“छोरे !” बांकेलाल राठौर का हाथ मूंछ पर जा पहुंचा - "म्हारी बातों को सुनो कर, अपणो मुंडी पीछो को मत करियो । अंम तिरछी आंखों से देखो हो पारसनाथ को। वो म्हारे को देख लयो हो । वो भी म्हारी तरहो ही दिखायो कि वो म्हारो को न देखो के, इधर-उधर देखो हो ।”
“पारसनाथ क्या स्टेचू की माफिक खड़ेला है ?” रुस्तम राव बोला ।
“वो तो म्हारो फोटू खींचन लगो हो । अंमने जिसो को ऑर्डर दयो, उसो से वो बातो करो हो । पक्का वो म्हारे बारो में ही पूछो-ताछो करो हो।" बांकेलाल राठौर इधर-उधर देखता हुआ बोला ।
“वो आपुन की तरफ नेई आएला बाप ?"
“नेई । वो तो जैसो चिपको के खड़ो हो ।”
“अब क्या करेला बाप ?"
“तू देखो छोरे । अंम अभ्भी सबो हिसाब एडजैस्ट कर दयो ।”
कुछ देर बाद ही वेटर उनके ऑर्डर का सामान सर्व करने आ गया ।
"सुन भायो ।”
“वेटर ठिठका ।
“वो जो गधो खड़े हो ना, ब्राऊन सूटो वालो । उसो को इधर भेजो। बोलो, अंमने बुलायो ।”
वेटर ने उधर देखा फिर सकपकाकर बांकेलाल राठौर से बोला। “जी, वो तो - ।”
"थारे को म्हारी बात समझ में न आयो का।" बांकेलाल राठौर ने एकाएक तीखे स्वर में वेटर से कहा- "वो गधो म्हारो दोस्त हौवो। बोलो उसे को, बड़ों-बड़ों मूंछे वालो गधो उसो को बुलायो ।”
हड़बड़ाया सा वेटर वहां से हट गया।
बांकेलाल राठौर और रुस्तम राव की आंखें मिलीं। फिर वो खामोश से टेबल पर पड़े खाने के सामान में व्यस्त हो गये। तभी बांकेलाल राठौर कह उठा।
“पारसनाथ, इधर ही आयो हो।”
इसके साथ ही उसने करीब आते पारसनाथ की तरफ देखकर हाथ हिलाया।
पारसनाथ करीब पहुंचा। उसके खुरदरे चेहरे पर शांत सी मुस्कान उभरी।
“थारे को यां पे देखो के म्हारो दिल खुश हो गयो।” पारसनाथ के कुछ कहने से पहले ही बांकेलाल राठौर कह उठा- “कुर्सी खींचो के बैठ जावो और म्हारो संग पेट भरो के खायो । पेमंट की चिन्तो न करो हो। अंम 'बिल' दयो ।”
चेहरे पर हल्की सी मुस्कान समेटे पारसनाथ कुर्सी पर बैठ गया।
“सलाम बाप।” रुस्तम राव कह उठा ।
“तुम दोनों को यहां देखकर मेरे को हैरानी हो रही है । " पारसनाथ ने कहा ।
" हैरानी क्यों होएला बाप? भूख लगेला। रैस्टोरेंट नजर आएला तो खाने को इधर पौंचेला।" रुस्तम राव कह उठा- “तुम उधर क्यों खड़ेला बाप? बैठ के खाना नेई खाएला ?”
पारसनाथ ने दोनों को देखा। कहा कुछ नहीं।
“बोत दिनों बादो मिलो हो। बातों भी करो, पण बादो में। अभ्भी तो मन्ने भूखो लगो हो । अंम तो खानो खायो । तंम भी प्लेट उठायो और माल भरो के, पेटो में सरका लयो।" इसके साथ ही बांकेलाल राठौर ने खाना शुरू कर दिया ।
रुस्तम राव ने भी खाना शुरू कर दिया ।
“दिल्ली कब आये ?” पारसनाथ ने पूछा। “कल ही आयो हो । खाना खा लयो ।”
“अभी मेरे को भूख नहीं है। लेट खाता हूं। रात को ग्यारह बारह बजे।"
“तो फिरो रैस्टोरैंट में तांक-झांक करनो वास्तो क्यों आयो हो ?”
