“कुछ सुना तुमने?” एक वकील ने दूसरे से पूछा।

“क्या?”
“एक मुकदमें के दौरान ‘कानून का पंडित’ आज नरेंद्र आनंद के सामने जाकर खड़ा हो गया और उनके मुवक्किल के खिलाफ दलीलें देने लगा।”
“सुना ही नहीं, वह नजारा मैंने अपनी आंखों से देखा भी था।"
“तुमने?”
"हां...उस वक्त मैं अदालत में ही था।"
“ओह!” पहले वकील के मुंह से ‘आह’-सी निकली। अफसोस मनाने के-से लहजे में बोला वह—"दुख है कि उस वक्त मैं वहां नहीं था।”
दूसरे ने गर्व से कहा— “अगर होते तो देखते कि कानूनी नुक्ते किन्हें कहते हैं। तुम तो जानते ही हो कि नरेंद्र आनंद को दिल्ली का सबसे बड़ा वकील माना जाता है—हमारी बार एसोसियेशन के मंत्री भी हैं वे—उनकी जिरह और दलीलें सुनकर न्यायाधीश तक रोमांचित हो उठते हैं—मगर आज उस समय ‘आनंद साहब’ की बौखलाहट देखने लायक थी, जब कानून का पंडित कोर्ट में उनके सामने आ खड़ा हुआ—आनंद साहब के एक-एक पॉइंट, एक-एक दलील की धज्जियां उड़ाकर रख दीं उसने।”
"अच्छा!
"हां।” दूसरा वकील कहता चला गया—“आनंद साहब को कोर्ट में पहले कभी किसी ने इतना नर्वस नहीं देखा होगा, जितने आज थे।”
"जरूर रहे होंगे। कानून के पंडित को यकीनन कानून के बारीक- से-बारीक नुक्ते की जानकारी है।”
“सो तो ठीक है, मगर...।”
"मगर?
“समझ में नहीं आता कि कानून की इतनी डीप नॉलेज’ उसे है कैसे? जबकि एलoएलoबीo पास तक नहीं की है उसने।
"सुना है कि दसवीं फेल है।”
"हां।"
“फिर भी कानून के बारे में वह इतना सब जानता है!
“सुना है कि दसवीं फेल होने के बाद से वह लगातार दस साल तक सिर्फ और सिर्फ कानून की किताबें ही पढ़ता रहा—एलoएलoबीo की डिग्री भले ही उसके पास न हो, परंतु नॉलेज आनंद साहब से भी ज्यादा रखता है।
“म....मगर यह तो वकीलों का सरासर अपमान है न?”
“वह कैसे?”
“उसके पास एलoएलoबीo की डिग्री नहीं है, एडवोकेट नहीं है वह, फिर भी कोर्ट में लोगों के केस लड़ता है।”
“कोई भी मुलजिम अपने बचाव के लिए कोर्ट में किसी भी ऐसे व्यक्ति को अपना पक्ष रखने के लिए खड़ा कर सकता है, जिस पर उसे विश्वास हो कि वह उसका बचाव भली- भांति कर सकता है। उसका वकील होना जरूरी नहीं है। और मुलजिमों में कानून के पंडित की ख्याति दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है।”
“सो तो ठीक है, मगर यदि इस तरह बिना पढ़े-लिखे लोग कोर्ट में मुलजिमों के मुकदमे लड़ने लगे तो हम वकीलों का क्या होगा?”
"यह वाकई सोचने वाली बात है। समझ में नहीं आता कि कमबख्त ने कचहरी परिसर में जगह कैसे हथिया ली—अपने कमरे के बाहर बड़ा-सा बोर्ड भी लटका रखा है उसने। बोर्ड पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा है—' कानून का पंडित’—नीचे अपेक्षाकृत छोटे अक्षरों में लिखा है—‘यहां से आप प्रत्येक केस के संदर्भ में कारगर कानूनी सलाह ले सकते हैं।”
पहला वकील मेज पर कोहनियां टिकाकर दूसरे वकील के कान पर झुकता हुआ रहस्यमय स्वर में फुसफुसाया—“मैंने अपनी कचहरी के कई जाने-माने वकीलों को कानूनी सलाह लेने छुपकर उसके कमरे में जाते देखा है।”
“हां, मैंने भी देखा है।” दूसरे वकील ने भी सुर में सुर मिलाया।
“क्या कानून में ऐसी कोई धारा नहीं है, जिसके बूते पर कचहरी परिसर में खुली उसकी दुकान को हटवाया जा सके?"
“है क्यों नहीं? एडवोकेट मिश्रा ने उस पर केस तो कर रखा है, मगर...।
“क्या मगर?”
“कानून के पंडित ने ‘स्टे ऑर्डर' ले लिया है......यानी जब तक केस का फैसला नहीं हो जाता, तब तक कचहरी परिसर से उसकी दुकान कोई भी नहीं हटा सकता।”
“हम वकीलों के गले में अटक गया है वह।”
“कुछ भी कहो मगर है ‘चीज’—आज आनंद साहब को उसने नचाकर रख दिया।”
इस तरह कैंटीन में बैठे उन दो वकीलों ने ही नहीं, बल्कि लगभग सारी कचहरी ने आज का ‘लंच’ कानून के पंडित की चर्चा में ही गुजार दिया था।
लंच-समाप्ति पर वे उठे।
जानबूझकर वे उस चैंबर के आमने से गुजरे, जिसके मस्तक पर लटके बोर्ड पर लिखा था—‘ कानून का पंडित।’
ठीक उसी वक्त एक चमचमाती टोयटा कानून के पंडित के चैंबर के बाहर रुकी और उसमें से निकलकर जिस व्यक्ति ने चैंबर में कदम रखा, अधेड़ आयु का होने के बाबजूद वह बेहद आकर्षक व्यक्तित्व का स्वामी था। चौड़े मस्तक, गोरे रंग और नीली आंखों वाले उस व्यक्ति की आंखों पर मोटे लैंसों वाला चश्मा था।
¶¶
"जी हां, मैं बसंत विहार पुलिस स्टेशन से इंस्पेक्टर देशमुख बोल रहा हूं।”
“आप फौरन यहां आ जाइए इंस्पेक्टर!”
“कहां?”
“वसंत विहार, कोठी नंबर एक सौ बाइस।”
“क्या आप फोन पर अपनी प्रॉब्लम नहीं बता सकतीं?”
“मैं एक अजीब मुसीबत में फंस गई हूं इंस्पेक्टर! कुछ देर पहले एक अजनबी हमारे घर आया और खुद को मेरा पति कहने लगा।"
"आपका पति?” इंस्पेक्टर देशमुख चौंका।
“जी हां।”
"जबकि वह आपका पति नहीं है?”
“मैंने तो अपनी जिन्दगी में उसे देखा ही पहली बार है।”
“क्या आप शादीशुदा हैं?”
"जी हां।"
“आपके पति?”
“उनका नाम सिद्धार्थ बाली है। वे कल ही लंदन गए हैं।”
“किसलिए?”
