विक्रम बुरी तरह चौंका । मगर प्रगट में सामान्य बना रहा । 'अमन' के मालिक से तो वह कभी नहीं मिला था । लेकिन वह जानता था, 'अमन' एक सरकार विरोधी अमेरिकी नीतियों का पक्षधर और साम्प्रदायिकता फैलाने वाला समाचार-पत्र था । उसने सुन रखा था कि उस अखबार को अमेरिका से मोटी आर्थिक सहायता प्राप्त होती थी । यह बात सही भी हो सकती थी क्योंकि सरकुलेशन के हिसाब से तो उसे कई साल पहले बंद हो जाना चाहिए था जबकि वो दिनों-दिन तरक्की करता जा रहा था । उसी अखबार के मालिक के साथ किरण वर्मा के अपहरणकर्ताओं में से एक की घनिष्टता के बारे में जानने के बाद विक्रम को पहली बार अहसास हुआ कि उसकी भागदौड़ और मेहनत का जल्दी ही ठोस नतीजा निकलने वाला था ।



"हां ।" उसने सहमतिसूचक सिर हिलाते हुए पूछा-"कनकटे के साथ मनमोहन की क्या सांठगांठ हो सकती है ?"



"पता नहीं ।"



"तुमने उन दोनों को आखिरी दफा कब साथ-साथ देखा था ?"



कल शाम । वे मनमोहन की स्टेशन वैगन में जा रहे थे ।"



"स्टेशन वैगन में ?" विक्रम के मुंह से अचानक ही निकल गया-"रंग कैसा था उसका ?"



मदनलाल ने उसे घूरा ।



"नीला ! क्यों ?"



"कुछ नहीं । यूं ही पूछा था ।" विक्रम ने कहा-"यह मनमोहन मिलेगा कहां ?"



"अगर कहीं गया नहीं होगा तो अपनी प्रेस या अखबार के दफ्तर में ही मिलेगा ।"



"उसकी रिहाइश भी वहीं है ?"



"हां, लेकिन वह शादीशुदा नहीं है ।"



विक्रम खड़ा हो गया ।



"बहुत-बहुत शुक्रिया मदन !"



"शुक्राने को गोली मारो । यह बताओ, तुम किस फेर में हो ? अचानक मनमोहन में दिलचस्पी लेने की क्या वजह है ? क्या इसका भी ताल्लुक शहर में फैली तुम्हारी चर्चा से ही है ?"



"तुमने एक साथ इतने सवाल कर दिए कि मैं जवाब नहीं दे सकता ।" विक्रम ने हंसते हुए कहा और बाहर निकल गया ।



वर्षा का वेग पहले की अपेक्षा बढ़ गया था । आसमान में छाये घने काले बादलों ने रात के अन्धकार में और वृद्धि कर दी थी । तेज हवा ने पहले से ही सर्द वातावरण को और ज्यादा सर्द बना दिया था और रह-रहकर कड़कती बिजली उसे तनिक भयावह भी बना रही थी ।



बरसाती की जेबों में हाथ घुसेड़े सुनसान सड़क पर विक्रम 'अमन' के दफ्तर की ओर चल दिया । उसने बरसाती के कालर पुनः खड़े कर लिए थे और रेन कैप माथे पर पर झुका ली थी । वह जान-बूझकर लड़खड़ाकर चल रहा था ताकि उसे अगर कोई देखे तो महज एक शराबी समझकर नजरअंदाज कर दिया जाए ।



वह करीब छ: फुट ऊंची चाहरदीवारी से घिरी उस इमारत के पास जा पहुंचा जिसमें ग्राउंड फ्लोर पर 'अमन' प्रिंटिंग प्रेस था और फर्स्ट फ्लोर पर 'अमन वीकली' का ऑफिस था । इमारत के सामने से गुजरते हुए उसने नोट किया, मेन गेट लॉक नहीं था मगर तमाम दरवाजे और खिडकियां बंद थे । अन्दर कहीं से रोशनी या किसी की मौजूदगी का कोई आभास नहीं मिल रहा था । तभी सहसा बादलों की गरज के साथ बिजली चमकी । आसमान में एक पल के लिए तीव्र प्रकाश की एक टेडी-मेढ़ी रेखा खिची और लुप्त हो गई । लेकिन उस क्षणिक प्रकाश में, इमारत की बगल में खड़ी, नीली स्टेशन वैगन उसे साफ दिखाई दे गई थी ।



