दस बजे हैं अभी।" खान की आवाज आई--- "बारह बजे होटल के कागज तेरे नाम होकर, तेरे पास पहुंच जायेंगे ।"
"एक बजे बद्दी खत्म हो जायेगा।" कहने के साथ ही शांता ने फोन बंद किया।
सत्या ने तुरन्त शांता के हाथ से फोन लिया ।
"तू खान के लिये बद्दी को खत्म करेगी ।"
"हां, बारह बजे होटल मून लाइट के कागजात मेरे नाम करके वो किसी के हाथ यहां भेजेगा, ले लेना ।"
"तुम कहां जा रही हो?" सत्या की आंखें सिकुड़ीं ।
"बद्दी को खत्म करने ।"
"ये काम तो तू यहां बैठे-बैठे भी कर सकती...।"
"बात खुलनी नहीं चाहिये कि बद्दी कैसे मरा। खान यही चाहता है। यूँ ही अपना कीमती होटल मेरे नाम नहीं कर रहा। ऐसे में मैंने दूसरों को इस्तेमाल किया तो बात खुल जायेगी। वैसे तो यह काम दामोदर निपटा देता। पर वो है नहीं। जुबान दे दी है खान को कि एक बजे बद्दी खत्म हो जायेगा।"
"खान इतनी आसानी से होटल देने वाला नहीं। दे रहा है तो कभी नाग की तरह डसेगा।" सत्या बोली।
"मैं जानती हूं। लेकिन मेरे जिस्म पर नाग डसे का असर नहीं होता।" शांता का स्वर विषैला हो उठा।
■■■
"सब मामला सैट है।" साढ़े बीस वर्षीय बद्दी ठहाका लगाकर हंस पड़ा--- “पुलिस अपने कब्जे में है। वो खान की तरफ नहीं होएगी। इंस्पेक्टर एकदम सेट कर रखा है। इससे बढ़िया मौका फिर हाथ नहीं आयेगा। जो करना है कर डालो। इंस्पेक्टर की खोपड़ी फिर गई तो वक्त उल्टा घूम जायेगा।"
"लेकिन करना क्या है?"
इस वक्त बद्दी अपने गैंग के साथ अपने एक कमरे के ठिकाने पर मौजूद था। वह सांवले रंग का, घुंघराले बालों वाला, लम्बी नाक और नाटे कद का फुर्तीला खतरनाक युवक था। इलाके में उसकी चलती थी। हफ्ता वसूलना, पैसे लेकर लोगों की दिक्कतें दूर करना, मालदार आसामी से मोटे नोट झाड़ना उसका धंधा था। जो इन्कार करता था, बद्दी के इशारे पर उसके हाथ-पांव तोड़ दिए जाते थे। उसके घर पहुंचकर बुरा हाल कर दिया जाता था घर का। कोई चीज सलामत नहीं रहती। इस पर भी वह रोकड़ा देने में इन्कार करता था तो बद्दी का एक इशारा उसे दुनिया से उठा देता था।
ऐसा करने की नौबत दो बार ही आई थी। उसका खौफ ही इतना था कि हर कोई उसकी बात पूरी करने की कोशिश करता था। बद्दी की निगाह खूबसूरत लड़कियों पर भी रहती थी। एक बार उसे अट्ठाईस वर्षीय टीचर पसन्द आ गई। बद्दी ने उसे बुलाया। वह नहीं आई तो गैंग के आदमी भेजकर उसे घर से उठवा लिया। एक महीना उसे कमरे में बंद अपने पास रखा। उस महीने भर में उसे कपड़ा पहनने को नहीं मिला और बद्दी ने तबीयत के साथ उसके साथ मनमर्जी की। जब उसे बद्दी ने छोड़ा तो उस टीचर ने घर जाने की अपेक्षा आत्महत्या करना ही ठीक समझा। सब जानते थे कि बद्दी ने उसे उठाया है लेकिन सामने आकर कहने की उसकी हिम्मत नहीं हुई। पुलिस वाले आते, बद्दी से मिलकर खा-पीकर वापस जाते ।
बद्दी सब्र करने वाले लोगों में से नहीं था। दो सालों में उसने अपने इलाके में तो पांव फैला ही लिए अब उसने अपने पांव साथ लगते, खान के इलाके में फैलाने शुरू कर दिए थे। खान के कामों में दखल देना शुरू कर दिया। खान ने मना किया। सख्ती से रोकने की कोशिश की। परन्तु बीच में खान के ही इलाके का इंस्पेक्टर आ गया बद्दी की तरफ से कि बद्दी को कुछ नहीं कहना।
इंस्पेक्टर के बीच में आते ही खान के हाथ-पांव बंध गये। अगर वह बद्दी के खिलाफ कुछ करता है तो पुलिस वाले को अपना दुश्मन बनाता है जो कि उसके लिये पूरी तरह नुकसानदेह था। और बद्दी तय कर चुका था कि खान के धंधों पर काबू पाकर उसके इलाके को हथियाना है।
"बता तो सही, करना क्या है?"
