देवराज चौहान और नगीना दस बजे तक दिल्ली में पहुंच गये थे। लम्बा सफर था। कार को नगीना ने भी ड्राईव किया और देवराज चौहान ने भी ।


दोनों होटल में ठहरे। देवराज चौहान नहा-धोकर, नाश्ता करने के बाद नगीना को होटल में रहने को कहकर बाहर चला गया और लंच के वक्त वह वापस लौटा।


"कहां गये थे आप ?" नगीना ने पूछा ।


“महाजन के बारे में मालूम करने।" देवराज चौहान बैठते हुए बोला- “पता ठीक है। महाजन वहीं रहता है। उसने राधा नाम की लड़की से तीन-चार महीने पहले ही शादी की है।”


नगीना ने सोच भरे ढंग से सिर हिलाया।


“तुम लंच के लिए ऑर्डर दो। मैं हाथ-मुंह धोकर आता हूं।" 


बीस मिनट पश्चात् ही दोनों लंच ले रहे थे । 


देवराज चौहान का चेहरा बता रहा था कि वो गहरी उलझन में फंसा है।


“आप कुछ खास ही सोच रहे हैं ?" नगीना ने पूछा । 


“हां। महाजन हमारे सामने है। लेकिन वो इन्सान किसी भी हालत में मोना चौधरी का पता नहीं बतायेगा ।" 


“उसे दौलत का लालच दीजिये। वो " 


“नगीना!" खाने के दौरान देवराज चौहान के होंठों पर गम्भीर की मुस्कान उभरी- "क्या जगमोहन दौलत के लालच में किसी को मेरा पता बता सकता है।"


"हरगिज नहीं। असम्भव।” नगीना दृढ़ता भरे स्वर में कह उठी। 


“यही बात महाजन पर लागू होती है। मोना चौधरी के साथ उसका कुछ ऐसा ही सम्बन्ध है।" देवराज चौहान ने नगीना के चेहरे पर निगाह मारी- "महाजन से मोना चौधरी के बारे में जानने के लिए हमें साम-दंड-भेद का इस्तेमाल करना पड़ेगा। चालाकी से ही हम लोग मोना चौधरी का पता-ठिकाना जान सकते हैं।" 


“वो कैसे ?”


“जो मैंने सोचा है, उसके मुताबिक इस काम में तुम्हें आगे आना होगा।" देवराज चौहान गम्भीर था।


“आप कहिये तो सही कि मुझे क्या करना है।" लंच के दौरान देवराज चौहान, नगीना को बताने लगा कि उसने क्या करना है।


“आपने जैसा कहा है। मैं वैसा ही करूंगी। यकीन कीजिए। अपने काम में सफल भी रहूंगी।" नगीना ने दृढ़ता भरे स्वर में कहा। 


“महाजन इतना बेवकूफ नहीं है कि तुम्हें आसानी से सफल होने दें। सावधान रहना।"


नगीना ने देवराज चौहान को देखा, फिर हौले से सिर हिला दिया।


***


शाम के चार बज रहे थे ।


राधा लंच के पश्चात् एक घंटे की नींद लेकर जागी थी। हाथ-मुंह धोने के पश्चात् थोड़ा-सा मेकअप किया। गाऊन उतारकर साड़ी डाली। शीशे में देखा। भारतीय नारी की पूर्णतया सुन्दरता लग रही थी वो । गांग में सिन्दूर की लम्बी रेखा जैसे उसकी पवित्रता की छवि पर मोहर लगा रही थी ।


महाजन दोपहर को बारह बजे गया था और पक्का वायदा करके गया था कि शाम तक लौट आयेगा फिर उसे बाहर घुमाने ले जायेगा। शाम ढलने में बेशक अभी देर थी। परन्तु राधा अभी से ही तैयार होकर बैठ गई थी। खुद को तसल्ली भरी निगाहों से राधा ने शीशे में निहारा ।


तभी कालबेल की आवाज गूंजी। 


“कौन आ गया।" राधा शीशे के सामने से हटती हुई बड़बड़ाई-सफाई वाली तो सुबह ही चली गई थी। वो जो वाल की अंग्रेजी पढ़ाने आती है। उसका तो फोन आ गया था कि यो आज नहीं आयेगी। अब कौन आ गया।" 


