वो इमारत से निकलकर सड़क पर पहुंचे ।


"हमारी पणजी की बस आठ बजे जाती है ।" - जीतसिंह बोला - "बस के टाइम में अभी तीन घंटे से भी ज्यादा का वक्त है । मुझे धारावी में थोड़ा काम है। या तो तुम भी मेरे साथ धारावी चलो, या फिर मैं तुम्हें बस के टाइम पर अड्डे पर मिलता हूं।"


“हम तेरे साथ ही चलते हैं ।" - एडुआर्डो बोला- “क्यों, ऐंजो ?"


“यस ।” - ऐंजो बोला- "टाइम पास होगा।"


"ठीक है फिर ।"


वो एक टैक्सी में सवार हो गये। टैक्सी धारावी की तरफ दौड़ पड़ी ।


"वहां काम क्या है तुझे ?" - रास्ते में एडुआर्डो बोला ।


"एक दोस्त से मिलना है। उसे एक काम बोला था, मालूम करना है कि हुआ या नहीं ।”


"वो न मिला तो इंतजार करेगा ?"


"नहीं । पणजी लौटना जरूरी है वरना असली काम बिगड़ जाएगा।”


"यही सुनना चाहता था मैं तेरे से ।”


धारावी में ट्रांजिट कैंप पहुंचकर जीतसिंह ने एक जगह टैक्सी रुकवाई ।


"तुम टैक्सी में ही बैठो।" - वो बोला- "मैं गया और आया


उसके दोनों साथियों ने सहमति में सिर हिलाया ।


परदेसी उसी ढाबे में मौजूद था जिसमें कि वो उसे अपने पहले फेरे में मिला था ।


ढाबा उस बड़ी लगभग खाली पड़ा था ।


जीतसिंह को देखते ही वो अपने स्थान से उठा और उसके करीब पहुंचा । वो जीतसिंह से बगलगीर होकर मिला और फिर दोनों वहां के एक तनहा कोने में जा बैठे जहां परदेसी ने पहले उसे चाय और सिगरेट से नवाजा ।


"क्या बात है ?" - जीतसिंह बोला - "आजकल तेरा पक्का ही यहां डेरा है ?"


"अरे नहीं, यार ।" - वो खीसें निपोरता हुआ बोला. " इत्तफाक से इस घड़ी यहां हूं । "


"हूं।"


"ये इत्तफाक तेरे लिये तो अच्छा ही हुआ न ! देख ले तेरे से मुलाकात हो गयी । वर्ना तू मुझे कहां ढूंढ़ता !" ।


"हां । इतना बड़ा शहर है । "


"कैसे आया ?"


"काम से ही आया । मेरा एक काम है जिसमें तू मेरी मदद कर सकता है ।"


"क्या काम है ? "


"मेरे पास कुछ कीमती सामान है जिसके साथ मुझे और मेरे गोवा के कुछ दोस्तों का बम्बई में कहीं कोई सेफ ठिकाना चाहिये । मैं चिंचपोकली अपने घर नहीं जा सकता क्योंकि मैं वहां किसी से आमना-सामना हो जाने से बचना चाहता हूं । तू मुझे ऐसी कोई जगह सुझा सकता है जहां कि मैं..."


" मैं बहुत वढ़िया जगह सुझा सकता हूं।"


“अच्छा ! कौन सी ?"


"चुनिया की खोली ।"


"चुनिया की खोली ! लेकिन उसकी चाबी तो किसी पड़ोसी के पास थी और उसके तो बिहार से कोई रिश्तेदार आने वाले थे?"


" आने वाले थे। लेकिन कोई नहीं आया कमबख्त । आज तक नहीं आया । कितना खून सफेद हो गया है दुनिया का । आजकल तो आदमी मरा, कुत्ता मरा एक बराबर हो गया है |"


"वो तो है । चाबी ! चाबी कैसे हाथ लगी ?"


"मैंने बताया था कि वो उसके मनोहर सोलापुरे नाम के एक पड़ोसी के पास थी । पिछली बार तू चुनिया की खोली देखना चाहता था लेकिन वो सोलापुरे अपनी टूरिस्ट टैक्सी के साथ लम्बा निकल गया हो सकता था इसलिये तेरी खातिर काफी मनुहार करके मैंने चाबी उससे ले ली थी । चुनिया का कोई रिश्तेदार तो आ नहीं रहा था इसलिये उसने भी चाबी देने में कोई हुज्जत न की थी ।”


"अब चाबी तेरे पास है ?"


