गहरा- गम्भीर सन्नाटा छाया हुआ था वहां । - रुस्तम राव ने चाय बनाई थी। तीनों चाय पी रहे थे लेकिन जगमोहन भारी परेशानी के दौर से गुजरते हुए कमर पर हाथ बांधे, फर्श को रौंदने वाले अंदाज में टहल रहा था।
- "बैठ जा। बैठ जा।" बांकेलाल राठौर गम्भीर स्वर में कह उठा- "कबो तक फिरो हो । टांगें थको जाये।” -
जगमोहन ने ठिठककर बांकेलाल राठौर को घूरा ।
“मुझे समझ नहीं आ रहा कि भाभी ने इतनी बड़ी गलती कैसे कर दी।” जगमोहन भिंचे स्वर में कह उठा-“वो अच्छी तरह जानती थी कि देवराज चौहान के यहां से निकल जाने का मतलब क्या है?"
“ये गलती नहीं, बेवकूफी थी नगीना भाभी की।” सोहनलाल ने गम्भीर स्वर में कहा- “या फिर भाभी अपनी जगह ठीक थी । पति की सेवा करना, उसकी बात मानना स्त्री धर्म की पवित्रता है । भाभी ने ये सब करके अपने धर्म को निभाया है।”
“पागल हो गई है भाभी।" जगमोहन गुस्से से कह उठा- "इस तरह दया पत्नी का धर्म निभाया जाता है, पति को मौत के मुंह में धकेलकर।"
“थारे को तो बोलना ही आवे।” बांकेलाल राठौर ने पहलू बदला- “पति-पत्नी का रिश्ता का हौने, का मालूम थारे को ? औरत आदमी को कुएं में धकेलो भी और बचायो भी। इसो रिश्तो के अंत की थां तो ढूंढो भी न मिलो हो ।”
जगमोहन गुस्से से मुट्ठियां भींचकर रह गया।
सोहनलाल ने गोली वाली सिग्रेट सुलगाकर बेचैन स्वर में कहा।
“जो भी हुआ। बहुत गलत हुआ। लेकिन देवराज चौहान को हम ज्यादा देर कैद में नहीं रख सकते थे। देर-सवेर में उसने किसी तरह यहां से निकल ही जाना था। भाभी उसकी सहायता न करती तो वो कुछ दिन बाद यहां से खिसक जाता।" है।
“सोहनलाल बिल्कुल परफैक्ट बात कहेला। जो डकैती डाला। रास्ता न होएला, पण वो रास्ता बताएला। वो अपने लिए रास्ता तैयार नेई करेला क्या ? देवराज चौहान को कैद में रखेला आसान नेई होएला बाप ।” रुस्तम राव ने गम्भीर स्वर में कहा -“आपुन लोगों ने फास्ट काम करेला और देवराज चौहान को बांधकर कमरे में बंद करेला पण ये बात नेई सोचेला ।”
जगमोहन ने सोहनलाल को देखा।
"कुछ मालूम है मोना चौधरी दिल्ली में कहां रहती है ?”
"नहीं।" “ उसके साथी नीलू महाजन या पारसनाथ के बारे में कुछ पता है?"
