वह शुक्रवार का दिन था ।
उस रोज ठीक नौ बजे विकास गुप्ता विशालगढ के होटल रिवर व्यू के रिसेप्शन पर मौजूद था ।
उसने रिसैप्शनिस्ट का दिया रजिस्ट्रेशन कार्ड भरा और उसे वापिस रिसैप्शनिस्ट को लौटाने से पहले बड़े गौर से कार्ड के नीचे दायें कोने में अंकित अपने हस्ताक्षरों को देखा ।
ऐसा बहुत कम ही होता था कि विकास गुप्ता ने कहीं अपना असली नाम लिखा हो या बताया हो । उस रोज से पहले ऐसा मौका कब आया था, यह उसे उस वक्त याद नहीं पड़ रहा था ।
वह लगभग तीस साल का लम्बा ऊंचा कद्दावर आदमी था और फिल्म अभिनेताओं जैसा खूबसूरत था । वह हर वक्त बड़ी सजधज के साथ रहता था और अपने रख-रखाव की वजह से सहज ही किसी कुलीन घर का रोशन चिराग समझ लिया जाता था । हकीकत में वह कितने कुलीन घर का कितना रोशन चिराग था, यह देश के विभिन्न नगरों में बिखरे असके वे शिकार ही बेहतर जानते थे जो उसकी धोखाधड़ी और ठगी के जाल में फंसकर खराब हो चुके थे लेकिन विकास जानता था कि उनमें से कोई उसकी पोल खोलने उस शहर में नहीं पहुंच सकता था ।
वह एक पेशेवर ठग था, कॉनमैन था । ठगी, धोखाधड़ी ही उसकी रोजी-रोटी का जरिया था और उसकी कामयाबी में सबसे बड़ा हाथ उसके आकर्षक व्यक्तित्व का था और
उसकी अक्ल और सूझ-बूझ का था। प्रत्यक्षतः कोई फिल्म अभिनेता या कोई बिजनेस मैन या कोई प्रोफेसर या इंजीनियर लगने वाले विकास गुप्ता को देखकर कोई सपने में भी नहीं सोच सकता था कि वह ठग हो सकता था ।
उसने कार्ड रिसैप्शनिस्ट को सौंप दिया ।
रिसैप्शनिस्ट एक निहायत खूबसूरत युवती थी और उसकी आंखों में विकास के प्रति प्रशंसा का भाव छुपाये नहीं छुप रहा था । वह विकास के लिये कोई नई बात नहीं थी । नौजवान लड़कियों की तारीफी निगाहों का हकदार वह हमेशा अनायास ही बन जाता था। आज तक कोई ऐसी नौजवान लड़की उसकी निगाह में नहीं आई थी जिस पर कि उसके चुम्बकीय व्यक्तित्व का प्रभाव फौरन, फौरन से पेशतर न पड़ा हो । कई बात तो वह खुद हैरान हो जाता था कि ऐसा क्योंकर हो जाता था, हमेशा ही ऐसा क्योंकर हो जाता था ।
युवती ने उसके कार्ड में उसका कमरा नम्बर भरा और होंठो पर एक चित्ताकर्षक मुस्कराहट लाती हुई बड़े मधुर स्वर में बोली- "वैलकम टू अवर टाउन, मिस्टर विकास गुप्ता ।"
"थैंक्यू ।" - वह बोला । वह जानता था कि युवती के होंठो की वह मुस्कराहट और स्वर की अतिरिक्त मधुरता होटल के हर किसी मेहमान के लिये नहीं थी ।
"यहां लम्बा ठहरने का इरादा है, मिस्टर गुप्ता ?"
