दिव्या ने अपना कोट उतारकर सोफे पर फैंक दिया ।
अब उसके जिस्म पर गुलाबी रंग का बगैर बाजू वाला नाइट गाऊन था । नेट के कपड़े से बना । बेहद झीना ! उसी रंग की ब्रा और पेन्टी साफ नजर आ रही थी।
वह बॉल्कनी की तरफ बढ़ी |
राजदान रेलिंग के नजदीक खड़ा किचन लॉन की रंगीनियों को देख रहा था । अंगुलियों के बीच 'सिगार' सुलग रहा था । दिव्या उसके पीछे पहुंची । बेहद नजदीक। पीछे ही से राजदान को बांहों में भर लिया उसने।
राजदान की तंद्रा भंग हुई।
खुद को दिव्या की बांहों में रखे पलटा ।
दिव्या ने बहुत प्यार के साथ उसकी अंगुलियों से सिगार खींचा, उसे बॉल्कनी से नीचे फेंकती हुई बोली- “क्या सोच रहे हो ?”
“जो मैंने किया, क्या ठीक किया ?”
“बिल्कुल ठीक किया । देवांश को उस चुड़ैल के चंगुल से निकालने का इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं था । "
“ क्या वह सचमुच विचित्रा से दूर हो जायेगा ?”
“अब भी शक है आपको?”
“बहुत बड़ी जादूगरनी है वो |”
"सबसे बड़ा जादू तो यही है उसके पास, अपने शिकार को इस भ्रम में रखना कि वह उसकी और सिर्फ उसकी है। देवांश भी इसी भ्रम का शिकार था । वह आपने तोड़ दिया । अब भला किस जादू में फंसा रहेगा देवांश ? मगर...
“मगर?”
“ मेरे हिसाब से आपने फोटो दिखाकर ठीक नहीं किया। छोटे भाई के सामने यूं एक बड़े भाई का 'नग्न' होना अच्छा नहीं लगा मुझे । ”
"वह उन्हें देखे बगैर हमें सच नहीं मान सकता था दिव्या । अपनी इमेज की कोई परवाह नहीं है मुझे। बस वो नालायक उसके कब्जे से निकल आये ।”
“समझो निकल चुका । अब यह फितूर आप भी अपने दिमाग से निकाल दें। मैं सामने हूं। इसके बावजूद आपका ध्यान विचित्रा में रहे तो क्या मुझे दुख नहीं होगा ?
“पगली!” राजदान ने उसे बाहों में भींचकर खुद से सटा लिया- “ऐसा भी सोच सकती हो तुम मेरे बारे में?”
"सोचने की क्या बात है?” दिव्या की आंखें चंचल हो उठीं ---- “यहां खड़े देवांश और विचित्रा के बारे में नहीं तो किसके बारे में सोच रहे थे।”
“वो सोच किसी और सेंस में थी, तुम बात किसी और सेंस में कर रही हो ।”
दिव्या ने उसे आंख के कोने से देखा --- “किस सेंस में कर रही हूं?”
“बताता हूं अभी।” कहने के साथ जोश में भरकर राजदान ने उसे गोद में उठा लिया ।
“अरे! अरे! क्या करते हो ?” दिव्या खिलखिलाई।
वह उसे लिए बैडरूम की तरफ बढ़ा ।
राजदान के गले में बाहें डाले दिव्या ने अपना चेहरा शरमाकर उसके सीने में छुपा लिया ।
राजदान बैडरूम में पहुंचा । आहिस्ता से बैड पर लिटाया उसे । उसी पल-- दिव्या ने अपनी कलाइयों को जोर से
झटका दिया। राजदान उसके ऊपर गिर पड़ा और फिर... एक-दूसरे से गुंथे वे बैड पर पलटियां खाते चले गये ।
जाने कब दिव्या का गाऊन उसके जिस्म से अलग हो गया।
अब उसके बदन पर केवल ब्रा और पेन्टी थी ।
मौका लगते ही दिव्या राजदान की पकड़ से निकली और खिलखिलाती हुई एक तरफ को भागती चली गई। हंसता हुआ राजदान उसके पीछे था ।
दिव्या ने उसे सोफा सेट के कई चक्कर कटवा दिए ।
मगर अन्ततः राजदान ने झपटकर उसे पकड़ ही लिया ।
उसकी बाहों में कैद बुरी तरह हांफती दिव्या ने कहा ---- “मजा आया बच्चू ?”
“मजा तो अब आयेगा।" कहते वक्त राजदान की अंगुलियां उसकी पीठ पर मौजूद ब्रा के हुक पर थीं ।
उसका इरादा भांपते ही अपनी कमर को तेजी से दायें- बायें हिलाती दिव्या ने कहा ---- “ऐं-ऐं- ऐं क्या कर रहे हो ये? छोड़ो मुझे । "
राजदान के हाथ अपना काम कर चुके थे।
मगर !
दिव्या ने अपने 'यौवन शिखरों' पर हाथ की कैंची बनाकर पीछे हटना चाहा मगर अब राज़दान के सामने एक न चल सकी उसकी । एक ही झटके में झपटकर उसने बायें उरोज का निप्पल अपने मुंह में भर लिया ।
***
“नहीं! नहीं!” देवांश एक चीख के साथ हड़बड़ा उठा ।
वह अपने कमरे में था ।
सोफे पर !
चेहरे पर पसीना ही पसीना ।
आंखें फटी पड़ी थीं उसकी ।
'हे भगवान ---- ये क्या देख रहा था मैं ? '
क्या राजदान के बैडरूम में यही सब हो रहा है?
ऐसा हो गया तो अनर्थ हो जायेगा ।
लेकिन, ऐसा कैसे हो सकता है ?
मैं तो कहकर आया था दिव्या से !
देवांश की आंखों के सामने उस वक्त का दृश्य उभरा ।
फोटो फेंकने के बाद जब राजदान बॉल्कनी की तरफ चला गया था तो कुछ देर वह और दिव्या हकबकाये से अपने स्थान पर खड़े रहे थे। फिर उसने बहुत ही धीमी आवाज में
दिव्या से कहा था, “भाभी, मुझे तुमसे एकान्त में बात करन है। "
“क्या इसी बारे में?” फुसफुसाकर दिव्या ने कालीन पर पड़े फोटुओं की तरफ इशारा किया था।
“हां !... क्या तुम मेरे कमरे में आ सकती हो ?”
