तिजोरी सड़क के किनारे पड़ी थी और वहां से सबसे पहले गुजरने वाला व्यक्ति, जिसकी निगाह तिजोरी पर पड़ी थी वो था चुन्नीलाल ।


चुन्नीलाल पैंतीस बरस का इंसान था और राज मिस्त्री का कार्य करता था। आजकल सुबह पांच बजे मुंबई की झोपड़पट्टी से निकलता और आठ बजे तक खंडाला रोड पर बन रहे मकान पर जा पहुंचता, जहां इन दिनों वो काम कर रहा था।


शादी की नहीं थी। जो कमाता | खा जाता। अपनी जिंदगी से वो न तो खुश था और न ही दुखी। जो जैसा चल रहा था। उसकी निगाहों में सब ठीक था। चूंकि आज बरसात होने की वजह से काम बंद हो गया था। इसलिए साइकिल उठाकर, मुंबई के लिए वापस निकल पड़ा।


गुनगुनाते हुए मस्ती भरे ढंग से साइकिल चलाए जा रहा था कि उसकी निगाह सड़क के किनारे मौजूद तिजोरी पर पड़ी तो तुरंत साइकिल के ब्रेक लगाकर उसे खड़ा किया और झुककर तिजोरी के  पास पहुंचकर उसे भीतर बाहर से देखने लगा। तिजोरी में कुछ कागजों के अलावा कुछ नहीं था। "वा रे भगवान। पहली बार तूने तिजोरी दी। वो भी खाली। कम से कम दो चार नोट ही डाल देता। चार दिन तो घर पर बैठकर आराम से खा लेता।" चुन्नीलाल मुंह बनाकर बड़बड़ाया। लेकिन तिजोरी को हाथ लगा-लगाकर देखता रहा।


चेहरे पर सोच के भाव थे।


कुछ पलों बाद पुनः बड़बड़ा उठा।


"सुना है मरा हाथी सवा लाख का होता है। उस हिसाब से चलें तो यो खाली तिजोरी दो-चार सौ रुपए तो दे ही दियो। किसी कबाड़ी के हाथ बेच दूंगा।"


चुन्नीलाल ने तिजोरी को साथ ले जाने का फैसला किया। लेकिन दिक्कत ये थी कि तिजोरी साइकिल पर नहीं आ सकती थी। वहां नहीं रखी जा रही थी। लेकिन था वो तो मिस्त्री ही। तिगड़म भिड़ाने में माहिर था। इधर उधर भटककर उसने उस जगह से रस्सी तलाशी रस्सी के कुछ टुकड़े ही मिले। जिन्हें बांधकर लंबा किया। रस्सी बढ़िया तो नहीं रही। लेकिन काम चल सकता था। तिजोरी उठाकर उसने साइकिल के कैरियर पर रखी।


जैसे तैसे रस्सी से उसे बांधा।


चुन्नीलाल को विश्वास था कि धीरे-धीरे साइकिल चलाकर, मुंबई के किसी कबाड़ी तक पहुंच ही जाएगा और तब तक बंधी तिजोरी नहीं गिरेगी। वो तिजोरी को साइकिल के कैरियर पर बांधे, पुनः मुंबई की तरफ बढ़ता चला गया।


***


शाम के छः बज रहे चौराहे पर लाल बत्ती हुई तो काले शीशों वाली, शंकर भाई की बुलेट प्रूफ कार भी रुकी। आस-पास और ट्रैफिक भी था। शंकर भाई काले शीशे के बाहर सड़क पर देख रहा था कि ठीक अपनी कार की बगल में उसने चुन्नीलाल की साइकिल देखी, जो कारों के बीच में से रास्ता बनाता धीरे-धीरे निकलने की कोशिश में था। 


साइकिल के कैरियर पर बंधी तिजोरी को देखकर उसकी आंखें सिकुड़ी वो धोखा नहीं खा सकता था। इस तरह की बेशक लाखों तिजोरिया हों। लेकिन ये तिजोरी उसी की थी, जिसकी उसे सख्त जरूरत थी और इसकी तलाश में द्वारका ने अपने बंदे दौड़ा रखे थे। शंकर भाई ने चुन्नीलाल को सिर से पांव तक देखा और समझ  गया कि इसका उसके बंगले पर होने वाली फायरिंग से कोई वास्ता नहीं। मतलब कि इसे कहीं से तिजोरी मिली और ये वहां से तिजोरी को उठाकर चल दिया। तभी ग्रीन लाइट हो गई। ट्रेफिक आगे बढ़ने लगा। चौराहा पार होते ही शंकर भाई ने ड्राइवर से कहा। "कार को सड़क के किनारे लगा दो। "


