“रुक जाओ गुरु... रुक जाओ !" घोड़े की एड़ लगाकर अपनी पूर्ण शक्ति से चीखा विकास ।
– "विजय... रुक जाओ, बेटे... रुक जाओ...!" ठाकुर निर्भयसिंह अपना घोड़ा उससे आगे निकालते हुए चीखे ।
— “ विजय, तुम्हें मेरी कसम... रुक जाओ !" रघुनाथ का घोड़ा भी उसके साथ था ।
" “भैया... भैया !" घोड़ा दौड़ाती हुई अपनी पूरी शक्ति से चीख रही थी रैना – "रुक जाओ... हमारी बात सुनो... हम तुम्हें नहीं रोकेंगे—–—लेकिन हमें भी साथ ले लो... भैया... सुनो... रुक जाओ।" सम्पूर्ण जंगल विकास, ठाकुर निर्भयसिंह, रैना, रघुनाथ और अजय अर्थात ब्लैक ब्वॉय की चीखों से गूंज रहा था। पांचों के घोड़े समीप के अन्तराल से भाग रहे थे। उनसे आगे दूर... बहुत दूर, एक मशाल चमक रही थी। मशाल को लिये वह इन्सान, जिसका ये पांचों इस समय पीछा कर रहे थे—किसी स्वस्थ घोड़े पर सवार होकर अपने प्राण-पण से दौड़ा चला जा रहा था । जंगल पूर्णतया अंधकार की चादर से लिपटा हुआ था। अभी-अभी भीषण वर्षा अपना प्रकोप दिखाकर शान्त हुई थी, अतः जंगल की धरती बुरी तरह कीचड़ में बदल चुकी थी । घोड़ों के खुर उस कीचड़ से टकराकर बड़ी विचित्र-सी ध्वनि उत्पन्न कर रहे थे । वृक्षों के गर्भ से अभी तक पानी झड़ रहा था ।
गगन पर मेघ अपना पड़ाव डाले हुए थे ।
रह-रहकर जोर से बिजली कड़क उठती ।
समूचा जंगल कांप उठता।
सबके चेहरों पर गहन चिन्ता और तनाव के भाव थे ।
और उन सबसे आगे हाथ में मशाल लिये घोड़े को तीव्र वेग से भगाने वाला था विजय — हां, वह विजय ही तो था ... भारत का माना हुआ जासूस... सीक्रेट सर्विस का चीफ । इस समय उत्तेजना के कारण विजय का चेहरा लाल सुर्ख था । मस्तिष्क में जैसे कोई जोर-जोर से हथौड़े मार रहा था । उसे लग रहा था... जैसे कोई पुकार रहा है... आंखों के समक्ष एक नारी का मुखड़ा तैर रहा था... बेहद सुंदर नारी ... जैसे वह विजय को पुकार रही थी ।
मुखड़ा तैर रहा था... बेहद सुंदर नारी... जैसे वह विजय को पुकार रही थी। उसके कानों में पीछे से उसके परिचितों की आवाजें जंगल को फाड़कर आ रही थीं। किन्तु सबसे शक्तिशाली उस नारी की चीख थी जिसका मुखड़ा इस समय विजय की आंखों के समक्ष नृत्य कर रहा था । विजय बेतहाशा भागा जा रहा था...अपने पिता इत्यादि से पीछा छुड़ाकर वह उस नारी की बांहों में समा जाना चाहता था ।
लाल आंखें... कठोर तूफान उठ खड़ा हुआ हो।
चेहरा... मानो उसके दिमाग में कोई प्रचण्ड जलती हुई मशाल उसके हाथ में थी और वह अपनी पूरी ताकत से
निकल जाना चाहता था ।
