वो विस्फारित नेत्रों से जीतसिंह की पीठ पीछे देखने लगी।
जीतसिंह सकपकाया, उसने हौले से घूमकर पीछे निगाह डाली ।
किचन की चौखट पर हाथ में रिवॉल्चर लिये बलसारा खड़ा था ।
"देखते हैं, बाप" - वो धीरे से बोला - "कि कौन किस का खून करता है । "
"डिलीवरी वैन सात जन्म नहीं ढूंढ सकोगे ?"
"कोई वान्दा नहीं । माल अगर मेरा नहीं तो किसी और का भी नहीं ।"
जीतसिंह खामोश रहा । उसने बेचैनी से पहलू बदला
"तुम नाहक पहले से पेचीदा सिलसिले को और पेचीदा करने की कोशिश कर रहे हो ।" - बलसारा बोला "खून-खराबा क्या पहले ही काफी नहीं हो चुका जो उसमें इजाफा करना चाहते हो ? मेरा खून करने से तुम्हें कोई फायदा होता हो तो बताओ । सिवाय इसके कि तब तुम एक तिहाई की जगह आधे हिस्से के हकदार बन जाओगे। या शायद पूरे के।"
" पूरे के ?" - सुकन्या के मुंह से निकला ।
"मैंने सब सुना कि तुम्हारे बारे में इसके क्या खयालात हैं। जब ये मेरे कत्ल का खयाल कर सकता है तो तुम्हारे कत्ल का खयाल क्यों नहीं कर सकता ?"
"य... ये मुझे घर भेज रहा है । "
" और घर तुम्हारा चांद पर है जहां कि ये पहुंच नहीं सकता !"
सुकन्या को जवाब न सूझा ।
"क्यों ये तुम्हारे हिस्से की बाबत साफ तुम्हें कोई तसल्ली नहीं देता ? क्यों ये अभी तुम्हें टालमटोल वाला जवाब परोस रहा था । "
"ये" - जीतसिंह बोला- "हमें आपस में लड़ाने की कोशिश कर रहा है । "
"मेरी ऐसी कोई मंशा नहीं । मेरी वैसी भी कोई मंशा नहीं जैसी कि तुम्हारी है ।"
"ऐसा ?"
"हां"
" यानी कि तुम मेरा खून नहीं करोगे ?”
"नहीं ।”
"तो फिर रिवॉल्वर क्यों ताने हो ?"
"ताकि तुम... तुम मेरा खून करने की कोशिश न कर सको। कौन किसका खून करने में कामयाब होगा, ये सिलसिला तो अब हमारे बीच में खड़ा ही रहेगा। मैं अब यहां बने रहकर तुम्हारे साथ चूहे बिल्ली का खेल खेलने का तमन्ताई नहीं ।”
" यानी कि जा रहे हो ?"
"हां"
"खाली हाथ ?"
"नहीं।”
"तो ?"
"मैं जब यहां पहुंचा था तो ये अभी सोई पड़ी थी । मैंने यहां से फैंस को फोन किया था। उसका नाम शेख मुनीर है लेकिन डिब्बा के नाम से बेहतर जाना जाता है । मुम्बई में पाया जाता है। माटूंगा में पीजा पार्लर है। उसी की ओट में अपना फैंस का यानी कि चोरी के माल की खरीद फरोख्त का धन्धा चलाता है । मेरा पुराना दोस्त है। मैंने उसे पूरी बात समझा दी है। मेरे हिस्से की हिफाजत वो करेगा ।"
"कैसे ?”
“आज रात वो यहां आएगा । माल की जो भी कीमत तुम दोनों में फाइनल होगी, उसका एक तिहाई मेरे हिस्से के तौर पर वो पहले ही अपने पास रख लेगा । तुम ये बात कबूल नहीं करोगे तो सौदा नहीं होगा। यानी कि मेरा हिस्सा बाजरिया डिब्बा मेरे तक पहुंच जाएगा। इसलिए मेरा अब यहां टिके रहना जरूरी नहीं।"
“फुल पेमेंट के बिना मैं उससे सौदा नहीं करूंगा तो ?"
“तो वो चुपचाप वापस मुम्बई चला जाएगा । कहानी खत्म।"
"कैसे कहानी खत्म ? माल तो फिर भी मेरे कब्जे में होगा।"
“माल से ही राजी हो, तो भी कहानी खत्म ?"