"जी" ड्राइवर ने कहा और अगले ही पल कार सड़क के किनारे लगा दी।


"पीछे वाली कार में जो अपनी सिक्योरिटी है, उन्हें बोलो भीतर ही बैठे रहें। बाहर निकलने की तब तक जरूरत नहीं। जब तक कि वो जरूरत न समझें। "


ड्राइवर बाहर निकला और पीछे रुकी कार वालों को ये कहकर आ गया।


"पीछे एक साइकिल आ रही है। साइकिल वाले ने साइकिल के. पीछे तिजोरी बांध रखी है। वो कार के पास से ही निकलेगा। उसे रोको। तुम उसकी साइकिल का ध्यान रखना और उसे कार के भीतर मेरे पास भेज देना।" शंकर भाई ने शांत स्वर में कहा।


ड्राइवर अपने काम पर लग गया।


शंकर भाई काले शीशे के पीछे से बाहर आते-जाते लोगों और ट्रैफिक को देखने लगा। फिर उसने ड्राइवर को देखा, जो चुन्नीलाल को रोक रहा था। वो रुका। बाईं तरफ कार से वो सिर्फ तीन कदमों की दूरी पर था।


मिनट भर ड्राइवर और चुन्नीलाल की बात हुई फिर उसने देखा चुन्नीलाल अपनी साइकिल ड्राइवर के हवाले करके कार की तरफ बढ़ा।


शंकर भाई ने कार का दरवाजा खोला।


चुन्नीलाल ठिठका। शंकर भाई से उसकी निगाहें मिलीं 


"कहिए साहब। हमसे कोई काम है?" चुन्नीलाल ने पूछा। 


“भीतर आ जाओ।" शंकर भाई ने कहा। 


चुन्नीलाल के चेहरे पर हिचकिचाहट के भाव उभरे। 


"आ जाओ।"


"साब जी। मेरे कपड़े गंदे हैं। आप कार खराब।" 


"आ जाओ। " शंकर भाई मुस्कराया। 


हिचकता हिचकता चुन्नीलाल कार में शंकर भाई की बगल में आ बैठा ।


"क्या नाम है तुम्हारा ? " शंकर भाई ने पूछा।


"चुन्नीलाल। राज मिस्त्री हूं। " सिमटा-सिकुड़ा सा बैठा चुन्नीलाल कह उठा। कार में वो पहली बार बैठा था और बैठना उसे बहुत अच्छा लग रहा था।


"तुमने साइकिल पर तिजोरी बांध रखी है। वो तुम्हें कहां से मिली?"


"वो—।" चुन्नीलाल ने कार के बाहर, साइकिल की तरफ नजर मारी—"वो तो खंडाला रोड पर से दो घंटा पहले, काम से लौट रहा था तो सड़क के किनारे पड़े देखा। खाली थी। मैं साथ ले आया कि कबाड़ी को बेचकर दो-चार रुपए बना लूंगा।"


शंकर भाई को वो पूरी तरह सच बोलता लगा। उसने पांच सौ का नोट निकालकर चुन्नीलाल को थमाया और बोला।


“समझो तुम्हारी तिजोरी कबाड़ी ने खरीद ली। अब तिजोरी को कार की डिग्गी में रखवाओ। मेरा ड्राइवर तुम्हारी साइकिल के पास खड़ा है। उसके साथ मिलकर तिजोरी डिग्गी में रखना।"


चुन्नीलाल ने नोट फौरन जेब में डाला और बाहर निकला।


दो मिनट में ही तिजोरी कार की डिग्गी में पहुंच गई। ड्राइवर आया। 


“पीछे वालों से कहो कि किसी बढ़िया फोटोग्राफर को लेकर बंगले पर पहुंचे। हम वहीं चल रहे हैं। " शंकर भाई ने कहा और सिगरेट सुलगा ली।


