वह कैन्टीन इरविन हस्पताल के कम्पाउंड के भीतर मुख्य इमारत के पहलू में बनी एक एकमंजिला इमारत में थी जिसकी एक खिड़की के पास की टेबल पर बैठा गुलशन चाय चुसक रहा था और अपने दो साथियों के वहां पहुंचने का इन्तजार कर रहा था। खिड़की में से उसे हस्पताल के आगे से गुजरता जवाहरलाल नेहरू मार्ग, उससे आगे का पार्क, फिर आसिफ अली रोड और फिर आसिफ अली रोड की शानदार बहुमंजिला इमारतें दिखाई दे रही थीं।
उसके साथियों को तब तक वहां पहुंच जाना चाहिए था लेकिन उनके न पहुंचा होने से उसे कोई शिकायत नहीं थी। इन्तजार का रिश्‍ता वक्त की बरबादी से होता था और वक्त की उन दिनों उसे कोई कमी नहीं थी। एक महीना पहले तक वह अमरीकी दूतावास में ड्राइवर था लेकिन अब उसकी वह नौकरी छूट चुकी थी। उसे नौकरी से निकाला जा चुका था। दूतावास से बीयर के डिब्बे चुराता वह रंगे हाथों पकड़ा गया था और उसे फौरन, खड़े पैर, डिसमिस कर दिया गया था।
निहायत मामूली, वक्ती लालच में पड़कर वह अपनी लगी लगाई नौकरी से हाथ धो बैठा था।
वह एक लगभग अट्ठाइस साल का, बलिष्ठ शरीर वाला, मुश्‍किल से मैट्रिक पास युवक था। उसके नयन-नक्श बड़े स्थूल थे और सिर के बाल घने और घुंघराले थे। दूतावास की ड्राइवर की नौकरी में तनखाह और ओवरटाइम मिलाकर उसे हर मास हजार रुपये से ऊपर मिलते थे; जिससे उसका और उसकी बीवी चन्द्रा का गुजारा बाखूबी चल जाता था। ऊपर से शानदार वर्दी मिलती थी और कई ड्यूटी-फ्री चीजों की खरीद की सुविधा भी उसे उपलब्ध थी। उसकी अक्ल ही मारी गई थी जो उसने बीयर के चार डिब्बों जैसी हकीर चीज का लालच किया था।
बहरहाल अब वह बेरोजगार था। देर सबेर ड्राइवर की नौकरी तो उसे मिल ही जाती लेकिन दूतावास की नौकरी जैसी ठाठ की नौकरी मिलने का तो अब सवाल ही पैदा नहीं होता था।
अपने जिन दो दोस्तों का वह इन्तजार कर रहा था, आज की तारीख में वे भी उसी की तरह बेकार थे और उनके सहयोग से वह एक ऐसी हरकत को अन्जाम देने के ख्वाब देख रहा था; जिसकी कामयाबी उन्हें मालामाल कर सकती थी और रुपये-पैसे की हाय-हाय से उन्हें हमेशा के लिए निजात दिलवा सकती थी।
इस सिलसिले में अपने दोस्तों के खयालात वह पहले ही भांप चुका था। उसे पूरा विश्‍वास था कि वे उसका साथ देने से इनकार नहीं करने वाले थे।
आज वह उन्हें समझाने वाला था कि असल में उन लोगों ने क्या करना था और जो कुछ उन्होंने करना था, उसमें कितना माल था और कितना जोखिम था।
तभी उसके दोनों साथियों ने रेस्टोरेन्ट में कदम रखा।
वे दोनों उससे उम्र में छोटे थे और उसी की तरह बेरोजगार थे। फर्क सिर्फ इतना था कि वह नौकरी से निकाल दिया जाने की वजह से बेरोजगार था और उन दोनों को कभी कोई पक्की, पायेदार नौकरी हासिल हुई ही नहीं थी।
उनमें से एक का नाम जगदीप था।
जगदीप लगभग छब्बीस साल का निहायत खूबसूरत नौजवान था। बचपन से ही उसे खुशफहमी थी कि वह फिल्म स्टार बन सकता था, इसलिए उसने किसी काम धन्धे के काबिल खुद को बनाने की कभी कोई कोशिश ही नहीं की थी। बीस साल की उम्र में वह अपने बाप का काफी नावां-पत्ता हथियाकर घर से भाग गया था और फिल्म स्टार बनने के लालच में मुम्बई पहुंच गया था। पूरे दो साल उसने मुम्बई में लगातार धक्के खाए थे लेकिन वह फिल्म स्टार तो क्या, एक्स्ट्रा भी नहीं बन सका था। फिर जेब का माल पानी जब मुकम्मल खत्म हो गया था तो उसे अपना घर ही वह इकलौती जगह दिखाई दी थी जहां कि उसे पनाह हासिल हो सकती थी।
पिटा-सा मुंह लेकर वह दिल्ली वापिस लौट आया था।
अपने बाप की वह इकलौती औलाद था। मां उसकी कब की मर चुकी थी, इसलिए उसके बाप ने दो साल बाद घर लौटे अपने बुढ़ापे के इकलौते सहारे के सारे गुनाह बख्श दिए थे।
लौट के बुद्धू घर को आए।
आज उसे दिल्ली लौटे दो साल हो चुके थे लेकिन उसके इलाके के उसके हमउम्र लड़के आज भी उसका मजाक उड़ाते थे कि गया था साला अमिताभ बच्चन बनने, बन उसका डुप्लीकेट भी न सका।
जगदीप बेचारा खून का घूंट पीकर रह जाता था।
उसका बाप तालों में चाबियां लगाने का मामूली काम करता था, कैसी भी खोई हुई चाबी का डुप्लीकेट तैयार कर देने में उसे महारत हासिल थी। अपना हुनर उसने जगदीप को भी सिखाया था जो कि जगदीप ने बड़े अनिच्छापूर्ण ढंग से इसीलिए सीख लिया था, क्योंकि करने को और कोई काम नहीं था। कई बार वह अपने बाप की दुकान पर भी जाता था लेकिन उस हकीर काम में उसका मन कतई नहीं था।
अलबत्ता गुलशन के सामने वह अक्सर डींग हांका करता था कि सेफ का हो या अलमारी का, लॉकर का हो या स्ट्रांगरूम का, वह कैसा भी ताला बड़ी सहूलियत से खोल सकता था।
जगदीप की उस काबिलियत पर गुलशन की योजना का मुकम्मल दारोमदार था।
दूसरे का नाम सूरज था।
सूरज छः फुट से भी निकलते कद का लम्बा-तड़ंगा जाट था जो कि मास्टर चंदगीराम की शागिर्दी में पहलवानी कर चुका था। कभी वह पहलवानी के दम पर इंग्लैंड-अमरीका की सैर के और सोने-चांदी के बेशुमार तमगे जीतने के सपने देखा करता था, लेकिन जब वह दिल्ली के दंगल में शुरू के ही राउण्डों में चार साल लगातार हार चुका तो उसके सारे सपने टूट गए। उम्र में वह जगदीप जितना ही बड़ा था लेकिन पहलवानी के चक्कर में उसने इतना ज्यादा वक्त बरबाद कर दिया था कि हुनर वह कोई जगदीप जितना भी नहीं सीख सका था। रहने वाला वह हिसार का था लेकिन नाकामयाबी की कालिख मुंह पर पोते वह घर भी तो नहीं जाना चाहता था।
उस घड़ी वे तीनों बेरोजगार, पैसे से लाचार, वक्त की मार खाये हुए, अन्धेरे भविष्य से त्रस्त, एक ही किश्‍ती के सवार नौजवान थे।
वे दोनों गुलशन के साथ आ बैठे।
कैन्टीन उस वक्त लगभग खाली थी।
“क्या किस्सा है, गुरु?”—जगदीप बोला।
“और आज बात साफ-साफ हो जाए।”—सूरज बोला—“पहेलियां बहुत बुझा चुके हो।”
गुलशन मुस्कराया। उसने दोनों के लिए चाय मंगवाई।
“सुनो।”—अन्त में वह बोला—“मेरे दिमाग में एक ऐसी स्कीम है जिससे हम इतना माल पीट सकते हैं कि जिन्दगी भर हमें कभी रुपये पैसे का तोड़ा नहीं सतायेगा।”
“क्या स्कीम है?”—जगदीप बोला
“क्या करना होगा?”—सूरज बोला।
“चोरी।”—गुलशन धीरे बोला।
“धत् तेरे की।”—सूरज निराश स्वर में बोला।
“खोदा पहाड़ और निकला चूहा।”—जगदीप भी निराश स्वर में बोला—“गुरु, सस्पेंस तो इतना फैलाया और बात चोरी की की।”
“यह किसी मामूली चोरी की बात नहीं।”—गुलशन बोला—“यह एक बिल्कुल सेफ चोरी की बात है, इसमें पकड़े जाने का अन्देशा कतई नहीं और यह इकलौती चोरी हमें इतना मालामाल कर सकती है कि बाकी जिन्दगी हमें कभी कुछ नहीं करना पड़ेगा। चोरी भी नहीं।”
जगदीप और सूरज मुंह से कुछ न बोले। उन्होंने सन्दिग्ध भाव से एक दूसरे की तरफ देखा।
“यह कोई चिड़िया की बीट सहेजने वाला काम नहीं”—गुलशन बोला—“जिसका प्रस्ताव कि मैं तुम्हारे सामने रखना चाहता हूं। यह एक ऐसा काम है जिसमें कम-से-कम बीस-बीस लाख रुपये की तुम्हारी हिस्सेदारी की मैं गारन्टी करता हूं।”
बीस लाख का नाम सुनते ही दोनों की आंखें तुरन्त लालच से चमक उठीं।
“करना क्या होगा?”—जगदीप बोला।
“चोरी का शिकार कौन होगा?”—सूरज बोला।
“वो सामने आसिफ अली रोड देख रहे हो?”—गुलशन खिड़की से बाहर इशारा करता बोला।
दोनों की निगाह खिड़की से बाहर की तरफ उठ गई। दोनों ने सहमति में सिर हिलाया।
“वह डिलाइट सिनेमा और ब्रॉडवे होटल के बीच की उस इमारत को देख रहे हो जो आस पास की इमारतों में सबसे ऊंची है?”
दोनों ने फिर सहमति में सिर हिलाया। वह छ: मंजिला अत्याधुनिक इमारत उन्हें साफ दिखाई दे रही थी।
“उस इमारत की मालकिन का नाम राजेश्‍वरी देवी है। बहुत खानदानी, बहुत रईस औरत है। कभी किसी रियासत की राजकुमारी हुआ करती थी। मोटा प्रिवी पर्स मिला करता था उसे। यह इमारत उसी की मिल्कियत है। पांच मंजिलों में बड़ी बड़ी कम्पनियों के दफ्तर हैं, जिनसे कि उसे मोटा किराया हासिल होता है। छठी, सबसे ऊपरली मंजिल पर वह खुद रहती है। अकेली। वैसे नौकर उसके पास तीन चार हैं लेकिन वे सब सुबह आते हैं शाम को चले जाते हैं। केवल एक ड्राइवर की सेवा की जरूरत उसे देर-सवेर भी पड़ती है इसलिए वह चौबीस घण्टे की मुलाजमत में है। लेकिन वह ड्राइवर इमारत की बेसमेंट में रहता है। कहने का मतलब यह है कि राजेश्‍वरी देवी अपने उस फ्लैट में, जो कि विलायती जुबान में पैन्थाउस कहलाता है, अकेली रहती है। और जब वह भी कहीं गई हुई हो तो फ्लैट में कोई भी नहीं होता।”
“तुम उस औरत के बारे में इतना कुछ कैसे जानते हो?”—जगदीप उत्सुक स्वर में बोला।
“वह कभी किसी अंग्रेजी डिप्लोमैट की बीवी हुआ करती थी। उसके पति की तो मौत हो चुकी है लेकिन पति का अमरीकी दूतावास में इतना बुलन्द रुतबा था कि आज भी अगर वहां कोई समारोह वगैरह होता है तो राजेश्‍वरी देवी को वहां जरूर आमन्त्रित किया जाता है। वह लाखों करोड़ों रुपयों के जेवरों से लदी-फंदी अपनी पूरी शानोशौकत के साथ वहां जाती है और आधी रात से पहले वहां से कभी नहीं लौटती। जब लौटती है तो नशे में धुत्त होती है। मैंने उसे दूतावास के समारोहों में अक्सर देखा है। हर बार वह जेवरों का नया सैट पहने होती है जिससे साबित होता है कि उसके पास बेतहाशा जेवर हैं। एक ‘फेथ’ नाम का हीरा है उसके पास, जिसे वह हमेशा पहन कर जाती है। वह आकार में इतना बड़ा है कि आंखों से देख कर विश्‍वास नहीं हीता कि इतना बड़ा हीरा भी दुनिया में हो सकता है। वह अकेला हीरा ही सुना है कि पचास साठ लाख रुपए का होगा। इससे ज्यादा कीमत का भी हो तो कोई बड़ी बात नहीं। और वे जेवर वह बैंक के किसी लॉकर वगैरह में नहीं, अपने फ्लैट में ही रखती है।”
“तुम्हें कैसे मालूम?”