“अभी चलूं?”
“भ - भैया को नहीं पता लगना चाहिए ।”
“ओ.के.।”
“जल्दी आना! ऐसा न हो तुम भैया के साथ बिस्तर पर...
“क्या वे तुम्हें इस मूड में लगते हैं?”
और सच था ---- जिस मूड में राजदान पहुंच चुका था, देवांश समझ सकता था उस मूड में आदमी पत्नी के साथ हमबिस्तर नहीं हो सकता । हालात खुद-ब-खुद उसके पक्ष में बन गये थे। वैसे भी - - - - एक तरह से वह दिव्या से साफ-साफ शब्दों में कह आया था कि वह उसके पास पति के साथ हमबिस्तर होने से पहले आये ।
कह तो आया मगर दिव्या से बात क्या करेगा वह? यह तो कह नहीं सकता ---- तुम्हारे निप्पल्स पर जहर लगा है, भैया के साथ मत सोना ? फिर क्या कहेगा?... मकसद सिर्फ उसे आज की रात राजदान से दूर रखना है। कुछ भी बात करेगा वह । कुछ भी । इतनी लम्बी कि सारी रात निकल जाये ।
बातों का जाल बुनते-बुनते काफी देर हो गयी उसे।
दिव्या नहीं आई।
उसने रिस्टवॉच पर नजर डाली ।
डेढ़ बज रहा था |
बेचैनी बढ़ने लगी। भूल तो नहीं गई दिव्या ? भूल कैसे सकती है। राजदान ने ही अटका लिया होगा। मूड के मुताबिक उसे भी तो जरूरत थी दिव्या के सहारे की । शारीरिक नहीं, मानसिक तो थी ही । पति-पत्नी के बीच की मानसिक जरूरत कब उन्हें शारीरिक रूप से एकाकार कर दे, इसका भी तो नहीं पता। चिंगारी और फूस जैसा रिश्ता है ये । जाने कब आग लग जाये?
उपरोक्त विचारों ने देवांश को बेचैन कर दिया था और यही सब सोचते-सोचते जाने कब आंख लग गयी उसकी। वह उस वक्त भी सोफे पर था और चौंककर उठने से पहले भी सोफे पर ही था। काफी देर बाद दिमाग ने काम करना शुरू किया । जो वह देख रहा था वह केवल स्वप्न था । यह सोचकर उसे राहत मिली।
मगर 'चोर' को राहत भी मिलती है तो कितनी देर ?
अगले पल से वह फिर बेचैन होने लगा---- 'इतनी देर दिव्या को आखिर लग क्यों रही है? कहीं वही सब तो शुरू नहीं हो गया वहां जो वह 'देख' रहा था? क्या भरोसा? जब पत्नी के सामने लक्ष्य पति को टेंशन से बाहर निकालने का हो तो उसके पास प्यार की मीठी-मीठी बातों और शरीर के अलावा होता ही क्या है ? बैडरूम की मीठी बातें अक्सर बिस्तर तक पहुंच जाती हैं।'
ऐसा ही तो नहीं हुआ कहीं?
कहीं यही तो नहीं सोचा दिव्या ने कि पहले राजदान को 'तृप्त करके सुला दे, तब देवांश से मिलने चली जायेगी ।
यह सोचते-सोचते आतंक ने उसके दिमाग को बुरी तरह जकड़ लिया ---- 'ऐसा हो गया तो गजब हो जायेगा ।' अब उसकी जागती आंखों के समक्ष दिव्या के उरोज चुसकता राजदान चकराने लगा। बेचैनी इतनी बढ़ गई कि वह दरवाजे की तरफ लपका।
उसी क्षण दरवाजा बहुत आहिस्ता से खुला।
दिव्या बिल्ली की मानिन्द दबे पांव कमरे में आई।
देवांश ने कुछ कहने के लिए मुंह खोला मगर बोल न सका। दिव्या अपने होठों पर अंगुली रखे उसे चुप रहने का इशारा कर रही थी ।
मारे सस्पैंस के देवांश का दिल धक्क-धक्क करने लगा ।
दिव्या की तरफ ध्यान से देखा । देवांश उसकी अवस्था से पता लगा लेना चाहता था कि राजदान के साथ 'सोकर' आई अथवा नहीं मगर, नजर कहीं और ही अटककर रह गयी ।
नजर अटकी थी, दिव्या के लिबास पर।
वह वही, गुलाबी रंग का झीना नाइट गाऊन पहने हुए थी।
कोट नहीं था उसके ऊपर।
पेन्टी और उसके उफनते उरोजों को अपनी कटोरियों में भींचे ब्रा साफ नजर आ रही थी। बहुत ही पुष्ट, बहुत ही गठा हुआ जिस्म पाया था दिव्या ने | उसके गुलाबी लिबास से मैच करते उरोजों का ऊपरी हिस्सा ब्रा की कटोरियों से छलका पड़ा रहा था ।
सबकुछ भूल गया देवांश !
सबकुछ।
एक बार फिर हालत वैसी हो गयी जैसी बाथरूम में थी ।
आंखें दिव्या के गदराये जिस्म से हटने को तैयार नहीं थीं ।
वह उसके नजदीक आई । बेहद नजदीक । फुसफुसाकर। बोली ---- “बहुत मुश्किल से सुलाकर आई हूं।”
देवांश की तंद्रा टूटी । सबसे पहले उसने वही सवाल किया जिससे सारी शंकाएं दूर होने वाली थीं - ---"कैसे सोये वे?"
"बहुत डिस्टर्ब थे । दूध के साथ नींद की गोली दी । तब भी काफी देर तक नहीं सोये । इधर ये बेचैनी थी मुझे कि तुम इंतजार कर रहे होगे । बड़ी मुश्किल से...
मारे खुशी के झूमता-सा कह उठा देवांश ---- “सो तो गये न नींद की गोली ...