“वहां होने वाली एक वैज्ञानिक कॉन्फ्रेंस में हिस्सा....।”
“अरे!” उसका वाक्य पूरा होने से पहले ही चौंकते हुए इंस्पेक्टर देशमुख ने पूछा—“कहीं आप युवा वैज्ञानिक मिस्टर सिद्धार्थ बाली
की बात तो नहीं कर रही हैं?"
"जी हां—वही। वे ही मेरे पति हैं।”
"आपका नाम?”
“पू...पूनम—पूनम बाली।”
”और आपके मकान में कोई अजनबी घुस आया है, वह खुद को आपका पति कहने की हिम्मत कर रहा है, यही न?”
पूनम की आवाज लगातार कांप रही थी—“अगर पड़ोसियों ने साथ न दिया होता तो न जाने अब तक उसने मेरी क्या हालत की होती—भगवान ही जाने कि मदद के लिए मैं आपको फोन भी कर पाती या नहीं—वह कोई बेहद खतरनाक और चालाक आदमी है इंस्पेक्टर! प्लीज, उससे मेरा पीछा छुड़ाइए।”
“क्या वह अभी तक वहीं है?”
“पड़ोसियों ने उसे पकड़कर बांध दिया है।”
“मैं फौरन आ रहा हूं। आप ध्यान रखिएगा कि वह भागने न पाए।” कहने के साथ ही दूसरी तरफ से जवाब की प्रतीक्षा किए बगैर इंस्पेक्टर देशमुख ने रिसीवर क्रेडिल पर पटक दिया और फिर बड़बड़ाकर उसने स्वयं ही से कहा—“लगता है बेटे इंस्पेक्टर देशमुख कि तेरे दिमाग की नसों को 'खुराक' मिलने जा रही है।"
“कौन-सी है ‘खुराक’ मिल गई है सर? ऑफिस में दाखिल होते हुए हवलदार अनोखेलाल ने पूछा।
“सारा पुलिस विभाग जानता है अनोखेलाल—क्या तुम नहीं जानते कि मेरे दिमाग की नसें कैसी ‘खुराक’ की भूखी रहती है?”
"किसी पेचीदा केस की।”
“गुड!”
“क्या कोई पेचीदा केस सामने आया है सर?” उत्सुकतापूर्वक पूछने के साथ ही हवलदार अनोखेलाल ने अपनी एक फुट बाहर निकली तोंद के नीचे बंधी बैल्ट को कसने का असफल प्रयास किया।
“जरा सोचो अनोखेलाल, इस वक्त तुम यहां ड्यूटी पर हो—जाहिर है कि घर पर तुम्हारी बीवी अकेली ही होगी।”
“मेरे बारह बच्चे भी वहीं होंगे सर।”
“अगर कोई अजनबी तुम्हारे घर पहुंचकर यह दावा पेश करने लगे कि वह तुम्हारी बीवी का पति है तो क्या हो?”
"ऐसा हो ही नहीं सकता सरा"
“क्यों नहीं हो सकता?”
“मेरे ख्याल से दुनिया में अभी तक इतना बड़ा पागल कोई नहीं हुआ है, जो किसी दूसरे की बीवी को अपनी बीवी कहने की हिम्मत
करे।”
“इतना बड़ा पागल पैदा हो गया है।"
“ज...जी?”
“और मामले की इस दिलचस्प शुरुआत से लग रहा है कि यह केस मेरे दिमाग की नसों की ‘खुराक’ बनने जा रहा है।” इंस्पेक्टर देशमुख कहता चला गया— बड़ी अनोखी, हैरतअंगेज और पेचीदा बात है कि एक ऐसा व्यक्ति एक ऐसी औरत को अपनी बीवी कह रहा है, जिसे वह औरत पहचानने तक से इंकार कर रही है।"
“वाह साहब।" अनोखेलाल ने अनोखे अंदाज में हाथ नचाते हुए कहा—“क्या गजब की कौड़ी लाया है पट्ठा। किसी और की बीवी को अपनी बीवी बना रहा है!”
उसे घूरते हुए इंस्पेक्टर देशमुख ने कहा—“लगता है, आज तुम सुबह से ही शुरू हो गए?”
“न.....नहीं साहब!” अनोखेलाल हड़बड़ा गया— म...मैंने भोले भंडारी की पूजा के बाद उनका प्रसाद ग्रहण करने से ज्यादा कुछ नहीं किया।”
“तुम नहीं सुधरोगे अनोखेलाल!”
“मैं बिगड़ा हुआ ही कहां हूं सर!”
“खैर, फिलहाल ड्राइवर से जीप निकालने के लिए कहो।” इंस्पेक्टर देशमुख ने हुक्म दिया—“हमें तुरंत उस दिलचस्प और गजब के ढीठ व्यक्ति से मुलाकात करने चलना है।”
¶¶
 बेहतर रहा कि तुमने खुद ही पुलिस को फोन कर दिया है—वरना यह जहमत भी मुझ को ही उठानी पड़ती।”
"आखिर तुम हो कौन?”
"यह सवाल करने से पहले तुम्हें डूब मरने के लिए चुल्लू-भर पानी नहीं मिला पूनम?”
“ओफ्फो!” पूनम ने अपना माथा पकड़कर लगभग रो देने वाले अंदाज में कहा—“समझ में नहीं आता कि तुम मुझसे चाहते क्या हो?”
उससे नजरें मिलने पर पूनम को अपने सारे शरीर में झुरझुरी-सी दौड़ती महसूस हुई—व्यक्ति के मुंह से निकलने वाली गुर्राहट ने उसके जिस्म का रोयां-रोयां कंपा दिया था। घबराहट के बावजूद पूनम ने उस पर हावी होने की मंशा से खुद को अत्यधिक गुस्से में दर्शाते हुए कहा—“यह क्या बकवास कर रहे हो तुम?”
