मॉडल टाउन के इलाके में एक सफेद मारुति वैन सड़क से हट कर एक पेड़ के नीचे खड़ी थी। वैन के शीशे काले थे और उस घड़ी चारों बन्द थे। उसकी ड्राइविंग सीट पर एक कोई तीस साल का मामूली शक्ल सूरत वाला दुबला पतला लेकिन मजबूत काठी वाला नौजवान मौजूद था जो कि आंखों पर एक धूप का ऐसा चश्मा लगाये था जो कि चान्दनी चौक में पटड़ी पर पचास रुपये में मिलता था। उसके बाल अभिनेताओं जैसे झब्बेदार थे जो कि उसने बड़े करीने से संवारे हुए थे और उसकी कलमें इतनी लम्बी थीं कि कान की लौ से भी नीचे पहुंची हुई थीं। पोशाक के तौर पर वो एक घिसी हुई काली जीन, गोल गले वाली काली स्कीवी और चमड़े की काली जैकेट पहने था।
उसने गर्दन घुमा कर वैन में पीछे बैठे व्यक्ति की ओर देखा।
पीछे पैसेंजर सीट पर पसरा पड़ा व्यक्ति वैन का पैसेंजर नहीं बल्कि नौजवान का जोड़ीदार था। वो व्यक्ति उम्र में अभी कुल सैंतालीस साल का था लेकिन देखने में पचपन से ऊपर का लगता था। उसके चेहरे पर घनी दाढ़ी मूंछ थीं जिनको संवार कर रखने में खुद उसने या उसके हज्जाम ने काफी मेहनत की मालूम होती थी। उसके बालों की काली रंगत तफ्तीश का मुद्दा था कि वो असली थी या किसी उम्दा डाई का कमाल था। उसके नयन नक्श अच्छे थे, रंग पहाड़ के लोगों जैसा गोरा था लेकिन चेहरे पर रौनक नहीं थी। सूरत से वो बहुत टूटा और उजड़ा हुआ लगता था लेकिन उसकी आंखों में सदा मौजूद रहने वाला धूर्तता का भाव साफ जाहिर करता था कि अभी उसने जिन्दगी से हार नहीं मानी थी। वो एक सजायाफ्ता मुजरिम था जो कि पांच बार जेल की सजा काट चुका था। जेल की उन सजाओं ने और उसके दो साल पहले के आखिरी विफल अभियान ने उसके कस बल काफी हद तक ढीले कर दिये थे लेकिन वो पैदायशी चोर था जो चोरी से जा सकता था, हेराफेरी से नहीं जा सकता था।
मौजूदा हेराफेरी का माहौल उसके पिछले अभियान के दो साल बाद बना था और उसकी निगाह में सेफ गेम था क्योंकि हालात पूरी तरह से उसके काबू में थे और काबू में रहने वाले थे।
वो एक गर्म पतलून, चार खाने की गर्म कमीज और ट्वीड का कोट पहने था और गले में मफलर लपेटे था। उसके सामने एक दूसरे पर चढ़ी दो बैसाखियां पड़ी थीं जिनका कि वो मोहताज था। दो साल पहले उसकी कई हड्डियां यूं तोड़ी गयीं थीं कि यही गनीमत थी कि वो बैसाखियों के सहारे चल सकता था। वैसे तो अब वो बैसाखियों के बिना भी अपने पैरों पर खड़ा हो सकता था और थोड़ा चल फिर सकता था लेकिन उसे डाक्टर की हिदायत थी कि वो ऐसा करने से गुरेज ही रखे। कम्पाउन्ड फ्रैक्चर्स से उबरी उसकी टांगें अभी भी कमजोर थीं और कोई भी उलटा-सीधा झटका लग जाने से फ्रैक्चर फिर हो सकता था।
बैसाखियों का मोहताज होने की वजह से ही वो आगे पैसेंजर सीट पर अपने जोड़ीदार के पहलू में मौजूद होने की जगह वैन की पिछली सीट पर पसरा पड़ा था।
सड़क के पार एक एकमंजिला कोठी थी जिसका नम्बर डी-9 था और उस घड़ी वो ही उनकी निगाहों का मरकज थी, उनकी मंजिल थी।
अपाहिज ने कोठी की ओर का वैन का शीशा आधा सरकाया, सामने उस इमारत की तरफ देखा जिसमें उस घड़ी निस्तब्धता व्याप्त थी। कोठी की पोर्टिको में डीआईए -7799 नम्बर की एक काली एम्बैसेडर खड़ी थी और बाहर कोठी की दीवार के साथ लग कर एक छियासी मॉडल की डी आई डी- 2448 नम्बर की नीली फियेट खड़ी थी। वे दोनों कारें और कोठी कभी शिव नारायण पिपलोनिया नाम के एक रिटायर्ड, तनहा प्रोफेसर की होती थीं लेकिन अब वो उस शख्स के प्रियजनों के हवाले थीं जिन्हें कि वो किन्हीं मवालियों के हाथों अपनी मौत से पहले अपना वारिस बना कर गया था।
“यही है?” — नौजवान ने निरर्थक-सा प्रश्न किया।
“हां।” — अपाहिज बोला।
“अब?”
“मैं जा के आता हूं।”
“अकेले जाओगे, उस्ताद जी?”
“और क्या फौज ले कर जाऊंगा! भीतर है कौन? एक औरत जो कभी मेरे हाथों की कठपुतली थी और उसका दो महीने का दुधमुंहा बच्चा! अब मैं इतना भी मोहताज नहीं कि अपनी ही फाख्ता को फिर अपने हाथों चुग्गा न चुगा सकूं।”
“यानी कि मेरे फिक्र करने की कोई बात नहीं!”
“कोई बात नहीं। फिर भी बरखुरदारी दिखाना चाहता है तो एक काम करना।”
“क्या?”
“मुझे भीतर बड़ी हद पन्द्रह मिनट लगेंगे। उसके बाद भले ही मेरी खैर खबर लेने तुम भी भीतर पहुंच जाना।”
“ठीक है।”
अपाहिज ने शीशा वापिस सरकाया और दरवाजा खोल कर वैन से बाहर कदम रखा। उसने अपनी दोनों बैसाखियां सम्भालीं और उन्हें ठकठकाता कोठी की ओर बढ़ा।
पीछे नौजवान ने हाथ बढ़ा कर वैन का पिछला दरवाजा बन्द किया और फिर स्टियरिंग थपथपाता प्रतीक्षा करने लगा।
अपाहिज ने दोपहरबाद की उस घड़ी सुनसान पड़ी सड़क पार की, कोठी का आयरन गेट ठेल कर भीतर कदम रखा और बरामदे में जा कर कालबैल बजायी।
एकाएक बजी कालबैल की प्रतिक्रियास्वरूप पालने में सोया पड़ा नन्हा सूरज एक बार कुनमुनाया और फिर शान्त हो गया।
मेरा बेटा! — वो अनुरागपूर्ण भाव से पालने में झांकती मन ही मन बोली — मेरा सूरज। सूरज सिंह सोहल, सन आफ सरदार सुरेन्द्र सिंह सोहल!
