सोहनलाल ने उलझन भरी निगाहों से पारसनाथ को देखा।


"मुझे लगता है यहां बहुत पहले से ही कोई, भारी गड़बड़ चल रही है। बाबा तुम्हारा नाम परसू बताते थे, तो यहां भी तुम्हें परसू कह रहा है। मेरे को गुलचंद और यहां की जिंदगी का समय चक्र रुका हुआ है। हैरत की बात है। मुझे तो विश्वास नहीं आता, उस गुलाबलाल की बातों पर ।"


पारसनाथ के खुरदरे चेहरे पर गंभीरता छाई हुई थी ।


"तुम्हें क्या लगता है ?" सोहनलाल पुनः बोला ।


"गुलाबलाल हर बात ठीक कह रहा है ।" पारसनाथ से कहा ।


"ये तुम कैसे कह सकते हो ?" 


"जाने क्यों मेरा दिल कहता है और मत भूलो कि फकीर बाबा खासतौर से हमें पाताल लोक की इस नगरी में लाए हैं और पूर्व जन्म में भी हमारे चेहरे यही थे, जो अब हैं । इसी से जाहिर हो जाता है कि हमारे बारे में जो कहा जा रहा है, वो सच है।" पारसनाथ का स्वर गंभीर था।


"तो फिर फकीर बाबा कौन है ? "


"गुलाबलाल की बातों से मुझे मालूम हो चुका है कि इस नगरी में फकीर बाबा की असलियत क्या है ?"


"मालूम हो गया कैसे ?"


"ये बताना मैं ठीक नहीं समझता ।" पारसनाथ ने शांत स्वर में कहा--- "बाबा की बीती बातों पर गौर करेंगे तो शायद कोई बात तुम्हें याद आ जाये और नगरी के कुछ खास लोग यह जानने में लगे हैं कि हमें पृथ्वी से यहां का रास्ता किसने दिखाया । इसका मतलब फकीर बाबा की असलियत इनके सामने जाहिर करने का मतलब है, बाबा को खतरे में डालना । वो कैसा खतरा होगा, ये मैं नहीं जानता।"


सोहनलाल आंखे सिकोड़े पारसनाथ को देखने लगा ।


"तो तेरे को फकीर बाबा की असलियत मालूम हो गई ।" सोहनलाल के होठों से सोच भरा स्वर निकला ।


"दिमाग पर जोर दोगे तो शायद तुम्हें भी मालूम हो जाए।"


तभी बंगाली कह उठा ।


"क्यों अपनी जान के दुश्मन बने हुए हो । उस फटीचर के बारे में जान गए हो तो बता कर इस मुसीबत से छुटकारा पा लो। यहां तो कदम-कदम पर मुसीबतें हैं । वापस पृथ्वी पर चलते हैं।"


"ठीक तो कह रहा है ।" कर्मपाल जल्दी से कह उठा--- "इस नगरी से, पाताल से हम लोगों का क्या वास्ता । इनकी लाइफ और हमारी लाइफ में बहुत फर्क है। हमारी अपनी दुनिया है। बता दो उस बाबा का नाम । हम चलते हैं यहां से ।"


सोहनलाल ने तीखी निगाहों से कर्मपाल को देखा । "बहुत कमीना है तू।"


"क्या मतलब ?"


"तेरे काम के लिए देवराज चौहान और मोनू चौधरी में झगड़ा पैदा हुआ । बांके तेरे को भाई जैसा मानता है और अब तू उसी को यहां छोड़कर पृथ्वी पर जाने की दौड़ में सबसे आगे जा खड़ा हुआ है।" 


कर्मपाल सकपका उठा ।


"भाईजी ।" बंगाली कह उठा--- "अब अपनी जान से तो प्यारा कोई नहीं होता ।  जान की बात न होती तो हम तुम सबके साथ ही वापस जाते और यहां तो पता नहीं कब मौत आ जाए।"


"बेटे ।" सोहनलाल ने व्यंग्य से दोनों को देखा--- "तुम लोग तो हमारा साथ छोड़ने को तैयार हो, लेकिन हम जिसका साथ देते हैं, उसे बीच में नहीं छोड़ते। बिल्कुल वफादार कुत्ते बन जाते हैं। समझ गए ना ?"


