‘‘कबीर, तुम्हारे ग्रेड्स बहुत अच्छे हैं; हमारी फ़र्म तुम्हें बहुत अच्छा पैकेज दे सकती है।’’ माया ने कबीर का सीवी देखते हुए कहा।
‘‘मगर माया, मैं अभी जॉब नहीं करना चाहता; अभी तो मैंने तय भी नहीं किया है कि मैं क्या करना चाहता हूँ।’’
‘‘कबीर, तुम्हारे पेरेंट्स इंडिया से यहाँ इसीलिए आए थे, कि तुम पढ़ाई पूरी करने के बाद भी ये तय न कर सको कि तुम्हें करना क्या है? क्या उन्होंने तुम्हें इतनी अच्छी एजुकेशन इसलिए दी, कि तुम सड़कों पर गिटार बजाते फिरो?’’ माया ने कबीर को झिड़का।
JOIN TELEGRAM CHANNEL @EBOOKSIND‘‘वेल दैट्स फन, आई सेड आई एम एन्जॉयिंग माइ लाइफ।’’
‘‘एंड आई सेड, यू नीड टू टेक योर लाइफ सीरियसली; आई एम सेंडिंग योर सीवी टू द एचआर, यू विल हियर फ्रॉम अस सून।’’ माया ने कबीर के सीवी पर कुछ लिखते हुए कहा, ‘‘और हाँ, आज शाम को मुझे घर पर मिल सकते हो?’’
‘‘अब क्या मुझे घर पर भी नौकर रखोगी।’’ कबीर ने म़जाक किया।
‘‘नहीं, मुझ पर तुम्हारा डिनर उधार है।’’ , एक लम्बे समय के बाद माया के होठों पर मुस्कान आई, ‘‘और हाँ, अपना गिटार भी लेकर आना... तुम गिटार बहुत अच्छा बजाते हो।’’
शाम को कबीर, प्रिया के अपार्टमेंट पहुँचा; एक खूबसूरत गुलदस्ता और शैम्पेन की दो बोतलें लिए।
‘‘प्ली़ज कम इन।’’ माया ने दरवा़जा खोलते हुए कहा।
‘‘थैंक्स, यू आर लुकिंग वेरी प्रिटी।’’ कबीर ने गुलदस्ता माया के हाथों में दिया और उसके बाएँ गाल से अपना बायाँ गाल मिलाया।
‘‘थैंक्स कबीर, प्ली़ज हैव ए सीट।’’
कबीर ने सो़फे पर बैठते हुए अपनी ऩजरें लिविंग रूम में घुमार्इं। उसे आश्चर्य हुआ, कि लिविंग रूम की सजावट बिल्कुल वैसी ही थी, जैसी कि प्रिया छोड़ गई थी। फूलदानों में रखे फूल भी बदले नहीं गए थे, जो अब कुछ मुरझाने भी लगे थे। पिछले एक हफ्ते से वहाँ रह रही माया ने फ्लैट की सजावट में अपनी कोई पसंद या अपना कोई किरदार नहीं जोड़ा था।
‘‘माया! एक हफ्ते बाद भी यह फ्लैट प्रिया का फ्लैट ही लग रहा है; ऐसा लग ही नहीं रहा कि यहाँ कोई माया भी रह रही है।’’ कबीर ने थोड़े शिकायती अंदा़ज में कहा।
‘‘यह प्रिया का ही फ्लैट है, मैं तो बस मेहमान हूँ यहाँ।’’
‘‘हाँ, मगर मेहमान की भी तो अपनी कोई पसंद होती है; जिस घर में माया रह रही है, उसे देखकर माया के बारे में भी तो कुछ पता चले।’’
‘‘क्या जानना चाहते हो मेरे बारे में?’’
