पाकिस्तान का शहर-लाहौर ।
मध्यमवर्गीय रिहायशी इलाका । कॉलोनी की गली में बच्चे क्रिकेट खेल रहे थे । दस-बारह साल के पन्द्रह बच्चे रहे होंगे वो। उनके बीच तेईस वर्ष का युवक अब्दुल रज्जाक भी मौजूद था जो कि बॉल फेंक रहा था । और एक के बाद एक सबको आउट करता जा रहा था । गली में बच्चों का शोर पड़ रहा था। तभी एक बच्चे की बारी आई तो बैट थमते ही कह उठा ।
"भैया बॉल नहीं फेकेंगे। कोई और बॉल फेंको।
खेल रुक गया ।
दूर खड़ा अब्दुल रज्जाक बोला ।
"जल्दी कर । तेरे को आउट करके, अब मैंने खेलना है। मेरी बारी है ।"
"नहीं । तुम बॉल नहीं फेंकोगे मुझे ।"
"क्यों ?"
"तुम मुझे आउट कर दोगे । मुझे शब्बीर बॉल फेंकेगा ।
"शब्बीर को बॉल फेंकना ही कहां आता है ।" अब्दुर रज्जाक मुस्कुराया ।
शब्बीर ही मुझे बॉल फेंकेगा।" वो बच्चा जिद भरे स्वर में कह उठा ।
शरारती बच्चे शोर डालने लगे। हो-हो करने लगे ।
शब्बीर भागकर अब्दुल रज्जाक के पास पहुंचा और हाथ बढ़ा कर बोला ।
"भैया बॉल दो, मैं बॉल फेंकूंगा ।"
मेरी बॉल से डरता है तू ?" अब्दुल रज्जाक शब्बीर को बॉल देते ,खेलने वाले से बोला ।
मैं डरता नहीं हूं । पर तुम मुझे आउट कर देते हो । मैं आउट हो जाऊंगा तो इमरान खान कैसे बनूंगा ।"
"तो तू बड़ा होकर इमरान खान बनेगा ?"
"हां । मैं इमरान खान बनकर हिन्दुस्तान के सचिन को हरा दूंगा । हिन्दुस्तान को भी हरा दूंगा ।"
"शब्बास । चल खेल तू। इमरान खान बन। हिन्दुस्तान को हराना है तूने ।"
उसके बाद फिर खेल शुरू हो गया । बच्चे शोर डालने लगे । शब्बीर बॉल फेंकने लगा । अब्दुल रज्जाक अब फील्डिंग करने लगा था। उनके खेल की वजह से आते-जाते लोगों को परेशानी हो रही थी । तभी एक व्यक्ति रुकते हुए अब्दुल रज्जाक से बोला ।
"तुझे शर्म नहीं आती इतना बड़ा होकर, छोटे-छोटे बच्चों के साथ खेल रहा है ।"
"वो चाचा यूं ही...।" अब्दुल रज्जाक ने दांत फाड़े।
"कुछ काम क्यों नहीं करता। सारा दिन आवारागर्दी करता रहता है। भाई डॉक्टर है बहन टीचर है और एक तू है कि...।"
"चाचा मैं बच्चों को इमरान खान बना रहा हूं । ये क्रिकेट में हिन्दुस्तान को हराएंगे ।"
"हिन्दुस्तान को हराने की बात छोड़ो और काम-धाम कर । आवारागर्द कहीं का । वो व्यक्ति मुंह बनाते आगे बढ़ गया।
खेल चालू था । तभी शब्बीर की फेंकी बॉल पर वो बच्चा कैच आउट हो गया। बच्चों में फिर शोर पड़ गया। हो-हल्ला हो गया।
"अब्दुल रज्जाक आगे बढ़ता कह उठा।
"अब मेरी बारी है ।"
"तुम तो आउट ही नहीं होगे । परसों आधा दिन तुम खेलते रहे, परन्तु आउट नहीं हुए ।" एक बच्चे ने कहा ।
"मैंने तुम सब को आउट करने का तक खिलाया। खिलाया न ?"
"हां ।"
"तो मुझे भी आउट करो । खेलना सीखना है तो दूसरे को आउट करना भी सीखो । चलो बॉल करो ।
खेल फिर शुरू हो गया ।
बॉल आती तो अब्दुल रज्जाक शॉट मार देता । बच्चे शोर डालने लगते । उनके साथ लगा अब्दुल रज्जाक बच्चा बना हुआ था । तभी दूसरे बच्चे ने बॉल फेंकना शुरू किया। बहुत तेज बॉल फेंकी ।
अब्दुल रज्जाक ने बॉल को बैट कर लिया और जोरों से शॉट लगा दी । बॉल हवा में गोली की तरह गई और गली में ही एक घर के बाहर खड़ी कार के शीशे पर जा लगी । 'कड़ाच' जोर की आवाज उभरी, शीशा तोड़ती बॉल कार में कहीं जाकर गुम हो गई ?"
पल भर के लिए वहां सन्नाटा छा गया ।
बच्चों की बोलती बंद हो गई ।
अब्दुल रज्जाक भी हक्का-बक्का सा खड़ा रह गया ।
गली से निकलते दो-तीन लोग थम गए और ये नजारा देखने लगे ।
तभी एक बच्चा वहां से भाग खड़ा हुआ और फिर दूसरा भागा।
उसी पल उस घर का दरवाजा खुलता दिखा । फिर गेट खोल कर साठ वर्ष का एक व्यक्ति कुर्ता-पजामा पहने बाहर निकला और कार के टूटे शीशे को देखने के बाद गुस्से से अब्दुल रज्जाक की तरफ बढ़ने लगा ।
"भागो ।" एक बच्चा चिल्लाया ।
इसके साथ ही सब बच्चे वहां से ऐसे भागे जैसे फौज की टुकड़ी पलटकर भाग खड़ी हुई हो ।
परंतु अब्दुल रज्जाक बैट थामें वहीं खड़ा रहा।
वो व्यक्ति पास पहुंचा तो अब्दुल रज्जाक फौरन कह उठा ।
"माफ करना ताऊजी, गलती हो गई, मैं तो...।"
"चटाक' उस व्यक्ति का हाथ हिला और उसके चेहरे पर जा पड़ा।
अब्दुल रज्जाक का सिर झनझना उठा। खड़ा रहा। परंतु वो संभला-सा खड़ा रहा।
"अब्दुल रज्जाक तूने गली मोहल्ले वालों की नाक में दम कर रखा है ।" उस व्यक्ति ने गुस्से से कहा--- "सारा दिन आवारागर्दी करता रहता है। एक तेरा भाई भी है जो डॉक्टर है पर इतना व्यस्त रहता है कि कभी नजर भी नहीं आता । मेरी कार का शीशा तोड़ दिया। नई कार ली थी दो महीने पहले कमीने, कुत्ते मैंने तुझे कहा भी था कि यहां मत खेलो, कार का शीशा टूट जाएगा ।" क्रोध में पागल हुए उसने अब्दुल रज्जाक के हाथ बैट छीना और बैट से ही उसे मारने लगा। साथ ही साथ गालियां भी देता जा रहा था ।
अब्दुल रज्जाक पड़ते बैटों से खुद को बचाने का भरपूर प्रश्न कर रहा था। परंतु रह-रहकर उसके होंठों से चीखें निकल रही थी। कभी बैट कंधे पर पड़ता तो कभी कमर पर, कभी टांगों पर मारने वाला पागलों की तरह उसे मारता जा रहा था ।
गली में लोग इकट्ठे हो रहे थे । सब ये तमाशा देख रहे थे ।
एक बैट सिर पर लगा कि वहां से खून निकलने लगा था।
"ताऊ, मैं शीशे के पैसे दे दूंगा । बस करो ।" अब्दुल रज्जाक चीखकर कह रहा था--- "इतना क्यों मार रहे हो ?"
परंतु वो व्यक्ति तो रुकने का नाम नहीं ले रहा था ।
तभी इकट्ठी हो चुकी भीड़ में से दो लोग आगे आए और उसे पीछे खींच कर रोका ।
"लड़के की जान निकाल लोगे क्या ?" एक ने उसके हाथ से बैट लेते हुए कहा ।
वो व्यक्ति हांफते हुए, गहरी सांसें लेता कह उठा ।
"इसने मेरी कार का शीशा...।"
"वो कह तो रहा है कि मैं शीशे के पैसे दे दूंगा ।" दूसरे ने कहा--- "इतना नहीं मारते किसी को ।"
"ये आवारागर्द है । सारा दिन धमाल मचाता रहता है । घर पर मैं आराम भी नहीं कर सकता । वो पुनः गुस्से से कह उठा ।
"तुम तो उसके बाप की तरह बात कर रहे हो । वो क्या करता है, ये देखना तुम्हारा काम नहीं है ।"
अब्दुल रज्जाक नीचे घुटनों के बल बैठा था । रह-रह कर कराह रहा था ।
"तुम ठीक हो बेटे ।" एक व्यक्ति ने उसके पास पहुंचकर कहा ।
"ठीक हूं ।" अब्दुल रज्जाक कराहते स्वर में कह उठा ।
"तुम्हारे सिर में खून...।"
"वो ठीक हो जाएगा ।" कहने के साथ ही अब्दुल रज्जाक उठ खड़ा हुआ ।
जहां-जहां बैट पड़े थे, वहां जबरदस्त दर्द हो रहा था। कंधे पर भी जोरों से बैट लगने की वजह से दर्द हो रहा था। खड़ा होकर एक कदम चला तो टांग में तेज दर्द हुआ। उसने गर्दन घुमा कर तीन मकान दूर एक मकान में देखा । वहां से कोई बाहर नहीं आया था । अब्दुल रज्जाक ने मन-ही-मन अल्लाह-अल्लाह का शुक्रिया अदा किया कि अम्मी को पता नहीं चला कि बाहर क्या हो रहा है। फिर उसकी निगाह उस व्यक्ति पर गई जिसने उसे बैट से मारा था ।
वो गुस्से भरी निगाहों से अब्दुल रज्जाक को घूर रहा था ।
"ताऊ तुमने यूं ही मुझे मारा। मैंने शीशे के पैसे तो तुम्हें दे ही देने थे ।" अब्दुल रज्जाक पीड़ा भरे स्वर में कह उठा ।
"बच गया तू।" वो गुस्से से कह उठा--- "वरना मैंने तेरी हालत बिगाड़ देनी थी ।"
"माफ करना । मेरी वजह से तुम्हें तकलीफ हुई ।" अब्दुल रज्जाक ने गहरी सांस ली।
"शीशे के पैसे दे ।"
"दे दूंगा । मैंने कब मना किया है । अभी तो मुझे डॉक्टर के पास जाने दो । तुमने खूब मारा है ।" शांत और मुस्कान से भरा था उसका स्वर।
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अब्दुल रज्जाक ऐसे डॉक्टर के पास पहुंचा जिसने उसके भाई मोइसिन के साथ डॉक्टरी की थी और अब क्लीनिक खोल रखा था । वो उसके भाई का दोस्त था और अक्सर घर आया करता था ।
उसने दवा-दारू की उसकी। एक पैसा भी नहीं लिया । खाने को दवा भी दी ।
"तुम्हें चार-पांच दिन आराम करना होगा ।" डॉक्टर ने कहा--- "इस तरह तुम जल्दी ठीक हो जाओगे। सिर का घाव गहरा नहीं है। चिंता की कोई बात नहीं ।"
इसके बाद अब्दुल रज्जाक वापस घर पहुंचा ।
गली में अब कोई नहीं खेल रहा था । बच्चे अभी तक अपने घरों से बाहर नहीं निकले थे ।
शीशा टूटी कार अभी तक वहां खड़ी थी।
अब्दुल रज्जाक ने अपने घर में प्रवेश किया । सिर पर बंधी पट्टी और चाल में लंगड़ाहट देखकर अम्मी कह उठी ।
"मुझे पता चल गया है उस बूढ़े सुहेल ने तुझे मारा । आज अपने अब्बा को आने दे, वो बात करेंगे उससे कि...।"
"रहने दे अम्मी। मेरी गलती थी।" अब्दुल रज्जाक बैठता हुआ कह उठा।
"कार का शीशा टूट गया तो पैसे ले लेता, मारने की क्या जरूरत...।"
"बोला तो, मेरी गलती थी ।"
अम्मी को गुस्सा चढ़ा हुआ था।
"जब उसने तुझे मारा तो तूने बैट रोका क्यों नहीं। तू उस...।"
"क्या बात करती हो अम्मी । वो बुजुर्ग है, मैं उसे रोकता तो...।"
"इसका ये मतलब तो नहीं कि वो तुझे मारता रहै। देख तो, कितना मारा है । शाम को तेरे अब्बा उससे बात करेंगे।"
"छोड़ो अम्मी । कुछ खाने को दो।"
"चोट ज्यादा तो नहीं लगी ?" अम्मी ने उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा ।
"चार-पांच दिन में ठीक हो जाऊंगा ।"
"बूढ़े सुहेल को इस उम्र में जवानी सूझ रही है। एक धक्का ही दिया होता तूने ।" अम्मी बड़बड़ाती हुई किचन की तरफ बढ़ी कि ठिठककर पलटी--- "मैंने कितनी बार तेरे मोबाइल पे फोन किया। नम्बर नहीं लगा। क्या बात है ?"