एकाएक उसके घोड़े के दोनों अग्रिम पैर दलदल में धंस गए। घोड़ा भयानक ढंग से हिनहिनाकर एकदम रुक गया। विजय अपना बैलेंस नहीं सम्भाल सका और घोड़े की पीठ से उछलकर धड़ाम से दूर जा गिरा। इसे उसका सौभाग्य ही कहा जाएगा कि वह दलदल में नहीं, केवल कीचड़युक्त धरती पर जा गिरा था । उसके हाथ से छूटकर मशाल हवा में उछली और दूर जा गिरी। दूर उसी क्षण घोड़े के टापों की ध्वनि और विकास इत्यादि की आवाजें उसके करीब आ गईं।
उधर सबसे आगे विकास था—विजय की भांति वह भी घोड़े की पीठ से उछला और वायु में लहराकर सीधा विजय के करीब गिरा | रैना, रघुनाथ, अजय और निर्भयसिंह दलदल के दूसरी ओर ही रुक गए... उनसे पांच कदम आगे ही दलदल थी... उसी दलदल में विजय और विकास के घोड़े फंसे हुए बुरी तरह हिनहिना रहे थे। वे दोनों उनकी पीठ से उछलकर दलदल के पार जा गिरे थे ।
चारों ने दलदल के पार मशाल के प्रकाश में देखा ।
विजय और विकास एक झटके के साथ आमने-सामने खड़े हो गए । विकास ने विजय की खून से लिथड़ी आंखों में झांका । विजय की आंखों में विचित्र-सी उलझन के भाव थे। विजय के किसी भी हमले का मुकाबला करने हेतु विकास पूर्णतया सजग था। दोनों की सांसें धौंकनी की तरह चल रही थीं।
— "ये क्या बेवकूफी है गुरु ?" विकास अपने स्वर में प्रार्थना लिये बोला – “आपको हो क्या गया है ?" "
— "मुझे जाने दो, लड़के।" विजय भयानक स्वर गुर्राया—“मुझे उसके पास जाना है... वह मेरे बिना तड़प रही है। "
“कौन, गुरु ?" विकास बोला – “आप किसकी बात कर रहे
"तुम्हें मैं नाम बता चुका हूं... उसका नाम कान्ता है।" विजय दीवाने की भांति बोला ।
“कहां रहती है वो ? " मस्तिष्क में गहरी उलझन लिए विकास ने प्रश्न किया ।
“वो... वो, उसी बुर्ज में।" विजय जैसे पागल हो गया था — " नहीं... नहीं वह रहती नहीं है...वहां तो वह कैद है... उन जालिमों ने मेरी कान्ता को कैद कर लिया है... मेरी गुड़िया उसमें सिसक रही है। मुझे याद कर रही है... मुझे पुकार रही है विकास, विकास मैंने उससे वादा किया था...मैं उसे बचा लूंगा... वो मुझे प्यार करती है... मेरे ही कारण तो उन जालिमों ने मेरे दिल की रानी को उस बुर्ज में कैद कर दिया है...मैं वादा नहीं तोड़ सकता — हर कीमत पर कांता को बचाऊंगा मैं... एक-एक - का खून पी जाऊंगा... ।"
"लेकिन गुरु, वो है कौन... यह कान्ता कौन है ? " विकास ने कहा ।
— "कांता नहीं... तुम आन्टी बोलो।" विजय गुर्राया – “तुम्हारी तो आण्टी है वो...मेरी प्रेमिका... मेरी पत्नी... मेरी प्यारी कान्ता । विकास मुझे जाने दो... वह बेचारी मर जाएगी... मुझे जाने दो।"
–“नहीं, गुरु ऐसा नहीं हो सकता — और अगर जाना भी पड़ा तो आप अकेले नहीं जाएंगे – हम...!”