“किसी ने यहां मिलना था। इन्तजार कर रहा हूं।" पारसनाथ ने शांत स्वर में कहा।
उसने नहीं बताया कि ये उसी का रैस्टोरैंट है।
"बाप! आपुन के साथ बैठेला है। खाना नेई खाएला तो कोल्ड ड्रिंक मंगवाएला ।”
“आवाजो मार दो छोरे, वेटरो को ।”
पारसनाथ खामोश रहा।
रुस्तम राव ने वेटर को बुलाकर, कोल्ड ड्रिंक लाने को कहा तो कोल्ड ड्रिंक आ गई।
“थारी वो कैसी हौवे । वो का नामो हौवे छोरे। आं वो मोना चौधरी । अभ्भी जिन्दो हौवो या मरो गई।”
"ठीक है। सलामत है । जिन्दा है।” पारसनाथ ने मुस्कान समेटे शांत स्वर में कहा ।
“महाजन कैसा होएला । बोतल चलेला अभी ?”
"वो भी ठीक है । "
“छोरे!" बांकेलाल राठौर कह उठा- “यां का खानो बोत बढ़िया हौवे।”
" बाप । होटल का मालिक 'बिल' भी मोटा ही ठोकेला ।”
“म्हारे को का कमी हौवो जो 'बिलो' की परवाह करो हो।"
“तुम लोग मुम्बई से किसी काम के लिए आये हो ?” पारसनाथ ने पूछा ।
“हां बाप । फालतू का इधर-उधर फिरने का टेम नेई होएला ।”
"किसी काम में मेरी जरूरत हो तो बता देना।” पारसनाथ ने खुरदरे चेहरे पर हाथ फेरा ।
“नेई बाप । आपुन अपना काम खुद ही करेला ।”
“देवराज चौहान, जगमोहन कैसा है ?" पारसनाथ ने सामान्य स्वर में पूछा ।
“म्हारे को का मालूम। अच्छा होएला। दो-चार महीनों बीत गये, उसो से मिलो ।”
“आपुन को तो और भी ज्यादा वक्त होएला ।”
यूं ही इधर-उधर की बातें होती रहीं। बेहद सामान्य सी मुलाकात रही ये ।
खाना खाकर उन्होंने फुर्सत पाई और बांकेलाल राठौर कह उठा।
“भायो पारसनाथ । म्हारो को अभ्भी जल्दी हौवे । नेई तो अंम बैठो के लम्बे-लम्बे बातों करो हो । छोरे वेटरो को बुला के 'बिलो' दयो ।”
फिर उसने पारसनाथ को देखा- “थारो पतो तो म्हारो पास होवो न कि फुर्सत में आ के बातो मारो। अंम जानो हो तम पतो दयो भी ना । "
जवाब में पारसनाथ के चेहरे पर हल्की सी मुस्कान उभरी रही।
रुस्तम राव ने इशारे से वेटर को पास आने को कहा।
“बिल, रहने दो।” पारसनाथ बोला- "मैं दे दूंगा।"
वेटर पास आ पहुंचा था।
“खानो अंम खायो । अंम ही 'बिल' दयो । नेई तो खानो हजम न होयो ।"
रुस्तम राव ने 'बिल' चुकता किया ।
“जो भी हौवो। खानो यां का बढ़ियो हौवो । छोरे !”
“बाप ।”
“यां पे फिरो खानो खानो के वास्ते आयो ।”
“रात को टैम होएला ।”
“ठीको । रातो को ही यां पे फिरो आयो । चल छोरे।” बांकेलाल राठौर उठ खड़ा हुआ।
रुस्तम राव और पारसनाथ भी उठे ।
“थारो दोस्तो तो अभ्भी तक न आयो । जिसो के इन्तजार में तम यां पे दो टांगो पे खड़ो हौवे ।”
“आ जायेगा।” पारसनाथ के होंठों पर शांत मुस्कान थी।
“पेशीराम कभ्भो मिलो हो ?”