उतर देने से पहले इस बार विकास ने गौर से युवती का मुआयना किया। वह एक मुश्किल से बीस साल की, बहुत साफ-सुथरे नयन-नक्श वाली, गोरी-चिट्टी युवती थी । उसके स्याह काले बाल समुद्र की लहरों की तरह उसके सुडौल कन्धों पर लहरा रहे थे । लाल रंग की सिल्क की साड़ी और स्लीवलैस ब्लाउज में वह बहुत ही जंच रही थी। एक ही निगाह में उसने युवती के वक्ष का उभार, कमर का खम और कूल्हों की मांसलता, सब कुछ नोट किया । उसने मन ही मन फैसला किया कि वह लड़की उसके विशालगढ़ में बीतने वाले दिनों में रौनक ला सकती थी ।
“लम्बा ठहरने का इरादा ?" - वह अपने चेहरे पर अपनी फेमस मुस्कराहट लाता हुआ बोला- "अजी, अपना तो यहां से टलने का ही इरादा नहीं है। मैं तो यहीं सैटल होने आया हूं।"
“ओह ! जानकर खुशी हुई कि हमारा शहर आपको इतना पसन्द आया है । "
" जी हां । शहर भी " - वह अपना निचला होंठ दांतों में दबाकर बड़े अनुराग-पूर्ण स्वर में बोला - " और शहर वाले भी ।"
वह शर्माई ।
"मैं यहां नदी के किनारे कहीं, कोई बना बनाया मकान खरीदना चाहता हूं । इस बारे में आप मेरा कोई मार्ग निर्देशन कर सकती हैं ?"
"आप किसी प्रापर्टी डीलर से मिलिये । "
"प्रापर्टी डीलर तो यहां कई होंगे । आप कोई राय दीजिये कि मैं किससे मिलूं ?"
"कमर्शियल स्ट्रीट में एक अशोका प्रापर्टी डीलर्स हैं।
आप उनसे मिल देखिये । "
“अशोका प्रापर्टी डीलर्स।" - विकास ने नाम, पता दोहराया - "कमर्शियल स्ट्रीट। मालिक का क्या नाम है ?"
"सरदार प्रीतम सिंह | "
"आप जानती हैं उन्हें ?"
"हां । मेरे फादर के दोस्त हैं वो । "
"हूं ! सरदार प्रीतम सिंह । मैं मिलूंगा उनसे । "
"जरूर मिलियेगा । भले आदमी हैं। आपको गलत राय नहीं देंगे।"
"भले आदमी तो वे जरूर होगे । मेरा ख्याल तो यह है कि इस शहर में सभी भले आदमी होंगे ।"
"कैसे जाना ?"
"आपको देखकर जाना ।"
वह फिर शर्माई ।
टलूं । " “अब एक गुस्ताखी की और इजाजत दें तो मैं यहां से
"क्या ?"
"आपका नाम जान सकता हूं मैं ?"
“योगिता । योगिता है मेरा नाम । "
"बड़ा खूबसूरत नाम है । आप ही जैसा ।”
"थैंक्यू ।" - वह सकुचाती हुई बोली । फिर उसने काउन्टर पर रखी घण्टी हर हाथ मारा और पुकार कर बोली - "फ्रन्ट !"