“शी...शी... शी ।” वह पुनः होठों पर अंगुली रखकर चुप रहने का इशारा करने के बाद फुसफुसाई ---- “जोर से मत बोलो, अभी नींद कच्ची है ।”
देवांश पुनः कुछ कहने ही वाला था कि दिव्या उसके नजदीक से हटी। घूमी और वापस दरवाजे की तरफ बढ़ गई। अब देवांश का दिमाग पूरी तरफ तनावमुक्त हो चुका था, शायद इसलिए उसने दरवाजे की तरफ बढ़ती दिव्या के गोल नितम्ब की थिरकन का भरपूर लुत्फ उठाया । गाऊन इतना झीना था जैसे था ही नहीं और पेन्टी भी वह थी जो नितम्बों को बिल्कुल नहीं ढकती, केवल एक कत्तर सी होती है जो नितम्बों के बीच से गुजर जाती है। उसके कारण ---- देवांश ने गुलाबी और गोल नितम्बों की थरथराहट का भरपूर आनन्द लिया। उधर, दिव्या दरवाजे के नजदीक पहुंची । एक बार कारीडोर में झांका |
संतुष्ट होने के बाद दरवाजा बहुत आहिस्ता से भिड़ाया।
फिर वह उसकी चटकनी लगाने की कोशिश करने लगी ।
चटकनी उसके ऊपर उठे हाथ से थोड़ा और ऊपर थी ।
वह अपने पंजों पर उचककर उसे बंद करने की कोशिश कर रही थी ।
देवांश रोमांचित हो रहा था । होता भी क्यों नहीं, दिव्या के शरीर का नजारा करने का उसे और... और मौका मिल रहा था । वह तो चाहता था - - - - दिव्या से चटकनी जीवन भर बंद न हो । मगर वह अपने प्रयास में कामयाब हो गयी ।
चटकनी लगाने के बाद उसकी तरफ घूमी।
देवांश ने तेजी से अपने चेहरे पर मौजूद भावों में तब्दीली लाने की कोशिश की ताकि दिव्या भांप न सके वह उसे किन नजरों से देख रहा था ।
दिव्या उसकी तरफ देखकर मुस्कराई ।
जवाब में वह भी मुस्कराया ।
मगर अगले पल वह दंग रह गया ! हैरान!
दिव्या बहुत तेजी से दौड़कर आई थी----और उससे लिपट गई।
***
थरथर कांप रहा था देवांश ।
बौखलाहट पीछा नहीं छोड़ रही थी। दिमाग काले शून्य में कैद होकर रह गया था और सोचें स्पेस में भटक रही थीं 1 पलक झपकते ही, पसीने से इस कदर लथपथ हो गया वह जैसे स्टीम चेम्बर में खड़ा हो । धौंकनी यूं चल रही थी मानो मीलों दौड़कर आया हो । होश फाख्ता थे उसके ।
उसे बांहों में जकड़े दिव्या ने अपना चेहरा उसके सीने में छुपा रखा था और उसे यकीन नहीं आ रहा था कि ऐसा हो चुका है ।
कैसे... कैसे यकीन करता वह कि दिव्या..
वह दिव्या उससे आ लिपटी है..
जो उसके बड़े भाई की सम्पत्ति थी ।
वह दिव्या, जिसे वह यह भी पता नहीं लगने देना चाहता था कि उसे ललचाई नजरों से देख रहा था, जब वृक्ष से टूटे आम की तरह उसकी गोद में आ गिरी थी, तब भी उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि उससे लिपटी हस्ती वही है ।
सबकुछ स्वप्न-सा लग रहा था उसे ।
मगर कब तक.... कब तक विश्वास न करता ?
जो हकीकत थी, सो हकीकत थी ।
कंठ में सूखा पड़ चुका था । बड़ी मुश्किल से कह सका वह ----“भ - भाभी।”
“भाभी नहीं देव । दिव्या कहो । सिर्फ दिव्या ।”
“भ-भाभी! ह-हो क्या गया है तुम्हें ? प - प्लीज | हटो न।” कहने के साथ डरे देवांश ने उसके कंधे पकड़कर अपने से अलग करने की कोशिश की ।
दिव्या ने चेहरा उठाकर उसकी तरफ देखा। जैसे जानने की कोशिश कर रही हो वह ऐसा क्यों कर रहा है। बोली ----“अब इस नाटक का क्या फायदा देव?”
“न-नाटक! म-मतलब?"
“तुम ऐसा नहीं चाहते थे तो क्या कर रहे थे मेरे ड्रेसिंग रूम में?”
कैसे बताता... कैसे बताता वह क्या कर रहा था ?
दिव्या कहती चली गयी ---- “ औरत पलक झपकते ही बता सकती है कि कौन मर्द उसे किन नजरों से देख रहा है ? उस वक्त से मैं हर पल तुम्हारी नजरों में अपने लिए चाहत देख रही हूं जब से झरने से नहाकर लॉबी में आई थी। अगर तुम यह समझते हो कि उसी वक्त मैं तुममें आये परिवर्तन को नहीं समझ गयी थी तो गलती पर हो । फिर सुबह ---- जब झुककर मैं तुम्हारे कान में कुछ कह रही थी - - - - तो तुम्हारी नजरें कहां थीं, क्या देख रही थीं, क्या मैं नहीं जानती? और ड्रेसिंग रूम के बाद तो समझने के लिए कुछ रह ही नहीं गया।"
देवांश की जुबान तालू से चिपकी थी ।
“अगर तुम नाटक नहीं कर रहे हो तो साफ़-साफ कहूं देव----इतने बेवकूफ मर्द ही हो सकते हैं कि सबकुछ स्पष्ट जानने के बाद भी कुछ न समझें। क्या तुम नहीं समझे थे एक औरत... जवान औरत पति को सोता छोड़कर रात के ढाई बजे एक औरत... नग्न औरत अपने ड्रेसिंग में गैरमर्द को देख ले और फिर उसे पकड़े जाने के भय से चुपचाप निकाल भी दे तो क्या मैसेज एकदम साफ नहीं है? और फिर ---- जिस ड्रैस में मैं रात के इस वक्त अपने पति से छुपकर तुम्हारे कमरे में आई हूं, क्या इसी से सबकुछ स्पष्ट नहीं हो जाता ?”
“द - दरअसल मैं तुम्हारे बारे में ऐसा सोच तक नहीं ...
“सोच तो मैं भी नहीं सकती थी ऐसा । न तुम्हारे बारे में, न अपने बारे में! मगर हालात के कठोर धरातल और सोचों में बहुत फर्क होता है देव । तुम खुद नहीं जानते होगे मेरे बारे में तुम्हारे भाव कब, कैसे और क्यों बदल गये! मगर मैं अच्छी तरफ जानती हूं मेरे भाव कब और क्यों बदले ?”