“खान की ताकत मेरे से बहुत ज्यादा है। जरा-जरा करके, उससे नहीं लड़ा जा सकता। कभी भी वह हमारी खोपड़ी फोड़ देगा। आखिर कब तक पुलिस के कहने पर दबा रहेगा कि मेरे को कुछ नहीं कहना। आखिर है तो वह खान ही। साले की पूरी की पूरी तूती बोलती है इलाके में।" कहने के साथ ही बद्दी ने सब पर नजर मारी।
"तो ?”
"सबसे आसान रास्ता है कि खान को झटके के साथ साफ कर दिया जाये।" बद्दी ने दांत भींचकर कहा।
"ये आसान नहीं।"
"क्यों?"
"वो खान है। जमा-जमाया है अपने इलाके का। अभी तक तो हम उसके इलाके में घुसपैठ कर रहे हैं। सीधे-सीधे उसके गले पर हाथ डालने की कोशिश की तो खान भड़क जायेगा ।"
"मालूम है, मालूम है कि वो हमसे ज्यादा ताकतवर है।" बद्दी दांत भींचकर बोला--- "लेकिन उसे किसी ऐसे मौके पर घेरना होगा, जहां उसकी ताकत काम ही न कर सके। गोली सीधी उसकी खोपड़ी में।"
कई पलों के लिये वहां खामोशी छा गई।
"बद्दी ठीक बोलता है। खान को आसानी से साफ किया जा सकता है।"
"लेकिन खान को अकेले कैसे-कहां घेरे ?"
"यह काम तो मैं कर लूंगा।" बद्दी कुटिल स्वर में कह उठा ।
"कैसे?"
"खान के आदमियों में मेरा आदमी है। वो खान के बारे में रिपोर्ट देता रहेगा और जब हमें ठीक लगेगा उसी वक्त हम खान को खत्म करेंगे और उसके इलाके पर कब्जा जमा लेंगे। ऐसे में खान को मरा पाकर किसी और ने बीच में आने की कोशिश की तो सबसे पहले उसके टुकड़े-टुकड़े करने हैं। ताकि अपनी दहशत कायम हो सके।"
"खान को खत्म करने का मामला तय हो गया।
बद्दी ने पुड़िया खोलकर उसमें से एक गोली निकाल कर मुंह में डाली फिर पुड़िया बंद करके उसे जेब में डालता हुआ एक को देखकर कह उठा ।
"हाँ तो तू क्या कह रहा था, क्या बोलता है वो साला मिल वाला?"
"मैंने बोला था उसे कि बद्दी बादशाह दस लाख मांगता है। मेरे को भेजा है।" उसने जवाब दिया--- "मेरे को बोला, दफा हो जा यहां से, नहीं तो नौकरों से कहकर बाहर फिंकवा दूंगा।"
"ऐसा बोला वो हरामी ?"
"हां।"
"मेरे को नहीं मानता। इसलिये ऐसा बोला।" बद्दी के दांत भिंच गये। चेहरा गुस्से से सुर्ख हो उठा― "कोई बात नहीं। ठीक हो जायेगा। बद्दी को मानेगा, नहीं मानेगा तो जान से जायेगा। उसकी मिल पर रिश्तेदार कब्जा कर लेंगे और वो दस के पचास देंगे, खुशी से। क्या नाम है उस हरामी मिल वाले का?"
"मन्नू भाई।”
"कुछ पता-ठिकाना मालूम किया हरामी का ?"