"नहीं।”
“पहले जन्म की जगह बोत बढ़िया होएला बाप । आपुन को. बोत याद आएला ।"
“पेशीराम कभी मिला तो उसे कहूंगा कि फिर वहां ले चले। " पारसनाथ ने कहा।
“छोरे ! निकलो ले यां से। पेशीराम अभ्भी आ गयो तो म्हारो कामो बीचो में ही रे जायो।” फिर बांकेलाल राठौर ने पारसनाथ से कहा-“चल्लो पारसनाथ। फिर कभ्भो ऐसो ही मुलाकात हौवे ।”
"फिर मिलएला बाप ।”
पारसनाथ के देखते ही देखते बांकेलाल राठौर और रुस्तम राव बाहर निकल गये ।
पारसनाथ अपने खुरदरे चेहरे पर हाथ फेरता, सोच भरी निगाहों से शीशे के बड़े से दरवाजे को देखता रहा। जहां से वो दोनों बाहर निकलकर गये थे।
***
रात के दस बज रहे थे ।
पारसनाथ कमीज-पैंट पहने रैस्टोरेंट के ऊपर बने घर में मौजूद था। अभी रेस्टोरेंट का फेरा लगाकर आया था। सिग्रेट सुलगाकर वो कुर्सी पर बैठ गया। बांकेलाल राठौर और रुस्तम राव ने कहा था कि वो रात को खाने के लिए यहां आयेंगे, परन्तु अभी तक न आने पर, वो समझ चुका था कि वो नहीं आयेंगे। अगर आते तो पारसनाथ अवश्य उनके बारे में गम्भीरता से सोचता।
क्योंकि बांकेलाल राठौर और रुस्तम राव जैसे इन्सान महज खाने की खातिर दोबारा किसी खास जगह पर प्रोग्राम बनाकर नहीं आते । इत्तफाक से ही दोबारा आ जायें तो जुदा बात है। उन दोनों के आने की बात आई-गई हो गई थी। उनकी तरफ से पारसनाथ का ध्यान पूरी तरह हट चुका था। देर बाद उन दोनों को देखना, पारसनाथ को अच्छा लगा था। पुरानी यादें ताजा सी हो उठी थीं ।
तभी रैस्टोरेंट का कर्मचारी वहां पहुंचा।
"सर, आप जिन दो लोगों के बारे में पूछ रहे थे । वो अभी-अभी आये हैं।” उसने कहा।
पारसनाथ की आंखें सिकुड़ीं।
“कौन लोग ?”
“ उनमें से एक की बड़ी-बड़ी मूंछें हैं और दूसरा खूबसूरत सा लड़का है करीब सोलह बरस का ।”
पारसनाथ अपने खुरदरे चेहरे पर हाथ फेरने लगा । “तुम जाओ और उनकी हरकतों पर नजर रखो बताने लायक * कोई बात हो तो बता देना । " ।
“जी।” कहने के साथ ही वो पलटकर चला गया।
पारसनाथ सोचो में डूबा वही बैठा रहा। सिग्रेट समाप्त करके वो उठा और कमरे से बाहर निकलकर रेस्टोरेंट में जाने वाली सीढ़ियां उतरने लगा। कुछ नीचे पहुंचकर सीढ़ियों में ठिठककर उसने रैस्टोरेंट में झांका । भीड़ थी वहां । कस्टमर और रेस्टोरेंट के स्टाफ वाले अपने कामों में व्यस्त थे ।
एक टेबल पर बैठे बांकेलाल राठौर और रुस्तम राव नजर
आये।
पारसनाथ के होंठ सिकुड़ गये ।
दोपहर में बांकेलाल राठौर कह रहा था कि उन्हें कहीं काम पर जाना है। ऐसे में दिन भर उन्हें फुर्सत नहीं होनी चाहिये थी । लेकिन दोनों के फ्रेश चेहरे बता रहे थे कि वो फुर्सत में हैं। जो कपड़े दिन में पहने थे। उनकी जगह अब दूसरे कपड़े थे। कपड़ों से स्पष्ट लग रहा था कि उन्हें पहने ज्यादा देर नहीं हुई।