अब्दुल रज्जाक ने फौरन जेब में हाथ डाला। वहां रखे मोबाइल को टटोला फिर उसे बाहर निकाला। वो बैट की मार से टूट चुका था । उसने अम्मी को देखा तो अम्मी तीखे स्वर में कह उठी ।
"अब फोन की भरपाई तो वो बूढ़ा ही करेगा। बुढ़ापे में एक कार क्या खरीद ली, अपने को पता नहीं क्या समझने लगा। जैसे हमारे पास कार न हो। मोहल्ले में एक उसी के पास ही हो ।"
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शाम आठ बजे उसका भाई वसीम घर पहुंचा। उसने बताया कि बूढ़ा सुहेल उसे मिला था। उसने अब्दुल की शिकायत की। कार का टूटा शीशा दिखाया और टूटे शीशे का हर्जाना ले लिया उससे। परंतु अब्दुल रज्जाक की चोटें देखकर गुस्से से भर उठा। इस पर अब्दुल रज्जाक ने कहा ।
"रहने दो भैया। गलती मेरी थी । तुम्हें शीशे के पैसे दे दिए, बात खत्म हो गई। अब बात बढ़ाने से क्या फायदा ।"
वसीम चुप कर गया। परंतु घर में तनाव बना रहा ।
बहन नफीसा भी घर पर पहुंची थी । अब्दुल रज्जाक की हालत देखकर वो देर तक उसके पास बैठी रही और उससे पूछती रही कि वो उसके लिए क्या कर सकती है ।"
"वैसे तो तू एक एक कप चाय बनाकर नहीं देती।" अब्दुल रज्जाक मुस्कुरा कर बोला--- "और आज तुझे मेरी बहुत चिंता हो रही है ।"
"अब तू घायल है न, इसलिए ।" नफीसा बोली--- "अब उस बूढ़े सुहेल को मेरी जूती भी सलाम नहीं करेगी । यूं तो सामने पड़ने पर उसे सलाम कर दिया करती थी। उसने मेरे भाई को मारा है तो अब उसकी बात का भी जवाब नहीं दूंगी ।"
अब्दुल रज्जाक हंस पड़ा ।
रात के नौ बजे अब्बा घर पहुंचे। सारा हाल मालूम होते ही वो गुस्से से बोले ।
"तू पढ़ा-लिखा है। ग्रेजुएशन की है तूने । कहीं नौकरी क्यों नहीं करता ? सारा दिन यहां-वहां आवारागर्दी करता रहता है । तीन साल से तू यूं ही वक्त बिता रहा है। बीच में डेढ़ साल के लिए खुशाब शहर चला गया नौकरी करने । फिर वापस आ गया, कोई काम क्यों नहीं करता। बेकार बैठा तो ये ही सब होगा। हम किस-किस से झगड़ा करते रहेंगे। परसों ही बेग साहब कर रहे थे अपनी भतीजी की शादी तुझसे कर सकते हैं अगर तू कहीं नौकरी करने लगे । अच्छा खानदान है । निकाह हो जाएगा बेग साहब की भतीजी से । नौकरी कर ले...।"
अब्दुल रज्जाक खामोश रहा ।
"तू कहे तो तेरी नौकरी की मैं कहीं पर बात करूं ?" अब्बा ने कहा।
"मेरे को कोई बड़ा काम करना है अब्बा ।" अब्दुल रज्जाक मुस्कुरा कर बोला ।
"फिर वो ही बात । तू बड़ा काम नहीं कर...।"
"मैं अपने देश पाकिस्तान के लिए कुछ करना चाहता हूं । देश की खातिर बड़ा काम करना...।"
"पागल मत बन ।" अब्बा ने समझाने वाले स्वर में कहा--- "आजकल तो अपनी ही रोटी-पानी का जुगाड़ हो जाए, वो ही बहुत है । देश के लिए कुछ भी करने की सोचना छोड़ दे । कमाओ, निकाह करो और अपनी जिम्मेवारियां पूरी करो । ये ही जिंदगी है।
अब्बा उसके पास से चले गए ।
अब्दुल रज्जाक के चेहरे पर मुस्कान नाच उठी थी ।
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दस दिन बीत गए ।
अब्दुल रज्जाक पूरी तरह ठीक हो गया था। कंधे में अवश्य कभी-कभार दर्द की लहर उठ जाती थी परंतु डॉक्टर ने कहा था कि महीने तक दर्द चला जाएगा । गली की लाइफ सामान्य हो चुकी थी । बच्चे फिर गली में क्रिकेट खेलने लगे थे । बूढ़े सुहेल की कार में नया शीशा लग गया था । अब भी वो गली में ही खड़ी रहती थी। बच्चे उसे क्रिकेट खेलने के लिए अक्सर बुला लेते थे और वो पहले की तरह ही बेखौफ खेलता था। इस बात की परवाह उसने कभी नहीं की कि कहीं फिर से शीशा ना टूट जाए। वो चौदहवां दिन था जब रात के नौ बजे के करीब पैदल ही गली में, घर की तरफ जा रहा था तो बूढ़े सुहेल को उसने अपने घर में टहलते देखा। शायद वो रात का खाना खाकर टहल रहा था। अब्दुल रज्जाक ने गली में आगे-पीछे निगाह मारी तो इत्तेफाक से तब कोई भी गली में न दिखा तो वो सीधा बूढ़े सुहेल के मकान के गेट पर पहुंच गया। गेट खोलकर भीतर प्रवेश किया ।
बूढ़े सुहेल ने ठिठककर उसे देखा ।
"सलाम ताऊजी ।" अब्दुल रज्जाक मुस्कुरा कर बोला--- "बहुत दिनों से मैं आपसे माफी मांगने की सोच रहा था ।"
"हां ।" उसने सिर हिलाया--- "आ, भीतर आ। चाय पिलाता हूं तेरे को ।" बूढ़ा सुहेल उसे घर के भीतर ले गया। छोटे से ड्राइंग रूम में वे बैठे ।
"मैंने तेरे को उस दिन काफी ज्यादा मारा ।" बूढ़ा सुहेल बोला--- "बाद में इस बात का मुझे अफसोस हुआ।"
"गालियां भी दी ।" अब्दुल रज्जाक ने शांत स्वर में कहा ।
"तब मैं गुस्से में था ।"
"मोहल्ले में मुझे बदनाम किया । इतना सब कुछ करके शीशे के पैसे भी ले लिए । जब शीशा के पैसे लेने ही थे तो फिर मारने और गालियां देने की क्या जरूरत है ताऊ जी ।" अब्दुल रज्जाक मुस्कुरा कर बोला ।
"तब मुझे बहुत गुस्सा आया हुआ था ।" बूढ़ा सुहेल कह उठा--- "अपने मन में कोई बात मत रखना। जब से मेरी पत्नी मरी है, तब से अकेलापन मुझे खाता है और गुस्सा आया रहता है। मैं तेरे को अपने हाथों से चाय बनाकर पिलाता हूं ।"
अब्दुल रज्जाक मुस्कुराया ।
बूढ़ा सुहेल किचन में चाय बनाने चला गया ।
अब्दुल रज्जाक उठा और टी.वी. चला दिया। आवाज कुछ ऊंची रखी। फिर घर में घूमने लगा ।
"तुम पहली बार मेरे घर में आए हो रज्जाक ।" चाय बनाता बूढ़ा सुहेल कह उठा ।
"हां ।" अब्दुल रज्जाक घर के पीछे के हिस्से में पहुंचा जो कि सीमेंट वाला नहीं था । वहां कच्ची जमीन पर छोटे-बड़े पौधे लगा रखे थे । एक बड़ा-सा नीम का पेड़ लगा हुआ था । दीवार के पास कुदाल, कुल्हाड़ी रखी हुई थी । अब्दुल रज्जाक ने कुल्हाड़ी उठाई और उसे जांचा-परखा तभी । बूढ़ा सुहेल वहां पहुंचा और बोला ।
"ये मकान का कच्चा हिस्सा है । मैं ज्यादा से ज्यादा बगीचे में व्यस्त रहने की चेष्टा करता हूं । ठहरो लाइट जलाता...।"
"रोशनी रहने दो ।" अब्दुल रज्जाक ने कहा--- "जरा मेरी बात तो सुनो ताऊ।"
बूढ़ा सुहेल उसके पास पहुंचता कह उठा ।
"चाय बन गई है। यही ले आऊं अब्दुल बेटे ।"
अब्दुल रज्जाक ने हाथ बढ़ाकर कुल्हाड़ी उसकी गर्दन पर रख दी ।
"ये क्या कर रहे...।"
"मेरी बात सुन बूढ़े ।" अब्दुल रज्जाक दांत भींचे गुर्रा उठा--- "तूने मेरे साथ ठीक व्यवहार नहीं किया । सबके सामने बैट से मुझे पीटा । हर तरह की गालियां दीं। ऊपर से कार के शीशे के पैसे भी ले लिए और...।"
"बेटे । उस वक्त मैं गुस्से में था । परंतु तुम इसे मेरी गर्दन से क्यों लगा...।"
"तब तुम गुस्से में थे न ?"
"हां-हां । तब का मुझे सख्त अफसोस...।"
"इस वक्त मैं गुस्से में हूं ।" अब्दुल रज्जाक ने दरिंदगी भरे स्वर में कहा और कुल्हाड़ी को हवा में उठा लिया । इससे पहले कि बूढ़ा सुहेल कुछ समझ पाता कुल्हाड़ी वेग के साथ नीचे आई और गर्दन पर लगी 'खर' ।
कुल्हाड़ी दो इंच गर्दन में धंसती चली गई ।
बूढ़े सुहेल की आंखें फटी-की-फटी रह गई ।
जबकि अंधेरे में अब्दुल रज्जाक वहशी-सा नजर आ रहा था । उसने जोरदार ठोकर बूढ़े सुहेल के पेट में मारी तो वो कटे पेड़ की तरह नीचे जा गिरा। शांत पड़ गया । मर गया था वो ।
"कुत्ता । साला ।" अब्दुल रज्जाक दांत भींचे बड़बड़ाया और कुदाल उठाकर वहां की कच्ची जमीन खोदने लगा ।
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अब्दुल रज्जाक का पूरा शरीर पसीने से भरा पड़ा था । चेहरे और सिर के बालों में भी पसीना बह रहा था । कुदाल और फावड़े से, डेढ़ घंटे की मेहनत के पश्चात उसने मृत पड़े बूढ़े सुहेल की लाश को पिंडली से पकड़ा और घसीट कर लाश को गड्ढे के भीतर लुढ़का दिया। उस मृत शरीर को ठीक से गड्ढे के भीतर फिट किया और फावड़े से गड्ढे में मिट्टी भरने लगा । आधा घंटा लगा कर उसने गड्ढे में मिटटी भरी । इस तरह सारी मिट्टी उसने गड्ढे में अच्छी तरह वापस भर दी। सारा काम अंधेरे में ही किया उसने । फिर जो पौधे खुदाई में उखड़ गए थे वो वापस उसी मिट्टी में लगाकर, थोड़ा-थोड़ा पानी डालकर पौधों को और मिट्टी को सैट किया । वहां की सारी जमीन इस तरह सैट कर दी कि कोई सोच न सके कि मिट्टी के नीचे कोई दफन है । ढाई घंटे वो इसी तरह व्यस्त रहा फिर वो जगह खून से साफ की, जहां बूढ़ा सुहेल गर्दन कटते ही गिरा था। खून से सने कपड़े को साथ ले जाने के लिए एक लिफाफे में भर लिया । कुल्हाड़ी को भी धोया । उस पर से उंगलियों के निशान साफ किए। इसी तरह फावड़े और कुदाल से भी उंगलियों के निशान साफ किए । खून सने कपड़े वाला लिफाफा उठाए, घर में हर उस जगह को साफ किया जहां उसकी उंगलियों के निशान हो सकते थे । ड्राइंग रूम में रखे चाय के प्यालों को किचन में जाकर धोया और उन्हें एक तरफ रख दिया। उसके बाद घर से बाहर निकला ।
रात के साढ़े बारह बज रहे थे। गली सुनसान थी ।
हाथ में दबा खून से सने कपड़े वाला लिफाफा दूर जाकर फेंकना था । इसलिए वो घर की तरफ जाने की अपेक्षा गली के बाहर की तरफ बढ़ गया । तभी अंधेरे में दीवार के साथ खड़ा एक व्यक्ति वहां से हिला और अब्दुल रज्जाक के पीछे चल पड़ा। पीछे से किसी के आने की आहट पाकर चलते-चलते अब्दुल रज्जाक ने गर्दन घुमा कर पीछे देखा ।
"अब्दुल ।" पीछे आने वाला व्यक्ति बोला--- "ये मैं हूं ।"
आवाज पहचानते ही अब्दुल रज्जाक बुरी तरह चौंका ।
"मुनीम खान, तुम ?" उसके होंठों से निकला । वो रुक गया था।
"चलते रहो । गली से बाहर निकलो ।" उसने कहा । वो वापस आ गया था । दोनों गली के बाहर की तरफ बढ़ गए ।
"तुम यहां कैसे ?" चलते-चलते अब्दुल रज्जाक ने धीमे स्वर में कहा--- "फोन कर लेते ।"
"तुम्हारा नम्बर नहीं मिल रहा ।"
"ओह । मेरा फोन टूट गया था । लापरवाही के चलते नया फोन नहीं ले पाया । कहो । मेरे लिए हुकुम ?"
