सी आई बी की ब्रांच स्पैशल इन्टेलीजेंस के चीफ कर्नल मुखर्जी ने अपने पाइप के तीन चार लम्बे-लम्बे कश लगाये और फिर मुंह से ढेर सारा धुंआ उगल चुकने के बाद बड़े गम्भीर स्वर में अपने सामने बैठे सुनील से सम्बोधित हुए - “तुमने प्रोफेसर जगत नारायण भटनागर का नाम सुना है ?”

“जी हां, सुना है ।” - सुनील धैर्यपूर्ण स्वर में बोला ।
“कभी देखा है उन्हें ?”
“केवल तस्वीरें देखी हैं, जो समय-समय पर ‘ब्लास्ट’ में छपती रही हैं।”
“कभी उन्हें साक्षात देखो तो पहचान लोगे ?”
“पहचान लूंगा ।” - सुनील विश्वासपूर्ण स्वर में बोला । उसके नेत्रों के सामने लम्बे पतले लेकिन स्वस्थ प्रोफेसर जगत नारायण भटनागर का चेहरा घूम गया । आयु लगभग साठ वर्ष । चेहरे पर बर्फ जैसी सफेद फ्रेंच कट दाढी और मूछें, सिर गंजा, आंखों पर मोनोकल (एक शीशे वाला चश्मा) प्रोफेसर भटनागर एक बेहद विशिष्ट व्यक्तित्व के स्वामी थे ।
“प्रोफेसर जगत नारायण भटनागर ।” - कर्नल मुखर्जी बोले - “डाक्टर चन्द्रशेखरन की मौत के बाद से ही प्रतिरक्षा मन्त्रालय से सम्बन्धित नैशनल रिसर्च लैबोरेट्री के अध्यक्ष हैं । पिछले डेढ महीने से वे लापता हैं ।”
“जी !” - सुनील चौंका ।
“डेढ महीना पहले हमेशा की तरह शाम को लैबोरेट्री से छुट्टी करके वे अपनी कार को स्वयं ड्राइव करते हुए लैबोरेट्री से निकल गये थे । उस शाम के बाद से आज तक किसी ने प्रोफेसर भटनागर की दुबारा सूरत नहीं देखी है ।”
“लेकिन, सर, यह बात प्रेस तक तो नहीं पहुंची । आखिर प्रोफेसर भटनागर इतने महत्वपूर्ण आदमी हैं और...”
“इसका विशेष रूप से ख्याल रखा गया है कि प्रोफेसर भटनागर के इस प्रकार रहस्यपूर्ण ढंग से गायब हो जाने की बात आम जनता में चर्चा का विषय न बन पाये । जाहिर यही किया गया है कि प्रोफेसर भटनागर एक लम्बी छुट्टी लेकर आराम करने के लिये किसी हिल स्टेशन पर चले गये हैं ।”
“ऐसी सावधानी क्यों ?”
“क्योंकि प्रोफेसर भटनागर का यूं एकाएक गायब हो जाना भारत सरकार के लिए भारी उत्कंठा का विषय बन गया है ।”
“क्यों ?”
कर्नल मुखर्जी एक क्षण चुप रहे और फिर गम्भीर स्वर में बोले - “प्रोफेसर भटनागर ने एक नये ढंग की पनडुब्बी का अविष्कार किया है । उस पनडुब्बी का अविष्कार हमारे देश की नौसेना को ऐसी शक्ति प्रदान कर सकता था जिसका मुकाबला संसार का दूसरा कोई राष्ट्र शायद ही कर पाता । गायब होने से पहले प्रोफेसर भटनागर उसी प्रोजेक्ट पर काम कर रहे थे और भारत सरकार उनके अविष्कार की सफलता के बारे में उनकी अन्तिम रिपोर्ट प्राप्त करने की बड़ी व्यग्रता से प्रतीक्षा कर रही थी । डेढ महीने पहले जिस रोज वे गायब हुए थे उस रोज उन्होंने अपने सहयोगियों को बड़े हर्षित स्वर में सूचना दी थी कि उनका अविष्कार सफल रहा था और वे अगले दिन पनडुब्बी के निर्माण के लिए प्रयुक्त होने वाले टैक्नीकल पेपर प्रतिरक्षा मन्त्रालय को सौंप देंगे । लेकिन वास्तव में इस बात की नौबत ही नहीं आई । अगले दिन प्रोफेसर नैशनल रिसर्च लैबोरेट्री में नहीं पहुंचे । उस दिन से लेकर आज तक हमें यह मालूम नहीं हो सका है कि प्रोफेसर कहां गायब हो गये हैं ।”
“उनकी तलाश करवाई गई थी ?”
“हर सम्भावित स्थान पर उनकी तलाश करवाई गई थी । प्रोफेसर भटनागर राजनगर में अपने बंगले में अकेले रहते हैं । उनका एक नौकर है जो उनका हर काम करता है । उससे किसी प्रकार की जानकारी हासिल न हो सकी थी । उसके कथनानुसार प्रोफेसर ठीक समय पर बंगले में पहुंच गये थे । हमेशा की तरह उन्होंने चाय पी थी और फिर अपनी स्टडी में चले गये थे । एक बार अध्ययन के लिये अपनी स्टडी में पहुंच जाने के बाद प्रोफेसर बाहर नहीं निकलते थे । रात का खाना भी वे वहीं खाते थे और फिर सोते भी वहीं थे । लेकिन उस रोज वे रात को लगभग आठ बजे बड़े घबराये से अपनी स्टडी से बाहर निकले और अपने नौकर को बिना कुछ बताये सीधे बंगले से बाहर निकल गये, वे कार में सवार हुए और तेजी से कार ड्राइव करते हुए कहीं चले गये । नौकर रात भर उनकी प्रतीक्षा करता रहा लेकिन प्रोफेसर भटनागर नहीं लौटे । अगले दिन नौकर ने लैबोरेट्री में फोन किया लेकिन प्रोफेसर वहां भी नहीं आये थे । शाम तक यह बात अच्छी खासी चिन्ता का विषय बन गई । उस शाम को प्रोफेसर के बुलावे पर प्रतिरक्षा मन्त्रालय का एक प्रतिनिधि प्रोफेसर से मिलने आया था । प्रोफेसर के अक्समात गायब हो जाने की बात उसे भी मालूम हुई । वह संदिग्ध हो उठा । बात ऊपर तक पहुंच गई । ऐन मौके पर जबकि प्रोफेसर पनडुब्बी के अविष्कार के टैक्नीकल कागजात और ब्लू प्रिंट वगैरह प्रतिरक्षा मन्त्रालय को सौंपने वाले थे, उनका यूं गायब हो जाना उच्चाधिकारियों के लिये भारी सन्देह और चिन्ता का विषय बन गया । जैसा कि मैंने कहा है कि प्रोफेसर की हर सम्भावित स्थान पर तलाश की गई लेकिन प्रोफेसर कहीं नहीं मिले । अन्त में उच्चाधिकारी अनिच्छा से ही सही लेकिन इस सम्भावना पर विचार करने पर मजबूर हो गये कि या तो प्रोफेसर ने ऐन समय पर अपने देश को धोखा दिया है - वे किसी भारी प्रलोभन में फंस कर पनडुब्बी के अविष्कार के कागजात साथ लेकर हमारे किसी शत्रु राष्ट्र से जा मिले हैं - और या फिर किसी शत्रु राष्ट्र को उनके अविष्कार की खबर हो गई है और वे लोग प्रोफेसर को जबरदस्ती भगा कर ले गये हैं ।”
“पनडुब्बी के अविष्कार के कागजों की नैशनल रिसर्च लैबोरेट्री में तलाश की गई थी ?”
“उन कागजों को लैबोरेट्री में इतनी बारीकी से तलाश किया गया था जैसे सुई तलाश की जा रही हो । लैबोरेट्री से पनडुब्बी के अविष्कार के सारे महत्वपूर्ण कागजात गायब थे जो थोड़े बहुत नोट्स प्रोफेसर के डैस्क में मिले थे, उनका कोई महत्व नहीं था ।”
कर्नल मुखर्जी चुप हो गये । कुछ क्षण वे पाइप के कश लगाते रहे और फिर बोले - “प्रोफेसर भटनागर की प्रीति नाम की एक लड़की है । वह इंगलैंड में रहती है, आक्सफोर्ड पढती है और वहीं के एक अंग्रेज परिवार के साथ पेईंग गैस्ट के रूप में रहती है । हालांकि इस बात की आशा तो नहीं थी कि प्रोफेसर चुपचाप अपनी बेटी से मिलने इंगलैंड पहुंच गये हों लेकिन फिर भी इस सिलसिले में तफ्तीश करवाई गई थी । अंग्रेज परिवार से मालूम हुआ कि प्रीति छुट्टियां बिताने स्विट्जरलैंड गई हुई है और प्रोफेसर भटनागर जैसा कोई आदमी वहां प्रीति से मिलने नहीं आया था ।”
“सम्भव है प्रोफेसर साहब भी स्विट्जरलैंड पहुंच गये हों ।” - सुनील बोला ।
“इस बात की सम्भावना मुझे तो नहीं दिखाई देती । अगर प्रोफेसर भटनागर अपनी बेटी से मिलने जैसे निर्दोष कृत्य के लिये ही भारत से विदा हुए थे तो उन्हें यह बात गुप्त रखने की क्या जरूरत थी और फिर वे अपने साथ में पनडुब्बी के टैक्नीकल पेपर क्यों ले गये थे ।”
सुनील चुप हो गया । उसे कर्नल मुखर्जी की भी बात युक्तिसंगत लगी ।
“लेकिन फिर भी हमने स्व‍िट्जरलैंड में प्रीति को तलाश करने की कोशिश की थी, लेकिन हम सफल नहीं हो सके । या तो प्रीति स्व‍िट्जरलैंड से कहीं और आगे निकल गई थी और या फिर हमारे आदमी उसे तलाश करने में सफल नहीं हो सके थे ।”
मुखर्जी एक क्षण रुके और फिर बोले “प्रोफेसर भटनागर के भारत से बाहर निकल गये होने की सम्भावना पर विचार करते हुए हमने पिछले डेढ महीने में देश के किसी भी हवाई अड्डे या बन्दरगाह से रवाना हुए हर जहाज की पैसेन्जर लिस्ट चैक करवाई थी और गुप्त रूप से कस्टम अधिकारियों और पासपोर्ट चैकिंग आफिस वालों को प्रोफेसर भटनागर की तस्वीर दिखाकर उनके बारे में पूछताछ की थी लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकला था । सच पूछो तो पिछले डेढ महीने में हम लोग प्रोफेसर को तलाश कर पाने की दिशा में एक कदम भी आगे नहीं बढा पाये हैं । हमें इतना आभास तक नहीं मिल पाया है कि प्रोफेसर इतनी बड़ी दुनिया के किस कोने में है वह जिन्दा भी है या नहीं ।”
सुनील कुछ नहीं बोला । अभी तक कर्नल मुखर्जी ने यह नहीं बताया था कि उन्होंने सुनील को किसलिये बुलवाया है ।
“अब यह पिक्चर पोस्ट कार्ड देखो ।” - कर्नल मुखर्जी बोले और उन्होंने एक पिक्चर पोस्ट कार्ड सुनील की ओर बढा दिया ।
सुनील ने पिक्चर पोस्ट कार्ड अपने हाथ में लिया और उसका निरीक्षण करने लगा । वह टूरिस्टों द्वारा अपने मित्रों, सम्बन्धियों को भेजा जाने वाला एक साधारण पोस्ट कार्ड था । पोस्ट कार्ड पर एक ओर उसकी पूरी लम्बाई चौड़ाई में एक कई मंजिलों की बेहद विशाल और खूबसूरत इमारत की तस्वीर थी जिसके नीचे बारीक अक्षरों में लिखा था -
रायल न्यूक्लियर रिसर्च सैन्टर
सुनील ने कार्ड को पलट कर दूसरी ओर देखा । दूसरी ओर कार्ड एक काली लाइन द्वारा बीच में से दो भागों में विभक्त‍ था । दाईं ओर इंगलैंड की डाक टिकटें लगी हुई थीं और प्रोफेसर जगत नारायण भटनागर का नाम और नेशनल रिसर्च लैबोरेट्री राजनगर (भारत) लिखा हुआ था ।
कार्ड के बाईं ओर के भाग में इंगलिश में जो इबारत लिखी हुई थी उसका आशय यह था -
काश तुम यहां मेरे पास होते ।
नीचे लिखा था !
डाक्टर आलीवर रीड
डायरेक्टर
रायल न्यूक्लियर रिसर्च सैन्टर
लन्दन (इंगलैंड)
सुनील ने पोस्ट कार्ड से दृष्टि हटाई और प्रश्न सूचक नेत्रों से कर्नल मुखर्जी की ओर देखा ।
“इस पिक्चर पोस्ट कार्ड में तुम्हें कोई विशेष बात दिखाई देती है ?” - कर्नल मुखर्जी ने पूछा ।
“मुझे तो यह बड़ा ही साधारण पिक्चर पोस्ट कार्ड दिखाई दे रहा है ।” - सुनील बोला - “इससे केवल यह जाहिर होता है कि रायल न्यूक्लियर रिसर्च सैन्टर लन्दन के डायरेक्टर डाक्टर आलीवर रीड प्रोफेसर भटनागर के मित्र हैं और उन्होंने इस पिक्चर पोस्ट कार्ड के माध्यम से प्रोफेसर भटनागर को याद किया है । ऐसे पिक्चर पोस्ट कार्ड एक देश के लोग दूसरे देश में मौजूद अपने मित्रों सम्बन्धियों या पत्र मित्रों को भेजते ही रहते हैं ।”
“लेकिन डाक्टर आलीवर रीड प्रोफेसर भटनागर के मित्र हैं, न सम्बन्धी हैं और न पत्र मित्र हैं ।” - कर्नल मुखर्जी गम्भीर स्वर से बोले - “यह पिक्चर पोस्ट कार्ड तीन दिन पहले आया था । हमने तत्काल अपने इंगलैंड में मौजूद उच्चायुक्त के माध्यम से डाक्टर आलीवर रीड से सम्पर्क स्थापित किया था डाक्टर आलीवर रीड का कथन है कि उन्होंने भारत के प्रोफेसर जगत नारायण भटनागर का नाम जरूर सुना है । लेकिन आज तक कभी उनसे मिलने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ न ही उन दोनों में आज तक कभी किसी प्रकार का पत्र व्यवहार हुआ है इसलिए इस बात का सवाल ही नहीं पैदा होता कि उन्होंने प्रोफेसर भटनागर को उनके भारत के पते पर किसी प्रकार का पिक्चर पोस्ट कार्ड भेजा हो ।”
“हैरानी की बात है ।” - सुनील बोला - “अगर प्रोफेसर भटनागर को वह पिक्चर कार्ड डाक्टर आलीवर रीड ने नहीं भेजा तो फिर किसने भेजा ।”
“स्वयं प्रोफेसर भटनागर ने ।” - कर्नल मुखर्जी गम्भीर स्वर में बोले ।
सुनील के नेत्र फैल गये । वह हैरानी से कर्नल मुखर्जी का मुंह देखने लगा ।
“इस पिक्चर पोस्ट कार्ड पर लिखी इबारत के हैंड राइटिंग को प्रोफेसर भटनागर के हैंड राइटिंग से मिलाकर देखा गया है । पिक्चर पोस्ट कार्ड पर लिखी इबारत और पता नि:सन्देह प्रोफेसर भटनागर के हैंड राइटिंग के हैं । पहले लैबोरेट्री में उनके किसी सहयोगी ने उस पिक्चर पोस्ट कार्ड को देखा था और उसने अपना सन्देह व्यक्त किया था कि उसे पोस्ट कार्ड का हैंड राईटिंग स्वयं प्रोफेसर भटनागर के हैंड राइटिंग से मिलता जुलता लगता है । चैक किये जाने के बाद यह बात निर्विवाद रूप से सिद्ध हो गई थी । अब मिस्टर, सवाल यह पैदा होता है कि प्रोफेसर भटनागर ने ऐसा क्यों किया ? उन्होंने अपने ही नाम यह पिक्चर पोस्ट कार्ड क्यों भेजा ?”
“एक बात तो स्पष्ट है ।” - सुनील सोचता हुआ बोला - “कि इस पोस्ट कार्ड को पोस्ट करने तक प्रोफेसर भटनागर इंगलैंड में थे ।”
“करैक्ट । लेकिन फिर भी हमें यह मालूम नहीं हो सका कि वे बिना किसी जानकारी में आये भारत से इंगलैंड पहुंच कैसे गये ?”
