देवराज चौहान अजीबो-गरीब हाल में नजर आ रहा था।

सिर के बाल छोटे थे। स्पष्ट एहसास हो रहा था कि कुछ वक्त पहले वो पूरा गंजा हुआ था। दाएं कान के ऊपर, सिर के बालों के चौराहे के पास, गोली लगने का ताजा निशान था, जो कि भर चुका था। परन्तु वहां ठीक से अभी बाल नहीं, आये दिख रहे थे। शरीर पर सादी कमीज और पैंट थी। कमीज पैंट के बाहर झूल रही थी। जिक्र करने के लायक तो उसके चेहरे के भाव थे।

खूँखारता से भरा चेहरा। दहकती, शोले बरसाती आंखें। भिंचे होंठ। कसे हुए गाल।

देवराज चौहान सड़क के किनारे, फुटपाथ पर तेजी से आगे बढ़ा जा रहा था। तेज धूप की वजह से शरीर पर पसीने की धारा बहती महसूस हो जाती थी। गर्मी इतनी थी कि शरीर तप रहा था।

परन्तु देवराज चौहान को इन बातों का होश ही कहां था।

इस वक्त वो मौत का दूसरा रूप लग रहा था।

एकाएक देवराज चौहान ने फुटपाथ छोड़ा और दायीं तरफ कच्चे में उतर गया। वहां छोटे-छोटे प्लाटों पर कच्ची-पक्की कॉलोनी बसी हुई थी। भीड़ भरा इलाका था ये। इतनी गर्मी में भी लोगों का आना-जाना जारी था।

देवराज चौहान का ध्यान आते-जाते लोगों पर जरा भी नहीं था। वो सामने की एक गली में प्रवेश करता चला गया। गली में कुछ भीतर जाकर एक दरवाजे पर ठिठका और दोनों हाथों से दरवाजे को धक्का दिया तो वो खुलता चला गया। देवराज चौहान भीतर प्रवेश करके ठिठका।

ये कमरा था।

वहां ट्यूब लाईट की रोशनी जल रही थी। एक तरफ दीवान पर एक आदमी बैठा था। दूसरा कुर्सी पर बैठा था। दोनों बीयर पी रहे थे कि एकाएक आए तूफान की वजह से दोनों चौंके।

"कौन है तू?" एक आदमी बीयर का गिलास हाथ में पकड़े गुर्रा उठा।

अगले ही पल देवराज चौहान पर उनकी निगाह पड़ी तो वे चौंके।

चेहरे पर से कई तरह के भाव आकर गुजर गए। दोनों की आपस में नजरें मिलीं।

देवराज चौहान ने पैंट के बाहर झूलती कमीज के भीतर हाथ डाला और पैंट में फंसी रिवाल्वर निकालकर हाथ में ले ली। वो पुलिस रिवाल्वर थी, .38 की। सब-इंस्पेक्टर कामटे की रिवाल्वर थी वो।

"तुम दोनों के चेहरे बता रहे हैं कि मुझे पहचान चुके हो।" देवराज चौहान रिवॉल्वर उनकी तरफ करता हुआ दरिंदगी भरे स्वर में बोला--- "दावरे कहां है?"

"द...दा... वरे?" एक के होंठों से निकला।

"सुधीर दावरे कहां पर छुपा बैठा है?" देवराज चौहान खूंखारता भरे स्वर में कह उठा।

"ह...हम नहीं जानते कि दावरे साहब कहां हैं!"

"मैं जानता था कि तुम जैसे को दावरे की खबर नहीं होगी। बोलो, मैं कौन हूं?"

"द... देवराज चौहान। डकैती मास्टर।"

"कैसे पहचाना?"

"दावरे साहब ने अपने लोगों में तुम्हारी तस्वीर बांट रखी है, कि जब भी तुम्हें देखें तो पहचान जाएं।"

देवराज चौहान के होंठों से गुर्राहट निकली।

"ब्रांडी या प्यारा कहां है?"

"हम नहीं जानते...।"

उसी पल देवराज चौहान ने हाथ में दबी रिवाल्वर का ट्रिगर दबा दिया।

'धांय...।'

तेज आवाज गूंजी और गोली उसके माथे पर जा लगी।

वो कुर्सी से उल्टा और नीचे जा गिरा। बीयर का गिलास हाथ से निकलकर, पहले ही नीचे जा गिरा था।

दीवान पर बैठा दूसरा व्यक्ति कांप उठा ये देखकर। उसका चेहरा सफेद पड़ गया।

"ब्रांडी और प्यारा कहां है?" देवराज चौहान ने रिवाल्वर उसकी तरफ की।

"गोली मत मारना। मैं तुम्हें किशन दावरे के बारे में बता सकता हूं...।" वो जल्दी से चीखकर बोला।

"कौन किशन दावरे?" देवराज चौहान ने दांत पीसे।

"सुधीर दावरे का चचेरा भाई। ड्रग्स के धंधे में किशन दावरे, सुधीर दावरे का दायां हाथ है।"

"ब्रांडी और प्यारा?"

"मैं नहीं जानता कि वो कहां है!" भय से उसका चेहरा पसीने से भर चुका था।

"किशन दावरे का पता बता?" देवराज चौहान ने उसी लहजे में कहा।

उसने एक जगह का पता बताया।

"किशन दावरे इन दिनों इसी जगह पर है। दावरे साहब ने उसे बाहर निकलने को मना कर रखा...।"

'धांय।'

कानों को फाड़ देने वाला एक और धमाका हुआ और गोली उसके माथे पर जा लगी।

देवराज चौहान ने रिवाल्वर वापस पैंट में फंसाई और सिर के ऊपरी हिस्से में वहां हाथ लगाया जहां गोली का जख्म भर चुका था। फिर होंठों से गुर्राहट निकली और पलटकर खुले दरवाजे से बाहर निकलता चला गया।

बाहर तीन-चार लोग गोली की आवाज सुनकर इकट्ठे हो चुके थे, परन्तु देवराज चौहान ने उन्हें देखा भी नहीं।

■■■

उस छोटे से बंगले के भीतर की तरफ एक दरबान स्टूल पर बैठा था। थोड़ा गेट थोड़ा सा खुला हुआ था। देवराज चौहान गेट पर पहुंचा और खुले गेट से भीतर प्रवेश कर गया।

"ऐ!" दरबान हड़बड़ाकर स्टूल से उठा--- "कौन हो तुम और कहां घुसे आ रहे...।"

तब तक देवराज चौहान उसके पास पहुंच चुका था।

वो अपने शब्द पूरे न कर सका और देवराज चौहान का वजनी घूंसा उसकी कनपटी पर पड़ा। उसके होंठों से कराह निकली। इससे पहले कि वो बेहोश होकर गिरता, देवराज चौहान ने उसे थामा और नीचे लिटा दिया।

सीधा होते हुए देवराज चौहान की खूंखार भरी निगाह हर तरफ घूमी।

दोपहर के तीन बज रहे थे।

पूरा बंगला गर्मी और धूप से तप रहा था।

तेज गर्म हवा के थपेड़े देवराज चौहान के चेहरे से टकरा रहे थे।

उसी पल देवराज चौहान की निगाह एक गनमैन पर पड़ी, जो कि बंगले के एक तरफ की दीवार से निकलकर सामने आया था। वो शायद बंगले के गिर्द चक्कर लगाकर सामने की तरफ पहुंचा था। उसने देवराज चौहान को देख लिया था। ये महसूस करके देवराज चौहान ने उसकी तरफ हाथ हिलाया।

गनमैन उलझन में घिरा देवराज चौहान की तरफ आने लगा।

देवराज चौहान शांत भाव से वहीं खड़ा उसे देखता रहा।

गनमैन कुछ पास पहुंचा तो उसने नीचे गिरे पड़े दरबान को देखा तो चौंका। उसने फौरन गन का रुख देवराज चौहान की तरफ कर दिया कि देवराज चौहान बोला---

"मैं बाहर से निकल रहा था कि ये पानी-पानी कहता नीचे गिर गया।"

"सच कह रहे हो?" गनमैन का स्वर शक से भरा था।

"झूठ क्यों कहूंगा। तुम खुद ही देख लो।"

गनमैन ने गन नीचे की और पास आकर दरबान पर झुका।

देवराज चौहान ने बिजली की सी फुर्ती से पैंट में फंसी रिवाल्वर निकाली और दस्ते की तीव्र चोट उसके सिर पर की। वो तीव्र कराह के साथ झुका-झुका ही नीचे गिरा और बेहोश हो गया। दांत भींचे देवराज चौहान ने रिवाल्वर वापस पैंट में फंसाई और सामने नजर आ रहे बंगले के दरवाजे की तरफ बढ़ गया।

चारों तरफ गर्मी से भरी खामोशी छाई हुई थी।

देवराज चौहान के चेहरे पर पसीने की लाइन दौड़ रही थी।

दरवाजे के पास पहुंचकर देवराज चौहान ठिठक गया। दरवाजा बंद था। बंगले के गिर्द घूमता वो खिड़कियां दरवाजे चैक करने लगा तो एक खिड़की खुली मिली।

खिड़की से वो भीतर प्रवेश कर गया।

बंगले के भीतर खामोशी थी। कहीं से कोई आहट नहीं उभर रही थी।

देवराज चौहान ने रिवाल्वर निकालकर हाथ में ले ली। वो खूंखार और सतर्क नजर आ रहा था। सावधानी से आगे बढ़ता एक कमरे में पहुंचा, जहां दीवान जैसे बेड पर नौकर जैसा आदमी नींद में था।

देवराज चौहान ने आगे बढ़कर उसके गाल पर रिवाल्वर की नाल रख दी।

वो उसी पल हड़बड़ाकर उठ बैठा।

"चुप रहो।" देवराज चौहान दांत पीसकर कह उठा।

रिवाल्वर को देखते ही उसके होश उड़ गए। चेहरा फक्क पड़ गया।

"किशन दावरे कहां है?" देवराज चौहान ने कठोर स्वर में पूछा।

"ऊ...ऊपर...क... कमरे में...।"

उसी पल देवराज चौहान ने रिवाल्वर की नाल का वार उसके माथे पर किया।

वो बे-आवाज सा बेहोश होकर दीवान पर जा लुढ़का।

देवराज चौहान रिवाल्वर थामें कमरे से बाहर निकला और सीढ़ियां तलाश करके उपरी मंजिल पर आ गया।

वो कमरा जल्दी ही मिल गया, जो कि भीतर से बंद था। बाकी सब कमरे खुले थे।

देवराज चौहान ने दरवाजा थपथपाया।

भीतर से कोई आवाज आई, फिर दरवाजा खुला।

सामने पैंतीस बरस का लुंगी-बनियान पहने व्यक्ति दिखा। देवराज चौहान के हाथ में रिवाल्वर देखकर वो चौंका। उसने जल्दी से दरवाजा बंद करना चाहा। परन्तु देवराज चौहान ने जोरों से दरवाजा धकेला और उसे पीछे खिसकाता, भीतर प्रवेश करता चला गया। दरिंदगी नाच रही थी उसके चेहरे पर।

वो हक्का-बक्का सा खड़ा देवराज चौहान को देखने लगा।

"मुझे पहचाना?" देवराज चौहान गुर्रा उठा।

उसने सूखे होंठों पर जीभ फेरी और घबराए स्वर में कह उठा---

"शायद, पक्का नहीं।"

"कच्चा क्या है?"