इसके साथ ही राधा कमरे निकली और दूसरे कमरे के दरवाजे के पास जा पहुंची।


उसी वक्त फिर बेल बजी।


"जरा भी सब्र नहीं यहां के लोगों को भला सोचो मैं क्या फुर्सत में बैठी हूं कि एक बार में बेल बजे और मैं झट से दरवाजा खोल दूं। दूसरे को तो लोग खाली बैठा ही समझते।" इसके साथ ही राधा ने दरवाजा खोला।


सामने नगीना खड़ी थी। चेहरे पर घवराहट और पसीना नजर आ रहा था। कमीज-सलवार में थी वो। आगे के बाल उलझे से माथे पर आ रहे थे। राधा के दरवाजा खोलते ही उसने एक-दो बार पीछे की तरफ देखा।


“यस वटवट वॉट यूं।" राधा कह उठी- “कौन हो तुम? किससे मिलना है?"


“बहन!" नगीना घबराई सी, हाथ जोड़कर कह उठी- "मेरे पीछे एक वदमाश पड़ा है। भगवान के लिए मुझे बचा लो। बहुत कठिनता से अब तक उससे बचती आ रही हूं।"


"बदमाश ?” राधा ने हर तरफ नजरें दौड़ाईं-“कहां है बदमाश ?” 


“यहीं है।" नगीना ने पीछे देखा फिर राधा को-“शायद छिप गया है मुझे तुम्हारे घर के दरवाजे पर खड़ा देखकर। पहले उसने मेरे मां-बाप को मार दिया। अब मेरी जान लेना चाहता है।" 


"अन्दर आ-जा बहन।" राधा उसे रास्ता देती हुई तीखे स्वर में कह उठी-“वो जितना भी बड़ा बदमाश हो उससे तो मैं अकेले ही निपट लूंगी।"


नगीना भीतर आ गई।


राधा ने दरवाजा बंद कर लिया।


“आराम से बैठ तू। मेरे होते हुए डरना नहीं।" 


“पा-पानी मिलेगा?" नगीना सूखे होंठों पर जीभ फेरती हुई कह उठी।


“पानी क्या, खाना-पीना-सोना भी मिलेगा। बैठ-बैठ तू।" कहने के साथ ही नगीना किचन की तरफ बढ़ गई।


नगीना के होंठ सिकुड़े। छोटे से ड्राईंगरूम में नजरें दौड़ाने लगी।


फौरन ही राधा पानी ले आई। “तू अभी तक खड़ी है।" राधा उसे पानी का गिलास थमाती हुई वोली- "बैठ जा। यहां तेरे को किसी तरह का कोई खतरा नहीं। वो बदमाश आया तो सिर तोड़ दूंगी कवीले से वास्ता रखती थी मैं उसका खतरनाक आदमियों से लड़ना आता है मुझे।" 


नगीना पुनः अपने चेहरे पर घबराहट के भाव ले आई थी। वो सिर हिलाते हुए वैठी और एक ही सांस में पानी का गिलास खाली करके टेवल पर रख दिया।


“चाय बनाऊं या कुछ देर में ?” राधा ने पूछा। 


“अभी नहीं।”


“ठीक है।" राधा उसके सामने बैठती हुई बोली- "जब तू कहेगी, तब चाय बनाऊंगी। ये वता वो बदमाश कौन है और उसने तेरे मां-बाप को क्यों मारा। तेरे को क्यों मारना चाहता है ?”


“मैं नहीं जानती।” नगीना लम्बी-लम्बी सांसें लेने लगी- "मेरे पापा से उसकी कोई बात रही होगी। अचानक ही उसने ये सब किया और मेरे पीछे पड़ गया। मैं जान बचाती हुई भाग रही हूं।" “उसे तो मेरा पति देख लेगा। वो-"


“पति ?”