"हां" "जो कि तू मुझे दे सकता है ?"


"ले ! ये भी कोई पूछने की बात है ? और मैंने चाबी की कहानी किसलिए की है ?"


"ये तो तूने एक मेरा बहुत बड़ा काम संवार दिया, परदेसी मेरी यहां सेफ ठिकाने की जरुरत तो बड़े आराम से ही पूरी हो गयी ।"


"खुश ?"


"हां । बहुत । चाबी कहां है ? "


"मेरे पास है ।”


“मुझे दे ।”


"अभी लेगा ?"


"हां। वैसे ठिकाने के तौर पर उस जगह की जरुरत मुझे कल शाम या परसों पड़ेगी। लेकिन चाबी मेरे पास होगी तो जरुरत के वक्त मुझे तेरे को तलाश करते नहीं फिरना पड़ेगा ["


"ये बात तो ठीक है।"


परदेसी ने उसे एक चाबी सौंप दी ।


" और क्या खबर है ?" - जीतसिंह बोला ।


"खबरें तो कई हैं । तेरे काम की बाबत भी । और और किसी बाबत भी ।"


“अच्छा ! मसलन क्या खबर है ?"


"एक तो अब तुझे अपने पुराने साथियों की बाबत कोई फिक्र करने की कोई जरूरत नहीं । "


"क्या मतलब ?"


"देवरे का तो" - उसका स्वर धीमा हो गया - "कत्ल हो गया है।"


"अरे !"


“बम्बई से बाहर कहीं । साथ में कोई और भी था। दोनों को किसी ने शूट कर दिया था ।"


"च च च ।"


"मरा भी तो परदेस में । वो भी ऐसी बुरी मौत। आदत से मजबूर तो था ही । लिया होगा किसी से पंगा ।"


जीतसिंह ने बड़ी संजीदगी से गर्दन हिलायी ।


"और पपड़ी और ख्वाजा आजकल आर्थर रोड जेल में हैं।"


"कैसे पहुंच गये ?" - जीतसिंह ने पूछा ।


"वही अपने पुराने कारोबार की फिराक में थे। इस बार तकदीर ने साथ न दिया । रंगे हाथों पकड़े गऐ । लम्बे नपेंगे |"


"हूं।" - जीतसिंह एक क्षण ठिठका और फिर बोला "परदेसी, हमारी पिछली मुलाकात में तूने कुछ ऐसा इशारा मुझे दिया था कि चुनिया का कातिल एक ही हो सकता था । क्या उस बाबत और कुछ..."


"वो नहीं था चुनिया का कातिल ।”


"बड़े यकीन से कह रहा है । "


"हां । इसलिये बड़े यकीन से कह रहा हूं क्योंकि उसका स्वर और भी धीमा हो गया - "अब एक और आदमी मेरी निगाह में है जो कि चुनिया का कातिल हो सकता है । हो सकता है क्या, है । " -


"कौन ?"


"बस्ती का ही आदमी है । चुनिया का काफी करीबी होता था ।”


"मैं जानता हूं उसे ?"


" शायद जानता हो । शायद न जानता हो ।"


"नाम बोल ।”


“नाम उसका जाफर है लेकिन यहां बस्ती में रंगीला के नाम से बेहतर जाना जाता है ।”


"रंगीला ! जाफर रंगीला ?"


"हां"


"मैं नहीं जानता | क्या किस्सा है उसका ?”


“पिछले दो हफ्ते से काफी रोकड़ा चमका रहा है । " 


"दो हफ्ते से ?"


"ढाई महीने सब्र कर लिया, थोड़ा है ! कभी तो माल के, मजे लूटना शुरू करना ही था उसने । "


"कैसे लूटता है मजे ?"


" अंग्रेजी पीता है। फोर्ट में एक बाई है। हाई क्लास । पांच हजार रुपये लेती है । हर तीसरे दिन उसके पास पहुंचा होता है।"


"तुझे क्या पता ?"


“साथ ले के घूमता है। मैंने नरीमन पॉइंट पर देखा ! चौपाटी पर देखा, बांद्रा में देखा, जुहू बीच पर देखा । "


"इतनी सैर की तो और भी ज्यादा फीस होगी ।"


"क्या बड़ी बात है ?"