उसने वाल क्लॉक पर निगाह डाली।
डेढ़ बजा था।
सुमन के आने का अभी वक्त नहीं हुआ था लेकिन अक्सर वो वक्त से पहले ड्यूटी खत्म करके भी लौट आती थी। गोल मार्केट में अपनी मां स्वर्णलता वर्मा और छोटी बहन राधा के साथ हुई घातक ट्रेजेडी के बाद से तनहा हो गयी सुमन मॉडल टाउन की उस कोठी में अब नीलम के साथ ही रहती थी। वो महानगर टेलीफोन निगम में ट्रंक आपरेटर थी इसलिये उसकी ड्यूटी की शिफ्ट बदलती रहती थी।
कालबैल फिर बजी।
उसने आगे बढ़ कर दरवाजा खोला।
उसकी आंगतुक पर निगाह पड़ी तो एकाएक जैसे उसकी धमनियों में खून जम गया। वो मुंह बाये, हक्की बक्की आगन्तुक की सूरत देखने लगी।
“नमस्ते।” — आगन्तुक जबरन मुस्कराता, जबरन अपने स्वर में मिश्री घोलता बोला।
“तुम!” — बड़ी कठिनाई से नीलम के मुंह से एक शब्द फूटा।
“शुक्र है। शुक्र है पहचाना तो सही बीबी नीलम ने अपने बिछुड़े बलम को!”
आंखों में काईयां भाव लिये और होंठों पर जबरदस्ती की मुस्कराहट चिपकाये, बैसाखियों के सहारे झूलता-सा खड़ा वो सृष्टि का आखिरी शख्स था जिसकी कि वो उस घड़ी अपने सामने मौजूदगी की कल्पना कर सकती थी। उसे लग रहा था कि कोई मुर्दा कब्र से उठ कर खड़ा हो गया था। कोई प्रेत था जो एकाएक वहां प्रकट हुआ था।
“खड़ी खड़ी मर गयी क्या?” — एकाएक अपाहिज अपने स्वभावसुलभ कर्कश स्वर में बोला — “अब रास्ता तो छोड़!”
मुकम्मल तौर पर दहशत के हवाले नीलम की मजाल न हुई हुक्मउदूली की।
सुमन ने कोठी के सामने आटो को रुकवाया, उसके मीटर पर निगाह डाली और फिर भीतर बैठे बैठे ही आॅटो ड्राइवर की तरफ एक पचास का नोट बढ़ाया।
ड्राइवर ने भी उचक कर पीछे मीटर को देखा और फिर वापिस लौटाने के लिये रकम गिनने लगा।
सुमन की उचटती-सी निगाह सड़क से पार पेड़ के नीचे खड़ी सफेद मारुति वैन पर पड़ी, काले शीशों की वजह से जिसके भीतर बैठा कोई शख्स उसे दिखाई नहीं दे रहा था।
ड्राइवर ने उसे बाकी पैसे लौटाये।
कन्धे पर लटकने वाला अपना बस कन्डक्टरों जैसा बैग सम्भाले वो आॅटो से नीचे उतरी, मशीनी अन्दाज से उसने आॅटोवाले को थैंक्यू बोला और कोठी के आयरन गेट की ओर बढ़ी।
उसी क्षण कोठी का प्रवेश द्वार खुला और भीतर से बैसाखियों के सहारे चलते एक व्यक्ति ने बाहर कदम रखा। फिर चेहरे पर परम सन्तुष्टि के भाव लिये वो आगे बढ़ा।
उसके पीछे उसे चौखट थामे खड़ी बद्हवास नीलम दिखाई दी।
सुमन ने गेट खोल कर भीतर कदम रखा।
तब तक करीब पहुंच चुके अपाहिज ने यूं कृतज्ञ भाव से उसकी तरफ देखा जैसे सुमन ने खास उसके लिये गेट खोला हो।
सुमन अपलक उसे देखती रही।
बैसाखियां ठकठकाते उस शख्स ने सड़क पार की। वो वैन के करीब पहुंचा तो भीतर से किसी ने वैन का पिछला दरवाजा खोल दिया।
तब सुमन को भीतर ड्राइविंग सीट पर बैठे लम्बी कलमों वाले शख्स की भी एक झलक मिली।
अपाहिज बड़े यत्न से वैन में सवार हुआ, उसने वैन का दरवाजा बन्द किया और फिर वैन वहां से रवाना हो गयी। और कुछ क्षण बाद वो आगे मोड़ काट कर सुमन की दृष्टि से ओझल हो गयी।
गेट के करीब ठिठकी खड़ी सुमन की तन्द्रा टूटी, वो लम्बे डग भरती कोठी के खुले प्रवेशद्वार की तरफ बढ़ी जहां कि चौखट थामे नीलम खड़ी थी। वो करीब पहुंची तो नीलम जबरन बोली — “आज जल्दी आ गयी!”
“हां।” — सुमन बोली — “दांव लग गया। कौन था ये आदमी?”
“कौन आदमी?”
“अरे, वो लंगड़ा जो अभी अभी यहां से गया!”
“वो... वो कोई नहीं था।”
“कोई नहीं था!”
“मेरा मतलब है यूं ही.... यूं ही कौल साहब का कोई वाकिफकार था जो मिलने आ गया था।”
“पहले तो कभी नहीं आया था!”
“इत्तफाक की बात है।”
“बड़ी अजीब शक्ल का आदमी था। देख के दहशत होती थी।”
“नहीं, नहीं। ऐसी कोई बात नहीं।”
“मुझे तो लगता है कि आप भी उसकी दहशत खाये बैठी हैं।”
“अरे, नहीं। ऐसी कोई बात नहीं।”
“तो फिर आपके हवास क्यों उड़े हुए हैं? आपकी सूरत से ऐसा क्यों लग रहा है जैसे आपने भूत देख लिया हो?”
“पागल हुई है! ऐसा कहीं होता है!”
“लेकिन....”
“वो एक मामूली आदमी था। बाज लोगों की शक्ल होती ही डरावनी है। ऊपर से अपाहिज! टांगों से लाचार! बैसाखियों का मोहताज! ऐसे लोगों की जाती दुश्वारियों का अक्स हमेशा के लिये उनकी सूरतों पर चिपक के रह जाता है।”
“लेकिन....”