“एक बार उसका ड्राइवर एकाएक बीमार पड़ गया था। उसको दूतावास लिवा लाने के लिए गाड़ी लेकर मुझे वहां भेजा गया था। बाद में आधी रात के बाद मैं ही उसे यहां छोड़ने आया था। वह नशे में धुत्त थी इसलिए मैं उसे ऊपर फ्लैट के भीतर तक छोड़कर गया था। उसके फ्लैट के बैडरूम में एक सेफ मौजूद थी, जो इसे उसकी लापरवाही ही कहिए कि उसने मेरे सामने खोली थी और अपने शरीर के जेवर उतारकर मेरे सामने भीतर सेफ में रखे थे। भाई लोगो, वह सेफ जेवरों के डिब्बों से अटी पड़ी थी। फिर तभी उसे अहसास हो गया था कि मैं अभी भी वहीं था तो उसने मुझे डांट कर वहां से भगा दिया था।”
“ओह!”
“लेकिन जब तक मैं वहां रहा था, तब तक मैं फ्लैट का काफी सारा जुगराफिया समझ गया था। फ्लैट की बाल्कनी का दरवाजा मैंने पाया था कि खुला था। आजकल के मौसम के लिहाज से अभी गर्म मौसम के लिहाज से बाल्कनी का दरवाजा वह खुला रखती हो, यह कोई बड़ी बात नहीं। वह बाल्कनी यहीं से दिखाई दे रही है। अगर तुम गौर से देखो तो पाओगे कि बाल्कनी का शीशे का दरवाजा अभी भी खुला है। फ्लैट सैंट्रली एयरकन्डीशन्ड नहीं है। उसके केवल दो कमरों में, दोनों ही बैडरूम हैं, एयरकंडीशनर लगे हुए हैं। इसलिए जहां तक एयरकंडीशनर द्वारा फ्लैट के टैम्परेचर कन्ट्रोल का सवाल है; बाल्कनी के दरवाजे के खुले या बन्द होने से कोई फर्क नहीं पड़ता। शायद औरत को ताजी हवा की भी कद्र है और इसीलिए वह इस मौसम में बाल्कनी का दरवाजा खुला रखती है। वैसे भी उसे यह अन्देशा नहीं है कि कोई सड़क से छ: मंजिल ऊपर स्थित बाल्कनी तक पहुंच सकता है।”
“हूं!”—सूरज बोला।
“लेकिन यह काम नामुमकिन नहीं।”—गुलशन बड़े आशापूर्ण स्वर से बोला।
“तुम बाल्कनी के रास्ते उसके फ्लैट में घुसने की तो नहीं सोच रहे हो, गुरु?”—जगदीप नेत्र फैलाकर बोला।
“मैं बिल्कुल यही सोच रहा हूं।”—गुलशन की निगाह फिर खिड़की के पार उस इमारत की तरफ भटक गई—“दोस्तो, यह काम हो सकता है। जरूरत होगी थोड़े हौसले की, थोड़ी सावधानी की। लेकिन मेरी योजना की कामयाबी का असली दरोमदार इस बात पर है कि क्या तुम वह सेफ खोल लोगे?”
“उस सेफ में कोई इलैक्ट्रॉनिक अड़ंगा तो नहीं?”—जगदीप ने पूछा—“कोई पुश बटन डायल वगैरह तो नहीं?”
“नहीं।”—गुलशन बोला—“ऐसा कुछ नहीं है उसमें। वह एक सीधी-सादी लेकिन सूरत से बहुत मजबूत लगने वाली सेफ है। मैंने उस औरत को उसमें ये...”—उसने हाथ के इशारे से चाबी की लम्बाई अपनी कोहनी तक लम्बी बताई—“लम्बी चाबी लगाते देखा था।”
“चाबी की लम्बाई का सेफ के ताले की मजबूती से कोई रिश्‍ता नहीं होता।”
“तुम उसे खोल लोगे?”
“शर्तिया खोल लूंगा। लेकिन वक्त दरकार होगा।”
“कितना?”
“कम-से-कम नहीं तो एक घण्टा।”
“तुम्हें एक घण्टे से बहुत ज्यादा वक्त मिलेगा। राजेश्‍वरी देवी आधी रात से पहले कभी वापिस नहीं लौटती। नौ बजे यह इलाका सुनसान हो जाता है। दस बजे अगर हम बाल्कनी में पहुंचने की कोशिश शुरू करें तो बड़ी हद पन्द्रह मिनट में हम ऊपर पहुंच जायेगे।”
“हम ऊपर सीढ़ियों या लिफ्ट के रास्ते क्यों नहीं जा सकते?”—सूरज ने पूछा।
“जा सकते हैं।”—गुलशन बोला—“नीचे दरबान होता है लेकिन फिर भी जा सकते हैं। लेकिन उस सूरत में हमें फ्लैट के मुख्य द्वार का ताला भी खोलना होगा। गलियारे में खड़े होकर। तब कोई एकाएक ऊपर से आ गया तो हम अपनी उस हरकत की या अपनी वहां मौजूदगी की कोई सफाई नहीं दे पाएंगे। और फिर उस ताले को खोलने में जगदीप पता नहीं कितना वक्त बरबाद करे। अगर उसने सारा वक्त बाहरला दरवाजा खोलने में ही लगा दिया तो वह सेफ का दरवाजा कब खोलेगा?”
“इस बात की गारन्टी है कि बाल्कनी का दरवाजा खुला होगा?”
“हां। मैंने खूब ध्यान दिया है इस तरफ। बाल्कनी का दरवाजा मैंने कभी भी बन्द नहीं देखा है। अगर वह नहीं भी खुला होगा तो हम उसे तोड़ देंगे। मुझे पूरा विश्‍वास है कि छठी मंजिल पर शीशा टूटने की आवाज नीचे की मंजिलों पर नहीं सुनाई देगी और आसपास की कोई इमारत इतना ऊंची है ही नहीं।”
वे सोचने लगे।
“ऐसा मौका जिन्दगी में बार-बार नहीं आने वाला, दोस्तो।”—गुलशन दबे स्वर में बोला—“उस सेफ में से हमें करोड़ों रुपये के जेवरात हासिल हो सकते हैं जो हमने अगर कौड़ियों के मोल भी बेचे तो हमें लाखों रुपये मिलेंगे। हम तीनों की जिन्दगी का वह पहला और आखिरी अपराध होगा। एक बार मोटा माल हाथ में आ जाने के बाद बाकी की जिन्दगी हमें कोई गलत काम करने की जरूरत नहीं होगी। इसलिए अगर इसमें कोई खतरा है भी तो एक ही बार का है। वह खतरा हम उठा सकते हैं। हम अगर भरपूर सावधानी बरतें तो वह खतरा खतरा नहीं होगा।”
“फिर भी अगर पकड़े गए तो?”—जगदीप सशंक स्वर में बोला।
“तो बहुत बुरा होगा।”—गुलशन बोला—“जेल की हवा खानी पड़ जाएगी। मैं तुम लोगों से झूठ नहीं बोलना चाहता। न ही मैं तुम्हें कोई ऐसे सब्जबाग दिखाना चाहता हूं जिनकी वजह से तुम लोभ में पड़कर अन्धाधुन्ध कोई काम करो। खतरा किस काम में नहीं होता! खतरा हर काम में होता है। तुम इस कैंटीन से निकलकर हस्पताल के सामने की सड़क पार करने की कोशिश करो तो क्या उसमें खतरा नहीं है। हो सकता है कि अपनी कोई गलती न होने के बावजूद तुम किसी ट्रक के नीचे आकर कुचले जाओ। खतरा तो दिल्ली जैसे शहर में सांस लेने में, पानी का एक गिलास पीने में भी है। लेकिन खतरे का हल होता है सावधानी। सावधानी बरती जाए तो कैसे भी खतरे को टाला जा सकता है।”
जगदीप चुप हो गया।
“इमारत के बाहर से ऊपर चढ़ते हम देख नहीं लिए जायेगे?”—सूरज बोला।
“आजकल अन्धेरी रातें हैं। हमने पिछवाड़े की तरफ से ऊपर चढ़ना है। पिछवाड़े का रास्ता दस बजे तक सुनसान हो जाता है। उधर रोशनी भी ज्यादा नहीं होती। जितनी रोशनी होती है, वह पहली मंजिल से ऊपर नहीं पहुंच पाती। अगर हम काले कपड़े पहने हुए होंगे तो हमें कोई नहीं देख सकेगा।”
“यूं छ: मंजिल ऊपर तक हम चढ़ सकेंगे?”
“जरूर चढ़ सकेंगे। सबूत के तौर पर सबसे पहले ऊपर मैं चढ़ूंगा। अगर मैं रास्ते में ही गिर गया या किसी और वजह से ऊपर न पहुंच सका तो मेरे अंजाम की परवाह किए बिना तुम वहां से खिसक जाना। अगर मैं कामयाब हो गया तो तुम भी हिम्मत कर लेना।”
“गुरु।”—सूरज निश्‍चयपूर्ण स्वर में बोला—“ऐसा जो काम तुम कर सकते हो, वह मैं तुमसे बेहतर कर सकता हूं।”
“मैं भी।”—जगदीप बोला लेकिन उसके स्वर में हिचकिचाहट का पुट था।
“फिर तो बात ही क्या है!”—गुलशन बोला—“फिर तो बात सिर्फ यह रह गई कि तुम सेफ का ताला खोल सकते हो या नहीं!”
“शर्तिया खोल सकता हूं।”—जगदीप बोला—“चाबी से खुलने वाली कोई सेफ दुनिया में पैदा नहीं हुई जो मैं नहीं खोल सकता।”
“फिर तो समझो कि मार लिया पापड़ वाले को।”
“लेकिन यूं ताला खोलने की जरूरत क्या है?”—सूरज बोला।
“क्या मतलब?”—गुलशन तनिक सकपकाए स्वर में बोला।
“हम उस औरत का टेंटूवा दबाकर उससे सेफ की चाबी ही क्यों नहीं हासिल कर सकते?”
“नहीं।”—गुलशन इनकार में सिर हिलाता हुआ बोला—“मेरे जेहन में जो स्कीम है, वह पूरी खामोशी से अंजाम दी जाने वाली एक चोरी की है न कि किसी फिल्मी स्टाइल की डकैती की। मैं यह तो चाहता नहीं कि हमें उस औरत के सामने पड़ना पड़े। उससे चाबी हथियाने के लिये हमें जबरन उसके फ्लैट में घुसना पड़ेगा जो कि वैसे भी सम्भव नहीं। दिन में वहां नौकर-चाकर होते हैं और रात को किसी मुनासिब शिनाख्त के बिना वह फ्लैट का दरवाजा किसी को नहीं खोलती। उसकी फ्लैट में मौजूदगी के दौरान तो बाल्कनी के रास्ते उसके फ्लैट में घुसने की मैं कल्पना भी नहीं कर सकता। वह शोर मचा सकती है; हथियारबन्द होने की सूरत में वह हमें गोली मार सकती है और अगर फ्लैट में उसके साथ और लोग मौजूद हुए तो हमें पकड़कर पुलिस के हवाले करने से पहले वे मार-मारकर हमारे में भुस भर सकते हैं।”
“ओह!”
कुछ क्षण खामोशी रही।
“हम मामूली लोग हैं।”—फिर उस खामोशी को जगदीप ने भंग किया—“कहीं ऐसा न हो चोरी में तो हम कामयाब हो जायें लेकिन चोरी का माल ठिकाने लगाने की कोशिश में धर लिए जायें।”
“उसका इन्तजाम भी है।”—गुलशन बोला।
“क्या?”