“मेरी बकवास तो तुझे अब कदम-कदम पर सुननी पड़ेगी—दु:ख, दर्द और नफरत को तेरी जिंदगी का एक हिस्सा बना दूंगा मैं—तेरी सांसें तो चलती रहेंगी, लेकिन तू अपने आपको जिंदा नहीं कह सकेगी।”
“ समझ में नहीं आता कि तुम ऐसा क्यों चाहते हो—आखिर मेरा कसूर क्या है?” झुंझला-सी उठी पूनम।
“तेरा कसूर....?” दांतों को सख्ती के साथ भींचकर वह एक-एक शब्द को चबाता हुआ बोला—"तेरा सबसे बड़ा कसूर तो यही है कि तूने मुझ जैसे भावुक इंसान से शादी की—जो प्यार से मांगने पर तेरे लिए कोई भी बड़े-से-बड़ा त्याग कर सकता था—यहाँ तक कि तेरे एक ही इशारे पर बिना एक क्षण लगाए अपनी जान भी दे सकता था—लेकिन मेरे प्यार और विश्वास का खून करने वाली दगाबाज औरत, तेरे इस कसूर के लिए मैं तुझे कभी माफ  नहीं करूंगा—कभी नहीं।” कहते हुए उसकी आंखों में खून तैरने लगा।
"जुबान संभालकर बात करो मिस्टर!” नागवारी वाले अंदाज में पूनम ने कहा— “अब तुम जरूरत से ज्यादा बदतमीजी से पेश आ रहे हो—इस तरह तुम एक शरीफ गृहस्थ औरत को गालियां नहीं दे सकते।”
“तुझसे पेश आने के लिए मेरे पास इससे गंदे तरीके तो और बहुत हैं, लेकिन इससे अच्छा और कोई नहीं है—औरत किसी एक घर की चारदीवारी में रहते हुए तो शरीफ और गृहस्थ हो सकती है—लेकिन घर की मान-मर्यादा को लुटाकर उसकी चौखट को लांघने वाली औरत के लिए सिर्फ एक ही शब्द रह जाता है—बाजारू.....बाजारू औरत।”
“चुप हो जा कमीने...!”अचानक पूनम हिस्टीरियाई अंदाज में चीखी—“ अगर अब तूने एक भी गंदा लफ्ज अपनी जुबान से निकाला तो तेरा खून पी जाऊंगी मैं।
"हुंह!” एक कुर्सी पर रस्सियों से जकड़े व्यक्ति के मुंह से घृणा से लबालब हुंकार निकली। उसके चेहरे के एक सिरे से दूसरे सिरे तक नफरत-ही-नफरत नजर आ रही थी। सुर्ख आंखों में हिंसक भाव लिए वह कहता चला गया—“तुझ जैसी बेवफा, खुदगर्ज और चरित्रहीन बीवी से इसके अलावा कोई चाह क्या सकता है कि समाज के सामने तुझे नग्न कर दिया जाए।"
“मैं तुम्हारी पत्नी नहीं हूं।” पूनम दहाड़ उठी।
"पुलिस को आने दे।" एक-एक शब्द को चबाते हुए उसने कहा—“सिद्धार्थ बाली की वफादार और उसके लिए समर्पित पत्नी का जो मुखौटा अपने चेहरे पर लगाए तू यहां मजे लूट रही है, उसे अगर जर्रे-जर्रे न कर डालूं तो मेरा नाम बदल देना पूनम! मैं सोच भी नहीं सकता था कि तू इतनी गिरी हुई है।
मेरा खून तो तू उस क्षण से ही लगातार पी रही है जलील औरत, जब से मैंने तुझे इस घर में गैर मर्द की बीवी के रूप में देखा है।
इससे पहले कि पूनम कुछ कहे, पड़ोस में रहने वाला एक बुजुर्ग व्यक्ति बोला—"अब तुम इससे कोई बात मत करो मिसेज बाली—लगता है, इसने कोई नशा कर रखा है—पुलिस आकर जब इस पर डंडे बरसाएगी, तब ही उतरेगा इसका नशा।”
"प्यार का नशा इतनी आसानी से नहीं उतरता जनाब!” वह व्यक्ति पूनम की तरफ इशारा करता हुआ बोला—"और अगर किसी को इस जैसी बीवी का प्यार मिल जाए तो फिर वह नशा जहर का काम करता है—जो मरने के बाद भी नहीं उतरता।”
“लेकिन तेरा नशा तो पुलिस के आते ही उतर जाएगा बच्चू।”
"आप इसके मुंह मत लगिए मल्होत्रा साहब!” एक अन्य पड़ोसी 'वर्मा' ने आगे बढ़कर कहा—“मिसेज बाली ने फोन कर दिया है—पुलिस आती ही होगी। वह नशे के साथ इसकी खाल भी उतार देगी।”
“तुम सब लोग बाद में इस औरत का पक्ष लेने के लिए पछताओगे—इस समय यह सहानुभूति और सम्मान की पात्र नजर आ रही है, लेकिन कुछ देर बाद जब पुलिस आने पर यह साबित हो जाएगा कि यह औरत मेरी पत्नी है और सिद्धार्थ बाली की दौलत और शोहरत पर फिदा होकर उसके साथ भाग आई है तो तुम्हीं लोग इस पर थूकना भी पसंद नहीं करोगे।”
“मैं तो तुझे जानती तक नहीं कमीने!” पूनम आवेश में चीखी—“न जाने तू क्या अनाप-शनाप बक रहा है।”
करीब आधे घंटे से आए इस आगंतुक के आने के बाद पूनम पहली बार इतनी उत्तेजित हुई थी—उसका खूबसूरत चेहरा गुस्से से एकदम लाल हो गया था।
लेकिन इस बार वह व्यक्ति उत्तेजित नहीं हुआ। वह तीखी मुस्कराहट के साथ बोला—“अगर तेरी जिदगी में सिद्धार्थ बाली से भी अधिक शोहरत वाला और दौलतमंद व्यक्ति आ जाए तो तू सिद्धार्थ बाली को भी पहचानने से इंकार कर सकती है।”
एकाएक पूनम की बड़ी-बड़ी आंखों में जमाने- भर का दर्द सिमट आया—चेहरे पर आंखों के स्थान पर दो झील-सी नज़र आने लगीं—उसके चेहरे पर आए भावों को देखकर ऐसा लग रहा था, जैसे वह अपनी रुलाई को रोकने को कोशिश कर रही हो।
परंतु अंत में वह अपनी कोशिश में हार गई।
न चाहते हुए भी वह अपनी कोठी में इकट्ठी भीड़ के सामने फूट-फूटकर रो पड़ी।
¶¶
इंस्पेक्टर देशमुख की उम्र तीस वर्ष से किसी भी हालत में ऊपर नहीं थी—उसके चौड़े डील-डौल वाले कसरती बदन पर पूरी यूनिफॉर्म थी—चौड़ा माथा— सेब जैसा लाल रंग—तीखे नाक-नक्श वाला भरा-पूरा चेहरा और उस पर छ: फीट लंबा कद उसके व्यक्तित्व को और अधिक आकर्षक और रोबीला बना रहा था।
उसकी बैल्ट के पास होलस्टर में रिवॉल्वर लटक रहा था।
इंस्पेक्टर देशमुख को जीप से उतरते देखकर भीड़ काई की तरह फटती चली गई।
उसके लिए स्वयं ही रास्ता बनता चला गया—पीछे-पीछे हवलदार अनोखेलाल और दो अन्य कांस्टेबल चल रहे थे।
इंस्पेक्टर देशमुख की चाल में अफसराना रौब झलक रहा था—वह अपने हाथ में दबे काले रंग के छोटे-से रूल को दूसरे हाथ की हथेली पर मारता हुआ चल रहा था।
ड्राइंगरूम को पार करके वह अब उस हॉल में आ गया, जहां एक व्यक्ति रस्सियों से बंधा पड़ा था।
वहां अच्छी-खासी भीड़ जमा थी।
व्यक्ति की उम्र ज्यादा नहीं थी, यही कोई अट्ठाईस-तीस के मध्य रही होगी—सांवला रंग होने क बावजूद वह काफी स्मार्ट और सुंदर नजर आ रहा था—उसके छरहरे बदन पर नीले रंग का शानदार सूट, उस पर मैचिंग करती हुई नीले रंग की टाई और सफेद शर्ट नजर आ रही थी—टाई में लगे ‘टाईपिन’ में डायमंड चमक रहा था—गले में सोने की चेन, हाथों की उंगलियों में डायमंड और गोल्ड की दो अंगूठियां—गोल्ड की अंगूठी में इंगलिश का कैपिटल अक्षर 'एल' बना हुआ था।
उसके समीप ही बेहद सुंदर नारी खड़ी थी—उसके चेहरे पर घबराहट और परेशानी के मिले-जुले भावों को देखकर इंस्पेक्टर देशमुख को यह पहचानने में दिक्कत नहीं हुई कि उसे फोन करने वाली मिसेज पूनम बाली वही है।
लेकिन इसके बावजूद उसने अपने-आपको पूरी तरह ‘कन्फर्म’ करने के लिए पूछा—“आप ही मिसेज बाली हैं न?”