“क-कब?” देवांश के मुंह से इतना ही निकल सका ।
“राजदान कनाडा से एड्स लेकर आया है ।”
“क-क्या?” चीख निकल गई देवांश के हलक से ।
“अपनी ब्लड रिपोर्ट दिखाई थी उसने मुझे । कहता तो ये है कि कनाडा में उसका हल्का सा एक्सीडेंट हुआ था। इलाज के वक्त इंजेक्शन लगाये गये । उन्हीं में से किसी के जरिए एड्स के कीटाणु जिस्म में दाखिल हो गये मगर, क्या पता कौन-सी वैश्या में मुंह मारकर आया है ?”
देवांश की आंखें हैरत से फटी की फटी रह गयी थीं ।
इतना सब सुनने के बावजूद उस पर कुछ कहते नहीं बन पड़ रहा था । दिव्या कहती चली गई --- “मेरे भी कुछ अरमान हैं देव। कुछ सपने हैं मेरे भी और उम्र की कुछ जरूरतें भी हैं। एक कागज उस एक कागज ने एक ही झटके में उन सबको कुचल डाला जो राजदान ने मुझे उस
रात दिखाया जब वह कनाडा से लौटा था और उसके बाद ... जब मैंने तुम्हारी आंखों में अपने लिए चाहत देखी। तुम्हें ड्रेसिंग में अपना अनावृत जिस्म देखते पाया तो क्या.. मेरी भावनाएं भड़क उठना स्वाभाविक नहीं था ? ”
“म - मगर तुमने या भैया ने मुझे एड्स के बारे में बताया क्यों नहीं?”
“वही नहीं चाहता था ऐसा । कहने लगा ---- मेरी मौत तो निश्चित हो चुकी है। छोटे को पता लग गया तो वह मुझसे पहले मर जाएगा।”
“वे मेरे बारे में ऐसा सोचते हैं और मैं तुम्हारे साथ... नहीं।” देवांश के चेहरे पर अजीब-सी दृढ़ता उभर आई----“ये ठीक नहीं होगा।”
“तो फिर कभी 'उन' नजरों से देखना भी मत मुझे ।” दिव्या के हलक से अजीब-सी गुर्राहट निकली थी ---- “आइन्दा मैं तुम्हें अपने ड्रेसिंग के आसपास भी न देख लूं।" कहते वक्त उसने अपनी आंखों से देवांश पर बिजलियां सी बरसाईं और एक झटके से दरवाजे की तरफ पलट गई।
उस वक्त वह दरवाजे की तरफ बढ़ रही थी जब देवांश की नजरों ने एक बार फिर झीने नाइट गाऊन को बेंधा ।
थरथराते नितम्बों ने पुनः उसे अंदर तक आंदोलित कर दिया |
मस्तिष्क में बैठा वासना का भूत चिल्लाया ---- 'बेवकूफ है तू । निरा बेवकूफ। अरे, ऐसी दुर्लभ अप्सरा खुद चलकर तेरे पास आई। समर्पित है तुझ पर खुद वही चाहती है जो तू चाहता था और तू उसे जाने दे रहा है, भला तुझसे बड़ा मूर्ख दुनिया में कौन होगा?' ।
एक साथ अनेक दृश्य फ्लैश हो उठे ।
झरने के नीचे नहाती दिव्या । ड्रेसिंग में, पानी से भीगा उसका जिस्म । वह कल्पना जो उसने दिव्या और आफताब को लेकर की थी । वह विचार कि 'इतना नीचे गिरने की क्या जरूरत थी? मैं ही कौन-सा बुरा था ।' देवांश को लगा ----उसके पति को एड्स हो चुका है, उसकी अपनी कुछ जरूरतें हैं वह नहीं तो आफताब !
या कोई और ! कोई तो चाहिए था उसे । फिर वही क्यों नहीं?
दिव्या उस वक्त उचककर चटकनी खोलने का प्रयत्न कर रही थी ।
चटकनी खुली! उसने दरवाजा खोला ।
देवांश के दिमाग का शैतान चीखा ----“वह जा रही है गधे ! पकड़ उसे !”
मुंह से निकला
“दिव्या।”
वह पलटी।
देवांश झपटा। एक ही जम्प में उसके नजदीक पहुंच गया वह । लपककर दिव्या को बांहों में भर लिया उसने । दिव्या ने बलपूर्वक उसे खुद से दूर हटाने की कोशिश की। कुछ कहना से चाहा परन्तु देवांश के होंठ उसके होठों पर आ जमे । जीभ उसके मुंह में दाखिल हो गयी थी। कुछ देर दिव्या विरोध करती रही मगर फिर, खुद उसे ही पता नहीं लगा कब देवांश की जीभ को चुसकने लगी? कब उसके हाथ देवांश के सम्पूर्ण जिस्म पर गर्दिश करने लगे? विरोध सहयोग में बदलता चला गया। देवांश के हाथ भी तो उसके सम्पूर्ण जिस्म पर गर्दिश कर रहे थे ।
गर्दिश क्या कर रहे थे, ज्वाला- सी भड़का रहे थे उसके जिस्म में ।
वह पूरी तरह बहक चुकी थी ।
और देवांश...?
शायद उससे भी ज्यादा ।
दिव्या को उसी पोजीशन में उसने दरवाजे से कमरे के अंदर घसीटा ।
होठों से होंठ चिपकाये एक हाथ से चटकनी बंद कर दी ।
वहीं खड़े-खड़े दो सुलगते हुए युवा जिस्म एक-दूसरे में समाने की कोशिश करने लगे थे। देवांश । देवांश खुद नहीं जान सका उसने कब दिव्या का गाऊन उतारकर एक तरफ फेंक दिया ?
उसी तरह, दोनों एक-दूसरे को गर्म करते बैड की तरफ बढ़ रहे थे।
इस बीच दिव्या की जीभ देवांश के मुंह में पहुंच चुकी थी और अब देवांश चुसक रहा था उसे । उसका एक हाथ दिव्या की गर्दन के पृष्ठ भाग पर था । दूसरे हाथ में नितम्ब था दिव्या का । वह हाथ नितम्ब से ऊपर चढ़ा । पतली कमर पर फिसला और ब्रा के हुक पर अटक गया । वासना से सराबोर उस वक्त उसकी अंगुलियां हुक खोलने का प्रयत्न कर रही थीं जब दिमाग को एक तेज झटका लगा।
क्या कर रहा है देवांश?