“अब छोड़ वो किस्सा। भीतर आ।”
अनमने भाव से सुमन ने भीतर कदम रखा।
अगले रोज सफेद मारुति वैन पिछले रोज के वक्त से दो घन्टे पहले मॉडल टाउन में अपने पिछले रोज वाले स्थान पर मौजूद थी।
बैसाखियां सम्भाले अपाहिज वैन से बाहर निकला।
“उस्ताद जी, सम्भल के।” — एकाएक उसका जोड़ीदार चेतावनीभरे स्वर में बोला — “धोखा हो सकता है।”
“कैसा धोखा?” — अपाहिज की भवें उठीं।
“समझो। आखिर उस्ताद हो!”
“कैसा धोखा?”
“भीतर बीबी के साथ तुम्हारे स्वागत के लिये कोई मौजूद हो सकता है। जितने कड़क मवाली की बीवी तुम उसे बताते हो, उस लिहाज से....”
“शुक्रिया। शुक्रिया कि तूने मुझे कड़क मवाली कहा।”
“मैं आपकी बात नहीं कर रहा था।”
“नहीं कर रहा था तो अब कर ले।”
“उस्ताद जी, बात का मतलब समझो।”
“समझ लिया। तू भी समझ के रख कि तेरे लिए कल वाली हिदायत आज भी लागू है। अगर मैं पन्द्रह मिनट में वापिस न लौटूं तो जो जी में आये करना।”
“पन्द्रह मिनट में?”
अपाहिज कुछ क्षण सोचता रहा और फिर बोला — “पांच मिनट में।”
“ठीक है।”
लेकिन अपाहिज चार मिनट में वापिस लौटा। यूं लौटा जैसे कोठी को भीतर से छूने ही गया हो।
वापसी में उसकी बाछें खिली हुई थीं। उसकी सूरत पर एकाएक जैसे हजार वाट का बल्ब जल उठा था।
नौजवान देखते ही समझ गया कि लंगड़ा उस्ताद किला फतह कर आया था।
दो लाख रुपया!
कितना होता था उसका एक चौथाई हिस्सा!
उस्ताद की तरह ही ख़ुशी से दमकता नौजवान अपने जेहन पर दो लाख के एक बटा चार के बराबर नोटों का अक्स उतारने लगा।
एक हफ्ते बाद फिर वैसा ही फेरा।
लेकिन उस बार रकम तीन लाख।
जो कि कामयाबी से वसूल पायी गयी।
अब अगले हफ्ते चार लाख — अपाहिज उस्ताद ने बड़े संतुष्टिपूर्ण भाव से मन ही मन सोचा — इसे कहते हैं उंगली पकड़ कर पाहुंचा पकड़ना।
या मादरी जुबान में, दित्ती धेली ते मल्ली हवेली।
बढ़िया। बढ़िया।
और एक हफ्ते बाद।
नीलम उदास थी। हलकान थी, परेशान थी।
रकम की मांग फटे जूते की तरह बढ़ती जा सकती थी, ऐसा उसे अन्देशा था लेकिन वो हफ्तावारी पेश होने लगेगी, ये उसने नहीं सोचा था।
अगले रोज अपनी बैसाखियां ठकठकाता, अपने लाचार लंगड़ा होने की दुहाई देता, पुराने ताल्लुकात का सदका देता, प्रत्यक्षत: माली इमदाद की फरियाद करता लेकिन असल में रकम की वसूली के लिये धमकाता वो फिर आने वाला था।
लेकिन चार लाख रुपये तो उसके पास नहीं थे।
उसने सहज भाव से उस बाबत सुमन से सवाल किया था तो पता चला था कि उसके पास तो बैंक एकाउन्ट में मुश्किल से तीस हजार रुपये थे जो कि वो तुरन्त उसकी नजर करने की तैयार थी।
लेकिन तीस हजार से क्या बनता था!
तो फिर कहां से हासिल करे उस रकम को वो?
विमल से!
तौबा! हालिया वाकयात की विमल को तो वो भनक भी नहीं लगने दे सकती थी, खुद वो ही भला क्योंकर उसे सब कुछ कह सुनाती! और सब कुछ सुने बिना वो बात की अहमियत को समझता तो कैसे समझाता!
नहीं, नहीं। विमल नहीं। विमल हरगिज नहीं।
उसे योगेश पाण्डेय का खयाल आया।
योगेश पाण्डेय सीबीआई के एन्टीटैरेरिस्ट स्क्वायड नामक विभाग में उच्चाधिकारी था और वो शख्स था, विमल की गैरहाजिरी में जिसकी उन्हें सरपरस्ती हासिल थी। लेकिन वो शख्स पुलिसिया था। वो असलियत को भांप सकता था और फिर उसकी सलामती की खातिर, अपनी विमल से दोस्ती की खातिर, कोई ऐसा कदम उठा सकता था जो कि नीलम को माफिक नहीं आने वाला था। भौंकते कुत्ते का भौंकना जब तक रोका जा सकता था, तब तक वो उसे रोके रहना चाहती थी।
तो फिर कौन?
उसे मुबारक अली का खयाल आया।
वो घनी दाढ़ी वाला, सिर से गंजा, फरिश्ताजात मुसलमान जिस ने मुम्बई में व्यास शंकर गजरे के चंगुल से विमल को निकलवाने में उसकी मदद की थी और जो उसके साथ ही वहां से दिल्ली लौटा था।
क्या उसकी उसे चार लाख रुपये देने की औकात हो सकती थी?
हो तो सकती थी! आखिर वो विमल का मुम्बई का जोड़ीदार था। मुम्बई की पुलिस को उसकी तलाश थी इसलिये दिल्ली में तो वो महज अपनी असलियत छुपाने के लिये बसा हुआ था। टैक्सी ड्राइवर भी वो इसी वजह से था और इसी वजह से उसने अपनी दाढ़ी बढ़ा ली थी और सिर घुटवा लिया था।
विमल से वो कितना मुतासिर था, इसका यही बहुत बड़ा सबूत था कि अपनी गिरफ्तारी की, अपनी जान की परवाह किये बिना अली, वली नाम के अपने दो भांजों के साथ और धोबियों की पलटन के साथ विमल की मदद के लिये उसके बिना बुलावे मुम्बई पहुंच गया था जहां कि वो गिरफ्तार हो जाता हो शर्तिया उम्रकैद की सजा पाता। आखिर वो मुम्बई के पुलिस कमिश्नर की ऐन नाक के नीचे से उसके सामने पुलिस हैडक्वार्टर से फरार हुआ डकैती का अपराधी था। उसके हाथ खून से रंगे थे। कोई खून भी उसके खिलाफ साबित हो जाता तो जरूर फांसी पर चढ़ता।
एकाएक फोन की घन्टी बजी।
उसने आगे बढ़ कर फोन उठाया।
“हल्लो।” — वो माउथपीस में बोली।
“मैं बोल रहा हूं।” — आवाज आयी।
“मैं कौन?”