पारसनाथ के मस्तिष्क में बैठे शक के कीड़े ने करवट ली और वो वापस ऊपर आ गया। पारसनाथ को जैसे स्पष्ट तौर पर लगने लगा था कि बांकेलाल राठौर और रुस्तम राव किसी खास वजह के तहत यहां आ रहे हैं। वो ये भी जानते हैं कि रैस्टोरैंट उसका है। परन्तु ये बात जाहिर नहीं होने दी और दिन में यही जाहिर करते रहे कि इस बारे में उन्हें कुछ नहीं मालूम।
पारसनाथ कुर्सी पर जा बैठा। बांकेलाल राठौर और रुस्तम राव को लेकर सोचों में उलझा रहा। आखिरकार उसने रिसीवर उठाया और नम्बर मिलाने लगा। उधर बेल होने लगी। कानों में आवाज पड़ती रही ।
रिसीवर नहीं उठाया गया। पारसनाथ फोन बंद करने लगो कि तभी उधर से रिसीवर उठाया गया।
"हैलो ।” मोना चौधरी की आवाज कानों में पड़ी ।
“मैं बोल रहा हूं मोना चौधरी ।”
"तुम - कैसे फोन किया ?” मोना चौधरी की आवाज कानों में पड़ी ।
“बांकेलाल राठौर और रुस्तम राव की तो याद होगी तुम्हें ?" पारसनाथ ने सपाट स्वर में पूछा।
कुछ क्षणों की चुप्पी के पश्चात् मोना चौधरी की आवाज कानों में पड़ी ।
“हां। दोनों ही शातिर दिमाग के तेज है। उनकी याद कैसे आ गई ?”
“वो दोनों इस वक्त मेरे रैस्टोरैंट में मौजूद हैं।”
"क्या ?" मोना चौधरी के स्वर में अजीब-सा बदलाव आ गया ।
"दोनों दोपहर में भी, लंच के वक्त यहां थे।" पारसनाथ सपाट स्वर में कह रहा था - " और इन दोनों का लंच डिनर यहां करना इत्तफाक नहीं हो सकता। बीच में कोई बात तो अवश्य है।”
“तुम ठीक कह रहे हो पारसनाथ।" इस बार मोना चौधरी के स्वर में गम्भीरता थी- “अगर इन दोनों को तुमसे कोई काम होता तो उस बारे में तुमसे बात कर चुके होते।"
“मुझसे ऐसी कोई बात नहीं हुई। दोपहर में उनके साथ हैलो-हैलो भी हुई थी ।”
"इसका मतलब उन्हें मेरी जरूरत है। "
“क्या ?”
“हां पारसनाथ! वरना दोनों का तुम्हारे यहां बार-बार आना यूं ही नहीं है। वो पक्के तौर पर मुझे तलाश कर रहे हैं और मेरे बारे में तुमसे इसलिए नहीं पूछ रहे कि तुम बताओगे नहीं और मुझ तक भी खबर पहुंच जायेगी कि, मुझे ढूंढा जा रहा है।" मोना चौधरी गम्भीर स्वर में अपने शब्दों पर जोर देकर कह रही थी-"इसके साथ ही एक बात और सुन लो कि वो दोनों अकेले नहीं हो सकते।" पारसनाथ अपना खुरदरा चेहरा मसलने लगा।
“अकेले नहीं हो सकते।" पारसनाथ ने सोच भरे ढंग में मोना चौधरी के शब्द दोहराये ।
“हां पारसनाथ।” मोना चौधरी के स्वर में विश्वास था"बांकेलाल राठौर और रुस्तम राव से सीधे-सीधे कभी मेरा मतलब नहीं रहा। देवराज चौहान के साथ ही वो मेरे सामने आये थे। ऐसे में सिर्फ उन दोनों को किसी भी काम के लिए मेरी जरूरत नहीं पड़ सकती। उनके साथ देवराज चौहान और जगमोहन का होना जरूरी है। वो खुद पीछे है और उन दोनों को मेरे बारे में मालूम करने के लिए आगे कर दिया।"
पारसनाथ के चेहरे पर सोच के भाव छाये रहे । “चुप क्यों हो गये ?” मोना चौधरी की आवाज कानों में पड़ी ।