“नहीं।” सोहनलाल ने सोच भरे ढंग से इन्कार में सिर हिलाया- “मुझे किसी का पता नहीं। लेकिन इतना मालूम है कि दिल्ली में पारसनाथ का रैस्टोरेंट है। ऐसे में पारसनाथ को तलाश किया' जा सकता है।”
कई पल उन लोगों के बीच चुप्पी रही।
“तुम दिल्ली जाने का प्रोग्राम बनाऐला बाप ।” “चारो बंदों की जरूरत हौवे वेवराज चौहान को कंधो देने के वास्ते ।” बांकेलाल राठौर दांत भींचकर कह उठा- “वो म्हारी बातों न मानो तो ये ई तो हुओ अब ।”
“खोपड़ी घुमेला देवराज चौहान की ।”
सोहनलाल ने कश लेकर सब को देखा।
“मेने ख्याल में जो हो गया है, उसे भूलकर हमें आगे के वारे में सोचना ।"
"आगो हौवो ही का, जो सोचने पड़ो।"
“बांके ।” जंगमोहन शब्दों को चबाकर कह उठा- “पेशीराम कोई भगवान नहीं है कि उसने जो कहा वो सच हो जायेगा।"
“पेशीराम की बात झूठ नेई होएला बाप । वो जो कहेला, वो सच होएला ।" रुस्तम राव दृढ़ता भरे स्वर में कह उठा- “उसकी बात कभी भी झूठ नहीं होएला ।”
“रुस्तम ठीक कहता है।" सोहनलाल ने गम्भीर निगाहों से जगमोहन को देखा।
“पेशीराम से म्हारा मजाक का रिश्ता न हौवे, जो वो म्हारे से उल्टी-सीधो बातो करो। वो जी भी कहो, सच कहो। अंम तो अंखियों को मूंदकर, उसो की बातों पर भरोसो करो हो ।”
जगमोहन होंठ भींचकर रह गया। वो जानता था कि ये लोग सच कह रहे हैं। पेशीराम की कहीं बात कभी भी झूठी नहीं हुई और दिल से वो भी जानता था कि इस बार भी पेशीराम ने गलत नहीं कहा।
परन्तु देवराज चौहान की मौत के बारे में सोचकर, जगमोहन मन ही मन कांप सा उठता था। वो इस सच को स्वीकार नहीं करना चाहता था, परन्तु सच को झूठा कहने की कोई वजह भी उसके पास नहीं थी।
"का सोचन लागो हो तम?"
"मैं दिल्ली जाऊंगा।” जगमोहन भिंचे स्वर में कह उठा- “आज ही।"
“तम जायो दिल्ली । म्हारी टिकट पे पैसो न खर्चो हो।"
“मैं किसी को साथ चलने को नहीं कहूंगा।" जगमोहन ने गम्भीर स्वर में कहा - "मजबूर नहीं करूंगा कि मेरे कहने पर कोई साथ चले। जिसका मन हो बेशक साथ चल सकता है।”
“बाप!” रुस्तम राव का चेहरा सुलग सा उठा- "देवराज चौहान तुम्हारा ही कुछ लगेला । आपुन लोगों को उससे प्यार नेई होएला क्या ? वो आपुन की दीदी का पति होएला । तेरे से पहले आपुन दिल्ली पहुंचेगा बाप ।”
“ठण्डो हो जाओ छोरे।" बांकेलाल राठौर ने परेशानी भरे ढंग में गहरी सांस ली – “तैश में आनो का कोई फायदा न हौवो । अंम सबो ही एको साथो ही दिल्ली चलो। पण परेशानी तो यो हौवो कि वां पे देवराज चौहान को कां पे ढूंढो हो । मोना चौधरी के ठय्यो के बारो में अंम लोगों को पतो न हौवो। उधर....।”
जगमोहन ने सोहनलाल को देखते हुए कहा ।
“हम मोना चौधरी के साथी पारसनाथ तक पहुंच सकते हैं। उसका रैस्टोरैंट तलाश कर सकते हैं।"
“हां। इसके लिए भागदौड़ तो करनी पड़ेगी। लेकिन काम हो जायेगा।" सोहनलाल बोला ।
“अंम सबो से तेजो दौड़ो हो । चल्लो दिल्ली । वां पे ई आगे बात करो हो । छोरे। "
"जहाज में चार टिकटो दिल्ली की बुक करा दयो । म्हारी सीटो खिड़की की तरफ ई रखियो ।"
“बाप ।”
“बाप जहाज नेई बोएला । विमान कहेला। प्लेन बोएला । " “म्हारे को मत पढ़ा छोरे। म्हारे बिकानेर में तो ऊंटों को रेगिस्तानो का जहाज ही बोलो।"
“प्लेन रेगिस्तान का नहीं, हवा का ऊंट होएला । उसे विमान कहेला ।” रुस्तम राव के होंठों पर मुस्कान उभरी।
बांकेलाल राठौर का हाथ मूंछ पर पहुंचा। उसने रुस्तम राव को घूरा।
"इस तरह घूर के बच्चे को मारेला बाप" कहते हुए रुस्तम राव ने जगमोहन को देखा-"कबका टिकट बुक करेला ?"