"हां ।"
"चल, साले को नापते हैं।" बद्दी का स्वर क्रूर हो उठा।
■■■
तेल मिल का मालिक था मन्नू भाई ।
लाखों-करोड़ों में खेलता था। नामी आदमी था। साठ वर्ष की उम्र थी। सारी जिन्दगी मिल को बनाने और संवारने में लगा दी। अब साथ में दो बेटे भी काम करते थे। सब कुछ संभालते थे।
इस समय मन्नू भाई अपनी मिल के ब्रांच ऑफिस में बैठा काम देख रहा था। पास में ऑफिस के दो कर्मचारी थे। तभी दरवाजा खुला और धड़धड़ाते हुए बद्दी ने अपने साथी के साथ भीतर प्रवेश किया। पल भर के लिये लगा जैसे छोटा-सा भूचाल आया हो, फिर थम गया।
मन्नू भाई और दोनों कर्मचारियों की निगाह उनकी तरफ उठी।
बद्दी खा जाने वाली निगाहों से मन्नू भाई को देख रहा था।
"पहचाना मुझे?" बद्दी सामने पड़ी कुर्सी एक तरफ पटकता हुआ बोला ।
मन्नू भाई ने बद्दी के साथी को देखा फिर सख्त स्वर में कह उठा।
"तेरे साथी को जानता हूं। एक बार आया था। शायद तू...।"
"शायद नहीं, पक्का मैं ही हूँ ।" कहने के साथ ही बद्दी ने मन्नू भाई के पास खड़े दोनों कर्मचारियों को देखा— “तुम दोनों मुर्गी की तरह क्या देख रहे हो, दफा हो जाओ यहां से।"
दोनों ने मन्नू भाई को देखा।
मन्नू भाई के सहमति से सिर हिलाने पर दोनों कर्मचारी बाहर निकल गये।
"बद्दी कहते हैं मुझे, तेरे में इतनी हिम्मत कैसे हो गई कि मेरे आदमी को कहे कि बाहर फिंकवाता हूं।" बद्दी गुर्राया ।
"तुमने दस लाख मंगवाये थे।"
"नहीं हैं तेरे पास। तेल में, खल का तेल मिलाकर बेचता है। मोटा नावां बनाता है और मेरे को देने को दस लाख नहीं तेरे पास।"
"हैं।"
"तो निकाल, पहले क्यों नहीं दिए ?"
“अब भी क्यों दूं?"
बद्दी ने दांत पीसते हुए जेब से रिवॉल्वर निकाली और मन्नू भाई पर तान दी। चेहरे पर क्रूरता ही क्रूरता नाच रही थी। वहशी भाव थे आंखों में।
“अगर तेरी जान दस लाख से ज्यादा कीमती है तो तू दस लाख देगा और अभी देगा।" बद्दी दरिन्दगी भरे स्वर में कह उठा--- "नहीं देगा तो अभी मरेगा और देखता हूं कौन हरामजादा गवाही देगा कि मैंने तुझे गोली मारी है।"
मन्नू भाई के चेहरे पर घबराहट उभरी।
"मारूं गोली।" बद्दी ने ट्रेगर पर दबाव बढ़ाया।
"नहीं।" मन्नू भाई ने फौरन दोनों हाथ आगे किए।
"देता है दस लाख ?"
"ह-हां।"
"साथ में दो लाख जुर्माना, पहले मना करने का।"
"ह-हां, दूंगा।" मन्नू भाई रिवॉल्वर देखकर डर चुका था।
"बारह लाख हुआ।”
"हां।"
"है?"