बंगाली और कर्मपाल सिंह एक-दूसरे को देखकर रह गए |


सोहनलाल ने पारसनाथ को देखा ।


"गुलाबलाल हमें किसी दालूबाबा के पास भेज रहा है, जो इस नगरी का मालिक है । जगमोहन-महाजन और बांके तो पहले ही उसके पास पहुंच चुके हैं। लगता है वो हमारा बुरा हाल कर देगा ।" जगमोहन ने कहा।


"देखते हैं।" पारसनाथ ने सपाट स्वर में कहा और खुरदरे चेहरे पर हाथ फेरने लगा ।

******

दालूबाबा और केसर सिंह ने उलझन भरी निगाहों से पारसनाथ, बंगाली, कर्मपाल सिंह सोहनलाल को देखा । कई पलों तक वहां खामोशी रही ।


"तो तुम लोगों को फकीर बाबा यहां लाया गुलचंद।" दालूबाबा बोला ।


"हां और मेरा नाम गुलचंद नहीं, सोहनलाल है ।" सोहनलाल ने कहा ।


"तुम्हारे लिए तुम्हारा नाम सोहनलाल हो सकता है । परंतु मेरी निगाहों में तुम वही 'गुलचंद' हो ।" दालूबाबा ने सिर हिलाकर कहा और पास पड़े केसर सिंह को देखा--- "क्यों केसरे, फकीर बाबा का जो हुलिया बता रहे हैं, इस हुलिए का कोई शक्तिशाली व्यक्ति हमारी नगरी में रहता है ? "


"नहीं । मुझे तो लगता है, ये लोग झूठ बोल रहे हैं।" केसर सिंह कह उठा ।


"नहीं ये लोग सच कह रहे हैं। क्योंकि उन तीनों को जादुई शक्ति द्वारा, पीड़ा रहित कर दिया है कि वे यातना की वजह से सच्चाई न उगल दें । वो हमारी ही नगरी का कोई है । जो कि इन सब लोगों से फकीर बाबा के वेष में मिला, ताकि ऐसा वक्त आने पर उनके बारे में न बता सकें ।"


"अगर ऐसी बात है तो फिर उन तीनों को जादुई शक्ति द्वारा पूरा रहित क्यों किया गया ?"


"स्पष्ट है कि वो तीनों उस फकीर बाबा की हकीकत जानते। ये भी जानते होंगे कि नगरी में उसे किस नाम से पुकारा जाता है ।" दालूबाबा ने सोच भरे स्वर में कहा ।


वे चारों एकटक गुलाबलाल का देखे जा रहे थे ।


कुछ देर उनके बीच सोच भरी खामोशी रही ।


"तुम चारों यहां से बाहर जाने की कोशिश मत कर कर्ना । हम अभी आते हैं।" दालूबाबा ने आदेश भरे स्वर में कहा और केसर सिंह को साथ आने का इशारा करके, बाहर की तरफ बढ़ गया।


वे दोनों उस कमरे में पहुंचे जहां जगमोहन, बांकेलाल राठौर और पिंजरे की कैद में गुस्से से छटपटाता नीलू महाजन मौजूद था। दालूबाबा के भीतर प्रवेश करते ही महाजन दहाड़ा ।


"आ गया दालू कुत्ता । हरामजादे एक बार मुझे पिंजरे से निकाल दे फिर देख तेरी क्या हालत करता हूं । सब याद आ गया है मुझे। मैं तेरी बोटी-बोटी...।"


"खामोश ।" केसर सिंह दहाड़ा--- "वरना...।"


"वरना क्या कर लेगा तू । हां - -- बोल क्या करेगा ।" महाजन फाड़ खाने वाले स्वर में कह उठा--- "सालों शेर को पिंजरे में बंद करके दहाड़ते हो । मुझे आजाद करो। फिर---।" 


"केसरे ।" दालूबाबा के होठों पर कड़वी मुस्कान सी लगी--- "इसे कुछ मत कह और जो यह कहता है, उस पर ध्यान मत दे । इसे याद आ चुका है बीता जन्म । तो मेरी पोजीशन देखकर, तड़पना इसका हक बनता है ।"


"हरामजादा । हरामजादा, हरामजादा ।" महाजन की हालत वास्तव में पागलों की तरह हो रही थी ।


जगमोहन और बांकेलाल राठौर को अफसोस हो रहा था कि वे महाजन को पिंजरे से नहीं निकाल पा रहे थे । इस वक्त तो वे दोनों अपने लिए ही बेबस हुए पड़े थे ।


दालूबाबा ने जगमोहन और बांकेलाल राठौर को देखा ।


"जग्गू, भंवर सिंह ।" दालूबाबा के होठों पर मुस्कान थी--- "तुम क्या समझते हो कि मुझे उस गद्दार का नाम नहीं मालूम होगा, जो मुझे परेशान करने के लिए तुम लोगों को नगरी में ले आया है।"


