किसी गाड़ी के आने की आवाज सुनकर वे सब पल भर के लिए सतर्क हुए।
मल्होत्रा फौरन मलिक के पास पहुँचा तो मलिक हाथ उठाकर कह उठा---
"चिंता की कोई बात नहीं। छाबड़ा आया होगा।"
सुदेश भी पास आया तो मलिक पुनः बोला---
"सब ठीक है। सोहनलाल को बोलो जल्दी काम करे।"
सुदेश वापस पलट गया।
"आओ मल्होत्रा। छाबड़ा के पास चलें।
दोनों पेड़ों के झुरमुट से बाहर की तरफ बढ़ गये।
पेड़ों के झुरमुट से बाहर निकलते ही सामने कार आ पहुँची। जिसकी हैडलाइट बंद थी।
"ये छाबड़ा की ही कार है।" मलिक बोला।
दोनों कार के पास जा पहुँचे।
तभी कार का दरवाजा खुला और छाबड़ा बाहर निकला। ड्राइविंग सीट वाला डोर खोलकर वधवा बाहर आया।
"ओह, वधवा साहब भी आए हैं।" मलिक बोला।
"वैन खुली?" छाबड़ा ने पूछा।
"खोली जा रही है।"
"जल्दी करो।" छाबड़ा बेचैनी से बोला--- "मुझे D.C.M.B बैंक की फ्यूचर प्लानिंग के वो कागजात...।"
"कुछ ही देर की बात है छाबड़ा साहब... कागजात मिल जाएंगे।"
"मैंने इस काम पर बहुत पैसा लगाया है। बहुत खतरा मोल लिया है।" छाबड़ा ने कहा।
"ऐसे कामों में मैं हाथ नहीं डालता। लेकिन अपने नोट ही इतने दिए कि इंकार नहीं कर सका।"
"जल्दी करो मलिक। मैं यहाँ से जल्दी जाना चाहता हूँ।"
"हम वैन के पास चलते हैं।" वधवा बोला।
"मैं सलाह दूँगा कि आप दोनों वैन से दूर रहें।" मलिक बोला।
"क्यों?"
"दो बाहरी लोग यहाँ मौजूद हैं। ताला खोलने वाला सोहनलाल और दूसरा जगमोहन। आप यह पसंद नहीं करेंगे कि बाहर का कोई आदमी आपको देखे और भविष्य में किसी तरह की मुसीबत खड़ी हो।"
छावड़ा और वधवा ने अंधेरे में एक दूसरे को देखा।
"ठीक है। हम यहीं पर हैं। कार में। उन दोनों को इस तरह मत आने देना।" वधवा ने कहा।
"वो यहाँ नहीं आएंगे।"
"कितनी देर में काम निपट जाएगा?"
"कभी भी वैन खुल सकती है। परन्तु थोड़ी-सी समस्या आ सकती है छाबड़ा साहब...।"
"क्या?"
"वैन के भीतर उन बक्सों के साथ बैंक के दो गनमैन बंद हैं।"
"ओह, क्या ये बात तुम्हें पहले नहीं पता थी?"
"जब मेरे आदमी ने वैन पर कब्जा जमाया, तब पता चला इस बात का...।"
"तो उनका क्या करोगे?"
"कोशिश की जा रही है कि उन्हें समझा कर बाहर निकाला जा सके।"
"छाबड़ा साहब, यह तो बुरी खबर है।" वधवा ने कहा।
कुछ देर चुप रहकर छाबड़ा ने गम्भीर स्वर में कहा---
"मैंने तुमसे ये बात पक्की की थी कि इस काम में खून-खराबा नहीं होगा।"
"अब तक नहीं हुआ...। मैं भी नहीं चाहता कि ऐसा कुछ हो। खून-खराबा हुआ तो शायद हम नहीं बच सकें।"
"वो बाहर नहीं निकले तो तब क्या होगा?" वधवा ने पूछा।
"हम इस बात की पूरी कोशिश कर रहे हैं कि बिना झगड़े के बाद बन जाए।"
"मैंने पूछा कि बाहर ना निकले तो तब क्या होगा?"