तुरन्त एक बैल ब्वाय काउन्टर पर पहुंचा। उसने विकास गुप्ता का इकलौता सूटकेस उठा लिया । रिसैप्शनिस्ट ने उसे 312 नम्बर कमरे की चाबी सौंप दी।
विकास बैल ब्वाय के साथ हो लिया ।
उसे ऐसा अनुभव हुआ कि लड़की उस नौकरी में नई-नई ही लगी थी। अभी उसने होटल बिजनेस के फेमस मशीनी अन्दाज और तौर-तरीके नहीं सीखे मालूम होते थे ।
******
ऐन उसी समय नगर के एक अन्य होटल के एक कमरे में लगभग पचपन साल का एक बेहतर तन्दुरुस्त वृद्ध बैठा उस रोज के अखबार का पोस्ट मार्टम कर रहा था । अखबार का नाम 'डेली एक्सप्रेस' था और वह उसी शहर से छपता था । वह उसमें अपने काम आ सकने वाली कोई दिलचस्प लोकल न्यूज तलाश कर रहा था। हर सुबह अखबार का ऐसा पोस्टमार्टम करना उसकी दिनचर्या थी ।
उस वृद्ध ने होटल के रिकार्ड में अपना नाम जे.एन.एस. चौहान रिटायर्ड कर्नल गढवाल रेजिमेन्ट लिखवाया था । अपने गठीले, चाक चौबन्द जिस्म, छ: फुट लम्बे कद, तनी हुई मूंछों और बेहद रोबदार चेहरे की वजह से वह कर्नल तो क्या जनरल भी हो सकता था लेकिन हकीकत में वह फौज का सिपाही तक कभी नहीं रहा था । मिलिट्री की शक्ल भी नहीं देखी थी उसने ।
वास्तव में उसका नाम मनोहर लाल था । ठगों की दुनिया में मनोहर लाल का बड़ा नाम था । अपने धन्धे का वह कितना बड़ा उस्ताद था, इसका अन्दाज इसी बात से लगाया जा सकता था कि तीस साल से वह उस धन्धे में था, सैकड़ों लोगों को वह अपनी ठगी का शिकार बना चुका था लेकिन आज तक एक बार भी पकड़ा नहीं गया था ।
तभी एकाएक तीसरे पृष्ठ पर छपे एक चित्र पर उसकी निगाह ठिठक गई ।
वह चित्र किसी प्रोविजन स्टोर का मालूम होता था । एक काउन्टर पर लगे डिब्बा बन्द वस्तुओं के एक पिरामिड के सामने एक सुन्दर युवती और एक बड़े सख्त चेहरे वाले आदमी की तस्वीर छपी हुई थी । युवती के चेहरे पर क्रोध के भाव थे और उसकी इलजाम लगाती हुई एक उंगली उस आदमी की ओर उठी हुई थी लेकिन उस आदमी की भी वैसा ही एक उंगली युवती की तरफ उठी थी । लगता था दोनों ही एक दूसरे को किसी बात के लिए गुनहगार ठहरा रहे थे जबकि फोटोग्राफर ने वह फोटो खींच ली थी ।
मनोहर लाल ने अपने हाथ में थमे सिगार का एक लम्बा कश लगाया और फिर तस्वीर के नीचे छपी खबर पढ़नी आरम्भ की ।
लिखा था:
इलजाम लगाने वाले पर इलजाम
कल शाम विशाल गढ की एजरा स्ट्रीट में एक बड़ी विचित्र घटना घटी । उपरोक्त चित्र एजरा स्ट्रीट में स्थित एक सैल्फ-सर्विस प्रोविजन स्टोर का है जिसकी मालकिन चित्र में बाई और दिखाई दे रही कुमारी गिरिजा माथुर हैं। उनकी इलजाम-भरी उंगली जिस व्यक्ति की ओर उठी हुई है, उसका नाम जगतपाल है और कुमारी गिरिजा माथुर के बयान के अनुसार जगतपाल ने उनकी आंखों के सामने उनके प्रोविजन स्टोर के सामने स्थित ज्वेल शाप नामक एक जौहरी की दुकान पर डाका डाला था । जगतपाल ने ज्यों ही प्रोविजन स्टोर में कदम रखा था, कुमारी गिरिजा माथुर ने पुलिस को फोन कर दिया था । उन्होंने