अगर मदनलाल की बात को सही माना जाए तो स्टेशन वैगन की वहां मौजूदगी से जाहिर था कि मनमोहन भी इमारत में ही था ।



विक्रम पल भर हिचकिचाया, फिर उसने पता लगाने का फैसला कर लिया ।



इमारत का चक्कर लगाकर पूरी तरह तसल्ली करने के बाद कि बाहर कहीं से निगरानी नहीं की जा रही थी, वह दीवार फांदकर पिछवाड़े जा पहुंचा ।



पिछला दरवाजा अन्दर से लॉक था ।



विक्रम कई क्षण खड़ा सुनने की कोशिश करता रहा । लेकिन किसी प्रकार की आहट सुनाई नहीं दी ।



उसने जगतार वाली रिवॉल्वर अपनी जेब से निकाली, हाथ से की-होल टटोलकर रिवॉल्वर की नाल का सुराख उससे सटाकर तत्परतापूर्वक प्रतीक्षा करने लगा ।



अगली दफा ज्योंही बिजली कड़की उसने ट्रिगर दबा दिया । फायर की आवाज बिजली की कड़क में गुम होकर रह गई ।



लॉक टूट गया ।



विक्रम ने चंद क्षण इंतजार किया फिर डोरनॉव घुमाते हुए अन्दर की ओर दबाव डाला ।



दरवाजा खुलने लगा ।



अन्दर न तो गहरे अंधेरे के अलावा कुछ दिखाई दिया और न ही किसी प्रकार की आहट सुनाई दी । उसने भीतर दाखिल होकर दरवाजा पुनः बन्द कर लिया ।



वहां बसी मशीनी तेल, छपाई की स्याही वगैरा की मिली-जुली बू से विक्रम ने अनुमान लगाया कि वह प्रिटिंग सैक्शन में था ।



उसने अंधेरे में दोनों ओर सावधानीपूर्वक टटोला तो समझते देर नहीं लगी कि वो स्थान एक गलियारा था ।



वह दबे पांव धीरे-धीरे अंधों की भांति टटोलता हुआ आगे बढ़ा ।



कोई आठ-दस गज जाने के बाद अचानक वह ठिठका और उसके पैर जमीन से चिपककर रह गए ।



उसे धीमे ख़र्राटों की आवाज़ सुनाई दी थी ।



उसने गौर से सुना । ख़र्राटों की वो आवाज़ दायीं ओर से आ रहीं थी । ऐसा लगता था, पास ही कोई केबिन था और उसमें कोई सो रहा था । अनुमानतः वह केबिन प्रेस के कामकाज के लिए ऑफिस के रूप में प्रयुक्त होता प्रतीत होता था ।



विक्रम कई क्षण दुविधा में फंसा रहा-केबिन में दाखिल होने और अन्दर मौजूद व्यक्ति पर काबू पाने की कोशिश की जाए या नहीं ।



गहन अन्धकार में कुछ भी नजर न आ पाने के कारण वह जानता था कि उसकी, जरा-सी भी चूक घातक सिद्ध हो सकती थी । बेहद एहतियात बरतते हुए उसने बहुत ही धीरे-धीरे हाथ मारते हुए टटोला ताकि एकदम पास के भूगोल से परिचित हो सके ।



इस प्रयास में बायीं ओर दीवार के पास खाली स्थान उसकी जानकारी में आए बगैर न रह सका । फिर जल्दी ही उसे पता चल गया कि वो खाली स्थान न होकर वास्तव में ऊपर जाने वाली सीढ़ियों का दहाना था ।



वह चंद सैकेण्ड असमंजस में पड़ा रहा फिर भूत की तरह नि:शब्द आगे बढ़ा और फिर उसी तरह चढ़ने लगा ।



सीढ़ियां ऊपर तक चली गई थीं । लेकिन वह पहली मंजिल की लैंडिंग पर पहुंचकर ही रुक गया ।



वहां बने दरवाजे की डोरनॉव टटोलकर उसने घुमाई और पल्ले को पीछे धकेला तो वह खुलता चला गया ।