"त...तुम देवराज चौहान तो नहीं?" उसने खरखराते स्वर में कहा।

"मैं हूं देवराज चौहान। यही पक्की बात है और तुम किशन दावरे हो।"

उसने सहमति से सिर हिलाकर कहा---

"मेरी तुम्हारी कोई दुश्मनी नहीं। मैंने कुछ नहीं किया। मैं तो तब साथ भी नहीं था।" वो बहुत घबरा चुका था।

"मैंने ये नहीं कहा कि तब तुम वहां थे...।"

किशन दावरे ने चैन की सांस ली।

कमरे में ए•सी• चल रहा था। पर्याप्त ठंडक थी यहां।

"सुधीर दावरे कहां है?" देवराज चौहान गुर्राया।

"मैं नहीं जानता।"

"मुझे दावरे चाहिए...।"

"मैं नहीं जानता, इस वक्त वो कहां है! वो कहीं छुपा हुआ है।" किशन दावरे ने जल्दी से कहा।

"ब्रांडी और प्यारा कहां है?"

"मुझे इनका भी नहीं पता। ये भी तुम्हारी वजह से कहीं छिपे हुए हैं।"

"तुम मुझे कुछ नहीं बता रहे।" देवराज चौहान ने खतरनाक स्वर में कहा।

"मैं सच में नहीं जानता कि इस वक्त कहां हैं सब। सुधीर ने मुझे छुपकर रहने को कहा तो मैं यहां...।"

"पर मैंने तुम्हें ढूंढ लिया।" कहकर देवराज चौहान ने रिवाल्वर उस पर तानी।

"नहीं।" किशन दावरे कांप उठा--- "मुझे मत मारो। मैंने कुछ नहीं किया।"

"तुम्हारी पहली गलती तो ये है कि तुम दावरे के चचेरे भाई हो।" देवराज चौहान ने वहशी स्वर में कहा।

"तुम...।"

"तुम्हारी दूसरी गलती ये है कि तुम दावरे के साथ मिलकर धंधा करते...।"

"मैं धंधा छोड़ दूंगा। सुधीर दावरे को छोड़ दूंगा... तुम मुझे मत...।"

'धांय...धांय...।'

एक साथ दो गोलियां निकलीं और किशन दावरे के चेहरे को उधेड़ गई।

सुर्खी नाच रही थी देवराज चौहान की आंखों में।

■■■

गली में बच्चे क्रिकेट खेल रहे थे। विकेटों की जगह ईंटें खड़ी कर रखी थीं। बच्चों की उम्र 8 से 12 साल तक की थी। शोर पड़ रहा था। बॉल सामने से आते देवराज चौहान के पैरों से टकराई तो देवराज चौहान ने बॉल लपक ली और बैटिंग कर रहे बच्चे की तरफ बॉल फेंकी तो बच्चे ने शॉट मार दी।

तभी देवराज चौहान ने एक बच्चे से पूछा---

"चौदह नम्बर मकान कौन सा है?"

"14 नम्बर... वो उधर वाला दरवाजा।" बच्चे ने कुछ दूरी पर नजर आ रहे नीले दरवाजे की तरफ इशारा किया।

देवराज चौहान उस तरफ बढ़ गया।

"अंकल घर पर नहीं हैं। आंटी हैं।" पीछे से बच्चे ने कहा।

आगे बढ़ते हुए देवराज चौहान ने हाथ हिला दिया।

देवराज चौहान नीले दरवाजे पर पहुंचा और दरवाजा थपथपाया।

फौरन ही दरवाजा खुला। साड़ी पहने 40 बरस की महिला थी दरवाजा खोलने वाली।

"कहिए...।" औरत ने पूछा।

उसी पल देवराज चौहान दरवाजे के पल्ले को धकेलता भीतर घुसा।

औरत हड़बड़ाकर पीछे हट गई।

"ये क्या बदतमीजी...।" औरत ने कहना चाहा।

परन्तु देवराज चौहान के हाथ में रिवाल्वर दबी पाकर, शब्द मुंह में ही रह गए।

"शोर करने की कोशिश मत करना।" देवराज चौहान गुर्राया और पलटकर दरवाजा बंद कर दिया।

औरत के चेहरे पर डर नाच उठा था।

देवराज चौहान ने घर में नजरें दौड़ाईं। मध्यमवर्गीय घर था ये।

"मेरे पास जो कुछ है, तुम ले लो।" औरत घबराये स्वर में कह उठी--- "ज्यादा कुछ नहीं...।"

"चुप रहो।" देवराज चौहान ने दांत पीसकर कहा और आगे बढ़कर औरत की बांह पकड़कर झटका दिया।

औरतों के होंठों से हल्की-सी चीख निकली और वो पास ही पड़े सोफे पर जा गिरी।

देवराज चौहान रिवाल्वर थामें, खतरनाक नजरों से उसे देखने लगा था।

औरत का चेहरा देखकर स्पष्ट नजर आ रहा था कि उसकी जान सूखी जा रही है।

■■■

कमरे में पांच लोग बैठे हुए थे।

ताश खेल रहे थे वो। बीच में नोटों का ढेर पड़ा था,ज जो कि कई लाखों में था। पास में बीयर की खुली बोतलें रखी थीं। सबके हाथों में ताश के पत्ते थे और चाल चलते हुए वे नोटों का ढेर बढ़ाते जा रहे थे।

फिर गेम अपने अंतिम चरण में पहुंची।

उनमें से एक, बीच में पड़ा लाखों रुपया जीत गया।

"यार मनोहर!" हारने वाला मुंह बनाकर कह उठा--- "तू लगातार दूसरी गेम जीता है।"

"पत्ते बढ़िया पड़ रहे हैं इसे।"

"अपने को कभी पत्ते बढ़िया नहीं पड़ते।"

मनोहर नीचे पड़े नोटों को समेटने में व्यस्त था। बीच-बीच में वो बीयर के घूंट भी लेता जा रहा था। वो खुश था। जो दो गेमें उसने जीती थीं, उसमें सात-आठ लाख रुपया उसे मिला था।

तभी मनोहर का मोबाइल बज उठा।

"हैलो...।" मनोहर ने बात की। इस बीच वो दूसरे हाथ से नोट समेटने में भी व्यस्त था।

"आप घर आ जाओ।" उसके कानों में औरत की आवाज पड़ी।

"अभी मैं व्यस्त हूं। पत्ते बढ़िया पड़ रहे हैं, ताश चल रही है।" मनोहर ने मस्ती भरे स्वर में कहा।

"मेरे सिर पर रिवाल्वर लगा रखी है इसने।" औरत की आवाज कानों में पड़ी--- "इसी ने कहा है कि तुम्हें बुलाऊं। ये कहता है कि अगर तुमने ये बात किसी से की तो मुझे मार देगा ये...।"

मनोहर मस्तिष्क को तीव्र झटका लगा। नोटों पर से ध्यान हट गया उसका।

"कौन है वो?" मनोहर की आंखें सिकुड़ी।

"मैंने उसे पहले कभी नहीं देखा।"

"मेरी बात करा उससे...।" कहते हुए मनोहर ने वहां बैठे अपने साथियों पर निगाह मारी।

चंद पलों की खामोशी के पश्चात औरत की आवाज पुनः सुनाई दी।

"वो फोन पर बात नहीं करना चाहता। कहता है तुम यहीं आ जाओ। तुमसे बात करना चाहता है।"

"उसका नाम क्या है?"

"मुझे नहीं मालूम। वो कह रहा है अकेले आना। कोई गड़बड़ की तो मुझे मार देगा।"

मनोहर की आंखें सिकुड़ी, फिर बोला---

"आता हूं...।" कहकर उसने मोबाइल जेब में रखा और नोट समेटते कह उठा--- "मुझे जाना है दोस्तों।"

"नोट जीतकर भाग रहा है।"

"अक्सर तुम लोग जीत कर भागते हो। सोचा, आज मैं भी भागकर देख लूं कि कैसा लगता है...।" मनोहर मुस्कुरा पड़ा।

"घर से फोन था?"

"हां।"

"सब ठीक तो है?"

"ठीक है। कोई घर पर आया है, जाना जरूरी है।" मनोहर ने सामान्य स्वर में कहा।

■■■

औरत के चेहरे पर घबराहट नाच रही थी। वो सोफे पर बैठी थी। उसके सामने रिवाल्वर थामें देवराज चौहान बैठा था। औरत रह-रहकर बेचैनी से पहलू बदल रही थी।

"तुम रिवाल्वर जेब में क्यों नहीं रख लेते?" औरत हिम्मत करके कह उठी।

"क्यों?" देवराज चौहान ने सख्त स्वर में कहा।

"मुझे डर लगता है।"

"डरो मत। इस रिवाल्वर से गोली तभी निकलेगी, जब मैं चाहूंगा।" देवराज चौहान के चेहरे पर सख्ती नाच रही थी।

"मनोहर से तुम्हारा क्या झगड़ा है?"

"कुछ नहीं।"

"तो फिर रिवाल्वर लिए उसे क्यों पूछते फिर रहे हो?"

"मैं तो उसे पहचानता भी नहीं...।"

"तो...।"

"उससे बात करनी है। तुम्हारे सामने ही बात करूंगा, सुन लेना।"

"आखिर तुम हो कौन?"

"जब मनोहर आएगा, तब तुम जान जाओगी।"

"तुमने मनोहर से फोन पर क्यों नहीं बात की? जो भी बात थी, फोन पर कर सकते थे।"

"ये आमने-सामने की बात है।"

औरत देवराज चौहान के कठोर चेहरे को देखती रही, फिर बोली---

"चाय बना दूं...?"

"नहीं।"

"ठंडा?"