"एक घंटे में इतजाम हो जायेगा।" मन्नू भाई ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी ।
बद्दी ने दांत भींचकर उसे घूरते हुए रिवॉल्वर वापस जेब में डाली।
यह देखकर मन्नू भाई को राहत-सी मिली।
"सुन, कान खोलकर सुन, मेरा यह आदमी तेरे पास रहेगा। घंटे भर में तू बारह लाख का इन्तजाम करके इसे देगा। समझा क्या ? पुलिस को बुलाना हो तो बुला लेना। मेरा आदमी मना नहीं करेगा। बद्दी है मेरा नाम। पुलिस वाले सलाम ठोकते हैं। तेरे को नहीं ठोकते होंगे, जितना मेरे को ठोकते होंगे। बोत इज्जत करते हैं।" दांत भींचकर कहने के साथ ही उसने अपने साथी से कहा--- "बारह लाख लेकर आना, नहीं दे तो खाली हाथ वापस आ जाना। उसके बाद कल का दिन निकलने से पहले ही इसे रगड़ देंगे।"
"मैं.... मैंने कब देने से मना किया है।" मन्नू भाई जल्दी से कह उठा।
"सुना।" बद्दी ने अपने साथी से कहा--- "यह दे रहा है। मैं कार को बाहर ही छोड़े जा रहा हूं। ताकि बारह लाख को लेकर आने में तेरे को कोई परेशानी न हो।"
“ठीक है।" उसने सिर हिलाया।
बद्दी ने सख्त निगाहों से मन्नू भाई को देखा।
"एक डायरी अलग से मेरे नाम की बना ले और लिख ले, हर दो महीने बाद तूने तीन लाख रुपया मेरे नाम का तैयार रखना है। भूल मत जाना।"
मन्नू भाई सूखे होंठों पर जीभ फेर कर रह गया।
"फिक्र नेई कर। फोकट में नहीं ले रहा। तेरा ध्यान रखूंगा कि कोई तेरे को तंग न करे, तकलीफ होगी तो आधी रात को भी फोन मार कर मेरे को पास में हाजिर करवा ले।" इसके बाद बद्दी ने अपने साथी से कहा--- “अपना खास नम्बर इसे दे आना । वोई, पान वाले का। जिसकी लाइन हमारे पास है।"
"ठीक है।"
बद्दी ने मन्नू भाई के फक्क चेहरे पर निगाह मारी और बाहर निकलता चला गया।
"चल ।" बद्दी का साथी तीखे स्वर में बोला--- "इन्तजाम कर बारह लाख का ।"
■■■
बद्दी बाहर सड़क पर आकर ठिठका। टैक्सी की तलाश में इधर-उधर नजर मारी। अगले ही पल मन-ही-मन जोरों से चौंका।
ठीक सामने सड़क पार, कार से टेक लगाये शांता खड़ी उसे ही देख रही थी।
शरीर पर हल्के प्रिंट का सूती सूट। खूबसूरती से बनाये गये बाल और कुल्हों तक जा रही मोटी चुटिया। लम्बा कद, खूबसूरती की हर सीमा पार करती नजर आ रही थी शांता ।
"साली पर दिल तो कब से आया हुआ है।" बद्दी बड़बड़ा उठा--- "लेकिन इसकी गर्दन से नीचे देखना भी खतरनाक है। लेकिन ये यहां क्या कर रही है। वह भी अकेली, नजरें मुझ पर हैं तो सीधी-सी बात है कि मेरे ही पीछे है। चाहती क्या है, इसके मेरे बीच तो गड़बड़ आज तक नहीं हुई।"
बद्दी की निगाह शांता पर टिकी रही।
शांता भी उसी मुद्रा में खड़ी सीधे-सीधे बद्दी को देखे जा रही थी।
मन-ही-मन फैसला करके बद्दी ने सड़क पार की और शांता के पास जा पहुंचा।
"नमस्कार शांता बहन।" बद्दी कह उठा।
"कैसे हो बद्दी ?" शांता बेहद शांत भाव से मुस्कराई ।
"शांता बहन का हाथ सिर पर हो तो फिर तकलीफ कैसी ।” बद्दी ने हाथ जोड़कर कहा।
"आओ कार में बैठो।" शांता ने कहा और डोर खोलकर ड्राइविंग सीट पर जा बैठी।
बद्दी ने पैनी निगाहों से शांता को देखा।
उसे वहीं खड़ा देखकर शांता की निगाह उसके चेहरे पर जा टिकी।
"क्या हुआ बद्दी ?" शांता मुस्कराई।
“कुछ नहीं।" कहते हुए बद्दी आगे बढ़ा और दूसरी तरफ से कार के भीतर शांता की बगल में आ बैठा।
शांता ने दुपट्टा ठीक किया और कार स्टार्ट करके आगे बढ़ा दी ।
"तुम मेरा ही इन्तजार कर रही थीं?" कुछ पल की खामोशी के बाद बद्दी बोला।
"हां।"
"कब से तुम मेरे पीछे थी?"