पुलिस को बताया था कि उन्होंने जगतपाल को हाथ में एक रिवॉल्वर लिये उल्टे पांव चलते हुए जौहरी की दुकान से बाहर निकलते देखा था । रिवॉल्वर की नाल दुकान के मालिक की तरफ तनी हुई थी और रिवॉल्वर से आतंकित राजनारायण के हाथ उसके कन्धों से ऊपर उठे हुए थे। तभी एकाएक एजरा स्ट्रीट में पुलिस की एक गश्ती गाड़ी दाखिल हुई थी। जिसके वहां अप्रत्याशित आगमन की वजह से जगतपाल घबरा गया था । वह ज्वेल शाप से निकल कर सड़क पर आगे बढ़ने के स्थान पर यूं कुमारी गिरिजा माथुर के प्रोविजन स्टोर में दाखिल हो गया था जैसे वह कोई ग्राहक था जो वहां कुछ खरीदने आया था । वह वहां बड़े निर्विकार भाव से डिब्बा बन्द वस्तुओं का मुआयना करने लगा था और उनमें से अपनी जरूरत की वस्तुएं छांटने लगा था । उसे यह नहीं मालूम था कि कुछ क्षण पहले ज्वेल शाप में जो हरकत वह करके आया था, वह कुमारी गिरिजा माथुर ने देखी थी । स्टोर में मौजूद फोन द्वारा कुमारी गिरिजा माथुर ने तुरन्त पुलिस को इत्तला दे दी थी। क्योंकि पुलिस की वायरलैस टेलीफोन से लैस एक गश्ती गाड़ी उस वक्त एजरा स्ट्रीट में ही मौजूद थी, इसीलिए पुलिस तत्काल प्रोविजन स्टोर पर पहुंच गई थी । वहां कुमारी गिरिजा माथुर का बयान सुनकर पुलिस ने जगतपाल को फौरन हिरासत में ले लिया था । लेकिन उसके तुरन्त बाद उस कथित बेहद सनसनी खेज सिलसिले की टांग टूट गई थी । न केवल पुलिस जगतपाल के पास से कथित लूट का कोई माल नहीं बरामद कर सकी थी बल्कि जब वे ज्वेल शाप में पहुंचे थे तो वहां उन्होंने ज्वेल शाप के मालिक राजनारायण को बड़े निर्विकार भाव से बैठे अखबार पढते पाया था । अपनी दुकान पर डाका पड़ा होने की बात सुनकर उसने सख्त हैरानी जाहिर की थी और ऐसी किसी घटना के वहां घटी होने से पूर्णतया अनभिज्ञता प्रकट की थी । -
जगतपाल फिलहाल पुलिस की हिरासत में है लेकिन पुलिस के हर प्रवक्ता का कहना है कि उसे हिरासत में रखे रहने लायक केस उसके खिलाफ बन पाये, ऐसी सम्भावना नहीं के बराबर है ।
इन पंक्तियों के लेखक ने जब जगतपाल से इस सन्दर्भ में बातचीत की तो जगतपाल ने आग-बबूला होते हुआ कहा कि यह उसके खिलाफ एक भयंकर षड्यन्त्र था और शायद उसको ब्लैकमेल करने की कोशिश थी । उसने कहा है कि वह पुलिस की हिरासत से छूटते ही जो पहला काम करेगा, वह यही होगा कि वह कुमारी गिरिजा माथुर के खिलाफ मानहानि का दावा ठोकेगा और उससे हर्जाने के तौर पर एक मोटी रकम वसूल करके दिखायेगा ।
तत्पश्चात इन पंक्तियों के लेखक ने कुमारी गिरिजा माथुर से भी बात की । लेखक ने उन्हें बड़ी परेशानी की हालत में पाया । उन्होंने रुआसे स्वर में इस संवाददाता को बताया कि उन्होंने जो कुछ कहा था, एकदम सच था और फौरन पुलिस को इतला देकर और जगतपाल को गिरफ्तार करवाकर अपनी तरफ से ज्वेल शाप के मालिक राजनारायण का भला किया था । लेकिन अब उन्हें उल्टे लेने के देने पड़ गए થે । ऐसा कैसे हो गया था, यह उनकी समझ से बाहर था ।