“सारी स्थिति इसी दिशा की ओर संकेत करती है कि जरूर प्रोफेसर भटनागर हमारे किन्हीं दुश्मनों के चंगुल में फंस गये थे और वे ही उन्हें किसी प्रकार गुप्त रूप से देश से बाहर निकाल ले जाने में सफल हो गये थे । फिर वे किसी प्रकार शत्रुओं के चंगुल से निकल गये लेकिन शत्रु उनकी तलाश में उनके पीछे लग रहे होंगे । डाक्टर भटनागर जरूर लन्दन में ही कहीं छुपे हुए होंगे । अपने छुपने के स्थान से निकलकर भारत पहुंचने के लिये उन्हें बाहरी सहायता की सख्त जरूरत होगी । उन्होंने पत्र लिखकर स्पष्ट रूप से अपनी स्थिति बयान नहीं की इससे सिद्ध होता है कि शत्रु बहुत शक्तिशाली है और देश की डाक व्यवस्था में भी वह हस्तक्षेप कर सकता है ।”
“यह काम तो इंगलैंड की सरकार ही कर सकती है ।”
“सम्भव है वही कर भी रही हो । प्रोफेसर भटनागर के पनडुब्बी के अविष्कार में तो किसी भी राष्ट्र की दिलचस्पी हो सकती है ।”
“शायद ।” - कर्नल मुखर्जी संदिग्ध स्वर में बोले ।
“अब जरा पिक्चर पोस्ट कार्ड की इबारत पर विचार करें - ‘काश, तुम यहां मेरे पास होते’ - ऐसा लगता है जैसे किसी विरही प्रेमिका ने अपने स्वयं से दूर बसे हुए प्रेमी के सामने अपनी मनोकामना प्रकट की हो । लेकिन अगर आप इसी बात को प्रोफेसर भटनागर की मेरे द्वारा बयान की गई स्थिति को सामने रखकर सोचें तो आप महसूस करेंगे कि यह एक सहायता की अपील है । प्रोफेसर भटनागर ने अपने ही नाम यह पिक्चर पोस्ट कार्ड भारत में इसलिए भेजा है क्योंकि उन्हें विश्वास है कि उनके लापता होने की वजह से उनके नाम रिसर्च लैबोरेट्री में आई हुई कोई भी डाक उच्चाधिकारियों के पास जरूर पहुंचेगी और फिर वे उनका संकेत जरूर समझ जायेंगे, जैसे कि - अगर मैं गलत नहीं कह रहा हूं तो - हम समझ ही गये हैं ।”
कर्नल मुखर्जी पाइप पीना भूल गये । उन्होंने सुनील के हाथ से पिक्चर पोस्ट कार्ड ले लिया और उस पर लिखी इबारत को बार-बार पढने लगे ।
“बाई गाड, मिस्टर ।” - अन्त में वह तनिक बौखलाये स्वर में बोले - “यू आर राइट । यू आर राइट । दिस इज ए क्लैवर डिडक्शन ।”
सुनील चुप रहा ।
“लेकिन” - मुखर्जी फिर गम्भीर स्वर में बोले - “इस से यह तो नहीं मालूम होता कि प्रोफेसर भटनागर लन्दन में कहां हैं ।”
“आप ठीक कह रहे हैं लेकिन शायद प्रोफेसर भटनागर यह बात इस पिक्चर पोस्ट कार्ड में प्रकट करना भी नहीं चाहते थे ।”
“तो फिर ?”
“मुझे विश्वास है कि अगर रायल न्यूक्लियर रिसर्च सैंटर लन्दन में हमारा कोई आदमी जायेगा तो प्रोफेसर भटनागर किसी न किसी प्रकार खुद ही उससे सम्पर्क स्थापित कर लेंगे । और यह भी सम्भव है कि बात को गोपनीय रखने के लिये प्रोफेसर भटनागर के कहने पर डाक्टर आलीवर रीड ने ही झूठ बोला हो । आप ने पूछताछ लन्दन स्थित भारतीय उच्चायुक्त के माध्यम से करवाई थी । शायद उन लोगों ने विषय की गम्भीरता को न समझा हो और इसलिये उन्होंने गोपनीयता की ओर तनिक भी ध्यान न दिया हो । डाक्टर आलीवर रीड को प्रोफेसर भटनागर के हित में सारा सिलसिला बड़ा असुरक्षित-सा लगा हो । इसलिये उन्होंने झूठ बोल दिया हो कि वे प्रोफेसर भटनागर को नहीं जानते ।”
“शायद तुम ठीक कह रहे हो ।” - कर्नल मुखर्जी विचारपूर्ण स्वर में बोले - “इसका मतलब तो यह हुआ कि किसी को यहां से रायल न्यूक्लियर रिसर्च सेंटर लन्दन में डाक्टर आलीवार रीड से सम्पर्क स्थापित करने के लिए भेजना पड़ेगा ।”
“जी हां ।”
“सुनील ।” - कर्नल मुखर्जी फौरन निर्णय लेते हुए बोले - “यह काम मैं तुम्हें सौंपता हूं । जो पहला प्लेन लन्दन रवाना होने वाला होगा, उसमें मैं तुम्हारी सीट बुक करवा दूंगा तुम्हारे पासपोर्ट वगैरह का सब इन्तजाम मैं कम्पलीट करवा दूंगा । तुम यह पिक्चर पोस्ट कार्ड अपने साथ ले जाना प्रोफेसर भटनागर को तलाश करने के मामले में यह परिचय-पत्र का काम देगा । इसे देखकर शायद डाक्टर आलीवर रीड को विश्वास हो जायेगा कि तुम सही आदमी हो । उसके बाद जैसी स्थिति हो उसकी सूचना तुम मुझे देते रहना । मैं लन्दन स्थित भारतीय उच्चायुक्त को तुम्हारे बारे में पहले ही सूचना भिजवा दूंगा । मैं इस बात का पूरा इन्तजाम कर दूंगा कि वे तुम्हारा हर सम्भव सहायता करें । ओके ?”
“ऐज यू से, सर ।”
“ओके दैन । तुम अपने फ्लैट पर जाओ । तुम्हारा प्लेन का टिकट और पासपोर्ट वगैरह शीघ्र ही तुम्हारे पास पहुंच जायेगा ।”
“राइट सर ।”
सुनील उठ खड़ा हुआ । उसने कर्नल मुखर्जी का अभिवादन किया और लम्बे डग भरता हुआ उनके आफिस से बाहर निकल गया ।
***
दिन के लगभग ग्यारह बजे बी ओ ए सी का विशाल बोईंग 707 प्लेन लन्दन के इन्टरनैशनल एयरपोर्ट पर उतरा ।
प्लेन से उतरने वाला आखिरी पैसेन्जर सुनील कुमार चक्रवर्ती था । बाकी पैसेन्जरों के साथ वह भी एयरपोर्ट की इमारत की ओर बढा ।
पासपोर्ट चैक करने वाले आफिसर ने एक मीठी मुस्कराहट के साथ इसका स्वागत किया ।
“मिस्टर सुनील कुमार चक्रवर्ती ?” - वह पासपोर्ट चैक करता हुआ बोला ।
“दैट्स राइट ।” - सुनील ने धैर्यपूर्ण स्वर से उत्तर दिया ।
“भारतीय हैं ?”
“जी हां । पासपोर्ट से जाहिर है ।”
“आफ कोर्स । आई एम सॉरी । सीधे भारत से आ रहे हैं ?”
“जी हां ।”
“बिजनेस ?”
“नहीं । मैं एक अखबार का प्रतिनिधि हूं । मेरी अखबार के लन्दन आफिस में बदली हो गई है ।”
“आई सी । फिर तो आप काफी अरसे तक लन्दन रहेंगे ?”
“जाहिर है ।”
“वैरी गुड, सर । लन्दन में आपका स्वागत है । आशा है आपको नगर पसन्द आयेगा ।”
“थैंक्यू ।”
आफिसर ने सुनील का पासपोर्ट लौटा दिया ।
सुनील ने पासपोर्ट कोट की भीतरी जेब में रखा और बैरियर से निकलकर बाहर आ गया ।
पासपोर्ट आफिसर ने दूर सिगार काउन्टर के समीप खड़े एक चपटी नाक वाले मोटे ताजे आदमी को संकेत किया । चपटी नाक वाले ने एक उड़ती सी दृष्टि सुनील पर डाली और फिर स्वीकृति सूचक ढंग से गरदन हिला दी ।
सुनील स्थिति से बेखबर अपने सूटकेस के कस्टम से चैक होकर आने की प्रतीक्षा कर रहा था ।
थोड़ी देर बाद उसे अपना सूटकेस मिल गया ।
फिर वह एक टैक्सी में सवार हो गया ।
“पोर्टर मिडज ।” - उसने टैक्सी ड्राईवर को बताया ।
ड्राईवर ने स्वीकृति सूचक ढंग से सिर हिलाया और टैक्सी गियर में डाल दी ।
टैक्सी आगे बढ गई ।
चपटी नाक वाला तत्काल काउन्टर से हटा और प्राइवेट कारों की पार्किंग में खड़ी एक पुरानी-सी आस्टिन में आ बैठा । आस्टिन की बगल में ही एक स्टेशन वैगन खड़ी थी जिसकी ड्राईविंग सीट पर पहले से ही एक सिल्क का सूट पहने सफेद हैट लगाये एक दुबला पतला चीनी बैठा था ।
चपटी नाक वाले ने चीनी का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करके उस टैक्सी की ओर संकेत किया जिसमें बैठा हुआ सुनील एयरोड्रोम से बाहर की ओर जा रहा था ।
दोनों गाड़ियां लगभग एक साथ स्टार्ट हुई । चपटी नाक वाले ने स्टेश वैगन को पहले आगे निकल जाने दिया । थोड़ी देर बाद उसने अपनी आस्टिन भी गियर में डाल दी ।
स्टेशन वैगन सुनील की टैक्सी की बगल से होती हुई उससे आगे निकल गई । चपटी नाक वाले ने अपनी आस्टिन टैक्सी के पीछे लगा दी ।
सुनील की टैक्सी चीनी की स्टेशन वैगन और चपटी नाक वाले की आस्टिन के बीच में सैंडविच की तरह फंसी हुई लन्दन की भीड़ भरी सड़कों से गुजर रही थी ।
चीनी स्टेशन वैगन के रियर व्यू मिरर में से सुनील की टैक्सी पर नजर जमाये हुए था । अगर सुनील की टैक्सी चीनी की अपेक्षा के विपरीत किसी ओर सड़क पर मोड़ काट जाती थी तो चीनी जल्दी ही अपनी स्टेशन वैग वापिस घुमाकर या किसी अन्य सड़क के शार्ट कट से मोड़कर उसे फिर सुनील की टैक्सी के पीछे ले जाता था । तब तक चपटी नाक वाला अपनी आस्टिन को टैक्सी के आगे निकाल ले जाता था ।
सुनील इस विषय में पूरा सावधान था कि कोई उसका पीछा तो नहीं कर रहा लेकिन फिर भी वह धोखा खा गया । चपटी नाक वाला और चीनी जिस ढंग से उसका पीछा कर रहे थे उसमें उनका सुनील की जानकारी में आना कठिन ही था । कभी स्टेशन वैगन टैक्सी के पीछे होती थी तो आस्टिन टैक्सी के आगे होती थी । कभी आस्टिन टैक्सी से पीछे होती थी तो स्टेशन वैगन आगे होती थी । भीड़ भरी सड़कों पर सुनील को अपने पीछे कभी भी कोई एक गाड़ी देर तक दिखाई नहीं दी और इसलिए वह यही समझा कि उसका पीछा नहीं किया जा रहा है ।
“पोर्टर मिडज आ गया साहब ।” - टैक्सी ड्राइवर अंग्रेजी में बोला ।
“पांच नम्बर इमारत के सामने रोकना ।” - सुनील बोला टैक्सी ड्राइवर ने पांच नम्बर इमारत के सामने कार रोक दी ।
पांच नम्बर इमारत एक छोटा सा बंगला था ।
सुनील टैक्सी से बाहर निकल आया ।
चपटी नाक वाले ने या चीनी ने उस गली में प्रविष्ट होने का प्रयत्न नहीं किया था ।
सुनील ने टैक्सी का बिल चुकाया और सूटकेस को सम्भाले हुए बंगले का फाटक ठेल कर भीतर प्रविष्ट हो गया ।
वह बंगला ‘ब्लास्ट’ का लन्दन आफिस था जहां ‘ब्लास्ट’ के रामाराव और जगतार सिंह नाम के दो प्रतिनिधि रहते थे सुनील ने किसी होटल के स्थान पर वहां ठहरना ज्यादा उचित और सुरक्ष‍ित समझा था ।
सुनील ने बंगले के बरामदे में जाकर कालबैल पर उंगली रख दी ।
द्वार जगतार सिंह ने खोला । सुनील को देख कर पहले उसके चेहरे पर कोई भाव ही नहीं आया और फिर उस नेत्र यूं फैल गये जैसे बाहर निकल आयेंगे ।
“ओए भापे ।” - वह चिल्लाया और सुनील से लिपट गया ।
“ओए सरदारा ।” - सुनील भी उसी स्वर में चिल्लाया । कितनी देर दोनों एक दूसरे के आलिंगन में बन्धे रहे । फिर जगतार सिंह उससे अलग हुआ । उसने सुनील का सूटकेस उठा लिया और उसे भीतर ले आया ।
सुनील ने देखा, वे एक हाल कमरे में से गुजर रहे थे । उसके दाईं ओर एक कमरा था जो आफिस के ढंग से सजाया हुआ था । हाल कमरे के पीछे दो और कमरे थे जिनके बीच में से एक गलियारा पीछे को जाता था ।
जगतार सिंह उसे बायें कमरे में ले आया ।
वह एक बैडरूम था ।
“रामा राव कहां है ?” - सुनील ने प्रश्न किया ।
“ओए रामा राव नूं गोली मार ।” - जगतार सिंह सूटकेस एक ओर रखता हुआ बोला - “पहले तू मुझसे गल्ल कर । नहीं, पहले आराम से बैठ जा ।”
सुनील एक कुर्सी पर बैठ गया ।
“ऐत्थे कैसे टपक पड़ा है ?” - जगतार सिंह बोला - “रामा राव को मालिक साहब वापिस बुलाने वाले थे । कहीं उसकी जगह तुझे तो नहीं भेजा गया है ?”
“नहीं ।” - सुनील मुस्कराकर बोला ।
“तो फिर ?”
“मैं तो सैर करने आया हूं ।”
“अपने खर्चे से ?” - जगतार सिंह आंखें निकालकर बोला ।
“बिल्कुल ।”
“बल्ले शेरा । सैर करने आया हूं । राजनगर से लन्दन । और कह यूं रहा है जैसे जलन्धर से लुधियाने जाने की बात कर रहा हो । भापे ताजा-ताजा बापू मरा है क्या ?”
“क्या बक रहा है सरदारा !”
“ठीक तो बक रहा हूं । इतना पैसा कहां से आया तेरे पास जो सैर करने लन्दन चला आया है ।”
“कमाया है मैंने ।” - सुनील शान से बोला ।
“जरूर किसी की जेब काटी होगी ।”
“मेहनत की कमाई है बेटे ।”
“जरूर होगी । जेब काटने में भी तो मेहनत लगती है । पकड़े जाने पर जेल में चक्की पीसनी पड़ती है । इससे ज्यादा मेहनत का काम और क्या हो सकता है । अच्छा एक बात बता ।”
“क्या ?”
“किसी सेठ की लड़की या कोई रईस विधवा तो नहीं फांस ली तूने ।”
“पागल हुआ है क्या ?”
“मर्जी तेरी । मत बता ।”
“अब मेरी बात छोड़ । अपनी सुना ।”
“क्या सुनाऊं ?”
“कैसी कट रही है ?”
“बुरा हाल है ।”
“क्यों ?”
“कोई बढिया जनानी ही नहीं मिलती ।”
“क्या कह रहा है, जगतारे । विलायत में भी जनानियों का घाटा है ।”
“जनानियों का घाटा नहीं है लेकिन साली बढिया जनानी नहीं मिलती । बढिया जनानी तो साली अमेरिकनों और हब्शियों पर मरती हैं । हमारे हिस्से तो साला बचत-खुचत का माल आता है । यारा, वाह गुरु दी सौं, अपना अम्बरसर बड़ा याद आता है ऐत्थे ।”
“अबे तू यहां नौकरी करने आया है या औरतें फंसाने आया है ।”
“दोनों ही काम जरूरी हैं, भापे ।” - जगतार सिंह दार्शनिकतापूर्ण स्वर में बोला - “शाम को कोई डार्लिंग फार्लिंग न मिले तो अगले दिन काम भी नहीं होता ।”
“शादी क्यों नहीं कर लेता है ?”
“किससे कर लूं शादी ?”
“किसी मेम से कर ले ।”
“नहीं । शादी तो किसी सरदारनी से ही करूंगा ।”
“लन्दन में कोई सरादरनी नहीं मिलती ?”