"जब से तुम अपने ठिकाने से अपने साथी के साथ निकलकर यहां आये थे।" शांता की आवाज में ठहराव था।
"मुझसे काम था तो बुलवा लिया होता।" बद्दी एकाएक मन-ही-मन सतर्क हो उठा था।
"कोई खास काम नहीं था।" शांता ने मोड़ पर कार घुमाते हुए कहा--- "बहुत जल्दी तरक्की की तुमने।"
"बस हो गई।" बद्दी मुस्कराया--- "यही उम्र होती है कुछ कर गुजरने की।"
"तुम्हारे नाम का सिक्का चलने लगा है अब।"
बद्दी ने शांता के चेहरे पर नजर मारी।
"शांता बहन, तुम्हारे मुकाबले तो बच्चा हूं अभी। तुमसे ही बहुत कुछ सीखना है मुझे।"
"हूं, सिखा दूंगी।" शांता का पूरा ध्यान ड्राइविंग पर था।
बद्दी ने छिपी निगाहों से शांता को देखा।
"खान का फोन आया था मेरे को।"
“खान?" बद्दी चौंका।
"हां।"
"क्यों?" हद से ज्यादा सतर्क हुआ बद्दी ।
"तुम्हारी तारीफ कर रहा था।" शांता का स्वर शांत था।
"तारीफ ?" बद्दी की आंखें सिकुड़ीं ।
"हां, बोल रहा था, बहुत हिम्मत वाला हो गया है बद्दी। अपने इलाके से निकलकर उसके इलाके में हाथ-पांव मार रहा है और उसके मना करने पर भी तुम मान नहीं रहे, ऐसा बोला खान ने ।"
"लेकिन शांता बहन, खान से तुम्हारा क्या वास्ता। तीन साल पहले तो उससे तुम्हारा खासा झगड़ा हुआ था।"
"मेरा खान से कोई वास्ता नहीं ।" शांता ने सिर हिलाया--- "मैं तो बता रही हूं, उसका फोन आया था। उसने क्या कहा ।"
"और भी कुछ कहा?"
"हां।"
कार शहर के उस इलाके की तरफ बढ़ रही थी, जहां न के बराबर ट्रेफिक रहता था।
"क्या ?"
"अपना मून लाइट होटल मेरे को देने को कह रहा था।" शांता का स्वर शांत था ।
"क्यों?" बद्दी पूरी तरह सतर्क हो चुका था।
"खान मेरे को बोला, बद्दी को साफ कर दूं।"
बद्दी का हाथ रिवॉल्वर वाली जेब पर जा टिका।
"तो खान ने तुम्हें मेरी जान लेने को भेजा है।" बद्दी के स्वर में सख्ती आ गई।
"भेजा नहीं, कहा है।" शांता मुस्कराई।
बद्दी की निगाह शांता पर जा टिकी।
"और तुम मान गई।"
"नहीं, अभी तो सोच रही हूं, तभी तो तुमसे बात कर रही हूं। मून लाइट होटल का धंधा अच्छा चलता है। हर रात बहुत मोटी कमाई होती है।" शांता ने मुस्कराकर बद्दी पर नजर मारी।
बद्दी को खतरा नजर आया। हाथ जेब में घुसा और रिवॉल्वर गिर्द लिपट गया। अब सिर्फ रिवॉल्वर सहित हाथ बाहर निकालने की जरूरत थी।
"गलत बात है बद्दी। मैं तुमसे बात कर रही हूं और तुम रिवॉल्वर तक जा पहुंचे।"
"तुम्हारी बात से डर लगने लगा है।" बद्दी सफाई देने वाले ढंग में कह उठा ।
"हाथ बाहर निकाल लो। रिवॉल्वर को जेब में ही रहने देना। तुम्हारी हरकत मुझे अच्छी नहीं लगी।"
न चाहते हुए भी बद्दी ने अपना हाथ रिवॉल्वर पर से हटाकर बाहर निकाल लिया।
"वक्त क्या हुआ है?"