‘‘बहुत कुछ... फ़िलहाल तो मैं उस माया को जानता हूँ, जो प्रोफेशनल है, बॉसी है; जिसे सक्सेस, मनी और पॉवर पसंद है... मगर वह माया कैसी है, जो घर पर रहती है? उसे क्या पसंद है? उसे कौन से रंग पसंद हैं, कौन से फूल पसंद है, कैसी तस्वीरें पसंद हैं, कैसा म्यू़िजक पसंद है... वह माया कितनी रोमांटिक है; उसे लड़के कैसे पसंद हैं..।’’
‘‘कबीर..।’’ माया ने आँखों के इशारे से कबीर को झिड़का।
‘‘ओके; माया को लड़के पसंद नहीं हैं।’’ कबीर ने शरारत से हँसते हुए कहा।
‘शटअप!’ माया ने एक बार फिर उसे झिड़का।
‘‘लेट्स हैव सम ड्रिंक्स फर्स्ट... शायद ड्रिंक करके तुम कम्फर्टबल हो जाओ।’’
‘‘आई थिंक इट्स ए गुड आइडिया।’’
शैम्पेन की बोतल खोलकर फ्लूट्स में उड़ेलते हुए माया ने पूछा। ‘‘तुम शैम्पेन की दो बोतल क्यों लाए हो?’’
‘‘एक पीने के लिए...।’’
‘‘और दूसरी?’’
‘‘तुम्हें नहलाने के लिए।’’ कबीर ने शरारत से हँसते हुए कहा।
‘‘कबीर, आर यू क्रे़जी?’’ माया ने एक बार फिर उसे झिड़का।
‘‘कभी-कभी ख़ुद ही थोड़ा क्रे़जी हो जाना चाहिए; ज़िन्दगी को बहुत सीरियसली लो तो ज़िन्दगी बुरी तरह पागल कर देती है।’’ कबीर कुछ भावुक हो उठा। डिप्रेशन में बिताए दिनों की कड़वी यादें उभर आईं।
‘‘कबीर, तुम जानना चाहते थे कि मुझे क्या पसंद है!’’ माया ने कबीर के भावुक चेहरे पर गौर कर विषय बदलने के इरादे से कहा।
‘‘हाँ बताओ तुम्हें क्या पसंद है!’’ माया का वाक्य कबीर को उसकी कड़वी यादों से बाहर निकाल लाया।
‘‘मुझे स्पीड पसंद है।’’
‘‘कहाँ जाओगी इतनी स्पीड से? तुम्हें अपनी मंज़िल तक पहुँचने की इतनी जल्दी क्यों है?’’
‘‘जल्दी नहीं है कबीर; यह ज़रूरी नहीं है कि स्पीड कहीं पहुँचने की जल्दी में ही हो... स्पीड का अपना थ्रिल होता है... स्पीड में म़जा आने लगे तो ख़ुद स्पीड ही मंज़िल बन जाती है।’’
‘‘ह्म्म्म...तो फिर चलो देखें तुम्हें कितनी स्पीड पसंद है।’’
‘मतलब?’
‘‘ड्राइव पर चलते हैं।’’
‘अभी?’