“मिलती है । लेकिन मन में निश्चय किया हुआ है कि शादी अम्बरसर जाकर ही करूंगा । शादी के बाद सरदारनी को लेकर सीधा दरबार साहब जाऊंगा और वाहे गुरु के दरबार में मत्था टेक कर आऊंगा ।”
सुनील चुप रहा ।
“तू वाकई सैर करने आया है यार ।” - जगतार सिंह थोड़ी देर बाद संदिग्ध स्वर में बोला ।
“हां ।” - सुनील बोला ।
“विश्वास नहीं होता, यार ।”
“मत मानो ।” - सुनील लापरवाही से बोला ।
जगतार सिंह चुपचाप उसका मुंह देखने लगा ।
“रामा राव कहां है ?” - सुनील ने पूछा ।
“किसी से मिलने गया है ।” - जगतार सिंह बोला - “आता ही होगा ।”
उसी क्षण काल बैल बज उठी ।
“लो, शायद आ ही गया ।” - जगतार अपने स्थान उठता हुआ बोला ।
सुनील भी उसके साथ हो लिया ।
“ठहरो, दरवाजा मैं खोलता हूं ।” - सुनील बोला ।
जगतार सिंह एक ओर हट गया ।
सुनील ने द्वार खोला ।
द्वार पर रामा राव खड़ा था । रामा राव लगभग तीस वर्ष का लम्बा छरहरा चश्माधारी दक्षिण भारतीय युवक था । सुनील को देखकर वह भौंचक्का रह गया ।
“सरपराइज, सरपराइज ।” - सुनील उच्च स्वर में बोला ।
रामा राव बड़े जोश से उसके गले मिला और बोला - “तुम किधर से टपक पड़ा, मैन । मेरी जगह लन्दन आफिस में तुम आने वाला है क्या ?”
“यह तो कहता है, मैं सैर करने आया हूं ।” - जगतार सिंह बोला ।
“अच्छा ।”
सुनील केवल मुस्कराया ।
तीनों भीतर आ गये ।
“सुनील ।” - भीतर आकर जगतार सिंह बोला - “तूने अपना कोई मेकअप या लीपा पोती करनी है तो कर ले फिर खाना खाने चलते हैं और वहीं तुझसे ढेर सारी बातें करेंगे ।
“ओके ।” - सुनील बोला और उठ खड़ा हुआ ।
“तुम काफी लम्बा प्रोग्राम बनाकर आये हो न ?” - राव ने पूछा ।
“क्या मतलब ?” - सुनील बोला ।
“मतलब यह कि लन्दन में कुछ दिन ठहरोगे न ?”
“क्या बात है उस्ताद ।” - सुनील शिकायत भरे स्वर में बोला - “अभी से तंग आने लगे हो ।”
“अरे यह बात नहीं है, बाबा ।” - राम राव बोला - “दरअसल मेरे को आज ही पेरिस जाना है । मैं सोच रहा था कि कहीं ऐसा न हो कि मैं जाऊं और तुम मेरे पीछे से खिसक जाओ ।”
“पेरिस क्या करने जा रहे हो ?”
“वहां का एक सिन्डीकेट ‘ब्लास्ट’ के सन्डे एडीशन के मैगजीन सैक्शन के लिये फीचर सप्लाई करता है । उन लोगों से कोई व्यापारिक मतभेद हो गया है । उसी का फैसला करने जा रहा हूं ।”
“लौटोगे कब ?”
“शायद कल ।”
“तो फिर ठीक है । कल तक तो मैं नहीं जाऊंगा ।”
“फिर ठीक है । अब एक बात का फैसला और कर लो ।”
“क्या ?”
“लन्दन मेरे साथ देखोगे या जगतार सिंह के साथ ।”
“क्या मतलब ?”
“मतलब यह कि अगर जगतार सिंह के साथ घूमोगे तो यह तुम्हें ऐसी जगहें ज्यादा दिखायेगा जहां जवान औरतें नंगी हो हो कर नाचती हैं, जहां ब्लू फिल्में दिखाई जाती हैं और जहां कथित नई पीढी के प्रतिनिधि शायर और चित्रकार वगैरह मारिजुआना और एल एस डी जैसे घातक नशों में धुत होकर शैतानी हरकतें करते हैं ।”
“और यह साला मद्रासी तुम्हें ऐसा लन्दन दिखायेगा जहां पुरानी इमारतों में उल्लू पर फड़फड़ाते फिरते हैं, जहां शाही खानदान के मर खप गये बेगम बादशाहों की रूहें भंगड़ा नाचती हैं, जहां सड़ी गली वाहियात सी तस्वीरों को देखकर लोग अपना सिर धुनने लगते हैं और उन्हें संसार की सबसे ऊंची कलाकृतियों की उपमा दे देते हैं और यह साला तुझे एक सड़ी गली कुर्सी की सड़ी गली तस्वीर दिखायेगा जिसे देखने के लिये इसी जैसे मूर्ख लोग क्यू बनाकर खड़े रहते हैं । दुर फिटे मूं... ।” - और जगतार सिंह ने बुरा सा मुंह बनाया ।
सुनील और राम राव दोनों हंसने लगे ।
“भाइयो” - सुनील बोला - “मेरी इच्छा तो दोनों ही लन्दन देखने की है ।”
“ये हुई न अक्लमन्दी की बात ।” - जगतार सिंह प्रशंसात्मक स्वर में बोला - “मद्रासी तो पेरिस जा रहा है । तू मेरे साथ चलेगा ही । प्यारे, वाहे गुरु दी सौं एक ही नजारे में तेरा खून न उबल जाये ते तो कहीं ।”
सुनील ने उत्तर नहीं दिया । वह अपना सूटकेस खोलने लगा ।
वह सोच रहा था कहीं उसने होटल में रहने के स्थान पर इन लोगों के साथ रहने के लिये आकर गलती तो नहीं की है ।
बाहर पोर्टर मिडज के मोड़ पर बड़ी सड़क पर चपटी नाक वाले की आस्टिन और सफेद हैट वाले चीनी का स्टेश वैगन खड़ी थी ।
उसी क्षण एक काले रंग की फोर्ड और एक क्रीम रंग की रोवर उनकी गाड़ियों के समीप आकर खड़ी हुई । उनकी ड्राइविंग सीटों से दो आदमी बाहर निकले ।
चपटी नाक वाला आस्टिन में से निकला ओर काले रंग की फोर्ड की ड्राइविंग सीट पर जा बैठा । सफेद हैट वाला चीनी स्टेशन वैगन छोड़कर क्रीम कलर की रोवर में सवार हो गया । पहले उतरे दो आदमी स्टेशन वैगन और आस्टिन लेकर रवाना हो गये । अगले ही क्षण दोनों गाड़ियां सड़क पर दौड़ती हुई दृष्टि से ओझल हो गई ।
चपटी नाक वाले ने सफेद हैट वाले चीनी को संकेत किया ।
सफेद हैट वाले चीनी ने रोवर को स्टार्ट किया और उसे फर्स्ट गियर में चलाता हुआ उस ओर चल दिया जिधर से वह आया था । थोड़ी दूर जाकर एक साइड लेन में उसने अपनी कार रोक दी ।
चपटी नाक वाला वहीं काले रंग की फोर्ड में बैठा रहा । उसने अपनी जेब से निकालकर एक सिगरेट सुलगा लिया और फिर स्टेयरिंग पर कोहनियां टिकाये धैर्यपूर्ण ढंग से प्रतीक्षा करने लगा ।
***
रायल न्यूक्लियर रिसर्च सैन्टर की विशाल इमारत के सामने सुनील टैक्सी से उतरा ।
चपटी नाक वाला और सफेद हैट वाला चीनी पूर्ववत् उसका पीछा कर रहे थे । सुनील उनसे एकदम बेखबर था ।
सुनील गेट की बगल में बने रिसैप्शन आफिस में पहुंचा ।
“मैं डाक्टर आलीवर रीड से मिलना चाहता हूं ।” - उसने रिसैप्शन डैस्क के पीछे बैठी हुई सुन्दर अंग्रेज महिला को बताया ।
“आपका डाक्टर रीड से अप्वायंटमैंट है ?” - रिसैप्शनिस्ट ने अपने व्यवसाय सुलभ मधुर स्वर में प्रश्न किया ।
“नहीं ।” - सुनील धैर्यपूर्ण स्वर में बोला - “मैं भारत से आया हूं । हवाई अड्डे पर उतरने के बाद लगभग फौरन ही मैं यहां चला आया हूं । डाक्टर रीड से अप्वायंटमैंट हासिल करने का समय नहीं था । लेकिन मैं भारत सरकार से सम्बन्धित हूं और एक बहुत ही महत्वपूर्ण काम से डाक्टर रीड से मिलना चाहता हूं । मुझे विश्वास है कि वे अपना थोड़ा सा अमूल्य समय मुझे देने में इन्कार नहीं करेंगे ।”
अंग्रेज महिला कुछ क्षण हिचकिचाई और फिर एक मोटा सा रजिस्टर उसकी ओर सरकाती हुई बोली - “इस पर अपना नाम और पता वगैरह लिख दीजिये ।”
सुनील ने वैसा ही किया ।
रिसैप्शनिस्ट ने उसके नाम एक पास बना दिया और अपने मेज पर रखी घन्टी बजा दी ।
“मिस्टर सुनील ।” - वह बोली - “मैं आपको डाक्टर रीड की पर्सनल सैक्रेट्री के पास भेज रही हूं । अगर वह मुनासिब समझेगी तो आपको डाक्टर रीड के पास ले जायेगी । मैं इससे अधिक और कुछ नहीं कर सकती ।”
“थैंक्यू ।” - सुनील कृतज्ञातापूर्ण स्वर में बोला - “थैंक्यू वैरी मच ।”
रिसैप्शनिस्ट मुस्कराई ।
घन्टी के जवाब में एक वर्दीधारी गार्ड कमरे में प्रविष्ट हुआ ।
“साहब को मिस केली ओब्रायन के पास ले जाओ ।” - वह बोली । और उसने सुनील का पास वर्दीधारी गार्ड को थमा दिया ।
सुनील गार्ड के साथ हो लिया ।
गार्ड उसे चौथी मंजिल पर स्थित एक सजे सजाये आफिस में ले आया । उस आफिस में दीवार के साथ-साथ लगी ढेर सारी कुर्सियां पड़ी थीं जिनमें से कुछ पर लोग बैठे हुए थे । पीछे एक द्वार था जिसके धुंधले शीशे पर लिखा था -
डाक्टर आलीवर रीड
डायरेक्टर
उस द्वार की बगल में एक सैक्रिटेरियल डैस्क था जिसके पीछे एक बेहद सुन्दर ब्लोंड बालों वाली लड़की बैठी थी । उसकी मेज के सिरे पर एक छोटा सा नाम पट रखा था जिस पर लिखा था - मिस केली ओब्रायन ।
गार्ड ने सुनील का पास उस लड़की को सौंप दिया और फिर उसने सुनील की ओर संकेत कर दिया ।
सुनील मुस्कराया और फिर लड़की के संकेत पर उसके सामने की कुर्सी पर बैठ गया ।
गार्ड वहां से विदा हो गया ।
लड़की कुछ क्षण विचित्र नेत्रों से सुनील को देखती रही और फिर उसने एक उड़ती हुई दृष्टि कमरे में मौजूद अन्य लोगों पर डाली और फिर अपेक्षाकृत धीमे स्वर में बोली - “आप डाक्टर रीड से मिलना चाहते हैं ?”
“जी हां ।”
“किस विषय में ?”
“यह मैं डाक्टर रीड को ही बताऊंगा ।” - सुनील शान्ति से बोला ।
“डाक्टर रीड बिना अप्वायंटमैंट नहीं मिलते हैं ।” - लड़की अर्थपूर्ण स्वर में बोली ।
सुनील चुप रहा ।
लड़की कुछ क्षण सुनील के बोलने की प्रतीक्षा करती रही और फिर बोली - “जब तक आप मुझे यह नहीं बतायेंगे कि आप डाक्टर रीड से क्यों मिलना चाहते हैं तब तक मैं यह कैसे फैसला कर सकूंगी कि आपको बिना अप्वायंटमैंट डाक्टर से मिलने का अवसर देना चाहिये या नहीं ।”
“मैं भारत सरकार का प्रतिनिधि हूं ।” - सुनील धैर्यपूर्ण स्वर में बोला - “और मैं अपनी मुलाकात के विषय को गोपनीय रखना चाहता हूं ।”
“लेकिन मैं डाक्टर रीड की पर्सनल सैक्रेट्री हूं ।”
“जरूर होंगी, लेकिन फिर भी आप डाक्टर रीड तो नहीं हैं ।”
लड़की कुछ क्षण चुप रही और फिर निर्णयात्मक स्वर में बोली - “आई एम सारी, मिस्टर सुनील । आज डाक्टर रीड आपसे नहीं मिल पायेंगे । वे बहुत व्यस्त हैं । आप कल आइयेगा ।”
“लेकिन आप डाक्टर रीड को मेरे बारे में सूचित तो कीजिये ।”
“मैं इसकी जरूरत नहीं समझती । डाक्टर रीड बहुत बिजी हैं ।”
लड़की ने लैटर पैड में से एक कागज फाड़ा और उस पर जल्दी से कुछ लिखा और कागज सुनील के हाथ में ठूंसती हुई बोली - “आप कल ग्यारह बजे आ जाइयेगा । यह नोट आप गेट पर दिखा दीजियेगा । आपको यहां तक पहुंचने में कोई दिक्कत नहीं होगी ।”
और वह अपने स्थान से उठी और डाक्टर रीड के कमरे का द्वार खोलकर भीतर घुस गई ।
सुनील फिर भी अपने स्थान पर बैठा रहा ।
पांच मिनट बाद लड़की वापिस लौटी । सुनील को देखकर वह तनिक खीज भरे स्वर में बोली - “आप अभी तक यहीं हैं ?”
“क्या ऐसी कोई सूरत नहीं हो सकती कि मैं आज ही डाक्टर रीड से मिल पाऊं ?” - सुनील बोला ।
“आई एम सॉरी, मिस्टर सुनील ।”
“आखिर मैं उन्हें टेलीफोन तो कर ही सकता हूं । फिर आप...”
“उनकी सारी कॉल मैं ही रिसीव करती हूं ।”
“और आप डाक्टर रीड तक मेरी कॉल नहीं पहुंचने देंगी ।”
“इसमें कोई बुरा मानने वाली बात नहीं है, मिस्टर सुनील । मैं डाक्टर रीड की पर्सनल सैक्रेट्री हूं । मेरा तो काम ही यह है कि मैं ऐसा कुछ न होने दूं जिससे डाक्टर रीड को अकारण परेशानी उठानी पड़े ।”
“वैसे मेरे ख्याल से अगर आप चाहें तो आप आज ही डाक्टर रीड से मेरी मुलाकात करवा सकती हैं ।”
“सॉरी, मैं नहीं करवा सकती । डाक्टर रीड बहुत सख्त मिजाज के आदमी हैं । वे अनियमिततायें पसन्द नहीं करते ।”
“लेकिन...”
“अब समाप्त कीजिये । आप कल आइयेगा ।” - इस बार लड़की तनिक उच्च स्वर में बोली ।
कमरे में बैठे लोग विचित्र नेत्रों से सुनील को देख रहे थे ।
सुनील उठ खड़ा हुआ । हथियार डाल देने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं था ।
“ओके ।” - वह गहरी सांस लेकर बोला - “ओके मैडम, मैं कल आऊंगा ।”
“जरूर ।” - लड़की बोली - “वैसे सम्भव यह भी है कि कल होने तक आपको डाक्टर रीड से मिलने की जरूरत ही न रहे ।”
“यह सम्भव नहीं है ।”
“शायद हो ।” - लड़की बोली । उसी क्षण टेलीफोन की घन्टी बज उठी । लड़की टेलीफोन सुनने में व्यस्त हो गई ।
सुनील कमरे से बाहर निकल गया ।
इमारत से बाहर निकलकर सुनील ने वह कागज खोला जो लड़की ने उसके हाथ में ठूंस दिया था और जो अभी तक सुनील की मुट्ठी में ही बन्द था । कागज पर लिखी इबारत पर दृष्टि पड़ते ही वह चौंक गया । कागज पर लिखा था - रात को आठ बजे । जार्ज एण्ड ड्रेगन में ।
सुनील ने सशंक दृष्टि से अपने आसपास देखा । किसी का ध्यान उसकी ओर नहीं था ।
उसने एक बार फिर कागज के पुर्जे पर लिखी इबारत को पढा । और फिर कागज के छोटे छोटे टुकड़े करके उन्हें एक पेड़ के साथ लगे कूड़ा फेंकने वाले डिब्बे में डाल दिया ।
वह लम्बे डग भरता हुआ इमारत की हद से बाहर की ओर चलता रहा । वह हैरान था मिस ओब्रायन ने उसे ऐसा कुछ लिखकर क्यों दिया था और फिर जार्ज एण्ड ड्रेगन क्या बला थी ।
वह बाहर निकला और पैदल ही एक ओर चल दिया ।
चपटी नाक वाले ने और सफेद हैट वाले चीनी ने उसे पैदल चलते देखा लेकिन उन्होंने अपनी गाड़ियां स्टार्ट करने का उपक्रम नहीं किया । सड़क लम्बी और सीधी थी । सुनील एकाएक दृष्टि से ओझल नहीं हो सकता था ।
एक पैट्रोल पम्प पर उसे एक टेलीफोन बूथ दिखाई दिया । उसने उस टेलीफोन बूथ से पोर्टर मिडज वाले बंगले पर जगतार सिंह को फोन किया ।
“रामाराव गया ?” - सुनील ने पूछा ।
“हां ।” - जगतार सिंह का स्वर सुनाई दिया - “वह तो तुम्हारे जाने के बाद ही चला गया था । तुम कहां से बोल रहे हो ?”