"जाहिर है कि गोलियाँ चलेंगी।" मलिक गम्भीर स्वर में कह उठा।
"नहीं।" छाबड़ा ने बेचैनी से कहा--- "किसी काम में गोलियाँ चलीं तो पुलिस जरूरत से ज्यादा चौकन्नी हो जाती है।"
"बात तो सही है, परन्तु...।"
"हम जो भी कर रहे हैं, गैरकानूनी काम है। बैंक-वैन को इस तरह ले भागना, जिसमें 60 करोड़ की रकम हो, डकैती कही जाती है। पुलिस ये नहीं सुनेगी कि पहले देवराज चौहान ने वैन हथियाई, उससे तुम लोगों ने वैन हथियाई। अब इस काम में जितना देवराज चौहान गुनहगार है, उतना ही तुम और मैं भी...।"
"मैं पूरी कोशिश करुँगा कि, मामला शांति से निपट जाए।" मलिक ने गम्भीर स्वर में कहा।
"D.C.M.B बैंक को पीछे छोड़ने के लिए, मैं अपने बैंक की तरक्की की खातिर यह काम कर रहा हूँ। परन्तु कभी-कभी मुझे लगता है कि यह सब करके मैंने गलत किया। अगर मैं फँसा तो बैंक मेरा साथ नहीं देगा। वो हाथ झाड़ लेगा। इस मामले से...।"
"मैं सब समझता हूँ। मुझे पूरा यकीन है कि गोलियाँ चलाने की नौबत नहीं आएगी।" मलिक ने कहा।
"कोई मरना नहीं चाहिए। खून नहीं बहना चाहिए...।" वधवा बोला।
"मेरी पूरी कोशिश है कि ऐसा ही हो।"
"जल्दी जाओ और काम निपटाओ।" वधवा ने कहा और वापस कार में जा बैठा।
छाबड़ा बैठने लगा तो मल्होत्रा बोला---
"चाय-पानी की जरूरत हो तो...।"
"कुछ नहीं चाहिए। जल्दी से काम पूरा करो।" छाबड़ा ने झल्लाकर कहा और कार में बैठ गया।
मलिक और मल्होत्रा चले गए।
छाबड़ा साहब!" वधवा बोला--- "वैन के भीतर दो गनमैन हैं। दो-चार लोग मर सकते हैं।"
"यही बात सोच कर मैं व्याकुल हूँ...।" छाबड़ा होंठ भींचकर बोला।
"अगर कोई मरा तो हम भी फँस सकते हैं। मलिक पर हम एक हद तक भरोसा कर सकते हैं।"
छाबड़ा ने कुछ नहीं कहा।
"क्या ये बेहतर नहीं होगा कि इन हालातों की आप ऊपर खबर कर दें?"
"ये ठीक रहेगा।" छाबड़ा ने कहा और नंबर मिलाने लगा।
बात हो गई।
छाबड़ा बात करने लगा।
पाँच मिनट बात होती रही। फिर छाबड़ा ने फोन बंद करके कहा---
"ऊपर वाले कहते हैं कि उन्हें D.C.M.B बैंक की फ्यूचर प्लानिंग वाली फाइल हर हाल में चाहिए।"
"उन्हें क्या है! फँसे तो हम फँसेंगे...।"
"वो कहते हैं कि अगर गड़बड़ हुई तो बैंक हमारा पूरा साथ देगा।"
"बाद में सालों ने हमारा फोन भी नहीं सुनना। तुम देख लेना।" वधवा ने कड़वे स्वर में कहा।
छाबड़ा गहरी साँस लेकर रह गया।
◆◆◆
मलिक और मल्होत्रा, सोहनलाल के पास पहुँचे।
सोहनलाल के पास पहले से ही अम्बा-जगदीश खड़े थे।
यही वो पल था कि सोहनलाल ने ताला खोल दिया।
"खूब...।" मलिक, सोहनलाल का हौसला बढ़ाने वाले अंदाज में बोला--- "बाकी के ताले को भी फटाफट निपटा दो...।"
"बस इसी तरह फटाफट हो जायेगा।" सोहनलाल ने कहा और सिगरेट सुलगाने में लग गया।
"ये हर पाँच मिनट में सिगरेट पीता है। वक्त खराब कर रहा है।" जगदीश झल्ला उठा।
जगदीश होंठ भींचकर रह गया।
"जल्दी से वैन खोलो सोहनलाल...।" मलिक ने गम्भीर स्वर में कहा।
"भीतर वाले गनमैन बाहर आने को तैयार हैं?" सोहनलाल ने पूछा।
"नहीं। जगमोहन उनसे बात कर रहा है।"
"उन्हें राजी करो। वरना मैं दरवाजे का आखिरी ताला नहीं खोलूँगा।" सोहनलाल बोला।
"तुम आखिरी ताला खोलकर चले जाना।" मलिक गम्भीर था--- "तुम्हारा काम खत्म हो जायेगा।"
"मतलब कि तुम लोग गनमैनों को गोलियाँ मारोगे?"