"चुप बैठो...।"

"तुम गुस्से में लग रहे हो। शांत हो जाओ। मुझे बताओ क्या बात है। मनोहर को मैं संभाल लूंगी।"

"कष्ट मत करो। उसे मैं संभाल लूंगा।" देवराज चौहान ने चुभते स्वर में कहा।

तभी दरवाजे पर आहट हुई। फिर दरवाजा थपथपाया गया।

औरत ने फौरन देवराज चौहान को देखा, फिर उठते हुए बोली---

"मैं खोलती हूं...।"

उसी पल देवराज चौहान उठा और आगे बढ़कर औरत की पीठ से नाल लगा दी। फिर बोला---

"चलो, तुमने या आने वाले ने कोई चालाकी की तो दोनों ही मरोगे।"

घबराई-सी औरत दरवाजे के पास पहुंची।

उसी पल पुनः दरवाजा थपथपाया गया।

"पूछो कौन है?" गुर्राया देवराज चौहान।

"क...कौन है?" औरत ने पूछा।

"मैं हूं... दरवाजा खोल।" बाहर से मनोहर की आवाज आई।

"ये ही है मनोहर...?" दांत भींचकर पूछा देवराज चौहान ने।

"ह...हां...।"

"दरवाजा खोल...।"

औरत ने दरवाजा खोला।

मनोहर ने तेजी से भीतर प्रवेश किया।

देवराज चौहान और मनोहर की नजरें मिलीं।

"दरवाजा बंद कर।" औरत पर रिवाल्वर लगाए देवराज चौहान कठोर स्वर में बोला।

औरत ने दरवाजा बंद कर दिया।

मनोहर देवराज चौहान को घूरे जा रहा था।

"जा। चुपचाप सोफे पर जाकर बैठ जा।"

औरत जल्दी से आगे बढ़ी और सोफे पर जा बैठी। इन दोनों को डरी-सी देखने लगी।

"कौन है तू...?" मनोहर ने सख्त स्वर में पूछा।

"पहचाना नहीं?" देवराज चौहान का लहजा सर्द हो गया।

"मैंने तुझे कभी देखा भी नहीं...।"

"अकबर खान ने तुझे मेरे चेहरे की पहचान नहीं कराई कि मुझसे बचकर रहना?" देवराज चौहान की आवाज में दरिंदगी आ ठहरी।

मनोहर चौंका, आंखें सिकुड़ी। फिर उसके होंठों से निकला---

"देवराज चौहान?"

"ठीक पहचाना।"

मनोहर के चेहरे पर हैरानी उभरी। परन्तु अब वो संभला सा नजर आने लगा था।

"असर हो गया तुझ पर...।" देवराज चौहान का स्वर खतरनाक था।

"म...मेरे पास क्यों आए हो?"

"अकबर खान का पता पूछने...।"

"मैं नहीं जानता कि वो कहां है?"

"तू अकबर खान की ड्रग्स को इधर-उधर पहुंचाता है और कहता है कि तुझे नहीं मालूम कि अकबर खान कहां है।"

"दो महीने से अकबर खान का धंधा लगभग रुका पड़ा है। बहुत कम काम हो रहा है।" मनोहर ने शांत स्वर में कहा--- "वो तुम्हारी वजह से ही कहीं छुपा पड़ा है। पुलिस भी अकबर खान की तलाश में है।"

"तो तू मुझे नहीं बताएगा कि वो कहां है?"

"मैं सच में नहीं जानता।"

"जैकब, तारा, राठी कहां हैं, ये तो तेरे को पता होगा?"

"जैकब और तारा मारे जा चुके हैं।"

"कैसे?"

"वो दोनों तुम्हें मारने हॉस्पिटल में गए थे, जब तुम 'कोमा' में पड़े थे।" मनोहर ने गंभीर स्वर में कहा--- "सुनने में आया कि सर्दूल को ये बात पसंद नहीं आई कि 'कोमा' में पड़े व्यक्ति की हत्या की जाए। उसने तारा और जैकब को हॉस्पिटल में ही मार दिया। पक्का नहीं, पर ऐसा सुना है।"

"सर्दूल कहां है?" दहक उठा देवराज चौहान का चेहरा।

"मुझे खबर नहीं है। मैं अकबर खान का मामूली सा आदमी हूं...।"

"जगमोहन के बारे में बता। उसे हॉस्पिटल से उठा लिया गया था।" देवराज चौहान का चेहरा दहक उठा।

"ये तो सुना था, परन्तु उसके बाद जगमोहन के बारे में कुछ नहीं सुना।"

"वो जिन्दा है या मर गया? कुछ तो सुना होगा?"

"नहीं...।"

देवराज चौहान दांत भींचे मनोहर को देखे जा रहा था।

मनोहर के शरीर में व्याकुलता की लहर दौड़ रही थी।

"और राठी... वो कहां है?"

"वो कहीं छिपा है। मैं नहीं जानता कि वो कहां छुपा है।"

"मेरे से हरामजदगी करता है।" देवराज चौहान ने दांत किटकिटाये और आगे बढ़कर उसकी छाती पर रिवाल्वर रख दी।

ये देखकर उसकी पत्नी घबरा उठी और कह उठी---

"इसे मत मारना। ये...।"

"बैठ जाओ।" देवराज चौहान मनोहर को देखते गुर्रा उठा।

मनोहर ने इशारे से अपनी पत्नी को बैठ जाने को कहा।

वो डरी सी, कांपती बैठ गई।

रिवाल्वर की नाल अभी भी मनोहर की छाती पर थी। मनोहर ने सूखे होंठों पर जीभ फेरकर कहा---

"मैंने तुमसे एक बात भी झूठ नहीं बोली।"

"तू मुझे कुछ बता भी नहीं रहा। ऐसे में तो तू मरेगा।" देवराज चौहान का स्वर दरिंदगी से भरा पड़ा था।

मनोहर के चेहरे पर क्षणिक सोच के भाव उभरे।

"मैं शायद तुम्हें झंडू के बारे में बता सकता हूं...।"

"झंडू...?"

"दीपक चौला का आदमी। उस दिन वो भी वहीं था।"

देवराज चौहान के चेहरे पर सुलगन दिखने लगी। आंखों में क्रूरता आ बसी।

"झंडू वही, जो करीब पांच फीट का है और उसके सिर के बाल गर्दन तक लम्बे...।"

"वही, ठीक कहा तुमने।" मनोहर गंभीर स्वर में कह उठा।

देवराज चौहान के मस्तिष्क में बिजली सी चमकी।

आंखों के सामने झंडू का चेहरा चमका। हाथ में चाकू। दांत फाड़ता हुआ उसकी तरफ बढ़ रहा था। वो बुरे हाल घायल फर्श पर पड़ा, उसे देख रहा था कि एकाएक झंडू ने उसके पेट में चाकू घुसेड़ दिया।

देवराज चौहान के होंठों से गुर्राहट निकली। वहशी लगने लगा था वो।

मनोहर ने उसे देखते हुए सूखे होंठों पर जीभ फेरी।

"अकबर खान का सबसे खास साथी रकीब कहां है?" देवराज चौहान ने दांत पीसकर पूछा।

"वो तो उसी दिन मारा गया था। शायद तुम्हारी या जगमोहन की गोली से...।"

"तू अकबर खान का आदमी है। झंडू दीपक चौला का आदमी। फिर तेरे पास झंडू की खबर कैसे हुई?"

"रात किसी के साथ बैठकर चाय पी थी। बातों-बातों में उसने कहा कि उसने झंडू को एक जगह देखा है। ये रात की बात है।"

"किधर है झंडू?"

"मैं नहीं जानता। लेकिन वो जानता है, जिसके साथ रात को पी थी। मैं तुम्हें उसके पास ले चलता हूं।"

"चल...।"

"तू उसे नहीं बताएगा कि ये बात मैंने तेरे को बताई और तुझे उस तक लाया।"

देवराज चौहान ने दांत भींचे सिर हिला दिया।

मनोहर ने अपनी पत्नी को देखकर कहा---

"तू... आराम से रह। सब ठीक है, मैं वापस आऊंगा।" कहकर उसने देवराज चौहान पर नजर मारी।

देवराज चौहान के चेहरे पर खूंखारता के भाव नाच रहे थे।

उसकी पत्नी ने कुछ कहना चाहा, पर उसके होंठ ही हिलकर रह गए।

देवराज चौहान ने उसकी छाती से रिवाल्वर हटा ली।

■■■

मनोहर ने एक जगह सड़क के किनारे कार रोक दी।

शाम के चार बज रहे थे। धूप और तीखी हो चुकी थी। सड़कें और जमीन तप रही थीं। गर्म हवा जैसे चेहरे पर थप्पड़ मारती सी महसूस हो रही थी। होश गुम कर देने वाली गर्मी पड़ रही थी।

"वो सामने गली में पीले रंग की दो-मंजिला इमारत नजर आ रही है। वहां पर गैरकानूनी रूप से जुआ खेला जाता है और शराब भी मिलती है। उसी ठिकाने पर जसवंत काम करता है। इस वक्त भी वहीं होगा। जसवंत ने मुझे रात नशे में झंडू के बारे में बताया था।"

देवराज चौहान की निगाह उस पीली इमारत पर टिक चुकी थी।

"मेरे आने तक तू यहीं मिलना।" देवराज चौहान ने कार का दरवाजा खोलते हुए कहा।

"मैं... मेरा अब क्या काम?" मनोहर कह उठा।

देवराज चौहान ने नजरें घुमाकर मनोहर को देखा और बोला---

"आज मेरे हाथों से या तो तू मरेगा या झंडू। जब तक झंडू मेरे हाथ नहीं लगता, तब तक तू मेरे साथ रहेगा।"

मनोहर सूखे होंठों पर जीभ फेरकर रह गया।

"मेरी वापसी पर तू नहीं मिला मुझे तो मैं तेरे को और तेरी पत्नी को ढूंढकर मार दूंगा।" देवराज चौहान गुर्राया।

"मैं...मैं यहीं मिलूंगा।"

"मेरे से पंगा मत लेना।"

"नहीं... लूंगा।"

देवराज चौहान कार से बाहर निकला और गली में प्रवेश करता चला गया।

■■■

देवराज चौहान पीली इमारत की पहली मंजिल पर पहुंचा।

लकड़ी के दरवाजे के पास स्टूल पर बदमाश टाइप का एक आदमी बैठा था। उसने देवराज चौहान को घूरा।

देवराज चौहान दरवाजा धकेलकर भीतर जाने लगा कि उसने अपनी टांग आगे कर दी।

देवराज चौहान ने ठिठककर उसे देखा।

"हां...।" उसने आंखें नचाईं--- "कहां जाना है?"

"भीतर...।" देवराज चौहान ने शांत स्वर में कहा।

"तेरे को पहले कभी नहीं देखा।"

"पहली बार आया हूं...।"

"यहां का पता किसने दिया?"

"जसवंत ने। उसने कहा था कि आना कभी वो इधर ही मिलेगा।"

उसने फौरन आगे कर रखी टांग हटा ली और कहा---

"जा।"

"जसवंत किधर मिलेगा?"

"वो दूसरी मंजिल पर है।"

देवराज चौहान ने दरवाजे से भीतर प्रवेश किया। सामने एक और दरवाजा था जो कि निचली मंजिल में प्रवेश करने के लिए था। पास ही सीढ़ियां ऊपर को जा रही थीं।

"सीढ़ियां चढ़ जा।" पीछे से स्टूल पर बैठे व्यक्ति ने कहा।

देवराज चौहान सीढ़ियां चढ़ता चला गया।

दूसरी मंजिल पर पहुंचा। वहां भी पहली मंजिल की तरह, भीतर प्रवेश करने के लिए दरवाजा लगा था। देवराज चौहान दरवाजा धकेलकर भीतर प्रवेश कर गया।

देवराज चौहान ने खुद को छोटे से हॉल में पाया। वहां सोफे लगे हुए थे। दो लोग उन पर बैठे भी थे। एक तरफ बार जैसी जगह बनी थी। जहां एक आदमी दो गिलासों में बीयर भर रहा था। शांति से लगी यहां। देवराज चौहान बार पर पहुंचकर उस व्यक्ति से बोला---

"जसवंत किधर होगा?"