“जहां से मैं बोल रहा हूं, मुझे इस जगह का नाम मालूम नहीं है । तुम मुझे एक बात बताओ ।”
“दो पूछो ।”
“जार्ज एण्ड ड्रेगन क्या बला है ? मुझे तो यह किसी फिल्म या ड्रामे का नाम मालूम होता है ।”
कुछ क्षण दूसरी ओर से कोई उत्तर नहीं मिला । फिर जगतार सिंह का गम्भीर स्वर सुनाई दिया - “ओ भापे, जार्ज एण्ड ड्रेगन का नाम किसने सुझा दिया है तुझे ।”
“बहस छोड़ो यार, तुम यह बताओ कि जार्ज एण्ड ड्रेगन है क्या बला ?”
“जार्ज एण्ड ड्रेगन एक रेस्टोरेन्ट का नाम है । बहुत बदनाम जगह है । वहां आदमियों को लड़कियां सर्व करती हैं और औरतों को लड़के । आदमियों को वहां मक्खन जैसे मुलायम और भड़कीली आग जैसे जवान बदन की छोकरियां मिलती हैं और औरतों को खूबसूरत और ताकतवर जिस्मों वाले गबरू जवान मिलते हैं । वहां...”
“ये रेस्टोरेन्ट है कहां ?” - सुनील उतावले स्वर में उसकी बात काटता हुआ बोला ।
“सोहो में । और प्यारयो, वहां अकेले मत जाना वर्ना तेरा बोलो राम हो जायेगा । लन्दन का सोहो वही चीज है जो बम्बई की फारस रोड है, दिल्ली की जी बी रोड है, कलकत्ते का सोना गाछी है, लाहौर की हीरा मंडी है...”
सुनील ने धीरे से रिसीवर को हुक पर टांग दिया ।
सुनील ने एक टैक्सी वाले को पकड़ा ।
“सोहो के आसपास कोई टूरिस्ट इन्टरेस्ट की जगह है ?” - उसने टैक्सी वाले से पूछा ।
टैक्सी वाले ने विचित्र नेत्रों से सुनील की ओर देखा और फिर बोला - “पिकेडली सर्कस ।”
“वहीं चलो ।” - सुनील बोला ।
टैक्सी चल पड़ी ।
चपटी नाक वाला और सफेद हैट वाला चीनी बदस्तूर उसकी निगरानी कर रहे थे ।
सुनील पिकेडली सर्कस पर टैक्सी से उतर गया ।
सात बजे तक वह पिकेडली और आक्सफोर्ड स्ट्रीट के इलाका में घूमता रहा । उसके बाद उसने पैदल ही सोहो का रुख किया ।
उस समय केवल चपटी नाक वाला उसका पीछा कर रहा था ।
सोहो की भीड़ भाड़ वाली तंग सड़कों पर सुनील को मालूम नहीं हो सका कि उसका पीछा किया जा रहा है ।
अन्त में वह जार्ज एण्ड ड्रेगन के सामने पहुंचा । वह कुछ क्षण हिचकिचाया और फिर भीतर प्रविष्ट हो गया ।
चपटी नाक वाले ने उसके पीछे भीतर जाने का उपक्रम नहीं किया ।
रेस्टोरेन्ट में बहुत भीड़ थी । वहां का हर कोना लोगों से खचाखच भरा हुआ था । बड़ी कठिनाई से वह एक ऐसी टेबल पर एक सीट तलाश कर पाया जहां पहले से ही चार हिप्पी बैठे कॉफी और सिगरेट पी रहे थे । उन लोगों ने नजर उठाकर सुनील की ओर देखा तक नहीं । वे बड़े उत्तेजित स्वरों में किसी बात पर बहस कर रहे थे ।
एक खूबसूरत वेट्रेस सुनील के पास पहुंची । सुनील ने उसे काफी का आर्डर दे दिया । उसके चेहरे पर ऐसे भाव थे जैसे काफी के आर्डर से ज्यादा उसे खुद अपने शरीर के आर्डर की ज्यादा अपेक्षा हो ।
उसी क्षण सफेद हैट वाला चीनी रेस्टोरेन्ट में प्रकट हुआ ।
उसने कुछ क्षण दायें बायें दृष्टि दौड़ाई और फिर भीड़ भरी मेजों के बीच में से गुजरता हुआ सुनील की ओर बढा । उसी क्षण सुनील की बगल की मेज से दो आदमी उठे और बाहर की ओर चल दिये ।
सफेद हैट वाला चीनी उनके द्वारा खाली की गई कुर्सियों में से एक पर बैठ गया ।
उसने विस्की का आर्डर दिया ।
सुनील तनिक सन्द‍िग्ध हो गया । चीनी का पीला चेहरा, उसका सिल्क का सफेद सूट और सफेद हैट उसकी याददाश्त में हथौड़े की तरह बजने लगा । उसे ऐसा लगा जैसे उसने उस चीनी को अपने आसपास कहीं पहले भी देखा हो ।
सफेद हैट वाला चीनी प्रत्यक्षतः सुनील से बेखबर विस्की पीता रहा ।
काफी समाप्त कर चुकने के बाद सुनील ने एक सिगरेट सुलगा लिया ।
चीनी ने अपना विस्की का गिलास खाली किया और वेट्रेस को संकेत किया । वेट्रेस उसके समीप आई । चीनी ने उसकी कमर के गिर्द अपनी बांह लपेट कर उसे अपने समीप खींच लिया, फिर बड़े अश्लील ढंग से उसकी पीठ के नीचे के भाग को थपथपाया और विस्की का आर्डर दे दिया ।
वेट्रेस बेशर्मी से मुस्कराती हुई वहां से हट गई ।
सुनील शान्ति से सिगरेट पीता रहा ।
ठीक आठ बजे रेस्टोरेन्ट के मुख्य द्वार के पास उसे मिस ओब्रायन दिखाई दी । उसकी खोजपूर्ण दृष्टि हाल में घूम रही थी । अन्त में उसके नेत्र सुनील के नेत्रों से टकराये । उसने नेत्र से ही सुनील को बाहर आने का संकेत किया और उल्टे पांव होटल से बाहर निकल गई ।
सुनील ने वेट्रेस को बुलाकर अपना बिल चुकाया और सन्दिग्ध भाव से सफेद हैट वाले चीनी की ओर देखा ।
चीनी सुनील के प्रति कतई लापरवाह था । उसने वेट्रेस को और विस्की लाने का आर्डर दे दिया ।
सुनील को अपना सन्देह निर्मूल दिखाई देने लगा । अगर सफेद हैट वाला चीनी उसका पीछा कर रहा होता तो वह भी सुनील को उठता देखकर और विस्की मंगाने के स्थान पर अपना बिल चुका रहा होता ।
सुनील को बाहर की ओर जाते देखकर सफेद हैट वाला चीनी ने सिर भी नहीं उठाया ।
द्वार के समीप पहुंचकर सुनील ने एक बार फिर चीनी की दिशा में देखा ।
चीनी अपने विस्की के नये गिलास पर झुका हुआ था ।
सुनील को विश्वास हो गया कि चीनी की उसमें कोई दिलचस्पी नहीं थी ।
सुनील जार्ज एण्ड ड्रेगन से बाहर निकल आया ।
सड़क के दूसरी ओर उसे मिस ओब्रायन खड़ी दिखाई दी ।
सुनील को रेस्टोरेन्ट से बाहर निकलते देखते ही वह फौरन एक ओर चल दी ।
सुनील सड़क पार करके दूसरी ओर के फुटपाथ पर पहुंचा और अपने और मिस ओब्रायन में एक निश्चित फासला रखे हुए उसके पीछे चलने लगा ।
चपटी नाक वाला जो रेस्टोरेन्ट के द्वार के समीप ही खड़ा था, फौरन सुनील के पीछे लग गया ।
मिस ओब्रायन बिना पीछे देखे स्थिर गति से सोहो के भीड़भाड़ वाले रास्तों से गुजरती चली गई ।
सुनील उस पर दृष्टि जमाये एक निश्च‍ित फासले पर उसके पीछे चलता रहा ।
चपटी नाक वाला सुनील का पीछा करता रहा ।
फिर मिस ओब्रायन उन रास्तों से गुजरने लगी जिन पर भीड़ कम थी ।
अन्त में वह एक ऐसे इलाके में पहुंच गई जहां रास्ते तंग थे, रोशनी बहुत कम थी और जहां इक्का दुक्का आदमी ही घूमता दिखाई दे रहा था ।
मिस ओब्रायन एक क्षण के लिये एक स्थान पर ठिठकी और फिर दो ऊंची-ऊंची इमारतों के बीच की एक पतली और लगभग अन्धेरी गली में घुस गई ।
सुनील तनिक हिचकिचाया और फिर उसके पीछे गली में प्रविष्ट हो गया ।
चपटी नाक वाला गली के मुंह के समीप ठिठक गया । उसने गली में प्रविष्ट होने का उपक्रम नहीं किया ।
गली में काफी आगे निकल जाने के बाद मिस ओब्रायन एक स्थान पर रुक गई ।
सुनील लम्बे डग भरता हुआ उसके समीप पहुंच गया ।
“किसी ने तुम्हारा पीछा तो नहीं किया ?” - मिस ओब्रायन ने धीमे स्वर में पूछा । उसके स्वर में मौजूद भय का पुट सुनील से छुपा नहीं रह सका ।
“नहीं ।” - सुनील भी वैसे ही धीमे स्वर में बोला ।
“तुम प्रोफेसर भटनागर की तलाश में आये हो न ?” - मिस ओब्रायन ने पूछा ।
“हां ।” - सुनील बोला । उसका दिल धड़कने लगा था । प्रोफेसर भटनागर का सुराग इतनी जल्दी और इतनी आसानी से मिल जाने की आशा उसे नहीं थी ।
“तुम्हारे पास वह पिक्चर पोस्ट कार्ड है जो प्रोफेसर भटनागर ने डाक्टर ओलीवर रीड की ओर से अपने ही नाम पर भारत भेजा था ?”
“हां है ।”
“दिखाओ ।”
सुनील ने पिक्चर पोस्ट कार्ड निकालकर मिस ओब्रायन के हाथ में थमा दिया ।
मिस ओब्रायन ने अपनी पर्स में से एक छोटी सी पेन्स‍िल टार्च निकाली और उसके प्रकाश में पिक्चर पोस्ट कार्ड का निरिक्षण करने लगी । थोड़ी देर बाद उसने सन्तुष्टिपूर्ण ढंग से सिर हिलाया और फिर बोली - “अपना पासपोर्ट भी दिखाओ ।”
सुनील ने उसे पासपोर्ट भी दे दिया ।
थोड़ी देर वह पासपोर्ट देखती रही । फिर उसने दोनों चीजें सुनील को वापिस कर दीं ।
“तुम सही आदमी हो ।” - वह बोली - “मैं तुम्हें प्रोफेसर भटनागर के पास ले चलूंगी । मैंने ही प्रोफेसर को यह तरकीब सुझाई थी । मुझे विश्वास था कि इससे जरूर नतीजा निकलेगा ।”
“लेकिन इससे डाक्टर ओलीवर रीड का क्या वास्ता है ?” - सुनील ने पूछा ।
“कोई वास्ता नहीं है । डाक्टर ओलीवर रीड वाकई प्रोफेसर भटनागर को नहीं जानता है । मैंने ही प्रोफेसर भटनागर को यह सुझाव दिया था कि वह प्रोफेसर ओलीवर रीड के नाम से अपने हैंड राइटिंग में स्वयं को यह पिक्चर पोस्ट कार्ड भेज दें । पिक्चर पोस्ट कार्ड उच्चाधिकारियों के पास जरूर पहुंचेगा और यह बात भी जरूर प्रकट होगी कि पिक्चर पोस्ट कार्ड का हैंड राइटिंग स्वयं प्रोफेसर भटनागर का है । फिर भारत से कोई न कोई आदमी रायल न्यूक्ल‍ियर रिसर्च सैन्टर के डायरेक्टर ओलीवर रीड से मिलने जरूर आयेगा । डाक्टर रीड से मिलने आये आदमी को हर हाल में पहले मेरे पास आना पड़ता है । और फिर मैं उस आदमी को डाक्टर रीड तक पहुंचने ही नहीं दूंगी ।”
“ओह ।” - सुनील बोला - “इसलिये तुम मुझे डाक्टर रीड के पास नहीं जाने दे रही थीं और अन्त में तुमने यह भी कहा था कि शायद कल मुझे डाक्टर रीड से मिलने की जरूरत ही न रहे ।”
“बिल्कुल ।”
“और अगर मैं डाक्टर रीड से उसके निवास स्थान पर मिलने की कोशिश करता या उसे फोन करता तो मेरा तुमसे सम्पर्क कैसे स्थापित होता ?”
“डाक्टर रीड घर पर किसी से नहीं मिलता है और अगर उसे कोई फोन करे तो भी वह यही कहता है कि फोन करने वाला उसकी सैक्रेट्री से अर्थात मेरे से मिलने का समय निश्च‍ित कर ले और फिर दफ्तर में आये ।”
“आई सी । लेकिन प्रोफेसर भटनागर के साथ ऐसी समस्या क्या है जो उन्होंने भारत सरकार से सम्पर्क स्थापित करने का इतना पेचीदा तरीका चुना है ।”
“इसका बेहतर जवाब तो तुम्हें डाक्टर भटनागर ही दे सकेंगे लेकिन फिर भी मैं तुम्हें इतना जरूर बता सकती हूं कि लन्दन के चप्पे-चप्पे पर भटनागर की तलाश हो रही है ।”
“और तुम्हारा डाक्टर भटनागर से क्या वास्ता है ?”
“इसका भी बेहतर जवाब तुम्हें डाक्टर भटनागर ही दे पायेंगे ।”
“डाक्टर भटनागर कहां हैं ?”
“वे ऊपर बर्कले मिडज की छत्तीस नम्बर इमारत में मैं तुम्हें...”