"बुलावा आया है हामिद अली का ।"
"कहां पहुंचना है ?" अब्दुल रज्जाक के होंठों से निकला ।
"दाऊद खेल । आज से पांचवें दिन हामिद अली दाऊद खेल के उसी ठिकाने पर मिलेगा । घर वालों से अच्छी तरह मिला आना । कोई हसरत मन में न रहे। काम खतरनाक है । ज्यादा वक्त लगना तय है । वापसी का कुछ पता नहीं होगा ।"
"देश का काम है ?"
"पूरी तरह ।"
"मैं वक्त पर पहुंच जाऊंगा ।" अब्दुल रज्जाक ने दृढ़ स्वर में कहा ।
"हामिद अली काम के लिए जिन्हे याद करें, वो किस्मत वाले होते हैं ।" मुनीम खान बोला--- "हामिद अली की नजरों में जो चढ़ जाए, वो मशहूर हो जाता है जैसे कि अब तुम हो जाओगे । तुमने अच्छे किस्मत पाई है ।"
"पर हामिद अली ने मुझे देखा कब ? मैं तो उससे मिला नहीं अभी तक । नाम ही सुना है ।"
"हामिद अली की नजर बहुत तेज है। वो उन लोगों को देख लेता है जिनमें पाकिस्तान पर कुर्बान होने का जज्बा होता है। खुशनसीब लोग ही हामिद अली से मिल पाते हैं । हामिद अली ने तुम्हें बुलावा भेजा तो तुम्हारे लिए इससे ज्यादा खुशी की क्या बात हो सकती है। तुम्हारा फोन नहीं लगा तो हामिद अली का संदेश आया कि मैं खुद जाकर पता करूं कि तुम कहां हो।"
"सच। हामिद अली ने ऐसा कहा ?"
"तुमने डेढ़ साल सिविल में ट्रेनिंग लीं। मियांवाली में रहे तुम । हर ट्रेनिंग लेने वाले की फिल्म बनती रहती है । शिविर में हर तरफ कैमरे लगे हैं और हामिद अली ट्रेनिंग की सारी फिल्में देखकर तुमसे बहुत प्रभावित है। वो तुम्हारी बहुत तारीफ करता है ।"
"ओह सच ।" अब्दुल रज्जाक सिर से पांव तक खुशी से कांप उठा--- "मैं हामिद अली से मिलने को उत्सुक हूं ।"
"पांच दिन बाद । दाऊद खेल के ठिकाने पर पहुंचना है तुम्हें । चलता हूं ।" मुनीम खान ने कहा ।
"ये ले जाओ ।" अब्दुल रज्जाक ने हाथ में लिफाफा उसे थमाते हुए कहा--- "इसे कहीं दूर फेंक देना ।"
मुनीम खान ने लिफाफा थामा और सामने खड़ी कार अपनी कार की तरफ बढ़ गया।
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पाकिस्तान का शहर-सरगोधा ।
सरगोधा में व्यस्ततम शहरी इलाके में स्थित फिल्म हॉल के परिसर में युवक चादर का टुकड़ा बिछाए पटड़े पर बैठा था । उसकर हाथ में ताश की गड्डी थी और ऊंचे स्वर में वो एक का दस, एक का दस का बोले जा रहा था । उसका नाम जलालुद्दीन था । ये ही उसका धंधा था। सुबह से शाम तक रोज ही यहां टिका रहता था। उसकी उम्र इक्कीस साल थी। रोज की तरह आज भी वो एक का दस, एक का दस ऊंचे स्वर में कह रहा था।
तभी दो युवक उसके पास पहुंचे ।
"एक का दस क्या है ?" एक ने पूछा ।
उसके मंजे हुए खिलाड़ी की तरफ ताश को फुरेरी दी और कह उठा ।
"बैठिए जनाब । एक का दस मिलेगा । ताश के पत्तों में से कोई भी एक पत्ता मांगिए। अगर वो आपकी तरह आया तो जो रकम आपने लगा रखी होगी, उसका दस गुना ज्यादा आपको दूंगा । दस रुपए का दांव पर लगा है तो सौ दूंगा । मैं तो कहूंगा कि सिर्फ दस का नोट लेकर आइए और करोड़पति बन जाइए। काम-धंधा करने की जरूरत नहीं। घर बैठे आराम से खाइए और बेगम बच्चों को भी खिलाइए ।" उसने पुनः ताश को फुरेरी दी--- "लगाइए साहब, कितना लगाते हैं ?"
"पचास लगाऊं तो जीतने पर पांच सौ मिलेगा ?" उसने पुनः पूछा ।
"बिल्कुल मिलेगा । उस पांच सौ को फिर लगाइए तो पांच हजार मिलेगा। उसके बाद पांच का पचास होगा । एक बार लगा के तो देखिए । ये खेल नहीं, तमाशा है करोड़पति बनने का । एक घंटे में आप इतना कमा सकते हैं, जितना कि साल-भर में कमाते हैं ।" जलालुद्दीन ने फिर से ताश को फुरेरी दी--- "निकालिए पचास और गेम शुरू करते हैं ।"
उस युवक ने पचास का नोट निकाला और मुस्कुरा कर वहीं बैठ गया ।
"ये रहा पचास...।"
दूसरा युवक भी बैठ गया ।
इतने में तीन-चार लोग और वहां पहुंच कर खड़े हो गए ।
"लो जी खेल शुरू हो गया । क्या पत्ता मांगा--- बोल ।" जलालुद्दीन ने ताश को फुरेरी दी।
"चिड़ी का आठ ।"
"चिड़ी का आठ-वाह क्या पत्ता है।" कहने के साथ ही जलालुद्दीन ने ताश को फुरेरी दी और एक पत्ता चादर पर उसकी तरफ रखने लगा, एक पत्ता अपनी तरफ, साथ ही बोलता जा रहा था--- "आठ चिड़ी। आठ का चिड़ी। देखते हैं कि किस्मत खुलती है कि नहीं । पचास रुपया लग गया, आठ चिड़ी पर...और ये रहा आठ चिड़ी का, ले गए, जनाब ले गए । पचास का पांच सौ बनकर ले गए। कंगाल कर दिया जलालुद्दीन को, ले गए भई ले गए ।" कहने के साथ ही जलालुद्दीन ने ताश समेटी और जेब से सौ-सौ के पांच नोट निकालकर उसे दिए और पचास खुद उठा लिए । साथ ही वो बिना रुके बोलता जा रहा था--- "पांच सौ ले गए । अब देखिए ये पांच सौ लगाएंगे और पांच हजार बना लेंगे । आज ये करोड़पति बनकर जाएंगे घर ।"
परंतु वो युवक पांच सौ लगाने पर हिचकिचाया।
"लगा न देखता क्या है ।" जलालुद्दीन ताश को फुरेरी देता बोला।
"म...मैं पचास लगाऊंगा।" वो बोला ।
"फोकट का चार सौ पचास जीता है । लगा दे दांव पर। या तो पांच हजार बनेगा या फोकट के पैसे फोकट में चले जाएंगे। जल्दी से करोड़पति बन जा । पचास के फेर में मत पड़ । लगा-लगा-लगा ।" जलालुद्दीन हंसकर बोला ।
तभी दस-बारह लोगों की भीड़ में से एक ने दस बढ़ाकर कहा ।
"मेरे दस रुपए हुक्म की बेगम पर ।"
जलालुद्दीन ने दस का नोट उठा पकड़कर चादर पर रखा और बोला ।
"जल्दी करो । जल्दी करो । मौका है नोट कमा लो । जलालुद्दीन पेरिस जा रहा है । फिर मौका नहीं...।"
"मेरे भी दस लगाना ।" एक और बोला ।
"लगा लो । जलालुद्दीन पेरिस चला गया तो करोड़पति बनने से चूक जाओगे । लगा...।"
तभी पांच सौ जीतने वाला युवक बोला ।
"ये लो पांच सौ । हुक्म की बेगम पर मेरे भी पांच सौ लग गए।"
"चादर पर रख दे ।" जलालुद्दीन ने कहा और ऊंचे स्वर में कहने लगा--- "जल्दी से लगा दो । कल मौका नहीं मिलेगा । पेरिस जा रहा है कल जलालुद्दीन । आज ही मौका है करोड़पति बनने का। कोई नहीं है और--- ठीक है । तुम दोनों ने हुक्म की बेगम मांगी और तुमने क्या मांगा--- बोलो, बोलो ।"
"मेरी भी हुकुम की बेगम ।"
"लुट गया जलालुद्दीन । तीनों ने हुक्म की बेगम मांग ली ।" उसके साथ ही उसने अपने अंदाज में ताश को फुरेरी दी और दो जगह पत्ते बांटता ऊंचे स्वर में कहता जा रहा था---- "हुक्म की बेगम। हुक्म की बेगम । आज लूट लो जलालुद्दीन को। कल पेरिस जा रहा है जलालुद्दीन। आज मौका है करोड़पति बनने का। जल्दी लगाओ, जल्दी लगाओ । हुक्म की बेगम अभी तक बाहर नहीं निकली। गड्डी में ही है। देख लो, देख लो, अभी बाहर निकलेगी और जलालुद्दीन लुट जाएगा । आज तो मेरी मां ने मुझे नहीं छोड़ने वाली की हुक्म की बेगम पर तीनों दांव क्यों लगा...ये आ गई हुक्म की बेगम और मेरे पाले में आई। हो गया काम । जलालुद्दीन का टिकट कट गया पेरिस का ।" उसने नीचे पड़े नोटों की को अपनी तरफ सरकाया और पत्ते इकट्ठे करके गड्डी फेंका फिर कह उठा--- "लगाओ, लगाओ और लूट लो जलालुद्दीन को । करोड़पति बनने का मौका आज का ही है। कल जलालुद्दीन तो चला पेरिस। मौके का फायदा उठाओ और...।"
"मेरा सौ रुपए, हुक्म की बेगम पर ।" पचास रुपए लगाने वाला युवक सौ का नोट निकालकर बोला ।
"लग गए। लग गए सौ रुपए लग गए। और लगाओ, आप लोग भी लगाओ, ज्यादा नहीं तो दस ही लगाओ। मौका है लूट लो। जलालुद्दीन को लूट लो । बैंक लूटने से उतना पैसा नहीं मिलेगा, जितना कि जलालुद्दीन को लूटने से मिलेगा । कल जलालुदीन पेरिस जा रहा है आज का दिन बाकी...।"
"मेरे दस रुपए हुक्म की बेगम पर ।" एक अन्य युवक दस का नोट चादर पर रखता कह उठा ।
"लग गए। दस और लग गए। हुक्म की...।"
"मेरे पचास हुक्म की बेगम पर ।" एक व्यक्ति पचास का नोट चादर पर रखता कह उठा ।
"तीनों, हुक्म की बेगम मांग रहे हैं। हुक्म की बेगम तो दुश्मन बन गई जलालुद्दीन की । तीनों, हुक्म की बेगम पर । असल जिंदगी में हुक्म की बेगम मिल गई तो जलालुद्दीन बर्बाद हो जाएगा । लगाओ, लगाओ, आप भी...।"
"मेरे दस हुक्म की बेगम पर ।" एक अन्य दस रुपए रखता कह उठा ।
"हुक्म की बेगम ने जलालुद्दीन को लूट...।"
कहते-कहते जलालुद्दीन ठिठका। उसकी निगाह छः कदमों के फासले पर खड़े एक सिपाही पर पड़ी जो डंडा थामें उसे घूर रहा था । जलालुद्दीन चंद पल के लिए बड़बड़ा उठा ।
"आ, जाओ । जल्दी करो ।" जलालुद्दीन पुनः बोल पड़ा--- "खेल शुरू होने जा रहा है। चार-चार दांव लगे हैं हुक्म की बेगम पर। लूट लो जलालुद्दीन को। जलालुद्दीन पेरिस जा रहा है। लूट लो ।" कहते-कहते जलालुद्दीन की निगाह पुनः सिपाही पर पड़ी । दोनों की निगाहें मिली। सिपाही ने उसे आंख का हल्का-सा इशारा किया ।
जलालुद्दीन सिर हिलाकर कह उठा ।