“बीबी, एक ही शख्स तो है दिल्ली शहर में जो आजकल तेरी जिन्दगी में कोई अहमियत रखता है!”
“क्या चाहते हो?”
“तुझे मालूम है।”
“फोन क्यों किया?”
“तुझे याद दिलाने के लिये कि मैं कल आ रहा हूं।”
“खबरदार! कल न आना।”
“क्यों भला?”
“अभी मेरे पास रकम का कोई इन्तजाम नहीं।”
“क्या बकती है?”
“मेरे पास अभी....”
“ये कोई मानने की बात है! महान सरदार सुरेन्द्र सिंह सोहल की रखैल और उसे पैसे का तोड़ा!”
“खबरदार!”
“क्या खबरदार?”
“जो मुझे ...मुझे रखैल कहा।”
“और क्या है तू? एक खसम के होते दूसरा करेगी तो असल में तो उसकी रखैल ही कहलायेगी! उसकी रखैल और उसके हरामी बच्चे की मां!”
“कमीने, लगाम दे अपनी गन्दी जुबान को।”
“सच कड़ुवा लगता है न?”
“बकवास बन्द कर।”
“चल, ऐसे ही सही। तू भी क्या याद करेगी! अब बोल, क्या कहती है?”
“मुझे रकम के इन्तजाम के लिये वक्त चाहिये।”
“कैसे करेगी इन्तजाम?”
“इससे तुम्हें कोई मतलब नहीं होना चाहिये।”
“सोहल को चिट्ठी लिखेगी? फोन करेगी? या खुद मुम्बई पहुंच जायेगी?”
“बोला न, इससे तुम्हें कोई मतलब नहीं होना चाहिये।”
“चल, ऐसे ही सही। लेकिन एक बात का खयाल रखना।”
“किस बात का?”
“गायब हो जाने की कोशिश न करना। मेरा तेरे पर कोई पहरा नहीं है इसलिये तू चाहे तो गायब हो सकती है लेकिन मैं तुझे फिर ढूंढ़ लूंगा। जैसे पहले ढूंढा, वैसे फिर ढूंढ लूंगा। पहली बार बहुत टाइम लगा लेकिन इस बार मैं ये काम जल्दी कर दिखाऊंगा, तेरी उम्मीद से कहीं जल्दी कर दिखाऊंगा। मैं तुझे पाताल में से भी खोज निकालूंगा। समझ गयी?”
“धमकी दे रहा है?”
“और क्या लोरी सुना रहा हूं?”
“सामने तो गिड़गिड़ाता है! लंगड़ा अपाहिज होने की दुहाई देता है! आंखें नम करके पुराने ताल्लुकात की याद दिलाता है!”
“मेरी जान” — उसका लहजा बदला — “मैं भी क्या करूं! तेरे सामने पड़ता हूं तो जज्बाती हो जाता हूं। उन रातों को याद करने लगता हूं जो हमने सैंकड़ों मर्तबा एक दूसरे के पहलू में गुजारीं। ऐसी आखिरी रात को भले ही तूने मुझे धोखा दिया लेकिन फिर भी आज भी तुझे सामने पा के मैं अपनी सुध बुध भूल जाता हूं। भूल जाता हूं कि मेरी सारी हालिया दुश्वारियों की वजह तू है और सिर्फ तू है।”
“तू कमीना है। नाशुक्रा है।”
“अच्छा!”
“नहीं जानता कि आज तू जिन्दा है तो मेरी वजह से। विमल तुझे जान से मार डालना चाहता था। उसने तेरी जानबख्शी की तो मेरी वजह से। तेरा सयापा करने की जगह उसने तेरी हड्डियां तोड़ कर ही सब्र कर लिया तो मेरी वजह से।”
“मुझे नहीं मालूम था। अगर ऐसा है तो मैं तेरा शुक्रगुजार हूं।”
“आया बड़ा शुक्रगुजार कर बच्चा!”
“लेकिन मेरी जान, ये तेरा मेरे पर अहसान क्योंकर हुआ?”
“क्या मतलब?”
“हर हिन्दोस्तानी औरत का फर्ज होता है अपने सुहाग की रक्षा करना और....”
“बकवास बन्द कर, रुड़जानया।”
“हला, हला। तो बात ये हो रही थी कि गायब हो जाने की कोशिश न करना।”
“मेरा ऐसा कोई इरादा नहीं।”
“वदिया। अब बोल, रकम का क्या कहती है?”
“इन्तजाम में वक्त लगेगा।”
“कितना?”
“ज्यादा नहीं।”
“कितना?”
“एक हफ्ता।”
“पागल हुई है! उल्लू बनाती है! जो करना है, दो तीन दिन में कर ले वरना....”
“ठीक है। ठीक है।”
“मैं फिर फोन करूंगा।”
“मैं खबर कर दूंगी। अपना नम्बर बोलो।”
“मेरे पास फोन नहीं है। इसलिये मैं ही फोन करूंगा।”
“ठीक है। करना।”
“तब तक के लिये नमस्ते।”
लाइन कट गयी।
नीलम ने भी धीरे से रिसीवर वापिस क्रेडल पर रखा और हाथों में माथा थामे फोन के करीब बैठी रही।
हे माता भगवती भवानी — फिर वो कातर भाव से होंठों में बुदबदाई — ये कैसा इम्तिहान है मेरा! हे भवनांवाली माता! हे महिषासुरमर्दिनी! मुझे भी ऐसी शक्ति दे कि मैं इस महिषासुर की गर्दन काट सकूं।
तब उसे उस रिवाल्वर की याद आयी जो तुकाराम की चिट्ठी के जवाब में मुम्बई रवाना होने से पहले विमल उसके पास छोड़ गया था। वो एक अड़तीस कैलीबर की रिवाल्वर थी जो पूरी भरी हुई थी और जिसकी अतिरिक्त गोलियां भी घर में मौजूद थीं।
जान से मार डालूंगी। पूरी की पूरी रिवाल्वर कमीने के नापाक जिस्म में खाली कर दूंगी।
लेकिन अभी नहीं। अभी कुत्ता फासले से भौंक रहा था, अदब से भौंक रहा था। हड्डी फेंकने पर चुप हो जाता था। ऐन सर पर सवार होकर भौंकने की धमकी देगा तो यही कदम उठाऊंगी लेकिन अभी नहीं। अभी नहीं।
उसे फिर मुबारक अली का खयाल आया।
दिल्ली में उसका घर कहां था, ये उसे नहीं मालूम था, किसी ने — विमल ने या खुद मुबारक अली ने — उसे बताया था तो वो भूल गयी थी लेकिन इतना उसे याद था कि वो अभी भी दिल्ली में टैक्सी चलाता था और सुजान सिंह पार्क में स्थित फाइव स्टार होटल एम्बैसेडर का टैक्सी स्टैण्ड उसका पक्का ठीया था।
उसने मुबारक अली को तलाश करने का फैसला किया।
सहारा एयरलाइन्स की मार्निग फ्लाइट से मुबारक अली मुम्बई में सहर एयरपोर्ट पर उतरा।
उस घड़ी वो अपनी पसन्दीदा पोशाक कत्थई रंग की शेरवानी, काले फुंदने वाली लाल तुर्की टोपी और पेशावरी चप्पल पहने था और बड़ा इज्जतदार और सम्भ्रान्त व्यक्ति लग रहा था। दिल्ली से प्लेन में सवार होने से पहले अपनी दाढ़ी उसने बहुत सलीके से तरशवा ली थी और उसका गंजा सिर तुर्की टोपी के नीचे छुपा हुआ था। प्लेन से उतरे उस मुसाफिर को देख कर कोई नहीं कह सकता था कि वो एक अनपढ़ मवाली था, खूंखार दादा था, ऐलानिया फरार मुजरिम था।
एअरपोर्ट की मारकी में पहुंच कर वो एक पब्लिक टेलीफोन में घुस गया जहां से कि उसने विमल का मोबाइल नम्बर डायल किया जो कि उसकी पिछली बार की मुम्बई से रवानगी के वक्त विमल ने उसे दिया था।
जैसा कि अपेक्षित था, तत्काल उत्तर मिला।
“सलामालेकम, बाप।” — वो धीरे से बोला — “मैं मुबारक अली। इधर मुम्बई में अभी पंहुचा। एयरपोर्ट से बोलता है।”
“अरे!” — विमल का हैरानीभरा स्वर उसके कान में पड़ा — “क्या हो गया? खैरियत तो है?”