“नीलू ।” राधा इस तरह बोली जैसे महाजन तोप हो- “वो बहुत बहादुर है। मैं तो उसे मिनटों में ही चित्त कर देती हूं लेकिन वो बड़े से बड़े बदमाश के भी काबू में नहीं आता। पछाड़ देता है उसे ।”


“लेकिन जो मेरी जान लेना चाहता है। वो बहुत खतरनाक है। तुमने नाम सुना होगा उसका?"


क्या नाम है ?” “देवराज चौहान | वो बहुत बड़ी-बड़ी डकैतियां करता है। सब जानते हैं उसे ।"


“मैंने तो नहीं सुना।


“तो नीलू भी जानता होगा। ठीक कर देगा उसे । आने दे नीलू को।" राधा विश्वास के साथ कह उठी।


“अगर तुम्हारा पति उसका मुकाबला न कर पाया तो ?" “तो मोना चौधरी उसकी गर्दन तोड़ देगी।"


“मोना चौधरी ? ये कौन है ?"


“कमाल है! तू नहीं जानती मोना चौधरी को। वैसे नीलू तो कहता है मोना चौधरी को बहुत सारे लोग जानते हैं और वो किसी से डरती नहीं। उसके आगे देवराज चौहान कहां टिकेगा। मोना चौधरी ने तो तांत्रिक गौणा और देवता शम्बूझा को भी खत्म कर दिया था। जिससे सारी बस्ती के लोग थर-थर कांपते थे।" 


“तांत्रिक गौणा-देवता शम्बूझा ? ये कौन हैं ?"


"मैं इन्हीं की बस्ती की तो हूं। वहीं से लाकर नीलू ने मेरे से ब्याह किया।" इसके साथ ही राधा ने अपनी बस्ती के बारे में बताया। 


इन सब बातों को जानने के लिए पढ़ें 'रवि पॉकेट बुक्स' में पूर्व प्रकाशित अनिल मोहन का मोना चौधरी सीरीज का उपन्यास "खिसियानी बिल्ली खम्भा नोचे।"


सब कुछ बताने के बाद बोली ।


"मोना चौधरी मेरी बहन जैसी है। वो मेरा ख्याल रखती है। नीलू तो डरता है उससे । मोना चौधरी ने मुझे कह रखा है कि अगर नीलू तेरे को कुछ कहे मुझे फोन कर देना। मैं सीधा कर दूंगी उसे। लेकिन क्या करूं। नीलू मुझे कुछ कहता ही नहीं। मोना चौधरी से शिकायत करूं भी तो क्या ?”


“मोना चौधरी को बुलाकर तुम मेरी सहायता कर दो।" नगीना जल्दी से कह उठी।


“तुम्हारी सहायता ?”


“वो मोना चौधरी, देवराज चौहान से मुझे बचा लेगी।" 


“उसकी तुम फिक्र मत करो। नीलू को आ जाने दो। वो सब ठीक कर लेगा।” 


“कहीं वो बदमाश न आ जाये। तुम मोना चौधरी को - ।”


“ मैंने पहले ही कहा है। मेरे होते हुए तुम डरो मत । वैसे भी मैं मोना चौधरी को इस तरह फोन नहीं करूंगी। नीलू ने मुझे मना कर रखा है कि किसी के कहने पर मोना चौधरी को फोन नहीं करना। उसके बहुत दुश्मन हैं।” राधा भोलेपन से भरे स्वर में कह उठी- “नीलू की तो मैं हर बात मानती हूं।"


नगीना समझ गई कि राधा, मोना चौधरी को फोन नहीं करने वाली ।


“तुम मुझे फोन नम्बर दे दो। मैं हाथ जोड़कर मोना चौधरी से सहायता - ।"


“फोन नम्बर तुम्हें देना हो तो क्या मैं फोन नहीं कर सकती।" राधा ने उसी लहजे में कहा-“तुम घबराओ मत। नीलू के आते ही सब ठीक हो जायेगा।"


नगीना को समझते देर न लगी कि राधा की बातों में भोलापन अवश्य है लेकिन समझदारी की कोई कमी नहीं है।


“बाहर देख लो कहीं वो देवराज चौहान बाहर ही न खड़ा हो।" नगीना सहमे से स्वर में कह उठी।


“उसकी तो ऐसी-तैसी ।” राधा दरवाजे की तरफ बढ़ते हुए बोली- “वो नजर आया तो मैं उसकी टांग पकड़कर घसीटकर, अन्दर लाकर बाथरूम में बंद कर दूंगी।" कहने के साथ ही दरवाजा खोला और बाहर देखते हुए बोली- "देखने में कैसा है वो ?” 