"लो जी। शुरू हो रहा है एक बार फिर खेल ।" कहने के साथ ही उसने गड्डी को फेंटा और फिर फुरेरी देकर दो जगह पत्तों को बांटने लगा । अपनी तरफ और सामने की तरफ--- "हुकुम भी बेगम के जाल में फंसने जा रहा है जलालुद्दीन । मां ने कहा था कि औरतों के चक्कर में मत पड़ना पर ये हुक्म की बेगम बार-बार मेरे गले पड़ रही है। अब देखते हैं किसके गले पड़ेगी । आज लूट लो जलालुद्दीन को, कल पेरिस जा रहा है जलालुद्दीन । पायलट पास खड़ा है जहाज के । पासवर्ड मांग रहा है ।" कहने के साथ ही जलालुद्दीन ने एक तिरछी निगाह सिपाही पर मारी--- "एक का दस-एक का दस। सौ के हजार । दस के सौ। पचास के पांच सौ--- जलालुद्दीन का होने वाला है काम तमाम । हुक्म की बेगम, हुक्म की बेगम--- आई नहीं आई अभी तक हुक्म की--- आ गई । मेरे पाले में आ गई । आज तो बेगम मेहरबान है जलालुद्दीन पर ।" कहते हुए उसने सारे नोट अपनी तरफ सरकाकर फिर नोटों को अपनी जेब में डालता कह उठा--- "लगा लो, लगा लो । एक का पांच एक का पांच। लूट लो जलालुद्दीन को। कल जलालुद्दीन पेरिस जा रहा...।"
"मेरा सौ रुपए-हुक्म की बेगम पर ही ।" वो ही, सौ लगाने वाला युवक फिर मैदान में आ गया ।
"लग गए सौ हुक्म की बेगम पर । लगाओ-लगाओ । एक का दस-एक का...।"
"मेरे दस । हुक्म की बेगम पर ही ।"
"मेरे पचास ।"
"मेरे भी पचास ।"
"मेरे दस ।"
आनन-फानन आठ लोगों ने हुक्म की बेगम पर पैसे लगा दिए ।
जलालुद्दीन की हाथ की मशीन चल रही थी ।
मुंह की मशीन चल रही थी । चोर निगाहों से वो उस सिपाही को भी देख लेता था जो उसे घूरता फिर अपनी जगह पर टिका हुआ था ।
■■■
एक घंटे बाद जलालुद्दीन को फुर्सत मिली तो सिपाही को देखा।
सिपाही ने आंख से इशारा किया पीछे आने का और खुद एक तरफ चल पड़ा ।
"उल्लू का पट्ठा ।" जलालुदीन बड़बड़ाया और ताश की गड्डी को जेब में रखा फिर वो चादर का छोटा-सा टुकड़ा उसे झाड़ा और तह लगाता उस तरफ चल पड़ा जिधर सिपाही जा रहा था।
सिनेमा हॉल की बगल में आठ फुट चौड़ी गली थी । जहां दो-तीन दुकानें थी । पान-बीड़ी की दुकानें और खाने-पीने के सामान की दुकान थीं।
सिपाही चाय की दुकान में जा घुसा । वो छोटी-सी दुकान थी । तीन टेबल बिछे थे उधर और बैठने के लिए बैंच थे। सिपाही कोने में जा बैठा। जलालुद्दीन ने भीतर प्रवेश किया और छोटी-सी टेबल पर उसके सामने बैठा और दांत फाड़कर सिपाही को देखा फिर गर्दन घुमा कर दुकान वाले से बोला ।
"साहब के लिए चाय । दो मट्ठी, दो फैन ।"
"मट्टी-फैन नहीं चलेगा ।" सिपाही बोला--- "आमलेट मंगवा ।"
"इधर तो आमलेट नहीं...।"
"वो साथ वाली दुकान से मंगवा लेगा । उसे कहकर तो देख ।" सिपाही ने कहा ।
"मट्ठी-फैन आर्डर कैंसिल ।" जलालुद्दीन सिर घुमा कर बोला-"एक-एक अंडे के दो आम...।"
"मैं दो अंडे का खाऊंगा ।" सिपाही बोला ।
"दो का भारी हो जाएगा ।"
"तू चार का खिला, मेरे लिए वो भी हल्का रहेगा ।"
"मैं तो अपने लिए भारी कह रहा था ।" फिर जलालुद्दीन ने ऊंचे स्वर में कहा--- "दो अंडों का एक आमलेट । एक का एक । बढ़िया बनाना । साहब ने खाना है । साहब को पसंद नहीं आया तो पैसे नहीं मिलेंगे ।"
फिर जलालुद्दीन ने गर्दन घुमाकर सिपाही को देखा और मुस्कुरा कर बोला ।
"हुकुम माई बाप ।"
सिपाही ने उसे घूरा ।
"गुस्ताखी हो गई क्या ?" जलालुद्दीन बराबर मुस्कुरा रहा था--- "दो अंडों का आमलेट आ रहा है ।"
"मैंने कल तेरे को कहा था कि इधर पत्तों की दुकान नहीं...।" सिपाही बोला ।
"दुकान नहीं लगाऊंगा तो जलालुद्दीन भूखा मर जाएगा ।"
"तो हफ्ते का पांच सौ क्यों नहीं देता ?"
"पांच सौ तो बहुत ज्यादा है । कह तो चुका हूं । मेरा तो मामूली-सा काम है, मैं कैसे...।"
"सौ रुपया हफ्ता देता रहा है न ?"
"वो तो मैं अब भी...।"
"अब सौ नहीं, पांच सौ देना होगा । थाने में भी खर्चा देना होता है। साब ने महीना भर पहले ही थाने का चार्ज संभाला है। इस थाने को पाने के लिए साब ने पचास लाख की रिश्वत दी है । वो भी तो पूरी करनी है ।"
"साब की बीवी को बच्चा होने वाला है तो जलालुद्दीन क्या करेगा इसमें। जिसका बच्चा वो ही संभाले ।"
सिपाही ने उसे घूरा ।
"साब जी। पांच सौ रुपया हफ्ता नहीं दे सकता । कभी-कभी तो पत्ते ऐसे उलटे पड़ते हैं कि जेब खाली हो जाती है ।"
"मैं सब जानता हूं । तुम्हारी जेब कभी खाली नहीं होती । तुम रोज के हजार से ज्यादा कमा जाते हो ।" सिपाही ने तीखे लहजे में कहा--- "पांच सौ रुपया हफ्ता तो बहुत कम है। रोज का पांच सौ तुम से लेना चाहिए ।"
तभी छोकरा ऑमलेट रख गया दो प्लेटों में। सिपाही ने दो अंडे वाला आमलेट अपनी तरफ खिसकाया और खाने लगा । जलालुद्दीन ने उखड़े भाव से अपने आमलेट वाली प्लेट भी उसकी तरफ सरका दी ।
"ये भी तुम ही खा लो ।"
सिपाही ने खामोशी से वो प्लेट भी अपनी तरफ खिसका ली ।
छोकरा दो चाय रख गया ।
जलालुद्दीन ने चाय का गिलास उठाया और घूंट भरा । वो चुप था ।
आमलेट खाते सिपाही ने कहा ।
"अब पांच सौ देना ।"
"नहीं दे सकता मैं धंधा बंद कर रहा हूं । कोई और ठिकाना तलाश कर लूंगा ।" जलालुद्दीन ने नाराजगी से कहा ।
"यहां तेरा जमा-जमाया धंधा है । इतने नोट तेरे को दूसरी जगह नहीं मिलेंगे। सिपाही बोला ।
"माई बाप । मैं पांच सौ रुपए हफ्ता नहीं दे सकता ।" जलालुद्दीन ने कहा--- "पांच सौ रुपए दिया तो जलालुद्दीन लुट जाएगा । बर्बाद हो जाएगा । मेरा धंधा तो नोटों से चलता है। नोट ही दे दूंगा तो कमाऊंगा कहां से । ये नहीं हो सकता ।" उसने इंकार में सिर हिलाया ।
बातों के दौरान सिपाही आमलेट खाता जा रहा था ।
"तूम मुझे बेवकूफ नहीं बना सकते--- तुम...।"
"माई बाप । मुझे साब के पास ले चलो। जलाउद्दीन साब के पैर पकड़कर सबको मुफ्त में तैयार कर लेगा । जलालुद्दीन को देखकर साहब सौ रुपया हफ्ता भी नहीं लेंगे । जलालुदीन तब तक उनके पांव नहीं छोड़ेगा जब तक साब अपना हाथ मेरे सिर पर नहीं रख...।"
"अब तू मेरे पेट पर लात मारेगा ।" सिपाही बोला।
"जलालुद्दीन तो साब के पांव पकड़ रहा है, आपका पेट नहीं। जलालुद्दीन को एक बार आपके साब के पांव पकड़ने का मौका तो दो फिर... ।"
"मैं तेरी बातों में नही फंसने वाला ।" एक प्लेट खाली करके, सिपाही दूसरी प्लेट अपनी तरफ सरकाता कह उठा---"तेरे को यहां धंधा करना है तो पांच सौ रुपया हफ्ता मुझे देना होगा। नहीं तो नहीं, समझा न ।"
जलालुद्दीन उठ खड़ा हुआ ।"
सिपाही ने दूसरा आमलेट खाते हुए उसे देखकर कहा।
"उठ क्यों गया ?"
"जा रहा हूं । मैं सौ रुपए हफ्ता से ज्यादा नहीं दे सकता । गरीब बंदा हूं " जलालुद्दीन बोला ।
"यहां तेरा धंधा जमा-जमाया है। दूसरी जगह धंधा जमाने मैं वक्त लगेगा । दूसरी जगह शायद धंधा जमे भी नहीं ।"
"अल्लाह मालिक है । वो सबको रोटी देगा। पेट भरेगा । आज मेरे शरीर पर पर मिलिट्री की वर्दी होती अगर मेरा अब्बा जिंदा रहता । फलों की रेहड़ी लगाता था। तब मैं आठवीं में पढ़ता था और मुझे फौज में जाने का भूत सवार था ।अब्बा फल बेच कर मुझे पढ़ाता था कि किसी तरह मैं गयारहवीं क्लास कर लूं और फौज में भर्ती हो जाऊं, पर एक ट्रक ने अब्बा को फलों की रेहड़ी, ले जाते समय टक्कर मार दी । अब्बा ट्रक के नीचे आकर कुचल गया और मेरी पढ़ाई रुक गई । मिलिट्री में जाने का मेरा सपना, सपना ही रह गया ।"
"ये बात कहने का क्या मतलब है ?" खाते-पीते सिपाही बोला।
"दिल की बात थी बता दी। देश के लिए कुछ कर गुजरने का मन था जलालुद्दीन का, और अब पत्तों का खेल खेलकर पेट भरता...।"
"तेरी इन बातों से हफ्ता कम नहीं होने वाला है । गैर-कानूनी काम करेगा तो उसका भुगतान करना पड़ेगा । पांच सौ रुपया हफ्ता ।"
"जलालुद्दीन जा रहा है माई बाप ।"
"तू पहले भी दो बार इसी तरह जा चुका है और अगले दिन फिर आ जाता है ।"
"अब नहीं आऊंगा ।" कहकर जलालुद्दीन जाने को पलटा ।
"आमलेट के पैसे देते जाना ।"
तीन कदम आगे बढ़कर दुकान वाले को आमलेट और चाय के पैसे देकर जलालुद्दीन बाहर निकल गया ।
"बात नहीं बनी ?" चाय वाले ने सिपाही से पूछा ।
"बन जाएगी ।" सिपाही मुस्कुराया--- "ये बहुत शातिर है । धीरे-धीरे काबू में आएगा ।"
■■■
वो कच्चा घर था। जमीन ज्यादा थी, परंतु जहां दो कमरे बने थे । कमरों के भीतर तो पलस्तर किया हुआ था परंतु बाहर की दीवारों पर नहीं था । खुले में ही छोटा-सा किचन था । उसका भी ऐसा ही हॉल था । छत पर लोहे की चादरें डाल रखी थी । ऐसा ही हॉल छोटे से बाथरूम का था । ये जलालुद्दीन का घर था, जहां वो अपनी मां के साथ रहता था । आस-पास भी कुछ कच्चे घर थे तो कुछ बढ़िया मकान भी बने हुए थे । ये जगह कभी उसके अब्बा ने ली थी । आज इस जगह का भाव ज्यादा हो चुका था ।
शाम को जलालुद्दीन ने घर में प्रवेश किया ।
"आ गया जलु ।" मां प्यार से उसे जलू कहती थी ।
"हां अम्मी ।" जलालुद्दीन ने गहरी सांस ली--- "चाय तो दे ।" कहकर वो बाहर ही पड़ी चारपाई पर बैठ गया ।
"कुछ कमा के लाया है या ऐसे ही आ गया ? अम्मी ने प्यार से पूछा ।
"चार-पांच सौ रुपया का बना लाया हूं मां ।" जलालुद्दीन ने जेब से ताश की गड्डी निकालकर पास ही रख दी ।
पांच मिनट में मां चाय बना लाई ।
जलालुदीन ने चाय का गिलास लेकर घूंट भरा।
"दुकान से दाल, चावल, आटा ले आ । खत्म हो रहा है सब ।"
"अभी ला देता हूं ।"
"अब तू ठीक कमा लेता है । घर-परिवार संभाल लेगा । निकाह की बात चलाऊं । तेरी मौशी की...।"
"निकाह की बात मत कर ।" जलालुदीन चाय वाला गिलास लाकर बोला--- "अभी बहुत कुछ करना है मैंने ।"
"क्या बहुत कुछ ?"