जगमोहन और बांकेलाल राठौर की नजरें मिली।


"इनकी बातों में मत आना ।" महाजन दहाड़ उठा--- "इसकी जुबान में चालाकियां भरी हुई है। जुबान के दम पर, यह बहुत कुछ कर गुजरता है, जो बड़े से बड़ा हारामी, हाथों से नहीं कर सकता।"


जगमोहन ने होंठ सिकोड़कर महाजन को देखा फिर दालूबाबा को ।


"थारे को मालूम हो गयो हो ?" बांकेलाल राठौर दांत भींचकर कह उठा ।


"हां। यही मैं तुम लोगों से कहने आया हूं।" 


"बतायो तो उसो का नाम ?"


"फकीर बाबा ।"


बांकेलाल राठौर ने फौरन जगमोहन को देखा ।


"यो तो फकीर बाबा के बारे में जानो हो।"


जगमोहन मुस्कुराया । नजर दालूबाबा पर ही थी ।


"तुम जो कोशिश करने आए हो, उसमें सफल नहीं हो सकते दालूबाबा ।" जगमोहन बोला


"कैसी कोशिश ?"


"फकीर बाबा का जिक्र करके, हमारे मुंह से उसका असली नाम निकलवाने आए हो, क्योंकि तुम तो उसे असली नाम से नहीं जानते हो । फकीर बाबा तो हमारा दिया नाम है ।" जगमोहन कह उठा।


दालूबाबा के चेहरे पर क्रोध नाच उठा ।


"तो तुम उसका असली नाम नहीं बताओगे ?" दालूबाबा दहाड़ा । 


"किसी भी कीमत पर नहीं।" जगमोहन भिंचे दांतों से कह उठा।


पिंजरे में फंसा महाजन ठहाका लगा उठा ।


"दालू । कुत्ते । हमेशा तेरी चालबाजियां नहीं चलती रहेंगी । वो जमाना और था और अब का वक्त और है । तेरी चक्की अब ज्यादा देर नहीं सकती। तू...।"


तभी केसर सिंह ने कमर में फंसा रखा खंजर निकाल लिया ।


"दालूबाबा । ये हमारे काम के नहीं है, क्योंकि हमें हमारे काम की बात नहीं बता रहे । बेहतर होगा कि इनकी गर्दन अलग कर दी जाए।" केसर सिंह दहाड़ उठा । 


"बेफकूफी वाली बातें मत करो।" दालूबाबा ने केसर सिंह को देखा ।


"क्या मतलब ?"


"हकीम को बुलाने के लिए अनुष्ठान करना पड़ा तो, मनुष्य के खून की जरूरत पड़ेगी। उसके लिए तुम्हें पृथ्वी पर जाकर मनुष्यों को लाना पड़ेगा। दालूबाबा सख्त स्वर में कहा--- "इन सब मनुष्यों को कैद करके रखना जरूरी है । ताकि तुम्हें पृथ्वी पर जाने का कष्ट न करना पड़े और समय बरबाद न हो ।"


"आप ठीक कह रहे हैं ।" केसर सिंह ने सिर हिलाया और खंजर वापस कमर में फंसा लिया--- "वैसे आपका क्या ख्याल है हकीम को यकीनन बुलाना पड़ेगा ?" 


"यकीनी तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता । देखना यह है कि तिलस्म में देवा-मिन्नो के बारे में क्या खबर आती है। उसके पश्चात ही सोचा जाएगा कि आगे क्या करना है । आओ। "


दालूबाबा और केसर सिंह बाहर निकल गए। दरवाजा बंद हो गया ।


"यो इस हरामी दालूबाबा को कैसो पता लगे कि अंम उसो को फकीर बाबा कहो हो ।" 


महाजन पिंजरे की सलाखों को थामें गुस्से में खड़ा था । 


"महाजन ।" जगमोहन गंभीर स्वर में बोला--- "तुम्हें सब याद आ गया है कि पुनर्जन्म में क्या हुआ था ?"


जगमोहन ने पलटकर महाजन को देखा ।


महाजन के दांत पर दांत जम गए ।


"म्हारे को बतिया महाजन, का हौवे तबो । अंम सबको 'वड' के रख देवेंगे। "


"मुझे बहुत कुछ याद आ गया है और बहुत कुछ भूला-भूला सा लग रहा है ।" महाजन की आवाज में गुस्सा था--- "कुछ कड़ियां है, जो अभी भी मेरे दिमाग से नहीं जुड़ पा रही है । लेकिन-लेकिन इस कुत्ते दालूबाबा के बारे में बहुत कुछ स्पष्ट तौर पर याद आ चुका है । मिन्नो इस नगरी की देवी बनी तो ये हरामजादा उसका सलाहकार था और---और...।" जाने क्यों महाजन हांफने लगा ।


"क्या हुआ ?