“ज...जी।” पूनम ने अपने शुष्क होंठों पर जीभ फिराते हुए प्रत्युत्तर दिया—शायद इस तरह उसने अपनी घबराहट को कम करने की कोशिश की थी।
एकाएक इंस्पेक्टर ने बिना पीछे देखे रहस्यमय स्वर में कहा—“ अभी इंस्पेक्टर देशमुख की नजरें इतनी कमजोर नहीं हुईं हैं कि वह जिस जगह खड़ा है, वहां उपस्थित कोई भी व्यक्ति उसकी नजरों से चूक जाए। मैंने तुम्हें इस हॉल में घुसते ही देख लिया था मिस मंजु मेहता।"
सब लोगों की आँखों में आश्चर्य के भाव तैरने लगे—स्वयं मिस मंजु मेहता की आंखों में भी।
इसी के साथ वह उसकी तरफ पलटा। बोला—“लेकिन देखने के बाद भी तुम्हारी ‘विश’ का जवाब मैंने इसलिए नहीं दिया था कि मैं अपने आने के बाद अजीबो-गरीब दावा पेश करने वाले इस व्यक्ति के चेहरे पर आए भावों को पढ़ने की कोशिश कर रहा था।
“सर—इसीलिए तो डिपार्टमेंट में आपकी नजरों को 'एक्स' किरणें कहा जाता है।” प्रशंसनीय अंदाज में मिस मंजु मेहता ने कहा।
“बटरिंग नहीं चलेगी मिस मंजु।” कहने के साथ ही वह आगंतुक को घूरता हुआ पूनम की तरफ पलटा। बोला—“मिसेज पूनम, इन महाशय से कुछ पूछने से पहले मुझे आपसे अकेले में बात करनी है।”
पूनम के कुछ कहने से पहले ही मिस मंजु बोल पड़ी—“सर, इस आदमी का नशा जरा अच्छी तरह से उतार देना—इसने बेचारी मिसेज बाली को बहुत परेशान किया है।”
“यह बाद की बात है।” इंस्पेक्टर देशमुख ने लापरवाही भरे अंदाज में इस तरह कहा जैसे उसने कोई बेकार की फरमाइश रखी हो। कहने के बाद अर्थपूर्ण ढंग से पूनम की तरफ देखता हुआ बोला—“हां, तो मिसेज पूनम, मैं आपसे...।”
उसका वाक्य पूरा होने से पहले ही पूनम ऊपर जाने वाली सीढ़ियों की तरफ बढ़ती हुई बोली—“आइए।”
"तुम यहीं रहना मिस मंजु!” इंस्पेक्टर देशमुख ने आदेश दिया—“किसी तरह की कोई गड़बड़ न हो। मैं अभी आया।”
¶¶
“देखिए मिसेज बाली, सबसे पहले तो मुझे आपसे यह कहना है कि अगर आप सचमुच इस मुसीबत से छुटकारा पाना चाहती हैं तो मुझसे कुछ भी नहीं छुपाएंगी।”
“मैंने कोई जुर्म नहीं किया, इंस्पेक्टर—जिसके लिए मुझे आपसे कुछ छुपाना पड़े।"
"ठीक है।” कहता हुआ इंस्पेक्टर देशमुख सोफे की एक कुर्सी पर बैठ गया। बोला—“अब मैं इस व्यक्ति के आने से लेकर अब तक की सारी घटना डिटेल में सुनना चाहता हूं।"
एक क्षण के लिए पूनम ने सोचपूर्ण मुद्रा बना ली, जैसे इस पूरी घटना को एक बार फिर से याद करने और उसे क्रम देने की कोशिश कर रही हो।
इंस्पेक्टर देशमुख की आंखों से निकलने वाली ‘एक्स' किरणें उसके चेहरे को भेद रही थीं।
उसने इंस्पेक्टर देशमुख की तरफ देखकर कहना शुरू किया—“उस समय शाम के लगभग चार बजे थे—मैं अपनी दिनचर्या के अनुसार शाम की चाय पी रही थी कि अचानक ‘कॉलबेल’ बजी—मैं चाय का प्याला मेज पर रखकर बाहर की तरफ लपकी...।"
“माफ कीजिए।” उसकी बात काटकर इंस्पेक्टर देशमुख बोला—“उस समय आप कोठी में कहां बैठी थीं?”
“इसी जगह—यह हमारा बेडरूम है।
“इतनी बड़ी कोठी में आपके कोई नौकर या नौकरानी...।”
“इंस्पेक्टर!” उसका वाक्य पूरा होने से पहले ही पूनम बोली—“एक नौकर और नौकरानी हैं—लेकिन उस समय कोठी में उन दोनों में से कोई भी नहीं था।”
“कहां गए थे वह दोनों उस समय?”
“कम्मो के पिता काफी दिनों से बीमार चल रहे हैं, लेकिन शायद रात हालत कुछ ज्यादा खराब हो गई—इसलिए वह सुबह पांच मिनट के लिए सिर्फ इतना कहने आई थी कि आज वह काम पर नहीं आ सकेगी—और रामू सब्जी लेने गया हुआ है।”
“क्या अब तक नहीं लौटा वह?”
“नहीं।”
“किस समय गया था?”
“ठीक समय तो पता नहीं!" पूनम ने कहा—“शायद तीन या साढ़े तीन बज रहे होंगे उस समय।”
इंस्पेक्टर देशमुख ने अपनी रिस्टवॉच पर निगाह डालते हुए कहा—“ इसका मतलब यह है कि उसे डेढ़ या दो घंटे हो गए हैं?”
“वह रेलवे क्रॉसिंग तक पैदल जाता है, इंस्पेक्टर—दिल्ली की बसों की भीड़ से उसका दिल घबराता है।” पूनम ने उसके देर से आने का कारण बताते हुए कहा—“गांव का रहने वाला है, इसलिए ज्यादातर काम वह पैदल ही करता है—वैसे वह जब भी सब्जी लेने जाता है तो कभी भी दो घंटे से पहले नहीं लौटता।”
"तो रामू और कम्मो के न होने की वजह से दरवाजा आपको खुद ही खोलना पड़ा।” बात को पटरी पर लाते हुए इंस्पेक्टर देशमुख बोला।
“ जी।”
“फिर....?”
“मैंने जैसे ही शीशे वाला दरवाजा खोला तो यह व्यक्ति मुझे देखकर बुरी तरह चौंका—बोला—' त...तुम यहां...?”