“आज के किसी भी प्लेन में सीटें बुक करा लो।" जगमोहन का स्वर गम्भीर था।
***
देवराज चौहान और नगीना चूंकि कार द्वारा मुम्बई से दिल्ली को जा रहे थे। इसलिए रास्ते में थे। जगमोहन, सोहनलाल, बांकेलाल राठौर और रुस्तम राव विमान से दिल्ली, शाम के छः बजे तक पहुंच गये थे। सबसे पहले उन्होंने होटल में दो कमरे लिए। जगमोहन और सोहनलाल एक कमरे में थे। दूसरे में बांकेलाल राठौर और रुस्तम राव थे। नहा-धोकर वो चारों इकट्ठे हुए।
“मेरे ख्याल में देवराज चौहान भाभी के साथ कार से ही दिल्ली आ रहा होगा।” जगमोहन ने गम्भीर स्वर में कहा - "या फिर ट्रेन या बस का इस्तेमाल किया गया होगा, दिल्ली पहुंचने के लिए। "
“देवराज चौहान को मच्छरों काटो क्या, प्लेन में बैठो वो।"
“एयरपोर्ट पर चैकिंग के दौरान वो पुलिस की नजरों में आ सकता है।" जगमोहन ने बांकेलाल राठौर को देखा-“देवराज चौहान की तलाश रहती है, पुलिस को यहां दिल्ली में तो देवराज चौहान को इंस्पेक्टर वानखेड़े से भी खतरा है।"
“वानखेड़े ?” बांकेलाल राठौर के होंठों से निकला |
“वानखेड़े को तो अपुन बचाएला था कालूराम से।" रुस्तम राव कह उठा ।
कालूराम के बारे में जानने के लिए पढ़ें पूर्व प्रकाशित उपन्यास हमला एवं जालिम ।
“कालूराम ?” सोहनलाल ने कहा- “जो पहले जन्म में पेशीराम का बेटा था ?”
“हां ।” रुस्तम राव ने गहरी सांस ली-“बहुत ताकतवर होएला वो।"
“अगर वानखेड़े को हवा भी मिल गई कि हम लोग दिल्ली में हैं तो वो चैन से नहीं बैठने वाला।" जगमोहन कह उठा।
“हमें जो भी करना है, खामोशी से करना है कि वानखेड़े को हमारी, दिल्ली में मौजूदगी का पता न चल सके ।”
"इंस्पेक्टर वानखेड़े ने म्हारे को फालतू का तंग करो तो अंम उसो को 'वड' दो।"
"कुछ नहीं कहना है वानखेडे को।" जगमोहन ने गम्भीर स्वर में कहा - "वो हमारा दुश्मन नहीं है। हमारी गैर कानूनी हरकतों का दुश्मन है। उसकी हमारी कोई जाती दुश्मनी नहीं है। वो अपना फर्ज निभा रहा है। वक्त आने पर उससे सिर्फ बचना है।”
"जब वक्त आये तब वानखेड़े को देखो। अब का करो हो।”
“पारसनाथ का रैस्टोरेंट तलाश करना है।" जगमोहन ने गम्भीर स्वर में कहा - "उसके बाद किसी तरह पारसनाथ के जरिये ये जानना है कि मोना चौधरी कहां है। देर-सवेर में देवराज चौहान मोना चौधरी तक पहुंचने की कोशिश करेगा और हमारी नजरों में आ जायेगा।”
“सवाल तो ये पैदा होता है कि देवराज चौहान के नजर आने पर हमने क्या करना है?" सोहनलाल ने सोच भरी निगाहों से जगमोहन को देखा - "देवराज चौहान को रोकना है या उसका साथ देना है।"
“सोहनलाल, बात तो पते की कहेला बाप । "
पलों के लिए वहां चुप्पी छा गई । कुछ
वो एक-दूसरे को सवालिया निगाहों से देखने लगे।
आखिरकार जगमोहन ही गम्भीर स्वर में बोला। “देवराज चौहान को रोकने की कोशिश करना गलत होगा।
वो खामखाह परेशान होगा। एक तरफ मोना चौधरी होगी और दूसरी तरफ हम। कहीं ऐसा न हो कि हमारी हरकतों की वजह से ही उसे जान का नुकसान हो जाये और पेशीराम की कही बात वक्त से पहले ही सच हो जाये।" कहते हुए जगमोहन के चेहरे पर दर्द के भाव झलक उठे थे।
“बात तो परफैक्ट बोलो हो ।”
“हम देवराज चौहान की सहायता करेंगे।" जगमोहन बोला- “लेकिन कुछ और भी सोच रहा हूं मैं।" वो क्या बाप ?”
