मैंने दिमाग में घुमड़ रहे सवाल किए। उन्होंने बताया कि पुलिस को यह बयान उन्होंने अवंतिका के कहने पर दिया है ।
मैं और बुरी तरह चौंक पड़ी।
पूछा कि अवंतिका ऐसा क्यों चाहती है ?
नशे की झोंक में उन्होंने बताया कि उन्हें नहीं पता कि उसे कैसे पता है कि उसके पति की हत्या तूने की है । वह तेरे जाते ही खोली पर आई थी। उसने कहा कि लाश वाली गाड़ी को लेकर हम अभी न निकलें। दो बजे के करीब निकलें । जानबूझकर खुद को पुलिस के चंगुल में फंसा लें और फिर वही बयान दें जो दिया है।
मेरी बुद्धि चकराकर रह गई।
पूछा कि इससे उसे क्या फायदा होने वाला है ?
उन्होंने बताया कि अवंतिका का मकसद केवल तुझे ही फांसी पर चढ़ाना नहीं है क्योंकि ऐसा तो वह हमारे मुंह से हकीकत कहलवाकर भी कर सकती थी। अपने पति की हत्या के इल्जाम में अब उसका मकसद तेरे साथ तेरे पति को भी फांसी पर चढ़ाना है। इसीलिए उसने हमसे इतना लंबा झूठ बोलने के लिए कहा ।
उन्होंने मुझे हजार-हजार के नोटों की चार गड्डियां भी दिखाईं।
कहा कि ---- देख, अंवतिका से ये मिले हैं हमें और इन्हें हम कोर्ट की अगली डेट पर हलाल करने वाले हैं । उस दिन हम अदालत में यह बयान देंगे कि हमें सुपारी देने वाली अकेली चांदनी ही नहीं बल्कि उसका पति भी था। दोनों साथ-साथ खोली पर आए थे ।
मैंने कहा ---- लेकिन ऐसा कहने पर तुम खुद भी तो हत्या के इल्जाम में फंसोगे? कोर्ट तुम्हें भी तो..
उन्होंने मेरी बात काटकर कहा ---- 'अवंतिका मैडम ने हमें सरकारी गवाह बनकर बचने का रास्ता बता दिया है।'
यह सब सुनकर मेरे पैरों तले से जमीन सरक गई ।
अपना फंसना तो मुझे किसी हद तक गंवारा था किंतु यह गंवारा नहीं था कि अशोक पर कोई भी छींटा पड़े।
बुरी तरह बौखला उठी मैं ।
चीखने-चिल्लाने लगी कि मैं अभी सारी हकीकत खोलकर तुम्हारा और अवंतिका का भांडा फोड़ दूंगी ।
छंगा - भूरा को शायद मुझसे ऐसी बेवकूफी की उम्मीद नहीं थी ।
सो, वे मुझ पर झपट पड़े ।
मेरा मुंह भींचने की कोशिश करने लगे।
हाथापाई शुरु हो गई ।
उसी हाथापाई में खोली में रोशनी कर रही एकमात्र लालटेन तार से निकलकर जमीन पर आ गिरी।
वहां शराब बिखर चुकी थी जिसने तुरंत ही आग पकड़ ली।
छंगा-भूरा उसे बुझाने में लग गए। मैं मौका लगते ही भाग आई। उस वक्त मुझे कुछ भी पता नहीं लगा था । बदहवाशी की हालत में घर आ गई । कमरे में बंद हो गई। समझ ही नहीं पा रही थी कि किसी को कुछ बताऊं भी या नहीं? बताऊं भी तो क्या ? सुबह तक यहीं जानने के लिए मरी जा रही थी कि छंगा-भूरा का क्या हुआ ? अब मुझमें अकेले वहां जाने की हिम्मत नहीं थी I फिर दिमाग में एक तरकीब आई और मैंने वही किया। बगैर आइडेंटिटी दिए एक 'सिम' खरीदा । उसे अपने मोबाइल में डाला और अशोक के नंबर पर मैसेज किया ---- 