—"नहीं !" एकदम गरज उठा विजय – “मैं अकेला ही अपनी कांता को उन जालिमों के बीच से निकालूंगा | तुम बेकार में मुझसे जिद कर रहे हो... मुझे रोको मत... मैं कहता हूं मुझे जाने दो।"
- "इस तरह तो मैं तुम्हें नहीं जाने दूंगा, गुरु ।" विकास दृढ़ता के साथ बोला ।
और... यह सुनते ही विजय ने विकास पर बिजली की-सी गति से छलांग लगा दी । विकास काफी सतर्क रहने के उपरान्त भी स्वयं को बचा नहीं सका और विजय के हाथ में उसकी गरदन आ गई । विकास को महसूस हुआ, जैसे फौलादी शिकंजों के बीच उसकी गरदन फंस गई हो... विजय के पंजों की पकड़ क्षण प्रतिक्षण बढ़ती जा रही थी। विकास की श्वास-क्रिया रुकने लगी- चेहरा खून से लाल हो गया ।
— " तुम मुझे कांता के पास जाने से रोकोगे... मैं तुम्हें जिंदा नहीं छोडूंगा।" खूनी स्वर में विजय गुर्राया ।
विकास को लग रहा था... जैसे वास्तव में आज विजय के पंजे से किसी भी प्रकार वह जीवित नहीं निकल सकेगा। उसकी आंखें बाहर को उबलने लगीं — उसी समय विकास ने अपनी पूर्ण शक्ति समेटकर दाएं घुटने का वार विजय की टांगों के मध्य किया ।
एकदम कराहकर विजय ने उसकी गरदन छोड़ दी।
उसी समय... का एक मजबूत घूंसा उसके चेहरे से टकराया। एक चीख के साथ विजय धरती पर गिर पड़ा। विकास ने अपनी •पूरी फुर्ती का प्रदर्शन करके विजय पर छलांग लगा दी, किन्तु विजय ने न केवल उससे अधिक फुर्ती दिखाकर स्वयं को बचा लिया, बल्कि अपने दोनों पैरों पर रखकर विकास को उछाल दिया ।
विकास लहराकर दूर जा गिरा।
दोनों एक साथ अपने-अपने स्थान पर उछलकर खड़े हो गए। एक झटके के साथ विकास ने रिवॉल्वर निकाल लिया । फुर्ती के साथ विजय की ओर तानकर वह गरजां— "हरकत मत करना, गुरु — वर्ना गोली मार दूंगा।"
मगर विजय भला कहां रुकने वाला था। उसने रिवॉल्वर से भयभीत होना सीखा ही कब था । अभी तक के जीवन में हमेशा से मौत को पराजित करता आया था विजय —यह उस व्यक्ति का नाम था, जिससे मौत अब भी जीवन के लिए पनाह मांगती थी ।
और इस समय—
इस समय तो विजय पर खून सवार था ।
विकास के हाथ में दबे रिवॉल्वर की चिन्ता किए बिना विजय ने उसपर जम्प लगा दी। विकास ने तुरन्त फायर झोंक दिया, किन्तु संगआर्ट का प्रदर्शन करके विजय ने न केवल गोली को धोखा दे दिया, बल्कि सीधा विकास के ऊपर जा गिरा। विकास को इतना तीव्र झटका लगा कि रिवॉल्वर उसके हाथ से निकलकर वहीं कीचड़ में जा गिरा। कीचड़ भरी धरती पर विजय और विकास बुरी तरह गुथे हुए थे।
दलदल के इस तरफ खड़े हुए चारों रैना, ठाकुर निर्भयसिंह, रघुनाथ और ब्लैक ब्वॉय — उस खौफनाक दृश्य को देख रहे थे ।
उसी समय उन्होंने देखा — विजय के हाथ में एक चाकू चमक उठा। —
-“पिताजी...!" घबराकर एकदम चीखी रैना — "मेरे बच्चे को - बचाओ।"
और इसके पश्चात् उनकी दृष्टि दलदल के पार जाने का रास्ता खोजने लगी।
उधर—विजय और विकास का भयानक युद्ध चल रहा था...विकास विजय की जान लेना नहीं चाहता था, अलबत्ता उसे इस हालत तक अवश्य पहुंचा देना चाहता था कि वह भाग न सके, जबकि विजय तो विकास की जान का ही ग्राहक था । हर हालत में वह विकास को मार देना चाहता था। वह अपना चाकू निकाल चुका था और रह-रहकर उसका वार विकास पर कर रहा था । बेहद सतर्कता के साथ विकास स्वयं को बचा रहा था । में
