मुझे मसरूफ पाकर वो दरवाजे पर ही ठिठक गयी । उसके चेहरे पर सकपकाहट के भाव आये और फिर बड़े कातिलाना अन्दाज से उसकी धारदार भवें उठीं ।
इतनी एकाग्रता से कागज कलम से जूझते उसने पहले कभी मुझे देखा जो नहीं था ।
रजनी मेरी सैक्रेट्री थी जो कि मेरी गैरहाजिरी में मेरा दफ्तर सम्भालती थी ।
और कौन सम्भालता ! मेरे अलावा एक वो ही तो थी मेरी डिटेक्टिव एजेन्सी के ऑफिस की मुलाजमत में ।
रजनी एक कोई बाईस साल की बहुत ही खूबसूरत, भलीमानस और नेकनीयत लड़की थी । पछले एक साल में ही मैं उसका ऐसा मोहताज बन गया था कि अपने बायें हाथ के बिना अपनी कल्पना कर सकता था, रजनी के बिना अपनी फर्म यूनीवर्सल इनवैस्टिगेशंस की कल्पना नहीं कर सकता था ।
“इम्तहान शायद परसों ही है !” - वो बड़े सहज भाव से बोली ।
“इम्तहान !” - मैं सकपकाया ।
“जिसकी कि आप इतनी तल्लीनता से तैयारी कर रहे हैं ।”
मैने आंख भरकर उसे देखा ।
कितनी खूबसूरत थी कम्बख्त !
“आपने जवाब नहीं दिया ?” - वो अपना निचला होंठ चुभलाती हुई बोली ।
“इधर आ ।” - मैं बोला ।
वो चौखट पर से हटी और मुस्कराती हुई मेरे करीब पहुंची ।
“नमस्ते कर ।”
“इस वक्त ?”
“क्या हुआ है इस पक्त को ?”
“हुआ तो कुछ नहीं लेकिन ये कोई नमस्ते का वक्त है ? नमस्ते तो प्रात:काल होती है जबकि ऑफिस में कदम रखा जाता है । अगर आप अपने दिमाग पर जोर देने का मुश्किल काम कर पायें तो आपको याद आ जायेगा कि सुबह मैंने नमस्ते कर दी थी । आपके ऑफिस में कदम रखते ही जो पहला काम मैंने किया था, वो ये ही था ।”
“एक तारीख में कोई एक काम दोबारा करने से तेरा कोई व्रत टूट जाता है ?”
“ऐसा तो नहीं है ।”
“तो फिर ?”
“तो फिर” - उसने बड़ी अदा से दोनों हाथ जोड़े और मधुर स्वर में बोली - “नमस्ते, सर्र ।”
“सरसराये बिना नमस्ते कर ।”
“नमस्ते ।”
“शाबाश । अब एक पप्पी दे ।”
वो हंसी ।
“पता नहीं कैसी सैक्रेट्री है तू ! कोई इन्सट्रक्शन ठीक से फालो नहीं कर सकती । काम कोई बताता हूं, करती कोई है । कहा पप्पी देने को, दिखा दिया हंस के ।”
वो निचला होंठ दबा कर फिर हंसी ।
“मैं तुझे हंसने की तनखाह देता हूं ?” - मैंने नकली झुंझलाहट जाहिर की ।
“नहीं । ये काम तो मैं फ्री में करती हूं । समझ लीजिये कि आपको बोनस देती हूं ?”
“तू ! तू मुझे… मुझे बोनस देती है ?”
“हां ।” - वो शान से बोली - “तनखाह के बदले में पूरा काम करती हूं, ऊपर से हंस के दिखाती हूं । ये बोनस ही तो हुआ ?”
“अरे, बोनस मालिक मुलाजिम को देता है, न कि मुलाजिम मालिक को ।”
“यानी कि जो बोनस दे वो मालिक होता है ।”
“हां ।”
“फिर तो मैं मालिक हुई ।”
“मालिक तो तू है ही ।” - मैं आह भरकर बोला - “किसे इन्कार होगा तेरी मुलाजमत से ! तेरी गुलामी से !”
“लगे बहकने ।”
“इतना कल्याण तू इसीलिये कर रही है न कि तुझे पप्पी देने जैसा एक मामूली काम न करना पड़े ।”
“ये मामूली काम है ?”
“अरे, सिम्पल पप्पी तो मामूली काम ही है । मैं कौन सी हाई स्पीड, हाई वोल्टेज, हाई कैलोरी पप्पी मांग रहा हूं !”
“मांगना मंगतों का काम होता है, जनाबेआली ।”
“चल मैं मंगता ही सही ।” - फिर मेरा स्वर नाटकीय हो उठा, मैंने अपना एक हाथ सामने फैलाया और बोला - “एक पप्पी का सवाल है, बीबी । तू एक पप्पी देगी वो दस लाख देगा । जो दे उसका भी भला जो न दे उसका भी भला । चिड़ी चोंच भर ले गयी नदी न घटयो नीर ।”
वो जोर से हंसी ।
मैं कुछ क्षण उसे घूरता रहा और फिर डपटकर बोला - “हंसना बन्द कर ।”
तत्काल उसने होंठ भींचे लेकिन उसकी आंखें फिर भी हंसती रहीं ।
“वैसे हैरान हो रही होगी ।” - मैं बोला ।
“किस बात पर ?”
“कि मैं आज सुबह से ही दफ्तर में मौजूद हूं और अभी भी टलने का कोई इरादा नहीं रखता ।”
“इसमें हैरानी की क्या बात है ? ऑफिस आपका है । मर्जी आपकी है । भले ही कभी आयें, कभी जायें । आकर चले जायें, यहां टेबल की बगल में दिन भर यहीं जमे रहें या रात के लिये यहां टेबल की बगल में चारपायी डाल लें । वगैरह ।”
“आयी बड़ी वगैरह वाली । तू तो यही चाहती होगी कि मैं या तो आऊं ही नहीं, या आ के चला जाऊं ।”
“क्यों भला ?”
“ताकि तेरी फुल चान्दी हो जाये ! अपने ब्वाय फ्रेंड को पक्का ही बुला कर रख ले !”
“जब आप जानते ही हैं सब कुछ तो क्यों यहां लंगर डाले बैठे हैं ?”
मैंने निगाहों से भाले-बर्छियां बरसाते हुए उसे घूरा ।
उसके कान पर जूं भी न रेंगी ।
उसका कोई ब्वाय फ्रेंड का जिक्र हम दोनों के बीच चुहलबाजी का सदाबहार विषय था ।
“एक बार” - मैं दान्त पीसता हुआ बोला - “सिर्फ एक बार वो मेरे काबू में आ जाये सही, फिर देखना कि मैं...”
“फर क्या करेंगे आप ?”
“कमीने के ऐसे कलपुर्जे अलग करूंगा कि दुनिया का टॉप का मकैनिक भी उसे रीअसैम्बल नहीं कर सकेगा ।”
“वो रैम्बो है” - वो चेतावनीभरे स्वर में बोली - “पहले भी खबरदार किया था ।”
“मैंने भी पहले खबरदार किया था तुझे ।”
“मैं भी कुन्तीनन्दन भीमसेनसुत वीर घटोत्कच हूं ।”
उसकी बेसाख्ता हंसी छूटी ।
“लगते तो हैं आप सूरत से घटोत्कच ।” - फिर वो बोली ।
“ठहर जा, कम्बख्त ! मुझे घटोत्कच कहती हैं !”
“मैं कहां कहती हूं ! आप खुद ही कहते हैं अपने आपको ।”
“अरे, मैं अपने आपको कुछ भी कहूं, तेरा क्या मतलब है अपने एम्पलायर को अनाप-शनाप बोलने का ?”
“मतलब तो कुछ नहीं है लेकिन करूं क्या ? यही जुबान तो आप पसन्द करते हैं ।”
“कौन सी जुबान ?”
“यही । बेहूदा । घटिया । गटर वाली ।”
“मैं बेहूदा, घटिया, गटर बाली जुबान बोलता हूं ?”
“आपका खुद का क्या ख्याल है ?”
“रजनी” - मैं दान्त पीसता हुआ बोला - “एक नम्बर की कम्बख्त औरत है तू ?”
“करैक्शन वन हण्ड्रड सिकस्टी सेवन्थ टाइम । मैं औरत नहीं हूं और एक नम्बर की नहीं हूं ।”
“लेकिन कम्बख्त है । कबूल करती है ?”
“अब छोड़िये ये बातें वरना इन्हीं में शाम और शाम से सवेरा हो जायेगा ।”
“तुझे क्या ! इन्हीं बातों की तो मैं तुझे तनखाह देता हूं ।”
“नहीं, नहीं ।” - वो कदरन संजीदा हुई - “तनखाह तो आप मुझे काम की ही देते हैं । इसलिये बताइये, क्या कर रहे हैं ताकि मै आपका हाथ बंटा सकूं ।”
“इनकम टैक्स रिटर्न से मगजपच्ची कर रहा हूं । कम्बख्त कुछ पकड़ में ही नहीं आ रहा ।”
“क्या पकड़ में नहीं आ रहा ?”
“यही कि कितना टैक्स जमा कराऊं ? किस हिसाब से टैक्स की रकम निर्धारित करुं ?”
“इतने से काम के लिये मगजपच्ची की क्या जरुरत है ? उसके लिये तो एक सीधा सरल फार्मूला है जिससे कि टैक्स का किसी का भी - आपका तो खासतौर से - मसला चुटकियों में हल किया जा सकता है ।”
“क्या फार्मूला है ?”
“देखिये” - वो बड़े इत्मीनान से बोली - “पहले तो आप अपने पर निर्भर व्यक्तियों को गिनिये...”
“कोई भी नहीं है । तनहा हूं इस दुनिया में । मेरा मतलब है जब तक कि तू काबू में नहीं आ जाती ।”
“वो ख्वाब तो अभी देखते रहिये । बहरहाल बात आपकी इनकम टैक्स रिटर्न की हो रही थी ।”
“हां ।”
“अपने पर निर्भर व्यक्तियों में आप दो कुत्तों, तीन बिल्लियों पन्द्रह बहनजियों और दो नाजायज बच्चों को शुमार कर सकते हैं । यूं हासिल हुई संख्या को अपनी उम्र से गुणा कीजिये और उत्तर में से अपनी उस फियेट का नम्बर घटा दीजिये जो कि हीरा ईरानी के कत्ल वाले केस के दौरान एक्सीडेंट में बरबाद हो गयी थी । अब इस रकम में से उन केसों की तादाद को घटाइये जो, इतने तीसमार खां बनने के बावजूद, आप हल न कर सके, उसे अपने फ्लैट वाली कोठी के नम्बर से भाग कीजिये और उसमें अपनी नयी सिल्वर मारुति की चेसिस का नम्बर जोड़ दीजिये । यहां तक समझ गये ?”
मेरा सिर स्वयंमेव ही सहमति में हिला ।
“गुड ।” - वो सन्तुष्टिपूर्ण ढंग से सिर हिलाती हुई बोली - “अब जो संख्या हाथ में है उसमें से मेरी, घर की नौकरानी की और उस ड्राइवर की, जो कि आपने कभी रखा ही नहीं, सालाना तनखाह घटाइये, उसमें अपने कामयाब केसों की संख्या जोड़िये और अपनी कमीज के कालर के नाम से भाग कीजिये । कुल जमा जितनी मर्तबा आप गिरफ्तार हुए हैं, उस फिगर को भी इसमें जोड़िये और जवाब में से अपने जूते का नाप घटा दीजिये । यूं हासिल हुई संख्या को अपनी ग्रॉस इनकम मानते हुए इसमें से उन गर्भपातों की संख्या घटाइये जिनका बिल वक्त-वक्त पर आपको भरना पड़ा । अब आखिर में इसमें अपना वजन और ब्लड प्रैशर जोड़िये और उम्र से भाग कर दीजिये । यूं हासिल संख्या के बराबर की रकम आपने देय इनकम टैक्स के तौर पर सरकारी खजाने में जमा करानी होगी ।”
मैं भौचक्का सा उसका मुंह देखता रहा ।
“ईजी ।” - वो बड़ी शान से बोली ।”
“दफा हो जा ।” - मैं भड़क कर बोला ।
“यस, बॉस !” - वो एक फौजी की तरह अबाउट टर्न करती हुई बोली - “युअर वर्ड इज़ माई कमांड ।”
“और आज की तारीख में मुझे दोबारा अपनी शक्ल न दिखाना ।”
“सिर्फ आज की तरीख में ? कम से ये पूरा महीना तो...”
“आउट ।”
“यस सर्र ।”
अपनी जबरन फूटती हंसी को दबाती वो वहां से बाहर निकल गयी ।
मैंने झुंझलाते हुए हाथ में थमा पैन सामने फैले कागजात पर फेंका, कागजात परे सरकाये और कोट की जेब से डनहिल का पैकेट निकाल कर एक सिगरेट सलगा लिया ।
आपकी जानकारी के लिए इनकम टैक्स के मैं सख्त खिलाफ हूं । टैक्स भरने के ख्याल से ही मुझे कुछ होने लगता है, इसीलिये उसके हिसाब-खाते में मेरा दिल नहीं लगता । और जिस काम में दिल न लगता हो, वो क्या आसानी से किसी सिरे पहुंचता है ।
वैसे भी टैक्स ठीक भरो तो हालत यतीमखाने जाने जैसी हो जाती है, गलत भरो तो जेल जैसी हो जाती है ।
जब भी देश में नयी सरकार बनती है तो उसका नया वित्त मन्त्री इनकम टैक्स भरने की प्रक्रिया के सरलीकरण की जरूर करता है । इसी परम्परा को कायम रखते हुए नये वित्त मन्त्री ने घोषणा की है कि भविष्य में इनकम टैक्स फार्म सिर्फ एक पेज का होगा । आपके खादिम का कहना ये है कि एक पेज का भी किस लिये ? एक पेज भरना भी कौन सा आसान काम है ? जब टैक्स-पेयर की गिरह ही काटनी है तो क्यों न टैक्स रिटर्न का फार्म सिर्फ तीन लाइनों का बनाया जाये जो कि इस प्रकार हो सकती हैं:
- पिछले साल कितना कमाया ?
- कितना बाकी बचा ?
- पैरा नम्बर दो की रकम सरकारी खजाने में जमा कराइये । ईजी !
मैंने सिगरेट का एक लम्बा कश लगाया और नाक से धुयें की दोनाली छोड़ी ।
मुझे पूरी उम्मीद है कि आप अपने खादिम को भूले नहीं होंगे लेकिन अगर किसी वजह से ऐसा हो गया हो तो खाकसार अपना बायोडेटा फिर पेश करता है ।
यूअर्स ट्रूली को सुधीर कोहली कहते हैं, बन्दा प्राइवेट डिटेक्टिव - यूनीवर्सल इनवैस्टिगेशंस, विशाल भवन, चौथी मंजली, नेहरू प्लेस, नई दिल्ली-110019 - के उस दुर्लभ धन्धे से ताल्लुक रखता है जो हिन्दोस्तान में अभी ढंग से जाना पहचाना नहीं जाता लेकिन इसे आप कुदरत का करिश्मा कहें या खाकसार का, दिल्ली शहर में आपके खादिम की, बतौर प्राइवेट डिटेक्टिव, अच्छी खासी पूछ है । तम्बाकू और आलू की तरह प्राइवेट डिटेक्टिव भी पहले हिन्दोस्तान में नहीं होते थे लेकिन अब होने लगे हैं, बहुतायत में तो नहीं लेकिन होने लगे हैं ।
तभी मेज पर रखे फोन का बजर बजा ।
मैंने हाथ बढ़ा कर रिसीवर कान से लगाया और बोला - “यस ।”
“पतंग आयी है ।” - रजनी बोली ।
“क्या ?”