ज्ञात हुआ है कि कुमारी गिरजा माथुर उस इलाके की बड़ी प्रतिष्ठा प्राप्त युवती हैं। हर किसी का यह कहा है कि अगर वे कहती हैं कि उन्होंने जगतपाल को हाथ में रिवाल्वर लिए ज्वेल शाप से बाहर निकलते देखा था तो जरूर हुआ होगा । लेकिन इस बात का किसी के पास जवाब नहीं था कि जब ज्वेल शाप का मालिक ही अपनी दुकान से कोई माल लुटा होने से इन्कार कर रहा था तो डकैती को वह कहानी सच कैसे हो सकती है ।
ज्ञात हुआ है कि कुमारी गिरजा माथुर के पिता प्रकाश बिहारी माथुर का स्वर्गवास हाल ही में हुआ है । घर में कोई और बालिग पुरुष सदस्य न होने का कारण उन्हें मजबूरन खुद वह प्रोविजन स्टोर चलाना पड़ रहा है। वैसे वे प्रोविजन स्टोर को बेच दना चाहती हैं और इस सन्दर्भ में किसी मुनासिब ग्राहक की तलाश में हैं ।
पुलिस की तफ्तीश अभी जारी है ।
उसने अखबार एक ओर उछाल दिया और होंठो में बुदबुदाया - " और हमारी तफ्तीश अभी जारी होनी है । केस होप फुल है । रिसर्च करनी होगी ।"
फिर उसने टेलीफोन का रिसीवर उठाया आपरेटर से कहा - "प्लीज कनैक्ट मी टु मिसेज पूर्णामा सरीन इन रूम नम्बर 235 ऑफ होटल रिवर व्यू ।”
लेकिन कथित 'मिसेज पूर्णिमा सरीन' उस वक्त अपने कमरे में नहीं थी ।
******
दस बजे के करीब विकास नहा-धोकर, नया सूट पहनाकर, अपने कमरे से बाहर निकला । लिफ्ट पर सवार होकर वह नीचे लान में पहुंचा ।
वह लम्बे डग भरता हुआ मुख्य द्वार की ओर बढ़ रहा था कि एकाएक एक स्त्री स्वर ने उसे पीछे से पुकारा - "विकास गुप्ता !"
विकास ठिठका, घूमा, एक सकपकाई निगाह उसने स्वंय को पुकारने वाले स्वर की मालकिन की तलाश में सामने दौड़ाई ।
रेस्टोरेन्ट की ओर से एक बड़ी शानदार औरत उसकी तरफ बढ रही थी । आयु में लगभग सत्ताइस बरस की थी। उस के बाल कटे हुए थे और उसने अपने खूबसूरत चेहरे पर बड़ा सलीके का मेकअप किया हुआ था । वह एक शिफौन की साड़ी पहने थी जिसमें से उसकी लम्बी सुडौल टांगों का आभास उसे बखूबी मिल रहा था । वह एक लो कट का ब्लाउज पहने थी और उसके उठते कदमों के साथ उसके असाधारण आकार के उरोज बड़े तौबाशिकन ढंग से हिल रहे थे ।
लाबी में मौजूद हर आदमी की निगाह उस वक्त उस औरत पर थी ।
वह विकास से एक कदम परे पहुंच कर ठिठकी। बैंगनी रंग कि लिपस्टिक से पुते उसके खूबसूरत होंठ मुस्कराहट की सूरत में फैले और वह बोली- "हल्लो !”
"हल्लो !" - विकास के मुंह से निकला - "तुम यहां विशालगढ में ?"
"हां ।" - वह बोली - "देखकर हैरान हो गये न ?”
"तुम यहां क्या कर रही हो ?"
"तुम बताओ, तुम यहां क्या कर रहे हो ?"
"मैं तो सैटल होने की नीयत से यहां आया हूं।"
वह यूं हंसी जैसे उसने भारी मजाक की बात सुन ली हो
"हंस क्यों रही हो ?" - विकास हैरानी से बोला ।
"तुम ?" - वह पूर्ववत हंसती हुई बोली- "यहां सैटल होने की नीयत से आये हो ? माई गाड ! आफ आल दी प्लेसिज । "
"मैं सच कह रहा हूं।"
"क्यों नहीं ! क्यों नहीं !"