" और वो चुनिया का करीबी था ?"


“हां । बोला तो ।”


"उसे खबर कैसे लगी होगी कि चुनिया के पास माल था ?"


"लग गयी होगी किसी तरीके से । क्या पता चुनिया खुद ही मुंह फाड़ बैठा हो । कामयाबी के नशे में जुबान पर काबू न रह पाना क्या बड़ी बात है ? खासतौर से अपने जिगरी के सामने ।”


"करता क्या है ये रंगीला ?"


"पहले तो मैट्रो सिनेमा पर टिकटों की ब्लैक करता था । अब एक महीने से तो कुछ नहीं करता मालूम होता।"


"क्या जरूरत है ! एक ही हल्ले में लाखों जो कमा लिये । " "वही तो ।"


"पाया कहां जाता है ?"


" यहीं बस्ती में ही । "


"मेरा मतलब है इस वक्त कहां होगा ?"


परदेसी ने कुछ क्षण सोचा और फिर बोला- "फोर्ट वाली बाई की फिराक में नहीं होगा तो पास्कल के बार में होगा।"


पास्कल का बार जीतसिंह का देखा हुआ था। वो धारावी मे ही वहां के एक्रेजी के नाम से जाने वाले इलाके में बड़ा चला हुआ बार था ।


"परदेसी" - वो बोला- "उठ के मेरे साथ चल ।”


"कहां ?" - परदेसी हड़बड़ाया । " पास्कल के बार में और कहां ?" "रंगीले की फिराक में ?"


"हां"


"जीते, मेरा वहां जाना ठीक होगा ?"


"क्यों पूछ रहा है ?" ॥ 'भई, मैंने इस इलाके में रहना है।"


"तेरा साथ चलना जरुरी है, परदेसी, क्योंकि तू ही मुझे उस शख्स की पहचान करवा सकता है ।"


"तू मुझे सिर्फ उसकी पहचान करवाने के लिये साथ ले जाना चाहता है ?"


"हां"


"फिर क्या वान्दा है ? लेकिन मैं उसकी तरफ इशारा करते ही वहां से चला आऊंगा ।"


"बशर्ते कि वो इस घड़ी वहां हो ।”


“जाहिर है । मैं इशारे से तुझे बता दूंगा कि रंगीला कौन था और फिर चुपचाप वहां से चला आऊंगा ।"


"मंजूर ।"


दोनों वहां से निकले और प्रतीक्षारत टैक्सी में जा सवार हुए। परदेसी ने ऐंजो और एडुआर्डो की बाबत कोई सवाल न किया । न ही जीतसिंह ने खुद उनका परिचय देने की कोशिश की ।


टैक्सी वहां से रवाना हुई और पास्कल के बार के करीब जाकर रुकी । जीतसिंह ने ऐंजो और एडुआर्डो को टैक्सी में ही बैठने को कहा और परदेसी के साथ टैक्सी से बाहर निकला ।


"मैं पहले भीतर जाता हूं।" - परदेसी बोला- "उलटे पांव वापिस लौट आया तो मतलब होगा कि वो भीतर नहीं है । यूं न लौटा तो तुम भी भीतर आ जाना ।"


"ठीक है।" - जीतसिंह बोला ।


“लेकिन मेरे पास न फटकना । मैं इशारे से तुझे बता दूंगा कि वो कौन था और कहां मौजूद था । "


"ठीक है ।"


परदेसी टैक्सी से परे हटा और जाकर बार में दाखिल हो गया ।


जीतसिंह प्रतीक्षा करने लगा ।


परदेसी वापिस लौटा ।


जीतसिंह मायूस हो गया । यानी कि रंगीला उस घड़ी भीतर नहीं था और उसके पास वक्त का ऐसा तोड़ा था कि वो उसका इन्तजार नहीं कर सकता था ।


"वो भीतर बैठा है ।" - परदेसी उसके करीब आकर बोला। 


" तो तू बाहर क्यों आ गया ?" - "जीतसिंह भुनभुनाया "उसकी पहचान करवाये बिना..."


"वो तू अब मेरे बिना भी कर लेगा । वो क्या है कि भीतर बार में इस वक्त सिर्फ एक ही लड़की है। सिर्फ एक । जो कोई भी उसके साथ बैठा है, वो रंगीला है । "


"ओह !"