उसने आगे झुककर झांका ।



करीब दस-बारह फुट के फासले पर सामने उसे रोशनी की एक पतली-सी लकीर दिखाई दी । प्रत्यक्षत: सामने गलियारा था और वहां एक कमरे के दरवाजे के निचले भाग में चौखट के साथ बनी झिरी से रोशनी बाहर आ रही थी ।



विक्रम दरवाजे से गुजरकर बगैर आवाज किए अंधेरे गलियारे में चलता हुआ रोशनी की लकीर के पास पहुंचा । उसका अनुमान सही निकला । रोशनी एक बन्द दरवाजे के निचले भाग से ही बाहर आ रही थी ।



वह दरवाजे से कान सटाकर सुनने का प्रयत्न करने लगा । वह पूर्णतया सतर्क था और उसके हाथ में थमी रिवॉल्वर किसी भी क्षण आग उगलने के लिए तैयार थी ।



सहसा अन्दर से पहले सिसकने की आवाज उभरी फिर कठोर स्वर में कहा गया-"खामोश !"



उस स्वर का लहजा कुछ अजीब था ।



पुन: सिसकी का स्वर उभरा ।



"खामोश, मोहतरमा !" इस दफा नई आवाज में कडी चेतावनी दी गई-"वरना, मजबूरन हमें हमेशा के लिए आपको खामोश करना पड़ेगा ।"



"मोहतरमा !"



विक्रम बुरी तरह चौंका । फिर अगले ही क्षण उसके होंठों पर मुस्कान तैर गई । मौजूदा हालात में मोहतरमा लफ्ज़ सुनने के बाद सिर्फ एक ही आकृति उसके जेहन में उभर सकती थी ।



उसे लगभग पूरे तौर पर यकीन हो गया कि उसका अनुमान सही निकला । वह अपनी मंजिल के पास आ पहुचा था । मन-ही-मन राहत महसूस करते हुए उसने अपने अगले कदम के बारे में सोचा । अन्दर से उभरे जिस कड़े स्वर में चेतावनी दी गई थी, हालांकि उसमें हिंसा का भी पुट था । लेकिन विक्रम जानता था कि उस स्वर के स्वामी ने अभी कोई हिंसक कदम नहीं उठाना था ।



विक्रम मन-ही-मन कुछ निश्चित करके वहां से हटा । वह नोट कर चुका था कि उस मंजिल पर उस कमरे के अलावा और कहीं किसी की मौजूदगी का कोई चिह्न नहीं था ।



वह दबे पांव गलियारे से गुजरकर वापस सीढ़ियों में आ गया और इसी प्रकार बगैर आवाज किए ऊपर की मंजिल पर पहुंचा । वहां लैडिंग पर बने दोनों दरवाजों पर ताले झूल रहे थे । यानी उस मंजिल पर कोई नहीं था ।



विक्रम अपेआकृत निश्चिंत हो गया । उसके अनुमानानुसार पहली मंजिल के उस कमरे और नीचे केबिन के अलावा इमारत में कहीं और कोई नहीं था ।



वह सीढ़ियां उतरकर वापस पहली मंजिल पर पहुंचा और उसी कमरे के सम्मुख जा खड़ा हुआ जिसके दरवाजे की झिरी से रोशनी बाहर आ रही थी ।



उसने डोरनॉव घुमाने की कोशिश की मगर कामयाब नहीं हो सका । दरवाजा अन्दर से लॉक्ड था ।



तभी अन्दर से सिसकने की आवाज सुनाई दी । साथ ही चेतावनी दी गई-"आखिरी दफा कहता हूं, बिसूरना बन्द करो । इस तरह टसुवे-बहाने से कुछ नहीं होगा ।"



"तुम बेकार मगजमारी कर रहे हो ।" दूसरी आवाज में कहा गया-"जवान और खूबसूरत औरतों को वश में करने का एक ही तरीका है...।"



"बको मत !"