‘हाँ।’
कबीर ने कार स्टार्ट की। शाम ढल चुकी थी, फिर भी ट्रैफिक कम नहीं हुआ था। उस ट्रैफिक में स्पीड की कोई गुंजाइश नहीं थी।
‘‘जिस शहर में ज़िन्दगी की रफ्तार जितनी ते़ज हो, उसका ट्रैफिक उतना ही स्लो होता है।’’ कबीर ने अगले जंक्शन की ट्रैफिक लाइट्स पर कार को ब्रेक लगाते हुए कहा।
‘‘कबीर, मुझे पता नहीं था कि तुम फिलॉसफर भी हो।’’ माया ने हँसते हुए कहा।
‘‘माया, मैंने किसी से कहा था कि अगर इंजिनियर नहीं बन पाया तो फिलॉसफर बन जाऊँगा।’’ कबीर को नेहा की याद आ गई।
‘‘मगर अब तो तुम इंजिनियर बन चुके हो।’’
‘‘मैंने इंजीनियरिंग की पढ़ाई की है।’’ कबीर ने एक बार फिर नेहा को याद करते हुए कहा, ‘‘और तुम मुझसे जॉब कराके मुझे इंजिनियर बनाने पर तुली हो।’’
‘‘फिलॉसफी से ज़िंदगी नहीं चलती।’’
‘‘मगर ज़िंदगी चलकर पहुँचे कहाँ, ये फिलॉसफी ही तय करती है।’’
‘‘फ़िलहाल तो तुम ये तय करो कि हम जा कहाँ रहे हैं; अभी तक तो मुझे कोई स्पीड महसूस नहीं हुई है।’’ माया ने हँसते हुए कहा।
‘‘बस थोड़ी देर में हम मोटरवे पर होंगे।’’
कुछ देर बाद कबीर की कार मोटरवे पर थी। कबीर ने ऐक्सेलरेटर पर पैर का दबाव बढ़ाया। स्पीड का काँटा सत्तर, अस्सी से होते हुए सौ मील प्रति घंटे पर पहुँच गया। बाहर हवा गुनगुनी थी, इसलिए कबीर ने कार के विंडो खुले रखे थे। कार हवा से बातें करने लगी, और हवा का संगीत माया के कानों में गूँज उठा। माया को इस स्पीड में म़जा आने लगा, मगर थोड़ी देर बाद उसे अहसास हुआ कि कार की स्पीड, मोटरवे की स्पीड लिमिट से बहुत अधिक थी।
‘‘कबीर, तुम स्पीड लिमिट से बहुत अधिक स्पीड से चल रहे हो, स्पीडिंग टिकट मिलेगा तुम्हें।’’ माया ने कबीर को सावधान किया।
‘‘यार ये स्पीड लिमिट होती ही क्यों है?’’ कबीर ने खीझते हुए कहा।
‘‘डोंट बी सिली कबीर; स्पीड लिमिट से ऊपर चलने पर एक्सीडेंट का खतरा बढ़ जाता है।’’
‘‘तुम्हारी स्पीड लिमिट क्या है माया?’’
‘‘मेरी स्पीड लिमिट?’’
‘‘हाँ, तुम्हारी ज़िंदगी की स्पीड लिमिट?’’
माया ने कुछ नहीं कहा। कुछ देर वह यूँ ही चुपचाप बैठी रही, फिर उसने कबीर से कहा, ‘‘कबीर, अब वापस चलते हैं; मुझे भूख लग रही है।’’
कबीर ने अगले एक्जिट से कार मोड़ते हुए वापस प्रिया के अपार्टमेंट की ओर ले ली।
अपार्टमेंट पर लौटकर, माया ख़ामोशी से खाना लगाने में लग गई। कबीर को माया की ख़ामोशी बेचैन करने लगी।
‘‘ये सारा खाना तुमने ख़ुद बनाया है?’’ कबीर ने माहौल की ख़ामोशी तोड़ने के इरादे से पूछा।
‘‘हाँ, ख़ास तुम्हारे लिए; आज काम से दो घंटे पहले लौट आई थी।’’ माया ने जताना चाहा कि उसे अपने काम और करियर के अलावा और ची़जों की भी परवाह रहती है।
‘‘ओह,थैंक्स माया; और हाँ सॉरी... मेरी वजह से आज तुम्हारा काम अधूरा रह गया।’’
‘‘काम कल पूरा जाएगा, लेट्स एन्जॉय डिनर नाउ।’’
‘‘वाओ! फ़ूड इ़ज ग्रेट... यू आर एन अमे़िजंग कुक माया।’’ कबीर ने खाना खाते हुए कहा।
‘‘चलो तुमने मेरी तारी़फ तो की।’’ माया ने शिकायत के लह़जे में कहा।
कबीर कुछ देर माया के चेहरे को देखता रहा। बॉसी और ओवरकॉंफिडेंट माया के चेहरे पर एक बेबस सी शिकायत उसे अच्छी नहीं लग रही थी। खाना खत्म करते ही कबीर ने माया से कहा, ‘‘माया! तुम मुझसे गिटार सुनना चाहती थीं?’’