“कहिए, अपको किससे मिलना है?” मैं इसकी अशिष्टता पर आए गुस्से को पीते हुए बोली।
“त...तुमने मुझे नहीं पहचाना, पूनम...?” यह थोड़ा आगे बढ़ता हुआ बोला।
इसके मुंह से मैं अपना नाम सुनकर बुरी तरह चकराई।
“कौन हो तुम?Ⲹ” मैंने कठोरता से पूछा।
"तो आज हमें अपनी पत्नी को ही परिचय देना पड़ेगा?” यह गुर्राया।
“क्या बक रहे हो? मैंने चीखते हुए पूछा—“कौन को तुम?”
"आज हमसे देवीजी ने इस कदर रुख बदला है कि हमें पहचानने से ही इंकार कर रही हैं?”
मैं एकदम झुंझला पड़ी—“ तुम बताते क्यों नहीं कि कौन हो तुम—मैं तो तुम्हें नहीं जानती।
"अब पहले यह बताओ कि तुम यहां किस हैसियत से रह रही हो?”
 हैसियत से क्या मतलब है तुम्हारा?" मैंने गुस्से में कहा—“यह हमारा घर है।”
“यह तो मिस्टर सिद्धार्थ बाली का घर है।”
दिल में एक बार तो यह आया कि अपने सामने खड़े इस व्यक्ति का मुंह नोच लूं—धक्के देकर कोठी से बाहर कर दूं—लेकिन अकेली होने की वजह से मैं ऐसा न कर सकी।
"जवाब क्यों नहीं देतीं—तुम्हारा घर कब से हो गया ये?” यह व्यक्ति एकदम मेरी तरफ झपटता हुआ बोला।
इतनी देर में मुझे पहली बार कुछ भय-सा महसूस हुआ। मैंने पीछे हटते हुए अपनी आवाज को कठोर बनाने का प्रयत्न करते हुए कहा—“क्या अजीब सनकी हो तुम—कहीं पति और पत्नी का भी अलग-अलग घर होता है—मैं मिस्टर सिद्धार्थ बाली की पत्नी हूं।
इतना सुनकर तो यह व्यक्ति एकदम पागल-सा हो गया—पागलों जैसे अंदाज में इसने झपटकर मेरी गर्दन पकड़ ली और गरदन पर अपने हाथों में खूंखार अंदाज में कसता हुआ बुरी तरह दहाड़ने लगा—“कमीनी, तू मेरे ही सामने अपने-आपको किसी गैर की पत्नी बता रही है और मुझे पहचानने से भी इंकार कर रही है—मैं तुझे जान से मार डालूंगा जलील औरत—तुझे जिंदा रहने का कोई हक नहीं है।"
“बचाओ—बचाओ!” मैं अपनी पूरी ताकत से चीखी।
“और जोर से चीख कमीनी! यह व्यक्ति मेरी गर्दन को सख्ती से दबाता हुआ दहाड़ा—“ताकि दुनिया वाले भी तेरी जैसी खुदगर्ज, जलील औरत की मौत का नजारा देख सकें—मैं कहता हूँ, चीख-चीखकर बुला अपने पड़ोसियों को—आज उन लोगों के सामने तेरे चेहरे पर पड़ा शराफत का नकाब नोचकर तुझे नंगा कर दूंगा।
अपनी सांसें मुझे रुकती हुई-सी महसूस होने लगीं।
यह व्यक्ति मेरी जिन्दगी पूरी तरह से खत्म करने पर उतारू हो गया था—मौत मुझे अपने बहुत करीब खड़ी दिखाई देने लगी थी।
मेरी आंखों के सामने लगातार अंधेरा बढ़ता जा रहा था।
तभी अचानक मेरी गर्दन इसके हाथ से छूट गई और इसके साथ ही मुझे इसकी चीख सुनाई दी।
“कौन है तू?” अपने पड़ोसी मल्होत्रा की आवाज मेरे कानों में पड़ी—“यह क्या हरकत है?”
अपनी गर्दन छूटने और ‘इसकी’ चीख का कारण मेरी समझ में मल्होत्रा साहब की बेंत देखकर आ गया था, जो उन्होंने कदाचित इसकी पीठ पर मारी थी।
“यह मेरी बीवी है, जो घर से भागकर यहां रह रही है—और मुझे देखकर पहचानने से भी इंकार कर रही है। मैं आज इसे जान से मार डालूंगा।”
“इससे बड़ा कोई और झूठ नहीं था तेरे पास?” मल्होत्रा साहब बोते— झूठ भी लाया तो ऐसा, जिस पर कोई मजाक में भी यकीन नहीं कर सकता—अरे बेवकूफ, सारी दुनिया जानती है कि यह मिस्टर सिद्धार्थ बाली की पत्नी हैं।”
"और अभी थोड़ी देर बाद सारी दुनिया यह भी जान जाएगी कि यह वास्तव में घर से भागी हुई मेरी पत्नी है।” यह खूंखार अंदाज में मेरी तरफ बढ़ता हुआ कह रहा था—“मैं आज मिस्टर सिद्धार्थ बाली की पत्नी बनने के इसके गंदे नाटक का भंडाफोड़ कर दूंगा।”
“इस व्यक्ति से मुझे बचाइए, मल्होत्रा साहब!” भयभीत होकर मैं मल्होत्रा साहब के पीछे दुबक गई थी।
“ऐ मिस्टर, अब तुम चुपचाप वहीं खड़े रहो, जहां खड़े हो—अगर मिसेज बाली की तरफ एक कदम भी बढ़ाया तो मारते-मारते खाल उधेड़ दूंगा।” मल्होत्रा साहब अपनी बेंत्त उसके सामने घुमाते हुए बोले।
“मैं कहता हूं आप बीच में से हट जाइए मल्होत्रा साहब। मेरे मुंह से सुनकर इसने भी मल्होत्रा साहब को यही संबोधन देते हुए कहा।
 ताकि तू मिसेज बाली के साथ मनमानी कर सके?”