"मैं अब चला । आगे तू जाने तेरा काम जाने ।”


जीतसिंह ने सहमति में सिर हिलाया ।


परदेसी लम्बे डग भरता वहां से रुख्सत हो गया ।


जीतसिंह घूमकर वापिस टैक्सी के करीब पहुंचा ।


"दस मिनट" - वो टैक्सी ड्राइवर से बोला - "सिर्फ दस मिनट कहीं चाय वाय पी के आ सकता है । "


"वो किस वास्ते, बाप ?" - ड्राइवर बोला ।


"एक आदमी से तेरी टैक्सी में बैठ के बात करनी है । वो तेरे सामने बात नहीं करेगा ।"


"पण..."


"ये सौ का नोट" - जीतसिंह ने उसे नोट दिखाया- "अभी तेरे को । भाड़े के ऊपर ।"


"सौ के पत्ते के लालच में गया मैं दस मिनट बाद इधर आया तो न टैक्सी इधर होयेंगा और न पैसेंजर | क्या !"


" टैक्सी की चाबियां साथ ले जा ।"


"फिर क्या वान्दा है ! इधर करो पत्ता । मैं दस मिनट में चाय पी के आता है ।"


ड्राइवर ने इग्रीशन से चाबियां निकली और टैक्सी से निकलकर वहां से रुख्सत हो गया ।


"क्या किस्सा है ?" - एडुआर्डो बोला ।


जीतसिंह ने बताया । समझाया । फिर दोनों को सहमति में सिर हिलाता छोड़कर वो लम्बे डग भरता बार में दाखिल हो गया ।


बार के हॉल में जो इकलौती लड़की थी, वो जीतसिंह को एक कोने की मेज पर दिखाई दी। उसके साथ एक जीतसिंह की उम्र का लेकिन फिल्मी स्टाइल का नौजवान था जो कि काली कमीज, पैंट के साथ सफेद कोट पहने था और गले से घुटनों तक आने वाला लाल मफलर लटकाये था । लड़की स्लीवलैस ब्लाउज और स्कर्ट में थी और सूरत से क्रिश्चियन मालूम होती थी। दोनों बियर की चुस्कियां ले रहे थे और घुट-घुटकर बातें कर रहे थे ।


जीतसिंह उनके करीब पहुंचा, उसने एक उड़ती निगाह लड़की पर डाली और फिर नौजवान से सम्बोधित हुआ - "जाफर भाई ? रंगीला ?"


"हां।" - रंगीला सिर घुमाकर सकपकाया-सा बोला- "क्या है?"


"मैं फोर्ट से आया है । "


"फोर्ट से कहां से ?”


"वो ... वो बाई के सामने" - उसने युवती की ओर निगाह से इशारा किया - "बोलना ठीक नहीं होगा ।”


"ओह ! क्या मांगता है ?"


"वो भी बाई के सामने बोलना ठीक नहीं होगा ।"


"तो फिर...."


"तुम्हेरे को एक मिनट बाहर चलकर मेरा बात सुनना होगा।"


रंगीला कुछ क्षण सोचता रहा और फिर उठता हुआ बोला - "डार्लिंग मैं बस एक मिनट में आया । "


फिर लड़की के प्रतिवाद में मुंह खोल पाने से पहले ही वो जीतसिंह के साथ हो लिया ।


दोनों बाहर निकले ।


“अब बोल, भई ।" - वो जीतसिंह से बोला - "क्या कहना....


"उधर टैक्सी में चलने का है, बाप ।" - जीतसिंह बोला ।


" टैक्सी में चलने का है ? किस वास्ते ?"


"बाई साथ आयेली है। उधर टैक्सी में बैठेली है । " 


"श्यामा ! इधर ?"


"हां"


"लेकिन उसको कैसे मालूम कि मैं किधर था?”


"बाई से पूछना, बाप । अपुन से क्या पूछेला है ?" 


"लेकिन ..."