“देवराज चौहान को मोना चौधरी से झगड़ा होने पर जान का खतरा है।"
“राईट बोला“अगर दोनों आमने-सामने न पड़े तो ये खतरा टल जायेगा ।” जगमोहन बेहद गम्भीर था।”
“ये कैसे हो सकता है कि देवराज चौहान?"
"हम चाहें तो ऐसे हालात पैदा कर सकते हैं।" जगमोहन के स्वर में दृढ़ता आ गई थी।
सबकी निगाह जगमोहन के चेहरे पर जा अटकी।
"हम किसी तरह मोना चौधरी का पता ठिकाना मालूम करके मोना चौधरी को खत्म कर दें तो देवराज चौहान खुद-ब-खुद ही इस झगड़े से दूर हो जायेगा।" जगमोहन ने कहा।
“थारी बात तो बोत ही बढ़िया हौवो।" बांकेलाल राठौर का हाथ मूंछ पर पहुंच गया- "मोना चौधरी को अंम पहले ही 'वड' दयो तो देवराज चौहान खतरो में पड़ो ही ना ही।”
“मोना चौधरी पर हाथ डालना आसान नेई होएला बाप ।” "मोना चौधरी कोई मजाक नहीं है जगमोहन, जो तुमने इतनी बड़ी बाप कह दी । ” सोहनलाल ने कहा ।
“मैं जानता हूं कि मैंने क्या कहा है।" जगमोहन बोला- “मैं ऐसा करने की कोशिश करने को कह रहा हूं। अगर हम इस कोशिश में कामयाब हो गये तो देवराज चौहान को बचा सकते हैं । "
“कोशिश करनो में क्या जावे। शायदो 'वडो' जावे म्हारो हाथों मोना चौधरी ।”
“सबसे पहले तो मोना चौधरी को ढूंढेला बाप ।”
" और उसके लिए पारसनाथ तक पहुंचना होगा। पारसनाथ पर नजर रखनी होगी। शायद वो कभी मोना चौधरी से मिलने जाये या फिर मोना चौधरी उससे मिलने आये।" जगमोहन ने सोच भरे स्वर में कहा- “हमें हर कदम पर सावधानी इस्तेमाल करनी है। जरा सी भी लापरवाही, हमारी सोचों को पूरा नहीं होने देगी।"
“अंम बोत सतर्क हो के आगे बढ़ो हो । तम फिक्रो मत करो ।”
सोहनलाल उठ खड़ा हुआ।
“मैं बाहर जा रहा हूं।"
जगमोहन ने सोहनलाल को देखा।
“पारसनाथ के रैस्टोरैंट के बारे में पता करूंगा।”
“अंम भी ढूंढो हो उसो के रैस्टोरैंट को ?”