वह बोलती-बोलती एकाएक रुक गई ।
गली में जिस ओर से वे प्रविष्ट हुए थे, उधर से भारी कदमों की समीप आती हुई आवाज आ रही थी ।
सुनील ने उस ओर देखा । एक साया सा उनकी ओर बढ रहा था ।
“कौन है ?” - मिस ओब्रायन हड़बड़ाये स्वर में फुसफुसाई ।
“होगा कोई ।” - सुनील लापरवाही से बोला - “यह आम रास्ता है । यह कैसे हो सकता है जब गली में तुम मौजूद होवो तो तब यहां से कोई गुजरे ही नहीं ।”
मिस ओब्रायन फिर नहीं बोली । लेकिन वह भयभीत थी ।
भारी कदमों की आवाज समीप आती गई ।
फिर सुनील को गली के धुंधलके में एक चपटी नाक वाला चेहरा दिखाई दिया ।
चपटी नाक वाले ने एक उड़ती सी दृष्टि उन दोनों पर डाली और फिर लापरवाही से उनकी बगल में से होता हुआ आगे बढ गया ।
मिस ओब्रायन के मुंह से शान्ति की एक गहरी सांस निकली ।
सुनील फिर मिस ओब्रायन की ओर आकर्षित हुआ ।
उसी क्षण चपटी नाक वाला बिजली की फुर्ती से अपनी एड़ियों पर घूमा और उसने सुनील पर छलांग लगा दी ।
सुनील अभी सम्भलने भी नहीं पाया था कि चपटी नाक वाले का वज्र जैसा घूंसा उसके चेहरे से टकराया । घूंसे के प्रहार से सुनील पीछे की ओर गिरा और उसका सिर पिछली दीवार से टकरा गया ।
उसके नेत्रों के सामने सितारे नाच गये ।
मिस ओब्रायन के मुंह से एक चीख निकली और वह तेजी से गली के बाहर की ओर भागी ।
चपटी नाक वाला उसके पीछे लपका ।
सुनील उसकी ओर झपटा और उसने अपनी बांहें चपटी नाक वाले की कमर के गिर्द लपेट दी ।
चपटी नाक वाला एक क्षण के लिये लड़खड़ाया और फिर उसने सम्भलकर अपनी दोनों कोहनियों का भरपूर प्रहार सुनील के पेट में किया ।
उसकी कमर से सुनील के हाथों की पकड़ ढीली पड़ गई ।
चपटी नाक वाला एकदम सुनील की ओर घूमा । उसने ताबड़ तोड़ तीन चार घूंसे सुनील की छाती और पेट पर जड़ दिये ।
सुनील की आंखों के आगे अन्धेरा छाने लगा ।
फिर चपटी नाक वाले के भारी बूट वाले पांव की भरपूर ठोकर सुनील की पसलियों में पड़ी । सुनील के पांव उखड़ गये । वह फुटबाल की तरह उछलकर गली के पथरीले फर्श पर जा गिरा । उसका सिर भड़ाक से किसी नोकदार वस्तु से टकराया और फिर निष्चेष्ट हो गया ।
चपटी नाक वाला उसके चेतनाहीन शरीर को गली में पड़ा छोड़कर पूरी शक्ति से मिस ओब्रायन के पीछे भागा ।
***
सुनील को होश आया तो उसने स्वयं को मुंह के बल गली में पाया । वह लड़खड़ाता हुआ उठकर अपने पैरों पर खड़ा हो गया । उसका सिर बुरी तरह घूम रहा था और उसे ऐसा अनुभव हो रहा था जैसे वह किसी भी क्षण फिर बेहोश होकर गिर पड़ेगा । उसके शरीर का जोड़-जोड़ दुख रहा था । सिर में कान के ऊपर एक बड़ा सा गूमड़ निकल आया था ।
स्वयं को सन्तुलित करने का भरसक प्रयत्न करते हुए उसने अपनी कलाई पर बंधी घड़ी पर दृष्ट‍िपात किया । नौ बज चुके थे । वह कम से कम आधा घन्टा उस गन्दी नाली में बेहोश पड़ा रहा था । उसने अपने सिर को एक जोरदार झटका दिया और फिर धीरे-धीरे रह रहकर उसके नेत्रों के सामने उमड़ आने वाले अन्धकार के बादल छटने लगे ।
वह लड़खड़ाता हुआ गली से बाहर की ओर बढा ।
गली के मुंह के थोड़ा इधर उसे एक सफेद सी वस्तु पड़ी दिखाई दी । सुनील ने झुककर उसे उठा लिया ।
वह सफेद चमड़े की सैन्डिल का दायां पैर था । वैसी सैंडिल उसने मिस ओब्रायन को पहने देखा था ।
कहीं मिस ओब्रायन दुश्मनों के हाथ में तो नहीं पड़ गई । सुनील ने सशंक मन से सोचा ।
सुनील ने सैन्डिल का वह पैर वहीं गली में फेंक दिया और गली से बाहर निकल आया ।
शीघ्र ही उसे एक टैक्सी मिल गई ।
“अपर बर्कले मिडज ।” - सुनील ने ड्राइवर को बताया ।
ड्राइवर ने स्वीकृति-सूचक ढंग से सिर हिलाया । और फिर टैक्सी एक झटके से आगे बढ गई ।
सुनील ने टैक्सी की सीट की पीठ से अपना सिर टिका दिया और अपनी खोई हुई शक्ति का संचय करने का प्रयत्न करता रहा । फिर अपने आप ही उसके नेत्र मुंद गये ।
पन्द्रह मिनट तक टैक्सी नगर की विभिन्न सड़कों पर दौड़ती रही ।
“अपर बर्कले मिडज में कहां चलूं, साहब ?” - एकाएक ड्राइवर ने पूछा ।
“अपर बर्कले मिडज का इलाका कौन सा है ?” - सुनील ने नेत्र खोलकर पूछा ।
टैक्सी ड्राइवर ने बगल की एक सड़क की ओर संकेत कर दिया ।
“मुझे यहीं उतार दो ।” - सुनील बोला ।
टैक्सी रुक गई ।
सुनील ने टैक्सी का बिल चुकाया और ड्राइवर की बताई हुई सड़क की ओर बढा ।
टैक्सी फौरन आगे बढ गई ।
उस सड़क पर दोनों ओर पुराने-पुराने दो मंजिले मकान थे । सुनील मकानों के नम्बर देखता हुआ आगे बढने लगा ।
छत्तीस नम्बर इमारत के सामने आकर सुनील ठिठका ।
वह एक बेहद पुरानी और जर्जर इमारत थी और उसकी हालत देखकर ऐसा मालूम होता था, जैसे उसमें कोई रहता न हो ।
सुनील ने मुख्य द्वार की सीढियां चढकर द्वार के भीतर की ओर थोड़ा सा धकेला ।
एक हल्की सी चरचराहट की आवाज हुई और द्वार भीतर की ओर सरक गया ।
सुनील ने एक सतर्क दृष्टि सड़क के दोनों ओर दोहराई ।
सड़क सुनसान थी ।
उसी क्षण सुनील को दूर एक पेड़ के पीछे कुछ हिलता हुआ दिखाई दिया ।
सुनील कुछ क्षण झिझका और फिर सीढियां उतर आया और उस पेड़ की दिशा में चलने लगा ।
अभी वह कुछ ही कदम आगे बढा था कि पेड़ के पीछे एक सफेद सूट और सफेद हैटधारी व्यक्ति निकला और बिना सुनील की ओर दृष्टिपात किये लम्बे डग भरता हुआ सुनील से विपरीत दिशा में चल दिया ।
सड़क पर फैले सीमित प्रकाश में भी सुनील उसे फौरन पहचान गया । वह वही चीनी था जिसे थोड़ी देर पहले उसने जार्ज एण्ड ड्रेगन में अपनी बगल की मेज पर बैठा विस्की पीते देखा था ।
सुनील के देखते-देखते वह लम्बे डग भरता हुआ सड़क के सिरे पर पहुंचा और फिर बड़ी सड़क पर एक ओर मुड़कर दृष्टि से ओझल हो गया ।
सुनील कुछ क्षण विचारपूर्ण मुद्रा बनाये वहीं खड़ा रहा और फिर वापिस छत्तीस नम्बर इमारत की ओर पलटा ।
वह द्वार ठेल कर इमारत के भीतर प्रविष्ट हो गया ।
“कोई है ?” - सुनील ने आवाज लगाई ।
कोई उत्तर नहीं मिला । इमारत में मरघट का सा सन्नाटा छाया हुआ था ।
सुनील ने द्वार भीतर से बन्द कर लिया और जेब में से माचिस निकाल ली ।
उसी क्षण धप्प से कोई चीज उसके पांव पर गिरी और फिर कूद कर अलग हट गई ।
सुनील घबरा गया । उसने फौरन माचिस जलाई ।
माचिस के प्रकाश में उसने देखा, इमारत का बुरा हाल था । हर चीज पर धूल की तहें जमीं हुई थी । छतों पर और उस विशाल कमरे में मौजूद हर चीज पर बड़े-बड़े जाले लगे हुए थे जिनमें बड़ी बड़ी मकड़ियों के दर्शन हो रहे थे । कमरे में मोटे मोटे रंग के भूरे चूहे कूदते फिर रहे थे ।
सुनील ने माचिस की दूसरी तीली जलाई और अपनी सतर्क दृष्टि फिर चारों ओर फिराने लगा ।
एक कोने में ऊपर की मंजिल की ओर ले जाने वाली लकड़ी की सीढियां थी । सीढियां भी फर्श की तरह धूल से अटी पड़ी थीं । जहां वह खड़ा था, वहां से लेकर सीढियों तक और फिर ऊपर जाती हुई सीढियों पर सुनील को धूल में बने हुए ताजे कदमों के निशान दिखाई दिये ।
सुनील ने तीसरी माचिस जलाई और सावधानी से सीढियों की ओर बढा । सीढियों के बीच में सुनील को मिस ओब्रायन की सफेद सैंडिल का दूसरा पैर पड़ा दिखाई दिया । सुनील का दिल किसी अज्ञात आशंका से धड़कने लगा । उसने माचिस बुझा दी और फिर अन्धकार में ही दबे पांव सीढियां चढने लगा ।
ऊपर की मंजिल पर पहुंचकर वह कान लगाकर सुनने लगा । कहीं से किसी प्रकार की आहट नहीं सुनाई दे रही थी ।
सुनील ने फिर माचिस जलाई । कदमों के निशान उसे गलियारे के कोने के एक कमरे की ओर जाते दिखाई दिये ।
सुनील सावधानी से चलता हुआ उस कमरे के सामने पहुंचा । उसने धीरे से कमरे का द्वार भीतर को ओर धकेला । द्वार खुला था । सुनील ने धक्का देकर पूरा द्वार खोल दिया ।
उसने एक नई माचिस जलाई ।
माचिस के पीले से प्रकाश में उसे कमरे के फर्श पर पड़ी मिस ओब्रायन दिखाई दी ।
कोने में एक मेज थी जिस पर एक बुझी हुई मोमबत्ती खड़ी थी । सुनील ने मोमबत्ती जला दी । कमरे में प्रकाश फैल गया ।
सुनील घुटनों के बल मिस ओब्रायन के शरीर के पास बैठ गया ।
मिस ओब्रायन मर चुकी थी ।
उसके गले में सिल्क की एक मजबूत डोरी लिपटी हुई थी । किसी ने उसे गला घोंटकर मार डाला था । सुनील ने होले से उसके गाल को अपना हाथ लगाया ।
शरीर अभी भी गरम था । उसे मरे आधे घन्टे से अधिक नहीं हुआ था ।
फिर सुनील की दृष्टि मिस ओब्रायन की नंगी बाहों और गर्दन के आसपास के भाग पर पड़ी । दोनों स्थानों के एक-एक इंच भाग पर बड़े-बड़े फफोले पड़े हुए थे । शायद दुश्मन मिस ओब्रायन के शरीर पर जलते हुए सिगरेट छुआते रहे थे ।
प्राण निकलने से पहले मिस ओब्रायन ने बहुत यातना सही मालूम होती थी ।
सुनील उसके शरीर के पास से उठ खड़ा हुआ । उसने बड़ी बारीकी से कमरे का निरीक्षण करना आरम्भ कर दिया ।
कमरे में मिलिट्री जैसे फोल्ड हो जाने वाली एक चारपाई थी । कुछ कम्बल थे । टीन के डिब्बों में बन्द खाने के सामान के ढेर सारे डिब्बे थे । कुछ बर्तन थे । एक स्टोव था । कुछ पुस्तकें थीं । एक छोटा सा चमड़े का सूटकेस था और एक खूंटी पर कुछ कपड़े टंगे हुए थे ।
सुनील को कपड़ों में एक बन्द गले का कोट दिखाई दिया ।
उसने किताबों को उलट-पलट कर देखा । हर किताब के पहले पृष्ट पर प्रोफेसर जगत नारायण भटनागर का उन्हीं के हैण्डराइटिंग में नाम अंकित था ।
सुनील ने सूटकेस का निरीक्षण किया । उस पर भी प्रोफेसर भटनागर का नाम लिखा हुआ था । उसने सूटकेस खोलकर भीतर झांका सूटेकस में कपड़ों के अतिरिक्त और कोई महत्व की चीज नहीं थी ।
यह बात निर्विवाद रूप से सच थी कि प्रोफेसर जगत नारायण भटनागर उस कमरे में छुपकर रहते रहे थे ।
फिर उसने मेज के दराज टटोलने आरम्भ किये ।
उसी क्षण उसके कानों में पुलिस के सायरन की आवाज पड़ी ।
सुनील हड़बड़ा गया । उसने तत्काल मोमबत्ती बुझा दी । और कमरे से बाहर निकल आया ।
गलियारे को वह लगभग भागता हुआ पार कर गया और ऊपर की मंजिल की सीढियां चढकर छत पर पहुच गया । उसने सावधानी से नीचे सड़क पर झांका ।
उस इमारत के सामने पुलिस की एक पैट्रोल कार आकर खड़ी हुई और उसमें से कई पुलिस के सिपाही बाहर निकल आये ।
सायरन की आवाज शायद अड़ोस-पड़ोस में रहने वालों के कानों में भी पड़ गई थी । कई इमारतों की खिड़कियों में प्रकाश दिखाई देने लगा था ।
सुनील का मिस ओब्रायन की लाश के साथ पकड़े जाना उसके लिये भारी मुसीबत की बात बन सकती थी । उसका दिमाग तेजी से काम करने लगा । वहां से चुपचाप बच निकलने की कोई तरकीब सोचने लगा ।
उसने छत की दूसरी साइड में जाकर इमारत के पिछले भाग में दृष्टि डाली और फिर उसकी जान में जान आ गई इमारत के पिछली दीवार के साथ-साथ पानी का एक मोटा पाइप नीचे तक गया हुआ था ।
दूसरी ओर जोर-जोर से मुख्य द्वार को भड़भड़ाया जा रहा था और कई उत्तेजित स्वर सुनाई दे रहे थे ।
सुनील एक भी क्षण नष्ट किये बिना छत की मुंडेर पकड़कर नीचे लटक गया और फिर पाइप के सहारे बड़ी फुर्ती से नीचे उतरने लगा ।
अगले ही मिनट में वह नीचे गली में था ।
उसने अपने कपड़े झाड़े और लापरवाही से चलता हुआ गली से बाहर की ओर चल दिया ।
गली में से निकलकर वह बड़ी सड़क पर आ गया ।
एकाएक उसकी दृष्टि अपने से थोड़ी आगे एक पेड़ की ओट में खड़ी एक क्रीम कलर की रोवर गाड़ी दिखाई दी । रोवर की ड्राइविंग सीट पर सफेद रंग के हैट वाला चीनी बैठा था ।
सुनील एकदम नीचे झुक गया और निःशब्द कार की ओर बढा । कार के पीछे पहुंचकर वह एकदम नीचे बैठ गया ।
सफेद हैट वाला चीनी उससे बिल्कुल बेखबर था ।
सुनील ने धीरे से डिकी का हैंडल पकड़कर घुमाया । हैंडल बड़ी आसानी से घूम गया । डिकी को ताला नहीं लगा हुआ था ।
उसी क्षण सफेद हैट वाले चीनी ने कार स्टार्ट कर दी ।
सुनील ने धीरे से डिकी का ढक्कन उठाया और निःशब्द डिकी के भीतर प्रविष्ट हो गया । अपनी टांगे अपनी छाती के आगे समेटे वह डिकी के सीमित स्थान में समा गया और उसने धीर-धीरे ढक्कन नीचे गिरा लिया । डिकी का ढक्कन उसने एकदम बन्द नहीं होने दिया । वहां हवा के आने योग्य झिरी रह गई थी ।
कार एक झटके के साथ आगे बढ गई ।
लगभग बीस मिनट कार नगर की विभिन्न सड़कों पर दौड़ती रही । फिर वह एक इमारत के सामने आकर रुकी ।
सुनील फौरन ढक्कन उठाकर कार से बाहर लुढक गया । उसने चुपचाप ढक्कन को फिर बन्द कर दिया लेकिन वह कार की ओट से नहीं निकला ।
सुनील ने देखा कार एक भीड़-भाड़ वाली सड़क पर खड़ी थी । सफेद हैट वाले चीनी ने कार को इस प्रकार पार्क किया था कि कार के पिछले भाग में और पिछली इमारत में बहुत थोड़ा अन्तर रह गया था । इसी वजह से सड़क पर इतने लोग मौजूद होने के बावजूद भी किसी ने उसे कार की डिकी से बाहर निकलते नहीं देखा था ।
सफेद हैट वाले चीनी ने इग्नीशन आफ किया और कार से बाहर निकल आया ।
सुनील कार की उलटी साइड से घूमा और फिर कार की ओर पीठ फेरकर एकदम उठ खड़ा हुआ । अगले ही क्षण वह सड़क पर मौजूद लोगों की भीड़ में जा मिला । वह भीड़ में गुजरता हुआ सड़क के दूसरी ओर के फुटपाथ पर पहुंच गया और फिर एक बिजली के खम्बे की ओट में ओट में खड़ा होकर कार की दिशा में देखने लगा ।
जिस इमारत के सामने चीनी की कार खड़ी थी, वह उसी की सीढियां चढकर मुख्य द्वार के सामने पहुंच गया था । उसने हाथ बढाकर काल बैल बजाई ।
थोड़ी देर बाद द्वार खुला ।
द्वार पर सुनील को उस चपटी नाक वाले की एक हल्की सी झलक दिखाई दी । जो थोड़ी देर पहले सुनील पर आक्रमण करके उसे गन्दी में बेहोश पड़ा छोड़ गया था ।
तत्काल ही सफेद हैट वाला चीनी भीतर प्रविष्ट हो गया । और फिर द्वार बन्द हो गया ।
सुनील खम्बे की ओट में से बाहर निकल आया ।
वह एक बार फिर इमारत की ओर वाले फुटपाथ के सामने पहुंचा और इमारत के समीप से गुजरा ।
द्वार की बगल में एक पीतल की प्लेट लगी हुई थी जिस पर लिखा था -
22 - न्यू गेट स्ट्रीट
फिर उसने पब्लिक टेलीफोन तलाश करना आरम्भ कर दिया ।
समीप ही एक इटैलियन रेस्टोरेन्ट था । सुनील उसमें प्रविष्ट हो गया । वहां से उसने फिर जगतार सिंह को फोन किया ।
यह उसका सौभाग्य था कि जगतार सिंह अभी तक बंगले से कहीं गया नहीं था । सुनील की आवाज सुनते ही वह भड़क उठा - “ओए कित्थे मर गया एं, यारा । ऐथे मैं तेरी इन्तजार में सूख रहा हूं और तू है कि...”