“सूरज का किनारी बाजार में एक वाकिफकार है। उसका धन्धा ही हीरे तराशना है। मैं उससे मिल चुका हूं। मुझे वह आदमी ठीक लगा है। हमारा यह काम वह कर देगा। वह जेवरों की सैटिंग में से हीरे-जवाहरात निकाल देगा। कोई आसानी से पहचान लिया जा सकने वाला बड़े साइज का हीरा होगा—जैसा कि वह ‘फेथ’ नाम का हीरा है—तो वह उसे काटकर छोटे-छोटे हीरों में तबदील कर देगा। ऐसा करने से ऐसे हीरों की कीमत तो घट जाएगी लेकिन उनकी वजह से पकड़े जाने का अन्देशा हमें नहीं रहेगा।”
“हूं।”
“बाद में वही आदमी हमें हीरों का ग्राहक भी तलाश करके देगा।”
“बदले में वह क्या लेगा?”
“बराबर का हिस्सा।”
“ओह!”
जगदीप के स्वर में निराशा का ऐसा पुट था जैसे माल उसकी मुट्ठी में था और उसी क्षण उसका एक चौथाई भाग उसके काबू से निकला जा रहा था।
गुलशन को वह बात बहुत पसन्द आई। वह इस बात का सबूत था कि जेहनी तौर पर वह उस चोरी के लिए तैयार हो चुका था।
“हमें इमारत का पिछवाड़ा दिखाओ।”—सूरज बोला।
“चलो।”
गुलशन ने चाय के पैसे चुकाए। तीनों कैन्टीन से बाहर निकल आये।
खामोशी से चलते हुए वे आफिस अली रोड पर पहुंचे। राजेश्‍वरी देवी वाली इमारत के पिछवाड़े पहुंचने के लिए डिलाइट या दिल्ली गेट से घूमकर पीछे जाना जरूरी था। डिलाइट अपेक्षाकृत पास था, इसलिए वे उधर से पिछवाड़े की गली में दाखिल हुए।
उस वक्त पिछवाड़े के रास्ते पर खूब आवाजाही थी। उधर दो-तीन मोटर मकैनिक वर्कशाप थीं, जहां उस वक्त काफी काम होता मालूम हो रहा था।
किसी को उनकी तरफ ध्यान देने की फुरसत नहीं थी।
“यह है उस इमारत का पिछवाड़ा।”—गुलशन एक जगह ठिठकता हुआ बोला।
वे दोनों भी ठिठक गए।
“इमारत की यह साइड अच्छी तरह देख लो।”—गुलशन बोला—“बात आगे चलकर करेंगे।”
उन दोनों ने बड़ी गौर से इमारत का मुआयना करना आरम्भ किया।
“चलें?”—कुछ क्षण बाद गुलशन बोला।
दोनों ने सहमति में सिर हिलाया।
तीनों आगे बढ़े।
टेलीफोन एक्सचेंज के सामने पहुंचकर वे रुके।
“क्या कहते हो?”—गुलशन बोला।
दोनों ने कोई उत्तर न दिया। वे दोनों एक-दूसरे की सूरत देखने लगे। दोनों ही चाहते थे कि दूसरा बोले।
फिर गुलशन ही बोला।
“इमारत छःमंजिला है लेकिन बाल्कनी तक पहुंचने के लिए हमें पांच ही मंजिलें चढ़नी पड़ेंगी।”
“गिर गए तो जान बचनी मुश्‍किल होगी।”—जगदीप कठिन स्वर में बोला।
“लेकिन हम गिरेंगे क्यों? तुमने एक बात जरूर नोट की होगी कि पांचों मंजिलें एक साथ चढ़ना जरूरी नहीं है। यह काम तीन या चार किश्‍तों में भी किया जा सकता है। इमारत जैसी सामने से एक दम सीधी उठी हुई है वैसी पीछे से नहीं है। पीछे दूसरी मंजिल तक इमारत सीधी है फिर आगे एक टैरेस आ जाती है, जिसके आधे भाग पर छत पड़ी हुई है। उस टैरिस की छत पर पहुंच जाने के बाद आगे बढ़ने से पहले हम जब तक चाहें वहां सुस्ता सकते हैं। उस छत से आगे अगली मंजिल पर एक कोई डेढ़ फुट का प्रोजेक्शन है जो सामने से होता हुआ इमारत के एक पहलू में घूम जाता है। वहां फिर हम सुस्ता सकते हैं। वह प्रोजेक्शन एक साइड बाल्कनी पर खतम होता है। उस बाल्कनी के पार एक पानी की निकासी का कम-से-कम चार इन्च व्यास का पाइप है जो चौथी मंजिल के पास बने नीचे जैसे ही डेढ़ फुट के प्रोजेक्शन तक जाता है। वह प्रोजेक्शन इमारत के सामने किनारे तक खिंचा हुआ है। उस पर चलते हुए हम एक और पाइप तक पहुंच सकते हैं जो कि इमारत की सबसे ऊपर की छत तक जाता है, लेकिन हमने छत पर नहीं चढ़ना है। हमने एक मंजिल पहले ही रास्ते में आने वाली उस बाल्कनी पर उतर जाना है जो कि हमारा लक्ष्य है।”
“हो सकता है”—जगदीप बोला—“कि ये पाइप दीवार के साथ मजबूती से न कसे हुए हों और वे एक आदमी की बोझ सम्भालने के काबिल न हों?”
“इतनी मजबूत बनी इमारत के पाइप भी मजबूती से न लगे हुए हों, ऐसा हो तो नहीं सकता लेकिन अगर ऐसा हुआ भी तो पहले जान मेरी जायेगी। पाइप कमजोर होंगे तो नीचे मैं गिरूंगा। मैं पहले ही कह चुका हूं कि तुम लोगों को ऐसा कोई काम नहीं करना पड़ेगा जिसे मैं पहले खुद कामायाबी से अन्जाम नहीं दे चुका होऊंगा।”
जगदीप खामोश हो गया।
“वापिस भी हमें वैसे ही उतरना होगा?”—सूरज बोला—“जैसे कि हम ऊपर चढ़ेंगे?”
“नहीं।”—गुलशन बोला—“वापिसी ऐसे होना कतई जरूरी नहीं। वापिसी में हम फ्लैट का दरवाजा खोलकर बाहर निकलेंगे और ठाठ से लिफ्ट या सीढ़ियों के रास्ते नीचे पहुंचेंगे। फ्लैट के तीन दरवाजे बाहर गलियारे में खुलते हैं। उनमें से दो भीतर से बन्द किये जाते हैं और एक को बाहर से ताला लगाया जाता है। हम भीतर से बन्द किये जाने वाले दो दरवाजों में से किसी एक को खोलकर बड़े आराम से बाहर निकल सकते हैं।”
“इस काम के लिए तुमने हमें ही क्यों चुना?”
“क्योंकि तुम मेरे दोस्त हो।”
“बस? सिर्फ यही वजह है?”
“आजकल तुम भी मेरी ही तरह रुपये पैसे से परेशान हो, बेरोजगार हो।”
“मैं बेरोजगार हूं।”—जगदीप बोला—“लेकिन चोर नहीं हूं।”
“मुझे मालूम है। चोर मैं भी नहीं हूं। चोर सूरज भी नहीं है। तुम लोग चोर होते तो मैं तुम्हारे सामने यह प्रस्ताव कभी न रखता।”
“क्या मतलब?”
“देखो, पुलिस को तुम कम न समझो। आजकल पुलिस का महकमा भी बड़े साइन्टिफिक तरीके से चलता है। आजकल वर्दी पहन लेने से ही कोई पुलिसिया नहीं बन जाता है। आजकल पुलिसियों को अपराधों से दो-चार होने की बड़ी साइन्टिफिक ट्रेनिंग दी जाती है। इसलिए मुजरिम का बचा रहना आजकल कोई ऐसा आसान काम नहीं रह गया जैसा कि कभी हुआ करता था। आजकल जिस आदमी का कच्चा चिट्ठा पुलिस में दर्ज हो जाता है या जिसकी कार्य-प्रणाली भी पुलिस की जानकारी में आ जाती है उसकी गरदन समझ लो कि देर-सवेर नपे ही नपे। मैं किसी ऐसे आदमी से गठजोड़ करना अफोर्ड नहीं कर सकता जो पहले कभी पुलिस की गिरफ्त में या निगाहों में आ चुका हो या जिसके बारे में पुलिस को कोई अन्दाजा तक हो कि वह कैसे अपराध को किस तरीके से अन्जाम देने में स्पेशलिस्ट था। हमारी सलामती इस बात पर भी निर्भर करती है कि यह ज्वेल रॉबरी हमारा पहला और आखिरी अपराध होगा और हममें से कोई आज तक कभी पुलिस के फेर में नहीं पड़ा। अगर हम अपने काम में कामयाब हो गए तो पुलिस हमारे बारे में कोई थ्योरी कायम नहीं कर सकेगी, करेगी तो वह गलत होगी। हमारी गुमनामी ही पुलिस के हाथों से हमारी सलामती की गारण्टी होगी। हम खामोशी से इस काम को अन्जाम दे सकें और पुलिस की सरगर्मियां और छानबीन ठण्डी पड़ चुकने तक शान्ति से बैठे रह सकें तो पुलिस का ध्यान कभी हमारी तरफ नहीं जा सकेगा।”
दोनों बेहद प्रभावित दिखाई देने लगे।
“मैंने पहले ही कहा है कि मैं तुम लोगों को किसी अन्धेरे में, किसी भुलावे में नहीं रखना चाहता। मैं यह भी नहीं कहना चाहता कि यह कोई आसान काम है। काम कठिन है लेकिन असम्भव नहीं; काम में अड़चनें हैं लेकिन हो सकता है।”
“यहां से दरियागंज का थाना बहुत करीब है।”—जगदीप तनिक विचलित स्वर में बोल—“रात को यहां पुलिस की गश्‍त भी तो होगी होगी!”
“पुलिस की गश्‍त रात को यहां होती है लेकिन उसका थाना करीब होने से कोई रिश्‍ता नहीं। यहां उतनी ही गश्‍त होती है जितनी ऐसे और इलाकों में भी होती है। यहां ऐसी कोई बात नहीं है जिसकी वजह से पुलिस की इधर कोई खास तवज्जो जरूरी हो।”
“तुम्हें कैसे मालूम?”
“मैंने इस इलाके का खूब सर्वे किया है। रात को यहां इक्का-दुक्का सिपाही ही टहल रहा होता है और उसकी भी किसी खास इमारत की तरफ तवज्जो नहीं होती। ऐसा नहीं है कि मोड़ पर ही थाना होने की वजह से यहां पुलिसियों की कोई गारद घूमती रहती हो।”
“इस काम के लिए तुमने हम दोनों को क्यों चुना?”
“क्योंकि तुम दोनों मेरे दोस्त हो और आज की तारीख में हम तीनों एक ही किश्‍ती पर सवार हैं। यह सवाल अभी कितनी बार और पूछोगे?”
“और कोई वजह नहीं?”
“और तुमने सेफ का ताला खोलना है। सूरज ने चोरी की माल ठिकाने लगाए जाने का इन्तजाम करना है।”
“हूं।”
“लगता है तुम मेरे जवाब से सन्तुष्ट नहीं हो। जो मन में है, साफ-साफ कहो।”
“मन में कोई लफड़े वाली बात नहीं है।”—जगदीप तनिक हिचकिचाता हुआ बोला—“मैं सिर्फ यह सोच रहा था कि ऐसे कामों में हिस्सेदारी कम-से-कम रखने की कोशिश की जाती है। तुमने तो योजना बनाई है, मैंने सेफ खोलनी है, दरीबे वाले कारीगर ने जेवर तोड़कर हीरे-जवाहरात निकालने हैं और उन्हें बिकवाने का इन्तजाम करना है, इस लिहाज से सूरज का रोल सो बहुत मामूली हुआ! गैरजरूरी मैंने नहीं कहा लेकिन... तुम गलत मत समझना, गुरु। मैं बात को यूं ही छेड़ रहा हूं।”
“तुम्हारा मतलब है हम दो जने भी यह काम कर सकते हैं?”
“क्या नहीं कर सकते?”
“कर सकते हैं लेकिन सूरज का एक और वजह से भी हमारे साथ होना जरूरी है।”
“और वजह?”
“हां।”
“वह क्या?”