"अभी कुछ मत पूछो । वरना मैं पागल हो जाऊंगा। मैं इस हरामजादे दालू को जिंदा नहीं छोडूंगा । मुझे बाहर निकालो, वरना मैं इस पिंजरे को तोड़ दूंगा। मैं...।" महाजन पागलों की तरह जाने क्या-क्या कहता जा रहा था ।


जगमोहन ने बांकेलाल राठौर को देखा।


"मन्ने यो अभ्भी लठ भी न मारियो । फिर इसे क्या प्रॉब्लम हौवो ?" ।


"इसे कुछ ऐसी बातें याद आ चुकी है, जिसकी वजह से इसका गुस्सा पागलपन की हद को भी पार कर रहा है।" जगमोहन ने गंभीर स्वर में कहा--- "इसे इसके हाल पर छोड़ दो । जब संभलेगा, तब खुद-ब-खुद ही सब कुछ बताएगा । लेकिन ये बात तो पक्की है कि दालूबाबा ने कोई बहुत बड़ी गड़बड़ की है। तभी तो ये दालूबाबा को देखते ही गुस्से से पागल हो उठता है। "


"यो बात तो म्हारे को भी लगे हो ।" बांकेलाल राठौर गंभीर स्वर में कह उठा।


तभी उनके देखते ही देखते महाजन ने जेब से फकीर बाबा का दिया सिक्का निकाला और व्हिस्की की बोतल मांगी। दूसरे ही पल सामने बोतल पड़ी नजर आने लगी । सिक्के के बारे में जानने के लिए पढ़ें, पूर्व प्रकाशित उपन्यास 'जीत का ताज' । सिक्का जेब में डाल कर महाजन ने बोतल उठाई और उसे खोलते हुए, होठों से लगा ली। 


"यो तो लगो गयो लैन पे ।" बांकेलाल राठौर बड़बड़ा उठा।

******

"केसरे ।" चलते चलते दालूबाबा कह उठा--- "अभी तक तो मैं नर्मी से काम ले रहा था, लेकिन अब मुझे लगता है कि अपनी ताकतों का इस्तेमाल करना ही पड़ेगा।" 


"आप सही कह रहे हैं । मामला बढ़ता ही जा रहा है ।" केसर सिंह कह उठा--- "अगर नीलसिंह की तरह, मिन्नो को भी बीता जन्म याद आ गया तो शायद फिर आप उसका मुकाबला न कर सकें । क्योंकि तब वो खतरनाक योद्धा थी। तिलस्मी शक्तियों की अद्वितीय मालकिन थी और तो और सब लोग जानते हैं कि वो उनकी देवी है। यानी कि मिन्नो को पूर्व जन्म याद आते ही वह फिर वही मिन्नो बन जाएगी। तब उसके बढ़ते हाथों को रोकना कठिन हो जाएगा।"


"तुम ठीक कहते हो । लेकिन दो मोहरे मेरे पास ऐसे हैं कि ऐसा वक्त आने पर मिन्नो जीत नहीं सकेगी।"


"कैसे मोहरे ?" 


"सिद्धियों युक्त ताज मेरे पास है और उस करिश्माई ताज के कारनामों से अभी तुम भी वाकिफ नहीं हो । दूसरा मोहरा हाकिम है, जिसे अनुष्ठान करके मैं बुला सकता हूं और उसे अमर रहने का वरदान प्राप्त है । उसे मारने की तरकीब सिर्फ मिन्नो ही जानती है और वो तरकीब किसी किताब में दर्ज है । जिसे पूर्वजन्म में मिन्नो ने हीं कहीं रखा था और लाख ढूंढने पर भी मुझे नहीं मिल पाई। हाकिम को बेसब्री से उस किताब की तलाश है। ऐसे में खुद चाहेगा कि मिन्नो खत्म हो जाए ।" 


"यह बात तो आप ही कहते हैं दालूबाबा ।" 


"मिन्नो के हाथ किसी भी स्थिति में मुझ तक नहीं पहुंच सकते । लेकिन मैं कोई झंझट नहीं पालना चाहता । पीठ पीछे ही वार करके मिन्नो को खत्म कर देना चाहता हूं । तिलस्म में देवा और मिन्नो के लिए जो इंतजाम कर दिए गए हैं, मेरे ख्याल से वो बच नहीं सकेंगे और जल्दी ही उनकी मौत की खबर, हमें मिलेगी।"