"क्यों?" उसने देवराज चौहान को देखा।

"उसी ने बुलाया था।"

"बाउंसर की नौकरी के लिए?"

देवराज चौहान ने सहमति से सिर हिलाया।

"वो सामने पतली गैलरी है। उसमें बायीं तरफ दूसरा दरवाजा है। वहीं है जसवंत।"

देवराज चौहान उस तरफ बढ़ गया।

वो गैलरी इतनी चौड़ी थी कि सिर्फ दो आदमी एक साथ उसमें चल सकें। देवराज चौहान उसी में प्रवेश कर गया। सामने से दो आदमी आते दिखे। देवराज चौहान गैलरी में बायीं तरफ वाला दूसरा दरवाजा खोलकर भीतर प्रवेश कर गया था और दरवाजा बंद कर लिया। वो एक सामान्य सा कमरा था। दो आदमी थे वहां। एक के सामने टेबल पर नोटों की कई गड्डियां पड़ी थीं, जिनकी शायद वो गिनती करके हटा था और अब कागज पर आंकड़े लिख रहा था। दूसरा पास ही लोहे की अलमारी खोले उसमें कुछ कर रहा था। देवराज चौहान टेबल के पास जा पहुंचा।

उसने आंकड़े लिखने के बाद सिर उठाया। वो पचास बरस का घुटा हुआ इंसान लग रहा था।

"मैं बाउंसर की नौकरी के लिए आया हूं...।" देवराज चौहान कह उठा।

"डिसूजा ने भेजा है तुम्हें...?" वो बोला।

"हां। जसवंत तुम ही हो?"

"बैठो, मैं ही हूं।" फिर वो अलमारी में व्यस्त व्यक्ति से बोला--- "नोटों की गड्डियां कैशियर को दे आओ...।"

वो अलमारी बंद करके पलटा और एक लिफाफा उठाकर नोटों की गड्डियां उसमें भरने के पश्चात बाहर निकल गया।

तब तक देवराज चौहान बैठ चुका था।

"हूं।" जसवंत ने उसे देखा--- "पुलिस रिकॉर्ड है तुम्हारा?"

अब कमरे में वो दोनों ही थे।

देवराज चौहान ने रिवाल्वर निकाली और टेबल पर हाथ रखकर नाल उसकी तरफ कर दी।

जसवंत चिंहुक पड़ा। उसका हाथ तेजी से टेबल के ड्रॉज की तरफ बढ़ा। ड्राल खोला।

"ड्रॉअर बंद कर दो।" देवराज चौहान मौत भरे स्वर में गुर्राया।

जसवंत ने ड्रॉज बंद कर दिया। रह-रहकर उसकी निगाह रिवाल्वर पर जा रही थी। वो बोला---

"पुलिस वाले हो?"

"नहीं...।" शब्दों को चबाते देवराज चौहान बोला।

"ऐसी रिवाल्वरें अक्सर पुलिस वालों के पास ही होती हैं।" जसवंत खुद को संभालने की चेष्टा कर रहा था।

"ये पुलिस वाले से ही छीनी है।" देवराज चौहान खतरनाक स्वर में बोला।

"ओह...।" जसवंत देवराज चौहान को देखने लगा--- "कौन हो तुम?"

"तुम जानते हो कि झंडू कहां छुपा है?"

"झंडू?" जसवंत की आंखें सिकुड़ी।

"दीपक चौला का आदमी, झंडू...।"

जसवंत एकाएक सतर्क दिखने लगा।

"कौन हो तुम?"

"तुम्हें मेरे से नहीं, मेरे हाथ में दबी रिवाल्वर से मतलब होना चाहिए। ये तुम्हारी जान ले लेगी।" देवराज चौहान गुर्राया।

"मैं...मैं नहीं जानता किसी झंडू को...।" जसवंत कह उठा।

"नहीं जानते?"

"नहीं...।"

"रात तुमने मनोहर के साथ पी और उसे बताया कि तुम जानते हो कि झंडू कहां छुपा हुआ है।"

"तो ये बात है।" जसवंत जैसे मामला समझा।

"मनोहर बाहर कार में बैठा है।"

"गलत किया मनोहर ने ये बात तुम्हें बताकर।" जसवंत तीखे स्वर में कह उठा।

"अब मैं तुम्हें गोली मारूं या तुम झंडू का ठिकाना बताओगे?"

"तुम्हारा झंडू से क्या मतलब?"

"मैं गोली मार दूंगा।" देवराज चौहान गुर्राया--- "कसम से, ये खोखली धमकी नहीं है।"

जसवंत ने देवराज चौहान की आंखों में देखा।

दो पल उनके बीच खामोशी रही।

"यहां पहुंचकर मुझे इस तरह धमकाना हिम्मत की बात है।"

"ये तो कुछ भी नहीं। मैं कई बड़े काम करने निकला हूं...।" देवराज चौहान ने दरिंदगी भरे स्वर में कहा।

"अपने बारे में तो बताओ।"

"पहले तुम ये बताओ कि इस वक्त झंडू कहां छुपा हुआ है?"

"वो, दयाल सिंह मार्ग पर ओमवीर का सर्विस गैराज है, उसी गैराज के ऊपर कमरे में है इस वक्त।"

"ये बात तुम्हें कैसे पता?"

"मैं कल वहां कार ठीक कराने गया था तो झंडू की झलक मिल गई...।"

"तुमने कैसे सोच लिया कि वो वहां छुपा हुआ है।"

"मुझे पता है कि देवराज चौहान के डर से इन दिनों कई लोग छिपे बैठे हैं। शायद देवराज चौहान की वजह से वो सब इस कदर न छिपते। परन्तु पुलिस भी उन सब की तलाश में भागी फिर रही है दो महीनों से।"

दांत भींचे रिवाल्वर वैसे ही रखे, देवराज चौहान उसे घूरता रहा।

"तुम कौन हो?"

"देवराज चौहान।"

"क्या?" जसवंत बुरी तरह चौंका।

'धांय।'

उसी पल देवराज चौहान ने ट्रिगर दबा दिया।

तेज धमाका हुआ और गोली जसवंत के गले में प्रवेश कर गई।

देवराज चौहान उठा और आगे बढ़कर कमरे का दरवाजा खोलते बाहर निकलता चला गया। गोली चलने की आवाज सुनकर इमारत में घबराहट फैल गई। जिन्होंने देवराज चौहान के हाथ में रिवाल्वर देखी, वो समझ गए कि गोली इसी ने चलाई है। किसी की हिम्मत न हुई देवराज चौहान को रोकने की।

देवराज चौहान इमारत के बाहर निकला और रिवाल्वर पैंट में फंसाकर गली के बाहर की तरफ बढ़ गया।

मनोहर गली के किनारे कार में ही बैठा मिला।

देवराज चौहान कार में बैठा तो उसने फौरन कार बढ़ाते हुए कहा---

"मैंने गोली की आवाज सुनी थी।"

"मैंने चलाई थी।"

"जसवंत को मारा?" मनोहर हड़बड़ाकर कह उठा।

"हां, वो पीछे से फोन करके झंडू को मेरे बारे में बता सकता था। वो मुझे भरोसेमंद नहीं लगा कि उसे छोड़ देता।"

मनोहर गहरी सांस लेकर रह गया।

"दयाल सिंह मार्ग पर ओमवीर का गैराज देखा है?" देवराज चौहान ने पूछा।

"हां...।"

"वहीं चलो...।" देवराज चौहान का चेहरा कठोर हुआ पड़ा था। उसने रिवाल्वर निकाली और उसका चैम्बर खोलकर देखा।

तीन गोलियां बाकी थीं।

"इस रिवाल्वर की गोलियां चाहिए।" देवराज चौहान ने कहा।

मनोहर ने रिवाल्वर पर नजर मारकर सामने देखते हुए कहा---

"मैं नहीं जानता, कहां मिलेंगी।"

"मैं जानता हूं कि कहां मिलेंगी, परन्तु मेरे पास वक्त कम है।" उसे बताया कि गोलियां कहां मिलेंगी फिर देवराज चौहान ने जेब से हजार-हजार के बीस नोट निकालकर उसे दिए--- "जब तक मैं झंडू से बात करूंगा, जब तक तुम इन बीस हजार में जितनी गोलियां मिलें, ले आओ।"

मनोहर ने बिना कुछ कहे, नोटों को जेब में डाल लिया।

"कितनी देर में आओगे?"

"आधा घंटा लगेगा।" मनोहर बोला।

"मैं तुम्हें गैराज के बाहर ही मिलूंगा। मुझे भी आधा घंटा लगेगा भीतर।"

"झंडू खतरनाक है, वो तुम्हें मार देगा।" मनोहर ने शांत स्वर में कहा।

देवराज चौहान ने जवाब में कुछ नहीं कहा।

■■■

ओमवीर के गैराज के बाहर देवराज चौहान को उतारकर, मनोहर गोलियां लेने चला गया था।

देवराज चौहान ने गैराज के भीतर प्रवेश किया।

काफी बड़ा गैराज था। कर्मचारियों ने नीली-आसमानी वर्दी पहनी हुई थी। करीब पन्द्रह कारें गैराज में खड़ी थीं और लगभग सब पर काम चल रहा था। मध्यम सा शोर वहां हो रहा था। फौरन ही देवराज चौहान ने उन सीढ़ियों को देख लिया था, जो गैराज के ऊपर जा रही थीं। वो उन सीढ़ियों की तरफ जाना ही चाहता था कि पच्चीस बरस का एक कर्मचारी फौरन उसके पास आ पहुंचा और बोला---

"कहिए सर, मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूं...।"

देवराज चौहान ने उसे देखा फिर मुस्कुराकर बोला---

"कोई पुरानी कार बिकने के लिए है?"

"कौन सी कार चाहिए?"

"कोई भी छोटी कार। ठीक हाल में हो।" देवराज चौहान गैराज में नजरें दौड़ाते कह उठा।

"वैगन-आर चल जाएगी क्या? एकदम नई कंडीशन में बिकाऊ है। इंजन भी फिट है, दिखाऊं क्या?"

"दिखाओ...।"

"आईये। उस तरफ खड़ी है। मालिक के दोस्त की है। पहले तो खरीद ली, लेकिन अब कहता है कि बड़ी कार चाहिए। परिवार कुछ बड़ा है उसका। तीन तो बच्चे हैं। चार दिन पहले यहीं छोड़ गया था कि हम उसे बेच दें। तीन महीने पहले ही उसने शो-रूम से ली थी। एकदम नई है। हजार किलोमीटर भी नहीं चली...।"

देवराज चौहान उसके साथ बढ़ते हुए हर तरफ नजरें मार रहा था।

गैराज में एक तरफ खड़ी सफेद रंग की वैगन-आर के पास पहुंचे दोनों।

"ये देखिए सर।" वो कार का दरवाजा खोलता कह उठा--- "आप यूं समझिए कि शो-रूम से खरीद रहे हैं। इसे ले जाने के बाद आप हमें याद करेंगे। गाड़ी स्टार्ट हो तो पता ही नहीं लगता कि स्टार्ट है। एकदम नई जो ठहरी।" वो वैगन-आर को स्टार्ट करके दिखाने लगा। उसके गुण गिनाता जा रहा था।

कुछ मिनट बीत गए।

"अगर आप ट्राई लेना चाहते हैं तो बेशक वो भी ले सकते हैं। गाड़ी में कोई कमी नहीं।"

"वो तो नजर आ ही रहा है।" देवराज चौहान ने जेब से मोबाइल निकालते हुए कहा--- "कीमत क्या है?"