“यह औरत—राजेश्‍वरी देवी—विधवा है, अकेली रहती है; रईस है, खूब खाने पीने की शौकीन है, खूबसूरत है और अभी मुश्‍किल से चालीस साल की है। मैंने देखा है कि वह दूतावास की पार्टी से आधी रात से पहले नहीं लौटती। लेकिन फर्ज करो वहां उसे कोई नौजवान पसन्द आ जाता है और वह उसके साथ तफरीह करने की नीयत से वक्त से पहले घर लौट आती है। फर्ज करो हम अभी सेफ खोल कर ही हटे होते हैं कि वह ऊपर से वहां पहुंच जाती है। कामयाबी के इतने करीब पहुंच जाने के बाद अगर हमें खाली हाथ वहां से भागना पड़ गया या हम खामखाह पकड़े गए तो यह बहुत बुरी बात होगी हमारे लिए। अगर हम तीन होंगे तो ऐसी कोई नौबत आने पर—वैसे भगवान न करे ऐसी कोई नौबत आए—हम उस औरत को और उसके यार को बाखूबी काबू में कर सकते हैं। ऐसी नौबत आ जाने पर यह काम सिर्फ तुम और मैं शायद न कर सकें। लेकिन सूरज पहलवान है। वह राजेश्‍वरी देवी के चार यारों को भी अकेला संभाल सकता है। क्यों सूरज?”
“बिल्कुल!”—सूरज अपनी मांसपेशियां फड़फड़ता बोला।
“कहने का मतलब यह है, जगदीप, कि जब तुम वहां तिजोरी खोल रहे होंगे तो हम इस बात के लिए सावधान होंगे कि कहीं वो औरत अपने किन्हीं मेहमानों के साथ, या किसी यार के साथ, या अकेली ही सही, वक्त से पहले अपने फ्लैट पर न पहुंच जाए। तुम्हारा काम सबसे नाजुक है और पूरी तल्लीनता से किया जाने वाला है। इसलिये मैं नहीं चाहता कि तुम्हें अपना काम छोड़ कर किसी हाथापाई जैसे काम में भी हिस्सा लेना पड़े।”
“ओह!”
“वैसे उस औरत से आमना सामना होने से मैं हर हाल में बचना चाहता हूं। लेकिन फिर भी अगर ऐसी नौबत आ ही जाए तो उसके लिए तैयार रहने में कोई हर्ज नहीं। मैं सिर्फ इस इकलौती वजह से नाकामयाबी का मुंह नहीं देखना चाहता कि मैं उस औरत से आमना सामना हो जाने से डरता था। तुम समझे मेरी बात?”
“हां! तुमने तो, गुरु, इस काम के हर पहलू पर विचार किया हुआ है!”
“सिवाय एक पहलू के।”
“वो कौन सा हुआ?”
“कि तुम दोनों मेरा साथ देने को तैयार होवोगें या नहीं।”
जगदीप हिचकिचाया।
“फौरन जवाब देना जरूरी नहीं।”—गुलशन बोला—“तुम... और तुम भी”—वह सूरज की तरफ घूमा—“कल तक मुझे अपना फैसला सुना देना। और, जगदीप, कल तक तुम अपने इस दावे पर भी फिर से विचार कर लेना कि चाबी से खुलने वाली कैसी भी सेफ एक-डेढ़ घण्टे के वक्त में तुम वाकई खोल सकते हो या नहीं!”
“उस बात को तो छोड़ो, गुरु।”—जगदीप बोला—“वह तो मेरा दावा है जो आज भी अपनी जगह बरकरार है और कल भी।”
“ठीक है। तुम दोनों कल तक मुझे यह बता देना कि तुम इस काम में मेरे साथ शरीक होना चाहते हो या नहीं।”
गुलशन को लगा कि सूरज तो कल तक इन्तजार करना ही नहीं चाहता था लेकिन अकेले उसके हामी भरने से कोई बात नहीं बनती थी। ज्यादा जरूरी हामी जगदीप की थी, क्योंकि सेफ खोलने का अहम और इन्तहाई जरुरी काम उसने करना था। उसका गुजारा सूरज के बिना हो सकता था, जगदीप के बिना नहीं।
“मुझे पहले से मालूम है कि परसों नया अमरीकी राजदूत दूतावास का चार्ज ले रहा है। उसके सम्मान में दूतावास में बहुत बड़ी पार्टी का आयोजन है। हमेशा की तरह राजेश्‍वरी देवी भी वहां जरूर जाएगी। अगर कल तुम दोनों ने हामी भर दी तो परसों ही हम इस इमारत पर हल्ला बोल देंगे। तुमने इन्कार कर दिया तो समझ लेना कि हम लोगों में ऐसी कोई बात हुई ही नहीं थी।”
“हमारे इन्कार कर देने की सूरत में।”—जगदीप बोला—“तुम हमारी जगह कोई और साथी तलाश करने की कोशिश नहीं करोगे?”
“हरगिज भी नहीं। तुम दोनों मेरे दोस्त हो। मैं तुम पर विश्‍वास कर सकता हूं, हर किसी पर नहीं। तुम दोनों के इंकार की सूरत में मैं ज्वेल रॉबरी के अपने इस खयाल को हमेशा के लिए अपने मन से निकाल दूंगा।”
दोनों में से कोई कुछ न बोला।
फिर वहीं वह मीटिंग बर्खास्त हो गई।
अगले दिन दोनों ने उस चोरी में शामिल होने के लिए हामी भर दी।
उस दिन तीनों ने डिलाइट पर ईवनिंग शो देखा। टेंशन से बचे रहने का तथा उस इलाके में सुरक्षित रूप से मौजूद रहने का वह उनके पास बेहतरीन तरीका था।
शो खत्म होने के बाद गुलशन इस बात की तसदीक कर आया कि राजेश्‍वरी देवी दूतावास जा चुकी थी।
फिर उन्होंने फिल्म के नाइट शो की भी तीन टिकटें खरीदीं, गेटकीपर से टिकटें फड़वा कर वे भीतर दाखिल हुए और पांच मिनट बाद दूसरे रास्ते से हाल से बाहर निकल आए।
अब तीनों की जेबों में नाइट शो की टिकटों का आधा टुकड़ा था। आधी रात के बात कहीं सवाल हो जाने पर हर कोई कह सकता था कि वह डिलाइट पर नाइट शो देख कर आ रहा था और सबूत के तौर पर टिकट का वह आधा हिस्सा पेश कर सकता था और ईवनिंग शो फिल्म सचमुच देखा होने की वजह से उसे नयी लगी फिल्म की कहानी भी सुना सकता था।
ठीक दस बजे वे पिछवाड़े की सड़क पर पहुंचे।
उस तरफ उस वक्त कोई नहीं था। मोटर मकैनिक गैरेज बन्द हो चुके थे और आवाजाही कतई नहीं थी।
पिछवाड़े की सड़क के दहाने पर सिनेमा की दीवार के पास एक मामूली शक्ल सूरत वाली लेकिन नौजवान लड़की खड़ी थी।
उसे देख कर वे परे ही ठिठक गए।
“बाई है।”—गुलशन बोला—“ग्राहक की तलाश में है। सिनेमा के आगे की भीड़ छंट जाने के बाद चली जाएगी। इससे हमें कोई खतरा नहीं। उल्टे इसकी यहां मौजूदगी इस बात का सबूत है कि आसपास कोई पुलिसिया नहीं है वर्ना यह यहां न खड़ी होती।”
दोनों आश्‍वस्त हुए।
वे आगे बढ़े।
लड़की पर बिना निगाह डाले वे उससे थोड़ी दूर से गुजरे।
लड़की ने एक आशापूर्ण निगाह उन पर डाली, लेकिन उन्हें ठिठकता या अपनी तरफ देखता न पाकर वह परे सिनेमा के मुख्य द्वार की दिशा में देखने लगी। उनकी तरफ उसकी पीठ हो गई।
वे सुनसान रास्ते पर आगे बढ़ते चले गए।
वे एकदम स्याह काले तो नहीं लेकिन काफी गहरे रंगों के कपड़े पहने हुए थे और गली के नीमअन्धेरे में चलते-फिरते साये से मालूम हो रहे थे।
वे टेलीफोन एक्सचेंज वाले सिर पर पहुंचे।
उधर की गली के दहाने पर कोई नहीं था। अलबत्ता एक्सचेंज और इंश्‍योरेंस कम्पनी की इमारतों के सामने कुछ रिक्शे वाले मौजूद थे लेकिन उनका ध्यान रोशनियों से जगमगाती आसिफ अली रोड और दिल्ली गेट के विशाल चौराहे की तरफ था न कि पिछवाड़े की उस नीमअन्धेरी सड़क की तरफ।
पूर्ववत् सुनसान रास्ते पर चलते वे वापिस लौटे।
वे निर्विध्न राजेश्‍वरी देवी वाली इमारत के पिछवाड़े में पहुंच गए। तीनों दीवार के साथ लगकर खड़े हो गए।
गुलशन ने अपने हाथों से ऊपर जाते लोहे के पाइप को टटोला और सन्दिग्ध भाव से गली के डिलाइट वाले सिरे की तरफ देखा।
लड़की अभी भी उसकी ओर पीठ किए वहां खड़ी थी।
“यह टलती क्यों नहीं?”—गुलशन झुंझलाया—“अगर इसने घूमकर पीछे गली में देखा तो पाइप के सहारे ऊपर चढ़ता मैं इसे दिखाई दे जाऊंगा।”
“मैं इसे भगाकर आऊं?”—सूरज धीरे से बोला।
“कैसे?”