"मैं कोई और फैंस तलाश कर लूंगा ।"
"कोई बड़ी बात नहीं लेकिन तुम्हें फैंस की नहीं, दुर्लभ सिक्कों में डील करने वाले फैंस की जरूरत है । दो ढाई महीने टक्करें मारने के बाद हो सकता है तुम ऐसा फैंस भी तलाश कर लो, लेकिन डिब्बे को तब भी मालूम होगा कि तुम्हारा माल किसके पास पहुंचा । डिब्बे से मुझे मालूम होगा । फिर मैं तुम्हें और तुम्हारे फैंस दोनों को पकड़वाने का बड़ा खूबसूरत इंतजाम कर दूंगा ।"
जीतसिंह खामोश रहा ।
"अभी तुम ये भी भूल रहे हो कि डिलीवरी वैन किराए की है । तुम लम्बा अरसा उसको छुपाए नहीं रख सकते । माल से पीछा छुड़ाने में जितनी ही देर करोगे, उतना ही ज्यादा अपने लिए मुसीबत का सामान करोगे। लेकिन जो करोगे, तुम्हीं करोगे । क्योंकि बंदा तो चला ।”
"सच में जा रहे हो ?"
"लो ! तो इतनी लम्बी कहानी क्या मैंने तुम्हें एण्टरटेन करने के लिए की! अपने सारे पत्ते क्या मैंने तुम्हारे हाथ मजबूत करने के लिए तुम्हारे सामने खोले ?”
जीतसिंह खामोश रहा । बलसारा का उस घड़ी का आत्मविश्वास उसे बहुत विचलित कर रहा था । उसे लग रहा था जैसे हालात पर से उसका काबू अनायास ही उसके हाथों से निकला जा रहा था ।
“ये” - बलसारा एकाएक सुकन्या से सम्बोधित हुआ "तुम्हें यहां से चली जाने दे रहा है तो चली ही जाओ । बल्कि मेरे सामने चली जाओ क्योंकि इस वक्त ये तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता ।"
"म... मेरा... हि...हिस्सा !" - सुकन्या के मुंह से निकला ।
“इससे मिलना तो मुश्किल ही लगता है। मेरा एतबार कर सकी तो वैसे मिल सकता है जैसे कि मुझे मिलेगा ।"
"मुझे कबूल है।"
जीतसिंह ने आग्नेय नेत्रगें से सुकन्या की तरफ देखा ।
"तो फिर निकल जाओ।"
सुकन्या तत्काल वहां से रुख्सत हुई ।
दांत पीसता, उसकी - बल्कि दोनों की तत्काल मौत की कामना करता जीतसिंह पीछे खड़ा रहा ।
"अब डिब्बा तुम्हें एक तिहाई रकम ही सौंपेगा।" - बलसारा बोला ।
जीतसिंह खामोश रहा
"मैं जा रहा हूं। मेरे पीछे आने की या मुझे रोकने की कोशिश करना बेवकूफी होगी। मैं बाहर बहुत देर तक रुक कर जाऊंगा । मेरे पीछे फ्लैट का दरवाजा खुला तो गोली। समझ गए ?"
"दफा हो ।”
"जरूर ।"
एकाएक वो घूमा और उसकी निगाह से ओझल हो गया ।
एक मिनट बाद फ्लैट का भारी दरवाजा चौखट से टकराने की आवाज आई ।
जीतसिंह तत्काल बाहर को लपका ।
वो बैठक में पहुंचा तो वहीं थमककर खड़ा हो गया ।
दरवाजे के पास एक कुर्सी डाले बलसारा बैठा था । रिवॉल्चर तब भी उसके हाथ में थी और उसका रुख जीतसिंह की तरफ था ।
प्रत्यक्षत: उसने फ्लैट से बाहर निकलकर दरवाजा बन्द करने की जगह भीतर से ही दरवाजे को चौखट पर दे मारा था जिससे जीतसिंह को ये मुगालता हुआ था कि वो वहां से चला गया था ।
"तड़प रहे हो जान देने को ?" - बलसारा हिंसक स्वर में बोला ।
"ये... ये रिहायशी इलाका है। तुम यहां गोली नहीं चला सकते ।”
"चलाना भी नहीं चाहता, लेकिन मजबूर करोगे तो चलानी पड़ेगी ।”
“यहां कत्ल का एक गवाह मौजूद होगा।"
उसे मेरे "उसे कुछ दिखाई नहीं देगा । फिर भी तुम उसे लिए खतरा समझते हो तो मैं उसे भी शूट कर दूंगा । जो शख्स अभी चंद घंटे पहले चार खून करके हटा हो, उसके लिए दो खून और कर देना क्या बड़ी बात होगी ?"
"पकड़े जाओगे।"
"उससे क्या होगा ? तुम्हारे मुर्दा जिस्म में जान पड़ जाएगी ? उठ के खड़े हो जाओगे ?"