“लम्बा - ऊंचा।” नगीना का स्वर कानों में पड़ा। 


"कोई और निशानी बता ।"


“ऐसा कि देखते ही उस पर दिल आ जाता है।" ये सुनते ही राधा फौरन पलटी और सहमी सी बैठी नगीना को देखा।


“तू उसका हुलिया बता रही है या गुणगान कर रही है।" 


“उसकी निशानी बता रही हूं कि तुम उसे देखते ही पहचान सको।” नगीना ने कहा।


“तूने नीलू को देखा है ?"


“कौन नीलू ?” 


“मेरा मर्द ।” 


“नहीं देखा।”


“वो भी ऐसा ही है।” राधा के होंठों पर मुस्कान उभरी- “मैंने तो उसे देखते ही दिल दे दिया था ।”


नगीना ने अपने चेहरे पर घबराहट बनाई रखी। "मजाक मत करो। वो-वो देवराज चौहान, मेरी जान ले लेगा।" राधा ने पुनः बाहर देखा।


“मुझे तो ऐसा कोई इन्सान नजर नहीं आ रहा, जो बाहर खड़ा होकर, इधर देख रहा हो।” इसके साथ ही दरवाजा बंद किया राधा ने- “मैं तेरे लिए चाय बनाती हूं। कुछ खाना हो तो बता दे । डरना छोड़ दे। नीलू आयेगा तो वो देवराज चौहान को डण्डा बना देगा। देवराज चौहान को अगर पता होगा कि ये नीलू का घर है तो वो डण्डा बनकर भाग गया होगा। नींद लेने का मन हो तो एक-दो घंटे की नींद भी ले लेना।"


***

“तू देखना नगीना!” राधा उखड़ी पड़ी थी - “आज मैं नीलू को नहीं छोडूंगी। इतना लम्बा-चौड़ा वायदा करके गया था कि शाम को वापस आ जायेगा और मुझे घुमाने ले जायेगा। ये हमेशा ही ऐसा करता है। जब टाईट करती हूं तो कहता है अब नहीं करूंगा। तू बता तो क्या सारे मर्द ही ऐसे होते हैं?” 

“मुझे क्या मालूम ?” नगीना ने कहा । -

“ये भी बात सही है कि तेरे को क्या पता।" राधा ने सिर
हिलाया- "जब तेरा ब्याह हो जाये तो तब आकर मुझे जरूर बताना।” 

“मेरा ब्याह क्या होगा। तुम्हारा नीलू तो आया नहीं। वो देवराज चौहान मेरी जान ले लेगा।"

"मेरे होते हुए कोई भी तेरे को कुछ कह सकता। मैं कम नहीं हूं नीलू से। अब देख रात के नौ बज रहे हैं। देवराज चौहान अगर बाहर है तो उसने भीतर आने की हिम्मत की क्या ? नहीं की। क्योंकि वो जानता होगा कि ये नीलू का घर है।" राधा शान भरे ढंग से कह उठी- “खैर छोड़। हम दोनों मिलकर खाना खा लेते हैं। नीलू के भरोसे रहूं तो महीने में आठ दिन ही खाना खाना नसीब हो। जिस दिन रस्सी से बांधकर रखती हूं उस दिन ही उसके साथ खाना खा पाती हूं।"

“मुझे भूख लगी है।” नगीना कह उठी ।

“भूख लगी है तो बैठी क्यों है। चल किचन में । खाना ले आते हैं। अब सारे काम मैं ही करूं क्या ?”