“है भी। नहीं भी है।”
“क्या मतलब?”
“रूबरू होगा तो बतायेगा। इसी खातिर खड़े पैर मुम्बई पहुंचा। किधर है?”
“होटल में।”
“मेरे को फौरन तेरे पास पहुंचना मांगता है।”
“क्या प्राब्लम है। होटल पहुंच।”
“कोई रोकेगा तो नहीं? टोकेगा तो नहीं? पूछेगा तो नहीं कि बड़े साहब से क्यों मिलाना मांगता था?”
“मुबारक अली, मैं तेरे लिये साहब, और वो भी बड़ा, कब से हो गया?”
“तो मैं पहुंचूं उधर?”
“हां। श्याम डोंगरे तेरे को लॉबी में मिलेगा। वो तुझे सीधा मेरे पास ले आयेगा।”
“वो मुझे पहचान लेगा?”
“हां।”
“मैं पहुंचता है, बाप।”
“लेकिन माजरा क्या है?”
“आके बताता है। बताने ही आया। तभी तो, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, आनन फानन इधर पहुंचा। पिलेन में सवार होकर।”
“तू मुझे सस्पेंस में डाल रहा है।”
“दस मिनट की बात है। मैं पहुंचा कि पहुंचा।”
“ठीक है।”
मुबारक अली ने फोन को हुक पर टांगा और जाकर एक टैक्सी में सवार हो गया।
“होटल सी-व्यू चल।” — वो बोला।
“वो तो आजकल बन्द है!” — टैक्सी ड्राइवर बोला।
“पण तेरा मुंह खुला है।”
“क्या?”
“बन्द कर ले। मक्खी घुस जायेगी।”
टैक्सी ड्राइवर हकबकाया, फिर उसका मुंह यूं बन्द हुआ जैसे संदूक का ढक्कन बन्द हुआ हो।
“बढ़िया। क्या बोलते हैं इसे अंग्रेजी में? अक्लमंद को इशारा। अब जब तक होटल न आ जाये, ऐसीच थोबड़ा बन्द रहे।”
टैक्सी ड्राइवर ने सहमति में सिर हिलाया, उसने तत्काल टैक्सी को आगे बढ़ाया।
संजीदासूरत मुबारक अली पिछली सीट पर पसर कर बैठ गया।
टैक्सी होटल सी-व्यू पहुंची।
कभी वो होटल अन्डरवर्ल्ड डॉन महान राजबहादुर बखिया उर्फ काला पहाड़ की कम्पनी के नाम से जानी जाने वाली आर्गेनाइजेशन का हैडक्वार्टर होता था। सोहल के हाथों बखिया के मारे जाने के बाद ‘कम्पनी’ का निजाम बखिया के एक खास ओहदेदार इकबाल सिंह के हाथों में पहुंचा था। इकबाल सिंह भी सोहल और ‘कम्पनी’ में छिड़ी जंग से मचे भारी खून-खराबे के बाद मुल्क से फरार हो गया था — और बाद में परदेस में कम्पनी के ही प्यादों द्वारा मार गिराया गया था — तो ‘कम्पनी’ की गद्दी पर व्यास शंकर गजरे काबिज हो गया था। उसके निजाम में ‘कम्पनी’ और सोहल में जो आखिरी जंग छिड़ी थी, उसके दौरान उसने होटल को रेनोवेशन के बहाने बन्द करा दिया था। बाद में गजरे समेत ‘कम्पनी’ के तमाम ओहदेदार मारे गये थे, ‘कम्पनी’ का नामोनिशान मिट गया था तो होटल तब भी बन्द था। अब फर्क ये था कि उसकी सच में रेनोवेशन हो रही थी और अब वो जब भी दोबारा चालू होता सिर्फ होटल ही होता, न कि किन्हीं टॉप के मवालियों की जमात का होटल की ओट में चलता आर्गेनाइज्ड क्राइम का अड्डा।
डोंेगरे उसे लॉबी में उसी का इन्तजार करता मिला।
इकबाल सिंह और गजरे के निजाम में श्याम डोंगरे कम्पनी का सिपहसालार था और दुर्दान्त हत्यारा था लेकिन अब वो होटल का सिक्योरिटी चीफ था और अब याद भी नहीं करना चाहता था कि कम्पनी के बड़े महन्तों के लिये मारकाट मचाना कभी उसका पेशा हुआ करता था।
मुबारक अली ने उसे तत्काल पहचाना। उसका हाथ सलाम की सूरत में उठा तो डोंगरे उससे बगलगीर होकर मिला। फिर वो उसे बगल की लिफ्टों की ओर ले चला।
चौथी मंजिल पर विमल उस सुइट में मौजूद था जो कभी बखिया का, इकबाल सिंह का और फिर आखिर में गजरे का आफिस हुआ करता था।
विमल ने उठ कर मुबारक अली का इस्तकबाल किया, गर्मजोशी से उससे हाथ मिलाया और कुर्सी पेश की।
“कुछ खाओगे?” — विमल ने पुछा।
“नहीं।” — तत्काल मुबारक अली बोला — “पिलेन में, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, बिरेक .....बिरेक ....नाश्ता किया।”
“ब्रेकफास्ट!” — विमल विनोदपूर्ण स्वर में बोला।
“वही।”
“कोई चाय कॉफी? ठण्डा?”