जीतसिंह टैक्सी की ओर बढ़ा ।


अनिश्चित रंगीला उसके पीछे हो लिया ।


तब तक टैक्सी में ऐंजो आगे ड्राइवर की सीट पर जा बैठा था ।


और पिछली सीट पर एडुआर्डो दिखाई नहीं दे रहा था ।


जीतसिंह ने आगे बढ़कर टैक्सी का पिछला दरवाजा खोला और रंगीले को इशारा किया ।


टैक्सी ऐसी नीमअंधेरी जगह पर खड़ी थी कि रात की उस घड़ी उसके भीतर तो बिल्कुल ही अंधेरा था । रंगीले ने टैक्सी के करीब पहुंचकर भीतर झांका तो दो हाथों ने उसे उसके लाल मफलर से पकड़कर जबरन भीतर घसीट लिया। पीछे से जीतसिंह ने भी उसे धक्का दिया और टैक्सी के भीतर घुसकर दरवाजा बंद कर लिया ।


"खबरदार !" - जीतसिंह उसकी कनपटी से पिस्तौल सटाता हुआ खूंखार लहजे में बोला- "आवाज न निकले।"


वो छोटी-सी नाल वाली वो पिस्तौल थी जो उसने पोंडा की टूरिस्ट लॉज में देवरे के कमरे में उसके सामान में से बरामद की थी ।


रंगीले के होश उड़ गये ।


“क...क..” - वो हकलाता हुआ बोला - "क.... क्या ..


"बहरा है, साले ? सुना नहीं क्या बोला ? आवाज न निकले । क्या !"


बड़ी कठिनाई से वो सहमति में सिर हिला पाया ।


"चिल्लाने का नहीं है । शोर मचाने का नहीं है । समझ गया ? मुंडी हिला के जवाब दे ।"


वो जोर-जोर से सहमति में सिर हिलाने लगा ।


"अब बोल, जिन्दा रहना चाहता है या अभी यहीं टैक्सी में मरना चाहता है ?”


"जि.. जिन्दा रहना चाहता है ।"


"तो अपनी जुबानी कबूल कर कि तूने चुनिया का कत्ल किया है ।"


उसके रहे सहे होश भी उड़ गये ।


“साले ! कमीने ! यारमार ! मुझे तेरा जवाब सुनाई नहीं दिया |"


"मै... मैंने.. चुनिया का.. कत्ल किया है !"


"हरामी के पिल्ले !" - जीतसिंह ने पिस्तौल की नाल उसके कान में घुसेड़ कर जोर से घुमाई - "ये पूछ रहा है या बता रहा है ? "


"मैंने" - वो पीड़ा से बिलबिलाता हुआ बोला- "कत्ल किया है।"


"चुनिया का ? अपने दोस्त का ? उसकी खोली में ? माल हथियाने के लिये ?"


"ह..हां।"


"माल की खबर कैसे लगी ?"


"वही दस हजार निकाल के लाया । जश्न मनाने के लिये । मैं समझ गया कि कहीं से मोटा माल उसके हाथ लग गया था


"जिसको हथियाने के लिये तूने उसका कत्ल किया ।"


"मेरा ऐसा कोई इरादा नहीं था । माल की तलाश में जब मैं उसकी खोली टटोल रहा था तो वो एकाएक ऊपर से आ गया था, तब मैं उसे न मारता तो वो मुझे मार डालता।"


"माल कहां था ?”


"खोली में ।"


" खोली में | चुनिया की खोली में कहां था ? फर्श में बने एक खाने में ? एक टाइल के नीचे ?"


रंगीले के चेहरे पर हैरानी के भाव आये । उसने सहमति में सिर हिलाया ।


" अब तक कितना माल उड़ा चुका है ?"


"स... सत्तर हजार ।"


"दो हफ्ते में सत्तर हजार रुपये फूंक दिये ?"


वो खामोश रहा ।


" बाकी कहां है ?" 


"मे.... मेरे पास है ।"


" कहां ?"


"मेरे घर पर !"


"घर कहां है ?"


" ट्रांजिट कैम्प में । "


"चुनिया के घर के करीब ही कहीं ?"


"हां"


"मुझे वहां ले के चल ।”


उसने सहमति में सिर हिलाया ।


"मैं हो के आता हूं।" - जीतसिंह एडुआर्डो से बोला ।


"अकेला जायेगा !" - एडुआर्डो हड़बड़ाया ।


"मर्जी तो यही थी । अब टोक दिया तो ऐंजो को साथ ले जाता हूं।"


"समझदारी करेगा।"


***

फ्लैट की काल बैल बजी ।


जहांगीर ईरानी ने आगे बढ़कर दरवाजा खोला ।


दरवाजे पर उसने दो प्यादों के साथ कम्पनी के सिपहसालार श्याम डोंगरे को खड़ा पाया ।


"डोंगरे !" - उसके मुंह से निकला - "यहां !" 