जीतसिंह को जवाब न सूझा । अपनी तकदीर को कोसता वो खामोश रहा ।
“अब क्या इरादा है ?" - बलसारा बोला- "मैं तुम्हारे कत्ल के लिए रुकूं या जाऊं ?”
"जाओ।"
"अभी जो किया दोबारा नहीं करोगे ?"
"नहीं करूंगा।"
"बैडरूम में जाओ।"
जीतसिंह घूमा और भारी कदमों से चलता बैडरूम में पहुंचा ।
बाहरी दरवाजे के फिर चौखट से टकराने की आवाज हुई।
उस बार जीतसिंह ने उसके पीछे जीने की क्या, बाहर बैठक में झांकने की भी कोशिश न की ।
संगीता पलंग पर हाथ पांव पटक रही थी ।
"क्या है ?" - जीतसिंह चिढ कर बोला ।
वो फिर भी हाथ पांव पटकती रही और मुंह से गों गों की आवाज निकालती रही ।
जीतसिंह ने आगे बढकर उसके मुंह पर बंधी पट्टी खोली ।
"क्या है ?" - वो फिर बोला ।
"कैसे आदमी हो ?" - वो रुआंसे स्वर में बोली -
"इंसान के बच्चे को कोई टायलेट वगैरह भी जाना होता है या नहीं !"
"ओह !"
जीतसिंह ने उसकी कलाइयों पर लिपटी रस्सी खोली और परे हट गया ।
"पांव भी तो खोलो।" - वो बोली ।
“हाथ खुल गए न ! पांव खुद खोल लो ।”
"मेरी उंगलियां सोई पड़ी हैं । "
भुनभुनाते हुए जीतसिंह ने उसके पांव भी खोले तो वो पहले कुछ क्षण उन्हें मसलती रही और फिर लड़खड़ाती उठकर खड़ी हुई । वो टायलेट के दरवाजे पर पहुंची पीछे से जीतसिंह बोला- "दरवाजा बन्द नहीं करने का है ।"
“पागल हुए हो !" - वो बोली ।
"ठीक है । भीतर से चिटकनी नहीं लगाने का है । "
उसने सहमति में सिर हिलाया ।
“बाथरूम में जाकर चिल्लाई तो गला काट दूंगा ।”
उसने फिर सहमति में सिर हिलाया ।
"तुम्हारा पार्टनर कहां गया ?" - फिर वो बोली ।
"लौट के
पूछना।”
वो बाथरूम में दाखिल हो गई। दरवाजा बन्द हुआ, लेकिन वो मुकम्मल तौर पर चौखट के साथ न लगा ।
जीतसिंह ने टेलीफोन के करीब एक टेबल पर पड़ी
मुम्बई की टेलीफोन डायरैक्ट्री उठाई और उसमें शेख मुनीर का नाम तलाश करना आरम्भ किया ।
नाम डायरेक्ट्री में था ।
उसके नाम के आगे दर्ज नम्बर पर फोन किया तो तत्काल उत्तर मिला ।
"कौन ?" - वो सावधान स्वर में बोला ।
“आप कौन ?” - एक स्त्री स्वर सुनाई दिया ।
"बलसारा । पूना से बोल रहा हूं । शेख मुनीर...."
"वो इस वक्त यहां नहीं हैं लेकिन प्रोग्राम के मुताबिक दस बजे पूना पहुंच जाएंगे।"
" पूना में कहां पहुंचना है, उन्हें मालूम है न ?”
"हां । सिन्धी कालोनी । "
यानी कि बलसारा ने जो बोला था, सच बोला था ।
“आप कौन ?" - उसने फोन में पूछा ।
जवाब में लाइन कट गई ।
उसने रिसीवर वापस क्रेडल पर रख दिया और सिगरेट सुलगा लिया ।
उसको ये बात बहुत चुभी थी कि सुकन्या ने उससे ज्यादा बलसारा का विश्वास किया था ।
तभी संगीता टायलेट से बाहर निकली |
उस संक्षिप्त से समय में वो नहा भी आई थी ।
“अब बोलो" - वो बोली- "तुम्हारा पार्टनर कहां गया?"
"बोलने लायक बात नहीं है । "
" फिर भी बोलो ।"
"मैंने उसको कत्ल करके उसकी लाश दरिया में फेंक दी।"
"अरे ! क्यों ?"
"कहता था तुम्हें बांध के रखना खतरे से खाली नहीं था । इसलिए तुम्हें खलास कर देना चाहिए था ।”
"अरे, क्यों ?"