“नहीं मांगता, बाप। अभी नहीं मांगता। बाद में बोलेगा।”
“मर्जी तुम्हारी। अब बोलो, क्या माजरा है?”
मुबारक अली ने एक सरसरी निगाह डोंगरे पर डाली और होंठ भींच लिये।
विमल को उसे वहां से रुखसत होने को न कहना पड़ा, डोंगरे खुद ही, पहले ही, तत्काल उसकी निगाह का मकसद समझ गया था।
अपने पीछे आफिस का दरवाजा बन्द करता वो तत्काल वहां से रुखसत हो गया।
“घरेलू मामला है, बाप।” — मुबारक अली दबे स्वर में बोला — “इसलिये तेरे ही कानों के लिये है। तभी रुक्का लिखने की कोशिश न की, दिल्ली से फोन लगाने की कोशिश न की, अपना कोई जातभाई तेरे पास भेजने की कोशिश न की, खुदेई इधर आया। गोली का माफिक।”
“किसका घरेलू मामला है?”
“ये भी कोई पूछने की बात है!”
“यानी कि मेरा?”
“हां।”
“क्या किस्सा है?”
“बोलता है। पण पहले कुछ और बोलना मांगता है।”
“क्या?”
“बाप, तेरे मेरे पर बहुत अहसान हैं। मेरी आज की जो, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, औकात है, वो सिर्फ तेरी वजह से है। तेरे कहने पर तुकाराम और वागले ने ऐन मुम्बई में पुलिस कमिश्नर की नाक के नीचे से फरार हो जाने में मेरी मदद न की होती तो मैं आज भी जेल में एड़ियां रगड़ रहा होता। इधर मुम्बई में और उधर दिल्ली में रुपये पैसे के मामले में मेरी कोई औकात बनी तो सिर्फ तेरी वजह से बनी। आज भी तू इस अदना मवाली को बराबरी का दर्जा देता है तो ये, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, तेरा बड़प्पन है।”
“तू जज्बाती हो रहा है।”
“ऐसा?”
“हां। हकीकत ये है कि मेरा तेरे ऊपर कोई अहसान नहीं। है तो तेरे मेरे ऊपर क्या कम अहसान हैं? क्या भूल गया कि स्वैन नैक प्वाइंट से रात के अन्धेरे में भागे बादशाह अब्दुल मजीद दलवई को मैं कभी न पकड़ पाता अगर तू तब मेंरा मददगार न होता। मैं दलवई को सीबीआई के एण्टीटैरेरिस्ट स्क्वायड के डिप्टी डायरेक्टर योगेश पाण्डेय के हवाले करने में कामयाब न हुआ होता तो दलवई की जगह मैं जेल में होता और कब का फांसी चढ़ चुका होता। तेरे उस एक कारनामे की वजह से न सिर्फ मेरी जान बची, मुझे पाण्डेय जैसा यार मिला और चोर सिपाही की यारी की मिसाल बनी। तू न होता तो क्या मैं दिल्ली में गुरबख्श लाल का मुकाबला कर सका होता! नीलम का परदेस में मददगार बनके गजरे के हाथों निश्चित मौत से मुझे किसने बचाया? तूने, मुबारक अली, तूने। दिल्ली में नीलम को कम्पनी के प्यादों के हाथ पड़ने से किसने बचाया? तूने। मेरा तेरे पर कोई अहसान नहीं, मुबारक अली। है भी तो इस बात को यूं समझ कि एक हाथ ही दूसरे हाथ को धोता है। मैंने तेरे लिये कुछ किया है तो तूने मेरे लिये उससे कहीं ज्यादा किया है।”
“बाप, मैं तेरी परजा है, तू राजा है, मेरा तो काम ही खिदमत करना है।”
“मैं किधर का राजा हूं! मैं एक मामूली इंसान हूं।”
“तू उन हजारों लाखों लोगों के दिल का राजा है जिन्होंने कम्पनी का निजाम खत्म होने के बाद जिन्दगी में पहली बार चैन का सांस लिया है। तू तो ...”
“ये लिफाफेबाजी छोड़, मियां। यकीनन तू दिल्ली से महज मेरा गुणगान करने के लिये नहीं आया है।”
“ऐसा तो नहीं है!”
“तो फिर मतलब की बात बोल। दिल्ली में सब ठीक ठाक है न? नीलम तो खैरियत से है न?”
“अभी है।”
“अभी है! यानी कि आगे का कोई अन्देशा है?”
“ऐसीच मालूम होता है।”
“मुबारक अली, तू तो मुझे डरा रहा है! खुदा के वास्ते बात का खुलासा करके बोल और जल्दी बोल।”
“बोलता है। पण एक बात फिर भी पहले बोलना मांगता है, समझा के बोलना मांगता है।”
“क्या?”
“बाप, तू मेरे लिये खुदा का दर्जा रखता है, वही दर्जा मेरी निगाहों में तेरी बीवी और तेरे नन्हेे साहबजादे का भी है। रुपये पैसे की तो बात ही क्या है, तेरी बेगम अगर मुबारक अली की खाल की जूती पहनने की भी फरमायश करे तो ऐसीच होगा।”
“यानी कि कोई रुपये पैसे की बात है?”
“हां।”
“नीलम ने मांगे?”
“हां। खुदा का वास्ता देकर, वादा ले कर मांगे कि तेरे को भनक भी नहीं लगेगी। मैंने वादाखिलाफी की लेकिन जो थोड़ी बहुत अक्ल अल्लाह ताला ने मुझे बख्सी है उसने यही गवाही दी कि वादाखिलाफी जरूरी थी, मेरा खुदा मेरी खता माफ करे, हालात का तेरी वाकफियत में आना जरूरी था।”
“हूं। कितने मांगे?”
“पहले चार लाख। अब पांच लाख। और बड़ी रकमों की मांग के साथ ये सिलसिला आगे भी बढ़ सकता है।”
“हूं।”
“बढ़े तो मुझे कोई एतराज नहीं। जब तक रोकड़ा मेरे पास है, तब तक तो कोई वान्दा ही नहीं है, उसके बाद भी मैं साला जिसके पास भी रोकड़ा देखेगा, उसका गला काट के तेरी बेगम के लिये वसूल कर लेगा। पण जो हो रहा है वो खराब।”
“क्या हो रहा है?”
“सोच।”
“कोई नीलम से रुपया ऐंठ रहा है?”
“ऐसीच मालूम होता है। कोई उसे, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, बिलेक ... बिलेक ...”
“ब्लैकमेल कर रहा है?”
“बरोबर बोला, बाप।”
“अगर ऐसा है तो ये सिलसिला यकीनन तेरे से रकम मांगने से पहले से चल रहा होगा।”
“कैसे बोला, बाप?”