इसके निप्पल्स पर जहर है ।अंगुलियां रुक गईं ।
कैसा भूत था ये? कैसा भूत था वासना का कि वह खुद ही जहर के बारे में भूल गया था।
जरा भी तो याद नहीं आया उसे ।
हे भगवान, क्या होने जा रहा था ये ? एक पल और उसे जहर के बारे में याद नहीं आता तो खुद अपने द्वारा लगाये गये जहर से मर जाता। मगर अब... अब क्या करे वह ?
दिव्या ने उसे सुस्त महसूस किया तो अपने होंठ उसके होंठों से अलग किए। पूछा----“क्या हुआ देव?” ।
क्या जवाब देता देवांश ?
दिव्या मुस्कराई | बोली- --- “होता है। कुंवारे से यह हुक इतने आराम से नहीं खुलता । शादीशुदा आदमी इतना अभ्यस्त हो जाता है कि नींद में भी खोल देता है ।" कहने के साथ वह खुद अपने हाथ पीठ पर ले गई ।
अगले पल 'ब्रा' कमरे में बिछे कालीन पर जा गिरी थी ।
देवांश ने घबराकर उसे पीछे धकेला । कुछ इस तरह जैसे। खुद से लिपटी जहरीली नागिन को झटका हो । एक बार फिर
पसीने-पसीने हो चुका था वह । आंखें फाड़े हल्की-सी सुर्खी लिए उरोजों को देख रहा था। उन्हें, जो ड्रेसिंग में उसे पुष्ट, गोल और कठोर लगे थे । उसे लगा निप्पल्स नहीं, जहरीली नागिन के फन हैं जो बार-बार जीभ लपलपाकर उसे ताक रहे हैं । बुला रहे हैं, निमंत्रण दे रहे हैं कि आ और मर !
उसकी हालत देखकर दिव्या के गुलाबी होठों पर मुस्कान उभर आई।
बोली----“ड्रेसिंग में इन्हें देखकर तुम्हारा मन नहीं भरा ?”
देवांश अब भी कुछ नहीं बोल सका । साक्षात् मौत नजर आ रही थी उसे ।
दिव्या बाहें पसारकर उसकी तरफ बढ़ी। उरोज उसकी छाती पर आंदोलित हुए ।
देवांश को लगा- - जहरीली नागिनों ने अपने फन हिलाये हैं ।
दिव्या ने दोनों बांहें उसके गले में डालीं और एक झटके से खींचकर उसका चेहरा अपने वक्षस्थल में छुपा लिया ।
होश फाख्ता हो गये देवांश के ।
दिव्या की अभिलाषा उसकी समझ में आ चुकी थी ।
कसकर अपना मुंह भींच लिया उसने । होठों को निप्पल्स से दूर ही रखा । मौत के खौफ ने पलक झपकते ही उसके सिर से वासना का भूत उतार दिया था मगर अब... बचाव का रास्ता भी नजर नहीं आ रहा था उसे । खुद ही लपककर दिव्या को पकड़ा था उसने । अब कैसे खुद ही दूर हो उससे ? क्या सोचेगी दिव्या उसके इस अनोखे व्यवहार पर ?
वही हुआ, दिव्या ने उसे अपने अंक में समेटे पूछा- “क्या
हुआ देव?”
“क- कुछ नहीं।” उसने अपना चेहरा ऊपर उठाया।
“अचानक सुस्त कैसे पड़ गये तुम ?”
“स - सुस्त ? ... न- नहीं तो । नहीं तो ।” कहने के साथ उसने अपनी दोनों हथेलियां उरोजों पर रखीं और वहीं टिकाये दिव्या के पीछे आ गया |
देवांश द्वारा उन्हें छेड़े जाते ही दिव्या उसकी 'सुस्ती' वाला सवाल भूल गयी ।
आनन्दातिरेक में खो गयी थी वह ।
उसके पीछे खड़ा देवांश केवल यह साबित करने के लिए अपने हाथों से मर्दन कर रहा था कि वह सुस्त नहीं है। किसी आनन्द की अनुभूति नहीं हो रही थी उसे । होती भी कैसे? आनन्द की अनुभूति जहां होती है वहां तो मौत का खौफ भरा था ।
बुरी तरह तप रही दिव्या को इस वक्त छोड़ देना, उसके मन में अपने प्रति असंख्य शंकाओं को जन्म देना था, मगर मर भी तो नहीं सकता था वह । जान भी तो नहीं गंवा सकता था अपनी ।
दिव्या मर्दन का आनन्द ले रही थी । रह-रहकर सिसकारियां निकल रही थीं उसके होठों से जबकि देवांश सोच रहा था - - - - क्या करे वह ? क्या करे ऐसा कि दिव्या की समझ में भी कुछ न आये और खुद को बचा भी ले ।
अचानक दिमाग में बिजली सी कड़की । एक तरकीब सूझी ।
यूं ही मर्दन करता वह दिव्या को बाथरूम में ले गया ।
शॉवर के नीचे |
फिर उसने शॉवर चला दिया ।
दिव्या को लगा ----यह उसका स्टाइल है।
हर मर्द का एक अंदाज होता है। सबसे जुदा ! सबसे अलग ! शॉवर उन दोनों को भिगोता चला गया |
देवांश उसके वक्षों को मसल मसलकर धो रहा था । उद्देश्य जहर के अंतिम कण तक को पानी के साथ नाली में बहा देना था | दिव्या उसके स्टाइल को 'इंज्वॉय' कर रही थी । इतने पर ही तसल्ली नहीं हो गयी देवांश की । हाथ बढ़ाकर साबुन उठाया। साबुन से धोने लगा वक्षों को। दिव्या को और आनन्द आने लगा। फिर इस शंका से ग्रस्त देवांश उसके पूरे बदन पर साबुन रगड़ने लगा कि कहीं दिव्या यह न सोचे उसने वक्षों पर ही साबुन क्यों लगाया ।
अण्डरवियर तक उतार दिया उसने ।
“देव ।” वासना से पगलाई दिव्या ने कहा-- -“तरसा रहे हो!” ————
तब तक देवांश को यकीन हो चुका था अब निप्पल्स पूरी तरह साफ हो चुके हैं। साबुन एक तरफ फेंका उसने। दिमाग से मौत का खौफ छंटा तो वासना का भूत पुनः गर्दन अकड़ा बैठा। उसके बाद कौन था जो उन्हें सभी मर्यादाएं ध्वस्त करके पतन के अंधकूप में गिरने से रोकता।
***
शांतिबाई ने करवट ली तो नींद थोड़ी उचट गई । कमरे की लाइट ऑन थी। आंखें मिचमिचाते हुए उसने अलसाये भाव में पूछा ---- “क्या बज गया ?”