“ये भी हो सकता है मोना चौधरी, कि उन दोनों का आना महज इत्तफाक ही हो।” कहने को पारसनाथ ने कह तो दिया, लेकिन इस इत्तफाक को उसका दिल भी नहीं मान रहा था।
“बांकेलाल राठौर और रुस्तम राव जैसे लोगों के पास इतना वक्त नहीं होता कि वो मुम्बई से दिल्ली आकर तुम्हारे रैस्टोरैंट में सिर्फ खाने के लिए ही आयें। उनके हर कदम के पीछे कोई मतलब होता है।" मोना चौधरी की पक्की आवाज पारसनाथ के कानों में पडी - “वो दोनों अकेले नहीं हो सकते ।”
“यहां तो दोपहर में भी अकेले आये थे और अब भी ।” क्षणिक चुप्पी के पश्चात् मोना चौधरी की आवाज कानों में पड़ी।
“वो दोनों जायें तो किसी को उनके पीछे लगा देना। देवराज चौहान और जगमोहन का भी पता लग जायेगा। यहां से जाकर दोनों शायद उनसे मिलें या कहीं पर एक साथ ही ठहरे हो ।”
“ठीक है ।" पारसनाथ ने कहा- “मैं ऐसा ही करूंगा। बताने लायक कोई बात हुई तो फोन करूंगा।"
मोना चौधरी ने रिसीवर रख दिया था। पारसनाथ ने भी रिसीवर रखा और सिग्रेट सुलगाकर अपने खुरदरे चेहरे पर हाथ फेरने लगा। मोना चौधरी की बात अब उसके दिमाग में बैठती जा रही थी कि ये दोनों अकेले नहीं हो सकते। इनके पीछे देवराज चौहान या जगमोहन अवश्य है। इनका यहां आना इत्तफाक नहीं है। बल्कि कुछ सोच-समझकर ये आ रहे हैं।
पारसनाथ उठा और टहलने लगा। चंद कदमों के पश्चात् ठिठका। जाने क्या सोचकर कमरे से बाहर निकला और पीछे वाले रास्ते की सीढ़ियां उतरने लगा। वो रैस्टोरैंट के सामने की तरफ या फिर पार्किंग में एक निगाह मार लेना चाहता था। शायद कोई बाहर ही हो।
पारसनाथ का ख्याल ठीक ही निकला था।
रैस्टोरैंट की पार्किंग में मध्यम-सी रोशनी वाले हिस्से में पारसनाथ ने एक कार से टेक लगाये खड़े जगमोहन और सोहनलाल को देखा। जिनकी नजरें रैस्टोरैंट के मुख्य द्वार की ही तरफ थी।
पारसनाथ खामोशी से वापस अपने कमरे में आ गया। उसके शांत मस्तिष्क में हलचल पैदा हो चुकी थी। ये बात अब साफ हो चकी थी कि वांकेलाल राठौर और रुस्तम राव को मालूम था कि ये उसका रेस्टोरेंट है, परन्तु ये बात उन्होंने जाहिर नहीं होने दी थी । वो दोपहर को भी आये और अब भी आये।
बाहर जगमोहन और सोहनलाल मौजूद है। यकीनन वो दोपहर को भी बाहर रहकर रैस्टोरेंट पर नजर रख रहे होंगे। ये लोग किसी योजना पर सोच-समझकर काम कर रहे होंगे। क्यों ?
पारसनाथ को अंजाना सा खतरा महसूस होने लगा।
इन सब बातों में जगमोहन की मौजूदगी खतरे का सूचक थी। क्योंकि जगमोहन के पीछे देवराज चौहान जैसा डकैती मास्टर था। देवराज चौहान और मोना चौधरी ने एक-दूसरे को हरा देने का, सामने वाले का सिर झुका देने के वैर को मन में रखे हुए थे।
दोनों का आमने-सामने पड़ना सांप और नेवले जैसा था।
गम्भीरता और सोच के भाव मस्तिष्क में समेटे पारसनाथ ने मोना चौधरी को फोन किया।
बात होने पर पारसनाथ ने सपाट स्वर में कहा।
"मोना चौधरी! मुझे लगता है जैसे कुछ होने वाला है। "
“क्या मतलब ?