“नीलम के अपने पल्ले भी तो चार पैसे थे! उनके चुक जाने से पहले तो वो ऐसी किसी माली इमदाद के लिये तुम्हारे पास नहीं पहुंचने वाली थी!”
“एकदम बरोबर बोला, बाप।’
“चार लाख कब दिये?”
“एक हफ्ता पहले। पिछले जुम्मे को।”
“और पांच लाख?”
“अभी देने हैं। आज फिर जुम्मा है। मैं परसों के लिये बोला। इसलिये नहीं कि मेरे पास रोकड़ा नहीं था बल्कि इसलिये कि मैं तेरे को हालात की खबर करना मांगता था।”
“पांच लाख कब मांगे?”
“कल रात को। आज सुबह ही मैं इधर पहुंच गया।”
“नीलम ने रकम की जरूरत की कोई वजह नहीं बतायी?”
“नहीं बतायी। बल्कि रकम का जिक्र ही तब किया जब कि मेरे से वादा ले लिया कि मैं उसकी जरूरत की बाबत उससे कोई सवाल नहीं करूंगा।”
“कोई हिन्ट तक न दिया?”
“क्या बोला, बाप?”
“जरूरत की बाबत कोई इशारा तक नहीं किया?”
“नक्को।”
“लेकिन तेरा खयाल ये है कि कोई उसे ब्लैकमेल कर रहा है?”
“बरोबर।”
“कुछ पता लगाया होता!”
“बाप, तेरी बेगम के खफा हो जाने का अन्देशा न होता तो बहुत कुछ करता।”
“ओह!”
“पण कुछ तो मैं फिर भी किया!”
“अच्छा! क्या किया?”
“मैं अली, वली को मॉडल टाउन में निगरानी पर लगाया।”
“बढ़िया।”
“पण कोई खास नतीजा हाथ न लगा।”
“अच्छा!”
“उधर तो कोई फटका तक नहीं था! सिवाय एक लंगड़े अपाहिज आदमी के जो कि पिछले शनिवार को दोपहर के करीब अपनी बैसाखियां टेकता वहां आया था।”
“कोई किसी आश्रम-वाश्रम के लिये चन्दा मांगने के लिये आया होगा!”
“वैन में सवार होकर! जिसे कि एक नौजवान डिरेवर चला रहा था!”
“कोई बड़ी बात नहीं। आजकल चन्दों के दम पर भी कई यतीमखाने बहुत सम्पन्न हो गये हैं।”
“बाप, चन्दा उगाहने वालों को घर में कौन घुसाता है?”
“ओह! ओह!”
“और फिर ऐसा कब होता है कि कोई सारे इलाके के किसी एक ही घर से चन्दा उगाहने आये? आजू बाजू झांक कर भी न देखे?”
“यानी कि उस लंगड़े अपाहिज में कोई भेद है?”
“हो सकता है।”
“मालूम करना था!”
“कैसे करता, बाप! मालूम तो कुछ या तेरी बेगम से हो सकता था या उस लंगड़े से। जाकर तेरी बेगम से ऐसा सवाल करने का मैं खयाल भी नहीं कर सकता था। लंगड़े से सवाल करता, वो जा के तेरी बेगम को खबर कर देता तो ...तो तू समझ ही सकता है कि क्या होता!”
“हूं।”
“पण उस लंगड़े में कोई पेंच है जरूर।”
“शनिवार के बाद से वो फिर नीलम के पास नहीं फटका?”
“नहीं। लेकिन फटकेगा तो सही!”
“कब?”
“आइन्दा दो दिनों में। या उसके बाद कभी। जब कि रोकड़ा तेरी बेगम के पास मौजूद होगा।”
“वसूली के लिये फटकेगा?”
“ऐसीच मालूम पड़ता है।”
“यानी कि वो लंगड़ा ही ब्लैकमेलर है?”
“या ब्लैकमेलर का कोई कारिन्दा है।”
“लंगड़ा? अपाहिज? बैसाखियों के सहारे चलने वाला?”
“क्या पता ब्लैकमेलर उससे भी गया बीता हो। चारपायी के हवाले हो!”
“मुश्किल है।”
“फिर तो वो ही अल्लामारा तेरी बेगम के पीछे पड़ा है।”
“लेकिन वो है कौन?”
“तू सोच।”
“मुझे तो कोई लंगड़ा याद नहीं आ रहा!”
“लंगड़ा वो हाल में हुआ होगा। पहले नहीं होगा लंगड़ा।”
“ये पते ही बात कही तूने। तूने उसकी सूरत देखी?”
“हां, देखी एक बार! अली, वली ने उसकी बाबत खबर की तो मैं चुपचाप कश्मीरी गेट के इलाके में उस चालनुमा इमारत में पहुंचा जिसके एक, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, पोर ...पोर ..हिस्से में वो रहता था।”
“पोर्शन में।”
“हां, वही। पोर ....पोर्शन में। तब देखी मैंने उसकी शक्ल सूरत चुपचाप।”
“उसका हुलिया बयान कर सकते हो?”
मुबारक अली ने किया। और फिर गौर से विमल की सूरत देखी।
“लगता है” — वो बोला — “कोई घन्टी नहीं बजायी तेरे जेहन में उस हुलिये ने!”
विमल ने इनकार में सिर हिलाया, वो कुछ क्षण सोचता, फिर बोला — “उसकी दाढ़ी मूंछ वजह हो सकती है। लोग बाग हुलिया छुपाने के लिये दाढी मूंछ की ओट का सहारा लेते हैं।”
“जैसे मैंने लिया है।” — मुबारक अली बोला।
“जैसे खुद मैंने कई बार लिया है।”
“रूबरू देखे तो शायद पहचान ले!”
“हो सकता है। लेकिन मुझे अपनी गुजश्ता गुनाहभरी जिन्दगी में पैबस्त कोई ऐसा शख्स याद तो नहीं आ रहा जो कि ऐसी हरकत कर सकता हो, जो मेरे पीछे पड़ने की जगह मेरी बीवी के पीछे पड़ा हो।”
“कोई मुर्दा कब्र से उठ के खड़ा हो गया होगा!”
“ऐसा ही कुछ हुआ लगता है।”
“पण बाप, तेरी बेगम की जिन्दगी में ऐसा क्या राज हो सकता है, ऐसी क्या, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, पोल हो सकती है, जिस का असर तेरे पर न हो? मियां बीवी में तो सब सांझा होता है!”
“वो मेरे पास आने से डरता होगा। औरत जात पर ही जोर चलता होगा उसका।”
“मैं चुटकियों में उसका जोर निकाल सकता है।”
“क्या करेगा?”
“मसल देगा साले को खटमल का माफिक।”
“और फिर पता लगेगा कि वो महज फ्रंट था ....”