'छंगा- भूरा की खोली पर जाओ।' मैसेज करने के तुरंत बाद मैंने सिम नष्ट कर दिया था । अशोक ने मैसेज के बारे में मुझे बताया। दोनों छंगा - भूरा की खोली पर गए । खोली की राख के साथ छंगा - भूरा की लाशें भी देखकर मेरी रूह कांप गई । हालांकि मैंने जानकर कुछ भी नहीं किया था मगर खुद को छंगा - भूरा का हत्यारा समझने लगी। फिर अवंतिका का ख्याल आया। लगा----छंगा- भूरा की मौत उसे बौखलाकर रख देगी । बौखलाहट में वह फिर ऐसा कुछ कर सकती है जो मुझे और अशोक को नुकसान पहुंचाने वाला हो । अपनी तो खैर मुझे अब कोई परवाह ही नहीं रही थी मगर अशोक का बाल तक बांका नहीं होने देना चाहती थी ।
इसलिए, एक और भयानक फैसला लिया । अवंतिका की हत्या का फैसला । सोचा---- अशोक को उसकी काली नजर से बचाने का एकमात्र यही तरीका है। जब रहेगी ही नहीं तो अशोक का क्या बिगाड़ सकेगीं? यह बात मुझे जमती चली गई कि अवंतिका का खात्मा जरूरी है। मुझे मालूम था कि लंच के बाद वह हमेशा एक घंटे के लिए आराम करती है बल्कि सो जाती है। मैंने उसकी उसी आदत का फायदा उठाने का फैसला किया था । यह आज ही की बात है।
मैं किचन लॉन से होती हुई उसके कमरे में पहुंची।
उस वक्त सारा लॉन खुदा पड़ा था।
सोती हुई अवंतिका को एनीस्थिसीया और इंसुलिन के मिश्रण का इंजेक्शन लगाया। रतन के कपड़े वहां रखे ।
उसके कपड़े उतारकर अपने साथ ले आई।
उसकी बॉडी पर कुछ लिखने के लिए स्केच पेन साथ ले गई थी ।
यह सब इसलिए किया ताकि लोग उसकी लाश को देखते ही
समझ जाएं कि उसे भी उसी ने मारा है जिसने रतन को मारा है।
उसकी बॉडी पर मैंने 'किवो' लिखा है ।
जो लोग मलयालम भाषा जानते हैं उन्हें मालूम है कि 'किवो' का
मतलब 'चुड़ैल' होता है । चुड़ैल ही तो थी वह जो मेरे पति को बेगुनाह होने के बावजूद कानून के फंदे में फंसाना चाहती थी!
मगर मैं ।
जो अभी-अभी अवंतिका की हत्या करके आई हूं और अपने कमरे में शांत चित्त के साथ यह डायरी लिख रही हूं, अपने बारे में सोच रही हूं कि---- क्या थी मैं और क्या हो गई हूं?
रतन ने मेरे साथ रेप किया था, पर उसके जवाब में क्या मुझे वही करना चाहिए था जो किया ?
क्या वह उचित था?
शांत मन से सोचती हूं तो लगता है कि ---- नहीं ।
जाने किस जनून में फंस गई थी मैं!
फिर छंगा- भूरा की हत्या । -
हालांकि वहां जो कुछ हुआ वह मैंने जानकर नहीं किया था मगर फिर भी, उनके इतने विभत्स अंत की निमित तो मैं ही बनी ।
उसके बाद अवंतिका का कत्ल ।
वह तो मैंने पेशेवर कातिल की तरह किया।
सिर्फ इसलिए क्योंकि वह मेरे अशोक के लिए खतरा बन सकती थी! ये क्या हो गया है मुझे ? मुझे हर समस्या का हल सामने वाले के अंत में ही क्यों और कैसे नजर आने लगा है?
हल तो और भी होते हैं ।
वे मेरे दिमाग में क्यों नहीं आए?