"क्योंकि तुमने हम दोनों की सूरत देखी थी । कहता था तुम्हें जिन्दा छोड़ दिया तो तुम बाद में हमें पकड़वा दोगी|"
"ओह माई गॉड! फिर ?"
"मैंने एतराज किया । क्योंकि मैं खून खराबा पसन्द नहीं करता । एतराज पर वो तुम्हारे साथ-साथ मेरा भी खून करने पर आमादा हो गया । तब मैं क्या करता ? अपनी जान बचाने के लिए मुझे उसकी जान लेनी पड़ी ।"
"लेकिन यूं तुमने मेरी भी जान बचाई ।”
"वो तो है ।"
"फिर तो मुझे तुम्हारी... नाम क्या है तुम्हारा ?"
“ब... बलसारा । नयन बलसारा । "
"बलसारा, फिर तो मुझे तुम्हारी शुक्रगुजार होना चाहिए।”
“नहीं, कोई जरूरत नहीं ।"
“जरूरत है। अब बताओ कैसे मैं तुम्हारी शुक्रगुजार हो सकती हूं ?"
"बोला न, कोई जरूरत नहीं । "
जवाब में वो पलंग पर चित लेट गई और मादक स्वर में बोली - "इधर आओ।"
वो पलंग के करीब पहुंचा तो संगीता ने उसकी बांह पकड़ कर उसे अपने ऊपर घसीट लिया । फिर वो लता की तरह उसके साथ लिपट गई ।
जीतसिंह फैसला न कर सका कि वो औरत एक परित्यक्ता की शारीरिक भूख का प्रदर्शन कर रही थी या वो उसका ध्यान बंटाने की कोई चाल थी ?
उसे पहली ही बात ठीक लगी ।
फिर वो भी जैसे उसे बलसारा समझकर, सुकन्या समझकर, सुष्मिता समझकर उसका कीमा कूटने लगा ।
शाम को जीतसिंह ने संगीता को कुछ खाने का मौका दिया और पूर्ववत् उसकी मुश्कें कस के उसे पलंग पर डाल दिया ।
जोकि संगीता के लिए सख्त हैरानी की बात थी ।
उसे आशा नहीं थी कि इतनी खूबसूरती से शुक्रगुजार होकर हटने के बाद भी वो उससे वैसा ही व्यवहार करता।
आठ बजे के करीब एक बार जीतसिंह वहां से बाहर निकला और शाम का अखबार खरीद के लाया ।
अखबार लगभग सारे का सारा होटल ब्लू स्टार की सनसनीखेज वारदात से रंगा पड़ा था। अखबार में खुले वॉल्ट की, छत में बने छेद की और बगल की इमारत की छत पर उतरते रास्ते की बड़ी बड़ी तसवीरें छपी थी । जो और बातें उसे अखबार के माध्यम से मालूम हुई, वो थीं : इमरान मिर्ची, दिलीप बिलथरे और भागचन्द नवलानी ठौर मारे गए थे । केवल कार्लो की तत्काल मृत्यु नहीं हुई थी। पुलिस उसे नजदीकी गांधी हस्पताल में लेकर गई थी जहां के इंटेंसिव केयर यूनिट में पड़ा वो अपनी लगभग निश्चित मौत से जूझ रहा था । अखबार के मुताबिक उसके सिर पर लोहे के पाइप की चोट पड़ी थी, जिसने उसकी खोपड़ी तरबूज की तरह खोल दी थी ।
यानी कि फिलहाल पुलिस को उससे कोई मदद हासिल नहीं होने वाली थी ।
पार्किंग में से गांधी हस्पताल की नकली एम्बुलेंस और दरिया किनारे से चोरी की सूमो बरामद की जा चुकी थी । दोनों गाड़ियों में से पुलिस ने फिंगरप्रिंट्स उठाए थे लेकिन
उनकी क्लासिफिकेशन अभी किसी परिणाम तक नहीं पहुंची थी।
चोरी गए सिक्कों की कीमत पौने तीन करोड़ आंकी गई थी ।
आठ बजे की न्यूज में टीवी पर सुकन्या का चेहरा दिखाई दिया । मालूम हुआ कि वो अपने घर नारायणगांव जाने की जगह सीधी पुलिस के पास पहुंची थी । सुकन्या की कहानी पुलिस को मुकम्मल तौर पर हज्म हो गई थी और पुलिस ने उसकी खूब तारीफ की थी कि वो अपने अपहर्त्ताओं के चंगुल से निकल आने में कामयाब हो गई थी । उसके बयान के आधार पर पुलिस के एक आर्टिस्ट ने अपहर्त्ताओं की सूरतों के स्कैच बनाए थे जो कि टीवी पर इस अपील के साथ काफी देर दिखाए गए थे कि पब्लिक उनकी गिरफ्तारी में पुलिस की मदद करे ।
हकीकत ये थी कि उन स्कैचों के दम पर कोई गिरफ्तारी नहीं होने वाली थी क्योंकि उनका जीतसिंह और बलसारा की शक्लों से दूर दराज का भी रिश्ता नहीं था ।
जो कि सुकन्या की उन पर मेहरबानी थी ।
पुलिस का एक प्रवक्ता भी टीवी पर बयान देता दिखाया गया था । उसके कथनानुसार उस डेयर डेविल डकैती का चीफ आर्कीटैक्ट दिलीप बिलथरे नाम का कायन डीलर था । भागचन्द नवलानी की एक सजायाफ्ता मुजरिम के तौर पर शिनाख्त हो चुकी थी, अलबत्ता कार्लो और इमरान मिर्ची की बाबत अभी कोई सुराग नहीं मिला था कि वो कौन थे ?