“क्या था?”
“ओट था। पर्दा था। असल आदमी कोई और ही था।”
“ओह!”
“पहले ये मालूम होना चाहिए कि कोई नीलम को किस बिना पर ब्लैकमेल कर रहा है। वो बात मालूम होनी चाहिये जिसके उजागर हो जाने के अन्देशे से नीलम खौफजदा है।”
“कैसे मालूम होगी?”
“मालूम किये से ही मालूम होगी।”
“इधर बैठे बैठे ही?”
“पागल हुआ है? दिल्ली जाना होगा। खामोशी से दिल्ली पहुंचना होगा। ऐसे कि नीलम को भी खबर न लगे।”
“बढ़िया। तो मेरे साथ ही चल रहा है?”
“नहीं। मुझे इधर कुछ ऐसे काम हैं जिन्हें बीच में छोड़ कर मैं खड़े पैर दिल्ली नहीं जा सकता।”
“तो?”
“मैं कल शाम को या परसों सुबह पहुंचूंगा। मेरे दिल्ली पहुंचने से पहले नीलम को रकम न देना।”
“ठीक। मेरे को किधर मिलेगा?”
“तेरे टैक्सी स्टैण्ड पर। कल शाम और परसों सुबह उधर ही रहना। वहां न मिला तो मैं तेरे घर पहुंच जाऊंगा।”
“घर का पता याद है?”
“हां। तिराहा बैरम खान का वो हवेलीनुमा मकान ढूंढने में मुझे कोई दिक्कत नहीं होगी।”
“बढ़िया। मेरे लिये क्या हुक्म है?”
“तू उलटे पांव वापिस दिल्ली पहुंच और खामोशी से, एहतियात से, उस लंगड़े के बारे में ज्यादा से ज्यादा जानकारी हासिल करने की कोशिश कर। मसलन वो कौन है, कहां से आया है, कब से दिल्ली में है, कब से दिल्ली वाले अपने उस ठीये पर है, किन लोगों के साथ उठता बैठता है? जो रकमें नीलम से झटक चुका है, उनका क्या करता है?”
“वो कैसे मालूम होगा?”
“होगा। फोकट में हाथ आये माल को, हराम की कमाई को चमकाये बिना कोई नहीं मानता।”
“मैं समझ गया। गोया उसकी अय्याशी पर निगाह रखनी है!”
“बिल्कुल। और रोकड़ा इधर से ले के जा।”
“रोकड़ा?”
“जो नीलम को दिया और अभी आगे देगा।”
“बाप, क्यों दाढ़ी पेशाब से धोयेला है? तेरे मेरे रोकड़े में कोई फर्क है?”
“नहीं है। इसीलिये बोला इधर से ले के जा।”
“लेकिन ...”
“सुना नहीं!”
“ऐसीच सही, बाप। खफा क्यों होता है? तू बोलता है तो मैं रोकड़ा इधर से ले के जायेगा।”
“इधर से ले के जाने की भी जरूरत नहीं। डोंगरे ऐसा इन्तजाम कर देगा कि रोकड़ा तुझे दिल्ली में घर बैठे हासिल हो जायेगा।”
“बाप, मेरे को जान कर ख़ुशी हुआ कि तू इधर कम्पनी जैसी ताकत बना रहा है। तू बखिया और गजरे जैसा कड़क ....”
“बिल्कुल गलत। रावण मारकर खुद रावण बन बैठने का मेरा इरादा न कभी था, न है और न कभी होगा। ‘कम्पनी’ खत्म हो चुकी है। मैं नहीं चाहता कि मुझे गुण्डे बदमाशों की, डकैतों मवालियों की, स्मगलरों बुर्दाफरोशों की कम्पनी के नाम से जानी जाने वाली नामुराद आर्गेनाइजेशन का कोई नाम भी याद दिलाये।”
“मैं, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, सॉरी बोलता है, बाप।”
“मुझे तेरा सॉरी बोलना कबूल है।”
“फिर तो ठैंक्यु बोलता है।”
विमल की हंसी छूट गयी।
“ऐन अंग्रेज का माफिक?” — वो बोला।
“हां।” — मुबारक अली शान से बोला — “ऐन अंग्रेज का माफिक।”
“गुड!”
“तो मैं चलूं?”
“अभी नहीं।”
मुबारक अली की भवें उठीं।
“तू मेरे साथ लंच करके जायेगा।”
“क्या करके जाऊंगा, बाप?”
“लंच। आज तेरा मेरा दिन का खाना एक दस्तरखान पर होगा। उसके बाद जाना।”
“वाह! वाह! इस से ज्यादा मेरी इज्जतअफजाई और क्या हो सकती है कि मैं, यानी कि मैं, तेरे साथ, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में ...”
“लंच।”
“लंच करेगा। और वो भी बखिया के हैड के क्वार्टर में।”
विमल मुस्कराया।
“पण, बाप .....”
“अब क्या है?”
“वो लंगड़ा, जो फिलहाल सारे फसाद की जड़ मालूम होता है, अगर मैं उसको थामूं और जबरन उससे कुबुलवाऊं कि उसकी पीठ पीछे कौन है, कोई है भी या नहीं तो ....”
मुबारक अली खामोश हो गया। उसने देखा विमल पहले ही इनकार में सिर हिलाने लगा था।
“नहीं?” — मुबारक अली बोला।
“नहीं। हर ब्लैकमेलर को ये अन्देशा बराबर होता है कि उस पर उलट के वार हो सकता है। इसलिये हर ब्लैकमेलर अपनी हिफाजत का पुख्ता इन्तजाम करके रखता है। हालात को समझे बिना उस लंगड़े पर हाथ डालना नीलम के लिये दुश्वारी का बायस बन सकता है। नीलम का अगर कोई राज है जिसे वो हर हालत में राज रखना चाहती है तो वो ऐसी किसी गैरजिम्मेदाराना हरकत से फाश हो सकता है।”
“ओह!”
“और फिर नीलम को भी कम न समझ, मियां। वो इतनी सीधी नहीं जितनी सूरत से दिखाई देती है। मुझे कई बार उसके कड़क मिजाज का तजुर्बा हो चुका है। क्या भूल गया कि अभी हाल ही में कैसे उसने महालक्ष्मी के यतीमखाने में गजरे को ललकारा था?”
“याद है, बाप।”
“वो भोली भाली सी दिखने वाली लड़की बावक्तेजरूरत चुटकियों में चण्डी का रूप धारण कर सकती है। उस लंगड़े को अभी तक उसके कहर का मजा चखने को नहीं मिला तो इसमें कोई भेद है, कोई खास भेद है जो पहले हमें मालूम होना चाहिये।”
“मैं समझ गया, बाप। ऐसीच होगा।”
“तो फिर अब ये किस्सा खत्म कर।”
“बरोबर, बाप।”
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