सूरज को जवाब न सूझा।
“थोड़ी देर और इन्तजार करते हैं।”—जगदीप बोला—“या तो इसे ग्राहक मिल जाएगा या यह खुद ही चली जाएगी।”
और दस मिनट वे वहां दीवार के साथ चिपके खड़े रहे।
लड़की वहां से न टली।
“मैं चढ़ता हूं।”—गुलशन बोला—“जो होगा देखा जाएगा।”
दोनों ने हिचकिचाते हुए सहमति में सिर हिलाया।
गुलशन ने अपनी जेब से निहायत पतले दस्तानों का एक जोड़ा निकाला और उन्हें अपने हाथों पर चढ़ा लिया। फिर उसने पाइप को थामा और बन्दर जैसी फुर्ती से ऊपर चढ़ने लगा।
मुश्‍किल से दो मिनट में वह दूसरी मंजिल की टैरेस के आधे भाग पर पड़ी छत पर पहुंच गया।
और पांच मिनट में उसी की तरह हाथों पर दस्ताने चढ़ाए जगदीप और सूरज भी उसके पास पहुंच गए।
तीनों पेट के बल छत पर लेट गए।
नीचे कोने पर लड़की अभी भी खड़ी थी, लेकिन अब उन्हें उसकी तरफ से कोई अन्देशा नहीं था। न ही नीचे की स्ट्रीट लाइट उन तक पहुंच रही थी।
नीचे गली में अभी तक भी उनके अलावा और किसी ने कदम नहीं रखा था।
कोई पांच मिनट वे वहीं छत पर पड़े सुस्ताते रहे।
उस दौरान केवल एक साइकल वाला नीचे गली में से गुजरा।
किसी पुलिसिए के वहां पांव न पड़े।
गुलशन ने अब अपने अगले पड़ाव की तरफ निगाह डाली।
ऊपर डेढ़ फुट चौड़ाई का प्रोजेक्शन था।
उस प्रोजेक्शन तक पहुंचने का इन्तहाई सहूलियत का तरीका सूरज ने सुझाया।
वह दीवार के साथ जमकर खड़ा हो गया। गुलशन उसके कन्धों चढ़ गया। उसके कन्धों पर खड़ा होने पर उसका हाथ बड़ी सहूलियत से प्रोजेक्शन तक पहुंच गया। वह उचक कर प्रोजेक्शन पर चढ़ गया।
उसी की तरह जगदीप भी वहां पहुंच गया।
फिर दोनों प्रोजेक्शन पर लेट गए। उन्होंने नीचे हाथ लटकाए और सूरज को उसके हाथों से पकड़ कर उसे ऊपर खींच लिया।
यह उनके भारी फायदे की बात थी कि पांच मंजिलों तक रिहायश नहीं थी। उन मंजिलों पर केवल दफ्तर थे जो शाम को नहीं तो बड़ी हद आठ-नौ बजे तक बन्द हो जाते थे। उन मंजिलों पर भी रिहायशी फ्लैट होते तो उनका यूं ऊपर चढ़ना किसी-न-किसी की निगाहों में आ सकता था, किसी के कानों में उनकी हलचल की आहट भी पहुंचना उनके लिए खतरनाक हो सकता था। लेकिन उन तमाम मंजिलों पर सन्नाटा था। राजेश्‍वरी देवी का पैन्थाउस ही उस इमारत का इकलौत रिहायशी फ्लैट था।
प्रोजेक्शन पर चलते हुए वे साइड बाल्कनी में पहुंचे। बाल्कनी के दरवाजे मजबूती से भीतर की तरफ से बन्द थे और बाल्कनी में फैली अव्यवस्था से लगता था कि वे दिन में भी शायद ही कभी खोले जाते थे।
उस बाल्कनी के पास से पानी का पाइप चौथी मंजिल के पास बने प्रोजेक्शन तक जाता था।
लेकिन वह पाइप बाल्कनी के इतना पास नहीं था जितना कि वह नीचे से देखे जाने से लगता था।
गुलशन सशंक-सा आंखों ही आंखों में बाल्कनी की रेलिंग और पाइप के बीच का फासला नापता रहा। वहां से हाथ छूट जाने का मतलब एक ही था।
उसकी अट्ठाइस वर्षीय जिन्दगी का समापन।
फिर हिम्मत करके वह बाल्कनी के रेलिंग पर चढ़ गया। वह दीवार के साथ सट गया और उसने अपना एक हाथ इंच-इंच करके पाइप की तरफ बढ़ाया।
हाथ पाइप तक पहुंच गया।
लेकिन सिर्फ पहुंच ही काफी नहीं थी, उस पहुंच को गिरफ्त में तब्दील करके के लिए अभी काफी और पाइप की तरफ झुकना जरूरी था। और उस कोशिश में रेलिंग पर से उसके पांव उखड़ सकते थे और वह तीन मंजिल नीचे जाकर गिर सकता था।
सांस रोके, दांत भीचे, वह अपना हाथ आगे सरकाता रहा।
पाइप पर उसकी पकड़ मजबूत हुई।
एक क्षण वह उसी स्थिति में स्थिर रहा। फिर उसने सांस रोक ली, मन-ही-मन भगवान का नाम लिया और रेलिंग पर टिके अपने पैरों से रेलिंग को धक्का दिया।
उसका शरीर आगे को उछला। रेलिंग पर से उसके पांव हट गए। उसी क्षण उसका दूसरा हाथ भी पाइप पर पड़ा। उसके शरीर को एक झटका लगा। तभी उसके दोनों घुटने पाइप से लिपट गए और उसका शरीर स्थिर हो गया।
तब कहीं जाकर उसने सांस छोड़ी।
रेलिंग से पाइप तक पहुंचने के एक क्षण में उसे जहन्नुम का नजारा हो गया था।
उसने एक आश्‍वासनपूर्ण निगाह अपने साथियों पर डाली और इंच-इंच करके ऊपर सरकने लगा।
वह अगले प्रोजेक्शन पर पहुंच गया।
फिर सूरज और जगदीप भी उसके पहलू में पहुंच गए।
जगदीप जब वहां पहुंचा तो उसकी सांस धौंकनी की तरह चल रही थी, चेहरा कानों तक लाल था और आंखों में दहशत की छाया साफ तैर रही थी। उसके विपरीत सूरज एकदम नॉर्मल लग रहा था। उसके लम्बे कद ने उसे पूरा फायदा पहुंचाया था। जिस सहूलियत से वह रेलिंग से पाइप तक पहुंचा था, वह गुलशन और जगदीप को हासिल नहीं थी।
एक कतार में प्रोजेक्शन पर आगे-पीछे चलते वे इमारत के सामने किनारे तक पहुंचे। सबसे आगे गुलशन था, बीच में जगदीप था और पीछे सूरज था।
अब उन्हें नीचे चमकीली रोशनियों से नहायी आसिफ अली रोड के दोनों पहलू दूर-दूर तक साफ दिखाई दे रहे थे। लेकिन उन्हें पूरी उम्मीद थी कि नीचे सड़क पर से उपर झांकने पर वे किसी को दिखाई नहीं देने वाले थे।
गुलशन ने अब वह दूसरा पाइप थामा जो इमारत की छत तक जाता था लेकिन रास्ते में राजेश्‍वरी देवी के फ्लैट की बाल्कनी की ऐन बगल से गुजरता था।
उस पाइप पर वह बेहिचक चढ़ गया
पलक झपकते ही वह राजेश्‍वरी देवी की बाल्कनी में था।
फिर जगदीप और सूरज भी बारी-बारी वहां पहुंच गए।
उनकी उम्मीद के मुताबिक बाल्कनी का शीशे का दरवाजा खुला था।
तब कहीं जाकर तीनों के उत्कण्ठा से खिंचे चेहरों पर मुस्कराहट आई।
फ्लैट में अन्धेरा था।
नीचे सड़क की रोशनी वहां तक नहीं पहुंच रही थी, लेकिन दीवारों से प्रतिबिम्बित रोशनी की वजह से वहां घुप्प अन्धेरा भी नहीं था।
सावधानी से चलते वे फ्लैट के भीतर दाखिल हुए।
गुलशन उन्हें उस बैडरूम में ले आया, जिसमें कि सेफ थी।
उसने सेफ की तरफ इशारा किया। जगदीप ने सहमति में सिर हिलाया। उसने अपने गले में लटका थैला गले से निकाला। सबसे पहले उसने उसमें से एक टॉर्च निकली जो कि उसने सूरज को थमा दी। उस बैडरूम में दो दरवाजे थे। उनमें से एक बाल्कनी में खुलता था और दूसरा पीछे कहीं। गुलशन ने बाल्कनी की ओर के दरवाजे पर पर्दा खींच दिया। सूरज ने टॉर्च जलाई। टॉर्च बड़ी शक्तिशाली थी। उसकी रोशनी से सेफ नहा गयी लेकिन वह रोशनी बैडरूम से बाहर नहीं जा सकती थी।
जगदीप ने थैले में से अपने औजार निकालकर सेफ के सामने फर्श पर सजा लिए।
वह फौरन अपने काम में जुट गया।
धड़कते दिल लिए गुलशन और सूरज सेफ का दरवाजा खुलने की प्रतीक्षा करने लगे।
उस फौलादी दरवाजे के पार वह दौलत थी, जिसको हथियाने के लिए वे अपनी जान जोखिम में डालकर वहां पहुंचे थे; किसी भी क्षण वह दौलत उनकी हो जाने वाली थी। लेकिन वह क्षण जैसे एक छलावे की तरह उनकी पहुंच से आगे, और आगे सरकता जा रहा था।
साढ़े ग्यारह बज गए।
“क्या बात है?”—गुलशन झुंझलाए स्वर में बोला—“तुम तो कहते थे कि तुम घण्टे भर में इसे खोल लोगे! अब तो डेढ़ घण्टा होने को आ रहा है!”
“बस, थोड़ी देर और।”—जगदीप बिना गर्दन उठाए बोला।
“बारह बजे के बाद वह किसी भी क्षण यहां पहुंच सकती है।”
“मैं उससे बहुत पहले इसे खोल लूंगा।”
लेकिन सेफ न खुली। जगदीप से वह बारह बजे से पहले तो क्या बारह बजे के बाद भी न खुली।
बारह बजे के बाद गुलशन बाल्कनी पर पहुंच गया। वह बाल्कनी के फर्श पर लेट गया और उसने नीचे सड़क पर निगाह टिका ली।
राजेश्‍वरी देवी की सफेद मर्सिडीज को वह पहचाना था। उसके वहां पहुंचते ही उन्हें वहां से कूच कर जाना था। मर्सिडीज वहां एक मिनट बाद भी पहुंच सकती थी और एक घन्टे बाद भी।
वह बुरी तरह झुंझला रहा था और जगदीप के दावों को याद कर-कर के दांत पीस रहा था। पता नहीं सेफ का ताला ही विकट था या जगदीप ही अपनी औकात से बाहरी डींग हांकता रहा था कि वह हर तरह के ताले की चाबी बना सकता था। कोशिश वह अब भी जी-जान से कर रहा था, लेकिन गुलशन का दिल गवाही नहीं दे रहा था कि अब वह उसे खोल पाएगा।
पौने एक बजे के करीब राजेश्‍वरी देवी की मर्सिडीज इमारत के सामने नीचे सड़क पर आकर रुकी और भीतर से राजेश्‍वरी देवी ने बाहर सड़क पर कदम रखा।
गुलशन फर्श पर से उठकर भीतर भागा।
“वह आ गई!”—वह उतावले स्वर में बोला।
जगदीप फौरन उठ खड़ा हुआ। उसके चेहरे के खिसियाहट के भाव ही बता रहे थे कि सेफ न उससे खुली थी और न खुलने वाली थी।
वह आनन-फानन अपने औजार समेटकर थैले में डालने लगा।
गुलशन ने जेब से रूमाल निकालकर सेफ के सामने फर्श पर फैला लोहे का बुरादा समेट दिया।
जगदीप के औजार समेट चुकने के बाद सूरज ने टॉर्च बन्द कर दी।
“मेरा बस चले”—वह बोला—“तो सेफ उठाकर साथ ले चलूं।”
“मेरा बस चले”—गुलशन बोला—“तो मैं यहीं इसकी गर्दन काट दूं।”
“अब मैं क्या करूं?”—जगदीप मरे स्वर में बोला—“मेरे खयाल से तो...”
“शट-अप!”—गुलशन दांत पीसता बोला।
जगदीप फौरन चुप हो गया।
वे दरवाजे की तरफ बढ़े।
एकाएक गुलशन के जेहन में बिजली-सी कौंधी।
“ठहरो!”
वे दोनों फौरन ठिठक गए।
“अब क्या हुआ?”—सूरज बोला।
“जगदीप!”—गुलशन उसके सवाल की ओर ध्यान दिए बिना बोला—“हरामजादे! सेफ तो तुझसे खुली नहीं। अब तू इसे ऐसा बिगाड़ ही दे कि यह उस औरत से भी न खुले। चाबी लगाने पर भी न खुले।”
“उससे क्या होगा?”—जगदीप बोला।
“सवाल मत कर। जो पूछा है उसका जवाब दे। ऐसा कर सकता है? सेफ बिगाड़ सकता है?
“यह तो एक मिनट का काम है। मैं चाबी के छेद में एक लोहे की सलाख डालकर तोड़ देता हूं। फिर...”
“सफाई की जरूरत नहीं। जो हो सकता है, कर। वह आती ही होगी।”
जगदीप ने फिर फुर्ती से अपने झोले में हाथ डाला।
सूरज ने फौरन दोबारा टॉर्च जलाई।
एक मिनट से भी कम समय में जगदीप सेफ के पास से हट गया।
सूरज ने टार्च बन्द करके उसे थमा दी जो कि जगदीप ने अपने औजारों के साथ झोले में डाल ली।
वे बाल्कनी की तरफ लपके।
पहले जगदीप और फिर सूरज पाइप के रास्ते निचली मंजिल के प्रोजेक्शन उतर गये।
सबसे अन्त में गुलशन उतरा।
वह अभी बाल्कनी में ही था कि उसे फ्लैट का मुख्य द्वार खुलने की आवाज आई थी।
पाइप पर चढ़ने से उतरना ज्यादा आसान था।
वह पलक झपकते नीचे प्रोजेक्शन पर अपने साथियों के पास पहुंच गया।
तीनों प्रोजेक्शन पर उकड़ू होकर अगल-बगल बैठ गए।
नीचे सड़क पर ट्रैफिक नहीं के बराबर था। कभी-कभार ही कोई इक्का-दुक्का वाहन सड़क से गुजरता दिखाई देता था। डिलाइट का आखिरी शो भी खत्म हो चुका था इसलिए उधर भी अब सन्नाटा छा चुका था। जो चन्द रिक्शे वाले डिलाइट के सामने मौजूद थे, वे सवारी की तलाश में नहीं थे, वे अपने रिक्शों पर सोये पड़े थे।
गुलशन अभी भी रह-रहकर कहरभरी निगाहों से जगदीप को देख रहा था।
जगदीप सिर झुकाये बैठा था। वह उससे निगाह मिलाने की ताब नहीं ला पा रहा था।
“अब हम यहां बैठे क्या कर रहे हैं?”—अन्त में सूरज ने चुप्पी तोड़ी।
“और अगर सेफ वह औरत भी नहीं खोल सकती”—जगदीप बिना सिर उठाये दबे स्वर में बोला—“तो उसका हमें क्या फायदा?”
“अहमक”—गुलशन बोला—“जो जेवर पहनकर वह पार्टी में गई थी, उन्हें अब क्या सेफ में रख सकेगी?”
“तो?”
“तो यह कि वो जेवर अभी भी हमारे हाथ लग सकते हैं जो कि वह पहनकर पार्टी में गई थी और उन जेवरों में वह फेथ डायमण्ड के नाम से जाना जाने वाला बेशकीमती हीरा भी जरूर होगा।”
“तुम्हारा”—सूरज सकपकाकर बोला—“वापिस उसके फ्लैट में घुसने का इरादा है?”