काफी बचाते बचाते भी एक बार चाकू विकास की बाईं भुजा धंस गया... विकास के कण्ठ से चीख निकली। अभी विजय भयानकता के साथ उस पर दूसरा वार करना ही चाहता था कि
एक तेज ठोकर चाकू वाले हाथ पर पड़ी । झनझनाकर चाकू दूर कीचड़ में जा गिरा।
खूनी हो उठा विजय – बिजली की-सी गति से उसने ठोकर मारने वाले इन्सान को देखा —— सामने निर्भयसिंह थे, उसके पिता। मगर आश्चर्य ...।
विजय ने उनकी लेशमात्र भी परवाह नहीं की।
— "तुम... तुम हरामजादो ... मुझे कान्ता के पास जाने से रोकना चाहते हो ?” कहने के साथ ही वह भयानक फुर्ती के साथ उछला और एक नपा- तुला घूंसा ठाकुर साहब के चेहरे पर पड़ा । ठाकुर साहब लहराकर धड़ाम से कीचड़ में गिरे, किन्तु तभी पीछे से एक मजबूत बांह विजय की गरदन से लिपट गई । विजय ने अपनी पूरी शक्ति से झटका दिया—–विजय को गिरफ्तार करने का प्रयास करने वाला ब्लैक ब्वॉय उछलकर कीचड़ में जा गिरा। अभी विजय सम्भल भी न पाया था कि रैना की एक फ्लाइंग किक उसके चेहरे पर पड़ी ।
विजय भी छपाक से कीचड़ में गिरा ।
उसी समय हवा में उछलकर सुपर रघुनाथ उसके सिर पर आ गिरा। विजय ने उसे अपनी पूरी ताकत से उछाल दिया। हवा में लहराता हुआ रघुनाथ सीधा रैना के ऊपर जाकर गिरा। उधर ब्लैक ब्वॉय और ठाकुर साहब भी खड़े हो चुके थे।
विकास भी इस समय स्वयं पर नियन्त्रण पा चुका था ।
उन पांचों के बीच में खड़ा था विजय... अपने चारों ओर खड़े परिचित शत्रुओं के चेहरे उसने घूरकर देखे।
"होश में आओ विजय ।" ठाकुर साहब चीखे ।
-"मैं होश में हूं।” विजय गुर्रा उठा – “मुझे जाने दो।"
-“पागल मत बनो... भैया, तुम हम सब पर भी हाथ उठा रहे हो । " रैना बोली ।
-“अगर कान्ता को कुछ हो गया तो मैं सारी दुनिया को जलाकर राख कर दूंगा।” किसी दीवाने प्रेमी की भांति दहाड़ उठा विजय — “मैं उससे मोहब्बत करता हूं... वो मेरे दिल की रानी है... मेरे सामने से हट जाओ... खून की नदी बहा दूंगा... जो मेरे और कान्ता के बीच आएगा, उसे किसी कीमत पर मैं जिन्दा नहीं छोड़ सकता । "
- "गुरु, बाल ब्रह्मचारी होकर ऐसी बातें करते हो !” विकास बोला।
“बको मत ।" गुर्राया विजय – “मुझे देर हो रही है... रास्ता छोड़ो।" यह कहने के साथ ही विजय ने उनके बीच से निकलना चाहा, किन्तु नहीं निकल सका । ठाकुर साहब, ब्लैक ब्वॉय, विकास, रैना और सुपर रघुनाथ के बीच वह ऐसा फंसा कि निकल पाने में सफल नहीं हो सका। हालांकि उनके मध्य से निकलने हेतु विजय ने अपना हर हथकण्डा अपनाया, किन्तु किसी भी कीमत पर वह इन पांच जांबाजों से अधिक शक्तिशाली और चालाक नहीं था ।
चारों संगठित हो गए।
दस मिनट पश्चात ही... पिटते-पिटते विजय बेहोश हो गया। जिस समय ‘कान्ता...कान्ता' चीखता हुआ विजय बेहोश हो गया—उन पांचों के हृदय को जैसे शान्ति मिली... उन सभी की सांस फूल चुकी थी। ।
"इसे वापस ले चलो।" ठाकुर साहब ने कहा
ठाकुर साहब का आदेश प्राप्त होते ही विकास बेहोश विजय की ओर बढ़ा ।
उसी क्षण – वह मशाल, जा एक तरफ पड़ी हुई जल रही थी एकाएक बुझ गई। सभी हल्के से चौंके... उसी समय अन्धकार को चीरती हुई एक आवाज उनके कानों के माध्यम से जेहन में उतरती चली गई — 'सावधान ! मिस्टर विजय हमारे पिता हैं—जो उनके जिस्म को हाथ लगाएगा— हम सर कलम कर देंगे।'
सबकी बुद्धि एकदम चकराकर रह गई।
अंधकार के गर्भ से पुनः एक चेतावनी – 'दस कदम पीछे हट प्रत्येक व्यक्ति सोच रहा था... आखिर ये चक्कर क्या है !