"तेरे को बताया था न कि मैं फौज की ट्रेनिंग लेकर आया हूं ।"
"जब तू डेढ़ साल के लिए घर से चला गया था ।" अम्मी ने कहा।
"हां । तब मैंने फौज की पूरी ट्रेनिंग ली थी । ट्रेनिंग देने के बाद उन्होंने घर भेज दिया था कि जरूरत पड़ने पर बुला लेंगे । छः महीने पहले ही तो वापस आया था मैं । जब वे मुझसे फ़ौज का काम लेंगे तो पैसे भी देंगे । वो पैसे मैं तुम्हें दे जाऊंगा अम्मी और...।"
"मैं तो चाहती हूं कि तू घर बसा ले। निकाह कर ले, तभी...।"
"अम्मी । तुम तो जानती हो कि फौज से मुझे कितना प्यार है। अब्बा को ट्रक ने न मारा होता तो मैं आज फौजी होता। मैं अपने देश के लिए कुछ करना चाहता हूं। ट्रेनिंग देने वाले मुझे ऐसा मौका देंगे तो मैं पीछे नहीं हटूंगा ।"
"तेरी बातें तो मेरी समझ से बाहर हैं । अगर वो मिलिट्री वाले हैं तो तुझे नौकरी क्यों नहीं दे देते ?"
"तुम नहीं समझोगी अम्मी । ये बातें मेरे लिए ही रहने दो ।" जलालुद्दीन मुस्कुरा पड़ा ।
■■■
अगले दिन ।
वो ही सिनेमा हॉल। वो ही जगह। जलालुद्दीन रोज की तरह अपनी दुकान खोले कह रहा था।
"आओ साहेबान। एक का दस , एक का दस। करोड़पति बनिए। जलालुद्दीन को लूट लीजिए । दस लगाइए और सौ ले जाइए । पचास लाइए, पांच सौ ले जाइए। पांच हजार लगाइए और पचास हजार ले जाइए। एक का दस-एक का दस। बहुत ईमानदारी से खेला जाता है ये खेल। ताश के पत्ते ही फैसला करते हैं कि कौन लुट जाएगा और कौन करोड़पति बन जाएगा। एक का दस। आज आखरी मौका है करोड़पति बनने का । कल जलालुद्दीन पेरिस जा रहा है । मौका मत चूकिए और दस का नोट लगाकर सौ रुपए ले जाइए। काम करने की कोई जरूरत नहीं । खुद भी घर बैठकर खाइए और बेगम को भी घर बैठा कर खिलाइए । नौकरी-बिजनेस का झंझट छोड़िए और यहां पैसे लगाइए । करोड़पति बन कर जाइए। जलालुद्दीन को लूट लीजिए। आइए, आइए, फटाफट आइए...।"
इतने में ही पांच-सात लोग वहां इकट्ठे हो गए थे।
"मेरे दस पान की तिग्गी पर ।" एक ने दस रुपए रख कर कहा ।
"आओ भाइयों, खेल शुरू होने जा रहा...।"
मेरे भी दस ईंट के नहले पर ।"
"लो भाई लग गया माल। लग गया, जलालुद्दीन को लूट लो। कल पेरिस जा रहा है जलालुद्दीन। आज आखिरी मौका...।"
"मेरे बीस ।" एक और ने दस-दस के नोट रखे--- "बादशाह चिड़ी की ।"
"बीस भी लग गए । और लगाओ, जल्दी लगाओ ।" जलालुद्दीन ताश के गड्डी फेंटने लगा--- "एक का दस मिलेगा। एक का दस मिलेगा। लूट लो जलालुद्दीन को । कल पेरिस जा रहा है जलालुद्दीन...।"
तभी जलालुद्दीन को अपने पीछे किसी के खड़े होने का एहसास हुआ ।
जलालुद्दीन ने फौरन गर्दन घुमाई।
कल वाले सिपाही को ठीक अपने पीछे खड़ा पाया ।
"माई बाप ।" जलालुद्दीन के होंठों से निकला।
"वो सिपाही सामने आता वहां खड़े लोगों से झिड़ककर बोला ।
"भागो यहां से, वरना अंदर बंद कर दूंगा ।" कहते हुए झुककर उसने नीचे रखे चालीस रुपये अपनी जेब में रखे ।
"माईबाप ।" जलालुद्दीन पर हड़बड़ा कर बोला--- "मेरा धंधा क्यों खराब कर रहे हो ?"
वहां खड़े लोग तुरंत उधर से खिसक गए थे ।
"तूने बोला था कि कल नहीं आएगा ।" सिपाही बोला ।
"वो तो गुस्से में कह दिया था। आमलेट खिलाऊं आज....।"
"तेरे को पता है ना कि मैंने क्या खाना है।" सिपाही धीमे स्वर में कह उठा ।
"पांच सौ हफ्ता ?"
"हां ।"
"दूंगा ।"
"अभी दे ।"
"शाम को दूंगा माईबाप । कमा कर दूंगा । नोटों से ही तो नोट बनाता हूं ।" जलालुद्दीन मुस्कुराया--- "पक्का दूंगा ।"
"नहीं दिए तो थाने ले जाऊंगा । बंद कर दूंगा अंदर ।"
"ये नौबत ही नहीं आएगी । शाम को पक्का दे दूंगा । दोबारा माईबाप को शिकायत कभी नहीं होगी ।"
"शाम को देखूंगा तेरे को ।" कहकर सिपाही जाने लगा ।
"माईबाप वो चालीस रुपए। वो तो लोगों के हैं। उन्हें नहीं दिए तो बेईमानी होगी ।"
सिपाही ने उखड़े अंदाज में जेब से चालीस रुपए निकाल कर चादर पर फेंके और आगे बढ़ गया ।
"आ जाओ । आ जाओ ।" जलालुद्दीन ताश की गड्डी फेंटते ऊंचे स्वर में कह उठा--- "एक का पांच, एक का पांच...।"
जो लोग उसके पास से खिसक कर दूर जा खड़े हुए थे वो फिर वहां पहुंच गए
जलालुद्दीन का धंधा फिर से चालू हो गया ।
■■■
शाम पांच बजे जलालुद्दीन ने चादर समेटी और दुकानें बंद हो गई । परंतु आज उसके चेहरे पर गंभीरता नजर आ रही थी । चादर तह लगाते समय उसकी निगाह सिपाही की तलाश में इधर-उधर घूम रही थी। परंतु वो कही नहीं दिखा। जलालुद्दीन वहां से हटा और चादर बगल में दबाए फुटपाथ के उस तरफ बढ़ गया, जहां एक चाय वाला बैठा था ।
"चाय बना दे।" जलालुद्दीन फुटपाथ के किनारे चादर रखकर उस पर बैठता कह उठा।
चाय वाले ने उसे देखा और चाय बनाने की तैयारी करता कह उठा ।
"कमाया कुछ, या सारा गवां दिया ?"
"कमाया चचा । जलालुद्दीन ने कभी हारना नहीं सीखा। ताश का खेल हो या कोई दूसरा खेल ।" जलालुद्दीन मुस्कुराया ।
"आजकल सिपाही बहुत तंग कर रहा है। कहता है पांच सौ रुपए हफ्ता लेगा नहीं तो दुकान उठा लो ।"
"तेरी ऐसी क्या कमाई है जो पांच सौ उसे दे पाएगा ।"
"वो ही तो । सिपाही को बहुत समझाया। दो सौ रुपया देने की हामी भरी, पर नहीं मानता वो ।" चाय वाले ने कहा।
जलालुद्दीन चुप रहा ।
"तू कितना देता है ?"
"पहले सौ । अब पांच सौ ।" जलालुद्दीन का स्वर शांति था ।
"तेरे को तो पड़ता खा जाएगा पांच सौ । लेकिन मैं कहां से दूंगा। चीनी और चाय-पत्ती के रोज के रोज दाम बढ़ रहे...।"
"देख चचा। सिपाही को चीनी-पत्ती के दाम से कोई मतलब नहीं । उसको तो पांच सौ हफ्ता चाहिए। धंधा चालू रखना है तो रखो, नहीं तो मत रखो । उसे कोई फर्क नहीं पड़ेगा । यहां से कोई जाएगा दूसरा आ जाएगा पटड़ी लगाने । उसका काम तो चलेगा ही ।"
"तू कह उसे मेरे से कम ले ले ।"
"मेरी बात नहीं मानेगा । तू ही करना ।" जलालुद्दीन ने कहा ।
उसने चाय बनाकर जरूर जलालुद्दीन को दी ।
जलालुद्दीन चाय के घूंट भरता, नजरें दौड़ाता रहा परंतु सिपाही नहीं दिखा। चाय पीने के बाद पैसे देकर वो वहां से उठा और चादर बगल में दबाकर चाय वाले को पैसे दिए और वहीं टहलने लगा ।
आधे घंटे बाद उसे सिपाही चौराहे की तरफ आता दिखा ।
जलालुद्दीन गंभीर निगाहों से उसे देखता रहा ।
वो सिनेमा हॉल के परिसर में ठिठककर नजरें घुमाने लगा । शायद उसे ही ढूंढ रहा था ।
जलालुद्दीन जानता था कि उसे ही ढूंढ रहा है वो।
जलालुद्दीन को गया पाकर सिपाही वहां से हटा और एक तरफ बढ़ गया ।
तभी जलालुद्दीन ने अपनी जगह छोड़ी और सिपाही की तरफ बढ़ गया। कुछ ही कदम आगे गया होगा कि सिपाही की निगाह उस पर पड़ गई । वो ठिठककर उसे देखने लगा । जलालुद्दीन पास पहुंचकर मुस्कुराकर कह उठा ।
"कहां चले गए थे माई बाप । मैं तो आपको ही देख रहा था ।"
"पांच सौ निकाल ।"
जलालुद्दीन जेब से ताश की गड्डी निकालता कह उठा ।
"पत्ता खींचोगे माई बाप ।"
"क्या ?" सिपाही के माथे पर बल पड़े ।
"पत्ता खींचो ।" जलालुद्दीन मुस्कुराया--- "दहले तक कोई भी पत्ता निकाला तो पांच सौ का डबल दूंगा। दहले से ऊपर का पत्ता निकला तो इस हफ्ते का पांच सौ गया । डबल कमाने का बढ़िया मौका दे रहा हूं माई बाप ।"
सिपाही ने उसे घूरा ।
जलालुद्दीन मुस्कुराता हुआ उसे देखता रहा फिर कह उठा ।
"दांव लगाओ माई बाप। जिंदगी में वो ही बड़ा बनता है जो दांव लगाता है। जुआ खेलता है। सीधी जिंदगी जीने वाला कभी बड़ा नहीं...।"
"तू मेरे को चूतिया बनाता है ।"
"ऐसा नहीं माई बाप ।" जलालुद्दीन जल्दी से बोला--- "मैं तो रकम डबल करने का मौका दे रहा हूं । सरकार छः साल लगाती है रकम डबल करने में। पर मैं तो हाथों-हाथ डबल का मौका दे रहा हूं । इधर पत्ता खींचो तो उधर ।"
"पांच सौ दे ।" सिपाही कठोर स्वर में बोला ।
"रकम डबल नहीं करनी ?"
"पांच सौ दे और फुट ले ।" सिपाही गुस्से में आ गया था ।
"ठीक है ।" जलालुद्दीन ताश की गड्डी जेब में रखता कह उठा--- "आठ बजे किधर मिलेगा । किधर आऊं ?"
"क्या मतलब ?"
"आज खाली हो गया । सब हार गया । माई-बाप का पांच सौ आठ बजे तक लेकर आता...।"
"तू मेरे साथ खेल, खेल रहा...।"
"नहीं माई बाप। कसम से। आज जलालुद्दीन खाली हो गया । आपका पांच सौ मैं आठ बजे तक लेकर ।"
"मैं चौराहे पर मिलूंगा--- उधर ।"
"समझ गया । चौराहे पर सबके सामने पांच सौ दूंगा तो ठीक नहीं लगेगा माई बाप । चौराहे पर फजलु होटल के पीछे वाली गली में आ जाना । ठीक आठ बजे मैं वहीं मिलूंगा। दो हफ्ते का हजार रुपया आज ही दे दूंगा ।"
■■■
जलालुद्दीन कहीं गया नहीं था, वहीं आसपास ही घूमता रहा था। उसे आठ बजने का इंतजार था। अंधेरा हो जाने का इंतजार था। साढ़े सात के बाद अंधेरा होना शुरू हो जाता था और आठ बजे तक पूरा अंधेरा छा जाता था। जलालुद्दीन के दिमाग में बहुत खतरनाक योजना जन्म ले चुकी थी। परंतु उस योजना का असर उसके चेहरे पर नहीं आया था। ये ही तो उसमें खास बात थी कि मन की बात उसकी इच्छा के बिना चेहरे पर नहीं आती थी। साढ़े सात बजे उसने एक दुकान पर जाकर दो समोसे खाए और चाय पी। इतने में ही आठ बज गए तो वो चौराहे की तरफ बढ़ गया ।
चौराहे पर ही फजलू का होटल था । ऊपर कमरे थे नीचे खाने का रेस्टोरेंट था । परंतु होटल के पीछे वाली गली तंग थी और वो खाली रहती थी, क्योंकि गली के दूसरी तरफ स्कूल की ऊंची दीवार थी। रात के समय तो वैसे भी ये गली अंधेरे में डूबी रहती थी, क्योंकि दो सौ फुट लंबी गली में कहीं भी लाइट नहीं लगी थी। ऐसे में अंधेरा हो जाने के बाद कोई भी इस गली से निकलना पसंद नहीं करता था । जलालुद्दीन जानता था ये बात तभी उसने ये गली चुनी थी । चौराहा पार करके जब जलालुद्दीन गली की तरफ बढ़ा तो गली के किनारे अंधेरे में कोई खड़ा दिखा। थोड़ा पास आने पर जलालुद्दीन ने उसे पहचाना कि ये वो ही सिपाही है। अंधेरे में जलालुद्दीन के चेहरे पर कड़वे भाव उभरे। वो पास पहुंचा तो तब इस तरफ कोई भी नहीं दिखा। वो गली में प्रवेश करता बोला ।
"मैं पैसे ले आया माई बाप। जरा इधर आ जाओ ।"
सिपाही गली में प्रवेश कर गया ।
"लाओ ।" सिपाही बोला--- "हजार रुपया लाए हो न ?"