“हां।”
“उसकी मौजूदगी में?”
“हां।”—गुलशन दृढ़ स्वर में बोला।
“चाहे उसके साथ भीतर कोई मर्द भी मौजूद हो?”
“उसके साथ कोई नहीं है। वह अकेली लौटी है। मैंने देखा है।”
सूरज खामोश हो गया।
“वह अपने जेवरों को कहीं इधर-उधर ही डालकर नशे में धुत्त सोई पड़ी होगी।”—गुलशन बोला—“आधे घंटे बाद हम भीतर दाखिल होंगे और चुपचाप वे जेवर उठा लायेंगे। देख लेना उसके कान पर जूं भी नहीं रेंगेगी।”
दोनों में से कोई कुछ न बोला।
“मैं भीतर जरूर घुसूंगा। तुम लोग वापिस जाना चाहो तो जा सकते हो।”
“नहीं।”—सूरज फौरन बोला—“हम तुम्हारे साथ हैं। जो तुम करोगे, वही हम करेंगे।”
“ठीक है।”
“लेकिन अगर हमने ऐसा ही करना था तो क्यों न हम फ्लैट में ही मौजूद रहते और उसके भीतर दाखिल होते ही हम उसे दबोच लेते और जबरन उससे चाबी हासिल कर लेते?”
“उस वक्त की हड़बड़ी में यह बात मुझे नहीं सूझी थी।”—गुलशन शुष्क स्वर में बोला।
फिर खामोशी छा गई।
डेढ़ बजे तक वे यूं ही बुत बने प्रोजेक्शन पर बैठे रहे।
“तैयार?”—अन्त में गुलशन बोला।
“तैयार।”—सूरज बोला।
“तीनों का जाना जरूरी है?”—जगदीप दबे स्वर में बोला।
“कोई जरूरी नहीं।”—गुलशन अन्धेरे में उसे घूरता हुआ बोला—“अब जब कि उम्मीद से बहुत कम माल हासिल होने वाला है तो उसका ज्यादा लोगों में बंटवारा भी जरूरी नहीं।”
“नहीं, नहीं”—जगदीप हड़बड़ाया—“मैं तो यूं ही पूछ रहा था।”
गुलशन ने उसकी तरफ से तवज्जो हटा ली।
उसने दोबारा पाइप को थामा और बन्दर की सी फुर्ती से उपर बाल्कनी तक पहुंच गया।
उसके कुछ क्षण बाद जगदीप भी बाल्कनी में उतरा।
तभी एक अत्यन्त अप्रत्याशित व्यवधान पेश आया।
बाल्कनी के शीशे के दरवाजे पर एक नन्हा-सा झबराले बालों वाला कुत्ता प्रकट हुआ और उनकी तरफ मुंह उठाकर गुर्राने लगा।
वह एक उस प्रकार का सजावटी कुत्ता था जैसा फैशनेबल औरतें गोद में उठाये फिरती हैं। खतरनाक वह नहीं था लेकिन शोर वह इतना मचा सकता था कि आधा इलाका जाग पड़ता।
राजेश्‍वरी देवी के पास कुत्ता होने की गुलशन को कतई खबर नहीं थी। जरूर वह कुत्ता उसने हाल ही में हासिल किया था।
कुत्ता दो कदम आगे बढ़ा और गुर्राने की जगह एकाएक भौंकने लगा।
गुलशन को और कुछ न सूझा, उसने झपटकर कुत्ते को गर्दन से पकड़ लिया और उसे बाल्कनी से नीचे उछाल दिया।
पांच मंजिल नीचे कुत्ता पक्की सड़क से जाकर टकराया। एक क्षण वह जहां गिरा वहीं पड़ा रहा लेकिन फिर बह बड़े दयनीय ढंग से फुटपाथ की तरफ रेंगने लगा। सड़क पर डीटीसी की नाइट सर्विस की एक बस ऐन उसके सामने प्रकट हुई, कुत्ते को बस की लपेट में आने से बचाने के लिए ड्राइवर ने बस को दायीं तरफ गहरी झोल दी लेकिन उसने बस को वहां रोका नहीं।
बाल्कनी में फिर पहले जैसी स्तब्धता छा गई।
वे दोनों घूमे और बाल्कनी की तरफ बढ़े।
लेकिन उन्हें तत्काल ठिठक जाना पड़ा।
बाल्कनी के शीशे के दरवाजे के पास राजेश्‍वरी देवी खड़ी थी। उसके हाथ में एक रिवॉल्वर थी जिससे वह उन दोनों को कवर किए हुए थी। नशे में वह कतई नहीं लग रही थी।
कुत्ते ने अपना काम कर दिखाया था।
उसने सम्भावित खतरे से मालकिन को आगाह कर दिया था और उसे नींद से जगा दिया था।
“खबरदार!”—वह कठोर स्वर मे बोली—“हिलना नहीं।”
दोनो स्थिर खड़े रहे।
“हाथ ऊपर उठाओ।”
दोनों ने डरते-झिझकते अपने हाथ अपने कन्धों से ऊपर उठा दिए।
तभी शायद राजेश्‍वरी देवी को अहसास हुआ कि बाल्कनी में कुत्ता कहीं नहीं था।
“पिंकी!”—उसने आवाज लगाई—“पिंकी!”
उत्तर खामोशी ने दिया।
फिर शायद उसे सूझ गया कि कुत्ता कहां गयाब हो गया हो सकता था। उन दोनों को रिवॉल्वर से कवर किये वह उनसे परे चलती बाल्कनी तक पहुंची। उसने एक निगाह नीचे डाली तो उसे बड़े दयनीय ढंग से सड़क पर रेंगता-घिसटता अपना घायल कुत्ता दिखाई दिया। तुरन्त पहले उसके चेहरे पर दहशत के भाव प्रकट हुए और फिर आंखों में कहर की ज्वाला कौंध गई।
“किसकी”—वह दांत पीसती बोली—“किसकी करतूत है यह?”
दोनों खामोश रहे। गुलशन ने बेचैनी से अपने सूखे होंठों पर जुबान फेरी।
“मेरा इरादा तुम दोनों को सिर्फ पुलिस के हवाले करने का था।”—वह बोली—“लेकिन अब उस कमीने को मैं खुद शूट करूंगी जिसने एक बेजुबान जानवर की इतनी बेरहमी से जान ली है। तुम चोर हो और चोरी करने के इरादे से यहां घुसे हो। मैं तुम दोनों को शूट भी कर दूंगी तो मुझे कोई फर्क नहीं पड़ेगा। जिसने मेरे कुत्ते की जान ली है, वह खुद बक दे। इस तरह उसके साथी की जान बच जायेगी। बोलो, किसकी करतूत है यह?”
तभी गुलशन को औरत के पीछे रेलिंग फांदने को तत्पर सूरज दिखाई दिया। गुलशन जानता था कि औरत का ध्यान अपनी तरफ रखे रहने के लिए उसे कुछ-न-कुछ कहना चाहिए था, लेकिन उस नाजुक घड़ी में बहुत कोशिश करने पर भी उसके मुंह से बोल न फूटा।
“कमीनो!”—राजेश्‍वरी देवी फिर गुर्राई—“मैं आखिरी बार पूछ रही हूं कि...”
तभी पीछे से सूरज उसके सिर पर पहुंच गया। उसने अपनी एक बलिष्ठ बांह औरत की गर्दन के गिर्द लपेट दी और दूसरी से उसका रिवॉल्वर वाला हाथ थाम लिया। उसकी गर्दन से लिपटी अपनी बांह उसने इस कदर उमेठी कि औरत के जमीन से दोनों पांव उठ गए। उसकी आंखें बाहर को उबल पड़ीं। रिवॉल्वर पर से उसकी पकड़ छूट गई और वह टन्न की आवाज से पक्के फर्श पर गिरी।
गुलशन फौरन औरत की तरफ लपका।
जगदीप ने झुक कर औरत के हाथ से निकली रिवॉल्वर उठा ली और उसे चुपचाप अपनी पतलून की जेब में रख लिया।
गुलशन ने औरत की उलट चुकी आंखों पर एक निगाह डाली और जल्दी से बोला—“सूरज, छोड़ दे। बेहोश हो गई है।”
सूरज ने उसकी गर्दन पर से अपनी पकड़ ढीली कर दी और उसे गोद में उठा लिया। उसने उसे भीतर बैडरूम में ले जाकर पलंग पर डाल दिया।
जगदीप और गुलशन भी उसके पीछे पीछे बैडरूम में दाखिल हुए।
भीतर एक बहुत हल्की-सी नीली रोशनी जल रही थी।
गुलशन ने बाल्कनी के दरवाजे के आगे फिर से पर्दा खींच कर ट्यूब लाइट ऑन की। उसने भीतर दरवाजे के पर्दे की डोरी को उसके स्थान से उखाड़ा और उसकी सहायता से औरत के हांथ-पांव बांध दिए। उसके मुंह में उसने अपना रूमाल ठूंस दिया।
फिर उसकी निगाह पैन होती हुई सारे बैडरूम में घुम गई।
जो पोशाक पहन कर राजेश्‍वरी देवी पार्टी में गई थी, वह एक कुर्सी पर गुच्छा-मुच्छा हुई पड़ी थी। कुर्सी के समीप ही उसकी ऊंची एड़ी की सेंडलें उलटी पड़ी थीं। एक मेज पर उसका हैंडबैग पड़ा था। गुलशन ने उसे खोल कर भीतर झांका। भीतर जेवर नहीं थे, लेकिन भीतर सौ-सौ के नोटों की एक खूब मोटी गड्डी मौजूद थी। उसने गड्डी निकाल कर अपने अधिकार में कर ली।
उसके साथी उसे अपलक देख रहे थे।
“जेवर बैडरूम में ही कहीं होंगे।”—गुलशन बोला—“तलाश करो।”
तीनों जुदा-जुदा जगहों पर जेवरों की तलाश करने लगे।
जेवर उन्हें हद से बाहरी सहूलियत से मिल गए।
वे पलंग पर तकियों के नीचे मौजूद थे।
और वे उनकी उम्मीद से कहीं ज्यादा थे।
उनमें तीन लड़ियों वाला एक सच्चे मोतियों का हार था।
एक कम-से-कम तीन इंच चौड़ा बेशकीमती हीरे-जवाहरात से जड़ा गुलुबन्द था। वैसे ही रत्नजड़ित दो कंगन थे, इयरिंग थे। कई अंगूठियां थीं, साड़ी के पल्लू पर लगाया जाने वाला एक ब्रोच था और सबसे बड़ी चीज थी प्लेटीनम की सैटिंग में जगमग-जगमग करता फेथ डायमण्ड।
प्रसन्नता से तीनों के चेहरे तमतमा गए।
“इतना जेवर”—सूरज बोला—“वह एक बार में पहन कर गई है तो सेफ में तो पता नहीं क्या कुछ भरा पड़ा होगा।”
“सेफ का खयाल अब छोड़ दो।”—गुलशन बोला।
“जो सलाख का टुकड़ा मैंने चाबी के छेद में फंसाया है” जगदीप बोला—“उसे ड्रिल की मदद से मैं वापिस निकाल सकता हूं।”
“लेकिन चाबी! चाबी कहां है? चाबी हमें कहीं नहीं दिखाई दी है। और उसे तलाश करने में वक्त बरबाद करना मूर्खता है। कुत्ते की वजह से मुमकिन है यहां कोई—इसका ड्राइवर ही—पहुंच जाए। जो हाथ आ गया है, उसे संभालो और यहां से निकल चलो।”
उन्होंने सहमति में सिर हिलाया।
फिर तीनों ने थोड़े थोड़े जेवरात अपनी-अपनी जेबों में ठूंस लिए।
गुलशन राजेश्‍वरी देवी के पास पहुंचा।
वह उस क्षण भी बेहोश थी।
उसने उसके बन्धन खोल दिए और उसके मुंह में ठुंसा अपना रूमाल निकाल लिया।
फिर उन्होंने बैडरूम की बत्ती बुझाई और फ्लैट से बाहर निकल आए।
उसके साथी लिफ्ट की और बढ़े तो गुलशन बोला—“सीढ़ियों से चलो। लिफ्टें कभी कभार अधर में भी फंस जाती हैं। ऐसे में लिफ्ट कहीं फंस गई तो काम हो जाएगा हमारा।”
वे दबे पांव सीढ़ियां उतरने लगे।
वे ग्राउन्ड फ्लोर पर पहुंचे।
इमारत का मुख्य द्वार भीतर से बन्द था और बेसमेंट की सीढ़ियों के दहाने के पास पड़े एक बैंच पर चौकीदार सोया पड़ा था।
गुलशन ने खामोशी से दरवाजा खोला।
तीनों बाहर निकल आए।
गुलशन ने अपने पीछे दरवाजे के दोनों पल्ले मिला दिए।
कुत्ता किसी प्रकार रेंग कर दरवाजे के सामने तक पहुंच गया था और फिर उसने वहीं बरामदे में दम तोड़ दिया था।
गुलशन ने फौरन उसकी तरफ से निगाह फिरा ली।
डिलाइट तक वे एक साथ चले, फिर तीनों अलग हो गए।
सूरज आसिफ अली रोड की इमारतों के पिछवाड़े की सड़क पर चलता हुआ तुर्कमान गेट की तरफ बढ़ गया। जगदीप ने उसी क्षण डिलाइट के सामने स्टैण्ड पर आकर खड़ी हुई पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन की बस पकड़ ली और गुलशन डिलाइट के ऐन पिछवाड़े से छत्ता लाल मियां होकर तिराहा बैरम खां की तरफ जाती गली में दाखिल हो गया।
तीनों ने रास्ते अलग-अलग पकड़े थे, लेकिन तीनों की मंजिल एक ही थी।
किनारी बाजार।
जहां उनके असफल होने से बाल-बाल बचे अभियान का चौथा साथी रहता था।
किनारी बाजार में वह एक बहुत ही पुरानी इमारत थी, जिसमें शौकत अली अंसारी रहता था। शौकत अली अंसारी लगभग चालीस साल का सींकिया बदन वाला मुसलमान था जिसका जिस्म हिन्दोस्तान मे था लेकिन दिल पाकिस्तान में था। कभी वह हर साल बिना नागा पाकिस्तान में बसे अपने खानदान से मिलने जाया करता था लेकिन अब पिछले छः साल से ऐसा नहीं हो पाया था। वह स्मगलिंग के इलजाम में पकड़ा जाने पर जेल जाने से तो बाल-बाल बच गया था लेकिन सरकार ने उसका पासपोर्ट रद्द कर दिया था, जोकि बहुत कोशिशों के बाद भी उसे दोबारा हासिल नहीं हो पाया था। अपने धन्धे में वह माहिर था। दिल्ली के गिने-चुने उम्दा डायमंड कटर्स में उसका नाम लिया जाता था। जिस इमारत में शौकत अली रहता था, वही उसकी वर्कशॉप भी थी। वह इमारत किनारी बाजार के दरीबे वाले सिरे के करीब की एक गली में थी।
रात के ढाई बजे उसके दरवाजे पर दस्तक पड़ी।
सबसे पहले सूरज वहां पहुंचा।
फिर जगदीप।
और अन्त में गुलशन।
शौकत अली उन्हें पहली मंजिल के पिछवाड़े के एक कमरे में ले गया। वह कमरा उसकी वर्कशॉप था। कमरा ऐसा था कि उसकी रोशनी बाहर हरगिज नहीं जा सकती थी इसलिए अगर कभी वहां वह सारी रात भी काम करता था तो किसी को भनक तक नहीं लगती थी।
“मौलाना।”—सूरज बोला—“यह जगदीप है। और गुलशन को तो तुम जानते ही हो!”