“गौरव बेटे... | " दो युवकों के सामने एक पत्थर पर बैठा बेहद बूढ़ा व्यक्ति उनमें से एक को सम्बोधित करके कहता है - "तुम दोनों का रहस्य तुम्हारे अलावा केवल मैं जानता हूं और जब तक 'वे' वापस नहीं आ जात, उस समय तक तुम्हारा रहस्य कोई जान भी न पाए – अगर यह रहस्य खुल गया तो सारा काम चौपट हो जाएगा और उनकी जान भी खतरे में पड़ जाएगी ।"
" ऐसा ही होगा, गुरुजी ।" गौरव नामक युवक कहता है की कमर में एक खंजर बंधा है, बगल में बटवा, हाथ में कमन्द, जिस्म पर धोती और कुर्ता पहने हुए है। सिर पर एक बड़ी-सी पगड़ी बंधी है— उसके समीप ही खड़ा दूसरा युवक भी लगभग वैसे ही लिबास में है। उनके सामने बैठे दढ़ियल व्यक्ति के जिस्म पर गेरुए कपड़े हैं। सिर और दाढ़ी के बाल सन की भांति सफेद हो चुके हैं। दाढ़ी उसकी नाभि को स्पर्श कर रही है। उसके चेहरे का अधिकांश भाग बालों में छुपा हुआ था ।
-"लेकिन तब तक हम मुकरन्द तो चुरा लाएं, गुरुजी।” दूसरे युवक के मुंह से नारी स्वर निकलता है ।
—"तुम नहीं, वन्दना बेटी । ” गुरुजी प्यार से कहते हैं—“वहां केवल गौरव को जाने दो।"
-"क्यों ?" युवक के भेष में वन्दना नामक युवती ने कहा – “क्या गुरु को मेरी ऐयारी पर भरोसा नहीं ?"
"जिद नहीं किया करते बेटी, कह दिया सो कह दिया । " बूढ़ा व्यक्ति कहता है ।
इसके बाद उन तीनों में कुछ खास बातें होती रहती हैं, कुछ देर बाद गौरव और वन्दना गुरु के चरण छूकर उनका आशीर्वाद लेते हैं और उनसे विदा होकर पैदल ही नदी के सहारे एक तरफ बढ़ जाते हैं। कुछ दूर निकल जाने के बाद वे दोनों आमने-सामने एक पत्थर पर बैठ जाते हैं ।
उनके चारों ओर घना जंगल है, नदी से वे काफी दूर निकल आए हैं। आसपास कोई आदमी नजर नहीं आता ।
“भैया, क्या तुम अकेले मुकरन्द ला सकोगे ?” वन्दना गौरव से कहती है ।
"क्यों, क्या मैं दलीपसिंह से डरता हूं ? " गौरव दृढ़ता के साथ कहता है ।
“लेकिन तुम्हें इसका क्या पता कि दलीपसिंह ने वह कहां छुपा रखा होगा ?"
उसका खुद पता लगा लूंगा |” गौरव कहता है—“तू मां के पास जा, उसे भी अपना रहस्य मत बताइयो ।
“वो तो मैं चली जाऊंगी भैया, मगर मुझे तुम्हारा डर है।” वन्दना कहती है—“दलीपसिंह का ऐयार बलवंतसिंह बहुत बदमाश है—उससे जरा बचकर रहना । अगर तुम उसके चक्कर में फंस गए तो मुसीबत हो जाएगी। उसने मुकरन्द के चारों ओर कड़ा पहरा लगा रखा होगा।"
"तू मेरी चिन्ता क्यों करती है पगली, अपना काम देख | " गौरव कहता है ।
“अच्छा तो मैं चलती हूं।" कहने के साथ ही वन्दना और गौरव भिन्न दिशाओं में पैदल ही बढ़ जाते हैं ।
वन्दना का हाल हम बाद में बयान करेंगे। फिलहाल हम देखते हैं कि गौरव कहां जाकर क्या करता है और उसके साथ कैसी गुजरती है। उसका रहस्य क्या है। और वह उसे कहां तक छुपा सकता है ।