"पूरा हजार है ।" जलालुद्दीन गली के भीतर की तरफ बढ़ता कह उठा--- "सौ के दस नोट हैं।"
"आगे कहां जा रहे हो ।" सिपाही झल्लाया--- "हजार रुपया दो। मुझे अभी ड्यूटी देनी है ।"
"धंधे की बात करनी है माई बाप ।" आगे बढ़ता जलालुद्दीन बोला--- "एक नया धंधा है। बहुत अच्छी पैदा होगी उसमें। आपको भी तगड़े नोट मिलेंगे और मेरा भी भला हो जाएगा ।"
"अच्छा । ऐसा कौन सा धंधा है।" सिपाही उत्सुक स्वर में कह उठा ।
वे अब तक पचास कदम गली के भीतर आ चुके थे। वहां उनके अलावा कोई नहीं था। अंधेरा इतना गहरा था कि वो एक-दूसरे का का चेहरा भी नहीं देख पा रहे थे। जलालुद्दीन रुक गया ।
सिपाही भी रुका ।
"पहले हजार रुपए दे। फिर तेरे नए धंधे के बारे में सुनता हूं ।" उसने कहा ।
"आप तो ड्यूटी पर हैं माई बाप। जल्दी जाना होगा ।" जलालुद्दीन के स्वर में मुस्कान थी ।
"इतनी भी जल्दी नहीं है कि तुम्हारे नए धंधे की बात न सुन...।"
"लेकिन मुझे जल्दी है माई बाप।" जलालुद्दीन ने अपने दोनों हाथ उठाए और हथेलियां सिपाही के दाएं-बाएं की कनपटी पर टिका दीं।
"ये क्या कर रहा...।" सिपाही ने बड़बड़ाकर कहना चाहा ।
"चुप कर भूतनी के ।" जलालुद्दीन के होंठों से एकाएक वहशी गुर्राहट निकली--- "तू ये ही जानता है कि मैं पत्ते लगाने वाला हूं । लेकिन मैं ऐसा नहीं हूं । मैंने मिलिट्री की डेढ़ साल की ट्रेनिंग ले रखी है और तेरे से बड़ा देशभक्त हूं मैं। तू वर्दी पहन कर रुपए की उगाही करता है गरीबों से। ये सेवा करता है तू अपने वतन पाकिस्तान की ।"
सिपाही हक्का-बक्का रह गया । शरीर में तेज सिरहन दौड़ गई।
जलालुद्दीन की दोनों हथेलियों के बीच उसका सिर था ।
"म...मुझे जाने दो ।" जलालुद्दीन का बदला रूप देकर सिपाही दंग रह गया था।
"मेरे पैसे, मेरी कमाई तेरे को क्यों दे जलालुद्दीन अपनी कमाई। वर्दी पहन कर तेरे को गुंडागर्दी करने का लाइसेंस मिल गया है न ये ही बात। लाइसेंस जलालुद्दीन कैंसिल करता है ऑन द स्पॉट। मैं तेरे को अभी ड्यूटी से हटाता हूं ।"
"म...मैं तेरे से पैसे नहीं लूंगा। मैं...।"
"मिलिट्री की ट्रेनिंग के वक्त हमें सिखाया गया था कि किस तरह दो हथेलियों में किसी का सिर दबा कर उसकी जान ली जा सकती है ।" जलालुद्दीन की आवाज में दरिंदगी भरी हुई थी--- "तब हमें बकरियों और बकरों के सिर पर ट्रेनिंग दी गई थी ये, परंतु आज मैं ये ट्रेनिंग तेरे सिर पर चैक करूंगा।"
"न...नहीं, ये तुम क्या कर...।"
तभी जलालुद्दीन ने दोनों हथेलियों के बीच फंसे उसके सिर को, कंपनियों को दबाना शुरू कर दिया। सिपाही तड़पा। उसने अपना सिर आजाद कराना चाहा। जलालुद्दीन के पेट में दो-तीन घूंसे भी मारे। परंतु जलालुद्दीन पर घूंसे का कोई असर नहीं हुआ। उसका दबाव बढ़ता ही जा रहा था। सिपाही की आंखों के आगे अंधेरा छा गया। वो बुरी तरह तड़प उठा। उसका सिर जलालुद्दीन की दोनों हथेलियों के बीच इस तरह फंसा पड़ा था जैसे लोहे का शिकंजा वहां जड़ गया हो । सिपाही जोरों से तड़प रहा था कि एकाएक उसका तड़पना धीमा होने लगा। फिर बीतते पलों के साथ तड़पना बिल्कुल थम गया। सिपाही का शरीर अब सिर्फ जलालुद्दीन की हथेलियों के सहारे ही खड़ा था। एकाएक जलालुद्दीन ने उसी प्रकार उसके शरीर को जमीन से छः इंच ऊपर उठाया तो उसकी टांगे निर्जीव-सी होकर लटकने लगी।
जलालुद्दीन ने उसकी कनपटियों से हथेलियां हटा लीं।
'धड़ाम' से सिपाही का शरीर नीचे जा गिरा ।
जलालुद्दीन की निगाहें गली में दोनों तरफ घूमीं। अंधेरे से भरी गली में कोई नहीं था ।
जलालुद्दीन नीचे बैठा । सिपाही को चैक किया । अच्छी तरह चैक किया । मर चुका था। जलालुद्दीन उठा और शांत भाव से गली के बाहर की तरफ बढ़ गया। गली के बाहर सड़क पर जाते ही वाहनों का शोर, उसके हॉर्न की आवाज कानों में पड़ रही थी । वो जब गली से बाहर निकला तो चेहरा एकदम सामान्य हो चुका था। अपने चेहरे पर वो मुस्कान ले आया था । बिना वजह की मुस्कान और चौराहे की तरफ बढ़ता बड़बड़ा उठा ।
"मुझे क्या पता सिपाही को किसने मारा है । मार दिया होगा किसी ने ।"
तभी पीछे से कोई आया और उसके कंधे पर बाहं रखकर साथ चलने लगा। जलालुद्दीन घबरा उठा ।
"चलते रहो जलालुद्दीन । ये मैं हूं मुनीम खान ।"
जलालुद्दीन के मस्तिष्क को तीव्र झटका लगा।
"मुनीम खान ?" वो तुरंत ठिठका और गर्दन घुमा कर अपने कंधे पर हाथ रखे व्यक्ति का चेहरा देखा ।
चंद पल देखता रहा ।
मुनीम खान मुस्कुराया ।
"ओह, ये तो सच में तुम हो ।" जलालुद्दीन के होंठों से निकला--- "मैं सपना तो नहीं देख रहा ?"
"इस वक्त तुम ख्वाब में नहीं हकीकत में हो। मैंने सब देखा जो अंधेरी गली में तुमने सिपाही के साथ किया। तब मैं वहीं था। अंधेरी गली में और तब से तुम्हारे पीछे था, जब तुमने समोसे खाए थे। उसी वक्त तुम्हारे हाव-भाव देकर मैं समझ गया था कि तुम जरूर कुछ करने वाले हो और मेरा ख्याल बिलकुल सही निकला । ये देखकर मुझे बहुत अच्छा लगा कि तुम्हारी जेहन में ट्रेनिंग, बिल्कुल ताजा है । कितनी आसानी से तुमने दो हथेलियों से सिर को दबा कर उसे मार दिया।"
"मैं कुछ भी भूला नहीं हूं ट्रेनिंग का। और भूलूंगा भी नहीं ।" जलालुद्दीन बोला ।
"हामिद अली ने यूं ही थोड़े न चुन लिया तुम्हें ।"
"हामिद अली--- मुझे चुना--- क्या मतलब ?" जलालुद्दीन कुछ समझ नहीं पाया ।
"काम का वक्त आ गया है। हामिद अली ने तुम्हारे लिए बुलावा भेजा है ।" मुनीम खान बोला ।
"सच ?" जलालुद्दीन की आंखें चमक उठी ।
"बिल्कुल सच । लेकिन काम खतरनाक है जलालुद्दीन । एक बार सोच लो कि...।"
जलालुद्दीन को डर मत दिखाओ मुनीम खान । जलालुद्दीन कभी किसी से नही डरता ।"
"जान भी जा सकती है ।"
"देश की खातिर ?"
"हां । पाकिस्तान की खातिर ।"
"पाकिस्तान की खातिर मैं कुछ भी कर सकता हूं । जान जाती है तो बेशक जाए ।" जलालुद्दीन दृढ़ स्वर में कह उठा ।
"चिंता मत करो बच भी सकते हो । ये इस बात पर निर्भर रहेगा कि तुम काम कैसे करते हो । वापसी का कुछ पता नहीं कि कब होगी । अपनी मां से अच्छी तरह मिलकर आना। आज से चौथे दिन तक तुम्हें दाऊद खेल हामिद अली के ठिकाने पर आ जाना है ।"
"जलालुद्दीन पहुंच जाएगा मुनीम खान । पर पीछे से मां का खर्चा कैसे चलेगा ?"
"कल तेरे घर पर पांच लाख कोई दे जाएगा । वो मां को देना ।"
"पांच लाख ?" जलालुद्दीन हक्का-बक्का रह गया ।
"ये खत्म हो जाएंगे तो हामिद अली और पहुंचा देगा । तुम्हारी मां हामिद अली की मां । जब तक तुम काम पर रहोगे, तुम्हारे परिवार की देखभाल हामिद अली करेगा। पसंद आई बात ?"
"बहुत ।" जलालुद्दीन मुस्कुरा पड़ा ।
"और जब तुम काम खत्म करके लौटोगे तो पचास लाख तुम्हें मिलेंगे ।" मुनीम खान ने उसका कंधा थपथपाकर कहा।
■■■
पाकिस्तान का एक शहर-मुल्तान।
मुल्तान शहर के एक मोहल्ले में आमने-सामने दुकानें थी। इलाके की छोटी-सी मार्केट ये ही थी। कबाब वाला, ढाबे वाला, कपड़े वाला, दर्जी, चूड़ियां, श्रृंगार का सामान, लगभग हर सामान की दुकानें थी यहां और कुछ-न-कुछ खरीदने के लिए लोगों का यहां आना-जाना लगा रहता था। सुबह से रात तक रौनक लगी रहती थी। कासिम हलवाई तो रात बारह बजे दुकान बंद करता और सुबह साढ़े पांच बजे उसके कारीगर फिर काम शुरू कर देते। इस हलवाई के समोसे दूर-दूर तक मशहूर थे और कढ़ाही से बाद में निकलते थे, लिफाफे में पहले ही पैक हो जाते थे, मतलब कि अगर आपको यहां से समोसे लेने हो तो कुछ न कुछ तो इंतजार जरूर करना पड़ेगा। इसी कासिम हलवाई की बगल में आमिर रजा खान की दर्जी की दुकान थी । पैंतीस वर्ष का आमिर रजा खान स्वस्थ, लंबा और गोरे रंग वाला व्यक्ति था । चेहरे पर दाढ़ी रखता था और कभी-कभार टोपी पहने भी दिख जाता था । दुकान के ऊपर ही उसका तीन कमरों का घर था और तेंतीस वर्ष की पत्नी के साथ छः बच्चे थे। बड़ा बेटा पन्द्रह वर्ष का था और सबसे छोटा चार साल का। आमिर रजा खान को दर्जी का धंधा जरा भी पसंद नहीं था परंतु पत्नी के भाइयों ने जबरदस्ती दर्जी की दुकान खुलवा दी थी । घर का खर्चा-पानी निकल आता था तो वो मन मार कर इसी काम में लगा हुआ था जबकि कुछ नया करना चाहता था। मन में तमन्ना थी कि सरहद पर जाकर, गन का मुंह हिन्दुस्तान की तरफ करके गोलियां बरसाए और सारे हिन्दुस्तान को खत्म कर दे। उसके दादा कभी मिलिट्री में थे और अब्बा हुजूर उसे दादा की जंग की कहानियां सुनाया करते थे। बचपन से फौज में जाने का जोश ऐसा भरा कि अभी तक नहीं निकल नहीं पाया था और ऐसे विचारों वाले को दर्जी की दुकान करनी पड़े तो हर वक्त परेशान रहेगा ही ।
आमिर रजा खान इस वक्त दुकान पर मौजूद था । कासिम हलवाई की समोसे की दुकान पर समोसे लेने वालों की भीड़ लगी थी। दो कारीगर सामने ही दो मशीनें रखे कपड़े सिल रहे थे । एक कारीगर सिर के ऊपर फट्टा डाली जगह पर, मशीन रखे मौजूद था और मशीन चलने की धड़ाधड़ आवाजें आ रही थी ।
आमिर रजा खान किन्हीं सोचो में उलझा था । कारीगरों को सुबह ही काम काट के दे दिया था। अब उसके पास करने को कुछ नहीं था कि तभी उसकी बेगम सकीना की आवाज कानों में पड़ने लगी ।
"सुनते हो खान साहब ।"
आमिर रजा खान ने बुरा-सा मुंह बनाया। उठा ।
तभी दुकान के सामने से आते व्यक्ति ने उससे कहा ।
"अमीर साहब, आपकी बेगम याद फरमा रही है। जरा ऊपर तो देखिए ।"
"शुक्रिया ।" आमिर रजा खान ने कहा फिर बड़बड़ाया--- "ये तो दिन में बीस बार याद फरमाती है। इसका क्या है ।" वो दुकान से बाहर निकला और पलट कर ऊपर देखा--- "अब क्या चाहिए ?"