विक्रम ने वक्त जाया करना मुनासिब नहीं समझा । उसने रिवॉल्वर को होल से सटाकर फायर कर दिया । साथ ही दरवाजे पर जोरदार ठोकर जमा दी ।



लॉक टूट जाने के कारण दरवाजा भड़ाक से खुल गया ।



दरवाजे के ठीक सामने दो आदमी पास-पास दो कुसियों पर बैठे थे । उनके सामने मेज पर एक रिवॉल्वर रखी थी । वे दोनों आंखें फाड़े विक्रम को ताक रहे थे । फिर अचानक उनमें से एक का हाथ मेज पर रखे रिवॉल्वर की ओर लपका ।



विक्रम ने अन्दर जाने का उपक्रम करने की बजाय तुरन्त उस पर फायर झोंक दिया । गोली उसके चेहरे से टकराकर खोपड़ी को फाड़ती हुई गुजर गई । उसके जिस्म के ऊपरी भाग को तेज झटका लगा और कुर्सी से लुढ़ककर नीचे जा गिरा । वह मर चुका था ।



सहसा मानों उसके साथी का सम्मोहन टूट गया । उसका दायां हाथ अपने कोट की जेब की ओर लपका ।



तभी विक्रम ने लगातार दो फायर कर दिए ।



दोनों गोलियां उस आदमी की छाती में ठीक दिल के ऊपर जा घुसीं और वह तत्क्षण मर गया ।



विक्रम जानता था, फायरों की आवाजें नीचे मौजूद व्यक्ति सुन चुका होगा और वह वजह जानने के लिए जरूर ऊपर आएगा । और उसके अकेला आने का मतलब होता कि नीचे उसके अलावा और कोई नहीं था ।



विक्रम फौरन वहां से हटा । जरा भी आहट किए बगैर वापस लैडिंग पर पहुंचा । गलियारे का दरवाजा बन्द करके वह ऊपर जाने वाली सीढ़ियों के पहले मोड़ पर घूमने के बाद दीवार के साथ लगकर इंतजार करने लगा ।



कुछ ही क्षणोपरान्त नीचे सीढ़ियों पर एक टॉर्च की रोशनी पड़ी, साथ ही तेजी से आते कदमों की आवाज सुनाई दी ।



विक्रम की निगाहें नीचे लैंडिंग पर टिकी थीं । उसके विचारानुसार आगंतुक जो भी था, वह अव्वल दर्जे का बेवकूफ था या फिर उसे इस बात का बड़ा पूरा भरोसा था कि इमारत में कोई सेंध लगाकर नहीं घुस सकता था ।



आगंतुक के ऊपर आने के ढंग से जाहिर था, वह समझ रहा था कि कोई दुर्घटना हो गई थी । इसके अलावा अन्य किसी बात की अपेक्षा नहीं थी ।



लैडिंग पर पहुंचने के बाद उसने एक दफा भी ऊपर देखने की बजाय दरवाजा खोला और गलियारे में दाखिल हो गया ।



टॉर्च की जितनी परावर्तित रोशनी उस पर पड़ रही थी, उसमें विक्रम सिर्फ इतना ही नोट कर पाया कि वह औसत कद का कोई भारी बदन आदमी था ।



विक्रम भूत की तरह निःशब्द मगर तेजी से सीढ़ियां उतरकर उसके पीछे लपका और कमरे के दरवाजे तक पहुंचने देने से पहले ही उसकी पीठ में रिवॉल्वर जा गड़ाई ।



"हैंडस अप !"



उसके हाथ से टॉर्च छूट गई और उसने चुपचाप अपने हाथ सिर से ऊपर उठा दिए ।



कमरे के खुले दरवाज़े से बाहर गलियारे में धूमिल रोशनी में विक्रम ने देखा-उसके दोनों हाथ खाली थे ।



"कमरे में चलो !" उसने आदेश दिया ।



आगंतुक चुपचाप आगे बढ़ गया ।



दोनों कमरे में दाखिल हुए ।



भारी बदन वाले ने वहां पड़ी दोनों लाशों पर बारीबारी से निगाह डाली । अचानक उसकी टांगें कांपने लगीं, फिर उसके कण्ठ से घुटी-सी चीख निकली और फिर वह बेहोश होकर नीचे जा गिरा ।



विक्रम ने नीचे झुककर उसकी जेबें थपथपाईं । हिप पॉकेट में पिस्तौल थी । वो निकालकर उसने अपनी जेब में डाल ली । रोशनी में गौर से देख लेने के बाद अब तक वह जान गया था कि वो आदमी उसके लिए अजनबी था ।



उसने कमरे के दूसरे सिरे पर निगाहें घुमाईं ।



दीवार के साथ पड़े पलंग पर सिकुड़नों भरे बिस्तर पर किरण वर्मा लेटी हुई थी । वह अभी भी हास्पिटल का ही सफेद गाउन पहने थी । मैला-सा एक कम्बल लापरवाही से उसकी टांगों पर डाला हुआ था । उसकी दोनों कलाइयों और टखने टेप द्वारा पलंग के साथ बंधे हुए थे ।