चलते-चलते दोनों ने उस कमरे में प्रवेश किया, जहां पारसनाथ, बंगाली, कर्मपाल सिंह और सोहनलाल थे । सोहनलाल गोली वाले सिगरेट सुलगाए, कुर्सी पर बैठा कश ले रहा था।


दोनों ठिठके । 


"केसरे।"


"जी।"


"इन्हें उन्हीं मनुष्यों के साथ, कमरे में बंद कर दो और तिलस्मी रेखा खींच देना कि ये लोग किसी भी स्थिति में हमारी इजाजत के बिना बाहर न निकल सकें।"


तभी बंगाली दो कदम आगे बढ़कर कह उठा ।


"दालू जी । दालूबाबा जी । आपके काम की एक बात कहूं ?"


"क्या ?"


"लेकिन वायदा कीजिए कि अगर मेरी बात अच्छी लगी तो आप मुझे वापस पृथ्वी पर पहुंचा देंगे।"


"मुझे भी ।" कर्मपाल सिंह जल्दी से कह उठा।


"इसके बारे में आपकी मर्जी है ।" बंगाली ने कहा ।


पारसनाथ और सोहनलाल की नजरें मिली ।


"बंगाली।" सोहनलाल बोला--- "कोई फालतू बात मत करना ।"


"मुंह बंद ।" पारसनाथ ने सपाट स्वर में कहा।


बंगाली उनकी बात पर ध्यान न देकर, दालूबाबा को देखने लगा


दालूबाबा के चेहरे पर मीठी मुस्कान उभरी ।


"कहो, क्या कहना चाहते हो। मैं वायदा करता हूं तुम्हारी बात पसंद आई तो मैं तुम्हें और इसे भी पृथ्वी पर वापस भेज दूंगा।" दालूबाबा ने हौसला बढ़ाने वाले शब्दों में कहा। 


"वो जो फकीर बाबा है। उसके बारे में हममें से कोई एक जानता है ।" बंगाली बोला । 


"कौन जानता है उसकी असलियत ?"


बंगाली की उंगली भाले की तरह, पारसनाथ की तरफ उठी ।


"ये जानता है । ये अपने मुंह से स्वीकार कर चुका है कि बाबा की यहां असलियत क्या है ?" बंगाली ने कहा--- "अब आप इसका मुंह खुलवाते रहिएगा । मुझे पृथ्वी पर भेज दें, जैसा कि आपने अभी वायदा किया था ।"


दालूबाबा और केसर सिंह की निगाह पारसनाथ तब जाकर ठहर गई। और पारसनाथ मौत की सी निगाहों से बंगाली को घूर रहा था । कुछ ऐसा ही भाव सोहनलाल की आंखों में था कि उसका बस चले तो बंगाली को खत्म कर दे ।


कर्मपाल सिंह नहीं जानता था कि बंगाली क्या कहने जा रहा है और जब बंगाली ने कहा तो दो पलों के लिए ठगा सा रह गया । खुद को बचाने के लिए उसने, पारसनाथ को मुसीबत में डाल दिया था ।


"क्यों परसू ।" दालूबाबा मुस्कुराया--- "मुझसे चालाकी करता है।"


पारसनाथ की नजरें दालूबाबा के चेहरे पर जा टिकी ।


"मैं जरूरत नहीं समझता तुमें फकीर बाबा की असलियत बताने की ।" पारसनाथ सख्त स्वर में बोला ।


"और उसके बारे में जानने की मुझे बहुत जरूरत है ।" दालूबाबा कह उठा। 


"तुम अभी दालूबाबा को नहीं जानते ही कहां हो । जानते होते तो ये न कहते। केसरे ।" 


"जी।"


"घंटा बजा ।"


केसर सिंह फौरन आगे बढ़ा और दीवार में जा रही रस्सी को खींचा।


दूर कहीं घंटा बजने की आवाज आई ।


"अब तो वायदे के मुताबिक मुझे पृथ्वी पर भेज दीजिए। मैंने कितने काम की बात बताई है ।"


दालूबाबा ने मुस्कुराकर बंगाली को देखा ।


"वो वादा ही क्या जो दालूबाबा पूरा कर दे ।" दालूबाबा मुस्कुराया । 


"क्या ?" बंगाली के चेहरे का रंग उड़ गया --- - "तुम-तुम मुझे पृथ्वी पर नहीं भेजोगे ?" 


दालूबाबा ने बंगाली के शब्दों पर तवज्जो न देकर, केसर सिंह से कहा । 


"देख, इस पर यातना का असर होता है या नहीं ?"