डिब्बा साढे दस बजे वहां पहुंचा ।
तब शाम का अखबार उसके हाथ में था ।
जीतसिंह ने उसे बैठक में बिठाया ।
"तो" - डिब्बा बोला- "तुम हो बद्रीनाथ ।”
"हां।" - जीतसिंह सहज भाव से बोला ।
"कब से हो ?"
"क्या कब से हूं ?"
"बद्रीनाथ ।"
"क्या मतलब ?"
"पहले तो तुम जीतसिंह हुआ करते वे न ! चिंचपोकली वाले !"
जीतसिंह सकपकाया ।
"मेरा कारोबार ऐसा है" - डिब्बा डिब्बा मुस्कुराया - "कि मुझे मुम्बई के हुनरमन्द मवालियों की खबर रखनी पड़ती है । तुम्हारे हाथ में तो खास हुनर है। कभी मुझे ही जरूरत पड़ सकती है कोई वॉल्ट खुलवाने की। कोई, किस्मत का कब से बन्द, ताला खुलवाने की !"
जीतसिंह खामोश रहा ।
"अब बोलो, क्या किस्सा है ?"
"मुम्बई से खास चल के आए हो।" - जीतसिंह अप्रसन्न भाव से बोला - "बिना किस्सा जाने ही चले आए हो ?"
वो हंसा ।
"बलसारा से खास यारी है तुम्हारी ?" - जीतसिंह बोला ।
"कौन बोला ?”
"वो ही बोला ।"
" है तो सही । तभी तो दो सौ किलोमीटर का सफर कबूल किया।"
"हूं।"
"अब बोलो ।"
"किस्सा वही है जो बलसारा ने तुम्हें बताया ।”
"तो तुम्हें उस ढंग से सौदा मंजूर है जैसे कि बलसारा ने सैट किया ?"
"क्या करू ? मजबूरी है । "
" यानी कि मंजूर है ?"
"अब क्या लिख के देना होगा ?"
"नहीं । ऐसे ही चलेगा । माल कहां है ?”
"मालूम पड़ जाएगा । पहले कीमत बोलो।"
"तुम बोलो ।"
“अखबार तुम्हारे हाथ में है। उसमें माल की कीमत पौने तीन करोड़ रुपए छपी है ।"
"अखबार वालों को, पुलिस वालों को, हमेशा बढ़ा चढाकर बताया जाता है । " नुकसान
"बलसारा से तुम्हारी क्या बात हुई थी ?"
" कीमत की बात नहीं हुई थी ।"
"क्या ?"
"क्योंकि तब कीमत का अंदाजा लगाने का कोई जरिया नहीं था । "
"अब क्या जरिया है ? अखबार में छपी कीमत ? जिस पर तुम्हें एतबार नहीं । "
"अंदाजा लगाने के लिए उस कीमत पर गौर किया जा सकता है।"
"तो करो ।"
"तुम्हारी और बलसारा की चौतरफा तलाश हो रही है । बलसारा तो निकल गया, लेकिन तुम पकड़े जा सकते हो।"
"तो क्या हुआ ?"
"तुम्हारा पकड़ा जाना डकैती का माल खरीदने वाले के लिए खतरा बन सकता है । "
"मैं नहीं पकड़ा जाने वाला ।”
"जरूर । लेकिन कीमत सैटल करते वक्त मुझे इस का मार्जन रखना होगा।”
“काफी पहुंचे हुए आदमी हो ।” "माल अभी पूना में ही है ?"
"हां"
"उसे मुम्बई कौन पहुंचाएगा ?"