“बहनजी । आपसे मिलना चाहती हैं ।”
“कहां है ?”
“यहीं है ।”
“और ये वाही तबाही तू उसके सामने बक रही है ? पतंग, बहनजी जैसे नामों से….”
“वो परे खड़ी है । मेरी तरफ पीठ करके । सुन नहीं सकती ।
“पीठ करके क्यों ?”
“अब मैं क्या कहूं ?”
“जरूर उसे खुशफहमी होगी कि वो आती उतनी अच्छी नहीं लगती जितनी कि जाती लगती है । नो ?”
“इन मामलों में मेरा ज्ञान बहुत सीमित है ।”
“जब कि तू खुद बहनजी है !”
“लगे बहकने !”
“क्या चाहती है ?”
“मैंने क्या चाहना है ? सिवाय इसके कि...”
“अरे, तेरी चाहत की किसे फिक्र है ? मैं उस लड़की की बात पूछ रहा हूं जो...”
“लड़की मैंने कब कहा ?”
“तो क्या वो अम्मा है ?”
“हो सकती है ।”
“नहीं हो सकती । होती तो तूने उसे माता जी कहा होता और पतंग न कहा होता ।”
“यकीनन बहुत आला दिमाग पाया है आपने । मुझे आपकी सैक्रेट्री होने पर नाज है ।”
“बातें मत बना । बोल, क्या चाहती है ? तू नहीं, वो ।”
“बताया तो, आपसे मिलना चाहती है ।”
“क्यों ?”
“ये भी कोई पूछने की बात है ?”
“यानी कि क्लायन्ट है ?”
“हां ।
“पेईग कस्टमर है ?”
“आप वैसे ही कोई हिसाब किताब नहीं कर लेंगे तो है ।”
“फिर भी उसमे इन्तजार करा रही है, फौरन यहां नहीं भेज रही उसे !”
“सारी, सर्र ।”
फोन बन्द हो गया ।
एक मिनट बाद बीच का दरवाजा खुला और मेरे कक्ष में एक युवती ने कदम रखा ।
तत्काल आदत से मजबूर मैं अपनी खुर्दबीनी निगाह से उसे नख से शिख तक निहारने लगा ।
जो मुझे दिखायी दिया वो काफी तसल्लीबख्श था, बहुत काफी निगाहों को सुकून पहुंचाने वाला था ।
सरकार मर्द की आमदनी पर टैक्स लगाती है, जबकि वो उसकी लार टपकाती नीयत पर, उसके नदीदेपन पर टैक्स लगा सके तो कहीं ज्यादा रेवेन्यू अर्जित कर सकती है । ऐसा हो जाये तो सरकार को टैक्स कलैक्टर भी न रखने पड़ें, परीचेहरा दोशीजायें ऐसे कामों को सरकार के लिये फ्री में अंजाम दे सकती हैं ।
बहरहाल शुक्र है कि दीद पर कोई टैक्स नहीं इसलिये मैंने जी भर के उसकी खूबसूरती का रसपान किया ।
वो कोई पच्चीस साल की गोरी रंगत वाली युवती थी जो कि कद में साढ़े पांच फुट से किसी कदर कम नहीं थी । वो एक सफेद रंग की टाइट जीन और सफेद धारियों वाला टॉप पहने थी । कानों में वो इतने बड़े सोने के बाले पहने थी कि कोई जिमनास्ट चाहता तो उनके साथ झूल कर कसरत कर सकता था । उसके चेहरे पर सलीके का मेकअप दिखायी दे रहा था और वैसे ही सलीके से बाल कटे हुए थे जिनमें कि एक धूप का चश्मा फंसा हुआ था । उसके नितम्ब भारी थे, कमर पतली थी और छातियां इतनी भरी-भरी पुष्ट और सुडौल थीं कि निगाह सबसे पहले वहीं पड़ती थी, आजू बाजू भटक भी जाती थी तो लौट कर वहीं आती थी ।
कोई हिन्दी भाषा का गूढ़ज्ञानी बरायमेबरबानी मुझे समझाये कि वक्ष को स्थल क्यों कहा जाता है और कटि को प्रदेश क्यों कहा जाता है ? स्थल - जगह - तो एक ही होता है जबकि प्रदेश - इलाका - तो बड़ा, बहुत बड़ा हो सकता है जिसमें कि कई स्थल समा सकते हैं । फिर भी मुट्ठी भर कमर तो कटि प्रदेश कहलाती है जबकि बयालीस इंच की अंगिया में भी बामुश्किल समा पाने वाले स्तन वक्ष स्थल कहलाते हैं ।
“मिस्टर कोहली !” - वो संजीदगी से बोली ।
मैं हड़बड़ाया, बड़ी मेहनत से मैंने उसके ‘स्थल’ पर से निगाह हटाई और उठ कर खड़ा हुआ ।
“इन पर्सन ।” - होठों पर स्वागतपूर्ण मुस्कराहट लाता, सिर नवाता, मैं बोला ।
“मेरा नाम प्रिया सिब्बल है । मुझे आपकी प्रोफेशनल कंसलटेशन की जरूरत है ।”
“मेरी ? यानी कि एक प्राइवेट डिटेक्टिव की ?”
“जी हां ।”
“यू हैव कम टु दि राइटैस्ट प्लेस । प्लीज सिट डाउन ।”
“थैंक्यू ।”
वो मेरी मेज के सामने लगी विजिटर्स चेयर्स में से एक पर बैठ गयी ।
मैं भी वापिस अपनी कुर्सी पर ढेर हुआ । सिगरेट का और कोई कश लगाये बिना ही मैंने उसे ऐश-ट्रे में झोंक दिया और अपलक उसे देखने लगा ।
उसने कुर्सी पर बैठते ही दो-तीन बार यूं पहल बदला जैसे चैक कर रही हो कि कौन सी पोजीशन में कुर्सी सबसे ज्यादा आरामदेय थी, बालों में उंगलियों की कंघी फिरा कर उन्हें व्यवस्थित किया, धूप के चश्मे को बालों से निकाला और फिर वापिस वहीं खोंस दिया, बड़ी नजाकत से आंख, नाक, कान वगैरह को यूं छुआ जैसे तसदीक कर रही हो हर आर्गन अपनी निर्धारित जगह ही था, कोई अपनी जगह से इधर उधर नहीं हो गया था । स्कीवी के गिरहबान में एक उंगली डालकर उसे गोल घुमा कर पता नहीं क्या व्यवस्थित किया, उसके निचले भाग को भी वैसा ही ट्रीटमेंट दिया, आखिर में गहरी सांस ली और फिर जबरन मुस्करा कर मेरी तरफ देखा ।
“लगे हाथों” - मैंने राय पेश की - “नब्ज और दिल की धड़कन भी चैक कर लेतीं ।”
“वो किसलिये ?” - वो सकपकाई-सी बोली ।
“ताकि मुकम्मल... मुकम्मल तसदीक हो जाती कि सब कुछ नार्मल था ।”
उसने उलझनपूर्ण भाव से मेरी तरफ देखा ।
ऐसी ही होती हैं तकरीबन औरतें ।
डम्ब । सैंस ऑफ ह्यूमर से पूरी तरह कोरी ।
“तो” - मैं बोला - “शुरु करें ?”
“क्या ?” - वो बोली ।
तौबा !
“कबड्डी ! बाक्सिंग ! कुश्ती ! डांस ! कोई भी ऐसा काम जो दो जने कर सकते हों !”
उसके चेहरे पर फिर उलझन के भाव आये, उसने एक बार फिर वो तमाम क्रियायें दोहराईं जो कि उसने कुर्सी पर बैठते ही की थीं और फिर बोली - “मिस्टर कोहली, मैं यहां आपकी प्रोफेशनल सर्विसिज हासिल करने की मंशा से आयी थी ।”
“शुक्र है याद आ गया आपको कि आप यहां क्यों आयी थीं ।”
“आप फौरन एक तफ्तीश शुरु करने की पोजीशन में हैं ?”
“आप फौरन मेरी फीस भरने की पोजीशन में हैं ?”
“क्या फीस है आपकी ?”
“पांच हजार रुपये रोज जमा खर्चे । मिनीमम चार्जेज एक हफ्ते की फीस यानी कि पैंतीस हजार रुपये, काम भले ही तीन दिन में जाये या तीन घंटे में हो जाये ।”
“हफ्ते में न हो पाये तो ?”
“तो अगले हफ्ते की फीस पैंतीस हजार रुपये और ।”
“काफी हाई चार्जेज हैं आपके ।”
“जी हां । क्योंकि मैं असली दशहरी आम हूं । जो कि मुश्किल से मिलता है और जिसे हर कोई अफोर्ड नहीं कर सकता ।”
“नतीजे की कोई गारन्टी ?”
“नहीं कर सकता । अलबत्ता आज तक मेरा कोई कलायन्ट मेरे से नाउम्मीद होकर नहीं लौटा ।”
“ऐसा ही सुना है मैंने । इसलिये यहां आयी हूं ।”
“शुक्रिया ।”
“काम मामूली है, जल्दी हो जाने वाला है, इसलिये कोई स्पैशल रेट कोट कीजिये ।”
“कर देंगे । स्पैशल से भी स्पैशल रेट कोट कर देंगे । आपके रेट से मैचिंग रेट कोट कर देंगे ।”
“जी !”
“यानी कि हींग लगे न फिटकरी, रंग चोखा ।”
“मैं अभी भी नहीं समझी ।”
“मैडम, नाई नाई से हजामत के पैसे नहीं लेता । मोची मोची से जूता गांठने के पैसे नहीं लेता । मालूम ?”
“मालूम लेकिन...”
“जब आप मेरे से चार्ज नहीं करेंगी तो मेरा आप से चार्ज करने का मुंह बनेगा भला ?”
तत्काल उसके चेहरे ने रंग बदला ।
“मिस्टर कोहली ।” - फिर वो तिरस्कारपूर्ण स्वर में बोली ।
“यस, मैडम ।”
“यू हैव ए नेस्टी माइन्ड ।”
“तारीफ का शुक्रिया ।”
“आपकी फीस आपको मिल जायेगी ।”
“वाह ! फिर तो बात ही क्या है ?”
“अब सुनिये मैं क्या चाहती हूं ?”
“फरमाइये ।”
“काम मामूली है ।”
“प्याज काटना भी मामूली काम ही होता है लेकिन जो काटता है, वही जानता है कि वो कितना मामूली काम होता है ।”
“मेरा पति गृहस्थ जीवन के स्थापित रास्ते से भटक रहा है ।”
“यानी कि किसी गैर औरत की फिराक में है ?”
“हां ।”
मेज के ऊपर वो जितनी मुझे दिखाई दे रही थी, उतनी पर मैंने कई बार ललचाई निगाह फिराई और फिर बोला - “यकीन नहीं आता ।”
“ये हकीकत है ।”
“किस पर नजरेइनायत हैं आपके पति की ?”
“मालूम नहीं ।”
“तो फिर ये कैसे मालूम है कि ऐसा कुछ है ? पति पत्नी के बीच में कोई ‘वो’ है ?”
“मेरा दिल गवही देता है । मेरे पति के बदले हाव भाव गवाही देते हैं । ऐसे मामलों में एक खास घंटी बजती है जो बीवियों को सुनायी दिये बिना नहीं रहती ।”
“आई सी ।”
“मैं नहीं जानती कि मेरे पति का दिल किस पर आया है लेकिन ये मैं दावे के साथ कह सकती हूं कि ऐसी कोई औरत है जरूर ।”
“जानने की कोशिश नहीं की ?”
“वही कोशिश तो अब कर रही हूं । तभी तो यहां आयी हूं ।”
“यहां आने से पहले कोई कोई कोशिश नहीं की ?”
“नहीं । नहीं की ।”
“वजह ?”
“मेरी ऐसी कोई कोशिश मेरे पति की निगाहों में आ सकती थी । बात कुछ न निकलने पर मुझे बहुत शर्मिंन्दा होना पड़ सकता था ।”
“जब आपका दावा है कि...”
“दावा है । फिर भी मैं रिस्क नहीं लेना चाहती । आप प्रोफेशनल हैं । नामचीन प्राइवेट डिटेक्टिव हैं । जिस होशियारी से इस काम को आप अंजाम दे सकते हैं, वो मेरे बस की बात नहीं ।”
“मे बी यू आर राइट । यानी कि आप इस बात का कोई सबूत चाहती हैं कि आपके पति के किसी गैर औरत से ताल्लुकात हैं ?”
“सबूत नहीं चाहती, मिस्टर कोहली, तसदीक चाहती हूं । सिर्फ तसदीक चाहती हूं । और उस कलमुंही की शिनाख्त चाहती हूं जिस पर मेरा पति आजकल फिदा है । आप बस इतना करके दीजिये कि वो औरत कौन है, कहां पायी जाती है और मेरा पति उससे कहां मिलता है ? उसके अलावा और किस किससे मिलता है ? बाकी सब मैं खुद सम्भाल लूंगी ।”
“क्या करेंगी आप ?”
“वो मैं आपको बताना जरूरी नहीं समझती ।”
“आप तलाक हासिल करने की कोशिश करेंगी ?”
“डोंट टाक नानसेंस । ये तो उसका काम और आसान करना होगा । जो काम इस वक्त मेरा पति छुप के रहा है, तलाक से तो वो उसको खुल्लम-खुल्ला करने लगेगा ।”
“तो क्या करेंगी ?”
“दैट्स माई बिजनेस ।”
“ओके । अब बताइये कौन हैं आपके पति और क्या करते हैं वो ?”
“नाम लक्ष्मीकांत सिब्बल है । एक्सपोर्ट का बिजनेस है । गढ़ी में ऑफिस है लेकिन आपको वहां जाने की जरूरत नहीं पड़ेगी ।”
“अच्छा ! “
“मेरा पति एक ट्रेड कान्फ्रेंस में शामिल होने के लिये आज शाम ठीक आठ बजे पार्क होटल में पहुंचेगा । आप पौने आठ बजे के करीब मुझे पार्लियामेंट स्ट्रीट के कनाट प्लेस की ओर वाले सिरे पर मिलियेगा । मैं फासले से आपको अपने पति की शिनाख्त करवा दूंगी । फिर आप मेरे पति के पीछे लग सकते हैं ।”
“मैं नहीं ।”
“क्या मतलब ?”
“ऐसा फुट वर्क अमूमन मैं खुद नहीं करता । ये काम मेरा एक भरोसे का आदमी करेगा ।”
“वो कौन हुआ ?”