"कैसा है, बाप ?” - डोंगरे जबरन मुस्कराता हुआ बोला । 


"कैसे आये ?"


"तेरे को लेने के वास्ते आया बाप ।”


"क्या ?" "भाई ने सलाम भेजा है । "


"भाई सावंत मिलना चाहते हैं ?"


"बरोबर बोला, बाप ।"


"मेरे भाई, यहां आने की जइमत क्यों की ? फोन कर दिया होता ।"


"अब मैं आ ही गया है तो..."


श्याम डोंगरे जानबूझकर खामोश हो गया ।


"मैं चलता हूं।"


"बढ़िया ।"


किसी अनिष्ट की आशंका से लरजते अपने दिल पर काबू पाने की नाकाम कोशिश करता ईरानी उनके साथ हो लिया ।


***

रंगीले के अगल-बगल चलते जीतसिंह और ऐंजो उसके घर पहुंचे ।


सारे रास्ते जीतसिंह पिस्तौल की नाल उसकी पसलियों से सटाये रहा था ।


"कहां है बाकी माल ?" - जीतसिंह कहरभरे स्वर में बोला।


"लाता हूं।" - रंगीला बोला । 


एक आटे के कनस्तर से उसने सौ-सौ के नोटों की तीन गड्डियां बरामद कीं और उन्हें यूं जीतसिंह की तरफ बढाया जैसे भगवान को प्रसाद चढ़ा रहा हो ।


"ये क्या है ?" - जीत्तसिंह हड़बड़ा कर बोला । "बाकी बचा माल।" - रंगीला बोला । 


"क्या । सिर्फ तीस हजार रूपये !"


"एक...एक लाख और था ।”


"वो कहां गया ?"


"किसी को उधार दे दिया । "


“उधार दे दिया या फोर्ट वाली हाई क्लास बाई को एडवांस दे दिया ?"


"उधार दे दिया।"


"चल ऐसे ही सही । अब बाकी की बोल ।”


"बाकी कोई नहीं । इतना ही था। दो लाख ।" 


"तू झूठ बकता है । चुनिय के पास बारह लाख रुपया था।" 


"टाइल के नीचे इतना ही था, बाप । कसम उठवा लो।" 


"खोली में कहीं और होगा ?"


"कहीं नहीं था। मैं सारी खोली की सुई तलाशने की तरह तलाशी ले चुका था तो मुझे इस टाइल की खबर लगी थी । उसके नीचे इतना ही माल था ।"


"दो लाख रुपया ?”


"हां"


"बाकी दस लाख कहां गया ?"


"मुझे नहीं मालूम ।"


"ये तो मालूम था कि और रकम थी ? जो रकम तेरे हाथ लगी थी उससे कहीं बड़ी और रकम थी ?"


"नहीं । नहीं मालूम था ।"


“कमाल है !" - जीतसिंह यूं बोला जैसे ख्वाब में बड़बड़ा रहा हो - "बाकी माल कहां गया !"


"हमें देर हो रही है ।" - ऐंजो धीरे से बोला ।


"तू समझता है" - जीतसिंह आंखें निकालकर रंगीले को घूरता हुआ बोला- "झूठ बोलने से तेरी जान बच जाएगी ?"


"मैं झूठ नहीं बोल रहा बाप ।" - वो फरियाद करता हुआ बोला - "मेरे से जिसकी चाहो कसम उठवा लो, मेरे हाथ इतना ही पैसा लगा था ! दो लाख | "


"झूठ बोल पाने वाली हालत तो नहीं इसकी ।" - ऐंजो धीरे से बोला ।


जीतसिंह ने सहमति में सिर हिलाया, उसने तीस हजार के नोट अपने काबू में किये और बोला- "मुंह खोल ।"


"क... क्या ?" - रंगीला हकलाया ।


"सुना नहीं ! मुंह खोल ।”


"लेकिन...'


"खोल !"


उसने डरते झिझकते मुंह खोला ।


जीतसिंह ने पिस्तौल की नाल उसके मुंह में घुसेड़ कर उसका घोड़ा खींच दिया ।


***