बद्दी ने कलाई पर बंधी घड़ी देखी।
"सवा बारह बजे हैं।"
शांता ने एक हाथ से स्टेयरिंग थामा और दूसरे हाथ से डेशबोर्ड में पड़ा मोबाइल फोन निकाला और ऑन करके नम्बर दबाने लगी।
बद्दी शांता की हर हरकत के प्रति सतर्क था ।
नम्बर मिला, शांता ने बाती की।
"मां, काम हुआ? एक ही बार में पूरी बात बता।" शांता फोन पर बोली।
"खान का आदमी पांच मिनट पहले ही आया था। होटल मून लाइट तेरे नाम कर दिया है। पेपर्स ठीक हैं। मैंने देख लिए हैं। तेरे बाप ने भी कागजातों को चैक कर लिया है।"
शांता ने फोन बंद करके उसे वापस डैशबोर्ड में रखा।
बद्दी की निगाह बराबर शांता पर थी।
"बद्दी खान ने एक और काम कर दिया है।" शांता का स्वर शांत था।
"क्या?" बद्दी को भारी तौर पर गड़बड़ लग रही थी।
"खान ने अपना मून लाइट होटल मेरे नाम करके कागजात मेरी मां के पास पहुंचा दिए हैं।"
बद्दी ने फुर्ती के साथ रिवॉल्वर निकालनी चाही।
शांता ने उससे भी फूर्ती से उसकी कलाई को पकड़कर दबा दिया। बद्दी रिवॉल्वर नहीं निकाल सका। शांता ने कार को सड़क के किनारे करके रोकी और इंजन बंद कर दिया। फिर बद्दी को देखा ।
"रिवॉल्वर निकाल रहा था बद्दी।" शांता की आवाज में सर्द भाव थे।
"तुमने मेरी जान लेने का ठेका लिया है।" बद्दी दांत भींचकर कह उठा--- "मेरी जान लेने को, खान ने तुम्हें कहा है। तभी उसने अपना मून लाइट होटल तुम्हारे नाम किया है। मेरी हत्या की कीमत ।"
उसकी कलाई थामे, शांता उसे देखती रही।
"शांता बहन, तुम्हारी-मेरी कभी कोई दुश्मनी नहीं रही। मैं न तो कभी तुम्हारे रास्ते में आया और ना ही कभी भविष्य में मेरी ऐसी सोच है। तुम कितनी ताकतवर हो, मैं जानता हूं। सच पूछो तो तुम्हारी इज्जत करता हूं। ऐसे में तुम खुद ही मेरी जान का ठेका ले लो तो बात गलत है।"
"अपनी रिवॉल्वर मुझे दो।" शांता का स्वर सपाट था। उसने बद्दी की कलाई सख्ती से दबा रखी थी।
"मैं.....!" बद्दी ने कहना चाहा।
“बद्दी मैं रिवॉल्वर मांग रही हूँ।" कहने के साथ ही शांता ने कार की सीट के नीचे से रिवॉल्वर निकाल ली।
बद्दी ने उसके हाथ में दबी रिवॉल्वर देखी। उसके चेहरे के भाव देखे। फिर जेब में हाथ डालकर अपनी रिवॉल्वर निकाली तो शांता ने पहले जैसे स्वर में कहा।
"इसे फुट फ्लोर पर गिरा दो ।"
बद्दी ने रिवॉल्वर अपने पैरों के पास गिरा दी।
शांता ने उसकी कलाई छोड़ी। परन्तु रिवॉल्वर अपने हाथ में दबाये रखी।
"तुमने कहा कि तुम्हारी हत्या का ठेका लेकर मैंने गलत काम किया।” शांता सपाट स्वर में कह उठी--- "सब कुछ ठीक है। मैंने कोई गलत काम नहीं किया। यही हमारा धंधा है। यही हम करते हैं। अगर तुम्हें मेरी हत्या करने के जायज से भी ज्यादा नाजायज रकम मिलती तो तुम मेरी जान लेने की कोशिश जरूर करते।"
बद्दी की आंखों में घबराहट झलक उठी।
"शांता बहन ।" बद्दी ने कहना चाहा।
"कार से बाहर निकलो।"
"शांता बहन, मैं...।"
“बद्दी मैं अपनी कार खराब नहीं करना चाहती।" शांता की आवाज में मौत के भाव थे--- “कार से बाहर निकल जा फिर गोली चलाऊंगी। बच सकता है तो बच जाना। फिर तेरी जान नहीं लूंगी।"