मुझे लगता है, मेरे अंदर कोई क्रिमिनल बैठा था जो जाग गया है । अगर मैं जिंदा रही तो और लोगों के कत्ल भी कर सकती हूं क्योंकि अब तो कत्ल करना मुझे बहुत आसान लगने लगा है । नहीं... ऐसा नहीं होना चाहिए । इससे बेहतर तो ये है कि मैं ही न रहूं। मुझे माफ कर देना आशोक ! खुद ही से डर गई हूं मैं | करूंगी इसलिए करूंगी ताकि मेरे दिमाग में किसी और की हत्या का ख्याल न आए। चांदनी बजाज पूरी डायरी पढ़ने के बाद जब शगुन ने हम सबकी तरफ देखा तो सभी के चेहरों पर जो कुछ वे भाव कत्थक कर रहे थे जो खुद उसके चेहरे पर भी नाच रहे थे । वे भाव थे ---- हैरत के, अविश्वास के।
केवल विभा के चेहरे पर अलग भाव थे।
“चांदनी की इस डायरी ने तो सारा केस ही हल कर दिया। ” कहते वक्त विभा का लहजा बहुत ही दिलचस्प था----“हमारे दिमागों में घुमड़ रहे हर सवाल का जवाब है इसमें जो कुछ हुआ चांदनी ने किया । उस सबके लिए और कोई जिम्मेदार नहीं है और अपनी आत्मा के जगने पर उसने खुद को खत्म कर लिया। किस्सा खत्म।"
“ हमें अब भी यकीन नहीं आ रहा कि इतना सबकुछ चांदनी ने किया होगा ।” मणीशंकर ने कहा ---- “उस मासूम सी और भोली - भाली नजर आने वाली बच्ची ने।”
“क्यों?” विभा ने पूछा----“क्यों यकीन नहीं आ रहा आपको?
क्या ये राइटिंग चांदनी की नहीं है ?”
“राइटिंग तो उसी की है।" उनसे पहले अशोक बोल पड़ा।
“तो फिर तुम्हें तो यकीन आ रहा होगा !”
“य... यकीन तो मुझे भी नहीं आ रहा।” उसने कहा ---- “इतना सब कैसे कर सकी होगी चांदनी ?”
" ऐसी बातों पर यकीन आते-आते ही आता है। मरता हुआ शख्स झूठ नहीं बोलता और उसने यह डायरी लिखी ही तब है जब इस दुनिया से जाने का फैसला कर लिया था । "
“लेकिन कैसे हो सकता है आंटी?” अजीब-सी उत्तेजनात्मक अवस्था में शगुन ने कहा - - - - “कैसे हो सकता है ऐसा ? इसमें जो कुछ लिखा है वह छंगा - भूरा के बयान से बिल्कुल उल्टा है । "
“वे बोल रहे हैं।”
“अरे ! कल तो आपने कहा था कि वे झूठे नहीं हो सकते !”
“ मेरी बात क्या पत्थर की लकीर होती है?"
“नहीं... i... मैं नहीं मान सकता। अगर कोई सच्चाई लिखता है तो पूरी सच्चाई लिखता है । इसमें कहां लिखा है कि वह हमारे पास..
“दिमाग से काम लो शगुन ---- दिमाग से।” विभा ने बहुत तेजी से उसकी बात काटने के साथ तीखे लहजे में कहा, साथ ही मुझे और शगुन को ज्यादा न बोलने का इशारा करती बोली----“छंगा-भूरा लफंगे हैं। उनकी नस-नस में झूठ भरा है। चांदनी सीधी-सादी लड़की थी । इतनी ज्यादा कि इतना सब करने के बाद भी उसे 'गिल्टी' ने घेर लिया । तभी तो खुद को खत्म कर बैठी । वह झूठी नहीं हो सकती। "
शगुन का चेहरा तमतमाता रह गया । कुछ बोला नहीं वह। शायद मेरी तरह विभा के इशारे को समझ गया था । “लेकिन । ” असमंजस में फंसे अशोक ने कहा ---- “छंगा- भूरा के लिए आप ' हैं' शब्द कैसे यूज कर रहे हैं? वे तो मर चुके हैं न !”
“वे ऐसे मुर्दे थे जो जिंदा हो चुके हैं।” विभा मुस्कराई ।
“क... क्या मतलब ?” मणीशंकर बजाज बुरी तरह चौंके । बोले भले ही वे अकेले हों लेकिन चौंकने के वहीं भाव अशोक के चेहरे पर भी थे। उन दोनों को देखती हुई विभा ने कहा ---- “तुम लोगों के समझने के लिए फिलहाल इससे ज्यादा कुछ नहीं है कि खोली में लगी आग उन्हें जला नहीं पाई थी । किसी तरह बच निकले थे लेकिन अब पुलिस के चंगुल में हैं।"
“मगर मैंने और चांदनी ने तो उनकी लाशें भी देखी थीं।" मारे हैरत के अशोक का बुरा हाल हुआ जा रहा था । “उस कदर जली हुई लाशों को देखकर भला कौन कह सकता है कि वे किसकी लाशें हैं !”