“ये काम इस तरह करना है कि पारसनाथ तक खबर न पहुंचे कि हम लोग उसे तलाश कर रहे हैं।" जगमोहन ने तीनों को देखते हुए कहा- “हमने यही कोशिश करनी है कि देवराज चौहान को मोना चौधरी के सामने पड़ने की नौबत ही न आये और हम किसी तरह पहले ही मोना चौधरी को खत्म कर दें।”
“कोशिश करेला | पण ये इतना ईजी नेई होएला।" रुस्तम राव ने गहरी सांस ली।
"अंम 'वडेगा' मोना चौधरी को।" बांकेलाल राठौर का हाथ मूंछ पर जा पहुंचा।
“पारसनाथ के बारे में मालूम हेने पर किसी को अपनी तरफ से कोई हरकत नहीं करनी है।" जगमोहन ने कहा- "वो सीधा वापस यहीं पर आयेगा और हम कुछ योजना बनाकर, एक साथ इस मामले में आगे बढ़ेंगे। हमारे सामने मोना चौधरी है। उसे खत्म करने की सोच रहे हैं। ऐसे में हम चारों को अपनी ताकत एक साथ इकट्ठी करके मोना चौधरी के सामने जाना होगा।”
***
अगले दिन दोपहर को उन्हें पारसनाथ के रेस्टोरेंट के बारे में पता चला।
जब से चारों दिल्ली पहुंचे थे, तब से ही भागदौड़ में लगे हुए थे। रात भी वे ठीक से आराम नहीं कर पाये थे। शाम के चार बजे
चारों होटल के कमरे में इकट्ठे हुए।
“मुझे आशा नहीं थी कि दिल्ली में इतनी जल्दी पारसनाथ के रैस्टोरैंट के बारे में मालूम हो जायेगा।” जगमोहन ने थके स्वर में कहा -"ये अच्छी बात रही कि इस काम में हमारा ज्यादा वक्त खराब नहीं हुआ।"
"मन्ने सोचो कि रैस्टोरैंट के बारो में रेस्टोरेंट वालो ही जानकारी रखो।" बांकेलाल राठौर कह उठा- “अंम इसो लैन पर चल्लो और कर लयो कि- "
“ये वो ई पारसनाथ होएला ।” रुस्तम मालूम राव ने कहा।
“छोरे म्हारे पास तबो कैमरो न हौवो। नेई तो अंम उसो की फोटो खींचो के ला दयो।”
“मतलब कि तुमने वहां जाकर पारसनाथ को देखा है। " सोहनलाल बोला।
“पक्को काम करो के ही सबो के सामनो मुंह फाड़ो हो अंम।” सोहनलाल ने गोली वाली सिग्रेट सुलगाई। जगमोहन को देखा।
“हमें आज से ही काम शुरू कर देना चाहिये ।”
"क्या काम करेला बाप ?”
“मैं या सोहनलाल, पारसनाथ के सामने नहीं जायेंगे। अगर वो हमें अपने रेस्टोरेंट में देखेगा तो शक खायेगा कि हमारे यहां आने के पीछे यकीनन कोई खास वजह है।" जगमोहन ने कहा।
"ठीको बोलो तम।"
"अगर बांके और रुस्तम राव को रेस्टोरेंट में देखेगा तो इन्हें बहुत कम शक की निगाहों से देखेगा।"
"ये बात तो है।" सोहनलाल ने सिर हिलाया।
"मैं और सोहनलाल रेस्टोरेंट में नहीं जायेंगे। बाहर ही रहेंगे। पारसनाथ किसी भी वक्त बाहर निकलता है तो हम उसके पीछे जायेंगे।" जगमोहन बोला- “भीतर बांके और रुस्तम राव जायेंगे ।”
“बातो तो यो पैदा हौवो कि अंम भीतरो जाकर करो का ?"
जगमोहन उन्हें बताने लगा कि आगे का काम क्या और कैसे करना है ।
***
हर रोज की तरह बीतते वक्त के साथ-साथ रेस्टोरेंट की रौनक बढ़ती जा रही थी। बाहर रोशनियों की तेज जगमगाहट थी। भीतर तो ऐसे उजाला था, जैसे सूरज जगमगा रहा हो।
शाम के साढ़े आठ बज चुके थे। बांकेलाल राठौर और रुस्तम राव ने शीशे का दरवाजा धकेलकर लापरवाही भरे ढंग से भीतर प्रवेश किया। सामने ही रैस्टोरैंट का हॉल था। करीब आधी टेबले भरी हुई थीं। रेस्टोरेंट का स्टाफ अपने काम में व्यस्त तेजी से आ-जा रहा था। ऑर्डर लेने और सर्व करने का काम तेजी से हो रहा था। चूंकि यहां का खाना लाजवाब होता था। ऐसे में लंच और डिनर के वक्त तो खास तौर से भीड़ रहती थी। अभी भी वक्त बीतने के साथ भीड़ बढ़नी थी ।
“बाप !” रुस्तम राव धीमे स्वर में बोला- “तगड़ा कमाएला पारसनाथ ।”
“नोटों के गड्डो छापो हो । ”
दोनों आगे बढ़े और एक टेबल संभाल ली।
“छोरे ! आज तो तगड़ो ही खाना खायो । पेट भरो के ।”
“बाप, पहले क्या तू भूखा मरेला ?”