नगीना मुस्कराकर उठ गई ।

तभी फोन की बेल बज उठी। राधा फोन की तरफ बढ़ी। "हैलो।” राधा ने रिसीवर उठाया।

“राधा!” महाजन की आवाज कानों में पड़ी-“मैं- ।” 

“नीलू तू।" राधा एकदम उखड़ पड़ी-“तूने शाम को आकर मुझे घुमाने ले जाने का वायदा किया था और अब अंधेरा हो जाने पर, रात को नौ बजे मुझे फोन कर रहा - ।"

“राधा!” महाजन ने कहना चाहा -“मैं कल आऊंगा। जरूरी काम आ- ।"

“तू कल आ । आज आ।" राधा गुस्से से बोली- “जब भी आयेगा। तेरे को छोडूंगी नहीं । तेरी तो - ।”

तभी दूसरी तरफ से महाजन ने लाईन काट दी थी । राधा ने गुस्से से रिसीवर वापस रखा ।

“देखा।” राधा ने नगीना को देखते हुए तीखे स्वर में कहा- “रिसीवर रख दिया। मालूम है उसको कि मैं फोन पर ही उसे खींचकर लम्बा कर दूंगी। कोई बात नहीं। घर तो आने दो नीलू को फिर देखना- "

“तुम्हारा मर्द कल घर आयेगा तो मैं क्या करूंगी। वो देवराज चौहान।"

“देवराज चौहान की फिक्र मत कर। वो आया तो उसे मैं देख लूंगी। आराम से रह । मेरा मन भी लगा रहेगा।" राधा ने आगे बढ़कर नगीना का हाथ पकड़ा-“चल, खाना खाते हैं।” 

आधी रात को जब राधा गहरी नींद में थी तब नगीना ने देवराज चौहान को होटल में फोन किया।

“मैं तुम्हारे ही फोन का इन्तजार कर रहा था।" देवराज चौहान का स्वर कानों में पड़ा। नगीना ने जल्दी से सब बातें बताकर कहा। 

“महाजन अब कल किस वक्त आयेगा।"

“इन्तजार करो। इसके अलावा हमारे पास और कोई रास्ता नहीं।” देवराज चौहान का सोच भरा स्वर नगीना के कानों में पड़ा-“कोशिश करो कि राधा, मोना चौधरी के ठिकाने के बारे में बता दे ।”

“वो नहीं बतायेगी। इस बारे में मैंने दो-तीन बार कोशिश कर ली है । "

“ठीक है। वहीं रहो। महाजन के आने का इन्तजार करो।" 

इसके साथ ही देवराज चौहान ने रिसीवर रख दिया था।

***

अगले दिन ग्यारह बजे पारसनाथ की आंख खुली।

चूंकि रात को रेस्टोरेंट बंद होने के बाद नींद लेते-लेते तीन-चार बज जाते थे। इसलिए अक्सर इतने बजे ही वो नींद से उठता था। नहाने के बाद जब नाश्ते से फारिग हुआ तो साढ़े बारह बज रहे थे। नीचे रैस्टोरैंट का काम चालू हो चुका था। सामान्य दिनचर्या थी हमेशा की भांति ।

परन्तु पारसनाथ का मस्तिष्क जगमोहन, सोहनलाल, बांकेलाल राठौर और रुस्तम राव में उलझा हुआ था। जो कि कल दिन और रात में डिनर के लिए उसके रेस्टोरेंट में आये थे। बाकी दो बाहर खड़े थे ।

कल की बातें सामान्य हो सकती थीं अगर वो लोग आज न आये, तो उनका कल आना इत्तफाक माना जायेगा, परन्तु पारसनाथ का दिल कह रहा था कि वो आज भी आयेंगे। यकीनन कोई बात है वरना जगमोहन और सोहनलाल बाहर रहकर निगरानी न करते।

पारसनाथ ने इन्टरकॉम से बात करके, गोपाल को बुलाया। जो कैश काऊंटर संभालता था ।

“उन दोनों की याद है तुम्हें जो कल दोपहर और शाम को 
भी खाने के लिए यहां आये थे। जिनके बारे में मैंने तुमसे पूछा था।" सपाट स्वर में कहने के पश्चात् पारसनाथ ने सिग्रेट सुलगाई । 