“सात ।” विचित्रा ने कहा ।
“अरे!” शांतिबाई चौंककर उठ बैठी तू सोई नहीं?” “सुबह हो गयी और...
“नींद नहीं आई मम्मी। बस यही एक बात घूम रही है दिमाग में, कल रात नौ बजे देवांश ने फोन क्यों नहीं किया? मैंने कोशिश की तो लग नहीं रहा। सैकड़ों बार ट्राई कर चुकी हूं। हर बार एक ही जवाब आ रहा है. - या तो स्विच ऑफ है या रेंज से बाहर है ।”
“स्विच ही ऑफ कर दिया होगा उसने ।” शांतिबाई ने उठकर बैठते हुए कहा ।
“इसी सवाल ने तो दिमाग खराब कर रखा है मेरा। क्यों किया स्विच ऑफ? क्यों उसने आगे की रिपोर्ट नहीं दी? वह दिव्या के निप्पल्स पर जहर लगाने में कामयाब हुआ या नहीं? कहीं कुछ गड़बड़ तो नहीं हो गयी ? गड़बड़ हो गयी लगती है मुझे । वरना वह यूं मोबाइल ऑफ करके न बैठ जाता । कामयाब हुआ होता तो...
अधूरा रह गया विचित्रा का वाक्य |
किसी ने दरवाजे पर दस्तक दी थी ।
दोनों के दिमाग में एक ही सवाल कौंधाहै इतनी सुबह ?' 'कौन हो सकता
“द - देवांश होगा ।” विचित्रा के मुंह से निकला ।
“हां ।” शांतिबाई कह उठी ---- “शायद कामयाब होकर आया हो ।”
विचित्रा दरवाजे की तरफ लपकी ।
“तू ठहर, मैं देखती हूं।” कहने के साथ शांतिबाई उससे आगे निकल गई । रुकी विचित्रा भी नहीं, उसके पीछे-पीछे दरवाजे पर पहुंची ।
शांतिबाई ने ऊंची आवाज में पूछा ---- “कौन ?”
बंद दरवाजे के पार से आवाज आई ---- "इंस्पैक्टर ठकरियाल पधारे हैं।”
होश उड़ गये दोनों के ।
चेहरे सफेद पड़ गये। उन पर हवाइयां उड़ रही थीं ।
सूनी पड़ी आंखों से एक-दूसरे की तरफ देखा । एक ही सवाल था चारों आंखों में ----'ठकरियाल क्यों आया है यहां?'
“सांप सूंघ गया क्या शांतिबाई ?” बाहर से कहा गया ।
“इ - इतनी सुबह यहां क्यों आये हो तुम?” लाख चेष्टाओं के बावजूद शांतिबाई अपने लहजे को हकलाने से नहीं रोक सकी थी ।
“ बताता हूं, दरवाजा तो खोलो ।”
“दवाजा नहीं खुलेगा ।" इस बार शांतिबाई के लहजे में तवायफ वाली अक्खड़ता थी - - “अभी तो हम सोकर भी नहीं उठी हैं। बाद में आना ।”
“मेरा नाम ठकरियाल है बाई जी, तोड़कर हाथ में भी दे सकता हूं दरवाजा ।”
विचित्रा धीमे स्वर में बोली- “समझने की कोशिश करो मम्मी, वह इतनी सुबह-सुबह आया है तो जरूर कोई बात होगी। उधर, देवांश की भी खैर - खबर नहीं है। शायद इसी से पता लगे आखिर हुआ क्या है |”
बाहर से पूछा गया ---- “तो शुरू करूं अपने कंधे का
इस्तेमाल?”
कातिल हो तो ऐसा
विचित्रा ने आगे बढ़कर दरवाजा खोल दिया।
अदरक जैसे ठकरियाल ने झुककर उसे आदाब करने की कोशिश की। फिर सीधा खड़ा होकर अपने पेट पर हाथ फिराता बोला- -“ये तौंद भी साली अजब चीज है। आदमी को ठीक से झुकने भी नहीं देती । ” ————
“ सुबह के सात बजे भी चैन नहीं तुम्हें ?” विचित्रा के लहजे में कोड़े की सी फटकार थी ।
“क्या करें?” वह अंदर दाखिल होता बोला- “ये साली नौकरी ही चौबीस घण्टे की है ।”
“क्यों आये हो यहां?”
“तू मुझे देखकर चौंकी नहीं? ये नहीं पूछा मुझे इस निवास स्थान का पता कैसे लगा ? मतलब साफ है ---- देवांश मेरे और अपने बीच हुईं बातें तुझे 'पूर' चुका है ।”
“भले ही तुम मेरे बारे में में उसके चाहे जितने कान भरो, कुछ नहीं होगा।”
“होगा मोहतरमा ।” वह अपने भद्दे होठों पर जहरीली
मुस्कान विखेरता बोला ---- “उस वक्त जरूर कुछ न कुछ हो जायेगा जब मैं देवांश को तुम्हारे द्वारा छः साल पूर्व राजदान के साथ खेले गये खेल के बारे में बताऊंगा।"
एक साथ दोनों की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गयी ।
हकबकाकर एक-दूसरे की तरफ देखा उन्होंने ।
उनकी हालत देखकर ठकरियाल की मुस्कान में कुछ और इजाफा हो गया ।
“त- तुम्हें इस बारे में कैसे मालूम ?” हिम्मत करके शांतिबाई ने पूछा ।
ठकरियाल ने सीधा जवाब देने की जगह ऊंची आवाज में 'रामोतार' को पुकारा ।
अगले पल रामोतार खुले दरवाजे के बीच नमूदार हुआ । ठकरियाल को बाकायदा सैल्यूट मारने के बाद वह सावधान की मुद्रा में खड़ा हो गया । ठकरियाल ने कहा----“पहचानो इसे।”
दोनों ने ध्यान से रामोतार को देखा । शांतिबाई ने पूछा ---- “कौन है ये?”