शौकत अली ने दोनों का अभिवादन स्वीकार किया और फिर बोला—“तुम लोगों का यहां आना ही साबित करता है कि तुम लोग अपने मिशन में कामयाब हो गए हो।”
“हां।”—सूरज उत्साहहीन स्वर में बोला—“यही समझ लो।”
“इनमें से तिजोरी खोलने वाला आर्टिस्ट कौन है? जगदीप या गुलशन?”
“जगदीप।”
“तुमने बहुत शाबाशी का काम किया है, बिरादर। मुझे तो शक था कि तुम तिजोरी नहीं खोल सकोगे।”
“तुम्हारा शक सही था।”—सूरज बोला—“और इसने कोई शाबाशी का काम नहीं किया है।”
शौकत अली ने हैरानी से जगदीप की ओर देखा।
जगदीप खिसियाई-सी हंसी हंसा।
“तिजोरी नहीं खोल पाया यह?”—शौकत अली बोला।
“नहीं।”—सूरज बोला।
“तो फिर बात कैसे बनी?”
सूरज ने गुलशन की तरफ देखा।
गुलशन ने बताया।
“ओह!”—सारी बात सुनकर शौकत अली बोला—“यह तो बुरा हुआ तुम लोगों के लिए। खास तौर से तुम्हारे और जगदीप के लिए। वह औरत तुम्हारी सूरत पहचान सकती है।”
“कैसे पहचान सकती है?”—गुलशन बोला—“किन चीजों से वह हमारी सूरतों का मिलान करेगी? हम क्या उसे दोबारा दिखाई देने वाले हैं? या पुलिस के पास हमारी तसवीरें हैं?”
“यह भी ठीक है।”—शौकत अली एक क्षण ठिठका और फिर बोला—“चलो, भागते चोर की लंगोटी तो हाथ लगी तुम्हारे।”
“लंगोटी नहीं तहमद।”
“अच्छा! काफी माल मारा मालूम होता है!”
“काफी भी और कीमती भी।”
“दिखाओ।”
उस कमरे की एक पूरी साइड में एक काउन्टर सा बना हुआ था जिस पर डायमंड कटिंग के काम में आने वाले कुछ औजार सलीके से रखे हुए थे और कुछ बेतरतीबी से बिखरे हुए थे। गुलशन ने काउन्टर की कुछ चीजें सरका कर अपने सामने थोड़ी जगह खाली की और फिर अपनी जेब से जेवर निकाल कर वहां ढेर कर दिए।
जगदीप और सूरज ने भी ऐसा ही किया।
शौकत अली की आंखें चमकने लगीं। फेथ डायमंड देख कर तो उसके मुंह से सीटी निकल गई।
“कितने का माल होगा यह?”—गुलशन ने पूछा।
“अगर”—शौकत अली बोला—“जायज और इज्जतदार तरीके से बेचा जाए तो कम-से-कम दो करोड़ रुपये का।”
“दो करोड़ रुपये!”—सूरज के मुंह से निकला। एकाएक उसके चेहरे पर हजार वॉट का बल्ब जलने लगा। खुशी के आवेग में वह अपनी हथेलियां मसलने लगा।
“लेकिन तुम लोगों को इसके चलीस-पचास लाख रुपये भी मिल जाएं तो गनीमत समझना।”
हजार वॉट का बल्ब फौरन फ्यूज हो गया, लेकिन ट्यूब लाइट की रोशनी सूरज के चेहरे पर फिर भी बाकी थी।
“फेथ डायमंड को ऐसे का ऐसा बेचने का मतलब शर्तिया गिरफ्तारी होगा।”—शौकत अली बोला—“इसको तोड़ कर इसके छोटे-छोटे हीरे बनाने से इसकी कीमत एक बटा दस रह जाएगी। फिर चोरी का माल लाठी के गज से नपकर बिकता है।”
“ओह!”
“फेथ डायमंड को तोड़ने में और टुकड़ों को फिर से तराशने में बहुत वक्त लगेगा। उस दौरान यहां पुलिस भी आएगी।”
“पुलिस क्यों आएगी यहां?”—गुलशन बोला।
“इसलिए आएगी क्योंकि मेरे नाम का शुमार दिल्ली के मशहूर डायमंड कटर्स में होता है। फेथ डायमंड की चोरी की खबर आम होते ही पुलिस मेरे जैसे सब कारीगरों के पास पहुंचेगी।”
“तो?”
“तो क्या? यहां उन्हें कुछ नहीं मिलने वाला। वे सर्च वारन्ट साथ लाकर यहां के चप्पे चप्पे की भी तलाशी लेंगे तो भी उनके हाथ कुछ नहीं लगेगा। अपना हिस्सा मैं बाखूबी संभाल सकता हूं।”
“सिर्फ अपना?”
“हां। अब तुम सब लोग इन सब हीरे जवाहरात को इनकी सैटिंग से निकालने में मेरी मदद करो और फिर अभी अपना हिस्सा अपने अपने काबू में कर लो।”
“तुम अपना हिस्सा कहां छुपाओगे?”
“मैं छुपा लूंगा कहीं। तुम खातिर जमा रखो, पुलिस की रेड यहां हुई तो न उन्हें मेरे हिस्से में आए जवाहरात मिलेंगे और न फेथ डायमंड मिलेगा। सच पूछो तो मुझे डर तुम लोगों से है कि कहीं माल के साथ तुम लोग न पकड़े जाओ और तुम्हारी वजह से मैं भी न फंस जाऊं।”
“हम नहीं पकड़े जा सकते। ऐसा हो ही नहीं सकता कि पुलिस की तवज्जो हमारी तरफ जाए। एक करोड़ से ज्यादा की आबादी वाले इस शहर में मौजूद एक-एक शख्स को पुलिस टटोलने लगे तो बात दूसरी है। पुलिस सिर्फ जाने पहचाने मुजरिमों को टटोलेगी या संदिग्ध चरित्र के लोगों को टटोलेगी। हम इन दोनों ही किस्मों के लोगों में से नहीं है। फिर अगर हममें से कोई पकड़ा गया तो वह दूसरे का नाम अपनी जुबान पर नहीं लाएगा अगर हम सब भी पकड़े गए तो हम तुम्हारा नाम अपनी जुबान पर नहीं लाएंगे। हमें एक दूसरे पर मुकम्मल विश्‍वास है कि विश्‍वास का हत्या हम में से कोई नहीं करने वाला।”
“जान कर खुशी हुई। लेकिन एक बात और बता दो।”
“क्या?”
“अपनी बीवियों पर भी काबू है तुम्हें? वे तो तुम्हारी पोल नहीं खोल देंगी? वे तो नहीं बक देंगी कुछ?”
“बीवी वाला सिर्फ मैं हूं। मेरी बीवी न सिर्फ मेरे काबू में है, उसे मेरी आज रात की करतूत की खबर भी नहीं लगेगी। मैं उसे कुछ नहीं बताने वाला।”
“फिर ठीक है।”
“मौलाना, जहां तुम अपना हिस्सा छुपाओगे, वहीं बाकी का माल भी छुपा लेना। आखिर बिकवाना तो इसे तुम्हीं ने है इसलिए सारा माल तुम्हारे ही पास रहे तो अच्छा है।”
“मैं अपना हिस्सा खुद सम्भाल लूंगा।”—सूरज जल्दी से बोला।
“देखा!”—शौकत अली हंसा—“मेरे यार को डर लग गया है कि सारा माल समेट कर मैं कहीं पाकिस्तान न भाग जाऊं।”
“मुझे तुम पर विश्‍वास है।”—गुलशन बोला—“मैं अपना हिस्सा...”
“छोड़ो! अपना माल अपने ही पास रखो, बिरादर। वो फिरंगियों में कहते हैं न, कि सारे अंडे एक ही टोकरी में नहीं रखने चाहियें।”
“माल बिकवाने का जुगाड़ तुम कब तक कर सकते हो?”
“छ: महीने इन्तजार तो करना ही होगा। वैसे माल अगर कौड़ियों के मोल फेंकना चाहो तो मैं अगले ही हफ्ते इसका फातिहा पढ़ सकता हूं।”
“नहीं, नहीं! मेरे हाथ दस बारह लाख रुपये भी न आएं तो क्या फायदा हुआ इतना रिस्क उठाने का!”
“तो फिर इन्तजार करो।”
“ठीक है। फेथ डायमंड को तोड़ने-तराशने में कितना वक्त लगेगा?”
“कम से कम तीन दिन।”
“तीन दिन?”
“यह हीरा है, कोई पत्थर का टुकड़ा नहीं है। इसके साथ अदब और इत्मीनान से पेश आना जरूरी है। तीन दिन तो तब लगेंगे जब मैं सारी सारी रात बैठ कर इस पर काम करूंगा।”
“कमाल है! इस हीरे को तोड़ने में इतना वक्त...”