“उसका नाम हरीश पाण्डेय है । निर्धारित वक्त पर वो मेरे साथ आयेगा ।”
“वो काम को ठीक से कर लेगा ?”
“वो बहुत काबिल, बहुत तजुर्बेकार आदमी है । इसीलिये मेरा जोड़ीदार है । और फिर उसने जो कुछ करना है, मेरी हिदायतों के मुताबिक करना है । मेरी बतायी स्ट्रेटेजी पर अमल करते हुए करना है ।”
“ओह !”
“आप उस बाबत निश्चिन्त रहिये । काम में कोई कोताही नहीं होगी । नतीजा भी चौकस और तुर्त-फुर्त निकलेगा ।”
“मिस्टर कोहली, जब तुर्त-फुर्त का भी आश्वासन है तो फिर तो कोई स्पैशल फीस मुकर्रर कीजिये ।”
“शादी को कितना अरसा हुआ ?”
वो हड़बड़ाई ।
“ये क्या सवाल हुआ ?” -फिर बोली ।
“कितना अरसा हुआ ?”
“यही कोई दो साल ।”
“हैरानी है कि आप जैसी परीचेहरा हसीना से, आप जैसी तौबाशिकन हुस्न की मलिका से पति दो साल में बेजार हो गया ।”
“मुझे खुद हैरानी है । तभी तो मैं उस औरत की बाबत जानने के लिये मरी जा रही हूं जिसने मेरे पति का सिर घुमा दिया ।”
“आपकी उम्र कितनी है ?”
“आपका क्या अन्दाजा है ?” - वो तनिक इठला कर बोली ।
“चौबीस । पच्चीस । बड़ी हद छब्बीस ।”
“ठीक है आपका अन्दाजा । पच्चीस की हूं मैं ।”
“और आपके पति ?”
“छियालीस के ।”
“काफी फर्क है आप दोनों की उम्र में ?”
“चलता है आजकल ।” - वो लापरवाही से बोली ।
“औरतों के रसिया हैं सिब्बल साहब ?”
“पहले तो नहीं थे । होते तो शादी ही न करती । ये तो कोई हालिया डवैलपमैंट हैं ।”
“सपन्न हैं आपके पति ? ठीक है बिजनेस उनका ? पैसे वाले हैं ?”
“हां ।”
“फिर तो हो सकता है कि वो ‘वो’ ही जबरन उनके पीछे पड़ी हो !”
“हो सकता है । ऐसा है तो पता लगाइये । ऐसा निकला तो मैं ही उस कमीनी का मुंह झौंस दूंगी ।”
“बढिया ।”
“बात स्पैशल फीस की हो रही थी ।”
“बीस हजार । खास आपके लिये । पैकेज डील । काम भले ही एक दिन में ही या एक महीने में ।”
“शुक्रिया । शुक्रिया, मिस्टर कोहली ।”
“बस मुंहजुबानी ?”
“और कैसे ?”
“सोचिये । मैंने तो सुना है खूबसूरत औरतों को शुक्रगुजार होने के बहुत तरीके आते हैं ।”
“यू डू हैव ए नेस्टी माइन्ड, मिस्टर कोहली ।”
इस बार वो बात उसने गुस्से या तिरस्कार से न कही, इठलाकार कही ।
“तारीफ का फिर से शुक्रिया ।” - मैं बोला - “लेकिन बात शुक्रगुजार होने की हो रही थी ।”
“आप गाड़ी को जरा आगे सरकने दीजिये, फिर उस बाबत भी कुछ देखेंगे और सोचेंगे । सोचेंगे और कुछ करेंगे ।”
“चलिये ऐसा ही सही । बाल बच्चों की क्या पोजीशन है ?”
“अभी कोई नहीं है ।”
“होने वाला भी नहीं लगता ।” - मैं उसकी पतली कमर को निहारता हुआ बोला ।
“काफी पारखी निगाह है आपकी ?”
“औरतों के मामले में । मेरी एक ही निगाह बहुत भीतर तक की खबर ले आती है ।”
“लिहाजा एक्स-रे विजन पायी है आपने !”
“जी हां । तभी तो डिटेक्टिव का धन्धा अख्तियार किया ।”
“गुड ।” - उसने अपना पर्स खोला और उसमें से सौ-सौ की एक गड्डी निकाल कर मेरे सामने मेज पर डाली और बोली - “ये दस हजार रुपये आप बतौर डाउन पेमेंट कबूल कीजिये, बाकी रकम मैं आपको आज शाम की मुलाकात के वक्त दे दूंगी, या कल भिजवा दूंगी ।”
“नो प्रॉब्लम ।” - मैंने उसके सामने एक पैड और बाल पैन रखा - “इस पर अपना नाम पता और टेलीफोन नम्बर लिख दीजिये ।”
“वो किसलिये ?” - वो सकपकाई ।
“रसीद बनाने के लिए । कान्ट्रैक्ट बनाने के लिये । भविष्य में सम्पर्क बनाने के लिये । रिपोर्ट भेजने के लिये ।”
“नाम पता वगैरह मैं लिख देती हूं” - वो पैड अपनी तरफ घसीटती हुई बोली - “लेकिन रसीद की जरूरत नहीं । कान्ट्रैक्ट की जरूरत नहीं । रिपोर्ट की जरूरत नहीं । और सम्पर्क भी मैं ही बनाकर रखूंगी ।”
“कैसे ?”
“मैं गाहेबगाहे फोन करती रहूंगी ।”
“ओह !” - मैं यूं बोला जैसे मुझे बहुत नाउम्मीदी हुई हो - “फोन करती रहेंगी ।”
“मिस्टर कोहली, आगे आगे देखिये होता है क्या ?”
“आगे आगे ही देख रहा हूं ।” - मैं उसके उन्नत वक्ष पर निगाहें गड़ाता हुआ बोला ।
मेरी लार टपकाती निगाह से बेखबर उसने पैड पर तेजी से कुछ शब्द घसीटे और फिर उसे परे सरकाकर उठ खड़ी हुई ।
“मैं अब चलती हूं ।” - वो बोली - “शाम को मुलाकात होगी ।”
मैंने सहमति में सिर हिला दिया ।
वो वहां से रुख्सत हो गयी ।
उसके जाते ही रजनी बीच के दरवाजे की चौखट पर प्रकट हुई ।
“लूटी नहीं गयी ?” - वो बोली ।
“क्या ?”
“पतंग । जो अभी हवा में लहराती यहां से उड़ती चली गयी ।”
“ऐसे कैसे चली जायेगी ?” - मैं शान से बोला - “अभी जरा ढील दी है तजुर्बेकार पतंगबाजों की तरह । जो कि पहले ढील देते हैं, फिर खींच लेते हैं ।”
“यानी कि हालात अभी उम्मीदअफजाह हैं ?”
“हां । उम्मीदअफजाह और मुक्कमल तौर से काबू में ।”
“फिर तो बधाई हो ।”
“बधाई कबूल ।”
“अब बहनजियों की तादात में एक नग का इजाफा कर लीजियेगा वरना तमाम की तमाम इनकम टैक्स रिटर्न गलत हो जायेगी ।”
“मैं दो का कर लेता हूं ।”
“दूसरी कौन ?”
“तू ।”
“मैं पतंग नहीं हूं । होती तो आप कब के लूट चुके होते ।”
“इसी बात का तो अफसोस है ।”
“इत्मीनान से बैठकर अफसोस मनाइये, क्योंकि मैं जा रही हूं । यही बताने आयी थी ।”
“जा रही है ? कहां जा रही है ?”
“घर, और कहां ? जहां कि छुट्टी के बाद जाया जाता है ।”
“अरे !” - मैं वाल क्लॉक पर निगाह डालता हुआ बोला - “हो भी गया छुट्टी का टाइम ? पता ही नहीं चला ।”
“बहनजियों की सोहबत में ऐसा ही होता है ।”
“सीधी घर जाती है ?”
“और कहां जाऊं ?”
“कई जगह हैं । तू हामी भर, दो-चार से तो मैं आज ही दो-चार कराता हूं तुझे ।”
“मैं सोचूंगी इस बाबत ।”
“सोचेगी ? चिट्ठी लिख देना जब सोच चुके तो ।”
“फैक्स कर दूंगी । क्योंकि चिट्ठयों वाले महकमे की आजकल हड़ताल है ।”
“अब जा भी चुक ।”
“आज्ञा शिरोधार्य । शुभ रात्रि वीर घटोत्कच ।”
मेरी हंसी छूट गयी ।
वो भी अपनी निश्छल हंसी के फूल बिखेरती वहां से विदा हो गयी ।
***
शाम को निर्धारित समय पर निर्धारित स्थान पर मैं हरीश पाण्डेय के साथ मौजूद था ।
हरीश पाण्डेय पचास साल का हट्टा-कट्टा तन्दुरुस्त आदमी था जो कि मुश्किल से चालीस का लगता था । वो रिटायर्ड फौजी था और आजकल एक शराब के स्मगलर के पास काम करता था । उसका वहां का काम काज ऐसा था कि उसके पास काफी वक्त खाली होता था या वो बवक्तेजरूरत काफी वक्त खाली कर लेता था । खाली वक्त को पैसे में तब्दील करने का मौका छोड़ना हराम मानता था । इसलिये मेरे बुलावे पर दौड़ा आता था । वो मेरा पसन्दीदा लैगमैन था जिसकी तरफ से मुझे आज तक नाउम्मीद नहीं होना पड़ा था ।
वो हमारे से दस मिनट बाद, यानी कि आठ बजने में पांच मिनट पर वहां पहुंची ।
वो एक काले शीशों वाली काली एम्बैसेडर में सवार थी जो कि उसने सड़क से पार खड़ी की और उसका हार्न बजाकर उसने हमारा ध्यान अपनी तरफ आकर्षित किया ।
हम सड़क पार करके एम्बैसेडर के करीब पहुंचे । मैं कार में उसके पहलू में और पाण्डेय पीछे बैठ गया तो उसने कार को आगे बढाया । अगले चौराहे से यू टर्न लेकर वो कार का वापिस पार्क होटल के सामने लौटाकर लायी । उसने कार को होटल के कम्पाउन्ड में ले जाकर पार्किंग में ऐसी जगह खड़ा कर दिया जिसके कि ऐन सामने होटल की लॉबी का शीशे का दरवाजा था ।
तब मैंने पाण्डेय से उसका परिचय कराया । उसने मशीनी अन्दाज से गर्दन हिला कर परिचय स्वीकार किया और फिर स्टियरिंग थपथपाती, सामने देखती, खामोश बैठी रही ।
आठ बज कर पांच मिनट पर वो शख्स एक टैक्सी पर सवार वहां पहुंचा जिसके दर्शनों के अभिलाषी हम वहां मौजदू थे ।
टैक्सी से उतरकर जब वो ड्राइवर से भाडे़ का हिसाब कर रहा था तो मैंने और पाण्डेय दोनों ने गौर से उसे देखा ।
“ये हैं आपके पति देव ?” - मैं बोला ।
प्रिया ने सहमति में सिर हिलाया ।
“लक्ष्मीकांत सिब्बल ?”
“हां ।”
मैंने नोट किया कि वो एक मामूली शक्ल-सूरत वाला, मजबूत जबड़ों और बड़े-बड़े कानों वाला क्लीन शेव्ड आदमी था । उसके बाल कनपटियों पर से सफेद थे और जो पोशाक वो पहने था वो निहायत मामूली थी, एक फाइव स्टार होटल में कान्फ्रेंस में शामिल होने आये किसी एक्सपोर्टर के काबिल वो बिल्कुल नहीं थी ।
मैंने वो बात प्रिया से कही तो वो लापरवाही से बोली - “बहुत बिजी रहते हैं । कपड़े बदलने घर नहीं जा सके होंगे ।”
मैं आश्वस्त न हुआ लेकिन मैंने प्रतिवाद भी न किया ।
सिब्बल टैक्सी से फारिग होकर लॉबी के झूलते शीशे के दरवाजे की ओर बढा तो दरबान ने तत्काल उसके लिये दरवाजा खोला । वो भीतर दाखिल हो गया और सीधा लिफ्टों की ओर बढा । कुछ क्षण बाद एक लिफ्ट में सवार होकर वो हमारी निगाहों से ओझल हो गया ।
“अब ?” - प्रिया बोली ।
“अब क्या ?” - मैं बोला ।
“मेरा काम तो खत्म हो गया । अब मेरी तो यहां मौजूदगी बेमानी है । नो ?”
“यस ।”
“तो मुझे इजाजत दो ।”
“ठीक है ।”
“तुम्हारा बाकी पैसा मैं साथ नहीं ला सकी लेकिन कल वो जरूर तुम्हारे ऑफिस में पहुंच जायेगा ।”
“नो प्रॉब्लम ।”
वो खामोश रही ।
मैंने कार का दरवाजा खोलकर बाहर निकलने का उपक्रम किया, ठिठका और फिर वापिस उसकी तरफ घूमा ।
“अब क्या है ?” - वो अनमने भाव से बोली ।
“तुम कहती हो कि सम्पर्क खुद बना कर रखोगी यानी कि गाहे-बगाहे फोन करती रहोगी । मुझे इस बात से कोई एतराजएतराज नहीं लेकिन मेरा जाती तजुर्बा है कि ऐसे मामलों में फील्ड ऑपरेटर को, जो कि मौजूदा केस में पाण्डेय है, इमरजेंसी मे भी, क्लायन्ट के हित में ही क्लायन्ट से फौरन सम्पर्क साधने की जरूरत आन पड़ सकती है ।”
“तो ?”
“पाण्डेय का तुम्हारे से इन्स्टेंट कान्टेक्ट का कोई जरिया होना चाहिये ।”
“ऐसा कोई जरिया नहीं है ।”
“ठीक है । नहीं है तो नहीं है ।”
मैंने कार से बाहर कदम रखा ।
पाण्डेय ने भी मेरा अनुसरण किया ।
“सुनो ।” - एकाएक वो बोली ।
मैं ठिठका, मैंने प्रश्नसूचक नेत्रों से उसकी तरफ देखा ।
उसने कार के ग्लोव कम्पार्टमेंट में से एक बालपैन और एक कागज का पुर्जा बरामद किया, उस पर कुछ अंक घसीटे और फिर पुर्जा मेरी तरफ बढाती हुई बोली - “ये एक मोबाइल फोन का नम्बर है, जिस पर मैं उपलब्ध हूं, लेकिन इसे एक्सट्रीम इमरजेंसी में ही इस्तेमाल करना है ।”
“ठीक है ।” - मैं पुर्जा थामता और उसे आगे पाण्डेय की तरफ बढाता हुआ बोला ।
प्रिया अपनी कार पर वहां से रुखसत हो गयी ।
पीछे मैंने अपना डनहिल का पैकेट निकाला, एक सिगरेट पाण्डेय को दिया, एक खुद लिया और बारी-बारी दोनों सिगरेट सुलगाये ।
“कर लेगा ?” - मैं बोला ।
“क्या मुश्किल है ?” - पाण्डेय लापरवाही से बोला - “मैंने कोई पहली बार किया है ऐसा काम !”