"चार समोसे भिजवा देना ।" ऊपर से खुली खिड़की से झांकती उसकी बेगम ने कहा ।
"तुम खाओगी चार ?" आमिर रजा खान उखड़े स्वर में बोला ।
"मैंने ही खाने हैं तभी तो चार मंगवा रही हूं । मेहमान आया होता तो बारह मंगवाती।"
"पर तुम तो सुबह कह रही थी घिया बनाया है ।"
"वो तुम्हारे लिए बनाया है । सारा दिन बैठे रहते हो। कोई काम करते नहीं । तुम्हें भारी चीजें खानी मना है । मुझे नहीं । मैं सारा दिन काम पर लगी रहती हूं । तुम्हारे छः-छः बच्चों को...।"
"चुप हो जाओ बेगम। लोगों को क्यों सुना रही हो । अभी भिजवाता हूं समोसे।" कहकर आमिर रजा खान वापस दुकान में गया और काम करते कारीगर से बोला--- "चार समोसे ऊपर देकर आ...।"
"ये बाजू सिल लूं फिर...।"
"बाजू के बच्चे नीचे आ गई तो नई मुसीबत खड़ी हो जाएगी। उसे ऊपर ही टिका रहने दे। जल्दी से समोसे दे आ।"
कारीगर फौरन उठा और बाहर निकल गया ।
आमिर रजा खान वापस काउंटर के पीछे स्टूल पर आ बैठा । बेजार दिखा वो इस जिंदगी से। तभी पैंतालीस वर्ष का एक व्यक्ति दुकान में आया और पर्ची उसे देता बोला ।
"मेरी पैंट बन गई होगी ।"
"जरूर बन गई होगी जनाब ।" वो पर्ची खोलता बोला--- "अगर तारीख आज की दी है तो ।"
"आज की तारीख है तभी तो मैं आया हूं ।"
"नाराज मत होईए ।" पर्ची देख कर उठते हुए बोला--- "पैंट तैयार है, अभी देता हूं ।"
काउंटर के नीचे बने शो केस से उसने हैंगर में लटकी पैंट निकालकर ऊपर रखी ।
"ये रही आपकी पैंट। ट्राई लेंगे या पैक...।"
"पहन कर देखूंगा ।"
"जरूर देखिए । दिल खुश हो जाएगा ।"
"वो आदमी पैंट के साथ बने छोटे-से ट्राई रूम में प्रवेश कर गया। दरवाजा बंद कर लिया। आमिर रजा खान हाथ में पकड़ी पर्ची को बत्ती का रूप देने लगा। दुकान के बाहर सड़क पर से लोग आते-जाते देख रहे थे। कासिम हलवाई की कड़ाही से समोसे निकल आए तो तभी तो आवाजें आने लगी थी, पहले मुझे दो, मेरे चार समोसे हैं । मेरे दो, मेरे छब्बीस हैं। जल्दी दो घर में मेहमान बैठे हैं, कब से खड़ा हूं । वो ऐसी आवाजों का आदी हो चुका था। गर्म तेल की खुशबू दिन भर सांसो में पड़ती रहती थी। उसका जरा भी मन नहीं करता था समोसे खाने का। तभी ट्राई रूम का दरवाजा खुला और वो व्यक्ति नई पैंट पहने बाहर निकला।
आमिर रजा खान मुस्कुराया।
"ये क्या है ?" वो व्यक्ति खा जाने वाले स्वर में बोला ।
"पैंट है जनाब, क्या फिटिंग आई है, एकदम ।"
"नीचे देखो ।" उसकी आवाज में गुस्सा भर आया ।
आमिर रजा खान ने उसके पांव की तरफ देखा । ध्यान से देखा।
पैंट की दोनों टांगों की लंबाई में इंच भर का फर्क था । एक साइड की लंबाई ठीक थी दूसरी इंच भर छोटी थी ।
"ऐसी पैंट बनाते हो तुम ।" वो गुस्से से कह उठा ।
दोनों कारीगर भी देखने लगे थे ।
ऊपर बैठा कारीगर भी झांककर नीचे देखने लगा ।
"हैरानी है जनाब ।" आमिर रजा खान अजीब-से स्वर में कह उठा--- "कपड़ा मैंने काटा था। दोनों टांगे बराबर काटी थी फिर एक छोटी कैसे हो गई ।"
"तुमने मेरा कीमती कपड़ा खराब कर दिया । मेरा भाई ये कपड़ा हिन्दुस्तान के मुंबई शहर से लाया था।
"ये कपड़ा हिन्दुस्तान का था ?" आमिर रजा खान का स्वर टेढ़ा हो गया ।
"हां मुंबई का। मेरा भाई वहां टी.वी. रियलिटी शो में गया था, वहां से कपड़ा लाया और तुमने...।"
"फिर तो मुझे कपड़ा खराब होने का जरा भी अफसोस नहीं है।" आमिर रजा खान कह उठा ।
"क्या कहा तुमने ?" उसका स्वर तेज हो गया ।
समोसे लेने आए लोगों की नजरें भी इस तरफ उठी।
"जनाब हिन्दुस्तान हमारा दुश्मन है। आपका भाई वहां के रियलिटी शो में हिस्सा लेता है और आप हिन्दुस्तान से आए कपड़े सिलवाकर पहनते हैं । आपको ऐसा नहीं करना चाहिए । दुश्मन देश की चीज को आग लगा देनी चाहिए ।" आमिर रजा खान तीखे स्वर में बोला--- "हिन्दुस्तान की वजह से पाकिस्तान का बुरा हाल हो रहा है। वो आए दिन हम पर इल्जाम लगाता रहता है। सीमा के भीतर हिन्दुस्तान के सैनिक आ जाते हैं और गोलाबारी करके, हमारे सैनिकों को मार कर वापस भाग जाते हैं। कश्मीर हमारा है परंतु हिन्दुस्तान ने उस पर कब्जा कर रखा है। आए दिन पाकिस्तान में हिन्दुस्तान के जासूस पकड़े जाते हैं जो कि पाकिस्तान में अशांति फैलाने के लिए बम विस्फोट...।"
"हिन्दुस्तान ने मेरा कुछ नहीं बिगाड़ा जो...।"
"तुम गैर जिम्मेवार इंसान की तरह बात कर रहे हो आमिर रजा खान हाथ हिला करके कह उठा--- "हिंदुस्तान के लोगों का कुछ नहीं बिगड़ेगा हमारे देश को बिगाड़ रहा है। अपने मुल्क में खुद ही बम विस्फोट कराता है और नाम पाकिस्तान का लगा देता है कि पाकिस्तान ने...।"
"मेरी पैंट की बात करो ।"वो गुस्से में बोला--- "तुमने मेरी पैंट खराब कर दी है ।"
"ये कपड़ा हिन्दुस्तान का न होता तो खराब न होता। दुश्मनों के कपड़े इसी तरह खराब होते हैं ।"
"तुम पागल हो । तुम...।"
आमिर रजा खान ने फौरन हाथ आगे बढ़ाया और उसकी कमीज का कॉलर थाम लिया । अब तक बाहर लोग इकट्ठा होने लगे थे ।
"ये तुम क्या कर रहे हो--- मैं पुलिस को...।"
"हिन्दुस्तानी कपड़े पहनने वाले कुत्ते । तू पागल कहता है मुझे ।" अगले ही पल में आमिर रजा खान का हाथ घूमा और उसके गाल पर जा पड़ा। वो पीछे मौजूद ट्राई रूम में जा टकराया ।
"तुमने मुझे मारा । मुझे मारा । मैं अभी पुलिस को बुलाता हूं । तुम्हें अंदर करवा दूंगा । मेरी पहुंच तुम नहीं जानते, मैं...।"
"जा-जा ।" आमिर रजा खान हाथ हिलाकर बोला--- "तेरी क्या पहुंच है। मेरी पहुंच जरदारी साहब तक है । तुझे तो मिनटों में गायब...।"
तभी तीन लोग धड़धड़ाते हुए दुकान में आ घुसे।
उन्हें देखकर बाहर खड़े लोग खिसकने लगे ।
आने वाले पलों में एक सलाम अहमद था, जो कि इस इलाके का दादा माना जाता था। बाकी के दो उसके साथी थे ।
आमिर रजा अली की आंखें सिकुड़ी ।
दूसरा व्यक्ति सलाम अहमद को देखकर घबरा उठा ।
"अहमद भाई साहब ।" वो बोला--- "मैं-मैं...।"
"क्या हो रहा है ?" सलाम अहमद ने पूछा ।
"ये देखिए इसने मेरी पैंट की टांगे छोटी-बड़ी सिल दी...।"
"फुट ले यहां से ।" सलाम अहमद हाथ हिला कर बोला--- "ये दुकान अब बंद होने वाली है । यहां कभी मत आना ।"
वो आदमी सिर हिलाता उतारी पैंट हाथों में उठाए दुकान से बाहर निकल गया । दुकान के बाहर खड़े दो-चार लोगों को देख कर सलाम अहमद बोला।
"क्या चाहिए । मजमा क्यों लगा रखा है ?"
बाहर खड़े लोग फौरन खिसक गए ।
सलाम अहमद ने आमिर रजा खान को देखा ।
"क्या कहा तूने ?" आमिर रजा खान बोला--- "ये दुकान बंद होने वाली है ।"
"हां । कल से दुकान नहीं खुलेगी ।" सलाम अहमद काउंटर पर हाथ मार कर बोला ।
"क्यों ?"
"इस दुकान का मालिक बख्शीश आलम दुकान खाली चाहता है। उसका बेटा बड़ा हो गया है, वो दुकान करेगा।
"बख्शीश आलम तो साल भर से मुझे दुकान खाली करने को कह रहा है। उसका क्या है ।" आमिर रजा खान ने सलाम अहमद की आंखों में देखा--- "लेकिन तुम इस मामले में क्यों आ रहे हो सलाम अहमद साहब ?"
"बख्शीश आलम ने दो लाख मुझे देकर, ये मामला मेरे हवाले कर दिया है कि मैं दुकान खाली कराऊं । अब तू सुन ले, कल से ये दुकान नहीं खुलेगी। आज सारा सामान बाहर निकाल लेना । कल मुझे दुकान खाली देखनी है।"
आमिर रजा खान मुस्कुराया ।
"ये सब कुछ तू बख्शीश आलम के लिए कर रहा है ?"
"हां । एक बार सुन लिया कर, बार-बार...।"
"दुकान खाली ना करूं तो ?" आमिर रजा खान मुस्कुरा रहा था।
सलाम अहमद ने घूरा ।
आमिर रजा खान मुस्कुराता रहा ।
"तू मेरे आगे जुबान चलाता है ।"
"तूने कैसे सोचा सलाम अहमद कि तू कहेगा और मैं दुकान खाली कर दूंगा ।" सलाम अहमद के साथ खड़े दोनों बदमाश उस पर झपटने को हुए । सलाम अहमद ने दोनों को रोक दिया । नजरें आमिर रजा खान पर थीं ।
"आज दुकान खाली कर देना ।" सलाम अहमद ने कठोर स्वर में कहा ।
"नहीं करूंगा ।"
"अपनी बीवी से सलाह ले ले। उसे कह सलाम अहमद आया था । वो तेरे को समझाएगी। छः बच्चे हैं न तेरे ।"
"तो ?"
"बच्चे वालों को, हम जैसे लोगों के साथ झगड़ा नहीं करना चाहिए, नुकसान हो जाता है ।" फिर उसने अपने दोनों साथियों से कहा--- "चलो ।"
देखते-ही-देखते वो तीनों बाहर निकल गए ।
आमिर रजा खान के चेहरे पर गंभीरता थी ।
"मास्टर जी ।" मशीन रोके बैठा कारीगर कह उठा--- "दुकान का सामान बाहर निकाले ?"
"काम कर । दुकान जैसे चल रही है । ऐसे ही चलेगी। मैं सलाम अहमद जैसों की परवाह नहीं करता ।" आमिर रजा खान ने तीखे स्वर में कहा ।
■■■
"ये तो परेशान होने वाली बात है ।" रात को घर जाकर आमिर रजा खान ने, सलाम अहमद के बारे में बताया तो वो चिंता से कह उठी--- "सलाम अहमद तो बहुत बड़ा बदमाश है। बक्शीश आलम ने उसे दो लाख रुपया दिया है तो वो दुकान जरूर खाली करवा कर रहेगा । अब क्या होगा ?"