"पता नहीं...।" मलिक ने कहा और वहाँ से हट गया।
कुछ दूरी पर जगमोहन और सुदेश दिखे तो मलिक उनके पास जा पहुँचा।
"उसने एक ताला खोल दिया है।" मलिक ने जगमोहन से कहा।
"अच्छी बात है।" जगमोहन ने मलिक को देखा।
"वो इसी तरह बाकी ताले भी खोल देगा। मुझे भीतर मौजूद गनमैनों की चिंता है।"
जगमोहन ने कुछ नहीं कहा।
"तुम उनसे बात करो। किसी तरह उन्हें दोस्ताना माहौल में बाहर आने को कहो।"
"कोशिश तो कर ही रहा हूँ...।"
"अब फिर उनसे बात करो करो।"
"करता हूँ। अभी कौन आया है कार पर? तुम और मल्होत्रा उससे मिलने गए उधर...।"
"उस तरफ ध्यान मत दो। वो मेरे लोग हैं।"
"तुम अपने बारे में बताने को तैयार नहीं?"
"दो-चार घंटों में हमने अपने-अपने रास्ते पर चले जाना है। मेरे बारे में जानने का तुम्हें कोई फायदा नहीं। गनमैन के बारे में सोचो, इन्हें बाहर निकाल कर तुम साठ करोड़ हासिल कर सकते हो।"
जगमोहन ने गहरी साँस ली और वैन की तरफ बढ़ गया।
सुदेश ने मलिक से पूछा।
"सोहनलाल ने एक ताला खोल दिया है?"
"हाँ...।" मलिक ने कहा और जगमोहन के पीछे चला गया।
जगमोहन ने ड्राइविंग डोर खोला और भीतर सीट पर जा बैठा।
मलिक दूसरी तरफ आ बैठा।
जगमोहन ने उसे देखा, फिर सावधानी से खिड़की का छोटा पल्ला सरका दिया।
मलिक की बेचैनी भरी निगाह, जगमोहन पर थी।
"जवाहर, रोमी!" जगमोहन बोला--- "तुम्हारे लिए खुशखबरी है।"
भीतर सरकने की आहट आई, फिर रोमी की आवाज कानों में पड़ी।
"क्या?"
"एक ताला खुल गया है, बाकी के खुलने जा रहे हैं।" जगमोहन ने कहा।
जवाब में आवाज नहीं आई।
"कभी भी हमारी मुलाकात हो सकती है।"
खामोशी रही।
मलिक बेचैनी से जगमोहन को देख रहा था।
"अब तुम भी गोलियाँ चलाओगे और हम भी चलायेंगे। परन्तु हम जिंदा ग्रेनेड भीतर फेंकने की सोच रहे हैं। इससे खतरा कम रहेगा हमारे लिए। तुम दोनों आसानी से मारे जाओगे और पैसा हम ले लेंगे।"
कोई आवाज नहीं आई जवाब में।
"सुन रहे हो मेरी बात...।"
"हम किसी भी हालत में हथियार रख कर बाहर आने वाले नहीं। तुम हमें बातों में नहीं फँसा सकते।"
"तुम्हें लगता है कि मैं मजाक कर रहा हूँ...।"
"मैं ऐसा नहीं सोचता।"
"तो तुम्हें आने वाले हालातों के बारे में गम्भीरता से सोचना चाहिए।"
"ये ही बात मैं तुम्हें कहूँ तो?" जवाहर की आवाज जगमोहन को सुनाई दी।
"ये क्यों भूलते हो कि बाजी हमारे हाथ में है।"
"तभी तो हम बाहर नहीं आना चाहते।" रोमी की आवाज आई इस बार।
"क्या मतलब?"