“बढिया । तो मैं चलूं ?”
“जरूर चल । लेकिन कोई चन्दा तो दे के जा ।”
मैंने उसे दो हजार रुपये दिये ।
फिर मैंने उससे हाथ मिलाया, बड़ी आत्मीयता से दूसरे हाथ से उसकी पीठ थपथपाकर उसकी हौसलाअफजाई की और फिर वहां से रुख्सत हो गया ।
हरीश पाण्डेय से हुई वो मेरी आखिरी मुलाकात थी ।
***
अगले रोज आधी रात के बाद मैं लोहिया अस्पताल की मोर्ग में मौजूद था जहां कि मैं पुलिस के बुलावे पर सोते से उठ कर पहुंचा था ।
इन्स्पेक्टर यादव मुझे मोर्ग के सामने के हॉल में मिला ।
वो मुझे मोर्ग के तारीक हॉल में लेकर आया । उसने मुझे एक पहियों वाले स्ट्रेचर के करीब ले जाकर खड़ा किया जहां कि सफेद चादर से ढकी एक लाश पड़ी थी । यादव के इशारे पर स्ट्रेचर की दूसरी तरफ खड़े अर्दली ने लाश पर से चादर खींच ली ।
फटी-फटी आंखों से मैंने हरीश पाण्डेय के मुर्दा चेहरे को देखा ।
“वही है ?” - मेरे पहलू से यादव धीरे से बोला ।
“हां ।” - मैं फंसे कण्ठ से बोला - “क... कैसे ? कैसे हुआ ?”
“चाकू मारा पीठ में किसी ने । पीठ की तरफ से दिल में उतर गया ।”
“कहां मिला ?”
“पूसा रोड की एक अन्धेरी गली में पड़ा था । एक आटो वाला पेशाब करने की नीयत से उस गली में घुसा था तो उसे वहां पड़ी लाश दिखाई दी थी । उसने रात को इलाके की गश्त करने वाले एक चौकीदार को खबर की, चौकीदार ने आगे पुलिस को खबर की ।”
“गली कौन सी थी ?”
“सर्विस लेन । चार नम्बर गली के दायें बाजू के पिछवाड़े की ।”
“कत्ल वहीं हुआ था ?”
“नहीं । लगता है कत्ल कहीं और हुआ था लेकिन लाश वहां लाकर फेंकी गयी थी ।”
“कब हुआ ?”
“रात नौ बजे के करीब का अन्दाजा है । तसदीक सुबह पोस्टमार्टम करने पर होगी ।”
“लाश कब मिली ?”
“अभी कोई एक घन्टा पहले ।”
“शिनाख्त कैसे हुई ?”
“इत्तफाक से । मैं किसी और काम से, किसी और केस के सिलसिले में हस्पताल पहुंचा था जबकि लाश जा रही थी । इत्तफाक से मेरी निगाह लाश पर पड़ी थी और मैंने उसे पहचाना था । मुझे पता था ये कभी कभार तुम्हारे लिये काम करता था इसलिये मैंने तुम्हें फोन किया ।”
“मुझे ? इसके घर वालों को नहीं ?”
“हमें नहीं पता ये कहां रहता था !”
“ड्राइविंग लाइसेंस पर घर का पता दर्ज होता है । इसका ड्राइविंग लाइसेंस...”
“इसकी जेब में नहीं था । इसकी किसी जेब से कुछ बरामद नहीं हुआ है । इत्तफाक से मैंने इसे न पहचाना होता और अब तुम्हारे से तसदीक न कराई होती तो इसकी शिनाख्त नामुमकिन थी ।”
“ओह !”
“शिनाख्त का कोई जरिया पीछे नहीं छोड़ा गया, कोहली । कोट, पतलनू, कमीज पर से दर्जी का बिल्ला तक उधेड़ कर उतार लिया गया है । जरूर कोई नहीं चाहता था कि इसकी जल्दी शिनाख्त हो पाती । तभी तो कत्ल कहीं और हुआ और लाश कहीं और फेंकी गयी ।”
“ये कैसे कह सकते हो कि जहां लाश पड़ी मिली वहीं कत्ल नहीं हुआ था ?”
“एक तो बहे हुए खून की मिकदार से । कत्ल पूसा रोड की गली में हुआ होता तो वहां ढेरों खून बहा पाया जाता तो कि नहीं पाया गया था । दूसरे साढे दस बजे के करीब इस इलाके में हल्की बारिश हुई थी । गली में लाश के नीचे की जमीन भी नम पायी गयी थी । जैसा कि मैंने कहा कि कत्ल का अन्दाजा नौ बजे के करीब का है, अगर कत्ल उस वक्त वहीं गली में हुआ होता तो लाश के नीचे की जमीन सूखी मिलती ।”
“ओह !” - मैं लाश की तरफ से मुंह फेरने ही लगा था कि यादव ने मेरी बांह थाम ली और मुझे ऐसा करने से रोका ।
मैंने प्रश्नसूचक नेत्रों से उसकी तरफ देखा ।
“अच्छे जासूस हो !” - यादव दबे स्वर में बोला - “कुछ देखा ही नहीं ?”
“क... क्या नहीं देखा ?”
“इसके मुंह को देखो । गौर से । करीब से । झुक कर ।”
मैंने ऐसा ही किया तो मुझे होंठों पर एक अजीब सी लाली दिखाई दी ।
“मुंह पर वार ।” - मैं सोचता हुआ बोला - “जिसकी चोट का निशान...”
“ये चोट के नहीं, लिपस्टिक के निशान हैं ।”
“लिपस्टिक ?” - मैं अचकचा कर बोला ।
“जो मर्द नहीं, औरतें लगाती हैं । क्या पाण्डेय भी तुम्हारे जैसा ही रंगीला राजा था ?”
“नहीं ।”
“नहीं ?”
“मैं उसकी जाती जिन्दगी से बहुत ज्यादा वाकिफ नहीं । जितना वाकिफ हूं उसकी बिना पर यही कह सकता हूं कि पाण्डेय बहुत सिंसियर आदमी था, काम के वक्त काम ही करता था ।”
“लिहाजा काम कर रहा था ?”
“हां ।”
“तुम्हारे लिये ?”
“हां ।”
“फिर तो कत्ल की वजह तुम्हारा काम हो सकता है ।”
“अब मैं क्या कहूं ?”
“तुम न कहो तो और कौन कहे ?”
मैं खामोश रहा ।
“क्या कर रहा था वो ?”
“लाश के सिरहाने खड़े होकर जवाब देना जरूरी है ?”
उसने कुछ क्षण घूर कर मुझे देखा और फिर अर्दली को इशारा किया ।
अर्दली ने लाश को पूर्ववत् चादर से ढक दिया ।
मैं यादव के साथ बाहर मोर्ग के सामने के खुले कम्पाउन्ड में पहुंचा जहां सबसे पहले मैंने अस्थिर हाथों में अपना डनहिल का पैकेट निकाला और एक सिगरेट सुलगाया । बेचैनी से मैंने उसके दो-तीन कश लगाये और फिर बोला - “पाण्डेय बहुत मामूली असाइनमेंट पर था । वो कोई ऐसा काम नहीं कर रहा था जिसमें कि खून-खराबे की नौबत आती । उसने महज एक आदमी के पीछे लगना था और उसकी मूवमेंट्स पर निगाह रखनी थी ।”
“कौन आदमी ?”
हिचकिचाते हुए मैंने बताया ।
“कल भी वो अपने इसी काम पर तैनात था ?”
“हां ।”
“किसी औरत का दख्ल कैसे बना होगा उसकी रूटीन में ? काम छोड़ कर किसी औरत के चक्कर में पड़ गया होगा या काम में ही किसी औरत की शिरकत निकल आयी होगी ?”
“क्या पता ?”
“जबकि इते बड़े डिटेक्टिव हो !”
“डिटेक्शन मैं गिली गिली अबराकाडाबर बोलकर डंडे से करता हूं । वो डंडा इत्तफाक से घर रह गया है ।”
“मजाक मत करो ।”
मैं खामोश रहा ।
“ये कत्ल का मामला है ।” - यादव बोला ।
मैंने सहमति में सिर हिलाया ।
“कत्ल हो जाये तो कातिल को तलाश करना होता है । फिलहाल कत्ल का कोई सुराग हमारी पकड़ में नहीं आया है । कत्ल का कोई सुराग तुम्हारे जरिेये हमारे हाथ लग सकता है । मरने वाला तुम्हारा दोस्त था, तुम्हारा सहेयागी था, इसलिये कहना न होगा कि उसके कातिल की गिरफ्तारी में तुम्हारी भी उतनी ही दिलचस्पी होनी चाहिये जितनी कि हमारी है, बल्कि ज्यादा होनी चाहिये । इसलिये कत्ल से ताल्लुक रखता कोई नुक्ता तुम्हारे जेहन में है तो उसका जिक्र करो ।”
“फिलहार ऐसा कुछ नहीं है ।”
“आगे हो सकता है । बाद में कोई ऐसी बात तुम्हें याद आ सकती है जिसका रिश्ता कत्ल से निकल सकता है । अब क्या तुम्हें ये भी समझाना होगा कि ऐसा हो जाने पर तुमने क्या करना है ?”
“नहीं । ऐसी कोई बात निकली तो मैं उसकी फौरन तुम्हें खबर करूंगा ।”
“और अपनी निजी जासूसी की लाइन पुलिस की लाइन से मिलाकर रखोगे । ‘मैं पाण्डेय के कातिल को पाताल से भी खोज निकालूंगा’ जैसा कोई बेहूदा, ड्रामाई संकल्प नहीं धारण कर लोगे । तुम समझ रहे हो मैं क्या कह रहा हूं ?”
“समझ रहा हूं । तुम चाहते हो कि मैं हाथ पर हाथ रख कर बैठ जाऊं ।”
“गलत । मैं ऐसा नहीं चाहता । मैं सिर्फ ये चाहता हूं कि तुम्हारी कारगुजारियों की पुलिस को खबर हो, इसलिये खबर हो क्योंकि ये तुम्हारा कोई प्राइवेट केस नहीं है । इसमें तुमने पुलिस की कोई लाइन क्रॉस नहीं करनी है, अलबत्ता पुलिस के समानान्तर या आगे-पीछे चलने का तुम्हें पूरा अख्तियार है ।”
“हूं ।”
“ये कोई दौड़ नहीं है जिसमें तुमने पुलिस से आगे निकलकर दिखाना है । समझे ।”
“यानी कि पुलिस दौड़ में शामिल है ?”
“और क्या नहीं है ? तुम समझते हो कि पाण्डेय के कातिल को तलाश करने में हम अपनी तरफ से कोई कोशिश उठा रखेंगे ?”
“जब तुम्हारे ऐसे मजबूत इरादे हैं तो फिर मैं भला क्यों कर रेस में तुम्हारे से आगे निकल जाऊंगा ?”
“शायद निकल जाओ । ऐसा हो जाये तो रुक कर पुलिस के अपने करीब पहुंचने का इन्तजार करना या वापिस लौटना ।”
“ठीक है ।”
“कोहली, इस मामले में तुम ये समझो कि एक से दो भले ।”
“पाण्डेय पर हमला उसे लूटने की नीयत से हुआ हो सकता है ?”
“तुम्हारे जेहन पर अपने दोस्त की मौत का सदमा हावी है इसीलिये ऐसी नासमझी की बात कर रहे हो । पाण्डेय को लूटने की कोशिश में उसकी जान गयी होती तो लाश वहीं पड़ी पायी गयी होती जहां कि उस पर हमला हुआ था, तो लुटेरे ने उसकी जेबें मुकम्मल तौर पर खाली कर देने की और उसके कपड़ों पर शिनाख्ती बिल्ले तक उधेड़कर उतार देने की जहमत न की होती, तो उसके होंठों पर लिपस्टिक के निशान न पाये जाते ।”
“सॉरी ।”
“अब पाण्डेय का पता बोला ।”
मैंने यादव को पाण्डेय के करोलबाग स्थित घर का पता और टेलीफोन नम्बर लिखवाया ।
“पुलिस तफ्तीश के लिये वहां पहुंचेगी ।” - यादव बोला - “वारदात की खबर घर वालों तक तुम पहले पहुंचाना चाहो तो हमें कोई एतराज नहीं ।”
“वहां खबर पहले पहुंचे या मेरे जरिये, पाण्डेय के घर तो मुझे जाना ही होगा ।”
“अभी जाओगे ?”
“हां ।”
“ठीक है ।”
***
सुबह नौ बजे मैं अपने ऑफिस पहुंचा ।
मैं भीतर अपनी टेबल पर जाकर बैठा तो सबसे पहले मैंने वो पैड तलाश किया जिस पर मेरी परसों शाम वाली क्लायन्ट अपना नाम, पता, टेलीफोन नम्बर वगैरह दर्ज करके गयी थी ।
पैड पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था:
प्रिया सिब्बल
5, पूसा रोड,
फोन नम्बर 5785446
मैंने फोन अपनी तरफ घसीटा और उस नम्बर पर घंटी दी । काफी देर घंटी बजती रहने के बाद जवाब मिला ।
“हल्लो” - मैं बोला - “ये 5785446 है ?”
“हां ।” - एक खुरदरी मर्दाना आवाज आयी ।
“मिसेज सिब्बल प्लीज ।”
“कौन ?”
“प्रिया सिब्बल ।”
“कौन ?”
“अरे भई, मिसेज प्रिया सिब्बल । बहरे हो क्या ?”
“यहां कोई प्रिया सिब्बल नहीं है ।”
“कहां गयी ?”
“कहां गयी क्या मतलब ? इस नाम से यहां कोई है ही नहीं ।”
“ये 5785446 ही है न ?”
“हां ।”
“ये मिसेज सिब्बल का नम्बर नहीं है ?”
“नहीं ।”
“किसका है ?”
“क्यों बतायें ?”
“भई, लगा तो ये पांच पूसा रोड पर ही हुआ है न ?”
“ये भी क्यों बतायें ?”
“बता दो, यार, मेहरबानी होगी । वो क्या है कि...”
“ये फोन आजकल इस्तेमाल में नहीं है और इस पते पर अब कोई नहीं रहता ।”
तत्काल सम्बन्ध-विच्छेद कर दिया गया ।
मैं हकबकाया सा कुछ क्षण रिसीवर को देखता रहा, फिर मैंने एक और नम्बर डायल किया जो कि पूसा रोड का ही था ।
तत्काल उत्तर मिला ।
“बख्शी है ?” - मैंने पूछा ।
“कौन बोल रहा है ?” - पूछा गया ।
“कोहली । सुधीर कोहली ।”
“कहां से ?”
“नेहरू प्लेस से । मैं बख्शी का दोस्त हूं ।”
“कोहली ।”
“हां ।”
“होल्ड करो ।”
मैं बड़े धीरज के साथ रिसीवर कान से लगाये बैठा रहा । बख्शी पूसा रोड पर ही पच्चीस नम्बर इमारत में एक छोटा सा रेस्टोरेंट चलाता था ।
एक मिनट बाद वो लाइन पर आया ।
“हां, भई कोहली ।” - मुझे उसकी सदा प्रसन्न आवाज सुनाई दी ।
“नमस्ते ।”
“वो तो है ही, पर तेरे दर्शन-पर्शन क्यों नहीं होते ? कहां रहता है आजकल ?”