“अगर वे, वे नहीं थे तो कौन थे ?”
“कहा न, फिलहाल वह तुम्हारे समझने के लिए नहीं है।” कहने के बाद एकाएक वह बातों का रुख मोड़ती हुई बोली----“लेकिन चांदनी ने अवंतिका के कपड़ों के बारे में कुछ नहीं लिखा है । उनका क्या किया उसने ? शायद लिखना भूल गई ! ”
एक बार फिर कमरे में खामोशी ।
“पुनः तलाशी लो।” विभा ने हमसे कहा----“यहीं होने चाहिएं।”
हम फौरन ही उसके हुक्म का पालन करने लगे मगर भरपूर कोशिश के बावजूद वांछित कपड़े नहीं मिले। मैंने इस उम्मीद में एक बंद खिड़की खोली कि शायद उसके पार ही कुछ हो ।
खिड़की के दूसरी तरफ किचन-लॉन था ।
वहां अमरूद, केले, पपीते, और मौसमी के कई पेड़ थे । जमीन में मुंह दिए मूली और शलजम के पत्ते भी नजर आ रहे थे।
मेरी नजरें उनके बीच कपड़ों को तलाश कर रही थीं ।
यही क्षण था जब किचन-लॉन को देखती विभा के मुंह से प्रसन्नता में डूबी किलकारी-सी निकली ---- “वॉव वेद... वॉव ।”
“क्या हुआ ?” मैं उसकी तरफ घूमा।
किचन-लॉन की तरफ देखती उस महामाया की आंखें यूं चमक रही थीं कि क्या अंधेरे में जुगनू चमकते होंगे !
“किचन-लॉन में जाओ।” मुझसे कहने के बाद उसने शगुन से कहा ---- “तुम भी । वहां पपीते के दो पेड़ हैं। दोनों एक-एक पर चढ़ जाओ। दोनों पेड़ों पर जो पपीते लटक रहे हैं, उनमें से एक पपीता ऐसा जरूर होना चाहिए जो बीच में से कटा हुआ होगा। उसे ले आओ।”
खोपड़ियां घूम गईं हमारी । दोनों के मुंह से एक साथ निकला----“क... क्या मतलब ?”
“मतलब बाद में पूछना, पहले में वो करो जो मैंने कहा है।”
“लेकिन आंटी।” शगुन बोला-~~-“भला पेड़ पर लटका कोई पपीता कटा हुआ कैसे हो सकता है ?”
“ और अगर है भी तो तुम्हें कैसे पता ?” मैंने पूछा ।
“ये खराबी मुझे तुम दोनों में ही लग रही है। हर सवाल का जवाब तुरंत चाहते हो ।” उसने कहा ---- “जबकि मेरा कहना है कि वह करो तो सही जो मैंने कहा है। मतलब खुद समझ जाओगे।”
समझ में हमारी अब भी कुछ नहीं आया था लेकिन किया वही जो उसने कहा था । असल में, इस वक्त वह एक्साइटिड ही इतनी थी जितनी अपने जीवन में पहले कभी नहीं देखी थी ।
जहां मैं यह समझ गया था कि उसने कोई बड़ी गुत्थी सुलझा ली है वहीं, यह भी समझ गया था कि बार-बार पूछने पर भी इस बारे में कुछ बताने वाली नहीं है । सो, एक ही जम्प में मैं किचन-लॉन में था।
शगुन ने भी मेरे पीछे जम्प लगाई ।
मणीशंकर बजाज की आवाज मेरे कानों में पड़ी थी ---- “बात क्या है विभा जी ? पेड़ पर कटे हुए पपीते का क्या मतलब हुआ ?”