"सिर्फ तीन लाख। सस्ते में है, नई लेते-लेते तो चार लाख लग ही जाते हैं। ट्राई के लिए चलें सर?"

"मैं जरा बाऊजी से बात कर लूं।" देवराज चौहान बोला--- "बाऊजी से बात किए बिना मैं कुछ नहीं खरीदता।"

"ये तो अच्छी बात है सर। लेकिन बाऊजी हैं कौन?"

"मेरे पापा।"

"ओह! बात कर लीजिए।"

"मुझे आधे घंटे का वक्त दो। मैं बाऊजी से भी बात कर लूंगा और गाड़ी को भी अच्छी तरह देख लूंगा।"

"जरूर-जरूर। चाय भिजवाऊं क्या... ठंडा...।"

"नहीं, तुम जाओ। मुझे गाड़ी के पास छोड़ दो, आधे घंटे बाद आना।"

वो चला गया।

देवराज चौहान फोन कानों से लगाए, बाऊजी से बात करने का नाटक करने लगा। नजरें इधर-उधर घूमती रहीं। उसे गाड़ी दिखाने वाला कहीं न दिखा तो फोन पर बात करने का दिखावा करते हुए, सीढ़ियों की तरफ बढ़ने लगा। गैराज में 30-40 लोग कारों पर काम कर रहे थे, परन्तु किसी की निगाह उस पर नहीं थी।

फोन कान से लगाए सीढ़ियों के पास पहुंचा, फिर ऊपर चढ़ता चला गया। चंद पलों में ही वो ऊपरी मंजिल पर था। नीचे का शोर ऊपर तक स्पष्ट आ रहा था। देवराज चौहान की पैनी निगाह हर तरफ घूम रही थी। फोन उसने जेब में रख लिया था। गैराज के ऊपरी हिस्से पर चार-पांच कमरे बने नजर आ रहे थे।

अभी तक ऊपरी मंजिल पर कोई आदमी न दिखा था।

आगे बढ़कर देवराज चौहान ने एक दरवाजा खोला और भीतर झांका।

इस कमरे में नए टायर-ट्यूब भरे पड़े थे।

दूसरे कमरे तक पहुंचा देवराज चौहान। दरवाजा थोड़ा सा खोलकर भीतर झांका।

अगले ही पल वो ठिठककर रह गया।

कमरे में बैड लगा था। टेबल-कुर्सियां, टी•वी• फ्रिज था।

बैड पर झंडू लेटा था। कमीज-पैंट पहनी हुई थी। आंखें बंद थीं उसकी।

झंडू को देखते ही देवराज चौहान के शरीर में दौड़ते लहू की रफ्तार तेज होती चली गई। मस्तिष्क में दो पलों के लिए अंधेरा छा गया। उस अंधेरे में बीता वक्त चमका कि वो बुरे हाल घायल है और झंडू के हाथ में दबा चाकू उसके पेट में घुसता चला गया है। अगले ही पल अंधेरा छंट गया।

देवराज चौहान के शरीर में कम्पन उभरा और अगले ही पल वो दरिंदा लगने लगा। उसने दरवाजा पूरा खोला और भीतर प्रवेश कर आया। आंखों में अंगारे दहक रहे थे।

दरवाजा बंद किया।

आवाज उभरी। झंडू की आंखें खुल गईं।

अगले ही पल दोनों की नजरें मिलीं।

झंडू देवराज चौहान को कई पलों तक देखता रहा, फिर चौंककर उछला और खड़ा हो गया।

देवराज चौहान के होंठों से गुर्राहट निकली।

ऐसा लगा जैसे दो शेर कमरे में मौजूद हों।

झंडू के चेहरे पर अविश्वास के भाव नजर आ रहे थे। उसके होंठों से निकला---

"यकीन नहीं आ रहा।"

"किस बात का?" देवराज चौहान गुर्रा उठा--- "मेरे जिन्दा रहने का या यहां पहुंचने का...।"

"दोनों ही बातों का। मानना पड़ेगा कि हिम्मत वाले हो।" झंडू खुद को संयत करने का प्रयत्न करता कह उठा।

देवराज चौहान काली निगाहों से उसे देखता रहा।

"बार-बार तुम्हारी किस्मत साथ नहीं देगी।" झंडू ने कड़वे स्वर में कहा--- "अब तुम मेरे हाथों से मरोगे।"

"मेरे डर से छिपे पड़े हो। मैं ही तुम्हें ढूंढता यहां पहुंचा। ऐसे में तुम मुझे धमकी देने की स्थिति में कैसे हो सकते हो?" देवराज चौहान शब्दों को चबाते वहशी स्वर में बोला--- "तुम अब जीने का हक खो चुके हो।"

झंडू के चेहरे पर मौत भरी मुस्कान उभरी।

"तेरे डर से नहीं, पुलिस के डर से यहां छिपा हूं। उस दिन के बाद से पुलिस सबको तलाश कर...।"

"जगमोहन का क्या किया?" देवराज चौहान क्रूर स्वर में बोला।

"जगमोहन?" झंडू के होंठ सिकुड़े।

"वो बुरे हाल में हॉस्पिटल में था कि उसे उठा लिया गया। मार दिया उसे।" देवराज चौहान सर्द स्वर में बोला।

"मैं नहीं जानता। मुझे कोई खबर नहीं।" झंडू ने दांत भींचकर इंकार में सिर हिलाया।

दोनों ने एक-दूसरे की आंखों में झांका।

देवराज चौहान ने रिवाल्वर निकाल ली।

झंडू दरिंदा सा नजर आने लगा।

"मैं तुझे मारने आया हूं...।" देवराज चौहान ने दांत पीसे--- "तुम में से कोई भी जिंदा नहीं बचेगा।"

"मार, चला गोली।"

देवराज चौहान ने ट्रिगर दबा दिया।

गोली की तेज आवाज उभरी वहां।

और झंडू तो जैसे पहले ही जानता था कि क्या होने वाला है। वो एकटक देवराज चौहान की आंखों में देख रहा था और आंखों में देखते उसे पता चल गया था कि गोली चलने जा रही है।

झंडू बेहद फुर्ती के साथ फिरकनी की तरह घूमता चला गया।

गोली उसे छू भी नहीं सकी।

इससे पहले कि देवराज चौहान दूसरी गोली चलाता...।

झंडू उसके ऊपर आ गिरा।

देवराज चौहान को उससे इतनी फुर्ती की आशा नहीं थी।

झंडू देवराज चौहान से टकराया और दोनों नीचे गिरते चले गए।

रिवाल्वर देवराज चौहान के हाथ से छिटककर नीचे गिरती चली गई।

झंडू ने जोरदार घूंसा देवराज चौहान के चेहरे पर ठोका।

देवराज चौहान के होंठों से कराह निकली और उसने झंडू को एक तरफ उछाल दिया। परन्तु झंडू ने हवा में ही कलाबाजी खाई और फर्श पर जा खड़ा हुआ। उसी पल नीचे पड़ा टेबल उठाकर देवराज चौहान की तरफ उछाल दिया। देवराज चौहान ने किसी तरह अपनी तरफ आते टेबल को रोका और उसे नीचे गिरा दिया।

तभी देवराज चौहान की निगाह झंडू पर पड़ी जो कि खिड़की से कूद रहा था और उसके देखते ही देखते खिड़की से कूदता चला गया। देवराज चौहान के होंठों से गुर्राहट निकली और सामने ही नीचे पड़ी रिवाल्वर उठाकर खिड़की की तरफ दौड़ा। खिड़की से नीचे झांका तो झंडू को संभलकर जमीन से उठकर भागते देखा।

उसी पल देवराज चौहान रिवाल्वर थामे नीचे कूदता चला गया।

वो झंडू को किसी भी कीमत पर जिन्दा नहीं रहने देना चाहता था। ये सब उसके हत्यारे थे और जगमोहन के हत्यारे थे। ये उसकी अपनी लड़ाई थी।

जमीन से टकराते ही देवराज चौहान दो बार लुढ़का और फिर उठकर झंडू की तरफ दौड़ा। ये गैराज के बाहर का हिस्सा था। सामने सड़क थी। झंडू उसी तरफ दौड़ा जा रहा था।

देवराज चौहान का चेहरा क्रोध से पागल हुआ लग रहा था।

झंडू फुटपाथ पर दौड़ा चला जा रहा था। वो करीब बीस कदम आगे थे। फुटपाथ पर और लोग भी आ-जा रहे थे। सड़क पर से ट्रैफिक निकल रहा था। ये सब देखकर लोग सहमकर एक तरफ हो रहे थे।

देवराज चौहान तेज से तेज रफ्तार दौड़ अपने और झंडू में फासला कम कर देना चाहता था और फासला कम हो भी रहा था। देवराज चौहान की दौड़ चीते की तरह थी।

परन्तु झंडू भी कम नहीं था। वो फुर्तीला इंसान था।

लेकिन थोड़ा फासला कम हो गया था।

दौड़ते-दौड़ते देवराज चौहान ने रिवाल्वर सीधी की और ट्रिगर दबा दिया।

गोली की तेज आवाज उभरी।

कई लोगों की भय भरी चीख सुनाई दी।

गोली झंडू को तो नहीं लगी परन्तु उसी वक्त सामने से आते दो लोगों से वेग के साथ टकरा गया। वो भी गिरा और वो दोनों लोग भी गिरे। इतना वक्त बहुत था देवराज चौहान के लिए।

देवराज चौहान, झंडू के उठने तक, पास जा पहुंचा था।

देवराज चौहान को पास देखकर, झंडू हड़बड़ाकर सड़क पर दौड़ पड़ा।

देवराज चौहान ने दांत भींचकर रिवाल्वर वाला हाथ सीधा किया और एक के बाद एक दो गोलियां चला दीं। फायरों की तेज आवाज उभरी। एक गोली खाली गई। एक झंडू के कूल्हे में लगी।

झंडू की जोरदार चीख गूंजी और वो उछलकर सड़क पर जा गिरा।

ठीक तभी तेज रफ़्तार से बस आई और उसे कुचलती चली गई। पहले बस के अगले पहिए उसके शरीर पर चढ़े फिर पीछे के पहले भी उसके शरीर पर से निकल गए। तब जाकर बस रूकी।