ड्राइवर पीछे खड़ी कार की तरफ बढ़ गया।


***


ऐसे फोटोग्राफर को बुलाया गया जो अपने काम में एक्सपर्ट था। तिजोरी को टेबल पर ही रखा था। पास में द्वारका खड़ा था। 


शंकर भाई ने खुली तिजोरी के ठीक बीचोबीच, पीछे को बने नजर आ रहे डिजाइन की तरफ इशारा करते हुए कहा। कैमरे का लेंस है। कैमरा छोटा


“वो डिजाइन के बीचोबीच स्टिल कैमरे का लेंस सा है। विदेशी है। छिपा कर तिजोरी में लगा रखा है। जब भी तिजोरी खुलती है तो वो कैमरा शुरू हो जाता है। अगले पांच मिनटों तक तस्वीरें लेता रहता है। मैं जब भी तिजोरी खोलता हूं तो कैमरा मेरी तस्वीरें ले लेता है। इसलिए मुझे हर बार कैमरे की फिल्म बदलनी पड़ती है। समझा क्या?"


फोटोग्राफर ने फौरन सिर हिलाया।


द्वारका भी हैरानी से शंकर भाई की बात सुन रहा था। 


"इस बार किसी और ने तिजोरी खोली है। उसको में नहीं जानता लेकिन कैमरा उसकी तस्वीरें ले चुका है। तेरे को मैं फिल्म निकालकर देता हूं। फिल्म के प्रिंट एकदम बढ़िया ढंग से तैयार करके देना। एक भी प्रिंट खराब नहीं होना चाहिए। समझा क्या ?"


फोटोग्राफर ने पुनः सहमति में सिर हिला दिया।


शंकर भाई ने तिजोरी में हाथ डालकर गुप्त जगह लगा बटन दबाया तो सामने नजर आ रहे डिजाइन वाला हिस्सा अपनी जगह से हटा और पीछे कैमरा नजर आया। शंकर भाई ने माचिस के आकार का छोटा सा कैमरा हाथ बढ़ाकर लिया और उसमें से टॉफी के साइज की काली सी, प्लास्टिक के खोल में बंद फिल्म निकाली और फोटोग्राफर को थमा दी।


“बता। " शंकर भाई ने उसे घूरा- "क्या करेगा तू अब इसका ?"


"मैं इस 'रील' को धोकर, इसमें मौजूद तस्वीरों के प्रिंट बनाऊंगा।" फोटोग्राफर ने कहा। 


"बढ़िया ढंग से बनाना।"


"जी हां। "


"कहां बनाएगा?"


'अपने स्टूडियो में। यहां तो सामान...।" 


"द्वारका।"


"दो आदमी इसके साथ कर दे। वो प्रिंट लेकर आ जाएंगे। काम जल्दी और बढ़िया करना। "


"जी"


द्वारका फोटोग्राफर को लेकर बाहर निकल गया।


तीसरे मिनट द्वारका लौटा।


"तिजोरी में तो आपने कैमरे वाला बहुत बढ़िया सिस्टम कर रखा है। " द्वारका ने कहा।


"करना पड़ता है। आस्तीन में छिपे सांप इसी तरह ढूंढे जाते हैं।" शंकर भाई ने कहर भरे स्वर में कहा— "लेकिन इस बार तो सांप कोई बाहर का ही था। देखते हैं। कौन है वो ?" 


“शंकर भाई। एक नर्सिंग होम का पता चला है, जहां पाली ने इलाज करवाया था।" द्वारका बोला। 


"पाली?"


"वही, जिसका पर्स मिला था और-।" 


"ओह हां। क्या हुआ था उसे?"


"मैंने तस्वीर दिखाकर बात की थी। डॉक्टर से। वो पाली ही था। उसका कंधा बुरी तरह जख्मी था। बीच में गोली फंसी हुई थी। तब पाली का इलाज उसने ही किया। उसके साथ कोई और भी था जो पाली को अपने साथ ले गया। जबकि उस वक्त पाली का हिलना भी नुकसानदेह था। "


"साथ में कौन था ?