“थारो के यहां का माल खाने का मज्जो ही दूसरा हौवो ।”
तभी ऑर्डर लेने वाला उनके पास पहुंचा और मुस्कराकर बोला।
“गुड ईवनिंग सर ।”
“ईवनिंगो । ईवनिंगो ।” बांकेलाल राठौर का हाथ मूंछ पर पहुंच गया ।
“जी - मैं समझा नहीं सर।" ऑर्डर लेने वाला अचकचाया।
"अभी मन्ने ऑर्डर दयो ही कां जो तम समझो हो। नोटो करो ऑर्डर को। "
"यस सर।"
बांकेलाल राठौर ने लम्बा सा ऑर्डर नोट करा दिया।
“बाप! ज्यादा होएला है।" रुस्तम राव कह उठा ।
“कोई बातो नेई छोरे। आज पेटो को फाड़ो के खायो। तंम जाओ।"
ऑर्डर लेने वाला चला गया ।
"बाप क्यों पैसा वेस्ट करेला है। जो ऑर्डर देएला है, वो छः के वास्ते पूरा होएला ।"
“छोरे ! चुप रहो । बापो के मुंह ज्यादा ना लगो हो ।”
उस वक्त नौ बज रहे थे, जब पारसनाथ ऊपर के हिस्से से नीचे, रैस्टोरैंट में आया ।
आदत के मुताबिक कैश काउंटर के पास टेक लगाकर खड़ा हुआ, और सिग्रेट सुलगाकर रैस्टोरैंट में बैठे लोगों पर और स्टाफ पर नजरें मारने लगा कि सब काम ठीक से हो रहे हैं या नहीं। इस दौरान वो रह-रहकर अपने खुरदरे चेहरे पर हाथ फेरने लगता । हर रोज की तरह काम ठीक से चल रहे थे ।
तभी पारसनाथ की निगाह बांकेलाल राठौर और रुस्तम राव पर पड़ी तो एकाएक वो सीधा खड़ा हो गया। पल भर के लिए पारसनाथ के चेहरे पर अजीब-से भाव उभरे फिर उसका खुरदरा चेहरा सपाट हो गया। उसका हाथ चेहरे पर फिरने लगा। नजरें उन दोनों पर ही थीं।
वो समझ नहीं पा रहा था कि ये दोनों इत्तफाक से यहां आ पहुंचे हैं, या इनके यहां आने के पीछे कोई वजह है। वे पास ही मौजूद कैश काऊंटर पर मौजूद व्यक्ति से बोला ।
“गोपाल!”
“जी सर ।”
“छः नम्बर टेबल पर दो लोग बैठे हैं। कब आये वो ?”
“ज्यादा देर नहीं हुई। अभी उन्होंने खाने का ऑर्डर दिया है।” उसने कहा ।
“इनके बारे में कोई खास बात ?”
" ऐसी तो कोई बात नहीं सर ।"
“जिसने इनसे ऑर्डर लिया है, उसे बुलाओ।”
“जी ।”
करीव चौथे मिनट वो आदमी पारसनाथ के पास था, जिसने बांकेलाल राठौर और रुस्तम राव की टेबल का ऑर्डर लिया था। उसके पास आते ही पारसनाथ ने सपाट स्वर में पूछा।
“छः नम्बर टेबल का ऑर्डर तुमने लिया ?”
“यस सर।"
“वो दोनों कोई पूछताछ कर रहे थे ?”
“कैसी पूछताछ सर ?”
“मेरे बारे में पूछा हो या ऐसा ही कुछ।"
“नहीं सर! उन्होंने ऑर्डर देने के अलावा और कोई बात नहीं की।”
“जाओ। उनके बारे में कोई बात हो तो फौरन मुझे बताना।” पारसनाथ बोला ।
“जी।” वो चला गया ।
***
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