देवराज चौहान ने स्पष्ट तौर पर उसकी मौत का नजारा देखा था।

वहशी, दरिंदा लग रहा था देवराज चौहान। दांत भींचे उसने रिवाल्वर पैंट में फंसाई और आसपास, दूर-दूर खड़े लोगों पर निगाह मारी, जो उसे ही देख रहे थे। फिर तेजी से आगे बढ़ता चला गया। एक तरफ दो पुलिस वाले भी मौजूद थे, परन्तु किसी में इतनी हिम्मत कहां कि दरिंदे को रोकने की चेष्टा करता।

पचास कदम आगे जाकर, खाली जाती टैक्सी को हाथ देकर रुकवाया और भीतर बैठ गया।

अभी तक देवराज चौहान का चेहरा सुलग रहा था।

"कहां चलूं साहब?" ड्राइवर टैक्सी आगे बढ़ाता कह उठा।

"दस मिनट कहीं भी चलते रहो। उसके बाद बताऊंगा कि कहां जाना है।" देवराज चौहान ने खुद को संयत करते हुए कहा।

टैक्सी ड्राइवर ने फिर कुछ नहीं कहा।

तभी टैक्सी वहां से निकली, जहां झंडू की लाश पड़ी थी और बस खड़ी थी। वहां अब लोग इकट्ठे होंगे शुरू हो गए थे। ये देखकर टैक्सी ड्राइवर कह उठा---

"लोग ठीक से सड़क पार नहीं करते। तभी मारे जाते हैं।"

देवराज चौहान ने कुछ नहीं कहा।

टैक्सी को सड़कों पर दौड़ते पांच-सात मिनट ही हुए होंगे कि ड्राइवर बोला---

"सर, हमारे साथ चलती कार, हमें रुकने का इशारा कर रही है।"

देवराज चौहान ने फौरन कार की तरफ देखा।

कार की ड्राइविंग सीट पर मनोहर बैठा दिख गया।

"टैक्सी रोक दो।" देवराज चौहान ने कहा।

टैक्सी ड्राइवर ने किनारे करके टैक्सी रोक दी।

देवराज चौहान ने उसे सौ का नोट दिया और बाहर निकलकर आगे खड़ी हो चुकी, मनोहर की कार की तरफ बढ़ गया। पास पहुंचकर आगे वाला दरवाजा खोला और भीतर बैठ गया।

मनोहर ने कार आगे बढ़ाते हुए कहा---

"मैंने झंडू की लाश देखी। सड़क पर पड़ी थी।" साथ ही गहरी सांस ली।

"उसे मरना ही था।"

"मैं गोलियां लेकर वापस पहुंचा तो झंडू को भागते देखा, फिर तुम पर नजर पड़ी।"

देवराज चौहान ने पैंट में फंसी रिवाल्वर निकाली और उसका चैम्बर खोला।

चैम्बर खाली था। देवराज चौहान चैम्बर में फंसे खोखे निकालकर कार में फेंकता बोला।

"गोलियां दो।"

मनोहर ने गोलियों वाला लिफाफा उसे दिया।

देवराज चौहान ने चैम्बर भरा और रिवाल्वर पैंट में फंसाकर लिफाफे में से गोलियों को निकालकर जेबों में ठूंसा फिर सिगरेट सुलगा ली। चेहरे पर कठोरता नाच रही थी।

मनोहर, देवराज चौहान के चेहरे पर नजर मारकर बोला---

"अब मेरा काम खत्म हो गया?"

"मुझे यहां कहीं भी उतार दो।" देवराज चौहान ने कहा।

कुछ आगे जाकर मनोहर ने कार रोकी।

देवराज चौहान दरवाजा खोलकर बाहर निकला और दरवाजा बंद करके आगे बढ़ गया।

मनोहर उसे जाता देखता रहा, फिर गहरी सांस लेकर कार आगे बढ़ा दी।

■■■

कमिश्नर बाजरे के चेहरे पर थकान के भाव नजर आ रहे थे। शाम के सात बज रहे थे। तभी फोन बज उठा।

"हैलो...।" बाजरे ने फोन पर बात की।

"घर आ रहे हो ना। आज तो कोई काम नहीं है?" उसकी पत्नी की आवाज कानों में पड़ी।

"कुछ देर में यहां से निकलूंगा।" बाजरे ने कहा और मोबाइल बंद करके टेबल पर रखा।

तभी सब-इंस्पेक्टर कामटे ने तेजी से, दरवाजा खोलकर भीतर प्रवेश किया।

बाजरे ने आंखें सिकोड़कर उसे देखा।

कामटे ने तगड़ा सैल्यूट किया।

"सर।" वो बोला।

"तुम? एक हफ्ते बाद मुझे दिख रहे हो और तुम्हारे साथ देवराज चौहान भी नहीं है।" बाजरे होंठ सिकोड़कर कह उठा--- "तुमने कहा था कि तुम देवराज चौहान को पकड़कर मेरे सामने लाओगे।"

"यस सर।" सब-इंस्पेक्टर कामटे संभले स्वर में बोला--- "मैं देवराज चौहान की ही खबर लाया हूं...।"

"खबर लाए हो, उसे नहीं लाए?"

"देवराज चौहान को भी पकड़कर बहुत जल्दी आपके सामने पेश कर दूंगा सर।"

"बैठो।"

कामटे आगे बढ़कर कुर्सी पर बैठ गया। सिर पर डाल रखी कैप उतारकर हाथ में ले ली।

"मैं सप्ताह से देवराज चौहान की तलाश में ही लगा हुआ हूं सर। दो घंटे पहले देवराज चौहान की खबर मिली। दयाल सिंह मार्ग पर देवराज चौहान ने झंडू को दौड़ा-दौड़ा कर मारा। उसकी जान ले ली।"

"झंडू...।"

"दीपक चौला का आदमी है सर। उस दिन वो भी आर्य निवास होटल के हॉल में मौजूद था।"

कमिश्नर बाजरे का चेहरा गंभीर हो उठा।

"तो देवराज चौहान ने अपना खेल शुरू कर दिया।"

"उसने मुझे कहा था सर कि वो एक-एक को चुन-चुन कर मारेगा। झंडू पहला उसका शिकार था।"

बाजरे ने गंभीरता भरे ढंग में सिर हिलाया।

"सर।" कामटे बोला--- "सर्दूल, दीपक चौला, वंशू करकरे, अकबर खान और सुधीर दावरे की कोई खबर मिली?"

"अभी नहीं। पुलिस इनकी तलाश में लगी हुई है।"

"इनके आदमियों की, जो उस दिन वहां थे?"

"सब छिपे हुए हैं। परन्तु पुलिस के हाथों से ज्यादा देर दूर नहीं रहेंगे।"

"सर, मैं कुछ कहना चाहता हूं।"

"कहो...।"

"अगर किसी की खबर मिल जाए कि कोई कहां छुपा है तो उसे छेड़ा ना जाए। सिर्फ उस पर नजर रखी जाए।"

"क्यों?"

"देर-सवेर में देवराज चौहान उसे मारने पहुंचेगा और हम देवराज चौहान को पकड़ लेंगे।"

"क्या पता देवराज चौहान उसके पास पहुंचे ही नहीं?"

"पहुंचेगा सर। देवराज चौहान उन लोगों को ढूंढ निकालेगा जो उस दिन वहां मौजूद थे। अगर हमने देवराज चौहान को नहीं पकड़ा तो वो कत्लेआम मचा देगा। झंडू देवराज चौहान से अपनी जान बचाता हुआ फुटपाथ और सड़क पर भाग रहा था, फिर एक गोली उसके कूल्हे में लगी और वो सड़क पर गिर गया। तभी उस पर से बस निकल गई।"

"गोली तुम्हारे वाले रिवाल्वर की ही होगी...।"

"हो सकता है सर।" कामटे जल्दी से बोला--- "लाश का पोस्टमार्टम होगा तो उसके बाद गोली देखकर पहचान लूंगा।"

"एक सप्ताह में तुम सिर्फ यही खबर लाए हो?"

"मैं पूरी कोशिश कर रहा हूं कि देवराज चौहान के पास पहुंचूं और उसे पकड़ लूं। साथ ही मैं उन सब की भी तलाश कर रहा हूं कि वो कहां छिपे हैं। सर्दूल तो पाकिस्तान भाग गया होगा। वो हाथ नहीं आने वाला।"

बाजरे की निगाह खुले दरवाजे पर जा टिकी थी।

वहां वानखेड़े खड़ा था।

"आप वानखेड़े।" बाजरे ने शांत स्वर में कहा।

"देवराज चौहान को पकड़ने की प्लानिंग की जा रही है?" भीतर आता वानखेड़े कह उठा।

कोई कुछ नहीं बोला।

करीब आकर वानखेड़े कुर्सी पर आ बैठा।

"बेकार की कोशिश में अपना वक्त जाया न करो।" वानखेड़े बोला।

"तुम आज तक देवराज चौहान जैसे डकैती मास्टर को क्यों नहीं गिरफ्तार कर सके?" बाजरे ने पूछा।

"कमिश्नर।" वानखेड़े गंभीर हो उठा--- "देवराज चौहान खिलौना नहीं है कि सोचा और उसे पकड़ लिया।"

"तुम देवराज चौहान को क्यों नहीं अब तक गिरफ्तार कर सके?" बाजरे ने अपना सवाल पुनः दोहराया।

"कमिश्नर।" वानखेड़े ने गंभीर स्वर में कहा--- "देवराज चौहान खतरनाक है। वो आवेश में भी, शांत रहकर दिमाग से काम लेता है। वो चीते की तरह फुर्तीला है। अंडरवर्ल्ड के आम लोगों से जुदा है वो। उसका कोई भी ग्रुप नहीं है कि वहां से उसके बारे में बातें बाहर निकल सकें। वो सिर्फ जगमोहन के साथ काम करता है, जरूरत पड़ने पर काम के लिए अपने आदमी इकट्ठे कर लेता है। वो खुद को हर समय सुरक्षित रखकर काम करता है। उसके बारे में एक बात और भी है।"

"क्या?"

"वो जनता के लिए खतरनाक नहीं है। यही वजह है कि पुलिस ने आज तक देवराज चौहान को पकड़ने का अभियान नहीं चलाया। वो डकैतियां करता है, अधिकतर सरकारी पैसा लूटता है। पुलिस से वो कभी झगड़ा मोल नहीं लेता। पुलिस पर उसने कभी वार नहीं किया। यानि कि डकैतियों के अलावा उसकी जिंदगी शांत रही है अब तक।"

"और अब वो जो कर रहा है?" कामटे कह उठा।

"अब?" वानखेड़े ने कामटे को देखा--- "क्या किया है उसने अब?"