‘‘हाँ, तुम्हें ही ध्यान नहीं रहा।’’ माया के लह़जे में अब भी हल्की शिकायत थी।
‘‘सॉरी, मगर अब ध्यान आ गया है।’’
‘‘सुनाओ, क्या सुनाओगे?’’
कबीर ने गिटार उठाकर उसकी तारों पर हिंदी फिल्म, ‘अजनबी’ के इस गीत की धुन छेड़नी शुरू की, ‘इक अजनबी हसीना से यूँ मुलाकात हो गई।’
‘‘साथ में गाकर भी सुनाओ।’’ माया ने अनुरोध किया।
‘‘माया, आई एम नॉट ए गुड सिंगर।’’
‘‘बैड ही सही, सिंगर तो हो।’’
‘‘ओके...आई विल ट्राइ।’’ कहते हुए कबीर ने गाना शुरू किया,
‘‘...खूबसूरत बात ये, चार पल का साथ ये,
सारी उमर मुझको रहेगा याद,
मैं अकेला था मगर, बन गई वो हमस़फर...।’’
कबीर गाते-गाते अचानक रुक गया।
‘‘क्या हुआ कबीर?’’ माया ने पूछा।
‘‘कुछ नहीं; रात बहुत हो गई है, मुझे घर जाना चाहिए।’’
‘‘हाँ, रात बहुत हो गई है; तुम यहीं क्यों नहीं रुक जाते?’’
‘‘नो माया, इट वोंट लुक राइट।’’
‘‘बहुत परवाह है लोगों की?’’
‘‘लोगों की नहीं, तुम्हारी।’’
‘‘अगर मेरी परवाह है तो रुक जाओ, मैं कह रही हूँ।’’
‘‘तुम्हारे इरादे तो ठीक हैं न माया?’’ कबीर ने शरारत से पूछा।
‘‘शटअप कबीर, तुम प्रिया के बॉयफ्रेंड हो।’’ माया ने कबीर को झिड़का।
‘‘आई कैन मैनेज टू गर्लफ्रेंड्स।’’ कबीर ने फिर शरारत की।
‘‘बट आई कांट शेयर माइ बॉयफ्रेंड विद एनीवन।’’
‘‘हूँ, मतलब तुम मुझे प्रिया से ब्रेकअप करने को कह रही हो?’’
‘‘कबीर, म़जाक की भी कोई हद होती है।’’ माया ने फिर से कबीर को झिड़का।
‘‘और अगर मैं कहूँ कि मैं म़जाक नहीं कर रहा तो?’’ कबीर की आँखों में अब भी शरारत थी।
‘‘तो मैं कहूँगी कि तुम मेरी बेस्ट फ्रेंड को चीट कर रहे हो; अब जाओ, जाकर उस कमरे में सो जाओ।’’ माया ने कबीर को धक्का देते हुए कहा।
कबीर, माया को गुडनाइट कहकर सोने चला गया। माया भी अपने कमरे में जाकर बिस्तर पर लेट गई; मगर उसे नींद नहीं आ रही थी। उसे बार-बार कबीर की बातें याद आ रही थीं। ‘इतनी स्पीड से कहाँ जाओगी माया?’ , ‘तुम्हारी स्पीड लिमिट कितनी है माया?’, ‘‘माया को कौन से रंग पसंद हैं, कौन से फूल पसंद हैं, कैसी तस्वीरें पसंद हैं, माया कितनी रोमांटिक है,...’’ उसने तो इन सब बातों के बारे में कभी सोचा भी न था; उसे तो बस अपने करियर और सक्सेस की ही फ़िक्र थी, और वो उस फ़िक्र में ही व्यस्त थी। मगर व्यस्त ही सही, अच्छी खासी चल रही थी उसकी ज़िंदगी। ‘ज़िंदगी चलकर पहुँचे कहाँ, यह फिलासफी ही तय करती है।’ माया की ज़िंदगी की फिलासफी क्या थी... क्या अर्थ देना चाहती थी वह अपने जीवन को? माया, करवटें बदलते हुए यही सोचती रही। नींद उसे बहुत देर तक नहीं आई।
कुछ दिन बाद माया ने कबीर को फ़ोन किया, ‘‘हे कबीर! देयर इ़ज ए गुड न्यू़ज; अवर फ़र्म वांट्स टू इंटरव्यू यू; और अगर तुम उन्हें पसंद आए तो तुरंत ज्वाइन करना होगा।’’
‘‘तुम्हें मेरे पसंद आने पर शक है?’’ कबीर ने म़जाक किया।
‘‘ये नौकरी का इंटरव्यू है, किसी लड़की के साथ डेट नहीं।’’ माया ने भी उसी शरारत से जवाब दिया।
‘‘ओके, कब है इंटरव्यू?’’
