इमरान ने रस्सी का दूसरा सिरा ऊपरी मंज़िल के एक खम्भे के पास लपेट कर गाँठ लगा दी थी। इमारत में उन लोगों के अलावा और कोई नहीं था....और उसने यह हरकत सिर्फ़ इसलिए की थी कि वह उन्हें इस चक्कर में फँसा कर ख़ूब आसानी से उनके बाहर निकलने के सारे रास्ते बन्द कर दे।
और हक़ीक़त में हुआ भी यही। वे सब मोरीना को फन्दे से छुटकारा दिलाने की कोशिश में लग गये और इमरान ने नीचे उतर कर उस कमरे के दरवाज़ों को बाहर से बन्द करना शुरू कर दिया। अन्दर वालों को इसकी ख़बर भी न हो सकी। अब ऐसी सूरत में इमरान उनसे अकेला भी निपट सकता था, लेकिन उसने इस क़िस्म की कोई हरकत नहीं की....अगर वह अब भी डिपार्टमेंट आफ़ इन्वेस्टिगेशन से बाक़ायदा तौर पर जुड़ा होता तो शायद कुछ-न-कुछ कर भी चुका होता, अब तो उसे बहरहाल, कैप्टन फ़ैयाज़ के आने का इन्तज़ार करना था।
‘‘ओ गधे....आर्टामोनॉफ़!’’ मोरीना चीख़ी! ‘‘रस्सी को काटता क्यों नहीं।’’
‘‘ओ....हाँ....ठीक!’’ आर्टामोनॉफ़ इस तरह उछल पड़ा जैसे अभी तक सोता रहा हो। दूसरे पल में वह एक कुर्सी पर खड़ा हो कर रस्सी काट रहा था।
इरशाद के हाथ से निकला हुआ रिवॉल्वर अब भी ज़मीन पर पड़ा हुआ था। वह खिसकता हुआ उस तक पहुँच गया।
अभी रस्सी नहीं कटी थी कि एक फ़ायर हुआ....और आर्टामोनॉफ़ कुर्सी से उछल कर नीचे ज़मीन पर आ गिरा....झटका जो लगा तो आधी कटी हुई रस्सी टूट गई और इस चीज़ ने मोरीना की जान बचा ली, वरना दूसरी गोली उसके सीने में घुस जाती....वह भी आर्टामोनॉफ़ ही के क़रीब गिरी....लेकिन आर्टामोनॉफ़ फिर नहीं उठ सका। वह दम तोड़ रहा था, क्योंकि गोली उसके माथे में लगी थी।
इरशाद का ठहाका बड़ा ख़ौफ़नाक था। लेकिन उसने तीसरा फ़ायर नहीं किया।
उसके हाथ में रिवॉल्वर देख कर किसी की हिम्मत न पड़ी कि वह आगे बढ़ता। इरशाद दरवाज़े के क़रीब दीवार से टेक लगाये बैठा था उसकी आँखें लाल थीं और देखने का अन्दाज़ ऐसा था जैसे उसे कुछ दिखाई न दे रहा हो।
कटी हुई रस्सी का फन्दा अब भी मोरीना की गर्दन में था....और शायद अब उसे इसका एहसास ही नहीं रह गया था उसकी आँखों में इस वक़्त बड़ी ख़ौफ़नाक क़िस्म की चमक दिख रही थी....
‘‘कुतिया सुनो!’’ अचानक इरशाद गुर्राया। ‘‘यहाँ इस मुल्क में तुम्हारे घटिया इरादे कभी पूरे नहीं हो सकेंगे। यहाँ की फ़िज़ा में ऐसे लोग ज़िन्दा ही नहीं रह सकते जो ख़ुदा के वजूद से ख़ाली हों और अब तुम भी जाओ....’’