उसका गाउन कुछ इस ढंग से अव्यवस्थित था मानों किसी ने उसके नग्न जिस्म को देखने की कोशिश की थी । विक्रम ने गाउन ठीक करके उसके चेहरे पर निगाहें डाली ।



"उसकी आंखें खुली थीं । वह होश में थी और अपनी उस हालत में भी खूबसूरत लग रही थी । वह बोली कुछ नहीं । बस आश्चर्य एवं अविश्वासपूर्वक उसे ताकती रही ।



विक्रम ने भी कुछ कहने की बजाय पहले उसकी कलाइयों और टखनों का टेप उतार फेंका ।



किरण वर्मा बन्धनमुक्त होने के बाद भी उसी तरह चुपचाप पड़ी रही । लेकिन उसके होठों पर बड़ी ही चित्ताकर्षक मुस्कान पैदा होकर रह गई थी ।



विक्रम नीचे बेहोश पड़े भारी बदन वाले की ओर से भी गाफिल नहीं था । उसके शरीर में हरकत होने लगी थी ।



विक्रम ने उसकी पसलियों में दो ठोकरें जमा दीं । उसने कराहते हुए आंखें खोली । उसका चेहरा कागज की भांति सफेद था और आंखें आतंक से फटी जा रही थीं । जाहिर था कि अपने पास पड़ी लाशें और विक्रम के हाथ में थमी रिवॉल्वर देखकर वह समझने पर मजबूर हो गया था कि उसका भी वही अंजाम होने वाला था ।



विक्रम जानता था, उस हालत में उससे झूठ बोलने की अपेक्षा नहीं की जा सकती थी ।



"कौन हो तुम ?" उसने पूछा ।



"म...मनमोहन ।" वह हकलाता-सा बोला ।



"ओह, तो तुम हो, इस प्रेस और अखबार के मालिक ?"



"हां ।"



"उठकर बैठो ।"



मनमोहन उठकर बैठ गया ।



"तुम्हारा दोस्त कनकटा कहां है ?" विक्रम ने पूछा ।



मनमोहमन ने मृत पडे उस आदमी की ओर संकेत कर दिया जिसे विक्रम ने पहले शूट किया था ।



विक्रम ने देखा । कान कटा होने के साथ-साथ तमाम हुलियां भी उस पर पूरी तरह फिट बैठ रहा था ।



"और मनोज कक्कड़ कहां है ?" उसने पूछा ।



मनमोहन ने पलकें झपकाई-"कौन ?"



"तुम्हारा बापू करीम खान ।" विक्रम गुर्राकर बोला ।



"व...वह गया हुआ है ।"



विक्रम ने उसे घूरा । वह झूठ बोलता नजर नहीं आ रहा था ।



विक्रम उसके एकदम पास जाकर बोला-"नीचे फर्श पर देखो ।"



उसने गर्दन नीचे झुका ली ।



विक्रम ने उसकी खोपड़ी पर रिवॉल्वर की नाल का तगड़ा प्रहार कर दिया ।



मनमोहन औंधे मुंह फर्श पर लुढ़ककर फैल गया ।



"अब तुम सुनाओ, कैसी हो ?"



किरण वर्मा ने अपने सूखे होंठों पर जुबान फिराई ।



"जैसी भी हूं तुम्हारे सामने हूं ।"



"इन लोगों ने तुम्हें यातनायें तो नहीं दी थी ?"



"नहीं । ये इंतजार कर रहे लगते थे ।"



"किसका ?"



"यह मैं नहीं जानती ।"



"यहां इनके अलावा और लोग भी हैं ?"



"पता नहीं ।"



"खैर छोड़ो । यह बताओ, पैदल चल सकती हो ?"



"पता नहीं ।"



"कोशिश तो कर ही सकती हो ?"



"जरूर ।"



"अगर तुम्हें लगे कि नहीं चल पाओगी तो साफ-साफ बता देना । मैं तुम्हें उठाकर ले चलूंगा ।"



"ऐसी नौबत नहीं आएगी ।" किरण वर्मा ने कहा-"लेकिन जाना कहां चाहते हो ?"