“जगतार सिंह ।” - सुनील गम्भीर स्वर में बोला ।
जगतार सिंह भी फौरन गम्भीर हो गया । सुनील के स्वर की असाधारणता उसके कानों से छुपी नहीं रह सकी थी ।
“की गल्ल है प्यारया ?” - जगतार सिंह भी गम्भीर स्वर में बोला ।
“तुम फौरन यहां आ जाओ ।” - सुनील बोला ।
“यहां कहां ?”
“न्यू गेट स्ट्रीट में एक इटैलियन रेस्टोरेन्ट है । वहीं ।”
“वहां क्या कर रहे हो ?”
“कुछ नहीं । सिर्फ तुम्हारा इन्तजार कर रहा हूं ।”
“लेकिन गल्ल की है ?”
“तुम यहां पहुंचो तो सही । फिर गल्ल भी बताऊंगा ।”
“चंगा । आया ।”
सम्बन्ध विच्छेद हो गया ।
सुनील रेस्टोरेन्ट में एक टेबल पर आ बैठा ।
उसने एक डबल ब्रांडी का आर्डर दिया ।
गिलास की आधी ब्रांडी वह एक ही सांस में पी गया और बाकी की आधी की वह धीरे-धीरे चुस्कियां लेने लगा ।
धीरे-धीरे उसके शरीर में गर्मी दौड़ने लगी और वह चोटों की पीड़ा भूलने लगा ।
जगतार सिंह लगभग आधे घन्टे के बाद आया । वह बहुत चिन्तित दिखाई दे रहा था ।
वह सीधा सुनील की मेज पर पहुंचा और उसके सामने आकर बैठ गया ।
“क्या कहानी है ?” - उसने सीधा प्रश्न किया ।
“कुछ पियोगे ?” - सुनील ने पूछा ।
“मुझे इतनी हड़बड़ाहट में यहां तक भगाने के काबिल अगर तूने कोई ठोस बात नहीं सुनाई तो, काका, तेरा खून पियूंगा ।”
सुनील ने ब्रांडी का आखिरी घूंट हलक में उड़ेला, बिल चुकाया और जगतार सिंह से बोला - “उठो । चलो ।”
“कहां ?”
“यहां से तो बाहर निकल ।”
दोनों रेस्टोरेन्ट से निकलकर बाहर फुटपाथ पर आ गये ।
“जगतार सिंह ।” - बाहर आकर सुनील बोला - “तुम कोई ऐसा सिलसिला फिट कर सकते हो कि एक इमारत की चौबीस घन्टे निगरानी करवाई जा सके ।”
“किसलिये ?” - जगतार सिंह हैरानी से बोला ।
“यह तो मेरे सवाल का जवाब नहीं है ।” - सुनील बेहद गम्भीर स्वर में बोला ।
सुनील के गम्भीर स्वर का प्रभाव जगतार सिंह पर हुए बिना न रह सका । वह कुछ क्षण सोचता रहा और फिर बोला - “एक प्राइवेट डिटेक्टिव मेरा दोस्त है चाहो तो मैं उससे बात कर सकता हूं ।”
“अंग्रेज है ?”
“और क्या सरदार होगा !”
“तुम्हारा अच्छा दोस्त है ?”
“हां ।”
“इस सिलसिले में अपनी जुबान बन्द रख सकेगा ।”
“क्यों नहीं ।”
“फिर ठीक है ।”
“इमारत कौन सी है ?”
सुनील ने बाइस नम्बर इमारत की ओर संकेत कर दिया ।
“और तुम निगरानी किस बात की करवाना चाहते हो ?”
“मुख्यतः उस इमारत में रहने वाले लोगों के कार्यकलापों की । वहां किस प्रकार के लोग आते जाते हैं । वहां कौन रहता है । विशेष रूप से मैं ऐसा इन्तजाम चाहता हूं कि अगर यहां कोई असाधारण घटना घटे तो उसकी सूचना मुझे तत्काल मिल जाये ।”
“यह तो कोई कठिन काम नहीं है । बखूबी हो जायेगा ।”
“फिर ठीक है । तुम अपने प्राइवेट डिटेक्टिव दोस्त से बात कर लो ।”
“और माल पानी का क्या इन्तजाम है ?”
“माल पानी की चिन्ता मत करो । सब मैं दूंगा ।”
“बल्ले शेरा । फिर तो मौज हो गई । फिर तो आज मुझे भी सैर करा दे ।”
“ओके ।”
“अब एक आखिरी बात और ।”
“क्या ?”
“ये सारी कहानी क्या है ? तुम इस इमारत की निगरानी क्यों करवाना चाहते हो ?”
“यह अभी मत पूछो । कुछ मजबूरियां ऐसी हैं जिनकी वजह से मैं फिलहाल तुम्हें कुछ बता नहीं सकता हूं । इसलिये मुझे माफ कर दो ।”
“कर दिया माफ ।” - जगतार सिंह भारी उदारता का प्रर्दशन करता हुआ बोला - “लेकिन अब कम से कम एक बात अपने मुंह से स्वीकार कर लो ।”
“क्या ?”
“कि तुम लन्दन में सैर करने नहीं आये हो ।”
“मैं लन्दन में सैर करने नहीं आया हूं ।” - सुनील ने बड़ी शराफत से स्वीकार किया ।
“और वास्तव में क्या करने आये हो, यह तुम नहीं बताओेगे ?”
“जगतारे, प्लीज ।”
“चंगा । चंगा । मैं अभी अपने प्राइवेट डिटेक्टिव यार को फोन करके आता हूं । तुम जरा यहीं ठहरो ।”
“ओके ।”
जगतार सिंह अपनी पगड़ी ठीक करता हुआ फिर इटैलियन रेस्टोरेन्ट में घुस गया ।
***
अगले दिन के अखबार में मिस केली ओब्रायन की नृशंस हत्या का विवरण छपा था । उस विवरण में एक दिलचस्प बात यह थी कि उस रात को किसी गुमनाम आदमी ने पुलिस को फोन किया था कि अपर बर्कले मिडज की छत्तीस नम्बर इमारत में एक अंग्रेज लड़की की हत्या हो गई है और हत्यारा, जो कोई हिन्दुस्तानी युवक है अभी भी उस इमारत में मौजूद है । उस फोन काल के आधार पर ही पुलिस अपर बर्कले मिडज की छत्तीस नम्बर इमारत पर पहुंची थी और दरवाजा तोड़कर भीतर घुसी थी । वहां ऊपर की मंजिल के एक कमरे में वाकई एक अंग्रेज युवती की लाश पड़ी थी जिसे कि गला घोंट कर मार डाला गया था और जिसके शरीर के कई भागों पर जलती हुई सिगरेट लगाये जाने पर पैदा होने वाले फफोले पड़े हुए थे । लेकिन हत्यारा अर्थात कथित हिन्दुस्तानी नवयुवक किसी प्रकार ऐन मौके पर वहां से फरार होने में सफल हो गया था ।
बात दिन की तरह स्पष्ट थी । सुनील को फंसाने के लिये सफेद हैट वाले चीनी ने सुनील के उस इमारत में प्रविष्ट हो जाने के बाद पुलिस को फोन कर दिया था ।
मिस ओब्रायन की दर्दनाक मृत्यु की सुचना पुलिस ने उसके वृद्ध पिता केनिथ ओब्रायन को दे दी थी जो कि उसके एक मात्र जिवित रिश्तेदार थे और जो ईस्ट ऐन्ड में कहीं रहते थे ।
दिन के लगभग ग्यारह बजे सुनील ईस्ट ऐन्ड पहुंचा और मिस्टर केनिथ ओब्रायन का पता तलाश करता हुआ उनके निवास स्थान पर पहुंच गया ।
मिस्टर केनिथ ओब्रायन एक बेहद टूटा हआ बीमार-सा बूढा था । अपनी बेटी की मौत से उसे भारी सदमा पहुंचा था बड़ी मुश्किल से वह सुनील से बात करने के लिये तैयार हुआ ।
सुनील ने उसे अपना परिचय दिया और फिर उसे संक्षेप में सारी घटना सुना दी ।
वृद्ध अवसादपूर्ण ढंग से सिर हिलाता रहा ।
“मैंने उसे पहले ही कहा था कि प्रोफेसर भटनागर नाम के उस हिन्दोस्तानी बूढे की सहायता के चक्कर में वह जरूर किसी मुसीबत में फस जायेगी ।” - वृद्ध ने एक गहरी सांस ली और फिर बोला - “देख लो । मेरी बात कितनी सच निकली । नादान लड़की अपनी जान से ही हाथ धो बैठी । जो लोग प्रोफेसर भटनागर को तलाश कर रहे थे, वे तुम्हारा पीछा करते हुए मेरी लड़की तक पहुंच गये । फिर उन्होंने उसे यातनायें पहुंचा-पहुंचा कर उसे उस स्थान का पता बताने पर मजबूर कर दिया जहां प्रोफेसर भटनागर छुपा हुआ था । अपना मतलब हल हो जाने पर उन्होंने मेरी बेटी का खून कर दिया और वे प्रोफेसर भटनागर को लेकर उड़ गये ।”
“प्रोफेसर भटनागर उसी इमारत में छुपे हुए थे जिसमें आपकी बेटी की लाश पाई गई थी ?” - सुनील बोला ।
“हां ।”
“आप लोग प्रोफेसर भटनागर को पहले से जानते थे ?”
“सवाल ही नहीं पैदा होता ।”
“फिर आप लोग उनके सम्पर्क में कैसे आ गये ?”
वृद्ध चुप रहा । उसके चेहरे से यूं लग रहा था जैसे वह किसी बीती बात को याद करने का प्रयत्न कर रहा हो ।
“यह कुछ ही दिन पहले की बात है ।” - वृद्ध सोचता हुआ बोला - “एक अन्धेरी रात थी । उस रात के अन्धेरे में एक आदमी पाइप के रास्ते ऊपर चढ आया था और मेरे कमरे में घुस आया था । ऐन समय पर मुझे उसकी आहट सुनाई दे गई थी । मैंने उसे कोई चोर समझा था और अपनी पुरानी सरविस रिवाल्वर से उसे शूट ही करने वाला था कि वह आदमी बेहोश होकर खिड़की के पास ही मेरे कमरे के फर्श पर ढेर हो गया था । वही आदमी प्रोफेसर भटनागर था ।”
वृद्ध कुछ क्षण रुका और फिर बोला - “तब तक मेरी बेटी भी वहां आ गई । उसने भी प्रोफेसर भटनागर के वृद्ध चेहरे को देखा । उसके चेहरे पर एक विचि☐त्र प्रकार की पीड़ा और दयनीयता का भाव था । कहने की जरूरत नहीं कि उसके चोर होने का सवाल ही नहीं पैदा होता था । मेरी बेटी को उस पर बहुत दया आई । हालांकि मैं इस हक में नहीं था लेकिन फिर भी उसके अनुरोध पर हम दोनों ने उसे उठाया और उसे पिछले कमरे में ले आये । सामने की बत्ती हमने फौरन बुझा दी । प्रोफेसर भटनागर को देखने पर मालूम हुआ कि वह घायल था । उसे गोली लगी थी । गोली दाईं ओर की पसलियों से होती हुई शरीर के बाहर निकल गई थी । गोली के जख्म की वजह से ही उस समय प्रोफेसर को बुखार भी चढा हुआ था और वह बेहद नाजुक हालत में था । मेरी बेटी से जो हो सकता था उसने किया । उसने उसके जख्म की ड्रैसिंग कर दी और उसे आराम से एक बिस्तर पर लिटा दिया । मैं डाक्टर को बुलाना चाहता था लेकिन हमारी हिम्मत नहीं हुई ।”
“क्यों ?” - सुनील ने पूछा ।
“बाहर गली में हमें कई बदमाश से लगने वाले आदमी घूमते दिखाई दे रहे थे, जिनमें से एक दो के हाथ में मैंने रिवाल्वर भी देखी थी । प्रोफेसर उन्हीं लोगों से बचता हुआ हमारे घर में शरण लेने के लिये छुपा था । वे बदमाश भी जानते थे कि प्रोफेसर हमारे ही घर के आसपास कहीं आकर गायब हो गया था । अगर हम डाक्टर वगैरह के चक्कर में पड़ते जो जरूर उन्हें खबर हो जाती ।”
“फिर ?”
“फिर अगले दिन प्रोफेसर को होश आया । हमने उसकी वर्तमान स्थिति के बारे में उससे कई सवाल पूछे लेकिन उसने केवल इतना ही बताया कि कुछ लोग उसे जान से मार देना चाहते थे लेकिन किसी प्रकार वह उनके चंगुल से बचकर निकल भागा था और यह कि अगर उन लोगों ने उसे फिर पकड़ लिया तो वे उसकी बोटी-बोटी उड़ा देंगे । उसने हाथ जोड़कर हमसे सहायता की मांग की । मैं तो किसी बखेड़े में फंसने के हक में नहीं था लेकिन मेरी बेटी का दिल पसीज गया । उसने प्रोफेसर से वायदा किया कि वह उसकी हर सम्भावित सहायता करेगी और ऐसा ही उसने किया भी ।”
वृद्ध ने एक गहरी सांस ली । कुछ क्षण उसकी वीरान आंखें शून्य में कहीं टिकी रहीं और फिर सुनील की ओर घूमी । वह कुछ क्षण अपलक सुनील को देखता रहा और फिर बोला - “प्रोफेसर के लिये हमारा घर सुरक्षित नहीं था । प्रोफेसर के शत्रुओं को मालूम था कि वह हमारे घर के ही आसपास कहीं पहुंचकर गायब हो गया था । शत्रुओं के किसी भी क्षण वहां आ चमकने की पूरी सम्भावना थी । इसलिये एक रात के अंधेरे में हमने उसे वहां से हटा दिया ।”
“अपर बर्कले मिडज की छत्तीस नम्बर इमारत में ?” - सुनील ने पूछा ।
“हां ।” - वृद्ध बोला - “वह इमारत मेरे ए‍क मित्र की थी और कई महीनों से खाली थी । इमारत की चाबी मेरे पास थी । हमारे मकान के मुकाबले में वह वहां अधिक सुरक्षित रह सकता था । मेरी बेटी उसे वहां छोड़ आई थी । मेरी बेटी की हत्या तक प्रोफेसर उसी मकान में था ।”
“आपकी बेटी ने आपको प्रोफेसर के बारे में और कुछ नहीं बताया ?”
“और कुछ क्या ?”
“यही कि वह कौन था ? लोग उसे क्यों मार डालना चाहते थे और वह छुपता क्यों फिर रहा था ।”
“नहीं ।”
“आप प्रोफेसर के बारे में कोई ऐसी बात बता सकते हैं जो आपको असाधारण लगी हो या जिसने आपका ध्यान विशेष रूप से आकर्ष‍ित किया हो ।”
वृद्ध कुछ क्षण सोचता रहा और फिर बोला - “एक बात थी ऐसी ।”
“क्या ?”
“प्रोफेसर की जेब में हरे रंग की रेक्सीन में मजबूती से लिपटा हुआ पाकेट बुक के आकार का एक छोटा सा पैकेट था । प्रोफेसर की जेब में मैंने उस पैकेट की एक झलक ही देखी थी । प्रोफेसर उस पैकेट के प्रति इतना सावधान था कि बेहोशी में भी उसका हाथ अपनी उस पैकेट वाली जेब से नहीं हटा था ।”
“आपने उस पैकेट के बारे में प्रोफेसर से कुछ पूछा था ?”
“नहीं ।”
“वह पैकेट आखिर तक प्रोफेसर के पास ही था ?”
“मैं इस बारे में केवल इतना कह सकता हूं कि जब मेरी बेटी प्रोफेसर को यहां से अपर बर्कले मिडज वाली इमारत में लेकर गई थी, तब तक वह पैकेट प्रोफेसर के पास था ।”
“मैंने आपकी बेटी की हत्या के फौरन बाद अपर बर्कले मिडज में प्रोफेसर का कमरा देखा था । वह पैकेट वहां नहीं था ।”
“फिर तो जो लोग वहां से प्रोफेसर को ले गये हैं, वही वह पैकेट भी ले गये होंगे ।”
“या सम्भव है प्रोफेसर ने वह पैकेट उस इमारत में ही कहीं और छुपाया हुआ हो ?”
“सम्भव है ।”
सुनील ने मन ही मन उस पूरी इमारत की फिर से तलाशी लेने का निश्चय कर लिया ।
“एक बात और बताइये ।” = सुनील बोला ।
वृद्ध ने प्रश्नसूचक नेत्रों से उसकी ओर देखा ।
“आपके कथनानुसार जब प्रोफेसर यहां से अपर बर्कले मिडज वाली इमारत में ले जाये गये थे, तब वे घायल थे और उन्हें बुखार भी था । क्या बाद में वे स्वस्थ हो गये थे ?”