"बाजी तुम लोगों के हाथ में है, तुम लोग कुछ भी कर सकते हो हमारे साथ, अगर हम बाहर आ गए तो---।"
"तुम्हारा मतलब कि हम तुम्हें मार देंगे?"
"हाँ...। तुम लोग अपने खिलाफ गवाह क्यों छोड़ोगे...।"
"मुझे बताओ कि तुम्हें कैसे विश्वास आएगा कि हम तुम दोनों को कोई नुकसान नहीं पहुँचाएंगे?" जगमोहन का स्वर गम्भीर था।
"हमें विश्वास नहीं आएगा।"
"कोई तो रास्ता सोचा होगा तुम लोगों ने कि...।"
"हम किसी रास्ते पर नहीं चलना चाहते। क्योंकि रास्ता कोई भी हो, हमें बाहर आना पड़ेगा।"
जगमोहन ने होंठ भींच लिए।
जवाहर और रोमी अपनी जगह पर सही थे।
उसी पल मलिक ऊँचे स्वर में कह उठा---"हम कसम खाकर कहते हैं कि तुम दोनों को जिंदा छोड़ेंगे। खून-खराबा करने का हमारा कोई इरादा नहीं है।"
जगमोहन ने दाँत भींचकर मलिक को देखा।
पल भर की शांति के बाद जवाहर की आवाज आई---
"ये कौन है?"
"वो ही पागल है, जो करोड़ों से बात शुरू करता है। लेकिन मेरी बात का भरोसा करो, खून-खराबा हमारे काम में शामिल नहीं है। हम जो भी करें, लेकिन खून-खराबा करना पसंद नहीं करते।" जगमोहन ने कहा।
मलिक ने दूसरी तरफ मुँह फेर लिया।
"और तुम चाहते हो कि हम तुम्हारी बात का विश्वास कर लें?" रोमी की आवाज आई।
"यही तो समझा रहा हूँ कि तुम दोनों को मेरी बात का भरोसा कर लेना चाहिए...।"
"बेवकूफ ना समझो तुम हमें...।"
"ये ही तो चक्कर है कि जो तुम मेरी बात पर यकीन नहीं कर रहे।"
"तुम हमें बातों में फँसा नहीं सकते। हार जाओगे।"
"ये हार-जीत नहीं, जिंदगी और मौत का सवाल है। मैं नहीं चाहता कि कोई मरे।"
भीतर से कोई आवाज नहीं आई।
"सोच लो...।" जगमोहन बोला--- "तब तुम दोनों से बात जरूर करुँगा, जब हम ग्रेनेड तैयार करके वैन का दरवाजा खोलने जा रहे होंगे। मैं फिर कहूँगा कि एक बार मेरी बात का यकीन करके देखो।"
जवाब में आवाज नहीं आई।
जगमोहन ने वैन की खिड़की बंद की और दरवाजा खोलकर नीचे आ गया। चेहरे पर गम्भीरता नजर आ रही थी। उधर से मलिक भी उतरा और जगमोहन पास आ गया।
"तुम बीच में क्यों बोले, जब मैं उनसे बात कर रहा था?" जगमोहन ने गुस्से से कहा।
"मैं...।"
"तुमने सोचा कि तुम्हारा तीर ठीक निशाने पर बैठेगा और वो दरवाजा खोलकर फटाफट बाहर आ जाएंगे?"
"नहीं...मैं तो...।"
"जब मैं बात करुँ तब अपनी जुबान बंद रखा करो।" जगमोहन ने दाँत भींचकर कहा।
मलिक ने गहरी साँस ली और कह उठा---
"ठीक है। ये बताओ कि तुमने क्या महसूस किया? वो दोनों बाहर आने का इरादा रखते हैं या...।"
"मुझे नहीं लगता कि वह बाहर आएंगे।"
"ओह...।"
"वो डरते हैं कि बाहर निकले तो हम उन्हें गोली मार देंगे।"
"लेकिन हमारा ऐसा कोई इरादा नहीं है।"
"वो तो नहीं जानते इस बात को...।"
"मैंने सोचा था कि तुम उन्हें तैयार कर लोगे कि वो बाहर आ जायें...।" मलिक ने कहा।
"वो मेरी बात क्यों मानेंगे? तुम इस तरह फँसे होते तो क्या बाहर निकल आते...?"