"उसे डॉक्टर नहीं जानता। उसने हुलिया भी बताया। लेकिन ऐसे आदमी को मैंने पहले कभी नहीं देखा। शंकर भाई के चेहरे पर कठोरता उभरी।


"तस्वीरें सामने आते ही सब चेहरे सामने आ जाएंगे। सब मालूम हो जाएगा कि तिजोरी किसने खोली। उसके बाद वे सब बुरी मौत मरेंगे। कोई भी बचने वाला नहीं।"


"आपने ठीक कहा शंकर भाई।" द्वारका ने फौरन सिर हिला दिया।


शंकर भाई के चेहरे पर अजीब से भाव फैले हुए थे। उन भावों में अविश्वास और हैरानी भरी पड़ी थी। द्वारका के चेहरे पर भी उलझन नजर आ रही थी।


वह तीस पैंतीस तस्वीरें थीं। जो टेबल पर बिखरी पड़ी थी। हर तस्वीर स्पष्ट थी। दो मिनट इसी तरह खामोशी में बीत गए। वो तस्वीरें, देवराज चौहान, जगमोहन, सोहनलाल, रुस्तम राव, बांकेलाल राठौर और कर्मपाल सिंह की थी। शंकर भाई ने अपने चेहरे पर बिखरे भावों पर काबू पाने की चेष्टा करते हुए सिगरेट सुलगाई और कश लिया। तभी द्वारका ने तस्वीरों से निगाह हटाकर शंकर भाई को देखा।


“शंकर भाई। ये... ये तो अपना देवराज चौहान है। जिसने।"


शंकर भाई ने तीखी निगाहों से द्वारका को देखा।


"हमारे धंधे में अपना कोई नहीं होता।" शंकर भाई एक-एक शब्द चबाकर कह उठा--देखा।


"न तू मेरा, न मैं तेरा सब अपने मतलब दूसरे के साथ जुड़े हैं लेकिन...।"


“क्या लेकिन?" द्वारका ने उसे देखा।


"लेकिन मुझे विश्वास नहीं होता कि...कि देवराज चौहान मेरी बगल में हाथ डालेगा। तेरे को लगता है। 


द्वारका ने अजीब से ढंग से सिर हिलाया।


“कह नहीं सकता। लगता तो नहीं है। लेकिन तस्वीरें सामने हैं।" द्वारका की निगाह टेबल पर पड़ी तस्वीरों पर गई "इन्हें देखकर आंखें बंद नहीं की जा सकतीं। "


शंकर भाई कश लेता कमरे में टहलने लगा।


"अगर ये काम देवराज चौहान ने किया है तो वो मेरे हाथों से मरेगा। " शंकर भाई दरिंदा नजर आने लगा।


द्वारका के माथे पर भी बल स्पष्ट नजर आ रहे थे।


"सुन तू एक काम कर " शंकर भाई ने ठिठककर द्वारका को देखा- "एक एक तस्वीर सबकी साथ ले जा खुद जा। उसी डॉक्टर के पास जिसने उस आदमी के कंधे से गोली निकाली थी। डॉक्टर को तस्वीरें दिखाकर पूछ कि उस घायल के साथ इनमें से कौन था। सीधा जा और पलटकर वापस आ मैं तेरे इंतजार में खड़ा हूं।


द्वारका सीधा गया और सीधा ही आया। एक घंटा लग गया। "शंकर भाई।" द्वारका ने भीतर प्रवेश करते हुए कहा—"डॉक्टर भरोसे के साथ बोलता है कि उस घायल के साथ जो था, उसकी तस्वीर, इन तस्वीरों में नहीं है। " "ये कैसे हो सकता है। " शंकर भाई के होंठ पिंच गए।


आगे बढ़कर द्वारका ने तस्वीरे टेबल पर रख दीं।


उनके बीच खामोशी रही।


"द्वारका"


"हां, शंकर भाई। "


"चूहे-बिल्ली वाला खेल न खेलकर, देवराज चौहान से सीधी बात करनी पड़ेगी। नंबर होगा तेरे पास ?"


"हां। एक बार देवराज चौहान ने दिया था। अभी आया।" द्वारका बाहर निकल गया।


पांच मिनट बाद वापस आया। नंबर मुंह में बड़बड़ा रहा था। 


"नंबर लगाऊं शंकर भाई?" द्वारका बोला। 


"लगा। " शंकर भाई का स्वर सख्त था।


***