आठ कोस पैदल चलने के बाद वह दलीपनगर नामक एक शहर में पहुंच जाता है। रात का अंधियारा चारों ओर छा चुका है। इस समय वह महल के पिछले बाग के एक कोने में छुपा बैठा है। बाग में प्यादे हाथ में नंगी तलवारें लिये टहल रहे हैं। एक प्यादा टहलता हुआ उसके करीब आता है। गौरव एकदम झपटकर उसका मुंह भींच लेता है और अगले पल उसे गौरव ने बेहोशी की बुकनी सुंघाकर अचेत कर दिया। दो मिनट बाद ही गौरव प्यादे के कपड़े पहनकर बाग में टहलने लगता है।
टहलता हुआ गौरव महल की दीवार के पास पहुंच जाता है।
कमन्द लगाकर वह एक छत पर पहुंच जाता है और छत से नीचे एक गलियारे में। उसके चारों ओर इस समय सन्नाटा है। अभी वह गलियारे में ही है कि अचानक एक मोड़ से मुड़कर दलीपसिंह का ऐयार बलवंतसिंह एकदम उसके सामने आ जाता है।
दोनों एक दूसरे को देखकर ठिठक जाते हैं ।
गौरव फुर्ती के साथ तलवार निकालकर उस पर झपटता है किन्तु बलवंत भी कोई छोटा-मोटा ऐयार नहीं है, पलक झपकते ही वह भी अपनी तलवार खींचकर गौरव की तलवार से अड़ा देता है।
"तुम खुद ही महल में आ गए ।"- गौरव का वार अपनी तलवार पर रोकते हुए बलवंत कहता है -"शायद वह मुकरन्द लेने आए हो।"
" और लेकर ही जाऊंगा ।"- गौरव पैंतरा बदलकर कहता है।
इसी प्रकार उनमें युद्ध छिड़ जाता है। आधे घण्टे की इस तलवारबाजी में यह निर्णय नहीं हो पाता कि कौन अधिक है। अलबत्ता तलवारों की आवाज सुनकर वहां बहुत से सिपाही एकत्रित हो जाते हैं। गौरव पर काबू पा लिया जाता है। उसे बन्दी बनाकर राजा दलीपसिंह के सामने ले जा जाता है। उस समय दलीपसिंह अपने शयन कक्ष में होते हैं और यह सुनते ही कि गौरव को गिरफ्तार कर लिया गया है, बाहर आते हैं। गौरव उनके लिए बहुत
महत्त्वपूर्ण व्यक्ति है।
दलीपसिंह उस कक्ष में आते हैं, जहां गौरव नंगी तलवारों के बीच खड़ा था ।
उनके कक्ष में प्रविष्ट होते ही मुलाजिम सम्मानित ढंग से सलाम करते हैं
"राजा साहब !"- बलवन्त मुस्कराकर कहता है— “ये मुकरन्द प्राप्त करने यहां आए हैं । "
व्यंग्यात्मक ढंग से, दलीपसिंह गौरव की ओर देखकर कहते हैं—“क्यों, अपनी मां से मिलना चाहते हो ?"
"तुम्हारी सहायता की जरूरत नहीं है।" गौरव ने गरदन ऊंची करके कहा ।
उसे ऐसे तिलिस्म में कैद किया गया है कि हवा भी वहां
पहुंच नहीं सकती । दलीपसिंह गर्व के साथ कहते हैं — "तुम्हारा पिता तक उसे उस तिलिस्म से नहीं निकाल सका, तुम भाई-बहन की आधी उम्र निकल गई, तब भी तुम आज तक मुकरन्द तक भी नहीं पहुंचे, तुम शायद ये समझते हो कि मुकरन्द प्राप्त करते ही तुम तिलिस्म तोड़ दोगे – अगर मुकरन्द के जरिए तिलिस्म तोड़ना इतना आसान होता तो आज तक हम स्वयं ही तिलिस्म तोड़ देते। "
-"तुममें और हममें अन्तर है... | " मुस्कराकर बोला गौरव ।
"तुम्हारी बहन कहां है ?” दलीपसिंह ने प्रश्न किया।
" गौरव से पूछ रहे हो ?"