“कहां जाना है, बाउजी ! दिल्ली शहर छोड़ के, कोई जा सकता है ?”
“तभी तो गालिब ने कहा था कि कौन जाये गालिब दिल्ली की गलियां छोड़ कर ।”
“जौक ।”
“जोक सुनायेगा ? सुना, सुना । सवेरे-सवेरे जोक ही सुना । पर वदिया होवे । सरदारां वाला ।”
“जोक नहीं, जौक । जौक । वो शायर जिसने कहा था कि आजकल गर्चे दकन में हैं बड़े कद्रेसुखन, कौन जाये जौक पर दिल्ली की गलियां छोड़ के ।”
“गालिब ने नहीं कहा ?”
“नहीं ।”
“चल नां सही । जौक भी कोई गालिब जैसा ही वड्डा शायर होगा जो अपनी गालिब जैसी बढिया बात कह सका । यानी कि दिल्ली में ही है ?”
“हां ।”
“अब बता फोन कैसे किया ?”
“पूसा रोड की पांच नम्बर इमारत में क्या है ?”
“क्या है क्या मतलब ?”
“जैसे पच्चीस नम्बर में बख्शी रेस्टोरेंट है, वैसे पांच नम्बर में क्या है ?”
“अब तो कुछ भी नहीं है ।”
“क्या मतलब ?”
“वो इमारत तो तोड़ी जा रही है । सुना है अब वहां कोई शॉपिंग ऑर्केड बनेगी ।”
“ओह ! उस इमारत के बारे में और कुछ जानते हो ?”
“मैं तो कुछ नहीं जानता । अब भी इसलिये जानता हूं क्योंकि टूट रही है । टूट रही है इसलिये रोज निगाह पड़ती है ।”
“ओह ! ठीक है, शुक्रिया ।”
“शुक्रिया ते होया, जब तू अपने चन्न वरगे दर्शन देने कब आयेगा ?”
“बहुत जल्दी, बाउजी, बहुत जल्दी ।”
मैंने सम्बन्ध-विच्छेद कर दिया ।
मैंने एक सिगरेट सुलगा लिया और सोचने लगा ।
क्यों उस औरत ने मुझे एक गलत पता और फोन नम्बर दिया ?
कोई वजह मेरी समझ में न आयी ।
ऐसी चिकनी ऐसी ठस्सेदार औरत क्यों ऐसा झूठ बोल गयी ?
क्या महज इसलिये कि मैं उस तक न पहुंच पाता ?
ऐसा था तो वो मुझे अपना पता बताने से वैसे ही साफ इनकार कर सकती थी । मेरे पास क्लायन्ट का कोई सम्पर्क सूत्र न होने से नुकसान क्लायन्ट का था न कि मेरा ।
ऐसा था तो उसने किसी खास वक्त में - एक्सट्रीम इमरजेंसी में - खास इस्तेमाल के लिये मोबाइल नम्बर क्यों दिया था ?
वो नम्बर मैंने बिना उस पर निगाह डाले आगे पाण्डेय को सौंप दिया था क्योंकि असल में तो वे उसके ही काम आना था । तब तो मैं सपने में नहीं सोच सकता था कि पाण्डेय का एकाएक वो अंजाम होने वाला था जो कि हुआ । तब जो मुझे लगता था कि नम्बर उसके पास हुआ या मेरे पास हुआ, एक ही बात थी ।
और फिर क्या गारन्टी थी कि वो नम्बर भी मेरे पास मौजूद नम्बर और पते की तरह ही फर्जी नहीं था ?
फिर ये बाज भी जेहन से निकाल पाना मुहाल था कि वो औरत निमित्त थी पाण्डेय के कत्ल की राह पर लगने में ।
और लिपस्टिक !
उस लिपस्टिक का क्या राज था जो मैंने पाण्डेय के होंठों पर लगी देखी थी ?
वो लिपस्टिक पाण्डेय की किसी रंगीनमिजाजी की दस्तावेज हरगिज नहीं हो सकती थी । काम छोड़कर रंग घोलने बैठ जाने वाला शख्स वो नहीं था । जरूर वो किसी षड्यन्त्र का शिकार हुआ था ।
किस षड्यन्त्र का ?
किसी की निगरानी करने के मामूली काम में षड्यन्त्र कहां से आ टपका ?
मुझे कोई जवाब न सूझा ।
मैंने सिगरेट ऐश-ट्रे में झोंका, फोन वापिस अपने करीब घसीटा और पुलिस हैडक्वार्टर में इन्स्पेक्टर यादव का नम्बर डायल किया ।
सम्बन्ध स्थापित हुआ ।
“मैं तुम्हें याद ही कर रहा था ।” - तत्काल यादव बोला ।
“अच्छा !” - मैं बोला - “फिर तो कोई खास ही बात होगी ।”
“आम तो नहीं है । खासियत तो है उसमें । लेकिन उस खासियत का कोई मतलब समझ में नहीं आ रहा ।”
“बात क्या है ?” - मैं उतावले स्वर में बोला ।
“पाण्डेय के मुंह पर लिपस्टिक लगी पायी गयी थी, खास बात उसी में से निकली है ।”
“क्या ?”
“एक तो लिपस्टिक की किस्म की शिनाख्त की कोशिश की जा रही है । हमारा लैब एक्सपर्ट अगर उसे क्लासीफाई कर सका तो वो लिपस्टिक लगाने वाली की हैसियत, आई मीन सोशल स्टेटस, की तरफ इशारा होगा ।”
“बस ?” - मैं मायूसी से बोला - “यही खास बात है ?”
“नहीं, कोहली । खास बात ये है कि उस लिपस्टिक में एकदम प्योर हेरोइन के कण पाये गये हैं ।”
“क्या !”
“जरूर वारदात से पहले किसी वक्त लिपस्टिक वाली ने प्योर हेरोइन की नसवार ली होगी जिसके कुछ कण उसके होंठों पर लग गये होंगे और फिर पाण्डेय के मुंह पर ट्रासंफर हो गये होंगे ।”
“ओह !”
“इससे क्या समझे तुम ?”
मैंनें तुरन्त जवाब न दिया । मेरे जेहन पर फिर प्रिया सिब्बल का अक्स उभरा ।
क्या वो हेरोइन एडिक्ट हो सकती थी ?
नहीं । हरगिज नहीं । होती तो ये बात मेरे से छुपी न रही होती । हेरोइन के नशे के अपने शिनाख्ती होते थे जिन्हें कि मैं बाखूबी पहचानता था । उसने मुझे उल्लू तो यकीनन बनाया था लेकिन इतना नहीं कि मैं ये न भांप पाता कि वो नशेड़ी थी ।
“अरे, लाइन पर हो ?” - यादव उखड़े स्वर में बोला ।
“हां ।”
“तो जवाब क्यों नहीं देते ? इस हेरोइन वाली बात ने तुम्हारे जेहन में कोई घन्टी बजाई ?”
“नहीं । मेरा मतलब है फिलहाल ।”
“लेकिन बाद में बज सकती है ?”
“मुमकिन है ।”
“ठीक है । बाद में बजे तो खबर करना ।”
“जरूर ।”
“बल्कि आ के मिलना ।”
“ठीक है ।”
मैंने रिसीवर वापिस क्रेडल पर रख दिया ।
तभी रजनी ने ऑफिस में कदम रखा । मुझे अपने से पहले वहां मौजूद पाकर वो सख्त हैरान हुई । इस बात से वो और भी हैरान हुई कि सुबह-सवेरे मैंने उससे कोई चुहलबाजी करने की कोशिश न की ।
“कोई बुरी खबर है ?” - वो धीरे से बोली ।
मैंने संजीदगी से सहमति में सिर हिलाया ।
“क्या ?”
मैंने बताया ।
***
पूसा रोड करोलबाग से पटेल नगर तक फैली हुई एक लम्बी सड़क थी । वो बुनियादी तौर पर रिहायशी इलाका था जो अब बड़ी तेजी से कमर्शियल होता जा रहा था ।
वहां पांच नम्बर इमारत को तोड़े जाने का काम उस वक्त जारी था । इमारत का ग्राउन्ड फ्लोर अभी सलामत था और जरूर वहीं कहीं वो टलीफोन था जिससे कि मुझे जवाब मिला था । बहरहाल वो किसी मिसेज प्रिया सिब्बल का वर्तमान आवास नहीं हो सकता था । वो किसी मिस्टर लक्ष्मीकांत सिब्बल का भी वर्तमान आवास नहीं हो सकता था ।
पाण्डेय से, उसकी मौत से पहले, मुझे कोई रिपोर्ट हासिल नहीं हुई थी इसलिये कहना मुहाल था कि जो आदमी परसों शाम को हमें पार्क होटल में दाखिल होता दिखाया गया था, उसकी बाबत उसने क्या जाना था, कुछ जाना भी था या नहीं और सच में ही वो शख्स था या नहीं जो कि वो हमें बताया गया था ।
यानी कि उस औरत का पति ।
मैं आगे बढ़ा ।
बख्शी रेस्टोरेंट के करीब मैंने अपनी कार खड़ी की । वो लंच डिनर की स्पैशलिटी वाना नानवैजीटेरियन रेस्टोरेंट था, जहां कि चोरी-छुपे, जाने-पहचाने ग्राहकों को ड्रिंक्स भी सर्व की जाती थीं, इसलिये सुबह की उस घड़ी अभी वहां कोई चहल-पहल नहीं थी ।
मेरा निशाना बख्शी रेस्टोरेंट से अगली इमारत थी जिसका नम्बर कि छब्बीस था । उस इमारत की तीसरी मंजिल पर एक बरसाती अपार्टमैंट था सीढियों के रास्ते जिस तक कि मैं पहुंचा ।
घड़ी पर निगाह डालते हुए मैंने उसके बन्द दरवाजे पर दस्तक दी ।
उस घड़ी ठीक साढे दस बजे थे ।
कोई जवाब न मिला तो मैंने फिर, पहले से ज्यादा देर तक, दरवाजा खटखटाया ।
“कौन है ?” - इस बार भीतर से एक ऊंघती-सी, झुंझलाई-सी आवाज आयी ।
“कोहली ।” - मैं बड़े सब्र के साथ बोला ।
“कौन ?”
“सुधीर कोहली । अब दरवाजा खोलते हो या मैं इसे तोड़ के चौखट से अलग करूं ?”
“खोलता हूं, भाई, खोलता हूं । जरा हौसला रखो । मुझे दरवाजा खोलने के काबिल डीसेंट तो हो जाने दो ।”
मैं खामोश खड़ा रहा ।
“उठ के खड़ी हो ।” - भीतर से आवाज आयी - “कोई मिलने आ गया है ।”
“चलता करो ।” - एक स्त्री स्वर सुनायी दिया ।
“नहीं होने वाला । दरवाजा तोड़ने पर आमादा है । तू हिल जरा ।”
कुछ क्षण खामोशी रही ।
फिर एक चिटखनी सरकाये जाने की आवाज हुई, फिर दरवाजा खुला और फिर चौखट पर दिेनेश वालिया प्रकट हुआ । वो कमर के साथ एक लुंगी लपेटे था जिसे कि वो उस घड़ी भी व्यवस्थित करने की कोशिश कर रहा था ।
दिनेश वालिया लगभग चालीस साल का खूबसूरत व्यक्ति था, आर्टिस्ट था, जो कि सिगरेट और शराब बनाने वाली कम्पनियों के उत्तेजक कैलेंडरों और पब्लिसिटी ब्रोशर्स के लिये न्यूड पेंटिंग्स बनाता था ।
“कोहली” - मेरे से हाथ मिलाता वो उत्साहहीन स्वर में बोला - “कैसे आ गया ?”
“उड़ कर आया ।” - मैं बोला - “गलती की जो यहां दरवाजे पर लैंड किया वरना मैं खिड़की के रास्ते सीधा भीतर भी दाखिल हो सकता था और आकर तुम्हारे सिर पर सवार हो सकता था ।” - मैं एक क्षण ठिठका और फिर बोला - “किसी और के सिर पर या कहीं और सवार हो सकता था ।”
“अहसान किया यार, जो ऐसा नहीं किया । आ ।”
उससे हाथ छुड़ा कर मैं भीतर दाखिल हुआ ।
भीतर पलंग के एक कोने में ऊंघती, जमहाईयां लेती एक लड़की बैठी थी जो कि एक बहुत बड़ी-जरूर वालिया की ही - मर्दाना कमीज पहने थी । कमीज उसके घुटनों तक आ रही थी जिसके आगे उसकी सुडौल टांगें नंगी दिखाई दे रही थीं । लड़की नौजवान थी, खूब गोरी-चिट्टी थी और सूरत और फिगर से कैलेंडर आर्ट के ही काबिल लगती थी ।
वो एक काफी बड़ा कमरा था जिसके एक पहलू में वो पलंग था और एक सोफा और रेफ्रीजरेटर था और दूसरे पहलू में पेंटिंग का सामान - ईजल, कैनवस वगैरह - बिखरा हुआ था । ईजल पर लगे कैनवस पर उस घड़ी जो अधूरी पेंटिंग लगी थी, वो उसी लड़की की थी जो कि अपने दोनों हाथ अपने सिर से ऊपर उठाये एक उत्तेजक मुद्रा में एक स्टूल पर बैठी थी । उसके जिस्म पर कोई कपड़ा नहीं था और पेंटिंग में उसके स्तन और भी पुष्ट और उत्तेजक बनाये गये थे ।
कैनवस से निगाह हटा कर मैंने लड़की की तरफ देखा तो उसने जानबूझकर, बड़ी फरमायशी जमहाई ली ।
“हल्लो ।” - मैं बोला ।
लड़की ने जवाब न दिया । उसने केवल सहमति में सिर हिलाया ।
“मैंने” - मैं वालिया की तरफ घूमा - “तुम्हारे से बात करनी है ।”
“करो ।” - वालिया सहज भाव से बोला ।
“सिर्फ तुम्हारे से ।”
“ओह !” - वो लड़की की तरफ घूमा - “बाथरूम में जा कपड़े भी ले जा ।”
लड़की के चेहरे पर अप्रसन्नता के भाव आये ।
“खास यार है ।” - वालिया बोला - “वाट एवर ही सेज, गोज । सो देयर ।”
लड़की उठी । उठी तो उसके जिस्म की हरकत से मुझे लगा कि उस तम्बू जैसी कमीज के अलावा वो अपने जिस्म पर और कुछ नहीं पहने थी । उसने एक कुर्सी की पीठ पर पड़ी जीन और स्कीवी उठायी और धम्म धम्म चलकर अपनी अप्रसन्नता रिकार्ड कराती पलंग से परे का एक बन्द दरवाजा खोल कर उसके भीतर गायब हो गयी ।
“बढिया !” - वालिया रंगीन स्वर में बोला ।
“क्या ?” - मैं हकबकाया सा बोला ।
“विपाशा । ये लड़की ।”
“ओह ! हां, बढिया ।”
“चाहिये ?”