"मुझे क्या पता ?"
"फिर तो मुझे माल को यहां से निकालने में आड़े वाले खतरों का भी मार्जन रखना पड़ेगा ।"
“जरूर | जरूर । इसका भी मार्जन रख लो कि कोई सिक्का घिस्सा हुआ निकल सकता है, कोई खोटा निकल सकता है, कोई नकली निकल सकता है।"
"समझ लो कि रख लिया ।" - डिब्बा पूरी ढिठाई से बोला।
"कीमत बोलो ।"
"पिचहत्तर लाख ।"
“पागल हुए हो ! एक चौथाई पर सौदा कर रहे हो ?"
“एक चौथाई से ज्यादा पर । बल्कि बहुत ज्यादा पर । क्योंकि अखबार में दर्ज कीमत पर मुझे कोई एतबार नहीं । ऊपर से तुम्हारे पकड़े जाने का खतरा । माल के पकड़े जाने का खतरा..."
"बस बस । एक ही कहानी बार बार मत करो।"
“तो पिचहत्तर लाख मंजूरी"
"हरगिज नहीं ।"
"माल को खुद मेरे बताए ठीए पर मुम्बई पहुंचाओ एक करोड़ ।"
जीतसिंह ने मजबूती से इन्कार में सिर हिलाया ।
"माल है कहां ?”
"एक लोकल पार्किंग में एक किराए की मैटाडोर में । दो तीन दिन वहां वो बिल्कुल सेफ है ।”
"मुझे क्या मिलेगा ?"
"पार्किंग का टोकन और ठिकाने का पता । माल चैक करा दिया जाएगा ।”
"जरूरत नहीं ।"
जीतसिंह ने सकपकाकर उसकी तरफ देखा ।
"माल मुम्बई सेफ पहुंच गया तो अपने आप चैक हो जाएगा।”
" पेमेंट कब होगी ?"
"जाहिर है माल मुम्बई सेफ पहुंच जाने के बाद ।”
"माल पकड़ा गया तो ?”
“तो नुकसान तुम्हारा होगा । "
"माल तुम्हारे आदमियों की लापरवाही या से पकड़ा गया तो ?"
"तो भी नुकसान तुम्हारा होगा। वैसे किन्हीं हालात का जो तरीका है, वो ये ही है कि माल मुम्बई की जिम्मेदारी तुम अपने सिर लो ।"
जीतसिंह ने इन्कार में सिर हिलाया ।
" फिर जो हालात हैं, उन्हें कबूल करो । जो होता है, उसे होने दो ।”
"कीमत । कीमत कम है।"
“एकदम ठीक है । "
"कम है । "
"ये न भूलो कि इसमें तुम एक तिहाई के ही हिस्सेदार हो । अगर कीमत कम है तो ये अकेले तुम्हारा नुकसान नहीं । तुम्हारे दो हिस्सेदारों को मेरी लगाई कोई भी कीमत कबूल है ।"
"माल हिस्सेदारों के कब्जे में नहीं है । "
"तुम उसे नहीं बेच सकोगे ।”
"बलसारा भी यही कहता था ।”
"ठीक कहता था ।”
" मुनासिब कीमत पर नहीं बेच सकूंगा, लेकिन औने-पौने का खरीदार तो तलाश कर ही लूंगा । यूं जो भी रकम मुझे हासिल होगी, वो उस रकम से तो ज्यादा ही होगी जोकि तुम्हारे से मत्था मार के हासिल होगी ।"
"नहीं होगी। होगी तो होते होते होगी ।"
"देखेंगे ।"
डिब्बा एकाएक उठ खड़ा हुआ ।
"मैं नब्बे देता हूं।" - वो निर्णायक स्वर में बोला - "ये मेरी फाइनल ऑफर है । मंजूर हो तो बुधवार मेरे पास आ कर तीस लाख रुपये ले जाना ।"
"माल पकड़ा गया तो ?"
"नहीं पकड़ा जाएगा । जीते, तेरी खातिर ये गारण्टी इस कीमत में शामिल कि माल नहीं पकड़ा जाएगा।"
"यानी कि माल पकड़ा जाए या न पकड़ा जाए, बुधवार तुम मुझे तीस लाख रुपया दोगे ।”
"चल, ऐसे ही सही ।"
"कहां पहुंचना होगा बुधवार ?"