"दीपक चौला के आदमी झंडू को उसने सड़क पर दौड़ा-दौड़ा कर मारा। दो घंटे पहले की बात है ये और...।"

"दीपक चौला ने देवराज चौहान के साथ क्या किया? झंडू ने देवराज चौहान के साथ क्या किया? सर्दूल, वंशू करकरे, सुधीर दावरे, अकबर खान ने और उनके आदमियों ने देवराज चौहान और जगमोहन के साथ क्या किया? इस वक्त हालत ये है कि जगमोहन का पता नहीं, वो कहां है। हॉस्पिटल में भी वो मौत से लड़ रहा था, जब उसे उठा लिया गया और उसके बाद कोई खबर नहीं मिली उसकी कि उसके साथ क्या हुआ? इस हाल में देवराज चौहान का पागल होना लाजिमी है। मत भूलो कि देवराज चौहान हॉस्पिटल में 'कोमा' में था। उसे होश आया था तो वहां तुम ड्यूटी पर थे। बाहर चार पुलिसवाले ड्यूटी पर थे, लेकिन उसने किसी का अहित नहीं किया और...।"

"वो मेरी रिवाल्वर ले गया है और उसी से उसने झंडू को मारा होगा।" कामटे कह उठा।

"ये मामूली बात है।"

"वानखेड़े।" बाजरे ने गंभीर स्वर में कहा--- "तुम देवराज चौहान की साइड लेते दिख रहे हो।"

"क्योंकि मैं उसे बहुत अच्छी तरह जानता हूं कि वो क्या है!" वानखेड़े ने गंभीर स्वर में कहा--- "कुछ देर के लिए तुम अपनी वर्दी उतार दो कमिश्नर। सिर से पुलिस वाला दिमाग निकालकर भी एक तरफ रख दो। सामान्य इंसान बनकर सोचो देवराज चौहान के बारे में कि उसके और जगमोहन के साथ उन लोगों ने जो किया, उसके बाद देवराज चौहान तो क्या तुम या मैं होते तो यही करते, जो अब देवराज चौहान करने में लगा है। वो कुछ भी गलत नहीं कर रहा। यूं भी वो सब गैर कानूनी काम करने वाले लोग हैं। सर्दूल की सरपरस्ती में हैं। पुलिस उनकी तलाश में दो महीनों से भागी फिर रही है। ऐसों को अगर देवराज चौहान मार रहा है तो हमें इसकी परवाह नहीं करनी चाहिए।"

"हमारी वर्दी हमें इस बात का एहसास दिलाती है कि हम किसी को कानून हाथ में न लेने दें।"

"मैं सहमत हूं तुम्हारी बात से।" वानखेड़े ने कहा--- "परन्तु मेरी राय में बेहतर यही है कि पुलिस देवराज चौहान और उन लोगों के बीच में नहीं आए। जो हो रहा है, होने दे। ये अंडरवर्ल्ड का मामला है। जब अंडरवर्ल्ड के लोग आपस में झगड़ते हैं तो पुलिस तब बीच में दखल नहीं देती। इसमें पुलिस वालों के मरने की आशंका रहती हैं।"

"हो सकता है तुम्हारी बात सही हो। परन्तु कानून अपनी आंखें नहीं बंद कर सकता।" बाजरे बोला।

वानखेड़े ने कामटे से कहा।

"तो तुम देवराज चौहान को पकड़ने के लिए हाथ-पांव मार रहे हो?"

कामटे ने सहमति में सिर हिलाया।

"ये ठीक है कि उसने कभी पुलिसवाले पर वार नहीं किया। परन्तु इस वक्त हालात दूसरे हैं। वो पागल हुआ पड़ा है। तुम संभलकर रहना। उसे मजबूर मत करना कि वो तुम पर गोली चला दे...।" वानखेड़े ने कहा और उठकर बाहर निकल गया।

कमरे में कुछ शांति सी छा गई।

"तुमने सुना वानखेड़े ने जो कहा?" बाजरे बोला।

"यस सर...।"

"उसकी बातें भूलना मत। ये ठीक कहकर गया है। देवराज चौहान को ये अच्छी तरह जानता है। अगर देवराज चौहान को ढूंढ लो तो शेर बनकर उसके सामने मत चले जाना। डिपार्टमेंट को खबर करना।"

"ज...जी...।"

"जाओ, ढूंढो देवराज चौहान को...।"

कामटे उठा। कैप पहनी और सैल्यूट देकर बाहर निकल गया।

■■■

रात के दस बज रहे थे। दस से कुछ ऊपर का ही वक्त था।

देवराज चौहान इस वक्त नहाया-धोया था और कपड़े भी बदल चुका था। टैक्सी रुकवाकर बाहर निकला और किराया देकर सामने नजर आ रहे ब्लैक नाइट क्लब की तरफ बढ़ गया। नाइट क्लब की इमारत के बाहर रोशनियों से इस तरह सजावट कर रखी थी जैसे शादी वाला घर हो। ये इस इलाके का जाना-माना नाइट क्लब था।

देवराज चौहान को देखकर शीशे का दरवाजा धकेला दरबान ने।

देवराज चौहान भीतर प्रवेश कर गया।

रोशनी से भरा, सजा हॉल था ये।

एक तरफ रिसेप्शन था। पास ही हैल्प डैस्क था। दूसरी तरफ बैठने के सोफे थे। तीन-चार तरफ रास्ते जा रहे थे। किसी रास्ते पर रेस्टोरेंट लिखा था तो किसी पर बार। किसी पर गेम्स हॉल लिखा था तो किसी पर कमरे लिखा था। क्लब के दो-तीन कर्मचारी आते-जाते दिखे। सोफों पर आठ-दस लोग बैठे थे।

देवराज चौहान सीधा हैल्प डैस्क पर पहुंचा।

"गुड इवनिंग सर।" वहां बैठी युवती मुस्कुराकर बोली--- "मैं आपकी क्या हैल्प कर सकती हूं?"

"हेमन्त देसाई से मिलना है।" देवराज चौहान ने सामान्य स्वर में कहा।

"सर से?" युवती के होंठों से निकला, फिर बोली--- "सर तो 11 बजे तक आएंगे। आपका अपॉइंटमेंट है?"

"नहीं...।"

"फिर तो शायद ही उनसे मुलाकात हो सके।"

"मैं मुलाकात कर लूंगा। तुम मुझे बता देना कि हेमन्त साहब आ गए हैं।"

"श्योर सर।"

"मैं तुम्हारे पास फिर आऊंगा पूछने...।"

देवराज चौहान बाररूम में जा पहुंचा।

वहां बहुत भीड़ थी। 11:40 बजे थे। देवराज चौहान ने पेमेंट करके लार्ज पैग लिया और एक कुर्सी पर बैठा, छोटे-छोटे घूंट भरने लगा। वो वक्त बिता रहा था। यहां उसे ऐसा कोई व्यक्ति दिखाई नहीं दिया, जिसे वो पहचानता हो। एकाएक देवराज चौहान का हाथ अपने सिर पर गया और सिर के पीछे, ऊपरी भाग में गोली के निशान पर जाकर, उसकी उंगलियां ठिठक सी गईं। एकाएक आंखों में सर्दूल का चेहरा चमका।

देवराज चौहान के चेहरे पर वहशी भाव आ ठहरे।

परन्तु फौरन ही उसने अपने चेहरे के भावों को ठीक कर लिया। यहां काफी लोग थे और वो नहीं चाहता था कि कोई उसके मन की स्थिति को पहचाने।

अगले ही पल आंखों के सामने जगमोहन का खून से लथपथ चेहरा आया।

दांत भिंच गए देवराज के।

चेहरे के भाव छिपाने के लिए उसने गिलास होंठों से लगा लिया और एक ही सांस में गिलास खाली कर दिया था। अब चेहरा शांत था, परन्तु कठोरता छाई थी वहां।

देवराज चौहान ने घड़ी में वक्त देखा।

ग्यारह बज चुके थे।

वो उठा और बाररूम से निकलकर रिसेप्शन पर हैल्प डैस्क पर पहुंचा। वहां बैठी युवती उसके पास आते ही मुस्कुराकर कह उठी---

"सर तो तभी आ गए थे जब आप गए थे यहां से। इस वक्त वो गेम्स रूम में हैं।"

"थैंक्स...।" देवराज चौहान ने कहा और उस गैलरी की तरफ बढ़ गया, जहां गेम्स रूम लिखा था।

■■■

गेम्स रूम काफी बड़े हॉल को कहा जाता था वहां।

वहां एक तरफ डांसिंग फ्लोर था। जहां म्यूजिक पर दो युवतियां थिरक रही थीं। फ्लोर के एक कोने में ड्रम्स भी था। दो आदमी मध्यम सा ड्रम बजा रहे थे। रंगीला माहौल था वहां का।

एक तरफ दीवार के साथ बीस से ज्यादा, जुआ खेलने की विदेशी मशीनें लगा रखी थीं। हर मशीन पर भीड़ थी। लोग पी भी रहे थे और जुआ भी खेल रहे थे। हॉल में जहां-जहां पिलर लगे थे, वहां भी एक-एक मशीन सटा रखी थी। हॉल में एक तरफ टेबल-चेयर लगी थी, जिस पर बैठे लोग ताश रूपी जुआ खेल रहे थे। टेबल पर नोटों की जगह टोकनों का इस्तेमाल हो रहा था। कई टेबलों पर टोकनों का बहुत बड़ा ढेर नजर आ रहा था। हर टेबल पर क्लब का एक कर्मचारी मौजूद था, जो कि खेलने में उनकी सहायता कर रहा था। सब काम ढंग से, सिस्टम से चल रहे थे।

नाइट क्लब का मालिक हेमन्त देसाई रोज की तरह खेलने वालों के पास जाकर, उनसे हंस-हंसकर बातें करता मिल रहा था। ऐसा करके वो रोज देखता था कि उसका स्टाफ ठीक से काम कर रहा है या नहीं? यूनिफॉर्म पहने वेटर, ट्रे में व्हिस्की के लिए तेजी से आर्डर सर्व करने में व्यस्त थे। गेम्स रूम में भी छोटा सा बार काउंटर बना हुआ था। काफी लोग टेबलें खाली होने का इंतजार कर रहे थे, कि वो भी खेल सकें।

हेमन्त देसाई ने तसल्ली भरी निगाह पूरे हॉल में मारी, फिर एक तरफ बढ़ गया। रास्ते में मिलने वाले लोगों से वो हाय-हैलो कहता जा रहा था। फिर वो हॉल के कोने में एक दरवाजे पर पहुंचा और दरवाजा खोलकर भीतर प्रवेश किया और दरवाजा बंद किया। सामने चार फीट लम्बी छोटी सी गैलरी थी। गैलरी में दो-तीन बंद दरवाजे नजर आ रहे थे। वो आगे बढ़ा और एक दरवाजा खोलकर भीतर प्रवेश कर गया।

ये उसका ऑफिस था।

हेमन्त देसाई टेबल के पीछे कुर्सी पर बैठा और टेबल के नीचे हाथ डालकर तीन-चार स्विच दबाए तो सामने दीवार पर लगी स्क्रीनें रोशन हो उठीं। वो चार स्क्रीनें थीं। अब स्क्रीनों पर गेम्स रूम, बाररूम, रिसेप्शन और रेस्टोरेंट के दृश्य नजर आने लगे थे। यहां बैठकर वो हर तरफ नजर रखता था।

हेमन्त देसाई ने टेबल पर मौजूद इंटरकॉम का रिसीवर उठाकर बटन दबाया।

"एक कॉफी भेज दो।" कहकर रिसीवर वापस रख दिया।

तभी दरवाजा खुला और देवराज चौहान ने भीतर प्रवेश किया।

हेमन्त देसाई ने उसे देखा और कह उठा---

"कौन हैं आप और बिना पूछे मेरे ऑफिस में...।"

"मैं गेम्स हॉल से ही तुम पर नजर रख रहा था।" देवराज चौहान ने शांत स्वर में कहा और कुर्सी पर आ बैठा।

"क्यों?" हेमन्त देसाई के माथे पर बल पड़े।

"तुमसे मिलना चाहता था।"

"ये कोई ढंग है मिलने का? रिसेप्शन पर खबर करते। वो मेरे से...।"

"फार्मेल्टीज लम्बी हो जाती।" देवराज चौहान गंभीर था।

"कहो?" हेमन्त देसाई का स्वर उखड़ा हुआ था।

"वंशू करकरे तुमसे हफ्ता वसूली करता है ताकि तुम क्लब का ये धंधा कर सको।"

हेमन्त देसाई चौंका।

"धंधा तो तुम्हारा और वंशू करकरे का अपनी जगह कायम है। परन्तु तुम दोनों अब अच्छे दोस्त भी बन चुके हो।"

"कौन हो तुम?"