"कैदखाने में डालकर इस पर उस समय तक कोड़े बरसाते रहो, जब तक कि यह अपनी बहन के बारे में न बता दे।" क्रोध में दलीपसिंह गुर्राया— "हम सुबह इससे बात करेंगे । "
"जो हुक्म, सरकार । " बलवंत ने कहा ।
दलीपसिंह चले गए।
बलवंतसिंह ने अपने अन्य सिपाहियों की मदद से गौरव की गठरी बनवाई और कैदखाने में डाल दिया। जल्लाद को कोड़े मारने का आदेश देकर वह बाहर आया । महल से बाहर निकलकर उसने देखा... सारे पहरेदार अपने-अपने स्थान पर थे। लम्बे-लम्बे कदमों के साथ बलवंतसिंह बढ़ा चला जा रहा था, मानो किसी निश्चित स्थान पर वह जल्दी से जल्दी पहुंचना चाहता हो। कुछ ही देर बाद वह एक निर्जन से स्थान पर पहुंच जाता है। एक बार वह ध्यान से अंधेरे में जहां तक देख सकता है, देखता है। अपने आसपास किसी प्राणी का आभास न पाकर वह उस निर्जन स्थान पर खड़े एक खण्डहर में प्रविष्ट हो जाता है।
हालांकि खण्डहर ऊबड़-खाबड़ है— दीवारें गिर चुकी हैं। टूटी-फूटी खड़ी हुई दीवारों पर घास उग आई है। धरती पर पड़े मलबे में भी लम्बी-लम्बी झाड़ियां खड़ी हैं किन्तु बलवंत झाड़ियों के बीच से इस प्रकार आगे बढ़ता है, मानो वह यहां आने का अभ्यस्त रहा हो । कुछ देर बाद वह एक ऐसी कोठरी के पास पहुंच जाता है, जिसकी दीवारें और छत कायम तो हैं, परन्तु सब कुछ खस्ता हालत में । प्लास्टर उतर चुका है। छोटी-छोटी ईंटें चमक रही हैं। कमन्द लगाकर बलवंत उसी कोठरी की छत पर पहुंच जाता है। छत के दाहिने कोने में एक लोहे की छोटी सी गुड़िया खड़ी है । शक्ति लगाकर बलवंत उस गुड़िया को ऊपर खींच लेता है।
उसके ऊपर खिंचते ही छत के बीचोबीच एक मोखला बन गया ।
बलवंत उसी तरफ बढ़ गया ।
नीचे कमरे में चिराग की रोशनी हो रही थी। मोखले में से बलवंत नीचे कमरे में कूद गया। उसके कूदते ही कमरे में जंजीरों से बंधा एक व्यक्ति चौंक पड़ा। मोटी मोटी जंजीरों में बंधा वह व्यक्ति कमरे की जमीन पर औंधे मुंह पड़ा था। उस व्यक्ति ने चौंककर चेहरा ऊपर उठाया — उसकी दाढ़ी और मूंछें इतनी बढ़ चुकी थीं कि उनके पीछे वास्तविक चेहरा देखना सम्भव न था। सारे कपड़े फटे हुए थे और विभिन्न स्थानों पर खून भी लगा हुआ था । "तुम, जलील आदमी !" कैदी बलवंत को देखते ही
— चीखा — “तुम्हें तुम्हारे पापों की सजा जरूर मिलेगी।"
अपने ही नाम से सम्बोधित करते हुए कहा- "सुना है मुकरन्द को प्राप्त करने के लिए कोई भी पाप, पाप नहीं कहलाता । मैं भी तो केवल इसीलिए बलवंत बना हूं।" — "तुम मर जाओगे लेकिन तुम्हें मुकरन्द प्राप्त नहीं होगा।” कैदी चीख पड़ता है।
"एक खुशखबरी सुनाने आया था ।" बलवंत मुस्कराता हुआ कहता है— "अभी-अभी मैंने गौरव को गिरफ्तार कर लिया है। "
" — “तुम... !" कहकर हंसता है कैदी– “और गौरव को गिरफ्तार कर सको ! शायद तुम गौरव को जानते नहीं हो, तुम जैसे सौ ऐयार भी मिलकर उसे नहीं पकड़ सकते। वह तूफान है। ध्यान से देखना... वह गौरव नहीं होगा।"
- "वह भी महल में मुकरन्द चुराने ही आया था।” कैदी हंसा फिर आगे बोला— "मुकरन्द तो उसे भी नहीं मिलेगा। "