"रेस्टॉरंट के बाहर जगमोहन और सोहनलाल निगरानी के तौर पर योजूद हैं और ये दोनों दोपहर को भी तब रेस्टॉरंट में नजर रख रहे होंगे, जब वांकेलाल राठौर और रुस्तम राव भीतर थे।"
मोना चौधरी की तरफ से आवाज नहीं आई।
"ये लोग जो भी काम कर रहे हैं। सोच-समझकर कर रहे हैं। जबकि मेरा इनके साथ कोई भी वास्ता सीधे-सीधे नहीं है। मेरे रेस्टोरेंट में या मेरे साथ इनका कोई काम नहीं है।"
"है काम।" मोना चौधरी की आवाज में शांत भाव थे-"मैंने पहले भी कहा था कि तुम्हारे द्वारा ये लोग मुझ तक पहुंचने की कोशिश में हैं। तभी तो जगमोहन और सोहनलाल बाहर हैं। बांकेलाल राठौर और रुस्तम राव बार-बार तुम्हारे रैस्टोरेंट में आयेंगे। आखिरकार तुम इनके बारे में मुझसे बात करोगे। फोन पर या फिर मेरे पास आओगे। मेरे पास आओगे तो जगमोहन-सोहनलाल तुम्हारे पीछे-पीछे आकर मेरी जगह देख लेंगे या फिर इनके बारे जानकर मैं तुम्हारे रेस्टोरेंट में आऊंगी। यही इनका प्रोग्राम है। इन्हें मेरी जरूरत है।”
“क्यों ?"
"में नहीं जानती कि इन्हें मेरी जरूरत क्यों है ये तो वक्त आने पर ही पता चल सकेगा।" मोना चौधरी की आने वाली आवाज में सोच के भाव थे- “इन लोगों को मेरी जरूरत पड़ जाना। मुझे भी उलझन में डाल रहा है।"
“जगमोहन और सोहनलाल बाहर है।” पारसनाथ कह उठा- “अगर तुम कहो तो बांकेलाल राठौर और रुस्तम राव को रैस्टोरैंट के भीतर ही भीतर से गायब कर दूं। बाद में इनसे मालूम करेंगे कि क्या मामला है।" पारसनाथ ने कहा।
"ऐसी गलती मत कर देना।" मोना चौधरी का स्वर आया- "दो दोनों बहुत खतरनाक हैं। मेरा सामना हो चुका है उनसे। इस वक्त तुम कुछ नहीं करोगे। जैसे वो अंजान बनकर आ रहे हैं रेस्टोरेंट में। ऐसे ही तुम अंजान बने रही!"
“इस वक्त तो उनके सामने भी नहीं पड़ना।”
"जरूरत भी नहीं है। मुझे पूरा विश्वास है कि वो जैसे खामोशी के साथ आये हैं। वैसे ही चले जायेंगे और अगर इनके बारे में मेरी सोच ठीक है तो कल लंच के वक्त ये दोनों फिर आयें और जगमोहन, सोहनलाल इसी तरह बाहर रहेंगे।"
“तो कल कुछ करना है क्या ?"
“पारसनाथ !” मोना चौधरी का गम्भीर स्वर उसके कानों में पड़ा- “इन लोगों को अगर मेरी जरूरत है तो ये आसानी से टलने वाले नहीं हैं। देर-सवेर में ये तुम्हारी गर्दन पकड़कर पूछेंगे कि, मेरा ठिकाना कहां है। इनकी हरकतें आसानी से रुकने वाली नहीं। कल ये लोग आयें तो मुझे फोन कर देना।"
"तुम तुम क्या करोगी ?"
"मैं आऊंगी तुम्हारे रैस्टोरैंट में। इनसे मुलाकात करने ।" मोना चौधरी के गम्भीर स्वर में सख्ती आ गई।
पारसनाथ अपने खुरदरे चेहरे पर हाथ फेरने लगा। “तुम्हारा आना ठीक रहेगा ?"
मेरे ख्याल में ठीक रहेगा। इनका जो भी मामला है। शायद जल्दी निपट जाये। मैं खुद भी अब जानना चाहती हूं कि ये लोग क्या चाहते हैं। मुम्बई से दिल्ली मेरे वास्ते क्यों आये हैं।”
“अच्छी बात है मीना चौधरी। कल अगर ये लोग आये तो मैं तुम्हें फोन कर दूंगा ।”
***
0 Comments