“नहीं ।” - वृद्ध नकारात्मक ढंग से सिर हिलाता हुआ बोला - “कल ही सुबह मैंने प्रोफेसर के बारे में अपनी बेटी से पूछा था । उसने बताया था कि प्रोफेसर की हालत ठीक होने के स्थान पर दिन-ब-दिन बिगड़ती जा रही है । गोली का जख्म ठीक नहीं हो पा रहा था । प्रोफेसर को प्रापर मैडिकल अटैन्शन की जरूरत थी लेकिन प्रोफेसर नहीं चाहता था कि उतके लिये किसी डाक्टर को वहां बुलाया जाये ।”
वृद्ध चुप हो गया ।
सुनील भी अवसादपूर्ण मुद्रा बनाये चुपचाप बैठा रहा ।
अन्त में सुनील अपने स्थान से उठा और फिर गम्भीर स्वर में बोला - “ओब्रायन साहब, वर्तमान स्थिति में मैं आपकी बेटी की मृत्यु पर अफसोस जाहिर करने के अतिरिक्त और क्या कर सकता हूं लेकिन मैं इतना जरूर कहूंगा कि आपकी बेटी ने प्रोफेसर भटनागर की सहायता करके हमारे पूरे राष्ट्र पर उपकार किया है । हम उसके हमेशा-हमेश ऋणी रहेंगे ।”
वृद्ध कुछ नहीं बोला । उसका सिर उसकी छाती पर और झुक गया ।
सुनील ने एक सहानुभूतिपूर्ण दृष्टि वृद्ध पर डाली और फिर भारी कदमों से चलता हुआ कमरे से बाहर निकल गया ।
***
दोपहर के बाद लगभग दो बजे ।
सुनील जगतार सिंह के साथ न्यू गेट स्ट्रीट पहुंचा ।
जगतार सिंह उसे वहां तक एक पुरानी-सी फोर्ड गाड़ी में लाया था । उसने कार को सड़क के किनारे पार्क किया और फिर दोनों कार से बाहर निकल आये ।
“तुम्हारा प्राइवेट डिटेक्टिव दोस्त कहां मिलेगा ?” - सुनील ने पूछा ।
“अभी तलाश करते हैं ।” - जगतार सिंह बोला - “वैसे वह बाइस नम्बर इमारत की निगरानी कर रहा है तो उसी के आसपास कहीं होगा ।”
“देखो फिर ।”
“आओ ।”
सुनील जगतार सिंह के साथ हो लिया ।
जगतार सिंह ने अपने अंग्रेज प्राइवेट डिटेक्टिव मित्र को शीघ्र ही तलाश कर लिया । वह बाइस नम्बर इमारत के सामने स्थ‍ित एक बार में बैठा हुआ था । सुनील फुटपाथ पर ही खड़ा रहा और जगतार सिंह भीतर जासूस के पास चला गया ।
सुनील ने एक सिगरेट सुलगा लिया ।
पांच मिनट बाद वह वापिस लौटा । उसके हाथ में एक छोटा सा कागज था जिस पर पैंसिल से कुछ लिखा हुआ था ।
सुनील ने प्रश्नसूचक नेत्रों से उसकी ओर देखा ।
“उसने रिपोर्ट दी है ।” - जगतार सिंह बोला ।
“क्या कहता है ?”
जगतार सिंह कुछ क्षण कागज को देखता रहा और फिर बोला - “इमारत में तीन आदमी मौजूद हैं जिनकी सूरतें पिछले रात से अब तक कई बार दिखाई दे चुकी हैं । उनमें से एक सिल्क के सफेद सूट और सफेद हैट वाला चीनी है । दूसरा एक चपटी नाक वाला मोटा सा आदमी है । तीसरा एक बड़े ही भद्दे चेहरे वाला दुबला पतला और लगभग छ: फुट लम्बा चीनी है । इमारत में इन्हीं तीन आदमियों की मौजूदगी का आभा मिला है ।”
तीन में से दो आदमी तो सुनील के पहले से ही पहचाने हुए थे ।
“रात को लगभग बारह बजे एक चमचमाती हुई रोल्स रायस गाड़ी इमारत के सामने आकर रुकी थी जिसे एक वर्दीधारी शोफर चला रहा था । उस कार में से एक चीनी निकला था । उसकी आयु लगभग पचास वर्ष थी और वह एक बेहद शानदार काले रंग का सूट पहने हुए था । वह सीधा इमारत में प्रविष्ट हो गया था । वह लगभग पच्चीस मिनट इमारत में रहा था और फिर वहां से विदा हो गया था । वही काले सूट वाला चीनी सुबह छ: बजे के करीब फिर आया था । दूसरी बार वह लगभग एक घंटा वहां ठहरा था ।”
जगतार सिंह ने एक बार फिर कागज पर दृष्टिपात किया और फिर बोला - “फिर लगभग आठ बजे सफेद हैट वाला चीनी इमारत से बाहर निकला था और अपनी कार में सवार होकर एक ओर रवाना हो गया था । लगभग बीस मिनट बाद जब वह वापिस लौटा था तो उसके साथ एक आदमी और था । वह आदमी एक वृद्ध अंग्रेज था । उसके हाथ में एक मैडिकल बाक्स और स्टेथस्कोप था ।”
“डाक्टर !” - सुनील बोला ।
“जाहिर है ।” - जगतार सिंह ने उत्तर दिया ।
“आगे ?”
“आगे कुछ नहीं । खत्म । डाक्टर अभी भी इमारत में ही मौजूद है ।”
सुनील सोचने लगा । प्रोफेसर भटनाकर निश्चय ही उस इमारत में मौजूद थे । इमारत में डाक्टर की इतनी लम्बी मौजूदगी यह भी जाहिर करती थी कि प्रोफेसर भटनागर की हालत बेहद खराब थी । केनिथ ओब्रायन ने भी सुनील को यही बताया था ।
“यह भी तो हो सकता है” - सुनील बोला - “कि उन तीन आदमियों के अलावा इमारत में और भी आदमी मौजूद हो लेकिन तुम्हारे प्राइवेट डिटेक्टिव को उनकी सूरतें दिखाई न दी हों ।”
“हो सकता है ।” - जगतार सिंह ने स्वीकार किया ।
“जगतारे, आजकल तेरी तन्दरूस्ती कैसी है ?”
“बहुत अच्छी है ।” - जगतार सिंह छाती फुलाकर बोला - “अच्छा खास हट्टा-कट्टा जवान हूं । विश्वास न हो तो लन्दन की आधी मेमों से पूछ लो । तुमने क्यों पूछा ?”
“फिर तो दो तीन आदमियों को तो तुम फूंक मारकर मार गिराओगे ।”
“मजाक करना ऐ मोये ।”
“जगतारे ।” - सुनील गम्भीर स्वर में बोला - “सामने की इमारत में एक बूढा आदमी कैद है जो हिन्दोस्तानी है और बेहद बीमार है । मैं उसे यहां से निकालकर अपने साथ जाना चाहता हूं लेकिन इमारत में जो तीन या शायद तीन से ज्यादा आदमी मौजूद हैं, वे ऐसा नहीं होने देंगे । तुम्हारी राय में मुझे क्या करना चाहिए ?”
“कुट्टो माईंयावयां नूं (मारो सालों को ) ।” - जगतार सिंह नथुने फुलाता हुआ बोला ।
“ठीक है फिर आ जाओ ।” - सुनील बोला ।
जगतार सिंह एक क्षण हिचकिचाया और फिर दृढता कदम रखता हुआ सुनील के साथ हो लिया ।
“प्यारया ।” - इमारत की साइड वाले फुटपाथ पर पहुंच कर जगतार सिंह बोला - “पहले जरा इमारत का जुगराफिया समझ लें तो कैसा रहे ?”
“क्या मतलब ?”
“तू ऐत्थे ही ठहर । मैं आता हूं ।”
सुनील ने स्वीकृतिसूचक ढंग से सिर हिला दिया ।
जगतार सिंह लम्बे डग भरता हुआ आगे बढ गया । ब्लाक के सिर पर पहुंचकर वह दायें घूम गया और दृष्टि से ओझल हो गया ।
पांच मिनट बाद वह वापिस आया ।
“इस इमारत के पिछवाड़े में फायर ऐस्केप की सीढियां हैं ।” - उसने बताया - “उनके सहारे पहली मंजिल की एक खिड़की तक पहुंचा जा सकता है । खिड़की शीशे की है । उधर से भीतर घुसने में ज्यादा दिक्कत नहीं होगी । तुम सामने से घुसो । मैं पीछे से आता हूं । भीतर अगर तीन से ज्यादा आदमी हुए तो उन्हें गड़बड़ाने के लिये दो तरफा हमला ज्यादा कामयाब रहेगा ।”
“आल राइट ।”
“मैं जाता हूं । मेरे जाने के पांच मिनट बाद भीतर घुसने की कोशिश करना ।”
“ओके ।”
जगतार सिंह चला गया ।
सुनील प्रतीक्षा करने लगा ।
ठीक पांच मिनट बाद सुनील इमारत के सामने के दरवाजे पर लगी काल बैल बजा रहा था ।
कुछ क्षण बाद भीतर से किसी के चलने की आवाज आई ।
फिर द्वार खुला ।
सुनील को दुबले-पतले और लम्बे चीनी का भद्दा चेहरा दिखाई दिया ।
“डाक्टर साहब को बुलाना है ।” - सुनील शान्त स्वर में अंग्रेजी में बोला ।
“डाक्टर साहब ।” - भद्दे चेहरे वाला बोला - “कौन डाक्टर साहब ?”
“वही जो सुबह से यहां आये हुए हैं । मैं उनके क्लीनिक से आया हूं ।”
भद्दे चेहरे वाला चीनी तनिक हिचकिचाया । फिर वह एकाएक बोला - “यहां कोई डाक्टर-वाक्टर नहीं...”
सुनील ने एकाएक अपना कंधा द्वार के साथ सटाया और द्वार को पूरी शक्ति से भीतर की ओर धकेला ।
भद्दे चेहरे वाले चीनी के हाथ से द्वार छूट गया और वह लड़खड़ाता हुआ द्वार से पीछे की ओर हट गया ।
एक भी क्षण नष्ट किए बिना सुनील बिजली की तेजी से भीतर प्रविष्ट हो गया । उसने अपने दायें हाथ का एक भरपूर घूंसा चीनी के चेहरे पर जमाया और साथ ही पाव की ठोकर से अपने पीछे का द्वार बन्द कर दिया ।
पहले प्रहार से चीनी सम्भलने भी नहीं पाया था कि सुनील ने ताबड़तोड़ तीन चार घूंसे उसके पेट में जड़ दिये ।
पीड़ा से चीनी की आंखें उबल पड़ी । डसने दोनों हाथों से अपना पेट पकड़ लिया । और नीचे झुक गया । सुनील ने कैरेट चाप का एक भरपूर हाथ उसकी झुकी हुई गरदन पर जमाया ।
तत्काल ही सुनील के भारी बूट का प्रहार उस की पीठ पर पड़ा आर वह मुंह के बल फर्श पर ढेर हो गया ।
उसी क्षण ऊपर की मंजिल में कहीं एक दरवाजा खुलने की आवाज आई ।
सुनील फुर्ती से सीढियों की ओट में हो गया ।
दरवाजे के सामने से ऊपर की मंजिल की ओर जाती हुई लकड़ी की रेलिंग लगी सीधी सीढियों के ऊपरी सिरे से एक भारी आवाज आई - “ली । कौन था ?”
सुनील सांस रोके सीढियों के नीचे छुपा खड़ा रहा ।
फिर शायद ऊपर खड़े आदमी की नजर नीचे सीढियों के सामने औंधे मुंह भद्दे चेहरे वाले चीनी पर पड़ गई ।
“ली ।” - सुनील को एक सिसकारी भरा स्वर सुनाई दिया और फिर किसी के तेजी से लकड़ी की सीढियां उतरने की धम्म-धम्म से वातावरण गूंज गया ।
शीघ्र ही सुनील को सीढियां उतरता हुआ चपटी नाक वाला दिखाई दिया ।
वह सीधा बेहोश पड़े ली के समीप पहुंचा और उसके शरीर को झिंझोड़ता हुआ व्यग्रता और झुंझलाहट भरे स्वर में बोला - “ली । ली के बच्चे । क्या हो गया ?”
सुनील सीढ़ियों के पीछे से निकल आया । और दबे पांव उसकी ओर बढा ।
लेकिन शायद चपटी नाक वाले के कान बहुत तेज थे । शायद उसे पहले ही अपने पीछे किसी की उप‍स्थिति का आभास मिल गया था । वह बिजली की फुर्ती से उठ खड़ा हुआ और सुनील की दिशा में घूमा ।
सुनील ने उस पर छलांग लगा दी ।
लेकिन चपटी नाक वाला सावधान था वह तेजी से एक ओर हट गया और फिर उसका दायां हाथ घूमा ।
चपटी नाक वाले का प्रचण्ड घूंसा सुनील की कनपटी से टकराया । सुनील के पांव उखड़ गये । और वह भरभरा कर पिछली दीवार से जा टकराया और फर्श पर ढेर हो गया ।
चपटी नाक वाला आंखों में खून लिये उसकी ओर बढा । समीप आकर उसने अपने नोकदार जूते की एक भरपूर ठोकर सुनील की पसलियों में जमाई ।
सुनील पीड़ा से बिलबिला उठा । उसके मुंह से एक घुटी हुई चीख निकली ।
चपटी नाक वाले का पांव फिर चला ।
सुनील ने जमीन पर पड़े-पड़े ही तेजी से करवट बदली इस बार पांव की ठोकर पेट के स्थान पर पीठ से टकराई और सुनील थोड़ा और आगे लुढक गया ।
चपटी नाक वाला आगे बढा और उसने फिर पांव चलाया । सुनील बिजली की तेजी से उसके अपने ओर घूमते हुए पांव पर झपटा । उसने अपने दोनों हाथों से चपटी नाक वाले का पांव दबोच लिया । सुनील ने उसका पांव मरोड़ा और फिर उसे पूरी शक्ति से पीछे की ओर धक्का दे दिया ।
चपटी नाक वाले का बैलेंस बिगड़ गया । उसने हवा में एक कलाबाजी खाई और फिर मुंह के बल सीढियों की रेलिंग पर जाकर गिरा ।
सुनील जल्दी से अपने पैरों पर खड़ा हो गया और मुट्ठियां भींचे सावधानी से उसकी ओर बढा ।
तब तक चपटी नाक वाला भी सम्भल चुका था । सुनील के जरा और समीप आते ही उसने दोनों हाथों से सीढियों की रेलिंग को थामा और फिर एक दुलत्ती की सूरत में उसके दोनों पांव सुनील की छाती की ओर घूमे ।
लेकिन सुनील सावधान था । वह एक दम नीचे बैठ गया चपटी नाक वाले की टांगे उसके सिर के उपर से गुजर गई । अपनी टांगों का प्रहार सुनील के शरीर पर न पड़ सकने के कारण चपटी नाक वाला अपने ही शरीर के झटके को न सम्भाल सका । उसके हाथ रेलिंग से छूट गये और वह जमीन पर आ गिरा ।
सुनील ने उसके ऊपर छलांग लगा दी । अगले ही क्षण वह चपटी नाक वाले के धराशायी शरीर पर चढा हुआ था । उसने अपनी दोनों जाघों के बीच उसके शरीर को दबोच लिया और फिर उसने ताबड़तोड़ चपटी नाक वाले के चेहरे पर घूंसे जमाने आरम्भ कर दिये ।
चपटी नाम वाला उसके शरीर के नीचे दबा छटपटाता रहा और अपने सिर को इधर-उधर झटककर सुनील के घूंसो के प्रहार से बचने का प्रयत्न करता रहा ।
फिर जब ऐसा लगने लगा कि वह सुनील की पकड़ से नहीं छूट सकता तो वह सुनील के घूंसों की बौछार के नीचे एकाएक गला फाड़कर चिल्लाया - “चैंग । चैंग ।”
उस चपटी नाक वाले की पुकार का तत्काल असर हुआ । ऊपरी मंजिल का एक दरवाजा भड़ाक से खुला । फिर सुनील को दो आदमी सीढियों पर दिखाई दिये । उनमें से एक सफेद हैट वाला चीनी था और दूसरा चेहरा सुनील ने पहले नहीं देखा था ।
सुनील ने चपटी नाक वाले को छोड़ दिया और उछलकर खड़ा हो गया । वह तत्काल सीढियों की ओर झपटा ।
अभी वह सीढियों के समीप पहुंचा ही था कि चपटी नाक वाले ने जमीन पर गिरे-गिरे ही करवट बदली और सीढियों की ओर भागते हुए सुनील की टांग पकड़ ली । उसने पूरी शक्ति से सुनील की टांग पकड़कर खींची ।
सुनील मुंह के बल सीढियों पर जाकर गिरा ।
सफेद हैट वाला चीनी जिसका नाम शायद चैंग था सीढियों में आधे रास्ते तक पहुंच चुका था । उसने वहीं से सुनील के ऊपर छलांग लगा दी । कई मन के पत्थर की तरह चैंग का शरीर सुनील के शरीर से टकराया । उसी धक्के से सुनील के दांत सीधे लकड़ी की सीढी के सिरे से टकराये । सुनील दर्द से बिलबिला गया ।