“नहीं ।”
“नहीं ?”
“मेरा मतलब है, अभी नहीं ।”
“ओह ! अभी नहीं ।”
“अभी कुछ और चाहिये ।”
“क्या ?”
“तुम्हारी अनडिवाइडिड अटेंशन । मेरे सामने बैठ जाओ और जो कहूं, उसे गौर से सुना । जो पूछूं, उसका जवाब दो ।”
“ऐसा ?”
“हां ।”
“कोई गम्भीर मसला है ?”
“हां ।”
“ठीक है फिर ।”
वो पलंग के पायताने में बैठ गया । मैं उसके सामने एक स्टूल पर बैठ गया । मैंने डनहिल का पैकैट निकालकर उसे सिगरेट पेश किया और खुद भी लिया । फिर कुछ क्षण धुयें के बादलों में से मैं उसे अपलक देखता रहा और फिर बोला - “आजकल नसवार का क्या हाल है ?”
“नसवार !” - वो हड़बड़ाया ।
“हेरोइन । कलाकारों का प्रेरणा स्त्रोत ।”
“कोहली” - वो शिकायतभरे स्वर में बोला - “तुझे मालूम है कि नशे का वो रास्ता मैं कब का छोड़ चुका हूं ।”
“छोड़ने की कोशिश कर चुके हो । नशा छुड़ाने वाले हस्पताल तक में भी भरती हो चुके हो लेकिन सच ही, पक्के तौर से नसवार लेना छोड़ भी चुके हो, ये नहीं मालूम ।”
“मैं सच ही छोड़ चुका हूं ।”
“हैरानी है । हेरोइन के नशे को तो वन-वे स्ट्रीट बताया जाता है । कहा जाता है जो एक बार इस राह पर कदम रख लेता है वो कभी लौट ही नहीं पाता ।”
“मैं तो लौटा हूं । मैं तो मुकम्मल तौर से उस नामुराद नशे के किनारा कर चुका हूं ।”
“फिलहाल ?”
“हमेशा के लिये ।”
“कमाल है ! कैसे कर पाये ये करिश्मा ?”
“जीने की, जिन्दा रहने की, चाह उमड़ पड़ी । कुछ अच्छा कुछ डिफ्रेंट करने की अभिलाषा बलवती हो उठी ।”
“डिफ्रेंट ! जैसे कि” - मैंने बाथरूम के बन्द दरवाजे की तरफ इशारा किया - “वो ?”
“जैसे कि” - उसने बड़ी संजीदगी से अपने अधूरे कैनवस की तरफ इशारा किया - “ये ।”
“ओह !”
“कोहली, मैं कसम खाकर कहता हूं कि मैं हेरोइन से बिल्कुल किनारा कर चुका हूं । मैं सुधर चुका हूं । पिछले छ: महीने से मैं इस नामुराद नशे के पास भी नहीं फटका हूं । ख्याल तक नहीं किया है मैंने हेरोइन का ।”
“लिहाजा करिश्मा किया है ।”
“अब कुछ भी समझ लो लेकिन ये हकीकत है कि...”
“पास नहीं फटके हो लेकिन चाहो तो फटक तो सकते हो ?”
“क्या मतलब ?”
“शहर में हेरोइन हासिल करने के तुम्हारे जो कांटैक्ट थे, चाहो तो फिर से उन तक पहुंच बना तो सकते हो !”
“जब मुझे जरूरत ही नहीं है तो...”
“किसी दूसरे की जरूरत के लिये तो बना सकते हो ?”
वो खामोश रहा, उसने बेचैनी से पहलू बदला ।
“मैं बात को दूसरे तरीके से समझाता हूं ।” - मैं बड़े सब्र के साथ बोला - “नशे के संसार में कोई तनहा नहीं होता । नशे के एकतरफा रास्ते पर तुम्हारे कदम से कदम मिला कर चलने वाले तुम्हारे जैसे और भी राही होंगे । तुमने तो वो रास्ता छोड़ दिया, उस पर से लौट आने का नामुमकिन काम कर दिखाया लेकिन जरूरी तो नहीं कि तुम्हारे हमकदम भी ऐसा कर सके हों ?”
“जरूरी तो नहीं ।” - बड़ी अनिच्छा से उसने कबूल किया ।
“सो देयर यू आर । अब बोलो कौन हैं ऐसे लोग ! तुम्हारे पुराने हमकदम ! जोड़ीदार !”
“कुछ मेरे जैसे कलाकर लोग ही हैं लेकिन मैं उनका साथ छोड़ चुका हूं । नशा छोड़ने के लिये नशेबाज जोड़ीदारों से कोसों दूर रहना जरूरी होती है ।”
“अब भी दूर ही रहोगे ।”
“तुम चाहते क्या हो ?”
“निश्चित मौत के रास्ते पर तुम्हारी वजह से जो वैकेंसी हुई है, उसे मैं भरना चाहता हूं ।”
“क्या ?”
“मैं दो-तीन ग्राम प्योर, अनकट हेरोइन खरीदना चाहता हूं ।”
“ओह, नो ।”
“ओह, यस ।”
“बर्बाद हो जाओगे । तबाह हो जाओगे ।”
“कोई परवाह नहीं ।”
“जानते हो दी-तीन ग्राम प्योर अनकट हेरोइन भी कितने की आयेगी ?”
“कितने की आयेगी ?”
“बीस-तीस हजार रुपये की ।”
“मेरे पास हैं ।”
“ओह माई गॉड ! तुम मुझे मरवाओगे ।”
“तुम्हें कुछ नहीं होने वाला । जो होगा मुझे होगा । तुमने सिर्फ इतना करना है कि किसी लोकल डोप पुशर तक पहुंचने का मुझे रास्ता सुझाना है ।”
“लेकिन क्यों ? क्यों ? ये तो मैं हरगिज नहीं मान सकता कि तुम नशे की गिरफ्त में आना चाहते हो । असल वजह बताओ ।”
“उससे तुम्हें कोई मतलब नहीं होना चाहिये ।”
“बताओ ।”
“लेकिन...”
“या कहीं और पहुंचो ।”
“ठीक है, सुनो । कल रात हरीश पाण्डेय नाम के मेरे एक सहयोगी की लाश तुम्हारे इस घर से मुश्किल से दो फरलांग दूर इसी पूसा रोड की एक गली में पड़ी मिली थी । किसी ने उसकी पीठ में खंजर भौंक कर उसका कत्ल कर दिया था । लाश के मुंह पर लिपस्टिक के धब्बे लगे पाये गये थे और उन धब्बों में प्योर, अनकट हेरोइन के कण पाये गये थे । मैं अपने सहयोगी के कातिल तक पहुंचना चाहता हूं लेकिन ऐसा कर पाने के लिये मेरे पास कोई क्लू नहीं है, सिवाय हेरोइन के, जिसके कण कि पाण्डेय के मुंह पर लगी लिपस्टिक में पाये गये थे । अब हेरोइन नमक, मिर्च, तेल की दुकान पर तो नहीं मिलती न ? मनियारी की दुकान पर भी नहीं मिलती । जहां मिलती है, उसकी बाबत कोई आम आदमी जान नहीं सकता । उसकी बाबत तो कोई ज्ञानी ही बता सकता है । वालिया, वो ज्ञानी तुम हो ।”
“जो कि मेरी बदकिस्मती है ।”
मैं खामोश रहा ।
“देखो, मेरे भाई । अगर तुम्हारे जोड़ीदार के कत्ल की वजह हेरोइन है - जो कि मेरी समझ से बाहर है कि किधर से है - तो समझ लो कि तुम्हारी भी खैर नहीं ।”
“वो कैसे ?”
“मेरे से पूछते हो ? इतने बड़े जासूस हो, खुद नहीं समझ सकते ? जिन्होंने तुम्हारे जोड़ीदार का कत्ल करवाया है वो क्या इस हकीकत से बेखबर होंगे कि उस कत्ल की वजह से तुम बहुत उछलोगे, बहुत तड़पोगे और उनका कोई सुराग पाने की कोशिश करोगे, उनके पीछे लगने की कोशिश करोगे ! तुम्हें ऐसी किसी कोशिश से रोकने के लिए वो क्या करेंगे ?”
“क्या करेंगे ?”
“तुम्हारा भी सफाया करा देंगे और क्या करेंगे ? कोई बड़ी बात नहीं कि उनके आदमी अभी भी तुम्हारे पीछे लगे हों । हे भगवान !” - फिर एकाएक वो आतंकित भाव से बोला - “तुमने तो उन्हें मेरे दरवाजे तक पहुंचा दिया ।”
“तुम खामखाह बात का बतंगड़ बना रहे हो ।”
“बतंगड़ तो मुझ लगता है पहले ही बन चुका है । अब भगवान के लिये मेरे पर एक उपकार करो ।”
“क्या ?”
“यहां से टलो । फौरन यहां से टलो । बल्कि पिछवाड़े के रास्ते यहां से निकल जाओ । शायद अभी मेरे देवता दायें हों, शायद उन लोगों को खबर न लगे कि तुम यहां इस इमारत में मेरे से मिलने आये थे । कोहली, प्लीज, टेक दि हैल आउट ऑफ हेयर दिस वैरी मूमेंट ।”
“श्योर ! श्योर ! मैं खुद ही इस कबूतरखाने में ज्यादा देर नहीं टिकना चाहता । बट फर्स्ट थिंग फर्स्ट ।”
“क्या ?”
“किसी जगह का, किसी ठीये का, किसी शख्स का नाम बोला जो कि मुझे किसी लोकल डोप पुशर तक पहुंचा सकता हो ।”
“मैं नहीं बोलूंगा तो क्या करोगे ?”
“तो अपने मतलब की बात तो ये पंजाबी पुत्तर जान कर ही रहेगा । जब एक दरवाजा बन्द हो तो दूसरा दरवाजा खुल जाता है । दूसरा बन्द हो तो तीसरा, चौथा, खुल जाता है...”
“तो खोल ले, भाई ।”
“वो तो मैं खोल ही लूंगा लेकिन बाद में कोई ऊंच-नीच हो गयी तो तुम नहीं बच पाओगे ।”
“क्या !”
“मैं उन लोगों की गिरफ्त में आ गया और उन्होंने मेरे से जबरन कुबुलवाने की कोशिश की कि मुझे हेरोइन के व्यापारियों का सुराग कहां से मिला था तो मैं” - मैंने जानबूझ कर अपने स्वर को धमकी का पुट दिया - “तेरा नाम लूंगा, वालिया ।”
“क्या कहोगे ?” - वो हौलनाक लहजे से बोला - “कहोगे कि उनकी बाबत मैंने तुम्हें बताया ?”
“हां ।”
“तुम झूठ बोलकर मुझे फंसाओगे ?”
“हां ।”
“एक नम्बर के हरामी हो, सुधीर कोहली ।”
“वो तो मैं हूं ही । मेरे से बड़ा हरामी राजधानी में तो क्या, आसपास चालीस कोस तक नहीं मिल सकता ।”
“हे भगवान ! अबे, साले ! मैं तेरा यार हूं ।”
“बना रहने की भी तो कोशिश कर ।”
“क्या कोशिश करूं ?”
“जो पूछा है वो बक ।”
“फिर मेरा पीछा छोड़ देगा ?”
“हां ।”
“मेरा नाम जुबान पर नहीं लायेगा ?”
“नहीं लाऊंगा ।”
“फिर यहां नहीं आयेगा ? मेरे पास भी नहीं फटकेगा ?”
“वो भी कबूल ।”
“तो सुन । पहाड़गंज के इलाके में एक बार है । नाम है स्टेटस बार । वो दरम्याने दर्जे का बार है जहां कि इलाके में फैले सैकड़ों होटलों में आकर ठहरने वाले विदेशी ग्राहक ज्यादा होते हैं । काफी मशहूर जगह है । पहाड़गंज जाकर किसी से भी उसकी बाबत पूछेगा, पता चल जायेगा । वहां हर शाम को नौ-साढे नौ बजे के करीब संतोख सिंह नाम का एक सिख आता है । वो खिचड़ी दाढी वाला, उम्र में कोई पचास साल का, लम्बा तड़ंगा आदमी है जो कि सिर पर अभी खुली कि अभी खुली जैसी ढीली-ढाली पगड़ी बांधता है । वो अपनी किस्म का एक ही बन्दा है जिसे तू देखते ही पहचान लेगा । वो सरकार ही उस इलाके का डोप पुशर है जो कि हेरोइन की पुड़िया अपनी पगड़ी में छुपा कर रखता है ।”
“तुम्हारा सप्लायर वही था ?”
“हां ।”
“लेकिन तुम्हें तो नशे से किनारा किये मुद्दत हो गयी । क्या अब भी वो सरदार वहां पाया जाता होगा ?”
“उम्मीद करो कि पाया जाता हो । मैंने तो छ: महीने से उसकी शक्ल देखी नहीं । वैसे गिरफ्तार नहीं हो गया होगा, धन्धा नहीं छोड़ गया होगा या किसी और फील्ड में आपरेट नहीं करने लगा होगा तो वहीं होगा । बहरहाल मेरा कान्टैक्ट वो ही था और उसके अलावा इस धन्धे के किसी दूसरे शख्स को मैं नहीं जानता । कहने का मतलब ये है कि वो सरदार उस बार में न मिला तो यहां लौट के आना बेकार होगा ।”
“हूं ।”
तभी वो लड़की बाथरूम से बाहर निकली ।
मैंने सिर से पांव तक उसे निहारा ।
अब वो अपनी जीन और स्कीवी पहने थी और वैसी आम लड़की लग रही थी जैसे कि कनाट प्लेस में या साउथ एक्सटेंशन में अक्सर घूमती पायी जाती हैं । वालिया की तम्बू जैसी झोलझाल कमीज में वो अपने मौजूदा टाइट लिबास के मुकाबले में कहीं ज्यादा हसीन और सैक्सी लग रही थी । अब वो कैनवस पर उकेरी गयी बड़ी-बड़ी स्तनों वाली नंगी लड़की तो बिल्कुल ही नहीं लग रही थी ।
यानी कि लिबास ने सब बेड़ा गर्क कर दिया था । वो लड़की कपड़े पहनने के लिये नहीं बनी थी ।
“अब क्या प्रोग्राम है ?” - वो वालिया से सम्बोधित हुई ।
“भाग जा ।” - वालिया भुनभुनाया ।
“भाग जाऊं ? कहां भाग जाऊं ?”
“कहीं भी जा के मर । यहां से टल ।”
“क्यों ?”
“अब काम करने का मूड नहीं रहा ।”
उसने उपेक्षापूर्ण भाव से मेरी तरफ देखा और बोली - “इसकी वजह से ?”
वालिया ने जवाब न दिया । वो परेशानहाल अपना माथा पकड़े बैठा रहा ।
“ओके, डैडियो” - लड़की बोली - “मैं चली । अब बुलाया तो सैंडल ।”
“ओह, नो ।” - वालिया भुनभुनाया ।
“ओह, यस ।”
और वो पांव पटकती हुई वहां से रुख्सत हो गयी ।
“अब शायद ही लौटे ।” - मैं बोला ।
“जरूर लौटैगी ।” - वालिया बोला - “अभी छोटी है न, इसलिये तुनक मिजाज है । कई बार ऐसा अल्टीमेटम दे चुकी है लेकिन लौट आती है ।”
“तुम्हारे से फिट है ?”