"देवराज चौहान।"

हेमन्त देसाई चौंका। उसके चेहरे पर स्पष्ट तौर पर हैरानी उभरी।

"तो पहचान गए मुझे। वंशु करकरे ने तुम्हें मेरे बारे में बताया होगा।"

हेमन्त देसाई ने बेचैनी से पहलू बदला।

देवराज चौहान ने रिवाल्वर निकाली और टेबल पर हाथ रखकर नाल उसकी तरफ की।

हेमन्त देसाई घबरा उठा।

"ये तुम क्या कर रहे हो?"

"खड़े हो जाओ। किसी चीज को हाथ मत लगाना। कुर्सी छोड़ दो।"

"लेकिन...।"

"सुना नहीं तुमने।" गुर्रा उठा देवराज चौहान।

हेमन्त देसाई फौरन खड़ा हो गया।

देवराज चौहान भी रिवाल्वर थामे उठा और बोला---

"इधर आ जाओ। इधर की किसी भी कुर्सी पर बैठ जाओ। मैं तुम्हारी कुर्सी पर बैठूंगा।"

हेमन्त देसाई टेबल के पीछे से निकलता कह उठा---

"ऐसा क्यों?"

"तुम जैसे लोगों को अक्सर मुसीबतें आती रहती हैं, ऐसे में तुम लोग, जरूर कोई न कोई ऐसा स्विच लगाकर रखते हो कि अपने बाउंसरों को बुला सको। यूं मुझे उनका डर नहीं, परन्तु मैं शोर-शराबा नहीं चाहता। आराम से तुमसे बात करना चाहता हूं।" देवराज चौहान का स्वर बेहद कठोर था।

हेमन्त देसाई इधर वाली कुर्सियों में से, एक पर जा बैठा।

देवराज चौहान टेबल के उस पार, हेमन्त वाली कुर्सी पर जा बैठा।

"तुम्हारे पास रिवाल्वर होगी। जरूर होगी। देवराज चौहान अपनी रिवाल्वर पैंट में फंसाता कह उठा।

हेमन्त देसाई ने सूखे होंठों पर जीभ फेरकर सहमति से सिर हिलाया।

"उसे बाहर निकालने की कोशिश मत करना।" देवराज चौहान ने कहा और सिगरेट सुलगा ली।

हेमन्त देसाई व्याकुल नजर आ रहा था।

देवराज चौहान ने दीवार पर नजर आ रही स्क्रीनों पर निगाह मारी, फिर देसाई को देखा।

"तो हम वंशू करकरे की बात कर रहे थे। उसने तुम्हें क्या बताया मेरे बारे में?"

देसाई की परेशानी बढ़ने लगी।

"चुप मत रहो।" देवराज चौहान के दांत भिंच गए।

"डेढ़-दो महीने पहले उसने बताया सब कुछ।" देसाई धीमे स्वर में कह उठा।

"सब कुछ बताया?" देवराज चौहान गुर्राया।

हेमन्त देसाई ने फौरन सिर हिलाया।

"तो तेरे को सब पता है। खास याराना है तेरा करकरे से। हफ्ता वसूली किंग कहता है करकरे खुद को।"

देसाई की परेशानी चरम सीमा पर नजर आ रही थी।

तभी दरवाजे पर आहट हुई। देवराज चौहान सतर्क हुआ।

"मैंने कॉफी मंगवाई थी।" इस डर से देसाई कह उठा कि देवराज चौहान कोई सख्त कदम न उठा ले।

दरवाजा खोलकर वेटर भीतर आया और उसने कॉफी रखकर देवराज चौहान को देखा, फिर देसाई को। उसे ये अजीब लगा कि कोई उसके मालिक की कुर्सी पर बैठा है और मालिक सामने।

वेटर चला गया।

"कॉफी पी।" देवराज चौहान ने कठोर स्वर में कहा।

"नहीं, रहने दो, मैं...।"

"पी...।"

देसाई सीधा हुआ और कॉफी का प्याला उठाकर घूंट भरा, फिर देवराज चौहान को देखा।

"हूं।" देवराज चौहान ने उसे घूरते हुए सिर हिलाया--- "बता, वंशू करकरे कहां छिपा हुआ है?"

"मैं... नहीं जानता।"

"बात ताजी होती तो मैं तेरी बात पर यकीन कर लेता। लेकिन उसे छिपे दो महीने हो चुके हैं। उसने इन दो महीनों में कई बार तेरे से बात की होगी। किसी बार ये भी बताया होगा कि वो कहां छुपा है।"

"ये नहीं बताया।"

"तूने पूछा?"

"हां, लेकिन उसने बताने से मना कर दिया। उसे पुलिस ढूंढ रही है और तुम्हारे बारे में वो कहता था कि तुम 'कोमा' में पड़े हो। वहां पुलिस का पहरा है। वो तुम्हारे मर जाने की दुआ कर रहा था... मैं तुम्हें उसका फोन नंबर दे सकता हूं...।"

"वो मेरा यार नहीं है जो मैं उससे फोन पर बात करूं।" देवराज चौहान गुर्राया।

देसाई ने सूखे होंठों पर जीभ फेरी।

"उसका आखिरी फोन कब आया था?"

"तीन दिन पहले।"

"क्या कह रहा था?"

"यही कि तुम 'कोमा' से बाहर आ गए हो। हॉस्पिटल से, पुलिस के हाथों से भाग निकले हो। अब तुम उन्हें जरूर तलाश करोगे।" देसाई के चेहरे पर घबराहट नाच रही थी। वो बार-बार उसके हाथ में थमी रिवाल्वर को देख रहा था।

"तो तू नहीं जानता कि वंशू करकरे कहां है?"

"न...हीं...। परन्तु शायद जोगेशा जानता हो।"

"जोगेशा कौन?"

"वो इस तरह की खबरें ढूंढता रहता है और उन्हें मोटे दामों पर बेचता है। यही उसका काम है।"

"जोगेशा कहां मिलेगा?"

"उसका फोन नम्बर है मेरे पास।"

"दे...।"

"टेबल की ड्राज में काले रंग की डायरी में उसका नम्बर लिखा है।"

देवराज चौहान ने ड्राज खोली। काली रंग की डायरी टेबल पर रखकर उसकी तरफ सरका दी।

देसाई ने जल्दी से डायरी खोली और फिर एक मोबाइल फोन का नम्बर बताया।

देवराज चौहान ने मोबाइल नम्बर अपने मस्तिष्क में सुरक्षित किया फिर बोला---

"तुम वंशू करकरे के यार हो।"

देसाई का चेहरा फक्क था।

"दुश्मन का यार, मेरा दुश्मन...।" देवराज चौहान ने कहा और ट्रिगर दबा दिया।

गोली चलने की तेज आवाज उभरी और देसाई के माथे में छेद दिखने लगा। दूसरे ही पल उसका सिर टेबल पर आ गिरा।

टेबल पर खून फैलने लगा। देवराज चौहान के चेहरे पर दरिंदगी नाच रही थी। वो कुर्सी से उठा और रिवाल्वर पैंट में फंसाकर ऊपर कमीज की और टेबल के गिर्द घूमता हुआ दरवाजा खोलकर बाहर निकलता चला गया।

आधे मिनट में ही वो गेम्स हॉल में था।

यहां ड्रम बज रहा था। युवतियां हौले-हौले नाच रही थीं। वेटर भागते-दौड़ते दिख रहे थे। मशीनों और टेबलों पर जुआ खेला जा रहा था। हर कोई अपने में मस्त था।

देवराज चौहान नाइट क्लब से बाहर निकलता चला गया।

रात के बारह बज रहे थे।

बाहर का अंधेरा गहरा हो चुका था। शाम के मुकाबले कुछ शांति महसूस हो रही थी अब। परन्तु सड़क पर अभी भी वाहनों की कतारें नजर आ रही थीं। नाइट क्लब अभी भी तेज रोशनियों से चमक रहा था। बाहर निकलकर देवराज चौहान पैदल ही आगे बढ़ गया था। मोबाइल फोन निकालकर जोगेशा का नम्बर मिलाने लगा।

बेल जाने लगी। फोन कान से लगा लिया।

"हैलो...।" अगले ही पल कानों में आवाज पड़ी।

"जोगेशा?" देवराज चौहान बोला।

"हां, तुम कौन?"

"देवराज चौहान।"

उधर से गहरी सांस लेने की आवाज आई।

"डकैती मास्टर?"

"ठीक समझे।" देवराज चौहान ने शांत स्वर में कहा।

"आज मैं कुछ और भी मांगता तो शायद मुझे वो भी मिल जाता।" जोगेशा की आवाज कानों में पड़ी--- "मैं दोपहर से ही सोच रहा था कि डकैती मास्टर देवराज चौहान का पता मेरे पास होता तो मैं मोटा पैसा कमा लेता।"

"वो कैसे?"

"तुम्हें जो खबरें चाहिए, उनमें से कुछ मेरे पास हैं।"

"तुम्हें मालूम है कि मुझे कैसी खबर चाहिए?"

"मालूम है।"

"तो मेरे से मुलाकात कर लो...।"

"बिना नोटों के खबर नहीं दूंगा। मैं अपने धंधे में उधार नहीं करता। खबरें मुफ्त नहीं बेचता।"

"पैसा मिलेगा।" देवराज चौहान ने कहा।

"ये बात है तो अभी मिल लो।"

देवराज चौहान ने अपनी जगह बताकर कहा---

"यहां पर कितनी देर में आ जाओगे?"

"चालीस मिनट में...।"

"अकेले आना। बिल्कुल अकेले।"

"हमारे बीच तीसरे का क्या काम? मेरी कार का रंग काला है। पुरानी सी कार है। तुम आसानी से पहचान जाओगे।"

"आ जाओ।" देवराज चौहान ने कहा और फोन बंद कर दिया।

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