"नहीं...।"
"तो वो क्यों आएंगे?" उन्हें इस वक्त पैसे की नहीं, अपनी जान की चिंता है।"
"समझ में नहीं आता कि अब क्या होने वाला है...।" मलिक मन-ही-मन झल्ला कर बोला।
"तुम इन कामों को आसान समझते हो क्या?"
मलिक चुप रहा।
"तुम अपने बारे में क्यों नहीं बताते मुझे?" जगमोहन ने एकाएक कहा।
"क्या करोगे जानकर?"
"तसल्ली होगी कि मैंने तुम्हारे बारे में जान लिया है।" जगमोहन का स्वर शांत था।
"मैं प्राइवेट जासूस हूँ...।"
"प्राइवेट जासूस?" जगमोहन संभला--- "हैरानी है कि प्राइवेट जासूस बैंक-वैन के चक्कर में पड़ गया...।"
"क्लाइंट का काम कर रहा हूँ...।"
"क्या काम?"
मलिक ने जगमोहन को देखा।
"बता दो। रुको मत। मुझसे तुम्हें नुकसान नहीं होगा। क्योंकि तुम बैंक-वैन में मौजूद पैसे के पीछे नहीं हो।"
"क्लाइंट को कुछ ऐसे कागजों की जरूरत है, जो नोटों के साथ रखे हुए हैं।"
"पक्की खबर है?"
"हाँ...।"
"क्लाइंट कौन है?"
"अब तुम फालतू के सवाल पूछ रहे हो।"
"नहीं पूछता। परन्तु इतना जरूर कहूँगा कि प्राइवेट जासूस होने के नाते तुम्हें यह काम किसी भी कीमत पर नहीं करना चाहिए था।"
मलिक, जगमोहन को देखने लगा।
"तुम बैंक-वैन डकैती में शामिल हो चुके हो।" जगमोहन बोला।
"जानता हूँ...।"
"यह गम्भीर अपराध है।"
"मैंने नहीं सोचा था कि मामला इस हद तक गम्भीर हो जाएगा।" मलिक व्याकुलता से बोला।
"ये बात तुम्हें पहले ही सोच लेनी चाहिए थी कि ऐसा होगा ही।"
मलिक ने गहरी साँस लेकर मुँह फेर लिया।
"जो कार कुछ देर पहले ही आई है, उसमें तुम्हारे क्लाइंट ही होंगे।"
मलिक ने बेचैनी से जगमोहन को देखा।
"बता दो। अब मुँह बंद रखने का कोई फायदा नहीं।"
"हाँ...।"
"वो कागजात मिलने के इंतजार में अपनी कार के पास मौजूद हैं?"
मलिक ने सहमति में सिर हिलाया।
"इस तरह वो भी बैंक-वैन डकैती में शामिल हो चुके हैं।" जगमोहन ने गम्भीरता से कहा--- "अगर पुलिस का डंडा घूमा तो तुम सब में से कोई नहीं बचेगा।"
"मैंने गलत किया, इस काम में हाथ डालकर।" मलिक भिंचे स्वर में बोला।
"ये बात तुम्हें पहले सोचनी चाहिए थी। अब वक्त निकल चुका है।"
"तुम उन गनमैनों को किसी तरह बाहर...।"
"मुश्किल काम है। वो बाहर नहीं आएंगे कि कहीं हम उन्हें शूट ना कर दें।"
"तुम उन्हें अपनी बातों में फँसाकर...।"
"वो दोनों फौजी हैं। एक मिलिट्री रिटायर्ड है और दूसरा नेवी से है।"
मलिक बहुत परेशान लग रहा था।
"मुझे वह वक्त याद आता है जब तुम देवराज चौहान का निशाना लेकर मुझे डरा रहे थे...।" जगमोहन ने तीखे स्वर में कहा।
"क्यों जले पर नमक छिड़कते हो...।"
जगमोहन ने गहरी साँस ली और वैन के पीछे की तरफ बढ़ गया--- जहाँ सोहनलाल था।
◆◆◆
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