"हां। इसने मेरी तरफ घूरते हुए कहा—“मैं इस औरत को जिंदा नहीं छोड़ूंगा।”
“लगता है, आज तेरी शामत ही आ रही है कुत्ते—तुझे....।”
मल्होत्रा साहब अपना वाक्य भी पूरा नहीं कर पाए थे कि इसने उनकी बैंत पकड़कर उनके पेट में लात जमा दी।
उनके होंठों से चीख निकल गई और वह अपने पीछे वाली दीवार से टकराकर फर्श पर गिर पड़े—लेकिन अब शायद यह उन्हें अपने
रास्ते से पूरी तरह हटाना चाहता था, इसलिए ही इसने फर्श पर पड़े मल्होत्रा साहब पर जंप लगा दी थी।
इस मौके का फायदा उठाकर मैं बाहर की तरफ भागी और लॉन में पहुंचकर जोर-जोर से चीखने लगी— बचाओ......बचाओ.....अरे, कोई मुझे बचाओ...।”
मेरी चीख सुनकर लोग अपनी कोठियों और बंगलों से निकलकर हमारी कोठी की तरफ आए—जिनमें सबसे आगे हमारे बिल्कुल बराबर वाली कोठी के मालिक वर्मा जी थे—उन्होंने ही किसी तरह इसे मल्होत्रा साहब से अलग हटाया था।
तब तक और भी बहुत-से लोग हमारी कोठी में पहुंच चुके थे।
लेकिन उसके बाद भी यह व्यक्ति मुझे अपनी बेवफा पत्नी बताकर पहले की ही तरह गंदी-गंदी गालियां बकता रहा।
और बीच-बीच में मुझे मार डालने के लिए कोशिश करता रहा था—पहले तो इसे मल्होत्रा साहब, वर्माजी तथा और बहुत-से लोगों ने काफी समझाने-बुझाने की कोशिश की—परंतु इस पर उस समझाने-बुझाने का कोई असर नहीं हुआ।
बस, यह तो अपनी उसी रट के साथ बार-बार मेरी तरफ बढ़ रहा था।
कोई और चारा न देखकर सब लोगों ने मिलकर इसे बड़ी मुश्किल से बांध दिया था।
इसके बांधने के बाद ही मुझे इतना मौका मिल पाया कि मैं पुलिस को फोन कर सकूं।
"आपके यहां आने तक यह अपनी उसी पागलपन की रट के साथ अनाप-शनाप बकता रहा है इंस्पेक्टर!” घबराहट-भरे अंदाज में पूनम ने कहा—“मुझे शुक्र मनाना चाहिए बेचारे मल्होत्रा साहब का कि उन्होंने मुझे बचा लिया। वरना यह व्यक्ति तो आज मुझे जान से ही मार डालता।”
“मिसेज बाली—बिल्कुल सच-सच बताइए—क्या आप इसे नहीं पहचानतीं?” सारी बात सुनने के बाद इंस्पेक्टर देशमुख ने पूछा।
“पहचानना तो बहुत दूर की बात है इंस्पेक्टर—मैंने तो इसे पहले कभी देखा तक नहीं।"
"याद रखिए मिसेज बाली, अगर आपने मुझसे कोई बात छिपाने की कोशिश को तो उससे आपको ही नुकसान पहुंच सकता है।”
"आप मुझ पर शक कर रहे हैं, इंस्पेक्टर?”
“ऐसी कोई बात नहीं है, मिसेज बाली!” इंस्पेक्टर देशमुख उसके चेहरे पर उभरे भावों को पढ़ने की कोशिश करता हुआ बोला—“क्या
आप मुझे अपनी और मिस्टर सिद्धार्थ बाली की शादी के विषय में बताएंगी?”
“क्या?”
“यही कि कब, कहां और कैसे हुई?”
"आपका शक दूर करने के लिए अवश्य ही बताऊंगी, इंस्पेक्टर।”
इंस्पेक्टर देशमुख धीमे से मुस्करा उठा।
¶¶
“किशनगंज, गंदा नाला रोड पर डीoडीoएo की चार मंजिली इमारत से कुछ पहले ही एक पुराने मकान का नंबर है—एक सौ बयालीस।
यह वही जगह है, जहां बचपन से मैंने अपने-आपको पाया था।
बड़ों के साये के नाम पर एक पिता और बड़ा भाई था। न पिता को इस बात का ख्याल था कि नन्हीं-सी लड़की के पेट में अन्न का दाना गया है या नहीं और न ही बड़े भाई को।
पेट की आग बुझाने के लिए मैं लोगों के घरों में सफाई करने, बर्तन मांजने और बाजार से सामान लाने का काम करने लगी।
बिना किसी के कोई काम सिखाए, भूख और वक्त के थपेड़ों ने इतना काम सिखा दिया था कि रोटी के साथ-साथ मुझे कुछ पैसे भी मिलने लगे, जिसे बाप और भाई में से—जिसका भी दांव लगता, छीन लेते थे।
बाप और भाई ने तो मुझे पाला नहीं था—हां, अपने साथ- साथ मैं उन दोनों को भी पालने लगी थी।
जिन घरों में मैं काम करती थी—उनमें से एक घर एक टीचर का भी था—उस घर की मालकिन स्कूल के साथ-साथ अपने घर पर भी ट्यूशन पढ़ाया करती थीं।
उन्हें एक दिन न जाने क्या हुआ—वह मुझसे बोलीं— “पूनो, तू काम खत्म करने के बाद थोड़ा-बहुत देर मेरे पास पढ़ लिया कर।”
उनके इस प्रस्ताव पर मैं फूली नहीं समाई—क्योंकि और बच्चों को पढ़ता देखकर मेरा दिल भी पढ़ने और स्कूल जाने को करता—लेकिन अपनी इस इच्छा को कभी किसी के सामने प्रकट करने का साहस नहीं हुआ था। पहले तो वह मुझे घर पर ही समय बचने के बाद पढ़ाया करती थीं—लेकिन कुछ दिनों बाद उन्होंने मेरा उसी स्कूल में दाखिला करा दिया, जिसमें वह खुद पढ़ाया करती थीं—कहना आवश्यक नहीं कि उनकी वजह से ही मेरी फीस माफ हो गई थी—किताबें और कॉपियां स्कूल के पुअर स्टूडेंट-फण्ड’ की तरफ से मिल गई थीं।
आर्थिक दृष्टि से मैं अपनी क्लास में क्या, शायद पूरे स्कूल में ही सबसे पुअर थी लेकिन उस टीचर तथा अपनी मेहनत और लगन की वजह से मैं पढ़ाई में पूरे स्कूल में सबसे ‘धनी’ थी।
इस तरह मैंने साइंस में है ‘ग्रेजुएशन’ कर लिया।
अब मैं अच्छी नौकरियों के लिए आवेदन-पत्र देने लगी।
संयोग और किस्मत से मुझे ‘भाभा विज्ञान संस्थान’ में रिसेप्शनिस्ट की नौकरी मिल गई।
मेरे बाप और बड़े भाई की तो जैसे मौज ही आ गई थी—उन्हें घर पर ही अच्छा खाना मिलने लगा था—लेकिन उन्हें सिर्फ इतने पर ही संतोष न था।
उन दोनों को शाम होते ही शराब तथा जुए और सट्टे की भेंट चढ़ाने के लिए रुपये भी चाहिए थे—वे अक्सर मुझसे किसी-न-किसी काम के बहाने रुपये लेकर अपने शौक पूरे किया करते थे।
कुछ दिनों बाद मैं उनके सारे बहाने समझ गई थी और मैंने उन्हें पैसे देने बिल्कुल बंद कर दिए थे।
लेकिन वे बाप और भाई थे कहां?