"यहां से बाहर । यह सिलसिला अभी खत्म नहीं हुआ है ।"



"क्या मतलब ?"



"तुमने जो कैपसूल मुझे दिया था वो गलती से कोई और मुझसे ले उड़ा । मैंने वो वापस हासिल करना है । और जब तक वो वापस नहीं मिल जाता तुम्हें मेरे पास रहना होगा ।"



"यह तो ठीक है । मगर वो कैपसूल कहां और किसके पास है ?"



"इन दोनों सवालों के जवाब मैं जानता हूं । तुम फिक्र मत करो ।"



"मगर तुम तो जानते हो, उस कैपसूल को और लोग भी पाना चाहते हैं ?"



"हां, अब मैं बहुत कुछ जान गया हूं ।" विक्रम ने कहा-"लेकिन इस वक्त इन बातों से कोई फायदा नहीं । एक-एक पल कीमती है । यहां से जल्दी-से-जल्दी निकल चलने में ही भलाई है ।"



किरण वर्मा ने प्रतिवाद नहीं किया ।


विक्रम ने उसे सहारा देकर धीरे-धीरे उठाया । वह पलंग के नीचे टांगें लटकाकर बैठ गई । इस मामूली परिश्रम से उसकी सांसें उखड़ने लगी थीं । पल भर के लिए चेहरे पर पीड़ा भरे भाव उत्पन्न हुए और फिर लुप्त हो गए । ऐसा लगा मानों उसे अन्दर से उभरती कराह को बलपूर्वक रोकना पड़ा था ।



नीचे बेहोश पड़े मनमोहन की पिस्तौल भी, किसी आड़े वक्त पर इस्तेमाल के लिए उसे सौंप दी । उन तीनों में से एक के जूते और जुराबें उतारकर भी उसे पहना दीं । जूते हालांकि ढीले थे मगर उनसे काम चलाया जा सकता था । विक्रम जानता था, मनमोहन ने जल्दी होश नहीं आना था । फिर भी रिस्क लेना ठीक नहीं था । उसने दोनों मृत पड़े आदमियों की रिवॉल्वरों पर भी कब्जा किया फिर किरण वर्मा को सहारा दिए धीरे-धीरे लेकर कमरे से बाहर आ गया ।



उसने गलियारे में पड़ी टॉर्च उठाई और उसकी मदद से किरण वर्मा सहित गलियारे में गुजरकर सीढ़ियां उतरने लगा ।



वे जैसे-तैसे नीचे पहुंचे ।



टॉर्च की रोशनी में विक्रम ने देखा । सीढ़ियों के सामने सचमुच एक केबिन बना था । उसके अधखुले दरवाजे पर । लिखा था-ऑफिस ।



विक्रम ने सावधानीवश अन्दर झांका ।



आशानुसार ऑफिस खाली पड़ा था ।



वे दोनों भीतर दाखिल हो गए ।



किरण वर्मा एक कुर्सी में पसरकर अपनी सांसों को व्यवस्थित करने की कोशिश करने लगी ।



विक्रम डेस्क पर मौजूद टेलीफ़ोन उपकरण के पास पहुंचा । उसने रिसीवर उठाकर सान्याल के निवास स्थान का नम्बर डायल किया-"हैलो, सान्याल ?"



"यस ।" दूसरी ओर से सान्याल का स्वर सुनाई दिया-"हू इज कॉलिंग ?"



"विक्रम ।"



"ओह, कहां से बोल रहे हो ?" |



"साप्ताहिक समाचार-पत्र 'अमन' के ऑफिस से ।" विक्रम ने कहा फिर लोकेशन समझाने के बाद बोला-"जितना जल्दी हो सके यहां पहुंच जाओ ।"



"किसलिए ?"



"तुम्हारे तीन चाहने वाले यहां मौजूद हैं । उनमें से दो भगवान को प्यारे हो चुके हैं और एक फिलहाल फर्श पर पड़ा आराम फरमा रहा है ।'



और इस सबके लिए तुम जिम्मेदार हो ?"



"हां, सिर्फ मैं ।" विक्रम जवाब देकर बोला-"मेरे पास तुम्हारे लिए भी एक ऐसी खास खबर है जिसे सुनने के लिए तुम मरे जा रहे हो ।"



"क्या ?"