"जी। उन्हें तो अब मैं देखते ही पहचान लूंगा।" गोपाल ने कहा। 

“उस वेटर से भी कह देना, जिसने कल उन्हें लंच सर्व किया था।” पारसनाथ ने उसे देखा।

“समझ गया। अगर वो आये तो आपको फौरन बता दिया जायेगा।"

पारसनाथ ने अपने खुरदरे चेहरे पर हाथ फेरते हुए सिर हिला दिया। गोपाल चला गया।

कश लेता पारसनाथ सोचों में डूब गया।

दो बजे गोपाल ही ऊपर आया। 

“वो दोनों आ गये हैं, जिनके बारे में आप पूछ रहे थे।" गोपाल ने आते ही कहा।

पारसनाथ के होंठ सिकुड़ गये। खुरदरे चेहरे पर कठोरता सी आ ठहरी ।

“तुम जाओ।"

गोपाल चला गया।

पारसनाथ उठा और पीछे वाली सीढ़ियां उतरकर, चक्कर काटकर रैस्टोरैंट के सामने वाले हिस्से में पहुंचा। इस बात के प्रति वो सावधान था कि अंगर जगमोहन-सोहनलाल वहां हों तो उसे न देख सकें। मुनासिब जगह पर ओट ली और फिर उसकी नजरें हर तरफ घूमने लगीं।

सड़क पर से ट्रैफिक बराबर निकल रहा था।

तीन-चार मिनट वहीं ठहरा पारसनाथ हर तरफ नजरें घुमाता रहा। तलाश थी जगमोहन और सोहनलाल की कि उन दोनों के भीतर होने पर, ये दोनों आज भी बाहर हैं या नहीं ?

पांच मिनट के बाद पारसनाथ उन्हें देख पाया।

रैस्टोरेंट के सामने, सड़क पार, वो ऐसी जगह खड़े थे, जहां से रैस्टोरैंट में आने-जाने वाले पर नजर रखी जा सके। उन पर निगाह पड़ते ही पारसनाथ अपने खुरदरे चेहरे पर हाथ फेरने लगा। फिर सावधानी के साथ अपनी जगह छोड़कर पीछे हटा और वापस रेस्टोरेंट के ऊपर, अपने घर में आ पहुंचा।

चेहरे पर गम्भीरता थी। उसने मोना चौधरी को फोन किया। बात हुई।

“मोना चौधरी !” पारसनाथ ने सपाट गम्भीर स्वर में कहा"बांकेलाल राठौर और रुस्तम राव आज भी इस वक्त रेस्टोरेंट में मौजूद है। जगमीहन और सोहनलाल बाहर रहकर रेस्टोरेंट पर नजर रख रहे हैं।”

"मुझे पूरा विश्वास था कि वो आज भी तुम्हारे रैस्टोरैंट में आयेंगे।" मोना चौधरी की सोच भरी आवाज कानों में पड़ी - "ये लोग जिस काम के लिए आये हैं, उसे पूरा किए बिना वापस नहीं जाने वाले। इन्हें मेरी जरूरत है। लेकिन मुझे इस बात का पूरा यकीन है कि ये कोई काम करवाने के लिए, मुझे नहीं ढूंढ रहे । " 

“तो ?”

“यही जानने के लिए तो मैं तुम्हारे रेस्टोरेंट में पहुंच रही हूं।" मोना चौधरी की आवाज में अब राहत आ गई थी।

“क्या तुम्हारा इन लोगों के सामने आना ठीक रहेगा ?" पारसनाथ का स्वर पहले जैसा ही था ।

“अब नहीं तो बाद में सामने आना होगा पारसनाथ।” मोना चौधरी के स्वर में यकीन के भाव थे - “मैं इनके सामने न पड़ी तो देर-सवेर में ये तुम्हें पकड़कर मेरे बारे में पूछेंगे । तब शायद बात बढ़ जाये। क्योंकि तुम अपना मुंह नहीं खोलोगे । देवराज चौहान नजर आया ?”