वो तो दो राक्षस थे, जिनके बीच एक मासूम-सी नन्हीं लड़की ने अपना बचपन रो-रोकर गुजरा था।
पैसे न देने पर वे दोनों मुझे उसी तरह मारते-पीटते, जैसे एक नन्हें-से बच्चे को कोई बहुत बड़ी गलती करने पर पीटा जाता है—उसके बाद उन्हें मेरे पास जितने भी पैसे नजर आते, उन्हें शराब, जुए और सट्टे की भेंट चढ़ा देते थे— जब और कोई वश नहीं चलता था तो मेरे द्वारा इकट्ठी की गई घर की चीजों को बेच आते थे।
अपने इस नारकीय जीवन से मैं बुरी तरह ऊब चुकी थी लेकिन फिर भी अपने घर को छोड़ने का न तो साहस ही होता था और न ही दिल करता था।
परंतु एक दिन उन दोनों राक्षसों ने अपने दिल में छुपे राक्षस को पूरी तरह उजागर कर दिया।
उस दिन बाप तो शराब के नशे में एक कमरे में धुत पड़ा था—दूसरे कमरे में मैं सो रही थी।
रात के ग्यारह बज रहे थे—जिस समय मोहन ने आकर दरवाजा खटखटाया—बिस्तर से उठकर मैंने दरवाजा खोला तो देखा, मोहन के साथ एक अजनबी व्यक्ति भी था, जो मुझे ललचाई दृष्टि से देख रहा था—मुझे शक्ल से ही वह व्यक्ति अच्छा नजर नहीं आ रहा था।
उसे घर लाने पर मुझे मोहन पर गुस्सा तो बहुत आया था…लेकिन उस समय कुछ नहीं बोली और अपने कमरे की तरफ बढ़ गई—अभी कमरे तक पहुंची भी नहीं थी कि—  पूनम...। मुझे नशे में डूबी मोहन की आवाज सुनाई दी।
मैंने वहीं खड़े-खड़े उपेक्षा से  कहा— “क्या है?”
 यह चौधरी साहब हैं—शराब के बहुत बड़े ठेकेदार—इनके लिए अच्छी-सी चाय बनाओ।
खून का-सा घूंट पीकर मैं किचन की तरफ बढ़ गई—चाय बनाकर जिस समय मैं उस कमरे में पहुंची, जहाँ बाप पहले से ही शराब के नशे में पड़ा था और मोहन उस बदमाश-से नजर आ रहे व्यक्ति के साथ बैठा था—उस समय तक मोहन भी नशे की अधिकता के कारण सोफे पर ढेर हो चुका था।
टेबल पर चाय रखते हुए देखकर वह अपने होंठों पर जीभ फेरता हुआ मुझे कामुक नजरों से घूर रहा था—मैं चाय रखकर तुरंत अपने कमरे में चली गई थी।
लेकिन उस समय बुरी तरह कांप गई—जिस समय मैंने उसे पीछे-पीछे अपने कमरे में घुसते हुए देखा—मैं अभी चीखना ही चाहती थी कि उसने झपटकर मेरे मुंह पर अपना हाथ रख दिया। बोला—“तुम्हारे भाई को पूरे पांच हजार रुपये दिए हैं और साले को जिन्दगी भर मुफ्त में शराब पिलाने का ठेका लिया है—ऐसे में तुम क्यों चीखती हो मेरी जान!”—कहता हुआ वह व्यक्ति मुझे लेकर बिस्तर की तरफ बढ़ने लगा।
मैं भरसक विरोध करने के बाद भी उसके चंगुल से निकलने में कामयाब न हो पा रही थी।
लेकिन उसने जैसे ही मुझे बिस्तर पर पटका, उसकी पकड़ तनिक ढीली हुई और मैंने अपना मुंह आजाद करके उसके हाथ पर पूरी ताकत से काट लिया—वह हौले से चीखकर मुझे छोड़ थोड़ा-सा पीछे हटा।
बस मेंरे लिए यही मौका था— जब मैं उस दरिंदे से अपनी इज्जत बचाने की कोशिश कर सकती थी।
मैं तेजी से बाहर वाले दरवाजे की तरफ भागी, क्योंकि मुझे अपने जन्म देने वाले बाप और उस कसाई से रक्षा की कोई उम्मीद नहीं थी, जिस पर हर साल रक्षा-बंधन पर राखी बांधा करती थी।
शराब का वह ठेकेदार भी मेरे पीछे तेजी से लपका—लेकिन उस समय शराब, जो मुझे दुश्मन नज़र आती थी—उसने भी मेरा बहुत साथ दिया—क्योकि शराब का वह ठेकेदार भी नशे में था—और नशे की उस झोंक में वह पीछा करने में मेरी तरह फुर्ती न दिखा सका था—लड़खड़ाता हुआ वह दरवाजे से टकराया और वहीं ढेर हो गया था।
लेकिन तब तक मैं दरवाजा खोलकर सड़क पर आ चुकी थी तथा बेतहाशा भागती जा रही थी, जैसे पीछे सैंकड़ों भूत लगे हों।
काफी दूर भागने के बाद मुझे स्टेशन के बाहर एक ऑटो रिक्शा नजर आया—मैं बिना कुछ सोचे-समझे हड़बड़ाहट में उसे रोककर बैठ गई—और उस समय मैं बुरी तरह चौंक गई—जब ऑटोरिक्शा वाले ने आश्चर्य से मेरी तरफ देखते हुए पूछा—“क्या बात है बेटी, तुम इस तरह घबराई-सी क्यों हो?”
मैंने चौंककर उसकी तरफ देखा।
वह सरदारजी थे। किशनगंज में ही छोटी-सी बस्ती में रहने वाले।
उनसे बस यही जान-पहचान थी मेरी।
वह मुझे चुप देखकर पुन: बोले—“लगता है, आज ऑफिस में आपकी नाइट ड्यूटी लग गई है बेटी?”
उनके ऑटोरिक्शा में बैठने से पहले तक तो मुझे यह भी मालूम नहीं था कि मैं जाऊंगी कहां—लेकिन सरदारजी ने उस समय जाने के लिए मुझे एक अच्छी और सुरक्षित जगह का नाम अवश्य दे दिया था।
“हां-हां जल्दी से वहीं चलो।” मैंने हड़बड़ाते हुए कहा—“मैं काफी लेट हो गई हूं।”
“अभी लो बेटी—बस, यह समझो कि तुम वहां पहुंच गईं। सरदारजी ने ऑटोरिक्शा स्टार्ट करते हुए कहा।
कहने की आवश्यकता नहीं कि 'भाभा विज्ञान संस्थान’ में चौबीस घंटे विज्ञान से संबंधित प्रयोग होते हैं—तीन शिफ्टों में यहां कर्मचारी काम करते हैं।
सरदारजी को देने के लिए मेरे पास किराये के पैसे भी नहीं थे—पर्स जल्दी में घर रह जाने का नाटक करते हुए उन्हें पैसे कल देने को कहकर मैं विज्ञान संस्थान के मुख्य गेट की तरफ बढ़ गई थी।
उस समय वहां मिस्टर सिद्धार्थ अपना कोई अंतरिक्ष संबंधी परीक्षण कर रहे थे। वह मुझे इतनी रात गए विज्ञान संस्थान में देखकर चौंके—“अरे मिस पूनम, तुम इस समय यहां?”
“ब...बात यह है स...सर!"
वह मेरी बात बीच में ही काटकर बोले— तुम्हारी ड्यूटी तो शायद दिन की है न?”