बद्दी ने शांता बहन की आंखों में झांका।
जहां मौत-ही-मौत नजर आ रही थी। वह समझ चुका था कि शांता पीछे हटने वाली नहीं। कार से निकलकर उसने जान बचाने का फैसला किया। यह सुनसान सड़क थी। सड़क के दोनों तरफ खाली जगह थी। जहां पेड़-झाड़ियां या बड़े-बड़े पहाड़ी पत्थर पड़े थे। अगर कार से निकलकर, पेड़ों की तरफ भागता है तो जान बच सकती है। कार उस तरफ ज्यादा आगे नहीं जा सकती।
बद्दी ने जल्दी से कार का दरवाजा खोला और बाहर निकलते ही सड़क छोड़कर पेड़ों की तरफ भागा। शांता दो पल शांत निगाहों से उसे भागते देखती रही। उसका खूबसूरत चेहरा सपाट हुआ पड़ा था। अगले ही पल वह दरवाजा खोलकर बाहर निकली और बद्दी के पीछे दौड़ी।
बद्दी पूरी ताकत से दौड़े जा रहा था। दौड़ते-दौड़ते उसने पीछे देखा तो शांता को आता पाकर वह हड़बड़ा उठा। तभी पैर को जमीन में गड़े पत्थर से ठोकर लगी। वह नीचे गिरकर लुढ़ता चला गया। फिर संभलते ही उठा और तेजी से भागा।
शांता के पांव में जूते थे। वह किसी मंजे हुए खिलाड़ी की तरह दौड़ रही थी। भागने की वजह से छातियों पर पड़ा दुपट्टा गले तक आ पहुंचा था।
बद्दी के नीचे गिरने की वजह से उनके बीच का फासला काफी कम हो गया था।
शांता को पास पहुंचा देखकर बद्दी के सिर पर दहशत सवार हो चुकी थी। वह तेज से तेज दौड़ने की चेष्टा कर रहा था। परन्तु शांता हर पल पास पहुंचती जा रही थी।
शांता ठीक उसके सिर पर पहुंची और अगले ही क्षण उसने हाथ बढ़ाकर बद्दी की कमीज का कॉलर पकड़ लिया। बद्दी को तीव्र झटका लगा। वह गिरते-गिरते बचा।
दोनों ठिठक गये।
दोनों ही हांफ रहे थे।
शांता ने बद्दी की कमीज का कॉलर नहीं छोड़ा।
हांफने के दौरान ही बद्दी फुर्ती से पलटा और जोरदार घूंसा शांता के पेट में मारा। शांता पीड़ा से दोहरी हो गई। कमीज का कॉलर छूट गया। दोनों हाथों से पेट थामते हुए वह झुकती चली गई । यकीनन अगर इस वक्त बद्दी के पास रिवॉल्वर होता तो वह शांता को भून देता।
बद्दी ने घूंसा मारने के साथ ही भागना चाहा कि पेट की पीड़ा की परवाह न करते हुए शांता ने अपनी टांग, उसके पैरों में फंसा दी।
बद्दी छाती के बल नीचे जा गिरा।
शांता फौरन सीधी हुई। घूंसे की वजह से पेट में उठती पीड़ा के कारण, उसका चेहरा लाल सुर्ख हो उठा था। आंखों में मौत के सर्द भाव नाच रहे थे। वह नीचे गिरे बद्दी के पास पहुंची।
बद्दी दहशत और खौफ में डूबा हुआ था। किसी के दिमाग में डर पैदा करने के लिये शांता बहन का नाम ही काफी था और वही शांता बहन इस वक्त मौत बनी उसके सामने थी।
"उठ बद्दी, बहुत हो गया।" शांता दांत भींचकर कह उठी।
"मुझे मत मारो शांता बहन, मैं खान के इलाके को कभी...।"
शांता नीचे झुकी, मुट्ठी में बद्दी के बाल पकड़कर खींचते हुए उसे पैरों के बल पर खड़ा किया। बद्दी का चेहरा भय से बिगड़कर अजीब-सा हो रहा था। दांत भींचे शांता, सिर के बालों को थामे उसे खींचते हुए पास के पेड़ के पास ले गई। तने से उसकी पीठ सटा दी।
"शांता बहन, मुझे... ।"