इरशाद ने जवाब दिया, लेकिन मोरीना इससे पहले ही ज़मीन पर गिर चुकी थी। उसकी चीख़ ने इरशाद को धोखे में डाल दिया। वह नहीं देख सका कि वह ज़मीन पर गिर कर मुर्दा आर्टामोनॉफ़ की जेबें टटोल रही है।
‘‘और तुम सब!’’ इरशाद ने मोरीना के दूसरे साथियों से कहा। ‘‘अपने हाथ ऊपर उठाये रखो। यह न समझना कि इस रिवॉल्वर में अब सिर्फ़ दो ही गोलियाँ रह गयीं हैं। मेरी जेब में अभी एक और रिवॉल्वर है....यह देखो,’’ उसने दूसरा रिवॉल्वर जेब से निकाल कर उन्हें दिखाया।
मोरीना ने मुर्दा आर्टामोनॉफ़ की जेब से एक अजीब-सी चीज़ निकाली थी उसने लेटे-ही-लेटे उसका रुख़ इरशाद की तरफ़ कर दिया।
इमरान सारे दरवाज़ों की मज़बूती के बारे में इत्मीनान करने के बाद मेन गेट की तरफ़ चल पड़ा। वह बहुत बेसब्री से कैप्टन फ़ैयाज़ का इन्तज़ार कर रहा था।
वह अभी मेन गेट तक पहुँचा भी न था कि उसने फ़ायरों की आवाज़ें सुनीं जो अन्दर के किसी हिस्से से आती मालूम होती थीं।
वह उलटे पैरों वापस हुआ....कुछ दूर यूँ ही चलता रहा फिर दौड़ने लगा। अब उसे अपनी ग़लती का एहसास हुआ था उसे पहले ही उन दोनों देसियों का इन्तज़ाम कर लेना चाहिए था। इस बार के दोनों फ़ायरों का यही मतलब हो सकता है कि वे दोनों ख़त्म कर दिये गये। फिर जैसे ही वह उस कमरे के दरवाज़े तक पहुँचा उसने तीसरे फ़ायर की आवाज़ सुनी और साथ ही मोरीना की चीख़ भी सुनाई दी।
दूसरे ही पल में उसकी आँख दरवाज़े की झुर्री से जा लगी।
सामने सात-आठ आदमी अपने हाथ ऊपर उठाये खड़े थे....आर्टामोनॉफ़ की लाश भी दिखाई दी जिसके सिर के पास बहुत-सा ख़ून ज़मीन पर फैला हुआ था....और उसने मोरीना को उसकी जेब से कोई चीज़ निकालते देखा। इरशाद उसे नहीं दिखाई दिया, क्योंकि वह उसी दरवाज़े के क़रीब दीवार से मिला हुआ बैठा था। बेहोश देसी अब भी कुर्सी में जकड़ा हुआ था। इमरान ने अन्दाज़ा कर लिया कि दूसरा देसी यक़ीनन ज़िन्दा है और उसी ने सामने वाले आदमियों के हाथ उठवा रखे हैं।
लेकिन मोरीना की हरकत उसकी समझ में न आ सकी। यह बात तो पहले ही उस पर साफ़ हो गई थी कि फ़ायर मोरीना पर किया गया था, क्योंकि चीख़ उसी की थी और उसके अलावा और कोई दूसरी औरत कमरे में नहीं थी....
वह समझा था कि शायद मोरीना मुर्दा आर्टामोनॉफ़ की जेब से रिवॉल्वर निकाल रही थी और बेख़बरी में उस आदमी पर फ़ायर कर देगी जिसने उसके साथियों के हाथ उठवा रखे हैं।
लेकिन उसकी उम्मीद के ख़िलाफ़, मोरीना ने उसकी जेब से काले रंग का एक चपटा-सा डिब्बा निकाला। जिसकी लम्बाई छै इंच से ज़्यादा न रही होगी और चौड़ाई ज़्यादा-से-ज़्यादा तीन चार इंच। फिर उसने उसका एक सिरा दरवाज़े की तरफ़ घुमाते देखा।
अचानक एक ख़याल बिजली की-सी तेज़ी के साथ उसके ज़ेहन में आया और वे अचानक चीख़ने लगा। ‘‘रूशी....रूशी डार्लिंग....तुम कहाँ हो....ये आर्टामोनॉफ़ कुत्ता तुम्हें कहाँ ले गया।’’
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