डिब्बे ने उसे माटूंगा में स्थित अपने पीजा पार्लर का पता लिखवाया जिसके पिछवाड़े में ही उसका आवास भी था ।
"टाइम बोलो।" - जीतसिंह बोला ।
"जो तुम्हें पसंद हो ।”
" सुबह दस बजे ।"
"ठीक है ।"
जीतसिंह ने उसे पार्किंग का टोकन सौंपा और पार्किंग का पता समझाया ।
"अब एक आखिरी बात ।" - फिर जीतसिंह बोला - “ मैं हारा हुआ आदमी हूं । मेरा नाम ही जीता है लेकिन असलियत में मैंने जिन्दगी में कभी कछ नहीं जीता । इस बार भी नहीं । इतना कछ हो जाने के बावजूद इस घड़ी मैं खाली हाथ हूं । तुमने मेरे साथ धोखा किया तो हममें से एक ही रह जाएगा इस दुनिया में । मैं या जान ले लूंगा या जान दे दूंगा। समझ गए ?"
“बुधवार सुबह आना ।" - डिब्बा यूं बोला जैसे कुछ सुना ही न हो - "रकम तैयार मिलेगी ।"
जीतसिंह का सिर सहमति में हिला ।
फिर वो बड़ी गर्मजोशी से जीतसिंह से हाथ मिलाकर वहां से विदा हो गया ।
*****
बुधवार: सत्तरह दिसम्बर
निर्धारित समय पर जीतसिंह मारूंगा पहुंचा।
पिछले दो दिन उसके संगीता के फ्लैट पर ही गुजरे थे । सोमवार के बाद तो संगीता की मुश्कें कसके रखने की भी जरूरत नहीं पड़ी थी ।
डिब्बा उसे अपना इंतजार करता मिला । बड़ी शराफत से उसने नोटों से भरा एक सूटकेस उसे सौंप दिया ।
“गिन ले, जीते।" - वो बोला- "पूरे तीस लाख ।”
"जरूरत नहीं ।" - वो बोला ।
"फिर भी...
"शुक्रिया ।"
एक टैक्सी पर सवार होकर वो लेमिंगटन रोड पहुंचा ।
पुरसूमल चंगुलानी का डिपार्टमेंट स्टोर खुल चुका था और वो भीतर मौजूद था ।
उसी टैक्सी पर सवार वो कोलाबा पहुंचा जहां कि तुलसी चैम्बर्स के नाम से जानी जाने वाली इमारत की दसवीं मंजिल पर उसका आवास था ।
लिफ्ट द्वारा वो दसवीं मंजिल पर पहुंचा। उसने फ्लैट की कालबैल बजाई ।
दरवाजा खुला । सुष्मिता चौखट पर प्रकट हुई ।
वैसी ही सजी-धजी जैसी कि उसने उसे पहली बार उसी चौखट पर खड़े देखा था ।
क्या इसे अब अपनी कैंसर से पीड़ित बहन का ख्याल भी आता होगा - उसने मन ही मन सोचा - जो हाल ही में मरी थी, जिसके साथ ही मर जाने की ये तमन्नाई थी, लेकिन जिसका अभी चौथा ही हुआ था तो इसने पुरसूमल चंगुलानी नाम के उम्रदराज, इंग्लैंड में रहते जवान बच्चों के बाप, विधुर से शादी कर ली थी ।
बहन के बच्चों की खातिर ।
एक कुर्बानी के तौर पर ।
"तुम !" - सुष्मिता के मुंह से निकला ।
"नमस्ते !" - जीतसिंह धीरे से बोला ।
"फिर आ गए ?"
"मैं सिर्फ दो मिनट लूंगा।"
"लेकिन...'
"क्या लेकिन ?"
"वो... वो आ गया तो ?”
"नहीं आएगा । डिपार्टमेंट स्टोर पर बैठा है। उड़कर दो मिनट में नहीं पहुंच सकेगा ।"
"आओ।"
वो भीतर दाखिल हुआ तो उसने उसके पीछे दरवाजा बंद कर दिया । उसने उसे उसकी पूर्वपरिचित सजी हुई बैठक में ले जाकर बिठाया ।
"क्या है ?" - वो उतावले भाव से बोली ।
जीतसिंह ने सूटकेस सैंटर टेबल पर रखकर खोला और फिर बोला - "ये है।"
"क... क्या ?"
"तीस लाख ?"
"यहां क्यों लाए ?”
"उसी वजह से जिस वजह से पहले दस लाख लाया था।"
"क्यों लाए ?"