“यानी नहीं पहचानीं?”
“नहीं।”
ठकरियाल ने विचित्रा से पूछा- - - -“तू ?”
रामोतार को ध्यान से देखती विचित्रा ने कहा--- “मैं भी नहीं पहचानी।"
“ठीक भी है। उस वक़्त थाने में स्टाफ ही इतना था, किस-किस को ध्यान से देखतीं तुम | सारा स्टाफ उतर गया था तुम दोनों के ऊपर से | रामोतार का दावा है यह उन्हीं में से एक है जिनके सामने इंस्पैक्टर कामथ का हुक्म मानने के अलावा कोई चारा नहीं था । उसी के हुक्म पर सबने रेप किया था तुम दोनों के साथ | तब तक, जब तक तुमने वे निगेटिव कामथ को नहीं सौंप दिए जिनके बूते पर राजदान से एक करोड़ ऐंठने के मंसूबे बनाये थे ।”
स्टेचू सी खड़ी रह गईं दोनों । जैसे लकवा मार गया हो ।
ठकरियाल कहता चला गया ---- “भले ही मैं नहीं था उस वक्त थाने का इंचार्ज, मगर रामोतार दूसरे चार-पांच थानों में भटकने के बाद आज फिर वहीं टपका हुआ है। बदमाश बहुत है ये। जब मैंने देवांश से तुम्हारे बारे में बात की तो इससे कहा था ---- न तुझे खुद अंदर झांकना है, न किसी और को झांकने देना है।"
“मैं फिर कहूंगा सर !” सावधान की उसी मुद्रा में खड़े रामोतार ने कहा ---- “झांका बिल्कुल नहीं था मैंने आपके ऑफिस में।"
“अबे झांकने से मेरा मतलब सिर्फ झांकने से ही थोड़ी था। ये भी तो था कि न तू खुद अंदर होने वाली बातें सुनेगा, न किसी और को सुनने देगा।" उसे झपटता सा ठकरियाल कहता चला गया ----“मगर तू नहीं माना, सुन ही लीं अंदर की बातें तूने । इसका मतलब तो हमारी प्राइवेसी कुछ रही ही नहीं।”
“वही बात हो गई सर जिसका मुझे डर था । "
“क्या डर था तुझे ?”
“यही कि जब मैं आपको ये सब बताऊंगा तो आप मुझे डांटेंगे। प्राइवेसी का सवाल उठायेंगे अपनी । जी तो उसी वक्त सब कुछ बताने का हुआ था । जब उसने आपसे सुबूत मांगा और आप ठन - ठन गोपाल बने रह गये थे । आपकी इसी नाराजगी की वजह से अपने मुंह पर गोदरेज का ताला लगा लिया था मैंने। फिर आपसे नाराज न होने का कैकेई वाला वचन लेकर सब कुछ बताया मगर फायदा क्या हुआ ?
बात तो वहीं की वहीं रही । बल्कि वहां तो अकेले में डांटते। यहां तो इन रंडियों के सामने कचरा कर रहे हैं बड़ी मेहनत से कमाई गई मेरी इज्जत का ।”
“अच्छा, नहीं करता कचरा ! जा तू नीचे जाकर जिप्सी में बैठ! मैं इन्हें 'निचोड़ कर' आता हूं ।”
“जो हुक्म सर ।” कहने के साथ उसने पुनः सैल्यूट मारा ।
“मगर याद रख- - इस बार हमारी प्राइवेसी भंग नहीं करेगा तू।"
“गांव का रहने वाला हूं सर, जानता हूं हर बार का गुड़ मीठा नहीं होता ।” कहने के तुरन्त बाद वह जिन्न की तरह दरवाजे से गायब हो गया ।
विचित्रा और शांतिबाई समझ चुकी थीं ठकरियाल जिस क्षण चाहे उनका खेल बिगाड़ सकता है। एक बार फिर मंजिल के बेहद नजदीक पहुंचकर अंधेरा ही अंधेरा नजर आ रहा था उन्हें । अचानक ठकरियाल ने कहा ---- “पानी मिलेगा एक गिलास?"
“क- क्यों नहीं?” शांतिबाई बोली ---- “पानी ही क्यों, शौक फरमाते हो तो...
“हां! शौक तो फरमाना ही पड़ता है। खुश्की भी कुछ ज्यादा ही आ रही है सुबह-सुबह "
- “अभी लाई ठकरियाल साहब ! अभी हाजिर हुई ।" उत्साह से भरी शांतिबाई ने कहा । बिजली सी भर गई थी उसके जिस्म में । बड़ी तेजी से पलटी, उड़ती-सी अंदर वाले कमरे के दरवाजे की तरफ लपकी । अदरक जैसे ठकरियाल ने भूखी नजरों से विचित्रा की तरफ देखा । विचित्रा को जहां यह सोचकर ग्लानि-सी हुई कि अब उसे ठकरियाल को 'खुश' करना पड़ सकता है, वहीं यह सोचकर मन मयूर नाच उठा, अगर इस तरीके से ठकरियाल काबू में आ सकता है तो कहने ही क्या?