मुझे पता नहीं विभा ने उसके सवाल के जवाब में क्या कहा क्योंकि तब तक मैं एक पेड़ की तरफ बढ़ चुका था ।
शगुन ने दूसरे पेड़ पर चढ़ना शुरु कर दिया था।
वह मुझसे पहले पपीतों तक पहुंच गया और उस पर लटके एक एक पपीते को उलट-पलटकर देखने लगा ।
मैं उसके बाद अपने हिस्से में आए पेड़ पर लटके पपीतों के गुच्छे तक पहुंचा । शगुन की तरह ही एक - एक पपीते को देखने लगा और उस वक्त तो मेरे समूचे जिस्म में रोमांच की बहुत ही अनोखी-सी लहर दौड़ती चली गई जब गुच्छे के बीच एक ऐसे पपीते को लटके पाया जो सचमुच बीच में से घिरा हुआ था ।
-जैसे किसी ने चाकू से काटा हो ।
“म... मिल गया विभा।” आश्चर्य की पराकाष्ठा के कारण मेरे मुंह से चीख-सी निकल गई थी । तने से चिपके ही चिपके मैंने खिड़की के उस पार खड़ी विभा की तरफ देखते हुए कहा- “सचमुच यहां एक ऐसा पपीता है जिसे किसी ने चाकू से चीर रखा है । "
“ उसे तोड़कर ले आओ।" विभा ने कहा ।
दूसरे पेड़ के तने से चिपका शगुन भी मेरी तरफ ही देख रहा था।
मैंने उस पपीते को पेड़ से तोड़ा और फिर धीरे-धीरे सरकता हुआ नीचे उतरने लगा जबकि शगुन एक जम्प में जमीन पर पहुंच गया था ।
मेरे नीचे पहुंचते ही शगुन ने भी उत्सुकता के साथ उस पपीते को देखा जिस पर लंबाई में चाकू मारा गया था । फांकें अलग नहीं की गई थीं, केवल इस तरह चाकू चलाया गया था जैसे पपीता काटने के लिए पहला चाकू चलाया जाता है।
मैं उसे उसी पोजीशन में लिए विभा के पास पहुंचा।
आश्चर्य और उत्सुकता की ज्यादती के कारण मणीशंकर बजाज और अशोक का भी बुरा हाल था । अशोक के मुंह से तो यह बात निकल भी गई - - “ये मामला क्या है? भला पेड़ पर लटके पपीते में किसी को चाकू मारने की क्या जरूरत थी और आपको कैसे पता कि पेड़ पर लटके पपीतों में से एक पपीता ऐसा होना चाहिए?”
विभा ने पपीता अपने हाथ में आते ही उसे दो भागों में विभक्त कर दिया और मुझसे बोली-- “ये देखो वेद, ये है पीला घर और इसके काले बीजों को देखो - - क्या ये काले मोती से नहीं लग रहे!”
उसके शब्द 'धाड़' की जोरदार आवाज के साथ मेरे जेहन से टकराए और मेरे ही क्यों, शगुन के साथ भी शायद ऐसा ही हुआ था।
तभी तो जोश में भरा बोला ---- “और ये, काले मोतियों के बीच पड़ी पोलीथीन की यह छोटी-सी गांठ है उसके बचाव का रास्ता । "
“ अब खुले हैं तुम्हारे दिमाग के तंतु ।” कहने के साथ विभा ने पोलीथीन की उस छोटी-सी गांठ को पपीते के बीजों के बीच से उठा लिया था । पपीते के दोनों हिस्से उसने वहीं कार्पेट पर डाल दिए ।
“लेकिन विभा ।” मैं कह उठा ----“अब क्या फायदा? जब वही न रही तो बचाव के इस रास्ते का भला मतलब क्या हुआ? मैं तो कहूंगा कि इस पहेली को हल करने में तुम भी बहुत लेट हो गईं ।”
“कोई भी पहेली यूं ही हल नहीं हो जाती वेद, चांदनी के कमरे से सटे किचन-लॉन में पपीते के पेड़ देखे तो पीले घर और उसमें रहने वाले काले मोतियों का ख्याल आया।”
“हमें भी तो कुछ बताइए विभा जी ।” जिज्ञासा की अधिकता ने मणीशंकर बजाज और अशोक का बुरा हाल कर रखा था किंतु बोला मणीशंकर था- - - - “आप लोग किस बारे में बातें कर रहे हैं और इस छोटी-सी गांठ में क्या है ?”