“हां । फुल । तभी तो लौट आती है ।”
“खुशकिस्मत हो ।”
“तुम्हारे यहां कदम पड़ने से पहले तक तो यही समझता था, अब आगे का पता नहीं ।”
मैं हंसा और फिर उठ खड़ा हुआ ।
“ओके ।” - मैं बोला - “मैं भी चला ।”
“पिछवाड़े से जाना । भगवान के लिये पिछवाड़े से जाना । बख्शी रेस्टोरेंट का पिछवाड़े से भी रास्ता है । उधर से रेस्टोरेंट में दाखिल होकर सामने से निकल जाना और मेरे लिये दुआ करना कि तुम्हारे पीछे लगे कोई यहां तक न पहुंच गया हो ।”
“ओके ।”
वस्तुत: मैंने वैसी कोई कोशिश न की । मैं जिस रास्ते वहां आया था, उसी रास्ते सामने सड़क पर वापिस पहुंचा । कोई मेरा पीछा कर सकता था, ये बात मेरे जेहन में नहीं आयी थी लेकिन अगर ऐसा था तो ये खुशी का बात थी । यूं मैं अपना पीछा करने वाले की ही गर्दन दबोच सकता था और उसके जरिये अपनी मंजिल तक पहुंचने की कोशिश कर सकता था ।
***
मैं पुलिस हैडक्वार्टर पहुंचा ।
यादव वहां अपने ऑफिस में मौजूद था ।
“क्या खबर है ?” - मैंने पूछा ।
“तुम बोलो ।” - वो अनमने भाव से बोला - “कुछ सूझा ? कुछ याद आया ?”
“नहीं ।” - मैं खेदपूर्ण स्वर में बोला ।
“तो फिर यहां कैसे आये ?”
“तुम्हीं ने कहा था आकर मिलूं ।”
“कुछ सूझे तो ।”
“ओह ! फिर तो सॉरी । मैं तो समझा था वैसे ही हाजिरी भरनी थी ।”
उसने अनमने भाव से गर्दन हिलायी ।
“तुम अपनी बताओ ।” - मैं बोला - “पुलिस के हाथ कोई सुराग लगा ?”
“कैसा सुराग ?”
“कैसा भी । मसलन हेरोइन वाले एंगल पर ही कोई तरक्की हुई हो ?”
“अभी नहीं हुई लेकिन उस एंगल पर बड़ी शिद्दत से काम हो रहा है । किसी सुराग की टोह में हमारे काफी सारे आदमी शहर के नोन डोप पैडलर्स की और नोन डोप एडिक्स की पड़ताल कर रहे हैं । नशे के व्यापार के मामले में हमने शहर का मिजाज भी नये सिरे से भांपने की कोशिश की है ।”
“क्या पता चला ?”
“एक खास बात पता तो चली है लेकिन उसकी कोई अहमियत अभी हमारे पल्ले नहीं पड़ी । मालूम हुआ है कि आजकल शहर में हेरोइन की शार्टेज चल रही है । पिछले कुछ अरसे हेरोइन की सप्लाई घटती घटती अब एकाएक लगभग बन्द ही हो गयी है । जो थोड़ी बहुत उपलब्ध है, वो नार्मल रेट से कहीं महंगी बिक रही है । हमारे मुखबिरों ने बताया है कि इस वजह से शहर के नशेबाजों में काफी सनसनी फैली हुई है जो कि यही हाल बरकरार रहा तो आईन्दा दिनों में तहलके में तब्दील हो सकती है ।”
“शार्टेज की कोई वजह ?”
“अभी सामने नहीं आयी । हमने काफी पूछताछ करवाई है लेकिन फिलहाल कोई कुछ नहीं जानता । कोई नशा करने वाला तो क्या, नशा बेचने वाला भी नहीं जानता । अलबत्ता इस बात की तसदीक दोनों किस्म के लोगों ने की है कि आजकल नशे की पुड़िया दिल्ली शहर में आसानी से उपलब्ध नहीं । जामा मस्जिद, पहाड़गंज, नबी करीम जैसे इलाकों में भी नहीं जो कि इस कारोबार के गढ बताये जाते हैं ।”
“ओह !”
“ये सिलसिला जारी रहा तो शहर में खून-खराबे की लहर आ सकती है । पुड़िया के तलबगार पुड़िया न मिलने पर दीवाने हो सकते हैं और कुछ भी कर डालने पर उतारू हो सकते हैं । ऐसा कुछ होने से रोकने के लिये हमने पहले से ही नोन नशेड़ियों की धरपकड़ शुरु कर दी है ।”
“आई सी ।”
“क्या पाण्डेय का इस धन्धे से ताल्लुक रखते किन्हीं लोगों से वास्ता था ?”
“मेरी जानकारी में तो नहीं था ।”
“वो खुद ऐसा कोई नशा करता था ?”
“सवाल ही नहीं पैदा होता । मुझे यकीनी तौर से मालूम है कि विस्की के अलावा किसी और नशे से उसकी कोई निसबत नहीं थी, खासतौर से हेरोइन, अफीम, चरस, गांजा जैसे नामुराद नशों से ।”
“हूं । और क्या खबर है ?”
“कैसी खबर ?”
“अब तक तुमने क्या तीर मारा ?”
“अभी तो कोई तीर नहीं मारा ।”
“कोशिश तो कर रहे हो ?”
“वो भी अभी फुल स्विंग में नहीं ।”
“तुम कुछ छुपा तो नहीं रहे हो ?”
“नहीं तो ?”
“कल रात मोर्ग में तो तुम्हारे मिजाज से ऐसा लग रहा था कि जब तक पाण्डेय के कातिल का पता नहीं लगा लोगे, पलक नहीं झपकोगे, चैन से नहीं बैठोगे ।”
“चैन से तो नहीं बैठा हुआ हूं लेकिन.. अब क्या कहूं ? यादव साहब, हर काम होते-होते ही तो होता है ।”
“मेरी वार्निंग याद है न ?”
“वार्निंग ?”
“इस केस में अपनी खिचड़ी अलग से नहीं पकानी है । पुलिस को तुम्हारी हर हरकत की खबर होनी चाहिये । ये मैं तुम्हारे ही भले के लिये कह रहा हूं, कोहली । इस केस के साथ अगर कोई ड्रग एंगल जुड़ा है तो समझ लो कि ड्रग लार्ड्स से पार पाना किसी अकेले आदमी के बास का काम नहीं, भले ही वो अकेला आदमी सुधीर कोहली ही क्यों न हो । नशे के व्यापारियों की बहुत ऊंची पहुंच, बहुत वसीह ताकत होती है जिसके आगे कोई मामूली प्राइवेट डिेटेक्टिव नहीं टिक सकता ।”
“पुलिस का महकमा तो टिक सकता है ?”
जैसा कि अपेक्षित था, वो मेरी बात पर भड़का नहीं ।
“अभी तक तो टिका ही हुआ है ।” - वो उदासीन भाव से बोला - “इस करप्ट महकमे में आगे कब क्या हो जाये, क्या पता चलता है ?”
“ठीक ।”
“बहरहाल कोई ड्रग लार्ड - या सारे ड्रग लार्ड्स मिल कर भी - पुलिस के महकमे का सफाया नहीं कर सकते अलबत्ता एक अदद प्राइवेट डिटेक्टिव का सफाया कर सकते हैं । कोहली, ये मैं आगाह कर रहा हूं तुम्हें ।”
“मैं आगाह हो गया, जनाब ।”
“तुम्हारा सफाया हो गया तो जो कुछ तुम जानते हो, उसका भी तुम्हारे साथ ही सफाया हो जायेगा । इसलिये अगर कुछ जानते हो और उसे सीधे-सीधे मुझे नहीं बताना चाहते हो तो कोई चिट्ठी लिख लेना और उसे ऐसी जगह महफूज रख के मरना जहां से कि वो पुलिस के हाथ लग सके ।”
“यानी कि अगर मैं खत्म हो गया तो तुम्हें मेरा नहीं, उस जानकारी का अफसोस होगा, जो मेरे साथ खत्म हो गयी !”
“समझदार आदमी हो ।”
“ऐसी कोई जानकारी फिलहाल मेरे पास नहीं है जो कि मैं पुलिस के साथ शेयर कर सकूं ।”
“आगे हो सकती है । आगे का क्या इरादा है ?”
“अभी तो नेक ही है इरादा ।”
“नेक ही रखना ।”
“हुक्म सिर माथे, जनाब ।”
“कोई कत्ल बेवजह नहीं होता, कोहली । हर कत्ल की कोई वजह होती है इसलिये पाण्डेय के कत्ल की भी वजह होगी । पाण्डेय की डोर तुम्हारे से जुड़ी हुई थी । वो तुम्हारा आदमी था । वो तुम्हारे लिये काम कर रहा था । इसलिये जिस वजह से पाण्डेय का कत्ल हुआ, ऐन उसी वजह से तुम्हारा भी कत्ल हो सकता है, इस बात का अहसास है तुम्हें ?”
“है तो सही ।”
“है तो क्या करोगे ?”
“कोशिश करूंगा पूरी पूरी कि मेरे कत्ल की नौबत न आये ।”
“अगर ड्रग लार्ड्स ने तुम्हारा सफाया जरूरी मान लिया तो तुम्हारी कोई कोशिश कारगर साबित नहीं होने वाली ।”
“तो क्या करूं ? घर में दुबक का बैठ जाऊं या ये शहर छोड़ के भाग जाऊं ?”
“मुझे उम्मीद नहीं कि इससे भी कोई फायदा हो ।”
“तो ?”
“आइन्दा दिनों में तुम्हारे लिये एक ही सेफ जगह है ।”
“कौन सी ?”
“जेल ।”
“तुम मजाक कर रहे हो ।”
“वैस तो जेल में भी कत्ल हो जाते हैं लेकिन मैं पूरी कोशिश करूंगा कि कम से कम तुम्हारे साथ ऐसी न बीते । मैं तिहाड़ में तुम्हारे लिये हर आराम और सुख सुविधा का भी इन्तजाम करवा दूंगा । तुम्हें अहसास ही नहीं होगा कि तुम जेल में हो या किसी होटल में ।”
“तुम जरूर मजाक कर रहे हो ।”
“कोहली, मेरे टच में रहना । रोजाना । तुम्हारे भले के लिये कह रहा हूं । मेरे से रोज सम्पर्क करना और जो कुछ भी जानो उसे मेरे साथ शेयर करना । इसी में तुम्हारी भलाई है ।”
“अच्छी बात है ।”
“आइन्दा हर चौबीस घन्टों में एक बार अगर मुझे तुम्हारी खोज खबर न लगी तो मैं आटोमैटिकली समझ लूंग कि तुम्हारा काम हो गया और फिर तुम्हारी लाश की तलाश शुरु करा दूंगा ।”
“अच्छे खैरख्वाह हो मेरे !”
“अच्छा खैरख्वाह हूं । इसीलिये कह रहा हूं । तुम खुदा से दुआ करो कि पाण्डेय की मौत का रिश्ता हेरोइन के व्यापार से जुड़ा न निकले । मरने वाला तो मर गया लेकिन तुम्हारी खुद की भलाई इसी में है ।”
“ऐसी कोई भनक मिली है तुम्हें ?”
“मिली है । तभी कह रहा हूं । नारकाटिक्स कन्ट्रोल ब्यूरो की रिपोर्ट है कि हेरोइन के व्यापार को लेकर शहर के अन्डरवर्ल्ड में बहुत बड़ी पुथल होने वाली है । तुमने, कभी गुरबख्शलाल का नाम सुना है ?”
“सुना तो है । वो कोई अन्डरवर्ल्ड डॉन था जो कोई पांच या छ: महीने पहले नये साल की रात को फरीदाबाद में स्थित अपनी कोठी में बड़े रहस्यपूर्ण ढंग से मरा पड़ा पाया गया था ।”
“मैं उसी गुरबख्शलाल का जिक्र कर रहा हूं । एन.सी.बी. की रिपोर्ट है कि अपनी जिन्दगी में इस क्षेत्र के नशे के व्यापार पर उसका मुकम्मल कब्जा था । उसकी मुम्बई की ‘कम्पनी’ के नाम से जानी जाने वाली एक अंडरवर्ल्ड ऑर्गेनाइजेशन से जुगलबन्दी थी जिसके कि आगे सारी दुनिया में कान्टैक्ट थे । सुना है ‘कम्पनी’ इस क्षेत्र में फैले हेरोइन के व्यापार में गुरबख्शलाल को फ्री हैण्ड देने के लिये उससे बीस फीसदी का हिस्सा चार्ज करती थी । आगे हालात ऐसे बने बताये जाते हैं कि इधर गुरबख्शलाल मर गया और उधर मुम्बई में पता नहीं कैसे ‘कम्पनी’ का सितारा गुरुब हो गया । गुरबख्शलाल की मौत के बाद से ही दिल्ली के नारकॉटिक्स ट्रेड का ग्राफ नीचे, और नीचे, आता चला गया है और अब छ: महीनों मे हालात इस हद तक पहुंच गये हैं कि इस क्षेत्र में हेरोइन जैसे है ही नहीं ।”
“ऐसा कोई बड़ा डॉन मर जाये तो उसकी जगह लेने वाला भी तो कोई होता है ?”
“होता है । है । कुशवाहा नाम है उसका जो कि गुरबख्शलाल की जिन्दगी में उसका खास आदमी था । वही आदमी एक तरह से गुरबख्शलाल के एम्पायर का उत्तराधिकारी बना बैठा है लेकिन हमें यकीनी तौर से मालूम है कि हेरोइन के व्यापार से उसका कुछ लेना-देना नहीं । उसका लोकल अन्डरवर्ल्ड के कार्यकलापों से या गैरकानूनी धन्धों से ही कुछ लेना-देना नहीं ।”
“कमाल है !”
“है तो कमाल ही अलबत्ता ये क्योंकर हुआ, इसकी हमें खबर नहीं ।”
“चलो मान लिया कि कुशवाहा नाम का वो शख्स सुधर गया लेकिन गुरबख्शलाल कोई अकेला ही तो बड़ा दादा नहीं रहा होगा दिल्ली शहर में ।”
“और भी हैं । कई हैं । उनमें से झामनामी नाम का एक सिन्धी खलीफा तो इतना ताकतवर बताया जाता है कि उसमें और टाप के दादा गुरबख्शलाल में उन्नीस-बीस का ही फर्क था । लेकिन एन.सी.बी. की पक्की रिपोर्ट है कि गुरबख्शलाल की मौत के बाद उसने लोकल नारकॉटिक्स ट्रेड पर काबिज होने की कोशिश नहीं की थी ।”
“आई सी । उसके अलावा और बड़े और रसूख वाले दादा कौन माने जाते हैं दिल्ली के ?”