केसर सिंह फौरन आगे बढ़ा । पारसनाथ कुछ भी न समझ पाया कि केसर सिंह का शक्तिशाली घूंसा उसके पेट में जा लगा। कराह के साथ पेट थामें पारसनाथ, दोहरा हो गया । चेहरे पर पीड़ा के भाव स्पष्ट नजर आने लगे।


तभी चार पहरेदारों ने भीतर प्रवेश किया । वे हथियारबंद थे । हथियारों में खंजर, कटार और तलवार थी । चेहरों से वे खूंखार लग रहे थे ।


पारसनाथ जानता था कि इस वक्त इन लोगों का मुकाबला नहीं कर सकता। इसलिए उसने घूंसे का जवाब देने की जरा भी चेष्टा नहीं की।


दालूबाबा मुस्कुरा पड़ा ।


"केसरे । अब काम बन गया । ले जा इसे और इसके मुंह से फकीर बाबा की असलियत निकलवा ले । उस गद्दार का नाम मुझे बता । बहुत भयानक सजा दूंगा उसे ।" इसके साथ ही उसने पहरेदारों को देखा--- "तुम में से दो, इन तीनों को उन्हीं मनुष्यों के पास, कमरे में बंद कर दो । कमरे के बाहर तिलस्मी लकीर खींच देना ।"


"जी


"और तुम दो ।" दालूबाबा ने अन्य पदारों से कहा--- "इस मनुष्य को पकड़कर यातना गृह में ले जाओ और जल्लादों से कह दो कि यातना की तैयारियां शुरू कर दें।"


फौरन दो पहरेदार आगे बढ़े और उन्होंने पारसनाथ को थाम लिया।


"कोई फायदा नहीं होगा।" पारसनाथ दांत भींचकर कह उठा--- "मेरा मुंह नहीं खुलवा सकते।"


जवाब में दालूबाबा मुस्कुराया और वहां से बाहर निकल गया।

******

जगमोहन, बांकेलाल राठौर, सोहनलाल और पिंजरे में कैद महाजन खूनी निगाहों से बंगाली को देख रहे थे । कर्मपाल सिंह मुंह बंद किए एक तरफ खड़ा था ।


बंगाली भय से सहमा-सा दीवार के साथ सटा खड़ा था ।


सोहनलाल ने वहां पहुंचते ही बता दिया था कि बंगाली ने पारसनाथ को दालूबाबा के हाथों फंसवा दिया ।


"बंगाली त भी तू दालू जैसा कुत्ता है, जो अपने मतलब की खातिर सब कुछ कर देता है । तेरी वजह से पारसनाथ मौत के मुंह में जा पहुंचा। दालू भी हरामजादा । तू भी हरामजादा।"


"मुझसे गलती-गलती हो गई।" बंगाली सूखे होठों पर जीभ फेरते हुए कह उठा ।


"थारे से तो गलती हो गई हो और पारसनाथ तो गयो काम से ।" बांकेलाल राठौर दांत भींचे बंगाली की तरफ बढ़ा--- "वो मुंह खोले तो, फकीर बाबा फंसो, न खोलो तो उसो का बैंड बजो । करीब पहुंचकर बांकेलाल राठौर ने उसे कमीज से पकड़ा और जोर से घुटना उसके पेट में मारा ।


बंगाली के होठों से जबरदस्त चीख निकली।


"मार हरामजादे को ।" महाजन पिंजरे में बंद फड़फड़ा उठा--- "इसने हमारे खिलाफ, कुत्ते दालू की सहायता की है । "


"पृथ्वी पर जाएगा।" सोहनलाल के चेहरे पर खतरनाक भाव फैले थे ।


बांकेलाल राठौर ने जोरदार थप्पड़ बंगाली के गाल पर मारा तो चीखकर लटकता हुआ नीचे जा गिरा। उसका गाल फट गया था । होठों से खून बहने लगा । वो जल्दी से सीधा हुआ।


"मुझे माफ कर दो।" बंगाली हाथ जोड़कर गिड़गिड़ा उठा--- "पृथ्वी पर जाने के लालच में मेरा दिमाग खराब।' "1