"बद्दी ।" शांता ठण्डी आवाज में कह उठी--- “खान बोला था, मेरे को, तेरे को ऐसे मरना चाहिये कि तेरा वो चहेता पुलिस वाला यह न सोच सके कि तेरी मौत के पीछे खान का हाथ है। अगर तू रिवॉल्वर की गोली या चाकू से मरता तो सोचने वाला सोच सकता था कि शायद तेरी मौत में खान का हाथ हो। लेकिन अब तू ऐसे मरेगा कि देखने वाला सोचेगा, यूं ही किसी से तेरा पंगा हो गया और तू रगड़ा गया।"
"शांता बहन, मुझे मत मारो, मैं।"
तभी शांता ने दांत भींचकर, मुट्ठी में जकड़े सिर के बालों को झटका देकर, जोर से उसका सिर पेड़ के तने से टकराया। बद्दी पीड़ा से चीख उठा। खुद को छुड़ाने की चेष्टा की।
और दूसरी बार शांता ने उसका सिर पूरी ताकत के साथ तने पर दे मारा। बद्दी के होंठों से चीख निकली। फिर धीमी पड़ती चली गई। उसके बाद शांता रुकी नहीं चार-पांच बार ऐसा और किया।
बद्दी का सिर खील-खील हो गया था। पेड़ के तने पर भी खून चमकने लगा था। बद्दी के चेहरे और गले के पीछे खून की लकीरें बहनी शुरू हो गई थी। वह मर चुका था। शांता ने मुट्ठी में जकड़े उसके बाल छोड़े तो बेजान हुआ बद्दी का शरीर नीचे जा गिरा।
शांता इस वक्त वहशी शेरनी की तरह लग रही थी, जो ताजा-ताजा शिकार करके हटी हो। चेहरे का जर्रा-जर्रा भयानक होकर चमक रहा था। परन्तु उसकी खूबसूरती में कमी नहीं आई थी। उसने अपने हाथ को देखा, जहां कई जगह खून नजर आ रहा था। उसने बद्दी की कमीज से ही खून वाला हाथ साफ किया फिर अपने कपड़ों पर निगाह मारी। जहां कहीं भी खून का छींटा नहीं था। उसने एक बार भी बद्दी के शरीर पर नजर नहीं मारी और वापस पलट गई।
शांता कार में बैठी। चेहरे पर सामान्य भाव थे। बड़ी खूबसूरत नजर आ रही थी। दुपट्टा ठीक ढंग से छातियों पर ले रखा था। वह किसी अच्छे घर की शरीफ युवती लग रही थी। उसने डैशबोर्ड से मोबाइल फोन निकाला और खान का नम्बर मिलाकर बात की।
"शांता बहन ।” उसकी आवाज सुनते ही खान का स्वर कानों में पड़ा--- "होटल मून लाइट तेरे नाम करा दिया है। पक्का काम कराया है। कागज तेरी मां के पास पहुंच गये हैं। मैंने अपनी जुबान पूरी की, एक बजने वाला है। तुमने कहा था कि बद्दी खत्म हो जायेगा। अपने आदमी भेजे कि नहीं?"
"तेरा काम हो गया है खान।"
"हो गया, बद्दी खलास ?" खान की खुशी से भरी आवाज तेज हो गई।
"हां।"
"कब-कहां-कैसे?"
“खान, तेरा काम हो गया, बाकी बातें बेकार की हैं। सारा काम गुपचुप और इस ढंग से हुआ है कि कोई नहीं कह सकता कि तेरे इशारे पर हुआ है। जैसा तू चाहता था, वैसा ही हुआ।"
"ओह, शांता बहन, तूने तो कमाल कर...।"
“खान!” शांता की आवाज शांत थी--- “मेरी सलाह पल्ले बांध ले । सबसे पहले तो पुलिस को अपना बना । बिना यह किए तू लम्बा नहीं चल सकता। बद्दी जैसा ही कोई तेरे को मार देगा।"
"समझा, समझा...।"
"मून लाइट होटल से अपने बंदे हटा ले। वहां मेरे लोग पहुंच रहे हैं।" कहने के साथ शांता ने फोन बंद किया और डैशबोर्ड में रखा और कार स्टार्ट करके आगे बढ़ा दी।
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