‘‘कल; मैं तुम्हें डिटेल ईमेल करती हूँ।’’
‘‘थैंक्स माया।’’
कबीर, नौकरी को लेकर अधिक उत्साहित नहीं था, मगर माया का साथ उसे अच्छा लगने लगा था। माया, उसकी आवारा उमंगों को काबू करना चाहती थी। कबीर को अपनी आवारगी पसंद थी, मगर फिर भी उसका मन माया की लगाम में कस जाना चाह रहा था। माया के बॉसी रवैये में उसे एक सेक्स अपील दिखने लगी थी; जैसी उसे कभी लूसी की अदाओं में दिखी थी। प्रिया की आँखों में कबीर ने एक तिलिस्म देखा था, जिसमें भटककर वह अपनी मंज़िल ढूँढ़ना चाहता था। मगर माया तो पूरी की पूरी एक तिलिस्मी हुकूमत थी। इस हुकूमत में एक अजीब सा आकर्षण था, उसकी किशोरमन की फैंटेसियों की झाँकी थी, उसके अतीत की कल्पनाओं का बिम्ब था। यौवन का प्रेम, किशोर मन की कल्पनाओं की छवि होता है। प्रेम की ललक अतीत के प्रेम की ललक होती है।
अगले दिन कबीर का इंटरव्यू हुआ और उसे जॉब मिल गई। माया बहुत खुश हुई। उसने चहकते हुए कबीर को गले लगाकर कहा,‘‘कन्ग्रैचलेशंस कबीर! वेल डन।’’
‘‘थैंक्स माया।’’ कबीर ने भी माया को बाँहों में भींचते हुए कहा। मगर कबीर जानता था, कि वह थैंक्स जॉब के लिए नहीं था। माया को बाँहों में भींचते हुए कबीर को वैसा ही महसूस हुआ, जैसा उसे कभी टीना की बाँहों में लिपटकर हुआ था। भय में लिपटा आनंद, जिसे वह अपनी बाँहों से निकलने तो नहीं देना चाहता था, मगर माया के आलिंगन में पिघल जाने का भय उस आनंद को निस्तेज कर रहा था।
‘‘कबीर, ट्रीट कब दे रहे हो?’’ कबीर की बाँहों के घेरे से ख़ुद को हल्के से छुड़ाते हुए माया ने पूछा।
‘‘जब चाहो।’’ बाँहों से माया के निकलते ही, कबीर का मन भी उसके भय से स्वतंत्र हुआ।
‘‘आज शाम को?’’
‘डन।’
‘‘कहाँ ले जाओगे?’’