“अरे, मैं सच में सच कह रहा हूं।"
“बच्चा !” - उस औरत ने हंसना बन्द कर दिया लेकिन उसके स्वर में से उपहास का भाव नहीं गया - "दाई से पेट छुपाने की कोशिश मत करो।"
"खैर, छोड़ो" विकास ने विषय बदलने का उपक्रम किया - “खलीफा भी तुम्हारे साथ हैं ?"
“तुम इसी होटल में ठहरे हुये हो ?" - वह बोली । उसने विकास के सवाल को नजरअन्दाज कर दिया ।
“हां । 312 में हूं मैं ।”
"मुझसे गलती हो गई, स्वीटहार्ट । झोंक में मैंने तुम्हें तुम्हारे असली नाम से आवाज दे दी थी । "
"कोई फर्क नहीं पड़ता" - विकास हंसता हुआ बोला - "होटल के रिकार्ड में मेरा यही नाम लिखा हुआ है ।"
"ओह !" - उस औरत के नेत्र सिकुड़ गये - "तो क्या वाकई धन्धे के फेर में नहीं आये हो ?"
"हां ।”
"तो फिर क्यों आये हो ?"
"उसी वजह से जो मैंने अभी बयान की है । "
"यहां सैटल होने के लिए ?"
"हां"
“नानसेन्स, इस बात पर तो तुम्हारी पैदा करने वाली भी तुम्हारा विश्वास नहीं कर सकती ।"
"लेकिन यह हकीकत है। मैं यहां नदी किनारे एक घर खरीदने वाला हूं और चैन की बंसी बजाने वाला ["
"बंसी तो यहां तुम जरूर बजाओगी किसी की लेकिन चैन की नहीं ।”
"मत मानो ।”
"देखो" - वह विकास के तनिक और समीप सरक आई और धीमे स्वर में बोली- “अपनी मम्मी से छुपाव नहीं रखते । सच बताओ, क्या किसी प्रापर्टी डीलर को मुर्गा का इरादा है ?"
"अरे नहीं बाबा" - विकास तनिक झल्लाया - "कहा न मैं यहां धन्धे से नहीं आया। मैं वाकई यहां सैटल होने आया हूं। मैं रिटायर हो चुका हूं । आनेस्ट ।"
"मत बताओ" - वह बुरा सा मुंह बना कर बोली. "लेकिन खातिर जमा रखो, तुम्हारा मुर्गा हम नहीं भूनने वाले । मैं या मनोहर तुम्हारी हांडी में हिस्सेदार नहीं बनने वाले ।"
"मनोहर की जिद पर भी नहीं ?"
"हरगिज नहीं । तभी तो कहती हूं कि मुझसे क्यों पाखंड करते हो ? यह क्या कोई मानने वाली बात है कि हिन्दुस्तान का सबसे बड़ा ठग भरी जवानी में धन्धे से संन्यास ले रहा है ?"
"मत मानो ।" - विकास लापरवाही से बोला ।
“आज एक बात तो साबित हो गई, विकास ।”
"क्या ?"
" कि तुम्हें मुझ पर रत्ती भर का भरोसा नहीं ।"
“अब छोड़ो भी यह किस्सा | "
"ठीक है । छोड़ दिया।"
"मैंने पूछा था कि क्या खलीफा भी तुम्हारे साथ हैं ?" "हां"
"यहीं ?"
"नहीं । वह विक्रान्त नाम के एक दूसरे होटल में हैं । तुम्हारी जानकारी के लिये यहां वह कर्नल जगन्नाथ सिंह चौहान हैं ।"
"कर्नल ! क्या कहने ? और तुम क्या हो यहां ?"