फर्श पर गिरा चपटी नाक वाला भी अपने पैरों पर खड़ा होने का प्रयत्न कर रहा था ।
चैंग ने सुनील के कोट का कालर थामा और एक झटके से उसे अपने पैरों पर खड़ा कर दिया ।
तब तक चैंग का साथी भी उसके सिर पर पहुंच गया था ।
सुनील ने अपने दायें हाथ की कोहनी चैंग के पेट में मारने की कोशिश की लेकिन वह सफल नहीं हो सका । चैंग ने कन्धे के पास से उसकी बाहें पकड़कर उन्हें पीछे की ओर मरोड़ा ।
सुनील उसकी पकड़ से छूटने के लिये छटपटाने लगा लेकिन चैंग की पकड़ बहुत मजबूत थी ।
उसी क्षण चैंग का साथी सुनील के सामने आ खड़ा हुआ । उसने अपने घूंसे का एक जोरदार प्रहार सुनील के पेट में किया । सुनील की आंखों के सामने सितारे नाच गये । चैंग की पकड़ में उसका शरीर दोहरा हो चला । लेकिन चैंग ने जोर से उसकी पीठ में अपना घुटना अड़ाकर उसे फिर सीधा कर दिया ।
सुनील के पेट में पहले से भी प्रचंड एक और घूंसा पड़ा ।
पीड़ा के आधिक्य से सुनील की आंखों में आंसू निकल आये ।
एक और घूंसा पड़ा ।
सुनील को अपने प्राण निकलते महसूस होने लगे ।
चैंग के साथी का हाथ फिर घूमा । लेकिन घूंसा सुनील के पेट तक नहीं पहुंचा ।
चैंग के साथी को यूं लगा जैसे उसके सिर पर पहाड़ टूट पड़ा हो ।
“ओ घबरा न भापे ।” - सुनील को जगतार सिंह का स्वर सुनाई दिया - “मैं आ गया ।”
पहली मंजिल के छज्जे पर से जगतार सिंह ने सीधी चैंग के साथी के सिर पर छलांग लगा दी ।
चैंग का साथी जगतार सिंह के बोझ से फर्श पर ढेर हो गया ।
जगतार सिंह फौरन उछलकर अपने पैरों पर खड़ा हो गया ।
तभी चपटी नाक वाला जगतार सिंह पर झपटा ।
जगतार सिंह के फौलादी हाथ का प्रचंड घूंसा स्टीम रोलर की तरह चपटी नाक वाले के चेहरे से टकराया । चपटी नाक वाले के मुंह से हाय निकली । उसकी चपटी नाक और चपटी हो गई और उसमें से खून बहने लगा । वह दीवार के साथ लगकर खड़ा हो गया और यूं तेजी से सांस लेने लगा जैसे उसके प्राण छूटने वाले हों ।
जगतार सिंह की सूरत देखकर जैसे सुनील में नई शक्ति आ गई । उसने एक बार अपनी पूरी शक्ति का संचय करके जोर से अपने शरीर को झटका । उसकी बांहें तत्काल चैंग के हाथों से निकल गई ।
चैंग का साथी जमीन से उठा और छलांग मारकर पीछे से जगतार सिंह की गरदन से लिपट गया ।
जगतार सिंह ने उसकी अपनी गरदन से लिपटी हुई बांहें थामी और फिर अपने शरीर को झुलाकर जोर से झटका दिया । चैंग के साथी का शरीर हवा में घूमा और जगतार सिंह के सिर से होता हुआ भड़ाक से सामनी दीवार के सहारे खड़े, अपनी उखड़ती हुई सांसों को व्यवस्थित करने का प्रयत्न करते हुए चपटी नाक वाले से जा टकराया ।
चपटी नाक वाले के मुंह से हाय भी नहीं निकली और उसका निश्चेष्ट शरीर जमीन पर लोट गया ।
दीवार से टकराकर चैंग का साथी भी बेहोश हो गया था । उसकी खोपड़ी फट गई थी ।
अपने साथियों की यह दशा देखकर चैंग एकाएक सीढियों की ओर भागा ।
सुनील ने झपटकर उसे कमर से पकड़ लिया और उसे झुकाकर जगतार सिंह की ओर फेंका । चैंग का शरीर लहराता हुआ जगतार सिंह की दिशा में बढा । जगतार सिंह ने अपना मजबूत हाथ बढाकर उसे रास्ते में ही रोक लिया और अपने दूसरे हाथ का एक भरपूर घूंसा उसके चेहरे पर जड़ दिया ।
घूंसे के जोर से चैंग उलटा और सुनील पर जाकर गिरा । सुनील ने पूरी शक्ति से अपने पांव की ठोकर उसके पेट में जमा दी । वह फुटबाल की तरह जगतार सिंह की ओर उछल गया । जगतार सिंह ने जोर से अपने दायें हाथ पर थूका और दोनों हथेलियों को एक दूसरे से रगड़ा और फिर उसने इतनी जोर का घूंसा चैंग पर चलाया कि अगर चैंग की जगह दीवार भी होती तो वह भी ढह जाती ।
इस बार सुनील ने चैंग के शरीर को रोकने का प्रयत्न नहीं किया ।
चैंग का शरीर भरभराकर पहले से ही जमीन पर पड़े ली के शरीर पर गिरा और फिर नहीं हिला ।
“खतम ।” - जगतार सिंह हाथ झाड़ता हुआ बोला ।
सुनील सीढियों की रेलिंगे कि साथ लगकर अपनी उखड़ी हुई सांसों को व्यवस्थित करने का प्रयत्न कर रहा था ।
जगतार सिंह बारी-बारी फर्श पर पड़े आदमियों का निरीक्षण कर रहा था ।
ली और चैंग एक दूसरे के ऊपर पड़े थे और एकदम बेहोश थे ।
चपटी नाक वाला भी बेहोश था और उसके जल्दी होश में आने के आसार नहीं दिखाई दे रहे थे । लेकिन चैंग के साथी की सांस जगतार सिंह को बहुत ज्यादा व्यवस्थित रूप से चलती दिखाई दी । जगतार सिंह को लगा जैसे वह जल्दी ही होश में आने वाला हो और या वह अभी भी होश में हो लेकिन बेहोश होने का बहाना कर रहा हो ।
“ऐसी की तैसी ।” - जगतार सिंह उलझनपूर्ण स्वर में बोला और उसने एक घूंसा उसके चेहरे पर उड़ दिया ।
चैंग के साथी का सिर उसकी छाती पर लटक गया ।
जगतार सिंह सन्तुष्टिपूर्ण ढंग से सिर हिलाता हुआ उससे अलग हट गया ।
सुनील ने इमारत का द्वार भीतर से बन्द कर लिया और जगतार सिंह से बोला - “आओ ।”
जगतार सिंह उसके हाथ हो लिया । दोनों सीढियों चढने लगे ।
“जगतारे ।” - सुनील बोला - “भीतर पहुंचने में बड़ी देर लगाई तूने ?”
“ओये यारा ।” - जगतार सिंह बोला - “बाहर की ओर से शीशे वाली खिड़की का शीशा तो मैंने बड़ी आसानी से तोड़ लिया था लेकिन भीतर की ओर लगी हुई चिटकनी बहुत जंग खाई हुई थी । साली बड़ी मुश्किल से खुली । शायद वह खिड़की कभी खोली नहीं गई थी । और शीशा तोड़ने के बाद इतनी जगह नहीं बनी थी कि मैं उसमें से भीतर घुस सकूं ।”
“तेरे देर से पहुंचने के चक्कर में मैं इतनी मार खा गया । अगर तुम एक मिनट भी और लेट पहुंचे होते तो मेरा काम हो चुका था । वैसे भी तुम्हारे प्राइवेट डिटेक्टिव की रिपोर्ट के खिलाफ एक आदमी भी तो फालतू निकल आया था ।”
“भापे ।” - जगतारे ने प्यार भरे स्वर में पूछा - “क्या बहुत मार पड़ी थी ?”
“मेरा तो भुर्ता बन गया है यार ।”
“जितना मैंने उन्हें मारा है, ऐना कंजरां ने उससे ज्यादा मारा है तुम्हें ?”
“और नहीं तो क्या ?”
“तो फिर मैं अभी उन्हें और मारकर आता हूं ।” - जगतार सिंह जोश से बोला और फिर नथुने फुलाता हुआ वापिस आया ।
सुनील ने जल्दी से उसकी बांह थाम ली और बोला - “जाने दे गुस्सा । अब जरूरत नहीं है ।”
“अच्छा लौटती बार सही ।” - जगतार सिंह बोला ।
पहली मंजिल पर छज्जे के साथ-साथ तीन दरवाजे दिखाई दे रहे थे, जिनमें से एक खुला हुआ था । सुनील ने सावधानी से भीतर झांका ।
वह एक बैडरूम था ।
पलंग पर कोई लेटा हुआ था । बैडरूम के कोने में एक बूढा अंग्रेज खड़ा थर-थर कांप रहा था । उसका चेहरा राख की तरह सफेद था ।
सुनील और जगतार सिंह कमरे में प्रविष्ट हो गये ।
वृद्ध और ज्यादा कांपने लगा और आंतकित स्वर में बोला - “मैं इनका साथी नहीं हूं । मैं तो डाक्टर हूं और पेशेन्ट देखने के लिये विजिट पर आया हूं, मुझे कुछ मत कहना ।”
“ओये तैनू कौन कुछ कह रहा है ।” - जगतार सिंह घुड़क कर बोला - “चुपचाप खड़ा रह ।”
जगतार सिंह की खिचड़ी भाषा अंग्रेज की समझ में क्या आती । वह फिर विनय शील स्वर में बोला - “मैं तो डाक्टर हूं । विजिट पर आया हूं । इन लोगों से मेरा...”
“शटअप ।” - जगतार सिंह घुड़क कर बोला ।
वृद्ध फौरन चुप हो गया । वह भयभीत नेत्रों से कभी जगतार सिंह को और कभी सुनील को देख रहा था ।
जगतार सिंह ने प्रश्न सूचक नेत्रों से सुनील की ओर देखा ।
सुनील धीरे से आगे बढा और पलंग के समीप आकर खड़ा हो गया ।
हालांकि प्रोफेसर जगत नारायण भटनागर को सुनील ने कभी साक्षात नहीं देखा था लेकिन फिर भी सुनील ने उन्हें तत्काल पहचान लिया । प्रोफेसर भटनागर पीठ के बल पलंग पर लेटे हुए थे और एक नजर में उनमें जीवन के कोई आसार मालूम नहीं होते थे । उनका चेहरा उनकी सफेद दाढी मूछों की तरह ही सफेद था । उनकी आंख पर मोनोकल नहीं लगा हुआ था और उनकी सूरत से ऐसा लगता था जैसे उनके शरीर से रक्त की आखिरी बूंद भी निचोड़ ली गई हो ।
फिर सुनील की दृष्टि उनके बाकी शरीर पर पड़ी र वह दहल गया ।
प्रोफेसर का वृद्ध शरीर कमर तक नंगा था । उनकी पसिलयों के पास एक मैली सी सफेद पट्टी बन्धी हुई थी और बाकी के सारे नंगे भाग पर बड़े बड़े भयानक फफोले दिखाई दे रहे थे । शत्रुओं ने प्रोफेसर की जुबान खुलवाने के लिये टार्चर के उसी तरीके का सहारा लिया था जो वे पहले ही मिस ओब्रायन पर आजमा चुके थे । शत्रु निश्चय ही प्रोफेसर के वृद्ध शरीर को जलती हुई सिगरेटों से दागते रहे थे ।
केवल छाती की हल्की सी हरकत से मालूम होता था कि प्रोफेसर भटनागर की सांस चल रही है और वे जिन्दा हैं ।
सुनील डाक्टर की ओर घूमा और फिर कठोर स्वर में बोला - “इनकी हालत कैसी है ?”
“बहुत बुरी ।” - डाक्टर कम्पित स्वर में बोला “बहुत नाजुक । किसी भी क्षण जान जा सकती है ।”
“बचने की कोई उम्मीद ?”
डाक्टर हिचकिचाया और फिर बोला - “बहुत कम ।”
“तुम सुबह से यहां हो । तुमने क्या किया है ?”
“मैंने इन्हें केवल तीन चार इन्जेक्शन दिये हैं । इसके अतिरिक्त और कुछ करने की स्थिति में मैं था भी नहीं । जो लोग मुझे बुलाकर लाये थे, मैंने उन्हें स्पष्ट शब्दों में कहा था कि पेशेन्ट को फौरन हस्पताल ले जाया जाना बहुत जरूरी है लेकिन ये लोग माने नहीं । पेशेन्ट को जिन्दा रखने के लिये जो कुछ मैं कर सकता हूं, कर रह हूं ।”
जगतार सिंह विचित्र नेत्रों से कभी प्रोफेसर भटनागर को और कभी सुनील को देख रहा था ।
“अभी ये बेहोश हैं ।” - सुनील ने पूछा ।
“मैंने इन्हें आधा घन्टा पहले पैथाडीन का इन्जेक्शन दिया था ।”
सुनील कुछ क्षण सोचता रहा और फिर निर्णयात्मक स्वर में बोला - “जगतार । तुम जाकर अपनी कार को इमारत के द्वार के एकदम सामने लाओ । मैं प्रोफेसर को लेकर नीचे आता हूं ।”
जगतार सिंह बिना प्रतिवाद किये फौरन घूमा और कमरे से बाहर निकल गया ।
सुनील ने प्रोफेसर के शरीर को एक सफेद चादर में लपेटा और फिर बड़ी सावधानी से धीरे से उन्हें अपनी बांहों में उठा लिया । डाक्टर पर बिना दृष्टिपात किये हुए प्रोफेसर के शरीर को एक बच्चे की तरह सम्भाले हुए सुनील कमरे से बाहर निकल गया ।
वह धीरे-धीरे सीढियां उतरने लगा । वह इस बात से पूरी तरह सावधान था कि डाक्टर के शरीर को हल्का सा भी झटका न लगे ।
नीचे पहुंचकर उसने धीरे से द्वार खोला और सावधानी से बाहर झांका ।
उसी क्षण जगतार सिंह ने कार को लाकर द्वार के सामने खड़ा कर दिया ।
सुनील ने द्वार खोला और प्रोफेसर को उठाये इमारत से बाहर निकल आया ।
जगतार ने ड्राइविंग सीट पर बैठे-बैठे ही हाथ बड़ाकर कार का सुनील की ओर का पिछला दरवाजा खोल दिया ।
सुनील जल्दी से कार में घुस गया । उसने कार का दरवाजा बन्द किया प्रोफेसर को सम्भालकर कार की पिछली सीट पर लिटाया और फिर जगतार सिंह को संकेत किया ।
सड़क आने जाने वाले लोगों से भरी हुई थी लेकिन किसी का ध्यान उनकी ओर नहीं था ।
जगतार सिंह ने धीरे से कार को गियर में डाला । कार एक हल्का सा भी झटका खाये बिना बड़ी सफाई से सड़क पर दौड़ गई ।
जगतार सिंह के कार को लाकर बाइस नम्बर इमारत के सामने लाकर खड़ी करने के दो क्षण बाद ही एक चमचमाती हुई रोल्स रायस गाड़ी मोड़ घूम कर न्यू गेट स्ट्रीट में प्रविष्ट हुई । रोल्स रायस को एक वर्दीधारी शोफर चला रहा था । पिछली सीट पर लगभग पचास वर्ष का बेहद सम्पन्न दिखाई देने वाला चीनी बैठा था जो एक शानदार काला सूट पहने हुए था । उसने सुनील को सफेद चादर में लिपटे हुए प्रोफेसर के शरीर को उठाये बाइस नम्बर इमारत से बाहर निकलते देखा और उसके नेत्र फैल गये । उसने ड्राइवर को गाड़ी रोकने का संकेत किया ।
ड्राइवर ने फौरन आज्ञा का पालन किया । रोल्स रायस बाइस नम्बर इमारत से थोड़ी दूर रूक गई ।
काले सूट वाला चीनी अपलक नेत्रों से बाइस नम्बर इमारत की ओर देख रहा था ।
बाइस नम्बर इमारत के सामने खड़ी फोर्ड गाड़ी के आगे बढते ही उसने अपने शोफर को आदेश दिया - “उस फोर्ड गाड़ी का पीछा करो । और उन्हें मालूम न हो पाये कि उनका पीछा किया जा रहा है ।”
शोफर ने सहमति सूचक ढंग से सिर हिलाता और रोल्स रायस को फोर्ड के पीछे लगा दिया ।
फोर्ड में मौजूद जगतार सिंह और सुनील इस बात से बेखबर थे । जगतार सिंह सावधानी से गाड़ी चलाने में मग्न था और सुनील का सारा ध्यान इस बात की ओर लगा हुआ था कि पिछली सीट पर पड़े प्रोफेसर भटनागर के शरीर को किसी प्रकार का झटका न लगे । वैसे भी जिस परिस्थिति से वे निकल कर आये थे और अपने पीछे जिस प्रकार का वातावरण वे छोड़ कर आये थे, उसमें इस प्रकार की सम्भावना नहीं दिखाई देती थी कि कोई उनका पीछा भी कर सकता है ।