-"खैर"- बलवंत कहता है- "चलता हूँ मैं।"
कहकर बलवंत कमन्द लगाकर कोठरी की छत पर आता है। गुड़िया को नीचे दबाकर रास्ता बन्द कर देता है और छत से खण्डहर की धरती पर कूद पड़ता है। अब वह खण्डहर के बाहर की ओर बढ़ने लगता है। उसी समय---
—“जाते कहां हो ?” एक आवाज अंधेरे को चीरकर उसके कानों में पड़ती है— "कहां है, कहां है चन्द्रप्रभा, जल्दी बताओ, मैं तुम्हें मुंहमांगी दौलत दूंगा । मुझे चन्द्रप्रभा दिखा दो । ”
– “रामरतन तुम्हें नहीं चाहिए ?” अन्धेरे में गूंजने वाली आवाज ने पूछा ।
और रामरतन ———नाम सुनकर तो उसके चेहरे पर पसीना आ गया उसका सिर चकराने लगा, उसने खुद को काफी सम्भालने की कोशिश की, मगर सम्भाल नहीं सका और लड़खड़ाकर वहीं झाड़ियों में गिर गया ।
वह बेहोश हो चुका था।
उसी समय अंधेरे से निकलकर एक आदमी सामने आया। उसके सारे शरीर पर एक काला लिबास और चेहरे पर काला नकाब था । उसने झुककर बलवंत को देखा, उसे बेहोश पाकर कह उठा —"मूर्ख।"
इसके बाद उसने आराम से उसकी गठरी बांधी और खण्डहर से बाहर की ओर चल दिया। इस समय वह नकाबपोश बहुत खुश नजर आता है। जंगल के बीच में वह बढ़ा चला जा रहा है कि "गठरी में कौन है ये ?" एक आवाज नकाबपोश के कान में पड़ती है।
चौंका नकाबपोश, एकदम आवाज की दिशा में घूमकर बोला—"कौन है पूछने वाला ?"
"डर जाओगे नाम सुनकर । "
— — “तुम शायद मुझे नहीं जानते।" नकाबपोश बोला – "लोग मेरी सूरत देखकर और मेरा नाम सुनकर कांप उठते हैं । ।"
– “मैं अभी तुम्हारी सूरत भी देख लूंगा और नाम भी सुन लूंगा । " -अंधेरे भागे से आवाज उभरी – “मगर मेरा नाम बख्तावरसिंह है । "
- “नहीं... | " एकदम चीख पड़ता है नकाबपोश — "बख्तावर यहां कैसे हो सकता है ?”
— "क्यों, डर गए ना ?" वह आवाज पुनः उभरी ।
नकाबपोश अभी कुछ बोल भी नहीं पाया था कि एक तीसरी आवाज– “मैं भी यहीं हूं बख्तावरसिंह —— तुम्हारी दाल नहीं गलेगी। "
–“कौन हो तुम ?” बख्तावरसिंह के चौंकने का स्वर ।
– “पहले ये तो बताओ कि तुम्हारा यहां आना क्यों हुआ ?" तीसरी. आवाज ने पूछा – " और इस नकाबपोश को तुम अपने नाम से डराकर कौन-सा उद्देश्य पूरा करना चाहते हो — अच्छा है कि तुम मेरी तलवार से न मरो।"
-" उस गठरी में बहुत काम की चीज है जो इस नकाबपोश के कन्धे पर है।” बख्तावर की आवाज गूंजी।
-“बको मत, उसे तो मैं भी प्राप्त करना चाहता हूं। " तीसरा स्वर ।
–“बख्तावरसिंह किसी से डरता नहीं है । " बख्तावरसिंह की आवाज — “मेरे बारे में प्रसिद्ध है कि जो चीज मैं प्राप्त करना चाहता हूं, उसे अन्य कोई नहीं प्राप्त कर सकता —तुम चाहे जो हो, मगर ये गठरी यहां से नहीं ले जा सकते।"
- "इसके बावजूद भी तुम आज तक चन्द्रप्रभा को प्राप्त नहीं कर सके।"
–“क्या बकते हो !” एकदम ऐसे स्वर में, जैसे बख्तावर बुरी तरह घबरा उठा हो । -"क्यों...? सारी अकड़ ढीली हो गई ?" आवाज आई—“सुनो...मैं गौरवसिंह हूं।"
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