“वह तो अभी हमने भी नहीं देखा । ”
“तो देखिए न !” अशोक ने कहा ।
“यहां नहीं।” विभा ने साफ कहा ---- "इसमें जो भी कुछ है, वह तुम्हारे नहीं, सिर्फ हमारे देखने के लिए है ।”
“क... क्या मतलब ?” मणीशंकर बजाज बौखला गए ।
“आओ वेद ।” कहने के साथ वह तेज कदमों के साथ दरवाजे की तरफ बढ़ गई थी। मैं और शगुन उसके पीछे लपके ।
लपके तो अशोक और मणीशंकर बजाज भी थे परंतु अब विभा को उनमें से किसी की जैसे परवाह ही नहीं थी ।
वे कहते रह गए कि हमें कुछ तो बता दीजिए, ये सब क्या चक्कर है? पेड़ पर कटा हुआ पपीता क्यों था? उसमें से आपको क्या मिला है? मगर, मजाल है जो विभा ने एक लफ्ज भी कहा हो । उनकी कोई बात जैसे उसके कानों तक पहुंच ही नहीं रही थी। लिमोजीन में बैठते ही उसने शोफर से चलने के लिए कहा। हम दोनों कूद-कूदकर अपनी सीटों पर सवार हुए हैरत के मारे । मणीशंकर बजाज और अशोक कलपते रह गए जबकि लिमोजीन हवा के झोके की तरह आयरन गेट की तरफ बढ़ी |
लिमोजीन सड़क पर पहुंची ही थी कि शगुन ने कहा ---- “उस गांठ को खोलिए आंटी। मैं उसमें मौजूद सामान को देखने के लिए..
“ पहली बार मैं भी किसी चीज को देखने के लिए इतनी ज्यादा उत्सुक हूं कि सब्र नहीं कर पा रही।” कहने के साथ उसने पोलीथीन की उस छोटी-सी गांठ को खोलना शुरु कर दिया था ।
मैं और शगुन उचक- उचककर उसकी उंगलियों को देखने लगे। गांठ खुली । उसमें सिर्फ एक कागज था । कागज पर लिखा था ---- ‘456 शंकर विहार कॉलोनी, चौमा रोड के नजदीक, गुड़गांव ।' बस । कागज पर उस एड्रेस के अलावा और कुछ नहीं लिखा था
और वह भी किसी ने हाथ से नहीं लिखा था । कम्प्यूटर का लिखा वह लेजरप्रिंटर से निकला प्रिंट था । अभी हम दोनों उस एड्रेस का मतलब समझने की कोशिश कर ही रहे थे कि विभा ने मोबाइल पर संपर्क स्थापित करके कहा---- “मैं बोल रही हूं कमीश्नर साहब ।”
“बोलिए बहूरानी।” कमीश्नर की आवाज सारी गाड़ी में गूंजी ।
“एक एड्रेस नोट कीजिए ।” कहने के बाद उसने कागज पर लिखा एड्रेस नोट कराया और बोली ---- “आप समझ ही गए होंगे कि मामला दिल्ली से बाहर का है, क्या वहां कोई मदद कर सकते हैं?” “आप बोलिए तो सही, करना क्या है ?” कहा गया -- "इस वक्त गुड़गांव में तैनात एस. एस. पी. हमसे कई बेच जूनियर है ।”
“वैरीगुड | उससे कहिए कि इस एड्रेस पर कोई कैद है। अभी मैं नहीं कह सकती कि कैद करने वाले कौन हैं, कितने हैं और उनकी ताकत क्या है। यह सब उसे खुद पता लगाना है और पता लगाने के बाद कैदी को और उसे कैद करने वालों को अपने कब्जे में लेना है । "
“मैं उसे अभी आदेश करता हूं बहूरानी । ”
“यह कार्यवाई जल्दी से जल्दी होनी चाहिए । एस. एस. पी. को खासतौर पर हिदायत दें कि इस काम को वह अपने किसी जूनियर को न सौंपे। जो भी करने की जरूरत हो, अपने नेतृत्व में खुद करे।”
“ओ.के. ।”
“एक और बात ।” विभा ने जल्दी से कहा---- -“कैदी को बाल बराबर भी नुकसान नहीं पहुंचना चाहिए। अपराधियों को अगर क्षण भर पहले भी यह पता लग गया कि उन्हें घेरा जा रहा है या दबोचने के लिए कोशिश की जा रही है तो वे कैदी को नुकसान पहुंचा सकते हैं। यदि ऐसा हो गया तो इस सबका कोई फायदा नहीं होगा। सारा मिशन कमांडो कार्यवाई की तरह होना चाहिए । इस तरह कि उन्हें सोचने-समझने का जरा भी मौका न मिले । अचानक ही खुद को पुलिस की गिरफ्त में पूरी तरह जकड़ा पाएं।"
“मैं यशवीर सलूजा को सबकुछ समझा देता हूं बहूरानी ।”
“यशवीर सलूजा ?”