"तूने पारसनाथ को मौत के मुंह में पहुंचा दिया ।" जगमोहन आगे बढ़ा और दांत भींचकर उसके सिर के बालों को पकड़कर तीव्र झटके से उसे खड़ा किया--- "तेरे को नहीं मालूम कि जब वे लोग उसे गर्म सलाखों से दगेंगे तो उसका क्या हाल होगा। पारसनाथ मुंह नहीं खोलेगा तो बुरी मौत मरेगा । अगर फकीर बाबा की असलियत बता देता है तो बाबा जाने किस मुसीबत में फंस जाएंगे। बहुत गलत काम कर दिया तूने ।" इसके साथ ही जगमोहन की ठोकरें और घूंसे बंगाली पर बरसने लगे ।


सारा कमरा बंगाली की चीखों से गूंज उठा।


महाजन जंगले की सलाखें पकड़े खूनी निगाहों से बंगाली को घूर रहा था ।


एक वक्त वह भी आया जब मार खाता बंगाली, पिंजरे के पास पहुंचा तो महाजन ने फुर्ती के साथ बांह बाहर निकाली और उसकी गर्दन के साथ लपेट ली और उसे भींच लिया। बंगाली छटपटा उठा । आंखे फटकर बाहर को आने लगी । दम घुटने से चेहरा लाल हो गया।


"यो तो इसो की जान लेने पर लगो हो ।" 


"महाजन ।" जगमोहन से तेज स्वर में बोला--- "गर्दन छोड़ दे इसकी । जान से नहीं मारना।"


महाजन की लाल आंखे, जगमोहन पर जा टिकी ।


"कान खोलकर सुन ले । ये नहीं बचेगा ।" महाजन मौत के से अंदाज में गुर्रा उठा ।


"ये बेवकूफी कर गया है तो तू तो मत कर ।" जगमोहन जल्दी से समझाने वाले स्वर में कह उठा--- "हो सकता है सब ठीक रहे । पारसनाथ बच जाए और...।"


"मुझे पारसनाथ की परवाह नहीं ।" महाजन ने दांत किटकिटाकर कहा । 


"तो फिर गुस्सा कैसा ?"


"इस कमीने ने दालू की सहायता करने की कोशिश की है। तू नहीं जानता दालू को । उसकी सहायता करने वाला मेरा पहला दुश्मन होगा । ये अब मेरे हाथों मर कर ही रहेगा ।" इसके साथ ही महाजन बंगाली के गले पर बांह का दबाव बढ़ाता जा रहा था । बंगाली मौत के करीब पहुंचा जा रहा था ।


"महाजन बांकेलाल राठौर आगे बढ़ा--- "तंम जानो हो दालो को, यो तो न जानो । इसो से गलती, गलती के साथो हुई ।। माफी दे दयो इसो को । छोड़ दयो ।"


"नहीं।" महाजन की बांह का जवाब अंत तक बढ़ गया था । वह दरिंदा लग रहा था । बंगाली छटपटाया ।


जगमोहन जल्दी से आगे बढ़ा और महाजन की बांह बंगाली के गले से अलग करने की कोशिश की । परंतु उस वक्त तो महाजन पागल की हद को पार कर चुका था।


भरपूर कोशिश के बाद भी वो महाजन की बांह से बंगाली का गला न छुड़ा पाया। 


कुल मिलाकर आधा मिनट भी नहीं बीता होगा कि बंगाली का प्रतिरोध समाप्त हो गया। महाजन ने जब उसके शरीर का भार महसूस किया तो तीव्र गगुर्राहट के साथ उसके गले से अपनी बांह हटा ली।


बंगाली की टांगे मुड़ी और पिंजरे के पास ही नीचे जा गिरा। उसकी सांसो की डोर टूट चुकी थी । वो मर चुका था।


हर किसी की व्याकुल निगाह बंगाली के मृत शरीर पर टिकी थी ।


कर्मपाल सिंह के चेहरे पर दुख और अफसोस का भाव स्पष्ट नजर आ रहे थे।


"देख लो ।" महाजन की चिल्लाहट में खतरनाक भाव थे--- "और कान खोल कर सुन लो कि जो भी उस हरामी दालू की बात मानेगा । उसकी सहायता करेगा, मैं उसका इससे भी बुरा हाल करूंगा । पिंजरे में कैद न होता तो उसकी बोटी-बोटी करके, तड़पा-तड़पाकर इसकी जान लेता । लेकिन ये आसान मौत मर गया ।" 


देर तक वहां सन्नाटा-सा छाया रहा।


कोई कुछ नहीं बोला । बार-बार सबकी निगाह बंगाली की लाश पर जा रही थी ।


"तन्ने तो आखिर 'वड' ही दयो बंगाली को।" बांकेलाल राठौर का हाथ मूंछ पर पहुंचा । महाजन खा जाने वाली निगाहों से बांकेलाल राठौर को देखा।"


"म्हारे बारो में का सोचो तंम ?" बांकेलाल राठौर मुस्करा पड़ा ।


महाजन की निगाह बारी-बारी सब पर फिरने लगी ।


"जगमोहन।" महाजन की आवाज में तीखापन था--- "रुस्तम राव को, गुलाबचंद ने, सजा के लिए पेशीराम के हवाले किया है । "


"हां ।" जगमोहन के माथे पर बल पड़े। उसे देखा ।


"पारसनाथ, हरामी दालू के पास है।"


"हां।"


"थारा का मतलब हौवे ?"