"तुम्हारे लालच का घड़ा भरने के लिए । तुम्हारे दौलत के रंगीन सपने साकार करने के लिए ।"
"मेरे ऐसे कोई सपने नहीं । "
"हैं । बराबर हैं । न होते तो पुरसूमल से शादी न की होती। बहन के बच्चों की खातिर की ये न कहना ।
वो वजह मैं पिछले फेरे में सुन चुका हूं।"
वो खामोश रही । उसने बेचैनी से पहलू बदला |
"मुझे अफसोस है कि मैं तुम्हें किश्तों में ही खरीद पाऊंगा। ये दूसरी किश्त कबूल करो ।”
"हे भगवान ! तुम क्यों मेरे पीछे पड़े हो ?”
"मुझे तुम्हारी कीमत नहीं मालूम, लेकिन यूं ही कोई तो दिन आएगा जब तुम अपनी जुबानी कहोगी कि अब तुम्हारी कीमत चुकता हो चुकी । मुझे उस दिन का बड़ी शिद्दत से इन्तजार है । मैं उस दिन का मुंह जल्द से जल्द देखने की पूरी पूरी कोशिश कर रहा हूं आगे भी करता रहूंगा ["
"तुम मुझे जलील कर रहे हो ।"
"मैं असम्भव काम में हाथ नहीं डालता ।”
" अगर... अगर मैं तुमसे माफी मांगू तो ?"
" तो मैं तुम्हें माफ कर दूंगा।"
"ओह !" - उसने चैन की सांस ली ।
"लेकिन पहले तुम्हें पुरसूमल से अपनी वो रंगीन रातें वापस मांगनी होंगी जो तुमने उसके पहलू में गुजारीं । तुम्हें वो मोती वापस मांगना होगा जिसकी आब पुरसूमल ने उतारी । तुम्हें एक गरीब का वो टूटा दिल जोड़ना होगा जिसे तुमने अपनी जूती के नीचे मसला । तब मैं तुम्हें माफ कर दूंगा ।"
"इतनी बातें कहां से सीख गए ? तुम्हारे मुंह में तो जुबान नहीं होती थी।"
"सिखाई एक बेवफा, बेहया औरत ने । "
बोली । वो हड़बड़ाई । उसने फिर बेचैनी से पहलू बदला | "मैं ये पैसा नहीं रख सकती ।" - आखिरकार वो
जीतसिंह की भवें उठीं ।
"उसको पता लग गया तो मैं इसका क्या जवाब दूंगी?"
"वही जो पहले दिया था ।"
"पहले नौबत नहीं आई थी।"
" अब भी नहीं आएगी ।"
"मैं नहीं रख सकती।”
"मत रखो । समुद्र सामने है। सूटकेस उठाओ जाकर डुबो आओ । टायलेट में बहा दो । किचन में ले जाकर आग लगा दो । कर सकोगी हिम्मत ? अपने इकलौते सपने को अपनी आंखों के सामने बर्बाद होता देख सकोगी, मिसेज पुरसूमल चंगुलानी ?”
"इस रुपये की तुम्हें ज्यादा जरूरत है ?"
"तुम्हें क्या मालूम मेरी जरूरत क्या है ?"
वो परे देखने लगी ।
"और फिर क्या जरूरत की हर चीज हासिल होती है ? नहीं होती । मिसाल मेरे सामने बैठी है ।"
उसके मुंह से बोल न फूटा ।
"दो मिनट हो गए।" - जीतसिंह उठता हुआ बोला "मैं चलता हूं।"
वो भी तत्काल उठकर खड़ी हुई और जीतसिंह के करीब पहुंची । उसने हौले से उसके कन्धे पर हाथ रखा और अर्धनिमीलित नेत्रों से उसकी तरफ देखती हुई मुस्कुराई ।
"क्या है ?" - जीतसिंह सकपकाया सा बोला ।
“जरूरत की चीज भला क्यों हासिल नहीं हो सकती?"
"ऐसा ?”
"हां।" - उसने अपना दूसरा हाथ भी उसके दूसरे कन्धे पर रखा - "ऐसा ।"
जीतसिंह ने उसे इतनी जोर का धक्का दिया कि वो पीछे सोफे पर जाकर गिरी ।
“खैरात नहीं मांगता ।" - वो मुस्कराता हुआ बोला “दया नहीं मांगता । रिश्वत नहीं मांगता । खरीदना मांगता है । रोकड़ा भरूगा तो हासिल करूंगा। अपनी कोई भी बड़ी से बड़ी कीमत लगाने की तुम्हें खुली छूट है ।"
अपमान से तिलमिलाती वो सोफे पर लुढुकी पड़ी रही।
"मैं फिर आऊंगा | अगली किश्त के साथ | तब तक के लिये नमस्ते, मिसेज पुरसूमल चंगुलानी !”
जीतसिंह घूमा बाहर निकल गया । और लम्बे डग भरता हुआ वहां से
समाप्त
0 Comments