“नहीं । वो नहीं दिखा ।”

“वो भी पक्का दिल्ली में ही है। उसके कहने पर ही ये सब हो रहा है। "

पारसनाथ ने कुछ नहीं कहा । “मैं पहुंच रही हूं।” इसके साथ ही दूसरी तरफ से मोना चौधरी ने रिसीवर रख दिया था ।

पारसनाथ सीढ़ियां उतरकर रैस्टोरेंट में पहुंचा।

एक टेबल पर मौजूद बांकेलाल राठौर और रुस्तम राव को खाने में व्यस्त देखा। पारसनाथ का चेहरा शांत था । हमेशा की तरह वो बेहद सामान्य नजर आ रहा था। वो सीधा उनकी टेबल पर पहुंचा। " तुम दोनों से दोबारा मिलकर मुझे खुशी हो रही है।" मुस्कराकर कहते हुए पारसनाथ कुर्सी पर बैठ गया। बांकेलाल राठौर और रुस्तम राव ने उसे देखा।

“खुशी तो म्हारे को भी बोत हौवे।" बांकेलाल राठौर कह उठा- “तम आज भी किसो का इन्तजार करो का ?" 

"नेई बाप।" रुस्तम राव ने कहा- "इसे भी इधर का खाना बोत फिट लगेला । तथ्भी ये इधर आएला ।”

"किसो छोरी के फेर में तो इधर न आवे यो ।”

"क्या बात करेला बाप! पचास बरस का आदमी छोरी के चक्कर क्यों पड़ेला ?” रुस्तम राव ने पारसनाथ को देखा - "क्यों बाप ?” 

पारसनाथ के होंठों पर शांत मुस्कान उभरी रही।

“खानो खाना हौवो तो हाथों मारो ले वीच में म्हारो खानो ज्यादा होवो। बचो।" ।

उसकी बात पर ध्यान न देकर पारसनाथ ने कहा। 

“मालूम है आज मैं यहां किसका इन्तजार कर रहा हूं? किससे मिलना है ?”

“आपुन को क्या मालूम बाप ?” 

“थारे बातो करने का ढंगो से तो लगो कि मोना चौधरी आवे हो।” वांकेलाल राठौर ने मुंह बनाकर कहा।

“तुम्हारां कहना सही है। मोना चौधरी का इन्तजार कर रहा हूं। उसने यहां मिलना था।" 

बांकेलाल राठौर और रुस्तम राव की नजरें मिलीं।

“बाप! ये तो आपुन को खिंचेला है।” 

“पर म्हारे को तो लगो यो सच वोलो हो ।” 

“आपुन को क्या फर्क पड़ेला बाप आपुन तो खा-पी के खिसकेला।" रुस्तम राव ने लापरवाही से कहा।

“तुम दोनों से मिलकर मोना चौधरी को खुशी होगी।” 

“पारसनाथ!” बांकेलाल राठौर ने कहा- “म्हारो पास तो टैम न हौवो। म्हारे हौतो-होतो आ गयो तो हैल्लो-हैल्लो कर लयो। ने तो फिर कथ्भो करो । क्यों छोरे ?"

“परफैक्ट कहेला बाप ।”

“तम खाली-खाली क्यों बैठो हो। खाना नेई खाये तो कोल्ड ड्रिंक पी लयो । पैसो तो म्हारे सिरो पर ही ठुको हो।” 

"अभी मन नहीं है।"

“थारो मर्जी म्हारे तो पैसो ही बचो हो ।” बांकेलाल राठौर और रुस्तम राव खाना खाकर फारिग हुए।

वेटर को बुलाकर बिल दिया।

पारसनाथ पास ही खामोश बैठा रहा।

“पारसनाथ! अंम चल्लो हो । मोना चौधरी आवे तो म्हारी हैल्हो-हल्ली बोल दयो।"

“आ गई मोना चौधरी ।" कहते हुए पारसनाथ की निगाह 
रेस्टोरेंट के प्रवेश द्वार पर थी। हाथ खुरदरे चेहरे पर फिर रहा बांकेलाल राठौर और रुस्तम राव की नजरें भी उस तरफ गईं।

***