कुछ भी तो नहीं बिगड़ा है ।
पटरी से उतरी गाड़ी पुनः पूरी रफ्तार से दौड़ सकती है।
वह मुस्कराई | निमंत्रण देने वाली मुस्कान | कुछ वैसी ही जैसी एयरपोर्ट की पार्किंग में कम्मो ने बन्दूकवाला की तरफ उछाली थी। ठकरियाल ने उसकी मुस्कान के जवाब में बुरा सा मुंह बनाया और बोला ---- "पुड़िया बनाकर ब्लाऊज में ठूंस ले इस मुस्कान को । तेरे साथ कबड्डी खेलने का जरा भी ख्वाहिशमंद नहीं हूं मैं |”
एक ही पल में चेहरा फीका पड़ गया विचित्रा का ।
उसके रूप-यौवन का इतना अपमान पहले कभी नहीं हुआ था।
तभी, शांतिबाई भीतरी कमरे से इस कमरे में आई। उसके हाथ में सुराही के आकार का, लम्बी गर्दन वाला क्रिस्टल का गिलास था । गिलास में था एक पैग । बर्फ के छोटे-छोटे टुकड़े । उसे गिलास देती शांतिबाई ने कहा ----- -"ब्लैक डॉग है हुजूर, शौक फरमाइए ।”
गिलास लेते हुए ठकरियाल ने कहा---- “ अपनी इस लौंडिया को समझा । दो टके से ज्यादा कीमत नहीं मेरी नजर में इसकी और... लाखों के काम 'टकों' में नहीं निपटा करते । जाने क्यों इसे यह गलतफहमी हो गयी है कि खुद को मेरे नीचे बिछाकर सारी समस्याओं से निजात पा सकती है।”
मारे अपमान के विचित्रा का सांवला चेहरा दहके हुए कोयले सा हो गया। जी चाह रहा था ---- आगे बढ़कर मुंह नोंच ले उस बदसूरत इंस्पैक्टर का मगर, केवल कसमसाकर रह गयी। काश! काश उसके पास उनका खेल बिगाड़ देने वाली जानकारी न होती ।
खून का घूंट पीकर रह गई विचित्रा |
शांतिबाई ने उसकी तरफ देखा। एक ही पन में मार्ग 'सिच्वेशन' समझ गई वह बोली“नाराज क्यों होते हैं टकरियाल साहव! बच्ची है अभी! हो गई होगी कोई गलती।"
टकरियाल ने जवाब देने की जगह गिलास मुंह से लगाया और एक ही सांस में खाली करके शांतिबाई को पकड़ाता बोला- -"ठर्रा है?”
“ज-जी?”
"इस साली विलायती शराब से झटका नहीं खाती मेरी खोपड़ी।”
" है हुजूर! आपके मतलब की चीज भी है ।” कहने के साथ उसने गिलास विचित्रा को देते हुए कहा ----“ले विचित्रा! जल्दी से ठकरियाल साहब के मतलब की चीज लेकर आ ।”
विचित्रा ने गिलास लिया । ठकरियाल पर अपनी आंखों से बिजलिया गिराईं और अंदर वाले कमरे की तरफ बढ़ गई। इधर ठकरियाल ने शांतिबाई से कहा----“उस दिन मैंने देखा था, तेरी बेटी भी देवांश को ब्लैक डॉग पिला रही थी। हरेक को ब्लैक डॉग पिलाकर काला कुत्ता बनाने की अपनी इस आदत में सुधार करो । काला कुत्ता जब काटने पर आता है तो सारा गोश्त बकोट डालता है, वैसे ही जैसे राजदान ने बकोटा था ।”
जी तो शांतिबाई का भी चाहा उसका मुंह नोंच ले मगर, प्रत्यक्ष में चापलूसी करती बोली ----“हम अपनी बाकी में जिन्दगी वैसे ही गुजारेंगे जैसे आप कहेंगे । ”
तभी, विचित्रा उस गिलास में ठर्रा ले आई जिसमें शांतिवाई ब्लैक डॉग लाई थी। ठकरियाल ने गिलास लेकर उसे गोल-गोल हिलाना शुरू किया । बर्फ के टुकड़े क्रिस्टल से टकराकर आवाज पैदा करने लगे। बोला ---- “काफी हो चुका इंज्वॉय! अब काम की बात शुरू हो जानी चाहिए।”
“ज- जी।”
“जब रामोतार सारी कथा मुझे सुना ही चुका है तो यहां क्यों आया हूं? मैं सीधा विला क्यों नहीं चला गया ? राजदान और देवांश को बता क्यों नहीं दीं तुम्हारी करतूत ?”
उसका इशारा समझती शांतिबाई ने कहा---- हुजूर, क्या खिदमत करूं?” "हुक्म कीजिए
“तुझी से पूछ रहा हूं, क्या कर सकती है?”
"प - पचास हजार !"
ऐसा मुंह बनाया ठकरियाल ने जैसे कुनैन की गोली हलक में फंस गई हो । बोला“राजदान की चल-अचल सम्पत्ति का हिसाब लगाया है कभी ?”
“जी?”
“कितने की होगी ?”
“ ऐसे कैसे हिसाब लगाया जा सकता है सरकार ?”
“तुम वो 'गड़प' करने वाली हो जिसका हिसाब नहीं लगा पा रहीं और मुझे दिखा रही हो पचास हजार का झुनझुना? अपने आंगन में घुटनों चलने वाला बच्चा समझ रही हो मुझे ?”
“तो आप बता दीजिए न, क्या चाहते है ?”
" बता दूंगा | जरूर बता दूंगा । मगर उससे पहले तेरी इस लौंडिया को मेरे एक छोटे से सवाल का जवाब देना होगा।”
“सवाल कीजिए आप, यह हर सवाल का जवाब देगी ।”
ठकरियाल विचित्रा की तरफ घूमा । तुरन्त सवाल नहीं किया उसने बल्कि गिलास होंठों से लगाया और उसे भी एक ही सांस में खाली कर गया | अजीब-अजीब सी मुद्रायें बनाता बोला "इसे कहते हैं चीज! साली अंदर तक काटती चली जाती है।
दोनों में से किसी ने कोई टिप्पणी नहीं की।
“और मिलेगी ?” उसने गिलाम शांतिबाई की तरफ बढ़ाया।
गिलास लेकर शांतिबाई विचित्रा को देना चाहती थी मगर टकरियाल ने कहा--- “ये नहीं, तू लायेगी इस बार ! तेरे ‘पके हुए' हाथों से लाया गया जाम पीने में मजा ही कुछ और है । "
शांतिबाई समझ गई वह उसे यहां से हटाना चाहता है। शायद एकान्त में बात करनी चाहता है विचित्रा से । इच्छा तो नहीं थी उसकी मगर मजबूरी थी, अतः गिलास लिए अंदर वाले कमरे की तरफ बढ़ गई। दरवाजा पार करके वह आड़ में खड़ी हो गयी थी ।
ठकरियाल ने अपनी गंदली आंखें विचित्रा की चमकदार आंखों में घुसेड़ते हुए कहा ---- "सच-सच बता ----राजदान की रामनाम सत्य करने के लिए 'विषकन्या' कौन बनेगी ?”
एक ही झटके में विचित्रा के पैरों तले से धरती खिसक गई।
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