"तुम्हारी किरण वर्मा का पता लग गया है ।"



"अच्छा । कहां है वह ?"



"मेरे साथ । और फिलहाल मेरे साथ ही रहेगी ।"



"क्या मतलब ?"



"मैं उसे अपने साथ ले जा रहा हूं ।"



"किसलिए ?"



"इसलिए कि इस बखेड़े को मैंने अपने ढंग से निपटाना है और उसके लिए किरण वर्मा का मेरे साथ रहना जरूरी है ।"



लेकिन वह बीमार है । उसकी देखभाल और हिफाजत...।"



"वो सब मेरी सिरदर्दी है । तुम फिक्र मत करो ।"



"क्या मैं किरण से बातें कर सकता हूँ ?"



"नो सॉरी ।"



विक्रम ने फोन डिसकनेक्ट कर दिया ।



उसने अपनी जेब से एक छोटी-सी डायरी निकाली जिसमें विभिन्न व्यक्तियों के टेलीफोन नम्बर दर्ज थे ।



उसने डायरी देखने के बाद एक नम्बर डायल किया ।



चन्द सैकेंड दूसरी ओर घण्टी बजती रही फिर एक पुरुष स्वर लाइन पर उभरा-"हैलो ?"



"गोपाल दास ?" विक्रम ने पूछा ।



"बोल रहा हूं । आप कौन साहब हैं ?"



"विक्रम-मुझे तुम्हारी कार चाहिए ।"



"तो फिर आकर ले जाओ ।"



"मैं नहीं आ सकता । तुम्हें ही आना पड़ेगा ।"



लाइन पर कुछ देर खामोशी रही फिर गहरी सांस लेने के बाद पूछा गया-"कहां ?"



"अपने घर से मुश्किल से मील भर दूर ।" विक्रम ने जवाब दिया फिर लोकेशन समझाने के बाद पूछा, "कितनी देर में पहुंचोगे ?"



"पांच-सात मिनट में ।"



"शुक्रिया ।" विक्रम ने सम्बन्ध-विच्छेद कर दिया ।



वह जानता था, सान्याल पन्द्रह मिनट से पहले वहां नहीं पहुंचेगा । और तब तक वह और किरण वर्मा वहां से जा चुके होंगे ।



वह किरण वर्मा सहित ऑफिस से निकला और इमारत के पिछले दरवाजे से, जिससे वह भीतर दाखिल हुआ था, बाहर आ गया ।



बारिश और हवा के वेग में काफी कमी आ गई थी । विक्रम ने बायीं बांह किरण वर्मा की पीठ में डालकर उसे सहारा दिया हुआ था और दायां हाथ अपने कोट की जेब में पड़े रिवॉल्वर पर कस रखा था । किरण वर्मा की भी दायीं बांह विक्रम की पीठ पर लिपटी हुई थी और उसका बायां हाथ रेनकोट की जेब में था । उसकी उंगलियां वहां मौजूद पिस्तौल के दस्ते पर कसी हुई थीं ।



दोनों सतर्कतापूर्वक चलते हुए मेन गेट पर पहुंचे । उसे धीरे-से खोलकर बाहर निकले । और गेट को पुनः बंद करके वे उस तरफ बढ़ गए जहां पहुंचने के लिए विक्रम ने फोन पर गोपालदास से कहा था ।



उस स्थान पर पहुंचने तक किरण वर्मा की हालत खस्ता हो गई थी । गनीमत थी कि मुश्किल से डेढ़ मिनट बाद ही गोपालदास कार लेकर आ पहुंचा ।



करीब चालीस वर्षीय गोपालदास विक्रम के भरोसेमन्द दोस्तों में से एक था । वह जानता था कि विक्रम अडंगे वाले काम करता रहता था । लेकिन विक्रम से भलीभांति परिचित होने की वजह से यह भी जानता था कि विक्रम अपने जाती फायदे के लिए कुछ नहीं करता था और यह भी कि अपने दोस्तों को वह तभी कष्ट देता था जब वैसा करने के अलावा और कोई चारा उसके सामने नहीं होता था ।



इसीलिए, जब विक्रम और किरण वर्मा उसकी कार की पिछली सीट पर सवार हो गए तो उसने सिर्फ इतना पूछा कि कहां जाना था ।



"होटल विश्राम ।" विक्रम ने जवाब दिया ।