“कई हैं । जैसे सलीम खान, पवित्तर सिंह, भोगीलाल, माता प्रसाद बृजवासी । सब जयरामपेशा लोग हैं, सब के वाहियात धन्धे हैं जैसे कि बुर्दाफरोशी, प्रास्टीच्यूशन, जाली पासपोर्ट, आर्म्स स्मगलिंग, गोल्ड स्मगलिंग, नकली शराब, ठेके पर कत्ल, अगवा, जुआ, लैंड ग्रैब, इललीगल कंस्ट्रक्शन, हफ्ता वसूली, जबरिया मकान दुकान खाली कराना, ब्लैकमेल ।”
“यानी कि हर नाजायज धन्धा !”
“हां । लेकिन ओट के लिये सब ने अपने अपने जायज, सफेद, धन्धे भी खड़े किये हुए हैं । कई तो मानते ही नहीं कि वो दादा हैं । सब अपने आपको भलेमानस और नेकनीयत लोग बताते हैं । पवित्तर सिंह तो मैट्रोपोलिटन काउन्सलर तक रह चुका है । सलीम खान अपने इलाके का मशहूर सोशल वर्कर है और कांग्रेस का काफी रसूखवाला कार्यकर्त्ता है ।”
“इनमें से किसी का आज की तारीख में नशे के व्यापार में हाथ नहीं ?”
“एन.सी.बी. की रिपोर्ट तो यही कहती है । ऊपर से इस पक्की खबर पर गौर करो कि शहर में नारकॉटिक्स का तोड़ा है । अगर कोई लोकल दादा इस ट्रेड में गुरबख्शलाल की जगह ले चुका होता तो फिर तोड़ा क्यों होता ?”
“एक वजह हो सकती है ।”
“क्या ?”
“ऐसे व्यापार में जब कोई नया आदमी कदम रखता है तो अपने माल की खपत बनाने के लिये पहले वो उसकी नकली मांग पैदा करता है । क्या पता नये माल की नयी डिमांड बनाने के लिये शहर में खामखाह हेरोइन की किल्लत बनायी जा रही हो ?”
“सप्लाई रोक कर ?”
“क्या नहीं हो सकता ?”
वो सोचने लगे ।
“या शायद” - मैंने तरह दी - “कोई नया खलीफा टेक ओवर की कोशिश कर रहा हो, मेरा मतलब है कि स्थापित धन्धे पर काबिज होने की कोशिश कर रहा हो इसलिये वो कोई ऐसी स्ट्रेटेजी लगा रहा हो कि वक्ती तौर पर शहर से हेरोइन गायब हो जाये और आदी नशेड़ी तड़प-तड़प कर नशे की मांग करने लगें ।”
उसका हर सहमति में मिला ।
“अब ये तो हो नहीं सकता कि कोई बड़ा धर्मात्मा, कोई खुदाई फरिश्ता इस शहर में ये संकल्प लेकर अवतारित हुआ हो कि वो यहां नशे का व्यापार नहीं चलने देगा ।”
“ऐसा कहीं होता है !”
“वही तो ।”
“कोहली, जिस बात की तरफ तुम्हारा इशारा है, उससे तो नारकॉटिक्स ट्रेड के कन्ट्रोल के लिये लोकल अन्डरवर्ल्ड में गैंगवार छिड़ सकती है ।”
“और उस गैंगवार में ये बेगुनाह पंजाबी पुत्तर खेत रह सकता है ।”
“शुक्र है कि तुम्हें इस बात का अहसास है ।”
“मुझे पूरा अहसास है ।”
“इसीलिये तुम्हारे भले के लिये तुम्हें हिदायत है पुलिस के टच में रहना । हर चौबीस घन्टे में कम से कम एक बार मेरे से सम्पर्क जरूर करना ।”
“जरूर । पोस्टमार्टम की क्या पोजीशन है ?”
“पोस्टमार्टम हो चुका है । उससे इस बात की तसदीक हुई है कि कत्ल पीठ की तरफ से घोंपे गये एक लम्बे फल वाले चाकू से हुआ था जो कि उधर से सीधा दिल में उतर गया था । पोस्टमार्टम से हमारे कत्ल के वक्त के अन्दाजे की भी तसदीक हुई है ।”
“यानी कि वो पिछली रात नौ बजे हुआ था ?”
“हां ।”
“लाश अब कहां है ?”
“अभी तो मार्ग में ही है लेकिन शाम तक रिश्तेदारों को सौंप दी जयेगी ।”
“ओह ! और वो जो तुम्हारी लैब वाले लिपस्टिक की किस्म की शिनाख्त कर रहे थे ?”
“उसकी कोई रिपोर्ट अभी हमें हासिल नहीं हुई है । एक्सपर्ट कहता है कि वो एक बड़ा लम्बा और पेचीदा काम है क्योंकि काम करने के लिये लिपस्टिक का जो नमूना हासिल है, वो बहुत कम है । न होने जैसा है ।”
“यानी कि वो अभियान फेल भी हो सकता है ?ाीभ”
“हां । हो सकता है ।”
“हूं । ये कुशवाहा कहां पाया जाता है ?”
“वहीं पाया जाता होगा जहां कि अपनी जिन्दगी में उसका बॉस पाया जाता था । वैसे तो गुरबख्शलाल के दिल्ली में कई ठिकाने थे लेकिन उसका हैडक्वार्टर लोटस क्लब में था ।”
“जो कि कनाट प्लेस में है ?”
“हां ।”
“और झामनानी ? जिसे तुमने गुरबख्शलाल के बराबर की ताकत वाला दादा बताया ।”
“क्या इरादे हैं तुम्हारे ?”
“कोई खास नहीं । यूं ही पूछा ।”
“वो करोलबाग में रहता है । वहां से बीडनपुरे के इलाके में उसकी बाबत किसी से भी पूछना, पता चल जायेगा ।”
“बाकी के बिरादरी भाई ?”
“सलीम खान ने उर्दू बाजार में अपना दफ्तर बनाया हुआ है जिससे अब वाकिफ हैं । रहता भी वहीं जामा मस्जिद के इलाके में कहीं है लेकिन पता नहीं मालूम । पवित्तर सिंह आजादपुर में रहता है । पता मालूम नहीं लेकिन क्योंकि उस इलाके का मैट्रोपोलिटन काउन्सलर रह चुका है इसलिये वहां कोई गुमनाम शख्सियत नहीं हो सकता वो ।”
“आई अन्डरस्टैंड ।”
“भोगीलाल और माताप्रसाद बृजवासी के ठीये ठिकाने की मुझे कोई खबर नहीं लेकिन उनको जरूर होगी जिनके कि ये जोड़ीदार हैं । उन्हीं में से किसी से पूछना ।”
“ठीक ।”
“कोहली, उन लोगों से उलझोगे तो सीधे निगम बोध ही पहुंचोगे ।”
“उलझूंगा काहे को ? मेरी क्या शामत आयी है ?”
“तो ?”
“बस जरा करीब से गुजरूंगा ।”
जवाब में यादव कुछ न बोला ।
मैं वहां से रुख्सत हुआ ।
***
मैं कनाट प्लेस पहुंचा ।
लोटस क्लब में कुशवाहा से मिलने में कोई खास दिक्कत पेश न आयी । वो कोई पैंतालीस साल का, अधगंजा, गठीले जिस्म वाला, दरम्याने कद का, संजीदासूरत शख्स निकला ।
मैंने उसे अपना कार्ड पेश किया जिस पर एक सरसरी निगाह डाल कर उसने उसे मुझे वापिस कर दिया ।
मुझे अफसोस हुआ ।
एक तो इसलिये कि ये तहजीब के खिलाफ बात थी ।
और दूसरे इसलिये कि इसका मतलब था कि किसी पी. डी. की किन्हीं सेवाओं की न उसे जरूरत थी और न आइन्दा पड़ने वाली थी ।
“बोलो ।” - वो बोला ।
“मैं एक अप्रिय विषय पर बात करना चाहता हूं ।” - मैं बोला ।
“करो जब तुम्हें टाइम दिया है तो कोई भी बात करो ।”
“जो कहना है दो टूक कहूं ?”
“हां । इसी में समझदारी है । और वक्त की बचत भी । तुम्हारे और मेरे दोनों के ।”
“सुना है आप अभी कल तक लोकल अन्डरवर्ल्ड के टॉप बॉस गुरबख्शलाल के लेफ्टीनेंट हुआ करते थे । ये बात भी जगविदित है कि इधर के ड्रग ट्रेड पर सिर्फ गुरबख्शलाल का कब्जा था । गुरबख्शलाल को मरे छ: महीने हो गये है । तब से इधर का ड्रग ट्रेड डावांडोल है । हेरोइन की इधर आजकल शर्टेज बताई जाती है । मेरा सवाल है की ऐसा क्योंकर हुआ ? ऐसा क्योंकर हुआ कि गुरबख्शलाल के पीछे छोड़े सबसे मुफीद धन्धे को किसी ने अपने काबू में करने की कोशिश न की ?”
“क्योंकि जो लोग ऐसा कर सकते थे, उनमें से किसी की इस धन्धे पर काबिज होने की कोशिश करने की मजाल नहीं हो सकती ।”
“वजह ?”
“वजह बहुत खास है जो मैं तुम्हें नहीं बता सकता । इतना समझ लो कि लोकल उस्तादों के भी किसी बड़े उस्ताद की धमकी की तलवार लाल साहब के जमायती तमाम दादाओं के सिर पर लटक रही है । सब को किसी बड़े कड़क अन्डरवर्ल्ड डॉन की वार्निंग है कि कोई ड्रग्स के धन्धे पर काबिज होने की कोशिश न करे ।”
“क्यों है ? क्या वो बिग बॉस खुद धन्धा हथियाना चाहता है ?”
“नहीं । वो ड्रग्स के धन्धे के सख्त खिलाफ है । मेरे भूतपूर्व बॉस का कोई भी जोड़ीदार उस वार्निंग को नजरअन्दाज करेगा तो फिर जिन्दा नहीं रह पायेगा । इसलिये अभी तक तो किसी की उस वार्निंग को नजरअन्दाज करने की जुर्रत हुई नहीं है ।”
“फिर भी ऐसी जुर्रत कोई कर सकता है तो कौन कर सकता है ?”
“लेखूमल झामनानी ।” - कुशवाहा निसंकोच बोला - “क्योंकि उसकी तो लाल साहब की जिन्दगी में भी इस धन्धे पर नजर थी लेकिन लाल साहब के सामने उसकी पेश नहीं चलती थी ।”
“यानी कि वो सिर पर लटकती धमकी की तलवार से नहीं डरता ?”
“बराबर डरता है । मैंने ये नहीं कहा कि ऐसी जुर्रत वो कर चुका है । मैंने कहा है कि ऐसी जुर्रत कोई कर सकता है तो वो ही कर सकता है ।”
“कर चुका होता तो शहर में हेरोइन का तोड़ा क्यों होता ?”
“तुमने खुद ही अपने सवाल का जवाद दे दिया । यानी कि नहीं कर चुका ।”
“शायद उसने कोई गुपचुप तरीका अख्तियार किया हो ?”
“कैसा गुपचुप तरीका ?”
“किसी दूसरे के कन्धे पर बन्दूक रख के चलाने वाला तरीका । बवक्तेमुसीबत किसी दूसरे को बतौर बलि का बकरा पेश करने का तरीका ।”
“ऐसा कुछ हो रहा है तो मैं कहूंगा कि अपना सिन्धी भाई किसी के भी कयास से कहीं ज्यादा काईयां है ।”
“क्या बिरादरी भाइयों में से ही कोई झामनानी की ओट बनने के लिये तैयार हो सकता है ?”
“तुम बिरादरी से वाकिफ हो ?”
“सिर्फ नाम जानता हूं । जैसे सलीम खान, पवित्तर सिंह, भोगी लाल, माताप्रसाद बृजवासी ।”
“कोई तैयार नहीं हो सकता । वो भी झामनानी से कम रसूख वाले दादा नहीं है । अगर उन्होंने वार्निंग को नजरअन्दाज करके ऐसा कोई कदम उठाना होगा तो वो अपने बलबूते उठायेंगे ।”
“किन्होंने ? कौन ऐसा कदम उठाने की सोच सकता है ?”
“वैसे तो कोई भी नहीं सोच सकता, क्योंकि वार्निंग जिस आदमी की है उसका ताकत का तुम्हें अन्दाजा नहीं है लेकिन फिर भी अगर किसी की ऐसी कोई मजाल होती है तो वो भोगीलाल और बृजवासी नहीं हो सकते । जब से उन्हें ड्रग्स के धन्धे में हाथ न डालने का वार्निंग मिली है । तब से उन्होंने अपने ही धन्धों की तरफ ज्यादा तवज्जो देनी शुरु कर दी है और उन्हीं में बहुत तरक्की कर ली है भोगीलाल अपने नकली शराब के और अगवा और कत्ल के धन्धे से और झुग्गी-झोपड़ी की बादशाही से राजी है और बृजबासी लैंड ग्रेब और इललीगल कंस्ट्रक्शन करने वालों का पहले से ज्यादा पूज्यनीय मसीहा बना बैठा है । ऊपर से उसका मकान, दुकान जबरन खाली कराने का और व्यापारियों, कारखानेदारों से हफ्ता वसूली का धन्धा भी जोरों पर हैं ।”
“लेकिन वो ही मजाल सलीम खान और पवित्तर सिंह की हो सकती है ।”
“मुझे जुबान देने की कोशिश मत करो । मजाल तो किसी की नहीं हो सकती लेकिन फिर भी किसी को सरसाम हो जाये और उसका दिमाग हिल जाये तो ऐसा भोगीलाल और बृजवासी के मुकाबले में सलीम खान, पवित्तर सिंह, यहां तक कि झामनानी के साथ भी, होने की सम्भावनायें ज्यादा हैं ।”
“आप गुरबख्शलाल के उत्तराधिकारी बताये जाते हैं, आप उसकी गद्दी पर काबिज हैं, इस लिहाज से तो ड्रग्स ट्रेड के कब्जे की दौड़ में आपको भी शामिल होना चाहिये, बल्कि आपको तो दौड़ में सबसे आगे होना चाहिये क्योंकि आपको तो धन्धा एक तरह से विरसे में मिला ।”
“नहीं मिला । इस धन्धे के मामले में जो वार्निंग औरों पर लागू है, वो मेरे पर भी लागू है । ऊपर से मेरी खुद की ही किसी काले धन्धे में कोई दिलचस्पी नहीं ।”
“इस काले धन्धे में या किसी भी काले धन्धे में ?”
“किसी भी काले धन्धे में ।”
“मैंने तो मसल तो सुनी थी नौ सौ चूहे खा के बिल्ली के हज को जाने की लेकिन ऐसी बिल्ली कभी देखी नहीं थी ।”
“आज देख ली ?”
“हां ।”
“तो फिर...”
उसने मेरे पीछे दरवाजे की तरफ देखा ।
उठ कर दरवाजे का रुख करने के आलावा मेरे पास और क्या चारा था । वहां फिर भी रुके रहने पर मुझे उठा कर बाहर फिंकवाया जा सकता था ।
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