“ एस. एस. पी. का नाम है ।”
“बताने के लिए शुक्रिया । उससे कहिए कि मैं दो से ढाई घंटे के बीच इसी एड्रेस पर पहुंचूंगी । वहीं मिले ।”
“ओ. के. ।” उधर से कहा गया ।
विभा ने 'थैंक्यू' कहने के बाद संबंध - विच्छेद कर दिया ।
मैंने जरा भी समय गंवाए पूछा ---- “वहां कौन कैद है विभा ? ”
“नाम बताने से काम चलेगा?” उसने पलटकर सवाल किया ।
“क्या मतलब?”
“तुमने पूछा कौन कैद है।" उसने मेरी तरफ देखा ---- “जवाब में मैं उसका नाम ही बता सकती हूं न !”
“बताओ।”
“कामता प्रसाद ।”
“ये कौन हुआ ?”
“वहां पहुंचने के बाद ही पता लगेगा ।”
मैं निरुत्तर-सा हो गया। जबकि शगुन ने पूछा----“कागज पर तो केवल एड्रेस लिखा है आंटी । आपको यह कैसे पता लगा कि उसका नाम क्या है और वह वहां कैद है?”
“जब हम एल. एल. बी. में पढ़ते थे तो तुम्हारा ये पप्पू-पप्पा फर्स्ट आता था। फर्स्ट भी तब आना शुरु हुआ जब मेरी शोहबत में पड़ गया था । फर्स्ट ईयर में तो पट्ठा सेंकिड ही रह गया था जबकि मैंने हर ईयर में यूनिवर्ससिटी को टॉप किया था ।”
“इस बात का मेरे सवाल से क्या मतलब हुआ?"
“मतलब ये हुआ मेरे बच्चे कि इसकी समझदानी और मेरी समझदानी में कोई तो फर्क होगा !”
“मैं उसी फर्क को तो जानना चाहता हूं।"
“ अभी छोटे हो, दिमाग पर ज्यादा जोर मत डालो ।” एक बार फिर उसके कहने का अंदाज ऐसा था जिससे जाहिर था कि जितना बता चुकी है, उससे आगे कुछ नहीं बताएगी ।
चांदनी के छंगा- भूरा के पास जाने और उनसे सौदा करने के संबंध में तीन कहानियां सामने आ चुकी थीं।
पहली वह, जो चांदनी ने हमारे घर आकर सुनाई थी । यह कि छंगा-भूरा से कोई सौदा करना तो दूर, वह उन्हें जानती तक नहीं थी। पुलिस को दिया गया उनका यह बयान न केवल झूठा था बल्कि उसे हैरत में डाल देने वाला भी था कि उसने उन्हें रतन के मर्डर की सुपारी दी थी और उन्होंने रतन को किडनेप के बाद कत्ल किया था।
दूसरी वह, जो छंगा-भूरा ने हमारे चंगुल में फंसने के बाद सुनाई थी। यह कि चांदनी उनके पास रतन की लाश लेकर पहुंची थी और उसी ने उनसे लाश के साथ गिरफ्तार हो जाने तथा अपने खिलाफ बयान देने के लिए कहा था ।
तीसरी वह, जो चांदनी की डायरी से सामने आई थी । यह कि चांदनी ने उनसे सिर्फ लाश को ठिकाने लगाने का सौदा किया था । खुद को पुलिस के चंगुल में उन्होंने अवंतिका के कहने पर फंसाया और चांदनी के खिलाफ बयान भी उसी की योजना के मुताबिक दिया ।
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