“तोड़ तो इसे मैं अभी तुम्हारे सामने दूंगा। वक्त टूटे हुए टुकड़ों को तराशने में लगेगा। इतना तो तुम्हें भी मालूम होगा कि हीरा ही हीरे को काट सकता है। बहुत सब्र का, बहुत जिम्मेदारी का काम है यह। दस कैरेट का हीरा तराशने में तीन दिन लग जाते हैं। फेथ डायमंड तो सत्तासी कैरेट का है।”
“कैरेट क्या मतलब?”—जगदीप ने पूछा।
किसी ने उसके सवाल की तरफ ध्यान नहीं दिया।
“अब काम शुरू किया जाए?”—शौकत अली बोला।
गुलशन ने सहमति में सिर हिलाया।
शौकत अली ने सबको काउन्टर के सामने स्टूलों पर बिठा दिया। उसने एक प्लायर पकड़ा और उसकी सहायता से गुलुबन्द में से एक हीरा उमेठ कर उन्हें समझाया कि वह काम कैसे होता था। फिर एक एक प्लायर उसने उन्हें थमा दिया।
वे सोने और प्लैटीनम की सैटिंग में से हीरे जवाहरात निकालने की क्रिया में जुट गए।
खुद शौकत अली फेथ डायमंड की तरफ आकर्षित हुआ। उसने वह विशाल हीरा उसकी प्लैटीनम की सैटिंग में से निकाल लिया। उसने उसे हथेली पर रख दिया और मन्त्रमुग्ध सा उसे देखने लगा।
“सुभान अल्लाह!”—उसके मुंह से निकला।
गुलशन ने अपने हाथ का प्लायर रख दिया और अपने साथियों को हीरे उमेठता छोड़कर वह शौकत अली के पास पहुंचा।
“जी नहीं चाहता कि इतने बेशकीमती हीरे को तोड़कर तबाह करूं।”—शौकत अली बोला—“लेकिन मजबूरी है।”
उसने अपनी एक आंख पर वाच ग्लास चढ़ा लिया और बहुत बारीकी से हीरे के हर पहलू का मुआयना करने लगा। कुछ क्षण बाद उसने हीरे की कलम से फेथ डायमंड के एक पहलू पर बड़ी सावधानी से एक लम्बी लाइन खींच दी। उसने आंख से वाच ग्लास उतारकर एक ओर रख दिया और बोला—“यहां से तोड़ूंगा मैं इसे। इस तरह से इसका एक बड़ा, एक कदरन छोटा और पांच बहुत छोटे-छोटे टुकड़े हो जायेंगे।”
उसने हीरे को एक मशीन में फिट किया और बिजली की मोटर से चलने वाले एक हीरे की कनियों वाले ब्लेड की धार जैसे पतले पहिए की सहायता से उस लकीर पर से उसकी कटाई शुरू की।
जगदीप और सूरज बड़ी तन्मयता से हीरे-जवाहरात को उनकी सैटिंग में से निकाल-निकाल कर काउण्टर पर एक ढेर की सूरत में जमा किए जा रहे थे।
“यह जो सोना और प्लैटीनम निकल रहा है।”—एकाएक गुलशन बोला—“इसका क्या होगा?”
“यह भी बिक सकता है।”—शौकत अली ने जवाब दिया।
“कैसे?”
“दरीबे में एक सुनार मेरा वाकिफकार है। उसका नाम सफदर हुसैन है। उसकी दुकान दरीबे की जामा मस्जिद वाली साइड में नुक्कड़ पर है। किसी से भी पूछने पर मालूम हो जाएगा कि सफदर हुसैन की कौन सी दुकान है। कल सुबह बाजार खुलते ही तुममें से एक जना सोने और प्लैटीनम की टूट-फूट लेकर वहां चले जाना। वहां मेरा नाम लेना, वह उसकी कीमत अदा कर देगा। कीमत बहुत कम होगी, लेकिन उसके पास जाना तुम्हारे लिए सरासर महफूज काम होगा।”
“सूरज जाएगा।”—गुलशन बोला—“सूरज, सुन रहे हो?”
“सुन रहा हूं।”—सूरज अपने काम से सिर उठाए बिना बोला,—“ठीक है।”
एक काम सूरज ने ऐसा किया था कि अगर गुलशन या जगदीप को उसकी खबर लग जाती तो वहीं फसाद हो जाता।
उसने जेवरात में से एक अंगूठी उठाकर चुपचाप अपनी जेब में डाल ली थी।
अंगूठी कोई खास कीमती नहीं थी। उसकी कीमत की वजह से सूरज ने उसे चुराया भी नहीं था। न ही ऐसा उसने अपने साथियों को धोखा देने की नीयत से किया था। वह मुश्‍किल से एक कैरेट के हीरे की अंगूठी थी जिसे वह किसी को भेंट में देना चाहता था। वह अंगूठी वह गुलशन से कहकर लेता तो वह उसे कभी न लेने देता और वह भी बाकी जेवरों की तरह तोड़ दी जाती। गुलशन की निगाह में चोरी का मामूली-से मामूली जेवर भी अपनी असली सूरत में उनमें से किसी के अधिकार में नहीं होना चाहिए था।
पन्द्रह मिनट बाद शौकत अली ने मोटर का स्विच ऑफ किया।
उसने मशीन में से हीरा निकाला और उसका फिर से मुआयना किया।
हीरे के एक रुख पर एक लम्बी गहरी लकीर खुद चुकी थी।
शौकत अली ने एक कागज जैसे बारीक फल वाली छैनी उठाई उसे हीरे में खुदी लकीर के ऐन ऊपर टिकाया और एक हथौड़ी का एक भरपूर प्रहार छेनी के सिर पर किया।
कुछ भी न हुआ।
शौकत अली के मुंह से एक आह निकली।
उसके चेहरे पर हिचकिचाहट के भाव आये। लेकिन फिर उसके होंठ बड़े निर्णयात्मक ढंग से भिंच गए और उसने एक बड़ा हथौड़ा उठाकर उसका एक बेहद शक्तिशाली प्रहार छेनी पर किया।
फेथ डायमंड का अस्तित्व समाप्त हो गया।
वह दो बड़े और कई नन्हे टुकड़ों में विभक्त होकर काउंटर पर बिखर गया।
शौकत अली ने सारे टुकड़े समेटे और उनका बड़ी बारीकी से मुआयना किया।
“ठीक है।”—अन्त में वह सन्तुष्टिपूर्ण स्वर में बोला—“तीन दिन बाद मैं तुम्हारे सामने दो बड़े और आठ दस छोटे छोटे हीरे पेश कर दूंगा।”
और घण्टे बाद चारों मिलकर सारे जवाहरात सैटिंग से अलग कर चुके थे। अब काउन्टर पर हीरे, मानक, पन्ने, नीलम, पुखराज, मोंगा और मोतियों का ढेर जगमगा रहा था।
जब बंटवारे का वक्त आया तो शौकत अली बोला कि वह मोतियों का इच्छुक नहीं था। वैसे भी मोतियों की तीन ही लड़ियां थीं, जिनको बिना तोड़े वे तीनों आपस में बांट सकते थे। मोतियों में अपने हिस्से के बदले में उसने चार पन्नों की मांग की जो कि उसे दे दिये गये। फिर मोतियों का हार तोड़ा गया और एक-एक लड़ी गुलशन, जगदीप और सूरज ने ले ली। शौकत अली ने सबको शनील की एक एक थैली दे दी जिसमें हर किसी ने अपना हिस्सा रख लिया।
“अब यह सबकी”—गुलशन बोला—“अलग अलग जिम्मेदारी है कि हर कोई अपने हिस्से के जवाहरात को तब तक सम्भालकर, छुपाकर रखे जब तक शौकत अली इनके लिए कोई ग्राहक नहीं तलाश कर लेता।”
सबने सहमति में सिर हिलाया।
तब तक सुबह के छ: बज चुके थे।
सब वहां से उठकर एक अन्य कमरे में पहुंचे। शौकत अली ने वहां की खिड़कियां खोल दीं।
फिर वह सबके लिये चाय बनाने चला गया।
उसके वहां से जाते ही उन तीनों ने उन नोटों को भी आपस में बांट लिया जो गुलशन ने राजेश्‍वरी देवी के हैण्डबैग से निकाले थे।
तीनों के हिस्से में बत्तीस-बत्तीस नोट आये।
उन नोटों में मौलाना का हिस्सा जरूरी न समझा गया।
“सूरज!”—गुलशन तनिक उपहासपूर्ण स्वर में बोला—“तुम्हें अपने यार पर कोई खास भरोसा नहीं।”
“इसलिये कह रहे हो।”—सूरज बोला—“क्योंकि मैं अपना माल इसके पास रखने से इनकार कर रहा था।”
“हां।”
सूरज ने एक सतर्क निगाह दरवाजे की दिशा में डाली और फिर धीरे से बोला—“मौलाना आजकल जाली पासपोर्ट की फिराक में है। अपना जब्तशुदा पासपोर्ट वापिस मिलने की उम्मीद अब उसे नहीं रही है इसलिये जाली पासपोर्ट के फेर में पड़ा है। छ: साल से यह पाकिस्तान नहीं जा सका। छ: साल से यह अपने सगे वालों से मिलने के लिये तड़प रहा है। जाली पासपोर्ट काबू में आते ही यह भूत की तरह भागेगा यहां से। और जाली पासपोर्ट इसे किसी भी दिन हासिल हो सकता है। यूं उड़ने को पर तोलते पंछी को मैंने तो मत सौंपा अपना माल।”
“जाली पासपोर्ट से यह पहुंच जायेगा पाकिस्तान?”
“कहता तो यही है! कहता है कि जाली पासपोर्ट बनाने वाला उस्ताद बहुत ही बड़ा कारीगर है। दर्जनों लोगों के लिये वह जाली पासपोर्ट बना चुका बताया जाता है। आज तक तो कोई पकड़ा नहीं गया। मौलाना पकड़ा गया तो इसकी बद्किस्मती।”
तभी शौकत अली चाय ले आया।
चाय पीने तक पौने सात का टाइम हो गया।
तब तक रास्ते इस कदर चल पड़े थे कि नीचे से लोगों के बोलने चालने की आवाजें आने लगी थीं।
फिर तीनों ने शाम की मुलाकात के लिये वक्त और जगह तय की और फिर सूरज को पीछे वहीं बैठा छोड़कर गुलशन और जगदीप वहां से विदा हो गये।
दरीबे के नुक्कड़ पर पहुंचकर गुलशन जगदीप से अलग हुआ और एक रिक्शा पर सवार हो गया।
वह चांदनी महल पहुंचा जहां कि वह रहता था।
उसकी बीवी चन्द्रा रसोई में बैठी चाय पी रही थी और अखबार पढ़ रही थी। उसे आया देखकर उसने अखबार गुलशन को थमा दिया और स्वयं उसके लिये चाय बनाने लगी।
वह सारी रात घर नहीं आया था लेकिन फिर भी चन्द्रा ने उससे यह नहीं पूछा था कि रात भर वह कहां रहा था। एक बार उसने गुलशन से ऐसा सवाल किया था, फिर जवाब न मिलने पर जानने की जिद की थी तो गुलशन ने उसे ऐसी मार लगाई थी कि उसके दर्द और अपमान को वह आज तक नहीं भूली थी।
चन्द्रा निहायत खूबसूरत थी। वह एक मामूली घर की लड़की थी और गुलशन को एक समझदार और खाता-कमाता नौजवान समझकर उससे उसकी शादी की गई थी। लेकिन उसका पति समझदार तो निकला ही नहीं था, आज की तारीख में वह खाता-कमाता भी नहीं था। गुलशन के साथ आज तक उसने कोई सुख नहीं भोगा था, उल्टे अब वह भविष्य की चिन्ता से हलकान जरूर रहने लगी थी। वह गुलशन से ज्यादा पढ़ी-लिखी थी और उससे कहीं ज्यादा सलीके वाली लड़की थी। उसने अपने पति के रूप में हमेशा गुलशन से कहीं बेहतर मर्द की कल्पना की थी और अगर उसके मां-बाप गरीब न होते तो ऐसा मर्द उसे हासिल हो भी सकता था। वह हर लिहाज से अपने-आपको गुलशन से कहीं बेहतर पति का हकदार मानती थी लेकिन अब गले पड़ा ढोल बजाते रहने के सिवाय उसके पास कोई चारा नहीं था।
गुलशन अखबार लेकर टॉयलेट में घुस गया।
उसने अखबार के हर पृष्ठ पर सरसरी निगाह डाली।
राजेश्‍वरी देवी के यहां हुई चोरी की खबर उसे कहीं दिखाई न दी।
वह टॉयलेट से बाहर निकला तो उसने चाय तैयार पाई।
उसने बड़े अनिच्छापूर्ण ढंग से चाय पी और जाकर बिस्तर पर लेट गया।
फौरन उसे नींद ने दबोच लिया।