“मिसेज पूर्णिमा सरीन ?" - वह बड़े रोब से बोली ।
"वाह ! यह तो बड़ी इज्जतदार, खानदानी औरत का नाम मालूम होता है ।"
"मैं हूं ही बड़ी इज्जतदार खानदानी औरत । "
"क्यों नहीं ! क्यों नहीं ! खलीफा मिलिट्री के कर्नल । तुम खानदानी औरत । जरूर किसी मोटे बकरे को जिबह करने का सामान है । किसी शामत आई है, शबनम ?"
" शबनम नहीं, मुझे मिसेज सरीन कहो । या पूर्णिमा कहो।"
“पूर्णिमा ही सही ।"
“मैं यहां" - वह बड़े अर्थपूर्ण स्वर में बोली- "238 में हूं।"
"हूं।"
"सोचा बता दूं । मुझे ढूंढने में आसानी होगी तुम्हें । "
" ऐसी बातें मत करो, जानेमन ।”
"क्यों ?"
"खलीफा बुरा मान जायेंगे ।"
"तुम पागल हो । उसे मेरी निजी जिन्दगी से कोई मतलब नहीं है। उससे मेरा सिर्फ धन्धे का रिश्ता है । "
"लेकिन मेरा उससे दोस्ती का रिश्ता है।"
"जरूर होगा। लेकिन मैं तुम्हारे दोस्त की प्रापर्टी नहीं हूं। खातिर जमा रखो, तुम पर दोस्त के माल पर हाथ साफ करने का इलजाम नहीं आने वाला । तुम्हें शायद मालूम नहीं हैं कि मनोहर मुझे अपनी बेटी की तरह मानता है।"
विकास हंसा ।
"हंसो मत ।" - वह मुंह बिगाड़ कर बोली ।
"शबनम, मेरा मतलब है मिसेज सरीन" - उसकी हंसी को ब्रेक लग गई - "तुम जानती हो मैं एक ठग हूं।"
" और मैं क्या कोई मन्दिर में भजन गाने वाली देवदासी हूं ?"
"मैं तुम्हारा सब कुछ चुरा कर ले जाऊंगा ।"
"यह तो बहुत ही अच्छा होगा। लेकिन सब कुछ ही चुराना, कुछ छोड़ मत देना। मेरे प्यार का नाजायज फायदा उठाकर मेरा सब कुछ चुराने में तुम्हें सहूलियत होगी ।"
" यानी कि तुम अप मुझे इतना गिरा समझती हो कि मैं किसी औरत को अपने मोहजाल में फांस कर उसे लूटने की कोशिश कर सकता हूं।"
“विकास, असली कुत्ती चीज हो तुम । हमेशा बात को
घुमाफिरा कर अपने हक में कर लेते हो।"
विकास ने ठहाका लगाया ।
"जानते हो ?" - वह बोली ।
"क्या ?"
"तुम किसी औरत का सर्वस्व लूटने की कोशिश न करके उसे ज्यादा बड़ा धोखा दे सकते हो ।”
"शबनम, मेरा मतलब है पूर्णिमा, तुमसे दरअसल मुझे और तरह का डर लगता है ।"
"अच्छा ? कैसा ?"
" कि कहीं तुम मेरा सर्वस्व न लूट लो । आखिर इतनी बड़ी ठग हो ।”
"तुमसे बड़ी नहीं । "
विकास हंसा ।
"मैं 238 में हूं।"
"तुमने अभी बताया था मुझे ।"
"सोचा शायद भूल गये होवो ।”
"नहीं भूला हूं।"
" और नाम भी मत भूलना । मिसेज पूर्णिमा सरीन ।”
"नहीं भूलूंगा ।"
फिर वह घूमा और उसे वहीं खड़ा छोड़कर होटल से बाहर की ओर बढ़ गया ।
उसने शबनम से यह नहीं पूछा था कि वह और खलीफा वहां किस फिराक में आये थे। पूछने पर सही उतर मिलने की उसे उम्मीद ही नहीं थी । वे दोनों उसे अपनी योजना हरगिज नहीं बताने वाले थे, बिल्कुल वैसे ही जैसे वह उन्हें अपनी योजना नहीं बताने वाला था ।
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