"देवराज चौहान और मोना चौधरी तिलस्म में फंसे हैं और बाकी सब यहां है।" महाजन की निगाह जगमोहन पर जा ठहरी ---- "लेकिन, लेकिन एक काम है जिसके बारे में कोई खबर नहीं।"


सबकी निगाह एक-दूसरे पर गई ।


फिर जगमोहन ने महाजन को देखा । 


"कौन कम है ?"


"पाली, जो हमारे साथ था । एक्स्पर्ट ताला तोड़ ।"


"जिसके कंधे का घाव, बाबा ने अपनी शक्ति के दम पर, पल भर में ही ठीक कर दिया था ।" सोहनलाल बोला । यह जानने के लिए पढ़ें अनिल मोहन का पूर्व प्रकाशित उपन्यास 'जीत का ताज"।


"हां । वही ।" महाजन के होठों से भिंचा सा स्वर निकला ।


इसका जवाब किसी के भी पास नहीं था।


"वो अभ्भी कई फंसो हौवे ।"


सोहनलाल गोली वाली सिगरेट सुलगाकर कश लिया।


"तेरे को अपना पहला जन्म याद आ गया है ?" सोहनलाल ने उससे पूछा।


"पूरा नहीं।" लेकिन काफी कुछ याद आ गया है ।" महाजन ने होंठ भींचे--- हरामी दालू के बारे में तो सब कुछ याद है मुझे ।"


"तेरे को पिंजरे में क्यों बंद किया गया ?"


"क्योंकि मैं कुत्ते दालू के टुकड़े करने के लिए उस पर झपट पड़ा था । मार देता हरामजादे को और वो भी जानता है नींलसिंह की ताकत । मालूम है उसे कि अगर वो मेरे हत्थे चढ़ जाता तो बच नहीं सकता था ।"


"क्या याद आया तेरे को पहले जन्म के बारे में?" सोहनलाल के स्वर गंभीर था।


महाजन की निगाह सब पर गई। चेहरे पर गंभीरता थी ।


"हम लोगों में दुश्मनी की गहरी दीवारें खड़ी हो गई थी । तुम जगमोहन, बांके, रूस्तम राव देवा की तरफ थे और मैं, पारसनाथ मिन्नो की तरफ । खून के प्यासे हो गए थे हम एकदूसरे के । हम लोगों में दुश्मनी की दीवारें हमने नहीं, बल्कि दूसरों ने अपने मतलब के लिए खड़ी की थी । उनमें से एक दालू था । यही दालू ।" एकाएक महाजन के होंठ भिंचते जा रहे थे--- "एक वही बाबा था । फकीर बाबा, लेकिन बाबा को अपनी गलती का एहसास हो चुका है, तभी तो वो देवराज चौहान और मोना चौधरी में एक बार फिर दोस्ती कराना चाहता है। ऐसे और भी लोग हैं और थे, जिनकी वजह से पूरी नगरी तबाही की चपेट में आ गई थी।" 


"पूरी बात बताओ । सब कुछ कैसे-कैसे हुआ ?"


सबकी निगाह पिंजरे में बंद, महाजन पर टिक चुकी थी महाजन के होंठ हिले। परंतु कोई शब्द नहीं निकला ।


"क्या हुआ ?"


"क्या बताऊं ।" महाजन की आवाज भारी हो गई --- "उन बातों को याद करने का भी मन नहीं करता तो होठों से कैसे निकलेंगे, शब्द । जब मैं पूर्व जन्म की बातों को अपने दिलोदिमाग में बर्दाश्त कर लूंगा तो तब बताऊंगा । इस वक्त तो उन्हीं बातों की वजह से मैं खुद परेशान हुआ पड़ा हूं।" कहने के साथ ही महाजन ने पैंट में फंसी बोतल निकाली और नीचे बैठ कर, सलाखों से टेक लगाएं, होठों से बोतल लगा ली ।


किसी ने कुछ नहीं पूछा ।


सबके मस्तिष्क में उलझन थी कि वे यहां से कैसे और कब आजाद होंगे?"

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