आमिर रजा खान आराम से कुर्सी पर बैठा रहा ।
"मेरी मानो तो दुकान खाली कर दो ।" रूकीना गम्भीर स्वर में कह उठी।
"दुकान खाली नहीं होगी ।" आमिर रजा खान मुस्कुराया--- "मैं किसी की दादागिरी की परवाह नहीं...।"
"वो सलाम अहमद है। नामी गुंडा । वो तुम्हें जान से मार देगा अगर तुम उसकी बात न माने तो।"
"तुम चिंता मत करो । मैं सब ठीक कर...।"
"कैसी बातें कर रहे हो तुम । वो तुम्हें परिवार की धमकी भी दे गया ।"
"खाना खाओ । बच्चों ने खाना खा लिया क्या ?"
"अब तो वो सो भी गए हैं । रात के साढ़े दस बज रहे हैं। तुम सलाम अहमद...।"
"खाना लगाओ ।" आमिर रजा खान का स्वर कुछ सख्त हुआ ।
रुकीना ने कुछ नहीं कहा और वहां से उठ गई ।
थोड़ी देर बाद आमिर रजा खान और रुकीना एक साथ खाना खा रहे थे ।
"आप पहले तो इतने बहादुर नहीं थे । रुकीना ने कहा ।
"पहले कब ?"
"जब आप डेढ़ साल गायब रहे । घर से हज के लिए गए थे परंतु डेढ़ साल बाद लौटे । इस दौरान घर पे फोन कर देते थे कि हम चिंता न करें। मेरे भाई ने दुकान संभाले रखी । पहले आप इतने बहादुर नहीं थे । पूछने पर भी आपने नहीं बताया कि डेढ़ साल कहां रहे ?"
"हज पर था । कभी इस दरगाह तो कभी उस दरगाह ।" आमिर रजा खान ने शांत स्वर में कहा--- "सैकड़ों बार तुम्हें बता चुका हूं कि घर आने का मन नहीं होता था । जब दिल भर गया तो घर आ गया ।"
"मैं आपके झूठ पर कभी भी यकीन नहीं कर सकती । परंतु वापस आने के बाद मैंने आप में निडरता देखी। याद है तब एक लड़का मुझ पर नजर रखता था। अक्सर मैं उसे घर के बाहर बाजार में मंडराता देखती । मुझे देखकर वो मुस्कुराया करता था । जब तुम वापस आए और मैंने तुम्हें ये बात बताई तो उसके दो दिन बाद से, लड़का मुझे आज तक कभी नहीं दिखा।"
"अच्छा ।"
"तुमने क्या किया उसके साथ ?"
"वो जरूर शरीफ खानदान का रहा होगा । मैंने उसे समझाया था कि वो जो कर रहा है, वो ठीक नहीं है। मेरी बात शायद उसके दिल पर लगी होगी। वो शर्मिंदा हुआ होगा और इस तरह आना भी उसने छोड़ दिया ।"
"मुझे तुम्हारी इस बात पर भी यकीन नहीं होता ।"
"तुम कहना क्या चाहती हो ?"
"कुछ नहीं ।" रुकीना ने कहा ।
आमिर रजा खान मुस्कुराया । परंतु खामोश रहा ।
उनका खाना समाप्त हो गया ।
"सलाम अहमद खतरनाक गुंडा है ।" रूकीना बोली--- "कल चुप नहीं बैठेगा । तुम्हें बक्शीश आलम से बात करनी चाहिए । वो ही उसे रोक सकता है ।"
"उसके इशारे पर तो सलाम अहमद आया है । ऐसे में उससे बात करने का कोई फायदा नहीं ।"
"मुझे भी तो पता चले कि कल तुम क्या करने का इरादा रखते हो । सलाम अहमद कल फिर आएगा और वो...।"
"तुम चिंता मत करो । सब ठीक हो जाएगा । आज मैं सोचूंगा कि कल मुझे क्या करना है ।"
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अगले दिन आमिर रजा खान ने दुकान खोली। रोज सुबह दस बजे दुकान खोलता था । साढ़े दस तक कारीगर आ जाते थे। आज भी समय पर कारीगर आ गए। दुकान की साफ-सफाई होने के बाद काम शुरू हो गया ।
आमिर रजा खान कपड़ों की कटिंग करता रहा ।
कारीगर कल का बचा काम पूरा करने में लग गए थे।
आमिर खान के चेहरे पर गंभीरता छाई हुई थी। वो बार-बार दुकान के बाहर देखने लगता। उसे सलाम अहमद के आने का इंतजार था। परंतु नहीं आया था। सुबह से आशंकित रुकीना तीन बार किसी न किसी बहाने से दुकान पर आ चुकी थी। पूछती तो कुछ नहीं, बस नजर मार कर वापस चली जाती। आज तो उसने समोसे खाने की इच्छा भी जाहिर न की थी ।
दोपहर हो गई ।
सब ठीक रहा। कुछ न हुआ ।
तीन बजे आमिर रजा खान घर में खाना खाने के लिए पहुंचा ।
"सलाम अहमद अभी तक नहीं आया ?" रुकीना ने कहा ।
"तुम्हें उसके आने का इंतजार क्यों है ।" आमिर रजा खान ने मुस्कुराकर कहा--- "हो सकता है अल्लाह ने उसे अक्ल दे दी हो और बदमाशी छोड़कर किसी दरगाह पर सेवा में लग गया हो । नाहक चिंता मत करो ।"
"मेरा दिल जाने क्यों घबरा रहा है। रूकीना दिल पर हाथ रख कर बोली।
"तुम औरतों के दिल तो हमेशा ही डरे रहते हैं। खाना खिलाओ फिर दुकान पर बैठना है ।"
आमिर रजा खान, खाना खाकर दुकान पर आ बैठा। कारीगर काम कर रहे थे । दुकान में मशीनें चलने की तेज आवाज फैली थी । सब कुछ रोज की तरह ही था । तभी अठारह-उन्नीस वर्ष का लड़का दुकान पर पहुंचा ।
"आमिर रजा खान है तुम्हारा नाम ?" उसने पूछा ।
"बड़ों को नाम से नहीं बुलाते । जबकि आमिर रजा खान मन-ही-मन सतर्क हुआ ।
"आपका नाम बोलो ।"
"ये ही है, क्या बात है ?"
लड़का जेब से मोबाइल निकाल कर नम्बर मिलाने लगा । फिर फोन कहां से लगाया । आमिर रजा खान आंखें सिकोड़े उसे देखने लगा। तभी लड़का फोन पर बोला ।
"उस्ताद, बात करो ।" कहकर लड़के ने मोबाइल उसकी तरफ बढ़ाया--- "सलाम अहमद से बात करो।"
आमिर रजा खान ने तुरंत मोबाइल थामकर बात की।
"सलाम भाई ।" आमिर रजा खान बोला ।
"दुकान खाली नहीं की तूने ।" सलाम अहमद का स्वर कानों में पड़ा।
"मैंने तो कल ही कह दिया था कि दुकान खाली नहीं होगी ।" आमिर रजा खान बोला ।
"लगता है तूने अपनी बीवी से सलाह नहीं ली ।" उधर से सलाम अहमद हंसा ।
आमिर रजा खान ने कुछ नहीं कहा ।
अगले ही पल उसके कानों में उसके चार वर्ष के बेटे की आवाज पड़ी ।
"अब्बा ।"
"सलीम ।" आमिर रजा खान बुरी तरह चौका--- "मेरे बेटे ।"
"मुझे बचा लो अब्बा, ये मुझे मारते हैं ।" सलीम का रुआंसा स्वर कानों में पड़ा ।
"तुम फिक्र मत...।"
"खान साहब ।" तभी सलाम अहमद की आवाज सुनाई दी--- "तुम्हारे बच्चे को स्कूल के बाहर से उठा लाए हम...।"
"ये तुमने गलत किया सलाम अहमद।" आमिर रजा खान सख्त स्वर में बोला--- "हमारे बीच बच्चे को क्यों लाते हो ?"
"मैंने बख्शीश आलम से दो लाख रुपया लिया है उसका काम भी तो पूरा करना है । इसलिए तुम्हारे बेटे को उठा लाए । अभी तक तुम्हारी बेगम को पता नहीं लगा सलीम के गायब हो जाने का । पता लगते ही वो तुम्हारे सामने रोएगी कि मेरे बच्चे को बचा लो । दुकान खाली कर दो और तुम दुकान खाली कर दोगे। ये ही होगा ।"
आमिर खान का चेहरा गुस्से से भर उठा। परंतु खुद को संभाले रखा ।
"बक्शीश आलम को कुछ हो गया तो फिर भी तू ये काम करेगा ?" आमिर रजा खान ने पूछा ।
"क्या हो गया ?"
"कुछ भी, यूं समझो कि उसे दिल का दौरा पड़ गया, किसी चोर ने उसका गला काट दिया या किसी बस के नीचे आ गया तो तब इस काम की क्या स्थिति होगी सलाम अहमद ।"
"कुछ भी नहीं । वो मर गया तो फिर काम किसके लिए करना है मैंने ।"
"फिर तू ये भी कहेगा कि उसका बेटा...।"
"वो दो लाख देगा तो उसके लिए काम करना शुरू कर...।"
"नया दो लाख ?"
"हां ।"
"मतलब कि बख्शीश आलम को कुछ हो गया तो तू मेरे बेटे को छोड़ देगा ?"
"सही सलामत छोडूंगा । खरा वादा। क्या तू उसे मारने की सोच रहा है ?"
"मेरे बेटे को संभाल के रखना। अपने वादे पर कायम रहना। जो तूने कहा है वो मैं रात को कर दूंगा ।"
"पागल मत बन । तू दर्जी है ।" उधर से सलाम अहमद ने कहा--- "ऐसा-वैसा करने की सोचा तो सीधा जेल जाएगा। चुपचाप दुकान खाली कर दे मामला खत्म कर । तेरे बस में नहीं है किसी को मारना ।"
"मैं अपने बेटे सलीम को कल सुबह लेने आऊंगा ।"
"लेने आएगा ? तेरे को पता है मैं किधर होता हूं ?"
"पता है ।" आमिर रजा खान ने कहा और फोन बंद करके लड़के को थमाकर कहा--- "जा तेरा काम खत्म हुआ ।"
लड़का चला गया । दुकान से मशीनें चलने की आवाजें उठ रही थी ।
आमिर रजा खान दुकान से बाहर निकला और बगल की सीढ़ियां चढ़कर अपने घर पहुंचा। रुकीना उसे देखते ही कह उठी ।
"मैं तुम्हारे पास आ रही थी । सलीम अभी तक स्कूल से नहीं लौटा, जरा देखो तो वो...।"
"सलीम कल सुबह लौटेगा ।" आमिर रजा खान ने शांत स्वर में कहा--- "वो सलाम अहमद के पास है ।"
"क्या ?" रुकीना भय से चीखी--- "सलाम अहमद के...।"
"चुप कर ।" आमिर रजा खान गुर्राया।
रुकीना ने तुरंत होंठ बंद कर लिए। इस वक्त वो उसके चेहरे पर वैसे ही भाव देख रही थी जैसे भाव तब देखे थे जब उसने बताया था कि एक लड़का उसके पीछे पड़ा है ।
आमिर रजा खान ने अपने पर काबू पाया और प्यार से रुकीना के कंधे पर हाथ रखकर बोला।
"तू फिक्र नहीं कर । सलीम मेरा भी तो बेटा है। सलाम अहमद से फोन पर मेरी बात हो गई है। उसका भेजा लड़का आया था। घबरा मत कल सुबह सलीम को छोड़ देगा । मैं सलीम को लेने उसके पास जाऊंगा ।"
"व...वो छोड़ देगा सलीम को ?"
"हां ।"
"तुम दुकान खाली कर रहे हो न ?" रुकीना की आवाज में घबराहट थी ।
"नहीं ।"
"तो वो सलीम को क्यों...?"
"तेरे को मुझ पर भरोसा है न रुकीना ?"
"तुम पर भरोसा नहीं होगा तो किस पर करूंगी ।" रुकीना की आंखों से आंसू निकले--- "लेकिन मेरा सलीम, उसे कुछ हो गया तो मैं मर जाऊंगी । सलीम को बचा लो तुम ।"
"मेरी जिम्मेवारी पर तू शांत हो जा ।" आमिर रजा खान ने गंभीर स्वर में कहा--- "सुबह सलीम को ले आऊंगा ।"
रुकीना उसे देखने लगी ।
"क्या देखती है ?"
"मुझे समझ नहीं आता कि सलाम अहमद, सलीम को क्यों छोड़ेगा । तुम दुकान तो खाली नहीं कर रहे...।"
"बोला न । मेरी बात हो गई है । कल सुबह वो सलीम को मेरे हवाले कर देगा। सुन--- रात को मैं खाना खाकर बाहर जाऊंगा और सुबह सलीम के साथ वापस लौटूंगा ।" आमिर रजा खान सामान्य स्वर में कह उठा ।
"अल्लाह कसम ?"
"अल्लाह कसम ।"
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