‘‘वह तुम्हें शाम को ही पता चलेगा।’’ कबीर ने मुस्कुराकर कहा।
उस शाम कबीर, माया को थेम्स नदी पर डिनर क्रू़ज पर ले गया। चेरिंगक्रॉस मेट्रो स्टेशन से निकलकर, एम्बैकमेंटपियर पर बोट में पहुँचते ही एक जादुई परिवेश ने उन्हें घेर लिया। बोट के भीतर बना खूबसूरत रेस्टोरेंट, चमचमाता बार, काँच की चौड़ी खिड़कियों के पार नदी के किनारे तनी भव्य इमारतें, नदी की धारा में झिलमिलाती सतरंगी रौशनी; और बोट के भीतर लाइव जा़ज बैंड की धीमी मादक धुन, जो दिलकश माहौल पैदा कर रहे थे; उसमें उनका डूब जाना ला़जमी था। बार से ड्रिंक्स लेकर वे डेक पर पहुँचे। थेम्स के प्रवाह से उठती ठंढी मंद हवा में, जा़ज संगीत की धुन तैर रही थी। शाम ढलने लगी थी, और आसमान में कुछ तारे भी टिमटिमाने लगे थे।
‘‘वाओ! दिस इ़ज अमे़िजंग; मेनी थैंक्स फॉर दिस कबीर।’’ माया ने ड्रिंक का एक हल्का घूँट भरते हुए कहा।
‘‘धीमी रौशनी, धीमी हवा, धीमा संगीत... सब कुछ कितना अच्छा लग रहा है न माया!’’ कबीर ने कहा।
‘‘सच में कबीर; मन कर रहा है कि समय बस यहीं ठहर जाए।’’ माया ने अपने बालों की लहराती लटों को सँभाला।
‘‘समय नहीं ठहरता माया; हमें ठहरना होता है।’’
‘मतलब?’
‘‘माया! समय के प्रवाह के परे, जहाँ से पल टूटते हैं; उसमें डूबना होता है। उसमें डूबकर, हर टूटते पल को ख़ुद से गु़जरने देना होता है। कुछ देर के लिए अपनी आँखें मूंद लो; इस ठंढी हवा को, इसमें तैरते संगीत को ख़ुद से होकर गु़जरने दो। इसके हर कॉर्ड को, हर नोट को महसूस करो माया।’’ माया की पलकों पर अपना हाथ फेरते हुए कबीर ने कहा।
माया ने आँखें बंदकर, कुछ देर के लिए समय के प्रवाह को ख़ुद से बेरोकटोक गु़जरने दिया। ठंढी मंद हवा उसके बदन को सहलाती रही; उसमें तैरता संगीत उसकी आत्मा को भिगाता रहा।
‘‘हे माया, कहाँ खो गर्इं?’’ कबीर ने हल्के से माया का कन्धा थपथपाया।
‘‘इट वा़ज एन अमे़िजंग एक्सपीरियंस कबीर।’’ माया ने धीमे से आँखें खोलीं।
‘‘क्या महसूस किया?’’
‘‘ऐसा लगा, जैसे कि सुर मेरी आत्मा से होकर बह रहे हों... जैसे कि संगीत मेरे भीतर गँुथ रहा हो; जैसे कि मेरा विस्तार हो रहा हो संगीत के इस छोर से उस छोर तक...।’’ माया का चेहरा किसी सूरजमुखी सा खिला हुआ था।
‘‘माया, आज तुम पहाड़ी राग की तरह सुंदर लग रही हो।’’ कबीर की ऩजरें माया के खिले हुए चेहरे पर थम गर्इं। कबीर के शब्द, माया के चेहरे पर एक शर्म में लिपटा अभिमान बिखेर गए। माया ने अपनी पलकें झुकाईं, और नदी की धारा में झिलमिलाती रौशनी निहारने लगी। माया ने अब तक अपनी न जाने कितनी प्रशंसाएँ सुनी थीं; मगर हर बार तुलना किसी मूर्त बिंब से ही हुई थी। पहली बार किसी ने उसके सौन्दर्य में एक अमूर्त अलंकार जड़ा था। कबीर की प्रशंसा से उसके भीतर एक मधुर रागिनी सी मचल गई।
अगली शाम कबीर ने माया से कहा, ‘‘माया! चलो तुम्हें किसी से मिलाता हूँ।’’
‘किससे?’
‘‘मेरे गुरु हैं।’’
‘‘किस ची़ज के?’’
‘‘हर ची़ज के; मेरे जीवन के गुरु हैं।’’
‘‘अच्छा, चलो।’’
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