“जी...।”
“ फिर इस समय...?” कहते हुए वह एकदम रुक गए और कुछ सोचते हुए बोले— क्या बात है मिस पूनम—तुम कुछ परेशान-सी नजर आ रही हो?”
“न....नहीं सर—ऐसी कोई बात नहीं।” मैं अपने-आपको सामान्य दर्शाने की कोशिश करती हुई बोली— आज घर पर कोई नहीं था—इसलिए न तो नींद ही आई और न ही अकेले मन लगा—बस, पड़े-पड़े यह ख्याल आया कि क्यों न चलकर आज ऑफिस में रात की शिफ्ट में काम करने वाली रीता के काम में हाथ बंटाया जाए—कभी-कभी दिन में मैं भी उससे काम ले लिया करती हूं—बस, यही सोचकर मैं यहां आ गई—लेकिन वह अपनी सीट पर से गायब है—अंदर प्रयोगशाला में उसे देखने आई तो आप...।”
"मिस पूनम, आप जो कहानी बयान कर रही हैं—आपका चेहरा उससे अलग कुछ कह रहा है।"
उन्होंने मेरा झूठ ताड़ लिया था।
वह लगातार मेरी परेशानी पूछे जा रहे थे—मैं टालमटोल कर रही थी।
लेकिन देश के इतने बड़े वैज्ञानिक की सहानुभूति पाकर मैं निहाल-सी हुई जा रही थी।
और अंत में मैं उनके प्यार और सहानुभूति के सामने हार गई—अपने दिल में जब्त जिन्दगी का तमाम दुख-दर्द उनके सामने उगल दिया। मैं उस समय आश्चर्यचकित रह गई, जब मैंने अपनी दुखभरी कहानी सुनाने के बाद उनकी आंखों में आंसू देखे।
“स...सर...आप रो रहे हैं? मैंने उनके आंसू देखकर कहा।
“मिस पूनम, आज तक इतनी दर्दभरी कहानी पिक्चरों और उपन्यासों में ही देखी-पढ़ी थी—लेकिन आज प्रत्यक्ष में तुम्हारी कहानी सुनी तो बड़ा अजीब-सा लग रहा है, क्योंकि मैंने आज तक अपनी जिन्दगी में कभी दुख देखे ही नहीं।              
“सर, आप अपना प्रयोग कीजिए। मैंने विषय को बदलते हुए कहा—“चलिये.....मैं आपकी मदद करती हूं।”
 नहीं मिस पूनम, अब हम कोई प्रयोग नहीं करेंगे। मिस्टर सिद्धार्थ उठते हुए बोले—“चलो, हम तुम्हें अपने घर ले चलते हैं—रात को तुम वहीं आराम करना—सुबह हम तुम्हें विज्ञान संस्थान का फ्लैट दिला देंगे—अब मत जाना इंसान कहलाने वाले उन दरिंदों के पास।”
“न....नहीं स...सर...!” मैंने प्रतिरोध किया।
 डरो नहीं मिस पूनम, हम तुम्हारी किसी भी मजबूरी का फायदा नहीं उठाएंगे—मेरे घर में मम्मी, पापा और एक छोटी बहन भी रहती है।"
मैंने काफी इंकार किया—परन्तु वह मुझे अपने साथ विज्ञान संस्थान की तरफ से मिली अपनी शानदार कोठी में ले गए।
अपने परिवार के तमाम सदस्यों से मेरा परिचय कराया—उनके मम्मी-पापा और छोटी बहन की आदत बहुत अच्छी थी—सब लोगों ने बहुत प्यार से मुझसे बातें की थीं—मुझे अच्छी तरह याद है कि मैं उन लोगों के सामने खुद को बहुत हीन अनुभव कर रही थी।
यह जानकर मुझे बहुत आश्चर्य और खुशी हुई थी कि उनके पापा भी देश के महान वैज्ञानिकों में से एक हैं—डाक्टर रामन्ना बाली का नाम तो बहुत सुना था—स्कूल में पढ़ाई जाने वाली साइंस की किताबों में भी पढ़ा था—लेकिन उस दिन देखा पहली बार ही था—मिस्टर सिद्धार्थ बाली को पिता के रूप में।
रात को मैं उनकी बहन दिशा बाली के साथ सोई थी।
अगले दिन वहां से तैयार होकर उन्हीं के साथ ऑफिस आ गई।
उसी दिन मुझे विज्ञान संस्थान का फ्लैट मिल गया था।
और उस समय मुझे अपनी किस्मत पर यकीन नहीं आया था…जब देश की इतनी बड़ी हस्ती ने मुझ जैसी मामूली-सी लड़की के सामने शादी का प्रस्ताव रखा था—मुझे यह एक स्वप्न-सा लगा था।
अपनी हीन भावना से ग्रस्त मैंने उनसे काफी इंकार किया था—लेकिन वह अपनी इस जिद पर अड़े रहे कि शादी करेंगे तो सिर्फ मुझसे ही।
अंत में मेरी स्वीकृति मिलने के बाद उनके सामने एक बहुत बड़ी अड़चन आ गई थी।
उनके घर पर इस शादी के लिए कोई भी तैयार नहीं था—कदाचित वे लोग मिस्टर सिद्धार्थ की शादी किसी संपन्न और उच्च घराने की लड़की से करना चाहते होंगे—उनके परिवार का विरोध देखकर मैं उनकी जिन्दगी से अलग हो जाना चाहती थी—लेकिन वह मुझसे इस सीमा तक प्यार करने लगे थे कि अगर मैं ऐसा करती तो शायद वह खुद को कुछ कर बैठते—उनकी जिन्दगी और कैरियर को देखते हुए मुझे उन्हीं का साथ देना पड़ा।
उन्होंने अपने परिवार वालों के विरोध के बावजूद बीस अप्रैल को मुझसे करोलबाग के आर्यसमाज मंदिर में शादी कर ली।
कुछ दिनों तक विज्ञान संस्थान के फ्लैट में रहने के बाद उन्होंने अभी कुछ दिनों पहले ही बसंत विहार में यह कोठी खरीद ली और हम पन्द्रह मई को यहां शिफ्ट हो गए। लेकिन मेरी जिन्दगी में सबसे अधिक खुशी का दिन तब आया, जब पिछले हफ्ते हमारी शादी के बाद पहली बार  मिस्टर सिद्धार्थ की बहन यानी मेरी ननद दिशा बाली, यहां सात-आठ दिन रहने के लिए आई थी—वैसे अभी उनके परिवार वाले हमसे नाराज ही हैं, लेकिन दिशा के आने के बाद मुझे ऐसा लग रहा है कि हमारे लिए उनका रुख धीरे-धीरे बदल रहा है—नर्म होता जा रहा है—अपनी ससुराल की तरफ से पहली बार किसी को आया देखकर मुझे बहुत खुशी हुई।
यूं दिशा घर पर स्कूल की तरफ से किसी हिल स्टेशन पर जाने का बहाना करके आई थी—लेकिन मेरे लिए इतना ही काफी था कि वह आई।
वह एक हफ्ता रहकर कल ही उनके जाने के बाद अपने घर गई है—क्योंकि आज से उसके स्कूल खुल रहे हैं।